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परिचय

मूल नाम : कुबेरनाथ राय

जन्म : 26 मार्च, 1933

जन्म स्थान: मतसां,गाज़ीपुर, उत्तरप्रदेश

मृत्यु :5 जून, 1996

भाषा : हिंदी

विधाएं
: निबंध, कविता।

निबंध संग्रह : प्रिया नीलकंठी, गंधमादन, रस आखेटक, विषाद योग, निषाद बाँसुरी, पर्ण मुकुट, महाकवि की तर्जनी, कामधेनु, मराल, अगम की नाव, रामायण महातीर्थम, चिन्मय भारत : आर्ष चिंतन के बुनियादी सूत्र, किरात नदी में चंद्रमधु, दृष्टि अभिसार, वाणी का क्षीरसागर, उत्तरकुरु । कविता संग्रह : कंठमणि।

सम्मान व पुरस्कार
ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी पुरस्कार
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सम्मान 1971
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार 1987
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का ‘साहित्य भूषण’ 1995

 विशेष

कुबेरनाथ राय का जन्म २६ मार्च १९३३ को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के मतसाँ ग्राम में हुआ। उनके पिताजी का नाम स्व॰ बैकुण्ठ नारायण राय एवं माताजी का नाम स्व॰ लक्ष्मी राय था। उन्होंने मतसां, मलसां, क्विंस कालेज, वाराणसी, काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय, वाराणसी और कलकत्ता विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की।उनकी पत्नी का नाम महारानी देवी था। अपने सेवाकाल के आरम्भ में उन्होंने विक्रम विद्यालय कोलकाता में अध्यापन किया उसके बाद वे नलबारी, १९५९ में वे नलबारी कॉलेज, नलबारी, असम में अध्यापक नियुक्त हुए। यहाँ उन्होंने सत्ताइस- अट्ठाइस वर्ष तक सेवा दी। नौकरी के अन्तिम आठ- नौ वर्षों में असम की अशांति के कारण उन्हें गाजीपुर लौट आना पड़ा।  सहजानन्द महाविद्यालय, गाजीपुर, उत्तर प्रदेश में प्राचार्य रहे। कुबेरनाथ राय का पहला ललित निबन्ध हेमन्त की संध्या धर्मयुग के 15 मार्च 1964 के अंक में छपा। यह उनकी पहली कृति प्रिया नीलकंठी का पहला निबन्ध है। इसी निबन्ध-संग्रह में उनका एक निबन्ध संपाती के बेटे भी संग्रहीत है।हिन्दी के साहित्यिक परिदृश्य में कुबेरनाथ राय की पहचान एक ऐसे ललित निबन्धकार की है जिसकी चेतना का विकास परम्परा और आधुनिकता के समवाय से हुआ है। अपने निबन्धों में वे भारतीय आर्ष-चिन्तन एवं विश्व-चिन्तन की विभिन्न सरणियों को परस्पर समन्वित रूप में व्यक्त करते हैं। उस प्रक्रिया में वे विचारों और तथ्यों का यथातथ्य प्रस्तुतीकरण नहीं करते, प्रत्युत, विवेचन एवं विश्लेषण के साथ ही उसकी उपादेयता की भी परख करते हैं जिसके दो आधार हैं- वर्तमान के सन्दर्भ में प्रासंगिकता और भारतीय मनोरचना के साथ संगति। उनकी दृष्टि में अकेले-अकेले प्रासंगिकता की बात करना बेमानी है क्योंकि वे अपने साहित्य का उद्देश्य ‘हिन्दुस्तानी मन को विश्व-चित्त से जोड़ना’ और ‘पाठकों की चित्त-ऋद्धि का विस्तार’ कर उसे ‘भव्यता प्रदान करना’ मानते हैं और ऐसे में ‘हिन्दुस्तानी मन’ अर्थात् भारतीय मनोरचना का केन्द्रीय भूमिका में आ खड़ा होना स्वाभाविक ही है।कुबेरनाथ राय जी के कुछ निबंध

निबन्ध

उत्तराफाल्गुनी के आसपास

र्षा ऋतु की अंतिम नक्षत्र है उत्तराफाल्गुनी। हमारे जीवन में गदह-पचीसी सावन-मनभावन है, बड़ी मौज रहती है, परंतु सत्ताइसवें के आते-आते घनघोर भाद्रपद के अशनि-संकेत मिलने लगते हैं और तीसी के वर्षों में हम विद्युन्मय भाद्रपद के काम, क्रोध और मोह का तमिस्त्र सुख भोगते हैं। इसी काल में अपने-अपने स्वभाव के अनुसार हमारी सिसृक्षा कृतार्थ होती है। फिर चालीसवें लगते-लगते हम भाद्रपद की अंतिम नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी में प्रवेश कर जाते हैं और दो-चार वर्ष बाद अर्थात उत्तराफाल्गुनी के अंतिम चरण में जरा और जीर्णता की आगमनी का समाचार काल-तुरंग दूर से ही हिनहिनाकर दे जाता है। वास्तव में सृजन-संपृक्त, सावधान, सतर्क, सचेत और कर्मठ जीवन जो हम जीते हैं वह है तीस और चालीस के बीच। फिर चालीस से पैंतालीस तक उत्तराफाल्गुनी का काल है। इसके अंदर पग-निक्षेप करते ही शरीर की षटउर्मियों में थकावट आने लगती है, ‘अस्ति, जायते, वर्धते’ – ये तीन धीरे-धीरे शांत होने लगती हैं, उनका वेग कम होने लगता है और इनके विपरीत तीन ‘विपतरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति’ प्रबलतर हो उठती हैं, उन्हें प्रदोष-बल मिल जाता है, वे शरीर में बैठे रिपुओं के साथ साँठ-गाँठ कर लेती हैं और फल होता है, जरा के आगमन का अनुभव। पैंतालीस के बाद ही शीश पर काश फूटना शुरू हो जाता है, वातावरण में लोमड़ी बोलने लगती है, शुक और सारिका उदास हो जाते हैं, मयूर अपने श्रृंगार-कलाप का त्याग कर देता है और मानस की उत्पलवर्णा मारकन्याएँ चोवा-चंदन और चित्रसारी त्याग कर प्रव्रज्या का बल्कल-वसन धारण कर लेती हैं। अतः बचपन भले निर्मल-प्रसन्न हो, गदहपचीसी भले ही ‘मधु-मधुनी-मधूनि’ हो; परंतु जीवन का वह भाग, जिस पर हमारे जन्म लेने की सार्थकता निर्भर है, पच्चीस और चालीस या ठेल-ठालकर पैंतालीस के बीच पड़ता है। इसके पूर्व हमारे जीवन की भूमिका या तैयारी का काल है और इसके बाद ‘फलागम’ या ‘निमीसिस’ (Nemesis) की प्रतीक्षा है। जो हमारे हाथ में था, जिसे करने के लिए हम जनमे थे, वह वस्तुतः घटित होता है पच्चीस और पैंतालीस के बीच। इसके बाद तो मन और बुद्धि के वानप्रस्थ लेने का काल है – देह भले ही ‘एकमधु-दोमधु-असंख्य-मधु’ साठ वर्ष तक भोगती चले। इस पच्चीस-पैंतालीस की अवधि में भी असल हीर रचती है तीसोत्तरी। तीसोत्तरी के वर्षों का स्वभाव शाण पर चढ़ी तलवार की तरह है, वर्ष-प्रतिवर्ष उन पर नई धार, नया तेज चढ़ता जाता है चालीसवें वर्ष तक। मुझे क्रोध आता है उन लोगों पर जो विधाता ब्रह्मा को बूढ़ा कहते हैं और चित्र में तथा प्रतिमा में उन्हें वयोवृद्ध रूप में प्रस्तुत करते हैं। मैंने दक्षिण भारत के एक मंदिर में एक बार ब्रह्मा की एक अत्यंत सुंदर तीसोत्तर युवा-मूर्ति को देखा था। देखकर ही मैं कलाकार की औचित्य-मीमांसा पर मुग्ध हो गया। जो सर्जक है, जो सृष्टिकर्त्ता है, वह निश्चय ही चिरयुवा होगा। प्राचीन या बहुकालीन का अर्थ जर्जर या बूढ़ा नहीं होता है। जो सर्जक है, पिता है, ‘प्रॉफेट’ है, नई लीक का जनक है, प्रजाता है, वह रूप-माधव या रोमैंटिक काम-किशोर भले ही न हो, परंतु वह दाँत-क्षरा, बाल-झरा, गलितम् पलितम् मुंडम् कैसे हो सकता है? उसे तो अनुभवी पुंगव तीसोत्तर युवा के रूप में ही स्वीकारना होगा। जवानी एक चमाचम धारदार खड्ग है। उस पर चढ़कर असिधाराव्रत या वीराचार करनेवाली प्रतिभा ही पावक-दग्ध होंठों से देवताओं की भाषा बोल पाती है। युवा अंग के पोर-पोर में फासफोरस जलता है और युवा-मन में उस फासफोरस का रूपांतर हजार-हजार सूर्यों के सम्मिलित पावक में हो जाता है। मेरी समझ से सृष्टिकर्त्ता की, कवि की, विप्लव नायक की, सेनापति की, शूरवीर की, विद्रोही की कल्पना श्वेतकेश वृद्ध के रूप में नहीं की जा सकती। अतः प्रजापति विधाता को सदैव तीस वर्ष के पट्ठे सुंदर, युवा के सुंदर रूप में ही कल्पित करना समीचीन है।

वास्तव में तीसवाँ वर्ष जीवन के सम्मुख फण उठाए एक प्रश्न-चिह्न को उपस्थित करता है और उस प्रश्न-चिह्न को पूरा-पूरा उसका समाधान-मूल्य हमें चुकाना ही पड़ता है। किसी भी पुरुष या नारी की कीर्ति-गरिमा, इसी प्रश्न-चिह्न की गुरुता और लघुता पर निर्भर करती है। गौतम बुद्ध ने उनतीस वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर अमृत के लिए महाभिनिष्क्रमण किया। यीशु क्राइस्ट ने तीस वर्ष की अवस्था में अपना प्रथम संदेश ‘सरमन ऑन दी माउंट’ (गिरिशिखिर-प्रजनन) दिया था और तैंतीसवें वर्ष में उन्हें सलीब पर चढ़ा दिया गया। उनका समूचा उपदेश काल तीन वर्ष से भी कम रहा। वाल्मीकि के अनुसार रामचंद्र को भी तीस के आसपास ही (वास्तव में 27 वर्ष की वयस में) वनवास हुआ था। उस समय सीता की आयु अठारह वर्ष की थी और वनवास के तेरहवें वर्ष में अर्थात सीता के तीसवाँ पार करते-करते ही सीताहरण की ट्रेजेडी घटित हुई थी। अतः तीसवाँ वर्ष सदैव वरण के महामुहूर्त्त के रूप में आता है और संपूर्ण दशक उस वरण और तेज के दाह से अविष्ट रहता है। तीसोत्तर दशक जीवन का घनघोर कुरुक्षेत्र है। यह काल गदहपचीसी के विपरीत एक क्षुरधार काल है, जिस पर चढ़कर पुरुष या नारी अपने को अविष्कृत करते हैं, अपने मर्म और धर्म के प्रति अपने को सत्य करते हैं तथा अपनी अस्तित्वगत महिमा उद्घाटित करते हैं अथवा कम-से-कम ऐसा करने का अवसर तो अवश्य पाते हैं। चालीसा लगने के बाद पैंतालीस तक ‘यथास्थिति’ की उत्तराफाल्गुनी चलती है। पर इसमें ही जीवन की प्रतिकूल और अनुकूल उर्मियाँ परस्पर के संतुलित को खोना प्रारंभ कर देती हैं और प्राणशक्ति अवरोहण की ओर उन्मुख हो जाती है। इसके बाद अनुकूल उर्मियाँ स्पष्टतः थकहर होने लगती हैं और प्रतिकूल उर्मियाँ प्रबल होकर देह की गाँठ-गाँठ में बैठे रिपुओं से मेल कर बैठती हैं, मन हारने लगता है, सृष्टि अनाकर्षक और रति प्रतिकूल लगने लगती है, बुद्धि का तेज घट जाता है और वह स्वीकारपंथी (कनफर्मिस्ट) होने लगती है एवं आत्मा की दाहक तेजीमयी शक्ति पर विकार का धूम्र छाने लगता है। मैं तो यहाँ पर पैंतालीसवें वर्ष की बात कर रहा हूँ। परंतु मुझे स्मरण आती है दोस्तीव्हस्की – जिसने चालीस के बाद ही जीवन को धिक्कार दे दिया था : ‘मैं चालीस वर्ष जी चुका। चालीस वर्ष ही तो असली जीवन-काल है। तुम जानते हो कि चालीसवाँ माने चरम बुढ़ापा। दरअसल चालीस से ज्यादा जीना असभ्यता है, अश्लीलता है, अनैतिकता है। भला चालीस से आगे कौन जीता है? मूर्ख लोग और व्यर्थ लोग’ (‘नोट्स फ्रॉम अंडर ग्राउंड’ से) दोस्तोव्हस्की की इस उक्ति का यदि शाब्दिक अर्थ न लिया जाय तो मेरी समझ से इसका यही अर्थ होगा कि चालीस वर्ष के बाद जीवन के सहज लक्षणों का, परिवर्तन-परिवर्धन-सृजन का आत्मिक और मानसिक स्तरों पर ह्रास होने लगता है। पर मैं ‘साठा तब पाठा’ की उक्तिवाली गंगा की कछार का निवासी हूँ, इसी से इस अवधि को पाँच वर्ष और आगे बढ़ाकर देखता हूँ, यद्यपि दोस्तोव्हस्की की मूल थीसिस मुझे सही लगती है। शक्तिक्षय की प्रक्रिया चालीस के बाद ही प्रारंभ हो जाती है, यद्यपि वह अस्पष्ट रहती है।

मैं इस समय 1972 ईस्वी अपना अड़तीसवाँ पावस झेल रहा हूँ। पूर्वाफाल्गुनी का विकारग्रस्त यौवन जल पी-पीकर मैं ‘क्षिप्त’ से भी आगे एक पग ‘विक्षिप्त’ हो चुका हूँ और शीघ्र ही मोहमूढ़ होनेवाला हूँ! भाद्र की पहली नक्षत्र है मघा। मघा में अगाध जल है। पृथ्वी की तृषा आश्लेषा और मघा के जल से ही तृप्त होती है। यदि मघा में धरती की प्यास नहीं बुझी तो उसे अगले संवत्सर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। न केवल परिमाण में, बल्कि गुण में भी मघा का जल श्रेष्ठ है। मघा-मेष की झड़ी झकोर का स्तव-गान कवि और किसान दोनो खूब करते हैं : ‘बरसै मघा झकोरि-झकोरी। मोर दुइ नैन चुवै जस ओरी।’ मघा बरसी, मानो दूध बरसा, मधु बरसा। इस मघा के बाद आती है पूर्वाफाल्गुनी जो बड़ी ही रद्दी-कंडम नक्षत्र है। इसका पानी फसल जायदाद के लिए हानिकारक तो है ही, उत्तर भारत में बाढ़-वर्षा का भय भी सर्वाधिक इसी नक्षत्र-काल में रहता है। इसी से उत्तर भारतीय गंगातीरी किसान इसे एक कीर्तिनाशा-कर्मनाशा नक्षत्र मानते हैं। इसके बाद आती है उत्तराफाल्गुनी, भाद्रपद की अंतिम नक्षत्र, जो समूचे पावस में मघा के बाद दूसरी उत्तम नक्षत्र है। इसका पानी स्वास्थ्यप्रद और सौभाग्यकारक होता है। इस अड़तीसवें पावस में अपने जीवन का पूर्वाफाल्गुनी काल भोग रहा हूँ, यद्यपि साथ-ही साथ द्वार पर उत्तराफाल्गुनी का आगमन भी देख रहा हूँ। चालीस आने में अब कितनी देर ही है।

अतः आज पूर्वाफाल्गुनी का अंतिम पानपात्र मेरे होंठों से संलग्न है। क्रोध मेरी खुराक है, लोभ मेरा नयन-अंजन है और काम-भुजंग मेरा क्रीड़ा-सहचर है। इनको ही मैं क्रमशः विद्रोह, प्रगति और नवलेखन कहकर पुकारता हूँ। भले ही यह विकार-जल हो, भले ही इसमें श्रेय-प्रेय, गति-मुक्ति कुछ भी न हो। परंतु इसमें जीर्णता और जर्जरता नहीं। यह जरा और वृद्धत्व का प्रतीक नहीं। पूर्वाफाल्गुनी द्वारा प्रदत्त विक्षिप्तता भी यौवन का ही एक अनुभव है। मुझे लग रहा था कि मेरे भीतर कोई उपंग बजा रहा है क्योंकि मेरे सम्मुख द्वार पर काल-नट्टिन अर्थात् उत्तराफाल्गुनी त्रिभंग रूप में खड़ी है और मैं उसमें मार की तीन कन्याओं तृषा-रति-आर्त्ति को एक साथ देख रहा हूँ। कांचनपद्म कांति, कर-पल्लव, कुणितकेश, बिंबाधर, विशाल बंकिम भ्रू, दक्षिणावर्त नाभि, और त्रिवली रेखा से युक्त इस भुवन-मोहन रूप को मैं देख रहा हूँ और इसको आगमनी में अपने भीतर बजती उपंग को निरंतर सुन रहा हूँ। उपंग एक विचित्र बाजा है। काल-पुरुषों की उँगलियाँ चटाक-चटाक पड़ती है और आहत नाद का छंदोबद्ध रूप निकलता है बीच-बीच में हिचकी के साथ। यह हिचकी भी उसी काल-विदूषक की भँड़ैती है और यह उपंग के तालबद्ध स्वर को अधिक सजीव और मार्मिक कर देती है। मैं अपने भीतर बजते यौवन का यह उपंग-संगीत सुन रहा हूँ और अपने मनोविकारों का छककर पान कर रहा हूँ। मुझे कोई चिंता नहीं। अभी वानप्रस्थ का शरद काल आने में काफी देर है। इस क्षण उसकी क्या चिंता करूँ? इस क्षण तो बस मौज ही मौज है, भले ही वह कटुतिक्त मौज क्यों न हो; काम भुजंग के डँसने पर तो नीम भी मीठी लगती है। अतः यह काल-नटी, यह पूर्वाफाल्गुनी या उत्तराफाल्गुनी, यह ‘नैनाजोगिन’ कितनी भी भ्रान्ति, माया या मृगजल क्यों न हो, मैं इसके रूप में आबद्ध हूँ। इसमें मुझे वही स्वाद आ रहा है जो मायापति भगवान को अपनी माया के काम मधु का स्वाद लेते समय प्राप्त होता है और जिस स्वाद को लेने के लिए वे परमपद के भास्वर सिंहासन को छोड़कर हम लोगों के बीच बार-बार आते हैं। अतः इस समय मुझे कोई चिंता, कोई परवाह नहीं।

