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परिचय

जन्म: 1935
निधन: 18 फ़रवरी 2008जन्म: 1935
प्रकाशित कृति : पत्थर के ख़ुदा

उपनाम : ‘फाकिर’

 लेखन : शायरी , गीत

विशेष
फिरोजपुर के गुरुहरसहाय कस्बे के रत्ताखेड़ा गांव में डाक्टर बिहारी लाल कामरा के यहां जन्म लेने वाले सुदर्शन फाकिर के परिवार में दो अन्य भाई भी थे।  सुदर्शन जी ने जालन्धर के डीएवी कालेज के राजनीतिशास्त्र से स्नातक  से स्नातक किया. बहुत कम लोगों को पता होगा कि जगजीत सिंह, रवींद्र कालिया और सुदर्शन फाकिर तीनों मित्र थे और तीनों  ही डीएवी के छात्र थे. तीनों ही अपने क्षेत्र के दिग्गज रहे. जगजीतसिंह को जगजीत  सिंह बनाने में फ़ाकिर का बड़ा योगदान रहा, ‘वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी’ ये गज़ल फाकिर की ही लिखी थी. रवीन्द्र कालिया हिन्दी के दिग्गज लेखक. आज तीनों इस दुनियाँ में नहीं हैं पर लोगों के दिलों में रहेंगे.  

फाकिर साहब की याददाश्त काफी तेज थी। जिस शख्स से वह मिल लेते थे, उसे दोबारा अपना नाम नहीं बताना पड़ता था।  वर्ष 1970 से पहले जालंधर में आल इंडिया रेडियो में नौकरी करने वाले फाकिर साहब को वहां मन नहीं लगा। उन्होंने नौकरी छोड़ दी और मुंबई चले आए। 2005 में वह मुंबई से वापस आकर जालंधर में अपने छोटे भाई के यहां रहने लगे। सत्तर के करीब गजल लिखने वाले फाकिर की प्रतिभा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन दिनों बेगम अख्तर सिर्फ पाकिस्तान के शायरों की गजल ही गाया करती थीं। मगर, फाकिर साहब पहले भारतीय शायर हैं, जिनकी लिखी गजल बेगम अख्तर ने बुलाकर ली और अपनी आवाज दी। वह मशहूर गजल थी ‘इश्क में गैरते जज्बात ने रोने न दिया..’। बाद में चित्रा सिंह ने भी इसे गाया था।

मोहम्मद रफी ने उनकी गजल ‘फलसफे इश्क में पेश आए हैं सवालों की तरह..’ गाकर दुनिया में धूम मचा दी। इस नज्म ने फाकिर को नई पहचान दी। जब गजल गायक जगजीत सिंह ने उनके द्वारा लिखी गजल ‘वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी.’ गाया उसके बाद फाकिर के नाम का डंका दुनिया में ऐसा गूंजा कि उसकी खनक आज भी सुनाई देती है। उनके द्वारा लिखित गजल ‘जिंदगी मेरे घर आना..’ गाकर भूपिंदर सिंह ने फिल्म फेयर अवार्ड जीता । वहीं गुलाम अली ने ‘कैसे लिखोगे मोहब्बत की किताब तुम तो करने लगे पल-पल का हिसाब..’ गाकर गजलों के इस सम्राट को सलाम किया था। फाकिर का अंतिम शेर जो दुनिया के सामने नहीं आ सका, वह था ‘लाश मासूम की हो या कि कातिल की, जनाब हमने अफसोस किया है..’। वर्ष 1982 में गजल की एक कैसेट रिलीज की गई थी, उसमें मीरा व कबीर के सात भजन थे और आठवां भजन फाकिर साहब ने लिखा था। वहीं फाकिर साहिब का एक गीत ‘आखिर तुम्हें आना है जरा देर लगेगी..’ भी काफी पसंद किया गया था। जालंधर में रहने वाले छोटे भाई विनोद कामरा के यहां फाकिर साहब ने जिंदगी के आखिरी लम्हे बिताए । कुछ प्रसिद्ध गजलें पेश हैं-

