0 comments
परिचय

जन्म : 15 अप्रैल 1865 निजामाबाद, आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी

विधाएँ : कविता, उपन्यास, नाटक, आलोचना, आत्मकथा

मुख्य कृतियाँ

कविता : प्रियप्रवास, वैदेही वनवास, काव्योपवन, रसकलश, बोलचाल, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, पारिजात, कल्पलता, मर्मस्पर्श, पवित्र पर्व, दिव्य दोहावली, हरिऔध सतसई

उपन्यास : ठेठ हिंदी का ठाट, अधखिला फूल

नाटक : रुक्मिणी परिणय

ललित निबंध : संदर्भ सर्वस्व

आत्मकथात्मक : इतिवृत्त

नाटक

  • श्रीप्रद्युम्नविजय व्यायोग
  • श्रीरुक्मिणीरमणो विजयते

पत्र

  • पगली का पत्र

आत्मकथा

  • इतिवृत्त

बाल साहित्य

  • चंदा मामा

आलोचना : हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, विभूतिमती ब्रजभाषा

संपादन : कबीर वचनावली

सम्मान

हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति (1922), हिंदी साहित्य सम्मेलन के चौबीसवें अधिवेशन (दिल्ली, 1934) के सभापति, 12 सितंबर 1937 ई. को नागरी प्रचारिणी सभा, आरा की ओर से राजेंद्र प्रसाद द्वारा अभिनंदन ग्रंथ भेंट (12 सितंबर 1937), ‘प्रियप्रवास’ पर मंगला प्रसाद पुरस्कार (1938)

निधन :  16 मार्च , 1947

हरिऔध जी का जन्म उत्तर प्रदेश आजमगढ़ जिले के निजामाबाद में हुआ। उनके पिता पंडित भोलानाथ ने सिख धर्म अपना कर अपना नाम भोला सिंह रख लिया था, वे सनाढ्य ब्राह्मण थे ।
हरिऔध जी निजामाबाद से मिडिल परीक्षा पास करने के पश्चात काशी के क्वीन्स कॉलेज में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए गए, किंतु स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा। उन्होंने घर पर ही रह कर संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया , १८८४ में निजामाबाद के ही मिडिल स्कूल में अध्यापक हो गए । इनका विवाह आनंद कुमारी के साथ हुआ ।
सन १८८९ में हरिऔध जी को सरकारी नौकरी मिल गई। वे कानूनगो हो गए । सन १९३२ में अवकाश ग्रहण करने के बाद हरिऔध जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक शिक्षक के रूप से कई वर्षों तक कार्य किया । सन १९४१ तक वे इसी पद पर कार्य करते रहे । उसके बाद यह निजामाबाद वापस चले आए और अपने गाँव में रह कर ही साहित्य-सेवा कार्य करते रहे । अपनी साहित्य-सेवा के कारण हरिऔध जी ने काफी ख़्याति अर्जित की। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें एक बार सम्मेलन का सभापति बनाया और विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित भी किया । सन १९४५ ई० में निजामाबाद में आपका देहावसान हो गया ।
श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के शब्दों में ”हरिऔध जी” का महत्व और अधिक स्पष्ट हो जाता है- ‘इनकी यह एक सबसे बड़ी विशेषता है कि ये हिंदी के सार्वभौम कवि हैं। खड़ी बोली, उर्दू के मुहावरे, ब्रजभाषा, कठिन-सरल सब प्रकार की कविता की रचना कर सकते हैं ।
हिन्दी खड़ी बोली का पहला खंडकाव्य लिखने का श्रेय हरिऔध जी को” प्रिय प्रवास” के रूप में जाता है. यह महाकाव्य श्रीकृष्ण के ऊपर है, इस काव्य की एक और विशेषता यह है कि इसके नायक श्रीकृष्ण शुद्ध मानव रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। वे लोक संरक्षण तथा विश्वकल्याण की भावना से परिपूर्ण मनुष्य अधिक हैं और अवतार अथवा ईश्वर सिर्फ नाम मात्र के.  साहित्य गंगा में उनकी कुछ प्रसिद्ध कवितायेँ,कुछ बाल कवितायेँ –

