साहित्य गंगा https://sahityaganga.com Wed, 31 Jul 2024 06:15:52 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=4.9.26 पंडित नरेन्द्र शर्मा https://sahityaganga.com/%e0%a4%aa%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a4%bf%e0%a4%a4-%e0%a4%a8%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a4%b6%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%be/ Wed, 25 May 2016 09:01:07 +0000 http://sahityaganga.com/?p=7195 परिचय

जन्म :28 फ़रवरी, 1913

मृत्यु : 11 फरवरी, 1989

जन्म स्थान : गांव जहांगीरपुर, परगना ज़ेवर, तहसील खुर्जा ,जिला- बुलंदशहर (उत्तरप्रदेश)

नरेन्द्र शर्मा का जन्म 28 फ़रवरी, 1913 ई. में गांव जहांगीरपुर, परगना ज़ेवर, तहसील खुर्जा ,जिला- बुलंदशहर (उत्तरप्रदेश) में हुआ था। 1931 ई. में इनकी पहली कविता ‘चांद’ में छपी। शीघ्र ही जागरूक, अध्ययनशील और भावुक कवि नरेन्द्र ने उदीयमान नए कवियों में अपना प्रमुख स्थान बना लिया। लोकप्रियता में इनका मुकाबला हरिवंशराय बच्चन से ही हो सकता था।

प्रमुख कृतियाँ:प्रवासी के गीत, मिट्टी और फूल, अग्निशस्य, प्यासा निर्झर, मुठ्ठी बंद रहस्य (कविता-संग्रह) मनोकामिनी, द्रौपदी, उत्तरजय सुवर्णा (प्रबंध काव्य) आधुनिक कवि, लाल निशान (काव्य-संयचन) ज्वाला-परचूनी (कहानी-संग्रह, 1942 में ‘कड़वी-मीठी बात’ नाम से प्रकाशित) मोहनदास कर्मचंद गांधी:एक प्रेरक जीवनी, सांस्कृतिक संक्राति और संभावना (भाषण)। लगभग 55 फ़िल्मों में 650 गीत एवं ‘महाभारत’ का पटकथा-लेखन और गीत-रचना।

विशेष 

नरेन्द्र शर्मा का जन्म 28 फ़रवरी, 1913 ई.पटवारी पूरन लाल मोहन लाल शर्मा के घर में हुआ में गांव जहांगीरपुर, परगना ज़ेवर, तहसील खुर्जा ,जिला- बुलंदशहर (उत्तरप्रदेश) में हुआ था।उनकी माता का नाम गंगा देवी था और पति की मृत्यु के बाद शर्माजी के लालन-पालन में मुख्य भूमिका उनकी और उनके जेठ की ही रही।  उनकी आरंभिक शिक्षा एन आर सी कॉलेज, खुर्जा में हुई जहां आकाशवाणी के महानिदेशक और नाटककार जगदीशचंद्र माथुर के पिता प्रिंसिपल थे। उच्च शिक्षा के लिए वे इलाहाबाद गए।

शीघ्र ही जागरूक, अध्ययनशील और भावुक कवि नरेन्द्र ने उदीयमान नए कवियों में अपना प्रमुख स्थान बना लिया। लोकप्रियता में इनका मुकाबला हरिवंशराय बच्चन से ही हो सकता था। 1931 ई. में इनकी पहली कविता ‘चांद’ में छपी और 1933 ई. में इनकी पहली कहानी प्रयाग के ‘दैनिक भारत’ में प्रकाशित हुई। 1934 ई. में इन्होंने मैथिलीशरण गुप्त की काव्यकृति ‘यशोधरा’ की समीक्षा भी लिखी।1936 में उन्होंने अंग्रेजी में एम ए किया। इलाहाबाद उन दिनों देश की सांस्कृतिक राजधानी थी और छायावाद की बृहद् चतुष्टयी में से तीन महाकवि—सुमित्रा नंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा वहीं निवास करते थे। इन लोगों के अलावा उनकी मुलाकात हरिवंश राय बच्चन और रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी जैसी बड़ी हस्तियों से हुई और अपने समवयस्कों शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, वीरेश्वर सिंह आदि से उनकी मैत्री हुई जो जीवन-भर कायम रही। सन्‌ 1938 ई. में कविवर सुमित्रानंदन पंत ने कुंवर सुरेश सिंह के आर्थिक सहयोग से नए सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक स्पंदनों से युक्त ‘रूपाभ’ नामक पत्र के संपादन करने का निर्णय लिया। इसके संपादन में सहयोग दिया नरेन्द्र शर्मा ने। भारतीय संस्कृति के प्रमुख ग्रंथ ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ इनके प्रिय ग्रंथ थे। महाभारत में रुचि होने के कारण ये ‘महाभारत’ धारावाहिक के निर्माता बी.आर. चोपड़ा के अंतरंग बन गए। इसलिए जब उन्होंने ‘महाभारत’ धारावाहिक का निर्माण प्रारंभ किया तो नरेन्द्रजी उनके परामर्शदाता बने। उनके जीवन की अंतिम रचना भी ‘महाभारत’ का यह दोहा ही है : “शंखनाद ने कर दिया, समारोह का अंत, अंत यही ले जाएगा, कुरुक्षेत्र पर्यन्त” । 11 फरवरी, 1989 ई. को ह्‌दय-गति रुक जाने से उनका देहावसान होगया। लगभग 55 फ़िल्मों में 650 गीत एवं ‘महाभारत’ का पटकथा-लेखन और गीत-रचना। शर्मा जी के कुछ गीत प्रस्तुत हैं

 

युग की सँध्या
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही …
युग की सँध्या कृषक वधू सी ….

धूलि धूसरित, अस्त ~ व्यस्त वस्त्रोँ की,
शोभा मन मोहे, माथे पर रक्ताभ चँद्रमा की सुहाग बिँदिया सोहे,

उचक उचक, ऊँची कोटी का नया सिँगार उतार रही
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?

रँभा रहा है बछडा, बाहर के आँगन मेँ,
गूँज रही अनुगूँज, दुख की, युग की सँध्या के मन मेँ,
जँगल से आती, सुमँगला धेनू, सुर पुकार रही ..
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?

जाने कब आयेगा मालिक, मनोभूमि का हलवाहा ?
कब आयेगा युग प्रभात ? जिसको सँध्या ने चाहा ?
सूनी छाया, पथ पर सँध्या, लोचन तारक बाल रही …
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?

 

गंगा, बहती हो क्यूँ

 

विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार…
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार …
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्ल्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार गंगा की धार,
निर्बल जन को, सबल संग्रामी, गमग्रोग्रामी,बनाती नहीं हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,
अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो क्यूँ ?
व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ ?
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीं हो क्यूँ ?
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार …
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिनजन,
अज्ञ विहिननेत्र विहिन दिक` मौन हो कयूँ ?
व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोडती न क्यूँ ?
विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार…
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

 

आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे ?

 

ज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आज से दो प्रेम योगी, अब वियोगी ही रहेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधूँ,
किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ!
जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आयेगा मधुमास फिर भी, आयेगी श्यामल घटा घिर,
आँख भर कर देख लो अब, मैं न आऊँगा कभी फिर!
प्राण तन से बिछुड़ कर कैसे रहेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
अब न रोना, व्यर्थ होगा, हर घड़ी आँसू बहाना,
आज से अपने वियोगी, हृदय को हँसना सिखाना,
अब न हँसने के लिये, हम तुम मिलेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आज से हम तुम गिनेंगे एक ही नभ के सितारे
दूर होंगे पर सदा को, ज्यों नदी के दो किनारे
सिन्धुतट पर भी न दो जो मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
तट नदी के, भग्न उर के, दो विभागों के सदृश हैं,
चीर जिनको, विश्व की गति बह रही है, वे विवश है!
आज अथइति पर न पथ में, मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
यदि मुझे उस पार का भी मिलन का विश्वास होता,
सच कहूँगा, न मैं असहाय या निरुपाय होता,
किन्तु क्या अब स्वप्न में भी मिल सकेंगे?
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आज तक हुआ सच स्वप्न, जिसने स्वप्न देखा?
कल्पना के मृदुल कर से मिटी किसकी भाग्यरेखा?
अब कहाँ सम्भव कि हम फिर मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आह! अन्तिम रात वह, बैठी रहीं तुम पास मेरे,
शीश कांधे पर धरे, घन कुन्तलों से गात घेरे,
क्षीण स्वर में कहा था, “अब कब मिलेंगे?”
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
“कब मिलेंगे”, पूछ्ता मैं, विश्व से जब विरह कातर,
“कब मिलेंगे”, गूँजते प्रतिध्वनिनिनादित व्योम सागर,
“कब मिलेंगे”, प्रश्न उत्तर “कब मिलेंगे”!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

सूरज डूब गया बल्ली भर

 

सूरज डूब गया बल्ली भर-
सागर के अथाह जल में।
एक बाँस भर उठ आया है-
चांद, ताड के जंगल में।
अगणित उंगली खोल, ताड के पत्र, चांदनी में डोले,
ऐसा लगा, ताड का जंगल सोया रजत-छत्र खोले
कौन कहे, मन कहाँ-कहाँ
हो आया, आज एक पल में।
बनता मन का मुकुर इंदु, जो मौन गगन में ही रहता,
बनता मन का मुकुर सिंधु, जो गरज-गरज कर कुछ कहता,
शशि बनकर मन चढा गगन पर,
रवि बन छिपा सिंधु तल में।
परिक्रमा कर रहा किसी की, मन बन चांद और सूरज,
सिंधु किसी का हृदय-दोल है, देह किसी की है भू-रज
मन को खेल खिलाता कोई,
निशि दिन के छाया-छल में।

ज्योति कलश छलके

 

ज्योति कलश छलके – ४
हुए गुलाबी, लाल सुनहरे
रंग दल बादल के
ज्योति कलश छलके
घर आंगन वन उपवन उपवन
करती ज्योति अमृत के सींचन
मंगल घट ढल के – २
ज्योति कलश छलके
पात पात बिरवा हरियाला
धरती का मुख हुआ उजाला
सच सपने कल के – २
ज्योति कलश छलके
ऊषा ने आँचल फैलाया
फैली सुख की शीतल छाया
नीचे आँचल के – २
ज्योति कलश छलके
ज्योति यशोदा धरती मैय्या
नील गगन गोपाल कन्हैय्या
श्यामल छवि झलके – २
ज्योति कलश छलके
अम्बर कुमकुम कण बरसाये
फूल पँखुड़ियों पर मुस्काये
बिन्दु तुहिन जल के – २
ज्योति कलश छलके

 

मेरे गीत बड़े हरियाले,
मैने अपने गीत,
सघन वन अन्तराल से
खोज निकाले

मैँने इन्हे जलधि मे खोजा,
जहाँ द्रवित होता फिरोज़ा
मन का मधु वितरित करने को,
गीत बने मरकत के प्याले !

कनक-वेनु, नभ नील रागिनी,
बनी रही वंशी सुहागिनी
सात रंध्र की सीढ़ी पर चढ़,
गीत बने हारिल मतवाले !

देवदारु की हरित-शिखर पर
अन्तिम नीड़ बनायेँगे स्वर,
शुभ्र हिमालय की छाया मेँ,
लय हो जायेँगे, लय वाले !
लौ लगाती गीत गाती
लौ लगाती गीत गाती,
दीप हूँ मैं, प्रीत बाती

नयनों की कामना,
प्राणों की भावना
पूजा की ज्योति बन कर,
चरणों में मुस्कुराती

आशा की पाँखुरी,
श्वासों की बाँसुरी,
थाली ह्र्दय की ले,
नित आरती सजाती

कुमकुम प्रसाद है,
प्रभु धन्यवाद है
हर घर में हर सुहागन,
मंगल रहे मनाती

चलो हम दोनों चलें वहां

 

रे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।

जहां दिन भर महुआ पर झूल,
रात को चू पड़ते हैं फूल,
बांस के झुरमुट में चुपचाप,
जहां सोये नदियों के कूल;

हरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।

विहंग मृग का ही जहां निवास,
जहां अपने धरती आकाश,
प्रकृति का हो हर कोई दास,
न हो पर इसका कुछ आभास,

खरे जंगल के के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।
नैना दीवाने एक नहीं माने

 

हुए है पराये मन हार आये
मन का मरम जाने ना माने ना माने ना नैना दीवाने

जाना ना जाना मन ही ना जाना
चितवन का मन बनता निशाना
कैसा निशाना कैसा निशाना ,
मन ही पहचाने ना, माने ना माने ना नैना दीवाने

जीवन बेली करे अठखेली महके मन के बकुल
प्रीति फूल फूले झूला झूले, चहके बन बुलबुल,
महके मन के बकुल
मन क्या जाने, क्या होगा कल धार समय की बहती पलपल,
जीवन चँचल जीवन चँचल, दिन जाके फिर आने ना
माने ना माने ना नैना दीवाने
मधु के दिन मेरे गए बीत!

 

मैँने भी मधु के गीत रचे,
मेरे मन की मधुशाला मेँ
यदि होँ मेरे कुछ गीत बचे,
तो उन गीतोँ के कारण ही,
कुछ और निभा ले प्रीत-रीत!
मधु के दिन मेरे गए बीत!(२)

मधु कहाँ, यहाँ गंगा-जल है!
प्रभु के चरणोँ मे रखने को,
जीवन का पका हुआ फल है!
मन हार चुका मधुसदन को,
मैँ भूल चुका मधु-भरे गीत!
मधु के दिन मेरे गए बीत!(२)

वह गुपचुप प्रेम-भरीँ बातेँ,(२)
यह मुरझाया मन भूल चुका
वन-कुंजोँ की गुंजित रातेँ (२)
मधु-कलषोँ के छलकाने की
हो गई , मधुर-बेला व्यतीत!
मधु के दिन मेरे गए बीत!(२)
गाँव की धरती
मकीले पीले रंगों में अब डूब रही होगी धरती,
खेतों खेतों फूली होगी सरसों, हँसती होगी धरती!
पंचमी आज, ढलते जाड़ों की इस ढलती दोपहरी में
जंगल में नहा, ओढ़नी पीली सुखा रही होगी धरती!

इसके खेतों में खिलती हैं सींगरी, तरा, गाजर, कसूम;
किससे कम है यह, पली धूल में सोनाधूल-भरी धरती!
शहरों की बहू-बेटियाँ हैं सोने के तारों से पीली,
सोने के गहनों में पीली, यह सरसों से पीली धरती!

सिर धरे कलेऊ की रोटी, ले कर में मट्ठा की मटकी,
घर से जंगल की ओर चली होगी बटिया पर पग धरती!
कर काम खेत में स्वस्थ हुई होगी तलाब में उतर, नहा,
दे न्यार बैल को, फेर हाथ, कर प्यार, बनी माता धरती!

पक रही फसल, लद रहे चना से बूँट, पड़ी है हरी मटर,
तीमन को साग और पौहों को हरा, भरी-पूरी धरती!
हो रही साँझ, आ रहे ढोर, हैं रँभा रहीं गायें-भैंसें;
जंगल से घर को लौट रही गोधूली बेला में धरती!
जय जयति भारत भारती

 

य जयति भारत भारती!
अकलंक श्वेत सरोज पर वह
ज्योति देह विराजती!
नभ नील वीणा स्वरमयी
रविचंद्र दो ज्योतिर्कलश
है गूँज गंगा ज्ञान की
अनुगूँज में शाश्वत सुयश

हर बार हर झंकार में
आलोक नृत्य निखारती
जय जयति भारत भारती!

हो देश की भू उर्वरा
हर शब्द ज्योतिर्कण बने
वरदान दो माँ भारती
जो अग्नि भी चंदन बने

शत नयन दीपक बाल
भारत भूमि करती आरती
जय जयति भारत भारती!
पनिहारिन
तलसोत अतल कूप आठ बाँस गहरा
मन पर है राजा के प्यादे का पहरा

कच्चाघट शीश धरे पनिहारिन आई
कते हुए धागे की जेवरी बनाई

घट भर कर चली, धूप रूप से लजाती
हंसपदी चली हंस किंकणी बजाती

मन ही मन गाती वह जीवन का दुखड़ा
भरा हृदय भरे नयन कुम्हलाया मुखड़ा

घट-सा ही भरा भरा जी है दुख दूना
लिपा पुता घर आँगन प्रियतम बिन सूना

काठ की घड़ौंची पर ज्यों ही घट धरती
देवों की प्यास ऋक्ष देश से उतरती

साँझ हुई आले पर दीप शिखा नाची
बार-बार पढ़ी हुई पाती फिर बाँची

घुमड़ रहे भाव और उमड़ रहा मानस
गहराई और पास दूर दूर मावस

जहाँ गई अश्रुसिक्त दृष्टि तिमिर गहरा
हा हताश प्राणों पर देवों का पहरा

अतलसोत अतल कूप आठ बांस गहरा
मन पर है राजा के प्यादे का पहरा

कहानी कहते कहते
मुझे कहानी कहते कहते –
माँ तुम क्यों सो गईं?
जिसकी कथा कही क्या उसके
सपने में खो गईं?

मैं भरता ही रहा हुंकारा, पर तुम मूक हो गईं सहसा
जाग उठा है भाव हृदय में, किसी अजाने भय विस्मय-सा
मन में अदभत उत्कंठा का –
बीज न क्यों बो गईं?
माँ तुम क्यों सो गईं?

बीते दिन का स्वप्न तुम्हारा, किस भविष्य की बना पहेली
रही अबूझी बात बुद्धि को रातों जाग कल्पना खेली
फिर आईं या नहीं सात –
बहनें बन में जो गईं?
माँ तुम क्यों सो गईं?

पीले रंग के जादूगर ने कैसी काली वेणु बजाई
बेर बीनती सतबहना को फिर न कहीं कुछ दिया दिखाई
क्यों उनकी आँखें, ज्यों मेरी –
गगनलीन हो गईं?
माँ तुम क्यों सो गईं?

फिर क्या हुआ सोचता हूँ मैं, क्या अविदित वह शेष कथा है
जीव जगे भव माता सोए, मन में कुछ अशेष व्यथा है
बेध सुई से प्रश्न फूल मन –
माला में पो गईं!
माँ तुम क्यों सो गईं?

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जगदीश चन्द्र माथुर https://sahityaganga.com/%e0%a4%9c%e0%a4%97%e0%a4%a6%e0%a5%80%e0%a4%b6-%e0%a4%9a%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a5%e0%a5%81%e0%a4%b0/ Tue, 24 May 2016 08:58:59 +0000 http://sahityaganga.com/?p=7186  परिचय

जन्म:  16 जुलाई1917

मृत्यु : 14 मई 1978 नाटककार

जन्म स्थान : खुर्जा, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश

रचनाएँ– कोणार्क ,भोर का तारा, ओ मेरे सपने, पहला राजा , शारदीया [सभी नाटक]

 

विशेष

जगदीशचंद्र माथुर हिन्दी के उन साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने आकाशवाणी में काम करते हुए हिन्दी की लोकप्रयता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। परिवर्तन और राष्ट्र निर्माण के ऐसे ऐतिहासिक समय में जगदीशचंद्र माथुर, आईसीएस, ऑल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर जनरल थे। उन्होंने ही ‘एआईआर’ का नामकरण आकाशवाणी किया था। टेलीविजन उन्हीं के जमाने में वर्ष 1959 में शुरू हुआ था। हिंदी और भारतीय भाषाओं के तमाम बड़े लेखकों को वे ही रेडियो में लेकर आए थे। सुमित्रानंदन पंत से लेकर दिनकर और बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे दिग्गज साहित्यकारों के साथ उन्होंने हिंदी के माध्यम से सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सूचना संचार तंत्र विकसित और स्थापित किया था।
जगदीशचंद्र माथुर का जन्म 16 जुलाई 1917 में खुर्जा जिला बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा खुर्जा में हुई। उच्च शिक्षा युइंग क्रिश्चियन कॉलेज, इलाहाबाद और प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। प्रयाग विश्वविद्यालय का शैक्षिक वातावरण और प्रयाग के साहित्यिक संस्कार रचनाकार के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका हैं। 1939 में प्रयाग विश्वविद्यालय से एमए (अंग्रेजी) करने के बाद 1941 में ‘इंडियन सिविल सर्विस’ में चुन लिए गए। सरकारी नौकरी में 6 वर्ष बिहार शासन के शिक्षा सचिव के रूप में, 1955 से 1962 तक आकाशवाणी – भारत सरकार के महासंचालक के रूप में, 1963 से 1964 तक उत्तर बिहार (तिरहुत) के कमिश्नर के रूप में कार्य करने के बाद 1963-64 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका में विजिटिंग फेलो नियुक्त होकर विदेश चले गए। वहां से लौटने के बाद विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर काम करते हुए 19 दिसंबर, 1971 से भारत सरकार के हिंदी सलाहकार रहे। इन सरकारी नौकरियों में व्यस्त रहते हुए भी भारतीय इतिहास और संस्कृति को वर्तमान संदर्भ में व्याख्यायित करने का प्रयास चलता ही रहा।
अध्ययनकाल से ही उनका लेखन प्रारंभ होता है। 1930 में तीन छोटे नाटकों के माध्यम से वे अपनी सृजनशीलता की धारा के प्रति उन्मुख हुए। प्रयाग में उनके नाटक ‘चांद’, ‘रुपाभ’ पत्रिकाओं में न केवल छपे ही, बल्कि इन्होंने ‘वीर अभिमन्यु’, आदि नाटकों में भाग लिया। ‘भोर का तारा’ में संग्रहीत सारी रचनाएं प्रयाग में ही लिखी गईं। यह नाम प्रतीक रूप में शिल्प और संवेदना दोनों दृष्टियों से माथुर के रचनात्मक व्यक्तित्व के ‘भोर का तारा’ ही है। इसके बाद की रचनाओं में समकालीनता और परंपरा के प्रति गहराई क्रमशः बढ़ती गई है। व्यक्तियों, घटनाओं और देशके विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों से प्राप्त अनुभवों ने सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
आकाशवाणी के महानिदेशक के तौर पर उन्होंने देश की सभी भाषाओं और कला-साहित्य की प्रतिभाओं को उससे जोड़ा। उन्होंने ‘दस तस्वीरें’ और ‘जिन्होंने जीना जाना’ रेखाचित्र की रचना की। ‘परम्पराशील नाट्य तथा प्राचीन भाषा नाट्य संग्रह’ शोध-प्रबंध लिखा। 12 वर्ष की आयु में ‘मूर्खेश्वर राजा’ नामक प्रहसन लिखा। 14-15 वर्ष की उम्र में ‘लवकुश’ और ‘शिवाजी’ नामक एकांकी की रचना की। 19 वर्ष की आयु में चर्चित ‘मेरी बांसुरी’ एकांकी की रचना की। इनके एकांकी संग्रह हैं, – ‘भोर का तारा’ और ‘ओ मेरे सपने’।
जगदीशचंद्र माथुर कुछ समय के लिए इनकी नियुक्ति उड़ीसा में हुई थी। वही इन्होंने ‘कोणार्क’ की रचना की। उनका दूसरा ऐतिहासिक नाटक है ‘शारदीया’ (1959)। उन्होंने नागपुर के म्यूजियम में पांच गज की एक साड़ी देखी जिसका वजन मात्र पांच तोला था। तीसरा नाटक ‘पहला राजा’ (1969) है। यह नाटक ऐतिहासिक-पौराणिक पृष्ठभूमि पर आधारित होने पर भी युगीन संदर्भों से जुड़ा है। पौराणिक संदर्भ को लेकर उनकी चौथी कृति ‘दशरथनंदन’ (1974) और पांचवीं कृति ‘रघुकुल रीति’ (मरणोपरान्त) है।
भारतीय रंग-परंपरा के साथ इन्होंने पश्चिमी त्रासद-तत्त्व का सुन्दर सामंजस्य स्थापित किया। प्रतिवर्ष होने वाले भव्य वैशाली महोत्सव की परिकल्पना उन्हीं की थी। जगदीशचंद्र माथुर का 14 मई 1978 को निधन हो गया। प्रस्तुत है  जगदीश जी का एक निबंध एवं दो नाटक

 

उदय की बेला में हिंदी रंगमंच और नाटक  –  निबंध

 