गजलें

ये दौलत भी ले लो

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी
मुहल्ले की सबसे निशानी पुरानी
वो बुढ़िया जिसे बच्चे कहते थे नानी
वो नानी की बातों में परियों का डेरा
वो चेहरे की झुरिर्यों में सदियों का फेरा
भुलाए नहीं भूल सकता है कोई
वो छोटी सी रातें वो लम्बी कहानी
कड़ी धूप में अपने घर से निकलना
वो चिड़िया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना
वो गुड़िया की शादी में लड़ना झगड़ना
वो झूलों से गिरना वो गिर के सम्भलना
वो पीतल के छल्लों के प्यारे से तोहफ़े
वो टूटी हुई चूड़ियों की निशानी
कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना
घरौंदे बनाना बनाके मिटाना
वो मासूम चहत की तस्वीर अपनी
वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी
न दुनिया का ग़म था न रिश्तों के बंधन
बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िंदगानी

 

आदमी आदमी को क्या देगा
दमी आदमी को क्या देगा
जो भी देगा वही ख़ुदा देगा

मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिब है
क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा

ज़िन्दगी को क़रीब से देखो
इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा

हमसे पूछो दोस्ती का सिला
दुश्मनों का भी दिल हिला देगा

इश्क़ का ज़हर पी लिया “फ़ाकिर”
अब मसीहा भी क्या दवा देगा

 

आज तुम से बिछड़ रहा हूँ
ज तुम से बिछड़ रहा हूँ
आज कहता हूँ फिर मिलूँगा तुम से
तुम मेरा इंतज़ार करती रहो
आज का ऐतबार करती रहो

लोग कहते हैं वक़्त चलता है
और इंसान भी बदलता है
काश रुक जाये वक़्त आज की रात
और बदले न कोई आज के बाद

वक़्त बदले ये दिल न बदलेगा
तुम से रिश्ता कभी न टूटेगा
तुम ही ख़ुश्बू हो मेरी साँसों की
तुम ही मंज़िल हो मेरे सपनों की

लोग बोते हैं प्यार के सपने
और सपने बिखर भी जाते हैं
एक एहसास ही तो है ये वफ़ा
और एहसास मर भी जाते हैं

 

पत्थर के ख़ुदा

 

त्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसां पाए हैं
तुम शहरे मुहब्बत कहते हो, हम जान बचाकर आए हैं।।

बुतख़ाना समझते हो जिसको पूछो ना वहाँ क्या हालत हैं
हम लोग वहीं से गुज़रे हैं बस शुक्र करो लौट आए हैं।।

हम सोच रहे हैं मुद्दत से अब उम्र गुज़ारें भी तो कहाँ
सहरा में खु़शी के फूल नहीं, शहरों में ग़मों के साए हैं।।

होठों पे तबस्सुम हल्का-सा आंखों में नमी से है ‘फाकिर’
हम अहले-मुहब्बत पर अकसर ऐसे भी ज़माने आए हैं।।

 

ज़िन्दगी तुझ को जिया है
ज़िन्दगी तुझ को जिया है कोई अफ़सोस नहीं
ज़हर ख़ुद मैनें पिया है कोई अफ़सोस नहीं

मैनें मुजरिम को भी मुजरिम न कहा दुनिया में
बस यही जुर्म किया है कोई अफ़सोस नहीं

मेरी क़िस्मत में लिखे थे ये उन्हीं के आँसू
दिल के ज़ख़्मों को सिया है कोई अफ़सोस नहीं

अब गिरे संग कि शीशों की हो बारिश ‘फ़ाकिर’
अब कफ़न ओड़ लिया है कोई अफ़सोस नहीं

 

किसी रंजिश को हवा दो

 

किसी रंजिश को हवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
मुझ को एहसास दिला दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी

मेरे रुकने से मेरी साँसे भी रुक जायेंगी
फ़ासले और बड़ा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी

ज़हर पीने की तो आदत थी ज़मानेवालो
अब कोई और दवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी

चलती राहों में यूँ ही आँख लगी है ‘फ़ाकिर’
भीड़ लोगों की हटा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी

 

ये शीशे ये सपने
ये शीशे ये सपने ये रिश्ते ये धागे
किसे क्या ख़बर है कहाँ टूट जायें
मुहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के
न जाने ये किस मोड़ पर डूब जायें

अजब दिल की बस्ती अजब दिल की वादी
हर एक मोड़ मौसम नई ख़्वाहिशों का
लगाये हैं हम ने भी सपनों के पौधे
मगर क्या भरोसा यहाँ बारिशों का

