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परिचय
जन्म : 3 दिसंबर 1903, फीरोजपुर छावनी (पंजाब)

भाषा : हिंदी

विधाएँ : उपन्यास, कहानी, निबंध, व्यंग्य, संस्मरण, वैचारिक साहित्य

मुख्य कृतियाँ
उपन्यास : दिव्या, देशद्रोही, झूठा सच, दादा कामरेड, अमिता, मनुष्य के रूप, मेरी तेरी उसकी बात, क्यों फँसें
कहानी संग्रह : पिंजरे की उड़ान, फूलो का कुर्ता, धर्मयुद्ध, सच बोलने की भूल, ज्ञानदान, भस्मावृत्त चिनगारी, तुमने क्यों कहा था मैं सुंदर हूँ,                           उत्तमी की माँ
व्यंग्य संग्रह : चक्कर क्लब
संस्मरण : सिंहावलोकन
वैचारिक साहित्य : गांधीवाद की शवपरीक्षा
संपादन : विप्लव
सम्मान :साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्म भूषण
निधन :26 दिसंबर, 1976
विशेष
यशपाल हिंदी के शीर्ष कथाकारों में से एक हैं।उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत कहानी से करते हुए उपन्यास लेखन की ओर अग्रसर हुए . यशपाल जी का स्वतंत्रता आन्दोलन और साहित्य दोनों में अतुलनीय योगदान है .प्रेमचन्द के बाद हिन्दी साहित्य में यशपाल जैसा कहानीकार शायद ही कोई हो . 3 दिसम्बर 1903 को पंजाब के फिरोजपुर छावनी में पैदा हुए  यशपाल जी के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया , जब वे लाहौर के नेशनल कालेज में पढने गये . वहीं इनका परिचय भगत सिंह , राजगुरु व सुखदेव से हुआ .इसके बाद इन्होने सशस्त्र क्रांति में भाग लिया .दिल्ली और लाहौर षड्यंत्र मामले में अंग्रेज सरकार ने 1932 में 14 साल की सजा सुनाई थी.1971 में इन्हें पद्मभूषण मिला. मार्क्सवाद के प्रति गहरे तौर पर प्रतिबद्ध यशपाल ने अपनी रचनाओं में अपने विचारों को सोद्देश्य रूप से पिरो कर पेश किया। उनकी अनेक रचनाओं का दुनिया की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।उनके कहानी-संग्रहों में पिंजरे की उड़ान, ज्ञानदान, भस्मावृत्त चिनगारी, फूलों का कुर्ता, धर्मयुद्ध, तुमने क्यों कहा था मैं सुन्दर हूँ और उत्तमी की माँ प्रमुख हैं।’मेरी तेरी उसकी बात’ नामक उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार. उनके उपन्यास झूठा सच को कालजयी उपन्यास का दर्जा हासिल है।आइये उनकी कुछ कालजयी कहानियों से मिलते हैं.  मिलकर अच्छा लगेगा.

 

कहानियाँ  

 

करवा का व्रत

 

कन्हैयालाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद हुआ। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिए सप्ताह-भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अंतरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूछे जो प्रायः ऐसे अवसर पर दूसरों से पूछे जाते हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये गये जो अनुभवी लोग नव विवाहितों को दिया करते हैं।

हेमराज को कन्हैयालाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया-बहू को प्यार तो करना ही चाहिए, पर प्यार से उसे बिगाड़ देना या सिर चढ़ा लेना भी ठीक नहीं। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्रभर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी ज़रूरतें पूरी करो, पर रखो अपने काबू में। मार-पीट बुरी बात है, पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे ज़रूर रहना चाहिए… मारे नहीं तो कम-से-कम गुर्रा तो ज़रूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक में ना भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी-नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाये। …मैं तो देखकर हैरान हो गया। एम्पोरियम से कुछ चीज़ें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकारकर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया- ”कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सही”, तो भीगी बिल्ली की तरह बोले, ”अच्छा!” मर्द को रुपया-पैसा तो अपने पास में रखना चाहिए। मालिक तो मर्द है।
कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऐसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिए किसी तरह तैयार नहीं हुए। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिए गौने की बात ‘ फिर’ पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा-पढ़ा दिया कि पहले तुम ऐसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो।…अपनी मर्जी रखना, समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि ‘ गुर्बारा वररोजे अव्वल कुश्तन’- बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। …तुम कहते हो, पढ़ी-लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिए। पढ़ी-लिखी यों भी मिजाज दिखाती है।

निस्वार्थ-भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बाँध ली थी। सोचा- मुझे बाजार-होटल में खाना पड़े या खुद चौका-बर्तन करना पड़े, तो शादी का लाभ क्या? इसलिए वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के ज़िले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराए पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।

लाजवंती अलीगढ़ में आठवीं जमात तक पढ़ी थी। बहुत-सी चीजों के शौक थे। कई ऐसी चीजों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों को या नई ब्याही बहुओं को करते देख मन मारकर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और बड़े भाई पुराने ख्याल के थे। सोचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीजों के लिए कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि कन्हैया का दिल इनकार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाए, दो बात मानकर तीसरी पर इनकार भी कर देता। लाजो मुँह फुला लेती। लाजो मुँह फुलाती तो सोचती कि मनायेंगे तो मान जाऊँगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डाँट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट-फूटकर रोती। फिर उसने सोच लिया- ‘ चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?’ वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।

कन्हैया का हाथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा दूसरा कौन होगा ? इस नशे में राजा देश-पर-देश समेटते जाते थे, जमींदार गाँव-पर-गाँव और सेठ मिल और बैंक खरीदते चले जाते हैं। इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया के हाथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किए बिना भी चल जाते।

मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऐसा होने पर वह कई दिनों के लिए उदास हो जाती। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध न करती, पर मन-ही-मन सोचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊँ। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हँसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हँसने लगती। सोच यह लिया था, ‘ मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिए तो यही सब कुछ है। जैसे यह चाहता है, वैसे ही मैं चलूँ।’ लाजो के सब तरह अधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढ़ती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छंदता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का संतोष पाता।

क्वार के अन्त में पड़ोस की स्त्रियाँ करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता रही थीं कि उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहाँ मायके से रुपए आ गए थे। कन्हैया अपनी चिट्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मँगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, ‘ तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपए भेजे हैं।’

करवे के रुपए आ जाने से ही लाजो को संतोष हो गया। सोचा, भैया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढ़ी कर और लाड़ के स्वर में याद दिलाया- ‘ हमारे लिए सरघी में क्या-क्या लाओगे…?’

और लाजो ने ऐसे अवसर पर लाई जाने वाली चीज़ें याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मँगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम-जनम यही पति मिले, इसलिए दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।

अवसर की बात, उस दिन कन्हैया लंच की छुट्टी में साथियों के साथ कुछ ऐसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपए खर्च हो गए। वह लाजो का बताया सरगी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हाथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस साँझ मुँह लटक ही गया। आँसू पोंछ लिए और बिना बोले चौके-बर्तन के काम में लग गयी। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुँह सुजाए है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबंध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डाँट दिया।

लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऐसा खयाल आने लगा-इन्ही के लिए तो व्रत कर रही हूँ और यही ऐसी रुखाई दिखा रहे हैं। … मैं व्रत कर रही हूँ कि अगले जनम में भी ‘इन’ से ही ब्याह हो और मैं सुहा ही नहीं रही हूँ…। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऐसे ही सो गयी।

तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खटकने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा-शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरगी के लिए फेनियाँ लाए हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया था कि खोए की मिठाई लाए हैं। लाजो ने सोचा, उन मर्दों को खयाल है न कि हमारी बहू हमारे लिए व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी खयाल नहीं।

लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि सरगी में उसने कुछ भी न खाया। न खाने पर भी पति के नाम का व्रत कैसे न रखती। सुबह-सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत करने वाली रानी और करवे का व्रत करने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसरे उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुँह सुजाए है। उसने फिर डांटा- ‘ मालूम होता है कि दो-चार खाए बिना तुम सीधी नहीं होगी।’

लाजो को और भी रुलाई आ गयी। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है। इन्हीं के लिए व्रत कर रही हूँ और इन्हें गुस्सा ही आ रहा है। …जनम-जनम ये ही मिलें इसीलिये मैं भूखी मर रही हूँ। …बड़ा सुख मिल रहा है न!…अगले जनम में और बड़ा सुख देंगे!…ये ही जनम निबाहना मुश्किल हे रहा है। …इस जनम में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जनम के लिए वही मुसीबत पक्की कर रही हूँ…।

लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर के पहले का ही खाया हुआ था। भूख के मारे कुड़मुड़ा रही थी और उस पर पति का निर्दयी व्यवहार। जनम-जनम, कितने जनम तक उसे ऐसा ही व्यवहार सहना पड़ेगा! सोचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आँचल सिर बाँधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई-करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फ़र्श पर ही लेट रही।

लाजो को पड़ोसिनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आई थीं। करवा-चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियाँ उपवास करके भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने, काढ़ने-बुनने का काम किया नहीं जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई, और चरख़ा छुआ नहीं जाता। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिए ताश या जुए की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी उसी के लिए बुलाने आयी थीं। सिर-दर्द और मन के दुःख के करण लाजो जा नहीं सकी। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गयी और फिर सोचने लगी-ये सब तो सुबह सरगी खाए हुए हैं। जान तो मेरी ही निकल रही है।…फिर अपने दुःखी जीवन के कारण मर जाने का खयाल आया और कल्पना करने लगी कि करवा-चौथ के दिन उपवास किए-किए मर जाए, तो इस पुण्य से जरूर ही यही पति अगले जन्म में मिले…।

लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोचने लगी-मैं मर जाऊँ तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आएगी वह भी करवा चौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोनों का इन्हीं से ब्याह होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का खयाल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने-आप समाधान हो गया-नहीं, पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊँगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम की चिंता से मन अधीर हो उठा। भूख अलग व्याकुल किए थी। उसने सोचा-क्यों मैं अपना अगला जनम भी बरबाद करूँ? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने को मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन मन क्रोध से जल उठा; वह उठ खड़ी हुई।
कन्हैयालाल के लिए उसने सुबह जो खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियाँ कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिए उसने मन को वश में कर एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोचती-ठीक ही तो किया, अपना अगला जनम क्यों बरबाद करूँ? ऐसे पड़े-पड़े झपकी आ गई।
कमरे के किवाड़ पर धम-धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशनदान से प्रकाश की जगह अंधकार भीतर आ रहा था। समझ गई, दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई। कन्हैयालाल ने क्रोध से उसकी तरफ देखा-‘ अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा !’