भारतीय रंगमंच और नाटक के पारस्परिक सम्बन्ध और विकास की चर्चा करते हुए मैंने पहले भी यह मत प्रकट किया था कि सिनेमा के प्रचंड वैभव के बावजूद हमारे रंगमंच का पुनरुथान अवश्यम्भावी है, क्योंकि सिनेमा मनोरंजन की चाहत को पूरा करता है, परन्तु संस्कारों के भार से दबी और भूली-सी अभिनयात्मक आदिम प्रवृति को पूरा-पूरा मौका नहीं देता है और न दर्शकों को अभिनेताओं के मायावी लोक में अपनी हस्ती खो देने का निमंत्रण देता है। सिनेमा का पर्दे पर चलती-फिरती और जादूगरी से बोलनेवाली मुर्तियों से प्रदर्शन के समय रागात्मक सम्बन्ध स्थापित होना उतना ही दूभर है, जितना किसी स्वप्न-सुंदरी से नाता जुडना।
किन्तु कौन सा वह रंगमंच होगा और कैसी वह नाट्यशैली, जो आधुनिक मनोरंजन के अपूर्व साधनों से लोहा लिए बिना फिर से हमारे समाज में उपयुक्त स्थान पा सकें।
यदि हिंदी में राष्ट्रीय रंगमंच के उदय से तात्पर्य है अभिनय के नियम, रंगशाला की बनावट, प्रदर्शन की विधि, इन सभी के लिए एक सर्वस्वीकृत परम्परा और शैली की अवतारणा होना, तो ऐसे रंगमंच का अस्त भी शीघ्र ही होगा। राष्ट्रीय रंगमंच की धारणा के पीछे राजनितिक ऐक्य के लक्ष का आग्रह है। गुलामी के बादलों में से उगते हुए समाज की प्रत्येक चेष्टा में राजनितिक विचारों का प्रभाव हो, यह स्वाभाविक ही है। दुनियां में जहाँ कहीं राष्ट्र निर्माण की ओर मानव-समाज झुका वहीं निर्माण के प्रत्येक क्षेत्र पर राजनितिक विचारधारा ने आसान जा फैलाया। एक भाषा, एक राष्ट्र, एक शिक्षा-प्रणाली और एक संस्कृति का नारा विभिन्न देशों और विभिन्न युगों में उठाया जा चुका है और आज भारत में भी इसकी गूंज है; किन्तु और क्षेत्रों में इसका जो भी फल हो, सांस्कृतिक विकास के लिए यह सौदा प्रायः महंगा ही बैठता है। अठारहवीं सदी के अंत में जर्मनी, जो उस समय तक विश्रृंखल रियासतों का समूह मात्र थी, अपने आधुनिक राष्ट्रीय एकता के आदर्श की ओर तीब्र गति से अग्रसर हो रही थी। तभी एक जर्मन संस्कृति के नाम पर जर्मन राष्ट्रीय रंगमंच के निर्माण में तत्कालीन जर्मन नेताओं ने उग्र कट्टरता के साथ हाथ लगाया। परिणामतः रंगमंच की एकांगी उन्नति तो हुई, किन्तु साथ ही जर्मन का पुरातन दरबारी रंगमंच, जिसकी समृद्दि में विभिन्न वर्गों के पारस्परिक संबंधों की छटा प्रफुटित हुई थी, मटियामेट हो गई। उससे भी अधिक हानी हुई घुमती-फिरती नाटक-मंडलीयों के ह्रास के कारण। इन घुमंतू अभिनेताओं के माध्यम से जर्मनी की साधारण जनता बोलती थी। उसके स्थान पर राष्ट्रीय एकता से अभिप्रेरित, एक विशिष्ट शैली के रंगमंच की स्थापना हुई और वही शैली जर्मन के विभिन्न नगरों में प्रचलित होती गई।
मुझे आशंका है की कहीं वैसी ही भूल हम लोग भी अपनी आज़ादी के उषा:काल में न कर बैठे। स्वाधीन भारत को राजनीतिक एकता की ज़रूरत है किन्तु भारतीय संस्कृति के लिए विविधता अपेक्षणीय है। जो एक के लिए अमृत है दूसरे के लिए विष। जिन बादलों को बरसकर धरती को अन्न देना है, वे एक रंग के हों, इसी में कल्याण है, पर जो सूर्य की किरणों से ज्योतित हो हमारी सौंदर्याभिलाशिणी आत्मा को तृप्त करें, ऐसे बादलों को तो सतरंगी ही होना है।
अतः राजनीतिक दृष्टिकोण से राष्ट्रीय रंगमंच की रूप-रेखा निश्चित नहीं की जा सकती, नहीं की जानी चाहिये। यह कहा जा सकता है कि अठारहवीं सदी के जर्मन में रंगमंच की विविध जीवित परम्पराएं थीं, किन्तु हमारे यहाँ तो साफ मैदान है, जैसी चाहें इमारत तैयार कर लें, कुछ नष्ट करने का डर नहीं। किन्तु यह भूल है। इसी भूल के कारण भारतीय समाज और साहित्य की वर्तमान शुष्क बलुकाराशि के नीचे जो अन्तः सलिला धारा बहती रही है, उसमें डूबकी लगाये बगैर ही पिछले पच्चीस-तीस बरसों के हिंदी-नाटककार, प्रतिभा और प्रयास के होते हुए भी, जीवंत नाट्य-साहित्य तैयार नहीं कर सके। एक शौकीनी (एमेचार) रंगमंच की स्थापना अवश्य हुई, सो भी प्रसादोतर काल में। यह रंगमंच गतिशील है, स्वास्थ्य है और समाज के एक वर्ग-विशेष की अनिवार्य मांग की पूर्ति करता है। इसलिए इसका भविष्य उज्जवल है। एमेचर रंगमंच पाश्चात्य साहित्य के संसर्ग से उद्भूत नाटकीय प्रेरणा की अभिव्यक्ति है और इसके द्वारा एक नई परम्परा की प्रतिष्ठा हुई है, जिसे हमें कायम रखना है।
किन्तु जैसा कि हमने ऊपर कहा है, हमें विस्मृत परम्पराओं की धाराओं की तोह भी लेनी है और उनके लिए मार्ग प्रशस्त करने में ही हमारा सांस्कृतिक नवनिर्माण सफल हो सकेगा। एक अन्तः सलिला धारा थी संस्कृत नाट्य-साहित्य में परिलक्षित रंगमंच की, ऐसा रंगमंच जो अपने उत्कर्ष-काल में एक अनुपम सामंजस्यपूर्ण संस्कृति का परिचायक था, जिसके विभिन्न अंगों के संतुलन में नागरिक जीवन की सर्वान्गीकता सन्निहित थी और जिसके प्रतिबंधों में शताब्दियों के अनुभव से अर्जित ज्ञान का निमंत्रण। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इस परम्परा को उबारा सदियों के बाद। उनकी प्रतिभा की प्रचंड किरणों ने विस्मृति के अभेद्द कारा को खंडित किया और वसंत के लुभावने समीरण के स्पर्श से हिंदी रंगमंच जाग उठा।
भारतेंदु द्वारा प्रतिष्ठित धारा का आगमन हिंदी-साहित्य के आधुनिक इतिहास में एक महान दुर्घटना थी। क्यों ऐसा हुआ, इसकी भी अपनी कहानी है, जिसकी ओर हिंदी साहित्यकार का ध्यान आना चाहिए। यहाँ संकेत के तौर पर इतना कहना काफी होगा कि विचारक्षेत्र में उत्तर-प्रदेश के आर्यसमाजी सुधारवादी सिद्धांत, सामाजिक क्षेत्र में हिंदी भाषी प्रान्तों के उच्चवर्गीय नेताओं की संस्कृति शून्यता, राजनितिक क्षेत्र में स्वतंत्रता-युद्ध के परिणामस्वरूप आदर्शवादी निग्रह ( Puritanism ) की भावना और भाषा के क्षेत्र में द्विवेदी जी के नेतृत्व में शुद्धता और इति-वृतात्मक अभिव्यंजना का आंदोलन, सभी किसी ना किसी रूप अथवा परिस्थिति में भारतेंदु की रस-प्रवाहिन निर्झरणी के लिए मरुस्थलतुल्य प्राणान्तक सिद्ध हुए। इस तरह हिंदी रंगमंच के उत्थान का प्रथम प्रयास, जिसका प्राचीन संस्कृत रंगमंच से लगाव था, अधूरा ही राह गया। बाद में जो नया दौर चला, उसकी प्रेरणा कहीं और से ही आई, और प्रसाद जी के नाटक तो एक कल्पनाजन्य रंगमंच को आधार मानकर प्रणीत हुआ।
क्या अब पुनः उस अधूरे यज्ञ की परिणति हो सकती है ? क्या उसकी आवश्यकता भी है इस युद्धोतर जनवादी युग में ? मैं कहूँगा, हाँ। संस्कृत नाटक की परंपरा नूतन हिंदी रंगमंच के बहुमुखी विकास की एक प्रधान शैली के बीच विधमान है।
यदि पाश्चात्य यथार्थवादी रंगमंच से प्रभावित हो हमारे स्कूल, कालेजों और क्लबों द्वारा एमेचर रंगमंच की अभिवृद्धि होगी, तो प्राचीन संस्कृत पद्धति का आधार ले और बैले इत्यादि के साधनों से संपन्न हो एक नागरिक (Urban) और व्यावसायिक (Professional) रंगमंच भी हमारे नगरों में प्रस्तुत हो सकता है। ऐसे रंगमंच के लिए संस्कृत रंगमंच की कमनीयता, इसका सुरम्य वातावरण वांछनीय है; रंगशाला की सजावट, उसके विभिन्न अंगों का वितरण, संगीत और नृत्य का प्रचुर प्रयोग, इन सभी विषयों में संस्कृत रंगमंच की विशिष्ट धरोहर है। सिनेमा और चिताकर्षण नृत्य-प्रदर्शन के इस युग में कोई भी व्यावसायिक और नागरिक रंगमंच जीवन को यथातथ्य प्रतिविम्बित करनेवाले दृश्यों के सहारे नहीं पनप सकता; किन्तु हृदयग्राही और नयनाभिराम होने के लिए हिंदी रंगमंच को पारसी थियेटर के कृत्रिम साधनों का सहारा नहीं लेना है और न आधुनिक पाश्चात्य नाट्यकलाओं की प्रतीकवादी पृष्ठभूमि का दामन पकडना है। हम संस्कृत रंगमंच की ललित रंगपीठ, सरस स्वाभाविकता और शास्त्रोगत मुद्राओं और भाव-भंगिमाओं से भरे-पुरे अभिनय को सहज ही अपना सकतें हैं। अभी तक श्री पृथ्वी राज कपूर द्वारा प्रस्तुत किये गए नाटकों को देखने का मुझे अवसर नहीं मिला है, लेकिन यदि मुंबई में ये संस्कृत नृत्यशालाओं, वस्त्राभूषणों और अभिनय कला की कुल विशेषताओं को अपने थिएटर में, प्रयोग रूप में ही सही, चालू करें, तो मेरा विश्वास है कि वे रुचिपरिमार्जन के साथ-साथ आभिजात्यवर्ग के नागरिकों का यथेष्ट मनोरंजन भी कर सकेंगें। ऐसा रंगमंच व्यावसायिक दृष्टि से असफल नहीं हो सकता ; क्योंकि उसमें ‘ओपेरा’ के गति-प्रधान वातावरण और रमणीयता और सिनेमा की तीव्र गतिशीलता और नाटकीयता का अलम्य सम्मिश्रण होगा। मुख्यतः यह रंगमंच नगरों और उत्सवों तक ही सीमित रह सकेगा।
राष्ट्रीय रंगमंच का तीसरा और शायद सब से महत्वपूर्ण अंग होंगी देहाती नाट्य मंडलियां। पिछले दिनों लोगों का ध्यान जनता के विचारों और व्यक्तित्व को प्रभावित करनवाले इस अचूक साधन की ओर गया है और कम्युनिस्ट पार्टी ने तो अपने पीपुल्स थियेटर द्वारा आरम्भ के दिनों में निस्संदेह कला का यथेष्ट कल्याण किया है ; किन्तु कम्युनिस्ट कलाकारों को सिद्धांत की वेदी पर बेदर्दी के साथ सौंदर्य का बलिदान करना पडता है और इसलिए निकट भविष्य में तो पीपुल्स थियेटर राष्ट्रीय रंगमंच को शायद ही समृद्द कर सके। दूसरे, यद्दपि पूर्वी बंगाल, तेलांगना और पश्चिमी मालावार के कुछ हिस्से मं कम्युनिस्ट मंडलियों को देहाती अभिनेताओं और गायकों इत्यादि का सहयोग अंशतः मिल सका, तथापि हिंदी भाषी प्रदेशों में ये मंडलियां प्रायः पढ़े-लिखे मध्यर्गीय उग्र विचारवान प्रतिभाशाली और उत्साही नवयुवाओं की बानगी बनकर ही रह गईं। ये मध्यवर्गीय नवयुवक, जिन्होंने शहरों में रहकर, पाश्चात्य विद्वानों की पुस्तकों के आधार पर अपनी विचार शैली निर्धारित की थी, अपने प्रगतिशील सिद्धांतों की खातिर ऐसा जान पडता था, देहाती पोषक पहन लेते थे। उन्होने पढ़ा कि रूस में जनता का नाटक पार्टी की प्रेरणा से खूब पनपा। इसलिए यहाँ भी, उन्होंने देहाती नाम, देहाती समस्याओं और देहाती पोशाक का सहारा ले, मिली जुली देहाती भाषा में बड़े शहरों में और कहीं-कहीं गांव में भी अपने सिद्धांत का प्रचार शुरू कर दिया। थोड़े दिन तो यह चीज़ खूब चमकी ; किन्तु आकाश की जिस धारा ने धरती के नीचे प्रवाहित होनेवाले सोतों से नाता जोड़ा, वह तो ऊपर-ऊपर ही होकर ढाल जाती है। कम्युनिस्ट रंगमंच ने वस्तुतः बिहार, उतरप्रदेश और मध्यप्रदेश में, देहातों में प्रचलित और लोकप्रिय अभिनय-प्रणालियों से सम्बन्ध स्थापित नहीं किया और न इन देहातों में जौहर दिखलानेवाले अशिक्षित या अर्धशिक्षित अभिनेताओं और गायकों को अपनाया। उन्होंने उन प्रणालियों अथवा पद्दतियों का अंशतः अनुकरण तो किया, लेकिन चालू प्रणालियों से सीधा situs toto सम्बन्ध नहीं जोड़ा। शायद उसमें उन्हें ह्रासोन्मुख (Decadent) संस्कृति के चिन्ह दीखे।
वस्तुतः हमें रंगमंच के इस विशाल क्षेत्र को उर्वरक बनाने के लिए उस लोक रूचि की मांग को समझाना होगा, जिसके सहारे अब भी इतनी नौटंकी पार्टियां और मंडलियां जीती रही है। छः-सात वर्ष हुए बिहार के साधारण से ग्राम में दौरा करते समय मुझे उस गांव की ही एक मंडली द्वारा प्रस्तुत किया गया नाटक देखने का अवसर मिला। ठठ-के-ठठ स्त्री पुरुष जमा थे। स्टेज के नाम पर एक चौकी। एक ढोलकवाला था। अभिनेता कुल चार या पांच। दर्शक तीन तरफ। न कोई पर्दा न कोई विशेष सजावट। नाटक का नाम था ‘जालिम सिंह’ जो उत्तरी बिहार में खासा प्रसिद्ध है। अभिनय में कोई विशेष कला नहीं थी। कहानी अच्छी होते हुए भी, उसमें कई अश्लील अंश थे। लेकिन मुझे ऐसा लगा, जैसे उस नाटक के खेलनेवालों और चारों ओर उमड़नेवाली जनता में एक संशयहीन आत्मीयता हो, जिसका मैं एक अंग नहीं बन सका। उसके बाद बिहार और पूर्वी उतर प्रदेश के भोजपुरी इलाके के लोकप्रिय कलाकार भिखारी ठाकुर के विषय में बहुत कुछ सुनकर और उनके ‘बिदेसिया’ के नाम पर जुट पड़नेवाली जनता की मनोवृति का अध्ययन कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि देहाती रंगमंच उन आदिम अभिनयात्मक इच्छाओं की अभिव्यंजना है, जिसके बल पर ही सिनेमा के तीव्र प्रचार के बावजूद रंगमंच अपना अस्तित्व कायम रख सकता है।
देहाती रंगमंच की बुनियाद में अभिनेता और दर्शक के बीच वही तदात्मीयता (Mutual understanding) है, जिसका ज़िक्र मैं ऊपर कर आया हूँ। यह तभी संभव हो सकता है, जब नाटक-मंडली के अभिनेता और प्रबंधक देहाती जनता की रूचि, इच्छा और मांग का अध्ययन करें। उसकी तथाकथित अश्लीलता या बेरोक रसानुभूति से नाक-भौं न सिकोडें और उच्च स्तर से आविभूर्त होनेवाले उपदेशकों की भांति, नीति अथवा उद्धार की झड़ी न लगाएं और न आर्थिक शोषण का जड़ोंउन्मूलन करने के लिए जनता को भावोद्वेलित करने की आशा करें। यह तो प्रधानतः मनोरंजन का क्षेत्र है। इसे परिमार्जित करने का एक ही मार्ग है, यानि जो मनोरंजन भौंडा है उसे सुन्दर, कलापूर्ण और स्वस्थ बनाया जाये। उदाहरणतः इन नाटकों में रंगमंच की सजावट में ग्रामीण कला को अवसर दिया जाये। चटाइयों पर गेरू से सुन्दर डिज़ाइन बनाकर मंच के उपपीठ पर लटकाएं जाएँ। गांव की स्त्रियां अल्पना अंकित करें। भद्दे शहरी पर्दों के स्थान पर बैक-ग्राउंड में जंगली पत्तियों और फूलों की लड़ियाँ टांगी जय। गाने बजने की बहुलता रहे। हारमोनियम के स्थान पर सारंगी, और तबले के स्थान पर ढोलक हो। चूँकि पर्दे की गुंजाईश तो वहाँ होती नहीं है, इसलिए दृश्य परिवर्तन और नाटक में धारा-प्रवाह को जारी रखने के लिए एक सूत्रधार रहे। वह अच्छा गायक और हाज़िर जबाब होना चहिये। संस्कृत नाटकों में तो सूत्रधार प्रस्तावना के बाद गायक हो जाता था। लेकिन आधुनिक देहाती रंगमंच में उसकी बराबर ज़रूरत पड़ेगी और उसका काम लगभग वही होगा, जो यूनानी नाटकों में कोरस द्वारा संपन्न होता था, यानि नाटक और दर्शकों के बीच सूत्र कायम रखना। स्थान-स्थान पर नाटक के कथानक के प्रति उत्सुकता जागृत रखने के लिए, वह टिपण्णी देगा, अभिनेताओं को कपड़े बदलने का समय देने के लिए, दर्शकों का मनोरंजन करेगा और नाटक के भावुक स्थानों पर भावावेग के अनुकूल गीत सुनाकर उसी प्रकार नाटकीय संवेदना का संवर्धन करेगा, जैसे आधुनिक सिनेमा और रेडियो-रूपक में पार्श्व संगीत।
अभिनेता, जहाँ तक हो सके, देहात में से ही लिए जायं, यद्दपि सूत्रधार का आधुनिक संस्कृति और ज्ञानराशि से परिचित होना आवश्यक है। मैंने ग्रामीण जनता के सभी वर्गों में कुशल अभिनेता की दक्षता रखने वाले व्यक्तिओं को पाया है। थोड़ी ट्रेनिंग से उनकी योग्यता निखर जायेगी, इसमे कोई संदेह नहीं। देहाती नृत्य और सम्मिलित संगीत, उस रंगमंच के महत्वपूर्ण अंग रहेंगें। हर प्रदेश के अपने-अपने जन नृत्य हैं, जिनका बड़े-बड़े नगरों की आत्याधुनिक रंगशालाओं में नए फैशन के युवक-युवतियों द्वारा शौकीनी प्रदर्शन पिछले दिनों खूब किया गया है। लेकिन ठेठ देहात में, जहाँ की यह चीज़ है, नैसर्गिक वातावरण में, देहाती युवक-युवतियों को ही अपने रंगमंच पर प्रदर्शन करने के लिए कहाँ तक उत्साहित और संगठित किया जा रहा है, इसमें मुझे बहुत कुछ संदेह है।
देहाती रंगमंच का संगठित रूप क्या है और उनकी अन्य क्या विशेषताएँ होनी चाहिये, इस विषय पर सविस्तार भविष्य में लिखूंगा। क्योंकि इस क्षेत्र में कुछ क्रियात्मक अनुभव प्राप्त कर लेने के बाद ही मुझे विचार प्रकट करने का पूर्ण अधिकार हो सकता है। पिछले छः वर्षों से वार्षिक वैशाली महोत्सव के अवसर पर मैं इस ढंग के देहाती रंगमंच की कल्पना को कार्यरूप में परिणत करने की चेष्टा करता रहा हूँ। कुछ सफलता भी मिली है, क्योंकि वैशाली तो एक गांव ही है, रेलवे स्टेशन से २३ मील दूर और चाहने पर भी वहाँ नगर के साधन उपलब्ध नहीं हो सकते। ग्रामीण अभिनेता, ग्रामीण दर्शक, ग्रामीण उपादान सभी मिल जातें हैं। निर्देशन हम लोगों का होता है और विशेषतः सजावट का निर्देशन उपेन्द्र महारथी का। फिर भी कार्यक्रम में कॉलेज के नवयुवकों द्वारा प्रस्तुत नाटक शामिल करने ही पडतें हैं।
इस वर्ष से बिहार में सरकार की ओर से सांस्कृतिक चेतना सम्बन्धी योजना में हमलोगों ने देहाती रंगमंच के विकास के उद्द्येश से मोद-मंडलियों की स्थापना की है। योजना सरकारी है और इसलिए उसकी गति गजगामिनी की-सी है। स्वरुप भी वैसा हो तो शिकायत की गुंजाईश न रहेगी किन्तु सांस्कृतिक क्षेत्र में निश्चित रूप से यह पहला सरकारी कदम है और फूंक-फूंक कर उठाया जा रहा है। लोगों को भी यकीन नहीं होता कि इसके पीछे कोई और तो चाल नहीं है। यदि यह तजुर्बा अंशतः भी सफल हुआ तो मैं एक या दो वर्ष बाद इसकी पूरी कथा हिंदी पाठकों के सामने रखूँगा।
ऊपर के विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आज दिन हिंदी भाषा-भाषी प्रदेशों में राष्ट्रीय रंगमंच का क्रमिक निर्माण तीन पहलुओं में हो रहा है। मेरे विचार से इन्हीं तीन शैलियों में भावी हिंदी रंगमंच की रूप-रेखा सन्निहित है, यानि १. यथार्थवादी, एमेचर ( शौकीनी ) रंगमंच, २. प्राचीन नाट्य परम्परा से प्रेरित किन्तु आधुनिक व्यावसायिक साधनों से संपन्न नागरिक ( Urban ) रंगमंच और ३. परिमार्जित और संशोधित रूप में देहाती रंगमंच। यदि हमारे उदिमान नाटककार और उत्साही निर्देशक और अभिनेता इन प्रवृतियों को नज़र में रखते हुए अपनी कार्य प्रणाली निर्धारित करें, तो बहुत- सी बेकार मेहनत बच जाये और हिंदी राष्ट्रीय रंगमंच और नाट्य साहित्य की वास्तविक उन्नति हो।
इससे पहले कि इन प्रवृतियों के अनुकूल नाट्य-साहित्य की आवश्यकताओं की ओर मैं इशारा करूँ, यह ज़रुरी है कि हमारे रंगमंच के पुनर्निर्माण काल की दो प्रबल शक्तिओं यानि सिनेमा और रेडियो का जो प्रभाव इन तीन धाराओं पर पड़ रहा है, या पड़ सकता है, उसका भी कुछ अंदाज़ा लगा लिया जय। सिनेमा को मैं रंगमंच का घटक मानाने को तैयार नहीं। मेरे विचार मैं तो सिनेमा ने रंगमंच के पुनरुत्थान का लिए अनुकूल वातावरण पैदा किया है। सदियों से भारतवर्ष की जनता नाट्य और अभिनयकला की ओर से उदासीन हो चली थी। लोक रूचि पर काई जम गई थी और उच्च सांस्कृतिक क्षेत्र में अभिनय और नृत्य- प्रदर्शन का कोई स्थान ही नहीं रह गया था। सिनेमा ने उस काई को काटकर फेंक दिया और देखते ही देखते अभिनय और कलात्मक प्रदर्शन हमारे सामाजिक जीवन का एक प्रधान अंग बन गए।
यह सच है कि सिनेमा की लोकप्रियता ने पारसी थियेटर को नष्ट कर दिया, लेकिन उसके विनाश का कारण सिनेमा के आधुनिक मशीन युग के साधन ही नहीं थे, बल्कि अभिनय कला का एक नवीन दृष्टिकोण भी। सिनेमा ने जब यह दिखाया कि यथार्थ जीवन में जैसी बातचीत, जैसा व्यवहार, जैसी भाव-भंगिमा होती है, वैसी ही नाटकों में भी प्रदर्शित की जा सकती है, तो पारसी थियेटर के जोशीले भाषण, फड़कती हुई शेरों और तमक कर बोलने की परिपाटी अपना सारा आकर्षण खो बैठे। “चन्द्रकान्ता सन्तति” के तिलिस्म को जैसे प्रेमचंद के यथार्थवादी उपन्यासों ने ढाह दिया, ऐसे ही सिनेमा ने पारसी थियेटर के शीशमहल को खंडहर बना दिया। नतीजा यह हुआ कि जब इब्सन, शा, गाल्वार्दी इत्यादि से प्रेरित होकर उत्तर भारत के कुछ नगरों में एमेचर रंगमंच का आविर्भाव हुआ, ती सिनेमा के उदाहरण ने उसके यथार्थ के लिए दर्शक को तैयार कर दिया। एकांकी की उन्नति में सिनेमा का कितना ज़बरदस्त हाथ रहा है, इस पर शायद एकांकी-लेखकों ने भी विचार नहीं किया। भारतवर्ष में बोलते सिनेमा के प्रचार से पूर्व यदि यथार्थवादी, विशेषतः सामाजिक नाटक लिखे जाते, तो उनको रंगमंच पर उतरना शायद असंभव हो जाता। रंगमंच पर दैनिक जीवन का यथातथ्य प्रदर्शन हो, इसकी कल्पना भी दर्शक समाज नहीं कर सकता था। लोकरुचि में इतनी बड़ी क्रांति करके सिनेमा ने स्वाभाविक अभिनय की कला को रंगमंच पर ला बैठाया। तो क्या यथार्थवादी एमेचर रंगमंच को ही सिनेमा कुछ दे सका है ? यदि हिंदी राष्ट्रीय रंगमंच के उत्थान में सिनेमा की केवल इतनी हीं उपयोगिता रहती, तो उसका कोई स्थाई मूल्य नहीं होता, क्योंकि कोई भी यथार्थवादी रंगमंच, कम से कम भारतवर्ष में, जीवन के यथातथ्य चित्रण में सिनेमा से बाजी नहीं ले सकता। लेकिन मैं ऊपर कह आया हूँ कि हिंदी रंगमंच की तीन धाराओं में से एक यानि नागरिक, व्यवसायिक रंगमंच यथार्थवादी नहीं होगी। उसकी विशेषताएँ होगी काव्य-सुलभ रसानुभूति से परिपूर्ण वातावरण, मर्मस्पर्शी और सहज स्वाभाविकता एवं शाश्त्रोक्त मुद्राओं से संपन्न अभिनय और नृत्य, संगीत और नयनाभिराम दृश्यों से अलंकृत प्रदर्शन ( Spectacle )। ये विशेषताएँ नागरिक रंगमंच को ना सिर्फ संस्कृत रंगमंच से मिलेंगीं, बल्कि भारतीय सिनेमा की उस नवीन शैली से भी, जिनके उदाहरण के तौर पर विद्यापति, वसंतसेना, नर्तकी, रामराज्य, पुकार और अनेक पौराणिक फिल्मों का नाम लिया जा सकता है। प्रकाश और अंधकार का समुचित व्यवहार संवेदन के संवर्धन में कैसे किया जा सकता है , भावोद्रेक जताने के लिए क्योंकर संवाद में गति लाई जा सकती है, गीत और नृत्य कैसे स्थलों में प्रभावोत्पादक हो सकतें हैं, इन सभी महत्वपूर्ण पहलुओं पर सिनेमा की इस नई शैली ने प्रचुर प्रयोग किये हैं, नागरिक रंगमंच जिससे यथेष्ट लाभ उठायेगा।
अतः यदि भारतीय सिनेमा को भावी हिंदी राष्ट्रीय रंगमंच की प्रयोगशाला कहा जाय, तो कोई भी अतियुक्ति नहीं होगी। रेडियो की छाप भी उस पर निश्चय हीं रह जायेगी। हिंदी साहित्य का इतिहास मुक्त कंठ से ये यह स्वीकार करेगा कि आल इंडिया रेडियो ने हिंदी में नाट्य रचना को फिर से सार्थकता प्रदान की। उसने ना सिर्फ नए रुपककारों को प्रकाश में ला बैठाया, बल्कि पुरानी कृतियों के लिए भी एक नवीन क्षेत्र प्रस्तुत कर दिया। उसने एक नई मांग पेश की, जिसके जबाब में हिंदी लेखक को अपनी कलम साहित्य के इस विस्तृत क्षेत्र में चलानी पड़ रही है। इसके अतिरिक्त रेडियो-रूपक की कुछ ऐसी विशेषताएं हैं, जिन्हें रंगमंच के लिए नूतन उपकरण माना जा सकता है। पार्श्व संगीत की टेकनिक को रेडियो ने खूब निखर दिया है। अभिनय काला में स्वर-संधान की महत्ता रेडियो ने ही पहले पहल स्थापित की है और भाव-भंगिमा के अभाव में स्वर में चित्रोपमता को क्षमता ला देना यह अभिनय-कला को रेडियो की एक स्थाई देन है। भावी रंगमंच इन नए उपकरणों को निश्चय ही अपनावेगा।
उत्तरी भारतवर्ष में नाट्य साहित्य का लोप आप-ही-आप नहीं हुआ था। मुसलमानी राज्य में धार्मिक कट्टरता ने मूर्ति-कला और रंगमंच दोनों पर प्रहार किया। राज्य का प्रश्रय मिला नहीं और जनता भयाक्रांत हो मनोरंजन से विमुख हो गई। यों लगभग एक हज़ार वर्ष तक उत्तरी भारत में तो नाटक कोरे अध्ययन की सामग्री बनकर रह गई।
अब यदि एक हज़ार वर्ष बाद हम रंगमंच और रूपक साहित्य को पुनर्जीवित करना चाहतें हैं, तो यह क्रिया भी आप-ही-आप नहीं होगी। कविता भावुक ह्रदय से अनायास ही बह निकलनेवाली निर्झरणी हो सकती है, यद्दपि उसकी तह में भी सामाजिक प्रेरणाओं का दबाव होता है, किन्तु नाट्य साहित्य का रंगमंच की मांग से सीधा सम्बन्ध है और रंगमंच स्वतः ही नहीं बनता। राष्ट्र और समाज, संस्कृति क्षेत्र के नेता और शासन, सभी को परम्परा, परिस्थिति और उपकरणों को ध्यान में रखते हुए नए नए रंगमंच की रूपरेखा निश्चित करनी है, और जहाँ तक संभव हो, उस निश्चित योजना के अनुसार साधन एकत्रित कर रंगमंच के आंदोलन को चलाना है। ऐसे आन्दोलन के आग्रह से लेखक-समाज बच नहीं सकेगा, और कुछ ही समय में एक समृद्ध नाट्य-साहित्य की नीव पड़ जायेगी।
पिछले पृष्ठों में रंगमंच की जो त्रिमुखी योजना मैंने उपस्थित की है, वाह एक संकेत है इसी मार्ग की ओर। मैं यह कहने की धृष्टता नहीं करूँगा कि हिंदी हिंदी भाषी समाज इस संकेत को आँख मूंदकर मान ले, यद्यपि मेरा अनुभाव है कि रंगमंच के जिस त्रिमुखी विकास की मैं कल्पना कर रहा हूँ, वही दिन-प्रतिदिन स्पष्ट होती हुई सांस्कृतिक प्रवृतियों का चरमोत्कर्ष हो सकता है।
यदि यह न भी हो, तो भी मेरा यह तो पक्का विश्वास है कि जनता, शासन और सांस्कृतिक संस्थाओं को कुछ इसी तरह का बहुमुखी आंदोलन खड़ा करना होगा। हमारा राष्ट्रीय रंगमंच एकमुखी नहीं हो सकता और न होना ही चाहिए।
इसलिए हमारा नाट्य-साहित्य भी कई विभिन्न शैलियों का संग्रह होगा, एक ही परिपाटी का उत्थान मात्र नहीं।
लेकिन मुझे लगता है, मानो हम आधुनिक हिंदी के नाटककार बरबस ही एक ही शैली की तलाश में भटक रहें हों। जो नए प्रयोग हो रहें हैं, उनके पीछे रंगमंच की सामर्थ्य नहीं। इसलिए हमें रंगमंच की पद्धतियाँ भी निर्धारित करनी है और उसके साथ ही साथ नाट्य-साहित्य की शैलियाँ भी। दोनों कार्य सामानांतर रेखाओं की तरह चलें। यह सोचना कि पहले रंगमंच तैयार हो जाये तब नाटक लिखें जाएँ, या नाटकों की रचना कराकर रंगमंच को तदनुसार तैयार कर लें, भारी प्रवंचना होगी।
लेकिन मैं लेखक समाज को हुक्म नहीं देना चाहता कि ऐसा लिखो और ऐसा नहीं। कलाकार को जबरदस्ती आदेश देने कि क्षमता भला किसमें है ?
हमारा राष्ट्र, निर्माण की पहली सीढियों पर है। ऐसे क्षण में लेखक-समाज द्वारा समय और शक्ति का अपव्यय दो तरह आजकल हो रहा है – १. नई पीढ़ी के उदीयमान साहित्यकार मुक्तक काव्य की झड़ी लगाए जा रहें हैं, मानो उन्होने छायावादी परम्पराओं को रीतिकालीन सवैयों की परिपाटी की भांति सांचे ढलने वाली मशीन बना देने का व्रत लिया हो। नाटक का क्षेत्र है वीरान, लेकिन उधर कौन नज़र डाले ? २. जो नाटककार हैं, वे प्रायः शून्य में सेज लगाकर किसी काल्पनिक रंगमंच की प्रिया से मिलन की तैयारियां कर रहें हैं। कुछ लोग हैं कि कोरे संवादों के चमत्कार को नाट्यगति ( Action ) का स्थान देकर संतुष्ट हो जातें हैं, कुछ के हरेक पात्र में एक ही व्यक्तित्व यानि लेखक का निजी व्यक्तित्व प्रतिबिंबित होता है, कुछ का कथानक इतना सपाट होता है कि प्रथम दृश्य में ही अंतिम दृश्य की झलक मिल जाती है और कुछ के पत्र भाषणों का तांता बंध्तें हैं, तो रुकने का नाम ही नहीं लेते।
प्रतिभा और समय के इस अपव्यय को रोकने के लिए लेखक-समाज को सामूहिक इच्छाशक्ति का प्रयोग करना होगा। यह सामूहिक इच्छाशक्ति साहित्यकारों की संस्थाओं द्वारा स्वीकृत और शासन द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त योजनाओं के रूप में प्रकट की जा सकती है। इन योजनाओं में श्रेष्ठ नाटकों पर पुरस्कार, नाटकों के अभिनीत करने का प्रबंध, उदीयमान नाटककारों को आर्थिक सहायता, इन सबका विधान तो होगा ही, पर इनके साथ ही साथ नाटक –लेखन की कला के नियमों का संकलन और नाटककारों के लिए शिक्षा-केन्द्रों का आयोजन भी होगा।
मेरे भावुक साहित्यकार मित्र चौंके नहीं। मैं कला को बंधनविवस और साहित्यिक नेताओ से आक्रांत दासी का रूप देने कि तदवीर नहीं कर रहा हूँ। लेकिन कोई मुझे बतावे कि कौन सी उत्कृष्ट कला नियमबद्ध नहीं और किस कला के साधकों को अध्ययन और अव्यवसाय के बिना कोरी भवप्रवणता के आधार पर सफलता मिली है ? काव्य-प्रणयन में हाथ लगाने के पूर्व कवि छंद-शास्त्र, अलंकार और पूर्ववर्ती कवियों का थोडा-बहुत अध्ययन करता है। समस्त प्राचीन नाट्य-साहित्य इसका साक्षी है ; किन्तु हिंदी में नाटककारों के पथ-प्रदर्शन के लिए कोई उपयुक्त रीतिग्रंथ ही नहीं है। प्राचीन संस्कृत नाट्यशास्त्र का अध्ययन करने का हमलोग कष्ट नहीं उठाते और यह भी ठीक है कि वर्तमान परिस्थिति में, उसी परंपरा के रंगमंच के अभाव में प्राचीन संस्कृत नाट्यशास्त्र को बिना कतर-व्योंत किये हम ज्यों-का-त्यों अपना भी नहीं सकते। अधिकतर लेखक आधुनिक पाश्चात्य नाटककारों इब्सन, गल्सवार्दी, शा इत्यादि से प्रभावित होकर ही कलम उठातें हैं। लेकिन इन पाश्चात्य नाटककारों के पीछे अविच्छिन्न नाट्य-साहित्य की परंपरा है, जिसका उद्गम है प्राचीन यूनानी नाटक। साथ ही उन्हें प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक शास्त्रकारों और साहित्य-नियामकों की धरोहर उपलब्ध है। पाश्चात्य नाटककार प्रायः थ्री यूनिटीज़, ट्रेजडी के द्वंदात्मक आधार, चारित्रिक उत्थान, कथानक में चरम विन्दु का समावेश आदि सिद्धांतों से परिचित होतें हैं। अरस्तु, बेनजान्सन, गेटे, ब्रेडले और कतिपय आधुनिक समालोचकों से नाट्यकला के विषय में जो सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं, वे उदियमान पाश्चात्य नाटककार के लिए एक मानसिक पृष्ठभूमि का काम देतें हैं। यदि मैं कहूँ कि कुछ ऐसी ही मानसिक पृष्ठभूमि की हमारे यहाँ भी आवश्यकता है, तो इसे सृजनात्मक प्रवृति पर शास्त्रीय बंधन लगाने की चेष्टा न समझा जाय।
जैसे हमारे रंगमंच को बहुमुखी होना है, एक शैली में ही सीमित नहीं रहना है, वैसे ही हमारा नाट्य-साहित्य भिन्न-भिन्न सामाजिक आवश्यकताओं और चेतनाओं का परिचायक होगा, उसकी भी शैली बहुमुखी होगी। तदनुसार ही वह मानसिक पृष्ठभूमि, वह नियमों और विधियों का संकेत जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है, विविध प्रकार के सिधान्तों का प्रतिविम्ब होगी। जो इन सिधान्तों, नियमों और विधियों का संकलन और संपादन करे, उन्हें अपनी दृष्टि रंगमंच की भावी रूप-रेखा पर रखनी है।
उदाहरणतः नागरिक रंगमंच के लिए नाटकों में काव्यात्मक शैली द्वारा रसपरिपाक – यह परंपरा संस्कृत नाटकों से ली जा सकती है। वस्तुतः प्राचीन नाटक दृश्यकाव्य था, यानि दर्शकों के लिए वह कविता का अभिनय द्वारा निरूपण था, जीवन का दर्पणतुल्य प्रदर्शन नहीं। आज के व्यावसायिक रंगमंच पर भी ऐसे ही नाटक शायद अधिक सफल हो सकें। उस शैली को आधुनिक प्रतीकवादी नाटककार मेटरलिंक, जेम्स्बेरी, लेडी ग्रेगरी इत्यादि के वातावरण-प्रधान नाटकों से बहुत कुछ मिल सकता है। देहाती रंगमंच के लिए जो नाटक लिखे जायं, उनमें भी प्राचीन संस्कृत और यूनानी नाटकों से कुछ पद्धतियाँ समाविष्ट कि जा सकती है, यथा-सूत्रधार और विश्कम्भक को यूनानी कोरस की पद्धति में ढालकर एक नवीन प्रकार के रंग्नायक कि श्रृष्टि कि जा सकती है, जो यवनिका और पर्दों के बिना ही नाटक की पृष्ठभूमि और भिन्न अंकों का एक दूसरे से सम्बन्ध स्थापित का सके, साथ ही उस सूत्रधार के कथनों में भी नाटक की काव्य शैली और गीतों का समावेश हो। यथार्थवादी रंगमंच का नाट्य-साहित्य मुख्यतः समस्यामूलक और आधुनिक विचारधारा और संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व का परिचायक होगा। किन्तु साथ ही सिनेमा की प्रभाववादी शैली और रेडियो-रूपक की संकेत्वादिता दोनों ही का यथार्थवादी नाट्य-साहित्य पर स्थाई प्रभाव पड़ेगा।
इस प्रकार उदीयमान रंगमंच की विभिन्न शाखाओं की मांगों को दृष्टिकोण में रखते हुए नाट्य-लेखन-कला के कुछ बुनियादी नियमों का संकलन और प्रतिपादन लेखकों के लिए उपादेय सिद्ध होगा। यह न समझा जय कि मैं नाट्य साहित्य के पूर्व रुढियों की स्थापना कराना चाहता हूँ। इन नियमों की आवश्यकता संकेत के तौर पर है और ज्यों-ज्यों नाट्य-साहित्य की समृधि और विकास होते जायेंगें त्यों-त्यों इन सिधान्तों में भी परिवर्तन और उनका परिमार्जन होता चलेगा। नियमों को मैं मात्र प्रयोजन के रूप में देखता हूँ, अचल मान्यताओं के रूप में नहीं। प्रतिभा को जब नियमों के प्रकाश द्वारा प्रगति की राह मिल जायेगी, तब वह अपने में अन्तर्निहित ज्योति को उकसाकर अपने-आप ही मार्ग-निर्देशन कर लेगी। लेकिन अभी तो अंधे की भांति टटोलना पड़ रहा है। साहित्य के इस महत्वपूर्ण अंग की रूप-रेखा, जिसमें कविता की भांति केवल भावोदेक ही सृजन का कारण नहीं हो सकता, हिंदी में स्थापित नहीं हो पाई है। संस्कृत नाटक की परम्परा लुप्त हो गईं। इसलिए यदि ऐसे निर्देशन का विधान नहीं किया जायेगा, तो यही नहीं होगा कि इने-गिने नाटककार अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग लेकर बैठ जायेंगें , बल्कि नवयुवक साहित्यकार इस अनजाने-से पथ पर अग्रसर भी न होंगें। इसलिए मैं तो यहाँ तक कहने के लिए तैयार हूँ कि इस उपेक्षित अंग को संपन्न बनाने के लिए हमारी प्रमुख साहित्यिक संस्थाओं और विश्वविधालयों को नाट्य-कला के शिक्षाकेन्द्र चलने चाहिए। अमेरिका में तो कुछ विश्वविधालयों में पाकशास्त्र की भी डिग्री होती है, नाट्यकला का स्थान तो इससे कहीं ऊँचा है, और भारतीय शास्त्रों में चौंसठ कलाओं की प्रमुख श्रेणी में इसकी गिनती है। यदि कोई विश्वविधालय नाट्यकला में बी. ए. ( कला स्नातक ) की डिग्री की व्यवस्था करे, तो इससे बढ़कर उपाधि कला के क्षेत्र में क्या हो सकेगी ?
ऊपर लिखे विचारों में रंगमंच और नाट्यकला की ही सीमित आवश्यकताओं का आग्रह देख पड़ेगा और शायद कुछ पाठक मुझे याद दिलाना चाहें कि रंगमंच और नाटक, समाज की प्रगति और प्रवृत्ति पर निर्भर रहते हैं। मैं इस पहलू से अवगत हूँ और एक नूतन योजना की ओर संकेत करने का साहस भी मुझे इसीलिए हुआ है कि भारतीय समाज, विशेषतः हिंदी भाषी समाज, सदियों बाद पुनः सामूहिक मनोविनोद को सुसंस्कृत और गंभीर कला के रूप में ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत है। सामूहिक मनोरंजन का सबसे कलापूर्ण, सुरुचिसम्पन्न और स्थायी रूप है रंगमंच। हमारा समाज अपने भिन्न भिन्न स्टारों में मनोरंजन को इस सुव्यवस्थित रूप में देखना चाहता है। राजनैतिक स्वताब्त्रता और सामाजिक चेतना दोनों ने हमें अपनी सांस्कृतिक इच्छाओं से अवगत करा दिया है। ये इच्छाएं एक उन्मुक्त व्यक्तित्व का उठान हैं, वे किसी कुंठित व्यक्तित्व की अपने से बचने की चेष्टाएं नहीं। साथ ही अपनी परम्पराओं और उपेक्षित सांस्कृतिक साधनों के प्रति सचेष्ट जागरूकता भी स्पष्ट होती जा रही है। भरत-नाट्यम, मणिपुरी नृत्य, संथाली नृत्य, नौटंकी, सिनेमाओं में प्राचीन ऐतिहासिक और पौराणिक कथानक, देहाती तर्जों के गीत, सभी को जन रूचि के क्षेत्र में महत्वपूर्न्महत्वपूर्ण स्थान मिल रहा है, और ये सभी रंगमंच के सुव्यवस्थित माध्यम कि राह देख रहे हैं।
इसीलिए हम रंगमंच के चाहे जो वर्गीकरण करें और नाट्य साहित्य के मार्ग निर्धारित करने के लिए चाहे जिन नियमों का प्रतिपादन करें, इन वर्गों और नियमों को सामाजिक परिस्थितियों और जनता की रूचि का अनुमोदन करना ही होगा। मेरी दृष्टि में निकट भविष्य का हिंदी रंगमंच और नाते साहित्य प्रायः तीन प्रमुख शैलियों में अवतरित होगा और हो रहा है। लेकिन सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ एवं प्रेरणाएं परिवर्तनशील हैं, और सृजनशक्ति का मूलश्रोत चिरंतन से प्रवाहशील है। कौन योजनाकार इस अबाध प्रगति को नियमों की चहारदीवारी में बाँध सकता है।

 

रीढ़ की हड्डी  – नाटक

                                                                        पात्र परिचय

                                                                        उमा : लड़की

                                                                        रामस्‍वरूप : लड़की का पिता

                                                                        प्रेमा : लड़की की माँ

                                                                       शंकर : लड़का

                                                                       गोपालप्रसाद : लड़के का बाप

                                                                       रतन : नौकर

 

[ मामूली तरह से सजा हुआ एक कमरा। अंदर के दरवाजे से आते हुए जिन महाशय की पीठ नजर आ रही है वह अधेड़ उम्र के मालूम होते हैं , एक तख्‍त को पकड़े हुए पीछे की ओर चलते-चलते कमरे में आते हैं। तख्‍त का दूसरा सिरा उनके नौकर ने पकड़ रखा है। ]

बाबू : अबे, धीरे-धीरे चल!… अब तख्‍त को उधर मोड़ दे… उधर…बस, बस!

नौकर : बिछा दूँ, साहब?

बाबू : (जरा तेज आवाज में) और क्‍या करेगा? परमात्‍मा के यहाँ अक्‍ल बँट रही थी तो तू देर से पहुँचा था क्‍या?… बिछा दूँ साब…! और यह पसीना किसलिए बहाया है?

नौकर : (तख्‍त बिछाता है) ही-ही-ही।

बाबू : हँसता क्‍यों है?… अबे, हमने भी जवानी में कसरतें की हैं। कलसों से नहाता था लोटों की तरह। यह तख्‍त क्‍या चीज है?…उसे सीध कर…यों…हां, बस।…और सुन बहूजी से दरी मांग ला, इसके ऊपर बिछाने के लिए।…चद्दर भी, कल जो धोबी के यहाँ से आई है वही।

[ नौकर जाता है। बाबूसाहब इस बीच में मेजपोश ठीक करते हैं। एक झाड़न से गुलदस्‍ते को साफ करते हैं। कुर्सियों पर भी दो-चार हाथ लगाते हैं। सहसा घर की मालकिन प्रेमा आती है। गंदुमी रंग, छोटा। चेहरे और आवाज से जाहिर होता है कि किसी काम में बहुत व्‍यस्‍त है। उसके पीछे-पीछे भीगी बिल्‍ली की तरह नौकर आ रहा है – खाली हाथ। बाबू साहब – रामस्‍वरूप – दोनों की तरफ देखने लगते हैं। ]

प्रेमा : मैं कहती हूँ तुम्‍हें इस वक्‍त धोती की क्‍या जरूरत पड़ गई! एक तो वैसे ही जल्‍दी-जल्‍दी में…

रामस्‍वरूप : धोती!

प्रेमा : अच्‍छा जा, पूजावाली कोठरी में लकड़ी के बक्‍स के ऊपर धुले हुए कपड़े रक्खे हैं, उन्‍हीं में से एक चद्दर उठा ला।

रतन : और दरी?

प्रेमा : दरी यहीं तो रक्‍खी है, कोने में। वह पड़ी तो है।

रामस्‍वरूप : (दरी उठाते हुए) और बीबीजी के कमरे में से हारमोनियम उठा ला और सितार भी।… जल्‍दी जा! (रतन जाता है। पति-पत्‍नी तख्‍त पर दरी बिछाते हैं।)

प्रेमा : लेकिन वह तुम्‍हारी लाड़ली बेटी तो मुँह फुलाए पड़ी है।

रामस्‍वरूप : मुँह फुलाए!… और तुम उसकी माँ किस मर्ज की दवा हो? जैसे-तैसे करके वे लोग पकड़ में आए हैं। अब तुम्‍हारी बेवकूफी से सारी मेहनत बेकार जाय तो मुझे दोष मत देना!

प्रेमा : तो मैं ही क्‍या करूँ? सारे जतन करके तो हार गई। तुम्‍हीं ने उसे पढ़ा- लिखाकर इतना सिर चढ़ा रक्‍खा है। मेरी समझ में तो यह लिखाई-पढ़ाई के जंजाल आते नहीं। अपना जमाना अच्‍छा था! ‘आ-ई’ पढ़ ली, गिनती सीख ली और बहुत हुआ तो ‘स्‍त्री-सुबोधिनी’ पढ़ ली। सच पूछो तो स्‍त्री- सुबोधिनी में ऐसी-ऐसी बातें लिखीं हैं – ऐसी बातें कि क्‍या तुम्‍हारी बी.ए., एम.ए. की पढ़ाई होगी। और आजकल के तो लच्‍छन ही अनोखे हैं…

रामस्‍वरूप : ग्रामोफोन बाजा होता है न!

प्रेमा : क्‍यों?

रामस्‍वरूप : दो तरह का होता है। एक तो आदमी का बनाया हुआ। उसे एक बार चलाकर जब चाहे रोक लो। और दूसरा परमात्‍मा का बनाया हुआ; उसका रिकार्ड एक बार चढ़ा तो रुकने का नाम नहीं।

प्रेमा : हटो भी! तुम्‍हें ठठोली ही सूझती रहती है। यह तो होता नहीं कि उस अपनी उमा को राह पर लाते। अब देर ही कितनी रही है उन लोगों के आने में!

रामरूवरूप : तो हुआ क्‍या?

प्रेमा : तुम्‍हीं ने तो कहा था कि जरा ठीक-ठीक करके नीचे लाना। आजकल तो लड़की कितनी ही सुंदर हो, बिना टीम-टाम के भला कौन पूछता है? इसी मारे मैंने तो पौडर-वौडर उसके सामने रक्‍खा था। पर उसे तो इन चीजों से न जाने किस जन्म की नफरत है। मेरा कहना था कि आँचल में मुँह लपेटकर लेट गई। भई, मैं तो बाज आई तुम्‍हारी इस लड़की से।

रामस्‍वरूप : न जाने कैसा इसका दिमाग है! वरना आजकल की लड़कियों के सहारे तो पौडर का कारबार चलता है।

प्रेमा : अरे, मैंने तो पहले ही कहा था। इंट्रेंस ही पास करा देते – लड़की अपने हाथ रहती; और इतनी परेशानी न उठानी पड़ती! पर तुम तो –

रामस्‍वरूप : (बात काटकर) चुप, चुप!… (दरवाजे में झाँकते हुए) तुम्‍हें कतई अपनी जबान पर काबू नहीं है। कल ही यह बता दिया था कि उन लोगों के सामने जिक्र और ढंग से होगा, मगर तुम अभी से सब-कुछ उगले देती हो। उनके आने तक तो न जाने क्‍या हाल करोगी!