कवितायेँ
         
                 एक बूँद

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

देव!! मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।

        फूल और काँटा
हैं जन्म लेते जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता
रात में उन पर चमकता चाँद भी,
एक ही सी चाँदनी है डालता।मेह उन पर है बरसता एक सा,
एक सी उन पर हवाएँ हैं बही
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक से होते नहीं।छेदकर काँटा किसी की उंगलियाँ,
फाड़ देता है किसी का वर वसन
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भँवर का है भेद देता श्याम तन।फूल लेकर तितलियों को गोद में
भँवर को अपना अनूठा रस पिला,
निज सुगन्धों और निराले ढंग से
है सदा देता कली का जी खिला।

है खटकता एक सबकी आँख में
दूसरा है सोहता सुर शीश पर,
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर।

              सरिता

किसे खोजने निकल पड़ी हो।
जाती हो तुम कहाँ चली।
ढली रंगतों में हो किसकी।
तुम्हें छल गया कौन छली।।

क्यों दिन–रात अधीर बनी–सी।
पड़ी धरा पर रहती हो।
दु:सह आतप शीत–वात सब
दिनों किस लिये सहती हो।।

कभी फैलने लगती हो क्यों।
कृश तन कभी दिखाती हो।
अंग–भंग कर–कर क्यों आपे
से बाहर हो जाती हो।।

कौन भीतरी पीड़ाएँ।
लहरें बन ऊपर आती हैं।
क्यों टकराती ही फिरती हैं।
क्यों काँपती दिखाती है।।

बहुत दूर जाना है तुमको
पड़े राह में रोड़े हैं।
हैं सामने खाइयाँ गहरी।
नहीं बखेड़े थोड़े हैं।।

पर तुमको अपनी ही धुन है।
नहीं किसी की सुनती हो।
काँटों में भी सदा फूल तुम।
अपने मन के चुनती हो।।

उषा का अवलोक वदन।
किस लिये लाल हो जाती हो।
क्यों टुकड़े–टुकड़े दिनकर की।
किरणों को कर पाती हो।।

क्यों प्रभात की प्रभा देखकर।
उर में उठती है ज्वाला।
क्यों समीर के लगे तुम्हारे
तन पर पड़ता है छाला।।

 

           

            आँसू

 

 

बाढ़ में जो बहे न बढ़ बोले।
किसलिए तो बहुत बढ़े आँसू।
जो कलेजा न काढ़ पाया तो।
किसलिए आँख से कढ़े आँसू।।

अड़ अगर बार बार अड़ती है।
तो रहे क्यों नहीं अडे आँसू।
जो निकाले न जी कसर निकली।
आँख से क्यों निकल पड़े आँसू।।

फेर में डालते हमें जो थे।
तो फिराये न क्यों फिरे आँसू।
जो किसी आँख से गये गिर तो।
किसलिए आँख से गिरे आँसू।।

जान जिन में है जान वाले वे।
हैं गिराते न जी गये आँसू।
प्यास थी आबरू बचाने की।
फिर अजब क्या कि पी गये आँसू।।

हैं उन्हें देख आग लग जाती।
कब जलाते नहीं रहे आँसू।
टूटता बेतरह कलेजा है।
फूटती आँख है बहे आँसू।।

जो सकें सींच सींच तो देवें।
किसलिए प्यार जड़ खनें आँसू।
जी जलों का न जी जलाएँ वे।
हैं अगर जल तो जल बनें आँसू।।

हैं छलकते उमड़ उमड़ आते।
देख नीचा नहीं डरे आँसू।
आँख कैसे नहीं तरह देती।
बेतरह आज हैं भरे आँसू।।