लाजो के दुखते हुए दिल पर और चोट पड़ी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फ़र्श पर बैठ गई।

कन्हैयालाल का गुस्सा भी उबल पड़ा- ‘ यह अकड़ है! …आज तुझे ठीक कर ही दूँ।’ उसने कहा और लाजो को बाँह से पकड़, खींचकर गिराते हुए दो थप्पड़ पूरे हाथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिए और हाँफते हुए लात उठाकर कहा, ‘ और मिजाज दिखा?… खड़ी हो सीधी।’

लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फ़र्श से उठी नहीं। और मार खाने के लिए तैयार हो उसने चिल्लाकर कहा,’ मार ले, मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैंने कौन व्रत रखा है तेरे लिए जो जनम-जनम मार खाऊँगी। मार, मार डाल…!’

कन्हैयालाल का लात मारने के लिए उठा पाँव अधर में ही रुक गया। लाजो का हाथ उसके हाथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुँह में आई गाली भी मुँह में ही रह गई। ऐसे जान पड़ा कि अँधेरे में कुत्ते के धोखे जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो को डाँट और मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हाँफता हुआ खड़ा सोचता रहा और फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फ़र्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैयालाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।

लाजो फ़र्श पर पड़ी फूट-फूटकर रोती रही। जब घंटे-भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जलाकर कम-से-कम कन्हैया के लिए खाना तो बनाना ही था। बड़े बेमन उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैयालाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढँक दिया और कमरे के किवाड़ उढ़काकर फिर फ़र्श पर लेट गई। यही सोच रही थी, क्या मुसीबत है जिन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी?…मैंने क्या किया था जो मारने लगे।

किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिए आँसुओं से भीगे चेहरे को आँचल से पोछने लगी। कन्हैयालाल ने आते ही एक नजर उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैट गया। कन्हैयालाल का ऐसे चुप बैठ जाना नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई में चली गई। आसन डाल थाली-कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे में पानी लेकर हाथ धुलाने के लिए खड़ी थी। जब पाँच मिनट हो गए और कन्हैयालाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, ‘ खाना परस दिया है।’

कन्हैयालाल आया तो हाथ नल से धोकर झाड़ते हुए भीतर आया। अबतक हाथ धुलाने के लिए लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैयालाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया ‘ और नहीं चाहिए।’ कन्हैयालाल खाकर उठा तो रोज की तरह हाथ धुलाने के लिए न कहकर नल की ओर चला गया। लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कि कद्दू की तरकारी बिलकुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी-नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, ‘ हाय, इन्होंने कुछ कहा भी नहीं। यह तो जरा कम-ज्यादा हो जाने पर डाँट देते थे।’

लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हाथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैयालाल स्वयं ही बिस्तर झाड़कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में आई थी ऐसा कभी नहीं हुआ था। लाजो ने शरमाकर कहा, ‘ मैं आ गई, रहने दो। किए देती हूँ।’ और पति के हाथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैयालाल दूसरी ओर से मदद करता रहा। फिर लाजो को संबोधित किया, ‘ तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो, मैं तुम्हारे लिए दूध ले आता हूँ।’

लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैयालाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने ‘चीज’ समझा था। आज वह ऐसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इनसान हो; उसका भी खयाल किया जाना चाहिए। लाजो को शर्म तो आ ही रही थी पर अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैयालाल के व्यवहार में एक नरमी-सी आ गई। कड़े बोल की तो बात क्या, बल्कि एक झिझक-सी हर बात में; जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर लिए। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म महसूस हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहाँ तक बन पड़ता घर का काम उसे नहीं करने देती, ‘यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते…।’

उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिए पुकारती तो कन्हैया जिद करता, ‘ तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खाएँगे।’ कन्हैया पहले कोई पत्रिका या पुस्तक लाता था तो अकेला मन-ही-मन पढ़ा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढ़ता या खुद सुन लेता। यह भी पूछ लेता, ‘ तुम्हें नींद तो नहीं आ रही ? ‘ साल बीतते मालूम न हुआ। फिर करवा चौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनीऑर्डर करवे के लिए न पहुँचा था। करवा चौथ के पहले दिन कन्हैयालाल दफ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, ‘ भैया करवा भेजना शायद भूल गए।’

कन्हैयालाल ने सांत्वना के स्वर में कहा,’ तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकख़ाने वालों का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाए या और दो दिन बाद आए। डाकख़ाने वाले आजकल मनीआर्डर के पन्द्रह-पन्द्रह दिन लगा देते हैं। तुम व्रत-उपवास के झगड़े में मत पड़ना। तबीयत खराब हो जाती है। यों कुछ मंगाना ही है तो बता दो, लेते आएँगे, पर व्रत-उपवास से होता क्या है ? ‘ सब ढकोसले हैं।’

‘वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा नहीं भेजा न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़े ही।’ लाजो ने बेपरवाही से कहा। संध्या-समय कन्हैयालाल आया तो रूमाल में बँधी छोटी गाँठ लाजो को थमाकर बोला, ‘ लो, फेनी तो मैं ले आया हूँ, पर व्रत-व्रत के झगड़े में नहीं पड़ना।’ लाजो ने मुसकुराकर रूमाल लेकर अलमारी में रख दिया। अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, ‘ आओ, खाना परस दिया है।’ कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिए परोसा था- ‘ और तुम?’ उसने लाजो की ओर देखा।

‘ वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह सरगी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।’ लाजो ने मुस्काकर प्यार से बताया। ‘ यह बात…! तो हमारा भी व्रत रहा।’ आसन से उठते हुए कन्हैयालाल ने कहा। लाजो ने पति का हाथ पकड़कर रोकते हुए समझाया, ‘ क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवा चौथ का व्रत रखते हैं!…तुमने सरगी कहाँ खाई?’
‘नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है ।’ कन्हैया नहीं माना,’ तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!’ लाजो पति की ओर कातर आँखों से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था।

 

 

चित्र का शीर्षक

 

 

 

यराज जाना-माना चित्रकार था। वह उस वर्ष अपने चित्रों को प्रकृति और जीवन के यथार्थ से सजीव बना सकने के लिए, अप्रैल के आरम्भ में ही रानीखेत जा बैठा था। उन महिनों पहाड़ों में वातावरण खूब साफ और आकाश नीला रहता है। रानीखेत से ‘ त्रिशूल’ , ‘पंचचोली’ और ‘चौखम्बा’ की बरफानी चोटियाँ, नीले आकाश के नीचे माणिक्य के उज्ज्वल स्तूपों जैसीं जान पड़ती है। आकाश की गहरी नीलिमा से कल्पना होती कि गहरा नीला समुद्र उपर चढ़ कर छत की तरह स्थिर हो गया हो और उसका श्वेत फेन, समुद्र के गर्भ से मोतियों और मणियों को समेट कर ढेर का ढेर नीचे पहाड़ों पर आ गिरा हो।

जयराज ने इन दृष्यों के कुछ चित्र बनाये परन्तु मन न भरा। मनुष्य के संसर्ग से हीन यह चित्र बनाकर उसे ऐसा ही अनुभव हो रहा था जैसे निर्जन बियाबान में गाये राग का चित्र बना दिया हो। यह चित्र उसे मनुष्य की चाह और अनुभव के स्पन्दन से शून्य जान पड़ते थे। उसने कुछ चित्र, पहाड़ों पर पसलियों की तरह फैले हुए खेतों में श्रम करते पहाड़ी किसान स्त्री-पुरुषों के बनाए। उसे इन चित्रों से भी सन्तोष न हुआ। कला की इस असफलता से अपने हृदय में एक हाय-हाय का सा शोर अनुभव हो रहा था। वह अपने स्वप्न और चाह की बात प्रकट नहीं कर पा रहा था। जयराज अपने मन की तड़प को प्रकट कर सकने के लिए व्याकुल था।

वह मुठ्ठी पर ठोड़ी टिकाये बरामदे में बैठा था। उसकी दृष्टि दूर-दूर तक फैली हरी घाटियों पर तैर रही थी। घाटियों के उतारों-चढ़ावों पर सुनहरी धूप खेल रही थी। गहराइयों में चाँदी की रेखा जैसी नदियाँ कुण्डलियाँ खोल रही थीं। दूध के फेन जैसी चोटियाँ खड़ी थीं। कोई लक्ष्य न पाकर उसकी दृष्टि अस्पष्ट विस्तार पर तैर रही थी। उस समय उसकी स्थिर आँखों के छिद्रों से सामने की चढ़ाई पर एक सुन्दर, सुघड़ युवती को देखने लगी जो केवल उसकी दृष्टि का लक्ष्य बन सकने के लिए ही, उस विस्तार में जहाँ-तहाँ, सभी जगह दिखाई दे रही थी।

जयराज ने एक अस्पष्ट-सा आश्वासन अनुभव किया। इस अनुभूति को पकड़ पाने के लिए उसने अपनी दृष्टि उस विस्तार से हटा, दोनों बाहों को सीने पर बाँध कर एक गहरा निश्वास लिया। उसे जान पड़ा जैसे अपार पारावार में बहता निराश व्यक्ति अपनी रक्षा के लिए आने वाले की पुकार सुन ले। उसने अपने मन में स्वीकार किया, यही तो वह चाहता है:, कल्पना से सौन्दर्य की सृष्टि कर सकने के लिए उसे स्वयं भी जीवन में सौन्दर्य का सन्तोष मिलना चाहिए; बिना फूलों के मधुमक्खी मधु कहाँ से लाए?