परंतु एक न एक दिन वह क्षण भी निश्चय ही उपस्थित होगा जिसकी श्रंगारहीन शरद यवनिका के पीछे जीर्ण हेमंत और मृत्युशीतल शिशिर की प्रेतछाया झलकती रहेगी। ‘उस दिन, तुम क्या करोगे? है तुम्हारे पास कोई बीज-मंत्र, कोई टोटका, कोई धारणी-मंत्र जिससे तुम अगले बीस-बाईस वर्षों के लिए इस उत्तराफाल्गुनी के पगों को स्तंभित कर दो और वह अगले बीस-बाईस वर्ष तुम्हारे द्वारदेश पर, शिथिल दक्षिण चरण, ईषत कृंचित जानु के साथ आभंग मुद्रा में नतग्रीव खड़ी रहे और तुम्हारे हुकुम की प्रतीक्षा करती रहे? है कोई ऐसा जीवन-दर्शन, ऐसा सिद्धाचार, ऐसी काया सिद्धि जिससे बाहर-बाहर शरद-शिशिर, पतझार-हेमंत आएँ और जूझते-हार खाते चले जाएँ। परंतु मनस की द्वार-देहरी पर यह उत्तराफाल्गुनी एक रस साठ वर्ष की आयु तक बनी रहे? है कोई ऐसा उपाय? यह प्रश्न रह-रहकर मैं स्वयं अपने ही से पूछता हूँ। आज से तेरह वर्ष पूर्व भी मैंने इस प्रश्न पर चिंता की थी और उक्त चिंतन से जो समाधान निकला उसे मैंने कार्य-रूप में परिणत कर दिया। परंतु इन तेरह वर्षों में असंख्य भाव-प्रतिभाओं के मुंडपात हुए हैं और आज मैं मूल्यों के कबंध-वन में भाव-प्रतिभाओं के केतु-कांतार में बैठा हूँ। आज जगत वही नहीं रहा जो तेरह वर्ष पूर्व था। एक ग्रीक दार्शनिक की उक्ति है कि एक नदी में हम दुबारा हाथ नहीं डाल सकते, क्योंकि नदी की धार क्षण-प्रतिक्षण और ही और होती जा रही है। काल-प्रवाह भी एक नदी है और इसकी भी कोई बूँद स्थिर नहीं। अतः शताब्दी के आठवें दशक के इस प्रथम चरण में मुझे उसी प्रश्न को पुनः-पुनः सोचना है : कैसे जीर्णता या जरा को, यदि संपूर्णतः जीतना असंभव हो तो भी फाँकी देकर यथासंभव दूरी तक वंचित रखा जाए? कैसे अपने दैहिक यौवन को नहीं, तो मानसिक यौवन को ही निरंतर धारदार और चिरंजीवी रखा जाय? उस दिन तो मैंने सीधा-सीधा उत्तर ढूँढ़ निकाला था : ‘ययाति की तरह पुत्रों से यौवन उधार लेकर।’ अर्थात मैं कोई नौकरी न करके कॉलेज में अध्यापन करूँ तो मुझ पचपन या साठ वर्ष की आयु तक युवा शिष्य-शिष्याओं के मध्य वास करने का अवसर सुलम होगा। मैं इनकी आशा-आकांक्षा, उत्साह, साहस, उद्यमता आदि से वैसे ही अनुप्राणित और आविष्ट रहूँगा जैसे चुंबकीय आकर्षण-क्षेत्र में पड़कर साधारण लोहा भी चुंबक बन जाता है।

परंतु विगत दशक के अंतिम दो वर्षों में जब मेरे ये बालखिल्य सहचरगण छिन्नमस्ता राजनीति के रँगरूट बनने लगे, जब इन्होंने मेरे गुरुओं, गांधी-विवेकानंद-विद्यासागर-सर आशुतोष, की प्रतिमाओं का एवं उनके द्वारा प्रति-पादित मूल्यों का, अनर्गल मुंडपात करना शुरू कर दिया, जब इनके नए दार्शनिकों ने कहना प्रारंभ किया कि आध्यापक और छात्र के बीच भी श्रेणी-शत्रुओं का संबंध है क्योंकि अध्यापक भी ‘स्थापित व्यवस्था’ का एक अंग है और ‘व्यवस्था’ का भंजन ही श्रेष्ठतम पुरुषार्थ है, तब देश में घटित होती हुई इन घटनाओं पर विचार करके और क्रांति तथा ‘नई पीढ़ी’ के दार्शनिकों – यथा हिबर्ट मारक्यूज, चेग्वारा, ब्रैंडिटकोहन आदि की चिंतनधारा से यथासंभव अल्प स्वल्पे परिचय पा करके मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मैं इन अपने भाइयों, अपने हृदय के टुकड़ों के साथ जो आज छिन्नमस्ता राजनीति के रँगरूट हैं, कुछ ही दूर तक, आधे रास्ते ही जा सकता हूँ। विविध प्रकार के नारों से आक्रांत ये नए ‘पुरूरवा’ (‘पुरूरवा’ का शब्दार्थ होता है ‘रवों’ (आवाजों या नारों) से आक्रांत या पूरित पुरुष। ‘ययाति’ पुरानी पीढ़ी का प्रतीक है तो पुरूरवा नई पीढ़ी का।) यदि मुझे यौवन उधार देंगे भी तो बदले में मुझे भी कबंध में रूपांतरित होने को कहेंगे। और मैं कैसे अपना चेहरा, अपनी आत्म-सत्ता, अपना व्यक्तित्व त्याग दूँ? ‘छिन्नमस्त’ पुरुष बनकर यौवन लेने से क्या लाभ? बिना मस्तक के बिना अपने निजी नयन-मुख-कान के इस उधार प्राप्त नवयौवन का नया अर्थ होगा? रूप, रस, गंध और गान से वंचित रह जाऊँगा। केवल शिश्नोदरवाला व्यक्तित्व लेकर कौन जीवन-यौवन भोगना चाहेगा? कम-से-कम बुद्धिजीवी तो नहीं ही। आत्मार्थ पृथिवी त्यजेत? अतः मुझे चिरयौवन को इन शिष्य-पुरूरवाओं की नई पीढ़ी से दान के रूप में नहीं लेना है। तेरह वर्ष पहले का चिंतित समाधान आज व्यर्थ सिद्ध हो गया है। मुझे अन्यत्र चिरयौवन का अनुसंधान करना है। कहीं-न-कहीं मेरे ही अंदर अमृता कला की गाँठ होगी। उसे ही मुझे आविष्कृत करना होगा। जो बाहर-बाहर अप्राप्य है वह सब-कुछ भीतर-भीतर सुलभ है। मैं अपने ही हृदय समुद्र का मंथन करके प्राण और अमृत के स्रोत किसी चंद्रमा को आविष्कृत करूँगा। तेरह वर्ष पुराना समाधान आज काम नहीं आ सकता।

मैं मानता हूँ कि समाज और शासन में शब्दों के व्यूह के पीछे एक कपट पाला जा रहा है। मैं बालखिल्यों के क्रोध की सार्थकता को स्वीकार करता हूँ। पर साथ ही छिन्नमस्ता शैली के सस्ते रंगांध और आत्मघाती समाधान को भी मैं बेहिचक बिना शील-मुरौवत के अस्वीकार करता हूँ। अपना मस्तक काटकर स्वयं उसी का रक्त पीना तंत्राचार-वीराचार हो सकता है परंतु यह न तो क्रांति है और न समर। पुरानी पीढ़ी का चिरयक्षत्व मुझे भी अच्छा नहीं लगता। मैं भी चाहता हूँ कि वह पीढ़ी अब खिजाब-आरसी का परित्याग करके संन्यास ले ले। शासन और व्यवस्था के पुतली घरों की मशीन-कन्याएँ उनकी बूढ़ी उँगलियों के सूत्र-संचालन से ऊब गई हैं और उनकी गति में रह-रह कर छंद-पतन हो रहा है। यह बिल्कुल न्याय-संगत प्रस्ताव है कि पूर्व पीढ़ी अपनी मनुस्मृति और कौपीन बगल में दबाकर पुतलीघर से बाहर हो जाय और नई पीढ़ी को, अर्थात हमें और हमारे बालखिल्यों को अपने भविष्य के यश-अपयश का पट स्वयं बुनने का अवसर दे जिससे वे भी अपने कल्पित नक्शे, अपने अर्जित हुनर को इस कीर्तिपट पर काढ़ने का अवसर पा सकें। यह सब सही है। परंतु क्या इन सब बातों की संपूर्ण सिद्धि के लिए इस पुतलीघर का ही अग्निदाह, पुरानी पीढ़ी द्वारा बुने कीर्तिपट के विस्तार का दाह, उनके श्रम फल का तिरस्कार आदि आवश्यक हैं? क्या ऐसा सब करना एक आत्मघाती प्रक्रिया नहीं? इस स्थल पर डॉ. राधाकृष्णन या आचार्य विनोबा भावे की राय को उद्धृत करूँ तो वह क्रांति के इन ‘दुग्ध कुमारों’ के लिए कौड़ी की तीन ही होगी। अतः मैं लेनिन जैसे महान क्रांतिकारी की राय उद्धृत कर रहा हूँ! 1922 ई. मैं लेनिन ने लिखा था, ‘उस सारी सभ्यता-संस्कृति को जो पूँजीवाद निर्मित कर गया है, हमें स्वीकार करना होगा। और उसके द्वारा ही समाजवाद गढ़ना होगा। पूर्व पीढ़ी के सारे ज्ञान, सारे विज्ञान, सारी यांत्रिकी को स्वीकृत कर लेना होगा। उसकी सारी कला को स्वीकार कर लेना होगा… हम सर्वहारा संस्कृति के निर्माण की समस्या तब तक हल नहीं कर सकते जब तक यह बात साफ-साफ न समझ लें कि मनुष्य जाति के सारे विकास और संपूर्ण सांस्कृतिक ज्ञान को आहरण किए बिना यह संभव नहीं, और उसे समझ कर सर्वहारा संस्कृति की पुनर्रचना करने में हम सफल हो सकेंगे। ‘सर्वहारा संस्कृति’ अज्ञात शून्य से उपजनेवाली चीज नहीं और न यह उन लोगों के द्वारा गढ़ी ही जा सकती है जो सर्वहारा संस्कृति के विशेषज्ञ विद्वान कहे जाते हैं ये सब बातें मूर्खतापूर्ण है। इनका कोई अर्थ नहीं होता। ‘सर्वहारा संस्कृति’ उसी ज्ञान का स्वाभाविक सहज विकास होगी जिसे पूँजीवादी, सामंतवादी और अमलातांत्रिक व्यवस्थाओं के जुए के नीचे हमारी संपूर्ण जाति ने विकसित किया है।’ यह बात स्वामी दयाननंद या पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी की होती तो बड़ी आसानी से कह सकते ‘मारो गोली! सब बूर्ज्वा बकवास है।’; पर कहता है क्रांतिकारियों का पितामह लेनिन, जिसे एक कट्टर बंगाली मार्क्सवादी नीरेंद्रनाथ राय ने अपनी पुस्तक ‘शेक्सपियर-हिज ऑडिएंस’ के पृष्ठ (49-50) पर उद्धृत किया है। आज प्रायः लोग पुकारकर कहते हैं : ‘देखो, देखो जोखिम उठा रहा हूँ, मूल्य भंजन कर रहा हूँ। अरे बंधु, जोखिम उठा रहे हो या नाम कमा रहे हो? यह तो आज अपने को प्रतिष्ठित बनाने और जाग्रत सिद्ध करने का सबसे सटीक तरीका ‘शॉर्टकट’ यानी तिरछा रास्ता है। जोखिम तुम नहीं उठा रहे हो तुम तो धार के साथ बह रहे हो और यह बड़ी आसान बात है। आज जोखिम वह उठा रहा है जो नदी की वर्तमान धारा के प्रतिकूल, धार के हुकुम को स्वीकारते हुए कह रहा है : ‘मूल्य भी क्या तोड़ने की चीज है जो तोड़ोगे? वह बदला जा सकता है तोड़ा नहीं जा सकता। मूल्य स्थिर या सनातन नहीं होता, यह भी मान लेता हूँ। परंतु एक अविच्छिन्न मूल्य-प्रवाह, एक सनातन मूल्य-परंपरा का अस्तित्व तो मानना ही होगा।’ नए बालखिल्य दार्शनिक कहेंगे – ‘यह धार के विपरीत जाना हुआ। यह तो प्रतिक्रियावाद है।’ ऐसी अवस्था में मेरा उन्हें उत्तर है : ‘कभी-कभी नदी की धार पथभ्रष्ट भी हो जाती है। वह सदैव प्रगति की दिशा में ही नहीं बहती। वह स्वभाव से अधोगति की ओर जानेवाली होती है। और आज? आज तो वन्याकाल है। वन्याकाल में धार पथभ्रष्ट रहती है। वह कर्मनाशा-कीर्तिनाशा-कालमुखी बनकर हमारे गाँव को रसातल में पहुँचाने आ रही है। अतः इस क्षण हमारी प्यारी नदी ही शत्रुरूपा हो गई है। और यदि गाँव को बचाना है तो हम धार के प्रतिकूल समर करेंगे। यदि हम अपना घर-द्वार फूँककर तमाशा देखकर मौज लेनेवाले आत्मभोगी ‘नीरो’ की संतानें नहीं है तों हमें इस नदी से समर करना ही होगा। यही हमारी जिजीविषा की माँग है। और इसके प्रतिकूल जो कुछ कहा जा रहा है, वह ‘नई पीढ़ी’ की बात हो या पुरानी की, मुमुक्षा का मुक्ति भोग है। यह सब विद्रोह नहीं बूर्ज्वा डेथविश का नया रूप है।’

अतः मै धार के साथ न बहकर अकेले-अकेले अपने अंदर की अमृता कला का अविष्कार करने को कृत संकल्प हूँ। बिना रोध के, बिना तट के जो धार है वह कालमुखी वन्या है, रोधवती और तटिनी नहीं। यों यह तो मैं मानता ही हूँ कि सर्जक या रचनाकार के लिए ‘नॉनकनफर्मिस्ट’ होना जरूरी है। इसके बिना उसकी सिसृक्षा प्राणवती नहीं हो पाती और नई लीक नहीं खोज पाती। अतः मुझे भी विद्रोही दर्शनों से अपने को किसी न किसी रूप में आजीवन संयुक्त रखना ही है। एक लेखक होने के नाते यही मेरी नियति है, और इस तथ्य को अस्वीकृत करने का अर्थ है अपनी सिसृक्षा की सारी संभावनाओं का अवरोध। परंतु लेखक, कवि या किसी भी साहित्येतर क्षेत्र के सर्जक या विधाता को यह बात भी गाँठ में बाँध लेनी चाहिए कि शत-प्रतिशत अस्वीकार या ‘नॉनकनफर्मिज्म’ से भी रचना या सृजन असंभव हो जाता है। पुराने के अस्वीकार से ही नए का आविष्कार संभव है। यह कुछ हद तक ठीक है। परंतु नए भावों या विचारों के ‘उद्गम’ के बाद ‘उपकरण’ या अभिव्यक्ति के साधन का प्रश्न उठता है और इसके लिए ‘नॉनकनफर्मिज्म’ को त्यागकर पचहत्तर प्रतिशत पुराने उपकरणों में से ही निर्वाचित-संशोधित करके कुछ को स्वीकार कर लेना होता है। रचना की ‘आइडिया’ के आविष्कार के लिए तो अवश्य ‘विद्रोही मन’ चाहिए। परंतु रचना का कार्य (प्रॉसेस) आइडिया के आविष्कार के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता। रचना-प्रक्रिया में ‘स्वीकारवादी मन’ की भी उतनी ही आवश्यकता है। अन्यथा ‘आइडिया’ या ज्ञान का ‘क्रिया’ में रूपांतर संभव नहीं। अतः प्रत्येक सर्जक या विधाता, जीवन के चाहे जिस क्षेत्र की बात हो, ‘विद्रोही’ और ‘स्वीकारवादी’ दोनों साथ ही साथ होता है। ‘शत-प्रतिशत अस्वीकार’ के फैशनेबुल दर्शन के प्रति मेरा आक्षेप यह भी है कि यह एक स्वयं आरोपित ‘नो एक्जिट’ (द्वारा या वातायन रहित अवरुद्ध कक्ष) है, इसको लेकर बहुत आगे तक नहीं जाया जा सकता है। यह दर्शन विषय और विधा दोनों की नकारात्मक सीमा बाँधकर बैठा है। और इसके द्वारा अपने ‘स्व’ को भी पूरा-पूरा नहीं पहचाना जा सकता है; तो ‘स्व’ से बाहर, इतिहास और समाज को समझने की तो बात ही नहीं उठती। यह ‘शत-प्रतिशत अस्वीकार’ का दर्शन कभी अस्तित्ववाद का चेहरा लेकर आता है तो कभी नव्य मार्क्सवाद का (क्लासिकल मार्क्सवाद से भिन्न); और ये दोनों मानसिक-बौद्धिक स्तर पर मौसेरे भाई हैं। ये एक ही ह्रासोन्मुखी संस्कृति की संतानें हैं। योगशास्त्र में मन की पाँच अवस्थाएँ कही गई हैं : क्षिप्त, विक्षिप्त, विमूढ़, निरुद्ध और आरूढ़। ये दोनों दर्शन विमूढ़ स्थिति के दो भिन्न संस्करण हैं, अतः दोनों त्याज्य हैं।

यह बाढ़-वन्या का काल है। नदी अपनी दिशा भूलकर, कूल छोड़कर उन्मुक्त हो गई है, अतः बुद्धजीवी वर्ग से धीरता और संयम अपेक्षित है। घबराकर वन्या की पथभ्रष्ट धार के प्रति आत्मसमर्पण करने की अपेक्षा जल के उत्तरण, वन्या के ‘उतार’ की प्रतीक्षा करना अधिक उचित है। पानी हटने पर नदी फिर कूलों के बीच लौट जाएगी। नदी अपनी शय्या यदि बदल भी दे, तो भी नई शय्या के साथ कोई कूल, कोई अवरोध तो उसे स्वीकार करना ही होगा। यह नया कूल भी उसी पुराने कूल के ही समानान्तर होगा। नदी तब भी समुद्रमुखी ही रहेगी। उलटकर हिमाचलमुखी कभी नहीं हो सकती। अतः इस वन्या नाट्य के विष्कंभक के बीच का समय मैं न तो बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ और न बहुत चिंताजनक। मैं बिल्कुल अविचलित हूँ। मेरा विश्वास है कि कल नहीं तो परसों हम अर्थात पुरानी पीढ़ी का युवा और मेरे बालखिल्य छात्र-छात्राएँ अर्थात नई युवा पीढ़ी, दोनों मिलकर इस शासन एवं व्यवस्था के पुतलीघर की नृत्य कन्याओं के कत्थक नृत्य को साथ-साथ संचालित करेंगे। यह पुतलीघर ऐसा है कि इसमें अनुशासित संयमित तालबद्ध कत्थक ही चल सकता है। अन्यथा जरा भी छंद पतन होने पर कोई न कोई भयावह पुतली एक ही झपट्टे में हड्डी आँत तक का भक्षण कर डालेगी क्योंकि इन पुतलियों में से कोई-कोई विषकन्याएँ भी हैं। अतः मैं चेष्टा करूँगा कि अपने अंदर की अमृता कला का आविष्कार करके इस उत्तराफाल्गुनी काल को बीस बाइस वर्ष के लिए अपने अंतर में स्थिर अचल कर दूँ, बाहर-बाहर चाहे शरद बहे या निदाघ हू-हू करे। तब मैं अपने बालखिल्य सहचरों के साथ व्यवस्था की इन पुतलियों का छंदोबद्ध नृत्य भोग सकूँगा। और एक दिन वह भी आएगा जब कोई चिल्लाकर मेरे कानों में कहेगा ‘फाइव ओ’ क्लाक! पाँच बज गए!’ कोई मेरे शीश पर घंटा बजा जाएगा, कोई मेरे हृदय में बोल जायगा : ‘बहुत हुआ। बहुत भोगा। अब नहीं। अब, अहं अमृतं इच्छामि। अहं वानप्रस्थ चरिष्यामि।’ और तब मैं व्यवस्था के पुतलीघर की इन यंत्रकन्याओं से माफी माँगकर उत्तर-पुरुष की जय जयकार बोलते हुए मंच से बाहर आ जाऊँगा और अपने को विसर्जित कर दूँगा लोकारण्य में, खो जाऊँगा अपरिचित, वृक्षोपम, अवसर प्राप्त, रिटायर्ड स्थाणुओं के महाकांतार में। पर अभी नहीं। अभी तो मैं विश्वेश्वर के साँड़ की तरह जवान हूँ।

 

निषाद बाँसुरी

 

