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परिचय

जन्म : 15 फरवरी 1922, शाजापुर

निधन22 नवंबर 2000

भाषा : हिंदी

विधाएँ : उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध, यात्रा वृत्तांत

मुख्य कृतियाँ :
 उपन्यास : डूबते मस्‍तूल, घूमकेतु  एक श्रुति, दो एकांत, वह पथ बंधु था, नदी यशस्‍वी है, प्रथम फालगुन, पुनः एक युधिष्‍ठिर और दो खंड़ों में उत्तर कथा है, उन्‍होंने दो कहानी ‘यथा तथापि’ और ‘एक समर्पित महिला लिखा’
 नाटक: यथा, सुबह के घंटे, सरोवर के फूल, खंडित यात्रााएं
कविता संग्रह :  चैत्या, प्रवाद पर्व, अरण्या, पुरुष, आखिर समुद्र से तात्पर्य, उत्सवा
यात्रा संस्मरण : कितना अकेला आकाश
सम्मान : साहित्य अकादेमी, ज्ञानपीठ पुरस्कार, भारत भारती सम्मान (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा)
निधन : 22 नवंबर 2000

रचनाएँ

यात्रावृत्त

  • कितना अकेला आकाश

विशेष

  • 15 फरवरी 1922 को मालवा, मध्‍यप्रदेश के शाजापूर के गुजराती ब्राहमण परिवार में जन्‍मे नरेश मेहताका नाम   पिता बिहारीलाल शुक्‍ल ने  ‘पूर्णशंकर शुक्‍ल’ रखा।मेहता की पदवी उनके पूर्वजों को गुजराज यात्रा के समय मिली, जिसे अपने पिता की तरह नरेश मेहता  भी शुक्‍ल के स्‍थान पर प्रयोग करते रहे। आगे चलकर उनकी काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर एक दिन नरसिंह गढ़ की राजमाता ने उन्हें ‘नरेश‘ नाम से सम्बोधित किया। बस तभी से वह नरेश मेहता नाम से पहचाने जाने लगे।उनकी प्रारंभिक कविताएं राष्‍ट्रभारती, नयी कविता, आजकल आदि प्रतिष्‍ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थी․नरेश मेहता समकालीन हिंदी काव्‍य के शीर्षस्‍थ कवि हैं जिन्‍होंने अपने काव्‍य-संसार में शिप्रा-नर्मदा से लेकर गंगा तक फैले जीवन के विस्‍तृत फलक को अभिव्‍यक्ति दी है। मूल्‍यबोध की दृष्टि से भारतीय संस्‍कृति की मिथकीय, जातीय और सारस्‍वत स्‍मृतियों के पुनराविष्‍कार और उसकी रचनात्‍मक परिणतियों  से समृद्ध  उनका काव्‍य-संसार अपनी अद्वितीय आभा से समकालीन परिदृश्‍य में एक अनिवार्य और अपरिहार्य उपस्थिति है । आर्ष-चिंतन और वैष्‍णव संस्‍कारों के साथ आधुनिक युग के बैचेन करने वाले सवालों और ज्‍वलंत समस्‍याओं के प्रति नरेश मेहता की गहन मानवीय चिंता में एक दुर्लभ समावेशी रचनाशीलता के साक्ष्‍य हैं। उदात्‍त मानवीय मूल्‍यों के प्रति नरेश मेहता की आस्‍था और समग्र मानवता की मंगल आकांक्षा में उनका सृजन-संकल्‍प उन्‍हें सहज ही आधुनिक कवि-ऋषि की गरिमा प्रदान करता है.नरेश मेहता भारतीय अस्मिता और सांस्‍कृतिक संपन्‍नता के कवि हैं ।अरण्‍या’ काव्‍य संकलन के लिए नरेश मेहता को वर्ष 1988 का साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार प्राप्‍त हुआ था.1992 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया .  
  • नरेश जी की कुछ कविताएँ
  • कविताएँ
  • किरन-धेनुएँ 
  • दयाचल से किरन-धेनुएँ
    हाँक ला रहा वह प्रभात का ग्वाला।पूँछ उठाए चली आ रही
    क्षितिज जंगलों से टोली
    दिखा रहे पथ इस भूमा का
    सारस, सुना-सुना बोलीगिरता जाता फेन मुखों से
    नभ में बादल बन तिरता
    किरन-धेनुओं का समूह यह
    आया अन्धकार चरता,
    नभ की आम्रछाँह में बैठा बजा रहा वंशी रखवाला।ग्वालिन-सी ले दूब मधुर
    वसुधा हँस-हँस कर गले मिली
    चमका अपने स्वर्ण सींग वे
    अब शैलों से उतर चलीं।बरस रहा आलोक-दूध है
    खेतों खलिहानों में
    जीवन की नव किरन फूटती
    मकई औ’ धानों में
    सरिताओं में सोम दुह रहा वह अहीर मतवाला।नीलम वंशी में से कुंकम के स्वर गूँज रहे !!
  • नीलम वंशी में से कुंकम के स्वर गूँज रहे !!अभी महल का चाँद
    किसी आलिंगन में ही डूबा होगा
    कहीं नींद का फूल मृदुल
    बाँहों में मुसकाता ही होगा
    नींद भरे पथ में वैतालिक के स्वर मुखर रहे !!अमराई में दमयन्ती-सी
    पीली पूनम काँप रही है
    अभी गयी-सी गाड़ी के
    बैलों की घण्टी बोल रही है
    गगन-घाटियों से चर कर ये निशिचर उतर रहे !!अन्धकार के शिखरों पर से
    दूर सूचना-तूर्य बज रहा
    श्याम कपोलों पर चुम्बन का
    केसर-सा पदचिह्न ढर रहा
    राधा की दो पंखुरियों में मधुबन झीम रहे !!भिनसारे में चक्की के सँग
    फैल रहीं गीतों की किरनें
    पास हृदय छाया लेटी है
    देख रही मोती के सपने
    गीत ने टूटे जीवन का, यह कंगन बोल रहे !!इतिहास और प्रतिइतिहास