ऐसी ही मानासिक अवस्था में जयराज को एक पत्र मिला। यह पत्र इलाहाबाद से उसके मित्र एडवोकेट सोमनाथ ने लिखा था। सोमनाथ ने जयराज का परिचय उसकी कला के प्रति अनुराग और आदर के कारण प्राप्त किया था। कुछ अपनापन भी हो गया था। सोम ने अपने उत्कृष्ट कलाकार मित्र के बहुमूल्य समय का कुछ भाग लेने की घृष्टता के लिए क्षमा माँग कर अपनी पत्नी के बारे में लिखा था, ”इस वर्ष नीता का स्वास्थ्य कुछ शिथिल हैं, उसे दो मास पहाड़ में रखना चाहता हूँ। इलाहाबाद की कड़ी गर्मी में वह बहुत असुविधा अनुभव कर रही है। यदि तुम अपने पड़ोस में ही किसी सस्ते, छोटे परन्तु अच्छे मकान का प्रबन्ध कर सको तो उसे वहाँ पहुँचा दूँ। सम्भवत: तुमने अलग पूरा बँगला लिया होगा। यदि उस मकान में जगह हो और इससे तुम्हारे काम में विघ्न पड़ने की आशंका न हो तो हम एक-दो कमरे सबलेट कर लेंगे। हम अपने लिए अलग नौकर रख लेंगे” आदि-आदि।

दो वर्ष पूर्व जयराज इलाहाबाद गया था। उस समय सोम ने उसके सम्मान में एक चाय-पार्टी दी थी। उस अवसर पर जयराज ने नीता को देखा था और नीता का विवाह हुए कुछ ही मास बीते थे। पार्टी में आये अनेक स्त्री-पुरूष के भीड़-भड़क्के में संक्षिप्त परिचय ही हो पाया था। जयराज ने स्मृति को ऊँगली से अपने मस्तिष्क को कुरेदा। उसे केवल इतना याद आया कि नीता दुबली-पतली, छरहरे बदन की गोरी, हँसमुख नवयुवती थी; आँखों में बुद्धि की चमक। जयराज ने पत्र को तिपाई पर एक ओर दबा दिया और फिर सामने घाटी के विस्तार पर निरूद्देश्य नजर किए सोचने लगा, क्या उत्तर दे?

जयराज की निरूद्देश्य दृष्टि तो घाटी के विस्तार पर तैर रही थी परन्तु कल्पना में अनुभव कर रहा था कि उसके समीप ही दूसरी आराम कुर्सी पर नीता बैठी है। वह भी दूर घाटी में कुछ देख रही है या किसी पुस्तक के पन्नों या अखबार में दृष्टि गड़ाये है। समीप बैठी युवती नारी की कल्पना जयराज को दूध के फेन के समान श्वेत, स्फटिक के समान उज्ज्वल पहाड़ की बरफानी चोटी से कहीं अधिक स्पन्दन उत्पन्न करने वाली जान पड़ी। युवती के केशों और शरीर से आती अस्पष्ट-सी सुवास, वायु के झोकों के साथ घाटियों से आती बत्ती और शिरीष के फूलों की भीनी गन्ध से अधिक सन्तोष दे रही थी। वह अपनी कल्पना में देखने लगा, नीता उसकी आँखों के सामने घाटी की एक पहाड़ी पर चढ़ती जा रही है। कड़े पत्थरों और कंकड़ों के ऊपर नीता की गुलाबी एड़ियाँ, सैन्डल में सँभली हुई हैं। वह चढ़ाई में साड़ी को हाथ से सँभाले हैं। उसकी पिंडलियाँ केले के भीतर के डंठल के रंग की हैं, चढ़ाई के श्रम के कारण नीता की साँस चढ़ गई है और प्रत्येक साँस के साथ उसका सीना उठ आने के कारण, कमल की प्रस्फुटनोन्मुख कली की तरह अपने आवरण को फाड़ देना चाहता है। कल्पना करने लगा, वह कैनवैस के सामने खड़ा चित्र बना रहा है।

नीता एक कमरे से निकली है। आहट ले उसके कान में विघ्न न डालने क लिए पंजों के बल उसके पीछे से होती हुई दूसरे कमरे में चली जा रही है। नीता किसी काम से नौकर को पुकार रही है। उस आवाज से उसके हृदय का साँय-साँय करता सूनापन सन्तोष से बस गया है।

जयराज तुरन्त कागज और कलम ले उत्तर लिखने बैठा परन्तु ठिठक कर सोचने लगा, वह क्या चाहता है? मित्र की पत्नी नीता से वह क्या चाहेगा? तटस्थता से तर्क कर उसने उत्तर दिया, कुछ भी नहीं। जैसे सूर्य के प्रकाश में हम सूर्य की किरणों को पकड़ लेने की आवश्यकता नहीं समझते, उन किरणों से स्वयं ही हमारी आवश्यकता पूरी हो जाती है; वैसे ही वह अपने जीवन में अनुभव होने वाले सुनसान अँधेरे में नारी की उपस्थिति का प्रकाश चाहता है।

जयराज ने संक्षिप्त-सा उत्तर लिखा, ‘भीड़-भाड़ से बचने के लिए अलग पूरा ही बंगला लिया है। बहुत-सी जगह खाली पड़ी है। सबलेट-का कोई सवाल नहीं। पुराना नोकर पास है। यदि नीताजी उस पर देख-रेख रखेंगी तो मेरा ही लाभ होगा। जब सुविधा हो आकर उन्हें छोड़ जाओ। पहुँचने के समय की सूचना देना। मोटर स्टैन्ड पर मिल जाऊँगा।’

अपनी आँखों के सामने और इतने समीप एक तरुण सुन्दरी के होने की आशा में जयराज का मन उत्साह से भर गया। नीता की अस्पष्ट-सी याद को जयराज ने कलाकार के सौन्दर्य के आदेशों की कल्पनाओं से पूरा कर लिया। वह उसे अपने बरामदे में, सामने की घाटी पर, सड़क पर अपने साथ चलती दिखाई देने लगी। जयराज ने उसे भिन्न-भिन्न रंगों की साड़ियों में, सलवार-कमीज के जोडों की पंजाबी पोशाक में, मारवाड़ी अँगिया-लहंगे में फूलों से भरी लताओं के कुंज में, चीड़ के पेड़ के तले और देवदारों की शाखाओं की छाया में सब जगह देख लिया। वह नीता के सशरीर सामने आ जाने की उत्कट प्रतीक्षा में व्याकुल होने लगा; वैसे ही जैसे अँधेरे में परेशान व्यक्ति सूर्य के प्रकाश की प्रतीक्षा करता है।

लौटती डाक से सोम का उत्तर आया, ”तारीख को नीता के लिए गाड़ी में एक जगह रिजर्व हो गई है। उस दिन हाईकोर्ट में मेरी हाजिरी बहुत आवश्यक है। यहाँ गर्मी अधिक है और बढ़ती ही जा रही है। मैं नीता को और कष्ट नहीं देना चाहता। काठगोदान तक उसके लिए गाड़ी में जगह सुरक्षित है। उसे बस की भीड़ में न फँस कर टैक्सी पर जाने के लिए कह दिया है। तुम उसे मोटर स्टैण्ड पर मिल जाना। तुम हम लोगों के लिए जहाँ सब कुछ कर रहे हो, इतना और सही। हम दोनों कृतज्ञ होंगे।”

जयराज मित्र की सुशिक्षित और सुसंस्कृत पत्नी को परेशानी से बचाने के लिए मोटर स्टैण्ड पर पहुँच कर उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा था। काठगोदाम से आनेवाली मोटरें पहाड़ी के पीछे से जिस मोड़ से सहसा प्रकट होती थीं, उसी ओर जयराज की आँख निरन्तर लगी हुई थी। एक टैक्सी दिखाई दी। जयराज आगे बढ़ गया। गाड़ी रुकी। पिछली सीट पर एक महिला अपने शरीर का बोझ सँभाल न सकने के कारण कुछ पसरी हुई-सी दिखाई दी। चेहरे पर रोग की थकावट का पीलापन और थकावट से फैली हुई निस्तेज आँखों के चारों ओर झाइयों के घेरे थे। जयराज ठिठका। महिला की आँखों में पहचान का भाव और नमस्कार में उसके हाथ उठते देख जयराज को स्वीकार करना पड़ा, ”मैं जयराज हूँ।”
महिला ने मुस्कराने का यत्न किया, ”मैं नीता हूँ।”
महिला की वह मुस्कान ऐसी थी जैसे पीड़ा को दबा कर कर्तव्य पूरा किया गया हो। महिला के साधारणत: दुबले हाथ-पाँवों पर लगभग एक शरीर का बोझ पेट पर बँध जाने के कारण उसे मोटर से उतरने में भी कष्ट हो रहा था। बिखरे जाते अपने शरीर को सँभालने में उसे ही असुविधा हो रही थी जैसे सफर में बिस्तर के बन्द टूट जाने पर उसे सँभलना कठिन हो जाता है। महिला लँगड़ाती हुई कुछ ही कदम चल पायी कि जयराज ने एक डाँडी (डोली) को पुकार उसे चार आदमियों के कंधों पर लदवा दिया।

सौजन्य के नाते उसे डाँडी के साथ चलना चाहिए था परन्तु उस शिथिल और विरूप आकृति के समीप रहने में जयराज को उबकाई और ग्लानि अनुभव हो रही थी।

नीता बंगले पर पहुँच कर एक अलग कमरे में पलंग पर लेट गई। जयराज के कानों में उस कमरे से निरन्तर ‘आह! ऊँह!’ की दबी कराहट पहुँच रही थी। उसने दोनों कानों में उँगलियाँ दबा कर कराहट सुनने से बचना चाहा परन्तु उसे शरीर के रोम-रोम से वह कराहट सुनाई दे रही थी। वह नीता की विरूप आकृति, रोग और बोझ से शिथिल, लंगड़ा-लंगड़ा कर चलते शरीर को अपनी स्मृति के पट से पोंछ डालना चाहता था परन्तु वह बरबस आकर उसके सामने खड़ा हो जाता। नीता जयराज को उस मकान के पूरे वातावरण में समा गई अनुभव हो रही थी। जयराज का मन चाह रहा था, बंगले से कहीं दूर भाग जाए।

दूसरे दिन सुबह सूर्य की प्रथम किरणें बरामदे में आ रही थीं। सुबह की हवा में कुछ खुश्की थी। जयराज नीता के कमरे से दूर, बरामदे में आरामकुर्सी पर बैठ गया। नीता भी लगातार लेटने से ऊब कर कुछ ताजी हवा पाने के लिए अपने शरीर को सँभाले, लँगड़ाती-लँगड़ाती बरामदे में दूसरी कुर्सी पर आ बैठी। उसने कराहट को गले में दबा, जयराज को नमस्कार कर हाल-चाल पूछ कर कहा, ”मुझे तो शायद सफर की थकावट या नई जगह के कारण रात नींद नहीं आ सकी।”