प्तमी का चाँद कब का डूब चुका है। आधी रात हेल गयी है। सारा वातावरण ऐसा निरंग-निर्जन पड़ गया है गोया यह शुक्ला सप्तमी न होकर शुद्ध नष्ट-चंद्र निशा हो। अभी-अभी हमारी नाव ‘झिझिरी’ अर्थात् नौका-विहार खेलकर लौटी है। नाव को तट से बाँधकर चंदर भाई फिर ‘गलई’ अर्थात इसके अग्रभाग पर आ विराजते हैं और प्रस्ताव करते हैं – ”यार, अब सोने कौन जाए? पहर-डेढ़ पहर जो रात बची है, बातें करते-करते काट देंगे।” इधर चार-पाँच वर्षों से जब मैं घर आता हूँ तो एक पूरी संध्या और उससे जुड़ी हुई रात्रि अपने बाल-सखा चंदर माझी को समर्पित करता हूँ। अपनी प्यारी नदी के सान्निध्य में, जिसकी सेवा वे जन्म से ही बड़े मनोयोगपूर्वक कर रहे हैं, मैं इनका आतिथ्य ग्रहण कर कृतकृत्य होता हूँ और ये मुझे नौका नयन के दो-चार गीत सुनाते हैं, और सबसे बढ़कर चंद्रविगलित ज्योत्स्ना में नदी के एकांत वक्ष पर झिझिरी खेलने का अवसर देते हैं, तब मेरा आदिम निषाद-मन मुझे कुछ क्षणों के लिए पुनः इस जन्म में भी मिल जाता है। मेरा विश्वास है, और मैं इसे ‘विश्वासं अप्रमेयम्ं’ अर्थात् प्रमाण-अप्रमाण के द्वंद्व से परे का विश्वास मानकर बैठा हूँ, कि किसी जन्म में मैं गंगातीरी निषाद अवश्य था अन्यथा इस नदी के प्रति इतनी मोह-माया, इसमें इतना माँ जैसा भरोसा और बल क्यों अनुभव करता! नदी के प्रति आसक्ति ही शायद यह कारण है कि यह अँगुठियाकेशी, गठीला बदन, निरक्षर निषाद युवक मेरा इतना घनिष्ठ हो उठा है।

यों भी चंदर हैं बादशाही तबीयत वाले। बात के धनी, मन से उदार और विपत्ति में घोर साहसी। हाथ में अंकारी रहने पर जल या थल के किसी श्वापद का सामना करने को तैयार। गत वर्ष, ब्याहने गये एक को, पर लौटे दो के साथ और दोनों बहुओं का क्या ही कवित्वपूर्ण नाम रखा है ‘रूपसी’ और ‘पियासी’, जो गंगा की धारा में पायी जाने वाली दो तरह की मछलियों के नाम हैं। कहते हैं कि बेटे का नाम रखेंगे रोहित। ऐसे ‘मन को बड़ो महीप’ के साथ मेरी दोस्ती न होना ही अस्वाभाविक होता। मुझे लगता है मीन-मिथुन-जैसी दो बहुओं के बीच वे एक पद्मफूल हैं।

आज मैं घंटों नौका विहार करके भी, चंदर भाई के साथ थकावट नहीं महसूस कर रहा हूँ। इस सुनसान निरंग-निर्जन में वे अपने पुरुष कंठ से सीधी नदी को जगाने के लिए एक पुराने गान की आवृत्ति करते हैं। इस निचाट स्तब्धता में यह गान किसी अपदेवता के कंठस्वर जैसा सुनाई पड़ता है और मैं एकाध बार चंदर को अँधेरे में भी देखने की चेष्टा करता हूँ कि चंदर ही हैं न! क्योंकि इस क्षण में और इस जगह पर क्या ठिकाना कब क्या हो जाए। पास में ही मुर्दाघाट है। आखिर रात तो इन्हीं रात्रिचरों के हिस्से में है। हमारे हिस्से में तो दिन है, जिसमें ये सब चुपचाप अदृश्य या निश्चल रहते हैं। पर जैसे-जैसे रात भीगती जाती है, श्वापद-आरण्यक, पेड़-पल्लव, घाट-बाट, भूत-प्रेत सभी धीरे-धीरे जग जाते हैं और उस समय वे या तो काना-फूसी करते हैं अथवा निःशब्द एवं क्रूर आहार-विहार। यदि ऐसे में कोई हँसे, कोई गान गाये, कोई इनके एकांत में खलल डाले तो फिर ये भी उसे दंडित कर सकते हैं। मैं डोंगी के चौड़े तख़्ते पर लेटा हूँ और चंदर ‘गलई’ पर बैठे-बैठे गान भरपूर खुले कंठ से गा रहे हैं। सुनते हुए मुझे लगता है कि हम दोनों बंधु किसी भी भूत-प्रेत से कम नहीं।

”गंगा मैया,

कोई जे सोवेला रन बन,

कोई जे बेइलिया बने हो!

कोई जे सोवेला बलुआ क रेतवा

त’ तोहरे सरन धइले हो!

गंगा मैया,

राजा जे सोवेला रन बन,

रानी बेइलिया बने हो!

मलहा त’ सोवेला बालू क रेतवा,

त’ तोहरे सरन धइले हो!”

निषाद प्रार्थना कर रहा है : ”ओ माता, ओ गंगा मैया, सोयी हो या जागी हो? जरा उठो देखो, मेरी बोझी हुई नाव, मेरी ‘बरधी’ इस बालू के रेत में अटक गयी है। माँ, मैं तुम्हारी शरण में नित्य रहने वाला निषाद हूँ। तुम्हारा ही आश्रय गहकर चलता हूँ। ओ माँ, राजा तो रणभूमि में शिविर में सोता है, रानी महँ-महँ सुवासित बेला-वन में सोती है, पर मैं दीन निषाद तुम्हारे तट की बालूमयी रेती पर सोता हूँ और तुम्हारे बल पर निर्भर रहता हूँ। आज मेरी नौका ‘चोर बालू’ में फँसी है और बालू नाग की तरह कुंडली मारकर नाव को भीतर खींचता जा रहा है। माँ, अब मैं गया! जगी हो या सोयी हो जल्दी उठो। मैं, मेरी नाव, नाव पर लदा सार्थ, सब तुम्हारी शरण में।” नदी रात-भर श्वापदों और आरण्यकों को पानी पिलाती रही है। अभी-अभी सोयी है। अभी वह कच्ची नींद या ‘बालिका नींद’ में है। उसकी ‘बारी नींद’ में निषाद का करुण आवाहान खलल डाल रहा है। पर नदी को जगना ही पड़ता है। नदी में निषाद के आशीर्वाद के मात्र बाहु-विक्रम से कोई पार नहीं पा सकता। इसी से निषाद कातर कंठ से प्रार्थना कर रहा है : ”माँ, जल्दी कर, अब भरोसा टूट रहा है।” नदी की ‘बारी नींद’ टूट जाती है और वह आँख मलती उठती है, पहचानती है कि यह और कोई नहीं उसकी बालू पर आजन्म खेलने-खाने वाली उसकी प्यारी संतान ही है। नदी उठकर भरमुँह, कंठ खोलकर आशीष देती है, नखशिख-रक्षा कवच देती है और साथ ही नाव के अंदर वेग भरती है। इस प्रकार कर्तव्य का, कर्म का भार लादे हुए वह नाव धर्म के घाट जा लगती है जो सबसे सुरक्षित घाट है और सार्थ सुरक्षित पार उतर जाता है।

स्तब्ध निचाट रात में मानव कंठ का ऐसा मुक्त प्रार्थना-संगीत निश्चय ही क्रुद्ध रात्रिचरों को, कपटी कामरूपी अपदेवताओं को और साँप जैसे फण काढ़े वन्या की क्रुद्ध लहरों को सबकुछ को अपने वशीकरण से बाँध सकता है, ऐसा अनुभव करते-करते मैं इस गान को सुन रहा था, और बिना दाद या प्रशंसा की प्रतीक्षा किये हुए चंदर एक गीत के बाद दूसरा गीत उठाते जा रहे थे। लगातार पाँच गीत मैं सुनता रहा, एक से एक अपूर्व। अंतिम गीत का भाव कुछ इस प्रकार था : ”ओ नदी, ओ माता, मेरी नाव पूरब देश से धीमे-धीमे लौट रही है। यह नाव तुम्हारी पूजा के लिए रँगी हुई पियरी से बोझी है, तिरंगी चुनरी से बोझी है, इसे धीमे-धीमे निर्भय चलने का आशीर्वाद दो। ओ माँ, यह नाव तुम्हारे शृंगार के लिए हार-फूल से बोझी है, जवाकुसुम और कनेर से बोझी है, तुम्हारी सात पुष्पांजलियों के लिए इस पर केले के पत्तों पर शेफाली के फूल लदे हैं, इसे धीमे-धीमे निर्भय चलने का आशीर्वाद दो। ओ माँ, इस नाव पर तुम्हारी माँग के लिए सिंदूर और श्रीअंगों के लिए हल्दी बोझी गयी है। इसे धीमे-धीमे निर्भय चलने का आशीर्वाद दो। ओ माँ, यह नाव तुम्हारे चरणों पर अर्घ्यधार गिराने के लिए लौंग-मधु और दूध के सात घटों से बोझी है। इसे धीमे-धीमे निर्भय चलने का आशीर्वाद दो।”

गान के अंतिम भाग में नदी अपने निषाद-शिशु की बात सुनकर भरमुँह अर्थात् मुक्तकंठ कलकल ध्वनि से आशीर्वाद देती है : ”ओ निषाद, जैसे मेरे जल को कोई काटकर दो टुकड़े नहीं कर सकता वैसे ही तू भी अखंड-अच्छेद्य है। और जब तक मैं हूँ, जब तक मेरी धारा है, तब तक तू भी वर्तमान है।” गीत सुनकर मुझे लगा कि नदी हाथ उठाकर कुछ और भी कह रही है जिसे चंदर सुनते हैं, समझ नहीं पाते हैं, परंतु मैं खूब समझ रहा हूँ। मुझे लगा कि नदी कह रही है कि ओ निषाद, तेरी संस्कृति, तेरे संस्कार, तेरा मन, सब कुछ इस जल की तरह है, जो टूटता नहीं, कटता नहीं, भले ही दब जाता है और आकृति बदल लेता है, पर अस्तित्वहीन नहीं होता है – यहाँ तक कि सूख जाने पर भी या तो अंतःसलिला का अंग बन जाता है या उड़कर मेघ बनकर पुनः लौटता है।

भारतीय धरती के आदि-मालिक निषाद ही थे। भारतीय भाषाओं में मूल संज्ञाएँ, भारतीय कृषि के मूल और आदिम तरीके और भारतीय मन के आदिम संस्कार उन्हीं की देन हैं।

इस अर्थ में निषाद-द्रविड़-आर्य-किरात इन चारों महाकुलों में निषाद ही अग्रज हैं। परंतु मध्य प्रदेश आदि कुछ क्षेत्रों को छोड़कर इसका इतना घोर आर्यीकरण हो चुका है कि आज यह पहचाना नहीं जा सकता। ऊपर-ऊपर से यह स्वयं निषादत्व खोकर आर्य हो चुका है, पर भीतर-भीतर तथाकथित भारतीय आर्य का अंग विश्लेषण करें तो पता चलता है कि इस महानायक के अर्थात इस पितर भारतवर्ष के इतिहास वपु की शिरा-धमनी में निषाद-मन प्रवाहित है, स्नायुमंडल की रचना द्रविड़ संस्कृति करती है, अस्थि धर्म की रचना में किरात-संस्कृति की रंग-बिरंगी बनावट है और इसके मनोमय कोषों की रचना आर्य-सरस्वती करती है। चंदर के अंदर तो निषाद-संस्कार ही हैं, वह तो गंगातीरी निषादों की सातों आर्यीकृत ‘कुरियों’ में से एक से संबंधित ही हैं, जिन्हें रामचंद्र ने पावन कर दिया था। परंतु यह मैं जो अपनी ‘स्वधा’ को ‘वत्स-भृगु-यमदग्नि-च्यवन-आप्नवान’ के पंचप्रवर में जोड़ता हूँ मैं भी इस आदिम निषाद से वंचित नहीं हूँ। मेरे संस्कार प्रवाह में भी यह बैठा है। मेरी भाषा, मेरे भोजन-पान, मेरी खेतीबाड़ी-हरबा-हथियार के मध्य वह कृष्णकाय आदिम निषाद अपने को व्यक्त कर रहा है, जिसने विश्व में सर्वप्रथम इसी गंगा की घाटी में धान-चावल का आविष्कार किया था, भैंस को दुधारू बनाया था, जड़ी-बूटियों और फलों को पहचाना था और उन्हें नाम दिया था तथा खेती के औजारों को गढ़ा था। चंदर भाई के गुरु रामदेवाजी के मुँह से मैं निषाद कुल की गरिमा की अनेक ऊल-जलूल बातों को सुनता आ रहा हूँ और आश्चर्य होता है कि कभी-कभी उन बातों का आधुनिक भाषाविज्ञान और पुरातत्त्व से अजब सटीक बैठ जाता है।

चंदर मुझसे अकसर कहा करते हैं : ”अरे हम लोग जरा काले हैं, नहीं तो आप लोगों से नीच थोड़े हैं!..” और प्रमाण न पूछने पर भी रामदेवाजी की अपूर्व ऊल-जलूल थ्योरी का संदर्भ तुरंत देते हैं, जिसे सुनकर मैं भौचक्का रह जाता हूँ। तर्क करने जाऊँगा तो चंदर डपटकर कहेंगे – ”अरे गोसाईं जी को पढ़ो, गोसाईंजी को! है न? ‘तुलसी सुनि केवट के वर बैन हँसे प्रभु जानकि ओर हहा है।’ सोचो जरा, प्रभु जानकी की ओर देखकर क्यों हँसे! क्यों न लक्ष्मण की ओर देखकर हँसे? बोलो?” और यह सब सुनकर क्या बोलूँ, मेरी तो सरस्वती ही बेहोश हो जाती है। चंदर माझी स्वयं समाधान करते हैं : ”अरे भाई, गोसाईंजी बड़े सावधान लेखक थे। उनके एक-एक ‘लफ्ज’ का भी मतलब है, बेमतलब तो उन्होंने कुछ कहा ही नहीं है। यहाँ पर मतलब यह है कि” और तब गुरु रामदेवाजी की शैली में तर्जनी नचाते हुए चंदर भाई तौल-तौलकर शब्दों की चोट करते हैं, ”मतलब यह कि, रामचंद्र जी सीताजी की ओर इशारा कर रहे हैं, कि यह निषाद तो समवर्ण का है, अतः कहीं पाँव धोने के हठ के बहाने कन्यादान करने का उपक्रम तो नहीं कर रहा है? पर इस गूढ़ भाव को सबके सामने कैसे कहें! इसी से सीता की ओर नजर मारकर हँस देते हैं।” मुझे स्मरण है कि जिस दिन प्रथम बार इस थ्योरी से परिचित हुआ था, उस दिन अपनी सारी पढ़ी हुई विद्या को धिक्कारता हुआ घर लौटा था।

पहली बार यह बात ऊटपटाँग अवश्य लगी थी। परंतु कालांतर में भारत की मौलिक जातियों के संबंध में श्री बी.एस. गुहा, डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या और डॉ. हटन आदि के प्रबंधों को पढ़ने पर मुझे लगा कि इक्ष्वाकुओं और निषादों की कुल परंपरा के संदर्भ में यह थ्योरी अक्षरशः सत्य भले ही न हो, परंतु यह सारी बात बिल्कुल वृषभ-दुग्ध या शश-शृंग-जैसी भित्तिहीन नहीं। आधुनिक पंडितों का विचार है कि रामायण की मिथक निषादकल्पना से प्रसूत है।

निषाद वृषाकपिदेवों और अपदेवताओं को पूजने वाली जाति है। वैदिक आर्यों में अवतारवाद स्वीकृत ज्ञात होता है, परंतु अत्यंत हलके तौर पर। ‘`त्र्विक्रम विष्णु’ या ‘गोपा विष्णु’ के उल्लेख अवतार के द्योतक न होकर देवता के बहुरूपी रूपांतर के द्योतक हो सकते हैं। देवता प्रेममय है और हमारे त्राण के लिए वह ‘माया वपु’ धारण करता है, इस तथ्य का दृढ़ आधार वैदिक मंत्रों में नहीं मिलता है। इसी से आधुनिक विद्वानों की कल्पना है कि भारतीय संस्कारों में अवतारवाद का प्रवेश निषादों-जैसी आनंदवादी और द्रविड़ों जैसी भाववादी जातियों की कल्पना की दान है।

इस संदर्भ में स्मरण रखने की बात यह है कि रामायण के मिथक के प्रधान संपादक वाल्मीकि की छंद सरस्वती का जागरण एक निषाद द्वारा किये गये क्रौंचवध के फलस्वरूप ही संभव हुआ था। पूरी रामायण की कथा भले ही निषाद-कल्पित न हो, परंतु उसके ताने-बाने में कुछ प्रसंग और कुछ विश्वास तो अवश्य ही ऐसे हैं जो निषादों में प्रचलित रहे होंगे। संभवतः वाल्मीकि के समय निषादों में किसी उनके ही रंग के अनुरूप ”नील सरोरुह श्याम तरुण अरुण वारिज नयन” देवता की कल्पना एवं उसके महा अवतरण में विश्वास प्रचलित रहा होगा, जो आकर इन निषादों को पाप-ताप से मुक्त करके गले लगाएगा और पंक्ति-पावन कर देगा।

किसी चरम देवता अथवा परम पुरुष के अवतरण की प्रतीक्षा बहुत काल से निषाद जाति कर रही थी। किसी ‘दूर्वादलश्यामं’ देवता के आगमन की, उसके द्वारा महिमा-मंडित और पुण्यशाली बनाये जाने की कल्पना पुरुष प्रति पुरुष निषाद जाति करती आ रही थी, और इसी बीच में इक्ष्वाकुओं के आर्यकुल में एक प्रतापशाली राजपुरुष का जन्म हुआ, और उसके शील-स्नेह और चरित्र में तथा शताब्दियों प्रतीक्षित देव कल्पना में साम्य दिखाई पड़ा, और यह साम्य निषादों में प्रचलित अवतार की कल्पना के चौखटे में पूरा-पूरा उतर गया तथा उन्होंने उक्त इक्ष्वाकुवंशीय कुमार को, उसके अलौकिक कर्म को, अपने महादेवता के अवतरण के रूप में देखा। ऐसा होना असंभव नहीं।

परंपरा के अनुसार वाल्मीकि ने जब राम को अपने महाकाव्य का नायक चुना, तो उनकी प्रज्ञा में उक्त-निषाद विश्वास निरंतर सक्रिय रहा और उन्होंने गौरवपूर्ण आर्यवंशीय कुमार को दूर्वादलश्यायम एवं नीलोत्पलश्याम रूप में देखा, तथा कथा के अंदर वृषाकपियों का प्रसंग लाकर निषाद-कल्पना को पुनः नया संस्कार दिया। वाल्मीकि गंगा और तमसा के बीच के अरण्य में रहते थे और प्रचलित निषाद-विश्वासों से उनका न प्रभावित होना ही अस्वाभाविक होता। रामकथा इस बात का प्रमाण है कि गंगातीर के निषादों का जीवन रामचंद्र द्वारा ही संस्कार समृद्ध किया गया है। अतः राम का उनकी कल्पना के केंद्र में प्रवेश कर जाना असंभव नहीं। हो सकता है कि निषादों की कल्पना रही हो कि उनका प्रिय देवता जब माया-मनुष्य बनेगा, तो उसे विमाता दुःख देगी, उसे वन-वन भटकना पड़ेगा, वह दुःखी देवता ही निषादों का आलिंगन करके उन्हें परम पावन और शुद्ध बनाएगा और वही देवता ऐसा सुशासन स्थापित करेगा कि धरती पर से रोग-शोक-पाप की छाया हट जाएगी और दुःखी कोई नहीं रहेगा। और इस निषाद-कल्पना को राम के ऐतिहासिक चरित्र में वाल्मीकि ने संभवतः अंतर्भुक्त कर दिया है।