चाल वाले न कब चले चालें।
चोचलों साथ चल पड़े आँसू।
मनचलापन दिखा दिखा अपना।
मनचलों से मचल पड़े आँसू।।

खर खलों के मिले जलन से जल।
आग जैसे न क्यों बले आँसू।
जो कि हैं जी जला रहे उनको।
क्यों जलाते नहीं जले आँसू।।

जो उन्हें था बखेरना काँटा।
किसलिए तो बिखर पड़े आँसू।
क्यों किसी आँख से निकल कर के।
क्यों किसी आँख में गड़े आँसू।।

 

 

                  भाषा 

 

 जातियाँ जिससे बनीं, ऊँची हुई, फूली फलीं।

अंक में जिसके बड़े ही गौरवों से हैं पलीं।
रत्न हो करके रहीं जो रंग में उसके ढलीं।
राज भूलीं, पर न सेवा से कभी जिसकी टलीं।
ऐ हमारे बन्धुओ! जातीय भाषा है वही।
है सुधा की धार बहु मरु-भूमि में जिससे बही।।

जो हुए निर्जीव हैं, उनको जिला देती है वह।
गंग-धारा कर्मनाशा में मिला देती है वह।
स्वच्छ पानी प्यास वाले को पिला देती है वह।
जो कली कुम्हला गयी उसको खिला देती है वह।
नीम में है दाख के गुच्छे वही देती लगा।
ऊसरों में है रसालों को वही देती उगा।।

आन में जिनकी दिखाती देश-ममता है निरी।
जो सपूतों की न उँगली देख सकते हैं चिरी।
रह नहीं सकतीं सफलताएँ कभी जिनसे फिरी।
वह नई पौधें उठी हैं जातियाँ जिनसे गिरी।
थीं इसी जातीय भाषा के हिंडोले में पली।
फूँक से जिनकी घटाएँ आपदाओं की टलीं।।

है कलह औ फूट का जिसमें फहरता फरहरा।
दंभ-उल्लू-नाद जिसमें है बहुत देता डरा।
मोह, आलस, मूढ़ता, जिसमें जमाती है परा।
वह अंधेरा देश का बहु आपदाओं से भरा।
दूर करता है इसी जातीय भाषा का बदन।
भानु का सा है चमकता भाल का जिसके रतन।।

सूझती जिनको नहीं अपनी भलाई की गली।
पड़ गयी है चित् में जिनके बड़ी ही खलबली।
है अनाशा रंग में जिनकी सभी आशा ढली।
जिन समाजों की जड़ें भी हो गयी हैं खोखली।
ढंग से जातीय भाषा ही उन्हें आगे बढ़ा।
है समुन्नति के शिखर पर सर्वदा देती चढ़ा।।

उस स्वकीय जाति-भाषा सर्वथा सुख-दानि की।
स्वच्छ सरला सुन्दरी आधार-भूता आनि की।
मा समा उपकारिका, प्रतिपालिका कुल-कानि की।
उस निराली नागरी अति आगरी गुण खानि की।
आपमें कितनी है ममता, दीजिए मुझ को बता।
आज भी क्या प्यार उससे आप सकते हैं जता ?।।

खोलकर आँखें निरखिए बंग-भाषी की छटा।
मरहठी की देखिए, कैसी बनी ऊँची अटा।
क्या लसी साहित्य-नभ में गुर्जरी की है घटा।
आह! उर्दू का है कैसा चौतरा ऊँचा पटा।
किन्तु हिन्दी के लिए ए बार अब भी दूर हैं।
आज भी इसके लिए उपजे न सच्चे शूर हैं।।

फिर कहें क्या आप उससे प्यार सकते हैं जता।
फिर कहें क्यों आपमें है उसकी ममता का पता।
फिर कहें क्यों है लुभाती नागरी हित-तरुलता।
किन्तु प्यारे बन्धुओ! देता हूँ, मैं सच्ची बता।
दृष्टि उससे दैव की चिरकाल रहती है फिरी।
जिस अभागी जाति की जातीय भाषा है गिरी।।