जयराज के लिए वहाँ बैठे रहना असम्भव हो गया। वह उठ खड़ा हुआ और कुछ देर में लौटने की बात कह बँगले से निकल गया। परेशानी में वह इस सड़क से उस सड़क पर मीलों घूमता इस संकट से मुक्ति का उपाय सोचता रहा। छुटकारे के लिए उसका मन वैसे ही तड़प रहा था जैसे चिड़िमार के हाथ में फँस गई चिड़िया फड़फड़ाती है। उसे उपाय सूझा। वह तेज कदमों से डाकखाने पहुँचा। एक तार उसने सोम को दे दिया, ”अभी बनारस से तार मिला है कि रोग-शैया पर पड़ी माँ मुझे देखने के लिए छटपटा रही हैं। इसी समय बनारस जाना अनिवार्य है। मकान का किराया छ: महीने का पेशगी दे दिया है। नौकर यहीं रहेगा। हो सके तो तुम आकर पत्नी के पास रहो।”

यह तार दे वह बंगले पर लौटा। नौकर को इशारे से बुलाया। एक सूटकेस में आवश्यक कपड़े ले उसने नौकर को विश्वास दिलाया कि दो दिन के लिए बाहर जा रहा है। सोम को दी हुई तार की नकल अपने जाने के बाद नीता को दिखाने के लिए दे दी और हिदायत की, ”बीबी जी को किसी तरह का भी कष्ट न हो।”

बनारस में जयराज को रानीखेत से लिखा सोम का पत्र मिला। सोम ने मित्र की माता के स्वास्थ्य के लिए चिन्ता प्रकट की थी और लिखा था कि हाईकोर्ट में अवकाश हो गया है। वह रानीखेत पहुँच गया है। वह और नीता उसके लौट आने की प्रतीक्षा उत्सुकता से कर रहे हैं।

जयराज ने उत्तर में सोम को धन्यवाद देकर लिखा कि वह मकान और नौकर को अपना ही समझ कर निस्संकोच वहाँ रहे। वह स्वयं अनेक कारणों से जल्दी नहीं लौट सकेगा। सोम बार-बार पत्र लिखकर जयराज को बुलाता रहा परन्तु जयराज रानीखेत न लौटा। आखिर सोम मकान और सामान नौकर को सहेज, नीता के साथ इलाहाबाद लौट गया। यह समाचार मिलने पर जयराज ने नौकर को सामान सहित बनारस बुलवा लिया।

जयराज के जीवन में सूनेपन की शिकायत का स्थान अब सौन्दर्य के धोखे के प्रति ग्लानि ने ले लिया। जीवन की विरूपता और वीभत्सता का आतंक उसके मन पर छा गया। नीता का रोग से पीड़ित, बोझिल कराहता हुआ रूप उसकी आँखों के सामने से कभी न हटने की जिद कर रहा था। मस्तिष्क में समायी हुई ग्लानि से छुटकारा पाने का दृढ़ निश्चय कर वह सीधा कश्मीर पहुँचा। फिर बरफानी चोटियों क बीच कमल के फूलों से घिरी नीली डल झील में शिकारे पर बैठ उसने सौन्दर्य के प्रति अनुराग पैदा करना चाहा। पुरी और केरल में समुद्र के किनारे जा उसने चाँदनी रात में ज्वार-भाटे का दृश्य देखा। जीवन के संघर्ष से गूँजते नगरों में उसने अपने-आप को भुला देना चाहा परन्तु मस्तिष्क में भरे हुए नारी की विरूपता के यथार्थ ने उसका पीछा न छोड़ा। वह बनारस लौट आया और अपने ऊपर किए गए अत्याचार का बदला लेने के लिए रंग और कूची लेकर कैनवेस के सामने जा खड़ा हुआ।

जयराज ने एक चित्र बनाया, पलंग पर लेटी हुई नीता का। उसका पेट फूला हुआ था, चेहरे पर रोग का पीलापन, पीड़ा से फैली हुई आँखें, कराहट में खुल कर मुड़े हुए होंठ, हाथ-पाँव पीड़ा से ऐंठे हुए।

जयराज यह चित्र पूरा कर ही रहा था कि उसे सोम का पत्र मिला। सोम ने अपने पुत्र के नामकरण की तारीख बता कर बहुत ही प्रबल अनुरोध किया था कि उस अवसर पर उसे अवश्य ही इलाहाबाद आना पड़ेगा। जयराज ने झुंझलाहट में पत्र को मोड़ कर फेंक दिया, फिर औचित्य के विचार से एक पोस्टकार्ड लिख डाला, धन्यवाद, शुभकामना और बधाई। आता तो जरूर परन्तु इस समय स्वयं मेरी तबियत ठीक नहीं। शिशु को आशीर्वाद।

सोम और नीता को अपने सम्मानित और कृपालु मित्र का पोस्टकार्ड शनिवार को मिला। रविवार वे दोनों सुबह की गाड़ी से बनारस जयराज के मकान पर जा पहुँचे। नौकर उन्हें सीधे जयराज के चित्र बनाने की टिकटिकी पर ही चढ़ा हुआ था। सोम और नीता की आँखें उस चित्र पर पड़ी और वहीं जम गई।

जयराज अपराध की लज्जा से गड़ा जा रहा था। बहुत देर तक उसे अपने अतिथियों की ओर देखने का साहस ही न हुआ और जब देखा ते नीता गोद में किलकते बच्चे को एक हाथ से कठिनता से सँभाले, दूसरे हाथ से साड़ी का आँचल होठों पर रखे अपनी मुस्कराहट छिपाने की चेष्टा कर रही थी। उसकी आँखें गर्व और हँसी से तारों की तरह चमक रही थीं। लज्जा और पुलक की मिलवट से उसका चेहरा सिंदूरी हो रहा था।

जयराज के सामने खड़ी नीता, रानीखेत में नीता को देखने से पहले और उसके सम्बन्ध में बताई कल्पनाओं से कहीं अधिक सुन्दर थी। जयराज के मन को एक धक्का लगा, ओह धोखा! और उसका मन फिर धोखे की ग्लानि से भर गया।

जयराज ने उस चित्र को नष्ट कर देने के लिए समीप पड़ी छुरी हाथ में उठा ली। उसी समय नीता का पुलक भरा शब्द सुनाई दिया, ”इस चित्र का शीर्षक आप क्या रखेंगे?”
जयराज का हाथ रुक गया। वह नीता के चेहरे पर गर्व और अभिमान के भाव को देखता स्तब्ध खड़ा था।

कलाकार को अपने इस बहुत ही उत्कृष्ट चित्र के लिए कोई शीर्षक न खोज सकते देख नीता ने अपने बालक को अभिमान से आगे बढ़ा, मुस्कुराकर सुझाया, ”इस चित्र का शीर्षक रखिए ‘सृजन की पीड़ा’।”

 

 

होली का मजाक

 

 
“”बीबी जी, आप आवेंगी कि हम चाय बना दें!”” किलसिया ने ऊपर की मंज़िल की रसोई से पुकारा।
“”नहीं, तू पानी तैयार कर- तीनों सेट मेज़ पर लगा दे, मैं आ रही हूँ। बाज़ आए तेरी बनाई चाय से। सुबह तीन-तीन बार पानी डाला तो भी इनकी काली और ज़हर की तरह कड़वी. . .। तुम्हारे हाथ डिब्बा लग जाए तो पत्ती तीन दिन नहीं चलती। सात रुपए में डिब्बा आ रहा है। मरी चाय को भी आग लग गई है।”” मालकिन ने किलसिया को उत्तर दिया। आलस्य अभी टूटा नहीं था। ज़रा और लेट लेने के लिए बोलती गईं, “”बेटा मंटू, तू ज़रा चली जा ऊपर। तीनों पॉट बनवा दे। बेटा, ज़रा देखकर पत्ती डालना, मैं अभी आ रही हूँ।””
“”अम्मा जी, ज़रा तुम आ जाओ! हमारी समझ में नहीं आता। बर्तन सब लगा दिए हैं।”” सत्रह वर्ष की मंटू ने ऊपर से उत्तर दिया।

ठीक ही कह रही है लड़की, मालकिन ने सोचा। घर मेहमानों से भरा था, जैसे शादी-ब्याह के समय का जमाव हो। चीफ़ इंजीनियर खोसला साहब के रिटायर होने में चार महीने ही शेष थे। तीन वर्ष की एक्सटेंशन भी समाप्त हो रही थी। पिछले वर्ष बड़े लड़के और लड़की के ब्याह कर दिए थे। रिटायर होकर तो पेंशन पर ही निर्वाह करना था। जो काम अब हज़ार में हो जाता, रिटायर होने पर उस पर तीन हज़ार लगते। रिटायर होकर इतनी बड़ी, तेरह कमरे की हवेली भी नहीं रख सकते थे।
पहली होली पर लड़की जमाई के साथ आई थी। बड़ा लड़का आनंद सात दिन की छुट्टी लेकर आया था इसलिए बहू को भी बुला लिया था। आनंद की छोटी साली भी बहन के साथ लखनऊ की सैर के लिए आ गई थी। इंजीनियर साहब के छोटे भाई गोंडा जिले में किसी शुगर मिल में इंजीनियर थे। मई में उनकी लड़की का ब्याह था। वे पत्नी, साली और लड़की के साथ दहेज ख़रीदने के लिए लखनऊ आए हुए थे। खूब जमाव था।

मालकिन ऊपर पहुँची। प्लेटों में अंदाज़ से नमकीन और मिठाई रखी। जमाई ज्ञान बाबू के लिए बिस्कुट और संतरे रखे। साहब इस समय कुछ नहीं खाते थे। उनके लिए थोड़ी किशमिश रखी। किलसिया और सित्तो के हाथ नीचे भेजने के लिए ट्रे में चाय लगाने लगीं।
”अम्मा जी, यह क्या?” मंटू माँ के बायें हाथ की ओर संकेत कर झल्ला उठी, ”फिर वही डंडे जैसी खाली कलाइयाँ! कड़ा फिर उतार दिया! तुम्हें तो सोना घिस जाने की चिंता खाए जाती है।”
”नहीं मंटू. . .” माँ ने समझाना चाहा।
”तुम ज़रा ख़याल नहीं करतीं,” मंटू बोलती गई, ”इतने लोग घर में आए हुए हैं। त्योहार का दिन है। यही तो समय होता है कि कुछ पहनने का और तुम उतार कर रख देती हो. . .।”