 

  • राम : क्या यही है मनुष्य का प्रारब्ध ? कि
    कर्म
    निर्मम कर्म
    केवल असंग कर्म करता ही चला जाए ?
    भले ही वह कर्म
    धारदार अस्त्र की भांति
    न केवल देह
    बल्कि
    उसके व्यकित्व को
    रागात्मिकताओं को भी काट कर रख दे।
    क्या यही है मनुष्य का प्रारब्ध ??क्या इसीलिए मनुष्य
    देश और काल की विपरीत चुम्बताओं में
    जीवन भर
    एक प्रत्यंचा सा तना हुआ
    कर्म के बाणों को वहन करने के लिए
    पात्र या अपात्र
    दिशा या अदिशा में सन्धान करने के लिए
    केवल साधन है ?
    मनुष्य
    क्या केवल साधन है ?
    क्या केवल माध्मय है ??लेकिन किसका ?
    कौन है वह
    अपौरुषेय
    जो समस्त पुरुषार्थता के अश्वों को
    अपने रथ में सन्नद्ध किये हैं ?
    कौन है ?
    वह कौन है ??मनुष्य की इस आदिम जिज्ञासा का उत्तर-
    किसी भी दिशा पर
    कभी भी दस्तक देकर देखो,
    किसी भी प्रहर के
    क्षितिज अवरोध को हटाकर देखो
    कोई उत्तर नहीं मिलता राम !
    दस्तकों की कोई प्रतिध्वनि तक नहीं आती
    शून्य से किसी का देखना नहीं लौटता।दिशा
    चाहे वह यम की हो
    या इन्द्र की-
    जिसे प्राप्त करने के लिए
    अनन्तकाल से सप्तर्षि
    यात्रा-तपस्या में लीन है,
    परन्तु
    दिशाएँ-
    उत्तर की प्रतीक्षा में
    स्वयं प्रश्न बनींषय्गन।वृक्षत्व
  • माधवी के नीचे बैठा थाकि हठात् विशाखा हवा आयीऔर फूलों का एक गुच्छमुझ पर झर उठा;माधवी का यह वृक्षत्वमुझे आकण्ठ सुगंधित कर गया । 

    उस दिन

    एक भिखारी ने भीख के लिए ही तो गुहारा था

    और मैंने द्वाराचार में उसे क्या दिया ?-

    उपेक्षा, तिरस्कार

    और शायद ढेर से अपशब्द ।

    मेरे वृक्षत्व के इन फूलों ने

    निश्चय ही उसे कुछ तो किया ही होगा,

    पर सुगंधित तो नहीं की ।

     

    सबका अपना-अपना वृक्षत्व है ।

    माँ

 

  • मैं नहीं जानताक्योंकि नहीं देखा है कभी-पर, जो भीजहाँ भी लीपता होता हैगोबर के घर-आँगन,

    जो भी

    जहाँ भी प्रतिदिन दुआरे बनाता होता है

    आटे-कुंकुम से अल्पना,

    जो भी

    जहाँ भी लोहे की कड़ाही में छौंकता होता है

    मैथी की भाजी,

    जो भी

    जहाँ भी चिंता भरी आँखें लिये निहारता होता है

    केवल हिम

  • हिम, केवल हिम-
    अपने शिवःरूप में
    हिम ही हिम अब!
    रग-गंध सब पिरत्याग कर
    भोजपत्रवत हिमाच्छादित
    वनस्पित से हीन
    धरित्री-
    स्वयं तपस्या।
    पता नहीं
    किस इतिहास-प्रतीक्षा में
    यहाँ शताब्िदयाँ भी लेटी हैं
    हिम थुल़्मों में।
    शिवा की गौर-प्रलम्ब भुजाआें सी
    पवर्त-मालाएँ
    नभ के नील पटल पर
    पृथिवी-सूक्त लिख रहीं।
    नीलमवणीर् नभ के
    इस बर्ह्माण्ड-सिन्धु में
    हिम का राशिभूत
    यह ज्वार
    शिखर, प्रतिशखर
    गगनाकुल।याक सरीखे
    धमर्वृषभ इस हिम प्रदेश में
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