क्यों चमकते मिलते हैं बंगाल में मानव-रतन।
किस लिए हैं बम्बई में देवतों से दिव्य जन।
क्यों मुसलमानों की है जातीयता इतनी गहन।
क्यों जहाँ जाते हैं वे पाते हैं आदर, मान धान।
और कोई हेतु इसका है नहीं ऐ बन्धु-गान।
ठीक है, जातीय-भाषा से हुई उनकी गठन।।

आँख उठाकर देखिए इस प्रान्त की बिगड़ी दशा।
है जहाँ पर यूथ हिन्दी-भाषियों का ही बसा।
आज भी जो है बड़ों के कीर्ति-चिन्हों से लसा।
सूर, तुलसी के जनम से पूत है जिसकी रसा।
सिध्द, विद्या-पीठ, गौरव-खानि, विबुधों से भरी।
आज भी है अंक में जिसके लसी काशीपुरी।।

अल्प भी जो है खिंचा जातीय भाषा ओर चित।
तो दशा को देखकर के आप होवेंगे व्यथित।
नागरी-अनुरागियों की न्यूनता अवलोक नित।
चित ऊबेगा, दृगों से बारि भी होगा पतित।
आह! जाती हैं नहीं इस प्रान्त की बातें कही।
नित्य हिन्दी को दबा उर्दू सबल है हो रही।।

यह कथन सुन कह उठेंगे आप तुम कहते हो क्या।
पर कहूँगा मैं कि मैंने जो कहा वह सच कहा।
जाँच इसकी जो करेंगे आप गाँवों-बीच जा।
तो दिखायेगा वहाँ पर आपको ऐसा समा।
हिन्दुओं के लाल प्रतिदिन हाथ सुबिधा का गहे।
मूल अपनापन को उर्दू ओर ही हैं जा रहे।।

जो उठाकर हाथ में दस साल पहले का गजट।
देख लेंगे और तो होगी अधिक जी की कचट।
मिड्ल हिन्दी पास का था जो लगा उस काल ठट।
वह गया है एक चौथे से अधिक इस काल घट।
बढ़ रही है नित्य यों उर्दू छबीली की कला।
घोंटते हैं हाथ अपने हाय! हम अपना गला।।

बन-फलों को प्यार से खा छालके कपड़े पहन।
राज भोगों पर नहीं जो डालते थे निज नयन।
फूल सा बिकसा हुआ लख जाति-भाषा का बदन।
जो सदा थे वारते सानंद अपना प्राण, धान।
उन द्विजों की हाय! कुछ संतान ने भी कह बजा।
नागरी को पूच उर्दू पेच में पड़ कर तजा।।

हिन्द, हिन्दू और हिन्दी-कष्ट से होके अथिर।
खौल उठता था अहो जिनके शरीरों का रुधिर।
जो हथेली पर लिये फिरते थे उनके हेतु शिर।
थे उन्हीं के वास्ते जो राज तज देते रुचिर।
बहु कुँवर उन क्षत्रियों के तुच्छ भोगों से डिगे।
नागरी को छोड़ उर्दू रंगतों में ही रँगे।।

हो जहाँ पर शिर-धारों का आज दिन यों शिर फिरा।
फिर वहाँ पर क्यों फड़क सकती है औरों की शिरा।
किन्तु क्यों है नागरी के पास इतना तम घिरा।
आँख से कुछ हिन्दुओं के क्यों है उसका पद गिरा।
आप सोचेंगे अगर इसको तनिक भी जी लगा।
तो समझ जाएँगे है अज्ञानता ने की दगा।।

आज दिन भी गाँव गाँवों में अँधेरा है भरा।
है वहाँ नहिं आज दिन भी ज्ञान का दीपक बरा।
आज दिन भी मूढ़ता का है जमा वाँ पर परा।
जाति-हित के रंग से कोरी वहाँ की है धारा।
हाथ का पारस भला वह फेंक देगा क्यों नहीं।
आह! उसके दिव्य गुण को जानता है जो नहीं।।