मंटू झुँझला ही रही थी कि उसकी चाची, मालकिन की देवरानी लीला नाश्ते में सहायता देने के लिए ऊपर आ गई। उसने भी मंटू का साथ दिया, ”हाँ भाभी जी, त्योहार का दिन है, घर में बहू आई है, जमाई आया है, ऐसे समय भी कुछ नहीं पहना! कलाई नंगी रहे तो असगुन लगता है। सुबह तो चूड़ियाँ भी थीं, कड़ा भी था।”
मालकिन ने नाश्ता बाँटने से हाथ रोककर मंटू से कहा, ”जा नन्हीं, दौड़कर जा, बीचवाले गुसलखाने में देख! सिर धोने लगी थी तो बालों में उलझ रहा था, वहीं उतार कर रख दिया था। जहाँ मंजन-वंजन पड़ा रहता है, वहीं रखा था। लाकर पहना दे!”
”मंटू जी ने धड़धड़ाती हुई नीचे गई। गुसलखाने में देखकर उसने वहीं से पुकारा, ”अम्मा जी, यहाँ कुछ नहीं है।”
मालकिन ने मंटू की बात सुनी तो चेहरे पर चिंता झलक आई। देवरानी से बोलीं, ”लीला, मेरे बाद तुम नहाई थी न। तुमने नहीं देखा! आलमारी में रख दिया था।” और फिर वहीं बैठे-बैठे मंटू को उत्तर दिया, ”अच्छा बेटी, ज़रा अपने कमरे में तो देख ले! ड्रेसिंग टेबल की दराज़ में देख लेना, कपड़े वहीं पहने थे!”

लीला की बहन कैलाश भी आ गई थी। उसने भी पूछ लिया, ”क्या है, क्या नहीं मिल रहा?”
लीला को भाभी की बात अच्छी नहीं लगी। चेहरा गंभीर हो गया। उसने तुरंत अपनी बहन को संबोधन किया, ”काशो, हम दोनों तो नीचे के गुसलखाने में नहाने गई थीं. . .।”

मालकिन ने देवरानी के बुरा मान जाने की आशंका में तुरंत बात बदली, ”मैं तो कह रही हूँ कि तू वहाँ नहाई होती तो उठाकर सँभाल लिया होता।”
भाभी की बात से लीला को संतोष नहीं हुआ। उसने फिर कैलाश को याद दिलाया, ”काशो, मैं बीच के गुसलखाने में जा रही थी तो किलसिया ने नहीं कहा था कि बहू का साबुन-तौलिया और उसके लिए गरम पानी रख दिया है। आपके बाद तो कुसुम ही नहाई थी। सँभाल कर रखा होगा तो उसी के पास होगा।”
बीच की मंज़िल से फिर मंटू की पुकार सुनाई दी, ”अम्मा जी, यहाँ भी नहीं है, मैंने सब देख लिया है।”
मालकिन ने कैलाश से कहा, ”काशो बहन, तू जा नीचे, मंटू से कह कि ज़रा कुसुम से पूछ ले। उसने सँभाल लिया होगा। मुझे तो यही याद है कि गुसलखाने की आलमारी में रखा था।”
कैलाश नीचे जा रही थी तो लीला ने मालकिन को सुझाया,
”भाभी जी, आपके बाद. . .।”

किलसिया कमरे में आ गई थी। बोली, ”गोल कमरे में चाय दे दी है। बड़े साहब, जमाई बाबू और बड़े भैया तीनों वहीं पी रहें हैं। पकौड़ी लौटा दी है, कोई नहीं खाएगा। बहू जी, उनकी बहन और बड़ी बिटिया भी चाय नीचे मँगा रही हैं।”
”सित्तो क्या कर रही है?” मालकिन ने किलसिया से पूछा।
”नीचे के गुसलखाने में कपड़े धो रही है।”

किलसिया बहू, उनकी बहन और बड़ी बिटिया के लिए चाय लेकर चली तो बोली, ”आपके बाद कुसुम से पहले किलसिया भी तो गुसलखाने में गई थी। उसी ने तो आपके कपड़े उठाकर कुसुम के लिए साबुन-तौलिया रखा था।” लीला ने स्वर दबा कर कहा।
”भाभी जी, मैंने आपसे कहा नहीं पर किलसिया की आदत अच्छी नहीं है। पहले भी देखा, इस बार भी दो बार पैसे उठ चुके हैं। परसों मैंने मेज़ की दराज में एक रुपया तेरह आना रख दिए थे, चार आने चले गए। ‘इनके’ कोट की जेब में रुपए-रुपए के सत्ताइस नोट थे, एक रुपया उड़ गया। कमरे किलसिया ही साफ़ करती है। मैंने सोचा, इतनी-सी बात के लिए मैं क्या कहूँ?”
मालकिन ने समझाया, ”तू भी क्या कहती है लीला! आठ आने, रुपए की बात मैं मानती हूँ, मरी उठा लेती होगी पर पाँच तोले का कड़ा उठा ले, ऐसी हिम्मत कहाँ? मरी बेचने जाएगी तो पकड़ी नहीं जाएगी?”

मंटू और कैलाश ने आकर बताया, ”कुसुम भाभी कहती हैं कि उन्होंने तो कड़ा देखा नहीं।”
सित्तो ने कपड़े धोकर सामने की छत पर लगे तारों पर फैला दिए थे। उसने वहीं से मालकिन को पुकारा, ”बीबी जी, सब काम हो गया, अब हम जाएँ!”
किलसिया फिर ऊपर आ गई थी। वह भी बोली, ”हमें भी छुट्टी दीजिए, त्योहार का दिन है, ज़रा घर की भी सुध लें।”
”जाना बाद में,” मालकिन बोलीं, ”देखो, हमने सिर धोया था तो कड़ा उतार की गुसलखाने की अलमारी में रख दिया था। पहले ढूंढ़ कर लाओ, तब कोई घर जाएगा।”
किलसिया ने तुरंत विरोध किया, ”हम क्या जाने, हमें तो जिसने जो कपड़ा दिया गुसलखाने में रख दिया। रंग से ख़राब कपड़े उठा कर धोबी वाली पिटारी में डाल दिए। हमने छुआ हो तो हमारे हाथ टूटें।”सित्तो ने दुहाई दी, ”हाय बीबी जी, हम तो बीच के गुसलखाने में गई ही नहीं। हम तो सुबह से महाराज के साथ बर्तन-भांडे में लगी रहीं और तब से नीचे कपड़े धो रही थीं।”
”ख़ामख़्वाह क्यों बकती हो!” मालकिन ने दोनों को डाँट दिया, ”मैं किसी को कुछ कह रही हूँ? कड़ा गुस्लख़ाने में रखा था, पाँच तोले का है, कोई मज़ाक तो है नहीं! किसकी हिम्मत है जो पचा लेगा!”

घर भर में चिंता फैल गई। सब ओर खुसुर-फुसुर होने लगी। बात मर्दों में भी पहुँच गई। जमाई ज्ञान बाबू ने पुकारा, ”क्यों मंटा बहन जी, क्या बात है? माँ जी, मंटा ने छिपा लिया है। कहती है पाँच चाकलेट दोगी तो ढूंढ देगी।”
मंटा ने विरोध किया, ”हाय जीजा जी, कितना झूठ! मैंने कब कहा? मैं तो खुद सब जगह ढूँढ़ती फिर रही हूँ।”
बड़ा लड़का आनंद भी बोल उठा, ”अम्मा जी, याद भी है कि कड़ा पहना था। कहीं स्टील वाली अलमारी में ही तो नहीं पड़ा है। तुम घर भर ढूँढ़वा रही हो। तुम भूल भी तो जाती हो। चाभियाँ रखती हो ड्रेसिंग टेबल की दराज में छिपाकर और ढूँढ़ती हो रसोई में।”

मालकिन ने जीना उतरते हुए बेटे को उत्तर दिया, ”तुम भी क्या कह रहे हो? कल शाम लीला के साथ दाल धो रही तो बायें हाथ से घड़ी खोल कर रख दी थी। मंटू ने शोर मचाया, खाली कलाई अच्छी नहीं लगती। वही घड़ी नीचे रखकर कड़ा ले आई थी।”
बड़ी लड़की ने माँ का समर्थन किया, ”क्या कह रहे हो भैया, सुबह भी कड़ा अम्मा जी के हाथ में था। हमने खुद देखा है।”
कैलाश ने भी वीणा का समर्थन किया, ”सुबह मिश्रानी जी के यहाँ गई थीं, तब भी कड़ा हाथ में था। मिश्रानी जी ने नहीं कहा था कि बहुत दिनों बाद पहना है!”