यह तो सभी जानते हैं कि असम, बंगाल या अन्य प्रदेश की निषाद जातियों यथा कैवर्तों, धीवरों, तीयरों या मध्यप्रदेश के मुंडा, कोल आदि को जो भी माना जाता रहा हो, परंतु सनातन से गंगातीरी केवटों और माझियों को पवित्र माना जाता रहा है, तथा उनके द्वारा स्पर्श किया हुआ जल सनातन काल से ग्रहण किया जाता रहा है, क्योंकि रामचंद्र और बाद में इक्ष्वाकुओं के कुल पुरोहित वशिष्ठजी ने निषादराज का आलिंगन करके उनकी अस्पृश्यता समाप्त कर दी थी और उन्हें आर्य-महिमा से मंडित कर दिया था। राम नाम की सील मुहर के आगे मनुस्मृति भी नतमस्तक है। इस मिथकीय प्रसंग का ऐतिहासिक तात्पर्य यह है कि इक्ष्वाकुवंशीय आर्यों के संसर्ग में आकर गंगातीर के निषादगण आर्य सभ्यता के अंतर्गत आ गये। यहाँ तक कि निषादों ने अपनी भाषा भूलकर आर्य भाषा को ही मातृभाषा मान लिया। उनका खान-पान, रहन-सहन आर्यों की पद्धति पर यथासामर्थ्य चला गया। गंगातीर के केवट कहते हैं कि रामचंद्र जी ने उन्हें दो हुक्म दिये थे। एक तो नाव को तट पर बाँधकर भी जल में ही छोड़ देना, घसीटकर बालू पर नहीं करना। दूसरा यह कि कच्ची मछली कभी मत खाना। सदा नमक-हल्दी-सरसों देकर मछली खाना या भूनकर मछली नमक के साथ खाना। यह दूसरी आज्ञा देखने में भले ही साधारण लगे, पर उनके अंदर नागरिकता और आर्य रीति के प्रवेश कराने का प्रयत्न है। अन्य प्रदेशों के निषादों की अपेक्षा गंगातीर के निषादों के चाल-चलन, कथन-भंगिमा आदि में विशिष्ट गौरव झलकता है। अन्य जातियों के अपने-अपने लोककाव्य हैं, यथा अहीरों की ‘लोरकी’, कहारों का ‘बिहुला’ आदि। निषादों में नौकानयन और प्रेम संबंधी फुटकल गीत अवश्य है, परंतु कथा-काव्य की जगह वे तुलसीदास की रामायण ही गाते हैं। राम ही उनके लोकनायक हैं, अन्य कोई नहीं। राम के प्रति उनमें एक सहज समर्पण और मोह है ”तुम केवट भव सागर केरे। नदी नाव के हम बहुतेरे।”

पूर्वी उत्तरप्रदेश के गंगातीरी निषादों में सात कुल हैं : केवट, चाँई, बथवा, धीवर, तीयर, सोरहिया और मुंडार (मुंडार शब्द ‘मुंडा’ से मिलता-जुलता है, जो मध्यप्रदेश की एक आर्यत्व वंचित निषाद शाखा का नाम है और हो सकता है कि सुदूर अतीत में इनसे कोई संबंध भी रहा हो।)। इन सात कुलों में रामचंद्र का सखा निषादराज गुह किस कुल का था? चंदर भाई तो कहते हैं कि निषादराज चाँई थे। हमारे गाँव में चाँई और केवट दोनों हैं और दोनों यह गौरव लेना चाहते हैं। चाँई कहते हैं कि जेठे तो हमीं लोग हैं। शृंगवेर पुर वाले केवट हैं या चाँई, मुझे पता नहीं। ये गोस्वामी जी ने साफ लिखा है : ‘माँगी नाव न केवट आना।’ अतः मैं कहता हूँ कि शृंगवेरपुर का निषाद चाँई नहीं, केवट ही था। तब चंदर के लिए इतने बड़े कुल-गौरव को छोड़ना मुश्किल हो जाता है और वे हठपूर्वक कहते हैं : ”यहीं पर जरा-सी बिल्कुल जरा-सी, भूल गोसाईंजी से हो गयी है। बात यह है कि वे ब्राह्मण थे और हम लोगों की कुरी वगैरह भीतरी बातें वे क्या जानें? उन्हें लिखना चाहिए था ‘चाँई’ तो लिख दिया ‘केवट’। आखिर जेठी कुरी तो हम चाँई ही हैं। सभा का सरदार तो चाँई ही होता आया है।” चंदर के अनुसार शुद्ध पाठ होना चाहिए, ‘माँगी नाव न चाँई आना।’ या ‘तुलसी सुनि चाँइहि के वर बैन हँसे प्रभु जानकि ओर हहा है’ आदि। मैं समझता हूँ कि भाई चंदर, चाँई लोग तो इससे भी बृहत्तर गौरव के अधिकारी हैं। यह चाँई निषाद ही था, जिसके बाणों से क्रौंचवध हुआ और फल हुआ वाल्मीकि की छंद-सरस्वती का जन्म। चाँई नहीं होता तो रामायण ही लिखी नहीं जाती। अतः चाँई का कम महत्त्व नहीं। परंतु तो भी चाँई कुल-कमल-दिवाकर चंदर निषाद इस प्रश्न पर संधि नहीं करते और अपनी ही फेंटते जाते हैं कि गुह निषाद उनके ही कुल ‘चाँई’ का पूर्वपुरुष था। अंत में मुझे चाँई-गौरव के प्रति नतमस्तक होकर चुप हो जाना पड़ता है।

मैं अपनी जन्मभूमि गंगातट से प्रायः दूर रहने को बाध्य हूँ और जीविकोपार्जन के लिए इस किरातारण्य से घिरे आर्यों के बीच, लौहित्य तट पर, निवास कर रहा हूँ। मेरे पैरों में चक्र है और मुझे दर-दर भटकने का शाप मिला है। इस शाप भोग में भी बड़ा रस है, बड़ा सुख है। परंतु फिर भी कभी-कभी थक जाता हूँ और मन उदासी का व्यूह काटने में असमर्थ हो जाता है। तब अपने भीतर आत्मा को चींथते-फाड़ते कुत्तों को सम्मोहन में लाकर फिर थपकी देकर सुला देने के लिए मुझे किसी श्लोक, किसी गान अथवा किसी दृश्य का चिंतन करना पड़ता है और ऐसे वेदना विकल क्षणों में अपनी प्यारी नदी की ज्योत्स्ना विगलित रजत-धारा, चंदर की बातें और मीन-मिथुन जैसी दोनों भाभियों रूपसी और पियासी के गाये गीतों की मनोरम स्मृतियाँ बड़े काम की साबित होती हैं। जब मेरे मन के अंदर उन दोनों द्वारा गाये गये किसी गीत की स्मृति जगती हैं, और मन भीतर ही भीतर उसे गाने लगता है तो लगता है कि आत्मा और मन के सारे नख-दंत-क्षतों पर अपनी प्यारी नदी की झिर-झिर धार प्रवाहित होने लगी। लगता है कि वेदना-विकल मस्तक में किसी सुखद शीतल देवधुनी का जन्म हो रहा है, ऊपर से कोई फूल बरसा रहा है, नीचे रूपसी-पियासी के कंठ से निःसृत गान की डोर पर खिंची चंदर भाई की पाल तनी नाव धीमे-धीमे आ रही है, उनके लिए हल्दी, सिंदूर और मेरे लिए भोग-प्रसाद का भार लादे हुए। यह ध्यान-लब्ध दृश्य मुझे तीनों लोकों का राजा बनाकर निहाल कर जाता है, और मैं भूल जाता हूँ अपने कंठस्वर की अष्टावक्र भंगिमा को और मैं भी गुनगुनाने लगता हूँ उन्हीं से सुना हुआ एक गान :

”राधे-रुकमिनि चलेनी नहनवा, सुखा के गंगा ना।

भइली बलुआ क रेतवा, सुखा के गंगा ना!

रोवेली अटइन-रोवेली बटइन, रोवे कुआँ क पनिहारिन ना।

मुँहवा रुमलिया देके रोवेला केवटवा

कि मोरी बोझल नइया अगम भइली ना!”

– ”राधा और रुक्मिणी स्नान को चली हैं, पर गंगाजी सूख गयी हैं, यह पापहरा नदी मृत हो चुकी है, चारों ओर बालू की रेती है, चारों ओर तृषा ही तृषा है, अटवी-कन्या रो रही है, बटोही की वधू रो रही है, मुँह पर रूमाल रखकर बेचारा निषाद रो रहा है कि उसकी बोझी नौका अब अगम हो गयी!” फिर गीत आगे चलता है और राधा अपने आँचल की खूँट में बँधी सात फूल लौंग रुक्मिणी को देती हैं। रुक्मिणी लौंग को रगड़कर पीसती हैं। राधा और रुक्मिणी नतजानु होकर नदी माता को लौंग-धार का अर्घ्य देती हैं। और तब, गीत की अंतिम कड़ी में :

”राधे रुकमिनि कइली पूजनिया, छछा के गंगा ना

भइली दूनो नख आर-पार, छछा के गंगा ना!

हँसेले अटइन, हँसेले बटइन, हँसे कुआँ क पनिहारिन ना!

फेंक के रुमलिया हँसेला केवटवा,

कि मोर बोझल नइया ऊपर भइली ना!”

– ”राधे और रुक्मिणी ने छछाकर अर्थात् हुलासपूर्वक गंगा का पूजन किया। नदी ने भी उल्लासपूर्वक आशीष देकर दोनों तटों को नखानख (लबालब) जल से परिपूर्ण कर दिया। चारों ओर प्रसन्नता छा गयी। जीवन लौट आया। अटवी कन्या हँस पड़ी। बटोही की वधू हँस पड़ी। कुएँ की पनिहारिन भी हँस पड़ी और सबसे बढ़कर नदी की संतान केवट मुँह पर से रूमाल फेंककर मुक्तकंठ से ठहाका लगाकर हँस पड़ा कि उसकी बोझी नौका अब ऊपर हो गयी, अब यह नदी का अगम जल ही तरणी का सुगम मार्ग बन गया, अब उसकी नाव गंतव्य दिशा की ओर बाणवेग से छूटेगी।”

2

चंदर माझी के गुरु रामदेवाजी एक अद्भुत जीव हैं। उनके लिए ‘व्यक्ति’ न कहकर सर्वभूतमय ‘जीव’ शब्द का प्रयोग ही मुझे अधिक उपयुक्त जँचता है। अंतिम विश्लेषण में हम सब जीवात्मा ही ठहरते हैं और यही कारण है कि इस देश में ‘जय जीव’ श्रेष्ठतम अभिवादन वाक्य माना जाता था। साक्षी हैं गोस्वामीजी जिनके महाकाव्य ‘मानस’ में राजा दशरथ के मंत्री ‘जय जीव’ कहकर शीश झुकाते हैं। ‘जय जीव!’ अर्थात् भीतर की जीवात्मा नामक महासत्ता की जय हो जो हममें, आपमें, पशु-पक्षी में, तृण-तरु सबमें हैं। यह शुद्ध वेदांती प्रमाण है। आज भी हिंदी भाषा में हम जिसे बड़ा मानते हैं जिसमें ब्रह्म के अलौकिक स्फुरण का स्पष्टतः हमें भान होता है, उसके नाम के पीछे ‘जी’ लगाते हैं जो ‘जीव’ का ही रूपांतर है। जार्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा था कि एक गणतंत्रवादी पुरुष के लिए ‘मिस्टर’ अर्थात् ‘श्री’ से बढ़कर कोई उपाधि नहीं, इसके आगे ‘जनाब’, ‘सर’, ‘स्कॉयर’, ‘बाबू’, ‘महाराजा’ आदि सब तुच्छ हैं। उसी दृष्टि से एक वेदांती के लिए ‘जी’ से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ उपाधि हो ही नहीं सकती। एक वेदांती के लिए किसी भी व्यक्ति के अन्य विरुद मिथ्या हैं, मोहमाया हैं, रज्जु-सर्प या शुक्ति-रजत जैसी भ्रांतियाँ हैं। उसका तो एक ही विरुद असली है और वह है ‘जीवात्मा’ जिसका संक्षिप्त रूप है ‘जी’ या ‘जीव’। अतः जब मैं गुरु रामदेवाजी को ‘जीव’ कहकर पुकारता हूँ, तो इसमें उनकी तौहीनी नहीं, उनकी सर्वोच्च गरिमा का द्योतन है। साथ ही, इससे हमारा और उनका परस्पर अपनत्व व्यक्त होता है। अतः जब मैं रामदेवाजी को ‘अद्भुत जीव’ कहता हूँ तो ‘जीव’ से हमारा तात्पर्य अँगरेजी का ‘क्रीचर’ शब्द नहीं, वेदांत का ‘जीवात्मा’ होता है। और ‘अद्भुत’ इसलिए कि वे कभी-कभी मुझे साक्षात अद्भुत रस का सगुण रूपांतर लगते हैं।

वे जन्म से ही अद्भुत हैं, जब वे भूमिष्ठ हुए तो हल्ला हो गया कि बच्चा मरा हुआ जनमा है। दाई बच्चे को हाँडी में कसकर गाँव के बाहर परती जमीन में गयी, गड्ढा खोदा गया। हाँडी गड्ढे में रख दी गयी। पता नहीं दाई के मन में कौन-सी प्रेरणा आयी कि उसने मिट्टी भरने के पूर्व हाँडी का ढक्कन एक बार खोलकर देखा तो पाया कि बच्चा टुकुर-टुकुर ताक रहा है। बस, फिर क्या था, उसने जल्दी-जल्दी बच्चे को बाहर निकाला। दूसरे क्षण, उसी वंध्या ‘परती’ भूमि में शिशु का प्रथम कंठ फूटा एवं कुछ मिनट के बाद ही केवटों का उदास मुहल्ला ढोलक और सोहर से पुनः मुखरित हो उठा। जीवन का प्रथम स्तवगान उन्होंने वंध्याभूमि में किया था और आज भी इस अस्तोन्मुख वेला में वे चिर-कुमार ही हैं।

उनकी भोजन-पान की रुचि भी विचित्र है। सुरती-तंबाकू से घोर वैराग्य, परंतु ‘ताड़ी’ और ‘कारन’ (देव-अर्पित मदिरा) खूब चलते हैं। दूध से जितना वैर हैं, घोर खट्टी दही से उतनी ही आसक्ति। सबको ‘सजाव’ अर्थात् ताजी-मीठी दही अच्छी लगती है, तो इनकी मान्यता है कि मीठी दही असली दही नहीं है। ”अरे दही हो तो ऐसी हो कि एक बार मुरदे की जबान पर रख देने पर वह भी चैतन्य होकर उठ बैठे!… दही जितनी खट्टी होगी उतना ही उसमें ताड़ी का मजा आयेगा।” रामदेवाजी कबके छब्बीस से खब्बीस हो गये, सुर्खाब पर झुर्रियाँ पड़ गयीं, परंतु मन में चिरयुवा, मौज-मस्ती को परम धर्म मानने वाला आदिम निषाद अब भी रह-रहकर जोर मारता है। वही ठहाका, वही दुस्साहस, वही छत्तीसा, वही ताल-पखावज जो सारी जवानी देश-विदेश नौका खेते हुए और गंगा-ब्रह्मपुत्र की चंचल धार से लड़ते हुए व्यक्त होते रहे, आज भी रह-रहकर अभिव्यक्त हो जाते हैं। उनका चिरकुमार मन अब भी छोकरा है, पर भुजाएँ थक गयी हैं। अब पाँच-छह साल से बाहर नहीं जाते। यही गंगा तट पर ‘छाड़न’ भूमि में परवल, करैले, खरबूजे उगाकर गुजर कर लेते हैं। न आगे नारी रूपी ‘नकेल’ है और न पीछे परिवार रूपी खूँटा-पगहा है। रात्रिचरों अर्थात शृगालों, श्वापदों और आभीर बालकों के उत्पात से जो कुछ बच रहता है उसमें एक आदमी की गुजर हो ही जाती है, और कभी अपने दैवी, अर्धदैवी या मानवी इष्ट मित्रें को षोडशोपचार सामग्री में कुछ कमी हो जाए तो चंदर जैसे ‘मन को बड़ी महीप’ शिष्य हैं ही।

देखने में रामदेवाजी छोटे कृष्णवर्ण, गठा शरीर, पकहर केश, रतनार नयन, चौड़ा जबड़ा, पर नुकीली नाक वाले टिपिकल गंगातीरी निषाद हैं। माथे पर सिंदूर और कंधे पर पीला या गुलाबी गमछा लगाये निर्भीक कंठ से देवी का ‘पचरा’ गाते हैं और क्षण-प्रतिक्षण साँवली होती हुई संध्या में नदी जल के भीतर ‘कारन’ वारि गिराकर पता नहीं, किसकी पूजा करते हैं, दीप जलाते हैं और हमारे जैसों को चना-गुड़ का प्रसाद देते हैं। उस समय साँझ के सँवराते अर्ध-तमस वातावरण में, जब वहाँ मुझे छोड़कर और कोई तीसरा नहीं रहता, कोई शाबर-मंत्र बुदबुदाते हुए वे अचानक रतनार आँखें खोलते हैं, तो उस क्षण वे मुझे नदी के साक्षात अपदेवता की तरह ज्ञात होते हैं।

कृष्ण पक्ष की रात में नदी के तट पर मैं अकेले उनके साथ बैठकर उनकी बातें सुनता हूँ। उनकी निरक्षर, पर अद्भुत कल्पनाप्रवण शैली से ऐसा भयस्तब्ध या अद्भुत-मौन वातावरण बन जाता है कि कभी-कभी मन के असावधान क्षण में मुझे लगता है कि नदी की धारा में या हवा में कोई खिलखिलाकर अभी-अभी हँस पड़ा है अथवा अभी-अभी नदी जल से निकलकर कोई पास से गुजरा है या अभी-अभी मेरे अवचेतन में ठहक लाल पाढ़ साड़ी पहने कोई अपना अस्तित्व जता गयी है। उनकी बातें ही ऐसी होती हैं कि सुनने वाले की कल्पना शक्ति अति जाग्रत हो जाती है, चेतन स्तर नशे में ढलने लगता है, और अवचेतन के जीव रह-रहकर झाँक जाते हैं। दूसरे ही क्षण पुनः सावधान हो जाने पर कहीं कुछ नहीं। प्रवाद है कि उन्होंने भूत-डामरविद्या को ‘कामरूकमच्छा’ अर्थात् कामरूप में जाकर ‘गुणियों’ से सीखा है। प्रति पूर्णिमा को नदी के उस पार जाकर वे ‘यक्षिणी-साधन’ करते हैं जो पता नहीं क्या बला है। पर यदि वह यक्षिणी ‘मेघदूत’ के यक्षों की लीलावधू हो और मंत्रबल से अलका छोड़कर ऐसे सुपुरुष के पास उसे आना पड़े तो उसकी किस्मत में लाल ‘बोरो’ चावल का नैवेद्य, भुनी मछली, ‘कारन’ एवं जवाकुसुम या पीत कनेर का हारफूल, यही सब उपलब्ध होगा! और ऐसी अवस्था में कल्पवृक्ष शीतल छाया, मंदाकिनी का मणिमय तट और ‘मधु रतिफलं’ की मदिरा को त्यागकर इस मर्त्य महीरुह-स्थाणु के पास वह आएगी ही क्यों? पर रामदेवाजी का विश्वास है कि इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में वे यक्षिणी को वशीभूत कर ही लेंगे। एक ही जन्म की साधना से थोड़े कुछ होता है! अरे, ‘जनम जनम मुनि जतन कराहीं!’

