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परिचय

जन्म : 16 जनवरी 1939, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

भाषा : हिंदी

विधाएँ : कविता, नाटक, पटकथा लेखन, फिल्म निर्देशन

मुख्य कृतियाँ : कविता संग्रह : समुद्र पर हो रही है बारिश, सुनो चारुशीला
नाटक : आदमी का आ
पटकथा लेखन : हर क्षण विदा है, दसवीं दौड़, जौनसार बावर, रसखान, एक हती मनू (बुंदेली)
फिल्म निर्देशन : संबंध, जल से ज्योति, समाधान, नन्हें कदम (सभी लघु फिल्में)
सम्मान : पहल सम्मान, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार (1992), हिंदी साहित्य सम्मेलन का सम्मान, शमशेर सम्मान
संपर्क : 2/5, विवेक खंड, गोमतीनगर, लखनऊ – 226010 (उत्तर प्रदेश)
फोन : 08090222200, 09450390241
ई-मेल : nareshsaxena68@gmail.com
 
विशेष

उत्तर प्रदेश जल निगम में एग्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर टैक्नोलाजी मिशन गंगा.नरेश सक्सेना ने  आई. सी. डी. पी. में पर्यावरण इंजीनियरिंग के क्षेत्र में  भी महत्वपूर्ण कार्य किया। कविताओं के अतिरिक्त नाटक, फिल्मों और संपादन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य। सम्मिलित रूप से आरंभ, वर्ष और छायानट साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन।

नरेश सक्सेना की पहली कविता १९५८ में ज्ञानोदय में प्रकाशित तदुपरांत कल्पना, ज्ञानोदय, धर्मयुग, साक्षात्कार, पहल, वसुधा, प्रयोजन, तद्भव आदि हिन्दी की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। हिन्दी के अनेक प्रतिष्ठित संकलनों में भी चयनित एवं प्रकाशित।

नरेश सक्सेना हिंदी कविता के उन चुनिन्दा ख़ामोश लेकिन समर्पित कार्यकर्ताओं की अग्रिम पंक्ति में हैं, जिनके बिना समकालीन हिंदी कविता का वृत्त पूरा नहीं होता। वे विलक्षण कवि हैं और कविताओं की गहन पड़ताल में विश्वास रखते हैं, इसका एक सबूत ये है कि 2001 में वे `समुद्र पर हो रही है बारिश´ के साथ पहली बार साहिबे-किताब बने और 70 की उम्र में अब तक उनके नाम पर बस वही एक किताब दर्ज़ है – इस पहलू से देखें तो वे आलोकधन्वा और मनमोहन की बिरादरी में खड़े नज़र आयेंगे। वे पेशे से इंजीनियर रहे और विज्ञान तथा तकनीक की ये पढ़ाई उनकी कविता में भी समाई दीखती है। वे अपनी कविता में लगातार राजनीतिक बयान देते हैं और अपने तौर पर लगातार एक साम्यवादी सत्य खोजने का प्रयास करते हैं। कविता के लिए उनकी बेहद ईमानदार चिन्ता और वैचारिक उधेड़बुन का ही परिणाम है कि कई पत्रिकाओं के सम्पादक पत्रिका के लिए सार्थक कविताओं की खोज का काम उन्हें सौंपते हैं। कविता के अलावा उनकी सक्रियता के अनेक क्षेत्र हैं। उन्होंने टेलीविज़न और रंगमंच के लिए लेखन किया है। उनका एक नाटक `आदमी का आ´ देश की कई भाषाओं में पांच हज़ार से ज़्यादा बार प्रदर्शित हुआ है। साहित्य के लिए उन्हें 2000 का पहल सम्मान मिला तथा निर्देशन के लिए 1992 में राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार।

कविताएँ
  • इस बारिश में

 

जिसके पास चली गई मेरी जमीन
उसी के पास अब मेरी
बारिश भी चली गई

अब जो घिरती हैं काली घटाएँ
उसी के लिए घिरती है
कूकती हैं कोयलें उसी के लिए
उसी के लिए उठती है
धरती के सीने से सोंधी सुगंध

अब नहीं मेरे लिए
हल नही बैल नही
खेतों की गैल नहीं
एक हरी बूँद नहीं
तोते नहीं, ताल नहीं, नदी नहीं, आर्द्रा नक्षत्र नहीं,
कजरी मल्हार नहीं मेरे लिए
जिसकी नहीं कोई जमीन
उसका नहीं कोई आसमान।

 

अच्छे बच्चे

 

 

कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं
वे गेंद और गुब्बारे नहीं माँगते
मिठाई नहीं माँगते जिद नहीं करते
और मचलते तो हैं ही नहीं