सित्तो ने दोनों गुसलखाने अच्छी तरह देखे। फिर महाराज के साथ रसोई में सब जगह देख रही थी। किलसिया सब कमरों में जा-जाकर ढूंढ़ रही थी। न देखने लायक जगह में भी देख रही थी और बड़बड़ाती जा रही थी, ”बीबी जी चीज़-बस्त खुद रख कर भूल जाती हैं और हम पर बिगड़ा करती हैं।”

बात घर में फैल गई थी। बड़े साहब और छोटे साहब ने भी सुन लिया था। दोनों ही इस विषय में जिज्ञासा कर चुके थे। छोटे साहब भाभी से अंग्रेज़ी में पूछ रहे थे, ”आपके नहाने के बाद नौकरों में से कोई घर के बाहर गया था या नहीं?” सभी सहमे हुए थे। स्त्रियाँ, लड़कियाँ सब आँगन में इकट्ठी हो गई थीं। दबे-दबे स्वर में नौकरों के चोरी लगने के उदाहरण बता रही थीं। अब मालकिन भी घबरा गईं थीं। देवरानी ने उनके समीप आकर फिर कहा, ”देखा नहीं भाभी, किलसिया क़समें तो बहुत खा रही थी पर चेहरा उतर गया है।”
”यहाँ आकर तो देखिए!” किलसिया ने बड़े साहब के कमरे से चिक उठाकर पुकारा।
”क्यों, क्या है?” मंटा और वीणा ने एक साथ पूछ लिया।
”हम कह रहे हैं, यहाँ तो आइए!” किलसिया ने कुछ झुँझलाहट दिखाई। वीणा और मंटा उधर चली गईं।

दोनों बहनें कमरे से बाहर निकलीं तो मुँह छिपाए दोहरी हुई जा रही थीं। हँसी रोकने के लिए दोनों ने मुँह पर आँचल दबा लिए थे।
किलसिया कमरे से निकली तो भवें चढ़ाकर ऊँचे स्वर में बोल उठीं, ”रात साहब के तकिये के नीचे छोड़ आईं। घर भर में ढुँढ़ाई करा रही हैं।”
”पापा के तकिये के नीचे।” मंटा ने हँसी से बल खाते हुए कह ही दिया।

लीला, कुसुम, कैलाश, नीता सबके चेहरे लाज से लाल हो गए। सब मुँह छिपा कर फिस-फिस करती इधर से उधर भाग गईं।
मालकिन का चेहरा खिसियाहट से गंभीर हो गया। अवाक निश्चल रह गईं। वीणा से ज्ञान बाबू ने अर्थपूर्ण ढंग से खाँस कर कहा, ”कड़ा मिलने की तो डबल मिठाई मिलनी चाहिए।”
छोटे बाबू से भी रहा नहीं गया, बोल उठे, ”भाभी, क्या है?”
गोल कमरे से बड़े साहब की भी पुकार सुनाई दी, ”मिल गया, मंटू कहाँ से मिला है?”
मंटू मुँह में आँचल ठूँसे थी, कैसे उत्तर देती?
छोटे साहब फिर बोले, ”भाभी, भैया क्या पूछ रहे हैं?”
मालकिन खिसियाहट से बफरी हुई थीं, क्या बोलतीं?
लीला ने हँसी दबाकर भाभी के काम न में कहा, ”देखा चालाक को, कहाँ जाकर रख दिया। तभी ढूँढ़ती फिर रही थी।”

ज़ेवर चोरी की बात पड़ोसी मिश्रा जी के यहाँ भी पहुँच गई थी। मिश्राइन जी ने आकर पूछ लिया, ”मंटू की माँ, क्या बात है, क्या हुआ?”
”कुछ नहीं, कुछ नहीं।” मालकिन को बोलना पड़ा, ”ख़ामख़्वाह शोर मचा दिया।”
कुसुम से रहा नहीं गया। अपने कमरे से झाँक कर बोली, ”ताई जी, किलसिया ने अम्मा जी के साथ होली का मज़ाक किया है।”

 

 

दुःख का अधिकार

 

 

नुष्यों की पोशाकें उन्हें विभिन्न श्रेणियों में बाँट देती हैं। प्रायः पोशाक ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्जा निश्चित करती है। वह हमारे लिए अनेक बंद दरवाजे खोल देती है, परंतु कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि हम जरा नीचे झुककर समाज की निचली श्रेणियों की अनुभूति को समझना चाहते हैं। उस समय यह पोशाक ही बंधन और अड़चन बन जाती है। जैसे वायु की लहरें कटी हुई पतंग को सहसा भूमि पर नहीं गिर जाने देतीं, उसी तरह खास परिस्थितियों में हमारी पोशाक हमें झुक सकने से रोके रहती है।
बाज़ार में, फुटपाथ पर कुछ ख़रबूज़े डलिया में और कुछ जमीन पर बिक्री के लिए रखे जान पड़ते थे। ख़रबूज़ों के समीप एक अधेड़ उम्र की औरत बैठी रो रही थी। ख़रबूज़े बिक्री के लिए थे, परंतु उन्हें खरीदने के लिए कोई कैसे आगे बढ़ता? ख़रबूज़ों को बेचनेवाली तो कपड़े से मुँह छिपाए सिर को घुटनों पर रखे फफक-फफककर रो रही थी।
पड़ोस की दुकानों के तख़्तों पर बैठे या बाज़ार में खड़े लोग घृणा से उसी स्त्री के संबंध में बात कर रहे थे। उस स्त्री का रोना देखकर मन में एक व्यथा-सी उठी, पर उसके रोने का कारण जानने का उपाय क्या था? फुटपाथ पर उसके समीप बैठ सकने में मेरी पोशाक ही व्यवधान बन खड़ी हो गई।
एक आदमी ने घृणा से एक तरफ़ थूकते हुए कहा, ‘क्या जमाना है! जवान लड़के को मरे पूरा दिन नहीं बीता और यह बेहया दुकान लगा के बैठी है।’
दूसरे साहब अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कह रहे थे, ‘अरे जैसी नीयत होती है अल्ला भी वैसी ही बरकत देता है।’
सामने के फुटपाथ पर खड़े एक आदमी ने दियासलाई की तीली से कान खुजाते हुए कहा, ‘अरे, इन लोगों का क्या है? ये कमीने लोग रोटी के टुकड़े पर जान देते हैं। इनके लिए बेटा-बेटी, ख़सम-लुगाई, धर्म -ईमान सब रोटी का टुकड़ा है।’
परचून की दुकान पर बैठे लाला जी ने कहा, ‘अरे भाई, उनके लिए मरे-जिए का कोई मतलब न हो, पर दूसरे के धर्म-ईमान का तो खयाल करना चाहिए! जवान बेटे के मरने पर तेरह दिन का सूतक होता है और वह यहाँ सड़क पर बाज़ार में आकर ख़रबूज़े बेचने बैठ गई है। हजार आदमी आते-जाते हैं। कोई क्या जानता है कि इसके घर में सूतक है। कोई इसके ख़रबूज़े खा ले तो उसका ईमान- धर्म कैसे रहेगा? क्या अँधेर है!’
पास-पड़ोस की दुकानों से पूछने पर पता लगा-उसका तेईस बरस का जवान लड़का था। घर में उसकी बहू और पोता-पोती हैं। लड़का शहर के पास डेढ़ बीघा भर जमीन में कछियारी करके परिवार का निर्वाह करता था। ख़रबूज़ों की डलिया बाज़ार में पहुँचाकर कभी लड़का स्वयं सौदे के पास बैठ जाता, कभी माँ बैठ जाती।
लड़का परसों सुबह मुँह- अँधेरे बेलों में से पके ख़रबूज़े चुन रहा था। गीली मेड़ की तरावट में विश्राम करते हुए एक साँप पर लड़के का पैर पड़ गया। साँप ने लड़के को डस लिया।
लड़के की बुढ़िया माँ बावली होकर ओझा को बुला लाई। झाड़ना-फूँकना हुआ। नागदेव की पूजा हुई। पूजा के लिए दान-दक्षिणा चाहिए। घर में जो कुछ आटा और अनाज था, दान-दक्षिणा में उठ गया। माँ, बहू और बच्चे ‘भगवाना’ से लिपट-लिपटकर रोए, पर भगवाना जो एक दफ़े चुप हुआ तो फिर न बोला। सर्प के विष से उसका सब बदन काला पड़ गया था।
ज़िंदा आदमी नंगा भी रह सकता है, परंतु मुर्दे को नंगा कैसे विदा किया जाए? उसके लिए तो बजाज की दुकान से नया कपड़ा लाना ही होगा, चाहे उसके लिए माँ के हाथों के छन्नी-ककना ही क्यों न बिक जाएं ।
भगवाना परलोक चला गया। घर में जो कुछ चूनी-भूसी थी सो उसे विदा करने में चली गई। बाप नहीं रहा तो क्या, लड़के सुबह उठते ही भूख से बिलबिलाने लगे। दादी ने उन्हें खाने के लिए ख़रबूज़े दे दिए लेकिन बहू को क्या देती? बहू का बदन बुख़ार से तवे की तरह तप रहा था। अब बेटे के बिना बुढ़िया को दुअन्नी-चवन्नी भी कौन उधार देता।
बुढ़िया रोते-रोते और आँखें पोंछते-पोंछते भगवाना के बटोरे हुए ख़रबूज़े डलिया में समेटकर बाज़ार की ओर चली-और चारा भी क्या था?
बुढ़िया ख़रबूज़े बेचने का साहस करके आई थी, परंतु सिर पर चादर लपेटे, सिर को घुटनों पर टिकाए हुए फफक-फफककर रो रही थी।
कल जिसका बेटा चल बसा, आज वह बाज़ार में सौदा बेचने चली है, हाय रे पत्थर-दिल!
उस पुत्र-वियोगिनी के दुःख का अंदाजा लगाने के लिए पिछले साल अपने पड़ोस में पुत्र की मृत्यु से दुःखी माता की बात सोचने लगा। वह संभ्रांत महिला पुत्र की मृत्यु के बाद अढ़ाई मास तक पलंग से उठ न सकी थी। उन्हें पंद्रह-पंद्रह मिनट बाद पुत्र-वियोग से मूर्छा आ जाती थी और मूर्छा न आने की अवस्था में आँखों से आँसू न रुक सकते थे। दो-दो डॉक्टर हरदम सिरहाने बैठे रहते थे। हरदम सिर पर बर्फ़ रखी जाती थी। शहर भर के लोगों के मन उस पुत्र-शोक से द्रवित हो उठे थे।
जब मन को सूझ का रास्ता नहीं मिलता तो बेचैनी से कदम तेज हो जाते हैं। उसी हालत में नाक ऊपर उठाए, राह चलतों से ठोकरें खाता मैं चला जा रहा था। सोच रहा था- शोक करने, गम मनाने के लिए भी सहूलियत चाहिए और— दुःखी होने का भी एक अधिकार होता है।

 

 

परदा

 

 

 

 