मुरादों की मंज़िल के सपनों में खोये
मुहब्बत की राहों पे हम चल पड़े थे
ज़रा दूर चल के जब आँखें खुली तो
कड़ी धूप में हम अकेले खड़े थे

जिन्हें दिल से चाहा जिन्हें दिल से पूजा
नज़र आ रहे हैं वही अजनबी से
रवायत है शायद ये सदियों पुरानी
शिकायत नहीं है कोई ज़िन्दगी से

 

आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है
ज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है
ज़ख़्म हर सर पे हर इक हाथ में पत्थर क्यूँ है

जब हक़ीक़त है के हर ज़र्रे में तू रहता है
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यूँ है

अपना अंजाम तो मालूम है सब को फिर भी
अपनी नज़रों में हर इन्सान सिकंदर क्यूँ है

ज़िन्दगी जीने के क़ाबिल ही नहीं अब “फ़ाकिर”
वर्ना हर आँख में अश्कों का समंदर क्यूँ है

 

कुछ तो दुनियाक इनाया़त ने दिल तोड़ दिया
कुछ तो दुनियाक इनाया़त ने दिल तोड़ दिया
और कुछ तल्ख़ी-ए हालात ने दिल तोड़ दिया

हम तो समझे थे कि बर्सात मे बरसेगी शराब
आई बर्सात तो बर्सात ने दिल तोड़ दिया

दिल तो रोता रहे और ऑखसे ऑसू न बहे
इश्क़ की ऐसी रवायात ने दिल तोड़ दिया

वो मेरे है मुझे मिल जाऎगे आ जाऎगे
ऐसे बेकार खय़ालात ने दिल तोड़ दिया

आपको प्यार है मुझसे कि नही है मुझसे
जाने क्यो ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया

 

हम तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले
म तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले
अजनबी जैसे अजनबी से मिले

हर वफ़ा एक जुर्म हो गोया
दोस्त कुछ ऐसी बेरुख़ी से मिले

फूल ही फूल हम ने माँगे थे
दाग़ ही दाग़ ज़िन्दगी से मिले

जिस तरह आप हम से मिलते हैं
आदमी यूँ न आदमी से मिले

 

क्या शर्त-ए-मोहब्बत है..
क्या शर्त-ए-मोहब्बत है.. क्या शर्त-ए-ज़माना है..

आवाज़ भी ज़ख्मी है और गीत भी गाना है..

उस पार उतरने की उम्मीद बहुत कम है..

कश्ती भी पुरानी है.. तूफ़ां को भी आना है..

समझे या ना समझे वो अंदाज़ मोहब्बत के..

एक शक्स को आंखों से एक शेर सुनाना है..

भोली सी अदा, कोई फ़िर इश्क पर है..

फ़िर वोही आग का दरिया है, फ़िर डूब के जाना है..

 

आखिर तुम्हे आना है.. [यलगार फिल्म के लिए लिखा गीत]
खिर तुम्हे आना है.., ज़रा देर लगेगी..
बारिश का बहाना है, ज़रा देर लगेगी
आखिर तुम्हे आना है.., ज़रा देर लगेगी

जानेमन आ जाओ
तुम्हे अपना समझ कर कोई आवाज़ दे रहा है
तुमने मुझे अपना समझा ही कब
तुम तो मुझे दुश्मन समझते हो

तुम होते जो दुश्मन, तो कोई बात ही क्या थी..
आपनो को.. मनाना है ज़रा देर लगेगी
अपनो को मनाना है ज़रा देर लगेगी

मेरी जान मेरे दर्द-ए-मोहब्बत का कुछ ख़याल करो
सब कुछ भुला दू, ये दर्द-ए-मोहब्बत भी मिटा दू

हम दर्द मोहब्बत का, मिटा सकते है लेकिन..
ये रोग.. पुराना है, ज़रा देर लगेगी
ये रोग पुराना है, ज़रा देर लगेगी

ये रोमानी अंदाज़ छोडो, जो कहना है वो कह डालो

ये बात नही वो के, मै आते ही सूना दू..
सीने से, हाय, सीने से लगाना है ज़रा देर लगेगी..
बारिश का बहाना है, ज़रा देर लगेगी
आखिर तुम्हे आना है.., ज़रा देर लगेगी..
ओ ज़रा देर लगेगी..
ज़रा देर लगेगी..
ओ ज़रा देर लगेगी..

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