प्रेमा : अच्‍छा बाबा, मैं न बोलूँगी। जैसी तुम्‍हारी मर्जी हो करना। बस, मुझे तो मेरा काम बता दो।

रामस्‍वरूप : तो उमा को जैसे हो तैयार कर लो। न सही पौडर, वैसे कौन बुरी है! पान लेकर भेज देना उसे। और नाश्‍ता तो तैयार है न? (रतन का आना) आ गया रतन?… इधर ला, इधर! बाजा नीचे रख दे। चद्दर खोल।… पकड़ तो जरा इधर से।

[ चद्दर बिछाते हैं ]

प्रेमा : नाश्‍ता तो तैयार है। मिठाई तो वे लोग ज्‍यादा खाएँगे नहीं, कुछ नमकीन चीजें बना दी हैं। फल रक्‍खे हैं ही। चाय तैयार है, और टोस्‍ट भी। मगर हाँ, मक्‍खन? मक्‍खन तो आया ही नहीं।

रामस्‍वरूप : क्‍या कहा? मक्‍खन नहीं आया? तुम्‍हें भी किस वक्‍त याद आई है! जानती हो कि मक्‍खनवाले की दुकान दूर है; पर तुम्‍हें तो ठीक वक्‍त पर कोई बात सूझती ही नहीं। अब बताओ, रतन मक्‍खन लाए कि यहाँ का काम करे। दफ्तर के चपरासी से कहा था आने के लिए सो, नखरों के मारे…

प्रेमा : यहाँ का काम कौन ज्‍यादा है? कमरा तो सब ठीक-ठाक है ही। बाजा- सितार आ ही गया। नाश्‍ता यहाँ बराबरवाले कमरे में ‘ट्रे’ में रक्‍खा हुआ है, सो तुम्‍हें पकड़ा दूँगी। एकाध चीज खुद ले आना। इतनी देर में रतन मक्‍खन ले ही आएगा। दो आदमी ही तो हैं?

रामस्‍वरूप : हाँ, एक तो बाबू गोपालप्रसाद और दूसरा खुद लड़का है। देखो, उमा से कह देना कि जरा करीने से आए। ये लोग जरा ऐसे ही हैं। गुस्‍सा तो मुझे बहुत आता है इनके दकियानूसी खयालों पर। खुद पढ़े-लिखे हैं, वकील हैं, सभा-सोसाइटियों में जाते हैं, मगर लड़की चाहते हैं ऐसी कि ज्‍यादा पढ़ी- लिखी न हो।

प्रेमा : और लड़का?

रामस्‍वरूप : बताया तो था तुम्‍हें। बाप सेर है तो लड़का सवा सेर। बी.एससी. के बाद लखनऊ में ही तो पढ़ता है मेडिकल कालेज में। कहता है कि शादी का सवाल दूसरा है, तालीम का दूसरा। क्‍या करूँ, मजबूरी है! मतलब अपना है वरना इन लड़कों और इनके बापों को ऐसी कोरी-कोरी सुनाता कि ये भी…

रतन : (जो अब तक दरवाजे के पास चुपचाप खड़ा हुआ था, जल्‍दी-जल्‍दी) बाबूजी, बाबूजी!

रामस्‍वरूप : क्‍या है?

रतन : कोई आते हैं।

रामस्‍वरूप : (दरवाजे से बाहर झाँककर जल्‍दी मुँह अंदर करते हुए) अरे, ऐ प्रेमा, वे आ भी गए। (नौकर पर नजर पडते ही) अरे, तू यहाँ खड़ा है, बेवकूफ! गया नहीं मक्‍खन लाने?… सब चौपट कर दिया।… अबे, उधर से नहीं, अंदर के दरवाजे से जा (नौकर अंदर आता है।) और तुम जल्‍दी करो, प्रेमा। उमा को समझा देना थोड़ा-सा गा देगी

[ प्रेमा जल्दी से अंदर की तरफ आती है। उसकी धोती जमीन पर रक्‍खे हुए बाजे से अटक जाती है। ]

प्रेमा : उह! यह बाजा वह नीचे ही रख गया है, कमबख्‍त।

रामस्‍वरूप : तुम जाओ, मैं रखे देता हूँ।… जल्‍द!

[ प्रेमा जाती है। बाबू रामस्‍वरूप बाजा उठाकर रखते हैं। किवाड़ों पर दस्‍तक। ]

रामस्‍वरूप : हँ हँ हँ। आइए, आइए… हँ हँ हँ।

[ बाबू गोपालप्रसाद और उनके लड़के शंकर का आना। आँखों से लोक- चतुराई टपकती है। आवाज से मालूम होता है कि काफी अनुभवी और फितरती महाशय हैं। उनका लड़का कुछ खीस निपोरनेवाले नौजवानों में से है। आवाज पतली है और खिसियाहट-भरी। झुकी कमर इनकी खासियत है। ]

रामस्‍वरूप : (अपने दोनों हाथ मलते हुए) हँ हँ, इधर तशरीफ लाइए, इधर…!

[ बाबू गोपालप्रसाद उठते हैं, मगर बेंत गिर पड़ता है। ]

रामस्‍वरूप : यह बेंत!… लाइए, मुझे दीजिए। (कोने में रख देते हैं। सब बैठते हैं।) हँ हँ… मकान ढूँढ़ने में कुछ तकलीफ तो नहीं हुई?

गोपालप्रसाद : (खखारकर) नहीं। ताँगेवाला जानता था।… और फिर हमें तो यहाँ आना ही था; रास्‍ता मिलता कैसे नहीं!

रामस्‍वरूप : हँ हँ हँ, यह तो आपकी बड़ी मेहरबानी है। मैंने आपको तकलीफ तो दी –

गोपालप्रसाद : अरे नहीं साहब। जैसा मेरा काम, वैसा आपका काम। आखिर लड़के की शादी तो करनी ही है। बल्कि यों कहिए कि मैंने आपके लिए खासी परेशानी कर दी।

रामस्‍वरूप : हँ हँ हँ! यह लीजिए, आप तो मुझे काँटों में घसीटने लगे। हम तो आपके हँ हँ हँ – सेवक ही हैं। हँ हँ! (थोड़ी देर बाद लड़के की ओर मुखातिब होकर) और कहिए शंकरबाबू, कितने दिनों की छुट्टियाँ हैं?

शंकर : जी, कालिज की तो छुट्टियाँ नहीं हैं। ‘वीक एंड’ में चला आया था।

रामस्‍वरूप : तो आपके कोर्स खत्‍म होने में तो अब साल-भर रहा होगा?

शंकर : जी, यही कोई साल-दो साल।

रामस्‍वरूप : साल-दो साल!

शंकर : जी, एकाध साल का ‘मार्जिन’ रखता हूँ।

गोपालप्रसाद : बात यह है, साहब कि यह शंकर एक साल बीमार हो गया था। क्‍या बताएँ, इन लोगों को इसी उम्र में सारी बीमारियाँ सताती हैं। एक हमारा जमाना था कि स्‍कूल से आकर दर्जनों कचौड़ियाँ उड़ा जाते थे, मगर फिर जो खाना खाने बैठते तो वैसी-की-वैसी ही भूख!

रामस्‍वरूप : कचौड़ियाँ भी तो उस जमाने में पैसे की दो आती थीं। और अकेले दो आने की हजम करने की ताकत थी, अकेले! और अब तो बहुतेरे खेल वगैरा भी होते हैं स्‍कूल में। तब न बॉलीवाल जानता था, न टेनिस, न बैडमिंटन। बस, कभी हॉकी या कभी क्रिकेट कुछ लोग खेला करते थे। मगर मजाल कि कोई कह जाय कि यह लड़का कमजोर है।

[ शंकर और रामस्‍वरूप खीसें निपोरते हैं। ]

रामस्‍वरूप : जी हाँ, जी हाँ! उस जमाने की बात ही दूसरी थी। हँ हँ!

गोपालप्रसाद : (जोशीली आवाज में) और पढ़ाई का यह हाल था कि एक बार कुर्सी पर बैठा कि बारह घंटे की ‘सिटिंग’ हो गई, बारह घंटे! जनाब मैं सच कहता हूँ कि उस जमाने का मैट्रिक भी वह अंग्रेजी लिखता था फर्राटे की कि आजकल के एम.ए. भी मुकाबला नहीं कर सकते।

रामस्‍वरूप : जी हाँ, जी हाँ! यह तो है ही।

गोपालप्रसाद : माफ कीजिएगा बाबू रामस्‍वरूप, उस जमाने की जब याद आती है, अपने को जब्‍त करना मुश्किल हो जाता है।

रामस्‍वरूप : हँ हँ हँ!… जी हाँ, वह तो रंगीन जमाना था, रंगीन जमाना! हँ हँ हँ।

[ शंकर भी हीं-हीं करता है। ]

गोपालप्रसाद : (एक साथ अपनी आवाज और तरीका बदलते हुए) अच्‍छा तो साहब, फिर ‘बिजनेस’ की बातचचीत हो जाय।

रामस्‍वरूप : (चौंककर) बिजनेस… बिज… (समझकर) ओह… अच्‍छा, अच्‍छा! लेकिन जरा नाश्‍ता तो कर लीजिए।

[ उठते हैं। ]

गोपालप्रसाद : यह सब आप क्‍या तकल्‍लुफ करते हैं?

रामस्‍वरूप : हँ… हँ… हँ, तकल्‍लुफ किस बात का! हँ-हँ! यह तो मेरी बड़ी तकदीर है कि आप मेरे यहाँ तशरीफ लाए; वरना मैं किस काबिल हूँ! हँ – हँ!… माफ कीजिएगा जरा, अभी हाजिर हुआ।

[ अंदर जाते हैं। ]

गोपालप्रसाद : (थोड़ी देर बाद दबी आवाज में) आदमी तो भला है, मकान-वकान से हैसियत भी बुरी नहीं मालूम होती। पता चले, लड़की कैसी है!

शंकर : जी… (कुछ खखारकर इधर-उधर देखता है।)

गोपालप्रसाद : क्‍यों, क्‍या हुआ?

शंकर : कुछ नहीं।

गोपालप्रसाद : झुककर क्‍यों बैठते हो? ब्‍याह तय करने आए हो, कमर सीधी करके बैठो। तुम्‍हारे दोस्‍त ठीक कहते हैं कि शंकर ‘बैकबोन’…

[ इतने में बाबू रामस्‍वरूप आते हैं, हाथ में चाय की ट्रे लिए। मेज पर रख देते हैं। ]

गोपालप्रसाद : आखिर आप माने नहीं!

रामस्‍वरूप : (चाय प्‍याले में डालते हुए) हँ हँ हँ, आपको विलायती चाय पसंद है या हिंदुस्‍तानी?

गोपालप्रसाद : नहीं-नहीं साहब, मुझे आधा दूध और आधी चाय दीजिए। और जरा चीनी ज्‍यादा डालिएगा। मुझे तो भाई, यह नया फैशन पसंद नहीं। एक तो वैसे ही चाय में पानी काफी होता है, और फिर चीनी भी नाम के लिए डाली, तो जायका क्‍या रहेगा?

रामस्‍वरूप : हँ-हँ, कहते तो आप सही हैं। (प्‍याले पकड़ाते हैं।)

शंकर : (खखारकर) सुना है, सरकार अब ज्‍यादा चीनी लेनेवालों पर ‘टैक्‍स’ लगाएगी।

गोपालप्रसाद : (चाय पीते हुए) हूँ। सरकार जो चाहे सो कर ले; पर अगर आमदनी करनी है तो सरकार को बस एक ही टैक्‍स लगाना चाहिए।

रामस्‍वरूप : (शंकर को प्‍याला पकड़ाते हुए) वह क्‍या?

गोपालप्रसाद : खूबसूरती पर टैक्‍स! (रामस्‍वरूप और शंकर हँस पड़ते हैं) मजाक नहीं साहब, यह ऐसा टैक्‍स है, जनाब कि देनेवाले चूँ भी न करेंगे। बस शर्त यह है कि हर एक औरत पर यह छोड़ दिया जाय कि वह अपनी खूबसूरती के ‘स्‍टैंडर्ड’ के माफिक अपने ऊपर टैक्‍स तय कर ले। फिर देखिए, सरकार की कैसी आमदनी बढ़ती है!

रामस्‍वरूप : (जोर से हँसते हुए) वाह-वाह! खूब सोचा आपने! वाकई आजकल यह खूबसूरती का सवाल भी बेढब हो गया है। हम लोगों के जमाने में तो यह कभी उठता भी न था। (तश्‍तरी गोपालप्रसाद की तरफ बढ़ाते हैं।) लीजिए!

गोपालप्रसाद : (समोसा उठाते हुए) कभी नहीं साहब, कभी नहीं।

रामस्‍वरूप : (शंकर को मुखातिब होकर) आपका क्‍या ख्‍याल है, शंकर बाबू?

शंकर : किस मामले में?

रामस्‍वरूप : यही कि शादी तय करने में खूबसूरती का हिस्‍सा कितना होना चाहिए?

गोपालप्रसाद : (बीच में ही) यह बात दूसरी है बाबू रामस्‍वरूप; मैंने आपसे पहले भी कहा था, लड़की का खूबसूरत होना निहायत जरूरी है। कैसे भी हो, चाहे पाउडर वगैरा लगाए, चाहे वैसे ही। बात यह है कि हम आप मान भी जायँ, मगर घर की औरतें तो राजी नहीं होतीं। आपकी लड़की तो ठीक है?

रामस्‍वरूप : जी हाँ, वह तो अभी आप देख लीजिएगा।

गोपालप्रसाद : देखना क्‍या? जब आपसे इतनी बातचीत हो चुकी है, तब तो यह रस्‍म ही समझिए।

रामस्‍वरूप : हँ – हँ, यह तो आपका मेरे ऊपर भारी अहसान है। हँ – हँ!

गोपालप्रसाद : और जायचा (जन्‍म-पत्र) तो मिल ही गया होगा!

रामस्‍वरूप : जी, जायचे का मिलना क्‍या मुश्किल बात है! ठाकुरजी के चरणों में रख दिया। बस खुद-ब-खुद मिला हुआ समझिए।

गोपालप्रसाद : यह ठीक कहा है आपने, बिल्‍कुल ठीक (थोड़ी देर रुककर) लेकिन हाँ, यह जो मेरे कानों में भनक पड़ी है, यह तो गलत है न?

रामस्‍वरूप : (चौंककर) क्‍या?

गोपालप्रसाद : यही पढ़ाई-लिखाई के बारे में।… जी हाँ, साफ बात है साहब, हमें ज्‍यादा पढ़ी-लिखी लड़की नहीं चाहिए। मेमसाहब तो रखनी नहीं, कौन भुगतेगा उनके नखरों को। बस, हद-से-हद मैट्रिक होनी चाहिए…क्‍यों शंकर?

शंकर : जी हाँ, कोई नौकरी तो करानी नहीं।

रामस्‍वरूप : नौकरी का तो कोई सवाल ही नहीं उठता।

गोपालप्रसाद : और क्‍या साहब! देखिए कुछ लोग मुझसे कहते हैं कि जब आपने अपने लड़कों को बी.ए., एम.ए. तक पढ़ाया है तब उनकी बहुएँ भी ग्रेजुएट लीजिए। भला पूछिए इन अक्‍ल के ठेकेदारों से कि क्‍या लड़कों और लड़कियों की पढ़ाई एक बात है। अरे, मर्दों का काम तो है ही पढ़ना और काबिल होना। अगर औरतें भी वही करने लगीं, अंग्रेजी अखबार पढ़ने लगीं और ‘पालिटिक्‍स वगैरह बहस करने लगीं तब तो हो चुकी गृहस्‍थी! जनाब, मोर के पंख होते हैं, मोरनी के नहीं; शेर के बाल होते हैं, शेरनी के नहीं।

रामस्‍वरूप : जी हाँ, मर्द के दाढ़ी होती है, औरत के नहीं। हँ… हँ

[ शंकर भी हँसता है, मगर गोपालप्रसाद गंभीर हो जाते हैं। ]

गोपालप्रसाद : हाँ, हाँ। वह भी सही है। कहने का मतलब यह है कि कुछ बातें दुनिया में ऐसी हैं जो सिर्फ मर्दों के लिए हैं और ऊँची तालीम भी ऐसी ही चीजों में से एक है।

रामस्‍वरूप : (शंकर से) चाय और लीजिए!

शंकर : धन्‍यवाद, पी चुका।

रामस्‍वरूप : (गोपालप्रसाद से) आप?

गोपालप्रसाद : बस साहब, यह खत्‍म ही कीजिए!

रामस्‍वरूप : आपने तो कुछ खाया नहीं। चाय के साथ ‘टोस्‍ट’ नहीं थे। क्‍या बताएँ, वह मक्‍खन –

गोपालप्रसाद : नाश्‍ता ही तो करना था साहब, कोई पेट तो भरना था नहीं; और फिर टोस्‍ट-वोस्‍ट मैं खाता भी नहीं।

रामस्‍वरूप : हँ…हँ (मेज को एक तरफ सरका देते हैं। अंदर के दरवाजे की तरफ मुँह कर जरा जोर से) अरे जरा पान भिजवा देना…! सिगरेट मँगाऊँ?

गोपालप्रसाद : जी नहीं।

[ पान की तश्‍तरी हाथों में लिए उमा आती है। सादगी के कपड़े, गर्दन झुकी हुई। बाबू गोपालप्रसाद आँखें गड़ाकर और शंकर आँखें छिपाकर उसे ताक रहे हैं। ]

रामस्‍वरूप : हँ… हँ!… यह… हँ… हँ, आपकी लाड़की है? लाओ बेटी, पान मुझे दो।

[ उमा पान की तश्‍तरी अपने पिता को देती है। उस समय उसका चेहरा ऊपर को उठ जाता है और नाक पर रक्‍खा हुआ सोने की रिमवाला चश्‍मा दीखता है। बाप-बेटे दोनों चौंक उठते हैं। ]

गोपालप्रसाद

शंकर : (एक साथ) – चश्‍मा !

रामस्‍वरूप : (जरा सकपकाकर) – जी, वह तो… वह… पिछले महीने में इसकी आँखें दुखने आ गई थीं, सो कुछ दिनों के लिए चश्‍मा लगाना पड़ रहा है।

गोपालप्रसाद : पढ़ाई-वढ़ाई की वजह से तो नहीं है?

रामस्‍वरूप : नहीं साहब; वह तो मैंने अर्ज किया न!

गोपालप्रसाद : हूँ (संतुष्‍ट होकर कुछ कोमल स्‍वर में) बैठो बेटी!

रामस्‍वरूप : वहाँ बैठ जाओ, उमा, उस तख्‍ते पर, अपने बाजे-बाजे के पास।

[ उमा बैठती है। ]

गोपालप्रसाद : चाल में तो कुछ खराबी है नहीं। चेहरे पर भी छवि है!… हाँ, कुछ गाना- बजाना सीखा है?

रामस्‍वरूप : जी हाँ, सितार भी, और बाजा भी। सुनाओ तो उमा, एकाध गीत सितार के साथ।

[ उमा सितार उठाती है। थोड़ी देर बाद मीरा का मशहूर गीत ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ गाना शुरू कर देती है। स्‍वर से जाहिर है कि गाने का अच्‍छा ज्ञान है। उसके स्वर में तल्‍लीनता आ जाती है, यहाँ तक कि उसका मस्‍तक उठ जाता है। उसकी आँखें शंकर की झेंपती-सी आँखों से मिल जाती हैं और वह गाते-गाते एक साथ रुक जाती है। ]

रामस्‍वरूप : क्‍यों, क्‍या हुआ? गाने को पूरा करो, उमा!

गोपालप्रसाद : नहीं-नहीं साहब, काफी है। लड़की आपकी अच्‍छा गाती है।

[ उमा सितार रखकर अंदर जाने को उठती है। ]

गोपालप्रसाद : अभी ठहरो, बेटी!

रामस्‍वरूप : थोड़ा और बैठी रहो, उमा! (उमा बैठती है)

गोपालप्रसाद : (उमा से) तो तुमने पेंटिंग-वेंटिग भी…?

उमा : (चुप)

रामस्‍वरूप : हाँ, वह तो मैं आपको बताना भूल ही गया। यह जो तसवीर टँगी हुई है, कुत्तेवाली, इसी ने खींची है; और वह दीवार पर भी।

गोपालप्रसाद : हूँ। यह तो बहुत अच्‍छा है; और सिलाई वगैरा?

रामस्‍वरूप : सिलाई तो सारे घर की इसी के जिम्‍मे रहती है; यहाँ तक कि मेरी कमीजें भी। हँ… हँ… हँ…

गोपालप्रसाद : ठीक!… लेकिन, हाँ बेटी, तुमने कुछ इनाम-विनाम भी जीते हैं?

[ उमा चुप। रामस्‍वरूप इशारे के लिए खाँसते हैं। लेकिन उमा चुप है, उसी तरह गर्दन झुकाए। गोपालप्रसाद अधीर हो उठते हैं और रामस्‍वरूप सकपकाते हैं! ]

रामस्‍वरूप : जवाब दो, उमा! (गोपाल से) हँ हँ, जरा श्‍रमाती है। इनाम तो इसने…

गोपालप्रसाद : (जरा रूखी आवाज में) जरा इसे भी तो मुँह खोलना चाहिए।

रामस्‍वरूप : उमा, देखो, आप क्‍या कह रहे हैं। जवाब दो न!

उमा : (हल्‍की लेकिन मजबूत आवाज में) क्‍या जवाब दूँ, बाबूजी! जब कुर्सी-मेज बिकती है, तब दुकानदार कुर्सी-मेज से कुछ नहीं पूछता, सिर्फ खरीदार को दिखला देता है। पसंद आ गई तो अच्‍छा है, वरना…

रामस्‍वरूप : (चौंककर खड़े हो जाते हैं।) उमा, उमा!

उमा : अब मुझे कह लेने दीजिए, बाबूजी!… ये जो महाशय मेरे खरीदार बनकर आए हैं, इनसे जरा पूछिए कि क्‍या लड़कियों के दिल नहीं होता? क्‍या उनके चोट नहीं लगती? क्‍या वे बेबस भेड़-बकरियाँ हैं, जिन्‍हें कसाई अच्‍छी तरह देख-भालकर खरीदते हैं?

गोपालप्रसाद : यह तो हमारी बेइज्जती…

उमा (ताव में आकर) जी हाँ; हमारी बेइज्जती नहीं होती जो आप इतनी देर से नाप-तोल कर रहे हैं? और जरा अपने इस साहबजादे से पूछिए कि अभी पिछली फरवरी में ये लड़कियों के होस्‍टल के इर्द-गिर्द क्‍यों घूम रहे थे, और वहाँ से क्‍यों भगाए गए थे!

शंकर : बाबूजी, चलिए!

गोपालप्रसाद : लड़कियों के होस्टल में?… क्‍या तुम कालेज में पढ़ी हो?

[ रामस्‍वरूप चुप! ]

उमा : जी हाँ, मैं कालेज में पढ़ी हूँ। मैंने बी.ए. पास किया है। कोई पाप नहीं किया, कोई चोरी नहीं की, और न आपके पुत्र की तरह ताक-झाँककर कायरता दिखाई है। मुझे अपनी इज्जत – अपने मान का खयाल तो है। लेकिन इनसे पूछिए कि ये किस तरह नौकरानी के पैरों पड़कर अपना मुँह छिपाकर भागे थे!

रामस्‍वरूप : उमा! उमा!

गोपालप्रसाद : (खड़े होकर गुस्‍से से) बस, हो चुका। बाबू रामस्‍वरूप, आपने मेरे साथ दगा दगा की। की। आपकी लड़की बी.ए. पास है, और आपने मुझसे कहा था कि सिर्फ मैट्रिक तक पढ़ी है। लाइए, मेरी छड़ी कहाँ है। मैं चलता हूँ। (छड़ी ढूँढ़कर उठाते हैं।) बी.ए. पास? ओफ्फोह! गजब हो जाता! झूठ का भी कुछ ठिकाना है! आओ बेटे, चलो… (दरवाजे की ओर बढ़ते हैं।)

उमा : जी हाँ, जाइए, जरूर चले जाइए! लेकिन घर जाकर जरा यह पता लगाइएगा कि आपके लाड़ले बेटे के रीढ़ की हड्डी भी है या नहीं – यानी बैकबोन, बैकबोन –

[ बाबू गोपालप्रसाद के चेहरे पर बेबसी का गुस्‍सा है और उनके लड़के के रुआँसापन। दोनों बाहर चले जाते हैं। बाबू रामस्‍वरूप कुर्सी पर धम से बैठ जाते हैं। उमा सहसा चुप हो जाती है। लेकिन उसकी हँसी सिसकियों में तबदील हो जाती है। प्रेमा का घबराहट की हालत में आना। ]

प्रेमा : उमा, उमा… रो रही है?

[ यह सुनकर रामस्‍वरूप खड़े होते हैं। रतन आता है। ]

रतन : बाबूजी, मक्‍खन!

[ सब रतन की तरफ देखते हैं और परदा गिरता है। ]
                              इति शुभम
                                                                       बंदी

 

पात्र

                                                             रायसाहब : हाई कोर्ट के जज

                                                            हेमलता : रायसाहब की लड़की

                                                           आया :

                                                          चेतू [चेतराम] : गाँव का मजदूर

                                                          वीरेन : प्रगतिशील विचार-धारा का एक [ग्रेजुएट] युवक

                                                          बालेश्‍वर : गाँव के अर्धशिक्षक नवयुवक

                                                         करमचन्‍द : गाँव के अर्धशिक्षक नवयुवक

                                                        लोचन : गाँव का एक साहसी युवक, वीरेन का सहपाठी
[उत्तर भारत के एक गाँव में एक बड़े घराने के बँगले का बगीचा। पृष्‍ठभूमि में मकान की झलक। मकान में जाने के लिए बायीं तरफ से रास्‍ता है और बाहर जाने के लिए दाहिनी तरफ। समय चैत्र पूनो की संध्‍या। चाँदनी का साम्राज्‍य गोधूलि वेला में ही फैल रहा है। राय तारानाथ हेमलता के साथ एक स्‍थान की ओर संकेत करते हुए आते हैं।]

रायसाहब

:

और यही वह स्‍थान है जहाँ तुम्‍हारी माँ पूजा के बाद तुलसी जी को पानी चढ़ाने आती और मैं…

हेमलता

:

आप तो नास्तिक रहे होंगे, पापा?

रायसाहब

:

तुम्‍हारी माँ को चिढ़ाने के लिए। लेकिन उसकी श्रद्धा अडिग थी। और तभी मैं बगीचे के किसी कोने में… शायद वही तो… वह देखती हो न पत्‍थर?

हेमलता

:

याद है।

रायसाहब

:

क्‍या याद है?

हेमलता

:

कि उस पत्‍थर पर बैठकर आप मुझे सितारों की कथा सुनाया करते थे। [रुक कर मानो कुछ याद आयी हो] पापा, कलकत्ते में सितारों भरा आसमान मानो मेरे मन के कोने में दुबका पड़ा रहता था, लेकिन यहाँ [स्निग्‍ध स्‍वर] गाँव आते ऐसे ही खिला पड़ता है, जैसे आज इस चैत्र पूनो की चाँदनी।

रायसाहब

:

आसमान भी खिला पड़ता है और तुम्‍हारा मन भी, बेटी। [हँसता है। कुछ रुक कर] बजा क्‍या है? [आहिस्‍ता से] गाड़ी का तो वक्‍त हो गया होगा?

हेमलता

:

आप भी पापा। [रूठ कर] समझते हैं कि मुझे यूँ तो चाँदनी भाती ही नहीं, सिर्फ…

रायसाहब

:

[बात पूरी करते हुए] वीरेन की इन्‍तजारी की घड़ी में ही खिली पड़ती है। [हँसते हैं।] बुराई क्‍या है? वीरेन भला लड़का है, इसलिए तो यहाँ आने का न्‍योता दिया है उसे। देखूँ गाँव की आभा उसके मन चढ़ती है या नहीं?

हेमलता

:

जैसे जन्‍म से ही शहर की धूल फाँकी हो।

रायसाहब

:

वही समझो। कहता था न कि बचपन में पिता के मरने पर बरेली चला गया और उसके बाद लखनऊ और तब कलकत्ता…

हेमलता

:

मुझे भी तो आप बचपन में ही कलकत्ते ले गये और अब लाए हैं गाँव पहली बार…

रायसाहब

:

मैं तुम्‍हें लाया हूँ बेटी या तुम मुझे?

हेमलता

:

पापा, आते ही मैं तो यहाँ की हो गयी। न जाने कितने युगों का नाता जुड़ गया। [उल्‍लासपूर्ण स्‍वर] यह हमारा घर, पुरानी कोठी, जिसकी दीवार में पड़ी दरारें मुस्‍कान भरे मुखड़े की सिलवटें हैं। ये दूर-दूर तक फैले हुए खेत, जिन पर दबे पाँव दौड़ते-दौड़ते हवा उन पर निछावर हो जाती है और यह चाँदनी जो जितनी हँसती है उतना ही छिपाती भी है। [तन्‍मय] कलकत्ते में चैत्र की चाँदनी और ईद के चाँद में कोई अन्‍तर नहीं होता। लेकिन यहाँ, झोपडि़यों पर बाँस के झुरमुटों में, खेत-खलिहान पर, बे-हिसाब, बे-जुबान, बे-झिझक चाँदनी की दौलत बिखरी पड़ रही है। ओह, पापा!
[अपरिमित सुखानुभूति का मौन]

आया

:

[नेपथ्‍य में] हेम बीबी, चाय तैयार है।

रायसाहब

:

चाय! इतनी देर में?

हेमलता

:

आया की जि़द! कहती है सर्दी हो चली है, थोड़ी चाय पी लो।

[मकान की ओर रुख करके] यहीं ले आओ आया, बगीचे में। और दो मूढ़े भी।

रायसाहब

:

[स्‍मृति के सागर में उतराते हैं] सोचता हूँ कि अगर तुम्‍हारी माँ तुम्‍हारी तरह बोल या लिख पाती तो वह भी कवि या तुम्‍हारी तरह आर्टिस्‍ट होती।

हेमलता

:

अगर माँ बोल पाती तो आपको कलकत्ते न जाने देती!

रायसाहब

:

रोका था। दो-चार आँसू भी गिराये थे। लेकिन क्‍या तुम सच मान सकती हो हेम, कि मैं न जाता? कैसे न जाता? सारे कैरियर का सवाल था। यह जमींदारी उन दिनों भरी-पुरी थी, लेकिन आखिर को ले न डूबती मुझे अपने साथ!

हेमलता

:

काश, इस गाँव में ही हाई कोर्ट होता। यहीं आप वकालत करते और यहीं जज हो जाते।

रायसाहब

:

वाह बेटी! तब तो यहीं वह बड़ा अस्‍पताल भी होता जहाँ तुम्‍हारी माँ की लम्‍बी बीमारी का इलाज हुआ था और यहीं वह कालेज और हाई स्‍कूल होते, जहाँ तुम्‍हारी शिक्षा-दीक्षा हुई और यहीं वे थियेटर-सिनेमा… [आया का प्रवेश। हाथ में ट्रे। अपनी धुन में बात करती है]

आया

:

यही तो मैं कहती थी सरकार! इस देहात में कैसे हेम बिटिया की तबियत लगेगी। सनीमा नहीं, थेटर नहीं, क्‍लब नहीं। [पीछे की तरफ देखकर पुकारती हुई] अरे ओ चेतुआ, किधर ले गया मेज?… देहात का आदमी, समझ भी तो मोटी है! [चेतुआ एक हाथ में छोटी-सी टेबल और एक में मूढ़ा लिए हुए आता है।] उधर रख… हाँ बस [मेज पर चाय की ट्रे रख देती है। चाय बनाती हुई] आपके लिए भी बनाऊँ सरकार?

रायसाहब

:

[कुछ अनिश्चित-से मूढ़े पर बैठते हुए] मे…रे…लिए…

आया

:

[चेतुआ को खड़ा देखकर] अरे खड़ा क्‍यों है? दूसरा मूढ़ा तो उठा ला दौड़कर।

चेतराम

:

[जाते हुए] अभी लाया जी!

आया

:

[प्‍याला देती हुई] लो बीबी जी, गर्म कपड़ा नहीं पहना तो गर्म चाय तो लो।

हेमलता

:

तुम तो आया समझती हो कि जैसे हम बरफ की चोटी पर बैठे हैं!

आया

:

[दूसरा प्‍याला बनाते हुए] नहीं हेम बीबी, देहात की हवा शहरवालों के लिए चंडी होती है चंडी!

हेमलता

:

तुम भी तो देहात ही की हो आया।

आया

:

अब तीन चौथाई जिन्‍दगानी तो गुजर गयी आप लोगों के संग [चाय का प्‍याला राय साहब की ओर बढ़ाते हुए] लीजिए सरकार! [राय साहब को देख, कुछ चौंक कर] अरे!

रायसाहब

:

[प्‍याला लेते हुए] क्‍यों क्‍या हुआ?

आया

:

आप भी सरकार गजब करते हैं। यहाँ खुले में आप यों ही बैठे हैं।
[घर की तरफ तेजी से बढ़ती है]

हेमलता

:

किधर चली, आया?

आया

:

[जल्‍दी से] ड्रेसिंग गाउन लेने।… साहब का बेरा कलकत्ते से आता तो ऐसी गफलत नहीं होती।
[चली जाती है]

रायसाहब

:

हा हा हा [ठहाका मारते हैं] गुड ओल्‍ड आया! [चाय पीते हुए] समझती है कि सारी दुनिया नादान बच्‍चों का झुंड है और अकेली वह माँ है।

हेमलता

:

क्‍या सच उसे देहात नहीं सुहाता, पापा? मैं नहीं मान सकती। मगर… [चेतू मूढ़ा ले आया है।] यहीं रख दो मूढ़ा मेज के पास।

रायसाहब

:

मुझे ये पुराने मूढ़े पसन्‍द हैं। कमर बिलकुल ठीक एंगिल में बैठती है। [चेतू को रोककर] ए, क्‍या नाम है तुम्‍हारा?

चेतराम

:

जी, चेतराम।

रायसाहब

:

कहार हो?

चेतराम

:

मुसहर हूँ, सरकार।

रायसाहब

:

मुसहरों की तो एक बस्‍ती थी करीब ही कहीं, गन्‍दी-सड़ी। बाप का नाम?

चेतराम

:

कमतूराम! – अ ब गन्‍दगी नहीं सरकार!

रायसाहब

:

अरे, तू कमतू का लड़का है?

हेमलता

:

क्‍यों नहीं है अब गन्‍दी बस्‍ती?
[आया का प्रवेश]

आया

:

लीजिए सरकार ड्रेसिंग गाउन, जब बैठना ही है यहाँ खुले में तो… अरे तू यहीं खड़ा है चेतू?

रायसाहब

:

[ड्रेसिंग गाउन पहनते हुए] आया, यह तो उसी कमतू का लड़का है जो 15 बरस पहले यहाँ…

आया

:

हाँ, सरकार मैंने तो उसे ही बुलाया था, मगर उसने लड़के को भेज दिया। खैर, जाने-पहचाने का लड़़का है। चोरी-ओरी करेगा तो पकड़ना मुश्किल नहीं।

हेमलता

:

तुम तो, आया…।

आया

:

अरे हाँ बीबी जी, अब ये देहाती सीधे-सादे नहीं रहे। हमारे-तुम्‍हारे कान काटते हैं। चेतू चाय की ट्रे लेकर जल्‍दी आना। पलंग-वलंग ठीक करने हैं [चलते-चलते] देखूँ बावर्ची ने खाना भी तैयार किया कि नहीं।

रायसाहब

:

डीयर ओल्‍ड आया।

[आया जाती है। रायसाहब चाय की चुस्‍की लेते हैं।]

हेमलता

:

चेतराम!

चेतराम

:

जी बीबी जी।

हेमलता

:

मुसहर बस्‍ती में अब गन्‍दगी नहीं! क्‍यों?

चेतराम

:

बस्‍ती ही बह गयी सरकार!

रायसाहब

:

बह गयी?

चेतराम

:

पिछले साल बहुत जोर की बाढ़ आयी। हमारी तो बस्‍ती ही खत्‍म हो गयी। चालीस घर थे। मेरे दादा के पास धनहर खेत था आठ कट्ठा। जैसे-तैसे महाजन से छुड़ाया। वह भी बालू में पड़ गया। और कान्‍हू काका की चार बकरी थी। सब पानी…

रायसाहब

:

सरकारी मदद मिली?

चेतराम

:

बातचीत तो चल रही है… पर अब तो हम लोग पहाड़ी की तलहटी में चले गये हैं। नयी टोली बस रही है।

रायसाहब

:

ओ हो, बड़े जोम हैं। लेकिन वहाँ तो ऊसर जमीन है। खेती की गुंजायश कहाँ?

चेतराम

:

मुश्किल तो हुई सरकार। पर बारी-बारी से दस-दस जन मिल कर तैयार करते हैं। एक बाँध बन जाए तो बेड़ा पार है सरकार।

रायसाहब

:

हिम्‍मत तो बहुत की तुम लोगों ने!

हेमलता

:

लेकिन है मुसीबत ही। रोज का खाना-पीना कैसे चलता होगा इन लोगों का?

रायसाहब

:

यही, नौकरी-मजूरी। जब मिल जाय।

चेतराम

:

वह तो हई सरकार! पर अब तो बाँस का काम करने लगे हैं। हाट-बाजार में बिक जाता है। इनसे भी बढ़िया मूढ़े बनाने लगे हैं।

रायसाहब

:

अच्‍छा? लाना भई हमारे लिए भी एक सेट।

चेतराम

:

जरूर सरकार! दादा तो इसी में लगे रहते हैं रात-दिन। मैंने भी टोकरी बनाना सीख लिया है, रंग-बिरंगी। लोचन भैया को बहुत पसन्‍द है। कहते हैं सहर में तो बहुत बिकेंगी…

हेमलता

:

तो तुम्‍हारे भाई भी हैं?