चौधरी पीरबख्श के दादा चुंगी के महकमे में दारोगा थे । आमदनी अच्छी थी । एक छोटा, पर पक्का मकान भी उन्होंने बनवा लिया । लड़कों को पूरी तालीम दी । दोनों लड़के एण्ट्रेन्स पास कर रेलवे में और डाकखाने में बाबू हो गये । चौधरी साहब की ज़िन्दगी में लडकों के ब्याह और बाल-बच्चे भी हुए, लेकिन ओहदे में खास तरक्की न हुई; वही तीस और चालीस रुपये माहवार का दर्जा ।
अपने जमाने की याद कर चौधरी साहब कहते-”वो भी क्या वक्त थे ! लोग मिडिल पास कर डिप्टी-कलेक्टरी करते थे और आजकल की तालीम है कि एण्ट्रेन्स तक अंग्रेज़ी पढ़कर लड़के तीस-चालीस से आगे नहीं बढ पाते ।” बेटों को ऊँचे ओहदों पर देखने का अरमान लिये ही उन्होंने आँखें मूंद लीं ।
इंशा अल्ला, चौधरी साहब के कुनबे में बरक्कत हुई । चौधरी फ़ज़ल कुरबान रेलवे में काम करते थे । अल्लाह ने उन्हें चार बेटे और तीन-बेटियां दीं। चौधरी इलाही बख्श डाकखाने में थे । उन्हें भी अल्लाह ने चार बेटे और दो लड़कियाँ बख्शीं ।
चौधरी-खानदान अपने मकान को हवेली पुकारता था । नाम बड़ा देने पर जगह तंग ही रही । दारोगा साहब के जमाने में ज़नाना भीतर था और बाहर बैठक में वे मोढ़े पर बैठ नैचा गुड़गुड़ाया करते । जगह की तंगी की वजह से उनके बाद बैठक भी ज़नाने में शामिल हो गयी और घर की ड्योढ़ी पर परदा लटक गया। बैठक न रहने पर भी घर की इज्जत का ख्याल था, इसलिए पर्दा बोरी के टाट का नहीं, बढ़िया किस्म का रहता ।
ज़ाहिर है, दोनों भाइयों के बाल-बच्चे एक ही मकान में रहने पर भी भीतर सब अलग-अलग था । डयोढ़ी का पर्दा कौन भाई लाये? इस समस्या का हल इस तरह हुआ कि दारोगा साहब के जमाने की पलंग की रंगीन दरियाँ एक के बाद एक डयोढ़ी में लटकाई जाने लगीं ।
तीसरी पीढ़ी के ब्याह-शादी होने लगे । आखिर चौधरी-खानदान की औलाद को हवेली छोड़ दूसरी जगहें तलाश करनी पड़ी । चौधरी इलाही बख्श के बड़े साहबजादे एण्ट्रेन्स पास कर डाकखाने में बीस रुपये की क्लर्की पा गये । दूसरे साहबजादे मिडिल पास कर अस्पताल में कम्पाउण्डर बन गये ।ज्यों-ज्यों जमाना गुजरता जाता, तालीम और नौकरी दोनों मुश्किल होती जातीं तीसरे बेटे होनहार थे । उन्होंने वज़ीफ़ा पाया । जैसे-तैसे मिडिल कर स्कूल में मुदर्रिस हो देहात चले गये ।
चौथे लड़के पीरबख्श प्राइमरी से आगे न बढ़ सके । आजकल की तालीम माँ-बाप पर खर्च के बोझ के सिवा और है क्या? स्कूल की फीस हर महीने, और किताबों, कापियों और नक्शों के लिए रुपये-ही-रुपये!
चौधरी पीरबख्श का भी ब्याह हो गया मौला के करम से बीबी की गोद भी जल्दी ही भरी । पीरबख्श ने रौजगार के तौर पर खानदान की इज्ज़त के ख्याल से एक तेल की मिल में मुंशीगिरी कर लीं । तालीम ज्यादा नहीं तो क्या, सफेदपोश खानदान की इज्ज़त का पास तो था । मजदूरी और दस्तकारी उनके करने की चीजें न थीं । चौकी पर बैठते । कलम-दवात का काम था ।
बारह रुपया महीना अधिक नहीं होता । चौधरी पीरबख्श को मकान सितवा की कच्ची बस्ती में लेना पड़ा । मकान का किराया दो रुपया था । आसपास गरीब और कमीने लोगों की बस्ती थी । कच्ची गली के बीचों-बीच, गली के मुहाने पर लगे कमेटी के नल से टपकते पानी की काली धार बहती रहती, जिसके किनारे घास उग आयी थी । नाली पर मच्छरों और मक्खियों के बादल उमड़ते रहते । सामने रमजानी धोबी की भट्‌ठी थी, जिसमें से धुँआँ और सज्जी मिले उबलते कपड़ों की गंध उड़ती रहती । दायीं ओर बीकानेरी मोचियों के घर थे । बायीं ओर वर्कशाप में काम करने वाले कुली रहते ।
इस सारी बस्ती में चौधरी पीरबख्श ही पढ़े-लिखे सफ़ेदपोश थे । सिर्फ उनके ही घर की डयोढ़ी पर पर्दा था । सब लोग उन्हें चौधरीजी, मुंशीजी कहकर सलाम करते । उनके घर की औरतों को कभी किसी ने गली में नहीं देखा । लड़कियाँ चार-पाँच बरस तक किसी काम-काज से बाहर निकलती और फिर घर की आबरू के ख्याल से उनका बाहर निकलना मुनासिब न था। पीर बख्श खुद ही मुस्कुराते हुए सुबह-शाम कमेटी के नल से घड़े भर लाते ।
चौधरी की तनख्वाह पद्रह बरस में बारह से अठारह हो गयी । खुदा की बरक्कत होती है, तो रुपये-पैसे की शक्ल में नहीं, आल-औलाद की शक्ल में होती है । पंद्रह बरस में पाँच बच्चे हुए । पहलै तीन लड़कियाँ और बाद में दो लड़के ।
दूसरी लड़की होने को थी तो पीरबख्श की वाल्दा मदद के लिए आयीं । वालिद साहब का इंतकाल हो चुका था । दूसरा कोई भाई वाल्दा की फ़िक्र करने आया नहीं; वे छोटे लड़के के यहाँ ही रहने लगीं ।
जहाँ बाल-बच्चे और घर-बार होता है, सौ किस्म की झंझटें होती ही हैं । कभी बच्चे को तकलीफ़ है, तो कभी ज़च्चा को । ऐसे वक्त में कर्ज़ की जरूरत कैसे न हो ? घर-बार हो, तो कर्ज़ भी होगा ही ।
मिल की नौकरी का कायदा पक्का होता है । हर महीने की सात तारीख को गिनकर तनख्वाह मिल जाती है । पेशगी से मालिक को चिढ़ है । कभी बहुत ज़रूरत पर ही मेहरबानी करते । ज़रूरत पड़ने पर चौधरी घर की कोई छोटी-मोटी चीज़ गिरवी रख कर उधार ले आते । गिरवी रखने से रुपये के बारह आने ही मिलते । ब्याज मिलाकर सोलह ऑने हो जाते और फिर चीज़ के घर लौट आने की सम्भावना न रहती ।
मुहल्ले में चौधरी पीरबख्श की इज्ज़त थी । इज्ज़त का आधार था, घर के दरवाजे़ पर लटका पर्दा । भीतर जो हो, पर्दा सलामत रहता । कभी बच्चों की खींचखाँच या बेदर्द हवा के झोंकों से उसमें छेद हो जाते, तो परदे की आड़ से हाथ सुई-धागा ले उसकी मरम्मत कर देते ।
दिनों का खेल ! मकान की डयोढ़ी के किवाड़ गलते-गलते बिलकुल गल गये । कई दफे़ कसे जाने से पेच टूट गये और सुराख ढीले पड़ गये । मकान मालिक सुरजू पांडे को उसकी फ़िक्र न थी । चौधरी कभी जाकर कहते-सुनते तो उत्तर मिलता–”कौन बड़ी रकम थमा देते हो ? दो रुपल्ली किराया और वह भी छः-छः महीने का बकाया । जानते हो लकड़ी का क्या भाव है । न हो मकान छोड़ जाओ ।” आखिर किवाड़ गिर गये । रात में चौधरी उन्हें जैसे-तैसे चौखट से टिका देते । रात-भर दहशत रहती कि कहीं कोई चोर न आ जाये ।
मुहल्ले में सफे़दपोशी और इज्ज़त होने पर भी चोर के लिए घर में कुछ न था । शायद एक भी साबित कपड़ा या बरतन ले जाने के लिए चोर को न मिलता; पर चोर तो चोर है । छिनने के लिए कुछ न हो, तो भी चोर का डर तो होता ही है । वह चोर जो ठहरा !
चोर से ज्यादा फ़िक्र थी आबरू की । किवाड़ न रहने पर पर्दा ही अाबरू का रखवारा था । वह परदा भी तार-तार होते-होते एक रात आँधी में किसी भी हालत में लटकने लायक न रह गया । दूसरे दिन घर की एकमात्र पुश्तैनी चीज़ दरी दरवाज़े पर लटक गयी । मुहल्लेवालों ने देखा और चौधरी को सलाह दी-‘अरे चौधरी, इस ज़माने में दरी यों-काहे खराब करोगे? बाज़ार से ला टाट का टुकडा न लटका दो! ‘ पीरबख्श टाट की कीमत भी आते-जाते कई दफे़ पूछ चुके थे । दो गज़ टाट आठ आने से कम में न मिल सकता था । हँसकर बोले-”होने दो क्या है? हमारे यहाँ पक्की हवेली में भी ड्योढी पर दरी का ही पर्दा रहता था । ”
कपड़े की महँगाई के इस ज़माने में घर की पाँचों औरतों के शरीर से कपड़े जीर्ण होकर यों गिर रहे थे, जैसे पेड़ अपनी छाल बदलते हैं; पर चौधरी साहब की आमदनी से दिन में एक दफे़ किसी तरह पेट भर सकने के लिए आटा के अलावा कपड़े की गुंजाइश कहाँ? खुद उन्हें नौकरी पर जाना होता । पायजा मे मे जब पैबन्द सँभालने की ताब न रही, मारकीन का एक कुर्ता-पायजामा जरूरी हो गया, पर लाचार थे ।
गिरवी रखने के लिए घर में जब कुछ भी न हो,गरीब का एक मात्र सहायक है पंजाबी खान । रहने की जगह-भर देखकर वह रुपया उधार दे सकता है । दस महीने पहले गोद के लड़के बर्कत के जन्म के समय पीरबख्श को रुपये की जरूर आ पड़ी । कहीं और कोई प्रबन्ध न हो सकने के कारण उन्होंने पंजाबी खान बबर