इधर मैंने बी.एस. गुहा, डॉ. हटन, डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के कुछ प्रबंधों को पढ़ा है और निषाद अर्थात ‘आस्ट्रिक’ और किरात अर्थात ‘इंडो-मंगोलीय’ संस्कृतियों के संबंध में भाषावैज्ञानिक और पुरातत्त्व संबंधी तथ्यों की चर्चा तथा पढ़ने-सुनने का भी थोड़ा-बहुत अवसर मुझे मिला है। यों मेरा सारा ज्ञान पल्लवग्राही ही रहा है परंतु इस सबमें मुझे चंदर माझी और रामदेवाजी की ऊल-जलूल बातों की ‘हुंकारी’ मिल जाती है और रामदेवाजी के ऊल-जलूल तथा गुहा-हटन-चाटुर्ज्या आदि के ऊहापोह में कोई न कोई संबंध अवश्य है और वह संबंध बादरायण संबंध मात्र न होकर कोई तत्त्वगत सार्थक संबंध है, ऐसी मेरी धारणा है।

हमारे गंगातीरी या उत्तर भारतीय निषाद, जिन्हें हम आम तौर से ‘मल्लाह’ कहते हैं, मूलतः ‘आस्ट्रिक’ या ‘अग्निकोणीय’ नस्ल के हैं, जो भारतीय धरती के आदि मालिक थे। उत्तर भारत में हर अर्थ में इनका इतना आर्यीकरण हो चुका है कि इनके अंदर निषादत्व का अस्तित्व बहुत कम रह गया है। भाषा बदलने से संस्कृति बदल जाती है। इनकी भाषा आर्यभाषा हो गयी। वे अपनी उस आदिम भाषा-भूषा-भोजन को त्याग चुके हैं जो अब भी मुंडा-कोल आदि मध्यप्रदेशीय ‘आस्ट्रिकों’ या ‘निषादों’ में वर्तमान है। इस आर्यीकरण का प्रतीकात्मक संकेत है राम द्वारा निषादराज के कुल को पावन करने की कथा में। आर्य-निषाद मिश्रण महाभारत में व्यापक तौर पर स्वीकृत था। और इस मिश्रित नस्ल के सबसे महिमामय फल हैं द्वैपायन कृष्ण व्यास। आज के मध्यप्रदेश अर्थात् त्रेता के जन्मस्थान और दंडकारण्य में यह प्रक्रिया उतनी ही तीव्र नहीं चली फलतः वहाँ अब भी ‘निषाद संस्कृति’ अपनी निषाद भाषा-भूषा-भोजन के साथ अक्षुण्ण है। परंतु उत्तर भारत में आर्यीकरण हो जाने के बावजूद भारतीय भाषा, भारतीय चिंतापद्धति और भारतीय स्वभाव पर इनका बड़ा प्रभाव है। लगता है कि इतिहास का आदिम निषाद राजनैतिक स्तर पर पराजित होकर भी हमारे मन और बुद्धि में प्रवेश कर इतनी सीमा तक विजयी हो गया कि विजेता आर्यत्व के कायाकल्प और मानसकल्प दोनों एक साथ घटित हो गये एवं उत्तर भारत की देह, वाणी, मन और बुद्धि का चतुरंग रूपांतर हो गया। ‘मल्लाह’ शब्द तो पेशावाचक शब्द है। मध्य युग में जब जलयात्रा और जहाजरानी पर अरबों का पूर्ण आधिपत्य हो गया तो इस शब्द का ‘नाविक’ के अर्थ में अधिक प्रचलन हो गया। मूलतः यह अरबी शब्द है। इसका प्रचलन भी हिंदी प्रदेशों तक ही सीमित है। असल संज्ञा है निषाद।

बुद्ध के समय उत्तर भारतीय निषाद आर्यघराने के अविभक्त अंग बन चुके थे। प्रायः कारीगर तथा कमकर इन्हीं में से आते थे। इनके स्वभाव में आर्यों जैसी चिंतन-प्रवणता तथा महत्त्वाकांक्षा नहीं थी। द्रविड़ों की तरह इनमें भावुकता तथा कवित्व नहीं था। ये तो शुद्ध आनंदवादी थे। नाचो, कूदो, परिश्रम करो, मौज उड़ाओ… जोगीड़ा सररर! उत्तर भारतीय त्योहार होली की विशिष्ट भंगिमा का मूल स्रोत निषाद स्वभाव ही है। दिन के लिए खाने को हो तो कल की फिक्र करने वाला जोरू का भाई!

द्रविड़ संचयवादी थे, कल की फिक्र करते थे, फलतः व्यापार और नगर संस्कृति की रचना उन्होंने की। पर निषाद आरण्यक तबीयत के थे। जो कमाया उसे संवत्सर के भीतर व्यय करके नये संवत्सर के साथ नवान्न का भोग करो – यह थी उनकी दृष्टिभंगी। आज भी मतसा के केवट चार मास बाहर तरबूज बेचकर या नौका खेकर हजार रूपये लेकर लौटते हैं तो उसे जल्दी से जल्दी मछली-भात, ताड़ी और जुआ में मास-डेढ़ मास में खर्च कर देने की कोशिश करते हैं। उनको भय होता है कि उनका कमाया रुपया कहीं जमकर दही न बन जाए, या सड़ न जाए, अतः फेंको इसे जल्दी बाजार में। परंतु भारतीय खेती का सूत्रपात करने वाले निषाद ही हैं। गंगातट के जंगलों को साफ करके पहले-पहल इन्हीं के द्वारा कृषि कर्म का श्रीगणेश हुआ। खेती के औजारों के नाम उन्हीं की देन है। विविध बीजों और अन्नों का जंगली घासों के भीतर उन्होंने ही आविष्कार किया। उनमे मुख्य है ‘धान’! ‘यव’ और ‘गोधूम’ आर्य शब्द हैं, ‘ब्रीहि’ (धान) द्रविड़ शब्द हैं जो अँगरेजी ‘राइस’ का आदि बिंदु है : ब्रीहि-रीहि-रीसि-‘राइस’। परन्तु भाषावैज्ञानिकों का कथन है कि ‘चावल’ शब्द निषाद (आस्ट्रिक) शब्द है जिसके मूल में है ‘जोम’ या ‘जाम’ (खाना) जो मुंडा-कोल बोली में अब भी प्रचलित है। जोम-झजाम-झचाम-झ चाव-झचावल। यही नहीं, आधुनिक भाषावैज्ञानिकों की दृष्टि में कदली, नारिकेल, ताल, तांबूल, वातिड्गण (बैंगन), आलाबु (लौका), निंबुक, जंबू, कर्पास, शाल्मली इत्यादि अनेक वृक्षों और तरकारियों के नामों का मूल स्रोत निषाद भाषा ही है। गंगातीर पर पाया जाने वाला काँटेदार वृक्ष ‘बबूल’, जिसके लिए असमिया भाषा में एक सुंदर नाम है ‘तरुकदंब’, शुद्ध निषाद शब्द है। हिंदी में ‘बबूल’ कहते हैं, बाँगला में ‘बाबला’। ‘अश्व’ आर्य शब्द है। परन्तु ‘साद’ (टट्टू) निषाद शब्द है। ‘साद’ से ही ‘सातवाहन’ अर्थात् घुड़सवार शब्द निकला है। कुक्कुट, मोर, मातंग, गज शब्द भी निषाद बोलियों से संबंधित हैं। ‘बाण’ और ‘लगुड़’ (भोजपुरी ‘लउर’ अर्थात् लाठी) शब्द जिनसे क्रमशः बाँगला और हिंदी के पुरुष चिह्न द्योतक शब्द निकले हैं, निषाद शब्द है। निषादों ने न केवल खेती करना बल्कि गुड़ बनाना, पान का प्रयोग, ‘कोड़ी’ (बीस) में गिनने की पद्धति, बुनाई कला, भैंस और हाथी पालना आदि का भी समारंभ किया है। ए.एल. बाशम के अनुसार संसार में सर्वप्रथम गंगा की घाटी के निषादों ने ही भैंस को पालतू बनाया।

श्री विभूतिभूषण वंद्योपाध्याय ने अपने एक संस्मरणपरक उपन्यास ‘आरण्यक’ में बताया है कि कुछ आदिवासियों के अंदर, जिनका संबंध ‘आस्ट्रिकों’-निषादों से जोड़ा जा सकता है, ‘टांडवारो’ नामक एक अपदेवता की काष्ठ मूर्त्तियाँ स्थापित करने की प्रथा है। ये जंगली भैंसों के देवता हैं। महिष बलि, महिषमर्दिनी दुर्गा की पूजा, शीतला की पूजा अपने आदि रूप में निषाद संस्कृति से प्रारंभ होती है। देह पर विवाह के अवसर पर हल्दी लगाना आर्यों में भी प्रचलित था। पर यह उन्होंने जलजीवी जाति निषादों से सीखा होगा। देह पर हल्दी मलकर जल में कूदने पर हल्दी की गंध से घड़ियाल-मगर आदि पास नहीं फटक सकते। संभवतः सिंदूर का प्रयोग भी आदिम निषादों ने ही प्रारंभ किया था।

बात कर रहा था रामदेवाजी की और बहककर चला गया गुहा-हटन-चाटुर्ज्या आदि का हरा-भरा खेत चरने। तो भी जो कुछ मैंने इधर-उधर की बातें कहीं हैं वे हँसुए के ब्याह में खुरपी का गीत निश्चय ही नहीं। बूँद में समुद्र का आह्वान और गुणधर्म भरा होता है। रामदेवाजी की ऊल-जलूल बातों और आधुनिक नृतत्वशास्त्र भाषाविज्ञान की ऊहा की बीच यही बूँद और समुद्र का संबंध है। रामदेवाजी का टोना-टोटका और भूत-डामर विशुद्ध निषाद-प्रतिभा की उपज है। और इसकी परंपरा पाँच हजार वर्ष पुरानी है एवं रामदेवाजी के शब्दों में व्यतीत पाँच हजार वर्षों के संस्कार मूर्त होते हैं। (स्मरण रहे कि ‘टोना’, ‘टोटका’ तथा अँगरेजी के ‘टोटेम’, ‘ताबू’ आदि शब्दों का मूल उत्स भी निषाद या आस्ट्रिक है) ये निषाद संस्कार हम सबकी शिरा-धमनी में हमारे षड्रिपुओं के साथ-साथ सहअस्तित्व बनाकर सक्रिय हैं।

रामदेवाजी अपनी अजीब ‘अड़बी-तड़बी’ बोली में जो कुछ कहते हैं उसका आधा ही मैं समझ पाता हूँ, पर जो समझता हूँ वह अपूर्व लगता है। वे कहते हैं, ”एक अनदेखा चन्द्रमंडल है आकाश केंद्र में। उसमें ‘मृगा’ है। ‘मृगा’ पर सवार है देवी और देवी पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण चारों ओर मुट्ठी-मुट्ठी बीज प्रतिक्षण फेंक रही है – न केवल गाछ-पात, लता-तरु के बीज बल्कि आदमी, जानवर, पंख-पखेरू सबके बीज। ये बीज चारों दिशाओं में चौदहों भुवन में निरंतर बिखरते रहते हैं और रूप लेते रहते हैं। देवी के नयनों से सात रंग बरसते रहते हैं। उसकी नजर से ही ये सारे रूप अपना-अपना रंग लेते हैं, रंग बदलते हैं, रंग उड़ते हैं और निरंग हो जाते हैं।” रामदेवाजी आविष्ट की तरह अर्धनिमीलित चक्षु होकर यह सब कहते जाते हैं और तब अचानक आलू जैसी बड़ी-बड़ी लाल आँखें खोलकर मेरी ओर ताकते हैं और वर्णन पूरा करते हैं। ”देवी की दायीं आँख रंग-बिरंग नजरें मारती हैं, सृष्टि को रंग प्रदान करती है। देवी की बायीं आँख उन रंगों का भक्षण करती है। और देवों की तीसरी आँख ललाट में स्थित है जो सूर्य के रथ का नियंत्रण करती है। दिन-रात का आना-जाना उसी आँख के इशारे पर होता है। मौसम उसी आँख की भंगिमा देखकर बदलते हैं… हम-तुम, ये चिड़िया-चुरुंग, पशु-प्राणी सभी उसी चंद्रमंडल से बिखरे बीजों के लता-पता हैं।” और इस प्रकार का कथन समाप्त करते हुए रामदेवाजी अपना मस्तक श्रद्धा से झुका लेते हैं।

चंद्रमंडल के इस महत्त्व की वार्ता सुनकर मुझे बहुत-सी बातें स्मरण हो आती हैं, जिन्हें मैंने डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के एक निबंध में पढ़ा था। वर्तमान युग में पोलीनीशिया में आस्ट्रिक या निषाद पंचांग अब भी चालू है और उनकी तिथि गणना चंद्रमा पर आधारित है। सृष्टि और काल का मूल उत्स है चंद्रमंडल, ऐसा पुराने निषादों (आस्ट्रिकों) का विश्वास था। वे चंद्रमा की कलाओं के आधार पर तिथि-गणना करते थे। आश्चर्य है कि सुदूर पोलीनीशिया में चालू पंचांग में पूर्ण चंद्र और नष्ट चंद्र तिथियों के लिए जो शब्द आते हैं वे हैं ‘राका’ और ‘कुहू’। इससे सिद्ध होता है कि ‘राका’ और ‘कुहू’ निषाद भाषा के शब्द हैं। आर्यों ने निषाद संस्कृति को आत्मसात् करने की प्रक्रिया में इन्हें अपनी भाषा में दाखिल कर लिया। हमारे ज्योतिष शास्त्र में ‘मातृका’ नक्षत्र मंडल है, जिसे पोलीनिशियन पंचांग में अब भी ‘मातरिकी’ कहते हैं। चाटुर्ज्या महाशय की यह सूचना रामदेवाजी की ‘अड़बी-तड़बी’ रहस्यवाणी के संदर्भ में मेरे लिए और अर्थवान हो उठती है।

आर्य लोग चंद्रमा को औषधियों का स्वामी मानते हैं। मुझे लगता है यह विश्वास निषादों से अनुप्रेरित है। इस देश की जड़ी-बूटियों, घास-पात, पेड़-पौधों के पहले जानकार तो निषाद ही थे, कृषि कर्म के प्रथम नायक भी निषाद ही थे। ऐसी अवस्था में औषधियों का संबंध चंद्रमा के साथ पहले-पहल उन्हीं की कल्पना द्वारा जोड़ा गया होगा। औषधियों से आरोग्य होता है, अतः उनमें अमृत का अंश है। सोम या चंद्रमा औषधियों का राजा है, या ‘अनदेखे चंद्रमंडल’ में औषधियों का बीज है, अतः सोमकला या चंद्रमा में भी अमृत है। यह कल्पना संभवतः निषादों ने की होगी। उनके मन में प्रश्न आया होगा – यह चंद्रमा आया कहाँ से? समुद्र से। अतः समुद्र-मंथन करके अमृत-कुंभ और उसका सहोदर अमृत कलावाला चंद्रमंडल का निकाला जाना उन्होंने ही पहले-पहल कल्पित किया होगा। अमृत-मंथन की मिथक भारतीय आर्यकुल में ही प्रचलित है, नार्डिक या ग्रीक घराने में नहीं। अतः यह समुद्र मंथन का ‘मिथक’ शुद्ध देसी प्रतिभा, संभवतः निषाद-प्रतिभा की उपज है। चंद्रमा का पिता समुद्र है, तो समुद्र के नीचे क्या है? निषाद-कल्पना ने उत्तर दिया होगा, समुद्र के नीचे पाताल है जहाँ पर भी एक अमृतकुंभ है, जहाँ मणियाँ हैं, जहाँ अतुलित बलशाली नाग हैं, जो इन दोनों अलभ्य वस्तुओं की रक्षा करते हैं। क्योंकि उन्हें छोड़कर धरती के भीतर गहरी बामी में और कोई जीव नहीं रहता। इस प्रकार कल्पना-दर-कल्पना चलती रही और सबका उत्स रहा निषादों का चंद्र-प्रेम। आर्य ऊषा और आदित्य के उपासक थे। सोम नामक जड़ी का पान करके वे क्षणिक देवत्व का आवेश भोग कर लेते थे। निषादों के संसर्ग में आकर उन्होंने ‘सोम’ का संबंध चंद्रमंडल से जोड़ा और सोम का अर्थ हुआ चंद्र।

ग्रीक महाकाव्यों का ‘नेक्टार’ और आर्यों का ‘सोमरस’ केवल देवोपम निश्चिंतता और आनंदयुक्त मत्तता देते हैं। पर अमृत की कल्पना कुछ और ही है। अमृत की कल्पना में औषधि तत्त्व का संकेत है क्योंकि वह अमृत रस हमें जरा-मरण से ऊपर और परे ले जाता है, रोग और मृत्यु के पाश से हमें मुक्त कर सकता है। किसी औषधिधर्मी रस के द्वारा जरा-मरण के ऊपर विजय एक निराली कल्पना है और ऐसी कल्पना करने वाली जाति के मन में ही अमृत मंथन की कल्पना और अमृत कुंभ से युक्त पातालपुरी की कल्पना – जो मात्र भोगलोक है जिसकी राजधानी ही भोगावती है – प्रथम-प्रथम आयी होगी। बाद में द्रविड़ों ने, जो भावुकता प्रधान, ‘कवित्वपूर्ण, रईसतबीयत, मणि-माणिक-लोभी, नगर रचने वाली और व्यापार करने वाली जाति थी – इस कल्पना को विकसित किया होगा और उन्होंने कल्पित किया होगा कि समुद्र-मंथन के साथ न केवल अमृत बल्कि तरह-तरह के अलभ्य रत्न भी निकले थे और पाताल लोक न केवल अमृत कुंभ का लोक है बल्कि ‘भोगी’ जाति का चरम भोगलोक है, जहाँ मणि-माणिक माथे पर धारण करे रईसतबीयत नाग कुल अमृत पान करता है और सुख भोगता है और तब आर्यों का चिंताशील दार्शनिक मन आया होगा। और उसने इस समुद्र मंथन की पूर्व पीठिका में देवासुर संग्राम के रूप में शिव और अशिव के द्वंद्व तथा आर्य और अनार्य द्वंद्व के दार्शनिक और राजनैतिक तत्त्व को इस मिथ से संयुक्त कर दिया होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि आज की भारतीयता का पिता है आर्य, पितामह है द्रविड़ और प्रपितामह है निषाद। अवश्य ही पूर्वी भारत में एक चौथा तत्त्व भी सक्रिय रहा है जो आर्य पिता का समकालीन है और वह है ‘किरात’ अर्थात ‘इंडो-मंगालीय’ तत्त्व, जो लद्दाख से अरुणाचल (नेफा) तक की पतली हिमालय की पट्टी और समूचे ब्रह्मपुत्र क्षेत्र (असम और बंगाल तथा बाँगला देश) के इतिहास में प्राधान्य लाभ किये हुए है। परंतु इस समय हम उत्तर भारत अर्थात ठेठ हिंदुस्तान की ही चर्चा कर रहे हैं, जिसका पिता है आर्य, पितामह है द्रविड़ और प्रपितामह है निषाद।

सुनीति बाबू लिखते हैं और रामदेवाजी तथा उनके चंदर-मंदर जैसे शिष्यगण इसे करके दिखाते हैं कि निषाद मन एक ओर तो बड़ा परिश्रमी तथा धीर मन रहा है, दूसरी ओर वह खुशमिजाज, बेपरवाह, मनमौजी, सदैव ‘अरे, वाह वाह’ गीत गुंजरित, नृत्यकंपित और कभी-कभी उन्मत्त-प्रमत्त भी रहने का आदी है। इसका रसवाद प्रायः मुक्त हास्य और आदिरस से संयुक्त रहा है और इसकी विशिष्ट अभिव्यक्ति होती है ‘होली’ त्योहार के अंदर, जिसे अब भी कुछ लोग चतुर्थ वर्ण का त्योहार कहते हैं। उस दिन चांडाल-स्पर्श पुण्य माना जाता है। ऐसा मानसिक भावात्मक खुलापन वाला त्योहार, निषाद संस्कारों की ही उपज है।

मैं समझता हूँ चार्वाक ऋषि की उनके जीवन काल में निषादों के बीच बड़ी इज्जत रही होगी क्योंकि उनका ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्’ दर्शन निषादों के मनमौजी स्वभाव के समानांतर है। आज भी मतसा गाँव के निषाद एक दिन का खाना भी घर पर मौजूद हो तो बैठकर ताश खेलेंगे। तेल में मछली कल्हारी जाएगी और अड्डाबाजी होगी। उस समय रायजी, मिसिर जी, वर्माजी, जा-जाकर इनकी देहरी पर शीश पटकेंगे कि चल भाई, मेरा मकान गिर रहा है, मेरी छत चू रही है, या मेरी फसल खेत में झड़ रही है, परंतु सब व्यर्थ! क्योंकि आदिम निषाद इनके मन में जाग उठा है और ये नहीं सुनेंगे। ये ही क्यों, रायजी, मिसिरजी, वर्माजी भी इस निषाद से परित्यक्त नहीं। उनकी देह में यह हो या न हो, पर उनके मन का चालीस प्रतिशत इसकी राजधानी है। यह आदिम निषाद उनके संस्कारों में जब प्रबल और उन्मत्त हो उठता है तो ये भी दो बीघा बेचकर होली-दीवाली के दिन ‘चमर नट’ या नर्तकी का नाच कराते हैं, दावतें देते हैं और स्वयं भी छानते-फूँकते-पीते हैं।