चेतराम

:

[हँसता है] न बीबी जी! लोचना भैया? लोचन भैया तो… सबके भैया हैं! कहते हैं…

रायसाहब

:

जगत भैया!

आया

:

[नेपथ्‍य में] चेतू, ओ चेतू!

चेतराम

:

चाय ले जाऊँ, सरकार?

रायसाहब

:

हाँ, और तो नहीं लोगी हेम?

हेमलता

:

ऊँ…हाँ…हँ…नहीं। ले जाओ!
[चेतू ले जाता है। रायसाहब ड्रेसिंग गाउन की जेब में हाथ डालकर घूमने लगते हैं।]

रायसाहब

:

तो यह है इन लोगों की जिन्‍दगी। गरीब भी और गन्‍दे भी। उन दिनों तो उस टोली में बिना नाक बंद किये जाना हो ही नहीं सकता था। बाप इसका मेहनती था। असल में काम करने में पक्‍के हैं ये लोग, लेकिन हैं जाहिल!

हेमलता

:

पापा, आपको याद है हमारे आर्ट मास्‍टर ने वह तस्‍वीर बनायी थी ‘किसान की साँझ’ – कंधे पर हल, आगे थैला, थका-माँदा किसान, साँझ की चित्ताकर्षक रंगीनी में भी निर्लिप्‍त…

रायसाहब

:

पाँच सौ रुपये दाम रखा था न उन्‍होंने उसका?

हेमलता

:

पापा, आपने गौर किया इस चेतराम की शक्‍ल उससे मिलती है… मास्‍टर साहब कहते थे देहाती जिन्‍दगी और दृश्‍यों में अनगिनती मास्‍टर-पीसेज के बीज बिखरे पड़े हैं। एक-एक चेहरे में सदियों का अवसाद है। एक-एक झाँकी में युगों की गहराई। अमृता शेरगिल…

रायसाहब

:

अमृता शेरगिल… भई, उसकी तसवीरों पर तो मातम-सा छाया रहता है।

हेमलता

:

वह तो अपना-अपना एटीट्यूड है। अपनी भंगिमा! लेकिन पापा, यह तो मानिएगा कि शेरगिल के रंगों में भारत के गाँव की मिट्टी झलक रही है। पापा, मुझे लगता है जैसे मेरी कूची, मेरे ब्रश को यहाँ आकर नयी दृष्टि मिली हो। कितने चित्र मैं यहाँ खींच सकती हूँ? पकते हुए गेहूँ के खेत में चकित-सी किसान बाला। रंग-बिरंगी बाँस की टोकरियाँ बनाता हुआ इसी चेतराम का बाप! सबेरे की किरन में घुली-घुली-सी गाय को दुहता हुआ ग्‍वाला…

रायसाहब

:

और यह चाँदनी! [हँसता है] मगर हेम, वह चित्र भी तैयार हुआ या नहीं?

हेमलता

:

कौन-सा?

रायसाहब

:

अरे वही… खास चित्र!

हेमलता

:

पापा आप तो [शर्मीली-सी] लेकिन बीरेन ने पन्‍द्रह मिनट भी तो लगातार सिटिंग नहीं दी। इधर से उधर फुदकते फिरते थे।

रायसाहब

:

इस वक्‍त भी जान पड़ता है कहीं फुदक ही रहे हैं, हजरत।…

हेमलता

:

आपने भी फिजूल भेजा ताँगा। जिसके पैर में ही सनीचर हो…

[बीरेन पीछे से हठात् निकलता है।]

बीरेन

:

सनीचर नहीं आज तो शुक्र है। कहीं इसी वजह से तुम ताँगा भेजना नहीं भूल गयीं?

हेमलता

:

बीरेन!

रायसाहब

:

बीरेन? अरे! क्‍या तुम्‍हें ताँगा नहीं मिला स्‍टेशन पर?…

बीरेन

:

नमस्‍ते पापा जी। जी, मुझे ताँगा नहीं मिला, शायद…

रायसाहब

:

अजब अहमक है यह साईस। रास्‍ता तो एक ही है।

बीरेन

:

लेकिन कोई बात नहीं। मेरा भी एक काम बन गया।

रायसाहब

:

सामान कहाँ है?

हेमलता

:

चेतू! [पुकारते हुए] आया, चेतू को भेजना! सामान…

बीरेन

:

सामान तो चौधरी जंगबहादुर की देख-रेख में स्‍टेशन ही छोड़ आया हूँ।

रायसाहब

:

यानी मिल गये तुम्‍हें भी चौधरी जंगबहादुर।

हेमलता

:

वही न पापा, जो हर गाड़ी पर किसी न किसी आने वाले को लेने के लिए जाते हैं?

बीरेन

:

या किसी न किसी जाने वाले को पहुँचाने। मगर यह भी निराला शौक है कि बिला नागा हर गाड़ी पर स्‍टेशन जा पहुँचना।

रायसाहब

:

दो ही तो गाड़ी आती है इस छोटे स्‍टेशन पर, लेकिन चौधरी की वजह से उस सूने स्‍टेशन पर रौनक हो जाती है।

बीरेन

:

जी हाँ, जब तक उनसे मुलाकात नहीं हुई तब तक तो मुझे भी लगा कि पैसिफि़क सागर के टापू पर बहक गया हूँ।

हेमलता

:

यहाँ चौरंगी की चहल-पहल की उम्‍मीद करना तो बेकार था बीरेन!

बीरेन

:

[ठहाका] याद है न बेकन की वह उक्ति, ‘भीड़ के बीच में भी चेहरे गूँगी तसवीरें जान पड़ते हैं और बातचीत घंटियाँ, अगर कोई जाना-पहचाना न हो।’ लेकिन तुमने यह कैसे समझ लिया कि मुझे वीराना पसन्‍द नहीं।… मैं तो चौधरी साहब से भी पल्‍ला छुड़ा कर भागा।

रायसाहब

:

तो शायद उन्‍होंने तुम्‍हें समूची दास्‍तान सुनानी शुरू कर दी होगी।

बीरेन

:

जी हाँ, यह बताया कि वे साल भर में एक बार, सिर्फ एक बार, कलकत्ते की रेस में बाजी लगाने जाते हैं। यह भी बताया कि गवर्नर साहब के जिस डिनर में उन्‍हें बुलाया गया था, उसका निमंत्रण पत्र अब भी उनके पास है और यह कि इस गाँव में अब तक जितनी बार कलक्‍टर आए हैं उनके दिन और तारीखें उन्‍हें पूरी तरह याद हैं।

हेमलता

:

गजब है!

रायसाहब

:

हाँ भाई, चौधरी की याददाश्‍त लाज़वाब है।

बीरेन

:

याददाश्‍त की दुनिया में ही रहते जान पड़ते हैं! इसलिए जब उन्‍होंने स्‍टेशन पर सामान की देखभाल का जिम्‍मा लिया तो मैंने भी छुटकारे की साँस ली और रास्‍ता छोड़कर खेतों की राह बस्‍ती की ओर चल दिया।
[आया का प्रवेश]

आया

:

बीरेन बाबू, पहले गर्म चाय पीजिएगा या फिर खाने का ही इंतजाम…

बीरेन

:

ओ, हलो आया कैसी हो?

आया

:

मैं तो मजे ही में हूँ। लेकिन आपके आने से हमारी हेम बीबी के लिए चहल-पहल हो गयी वरना…

हेमलता

:

वरना क्‍या? मुझे तो कलकत्ते की चहल-पहल से यहाँ का सूना संगीत ही भाता है।

रायसाहब

:

आया, हेम की उलटबाँसियाँ तुम न समझोगी।

बीरेन

:

लेकिन, आया, अब मैं इस जंगल में मंगल करने वाला हूँ।

आया

:

भगवान वह दिन भी जल्‍दी दिखावें। मैं तो हेम बिटिया…

हेमलता

:

चुप भी रहो, आया!

रायसाहब

:

[ठहाका] हा, हा, हा।

बीरेन

:

मैं दूसरी बात कह रहा था। मेरा मतलब है इस गाँव की काया-पलट करना। यह गाँव मेरा इंतजार कर रहा है, जैसे… जैसे…

हेमलता

:

जैसे वीणा के तार उस्‍ताद की उँगलियों का [किंचित हास] खूब!

रायसाहब

:

[हँसते हुए] हा, हा, हा! बीरेन, है न मेरी बिटिया लाजवाब?

बीरेन

:

लेकिन वीणा के सुर में वह मस्‍ती कहाँ जो एक नयी दुनिया के निर्माण में है?

हेमलता

:

[व्‍यंग्‍य] कोलम्‍बस!

रायसाहब

:

नयी दुनिया का निर्माण। यह तो दिलचस्‍प बात जान पड़ती है बीरेन! सुनें तो…

बीरेन

:

जिस रास्‍ते से… शार्टकट से… में आया हूँ, उससे लगी हुई जो जमीन है, थोड़ी ऊँची और समतल, उसे देख कर मेरी तबीयत फड़क गयी और मैंने तय कर लिया कि…

आया

:

बीरेन बाबू!

बीरेन

:

[अपनी बात जारी रखते हुए] कि बिलकुल आइडियल रहेगी वह जगह! बिलकुल मानो उसी के लिए तैयार खड़ी हो…

रायसाहब

:

किसके लिए?

आया

:

सरकार, बीरेन बाबू की बातें तो सावन की झरी हैं, पर मुझे तो बहुतेरा काम पड़ा है।

हेमलता

:

[चंचल] इन्‍हें खाना मत देना आया!

बीरेन

:

[उसी धुन में] मैं कहता हूँ पापाजी उससे बेहतर जगह…

रायसाहब

:

ना, भई, बीरेन! पहले आया का हुक्‍म मान लो। हेम, कमरा इन्‍हें दिखा दो। गर्म पानी का इन्‍तजाम तो होगा ही। जब तैयार हो जाएँ और खाना भी, तो आया, मुझे खबर दे देना।

आया

:

लेकिन इस मौसम में बाहर रहिएगा देर तक तो…

रायसाहब

:

बस अभी आया। चौधरी साहब इस बीच में आयें तो दो बात उनसे भी कर लूँगा।

बीरेन

:

[जाते-जाते] लेकिन, पापाजी, आप गौर करे देखिए, ग्रामोद्धार-समिति के लिए पहाड़ की तलहटी वाली जमीन से मौजूँ और कोई जगह हो ही नहीं सकती। मैंने उन लोगों से…

[जाता है]

रायसाहब

:

ग्रामोद्धार-समिति! ख्‍याल तो अच्‍छा है। एक जमाने में मैंने भी… [सामने देखकर] कौन? चेतू। अरे तू यहाँ कैसे खड़ा है?

चेतू

:

सरकार…
[रुक जाता है।]

रायसाहब

:

क्‍या गर्म पानी तैयार नहीं?

चेतू

:

कर आया सरकार! कमरा भी साफ है।

रायसाहब

:

ठीक।

चेतू

:

सरकार!
[झिझक कर रुक जाता है।]

रायसाहब

:

क्‍या बात है चेतू?

चेतू

:

सरकार वह तलहटी वाली जमीन!

रायसाहब

:

कौन जमीन?

चेतू

:

जी नये साहब जिसे लेने की सोच रहे हैं।

रायसाहब

:

अरे बीरेन! अच्‍छा वह जमीन, जहाँ वह ग्रामोद्धार-समिति बैठायेंगे।

चेतू

:

लेकिन सरकार, उस पर तो हम लोग अपना नया बसेरा कर रहे हैं। आठ-दस बाँस की कोठियाँ-झुरमुट-लग जाएँ तो बेड़ा पार हो जाय।

रायसाहब

:

अरे तुम मुसहरों का क्‍या? जहाँ बैठ जाओगे, बसेरा हो जाएगा, लेकिन गाँव में जो उद्धार के लिए काम होगा… [घोड़े की टापों और ताँगे की आवाज] यह क्‍या? ताँगा आ गया क्‍या? देख भई, बीरेन बाबू का सामान उतार ला। [चेतू बाहर जाता है। ताँगा रुकने की आवाज] चौधरी साहब हैं क्‍या?

बालेश्‍वर

:

[बाहर ही से बोलता हुआ आता है।] जी, चौधरी साहब ने ही मुझे भेजा है सामान के साथ। मेरा नाम बालेश्‍वर है, बी.पी. सिन्‍हा। और ये हैं करमचन्‍द बरैठा। [करमचन्‍द नमस्‍ते करता है।] बच्‍चू बाबू के चचेरे भाई हैं। मैं चौधरी साहब का भतीजा हूँ।

रायसाहब

:

कहाँ रह गये चौधरी साहब?

बालेश्‍वर

:

जी ताँगे में आने की वजह से उनके घूमने का कोटा पूरा नहीं हुआ तो फिर से घूमने गये हैं।

रायसाहब

:

[हँसते हुए] खूब!

करमचन्‍द

:

हम लोगों ने सोचा कि आपका सामान भी पहुँचा दें और आपके दर्शन भी हो जायें।

बालेश्‍वर

:

बात यह है कि देहात में कोई ‘लाइफ’ नहीं।

करमचन्‍द

:

जब से शहर से लौटे हैं, जान पड़ता है कि बंदी बन गये हैं। ‘ट्रांस्‍पोर्टेशन आफ लाइफ!’

रायसाहब

:

क्‍या करते थे शहर में?

बालेश्‍वर

:

करमचन्‍द तो इंटरमीडिएट तक पढ़ कर लौट आये और मैं…

करमचन्‍द

:

बात यह है कि इम्‍तहान के परचे ही बेढंगे बनाये थे किसी ने।

बालेश्‍वर

:

मैं तो बी.ए. कर रहा था और एक दफ्तर में किरानी की नौकरी के लिए भी दरख्‍वास्‍त दे दी थी, मगर सिफारिश की कमी की वजह से…

रायसाहब

:

किरानी? तुम्‍हारे यहाँ तो कई बीघे खेती होती है।

बालेश्‍वर

:

पढ़ाई-लिखाई के बाद भी खेती! पढ़े फारसी बेचे तेल।

करमचन्‍द

:

और फिर शहर की लाइफ की बात ही और है। खाने के लिए होटल, सैर के लिए मोटर, तमाशे के लिए सिनेमा।

रायसाहब

:

रहते कहाँ थे?

बालेश्‍वर

:

शहर में रहने का क्‍या? चार अंगुल का कोना भी काफी है।

करमचन्‍द

:

शहर की सड़कें यहाँ के बैठकखाने से कम नहीं। वह चहल-पहल वह रंगीनियाँ!

रायसाहब

:

भई, यह तो तुम लोग गलत कहते हो। मैंने अपने बचपन और जवानी के अनेक सुहाने बरस यहाँ गुजारे हैं।

बालेश्‍वर

:

तब बात और रही होगी, जज साहब!

करमचन्‍द

:

और फिर छोटी उम्र में शहर की मनमोहक जिन्‍दगी से गाँव का मिलान करने का मौका कहाँ मिलता होगा।

रायसाहब

:

मनमोहन… खैर। आजकल क्‍या शगल रहता है?

करमचन्‍द

:

गले पड़ी ढोलकी बजावे सिद्ध! सोचा कुछ पढ़े-लिखे, जानकार लोगों का क्‍लब ही बना लें।

बालेश्‍वर

:

वह भी तो नहीं करने देते लोग।

रायसाहब

:

कौन लोग?

करमचन्‍द

:

इस गाँव की पालिटिक्‍स आपको नहीं मालूम?

रायसाहब

:

यहाँ भी पालिटिक्‍स है?

बालेश्‍वर

:

जबरदस्‍त! बात यह है कि मैं और करमचन्‍द तो ढंग से क्‍लब चलाना चाहते हैं। प्रेजीडेंट, दो वाइस-प्रेजीडेंट, एक सेक्रेटरी, दो ज्‍वायंट-सेक्रेटरी, पाँच कमेटी मेंबर।

करमचन्‍द

:

जी हाँ, यह देखिए! [एक कागज निकाल कर रायसाहब को दिखाता है] इस तरह लेटर-पेपर छपवाने का इरादा है। ऊपर क्‍लब का नाम रहेगा और… यहाँ हाशिए में सब पदाधिकारियों के नाम और…

बालेश्‍वर

:

लेकिन ठाकुरों की बस्‍ती में दो आदमी हैं, धरम सिंह और किशनकुमार सिंह। कहते हैं, दोनों वाइस-प्रेजीडेंट उन्‍हीं के रहें और कमेटी में भी तीन आदमी। मैंने कहा कि एक ज्‍वायंट-सेक्रेटरी ले लो और दो कमेटी के मेम्‍बर।

रायसाहब

:

वे भी तो पढ़े-लिखे होंगे।

करमचन्‍द

:

जी हाँ, कालेज तक।

रायसाहब

:

तब?

करमचन्‍द

:

अपने को लाट साहब समझते हैं। कहते हैं, क्‍लब होगा तो उन्‍हीं के मोहल्‍ले में।

बालेश्‍वर

:

भला आप ही सोचिए, हम लोगों के रहते हुए ठाकुरों की बस्‍ती में क्‍लब कैसे खुल सकता है?

करमचन्‍द

:

आप ही इंसाफ कीजिए, जज साहब!

रायसाहब

:

भाई, इसके लिए तुम बीरेन से बात करो। यह लो बीरेन आ गये।

बीरेन

:

[हेम के साथ आते हुए] पापा जी, ग्रामोद्धार-समिति वाली वह बात मैंने पूरी नहीं की।

रायसाहब

:

बीरेन, वह बात तुम इन लोगों को समझाओ। यह हैं बालेश्‍वर ऊर्फ बी.पी. सिन्‍हा और ये हैं करमचन्‍द बरैठा। गाँव के पढ़े-लिखे नौजवान! क्‍लब खेलना चाहते हैं। मैं तो चलता हूँ, देरी हो रही है। हेम बेटी, बीरेन को देर मत करने देना।
[चले जाते हैं।]

बीरेन

:

अच्‍छा तो गाँव में क्‍लब स्‍थापित करना चाहते हैं आप?

बालेश्‍वर

:

जी हाँ, यह देखिए यह है हम लोगों का लेटर-पेपर और नियमावली का मसौदा। बात यह है कि…

बीरेन

:

आइए मेरे कमरे में चलिए, वहाँ इत्‍मीनान से बातें होंगी। इधर से चलिए। मैं अभी आया।
[बालेश्‍वर और करमचन्‍द जाते हैं]

हेमलता

:

मैं यहीं हूँ। जल्‍दी करना नहीं तो जानते हो, आया वह खबर लेगी कि…

बीरेन

:

तुम भी चलो न! क्‍या उम्‍दा मेरी योजना है। सुन कर फड़क जाओगी।

हेमलता

:

कमरे में चलूँ? उँह… देखते हो यह चाँदनी [बाहर दूर से सम्मिलित स्‍वर में गाने की आवाज] और सुनते हो यह स्‍वर, मानो चाँदनी बोलती हो!

बीरेन

:

[जाते-जाते शरारत भरे स्‍वर में] मैं तो देखता हूँ बस किसी का चाँद-सा मुखड़ा और सुनता हूँ तो अपने दिल की धड़कन [हाथ हिलाते हुए] टा…टा!

हेमलता

:

[मीठी मुस्‍कान] झूठे।
[सम्मिलित संगीत-स्‍वर निकट आ रहा है, स्‍त्री-पुरुष दोनों का स्‍वर]

चननिया छटकी मो का करो राम।

गंगा मोर मइया जमुना मोर बहिनी

चाँद सूरज दूनो भइया

मो का करो राम। चननिया छटकी…

सोसु मोर रानी, ससुर मोर राजा

देवरा हवें सहजादा मो का करो काम

चननिया छटकी मो का करो राम!

[गाने के बीच में चेतू का जल्‍दी से आना और बाहर की तरफ चलना]

हेमलता

:

कौन चेतू? कहाँ जा रहे हो?

चेतू

:

ही…वह…वह… गाना।

हेमलता

:

बड़ा सुन्‍दर है।

चेतू

:

मेरी ही बस्‍ती की टोली है। हर पूनो की रात को गाँव के डगरे-डगरे घूमती है।

हेमलता

:

इधर ही आ रही है।

चेतू

:

सामने वाले डगरे में। वह देखिए। और देखिए उसमें वह लोचन भैया भी हैं।…

हेमलता

:

कहाँ?

चेतू

:

वह मिर्जई पहने। मैं चलता हूँ बीबी जी। वे लोग मुझे बुला रहे हैं…
[जाता है। गाने का स्‍वर निकट आकर दूर जाता है]
‘मो का करो राम… मो का करो राम।’

हेमलता

:

[अब स्‍वर मंद हो जाता गया है।] ‘चननिया छटकी मो का करो राम।’ ओह, कैसी मनोहर पीर है यह!

आया

:

हेम बीबी, हेम बीबी। इस ठंड में कब तक बाहर रहोगी?

हेमलता

:

[उच्‍च स्‍वर में] अभी आयी आया! [फिर मंद स्‍वर में] चाँदनी और मैं! मैं और बीरेन! लेकिन यह गाना और वह… वह… लोचन!

[विचार-मग्‍न अवस्‍था में प्रस्‍थान]
दूसरा दृश्‍य

[स्‍थान वही। पन्‍द्रह रोज बाद। समय सबेरे। बाहर से रायसाहब और एक व्‍यक्ति की बातचीत का अस्‍पष्‍ट स्‍वर और फिर थोड़ी देर में ठहाका मार-मार कर हँसते हुए रायसाहब का प्रवेश]

रायसाहब

:

हा, हा, हा! वाह भाई वाह! सुना बेटी हेम! हेम!

हेमलता

:

[नेपथ्‍य में] आयी पापा!

रायसाहब

:

हा, हा, हा!

[हेम का प्रवेश, हाथ में एक बड़ा-सा चित्र और ब्रश]

हेमलता

:

क्‍या बात हुई, पापा?

रायसाहब

:

हेम, हमारे चौधरी साहब भी लाजवाब हैं! अभी तो मुझे फाटक पर छोड़ कर गये हैं। सबेरे की चहलकदमी में इनका साथ न हो तो मैं तो इस देहात में गूँगा भी हो जाऊँ और बहरा भी।

हेमलता

:

आप तो आज उनके घर तक जाने वाले थे।

रायसाहब

:

गया तो था, यही सोच कर कि थोड़ी देर के लिए उनकी बैठक में भी चलूँ, लेकिन बाहर से ही बोले, ‘वहीं ठहरिए!’

हेमलता

:

अरे!

रायसाहब

:

कहने लगे, ‘पहले में ऊपर पहुँच जाऊँ, तब आप कार्ड भेजिएगा और तब बैठक में जाना मुनासिब होगा! कायदा जो है।’

हेमलता

:

[हँसती है] ऐसी भी क्‍या अंग्रेजियत?

रायसाहब

:

और भी तो सुनो। घर में उनका जो प्राइवेट कमरा है, उसमें बाहर एक घंटी लगी है। जिसे भी अन्‍दर जाना हो, घंटी बजानी होती है। बिना घंटी बजाए अगर कोई अन्‍दर आ गया तो चौधरी साहब उससे बात नहीं करते, चाहे उनकी बीबी हो।

हेमलता

:

मालूम होता है मनुस्‍मृति की तरह एटीकेट संहिता चौधरी साहब छोड़ कर जाएँगे।

रायसाहब

:

लेकिन आदमी दिल का साफ और बिलकुल खरा है, हीरे की मानिन्‍द! दूसरे के एक पैसे पर हाथ नहीं लगाता।

हेमलता

:

तभी शायद बीरेन ने उन्‍हें ग्रामोद्धार-समिति का आडीटर बनाया है।

रायसाहब

:

बीरेन से कह देना कि चौधरी साहब हिसाब में बहुत कड़े हैं। कह रहे थे कि चूँकि इस संस्‍था में उनका भतीजा बालेश्‍वर शामिल है, इसलिए इसकी तो एक-एक पाई पर निगाह रखेंगे।

हेमलता

:

बालेश्‍वर मुझे पसन्‍द नहीं। झगड़ालू आदमी है।

रायसाहब

:

झगड़ा तो गाँव की नस-नस में बसा है।

हेमलता

:

पहले भी ऐसा था पापा?

रायसाहब

:

था, लेकिन ऐसी हठ-धर्मी नहीं थी। मैं यह नहीं कहता कि पहले, शेर-बकरी एक घाट पानी पीते थे, लेकिन… लेकिन…पहले, पढ़े-लिखे नौजवान गाँव में कम थे और…

हेमलता

:

पढे-लिखे नहीं, अधकचरे। टैगोर ने लिखा है न ‘हाफ बेक्‍ड कल्‍चर’। लेकिन पापा, क्‍या सब बीरेन का तूफानी जोश और उसकी पैनी सूझ गाँव में काया-पलट कर देगी?

रायसाहब

:

तुम क्‍या समझती हो?

हेमलता

:

कह रहे थे न बीरेन उस रोज कि गाँव में क्रान्ति के लिए एक नये दृष्टिकोण की जरूरत है एक नये मानसिक धरातल की…

रायसाहब

:

बीरेन बोलता खूब है! उसी का जादू है।

हेमलता

:

सैकड़ों की जनता झूम जाती है।

रायसाहब

:

उस दूसरी पार्टी का क्‍या हुआ। ग्राम-सुधार-समिति में शामिल हुई या नहीं?

हेमलता

:

अभी तो नहीं। कल रात बहुत-सा वाद-विवाद चलता रहा। बीरेन देर से लौटे थे। पता नहीं क्‍या हुआ?

रायसाहब

:

लेकिन आज तो नींव पड़ेगी समिति की!

हेमलता

:

हाँ, आप नहीं जाइएगा उत्‍सव में पापा?

रायसाहब

:

न बेटी, मैंने तो बीरेन से पहले ही कह दिया था कि मैं नहीं जा सकूँगा। मुझे…
[एक हाथ में कागज लिये, दूसरे से कुरते के बटन लगाते हुए बीरेन का प्रवेश।]

बीरेन

:

लेकिन पापा जी, चौधरी साहब तो आ रहे हैं।

रायसाहब

:

उन्‍हें ठीक स्‍थान पर बैठाना, नियम के साथ।

बीरेन

:

[हँसते हुए] उनकी पूरी देख-भाल होगी। पापा जी, अगर आप वहाँ पहुँच नहीं रहे हैं तो यह तो देखिए मेरे भाषण का ड्राफ्ट।

रायसाहब

:

[उसके हाथ से कागज लेते हुए] तुम तो बिना तैयारी के ही बोलते हो।
[कागज पढ़ने लगते हैं]

बीरेन

:

जी हाँ, लेकिन आज तो ग्राम-सुधार-समिति की समूची योजना को गाँव के सामने रखना है… पढ़िए न!

रायसाहब

:

[पढ़ते हुए] बड़ी जोरदार स्‍कीम है!

बीरेन

:

जी, आगे और देखिए [हेम से] और हेम, समिति के भवन में जो चित्र टँगेंगे तुमने पूरे कर लिये?

हेमलता

:

एक तो तैयार ही-सा है।

[चित्र की ओर संकेत करती है]

बीरेन

:

यह?… बड़े चटकीले रंग हैं, बड़ा मनोहर नाच का दृश्‍य है… खूब! लेकिन… ये… इन कोने के अँधरे में ये कौन लोग हैं?…

हेमलता

:

तुम क्‍या समझते हो?

बीरेन

:

[रुक कर सोचता-सा] जैसे निर्वासित भटके हुए प्राणी!

रायसाहब

:

[पढ़ते-पढ़ते] बीरेन, तुम्‍हारी ग्राम-सुधार-समिति में दिमागी कसरत तो बहुत है… पुस्‍तकालय, भाषण, अध्‍ययन मंडल…

बीरेन

:

[चित्र को अलग रखता हुआ] वही तो पापा जी! ग्राम-जागृति के मानी क्‍या हैं? अपनी जरूरतों और समस्‍याओं पर विचार करने की क्षमता! देहात की मूक-व्‍यथा को वाणी की आवश्‍यकता है। माँग है, चुने हुए ऐसे नौजवानों की जो धरती की घुटनों को गगन के गर्जन का रूप दे सकें, जो रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठा सकें, जो आर्थिक प्रश्‍नों से माथापच्‍ची कर सकें। मैं समिति के पुस्‍तकालय में मार्क्‍स, लेनिन से लेकर स्‍पेंग्‍लर, रसेल इत्‍यादि सभी ग्रन्‍थों का अध्‍ययन कराऊँगा। एक नयी रोशनी, एक नया मानसिक मन्‍थन… इंटलैक्‍चुअल फरमेंट…

रायसाहब

:

ठीक बीरेन ठीक! बातें तो बहुत होंगी, लेकिन भई, देहात को गरीबी और गन्‍दगी को देख कर तो मन उचाट होता है।

बीरेन

:

[जोश के साथ] यह आपने ठीक सवाल उठाया। गरीबी और गन्‍दगी! पापा जी, इस गरीबी और गन्‍दगी को देख कर मेरा मन क्रोधाग्नि से जल जाता है। वे बे-घरबार के बूढ़े-बच्‍चे, वह भूखे भिखमंगों की टोली, वे चीथड़ों में सिकुड़ी औरतें… इन सबके ध्‍यान मात्र से दया का सागर उमड़ उठता है। लेकिन दया के सागर में क्रोध के तूफान की जरूरत है पापाजी! तूफान, जो न थमना जाने न चुप रहना। और इस तूफान को कायम रखने के लिए चाहिए कुछ ऐसी हस्तियाँ, जो उस क्रोध और दया के काबू में न आ कर भी उसी के राग छेड़ सकें, वकील की तरह पूरे जोश के साथ जिरह कर सकें, लेकिन मुवक्किल से अलग भी रह सकें।

हेमलता

:

सरोवर में कमल, लेकिन जल से अछूता।

बीरेन

:

हाँ, उसी की जरूरत है। जो लोग इस गरीबी और गन्‍दगी की दलदल से दूर रह कर उसमें फँसी दुनिया के बेबस अरमानों को समाज के सामने मुस्‍तैदी के साथ चुनौती का रूप दें सकें। [रुक कर भाषण के स्‍तर से उतरता हुआ] लेकिन मुझे तो चलना है पापाजी! पहले से जाकर समिति के कुछ उलझनें सुलझानी हैं, जिससे उत्‍सव के वक्‍त फसाद न हो।… तुम तो थोड़ी देर में आओगी हेम? तब तक इस चित्र को ठीक-ठाक कर लो। अच्‍छा तो मैं चला।
[चला जाता है। कुछ देर चुप्‍पी रहती है।]

रायसाहब

:

यही तो जादू है बीरेन का।

हेमलता

:

जादू वह जो सिर पर चढ़ कर बोले।

रायसाहब

:

कभी-कभी मुझे तो देहात में उलझन-सी लगती है। बरसों बाद आया हूँ…जैसे चश्‍मा शहर ही छोड़ आया हूँ… और बीरेन हैं कि आते ही गाँव को अपना लिया।

हेमलता

:

मालूम नहीं पापाजी, उन्‍होंने गाँव को अपना लिया… या…
[चेतू का प्रवेश]

चेतू

:

सरकार का नाश्‍ता तैयार है।

रायसाहब

:

[आते हुए] अच्‍छा चेतू! आता हूँ। [चलते-चलते चित्र पर निगाह जाती है।] हेम! यह तसवीर अच्‍छी बनी है।

हेमलता

:

थोड़ा टच करना बाकी है।

रायसाहब

:

नाचने वालों की टोली में बड़ी लाइफ है। रंग की भी, गति की भी! लेकिन… कोने में यह लोग कैसे खड़े हैं?

हेमलता

:

आप क्‍या समझते हैं?

रायसाहब

:

[सोचते-से सप्रयास] जैसे… जैसे सूखे और सूने दरख्‍त जिन्‍हें धरती से खुराक ही नहीं मिलती।

हेमलता

:

पापा, आप भी तो कवि हैं।

रायसाहब

:

[हँसते हैं] तुम्‍हारा बाप भी जो हूँ।… अच्‍छा मैं तो चला।

[चले जाते हैं]

हेमलता

:

[विचार-मग्‍न] सूखे और सूने दरख्‍त!… या निर्वासित और भटके प्राणी!…नहीं…नहीं कुछ और, [चेतू से] चेतू, जरा लाना वह स्‍टूल, यहीं बैठ कर जरा इसे ठीक करूँ।

चेतू

:

[स्‍टूल रखता हुआ] यह लीजिए। रंग भी यहीं रख दूँ?

हेमलता

:

लाओ, मुझे दो। अब तो तुम्‍हें मेरी तसवीर खींचने की झक की आदत हो गयी है।
[रंग तैयार करने लगती है]

चेतू

:

जी, बीबी जी।

हेमलता

:

देखो, थोड़ी देर में यह तसवीर लेकर तुम्‍हें मेरे साथ चलना है।

चेतू

:

कहाँ?

हेमलता

:

बीरेन बाबू की समिति का जलसा कहाँ हो रहा है, वहीं पहाड़ी की तलहटी पर।

चेतू

:

[झिझकता हुआ] बीबी जी, वहाँ मैं नहीं जाऊँगा।

हेमलता

:

क्‍यों?

चेतू

:

बीबी जी, वहाँ हम गरीब मुसहर अपना बसेरा करने वाले थे। हम बाँस की पौध लगा रहे थे। मेहनत करके टोकरी बनाते, घर तैयार करते। बाँध होता तो खेत भी…

हेमलता

:

[चित्र बनाते-बनाते] लेकिन ग्रामोद्धार-समिति से भी तो आखिर तुम लोगों की तकलीफें दूर होंगी।

चेतू

:

पता नहीं बीबी जी। समिति में बहुत देर तक बहसें तो होती हैं। पर…

हेमलता

:

और फिर बीरेन बाबू के दिल में तुम लोगों के लिए कितना ख्‍याल है, कितनी दया है।

चेतू

:

[किसी अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत हो] हमें दया नहीं चाहिए।

हेमलता

:

[चौंक कर उसकी ओर मुड़ती है] दया नहीं चाहिए? चेतू! यह तुमसे किसने कहा?

चेतू

:

[कुछ सकपका कर] बीबी जी, लोचन भैया कहते हैं कि…
[सड़क पर से सम्मिलित स्‍वर में नारों की आवाज]
ग्रामोद्धार-समिति जिन्‍दाबाद!

बी.पी. सिन्‍हा जिन्‍दाबाद!

गद्दारों का नाश हो!

ग्रामोद्धार-समिति जिन्‍दाबाद!

[आवाज दूर हो जाती है]

हेमलता

:

चेतू यह सब क्‍या है?
[खड़ी होकर देखने लगती है।]

चेतू

:

उत्‍सव में ही जा रहे हैं। बालेश्‍वर बाबू की पार्टी के लोग हैं। करमचन्‍द बाबू इनसे अलग हो गये हैं और ठाकुर पार्टी के लोगों में जा मिले हैं।

हेमलता

:

कल रात झगड़ा तय नहीं हुआ?

चेतू

:

पता नहीं… यह देखिए दूसरी पार्टी के लोग भी जा रहे हैं। कहीं झगड़ा न हो जाय।

[सड़क पर से दूसरे दल के नारों का शोर सुनाई देता है।]

करमचन्‍द की जय हो!

करमचन्‍द की जय हो!

ग्रामोद्धार-समिति हमारी है!

ग्राम-जागृति जि़न्‍दाबाद!

स्‍वार्थी सिन्‍हा मुर्दाबाद!

[आवाज दूर हो जाती है]

हेमलता

:

[चिन्तित स्‍वर में] चेतू, ये लोग तो लाठी लिये हुए हैं।

चेतू

:

जी हाँ, पहली पार्टी भी लैस थी।

[नेपथ्‍य में पुकारते हुए आया का प्रवेश]

आया

:

चेतू, ओ चेतुआ! देख तो यह क्‍या फसाद है?

चेतू

:

बालेश्‍वर बाबू और करमचन्‍द की पार्टियाँ हैं। दोनों बीरेन बाबू के उत्‍सव में गयी हैं।

हेमलता

:

लाठी-डंडा लिये हुए, आया!

आया

:

और तू यहीं खड़ा है चेतुआ। अरे जल्‍दी जा दौड़ कर चौकीदार से कह कि थाने में खबर कर दे। क्‍या मालूम क्‍या झगड़ा हो जाय। जल्‍दी जा। लाठी चल गयी तो बीरेन बाबू घिर जायेंगे। … जल्‍दी दौड़ जा!
[चेतू तेजी से जाता है]

हेमलता

:

मैं भी जाऊँगी, आया। बीरेन अकेले है।

आया

:

न बीबी जी, तुम्‍हें न जाने दूँगी। [जाते हुए चेतू को पुकारते हुए] चेतू, लौटते वक्‍त जलसे में झाँकता आइयो [हेम से] हेम बीबी, कहाँ की इल्‍लत मो मोल ले ली बीरेन बाबू ने!

हेमलता

:

उनकी बात तो सब लोग सुनेंगे।

आया

:

बीबी जी, तुमने अभी तक नहीं समझा गाँव-गँवई के मामलों को। यहाँ भले मानसों का बस नहीं है। अपना तो वही कलकत्ता अच्‍छा था।

हेमलता

:

[झिड़कते स्‍वर में] आया, तुम तो बस…

आया

:

मैं ठीक कह रही हूँ बीबी जी। अभी तुम लोगों को पन्‍द्रह दिन हुए हैं यहाँ आये। देख लो, बड़े सरकार की तबीयत ऊबी-सी रहती है। चौधरी न हों तो एक दिन काटना मुश्किल हो जाय। और तुम हो…

हेमलता

:

मुझे तो अच्‍छा लगता है। कई स्‍केच बना चुकी हूँ।

आया

:

अरे, तसवीरें तो तुम कलकत्ते में भी बना लोगी। अनगिनती और इनसे अच्‍छी।

हेमलता

:

तुम तो, आया, उलटी बातें करती हो। आखिर हम लोग गाँव की ही औलाद हैं। यह धरती हमारी माँ है। अब हम लोग फिर यहाँ आकर रहना चाहते हैं। इसकी गोदी में आना चाहते हैं।

आया

:

अब बीबी जी इतनी हुसियार तो मैं हूँ नहीं जो तुम्‍हें समझा सकूँ। पर इतना कहे देती हूँ कि उखाड़े हुए पौधे की जड़ में हवा लग जाए तो फिर दुबारा जमीन में गाड़ना बेकार है। उसके फूल तो बँगले के गुलदस्‍तों की ही शोभा बढ़ाएँगे।

हेमलता

:

[अचंभित आया को देखती रह जाती है] आया तुम्‍हारी बात… तुम्‍हारी बात… खौफनाक है!