अलीखाँ से चार रुपये उधार ले लिये थे ।
बबर अलीखाँ का रोज़गार सितवा के उस कच्चे मुहल्ले में अच्छा-खासा चलता था । बीकानेरी मोची, वर्कशाप के मज़दूर और कभी-कभी रमजानी धोबी सभी बबर मियाँ से कर्ज लेते रहते । कई दफे़ चौधरी परिबख्श ने बबर अली को कर्ज और सूद की किश्त न मिलने पर अपने हाथ के डंडे से ऋणी का दरवाज़ा पीटते देखा था । उन्हें साहूकार और ऋणी में बीच-बचौवल भी करना पड़ा था ।
खान को वे शैतान समझते थे, लेकिन लाचार हो जाने पर उसी की शरण लेनी पड़ी । चार आना रुपया महीने पर चार रुपया कर्ज लिया । शरीफ़ खानदानी, मुसलमान भाई का ख्याल कर बबर अली ने एक रुपया माहवार की किश्त मान ली । आठ महीने में ‘कर्ज अदा होना तय हुआ ।
खान की किश्त न दे सकने की हालत में अपने घर के दरवाजे़ पर फ़ज़ीहत हो जाने की बात का ख्याल कर चौधरी के रोएँ खडे़ हो जाते । सात महीने फ़ाका करके भी वे किसी तरह से किश्त देते चले गये; लेकिन जब सावन में बरसात पिछड़ गयी और बाजरा भी रुपये का तीन सेर मिलने लगा,किश्त देना संभव न रहा । खान सात तारीख की शाम को ही आया। चौधरी परिबख्श ने खान की
दाढ़ी छू और अल्ला की कसम खा एक महीने की मुआफ़ी चाही । अगले महीने एक का सवा देने का वायदा किया । खान टल गया ।
भादों में हालत और भी परेशानी की हो गयी । बच्चों की माँ की तबीयत रोज़-रोज़ गिरती जा रही थी । खाया-पिया उसके पेट में न ठहरता । पथ्य के लिए उसको गेहूँ की रोटी देना ज़रूरी हो गया। गेहूँ मुश्किल से रुपये का सिर्फ़ ढाई सेर मिलता । बीमार का जी ठहरा, कभी प्याज के टुकड़े या धनिये की खुशबू के लिए ही मचल जाता। कमी पैसे की सौंफ़, अजवायन, काले नमक की ही ज़रूरत हो, तो पैसे की कोई चीज़ मिलती ही नहीं । बाज़ार में ताँबे का नाम ही नहीं रह गया । नाहक इकन्नी निकल जाती है। चौधरी को दो रुपये महंगाई-भत्ते के मिले; पर पेशगी लेते-लेते तनख्वाह के दिन केवल चार ही रुपये हिसाब में निकले ।
बच्चे पिछले हफ्ते लगभग फ़ाके-से थे । चौधरी कभी गली से दो पैसे की चौराई खरीद लाते, कभी बाजरा उबाल सब लोग कटोरा-कटोरा-भर पी लेते । बड़ी कठिनता से मिले चार रुपयों में से सवा रुपया खान के हाथ में धर देने की हिम्मत चौधरी को न हुई ।
मिल से घर लौटते समय वे मंडी की ओर टहल गये। दो घंटे बाद जब समझा, खान टल गया होगा और अनाज की गठरी ले वे घर पहुंचे । खान के भय से दिल डूब रहा था, लेकिन दूसरी ओर चार भूखे बच्चों, उनकी माँ, दूध न उतर सकने के कारण सूखकर काँटा हो रहे गोद के बच्चे और चलने-फिरने से लाचार अपनी ज़ईफ़ माँ की भूख से बिलबिलाती सूरतें आखों के सामने नाच जातीं । धड़कते हुए हृदय से वे कहते जाते-”मौला सब देखता है, खैर करेगा ।”
सात तारीख की शाम को असफल हो खान आठ की सुबह तड़के चौधरी के मिल चले जाने से पहले ही अपना डंडा हाथ में लिये दरवाजे पर मौजूद हुआ ।
रात-भर सोच-सोचकर चौधरी ने खान के लिए बयान तैयार किया। मिल के मालिक लालाजी चार रोज के लिए बाहर गये हैं। उनके दस्तखत के बिना किसी को भी तनख्वाह नहीं मिल सकी । तनख्वाह मिलते ही वह सवा रुपया हाज़िर करेगा । माकूल वजह बताने पर भी खान बहुत देर तक गुर्राता रहा-”अम वतन चोड़ के परदेस में पड़ा है-ऐसे रुपिया चोड़ देने के वास्ते अम यहाँ नहीं आया है, अमारा भी बाल-बच्चा है । चार रोज़ में रुपिया नई देगा, तो अब तुमारा…. कर देगा ।”
पाँचवें दिन रुपया कहाँ से आ जाता ! तनख्वाह मिले अभी हफ्ता भी नहीं हुआ । मालिक ने पेशगी देने से साफ़ इनकार कर दिया । छठे दिन किस्मत से इतवार था । मिल में छुट्‌टी रहने पर भी चौधरी खान के डर से सुबह ही बाहर निकल गये । जान-पहचान के कई आदमियों के यहाँ गये । इधर-उधर की बातचीत कर
वे कहते–”अरे भाई, हो तो बीस आने पैसे तो दो-एक रोज के लिए देना । ऐसे ही ज़रूरत आ पड़ी है । ”
उत्तर मिला-”मियाँ, पैसे कहाँ इस ज़माने में! पैसे का मोल कौड़ी नहीं रह गया । हाथ में आने से पहले ही उधार में उठ गया तमाम !”
दोपहर हो गयी । खान आया भी होगा, तो इस वक्त तक बैठा नहीं रहेगा— चौधरी ने सोचा, और घर की तरफ़ चल दिये । घर पहुँचने पर सुना खान आया था और घण्टे-भर तक डचोढी पर लटके दरी के परदे को डंडे से ठेल-ठेलकर गाली देता रहा है ! परदे की आड़ से बड़ी बीबी के बार-बार खुदा की कसम खा यकीन.दिलाने पर कि चौधरी बाहर गये हैं, रुपया लेने गये हैं, खान गाली देकर कहता-”नई, बदजात चोर बीतर में चिपा है! अम चार घंटे में पिर आता है । रुपिया लेकर जायेगा ।रुपिया नई देगा, तो उसका खाल उतारकर बाजार में बेच देगा ।…हमारा रुपिया क्या अराम का है? ”
चार घंटे से पहले ही खान की पुकार सुनाई दी–”चौदरी! ” पीरबख्श’ के शरीर में बिजली-सी दौड़ गयी और वे बिलकुल निस्सत्त्व हो गये, हाथ-पैर सुन्न और गला खुश्क ।
गाली दे परदे को ठेलकर खान के दुबारा पुकारने पर चौधरी का शरीर- निर्जीवप्राय होने पर भी निश्चेष्ट न रह सका । वे उठकर बाहर आ गये । खान आग-बबूला हो रहा था–”पैसा नहीं देने का वास्ते चिपता है!… ”एक-से-एक बढ़ती हुई तीन गालियाँ एक-साथ खान के मुँह से पीरबख्श के पुरखों-पीरों के नाम निकल गयीं । इस भयंकर आघात से परिबख्श का खानदानी रक्त भड़क
उठने के बजाय और भी निर्जीव हो गया । खान के घुटने छू, अपनी मुसीबत बता वे मुआफ़ी के लिए खुशामद करने लगे ।
खान की तेजी बढ़ गयी । उसके ऊँचे स्वर से पड़ोस के मोची और मज़दूर चौधरी के दरवाजे़ के सामने इकट्‌ठे हो गये । खान क्रोध में डंडा फटकारकर कह रहा था–”पैसा नहीं देना था, लिया क्यों ? तनख्वाह किदर में जाता ? अरामी अमारा पैसा मारेगा । अम तुमारा खाल खींच लेगा.। पैसा नई है, तो घर पर परदा लटका के शरीफ़ज़ादा कैसे बनता ?.. .तुम अमको बीबी का गैना दो, बर्तन दो, कुछ तो भी दो, अम ऐसे नई जायेगा । ”
बिलकुल बेबस और लाचारी में दोनों हाथ उठा खुदा से खान के लिए दुआ माँग पीरबख्श ने कसम खायी, एक पैसा भी घर में नहीं, बर्तन भी नहीं, कपड़ा भी नहीं; खान चाहे तो बेशक उसकी खाल उतारकर बेच ले ।
खान और आग हो गया-”अम तुमारा दुआ क्या करेगा ? तुमारा खाल क्या करेगा ? उसका तो जूता भी नई बनेगा । तुमारा खाल से तो यह टाट अच्चा ।” खान ने’ ड्योढी पर लटका दरी का पर्दा झटक लिया । ड्योढी से परदा हटने के साथ ही, जैसे चौधरी के जीवन की डोर टूट गयी । वह डगमगाकर ज़मीन पर गिर पड़े ।
इस दृश्य को देख सकने की ताब चौधरी में न थी, परन्तु द्वार पर खड़ी भीड़ ने देखा-घर की लड़कियाँ और औरतें परदे के दूसरी ओर घटती घटना के आतंक से आंगन के बीचों-बीच इकट्‌ठी हो खड़ी काँप रही थीं । सहसा परदा हट जाने से औरतें ऐसे सिकुड गयीं, जैसे उनके शरीर का वस्त्र खींच लिया गया हो । वह परदा ही तो घर-भर की औरतों के शरीर का वस्त्र था । उनके शरीर पर बचे चीथड़े उनके एक-तिहाई अंग ढंकने में भी असमर्थ थे !
जाहिल भीड़ ने घृणा और शरम से आँखें फेर लीं । उस नाग्नता की झलक से खान की कठोरता भी पिघल गयी । ग्लानि से थूक, परदे को आंगन में वापिस फेंक, क्रुद्ध निराशा में उसने ”लाहौल बिला…!” कहा और असफल लौट गया ।
भय से चीखकर ओट में हो जाने केलिए भागती हुई औरतों पर दया कर भीड़ छँट गयी । चौधरी बेसुध पड़े थे । जब उन्हें होश आया, ड्योढ़ी का परदा आंगन में सामने पड़ा था; परन्तु उसे उठाकर फिर से लटकादेने का सामर्थ्य उनमें शेष न था । शायद अब इसकी आवश्यकता भी न रही थी । परदा जिस भावना का अवलम्ब था, वह मर चुकी थी ।

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