बड़ों का कहना मानते हैं
वे छोटों का भी कहना मानते हैं
इतने अच्छे होते हैं

इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम
और मिलते ही
उन्हें ले आते हैं घर
अक्सर
तीस रुपए महीने और खाने पर।

 

देखता हूँ अँधेरे में अँधेरा

 

लाल रोशनी न होने का अँधेरा
नीली रोशनी न होने के अँधेरे से
अलग होता है

इसी तरह अँधेरा

अँधेरे से अलग होता है।

अँधेरे को दोस्त बना लेना आसान है
उसे अपने पक्ष में भी किया जा सकता है
सिर्फ उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

भरोसा रोशनी पर तो हरगिज नहीं
हरी चीजें लाल रोशनी में
काली नजर आती हैं
दरअसल चीजें
खुद कुछ कम शातिर नहीं होतीं
वे उन रंगों की नहीं दिखतीं
जिन्हें सोख लेती हैं
बल्कि उन रंगों की दिखाई देती हैं
जिन्हें लौटा रही होती हैं
वे हमेशा
अपनी अस्वीकृति के रंग ही दिखाती हैं

औरों की क्या कहूँ
मेरी बाईं आँख ही देखती है कुछ और
दाईं कुछ और देखती है
बायाँ पाँव जाता है कहीं और
दायाँ, कहीं और जाता है
पास आओ दोस्तों अलग करें
सन्नाटे को सन्नाटे से
अँधेरे को अँधेरे से और
नरेश को नरेश से।

 

मछलियाँ

 

क बार हमारी मछलियों का पानी मैला हो गया था
उस रात घर में साफ पानी नहीं था
और सुबह तक सारी मछलियाँ मर गई थीं
हम यह बात भूल चुके थे

एक दिन राखी अपनी कॉपी और पेंसिल देकर
मुझसे बोली
पापा, इस पर मछली बना दो
मैंने उसे छेड़ने के लिए कागज पर लिख दिया – मछली
कुछ देर राखी उसे गौर से देखती रही
फिर परेशान होकर बोली – यह कैसी मछली!
पापा, इसकी पूँछ कहाँ और सिर कहाँ
मैंने उसे समझाया
यह मछली का म
यह छ, यह उसकी ली
इस तरह लिखा जाता है – म…छ…ली
उसने गंभीर होकर कहा – अच्छा! तो जहाँ लिखा है मछली
वहाँ पानी भी लिख दो

तभी उसकी माँ ने पुकारा तो वह दौड़कर जाने लगी
लेकिन अचानक मुड़ी और दूर से चिल्लाकर बोली –
साफ पानी लिखना, पापा!

 

परसाई जी की बात

 

पैंतालिस साल पहले, जबलपुर में
परसाई जी के पीछे लगभग भागते हुए
मैंने सुनाई अपनी कविता
और पूछा
क्या इस पर इनाम मिल सकता है
‘अच्छी कविता पर सजा भी मिल सकती है’
सुनकर मैं सन्न रह गया
क्योंकि उस वक्त वह छात्रों की एक कविता प्रतियोगिता
की अध्यक्षता करने जा रहे थे

आज चारों तरफ सुनता हूँ
वाह-वाह-वाह-वाह, फिर से
मंच और मीडिया के लकदक दोस्त
लेते हैं हाथों-हाथ
सजा जैसी कोई सख्त बात तक नहीं कहता

तो शक होने लगता है
परसाई जी की बात पर नहीं
अपनी कविता पर

 

पानी क्या कर रहा है

 

ज जब पड़ रही है कड़ाके की ठंड
और पानी पीना तो दूर
उसे छूने से बच रहे हैं लोग
तो जरा चल कर देख लेना चाहिए
कि अपने संकट की इस घड़ी में
पानी क्या कर रहा है

अरे! वह तो शीर्षासन कर रहा है
सचमुच झीलों, तालाबों और नदियों का पानी
सिर के बल खड़ा हो रहा है

सतह का पानी ठंडा और भारी हो
लगाता है डुबकी
और नीचे से गर्म और हल्के पानी को
ऊपर भेज देता है ठंड से जूझने

इस तरह लगतार लगाते हुए डुबकियाँ
उमड़ता-घुमड़ता हुआ पानी
जब आ जाता है चार डिग्री सेल्सियस पर
यह चार डिग्री क्या?
यह चार डिग्री वह तापक्रम है, दोस्तो!
जिसके नीचे मछलियों का मरना शुरू हो जाता है
पता नहीं पानी यह कैसे जान लेता है
कि अगर वह और ठंडा हुआ