[नेपथ्‍य से आवाजें – ‘इधर…इधर… ले आओ, सम्‍हल कर… चेतू तुम हाथ पकड़ लो…इधर…इधर’]

आया

:

हैं! यह कौन आ रहा है? [बाहर की ओर देखते हुए] अरे, यह तो बीरेन बाबू को पकड़े दो आदमी चले आ रहे हैं। घायल, हो गये क्‍या? बाप रे!…

[दौड़कर बाहर की तरफ जाती है।]

हेमलता

:

[घबरा कर] बीरेन, बीरेन! बँगले की तरफ पुकारते हुए… पापा जी, पापा जी इधर आइए!

रायसाहब

:

[नेपथ्‍य में] क्‍या हुआ?

हेमलता

:

बीरेन घायल हो गये। ओह!…
[बेहोश बीरेन को लाठियों के स्‍ट्रेचर पर सम्‍हाले हुए, चेतू और एक व्‍यक्ति, जिसकी अपनी बाँह पर घाव है, प्रवेश करते हैं। वह इस परिस्थिति में भी स्थिरचित्त जान पड़ता है। उसकी वेशभूषा चेतू की-सी है।]

आया

:

[घबड़ाई हुई] चेतू, ये तो बेहोश हैं। हाय… राम!
[स्‍ट्रेचर जमीन पर रख दी जाती है]

व्‍यक्ति

:

घबड़ाइए नहीं।

हेमलता

:

[स्‍ट्रेचर के पास घुटने टेकती हुई] बीरेन! बीरेन!
[रायसाहब घबड़ाए हुए प्रवेश करते हैं]

रायसाहब

:

क्‍या हुआ? यह तो बेहोश है।… चेतू, क्‍या हुआ?

चेतू

:

सरकार, दोनों पार्टी के लठैत भिड़ गये। बीच में आ गये बीरेन बाबू। वह तो लोचन भैया ने जान पर खेल कर बचा लिया, वरना…

व्‍यक्ति

:

इन्‍हें फौरन मकान के अन्‍दर पहुँचाइए। पट्टी-वट्टी है घर में?

हेमलता

:

बीरेन! बीरेन!

रायसाहब

:

आया, जल्‍दी अन्‍दर ले चलो।… चेतू सम्‍हल कर लिटाना। हेम, मेरी ऊपर वाली अलमारी में लोशन है, जल्‍दी…जल्‍दी… [बीरेन को पकड़ कर आया, चेतू और हेम जाते हैं] और यह लोचन कौन है?

व्‍यक्ति

:

मेरा ही नाम लोचन है।

रायसाहब

:

तुमने बड़ी बहादुरी का काम किया। यह लो दस रुपये और जरा दौड़ जाओ, थाने के पास ही डाक्‍टर रहते हैं।

लोचन

:

आप रुपये रखें। मैं डाक्‍टर के पास पहले ही खबर भेज आया हूँ। आते ही होंगे।

रायसाहब

:

[कुछ हतप्रभ] तुम…तुम इसी गाँव के हो?

लोचन

:

हूँ भी और नहीं भी।.. .आप बीरेन बाबू को देखें।

रायसाहब

:

[संकुचित होकर] हाँ…आँ…हाँ…
[जाते हैं। लोचन कमर में बँधे कपड़े को फाड़ कर, अपनी बायीं भुजा में बहते हुए घाव पर पट्टी बाँधता है, तसवीर को सीधा उठा कर रखता और गौर से देखता है। इतने में तेजी से हेमलता का प्रवेश]

हेमलता

:

तुम्‍हारा ही नाम लोचन है?

लोचन

:

जी!

हेमलता

:

तुम्‍हीं ने बीरेन की जान बचायी है। [प्रसन्‍न स्‍वर में] वे होश में आ गये हैं। हम लोग बड़े अहसानमन्‍द हैं।

लोचन

:

[स्‍पष्‍ट स्‍वर में] जान मैंने नहीं बचायी।

हेमलता

:

तुम्‍हारी बाँह पर भी तो चोट है।

लोचन

:

जान उन गरीब मुसहरों ने बचायी है जिनसे जमीन छीन कर बीरेन बाबू ग्रामोद्धार-समिति का भवन बनवा रहे हैं। जब समिति के क्रान्तिकारी नौजवान आपस में लाठी चला रहे थे, तब यही गरीब बीरेन बाबू को बचाने के लिए मेरे साथ बढ़े। [व्‍यंग्‍यपूर्ण मुस्‍कान] क्रान्ति का दीपक बच गया!

हेमलता

:

[हिचकिचाती हुई] तुम… आप पढ़े-लिखे हैं?

लोचन

:

पढ़ा-लिखा? [वही मुस्‍कान] हाँ भी और नहीं भी।… अच्‍छा चलता हूँ।… हाँ, यह तसवीर आपने बनायी है?

हेमलता

:

कोई त्रुटि है क्‍या?

लोचन

:

नहीं! आपने हमारे नाच की गति को रेखाओं और रंगों में खूब बाँधा है। और…

हेमलता

:

और?

लोचन

:

कोने में खड़े छाया में लपटे ये व्‍यक्ति…

हेमलता

:

कैसे हैं?

लोचन

:

[बिना झिझक के] जैसे अपनी ही जंजीरों से बँधे बन्‍दी!

हेमलता

:

बन्‍दी! क्‍यों?

लोचन

:

[वही मुस्‍कान] यह फिर बताऊँगा। [चलते हुए] अच्‍छा नमस्‍ते!

[लोचन चला जाता है। हेमलता अचरज में खड़ी रह जाती है। फिर चित्र उठा कर घर की तरफ जाती है]

हेमलता

:

[जाते-जाते मंद स्‍वर में] बन्‍दी! अपनी ही जंजीरों में बँधे बन्‍दी…
[पर्दा गिरता है।]
तीसरा दृश्‍य
[वही स्‍थान। एक हफ्ते बाद। समय सन्‍ध्‍या। नौकर लोग मकान से बगीचे में होकर बाहर की ओर सामान लाते नजर पड़ते हैं। कभी-कभी आया की दबंग आवाज सुन पड़ती है, कभी चेतू की, कभी और लोगों की]

‘वह बिस्‍तरा दो आदमी पकड़ो!’

‘सम्‍हाल कर भई।’

‘बक्‍से में चीनी के बर्तन हैं।’

‘जल्‍दी…जल्‍दी।’

‘यह टोकरी दूसरे हाथ में पकड़ो!’

[घर की तरफ से आया का व्‍यस्‍त मुद्रा में जल्‍दी-जल्‍दी आना। बाहर से चेतू आता है।]

आया

:

सब सामान लद गया चेतू?

चेतू

:

हाँ आया! बस, बड़े सरकार का अटेची रहा है। उनके आने पर बन्‍द होगा।

आया

:

कहाँ गये सरकार?

चेतू

:

चौधरी जी के यहाँ बिदा लेने। सुना है चौधरी के बचने की उम्‍मीद नहीं।

आया

:

जिस गाँव में भतीजा अपने चचा पर वार कर बैठे वहाँ ठहरना धरम नहीं।

चेतू

:

अभी जमानत नहीं मिली बालेश्‍वर बाबू को।

आया

:

अब हमें क्‍या मतलब? हम तो कलकत्ता पहुँच कर शान्ति की साँस लेंगे।

चेतू

:

शान्ति!

आया

:

तू तो बुद्धू है, चेतू। चल कलकत्ते। मौज उड़ाएगा। देखेगा बहार और बजाएगा चैन की बंसी।

चेतू

:

गाँव छोड़ कर? नौकरी ही करनी है तो अपनी धरती पर करूँगा।

आया

:

अरे, शहर में नौकरी भी न करेगा तो भी रिक्‍शा चला कर डेढ़ दो सौ महीना कमा लेगा।

चेतू

:

डेढ़-दो सौ?

आया

:

हाँ, और रोज शाम को सनीमा। होटल में चाय। चकचकाती सड़कें, जगमगाते महल। ठाठ से रहेगा।

चेतू

:

[विरक्‍त मुद्रा] खाना किराये का, रहना किराये का और बोलो किराये की।

आया

:

जैसी तेरी मर्जी! भुगत यहीं देहात के संकट।

चेतू

:

लोचन भैया तो कहत…

आया

:

[झिड़कती हुई] चल, चल, लोचन भैया के बाबा। अन्‍दर जाकर देख, बीरेन बाबू तैयार हों तो सहारा देकर लिवा ला। हेम बीबी तो तैयार हैं?

चेतू

:

अच्‍छा।
[अन्‍दर जाता है।]

आया

:

[जाते-जाते] देखूँ गाड़ी पर सामान ठीक-ठाक लदा है या नहीं।

ये देहाती नौकर…

[बाहर जाती है। थोड़ी देर में रायसाहब और लोचन बातें करते हुए बाहर से प्रवेश]

रायसाहब

:

भई लोचन, मुझसे यहाँ नहीं रहा जाएगा। अच्‍छा हुआ जाते वक्‍त तुम आ गये। बीरेन ने तुम्‍हें देखा नहीं। चलते वक्‍त उस दिन के एहसान के लिए…

लोचन

:

मैंने सोचा था कि आप लोग रुक जाएँगे।

रायसाहब

:

रुकना? आया तो इसी विचार से था कि कलकत्ते के बाद देहात में ही दिन काटूँगा। लेकिन एक महीने में देख लिया कि हम तो इस दुनिया से निवार्सित हो चले। बरसों पहले की दुनिया उजड़ गयी और मैं जिस समाज में बसने आया था, वह ख्‍वाब हो चला! चौधरी भी शायद उसी ख्‍वाब के भटके हुए टुकड़े थे। अभी उन्‍हें देख कर आ रहा हूँ। उम्‍मीद नहीं बचने की। उस दिन के झगड़े में बालेश्‍वर ने उन पर लाठी से वार नहीं किया, दिल को भी चकनाचूर कर दिया।

लोचन

:

बालेश्‍वर ही गाँव की नयी पीढ़ी नहीं है।

रायसाहब

:

[निराश स्‍वर] मैं नहीं जानता कि कौन नयी पीढ़ी है। बस, इतना देखता हूँ कि रैयत के सुख-दुख में हाथ बटाने वाला जमींदार, पुरखों के तजुर्बे के रक्षक बुजुर्ग, बेफिक्री की हँसी और बड़ों की इज्‍जत में पले हुए नौजवान… जब ये सब ही नहीं रहे तो गाँव में ठहर कर मैं क्‍या करूँ! शहर…

लोचन

:

शहर आपको खींच रहा है रायसाहब!

रायसाहब

:

[लाचारी का स्‍वर] तुम शायद ठीक कहते हो। शहर मुझे खींच रहा है।

लोचन

:

और आप बेबस खिंचे जा रहे हैं।

रायसाहब

:

[पीड़ित मुद्रा] बेबस…बेबस…ऐसा न कहो लोचन, ऐसा न कहो!… हम जा रहे हैं क्‍योंकि… क्‍योंकि…

[चेतू का सहारा लिये बीरेन का प्रवेश, साथ में हेम भी है।]

बीरेन

:

पापा जी, अब आप ही की देरी है।

रायसाहब

:

[मानो मुक्ति मिली हो] कौन? बीरेन, हेम! तैयार हो गये तुम लोग? तो मैं भी अपना अटैची ले आता हूँ। चेतू, मेरे साथ तो चल!

[घर की तरफ प्रस्‍थान। साथ में चेतू]

लोचन

:

[हेमलता से] नमस्‍ते!

हेमलता

:

कौन?…अच्‍छा आप? बीरेन, यहीं है लोचन जिन्‍होंने उस रोज तुम्‍हें बचाया था।

बीरेन

:

अच्‍छा! उस दिन तो तुम्‍हें देखा नहीं था, लेकिन फिर भी [गौर से देखते हुआ] तुम पहचाने-से लगते हो।

लोचन

:

[मुस्‍कराते हुए] कोशिश कीजिए। शायद पहचान लें।

बीरेन

:

[सोचता हुए] तुम…वह…वह…नहीं नहीं। वह तो ऊँची जात का ऊँचे कुल का आदमी था।

हेमलता

:

कौन?

बीरेन

:

मेरा कालेज का साथी एल.एस. परमार।

लोचन

:

[मुस्‍कराहट] एल.एस.परमार।… लोचन सिंह परमार।

बीरेन

:

[चौंक कर] ऐं! परमार…परमार! !

लोचन

:

[अविचलित स्‍वर में] हाँ, मैं परमार ही हूँ, बीरेन!

हेमलता

:

[विस्मित] बीरेन, यह तुम्‍हारे कॉलेज के साथी हैं?

बीरेन

:

[लोचन का हाथ पकड़ कर] यकीन नहीं होता परमार, कि तुम्‍हीं हो इस देहाती वेश में, मुसहरों के बीच। काँलेज छोड़ कर तो तुम ऐसे गायब हुए थे कि…

लोचन

:

[किंचित हँसी] एक दिन मैंने तुम लोगों को छोड़ा था और आज [रुक कर] आज, तुम जा रहे हो।

बीरेन

:

परमार, मैं जा रहा हूँ चूँकि मैं अपने आदर्श को खंडित होते नहीं देख सकता।

लोचन

:

आदर्श? कौन-सा आदर्श है जिसे गाँव खंडित कर देगा?

बीरेन

:

क्रान्ति का आदर्श, परमार! मैं भूल गया था कि देहात की मध्‍ययुगीन ऊसर भूमि अभी क्रान्ति के लिए तैयार नहीं है। उसके लिए जरूरत है शहर और कारखानों की सजग और चेतनाशील भूमि की।…

लोचन

:

[तीव्र दृष्टि] बीरेन, तुम भाग रहे हो।

बीरेन

:

मैं लाठियों की मार से नहीं डरता, लोचन!

लोचन

:

तुम भाग रहे हो लाठियों के डर से नहीं, बल्कि उन गुटबन्दियों, अंधविश्‍वास और झगड़े-फसाद की दल-दल के डर से, जिसे तुम एक छलाँग में पार कर जाना चाहते थे। [गम्‍भीर चुनौती-पूर्ण स्‍वर में] तुम पीठ दिखा रहे हो, बीरेन!

बीरेन

:

[हठात् विचलित] पीठ दिखा रहा हूँ… नहीं… नहीं… यह गलत है।… हम जा रहे…हैं, क्‍योंकि… क्‍योंकि…

[आया का तेजी से प्रवेश]

आया

:

हेम बीबी! बीरेन बाबू! अरे आप लोगों को चलना नहीं है क्‍या? सारा सामान रवाना भी हो गया। कहीं गाड़ी छूट गयी तो… कहाँ हैं बड़े सरकार? आप लोग भी गजब करते हैं…

[रायसाहब का प्रवेश, साथ में चेतू अटेची लिए हुए]

रायसाहब

:

यह आ गया मैं। चलो भाई, आया। बीरेन, तुम चेतू का सहारा लेकर आगे बढ़ो, पहले तुम्‍हें बैठना है।

बीरेन

:

मैं चलता हूँ, परमार। फिर कभी…

लोचन

:

फिर कभी [किंचित हँसी] फिर कभी!…
[आया अटेची लेती है, चेतू का सहारा लिये हुए बीरेन बाहर जाता है। पीछे-पीछे आया।]

रायसाहब

:

अच्‍छा भाई लोचन, हम भी चलते हैं… मुमकिन है तुम्‍हारा कहना सही हो!

लोचन

:

काश, मैं आपको रोक पाता!…

रायसाहब

:

हेम, तुम्‍हारी तसवीर उधर कोने में रखी रह गयी।

हेमलता

:

अभी लायी पापा, आप चलिए।

रायसाहब

:

अच्‍छा!
[चलते हैं]

लोचन

:

आप भी जा रही हैं हेमलता जी!

हेमलता

:

मजबूर हूँ।

लोचन

:

मैं जानता हूँ। बीरेन का मोह।…

हेमलता

:

मैं बीरेन को यहाँ रख सकती थी लेकिन…

लोचन

:

लेकिन!

हेमलता

:

[सत्‍य की खोज से अभिभूत वाणी] लेकिन एक बात है जिसे न पापा समझते हैं न बीरेन। पर मैं कुछ-कुछ समझ रही हूँ। पापा गाँव को लौटे प्रतिष्‍ठा और अवकाश से सराबोर होने, बीरेन ने देहात को क्रान्ति की योजना का टीला बनाना चाहा और मैं… मैं… गाँव की मोहक झाँकी में कल्‍पना का महल बनाने को ललक पड़ी।

लोचन

:

महल मिटने को बनते हैं, हेम जी!

हेमलता

:

यह मैं जानती हूँ, लेकिन हम तीनों यह न समझ सके कि हमारी जड़ें कट चुकी हैं, हम गाँव के लिए बिराने हो चुके हैं।… [आविष्‍ट स्‍वर] क्‍या आप इस दुविधा, इस उलझन, इस पीड़ा के शिकार नहीं हुए हैं? एक तरफ गाँव और दूसरी तरफ नागरिक शिक्षा-दीक्षा और सभ्‍यता की मजबूत जकड़! उफ, कैसी भयानक है यह खाई जिसने हमारे तन, हमारे मन, हमारे व्‍यक्तित्‍व को दो टूक कर दिया है? बताइए कैसे यह दुविधा मिट सकती है? कैसे हम धरती की गंध, धरती के स्‍पर्श को पा सकते हैं? बताइए… बताइए!

आया

:

[नेपथ्‍य में] हेम बीबी, हेम बीबी! जल्‍दी आओ देरी हो रही है।

लोचन

:

आपके प्रश्‍न का उत्तर मेरे पास है, लेकिन आप तो जा रही हैं।

हेमलता

:

जाना ही है। आप मेरे लिए पहेली ही बने रहेंगे।… वह तसबीर आपके लिए छोड़े जा रही हूँ। नमस्‍ते।

[जाती है]

लोचन

:

[कुछ देर बाद आप-ही-आप धीरे-धीरे] पहेली… [तसवीर उठाता है।] और ये बन्‍दी! [तसवीर की ओर एकटक देखता है] मैं जानता हूँ… [गहरी साँस]… मैं जानता हूँ कि कौन-सी जंजीरें हैं तो इन्‍हें बन्‍द किये हैं। [नेपथ्‍य में ताँगे के चलने की आवाज] जा रहे हैं वे लोग! और मैं बता भी न पाया!… कैसे बताऊँ?…कैसे बताऊँ कि यह कुदाली और ये मेहनत-कश हाथ, यही वे तिलिस्‍म है जिससे मैं धरती को भेद पाता हूँ। ये मेरी आजाद दुनिया के सन्‍देश-वाहक हैं, यही वह वाणी है जो मुझे गरीबी के लोक में अपनापन देती है…[रुक कर] तुम लोग जा रहे हो। बच कर भाग रहे हो…लेकिन मैं?… क्‍या मैं अकेला हूँ?… [विश्‍वासपूर्ण स्‍वर] अकेला ही सही, लेकिन बंदी तो नहीं। [इस बीच में चेतू आकर खड़ा-खड़ा लोचन की स्‍वगत-वार्ता को सुनने लगता है।]

चेतू

:

लोचन-भैया!

लोचन

:

कौन?

चेतू

:

लोचन भैया, आप तो अपने आप ही बातें करते हैं।

लोचन

:

चेतराम!… मैं भूल गया था।

चेतू

:

क्‍या भूल गये थे भैया?

लोचन

:

कि मैं अकेला नहीं हूँ।

चेतू

:

अकेले?

लोचन

:

हाँ, और यह भी भूल गया था कि हमारी दुनिया में बेकार बातें करने का समय नहीं है।

चेतू

:

काम तो बहुत है ही भैया। अब वह जमीन वापस मिली है तो…

लोचन

:

चलो, चेतराम तलहटी वाली जमीन पर खुदाई शुरू करें, आज ही।

चेतू

:

जी, बाँस के झुरमुट भी तो लगाएँगे।

लोचन

:

हाँ, और बाँध भी बाँधेंगे।

चेतू

:

अगली बरखा तक खेत तैयार करेंगे।

लोचन

:

[उल्‍लासपूर्ण वाणी] चलो हम रोज साँझ को अपने पसीने के दर्पण में कभी न मिटने वाली झाँकी देखेंगे। चलो चेतराम!

[कंधे पर कुदाली और बगल में चेतराम को लेकर प्रस्‍थान करता है। नेपथ्‍य में वाद्य-संगीत जो ओजस्विनी लय में परिवर्तित हो जाता है।]

इति शुभम

 

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भीष्म साहनी https://sahityaganga.com/%e0%a4%ad%e0%a5%80%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%ae-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%b9%e0%a4%a8%e0%a5%80-2/ Thu, 19 May 2016 09:31:17 +0000 http://sahityaganga.com/?p=7164 परिचय
जन्म : 8 अगस्त 1915, रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में)

भाषा : हिंदी

विधाएँ : कहानी, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा, बाल साहित्य

मुख्य कृतियाँ
कहानी संग्रह : भाग्य-रेखा, पहला पाठ, भटकती राख, पटरियाँ, वाङचू, शोभायात्रा, निशाचर, पाली
उपन्यास : झरोखे, कड़ियाँ, तमस, बसंती, मय्यादास की माड़ी, कुंतो, नीलू नीलिमा नीलोफर
नाटक : कबिरा खड़ा बजार में, हानूश, माधवी, मुआवजे
आत्मकथा : आज के अतीत
बाल-साहित्य : गुलेल का खेल, वापसी
अनुवाद : टालस्टॉय के उपन्यास ‘रिसरेक्शन’ सहित लगभग दो दर्जन रूसी पुस्तकों का सीधे रूसी से हिंदी में अनुवाद
सम्मान : हिंदी अकादमी, शलाका सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार
कहानियाँ
  • अमृतसर आ गया है
  • ओ हरामजादे
  • खून का रिश्ता
  • चीफ की दावत
  • चीलें
  • झूमर
  • त्रास
  • फैसला
  • मरने से पहले
  • माता-विमाता
  • वाङ्चू
  • साग-मीट

विशेष

रावलपिंडी पाकिस्तान में जन्मे भीष्म साहनी एक सीधे-सादे मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। वह अपने पिता श्री हरबंस लाल साहनी तथा माता श्रीमती लक्ष्मी देवी की सांतवी संतान थे। भीष्म सहनी आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से थे। 1937 में लाहौर गवर्नमेन्ट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद साहनी ने 1958 में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की।सन् 1944 में उनका विवाह शीला जी के साथ हुआ। उनकी पहली कहानी ‘अबला’ इण्टर कालेज की पत्रिका ‘रावी’ में तथा दूसरी कहानी ‘नीली ऑंखे’ अमृतराय के सम्पादकत्व में ‘हंस’ में छपी. भारत पाकिस्तान विभाजन के पूर्व अवैतनिक शिक्षक होने के साथ-साथ ये व्यापार भी करते थे। विभाजन के बाद उन्होंने भारत आकर समाचारपत्रों में लिखने का काम किया। बाद में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जा मिले। इसके पश्चात अंबाला और अमृतसर में भी अध्यापक रहने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में साहित्य के प्रोफेसर बने। 1957 से 1963 तक मास्को में विदेशी भाषा प्रकाशन गृह (फॉरेन लॅग्वेजेस पब्लिकेशन हाउस) में अनुवादक के काम में कार्यरत रहे। यहां उन्होंने करीब दो दर्जन रूसी किताबें जैसे टालस्टॉय आस्ट्रोवस्की इत्यादि लेखकों की किताबों का हिंदी में रूपांतर किया। 1965 से 1967 तक दो सालों में उन्होंने नयी कहानियां नामक पात्रिका का सम्पादन किया। वे प्रगतिशील लेखक संघ और अफ्रो-एशियायी लेखक संघ (एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन) से भी जुड़े रहे। 1993 से1997 तक वे साहित्य अकादमी के कार्यकारी समीति के सदस्य रहे।
भीष्म साहनी को हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है।कथाकार के रूप में भीष्म जी पर यशपाल और प्रेमचन्द की गहरी छाप है।
वे मानवीय मूल्यों के लिए हिमायती रहे और उन्होंने विचारधारा को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। वामपंथी विचारधारा के साथ जुड़े होने के साथ-साथ वे मानवीय मूल्यों को कभी आंखो से ओझल नहीं करते थे। आपाधापी और उठापटक के युग में भीष्म साहनी का व्यक्तित्व बिल्कुल अलग था। उन्हें उनके लेखन के लिए तो स्मरण किया ही जाएगा लेकिन अपनी सहृदयता के लिए वे चिरस्मरणीय रहेंगे। भीष्म साहनी हिन्दी फ़िल्मों के जाने माने अभिनेता बलराज साहनी के छोटे भाई थे। उन्हें १९७५ में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1975 में शिरोमणि लेखक अवार्ड (पंजाब सरकार), 1980 में एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन का लोटस अवार्ड, 1983 में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड तथा1998 में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया। उनके उपन्यास तमस पर 1986 में एक फिल्म का निर्माण भी किया गया था।। साहनी जी के ‘झरोखे’, ‘कड़ियाँ’, ‘तमस’, ‘बसन्ती’, ‘मय्यादास की माड़ी’, ‘कुंतो’, ‘नीलू नीलिमा नीलोफर’ नामक उपन्यासो के अतिरिक्त भाग्यरेखा, पटरियाँ, पहला पाठ, भटकती राख, वाड.चू, शोभायात्रा, निशाचर, पाली, प्रतिनिधि कहानियाँ व मेरी प्रिय कहानियाँ नामक दस कहानी संग्रहों का सृजन किया। नाटको के क्षेत्र में भी उन्होने हानूश, कबिरा खड़ा बाजार में, माधवी मुआवजे जैसे प्रसिद्धि प्राप्त नाटक लिखे। जीवनी साहित्य के अन्तर्गत उन्होने मेरे भाई बलराज, अपनी बात, मेंरे साक्षात्कार तथा बाल साहित्य के अन्तर्गत ‘वापसी’ ‘गुलेल का खेल’ का सृजन कर साहित्य की हर विधा पर अपनी कलम अजमायी। अपनी मृत्यु के कुछ दिन पहले उन्होने ‘आज के अतीत’ नामक आत्मकथा का प्रकाशन करवाया। स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले भीष्म जी गहन मानवीय संवेदना के सषक्त हस्ताक्षर थे। जिन्होने भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक यथार्थ का स्पष्ट चित्र अपने उपन्यासों में प्रस्तुत किया। उनकी यथार्थवादी दृष्टि उनके प्रगतिशील व मार्क्सवादी विचारों का प्रतिफल थी। भीष्म जी की सबसे बड़ी विशेषता थी कि उन्होने जिस जीवन को जिया, जिन संघर्षो को झेला, उसी का यथावत् चित्र अपनी रचनाओं में अंकित किया। इसी कारण उनके लिए रचना कर्म और जीवन धर्म में अभेद था। वह लेखन की सच्चाई को अपनी सच्चाई मानते थे।
11 जुलाई सन् 2003 को इनका शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया।