मेरे मन की गहन गुहा में कहीं पर बैठा हुआ यह आदिम निषाद मुझे भी छात्र जीवन में बड़ा तंग करता था। मुझे स्मरण है कि एक ग्रीष्मावकाश के बाद बनारस कैंट स्टेशन पर उतरकर अपने सहपाठी जयमल राय के साथ मैंने प्रतिज्ञा की कि इस वर्ष हम दोनों सिनेमा देखेंगे ही नहीं। पर ज्यों ही हमारा रिक्शा कैंट स्टेशन से आगे बढ़ा और एक-से-एक बढ़िया चलचित्रों के सम्मोहक पोस्टर आने लगे, हमारी प्रतिज्ञा ढीली होने लगी, आदिम निषाद हमारे मन का मंथन करने लगा और अंत में ‘प्रकाश टॉकीज’ तक आते-आते हमारे विचारों में आमूल परिवर्तन हो गया और जयमल को मैंने वहीं पर उतार दिया और कहा, ‘यार, तू लाइन लगा, मैं सामान रखकर अभी आया।’ आज मैं वयस की प्रौढ़ता के कारण कर्तव्यपरायण हो गया हूँ, परंतु अब भी छुट्टी के दिनों में अरण्यवीथी, या नदी तट पर निकल जाता हूँ तो अकेले में मेरी आत्मा में निरंतर वर्तमान आदिम निषाद मेरी शिरा-धमनियों में प्रवेश करके अविराम नौका-क्रीड़ा करने लगता है और मेरे मन में बज रही उसकी अविराम बाँसुरी के अस्तित्व के प्रति सचेत हो जाता हूँ।

कुब्जा-सुंदरी

मारे दरवाज़े की बगल में त्रिभंग-मुद्रा में एक टेढ़ी नीम खड़ी है, जिसे राह चलते एक वैष्णव बाबा जी ने नाम दे दिया था, ‘कुब्जा-सुंदरी’। बाबा जी ने तो मौज में आकर इसे एक नाम दे दिया था, रात भर हमारे अतिथि रहे, फिर ‘रमता योगी बहता पानी’! बाद में कभी भेंट नहीं हुई।

परन्तु तभी से यह नीम मेरे लिए श्रीमद्भागवत का एक पन्ना बन गई। इसके वक्र यष्टि-छंद में मुझे तभी से एक सौंदर्य बोध मिलने लगा। वैसे भी यह है बड़े फायदे की चीज। अपने आप उगी, बिना किसी परिचर्या के बढ़ती गई, पौधे से पेड़ बन गई और अब मुफ्त में शीतल छाँह देती हैं, हवा को शुद्ध और नीरोग रखती है, हजर किस्म के रोगों के लिए उपचार-द्रव्य के रूप में छाल, पत्ती, फूल, फल और तेल देती है, पशु और मनुष्य के रोगों से जूझती है, सबसे बढ़कर सुबह-सुबह राम-राम के पहर दातून के रूप में मुँह साफ़ करती है, बाद में मैं अपना मुँह गन्दा करूँ या अश्लील करूँ तो यह बेचारी क्या करे? नाम भले ही वृन्दावनी हो पर इसकी भूमिका वैष्णवता के उस साफ-सुथरे संस्करण की है जिसे संत कबीर ने अपनाया था। वैसे तो संत और भक्त में मैं कोई खास प्रभेद नहीं मानता। संत ‘हंस’ है तो भक्त ‘मराल’। नाम का ही फ़र्क है। बात एक ही है। संत और भक्त की मूल प्रकृति एक ही होती है। दोनों ही वैष्णव हैं।

अब राजनीति उन्हें वाद-प्रतिवाद के रूप में रखे तो रखे – ‘दाख छुहारा छांड़ि अमृत फल विष-कीरा विष खात!’ अपना-अपना स्वाद है! परन्तु हिन्दुस्तान का किसान-मन उन्हें एक ही मानता है। वैसे तो फागुन-चैत में यह नीम भी वृन्दावनी साज-शृंगार ले लेती है। पर महज एक ऋतु के लिए। फागुन में इसके पत्ते झड़ने लगते हैं। वैराग्य की उदासी का अपूर्व पीतवर्णी शान्त रस इस पर उतरता है। फिर चैत्र चढ़ते ही नरम टूसे और पत्तियाँ जीवन और यौवन की कविता की तरह फूटने लगती हैं। देखते-देखते ही वृक्ष शोभामय हो उठता है और इसके नाम से जुड़ा ‘सुन्दरी’ शब्द तभी सार्थक लगता है। फिर रात में नन्हें-नन्हें सुगन्धित पीतगर्भी श्वेत फूलों की मंजरियाँ लग जाती हैं। पतझर की पीली अपर्णा उदासी से लेकर निर्मल चाँदनी में स्नान करती हुई वासन्ती रातों की सुगन्ध तक यह नीम कविता-ही-कविता है। प्रति संध्या को प्रत्येक डाल चहचहाहट से भर उठती है। पेंपा, गौरया, सुग्गे और एकाध कौए भी इस पर रैन बसेरा लेते हैं। तब गंध और गान से इसका विश्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है। चाँदनी रातों में तो यह ‘देवी-यान’ बन जाती है। लोग कहते हैं कि सबकी नज़रों से अदृश्य पार्वती की सातों बहनों का रथ आकाश से उतरता है और नीम की डाल से पार्वती की सातों बहनें एकान्त में झूला झूलती हैं। मनुष्य-चक्षुओं से अदृश्य वसन्तकालीन रातों में।

भोजपुरी लोकगीतों में यह विश्वास बार-बार व्यक्त होता है भयमिश्रित श्रद्धा के साथ! वैद्यों-डॉक्टरों की वात्सल्यमयी माँ यह वसन्त ऋतु नन्हें-नन्हें बच्चों के लिए चेचक का उपहार लेकर आती है (असम, बंगाल में तो ‘वसंत’ का एक अर्थ ‘चेचक’ भी होता है) और चेचकग्रस्त शिशु के सिरहाने नीम की पतली कंछिया रख दी जाती है। अत: उत्तर भारत में यह कटु तिक्त नीम भी ‘देवी-तरु’ मानी जाती है। ‘नीप’ या ‘कदम्ब’ की तरह। ‘नीम’ और ‘नीप’ में एक अक्षर का ही अंतर है तो भी दोनों का व्यक्तित्व भिन्न हैं। ‘नीप’ अर्थात कदम्ब त्रिपुर सुन्दरी का वृक्ष है तो ‘नीम’ शीतला का। आधी रात को ‘नीप’ के कुंजों में गंधर्वों की बाँसुरी बजती है, तो आधी रात को ‘नीम’ की डाल पर देवी की सातों बहनों की चूड़ियाँ खनकती हैं। इस नीम का एक कुहकी रूप है ‘महानिम्ब’ या ‘बकायन’ जिसके पत्ते भी नीम की तरह सीकों पर लगते हैं और ये पत्तियाँ कटुतिक्त नहीं होतीं तथा अपने द्रव्य-गुण के कारण दक्षिण भारत में तेजपात की तरह इसका प्रयोग होता है। वहाँ इसे ‘गौरी नीम’ भी कहते हैं। पर उत्तर भारत में ‘बकायन’ का उल्लेख शबर मंत्रों में ‘अकाइन बकाइन लोना चमाइन’ के रूप में होता है। अत: यह वृक्ष लोक की भयमिश्रित श्रद्धा का पात्र है और बाग बगीचे के एकान्त कोने में ही लगाया जाता है। बस्ती के भीतर इसका प्रवेश नहीं। परन्तु कटु नीम तो रास्ते-चौरस्ते और आँगन की शोभा है – नीरोग छाँह, शुद्ध पवन और मनसायन कलरव! एक ग्राम-कथिका है ‘निबिया रे करुआइन तबो शीतल छाँह, भइया रे बिराना, तबो दाहिन बाँह!’ यानी नीम कटु होने पर भी शीतल छाया देती है और दूर के रिश्ते का भाई भी अपनी बाँह होता है।

उत्तर भारत में नीम भले ही लोक विश्वास में ‘देव तरु’ माना जाता हो, शास्त्र में इसे मात्र भैषज्य-तरु की ही महत्ता है। परन्तु उड़ीसा में नीम को ‘ब्रह्म दास’ की संज्ञा मिली है, वह शायद इसलिए है कि उत्कल के महादेवता जगन्नाथ जी का कलेवर यानी मूर्ति नीम-काष्ठ से ही बनती है और प्रति द्वादश वर्ष के बाद उसका ‘नव यौवन’ अर्थात ‘नवीनीकरण’ किया जाता है। इस नव कलेवर-उत्सव को ‘नव यौवन-उत्साह’ कहते हैं। मैंने पहले पहल इस बात को आज से पैंतीस वर्ष पूर्व कलकत्ते में अपने मित्र वनमाली गोस्वामी से सुना था। उन्होंने जब कहा, इस बार जून-जुलाई में पुरी जा रहा हूँ नव-यौवन दर्शन करने! सुनकर मैं तो चमत्कृत हो गया और अपनी तत्कालीन भंगिमा और भाषा में मैंने पूछा था, यार, इस कलकत्ते में नवयौवन का अकाल पड़ा है क्या, कि उत्कल देश को आपकी आँखें पवित्र करने को तुली हैं। उन्होंने मेरे अज्ञान का तत्काल निवारण करते हुए असल अर्थ बताया और आगे भी बताया कि उड़ीसा के लोग इस नीम को अत्यंत पवित्र मानते हैं और इसकी संज्ञा ‘दारु ब्रह्म’ है। यदि वेद व्यास उड़िया होते तो वे गीता में अवश्य कहला देते, वृक्षाणां निम्बोऽस्मि । वस्तुत: हिन्दुस्तानी मन जीवन को प्रकृति और ईश्वर से जोड़कर देखता है। उसके मन में जो कुछ उपयोगी और रसमय है वह सब अपने आप ईश्वर से जुड़ जाता है।

वनमाली थे उड़िया ब्राह्मण, परन्तु गौड़ीय वैष्णव मत को मानते थे। उनसे मैंने वैष्णवों की अनोखी शब्दावली का थोड़ा-बहुत ज्ञान भी अर्जित किया था। उदाहरण के लिए वैष्णव लोग खाना तो खाते ही नहीं, भोजन भी नहीं करते, बल्कि ‘प्रसाद’ ग्रहण करते हैं, ‘भात’ को ‘अन्न’ कहते हैं, दाल को ‘रसम्’ – ‘तरकारी’ शब्द का उच्चारण किया कि सीधे नरक में चले गए! अत: इसे ‘शाक’ कहते हैं। उनमें खीर के लिए ‘परमान्न’ और पुलाव के लिए ‘पुष्पान्न’ चलता है। भोजपुरी लोगों की दालपूरी के लिए ‘राधा वल्लभी’ और गाजीपुरी सत्तू-बाटी के लिए ‘मुकुन्दी’। मुझे सबसे अद्भुत लगा उनके रसशास्त्र का ‘अभियोग’ शब्द। हम तो जानते थे कि ‘अभियोग’ माने होता है मुकदमा और ‘अभियुक्त’ माने अपराधी परन्तु उनके शास्त्र में प्रेमी या प्रेमिका द्वारा एक-दूसरे को आकर्षित करने के तरीके को ‘अभियोग’ कहते हैं। जैसे कि नायिका बाग-बगीचे में जा रही है जो अक्सर वैष्णव कविता में जाती है, वहीं नायक दिखाई पड़ गया तो उसे दिखाकर एक नरम कच्चे किसलय अथवा पल्लव को दाँत से काटना, या नायक द्वारा अपने साथी को, नायिका को दिखाकर, किसी फल को देना जैसी इशारेबाजियाँ ‘अभियोग’ है।

आप कहेंगे कि कड़वी नीम के सन्दर्भ में भारत की मधुरतम रस-परम्परा की यह चर्चा करना अनर्गल है। ये चर्चाएँ तो कदम्ब-तमाल के सन्दर्भ में होनी चाहिए। परन्तु ‘वय: कैशोरकं ध्येयम’ यानी ‘वयस में किशोर-वय ही आराध्य है’ की घोषणा करने वाले माधवेन्द्र पुरी के प्राशिष्य थे महाप्रभु चैतन्य जिन्होंने अपनी साधना का केन्द्र ‘राधा’ को ही बनाया। साथ ही यह भी स्मरणीय है कि इस राधा-उपासना के आदि प्रवर्तक अपने कलिकाल में निम्बकाचार्य ही माने जाते हैं। तो यह कटु नीम इस रस-उपासना के आदि प्रवर्तक अपने कलिकाल में निम्बकाचार्य ही माने जाते हैं। तो यह कटु नीम इस रस-परम्परा के आदि गुरु के नाम से जुड़ी है और राधा-माधव के परम प्रिय ‘करील’ से तो लाख दर्जे सुन्दर और आकर्षक है। करील, कदम्ब और तमाल को जिन्होंने कभी नजदीक से देखा न हो उन्हें कोई धोखा दे, उनके बाह्य रूप रंग में ‘नाम बड़े पर दर्शन थोड़े’ वाली बात ही है। नीम फागुन-चैत-वैसाख तीन महीने पूर्वराग-राग-महाराग के प्रतीक किसी भी महीरुह से शोभा और शृंगार में मुकाबला कर सकती है। करील में तो काँटे ही काँटे हैं। उससे खूबसूरत तो अपने खेत-खलिहान की बबूल है। ग्रीष्म आते ही यह चटक पीले फूलों से ढँक जाती है तो उन काँटों के बावजूद उसे मानना पड़ता है।

कदम्ब का पेड़ शीशम की तरह ही लम्बा छरहरा होता है। पर बड़े-बड़े पत्ते होते हैं पलाश की तरह। फूल कन्दुक यानी गेंद की तरह बड़े-बड़े। इनमें दल नहीं होते। जीरे या पराग-सूत्रों से गठित सघन पुष्प-कन्दुक। हल्का हरित पीत वर्ण, कोई सौंदर्य नहीं। परन्तु इनकी सुगन्ध बड़ी मादक और मीठी होती है। कदम्ब की असल खूबी है इसकी मीठी मादक गंध और इसकी शाखाओं या कोटरों से चूती हुई ‘नीरा’ जिसे ‘कदम्ब मधु’ कहते हैं। हिमालय के निचले भागों में जहाँ किरातों की गंधर्वशाखा रहती थी ये पेड़ बहुतायत से मिलते थे। वारुणी और मादक सुगंध के कारण तथा पावस ऋतु में पुष्पित होने के कारण यह पेड़ गन्धर्व-संस्कृति से और कामदेव से जुड़ गया। फिर बाद में यमुना तट पर आरण्यक रूप में उपस्थित होने के कारण ‘साक्षात् मन्मथ-मन्मथ:’ श्रीकृष्ण की महाराग-लीला का अनिवार्य अंग बन गया। यह त्रिपुर सुंदरी का भी परम प्रिय वृक्ष बना इसी वारुणी गंध और गंधर्व संस्कृति के कारण। वैसे भी में मानता हूँ कि नीम मूलत: उपयोगी भैषज्य-तरु ही है। परन्तु रूप-गंध-सुषमा-सौन्दर्य से यह एकदम रिक्त भी नहीं है, अत: इसके संदर्भ में रस-चर्चा की बात बिल्कुल अनर्गल हो, ऐसी बात नहीं।

राधा का चर्चा तो सभी करते हैं, पर कुब्जा की चर्चा प्राय: नहीं होती। किसी ने की भी तो गोपियों के मुँह से खरी-खोटी का लक्ष्य बनाकर ही। परन्तु कुब्जा की ओर से शायद ही कोई जवाब देने जाता है। वैसे ‘ग्वालकवि’ ने मथुरा निवासी होने के कारण ही शायद ‘कुब्जाष्टक’ लिखकर पड़ोसी का कर्तव्य पालन अवश्य किया है और गोपियों की कटूक्तियों का ‘सौ सुनार की न एक लोहार की’ शैली में कुब्जा सुन्दरी का प्रत्युत्तर व्यक्त किया है। कुब्जा कहती है कि वे बेहया गोपियाँ मुझे क्या कहेंगी? कहीं चलनी भी सूप पर हँस सकती है? ‘बनन में, बागन में, यमुना किनारन में, खेत में, खरान में, खराब होती डोली वै।’ मैं तो उनसे लाख दर्जे अच्छी हूँ। इस शताब्दी के प्रारम्भ में एक बार द्विवेदी युग के प्रसिद्ध ब्रजभाषा कवि पण्डित नवनीतलाल चतुर्वेदी का आगमन बनारस में हुआ और तत्कालीन काशिराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह ने, जो स्वयं भी कवि थे, उनसे आग्रह किया, चौबे जी, हमें लगत हौ कि कुब्जा के साथे ब्रजभाषा के कविन द्वारा न्याय नाही हुआ है। अब आपै कुछ कृपा करीं। महाराज ने तो मौज में आकर बात कह दी थी। परन्तु चतुर्वेदी जी ने दूसरे ही दिन ‘कुब्जा-पचीसी’ लिखकर महाराज के सामने प्रस्तुत कर दी। कुब्जा की ओर दिए गए एक से एक धाँसू जवाब। बानगी देखें, कुब्जा उद्धव द्वारा लाए गए कटु-तिक्त संदेश के उत्तर में कहती है:

गोबर की डलिया सिर लै कब गायन में हम जाति हैं रूँधन।
त्यों ‘नवनीत’ दुहावन के मिस द्वार किवार दिए कब मूँदन।
कौन दिना बन बीच कही हरि कामरि लाई बचाइयो बूँदन
उद्धव और कहा कहिए, कब खोलि दिए फरियान के फूँदन।

इसमें ‘फरिया’ शब्द से पूरब वाले शायद परिचित न हों। पहले जमाने में अन्तर्वास के रूप में मर्द जाँघिया पहनते थे और नारियाँ फरिया जो घाघरे के नीचे रहती थी। राजपूत चित्रकला में यह लक्ष्य किया जा सकता है। जाँघिया जांघों तक ही रहता है, पर फरिया पूरी टाँग को ढँकती है। शेष तो बड़ा ही स्पष्ट है। परन्तु एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जिस समय नवनीत जी ने इस रचना के छन्दों को लिखा था वे पूर्णत: नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। बहुत बाद में 46 वर्ष की अवस्था में अपने गुरु के बहुत आग्रह करने पर उन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। वैष्णव धर्म में विशेषत: पुष्टिमार्ग में गृहस्थाश्रम को ही सर्वोच्च महत्व दिया गया है। यदि कोई आधुनिक आलोचक अपने फ्रांयड-युंग के ज्ञान का इस पर आरोपण करे और उनके जीवन के बारे में कोई कुकल्पना करे तो अपनी शोध की कलम को ही गन्दी करेगा। वैष्णव-संस्कृति में प्रशिक्षित मन इस बात को भली भाँति समझता है कि ये सब ‘राधा-गोविन्द-सुमिरन’ के बहाने हैं। इनका क्रियात्मक अर्थ शैली और भंगिमा तक ही सीमित है। ये सब मध्यकालीन वैष्णव काव्य रूढ़ियों का अनुगमन मात्र है। ठीक वैसे ही जैसे आज की आधुनिक जनवादी कविता के अद्भुत अद्भुत जुझारू तेवर हैं। सूर के ‘हों पतितन को टीको’ या तुलसी के ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’ के आधार पर उनके जीवन की व्याख्या करना घोर मूर्खता है और वैष्णव साहित्य परम्पराओं से घोर अपरिचय का द्योतक है। केलि-वर्णन और दैन्य-निवेदन के पदों को उनके सांस्कृतिक एवं शास्त्रीय संदर्भ में देखना ही सही ढंग से देखना है।

एक बार मैंने एक भागवत मर्मज्ञ पण्डित से इस कुब्जा-तत्व की चर्चा की थी तो उन्होंने बताया था कि कुब्जा वस्तुत: धरती का प्रतीक है और उसका कृष्ण-प्रेम पार्थिव स्तर तक ही सीमित था। दैहिक प्रेम से ऊपर उठ कर महाभाव में प्रवेश करने की वह अधिकारिणी नहीं थी। इसी से प्रेम की अपार्थिव ईश्वरीय लीला की वह सहचारिणी नहीं हो सकी। श्रीमद्भागवत एक ‘रहस्य-काव्य’ है और सारे रहस्य-काव्य प्रतीकों की भाषा में ही मुखरित होते हैं। गहन गंभीर बोध को वैखरी के स्तर पर उतारने के लिए अन्य कोई साधन ही नहीं। निर्गुण लीला में तो यह बात स्पष्ट है ही, सगुण लीला में भी यही बात है, क्योंकि ‘चरित’ जब दिव्य लीला के रूप में उतरता है तो ‘रहस्य’ व्यक्त करता है और ‘रहस्य’ की भाषा ही है प्रतीक भाषा।