तो मछलियाँ बच नहीं पाएँगी

अचानक वह अब तक जो कर रहा था
ठीक उसका उल्टा करने लगता है
यानी कि और ठंडा होने पर भारी नहीं होता
बल्कि हल्का होकर ऊपर ही तैरता रहता है

तीन डिग्री हल्का
दो डिग्री और हल्का और
शून्य डिग्री होते ही, बर्फ बनकर
सतह पर जम जाता है

इस तरह वह कवच बन जाता है मछलियों का
अब पड़ती रहे ठंड
नीचे गर्म पानी में मछलियाँ
जीवन का उत्सव मनाती रहती हैं

इस वक्त शीत-कटिबंधों में
तमाम झीलों और समुद्रों का पानी जमकर
मछलियों का कवच बन चुका है

पानी के प्राण मछलियों में बसते हैं
आदमी के प्राण कहाँ बसते हैं, दोस्तो!

इस वक्त
कोई कुछ बचा नहीं पा रहा है
किसान बचा नहीं पा रहा है अन्न को
अपने हाथों से फसलों को आग लगाए दे रहा है

माताएँ बचा नहीं पा रहीं बच्चे
उन्हें गोद में ले
कुओं में छलाँगें लगा रही हैं

इससे पहले कि ठंडे होते ही चले जाएँ
हम, चलकर देख लें
कि इस वक्त जब पड़ रही है कड़ाके की ठंड
तब मछलियों के संकट की इस घड़ी में
पानी क्या कर रहा है।

 

बैठे हैं दो टीले

 

निक देर और आसपास रहें
चुप रहें, उदास रहें,
जाने फिर कैसी हो जाए यह शाम।

एक-एक कर पीले पत्तों का
टूटते चले जाना, इतने चुपचाप,
और तुम्हारा पलकें झपकाकर
प्रश्नों को लौटा लेना अपने आप।
दूर-दूर सड़क के किनारे पर
सूखे पत्तो के धुँधुआते से ढेर,
एक तरफ बैठे हैं दो टीले
गुमसुम-से पीठ फेर-फेर,

डूब रहा सभी कुछ अँधेरे में
चुप्पी के घेरे में
पेड़ों पर चिड़ियों ने डाला कुहराम।

समुद्र पर हो रही बारिश

क्या करे समुद्र
क्या करे इतने सारे नमक का

कितनी नदियाँ आईं और कहाँ खो गईं
क्या पता
कितनी भाप बनाकर उड़ा दीं
इसका भी कोई हिसाब उसके पास नहीं
फिर भी संसार की सारी नदियाँ
धरती का सारा नमक लिए
उसी की तरफ़ दौड़ी चली आ रही हैं
तो क्या करे

कैसे पुकारे
मीठे पानी में रहने वाली मछलियों को
प्यासों को क्या मुँह दिखाए
कहाँ जाकर डूब मरे
ख़ुद अपने आप पर बरस रहा है समुद्र
समुद्र पर हो रही है बारिश

नमक किसे नहीं चाहिए
लेकिन सबकी ज़रूरत का नमक वह
अकेला ही क्यों ढोए

क्या गुरुत्त्वाकर्षण के विरुद्ध
उसके उछाल की सज़ा है यह
या धरती से तीन गुना होने की प्रतिक्रिया

कोई नहीं जानता
उसकी प्राचीन स्मृतियों में नमक है या नहीं

नमक नहीं है उसके स्वप्न में
मुझे पता है
मैं बचपन से उसकी एक चम्मच चीनी
की इच्छा के बारे में सोचता हूँ

पछाड़ें खा रहा है
मेरे तीन चौथाई शरीर में समुद्र

अभी-अभी बादल
अभी-अभी बर्फ़
अभी-अभी बर्फ़
अभी-अभी बादल।

 
रात भर
रात भर चलती हैं रेलें
ट्रक ढोते हैं माल रात भर
कारख़ाने चलते हैंकामगार रहते हैं बेहोश
होशमंद करवटें बदलते हैं रात भर
अपराधी सोते हैं
अपराधों का कोई संबंध अब
अंधेरे से नहीं रहासुबह सभी दफ़्तर खुलते हैं अपराध के।
पहचान

धुंए के साथ ऊपर उठूँगा मैं,

बच्चो जिसे तुम पढ़ते हो कार्बन दाई आक्साइड,

वही बन कर छा जाऊंगा मैं,

पेड़ कहीं होंगे तो और हरे हो जायेंगे,

फल कहीं होंगे तो और पक जायेंगे.

जब उन फलों की मिठास तुम तक पहुंचेगी,

या हरियाली भली लगेगी,

तब तुम मुझे पहचान लोगे,

और कहोगे, “अरे पापा”

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