कहानियाँ

अमृतसर आ गया है 

गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हँसते और गोरे फौजियों की खिल्ली उड़ाते रहे थे। डिब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमें से एक हरे रंग की पोशाक पहने ऊपरवाली बर्थ पर लेटा हुआ था। वह आदमी बड़ा हँसमुख था और बड़ी देर से मेरे साथवाली सीट पर बैठे एक दुबले-से बाबू के साथ उसका मजाक चल रहा था। वह दुबला बाबू पेशावर का रहनेवाला जान पड़ता था क्योंकि किसी-किसी वक्त वे आपस में पश्तो में बातें करने लगते थे। मेरे सामने दाईं ओर कोने में, एक बुढ़िया मुँह-सिर ढाँपे बैठा थी और देर से माला जप रही थी। यही कुछ लोग रहे होंगे। संभव है दो-एक और मुसाफिर भी रहे हों, पर वे स्पष्टत: मुझे याद नहीं।
गाड़ी धीमी रफ्तार से चली जा रही थी, और गाड़ी में बैठे मुसाफिर बतिया रहे थे और बाहर गेहूँ के खेतों में हल्की-हल्की लहरियाँ उठ रही थीं, और मैं मन-ही-मन बड़ा खुश था क्योंकि मैं दिल्ली में होनेवाला स्वतंत्रता-दिवस समारोह देखने जा रहा था।
उन दिनों के बारे में सोचता हूँ, तो लगता है, हम किसी झुटपुटे में जी रहे हैं। शायद समय बीत जाने पर अतीत का सारा व्यापार ही झुटपुटे में बीता जान पड़ता है। ज्यों-ज्यों भविष्य के पट खुलते जाते हैं, यह झुटपुटा और भी गहराता चला जाता है।
उन्हीं दिनों पाकिस्तान के बनाए जाने का ऐलान किया गया था और लोग तरह-तरह के अनुमान लगाने लगे थे कि भविष्य में जीवन की रूपरेखा कैसी होगी। पर किसी की भी कल्पना बहुत दूर तक नहीं जा पाती थी। मेरे सामने बैठे सरदार जी बार-बार मुझसे पूछ रहे थे कि पाकिस्तान बन जाने पर जिन्ना साहिब बंबई में ही रहेंगे या पाकिस्तान में जा कर बस जाएँगे, और मेरा हर बार यही जवाब होता – बंबई क्यों छोड़ेंगे, पाकिस्तान में आते-जाते रहेंगे, बंबई छोड़ देने में क्या तुक है! लाहौर और गुरदासपुर के बारे में भी अनुमान लगाए जा रहे थे कि कौन-सा शहर किस ओर जाएगा। मिल बैठने के ढंग में, गप-शप में, हँसी-मजाक में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। कुछ लोग अपने घर छोड़ कर जा रहे थे, जबकि अन्य लोग उनका मजाक उड़ा रहे थे। कोई नहीं जानता था कि कौन-सा कदम ठीक होगा और कौन-सा गलत। एक ओर पाकिस्तान बन जाने का जोश था तो दूसरी ओर हिंदुस्तान के आजाद हो जाने का जोश। जगह-जगह दंगे भी हो रहे थे, और योम-ए-आजादी की तैयारियाँ भी चल रही थीं। इस पूष्ठभूमि में लगता, देश आजाद हो जाने पर दंगे अपने-आप बंद हो जाएँगे। वातावरण में इस झुटपुट में आजादी की सुनहरी धूल-सी उड़ रही थी और साथ-ही-साथ अनिश्चय भी डोल रहा था, और इसी अनिश्चय की स्थिति में किसी-किसी वक्त भावी रिश्तों की रूपरेखा झलक दे जाती थी।
शायद जेहलम का स्टेशन पीछे छूट चुका था जब ऊपर वाली बर्थ पर बैठे पठान ने एक पोटली खोल ली और उसमें से उबला हुआ मांस और नान-रोटी के टुकड़े निकाल-निकाल कर अपने साथियों को देने लगा। फिर वह हँसी-मजाक के बीच मेरी बगल में बैठे बाबू की ओर भी नान का टुकड़ा और मांस की बोटी बढ़ा कर खाने का आग्रह करने लगा था – ‘का ले, बाबू, ताकत आएगी। अम जैसा ओ जाएगा। बीवी बी तेरे सात कुश रएगी। काले दालकोर, तू दाल काता ए, इसलिए दुबला ए…’
डिब्बे में लोग हँसने लगे थे। बाबू ने पश्तो में कुछ जवाब दिया और फिर मुस्कराता सिर हिलाता रहा।
इस पर दूसरे पठान ने हँस कर कहा – ‘ओ जालिम, अमारे हाथ से नई लेता ए तो अपने हाथ से उठा ले। खुदा कसम बकरे का गोश्त ए, और किसी चीज का नईए।’
ऊपर बैठा पठान चहक कर बोला – ‘ओ खंजीर के तुम, इदर तुमें कौन देखता ए? अम तेरी बीवी को नई बोलेगा। ओ तू अमारे साथ बोटी तोड़। अम तेरे साथ दाल पिएगा…’
इस पर कहकहा उठा, पर दुबला-पतला बाबू हँसता, सिर हिलाता रहा और कभी-कभी दो शब्द पश्तो में भी कह देता।
‘ओ कितना बुरा बात ए, अम खाता ए, और तू अमारा मुँ देखता ए…’ सभी पठान मगन थे।
‘यह इसलिए नहीं लेता कि तुमने हाथ नहीं धोए हैं,’ स्थूलकाय सरदार जी बोले और बोलते ही खी-खी करने लगे! अधलेटी मुद्रा में बैठे सरदार जी की आधी तोंद सीट के नीचे लटक रही थी – ‘तुम अभी सो कर उठे हो और उठते ही पोटली खोल कर खाने लग गए हो, इसीलिए बाबू जी तुम्हारे हाथ से नहीं लेते, और कोई बात नहीं।’ और सरदार जी ने मेरी ओर देख कर आँख मारी और फिर खी-खी करने लगे।
‘मांस नई खाता ए, बाबू तो जाओ जनाना डब्बे में बैटो, इदर क्या करता ए?’ फिर कहकहा उठा।
डब्बे में और भी अनेक मुसाफिर थे लेकिन पुराने मुसाफिर यही थे जो सफर शुरू होने में गाड़ी में बैठे थे। बाकी मुसाफिर उतरते-चढ़ते रहे थे। पुराने मुसाफिर होने के नाते उनमें एक तरह की बेतकल्लुफी आ गई थी।
‘ओ इदर आ कर बैठो। तुम अमारे साथ बैटो। आओ जालिम, किस्सा-खानी की बातें करेंगे।’
तभी किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी थी और नए मुसाफिरों का रेला अंदर आ गया था। बहुत-से मुसाफिर एक साथ अंदर घुसते चले आए थे।
‘कौन-सा स्टेशन है?’ किसी ने पूछा।
‘वजीराबाद है शायद,’ मैंने बाहर की ओर देख कर कहा।
गाड़ी वहाँ थोड़ी देर के लिए खड़ी रही। पर छूटने से पहले एक छोटी-सी घटना घटी। एक आदमी साथ वाले डिब्बे में से पानी लेने उतरा और नल पर जा कर पानी लोटे में भर रहा था तभी वह भाग कर अपने डिब्बे की ओर लौट आया। छलछलाते लोटे में से पानी गिर रहा था। लेकिन जिस ढंग से वह भागा था, उसी ने बहुत कुछ बता दिया था। नल पर खड़े और लोग भी, तीन-चार आदमी रहे होंगे – इधर-उधर अपने-अपने डिब्बे की ओर भाग गए थे। इस तरह घबरा कर भागते लोगों को मैं देख चुका था। देखते-ही-देखते प्लेटफार्म खाली हो गया। मगर डिब्बे के अंदर अभी भी हँसी-मजाक चल रहा था।
‘कहीं कोई गड़बड़ है,’ मेरे पास बैठे दुबले बाबू ने कहा।
कहीं कुछ था, लेकिन क्या था, कोई भी स्पष्ट नहीं जानता था। मैं अनेक दंगे देख चुका था इसलिए वातावरण में होने वाली छोटी-सी तबदील को भी भाँप गया था। भागते व्यक्ति, खटाक से बंद होते दरवाजे, घरों की छतों पर खड़े लोग, चुप्पी और सन्नाटा, सभी दंगों के चिह्न थे।
तभी पिछले दरवाजे की ओर से, जो प्लेटफार्म की ओर न खुल कर दूसरी ओर खुलता था, हल्का-सा शोर हुआ। कोई मुसाफिर अंदर घुसना चाह रहा था।
‘कहाँ घुसा आ रहा है, नहीं है जगह! बोल दिया जगह नहीं है,’ किसी ने कहा।
‘बंद करो जी दरवाजा। यों ही मुँह उठाए घुसे आते हैं।’ आवाजें आ रही थीं।
जितनी देर कोई मुसाफिर डिब्बे के बाहर खड़ा अंदर आने की चेष्टा करता रहे, अंदर बैठे मुसाफिर उसका विरोध करते रहते हैं। पर एक बार जैसे-तैसे वह अंदर जा जाए तो विरोध खत्म हो जाता है, और वह मुसाफिर जल्दी ही डिब्बे की दुनिया का निवासी बन जाता है, और अगले स्टेशन पर वही सबसे पहले बाहर खड़े मुसाफिरों पर चिल्लाने लगता है – नहीं है जगह, अगले डिब्बे में जाओ… घुसे आते हैं…
दरवाजे पर शोर बढ़ता जा रहा था। तभी मैले-कुचैले कपड़ों और लटकती मूँछों वाला एक आदमी दरवाजे में से अंदर घुसता दिखाई दिया। चीकट, मैले कपड़े, जरूर कहीं हलवाई की दुकान करता होगा। वह लोगों की शिकायतों-आवाजों की ओर ध्यान दिए बिना दरवाजे की ओर घूम कर बड़ा-सा काले रंग का संदूक अंदर की ओर घसीटने लगा।
‘आ जाओ, आ जाओ, तुम भी चढ़ जाओ! वह अपने पीछे किसी से कहे जा रहा था। तभी दरवाजे में एक पतली सूखी-सी औरत नजर आई और उससे पीछे सोलह-सतरह बरस की साँवली-सी एक लड़की अंदर आ गई। लोग अभी भी चिल्लाए जा रहे थे। सरदार जी को कूल्हों के बल उठ कर बैठना पड़ा।’
‘बंद करो जी दरवाजा, बिना पूछे चढ़े आते हैं, अपने बाप का घर समझ रखा है। मत घुसने दो जी, क्या करते हो, धकेल दो पीछे…’ और लोग भी चिल्ला रहे थे।
वह आदमी अपना सामान अंदर घसीटे जा रहा था और उसकी पत्नी और बेटी संडास के दरवाजे के साथ लग कर खड़े थे।
‘और कोई डिब्बा नहीं मिला? औरत जात को भी यहाँ उठा लाया है?’
वह आदमी पसीने से तर था और हाँफता हुआ सामान अंदर घसीटे जा रहा था। संदूक के बाद रस्सियों से बँधी खाट की पाटियाँ अंदर खींचने लगा।
‘टिकट है जी मेरे पास, मैं बेटिकट नहीं हूँ।’ इस पर डिब्बे में बैठे बहुत-से लोग चुप हो गए, पर बर्थ पर बैठा पठान उचक कर बोला – ‘निकल जाओ इदर से, देखता नई ए, इदर जगा नई ए।’
और पठान ने आव देखा न ताव, आगे बढ़ कर ऊपर से ही उस मुसाफिर के लात जमा दी, पर लात उस आदमी को लगने के बजाए उसकी पत्नी के कलेजे में लगी और वहीं ‘हाय-हाय’ करती बैठ गई।
उस आदमी के पास मुसाफिरों के साथ उलझने के लिए वक्त नहीं था। वह बराबर अपना सामान अंदर घसीटे जा रहा था। पर डिब्बे में मौन छा गया। खाट की पाटियों के बाद बड़ी-बड़ी गठरियाँ आईं। इस पर ऊपर बैठे पठान की सहन-क्षमता चुक गई। ‘निकालो इसे, कौन ए ये?’ वह चिल्लाया। इस पर दूसरे पठान ने, जो नीचे की सीट पर बैठा था, उस आदमी का संदूक दरवाजे में से नीचे धकेल दिया, जहाँ लाल वर्दीवाला एक कुली खड़ा सामान अंदर पहुँचा रहा था।
उसकी पत्नी के चोट लगने पर कुछ मुसाफिर चुप हो गए थे। केवल कोने में बैठो बुढ़िया करलाए जा रही थी – ‘ए नेकबख्तो, बैठने दो। आ जा बेटी, तू मेरे पास आ जा। जैसे-तैसे सफर काट लेंगे। छोड़ो बे जालिमो, बैठने दो।’
अभी आधा सामान ही अंदर आ पाया होगा जब सहसा गाड़ी सरकने लगी।
‘छूट गया! सामान छूट गया।’ वह आदमी बदहवास-सा हो कर चिल्लाया।
‘पिताजी, सामान छूट गया।’ संडास के दरवाजे के पास खड़ी लड़की सिर से पाँव तक काँप रही थी और चिल्लाए जा रही थी।
‘उतरो, नीचे उतरो,’ वह आदमी हड़बड़ा कर चिल्लाया और आगे बढ़ कर खाट की पाटियाँ और गठरियाँ बाहर फेंकते हुए दरवाजे का डंडहरा पकड़ कर नीचे उतर गया। उसके पीछे उसकी व्याकुल बेटी और फिर उसकी पत्नी, कलेजे को दोनों हाथों से दबाए हाय-हाय करती नीचे उतर गई।
‘बहुत बुरा किया है तुम लोगों ने, बहुत बुरा किया है।’ बुढ़िया ऊँचा-ऊँचा बोल रही थी -‘तुम्हारे दिल में दर्द मर गया है। छोटी-सी बच्ची उसके साथ थी। बेरहमो, तुमने बहुत बुरा किया है, धक्के दे कर उतार दिया है।’
गाड़ी सूने प्लेटफार्म को लाँघती आगे बढ़ गई। डिब्बे में व्याकुल-सी चुप्पी छा गई। बुढ़िया ने बोलना बंद कर दिया था। पठानों का विरोध कर पाने की हिम्मत नहीं हुई।
तभी मेरी बगल में बैठे दुबले बाबू ने मेरे बाजू पर हाथ रख कर कहा – ‘आग है, देखो आग लगी है।’
गाड़ी प्लेटफार्म छोड़ कर आगे निकल आई थी और शहर पीछे छूट रहा था। तभी शहर की ओर से उठते धुएँ के बादल और उनमें लपलपाती आग के शोले नजर आने लगे।
‘दंगा हुआ है। स्टेशन पर भी लोग भाग रहे थे। कहीं दंगा हुआ है।’
शहर में आग लगी थी। बात डिब्बे-भर के मुसाफिरों को पता चल गई और वे लपक-लपक कर खिड़कियों में से आग का दृश्य देखने लगे।
जब गाड़ी शहर छोड़ कर आगे बढ़ गई तो डिब्बे में सन्नाटा छा गया। मैंने घूम कर डिब्बे के अंदर देखा, दुबले बाबू का चेहरा पीला पड़ गया था और माथे पर पसीने की परत किसी मुर्दे के माथे की तरह चमक रही थी। मुझे लगा, जैसे अपनी-अपनी जगह बैठे सभी मुसाफिरों ने अपने आसपास बैठे लोगों का जायजा ले लिया है। सरदार जी उठ कर मेरी सीट पर आ बैठे। नीचे वाली सीट पर बैठा पठान उठा और अपने दो साथी पठानों के साथ ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गया। यही क्रिया शायद रेलगाड़ी के अन्य डिब्बों में भी चल रही थी। डिब्बे में तनाव आ गया। लोगों ने बतियाना बंद कर दिया। तीनों-के-तीनों पठान ऊपरवाली बर्थ पर एक साथ बैठे चुपचाप नीचे की ओर देखे जा रहे थे। सभी मुसाफिरों की आँखें पहले से ज्यादा खुली-खुली, ज्यादा शंकित-सी लगीं। यही स्थिति संभवत: गाड़ी के सभी डिब्बों में व्याप्त हो रही थी।
‘कौन-सा स्टेशन था यह?’ डिब्बे में किसी ने पूछा।
‘वजीराबाद,’ किसी ने उत्तर दिया।
जवाब मिलने पर डिब्बे में एक और प्रतिक्रिया हुई। पठानों के मन का तनाव फौरन ढीला पड़ गया। जबकि हिंदू-सिक्ख मुसाफिरों की चुप्पी और ज्यादा गहरी हो गई। एक पठान ने अपनी वास्कट की जेब में से नसवार की डिबिया निकाली और नाक में नसवार चढ़ाने लगा। अन्य पठान भी अपनी-अपनी डिबिया निकाल कर नसवार चढ़ाने लगे। बुढ़िया बराबर माला जपे जा रही थी। किसी-किसी वक्त उसके बुदबुदाते होंठ नजर आते, लगता, उनमें से कोई खोखली-सी आवाज निकल रही है।
अगले स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो वहाँ भी सन्नाटा था। कोई परिंदा तक नहीं फड़क रहा था। हाँ, एक भिश्ती, पीठ पर पानी की मशकल लादे, प्लेटफार्म लाँघ कर आया और मुसाफिरों को पानी पिलाने लगा।
‘लो, पियो पानी, पियो पानी।’ औरतों के डिब्बे में से औरतों और बच्चों के अनेक हाथ बाहर निकल आए थे।
‘बहुत मार-काट हुई है, बहुत लोग मरे हैं। लगता था, वह इस मार-काट में अकेला पुण्य कमाने चला आया है।’
गाड़ी सरकी तो सहसा खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे। दूर-दूर तक, पहियों की गड़गड़ाहट के साथ, खिड़कियों के पल्ले चढ़ाने की आवाज आने लगी।
किसी अज्ञात आशंकावश दुबला बाबू मेरे पासवाली सीट पर से उठा और दो सीटों के बीच फर्श पर लेट गया। उसका चेहरा अभी भी मुर्दे जैसा पीला हो रहा था। इस पर बर्थ पर बैठा पठान उसकी ठिठोली करने लगा – ‘ओ बेंगैरत, तुम मर्द ए कि औरत ए? सीट पर से उट कर नीचे लेटता ए। तुम मर्द के नाम को बदनाम करता ए।’ वह बोल रहा था और बार-बार हँसे जा रहा था। फिर वह उससे पश्तो में कुछ कहने लगा। बाबू चुप बना लेटा रहा। अन्य सभी मुसाफिर चुप थे। डिब्बे का वातावरण बोझिल बना हुआ था।
‘ऐसे आदमी को अम डिब्बे में नईं बैठने देगा। ओ बाबू, अगले स्टेशन पर उतर जाओ, और जनाना डब्बे में बैटो।’
मगर बाबू की हाजिरजवाबी अपने कंठ में सूख चली थी। हकला कर चुप हो रहा। पर थोड़ी देर बाद वह अपने आप उठ कर सीट पर जा बैठा और देर तक अपने कपड़ों की धूल झाड़ता रहा। वह क्यों उठ कर फर्श पर लेट गया था? शायद उसे डर था कि बाहर से गाड़ी पर पथराव होगा या गोली चलेगी, शायद इसी कारण खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जा रहे थे।
कुछ भी कहना कठिन था। मुमकिन है किसी एक मुसाफिर ने किसी कारण से खिड़की का पल्ला चढ़ाया हो। उसकी देखा-देखी, बिना सोचे-समझे, धड़ाधड़ खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे थे।
बोझिल अनिश्चत-से वातावरण में सफर कटने लगा। रात गहराने लगी थी। डिब्बे के मुसाफिर स्तब्ध और शंकित ज्यों-के-त्यों बैठे थे। कभी गाड़ी की रफ्तार सहसा टूट कर धीमी पड़ जाती तो लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगते। कभी रास्ते में ही रुक जाती तो डिब्बे के अंदर का सन्नाटा और भी गहरा हो उठता। केवल पठान निश्चित बैठे थे। हाँ, उन्होंने भी बतियाना छोड़ दिया था, क्योंकि उनकी बातचीत में कोई भी शामिल होने वाला नहीं था।
धीरे-धीरे पठान ऊँघने लगे जबकि अन्य मुसाफिर फटी-फटी आँखों से शून्य में देखे जा रहे थे। बुढ़िया मुँह-सिर लपेटे, टाँगें सीट पर चढ़ाए, बैठा-बैठा सो गई थी। ऊपरवाली बर्थ पर एक पठान ने, अधलेटे ही, कुर्ते की जेब में से काले मनकों की तसबीह निकाल ली और उसे धीरे-धीरे हाथ में चलाने लगा।
खिड़की के बाहर आकाश में चाँद निकल आया और चाँदनी में बाहर की दुनिया और भी अनिश्चित, और भी अधिक रहस्यमयी हो उठी। किसी-किसी वक्त दूर किसी ओर आग के शोले उठते नजर आते, कोई नगर जल रहा था। गाड़ी किसी वक्त चिंघाड़ती हुई आगे बढ़ने लगती, फिर किसी वक्त उसकी रफ्तार धीमी पड़ जाती और मीलों तक धीमी रफ्तार से ही चलती रहती।
सहसा दुबला बाबू खिड़की में से बाहर देख कर ऊँची आवाज में बोला – ‘हरबंसपुरा निकल गया है।’ उसकी आवाज में उत्तेजना थी, वह जैसे चीख कर बोला था। डिब्बे के सभी लोग उसकी आवाज सुन कर चौंक गए। उसी वक्त डिब्बे के अधिकांश मुसाफिरों ने मानो उसकी आवाज को ही सुन कर करवट बदली।
‘ओ बाबू, चिल्लाता क्यों ए?’, तसबीह वाला पठान चौंक कर बोला – ‘इदर उतरेगा तुम? जंजीर खींचूँ?’ अैर खी-खी करके हँस दिया। जाहिर है वह हरबंसपुरा की स्थिति से अथवा उसके नाम से अनभिज्ञ था।
बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल सिर हिला दिया और एक-आध बार पठान की ओर देख कर फिर खिड़की के बाहर झाँकने लगा।
डब्बे में फिर मौन छा गया। तभी इंजन ने सीटी दी और उसकी एकरस रफ्तार टूट गई। थोड़ी ही देर बाद खटाक-का-सा शब्द भी हुआ। शायद गाड़ी ने लाइन बदली थी। बाबू ने झाँक कर उस दिशा में देखा जिस ओर गाड़ी बढ़ी जा रही थी।
‘शहर आ गया है।’ वह फिर ऊँची आवाज में चिल्लाया – ‘अमृतसर आ गया है।’ उसने फिर से कहा और उछल कर खड़ा हो गया, और ऊपर वाली बर्थ पर लेटे पठान को संबोधित करके चिल्लाया – ‘ओ बे पठान के बच्चे! नीचे उतर तेरी माँ की… नीचे उतर, तेरी उस पठान बनानेवाले की मैं…’
बाबू चिल्लाने लगा और चीख-चीख कर गालियाँ बकने लगा था। तसबीह वाले पठान ने करवट बदली और बाबू की ओर देख कर बोला -‘ओ क्या ए बाबू? अमको कुच बोला?’
बाबू को उत्तेजित देख कर अन्य मुसाफिर भी उठ बैठे।
‘नीचे उतर, तेरी मैं… हिंदू औरत को लात मारता है! हरामजादे! तेरी उस…।’
‘ओ बाबू, बक-बकर नई करो। ओ खजीर के तुख्म, गाली मत बको, अमने बोल दिया। अम तुम्हारा जबान खींच लेगा।’
‘गाली देता है मादर…।’ बाबू चिल्लाया और उछल कर सीट पर चढ़ गया। वह सिर से पाँव तक काँप रहा था।
‘बस-बस।’ सरदार जी बोले – ‘यह लड़ने की जगह नहीं है। थोड़ी देर का सफर बाकी है, आराम से बैठो।’
‘तेरी मैं लात न तोड़ूँ तो कहना, गाड़ी तेरे बाप की है?’ बाबू चिल्लाया।
‘ओ अमने क्या बोला! सबी लोग उसको निकालता था, अमने बी निकाला। ये इदर अमको गाली देता ए। अम इसका जबान खींच लेगा।’
बुढ़िया बीच में फिर बोले उठी – ‘वे जीण जोगयो, अराम नाल बैठो। वे रब्ब दिए बंदयो, कुछ होश करो।’
उसके होंठ किसी प्रेत की तरह फड़फड़ाए जा रहे थे और उनमें से क्षीण-सी फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी।
बाबू चिल्लाए जा रहा था – ‘अपने घर में शेर बनता था। अब बोल, तेरी मैं उस पठान बनानेवाले की…।’
तभी गाड़ी अमृतसर के प्लेटफार्म पर रुकी। प्लेटफार्म लोगों से खचाखच भरा था। प्लेटफार्म पर खड़े लोग झाँक-झाँक कर डिब्बों के अंदर देखने लगे। बार-बार लोग एक ही सवाल पूछ रहे थे – ‘पीछे क्या हुआ है? कहाँ पर दंगा हुआ है?’
खचाखच भरे प्लेटफार्म पर शायद इसी बात की चर्चा चल रही थी कि पीछे क्या हुआ है। प्लेटफार्म पर खड़े दो-तीन खोमचे वालों पर मुसाफिर टूटे पड़ रहे थे। सभी को सहसा भूख और प्यास परेशान करने लगी थी। इसी दौरान तीन-चार पठान हमारे डिब्बे के बाहर प्रकट हो गए और खिड़की में से झाँक-झाँक कर अंदर देखने लगे। अपने पठान साथियों पर नजर पड़ते ही वे उनसे पश्तो में कुछ बोलने लगे। मैंने घूम कर देखा, बाबू डिब्बे में नहीं था। न जाने कब वह डिब्बे में से निकल गया था। मेरा माथा ठिनका। गुस्से में वह पागल हुआ जा रहा था। न जाने क्या कर बैठे! पर इस बीच डिब्बे के तीनों पठान, अपनी-अपनी गठरी उठा कर बाहर निकल गए और अपने पठान साथियों के साथ गाड़ी के अगले डिब्बे की ओर बढ़ गए। जो विभाजन पहले प्रत्येक डिब्बे के भीतर होता रहा था, अब सारी गाड़ी के स्तर पर होने लगा था।
खोमचेवालों के इर्द-गिर्द भीड़ छँटने लगी। लोग अपने-अपने डिब्बों में लौटने लगे। तभी सहसा एक ओर से मुझे वह बाबू आता दिखाई दिया। उसका चेहरा अभी भी बहुत पीला था और माथे पर बालों की लट झूल रही थी। नजदीक पहुँचा, तो मैंने देखा, उसने अपने दाएँ हाथ में लोहे की एक छड़ उठा रखी थी। जाने वह उसे कहाँ मिल गई थी! डिब्बे में घुसते समय उसने छड़ को अपनी पीठ के पीछे कर लिया और मेरे साथ वाली सीट पर बैठने से पहले उसने हौले से छड़ को सीट के नीचे सरका दिया। सीट पर बैठते ही उसकी आँखें पठान को देख पाने के लिए ऊपर को उठीं। पर डिब्बे में पठानों को न पा कर वह हड़बड़ा कर चारों ओर देखने लगा।
‘निकल गए हरामी, मादर… सब-के-सब निकल गए!’ फिर वह सिटपिटा कर उठ खड़ा हुआ चिल्ला कर बोला – ‘तुमने उन्हें जाने क्यों दिया? तुम सब नामर्द हो, बुजदिल!’
पर गाड़ी में भीड़ बहुत थी। बहुत-से नए मुसाफिर आ गए थे। किसी ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।
गाड़ी सरकने लगी तो वह फिर मेरी वाली सीट पर आ बैठा, पर वह बड़ा उत्तेजित था और बराबर बड़बड़ाए जा रहा था।
धीरे-धीरे हिचकोले खाती गाड़ी आगे बढ़ने लगी। डिब्बे में पुराने मुसाफिरों ने भरपेट पूरियाँ खा ली थीं और पानी पी लिया था और गाड़ी उस इलाके में आगे बढ़ने लगी थी, जहाँ उनके जान-माल को खतरा नहीं था।
नए मुसाफिर बतिया रहे थे। धीरे-धीरे गाड़ी फिर समतल गति से चलने लगी थी। कुछ ही देर बाद लोग ऊँघने भी लगे थे। मगर बाबू अभी भी फटी-फटी आँखों से सामने की ओर देखे जा रहा था। बार-बार मुझसे पूछता कि पठान डिब्बे में से निकल कर किस ओर को गए हैं। उसके सिर पर जुनून सवार था।
गाड़ी के हिचकोलों में मैं खुद ऊँघने लगा था। डिब्बे में लेट पाने के लिए जगह नहीं थी। बैठे-बैठे ही नींद में मेरा सिर कभी एक ओर को लुढ़क जाता, कभी दूसरी ओर को। किसी-किसी वक्त झटके से मेरी नींद टूटती, और मुझे सामने की सीट पर अस्त-व्यस्त से पड़े सरदार जी के खर्राटे सुनाई देते। अमृतसर पहुँचने के बाद सरदार जी फिर से सामनेवाली सीट पर टाँगे पसार कर लेट गए थे। डिब्बे में तरह-तरह की आड़ी-तिरछी मुद्राओं में मुसाफिर पड़े थे। उनकी बीभत्स मुद्राओं को देख कर लगता, डिब्बा लाशों से भरा है। पास बैठे बाबू पर नजर पड़ती तो कभी तो वह खिड़की के बाहर मुँह किए देख रहा होता, कभी दीवार से पीठ लगाए तन कर बैठा नजर आता।
किसी-किसी वक्त गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकती तो पहियों की गड़गड़ाहट बंद होने पर निस्तब्धता-सी छा जाती। तभी लगता, जैसे प्लेटफार्म पर कुछ गिरा है, या जैसे कोई मुसाफिर गाड़ी में से उतरा है और मैं झटके से उठ कर बैठ जाता।
इसी तरह जब एक बार मेरी नींद टूटी तो गाड़ी की रफ्तार धीमी पड़ गई थी, और डिब्बे में अँधेरा था। मैंने उसी तरह अधलेटे खिड़की में से बाहर देखा। दूर, पीछे की ओर किसी स्टेशन के सिगनल के लाल कुमकुमे चमक रहे थे। स्पष्टत: गाड़ी कोई स्टेशन लाँघ कर आई थी। पर अभी तक उसने रफ्तार नहीं पकड़ी थी।
डिब्बे के बाहर मुझे धीमे-से अस्फुट स्वर सुनाई दिए। दूर ही एक धूमिल-सा काला पुंज नजर आया। नींद की खुमारी में मेरी आँखें कुछ देर तक उस पर लगी रहीं, फिर मैंने उसे समझ पाने का विचार छोड़ दिया। डिब्बे के अंदर अँधेरा था, बत्तियाँ बुझी हुई थीं, लेकिन बाहर लगता था, पौ फटने वाली है।
मेरी पीठ-पीछे, डिब्बे के बाहर किसी चीज को खरोंचने की-सी आवाज आई। मैंने दरवाजे की ओर घूम कर देखा। डिब्बे का दरवाजा बंद था। मुझे फिर से दरवाजा खरोंचने की आवाज सुनाई दी। फिर, मैंने साफ-साफ सुना, लाठी से कोई डिब्बे का दरवाजा पटपटा रहा था। मैंने झाँक कर खिड़की के बाहर देखा। सचमुच एक आदमी डिब्बे की दो सीढ़ियाँ चढ़ आया था। उसके कंधे पर एक गठरी झूल रही थी, और हाथ में लाठी थी और उसने बदरंग-से कपड़े पहन रखे थे और उसके दाढ़ी भी थी। फिर मेरी नजर बाहर नीचे की ओर आ गई। गाड़ी के साथ-साथ एक औरत भागती चली आ रही थी, नंगे पाँव, और उसने दो गठरियाँ उठा रखी थीं। बोझ के कारण उससे दौड़ा नहीं जा रहा था। डिब्बे के पायदान पर खड़ा आदमी बार-बार उसकी ओर मुड़ कर देख रहा था और हाँफता हुआ कहे जा रहा था – ‘आ जा, आ जा, तू भी चढ़ आ, आ जा!’
दरवाजे पर फिर से लाठी पटपटाने की आवाज आई – ‘खोलो जी दरवाजा, खुदा के वास्ते दरवाजा खोलो।’
वह आदमी हाँफ रहा था – ‘खुदा के लिए दरवाजा खोलो। मेरे साथ में औरतजात
सहसा मैंने देखा, बाबू हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ और दरवाजे के पास जा कर दरवाजे में लगी खिड़की में से मुँह बाहर निकाल कर बोला – ‘कौन है? इधर जगह नहीं है।’
बाहर खड़ा आदमी फिर गिड़गिड़ाने लगा – ‘खुदा के वास्ते दरवाजा खोलो। गाड़ी निकल जाएगी…’
और वह आदमी खिड़की में से अपना हाथ अंदर डाल कर दरवाजा खोल पाने के लिए सिटकनी टटोलने लगा।
‘नहीं है जगह, बोल दिया, उतर जाओ गाड़ी पर से।’ बाबू चिल्लाया और उसी क्षण लपक कर दरवाजा खोल दिया।
‘या अल्लाह! उस आदमी के अस्फुट-से शब्द सुनाई दिए। दरवाजा खुलने पर जैसे उसने इत्मीनान की साँस ली हो।’
और उसी वक्त मैंने बाबू के हाथ में छड़ चमकते देखा। एक ही भरपूर वार बाबू ने उस मुसाफिर के सिर पर किया था। मैं देखते ही डर गया और मेरी टाँगें लरज गईं। मुझे लगा, जैसे छड़ के वार का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ। उसके दोनों हाथ अभी भी जोर से डंडहरे को पकड़े हुए थे। कंधे पर से लटकती गठरी खिसट कर उसकी कोहनी पर आ गई थी।
तभी सहसा उसके चेहरे पर लहू की दो-तीन धारें एक साथ फूट पड़ीं। मुझे उसके खुले होंठ और चमकते दाँत नजर आए। वह दो-एक बार ‘या अल्लाह!’ बुदबुदाया, फिर उसके पैर लड़खड़ा गए। उसकी आँखों ने बाबू की ओर देखा, अधमुँदी-सी आँखें, जो धीर-धीरे सिकुड़ती जा रही थीं, मानो उसे पहचानने की कोशिश कर रही हों कि वह कौन है और उससे किस अदावत का बदला ले रहा है। इस बीच अँधेरा कुछ और छन गया था। उसके होंठ फिर से फड़फड़ाए और उनमें सफेद दाँत फिर से झलक उठे। मुझे लगा, जैसे वह मुस्कराया है, पर वास्तव में केवल क्षय के ही कारण होंठों में बल पड़ने लगे थे।
नीचे पटरी के साथ-साथ भागती औरत बड़बड़ाए और कोसे जा रही थी। उसे अभी भी मालूम नहीं हो पाया था कि क्या हुआ है। वह अभी भी शायद यह समझ रही थी कि गठरी के कारण उसका पति गाड़ी पर ठीक तरह से चढ़ नहीं पा रहा है, कि उसका पैर जम नहीं पा रहा है। वह गाड़ी के साथ-साथ भागती हुई, अपनी दो गठरियों के बावजूद अपने पति के पैर पकड़-पकड़ कर सीढ़ी पर टिकाने की कोशिश कर रही थी।
तभी सहसा डंडहरे से उस आदमी के दोनों हाथ छूट गए और वह कटे पेड़ की भाँति नीचे जा गिरा। और उसके गिरते ही औरत ने भागना बंद कर दिया, मानो दोनों का सफर एक साथ ही खत्म हो गया हो।
बाबू अभी भी मेरे निकट, डिब्बे के खुले दरवाजे में बुत-का-बुत बना खड़ा था, लोहे की छड़ अभी भी उसके हाथ में थी। मुझे लगा, जैसे वह छड़ को फेंक देना चाहता है लेकिन उसे फेंक नहीं पा रहा, उसका हाथ जैसे उठ नहीं रहा था। मेरी साँस अभी भी फूली हुई थी और डिब्बे के अँधियारे कोने में मैं खिड़की के साथ सट कर बैठा उसकी ओर देखे जा रहा था।
फिर वह आदमी खड़े-खड़े हिला। किसी अज्ञात प्रेरणावश वह एक कदम आगे बढ़ आया और दरवाजे में से बाहर पीछे की ओर देखने लगा। गाड़ी आगे निकलती जा रही थी। दूर, पटरी के किनारे अँधियारा पुंज-सा नजर आ रहा था।
बाबू का शरीर हरकत में आया। एक झटके में उसने छड़ को डिब्बे के बाहर फेंक दिया। फिर घूम कर डिब्बे के अंदर दाएँ-बाएँ देखने लगा। सभी मुसाफिर सोए पड़े थे। मेरी ओर उसकी नजर नहीं उठी।
थोड़ी देर तक वह खड़ा डोलता रहा, फिर उसने घूम कर दरवाजा बंद कर दिया। उसने ध्यान से अपने कपड़ों की ओर देखा, अपने दोनों हाथों की ओर देखा, फिर एक-एक करके अपने दोनों हाथों को नाक के पास ले जा कर उन्हें सूँघा, मानो जानना चाहता हो कि उसके हाथों से खून की बू तो नहीं आ रही है। फिर वह दबे पाँव चलता हुआ आया और मेरी बगलवाली सीट पर बैठ गया।
धीरे-धीरे झुटपुटा छँटने लगा, दिन खुलने लगा। साफ-सुथरी-सी रोशनी चारों ओर फैलने लगी। किसी ने जंजीर खींच कर गाड़ी को खड़ा नहीं किया था, छड़ खा कर गिरी उसकी देह मीलों पीछे छूट चुकी थी। सामने गेहूँ के खेतों में फिर से हल्की-हल्की लहरियाँ उठने लगी थीं।
सरदार जी बदन खुजलाते उठ बैठे। मेरी बगल में बैठा बाबू दोनों हाथ सिर के पीछे रखे सामने की ओर देखे जा रहा था। रात-भर में उसके चेहरे पर दाढ़ी के छोटे-छोटे बाल उग आए थे। अपने सामने बैठा देख कर सरदार उसके साथ बतियाने लगा – ‘बड़े जीवट वाले हो बाबू, दुबले-पतले हो, पर बड़े गुर्दे वाले हो। बड़ी हिम्मत दिखाई है। तुमसे डर कर ही वे पठान डिब्बे में से निकल गए। यहाँ बने रहते तो एक-न-एक की खोपड़ी तुम जरूर दुरुस्त कर देते…’ और सरदार जी हँसने लगे।
बाबू जवाब में मुसकराया – एक वीभत्स-सी मुस्कान, और देर तक सरदार जी के चेहरे की ओर देखता रहा।