रास लीला की बात लें। आर्य समाजियों से लेकर आज के नव शिक्षित तक सभी के तेवर इस पर अग्नि वर्षा करते हैं। परन्तु रास क्या कोई ‘स्थूल’ घटना है? वृन्दावन की लोक-संस्कृति में रास-नृत्य की प्रथा सदैव से है। इसको श्रीमद्भागवत ने एक सृष्टि के निरन्तर चालू भवति-प्रवाह के वृत्ताकार रूप का प्रतीक बना दिया है। केन्द्र में एक श्रीकृष्ण और परिधि के प्रत्येक जोड़े को परस्पर बाँधे हुए असंख्य कृष्ण। इस सृष्टि नाम की माल्यरचना में ईश्वर सूत्र की तरह उपस्थित हैं और एक इकाई को दूसरे से जोड़ता है। मनुष्य और मनुष्य, मनुष्य और प्रकृति, सर्वत्र ही ईश्वर महान संयोजक या ग्रंथि के रूप में वर्तमान है। यह गाँठ टूट जाय तो माला बिखर जाएगी। वही सब कुछ को एक- दूसरे से बाँधे हुए हैं तथा केन्द्र में भी वही ‘कर्माध्यक्ष’ के रूप में है। गीता में उन्होंने कहा है, ‘समासों में मैं द्वन्द्व समास’ हूँ। द्वन्द्व समास तब घटित होता है जब दो संज्ञाएँ परस्पर जुड़ती हैं। पुत्र पिता से, पति पत्नी से, मित्र मित्र से, पड़ोसी पड़ोसी से, नागरिक नागरिक से जुड़ता है तो संसार बनता है और गतिशील होता है। यही है शाश्वत रासलीला जिसे श्रीमद्भागवत अपनी प्रतीक भाषा में व्यक्त करता है। इस ‘विश्व नृत्य’ को स्थूल भाषा के माध्यम से समझना ही भूल है।

इसी भाँति कुब्जा को देखें। कुब्जा और कोई नहीं कंस द्वारा शासित पृथ्वी ही है जो कुब्ज भोगने के लिए विवश है। अपने सहज रूप में यह उदार, क्षमामयी और सुंदर अपनी धरती ही कुब्जा है जिसे कंसों, केशियों और चाणूरों का अंग-शृंगार करना पड़ता था। उसका चोवा चंदन, उसका रूप, रस, गंध और गान इन पाप-विग्रहों की सेवा में अर्पित हो रहा था। इसी से वह ग्लानि से सिकुड़कर विकलांग हो गई थी। परंतु जब ‘वरण’ का क्षण आया तो इसी विवश धरती ने साहस किया और एक बार द्विधाहीन मन से भगवत अंग श्री का चंदन-शृंगार कर दिया। इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं। जब कोई मुक्ति मार्ग नहीं रह जाता तो विश्व मंगल की परम शक्ति का अवतरण और हस्तक्षेप होता है। उस समय ईश्वर भी अपेक्षा करता है कि वरण करने का कोई साहस दिखाकर आगे आए। कोई एक लोटा गंगाजल और बेलपत्र लेकर खड़ा हो जाए। तब वह एक लोटा गंगाजल ही युगों की संचित पाप-राशि का प्रक्षालन कर देता है। एक तिनपतिया बेलपत्र ही रुद्र की तीसरी आँख बन जाता है। कोई नन्हा-सा साढ़े तीन हाथ का आदमी साहस तो करे! श्रीमद्भागवत् के अनेक प्रसंग बड़े ही संकेतधर्मी हैं, जैसे यमलार्जुन उद्धार, दावानल पान, कालिया मर्दन या कुब्जा प्रेम आदि। श्रीमद्भागवत के मर्म को समझकर उसे पढ़ा जाए तो आज भी वह अप्रासंगिक नहीं। आज भी मारक अंधकार में अनेक हत्या-कक्ष चालू हैं जिनमें से किसी एक में कहीं न कहीं कृष्ण-जन्म होगा ही। उस जन्म की आकृति, भाषा और मुहावरा चाहे जो हो। मनुष्य जन्म पाकर भी हम निराशावादी क्यों बनें? हमारी सारी वाङमयी परंपरा इस निराशा के नरक से उद्धार के सूत्रों से भरी पड़ी है।

‘पिङ् पिङ्, बिङ् पिङ् पिङ् बिङ्!’ रात्रि में आकाश मंडल में ‘नारद की वीणा बज रही है। चंद्र विगलित रात। ‘कुब्जा सुंदरी’ की दो शाखाओं के बीच चाँद झूल रहा है और रात पिघल कर सगुण-साकार चाँदनी बन गई हैं। विगलित चाँदनी की धारा! गोया रात ही पिघलकर नदी बनती जा रही हो। एक ध्यान तरंगायित विरजा नदी, जिसके इस तट पर नारद की वीणा बजती है और उस तट पर तार्क्ष्य अपने पंख पसारे विचरण करता है। तार्क्ष्य की पीठ पर एक तारा है, ‘श्रवण नक्षत्र!’ यह विष्णु के परम पद का प्रतीक है। इस पार नारद की वीणा बज रही है। आकाश से धरती तक सुरों का विस्तार है। आसपास के घर-मकान, गलियाँ, सारे जीव जगत के साथ निद्रालीन हैं। जाग रही है मेरी हिरण्यगर्भ आत्मा और जाग रहा है वैश्विक हिरण्यगर्भ के रूप में ईश्वर। मेरे दोनों चक्षु हृदय में लीन हो गए हैं, हृदय हिरण्यगर्भ आत्मा में, और आत्मा हिरण्यगर्भ ईश्वर से जुड़ कर एक अद्भुत कल्पलोक में प्रवेश पा चुकी है।

वह अपना वर्तमान नाम-रूप खो चुकी है। नाम-रूप तो इस देह और पंचप्राण के ही परिचायक हैं जो इस समय बेसुध, निद्रालीन हैं। मैं द्वापर युग का स्वप्न देख रहा हूँ। मैं क्या, सच्चाई तो यह है कि मेरी हिरण्यगर्भ आत्मा देख रही है, मैं तो निद्रालीन हूँ। मुझे लगता है कि मैं ही कामुक मणिग्रीव यक्ष हूँ, मैं ही अहंकार विमत्त नलकूबर हूँ। मैं ही युगल महीरुह बनकर ऋषि शाप को भोग रहा हूँ। मैं ही प्रतीक्षारत हूँ किसी देव शिशु के अवतरण की। उस देवशिशु की कटिमेखला में रस्सी बँधी है। या यों कहिए कि मायारज्जु से उसने अपने को बँधवा लिया है अन्यथा वह तो सब कुछ से दश-अंगुल परे ही रहता है। यह तो स्नेह भी रज्जु है जिससे अवश होकर वह भी माँ माँ , बाबा बाबा , मैया मैया कहने को, रोने-छटपटाने को बाध्य हो जाता है। यदि उस देवशिशु का आगमन मेरे जीवन में भी हो जाए, वह ऊधम मचाते हुए आकर एक धक्का मुझे दे जाए, और इस प्रकार मुझे समूल उत्पाटित कर डाले तो इस जड़िमा से, इस स्थावर नरक से, मेरा भी उद्धार हो जाए! मैं अपने स्वरूप को पुन: प्राप्त कर लूँ। इसी के लिए मैं प्रतीक्षारत हूँ।

स्वप्न बदलता है। नया पन्ना खुलता है। एक इषीका वन है। इषीका अर्थात सींक या सरकंडों का अगम-दुर्भेद्य वन। तीक्ष्ण खरधार पतलों का जंगल। भीतर सरसराते हुए साँप-भुजंग चल रहे हैं। हिंसक मांस-लोलुप भेड़िए-चीते भी दुबके होंगे। इस भयानक इषीका वन में पतली-सी राह पर मैं सरकंडे पतलों के झेपों को फाड़ते हुए चल रहा हूँ। उनकी तीक्ष्ण धार से उँगलियों और चेहरों पर खरोंचे लग जाती हैं। नीचे पैर में काँटे चुभ रहे हैं। तो भी चल रहा हूँ। जीवन यात्रा जो है। पूरी करनी ही है। यही निर्दिष्ट पथ है। उपाय नहीं। इस भयंकर इषीका वन में एक तरह से डूबा-डूबा चल रहा हूँ। अचानक चटचटाती ध्वनि करती हुई अग्नि शिखा आसपास उठती है। फिर भयंकर लपलपाती ज्वालाओं में बदल जाती है। फिर भी चल रहा हूँ। यही निर्वाचित पथ है। इसी पथ के नाम मेरा जीवन बंधक में है। अत: चल रहा हूँ। आगे-पीछे अगल-बगल ज्वालाएँ ही ज्वालाएँ हैं। तरह-तरह के जीवों का आर्तनाद सुनाई पड़ता है। जंगली शूकरों के झुण्ड, हिरणों के खुरों की तेज, विकल, पगध्वनि। दूर पर चिंघाड़ते हाथियों की भगदड़। कई विकल अजगर तो सरकते हुए आसपास बगल से ही गुज़र जाते हैं। तो यह दावानल है।

इस दावाग्नि में मारे भय के मेरी धड़कन बन्द होने को आ गई है। प्रार्थना के शब्द कण्ठ से निकल नहीं पा रहे हैं। भयानक आर्त। भयानक ज्वालाएँ। दिशाएँ जल रही हैं, सारा परिवेश जल रहा है, आँखें जल रही हैं। मैं, मैं एक बीसवीं शती के अन्तिम दशक का मनुष्य विकल-विह्वल किसी देव-शिशु के अवतरण की अशब्द प्रार्थना कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि वह अवश्य आएगा और मुझे पीछे ठेलकर सामने स्वयं खड़ा हो जाएगा और सारी ज्वालाओं को गटागट पी जाएगा। पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण सर्वत्र की ज्वालाओं को वह साँस भर-भर कर खींच कर पी जाएगा। समस्त सृष्टि के भय, काम और दुख के दावानल को पीकर पचा जाने की क्षमता वाला देव-शिशु निश्चय ही आएगा। तब यह क्षुरधार इषीका वन जल कर भस्मीभूत हो जाएगा। वातावरण शान्त हो जाएगा। वह और हम, इस बन्धु भाव से शेष पथ पर साथ-साथ चलते जाएँगे। उस अवतरण की शक्ल सूरत क्या होगी, यह मैं नहीं जानता।

फिर दूसरा पन्ना खुलता है। दूसरा स्वप्न उदित होता है।

इसी तरह एक नहीं, अनेक पन्ने इस कुटिल बंकिम तरु की शाखाओं के नीचे आँखें मूँदे हुए मैंने कितनी बार पढ़े हैं और कितनी बार निराशा के तमस से उज्ज्वल उद्धार पाया है, इसे कहाँ तक बताऊँ। गुरु निम्बकाचार्य के नामकरण का रहस्य यह बताया जाता है कि वे प्रतिदिन एक ऊँचे नीम के पेड़ पर चढ़कर बालार्क सूर्य को प्रात: नमस्कार करते थे। शायद वे घनघोर अरण्य में रहते थे। ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के कारण प्रात: सूर्य-दर्शन नहीं हो पाता था। अत: उन्हें प्रतिदिन शाखमृग की तरह पेड़ पर चढ़ना पड़ता था। परन्तु मुझे तो इस ‘कुब्जा सुन्दरी’ की दो शाखाओं के बीच पूर्णचन्द्र का दर्शन अपनी चारपाई पर लेटे-लेटे ही हो जाता है और रात-बिरात इसकी शाखाओं के नीचे मैं श्रीमद्भागवत के रहस्य स्वप्न-चक्षुओं से देखता हूँ। अवश्य ही मेरी अर्थात इस शताब्दी की श्रीमद्भगवत् द्वापर की राग-पूर्वराग-महाराग की भागवत से भिन्न भय और हताशा की भागवत है। और आश्चर्य, कि यह भय ही हमें ईश्वर से जोड़ रहा है। मूल भागवत भी तो भय और हताशा के परिवेश में ही सुनी गई थी। शेषनाग के फणों की छाया में बैठकर नारद ने इसे ब्रह्मा से सुना था। फिर कुरुक्षेत्र की सर्वनाश-चिंता की विकल स्मृतियों को लेकर वेदव्यास ने नारद से सुना और व्यास से शुक, शुक से परीक्षित और शेष मानव समुदाय ने। यही इसकी व्यास परम्परा है।

इस टेढ़ी नीम ‘कुब्जा सुन्दरी’ के नीचे चन्द्र-विधौत रात्रियों में मैं कभी-कभी अपनी खाट पर लेटे-लेटे आँखें मूँद कर इसका एकाध पन्ना पढ़ लेता हूँ। आँखें खोलकर तो यथार्थ ही पढ़ा जाता है। परन्तु आँखें मूँदकर सत्य भी पढ़ा जा सकता है। आधुनिक साहित्यकार की ट्रेजडी यह है कि वह पेट के बल यथार्थ से बुरी तरह चिपका हुआ रेंगता चल रहा है और परा यथार्थ सत्य से उसकी भेंट नहीं हो पाती। उसके पास आँखें मूँदकर आराम से देखने-सुनने की फुरसत कहाँ! फलत: वह विश्वास ही नहीं कर पाता है कि यथार्थ और सत्य दो तरह की बातें हैं और यथार्थ से भी बड़ी सच्चाई है सत्य। ‘प्रति सत्य’ और ‘असत्य’ भी यथार्थ का चेहरा लगा कर लोला करता है और खुली आँखें प्राय: धोखे में आ जाती हैं। दो खुली आँखों से देखने की एक सीमा है। वे एक ही कोण से, एक ही दिशा में देख सकती हैं। समग्र रूप में और रूप के नीचे उतर कर अरूप में देखने की क्षमता खुली आँखों में नहीं। इन्हें यदि देखना हो तो आँखें मूँद कर ही देखना पड़ता है। यह एक विचित्र रहस्य है जिसको मैंने इस कुब्जा सुन्दरी की छाँह में, चाँदनी की शान्त समाहित धारा में स्नान करती हुई रात्रियों में समझा है। अत: यह टेढ़ी विकलांग नीम मेरे लिए वही महत्व रखती है जो निम्बकाचार्य के लिए उनके अपने निम्बतरु का था।

गूलर के फूल

(एक अरण्य-कथा)

‘‘गूलर का फूल होता है क्या ?’’ बक ने अपने मित्रों की ओर चोंच करके प्रश्न किया।
आज फिर काक, बक और उलूक तीनों मित्र काम्यक वन की उत्तरी-पूर्वी सीमा पर स्थित गूलर के वृक्ष के नीचे इकट्ठे हुए। बगल में ही निर्मल जलवाली पुष्करिणी है जिसमें महाभाग युधिष्ठर स्नान किया करते थे। स्नानोपरान्त कभी-कभी वे इसी गूलर के नीचे बैठकर सहस्रशीर्षा पुरूष विष्णु का ध्यान किया करते थे। और जब कभी-कभी यह ध्यान अति दीर्घकालीन हो जाता और धर्मराज की ललाट पर अरूण तिलक करनेवाली किरणें उनकी पीठ पर पड़ने लगतीं तो भीमसेन भूख से झटपटाकर बेमतलब द्रोपदी से लड़ बैठते थे और नकुल-सहदेव बार-बार देखकर लौट जाते कि भैया की पूजा समाप्त हुई या नहीं। यह गूलर का वृक्ष अति पुरातन था। द्वापर से पूर्व, त्रेता से भी पहले, जब नारायण ने जगत् के उद्धार के लिए नृसिंह वपु धारण किया था तब यह वृक्ष अपनी कुमारावस्था में था। पास ही पार्श्व में एक कटहल का एक नवीन वृक्ष महाबाहु भीमसेन से आरोपित कर दिया था। महापराक्रमी वायुपुत्र लघु आकार वाले फलों को अवेलना की दृष्टि से देखते थे।
यह सत-युगी वृक्ष पुरूष युगों के ज्वार भाटे के बीच मौन साक्षी-सा खड़ा रहा। श्रृंगार, वीर, करूणा आदि नवरसों से परे इसका संन्यासी मन भी कभी-कभी अतीत-माधुरी की स्मृति में विगलित हो उठता था। विशेषतः रात्रि की नीरवता में द्रौपदी की करूणा का उसे ध्यान हो जाता, तो इस युगों में वृद्ध सहचर के हृदय की चीरती हुई एक लम्बी साँस निकल जाती।

इस ‘श्वेत वाराह-कल्पे, कलियुगे’ प्रथम चरण के मध्य में सहस्रानीक अर्जुन के वशंज उदयन का कौशाम्बी में, प्रसेनजित् का अवध में एवं अजातशत्रु का मगध में राज्य चल रहा था, एवं विष्णु के बौद्धावतार का पदार्पण हो चुका था, काम्यक वन की उत्तरी-पूर्वी सीमा पर स्थित इसी गूलर के पेड़ के नीचे बक ने काक और उलूक से पूछा-‘‘गूलर में फूल लगता है क्या ?’’
‘‘हमने तो कभी नहीं देखा भाई! उड्डीन-पड्डीन आदि सताधिक गतियों से ससागरा धरा को कई बार माप डाला पर गूलर का फूल कहीं नहीं मिला। परन्तु मैं दिन की बात कह रहा हूँ। रात की बातों का विशेषज्ञ तो मित्र उलूक है। पूछ कर देखो।’’
‘‘क्यों बन्धु, कुछ इस पर प्रकाश डाल सकते हो ? तुम्हें तो अन्धकार की मायाविनी गतियों का भी परिचय है ।’’
उलूक ने शान्त भाव से उत्तर दिया, ‘‘देखा तो मैंने कभी भी नहीं और न कभी अनुसन्धान करने की चेष्टा ही की। पर बड़ी अचरज की बात है ! भला बिना फूल के फल कैसा होगा ?’’
‘‘काकभुशुण्डि के कुलपत्तिव में मैं गरूड़-जैसे बलवान् और उजड्ड छात्र का सहपाठी था। परन्तु इस विषय पर कोई विशिष्ट सुनने में नहीं आयी। हाँ, मनुष्यों में प्रचलित है कि गूलर का फूल होता है एवं यह आधी रात को खिलता है, अल्प काल के लिए। फिर अन्तर्धान। उस समय यक्षों का इस पर अदृश्य पहरा बैठता है। सुनता हूँ एक बार एक पंखड़ी टूटकर एक दहीवाली हाँड़ी में गिरी, सो दिन-भर वह दही समाप्त नहीं हुआ।’’
‘‘ऐसा ?’’-काक की बुद्धिमत्ता और विचित्र बात सुनकर उन दोनों ने चकित स्वर में कहा।
‘‘तब तो आज रात, भूत हो या प्रेत, यहीं इस बात की जाँच हो जाए।’’ बक ने, जो निरिक्षण का स्वभावतः प्रेमी था, सुझाव दिया।

तीनों साहसी वीरों ने यही निश्चय किया। भगवान सूर्यनारायण अपनी पीत-अरूण आभा से इस धरती को राग-मय कर रहे थे। धीरे-धीरे दबे पाँव श्यामली उतरने लगी। पक्षियों ने थोड़ी देर दुखःसुख की कथा एक दूसरे से कहकर रैन-बसेरा लिया। तारे उगे। रात्रि का कालरथ क्षण-प्रतिक्षण बढ़ता गया। हवा धीमी हो चली। वातावरण से भय और वैराग्य के अनुभवों का संवेदन मिलने लगा। इस भयानक चुप्पी से गूलर की सर्वोच्च शाखा पर ये तीनों मित्र भय और उत्साह की मिश्रित भावदशा में आधी रात के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
ठीक आधी रात को गूलर के तने को चीरती हुई दीर्घ निःश्वास निकली। बक और अन्य दो मित्र सावधान हो गये। इसी समय जम्हाई लेते हुए कटहल ने पूछा, ‘‘दादा, आज क्यों दुःखी ज्ञात होते हो ?’’
‘‘क्या कहूँ ?’’ गूलर ने उत्तर दिया। ‘‘मेरी शाखा पर आज तीन अतिथि आये हैं। विश्राम के लिए नहीं। मेरे मस्तक की शोभा-मेरा पुष्पदल देखने की अभिलाषा से। मैं इन्हें कैसे समझाऊँ ? मेरे पास फूल कहाँ है ? इन्हें निराश लौटना होगा। ऐसा फूल तो कभी नहीं, कहीं नहीं खिला जैसा लोग कहा करते हैं। यह तो मनुष्य लोक के मोह का प्रतिरूप है। मेरा शरीर तो फोड़े की तरह स्वादहीन फलों से लदा है जिन्हें कोई भी जीव नहीं पूछता है क्या कहूँ ? किसी के काम नहीं आया।’’ गूलर ने फिर लम्बी साँस ली।
‘‘दादा, ऐसा क्यों हुआ ? तुम तो बड़े धर्मात्मा हो। तुम्हारी छाया में महाभाग पाण्डवों ने विश्राम किया है। फिर विधाता की ओर से तुम्हें पुण्य का वरदान क्यों नहीं मिला ?’’