है नगर के वासियों में ज्ञान का अंकुर उगा।
जाति-हित में किन्तु वैसा जी नहीं अब भी लगा।
फूँक से वह आपदा है सैकड़ों देता भगा।
जाति-भाषा रंग में नर-रत्न जो सच्चा रँगा।
उस बदन की ज्योति देती है तिमिर सारा नसा।
जाति के अनुराग का न्यारा तिलक जिस पर लसा।।

नागरी के नेह से हम लोग आये हैं यहाँ।
किन्तु सच्चा त्याग हम में आज दिन भी है कहाँ।
जाति-सेवा के लिए हैं जन्मते त्यागी जहाँ।
आपदाएँ ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलतीं वहाँ।
जाति-भाषा के लिए किस सिध्द की धूनी जगी।
वे कहाँ हैं जिनके जी को चोट है सच्ची लगी।।

निज धरम के रंग में डूबे, तजे निज बंधु-जन।
हैं यहाँ आते चले यूरोप के सच्चे रतन।
किसलिए? इस हेतु, जिस में वे करें तम का निधान।
दीन दुखियों का हरें, दुख औ उन्हें देवें सरन।
देखिए उनको यहाँ आ करके क्या करते हैं वे।
एक हम हैं आँख से जिसकी न आँसू भी वे।।

जो अंधेरे में पड़ा है ज्योति में लाना उसे।
जो भटकता फिर रहा है, पंथ दिखलाना उसे।
फँस गया जो रोग में है, पथ्य बतलाना उसे।
सीखता ही जो नहीं, कर प्यार सिखलाना उसे।
काम है उनका, जिन्हें पा पूत होती है मही।
इस विषम संसार-पादप के सुधा फल हैं वही।।

आज का दिन है बड़ा ही दिव्य हित-रत्नों जड़ा।
जो यहाँ इतने स्वभाषा-प्रेमियों का पग पड़ा।
किन्तु होवेगा दिवस वह और भी सुन्दर बड़ा।
लाल कोई बीर लौं जिस दिन कि होवेगा खड़ा।
दूर करने के लिए निज नागरी की कालिमा।
औ लसाने के जिए उन्नति-गगन में लालिमा।।

राज महलों से गिनेगा झोंपड़ी को वह न कम।
वह फिरेगा उन थलों में है जहाँ पर घोर तम।
जो समझते यह नहीं, है काल क्या? हैं कौन हम ?
वह बता देगा उन्हें जातीय-उन्नति के नियम।
वह बना देगा बिगड़ती आँख को अंजन लगा।
जाति-भाषा के लिए वह जाति को देगा जगा।।

वह नहीं कपड़ा रँगेगा किन्तु उर होगा रँगा।
घर न छोड़ेगा, रहेगा पर नहीं उसमें पगा।
काम में निज वह परम अनुराग से होगा लगा।
प्यार होगा सब किसी से और होगा सब सगा।
बात में होगी सुधा उसका रहेगा पूत मन।
जाति-भाषा-तेज से होगा दमकता बर बदन।।

दूर होवेगा उसी से गाँव गाँवों का तिमिर।
खुल पड़ेगी हिन्दुओं की बंद होती आँख फिर।
तम-भरे उर में जगेगी ज्योति भी अति ही रुचिर।
वह सुनेगी बात सब, जो जाति है कब की बधिर।
दूर होगी नागरी के शीश की सारी बला।
चौगुनी चमकेगी उसकी चारुता-मंडित कला।।

दैनिकों के वास्ते हैं आज दिन लाले पड़े।
सैकड़ों दैनिक लिये तब लोग होवेंगे खड़े।
केतु होंगे आगरी की कीर्ति के सुन्दर बड़े।
जगमगाएँगे विभूषण अंग में रत्नों जड़े।
देश-भाषा-रूप से वह जायगी उस दिन बरी।
सब सगी बहनें बनाएँगी उसे निज सिर-धारी।।