चीलें 
चील ने फिर से झपट्टा मारा है। ऊपर, आकाश में मण्डरा रही थी जब सहसा, अर्धवृत्त बनाती हुई तेजी से नीचे उतरी और एक ही झपट्टे में, मांस के लोथड़े क़ो पंजों में दबोच कर फिर से वैसा ही अर्द्ववृत्त बनाती हुई ऊपर चली गई। वह कब्रगाह के ऊंचे मुनारे पर जा बैठी है और अपनी पीली चोंच, मांस के लोथडे में बार-बार गाड़ने लगी है।
कब्रगाह के इर्द-गिर्द दूर तक फैले पार्क में हल्की हल्की धुंध फैली है। वायुमण्डल में अनिश्चय सा डोल रहा है। पुरानी कब्रगाह के खंडहर जगह-जगह बिखरे पडे़ हैं। इस धुंधलके में उसका गोल गुंबद और भी ज्यादा वृहदाकार नजर आता है। यह मकबरा किसका है, मैं जानते हुए भी बार-बार भूल जाता हूँ। वातावरण में फैली धुंध के बावजूद, इस गुम्बद का साया घास के पूरे मैदान को ढके हुए है जहाँ मैं बैठा हूँ जिससे वायुमण्डल में सूनापन और भी ज्यादा बढ ग़या है, और मैं और भी ज्यादा अकेला महसूस करने लगा हूँ।
चील मुनारे पर से उड़ कर फिर से आकाश में मंडराने लगी है, फिर से न जाने किस शिकार पर निकली है। अपनी चोंच नीची किए, अपनी पैनी आँखें धरती पर लगाए, फिर से चक्कर काटने लगी है, मुझे लगने लगा है जैसे उसके डैने लम्बे होते जा रहे हैं और उसका आकार किसी भयावह जंतु के आकार की भांति फूलता जा रहा है। न जाने वह अपना निशाना बांधती हुई कब उतरे, कहाँ उतरे। उसे देखते हुए मैं त्रस्त सा महसूस करने लगा हूँ।
किसी जानकार ने एक बार मुझसे कहा था कि हम आकाश में मंडराती चीलों को तो देख सकते हैं पर इन्हीं की भांति वायुमण्डल में मंडराती उन अदृश्य ‘चीलों’ को नहीं देख सकते जो वैसे ही नीचे उतर कर झपट्टा मारती हैं और एक ही झपट्टे में इन्सान को लहु-लुहान करके या तो वहीं फेंक जाती हैं, या उसके जीवन की दिशा मोड़ देती हैं। उसने यह भी कहा था कि जहाँ चील की आँखें अपने लक्ष्य को देख कर वार करती हैं, वहाँ वे अदृश्य चीलें अंधी होती हैं, और अंधाधुंध हमला करती हैं। उन्हें झपट्टा मारते हम देख नहीं पाते और हमें लगने लगता है कि जो कुछ भी हुआ है, उसमें हम स्वयं कहीं दोषी रहे होंगे। हम जो हर घटना को कारण की कसौटी पर परखते रहे हैं, हम समझने लगते हैं कि अपने सर्वनाश में हम स्वयं कहीं जिम्मेदार रहे होंगे। उसकी बातें सुनते हुए मैं और भी ज्यादा विचलित महसूस करने लगा था।
उसने कहा था, ‘जिस दिन मेरी पत्नी का देहान्त हुआ, मैं अपने मित्रों के साथ, बगल वाले कमरे में बैठा बतिया रहा था। मैं समझे बैठा था कि वह अंदर सो रही है। मैं एक बार उसे बुलाने भी गया था कि आओ, बाहर आकर हमारे पास बैठो। मुझे क्या मालूम था कि मुझसे पहले ही कोई अदृश्य जंतु अन्दर घुस आया है और उसने मेरी पत्नी को अपनी जकड़ में ले रखा है। हम सारा वक्त इन अदृश्य जंतुओं में घिरे रहते है।’
अरे, यह क्या! शोभा? शोभा पार्क में आई है! हाँ, हाँ, शोभा ही तो है। झाड़ियों के बीचों-बीच वह धीरे-धीरे एक ओर बढ़ती आ रही है। वह कब यहाँ आई है और किस ओर से इसका मुझे पता ही नहीं चला।
मेरे अन्दर ज्वार सा उठा। मैं बहुत दिन बाद उसे देख रहा था।
शोभा दुबली हो गई है, तनिक झुक कर चलने लगी है, पर उसकी चाल में अभी भी पहले सी कमनीयता है, वही धीमी चाल, वही बांकापन, जिसमें उसके समूचे व्यक्तित्व की छवि झलकती है। धीरे-धीरे चलती हुई वह घास का मैदान लांघ रही है। आज भी बालों में लाल रंग का फूल ढंके हुए है।
शोभा, अब भी तुम्हारे होंठों पर वही स्निग्ध सी मुस्कान खेल रही होगी जिसे देखते मैं थकता नहीं था, होंठों के कोनों में दबी-सिमटी मुस्कान। ऐसी मुस्कान तो तभी होंठों पर खेल सकती है जब तुम्हारे मन में किन्हीं अलौकिक भावनाओं के फूल खिल रहे हों।
मन चाहा, भाग कर तुम्हारे पास पहुँच जाऊँ और पूछूं, शोभा, अब तुम कैसी हो?
बीते दिन क्यों कभी लौट कर नहीं आते? पूरा कालखण्ड न भी आए, एक दिन ही आ जाए, एक घड़ी ही, जब मैं तुम्हें अपने निकट पा सकूँ, तुम्हारे समूचे व्यक्तित्व की महक से सराबोर हो सकूँ।
मैं उठ खड़ा हुआ और उसकी ओर जाने लगा। मैं झाड़ियों, पेड़ों के बीच छिप कर आगे बढूंगा ताकि उसकी नजर मुझ पर न पडे़। मुझे डर था कि यदि उसने मुझे देख लिया तो वह जैसे-तैसे कदम बढ़ाती, लम्बे-लम्बे डग भरती पार्क से बाहर निकल जाएगी।
जीवन की यह विडम्बना ही है कि जहाँ स्त्री से बढ़ कर कोई जीव कोमल नहीं होता, वहाँ स्त्री से बढ़कर कोई जीव निष्ठुर भी नहीं होता। मैं कभी-कभी हमारे सम्बन्धों को लेकर क्षुब्ध भी हो उठता हूँ। कई बार तुम्हारी ओर से मेरे आत्म-सम्मान को धक्का लग चुका है।
हमारे विवाह के कुछ ही समय बाद तुम मुझे इस बात का अहसास कराने लगी थी यह विवाह तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हुआ है और तुम्हारी ओर से हमारे आपसी सम्बन्धों में एक प्रकार का ठण्डापन आने लगा था। पर मैं उन दिनों तुम पर निछावर था, मतवाला बना घूमता था। हमारे बीच किसी बात को लेकर मनमुटाव हो जाता, और तुम रूठ जाती, तो मैं तुम्हें मनाने की भरसक चेष्ठा किया करता, तुम्हें हँसाने की। अपने दोनों कान पकड़ लेता, ‘कहो तो दण्डवत लेटकर जमीन पर नाक से लकीरें भी खींच दूँ, जीभ निकाल कर बार-बार सिर हिलाऊं?’ और तुम, पहले तो मुँह फुलाए मेरी ओर देखती रहती, फिर सहसा खिलखिला कर हँसने लगती, बिल्कुल बच्चों की तरह जैसे तुम हँसा करती थी और कहती, ‘चलो, माफ कर दिया।’
और मैं तुम्हें बाहों में भर लेता था। मैं तुम्हारी टुनटुनाती आवाज सुनते नहीं थकता था, मेरी आँखें तुम्हारे चेहरे पर तुम्हारी खिली पेशानी पर लगी रहती और मैं तुम्हारे मन के भाव पढ़ता रहता।
स्त्री-पुरूष सम्बन्धों में कुछ भी तो स्पष्ट नहीं होता, कुछ भी तो तर्क-संगत नहीं होता। भावनाओं के संसार के अपने नियम हैं, या शायद कोई भी नियम नहीं।
हमारे बीच सम्बन्धों की खाई चौड़ी होती गई, फैलती गई। तुम अक्सर कहने लगी थी, ‘मुझे इस शादी में क्या मिला?’ और मैं जवाब में तुनक कर कहता, ‘मैंने कौन से ऐसे अपराध किए हैं कि तुम सारा वक्त मुँह फुलाए रहो और मैं सारा वक्त तुम्हारी दिलजोई करता रहूँ? अगर एक साथ रहना तुम्हें फल नहीं रहा था तो पहले ही मुझे छोड़ जाती। तुम मुझे क्यों नहीं छोड़ कर चली गई? तब न तो हर आये दिन तुम्हें उलाहनें देने पड़ते और न ही मुझे सुनने पड़ते। अगर गृहस्थी में तुम मेरे साथ घिसटती रही हो, तो इसका दोषी मैं नहीं हूँ, स्वयं तुम हो। तुम्हारी बेरूखी मुझे सालती रहती है, फिर भी अपनी जगह अपने को पीड़ित दुखियारी समझती रहती हो।’
मन हुआ, मैं उसके पीछे न जाऊँ। लौट आऊँ, और बेंच पर बैठ कर अपने मन को शांत करूँ। कैसी मेरी मन:स्थिति बन गई है। अपने को कोसता हूँ तो भी व्याकुल, और जो तुम्हें कोसता हूँ तो भी व्याकुल। मेरा सांस फूल रहा था, फिर भी मैं तुम्हारी ओर देखता खड़ा रहा।
सारा वक्त तुम्हारा मुँह ताकते रहना, सारा वक्त लीपा-पोती करते रहना, अपने को हर बात के लिए दोषी ठहराते रहना, मेरी बहुत बड़ी भूल थी।
पटरी पर से उतर जाने के बाद हमारा गृहस्थ जीवन घिसटने लगा था। पर जहाँ शिकवे-शिकायत, खीझ, खिंचाव, असहिष्णुता, नुकीले कंकड़-पत्थरों की तरह हमारी भावनाओं को छीलने-काटने लगे थे, वहीं कभी-कभी विवाहित जीवन के आरम्भिक दिनों जैसी सहज-सद्भावना भी हर-हराते सागर के बीच किसी झिलमिलाते द्वीप की भांति हमारे जीवन में सुख के कुछ क्षण भी भर देती। पर कुल मिलाकर हमारे आपसी सम्बन्धों में ठण्डापन आ गया था। तुम्हारी मुस्कान अपना जादू खो बैठी थी, तुम्हारी खुली पेशानी कभी-कभी संकरी लगने लगी थी, और जिस तरह बात सुनते हुए तुम सामने की ओर देखती रहती, लगता तुम्हारे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा है। नाक-नक्श वही थे, अदाएँ भी वही थीं, पर उनका जादू गायब हो गया था। जब शोभा आँखें मिचमिचाती है- मैं मन ही मन कहता- तू बड़ी मूर्ख लगती है।
मैंने फिर से नजर उठा कर देखा। शोभा नजर नहीं आई। क्या वह फिर से पेड़ों-झाड़ियों के बीच आँखों से ओझल हो गई है? देर तक उस ओर देखते रहने पर भी जब वह नजर नहीं आई, तो मैं उठ खड़ा हुआ। मुझे लगा जैसे वह वहाँ पर नहीं है। मुझे झटका सा लगा। क्या मैं सपना तो नहीं देख रहा था? क्या शोभा वहाँ पर थी भी या मुझे धोखा हुआ है? मैं देर तक आँखें गाडे़ उस ओर देखता रहा जिस ओर वह मुझे नजर आई थी।
सहसा मुझे फिर से उसकी झलक मिली। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था। पहले भी वह आँखों से ओझल होती रही थी। मुझे फिर से रोमांच सा हो आया। हर बार जब वह आँखों से ओझल हो जाती, तो मेरे अन्दर उठने वाली तरह-तरह की भावनाओं के बावजूद, पार्क पर सूनापन सा उतर आता। पर अबकी बार उस पर नजर पड़ते ही मन विचलित सा हो उठा। शोभा पार्क में से निकल जाती तो?
एक आवेग मेरे अन्दर फिर से उठा। उसे मिल पाने के लिए दिल में ऐसी छटपटाहट सी उठी कि सभी शिकवे-शिकायत, कचरे की भांति उस आवेग में बह से गए। सभी मन-मुटाव भूल गए। यह कैसे हुआ कि शोभा फिर से मुझे विवाहित जीवन के पहले दिनों वाली शोभा नजर आने लगी थी। उसके व्यक्तित्व का सारा आकर्षण फिर से लौट आया था। और मेरा दिल फिर से भर-भर आया। मन में बार-बार यही आवाज उठती, ‘मैं तुम्हें खो नहीं सकता। मैं तुम्हें कभी खो नहीं सकता।’
यह कैसे हुआ कि पहले वाली भावनाएँ मेरे अन्दर पूरे वेग से फिर से उठने लगी थीं।
मैंने फिर से शोभा की ओर कदम बढा दिए।
हाँ, एक बार मेरे मन में सवाल जरूर उठा, कहीं मैं फिर से अपने को धोखा तो नहीं दे रहा हूँ? क्या मालूम वह फिर से मुझे ठुकरा दे?
पर नहीं, मुझे लग रहा था मानो विवाहोपरांत, क्लेश और कलह का सारा कालखण्ड झूठा था, माना वह कभी था ही नहीं। मैं वर्षो बाद तुम्हें उन्हीं आँखों से देख रहा था जिन आँखों से तुम्हें पहली बार देखा था। मैं फिर से तुम्हें बाहों में भर पाने के लिए आतुर और अधीर हो उठा था।
तुम धीरे-धीरे झाड़ियों के बीच आगे बढ़ती जा रही थी। तुम पहले की तुलना में दुबला गई थी और मुझे बड़ी निरीह और अकेली सी लग रही थी। अबकी बार तुम पर नज़र पड़ते ही मेरे मन का सारा क्षोभ, बालू की भीत की भांति भुरभुरा कर गिर गया था। तुम इतनी दुबली, इतनी निसहाय सी लग रही थी कि मैं बेचैन हो उठा और अपने को धिक्कराने लगा। तुम्हारी सुनक सी काया कभी एक झाड़ी क़े पीछे तो कभी दूसरी झाड़ी क़े पीछे छिप जाती। आज भी तुम बालों में लाल रंग का फूल टांकना नहीं भूली थी।
स्त्रियाँ मन से झुब्ध और बेचैन रहते हुए भी, बन-संवर कर रहना नहीं भूलतीं। स्त्री मन से व्याकुल भी होगी तो भी साफ-सुथरे कपडे़ पहने, संवरे-संभले बाल, नख-शिख से दुरूस्त होकर बाहर निकलेगी। जबकि पुरूष, भाग्य का एक ही थपेड़ा खाने पर फूहड़ हो जाता है। बाल उलझे हुए, मुँह पर बढ़ती दाढ़ई, क़पडे़ मुचडे हए और आँखो में वीरानी लिए, भिखमंगों की तरह घर से बाहर निकलेगा। जिन दिनों हमारे बीच मनमुटाव होता और तुम अपने भाग्य को कोसती हुई घर से बाहर निकल जाती थी, तब भी ढंग के कपडे़ पहनना और चुस्त-दुरूस्त बन कर जाना नहीं भूलती थी। ऐसे दिनो में भी तुम बाहर आंगन में लगे गुलाब के पौधे में से छोटा सा लाल फूल बालों में टांकना नहीं भूलती थी। जबकि मैं दिन भर हांफता, किसी जानवर की तरह एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर काटता रहता था।
तुम्हारी शॉल, तुम्हारे दायें कंधे पर से खिसक गई थी और उसका सिरा जमीन पर तुम्हारे पीछे-घिसटने लगा था, पर तुम्हें इसका भास नहीं हुआ क्योंकि तुम पहले की ही भांति धीरे-धीरे चलती जा रही थी, कंधे तनिक आगे को झुके हुए। कंधे पर से शॉल खिसक जाने से तुम्हारी सुडौल गर्दन और अधिक स्पष्ट नजर आने लगी थी। क्या मालूम तुम किन विचारों में खोयी चली जा रही हो। क्या मालूम हमारे बारे में, हमारे सम्बन्ध-विच्छेद के बारे में ही सोच रही हो। कौन जाने किसी अंत: प्रेरणावश, मुझे ही पार्क में मिल जाने की आशा लेकर तुम यहाँ चली आई हो। कौन जाने तुम्हारे दिल में भी ऐसी ही कसक ऐसी ही छटपटाहट उठी हो, जैसी मेरे दिल में। क्या मालूम भाग्य हम दोनों पर मेहरबान हो गया हो और नहीं तो मैं तुम्हारी आवाज तो सुन पाऊँगा, तुम्हे आँख भर देख तो पाऊँगा। अगर मैं इतना बेचैन हूँ तो तुम भी तो निपट अकेली हो और न जाने कहां भटक रही हो। आखिरी बार, सम्बन्ध- विच्छेद से पहले, तुम एकटक मेरी ओर देखती रही थी। तब तुम्हारी आँखें मुझे बड़ी-बड़ी सी लगी थीं, पर मैं उनका भाव नहीं समझ पाया था। तुम क्यों मेरी ओर देख रही थी और क्या सोच रही थी, क्यों नहीं तुमने मुँह से कुछ भी कहा? मुझे लगा था तुम्हारी सभी शिकायतें सिमट कर तुम्हारी आँखों के भाव में आ गए थे। तुम मुझे नि:स्पंद मूर्ति जैसी लगी थी, और उस शाम मानो तुमने मुझे छोड़ जाने का फैसला कर लिया था।
मैं नियमानुसार शाम को घूमने चला गया था। दिल और दिमाग पर भले ही कितना ही बोझ हो, मैं अपना नियम नहीं तोड़ता। लगभग डेढ घण्टे के बाद जब में घर वापस लौटा तो डयोढी में कदम रखते ही मुझे अपना घर सूना-सूना लगा था। और अन्दर जाने पर पता चलता कि तुम जा चुकी हो। तभी मुझे तुम्हारी वह एकटक नजर याद आई थी? मेरी ओर देखती हुई।
तुम्हें घर में न पाकर पहले तो मेरे आत्म-सम्मान को धक्का-सा लगा था कि तुम जाने से पहले न जाने क्या सोचती रही हो, अपने मन की बात मुँह तक नहीं लाई। पर शीघ्र ही उस वीराने घर में बैठा मैं मानो अपना सिर धुनने लगा था। घर भांय-भांय करने लगा था।
अब तुम धीरे-धीरे घास के मैदान को छोड़ कर चौड़ी पगडण्डी पर आ गई थी जो मकबरे की प्रदक्षिणा करती हुई-सी पार्क के प्रवेश द्वारा की ओर जाने वाले रास्ते से जा मिलती है। शीघ्र ही तुम चलती हुई पार्क के फाटक तक जा पहुँचोगी और आंखों से ओझल हो जाओगी।
तुम मकबरे का कोना काट कर उस चौकोर मैदान की ओर जाने लगी हो जहाँ बहुत से बेंच रखे रहते हैं और बड़ी उम्र के थके हारे लोग सुस्ताने के लिए बैठ जाते हैं।
कुछ दूर जाने के बाद तुम फिर से ठिठकी थी मोड़ आ गया था और मोड़ क़ाटने से पहले तुमने मुड़कर देखा था। क्या तुम मेरी ओर देख रही हो? क्या तुम्हें इस बात की आहट मिल गई है कि मैं पार्क में पहुँचा हुआ हूँ और धीरे-धीरे तुम्हारे पीछे चला आ रहा हूँ?
क्या सचमुच इसी कारण ठिठक कर खड़ी हो गई हो, इस अपेक्षा से कि मैं भाग कर तुम से जा मिलूँगा? क्या यह मेरा भ्रम ही है या तुम्हारा स्त्री-सुलभ संकोच कि तुम चाहते हुए भी मेरी ओर कदम नहीं बढ़ाओगी?
पर कुछ क्षण तक ठिठके रहने के बार तुम फिर से पार्क के फाटक की ओर बढ़ने लगी थी।
मैंने तुम्हारी और कदम बढ़ा दिए। मुझे लगा जैसे मेरे पास गिने-चुने कुछ क्षण ही रह गए हैं जब मैं तुमसे मिल सकता हूँ। अब नहीं मिल पाया तो कभी नहीं मिल पाऊँगा। और न जाने क्यों, यह सोच कर मेरा गला रूंधने लगा था।
पर मैं अभी भी कुछ ही कदम आगे की और बढ़ा पाया था कि जमीन पर किसी भागते साये ने मेरा रास्ता काट दिया। लम्बा-चौड़ा साया, तैरता हुआ सा, मेरे रास्ते को काट कर निकल गया था। मैंने नजर ऊपर उठाई और मेरा दिल बैठ गया। चील हमारे सिर के ऊपर मंडराए जा रही थी। क्या यह चील ही हैं? पर उसके डैने कितने बड़े हैं और पीली चोंच लम्बी, आगे को मुड़ी हुई। और उसकी छोटी-छोटी पैनी आँखों में भयावह सी चमक है।
चील आकाश में हमारे ऊपर चक्कर काटने लगी थी और उसका साया बार-बार मेरा रास्ता काट रहा था।
हाय, यह कहीं तुमपर न झपट पडे़। मैं बदहवस सा तुम्हारी ओर दौड़ने लगा, मन चाहा, चिल्ला कर तुम्हें सावधान कर दूँ, पर डैने फैलाये चील को मंडराता देख कर मैं इतना त्रस्त हो उठा था कि मुँह में से शब्द निकल नहीं पा रहे थे। मेरा गला सूख रहा था और पांव बोझिल हो रहे थे। मैं जल्दी तुम तक पहुँचना चाहता था मुझे लगा जैसे मैं साये को लांघ ही नहीं पा रहा हूँ। चील जरूर नीचे आने लगी होगी। जो उसका साया इतना फैलता जा रहा है कि मैं उसे लांघ ही नहीं सकता।
मेरे मस्तिष्क में एक ही वाक्य बार-बार घूम रहा था, कि तुम्हें उस मंडराती चील के बारे में सावधान कर दूँ और तुमसे कहूँ कि जितनी जल्दी पार्क में से निकल सकती हो, निकल जाओ।
मेरी सांस धौंकनी की तरह चलने लगी थी, और मुँह से एक शब्द भी नहीं फूट पा रहा था।
बाहर जाने वाले फाटक से थोड़ा हटकर, दायें हाथ एक ऊँचा सा मुनारा है जिस पर कभी मकबरे की रखवाली करनेवाला पहरेदार खड़ा रहता होगा। अब वह मुनार भी टूटी-फूटी हालत में है।
जिस समय मैं साये को लांघ पाने को भरसक चेष्टा कर रहा था उस समय मुझे लगा था जैसे तुम चलती हुई उस मुनारे के पीछे जा पहुँची हो, क्षण भर के लिए मैं आश्वस्त सा हो गया। तुम्हें अपने सिर के ऊपर मंडराते खतरे का आभास हो गया होगा। न भी हुआ हो तो भी तुमने बाहर निकलने का जो रास्ता अपनाया था, वह अधिक सुरक्षित था।
मैं थक गया था। मेरी सांस बुरी तरह से फूली हुई थी। लाचार, मैं उसी मुनारे के निकट एक पत्थर पर हांफता हुआ बैठ गया। कुछ भी मेरे बस नहीं रह गया था। पर मैं सोच रहा था कि ज्योंही तुम मुनारे के पीछे से निकल कर सामने आओगी, मैं चिल्ला कर तुम्हें पार्क में से निकल भागने का आग्रह करूँगा। चील अब भी सिर पर मंडराये जा रही थी।
तभी मुझे लगा तुम मुनारे के पीछे से बाहर आई हो। हवा के झोंके से तुम्हारी साड़ी क़ा पल्लू और हवा में अठखेली सी करती हुई तुम सीधा फाटक की ओर बढ़ने लगी हो।
‘शोभा!’ मैं चिल्लाया।
पर तुम बहुत आगे बढ़ चुकी थी, लगभग फाटक के पास पहुँच चुकी थी। तुम्हारी साड़ी क़ा पल्लू अभी भी हवा में फरफरा रहा थ। बालों में लाल फूल बड़ा खिला-खिला लग रहा था।
मैं उठ खड़ा हुआ और जैसे तैसे कदम बढ़ता हुआ तुम्हारी ओर जाने लगा। मैं तुमसे कहना चाहता था, ‘अच्छा हुआ जो तुम चील के पंजों से बच कर निकल गई हो, शोभा।’
फाटक के पास तुम रूकी थी, और मुझे लगा था जैसे मेरी ओर देख कर मुस्कराई हो और फिर पीठ मोड़ ली थी और आँखों से ओझल हो गई थी।
मैं भागता हुआ फाटक के पास पहुँचा था। फाटक के पास मैदान में हल्की-हल्की धूल उड़ रही थी और पार्क में आने वाले लोगों के लिए चौड़ा, खुला रास्ता भांय-भांय कर रहा था।
तुम पार्क में से सही सलामत निकल गई हो, यह सोच कर मैं आश्वस्त सा महसूस करने लगा था। मैंने नजर उठा कर ऊपर की ओर देखा। चील वहाँ पर नहीं था। चील जा चुकी थी। आसमान साफ था और हल्की-हल्की धुंध के बावजूद उसकी नीलिमा जैसे लौट आई थी।
चीफ की दावत

ज मिस्टर शामनाथ के घर चीफ की दावत थी।

शामनाथ और उनकी धर्मपत्नी को पसीना पोंछने की फुर्सत न थी। पत्नी ड्रेसिंग गाउन पहने, उलझे हुए बालों का जूड़ा बनाए मुँह पर फैली हुई सुर्खी और पाउड़र को मले और मिस्टर शामनाथ सिगरेट पर सिगरेट फूँकते हुए चीजों की फेहरिस्त हाथ में थामे, एक कमरे से दूसरे कमरे में आ-जा रहे थे।

आखिर पाँच बजते-बजते तैयारी मुकम्मल होने लगी। कुर्सियाँ, मेज, तिपाइयाँ, नैपकिन, फूल, सब बरामदे में पहुँच गए। ड्रिंक का इंतजाम बैठक में कर दिया गया। अब घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा। तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, माँ का क्या होगा?

इस बात की ओर न उनका और न उनकी कुशल गृहिणी का ध्यान गया था। मिस्टर शामनाथ, श्रीमती की ओर घूम कर अंग्रेजी में बोले – ‘माँ का क्या होगा?’

श्रीमती काम करते-करते ठहर गईं, और थोडी देर तक सोचने के बाद बोलीं – ‘इन्हें पिछवाड़े इनकी सहेली के घर भेज दो, रात-भर बेशक वहीं रहें। कल आ जाएँ।’

शामनाथ सिगरेट मुँह में रखे, सिकुडी आँखों से श्रीमती के चेहरे की ओर देखते हुए पल-भर सोचते रहे, फिर सिर हिला कर बोले – ‘नहीं, मैं नहीं चाहता कि उस बुढ़िया का आना-जाना यहाँ फिर से शुरू हो। पहले ही बड़ी मुश्किल से बंद किया था। माँ से कहें कि जल्दी ही खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाएँ। मेहमान कहीं आठ बजे आएँगे इससे पहले ही अपने काम से निबट लें।’

सुझाव ठीक था। दोनों को पसंद आया। मगर फिर सहसा श्रीमती बोल उठीं – ‘जो वह सो गईं और नींद में खर्राटे लेने लगीं, तो? साथ ही तो बरामदा है, जहाँ लोग खाना खाएँगे।’

‘तो इन्हें कह देंगे कि अंदर से दरवाजा बंद कर लें। मैं बाहर से ताला लगा दूँगा। या माँ को कह देता हूँ कि अंदर जा कर सोएँ नहीं, बैठी रहें, और क्या?’

‘और जो सो गई, तो? डिनर का क्या मालूम कब तक चले। ग्यारह-ग्यारह बजे तक तो तुम ड्रिंक ही करते रहते हो।’

शामनाथ कुछ खीज उठे, हाथ झटकते हुए बोले – ‘अच्छी-भली यह भाई के पास जा रही थीं। तुमने यूँ ही खुद अच्छा बनने के लिए बीच में टाँग अड़ा दी!’

‘वाह! तुम माँ और बेटे की बातों में मैं क्यों बुरी बनूँ? तुम जानो और वह जानें।’

मिस्टर शामनाथ चुप रहे। यह मौका बहस का न था, समस्या का हल ढूँढ़ने का था। उन्होंने घूम कर माँ की कोठरी की ओर देखा। कोठरी का दरवाजा बरामदे में खुलता था। बरामदे की ओर देखते हुए झट से बोले – मैंने सोच लिया है, – और उन्हीं कदमों माँ की कोठरी के बाहर जा खड़े हुए। माँ दीवार के साथ एक चौकी पर बैठी, दुपट्टे में मुँह-सिर लपेटे, माला जप रही थीं। सुबह से तैयारी होती देखते हुए माँ का भी दिल धड़क रहा था। बेटे के दफ्तर का बड़ा साहब घर पर आ रहा है, सारा काम सुभीते से चल जाय।

माँ, आज तुम खाना जल्दी खा लेना। मेहमान लोग साढ़े सात बजे आ जाएँगे।

माँ ने धीरे से मुँह पर से दुपट्टा हटाया और बेटे को देखते हुए कहा, आज मुझे खाना नहीं खाना है, बेटा, तुम जो जानते हो, मांस-मछली बने, तो मैं कुछ नहीं खाती।

जैसे भी हो, अपने काम से जल्दी निबट लेना।

अच्छा, बेटा।

और माँ, हम लोग पहले बैठक में बैठेंगे। उतनी देर तुम यहाँ बरामदे में बैठना। फिर जब हम यहाँ आ जाएँ, तो तुम गुसलखाने के रास्ते बैठक में चली जाना।

माँ अवाक बेटे का चेहरा देखने लगीं। फिर धीरे से बोलीं – अच्छा बेटा।

और माँ आज जल्दी सो नहीं जाना। तुम्हारे खर्राटों की आवाज दूर तक जाती है।

माँ लज्जित-सी आवाज में बोली – क्या करूँ, बेटा, मेरे बस की बात नहीं है। जब से बीमारी से उठी हूँ, नाक से साँस नहीं ले सकती।

मिस्टर शामनाथ ने इंतजाम तो कर दिया, फिर भी उनकी उधेड़-बुन खत्म नहीं हुई। जो चीफ अचानक उधर आ निकला, तो? आठ-दस मेहमान होंगे, देसी अफसर, उनकी स्त्रियाँ होंगी, कोई भी गुसलखाने की तरफ जा सकता है। क्षोभ और क्रोध में वह झुँझलाने लगे। एक कुर्सी को उठा कर बरामदे में कोठरी के बाहर रखते हुए बोले – आओ माँ, इस पर जरा बैठो तो।

माँ माला सँभालतीं, पल्ला ठीक करती उठीं, और धीरे से कुर्सी पर आ कर बैठ गई।

यूँ नहीं, माँ, टाँगें ऊपर चढ़ा कर नहीं बैठते। यह खाट नहीं हैं।

माँ ने टाँगें नीचे उतार लीं।

और खुदा के वास्ते नंगे पाँव नहीं घूमना। न ही वह खड़ाऊँ पहन कर सामने आना। किसी दिन तुम्हारी यह खड़ाऊँ उठा कर मैं बाहर फेंक दूँगा।

माँ चुप रहीं।

कपड़े कौन से पहनोगी, माँ?

जो है, वही पहनूँगी, बेटा! जो कहो, पहन लूँ।

मिस्टर शामनाथ सिगरेट मुँह में रखे, फिर अधखुली आँखों से माँ की ओर देखने लगे, और माँ के कपड़ों की सोचने लगे। शामनाथ हर बात में तरतीब चाहते थे। घर का सब संचालन उनके अपने हाथ में था। खूँटियाँ कमरों में कहाँ लगाई जाएँ, बिस्तर कहाँ पर बिछे, किस रंग के पर्दे लगाएँ जाएँ, श्रीमती कौन-सी साड़ी पहनें, मेज किस साइज की हो… शामनाथ को चिंता थी कि अगर चीफ का साक्षात माँ से हो गया, तो कहीं लज्जित नहीं होना पडे। माँ को सिर से पाँव तक देखते हुए बोले – तुम सफेद कमीज और सफेद सलवार पहन लो, माँ। पहन के आओ तो, जरा देखूँ।

माँ धीरे से उठीं और अपनी कोठरी में कपड़े पहनने चली गईं।

यह माँ का झमेला ही रहेगा, उन्होंने फिर अंग्रेजी में अपनी स्त्री से कहा – कोई ढंग की बात हो, तो भी कोई कहे। अगर कहीं कोई उल्टी-सीधी बात हो गई, चीफ को बुरा लगा, तो सारा मजा जाता रहेगा।

माँ सफेद कमीज और सफेद सलवार पहन कर बाहर निकलीं। छोटा-सा कद, सफेद कपड़ों में लिपटा, छोटा-सा सूखा हुआ शरीर, धुँधली आँखें, केवल सिर के आधे झड़े हुए बाल पल्ले की ओट में छिप पाए थे। पहले से कुछ ही कम कुरूप नजर आ रही थीं।

चलो, ठीक है। कोई चूड़ियाँ-वूड़ियाँ हों, तो वह भी पहन लो। कोई हर्ज नहीं।

चूड़ियाँ कहाँ से लाऊँ, बेटा? तुम तो जानते हो, सब जेवर तुम्हारी पढ़ाई में बिक गए।

यह वाक्य शामनाथ को तीर की तरह लगा। तिनक कर बोले – यह कौन-सा राग छेड़ दिया, माँ! सीधा कह दो, नहीं हैं जेवर, बस! इससे पढ़ाई-वढ़ाई का क्या तअल्लुक है! जो जेवर बिका, तो कुछ बन कर ही आया हूँ, निरा लँडूरा तो नहीं लौट आया। जितना दिया था, उससे दुगना ले लेना।

मेरी जीभ जल जाय, बेटा, तुमसे जेवर लूँगी? मेरे मुँह से यूँ ही निकल गया। जो होते, तो लाख बार पहनती!

साढ़े पाँच बज चुके थे। अभी मिस्टर शामनाथ को खुद भी नहा-धो कर तैयार होना था। श्रीमती कब की अपने कमरे में जा चुकी थीं। शामनाथ जाते हुए एक बार फिर माँ को हिदायत करते गए – माँ, रोज की तरह गुमसुम बन के नहीं बैठी रहना। अगर साहब इधर आ निकलें और कोई बात पूछें, तो ठीक तरह से बात का जवाब देना।

मैं न पढ़ी, न लिखी, बेटा, मैं क्या बात करूँगी। तुम कह देना, माँ अनपढ़ है, कुछ जानती-समझती नहीं। वह नहीं पूछेगा।

सात बजते-बजते माँ का दिल धक-धक करने लगा। अगर चीफ सामने आ गया और उसने कुछ पूछा, तो वह क्या जवाब देंगी। अंग्रेज को तो दूर से ही देख कर घबरा उठती थीं, यह तो अमरीकी है। न मालूम क्या पूछे। मैं क्या कहूँगी। माँ का जी चाहा कि चुपचाप पिछवाड़े विधवा सहेली के घर चली जाएँ। मगर बेटे के हुक्म को कैसे टाल सकती थीं। चुपचाप कुर्सी पर से टाँगें लटकाए वहीं बैठी रही।

एक कामयाब पार्टी वह है, जिसमें ड्रिंक कामयाबी से चल जाएँ। शामनाथ की पार्टी सफलता के शिखर चूमने लगी। वार्तालाप उसी रौ में बह रहा था, जिस रौ में गिलास भरे जा रहे थे। कहीं कोई रूकावट न थी, कोई अड़चन न थी। साहब को व्हिस्की पसंद आई थी। मेमसाहब को पर्दे पसंद आए थे, सोफा-कवर का डिजाइन पसंद आया था, कमरे की सजावट पसंद आई थी। इससे बढ़ कर क्या चाहिए। साहब तो ड्रिंक के दूसरे दौर में ही चुटकुले और कहानियाँ कहने लग गए थे। दफ्तर में जितना रोब रखते थे, यहाँ पर उतने ही दोस्त-परवर हो रहे थे और उनकी स्त्री, काला गाउन पहने, गले में सफेद मोतियों का हार, सेंट और पाउड़र की महक से ओत-प्रोत, कमरे में बैठी सभी देसी स्त्रियों की आराधना का केंद्र बनी हुई थीं। बात-बात पर हँसतीं, बात-बात पर सिर हिलातीं और शामनाथ की स्त्री से तो ऐसे बातें कर रही थीं, जैसे उनकी पुरानी सहेली हों।

और इसी रो में पीते-पिलाते साढ़े दस बज गए। वक्त गुजरते पता ही न चला।

आखिर सब लोग अपने-अपने गिलासों में से आखिरी घूँट पी कर खाना खाने के लिए उठे और बैठक से बाहर निकले। आगे-आगे शामनाथ रास्ता दिखाते हुए, पीछे चीफ और दूसरे मेहमान।

बरामदे में पहुँचते ही शामनाथ सहसा ठिठक गए। जो दृश्य उन्होंने देखा, उससे उनकी टाँगें लड़खड़ा गई, और क्षण-भर में सारा नशा हिरन होने लगा। बरामदे में ऐन कोठरी के बाहर माँ अपनी कुर्सी पर ज्यों-की-त्यों बैठी थीं। मगर दोनों पाँव कुर्सी की सीट पर रखे हुए, और सिर दाएँ से बाएँ और बाएँ से दाएँ झूल रहा था और मुँह में से लगातार गहरे खर्राटों की आवाजें आ रही थीं। जब सिर कुछ देर के लिए टेढ़ा हो कर एक तरफ को थम जाता, तो खर्राटें और भी गहरे हो उठते। और फिर जब झटके-से नींद टूटती, तो सिर फिर दाएँ से बाएँ झूलने लगता। पल्ला सिर पर से खिसक आया था, और माँ के झरे हुए बाल, आधे गंजे सिर पर अस्त-व्यस्त बिखर रहे थे।

देखते ही शामनाथ क्रुद्ध हो उठे। जी चाहा कि माँ को धक्का दे कर उठा दें, और उन्हें कोठरी में धकेल दें, मगर ऐसा करना संभव न था, चीफ और बाकी मेहमान पास खड़े थे।

माँ को देखते ही देसी अफसरों की कुछ स्त्रियाँ हँस दीं कि इतने में चीफ ने धीरे से कहा – पुअर डियर!

माँ हड़बड़ा के उठ बैठीं। सामने खड़े इतने लोगों को देख कर ऐसी घबराई कि कुछ कहते न बना। झट से पल्ला सिर पर रखती हुई खड़ी हो गईं और जमीन को देखने लगीं। उनके पाँव लड़खड़ाने लगे और हाथों की उँगलियाँ थर-थर काँपने लगीं।

माँ, तुम जाके सो जाओ, तुम क्यों इतनी देर तक जाग रही थीं? – और खिसियाई हुई नजरों से शामनाथ चीफ के मुँह की ओर देखने लगे।

चीफ के चेहरे पर मुस्कराहट थी। वह वहीं खड़े-खड़े बोले, नमस्ते!

माँ ने झिझकते हुए, अपने में सिमटते हुए दोनों हाथ जोड़े, मगर एक हाथ दुपट्टे के अंदर माला को पकड़े हुए था, दूसरा बाहर, ठीक तरह से नमस्ते भी न कर पाई। शामनाथ इस पर भी खिन्न हो उठे।

इतने में चीफ ने अपना दायाँ हाथ, हाथ मिलाने के लिए माँ के आगे किया। माँ और भी घबरा उठीं।

माँ, हाथ मिलाओ।

पर हाथ कैसे मिलातीं? दाएँ हाथ में तो माला थी। घबराहट में माँ ने बायाँ हाथ ही साहब के दाएँ हाथ में रख दिया। शामनाथ दिल ही दिल में जल उठे। देसी अफसरों की स्त्रियाँ खिलखिला कर हँस पडीं।

यूँ नहीं, माँ! तुम तो जानती हो, दायाँ हाथ मिलाया जाता है। दायाँ हाथ मिलाओ।

मगर तब तक चीफ माँ का बायाँ हाथ ही बार-बार हिला कर कह रहे थे – हाउ डू यू डू?

कहो माँ, मैं ठीक हूँ, खैरियत से हूँ।

माँ कुछ बडबड़ाई।

माँ कहती हैं, मैं ठीक हूँ। कहो माँ, हाउ डू यू डू।

माँ धीरे से सकुचाते हुए बोलीं – हौ डू डू ..

एक बार फिर कहकहा उठा।

वातावरण हल्का होने लगा। साहब ने स्थिति सँभाल ली थी। लोग हँसने-चहकने लगे थे। शामनाथ के मन का क्षोभ भी कुछ-कुछ कम होने लगा था।

साहब अपने हाथ में माँ का हाथ अब भी पकड़े हुए थे, और माँ सिकुड़ी जा रही थीं। साहब के मुँह से शराब की बू आ रही थी।

शामनाथ अंग्रेजी में बोले – मेरी माँ गाँव की रहने वाली हैं। उमर भर गाँव में रही हैं। इसलिए आपसे लजाती है।

साहब इस पर खुश नजर आए। बोले – सच? मुझे गाँव के लोग बहुत पसंद हैं, तब तो तुम्हारी माँ गाँव के गीत और नाच भी जानती होंगी? चीफ खुशी से सिर हिलाते हुए माँ को टकटकी बाँधे देखने लगे।

माँ, साहब कहते हैं, कोई गाना सुनाओ। कोई पुराना गीत तुम्हें तो कितने ही याद होंगे।

माँ धीरे से बोली – मैं क्या गाऊँगी बेटा। मैंने कब गाया है?

वाह, माँ! मेहमान का कहा भी कोई टालता है?

साहब ने इतना रीझ से कहा है, नहीं गाओगी, तो साहब बुरा मानेंगे।

मैं क्या गाऊँ, बेटा। मुझे क्या आता है?

वाह! कोई बढ़िया टप्पे सुना दो। दो पत्तर अनाराँ दे …

देसी अफसर और उनकी स्त्रियों ने इस सुझाव पर तालियाँ पीटी। माँ कभी दीन दृष्टि से बेटे के चेहरे को देखतीं, कभी पास खड़ी बहू के चेहरे को।

इतने में बेटे ने गंभीर आदेश-भरे लिहाज में कहा – माँ!

इसके बाद हाँ या ना सवाल ही न उठता था। माँ बैठ गईं और क्षीण, दुर्बल, लरजती आवाज में एक पुराना विवाह का गीत गाने लगीं –

हरिया नी माए, हरिया नी भैणे

हरिया ते भागी भरिया है!

देसी स्त्रियाँ खिलखिला के हँस उठीं। तीन पंक्तियाँ गा के माँ चुप हो गईं।

बरामदा तालियों से गूँज उठा। साहब तालियाँ पीटना बंद ही न करते थे। शामनाथ की खीज प्रसन्नता और गर्व में बदल उठी थी। माँ ने पार्टी में नया रंग भर दिया था।

तालियाँ थमने पर साहब बोले – पंजाब के गाँवों की दस्तकारी क्या है?

शामनाथ खुशी में झूम रहे थे। बोले – ओ, बहुत कुछ – साहब! मैं आपको एक सेट उन चीजों का भेंट करूँगा। आप उन्हें देख कर खुश होंगे।

मगर साहब ने सिर हिला कर अंग्रेजी में फिर पूछा – नहीं, मैं दुकानों की चीज नहीं माँगता। पंजाबियों के घरों में क्या बनता है, औरतें खुद क्या बनाती हैं?

शामनाथ कुछ सोचते हुए बोले – लड़कियाँ गुड़ियाँ बनाती हैं, और फुलकारियाँ बनाती हैं।

फुलकारी क्या?

शामनाथ फुलकारी का मतलब समझाने की असफल चेष्टा करने के बाद माँ को बोले – क्यों, माँ, कोई पुरानी फुलकारी घर में हैं?

माँ चुपचाप अंदर गईं और अपनी पुरानी फुलकारी उठा लाईं।

साहब बड़ी रुचि से फुलकारी देखने लगे। पुरानी फुलकारी थी, जगह-जगह से उसके तागे टूट रहे थे और कपड़ा फटने लगा था। साहब की रुचि को देख कर शामनाथ बोले – यह फटी हुई है, साहब, मैं आपको नई बनवा दूँगा। माँ बना देंगी। क्यों, माँ साहब को फुलकारी बहुत पसंद हैं, इन्हें ऐसी ही एक फुलकारी बना दोगी न?

माँ चुप रहीं। फिर डरते-डरते धीरे से बोलीं – अब मेरी नजर कहाँ है, बेटा! बूढ़ी आँखें क्या देखेंगी?

मगर माँ का वाक्य बीच में ही तोड़ते हुए शामनाथ साहब को बोले – वह जरूर बना देंगी। आप उसे देख कर खुश होंगे।

साहब ने सिर हिलाया, धन्यवाद किया और हल्के-हल्के झूमते हुए खाने की मेज की ओर बढ़ गए। बाकी मेहमान भी उनके पीछे-पीछे हो लिए।

जब मेहमान बैठ गए और माँ पर से सबकी आँखें हट गईं, तो माँ धीरे से कुर्सी पर से उठीं, और सबसे नजरें बचाती हुई अपनी कोठरी में चली गईं।

मगर कोठरी में बैठने की देर थी कि आँखों में छल-छल आँसू बहने लगे। वह दुपट्टे से बार-बार उन्हें पोंछतीं, पर वह बार-बार उमड़ आते, जैसे बरसों का बाँध तोड़ कर उमड़ आए हों। माँ ने बहुतेरा दिल को समझाया, हाथ जोड़े, भगवान का नाम लिया, बेटे के चिरायु होने की प्रार्थना की, बार-बार आँखें बंद कीं, मगर आँसू बरसात के पानी की तरह जैसे थमने में ही न आते थे।

आधी रात का वक्त होगा। मेहमान खाना खा कर एक-एक करके जा चुके थे। माँ दीवार से सट कर बैठी आँखें फाड़े दीवार को देखे जा रही थीं। घर के वातावरण में तनाव ढीला पड़ चुका था। मुहल्ले की निस्तब्धता शामनाथ के घर भी छा चुकी थी, केवल रसोई में प्लेटों के खनकने की आवाज आ रही थी। तभी सहसा माँ की कोठरी का दरवाजा जोर से खटकने लगा।

माँ, दरवाजा खोलो।

माँ का दिल बैठ गया। हड़बड़ा कर उठ बैठीं। क्या मुझसे फिर कोई भूल हो गई? माँ कितनी देर से अपने आपको कोस रही थीं कि क्यों उन्हें नींद आ गई, क्यों वह ऊँघने लगीं। क्या बेटे ने अभी तक क्षमा नहीं किया? माँ उठीं और काँपते हाथों से दरवाजा खोल दिया।

दरवाजे खुलते ही शामनाथ झूमते हुए आगे बढ़ आए और माँ को आलिंगन में भर लिया।

ओ अम्मी! तुमने तो आज रंग ला दिया! …साहब तुमसे इतना खुश हुआ कि क्या कहूँ। ओ अम्मी! अम्मी!

माँ की छोटी-सी काया सिमट कर बेटे के आलिंगन में छिप गई। माँ की आँखों में फिर आँसू आ गए। उन्हें पोंछती हुई धीरे से बोली – बेटा, तुम मुझे हरिद्वार भेज दो। मैं कब से कह रही हूँ।

शामनाथ का झूमना सहसा बंद हो गया और उनकी पेशानी पर फिर तनाव के बल पड़ने लगे। उनकी बाँहें माँ के शरीर पर से हट आईं।

क्या कहा, माँ? यह कौन-सा राग तुमने फिर छेड़ दिया?

शामनाथ का क्रोध बढ़ने लगा था, बोलते गए – तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, ताकि दुनिया कहे कि बेटा माँ को अपने पास नहीं रख सकता।

नहीं बेटा, अब तुम अपनी बहू के साथ जैसा मन चाहे रहो। मैंने अपना खा-पहन लिया। अब यहाँ क्या करूँगी। जो थोड़े दिन जिंदगानी के बाकी हैं, भगवान का नाम लूँगी। तुम मुझे हरिद्वार भेज दो!

तुम चली जाओगी, तो फुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है।

मेरी आँखें अब नहीं हैं, बेटा, जो फुलकारी बना सकूँ। तुम कहीं और से बनवा लो। बनी-बनाई ले लो।

माँ, तुम मुझे धोखा देके यूँ चली जाओगी? मेरा बनता काम बिगाड़ोगी? जानती नही, साहब खुश होगा, तो मुझे तरक्की मिलेगी!