‘‘मेरी इस अवस्था का कारण ही कुछ और है। एक समय धरती पर हिरण्यकशिपु का अत्याचार दुःसह हो गया। वेद लुप्त हो गये। ब्राह्मणों की जीभ काट ली गयी, कुछ की शस्त्र से और कुछ की स्वर्ण से। उस समय भक्तवत्सलय विष्णु ने असुर के विनाश के लिए नृसिंह रूप धारण किया। आज भी उस अपूर्व तेजोमय सिंहपुरूष का स्मरण करके रोमांच हो जाता है।’’ गूलर क्षण-भर उस रूप की स्मृति में मौन रहा। फिर आगे बोला, ‘‘असुर का वद करने के पश्चात उनके नखों में भयंकर जलन होने लगी। यह जलन जब किसी उपाय से शान्त न हो पायी तो नारायण पीड़ित होकर हमारे पास आये। तीनों लोकों के त्राता जनार्दन को अपने दरिद्र द्वार पर खड़ा याचना की मुद्रा में देखकर मैं धन्य-धन्य हो गया और उन्हें अपना शरीर समर्पित कर दिया। उनकी नखज्वाला तो मेरे शरीर में नखों के धँसाने से शान्त हो गयी। परन्तु उस दाह को खींचकर मेरा शरीर विषाक्त हो गया। तभी से फोड़े की तरह फल-व्रण ही मुझमें लगते हैं-पुष्प मुझमें नहीं लगता। फल भी रस हीन और कीटपूर्ण होते हैं !’’

‘‘दादा, तुमने उसके विष को आत्मसात् किया जिसके चरणों से पतितपावनी गंगा निकली है।–तुम्हारे पुष्प, तुम्हारी मस्तक-मणियाँ तुम्हारे अन्तर में हैं। तुमको ही देखकर मुझे भी फूलों का शौक न रहा। मेरे फूल भी नाम मात्र के होते हैं। मैं भी पुष्प माला धारण कर के प्रेमियों का हृदय विगलित करने और जगत् को रिझाने की अपेक्षा परिपुष्टि और दीर्घाकार फल देने की चेष्टा करता हूँ।’’ कटहल ने कहा।
‘‘चरचार को रिझाने से क्या लाभ ? जिन्हें वास्तव में रिझाना है वे तो अन्तर्मन के सौन्दर्य को देखते हैं। औरों से क्या लाभ ?’’ कहकर गूलर मौन हो गया।
बक, काक और उलूक तीनों अलभ्य कुसुम की आशा में आये थे। उससे भी बढ़कर अलभ्य और मनोरमा कुसुम उन्हें मिल गया। तीनों ने मन-ही-मन गुरू और शिष्य दोनों को प्रमाण किया।

हेमन्त की सन्ध्या [ कुबेरनाथ राय का पहला निबन्ध]

हेमन्त का सबसे बड़ा आकर्षण है पत्तियों का पीला पड़ जाना और जरा-सी हवा डोलने पर भू-पतित हो जाना। पत्तियों का झरना धरती के सौन्दर्य की करुणतम अवस्था है। करुणा में एक उदास सौन्दर्य की उपलब्धि एक सर्वसाधारण अनुभव है। करुणा विषाद की रोमाण्टिक अवस्था है। वही अनुभूति जब क्रूर रूप में घटित होकर कठोर सत्य बन जाती है तो हम उसे विषाद कहते हैं। मृत्यु का बोध विषाद है, करुणा नहीं। करुणा किसी-न-किसी रूप में जीवन से संलग्न रहती है। इसमें आस्था का एक क्षीण धागा बँधा रहता है।
विषाद में सारे मूल्य अर्थहीन हो जाते हैं। आधुनिक युग को हम विषाद का युग कह सकते हैं। आज जो घटित हो रहा है वह ट्रेजेडी नहीं। ट्रेजेडी से तो मनुष्य का धरातल सदैव ऊंचा उठता है। हमारा युग स्नेह और प्रीति में तो रिक्त है ही, करुणा में भी यह अति दरिद्र है। यह इतना दीन हो चुका है कि इसकी अन्तिम पूँजी-विषाद-भी धीरे-धीरे चुक रही है और इसके शेष हो जाने पर यह आत्मघात से भी बुरी अवस्था होगी।

बात हेमन्त को लेकर चली थी। पीली पत्तियों के उदास सौन्दर्य के बाद उसका दूसरा रूप-विन्यास है धीरे-धीरे उतरती हुई ठण्डी साँस। कमरे में अकेले बैठकर ‘शामेग़म’ का मजा, उदासीनता का रसबोध, निर्मम होते हुए भी नशीला है। रिक्तता में एक स्वाद है। यह सिर्फ लत लग जाने की बात है। बन्द वातायन के बाहर अरुणिमा धीरे-धीरे गलकर घुल चुकी है। पेड़ों के सिर पर ओस की मोटी तह बादलों की-सी जम गयी है, जो क्षण-प्रतिक्षण अंगुल-अंगुल करके नीचे खिसक रही है। परन्तु आँखों से इस क्रमिक आरोहण को हम पकड़ नहीं पाते हैं। धीरे-धीरे कुहासे की प्लावन-धारा पवन की तरंगों पर बहने लगती है। पर धरती का राजमुकुट महान् मनुष्य और सृष्टि के अन्य क्षुद्र जीव वातायन-बद्ध होकर या नीड़-बद्ध होकर अपनी क्षुद्र सीमा में ही अपने को पाने का प्रयास कर रहे हैं। दिन-भर हाट-बाट गली-कूचों की खाक छानने पर भी हम जब अपने को न पा सके-मनचाही उपलब्धि न हो सकी तो जीवन का सारा दैन्य क्षुद्र सीमा में केन्द्रित करके इस बँधी, अर्गला-बद्ध कमरे की दुनिया से आत्म-त्राण की भीख माँग रहे हैं। पर यह अर्गला उन गली-कूचों, पार्कों-मैदानों, सिनेमागृहों और खुले अनन्त विस्तृत नील विमान के तले भी, जो दया करके अपना द्वार सबसे लिए मुक्त खोलकर काल के प्रारम्भ से ही खड़ा है, हमारा पिण्ड छोड़ती है ? हम जहाँ जाते हैं वहीं यह भी है। यह कर्ण के कवच की तरह जन्मजात है। यही हमारी ट्रेजेडी है कि जो हमारे भीतर शिरा-शिरा, धमनी-धमनी बह रही है और बाहर-भीतर भी सब-कुछ को व्याप्त किये है, उस विशाल अन्तर्वाहिनी विभुप्लाविनी को इस लौह-कवच के कारण अस्वीकृत करते चलते हैं। यह बूँद का क्षुद्र अहम् है जो यह अपने को ही धारा मान बैठी और छिटककर दूर जा पड़ी। यह दर्प विषाद की स्थिति है ! आत्मघात है !
अन्धकार भीग गया है। पर गुंजलकबद्ध मैं फन काढ़े बैठा हूँ। स्वयं केन्द्रित। नया मसीहा बोलता है- इस अकेलपन पर, इस अजनबीपन पर। ‘हम अपने ही अजनबी हैं’। मनुष्य को अकेली सत्ता का अभिशाप मिला है। बिना किसी आधार के उसे प्रत्येक पग पर अपने को ढूँढ़कर आविष्कृत करना है। वर्तमान में यह निराधार त्रिशंकु-स्थिति में त्यक्त रूप में है’ (एक्ज़िस्टेन्सियलिज़्म ऐण्ड ह्यूमनिज़्म’-सार्त्र, पृ.34-35)। पर इतना भार बिना किसी का स्नेह-स्पर्श पाये वह कैसे वहन करेगा ? अतीत की भूमि उस के पैरों के नीचे से खिसक गयी-उसका स्वयं भी उससे अजनबी हो गया, तो फिर वह किसका स्नेह-स्पर्श, किसका बल पाकर इतना भार उठाए ? मेरे मित्र, तुम जो नयी ‘फिलॉसफी’ पढ़ते हो, ‘नयी आध्यात्मिकता’ की चर्चा करते हो, नये मूल्यों के सृजन में विश्वकर्मा की तरह लगे हो, मनुष्य के इस संकट को देखकर करुणा क्यों नहीं करते ? पर तुम कहते हो-‘इस विकट स्थिति का निराकण भी है।’

‘क्या ? आत्मघात ?’
‘नहीं,’ तुम्हारा हाथ उसी तरह ऊपर उठ जाता है जैसे बुद्ध ने ‘चरथ भिक्खवे चारिकं..’ कहते समय उठाया था, ‘पूर्ण विप्लव !’ फिर तुम रुक-रुककर आँखें बन्द किये हुए ऐसे बोलते हो गोया कूप गर्त से तुम्हारी आवाज आ रही हो-‘सारे मूल्यों को फिर से गढ़ना होगा। नये सिरे से ! नयी विधा, नयी कवि-प्रसिद्धियाँ और सर्वथा नवीन पद्धति के द्वारा व्यक्ति को ‘पूर्ण व्यक्ति’ करना होगा। सबसे अलग, सबसे मुक्त !’
‘ओह ! समझा ! अरविन्द…’
‘नहीं, नहीं, नहीं !’ तुम चौंककर कहते हो-‘अतिमा में-ट्रान्सेण्डेन्स में, हमारा विश्वास नहीं। अध्यात्म का पुराना हल हमारे काम का नहीं।’
पर ‘फूलहिं फरहिं न बेंत जदपि सुधा बरसहिं जलद।’ विरंचि-जैसा गुरु मिलने पर भी हम-जैसों को चेत कहाँ से आएगा। बात की ग्रन्थि जैसी थी वैसी ही रह गयी।
इतने में कोई लालटेन रख जाता है। प्रकाश मुझे उस गुंजलक से मुक्त कर देता है।
’इस साल भी अरहर गयी। ऐसा पाला तो कभी पड़ा ही नहीं था। रबी की फसल भी आधी चौपट हो गयी।’

इस वैशम्यापन-उवाच के बाद बड़का बाबा चिलम में तम्बाकू भरने लगे। बाहर नीम की छाया में अलाव जला है। किसी ने सूखे घास-फूस की नयी आहुति दी और लपट लप-लप कर के ऊंची चढ़ने लगी। ऊपर की पत्तियाँ थर-थर काँप उठीं और कुछ तो पुण्य-क्षीण आत्माओं की तरह उस अग्निशिखा में टूट-टूटकर गिरने लगीं। आबालवृद्ध सबके मुख पर प्रसन्नता छा गयी। जीवन में प्रसन्नता के क्षण बहुत ही महँगे होते हैं। ऐसे मामूली क्षणों का भी अमित मोल है जो हलकी-सी ऊष्मा के द्वारा देह-मन को स्फूर्त या पुलकित कर देते हैं। बाबा ने चिलम भरकर कहा, ‘इस वर्ष अगहनी भी गायब ही रही। क्या जमाना है ! जिन खेतों में बारह मन बीघे काटा था उनमें दो मन बीघा किसी तरह से गया।’ इसके बाद तो बातों का सिलसिला चला। भाग्य-दैव को कोसने के बाद अगल-बगल की परिषद् ने अनेक प्रश्नों यथा-ग्राम-सेवक, पंचवार्षिक योजना, नगर विभाग की बदमाशी, चीनी आक्रमण, विलायती खाद की व्यर्थता और फिर चीनी का अभाव आदि-आदि पर अस्त-व्यस्त टीका-टिप्पणी की। साथ-साथ गाँव के ‘उत्तम’ चरित्रों की चर्चा और परनिन्दा की चाशनी ने उक्त शुष्क विषयों को मीठा, नमकीन और फिर तिक्त बनाया। पर समस्त प्रक्रिया में बाबा या तो चुप रहे, नहीं तो ‘हाँ, हूँ’ मात्र करते रहे। खेती-बारी से आगे उनके दो ही राजनीतिक विषय हैं। एक तो सन् ‘सत्तावन की गदर में अपने पितामह की करतूतों का विशद वर्णन और दूसरी सन् ‘चौदह की लड़ाई, जिसमें स्वयं सैनिक बनकर भरती हुए थे परन्तु मोरचे का मुँह नहीं देखा और सारी वीरता हवलदारों और सूबेदारों से भिड़न्त तक ही सीमित रही, जो स्वभाववश अकसर हो जाती थी। कांग्रेस की राजनीति में उन्हें अरुचि है। इसका एक व्यक्तिगत कारण है। अपने लघुभ्राता को महाकष्ट उठाकर बारह वर्ष तक पढ़ने का खर्च कलकत्ते भेजते रहे और वे सज्जन इन की आँखों पर पट्टी बाँधकर पढ़ाई-लिखाई के नाम पर देश-भक्ति (बाबा के शब्दों में ‘आवारागरदी’) करते रहे। स्वामी सत्यदेव का नाम किसी तरह से जान गये हैं और कहा करते हैं, ‘सतदेउआ’ ने हमारा घर बिगाड़ दिया। गाँधीजी पर उनके मरने के बाद इनकी श्रद्धा बढ़ी है। पर वह बापू की राजनीतिक क्षमता के कारण नहीं। उन की राम-भक्ति के कारण उनको ये ‘ऋषि’ मानने लगे हैं। प्रमाण में तुलसीदास को उद्धृत किया करते हैं-

‘‘जनम जनम मुनि जतन कराहीं।
अन्त राम कहि पावत नाहीं।।’’

वैशम्पायन तो प्रथम सूत्र के उवाच के पश्चात् चुप रहे। प्रधान वार्ता तो अनेक जनमेजयों के द्वारा हुई जो उस परिषद् की शोभा बढ़ा रहे थे। मेरे मन में चिरकाल से जलनेवाले इस अलाव के साक्ष्य में गाथा-गान करनेवाले वैशम्यापनों की मुखाकृतियाँ घूम गयीं। तहसीली के सहदेवराम चपरासी की बड़ी-सी पगड़ी अब भी याद है। वे मेरे बचपन में महाभारत की कथाएँ अपनी पूरी योग्यता का उपयोग करके सुनाते थे। उन दिनों इस बात की पूरी जानकारी रखता था कि किस योद्धा ने किस बाण का प्रहार किस अवस्था में किया। मित्रों में इस जानकारी के बल पर मैं विद्वान भी गिना जाता था। इस जानकारी का प्रारम्भिक श्रेय सहदेवराम को है। दूसरे स्रोत हैं गीता प्रेस के महाभारत का भाषा-संस्करण और सबलसिंह चौहान का ‘महाभारत’। एक समय था कि उत्तर प्रदेश के गाँवों में तुलसीदास के रामायण के बाद सबलसिंह का ही पाठ होता था। हमारे यहाँ सबलसिंह चौहान के सर्वोत्तम वाचक थे पड़ोसी गाँव के ठाकुर घुरहूसिंह। उस वृद्ध का विशाल वपु, रजपूती चाल और वृद्धावस्था में भाला लगाकर चलने का मोह अब भी याद है। बाबा से उनकी खूब पटती थी। देहात में वे ‘आल्हा’ के विद्वान माने जाते थे। उन्हीं की बदौलत मेरे गाँव में और आस-पास के गाँवों में लोगों का विश्वास है कि अब भी विन्ध्याचल की किसी गुफा में दो अमर आत्माएँ एक साथ रह रही हैं-आल्हा और अमरसिंह जो सन् सत्तावनवाले कुँअरसिंह के भाई हैं।

आज वह वीरगाथा युग नहीं रहा। उस परम्परा का ध्वंस बहुत पहले ही हो गया। परन्तु वीरगाथा-युग का अभिमान अभी कल तक नहीं मरा था। पूँजीवादी संस्कृति के संस्कार अब भी ठीक तौर पर जम नहीं पाये हैं। पर इतना तो निश्चय है कि युगधर्म बदल रहा है। आज नहीं तो कल हम अपने को दूसरे रूप में पाएँगे। ग्राम-संस्कृति और वीरगाथा-काल दोनों की सम्पूर्ण मृत्यु-साथ ही साथ होगी। अब अधिक देर नहीं। परन्तु यह भी लगता है कि ग्राम-संस्कृति के महल पर जिन मध्यवर्गीय संस्कारों का महल खड़ा हो रहा है वह अति भयावह वंचना का दुर्ग है। प्रजातान्त्रिक पद्धति के द्वारा ‘नायकों’ की मृत्यु हो जाएगी, क्योंकि ‘नायकत्व’ का मापदण्ड वीरगाथाकालीन ‘हीरोइक’ या सामन्तवादी आदर्शों पर आधारित है। पर उसके स्थान पर स्थापित व्यक्ति अपने को भूफोड़ एवं स्वतन्त्र मानकर स्थिति भयावह कर देगा। वीरगाथाकालीन संस्कारों और ग्राम-संस्कारों में व्यक्ति किसी नायक के सम्मुख नल-मस्तक होते हुए भी अपने को पूरे समाज से संयुक्त किये हुए था। वह व्यक्तिवादी नहीं था। लेकिन मध्यवर्गीय संस्कृति का पोषित व्यक्ति अपनी स्वतन्त्र सत्ता का हुंकार करता है। इसी से आज कोई जनमेजय नहीं, सभी वैशम्पायन-ही-वैशम्पायन हैं। (नायक से मेरा तात्पर्य किसी राजा-जमींदार से नहीं बल्कि अतीत के ‘चरित-नायकों’ या ‘राष्ट्रीय नायकों’ से है। एक समय था कि महात्मा गाँधी ऐसे चरित-नायक की भूमिका निभा रहे थे।)

राष्ट्रीय जीवन की यह ट्रेजेडी दोहरी है। एक ओर ‘व्यक्ति’ है जो बुद्धिवाद का जामा-जोड़ा पहनकर मिथ्या स्वांग का खूब रस ले रहा है और घूम-घूमकर अजनबी बनने का विज्ञापन कर रहा है। ‘मेरी ओर देखो मैं अजनबी हूँ। मेरे पास सिर ही है, धड़ नहीं। मेरी ओर देखो मैं कितना महान् हूँ, क्योंकि मैं अजनबी हूँ। खूबी तो यह है कि इस बुद्धिवाद के जामे में वह डूब सा गया है और अपने को प्रत्येक दशा में प्रेत-सरीखा प्रस्तुत करने में ही अपनी महत्तम पूजा और महत्तम सिद्धि समझ रहा है। दूसरी ओर सामूहिक जीवन का दीन-नग्न कबन्ध है। इस कबन्ध पर ‘स्टेट’ जो उस बुद्धिवादी राहु का रिश्तेदार बन गया है, एक मानवीय-अमानवीय सिर काटकर चस्पाँ करने की सोच रहा है, पर स्वत: इसके साथ संयुक्त होने में इसे अपनी तौहीनी नजर आ रही है। पता नहीं यह नवीन शीश इस दीन-हीन कबन्ध को विनायक बनाएगा अथवा यह दशमुख रावण का मूर्द्धाभिषिक्त ग्यारहवाँ शीश होगा।
हेमन्त की करुणामयी उदास सन्ध्या ने इस प्रश्न को उठाया है। परन्तु उत्तर ?

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