मैं नहीं सकटेरियन हूँ औ नहीं हूँ बावला।
बात गढ़कर मैं किसी को चाहती हूँ कब छला।
मैं न हूँ उरदू-विरोधी, मैं न हूँ उससे जला।
कौन हिन्दू चाहता है घोंटना उसका गला।
निज पड़ोसी का बुरा कर कौन है फूला फला।
हैं इसी से चाहते हम आज भी उसका भला।।

किन्तु रह सकता नहीं यह बात बतलाये बिना।
ज्यों न जीएगा कभी जापान जापानी बिना।
ज्यों न जीएगा मुसल्माँ पारसी, अरबी बिना।
जी सकोगे हिन्दुओ, त्योंही न तुम हिन्दी बिना।
देखकर उरदू-कुतुब यह दीजिए मुझको बता।
आपकी जातीयता का है कहीं उसमें पता?।।

क्या गुलाबों पर करेंगे आप कमलों को निसार।
क्या करेंगे कोकिलों को छोड़कर बुलबुल को प्यार।
क्या रसालों को सरो शमशाद पर देवेंगे वार।
क्या लखेंगे हिन्द में ईरान का मौसिम बहार।
क्या हिरासे और दजला आदि से होगी तरी।
तज हिमालय सा सुगिरिवर पूत-सलिला सुरसरी।।

भीम, अर्जुन की जगह पर गेव रुस्तम को बिठा।
सभ्य लोगों में नहीं दृग आप सकते हैं उठा।
साथ कैकाऊस-दारा-प्रेम की गाँठें गठा।
क्या भला होगा, रसातल भोज, विक्रम को पटा।
कर्ण की ऊँची जगह जो हाथ हातिम के चढ़ी।
तो समझिए, ढह पड़ेगी आप की गौरव-गढ़ी।।

क्या हसन की मसनवी से आप होकर मुग्धा मन।
फेंक देंगे हाथ से वह दिव्य रामायन रतन।
क्या हटाकर सूर-तुलसी-मुख-सरोरुह से नयन।
आप अवलोकन करेंगे मीर गशलिब का बदन।
क्या सुधा को छोड़कर जो है मयंक-मुखों-सवी।
आप सहबा पान करके हो सकेंगे गौरवी।।

जो नहीं, तो देखिए जातीय भाषा का बदन।
पोंछिए, उस पर लगे हैं जो बहुत से धूलिकन।
जी लगाकर कीजिए उसकी भलाई का जतन।
पूजिए उसका चरण उस पर चढ़ा न्यारे रतन।
जगमगा जाएगी उसकी ज्योति से भारत-धारा।
आपका उद्यान-यश होगा फला फूला हरा।।

भाग्य से ही राज उस सरकार का है आज दिन।
जो उचित आशा किसी की है नहीं करती मलिन।
शान्त की जिसने यहाँ आकर अराजकता अगिन।
उँगलियों पर जिसके सब उपकार हैं सकते न गिन।
जो न ऐसा राज पाकर आप सोते से जगे।
तो कहें क्यों जाति-भाषा रंगतों में हैं रँगे।।

हे प्रभो! हिन्दू-हृदय में ज्ञान का अंकुर उगे।
हिन्द में बनकर रहें, सब काल वे सबके सगे।
दूसरों को हानि पहुँचाये बिना औ बिन ठगे।
दूर हों सब विघ्न, बाधा, भाग हिन्दी का जगे।
जाति भाषा के लिए जो राज-सुख को रज गिने।
बुध्द-शंकर-भूमि कोई लाल फिर ऐसा जने।।

                       
                  कर्मवीर
देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं
रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले ।आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिए
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए ।व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कँपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।

           
         कोयल

काली-काली कू-कू करती,
जो है डाली-डाली फिरती!
कुछ अपनी हीं धुन में ऐंठी
छिपी हरे पत्तों में बैठी
जो पंचम सुर में गाती है
वह हीं कोयल कहलाती है.
जब जाड़ा कम हो जाता है
सूरज थोड़ा गरमाता है
तब होता है समा निराला
जी को बहुत लुभाने वाला
हरे पेड़ सब हो जाते हैं
नये नये पत्ते पाते हैं
कितने हीं फल औ फलियों से
नई नई कोपल कलियों से
भली भांति वे लद जाते हैं
बड़े मनोहर दिखलाते हैं
रंग रंग के प्यारे प्यारे
फूल फूल जाते हैं सारे
बसी हवा बहने लगती है
दिशा सब महकने लगती है
तब यह मतवाली होकर
कूक कूक डाली डाली पर
अजब समा दिखला देती है
सबका मन अपना लेती है
लडके जब अपना मुँह खोलो
तुम भी मीठी बोली बोलो
इससे कितने सुख पाओगे
सबके प्यारे बन जाओगे.

        बादल

खी,
बादल थे नभ में छाये
बदला था रंग समय का
थी प्रकृति भरी करुणा में
कर उपचय मेघ निश्चय का।।

वे विविध रूप धारण कर
नभ तल में घूम रहे थे
गिरि के ऊँचे शिखरों को
गौरव से चूम रहे थे।।

वे कभी स्वयं नग सम बन
थे अद्भुत दृश्य दिखाते
कर कभी दुंदुभी वादन
चपला को रहे नचाते।।

वे पहन कभी नीलांबर
थे बड़े मुग्ध कर बनते
मुक्तावलि बलित अघट में
अनुपम वितान थे तनते।।

बहुश: खंडों में बँटकर
चलते फिरते दिखलाते
वे कभी नभ पयोनिधि के
थे विपुल पोत बन पाते।।

वे रंग बिरंगे रवि की
किरणों से थे बन जाते
वे कभी प्रकृति को विलसित
नीली साड़ियाँ पिन्हाते।।

वे पवन तुरंगम पर चढ़
थे दूनी दौड़ लगाते
वे कभी धूप छाया के
थे छविमय दृश्य दिखाते।।

घन कभी घेर दिन मणि को
थे इतनी घनता पाते
जो द्युति विहीन कर, दिन को
थे अमा समान बनाते।।

संध्या   (प्रिय प्रवास से)
दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला
तरु शिखा पर थी अब राजती
कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभाविपिन बीच विहंगम वृंद का
कल निनाद विवर्धित था हुआ
ध्वनिमयी विविधा विहगावली
उड़ रही नभ मंडल मध्य थीअधिक और हुई नभ लालिमा
दश दिशा अनुरंजित हो गयी
सकल पादप पुंज हरीतिमा
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुईझलकते पुलिनो पर भी लगी
गगन के तल की वह लालिमा
सरित और सर के जल में पड़ी
अरुणता अति ही रमणीय थी।।

अचल के शिखरों पर जा चढ़ी
किरण पादप शीश विहारिणी
तरणि बिंब तिरोहित हो चला
गगन मंडल मध्य शनै: शनै:।।

ध्वनिमयी करके गिरि कंदरा
कलित कानन केलि निकुंज को
मुरलि एक बजी इस काल ही
तरणिजा तट राजित कुंज में।।

जन्मभूमि    [दोहे]

सुरसरि सी सरि है कहाँ मेरू सुमेर समान।
जन्मभूमि सी भू नहीं भूमंडल में आन।।

प्रतिदिन पूजें भाव से चढ़ा भक्ति के फूल।
नहीं जन्म भर हम सके जन्मभूमि को भूल।।

पग सेवा है जननि की जनजीवन का सार।
मिले राजपद भी रहे जन्मभूमि रज प्यार।।

आजीवन उसको गिनें सकल अवनि सिंह मौर।
जन्मभूमि जलजात के बने रहे जन भौंर।।

कौन नहीं है पूजता कर गौरव गुण गान।
जननी जननी जनक की जन्मभूमि को जान।।

उपजाती है फूल फल जन्मभूमि की खेह।
सुख संचन रत छवि सदन ये कंचन सी देह।।

उसके हित में ही लगे हैं जिससे वह जात।
जन्म सफल हो वार कर जन्मभूमि पर गात।।

योगी बन उसके लिये हम साधे सब योग।
सब भोगों से हैं भले जन्मभूमि के भोग।।

फलद कल्पतरू तुल्य हंै सारे विटप बबूल।
हरि पद रज सी पूत है जन्म धरा की धूल।।

जन्मभूमि में हैं सकल सुख सुषमा समवेत।
अनुपम रत्न समेत हैं मानव रत्न निकेत।।

कुछ बाल कविताएँ
जागो प्यारे

ठो लाल, अब आँखें खोलो,
पानी लाई हूँ, मुँह धो लो।
बीती रात, कमल-दल फूले,
उनके ऊपर भौंरे झूले।
चिड़ियाँ चहक उठीं पेड़ों पर,
बहने लगी हवा अति सुंदर।
नभ में न्यारी लाली छाई,
धरती ने प्यारी छवि पाई।
भोर हुआ, सूरज उग आया,
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
ऐसा सुंदर समय न खोओ,
मेरे प्यारे अब मत सोओ।

चंदा मामा

चंदा मामा दौड़े आओ,
दूध कटोरा भर कर लाओ।
उसे प्यार से मुझे पिलाओ,
मुझ पर छिड़क चाँदनी जाओ।

मैं तैरा मृग-छौना लूँगा,
उसके साथ हँसूँ खेलूँगा।
उसकी उछल-कूद देखूँगा,
उसको चाटूँगा-चूमूँगा।

 

एक तिनका

 

मैं घमण्डों में भरा ऐंठा हुआ ।
एक दिन जब था मुण्डेरे पर खड़ा ।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा ।।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा ।
लाल होकर आँख भी दुखने लगी ।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे ।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी ।।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया ।
तब ‘समझ’ ने यों मुझे ताने दिए ।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा ।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए ।।

बन्दर और मदारी

देखो लड़को, बंदर आया, एक मदारी उसको लाया।
उसका है कुछ ढंग निराला, कानों में पहने है बाला।
फटे-पुराने रंग-बिरंगे कपड़े हैं उसके बेढंगे।
मुँह डरावना आँखें छोटी, लंबी दुम थोड़ी-सी मोटी।
भौंह कभी है वह मटकाता, आँखों को है कभी नचाता।
ऐसा कभी किलकिलाता है, मानो अभी काट खाता है।
दाँतों को है कभी दिखाता, कूद-फाँद है कभी मचाता।
कभी घुड़कता है मुँह बा कर, सब लोगों को बहुत डराकर।
कभी छड़ी लेकर है चलता, है वह यों ही कभी मचलता।
है सलाम को हाथ उठाता, पेट लेटकर है दिखलाता।
ठुमक ठुमककर कभी नाचता, कभी कभी है टके जाँचता।
देखो बंदर सिखलाने से, कहने सुनने समझाने से-
बातें बहुत सीख जाता है, कई काम कर दिखलाता है।
बनो आदमी तुम पढ़-लिखकर, नहीं एक तुम भी हो बंदर।

 

About the Author

Related Posts

परिचय के लिए प्रतीक्षा करें। रचनाएँ विमर्श 1857, राष्ट्रवाद और नवजागरण : मिथक और यथार्थ का...

परिचय मूल नाम : अखबर हुसेन रिजवी जन्म : 16 नवंबर 1846, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) निधन : 9 सितंबर...

परिचय जन्म : 6 जून 1960, सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश) भाषा : हिंदी विधाएँ : कहानी, उपन्यास, संस्मरण,...