माँ चुप हो गईं। फिर बेटे के मुँह की ओर देखती हुई बोली – क्या तेरी तरक्की होगी? क्या साहब तेरी तरक्की कर देगा? क्या उसने कुछ कहा है?

कहा नहीं, मगर देखती नहीं, कितना खुश गया है। कहता था, जब तेरी माँ फुलकारी बनाना शुरू करेंगी, तो मैं देखने आऊँगा कि कैसे बनाती हैं। जो साहब खुश हो गया, तो मुझे इससे बड़ी नौकरी भी मिल सकती है, मैं बड़ा अफसर बन सकता हूँ।

माँ के चेहरे का रंग बदलने लगा, धीरे-धीरे उनका झुर्रियों-भरा मुँह खिलने लगा, आँखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी।

तो तेरी तरक्की होगी बेटा?

तरक्की यूँ ही हो जाएगी? साहब को खुश रखूँगा, तो कुछ करेगा, वरना उसकी खिदमत करनेवाले और थोड़े हैं?

तो मैं बना दूँगी, बेटा, जैसे बन पड़ेगा, बना दूँगी।

और माँ दिल ही दिल में फिर बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कामनाएँ करने लगीं और मिस्टर शामनाथ, अब सो जाओ, माँ, कहते हुए, तनिक लड़खड़ाते हुए अपने कमरे की ओर घूम गए।
ओ हरामजादे

घुमक्कड़ी के दिनों में मुझे खुद मालूम न होता कि कब किस घाट जा लगूँगा। कभी भूमध्य सागर के तट पर भूली बिसरी किसी सभ्यता के खंडहर देख रहा होता, तो कभी यूरोप के किसी नगर की जनाकीर्ण सड़कों पर घूम रह होता। दुनिया बड़ी विचित्र पर साथ ही अबोध और अगम्य लगती, जान पड़ता जैसे मेरी ही तरह वह भी बिना किसी धुरे के निरुद्देश्य घूम रही है।

ऐसे ही एक बार मैं यूरोप के एक दूरवर्ती इलाके में जा पहुँचा था। एक दिन दोपहर के वक्त होटल के कमरे में से निकल कर मैं खाड़ी के किनारे बैंच पर बैठा आती जाती नावों को देख रहा था, जब मेरे पास से गुजरते हुए अधेड़ उम्र की एक महिला ठिठक कर खड़ी हो गई। मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया, मैंने समझा उसे किसी दूसरे चेहरे का मुगालता हुआ होगा। पर वह और निकट आ गई।

‘भारत से आए हो?’ उसने धीरे से बड़ी शिष्ट मुस्कान के साथ पूछा।

मैंने भी मुस्कुरा कर सिर हिला दिया।

‘मैं देखते ही समझ गई थी कि तुम हिंदुस्तानी होगे।’ और वह अपना बड़ा सा थैला बैंच पर रख कर मेरे पास बैठ गई।

नाटे कद की बोझिल से शरीर की महिला बाजार से सौदा खरीद कर लौट रही थी। खाड़ी के नीले जल जैसी ही उसकी आँखें थी। इतनी साफ नीली आँखें किवल छोटे बच्चों की ही होती हैं। इस पर साफ गौरी त्वचा। पर बाल खिचड़ी हो रहे थे और चेहरे पर हल्की हल्की रेखाएँ उतर आई थीं, जिनके जाल से, खाड़ी हो या रेगिस्तान, कभी कोई बच नहीं सकता। अपना खरीदारी का थैला बैंच पर रख कर वह मेरे पास तनिक सुस्ताने के लिए बैठ गई। वह अंग्रेज नहीं थी पर टूटी फूटी अंग्रेजी में अपना मतलब अच्छी तरह से समझा लेती थी।

‘मेरा पति भी भारत का रहने वला है, इस वक्त घर पर है, तुम से मिल कर बहुत खुश होगा।’

मैं थोड़ा हैरान हुआ, इंग्लैंड और फ्रांस आदि देशों में तो हिंदुस्तानी लोग बहुत मिल जाते हैं। वहीं पर सैंकड़ों बस भी गए हैं, लेकिन यूरोप के इस दूर दराज के इलाके में कोई हिंदुस्तानी क्यों आ कर रहने लगा होगा। कुछ कुतूहलवश, कुछ वक्त काटने की इच्छा से मैं तैयार हो गया।

‘चलिए, जरूर मिलना चाहूँगा।’ और हम दोनों उठ खड़े हुए।

सड़क पर चलते हुए मेरी नजर बार बार उस महिला के गोल मटोल शरीर पर जाती रही। उस हिंदुस्तानी ने इस औरत में क्या देखा होगा जो घर बार छोड़ कर यहाँ इसके साथ बस गया है। संभव है, जवानी में चुलबुली और नटखट रही होगी। इसकी नीली आँखों ने कहर ढाए होंगे। हिंदुस्तानी मरता ही नीली आँखों और गोरी चमड़ी पर है। पर अब तो समय उस पर कहर ढाने लगा था। पचास पचपन की रही होगी। थैला उठाए हुए साँस बार बार फूल रहा था। कभी उसे एक हाथ में उठाती और कभी दूसरे हाथ में। मैने थैला उसके हाथ से ले लिया और हम बतियाते हुए उसके घर की ओर जाने लगे।

‘आप भी कभी भारत गई हैं?’ मैंने पूछा।

‘एक बार गई थी, लाल ले गया था, पर इसे तो अब लगता है बीसियों बरस बीत चुके हैं।’

‘लाल साहब तो जाते रहते होंगे?’

महिला ने खिचड़ी बालों वाला अपना सिर झटक कर कहा ‘नहीं, वह भी नहीं गया। इसलिए वह तुम से मिल कर बहुत खुश होगा, यहाँ हिंदुस्तानी बहुत कम आते हैं।’

तंग सीढ़ियाँ चढ़ कर हम एक फ्लैट में पहुँचे, अंदर रोशनी थी और एक खुला सा कमरा जिसकी चारों दीवारों के साथ किताबों से ठसाठस भरी अलमारियाँ रखीं थीं। दीवार पर जहाँ कहीं कोई टुकड़ा खाली मिला था, वहाँ तरह तरह के नक्शे और मानचित्र टाँग दिए गए थे। उसी कमरे में दूर, खिड़की के पास वाले कमरे में काले रंग का सूट पहने, साँवले रंग और उड़ते सफेद बालों वाला एक हिंदुस्तानी बैठा कोई पत्रिका बाँच रह था।

‘लाल, देखो तो कौन आया है? इनसे मिलो। तुम्हारे एक देशवासी को जबर्दस्ती खींच लाई हूँ।’ महिला ने हँस कर कहा।

वह उठ खड़ा हुआ और जिज्ञासा और कुतूहल से मेरी और देखता हुआ आगे बढ़ आया।

‘आइए-आइए! बड़ी खुशी हुई। मुझे लाल कहते हैं, मैं यहाँ इंजीनियर हूँ। मेरी पत्नी ने मुझ पर बड़ा एहसान किया है जो आपको ले आई हैं।’

ऊँचे, लंबे कद का आदमी निकला। यह कहना कठिन था कि भारत के किस हिस्से से आया है। शरीर का बोझिल और ढीला ढाला था। दोनों कनपटियों के पास सफेद बालों के गुच्छे से उग आए थे जबकि सिर के ऊपर गिने चुने सफेद बाल उड़ से रहे थे।

दुआ-सलाम के बाद हम बैठे ही थे कि उसने सवालों की झड़ी लगा दी। ‘दिल्ली शहर तो अब बहुत कुछ बदल गया होगा?’ उसने बच्चों के से आग्रह के साथ पूछा।

‘हाँ। बदल गया है। आप कब थे दिल्ली में?’

‘मैं दिल्ली का रहने वाला नहीं हूँ। यों लड़कपन में बहुत बार दिल्ली गया हूँ। रहने वाला तो मैं पंजाब का हूँ, जालंधर का। जालंधर तो आपने कहाँ देखा होगा।’

‘ऐसा तो नहीं, मैं स्वयं पंजाब का रहने वाला हूँ। किसी जमाने में जालंधर में रह चुका हूँ।’

मेरे कहने की देर थी कि वह आदमी उठ खड़ा हुआ और लपक कर मुझे बाँहों में भर लिया।

‘ओ जालम! तू बोलना नहीं एँ जे जलंधर दा रहणवाले?’

मैं सकुचा गया। ढीले ढाले बुजुर्ग को यों उत्तेजित होता देख मुझे अटपटा सा लगा। पर वह सिर से पाँव तक पुलक उठा था। इसी उत्तेजना में वह आदमी मुझे छोड़ कर तेज तेज चलता हुआ पिछले कमरे की और चला गया और थोड़ी देर बाद अपनी पत्नी को साथ लिए अंदर दाखिल हुआ जो इसी बीच थैला उठाए अंदर चली गई थी।

‘हेलेन, यह आदमी जलंधर से आया है, मेरे शहर से, तुमने बताया ही नहीं।’

उत्तेजना के कारण उसका चेहरा दमकने लगा था और बड़ी बड़ी आँखों के नीचे गुमड़ों में नमी आ गई थी।

‘मैंने ठीक ही किया ना’, महिला कमरे में आते हुए बोली। उसने इस बीच एप्रन पहन लिया था और रसोई घर में काम करने लग गई थी। बड़ी शालीन, स्निग्ध नजर से उसने मेरी और देखा। उसके चेहरे पर वैसी ही शालीनता झलक रही थी जो दसियों वर्ष तक शिष्टाचार निभाने के बाद स्वभाव का अंग बन जती है। वह मुस्कुरती हुई मेरे पास आ कर बैठ गई।

‘लाल, मुझे भारत में जगह जगह घुमाने ले गया था। आगरा, बनारस, कलकत्ता, हम बहुत घूमे थे…’

वह बुजुर्ग इस बीच टकटकी बाँधे मेरी ओर देखे जा रहा था। उसकी आँखों में वही रूमानी किस्म का देशप्रेम झलकने लगा था जो देश के बाहर रहनेवाले हिंदुस्तानी की आँखों में, अपने किसी देशवासी से मिलने पर चमकने लगता है। हिंदुस्तानी पहले तो अपने देश से भागता है और बाद से उसी हिंदुस्तानी के लिए तरसने लगता है।

‘भारत छोड़ने के बाद आप बहुत दिन से भारत नहीं गए, आपकी श्रीमती बता रही थी। भारत के साथ आपका संपर्क तो रहता ही होगा?’

और मेरी नजर किताबों से ठसाठस भरी आल्मारियों पर पड़ी। दीवारों पर टँगे अनेक मानचित्र भारत के ही मानचित्र थे।

उसकी पत्नी अपनी भारत यात्रा को याद करके कुछ अनमनी सी हो गई थी, एक छाया सी मानो उसके चेहरे पर डोलने लगी हो।

‘लाल के कुछ मित्र संबंधी अभी भी जालंधर में रहते हैं। कभी-कभी उनका खत आ जाता है।’ फिर हँस कर बोली, ‘उनके खत मुझे पढ़ने के लिए नहीं देता। कमरा अंदर से बंद करके उन्हें पढ़ता है।’

‘तुम क्या जानो कि उन खतों से मुझे क्या मिलता है!’ लाल ने भावुक होते हुए कहा।

इस पर उसकी पत्नी उठ खड़ी हुई।

‘तुम लोग जालंधर की गलियों में घूमो, मैं चाय का प्रबंध करती हूँ।’ उसने हँस कर कहा और उन्हीं कदमों रसोई घर की और घूम गई।

भारत के प्रति उस आदमी की अत्यधिक भावुकता को देख कर मुझे अचंभा भी हो रहा था। देश के बाहर दशाब्दियों तक रह चुकने के बाद भी कोई आदमी बच्चों की तरह भावुक हो सकता है, मुझे अटपटा लग रहा था।

‘मेरे एक मित्र को भी आप ही की तरह भारत से बड़ा लगाव था’, मैंने आवाज को हल्का करते हुए मजाक के से लहजे में कहा, ‘वह भी बरसों तक देश के बाहर रहता रहा था। उसके मन में ललक उठने लगी कि कब मैं फिर से अपने देश की धरती पर पाँव रख पाऊँगा।’

कहते हुए मैं क्षण भर के लिए ठिठका। मैं जो कहने जा रहा हूँ, शायद मुझे नहीं कहना चाहिए। लेकिन फिर भी धृष्टता से बोलता चल गया, ‘ चुनाँचे वर्षों बाद सचमुच वह एक दिन टिकट कटवा कर हवाई जहाज द्वारा दिल्ली जा पहुँचा। उसने खुद यह किस्सा बाद में मुझे सुनाया था। हवाई जहाज से उतर कर वो बाहर आया, हवाई अड्डे की भीड़ में खड़े खड़े ही वह नीचे की और झुका और बड़े श्रद्धा भाव से भारत की धरती को स्पर्श करने के बाद खड़ा हुआ तो देखा, बटुआ गायब था…’

बुजुर्ग अभी भी मेरी ओर देखे जा रहा था। उसकी आँखों के भाव में एक तरह की दूरी आ गई थी, जैसे अतीत की अँधियारी खोह में से दो आँखें मुझ पर लगी हों।

‘उसने झुक कर स्पर्श तो किया यही बड़ी बात है,’ उसने धीरे से कहा, ‘दिल की साध तो पूरी कर ली।’

मैं सकुचा गया। मुझे अपना व्यवहार भौंड़ा-सा लगा, लेकिन उसकी सनक के प्रति मेरे दिल में गहरी सहानुभूति रही हो, ऐसा भी नहीं था।

वह अभी भी मेरी और बड़े स्नेह से देखे जा रहा था। फिर वह सहसा उठ खड़ा हुआ – ऐसे मौके तो रोज रोज नहीं आते। इसे तो हम सेलिब्रेट करेंगे।’ और पीछे जा कर एक आलमारी में से कोन्याक शराब की बोतल और दो शीशे के जाम उठा लाया।

जाम में कोन्याक उँड़ेली गई। वह मेरे साथ बगलगीर हुआ, और हमने इस अनमोल घड़ी के नाम जाम टकराए।

‘आपको चाहिए कि आप हर तीसरे चौथे साल भारत की यात्रा पर जाया करें। इससे मन भरा रहता है।’ मैंने कहा।

इसने सिर हिलाया ‘एक बार गया था, लेकिन तभी निश्चय कर लिया था कि अब कभी भारत नहीं आऊँगा।’ शराब के दो एक जामों के बाद ही वह खुलने लगा था, और उसकी भावुकता में एक प्रकार की अत्मीयता का पुट भी आने लगा था। मेरे घुटने पर हाथ रख कर बोला, ‘मैं घर से भाग कर आया था। तब मैं बहुत छोटा था। इस बात को अब लगभग चालीस साल होने को आए हैं’, वह थोड़ी देर के लिए पुरानी यादों में खो गया, पर फिर, अपने को झटका सा दे कर वर्तमान में लौटा लाया। ‘जिंदगी में कभी कोई बड़ी घटना जिंदगी का रुख नहीं बदलती, हमेशा छोटी तुच्छ सी घटनाएँ ही जिंदगी का रुख बदलती हैं। मेरे भाई ने केवल मुझे डाँटा था कि तुम पढ़ते लिखते नहीं हो, आवारा घूमते रहते हो, पिताजी का पैसा बरबाद करते हो… और मैं उसी रात घर से भाग गया था।’

कहते हुए उसने फिर से मेरे घुटने पर हाथ रखा और बड़ी आत्मीयता से बोला ‘अब सोचता हूँ, वह एक बार नहीं, दस बार भी मुझे डाँटता तो मैं इसे अपना सौभाग्य समझता। कम से कम कोई डाँटने वाला तो था।’

कहते कहते उसकी आवाज लड़खड़ा गई, ‘बाद में मुझे पता चला कि मेरी माँ जिंदगी के आखिरी दिनों तक मेरा इंतजार करती रही थी। और मेरा बाप, हर रोज सुबह ग्यारह बजे, जब डाकिए के आने का वक्त होता तो वह घर के बाहर चबूतरे पर आ कर खड़ा हो जाता था। और इधर मैंने यह दृढ़ निश्चय कर रखा था कि जब तक मैं कुछ बन ना जाऊँ, घरवालों को खत नहीं लिखूँगा।’

एक क्षीण सी मुस्कान उसके होंठों पर आई और बुझ गई’, फिर मैं भारत गया। यह लगभग पंद्रह साल बाद की बात रही होगी। मैं बड़े मंसूबे बाँध कर गया था…’

उसने फिर जाम भरे और अपना किस्सा सुनाने को मुँह खोला ही था कि चाय आ गई। नाटे कद की उसकी गोलमटोल पत्नी चाय की ट्रे उठाए, मुस्कराती हुई चली आ रही थी। उसे देख कर मन में फिर से सवाल उठा, क्या यह महिला जिंदगी का रुख बदलने का कारण बन सकती है?

चाय आ जाने पर वार्तालाप में औपचारिकता आ गई।

‘जालंधर में हम माई हीराँ के दरवाजे के पास रहते थे। तब तो जालंधर बड़ा टूटा फूटा सा शहर था। क्यों, हनी? तुम्हे याद है, जालंधर में हम कहाँ पर रहे थे?’

‘मुझे गलियों के नाम तो मालूम नहीं, लाल, लेकिन इतना याद है कि सड़कों पर कुत्ते बहुत घूमते थे, और नालियाँ बड़ी गंदी थीं, मेरी बड़ी बेटी – तब वह डेढ़ साल की थी – मक्खी देख कर डर गई थी। पहले कभी मक्खी नहीं देखी थी। वहीं पर हमने पहली बार गिलहरी को भी देखा था। गिलहरी उसके सामने से लपक कर एक पेड़ पर चड़ गई तो वह भागती हुई मेरे पास दौड़ आई थी। …और क्या था वहाँ?’

‘…हम लाल के पुश्तैनी घर में रहे थे…’

चाय पीते समय हम इधर उधर कि बातें करते रहे। भारत की अर्थव्यवस्था की, नए नए उद्योग धंधों की, और मुझे लगा कि देश से दूर रहते हुए भी यह आदमी देश की गति-विधि से बहुत कुछ परिचित है।

‘मैं भारत में रहते हुए भी भारत के बारे में बहुत कम जानता हूँ, आप भारत से दूर हैं, पर भारत के बारे में बहुत कुछ जानते हैं।’

उसने मेरी और देखा और हौले से मुस्करा कर बोला, ‘तुम भारत में रहते हो, यही बड़ी बात है।’

मुझे लगा जैसे सब कुछ रहते हुए भी, एक अभाव सा, इस आदमी के दिल को अंदर ही अंदर चाटता रहता है – एक खला जिसे जीवन की उपलब्धियाँ और आराम आसायश, कुछ भी नहीं पाट सकता, जैसे रह रह कर कोई जख्म सा रिसने लगता हो।

सहसा उसकी पत्नी बोली, ‘लाल ने अभी तक अपने को इस बात के लिए माफ नहीं किया कि उसने मेरे साथ शादी क्यों की।’

‘हेलेन…’

मैं अटपटा महसूस करने लगा। मुझे लगा जैसे भारत को ले कर पति पत्नी के बीच अक्सर झगड़ा उठ खड़ा होता होगा, और जैसे इस विषय पर झगड़ते हुए ही ये लोग बुढ़ापे की दहलीज तक आ पहुँचे थे। मन में आया कि मैं फिर से भारत की बुराई करूँ ताकि यह सज्जन आपनी भावुक परिकल्पनाओं से छुटकारा पाएँ लेकिन यह कोशिश बेसूद थी।

‘सच कहती हूँ’, उसकी पत्नी कहे जा रही थी, ‘इसे भारत में शादी करनी चाहिए थी। तब यह खुश रहता। मैं अब भी कहती हूँ कि यह भारत चला जाए, और मैं अलग यहाँ रहती रहूँगी। हमारी दोनो बेटियाँ बड़ी हो गई हैं। मैं अपना ध्यान रख लूँगी…’

वह बड़ी संतुलित, निर्लिप्त आवाज में कहे जा रही थी। उसकी आवाज में न शिकायत का स्वर था, न क्षोभ का। मानो अपने पति के ही हित की बात बड़े तर्कसंगत और सुचिंतित ढंग से कह रही हो।

‘पर मैं जानती हूँ, यह वहाँ पर भी सुख से नहीं रह पाएगा। अब तो वहाँ की गर्मी भी बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। और वहाँ पर अब इसका कौन बैठा है? माँ रही, न बाप। भाई ने मरने से पहले पुराना पुश्तैनी घर भी बेच दिया था।’

‘हेलेन, प्लीज…’ बुजुर्ग ने वास्ता डालने के से लहजे में कहा।

अबकी बार मैंने स्वयं इधर उधर की बातें छेड़ दीं। पता चला कि उनकी दो बेटियाँ हैं, जो इस समय घर पर नहीं थीं, बड़ी बेटी बाप की ही तरह इंजीनियर बनी थी, जबकी छोटी बेटी अभी युनिवर्सिटी में पढ़ रही थी, कि दोनो बड़ी समझदार और प्रतिभासंपन्न हैं। युवतियाँ हैं।

क्षण भर के लिए मुझे लगा कि मुझे इस भावुकता की ओर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए, इसे सनक से ज्यादा नहीं समझना चाहिए, जो इस आदमी को कभी कभी परेशान करने लगती है जब अपने वतन का कोई आदमी इससे मिलता है। मेरे चले जाने के बाद भावुकता का यह ज्वार उतर जाएगा और यह फिर से अपने दैनिक जीवन की पटरी पर आ जाएगा।

आखिर चाय का दौर खतम हुआ. और हमने सिगरेट सुलगाया। कोन्याक का दौर अभी भी थोड़े थोड़े वक्त के बाद चल रहा था। कुछ देर सिगरेटों सिगारों की चर्चा चली, इसी बीच उसकी पत्नी चाय के बर्तन उठा कर किचन की ओर बढ़ गई।

‘हाँ, आप कुछ बता रहे थे कि कोई छोटी सी घटना घटी थी…’

वह क्षण भर के लिए ठिठका, फिर सिर टेढ़ा करके मुस्कुराने लगा, ‘तुम अपने देश से ज्यादा देर बाहर नहीं रहे इस लिए नहीं जानते कि परदेश में दिल की कैफियत क्या होती है। पहले कुछ साल तो मैं सब कुछ भूले रहा पर भारत से निकले दस-बारह साल बाद भारत की याद रह रह कर मुझे सताने लगी। मुझ पर इक जुनून सा तारी होने लगा। मेरे व्यवहार में भी इक बचपना सा आने लगा। कभी कभी मैं कुर्ता-पायजामा पहन कर सड़कों पर घूमने लगता था, ताकि लोगों को पता चले कि मैं हिंदुस्तानी हूँ, भारत का रहने वाला हूँ। कभी जोधपुरी चप्पल पहन लेता, जो मैंने लंदन से मँगवाई थी, लोग सचमुच बड़े कुतूहल से मेरी चप्पल की ओर देखते, और मुझे बड़ा सुख मिलता। मेरा मन चाहता कि सड़कों पर पान चबाता हुआ निकलूँ, धोती पहन कर चलूँ। मैं सचमुच दिखाना चाहता था कि मैं भीड़ में खोया अजनबी नहीं हूँ, मेरा भी कोई देश है, मैं भी कहीं का रहने वाला हूँ। परदेस में रहने वाले हिंदुस्तानी के दिल को जो बात सबसे ज्यादा सालती है, वह यह कि वह परदेश में एक के बाद एक सड़क लाँघता चला जाए और उसे कोई जानता नहीं, कोई पहचानता नहीं, जबकि अपने वतन में हर तीसरा आदमी वाकिफ होता है। दिवाली के दिन मैं घर में मोमबत्तियाँ ला कर जला देता, हेलेन के माथे पर बिंदी लगाता, उसकी माँग में लाल रंग भरता। मैं इस बात के लिए तरस तरस जाता कि रक्षा बंधन का दिन हो और मेरी बहिन अपने हाथों से मुझे राखी बाँधे, और कहे ‘मेरा वीर जुग जुग जिए!’ मैं ‘वीर’ शब्द सुन पाने के लिए तरस तरस जाता। आखिर मैंने भारत जाने का फैसला कर लिया। मैंने सोचा, मैं हेलेन को भी साथ ले चलूँगा और अपनी डेढ़ बरस की बच्ची को भी। हेलेन को भारत की सैर कराऊँगा और यदि उसे भारत पसंद आया तो वहीं छोटी मोटी नौकरी करके रह जाऊँगा।’

‘पहले तो हम भारत में घूमते-घामते रहे। दिल्ली, आगरा, बनारस… मैं एक एक जगह बड़े चाव से इसे दिखाता और इसकी आँखों में इसकी प्रतिक्रिया देखता रहता। इसे कोई जगह पसंद होती तो मेरा दिल गर्व से भर उठता।’

‘फिर हम जलंधर गए।’ कहते ही वह आदमी फिर से अनमना सा हो कर नीचे की और देखने लगा और चुपचाप सा हो गया, मुझे लगा जैसे वह मन ही मन दूर अतीत में खो गया है और खोता चला जा रहा है। पर सहसा उसने कंधे झटक दिए और फर्श की ओर आँखे लगाए ही बोला, ‘जालंधर में पहुँचते ही मुझे घोर निराशा हुई। फटीचर सा शहर, लोग जरूरत से ज्यादा काले और दुबले। सड़कें टूटी हुई। सभी कुछ जाना पहचाना था लेकिन बड़ा छोटा छोटा और टूटा फूटा। क्या यही मेरा शहर है जिसे मैं हेलेन को दिखाने लाया हूँ? हमारा पुश्तैनी घर जो बचपन में मुझे इतना बड़ा बड़ा और शानदार लगा करता था, पुराना और सिकुड़ा हुआ। माँ बाप बरसों पहले मर चुके थे। भाई प्यार से मिला लेकिन उसे लगा जैसे मैं जायदाद बाँटने आया हूँ और वह पहले दिन से ही खिंचा खिंचा रहने लगा। छोटी बहन की दस बरस पहले शादी हो चुकी थी और वह मुरादाबाद में जा कर रहने लगी थी। क्या मैं विदेशों में बैठा इसी नगर के स्वप्न देखा करता था? क्या मैं इसी शहर को देख पाने के लिए बरसों से तरसता रहा हूँ? जान पहचान के लोग बूढ़े हो चुके थे। गली के सिरे पर कुबड़ा हलवाई बैठा करता था। अब वह पहले से भी ज्यादा पिचक गया था, और दुकान में चौकी पर बैठने के बजाय, दुकान के बाहर खाट पर उकड़ूँ बैठा था। गलियाँ बोसीदा, सोई हुई। मैं हेलेन को क्या दिखाने लाया हूँ? दो तीन दिन इसी तरह बीत गए। कभी मैं शहर से बाहर खेतों में चला जाता, कभी गली बाजार में घूमता। पर दिल में कोई स्फूर्ति नहीं थी, कोई उत्साह नहीं था। मुझे लगा जैसे मैं फिर किसी पराए नगर में पहुँच गया हूँ।

तभी एक दिन बाजार में जाते हुए मुझे अचानक ऊँची सी आवाज सुनायी दी – ‘ओ हरामजादे!’ मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया। यह हमारे शहर की परंपरागत गाली थी जो चौबिसों घंटे हर शहरी की जबान पर रहती थी। केवल इतना भर विचार मन में उठा कि शहर तो बूढ़ा हो गया है लेकिन उसकी तहजीब ज्यों की त्यों कायम है।

‘ओ हराम जादे! अपने बाप की तरफ देखता भी नहीं?’

मुझे लगा जैसे कोई आदमी मुझे ही संबोधन कर रहा है। मैंने घूम कर देखा। सड़क के उस पार, साइकिलों की एक दुकान के चबूतरे पर खड़ा एक आदमी मुझे ही बुला रहा था।

मैंने ध्यान से देखा। काली काली फनियर मूँछों, सपाट गंजे सिर और आँखों पर लगे मोटे चश्मे के बीच से एक आकृति सी उभरने लगी। फिर मैंने झट से उसे पहचान लिया। वह तिलकराज था, मेरा पुराना सहपाठी।

‘हरामजादे! अब बाप को पहचानता भी नहीं है!’ दूसरे क्षण हम दोनों एक दूसरे की बाँहों में थे।

‘ओ हराम दे! बाहर की गया, साहब बन गया तूँ?’ तेरी साहबी विच मैं…’ और उसने मुझे जमीन पर से उठा लिया। मुझे डर था कि वह सचमुच ही जमीन पर मुझे पटक न दे। दूसरे क्षण हम एक दूसरे को गालियाँ निकाल रहे थे।

मुझे लड़कपन का मेरा दोस्त मिल गया था। तभी सहसा मुझे लगा जैसे जालंधर मिल गया है, मुझे मेरा वतन मिल गया है। अभी तक मैं अपने शहर में अजनबी सा घूम रहा था। तिलकराज से मिलने की देर थी कि मेरा सारा परायापन जाता रहा। मुझे लगा जैसे मैं यहीं का रहने वाला हूँ। मैं सड़क पर चलते किसी भी आदमी से बात कर सकता हूँ, झगड़ सकता हूँ। हर इनसान कहीं का बन कर रहना चाहता है। अभी तक मैं अपने शहर में लौट कर भी परदेसी था, मुझे किसी ने पहचाना नहीं था। अपनाया नहीं था। यह गाली मेरे लिए वह तंतु थी, सोने की वह कड़ी थी जिसने मुझे मेरे वतन से, मेरे लोगों से, मेरे बचपन और लड़कपन से, फिर से जोड़ दिया था।

तिलकराज की और मेरी हरकतों में बचपना था, बेवकूफी थी। पर उस वक्त वही सत्य था, और उसकी सत्यता से आज भी मैं इनकार नहीं कर सकता। दिल दुनिया के सच बड़े भौंड़े पर बड़े गहरे और सच्चे होते हैं।

‘चल, कहीं बैठ कर चाय पीते हैं’, तिलकराज ने फिर गाली दे कर कहा। ‘वह पंजाबी दोस्त क्या जो गाली दे कर, पक्कड़ तोल कर बगलगीर न हो जाए।’

हम दोनों, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, खरामा खरामा माई हीराँ के दरवाजे की ओर जाने लगे। मेरी चाल में पुराना अलसाव आ गया। मैं जालंधर की गलियों में यूँ घूमने लगा जैसे कोई जागीरदार अपनी जागीर में घूमता है। मैं पुलक पुलक रहा था। किसी किसी वक्त मन में से आवाज उठती, तुम यहाँ के नहीं हो, पराए हो, परदेसी हो, पर मैं अपने पैर और भी जोर से पटक पटक कर चलने लगता।

‘चुच्चा हलवाई अभी भी वहीं पर बैठता है?’

‘और क्या, तू हमें धोखा दे गया है, और लोगों ने तो धोखा नहीं दिया।’

इसी अल्हड़पन से, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, हम किसी जमाने में इन्हीं सड़कों पर घूमा करते थे। तिलकराज के साथ मैं लड़कपन में पहुँच गया था, उन दिनों का अलबेलापन महसूस करने लग था।

हम एक मैले कुचैले ढाबे में जा बैठे। वही मक्खियों और मैल से अटा गंदा मेज, पर मुझे परवाह नहीं थी, यह मेरे जालंधर के ढाबे का मेज था। उस वक्त मेरा दिल करता कि हेलेन मुझे इस स्थिति में आ कर देखे, तब वह मुझे जान लेगी कि मैं कौन हूँ, कहाँ का रहने वाला हूँ, कि दुनिया में एक कोना ऐसा भी है जिसे मैं अपना कह सकता हूँ, यह गंदा ढाबा, यह धुआं भरी फटीचर खोह।

ढाबे से निकल कर हम देर तक सड़कों पर मटरगश्ती करते रहे यहाँ तक कि थक कर चूर हो गए। वह उसी तरह मुझे अपने घर के सामने तक ले गया। जैसे लड़कपन में मैं उसके साथ चलता हुआ, उसे उसके घर तक छोड़ने जाता था, फिर वह मुझे मेरे घर तक छोड़ने आता था।

तभी उसने कहा, ‘कल रात खाना तुम मेरे घर पर खाओगे। अगर इनकार किया तो साले, यहीं तुझे गले से पकड़ कर नाली में घुसेड़ दूँगा।’

‘आऊँगा,’ मैंने झट से कहा।

‘अपनी मेम को भी लाना। आठ बजे मैं तेरी राह देखूँगा। अगर नहीं आया तो साले हराम दे…’

और पुराने दिनों की ही तरह उसने पहले हाथ मिलाया और फिर घुटना उठा कर मेरी जाँघ पर दे मारा। यही हमारा विदा होने का ढंग हुआ करता था। जो पहले ऐसा कर जाए कर जाए। मैंने भी उसे गले से पकड़ लिया और नीचे गिराने का अभिनय करने लगा।

यह स्वाँग था। मेरी जालंधर की सारी यात्रा ही छलावा थी। कोई भावना मुझे हाँके चले जा रही थी और मैं इस छलावे में ही खोया रहना चाहता था।

दूसरे रोज, आठ बजते न बजते, हेलेन और मैं उसके घर जा पहुँचे। बच्ची को हमने पहले ही खिला कर सुला दिया था। हेलेन ने अपनी सबसे बढ़िया पोशाक पहनी, काले रंग का फ्राक, जिसपर सुनहरी कसीदाकारी हो रही थी, कंधों पर नारंगी रंग का स्टोल डाला, और बार बार कहे जाती : ‘तुम्हारा पुराना दोस्त है तो मुझे बन सँवर कर ही जाना चाहिए ना।’

मैं हाँ कह देता पर उसके एक एक प्रसाधन पर वह और भी ज्यादा दूर होती जा रही थी। न तो काला फ्राक और बनाव सिंगार और न स्टोल और इत्र फुलेल ही जालंधर में सही बैठते थे। सच पूछो तो मैं चाहता भी नहीं था कि हेलेन मेरे साथ जाए। मैंने एकाध बार उसे टालने की कोशिश भी की, जिस पर वह बिगड़ कर बोली, ‘वाह जी, तुम्हारा दोस्त हो और मैं उससे न मिलूँ? फिर तुम मुझे यहाँ लाए ही क्यों हो?’

हम लोग तो ठीक आठ बजे उसके घर पहुँच गए लेकिन उल्लू के पट्ठे ने मेरे साथ धोखा किया। मैं समझे बैठा था कि मैं और मेरी पत्नी ही उसके परिवार के साथ खाना खाएँगे। पर जब हम उसके घर पहुँचे तो उसने सारा जालंधर इकट्ठा कर रखा था, सारा घर मेहमानों से भरा था। तरह तरह के लोग बुलाए गए थे। मुझे झेंप हुई। अपनी ओर से वह मेरा शानदार स्वागत करना चाहता था। वह भी पंजाबी स्वभाव के अनुरूप ही। दोस्त बाहर से आए और वह उसकी खातिरदारी न करे। अपनी जमीन जायदाद बेच कर भी वह मेरी खातिरदारी करता। अगर उसका बस चलता तो वह बैंड बाजा भी बुला लेता। पर मुझे बड़ी कोफ्त हुई। जब हम पहुँचे तो बैठक वाला कमरा मेहमानों से भरा था, उनमें से अनेक मेरे परिचित भी निकल आए और मेरे मन में फिर हिलोर सी उठने लगी।

पत्नी से मेरा परिचय कराने के लिए मुझे बैठक में से रसोईघर की ओर ले गया। वह चूल्हे के पास बैठी कुछ तल रही थी। वह झट से उठ खड़ी हुई दुपट्टे के कोने से हाथ पोंछते हुए आगे बढ़ आई। उसका चेहरा लाल हो रहा था और बालों की लट माथे पर झूल आई थी। ठेठ पंजाबिन, अपनत्व से भरी, मिलनसार, हँसमुख। उसे यों उठते देख कर मेरा सारा शरीर झनझना उठा। मेरी भावज भी चूल्हे से ऐसे ही उठ आया करती थी, दुपट्टे के कोने से हाथ पोंछती हुई, मेरी बड़ी बहनें भी, मेरी माँ भी। पंजाबी महिला का सारा बाँकापन, सारी आत्मीयता उसमें जैसे निखर निखर आई थी। किसी पंजाबिन से मिलना हो तो रसोईघर की दहलीज पर ही मिलो। मैं सराबोर हो उठा। वह सिर पर पल्ला ठीक करती हुई, लजाती हुई सी मेरे सामने आ खड़ी हुई।

‘भाभी, यह तेरा घरवाला तो पल्ले दर्जे का बेवकूफ है, तुम इसकी बातों में क्यों आ गईं?’

‘इतना आडंबर करने की क्या जरूरत थी? हम लोग तो तुमसे मिलने आए हैं…’

फिर मैंने तिलकराज की और मुखातिब हो कर कह, ‘उल्लू के पट्ठे, तुझे मेहमाननवाजी करने को किसने कहा था? हरामी, क्या मैं तेरा मेहमान हूँ? … मैं तुझसे निबट लूँगा।’

उसकी पत्नी कभी मेरी ओर देखती, कभी अपने पति की ओर फिर धीरे से बोली, ‘आप आएँ और हम खाना भी न करें? आपके पैरों से तो हमारा घर पवित्र हुआ है।’

वही वाक्य जो शताब्दियों से हमारी गृहणियाँ मेहमानों से कहती आ रही हैं।

फिर वह हमें छोड़ कर सीधा मेरी पत्नी से मिलने चली गई और जाते ही उसका हाथ पकड़ लिया और बड़ी आत्मीयता से उसे खींचती हुई एक कुर्सी की ओर ले गई। वह यों व्यवहार कर रही थी जैसे उसका भाग्य जागा हो। हेलेन को कुर्सी पर बैठाने के बाद वह स्वयं नीचे फर्श पर बैठ गई। वह टूटी फूटी अंग्रेजी बोल लेती थी और बेधड़क बोले जा रही थी। हर बार उनकी आँखें मिलतीं तो वह हँस देती। उसके लिए हेलेन तक अपने विचार पहुँचाना कठिन था लेकिन अपनी आत्मीयता और स्नेह भाव उस तक पहुँचाने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई।

उस शाम तिलकराज की पत्नी हेलेन के आगे पीछे घूमती रही। कभी अंदर से कढ़ाई के कपड़े उठा लाती और एक-एक करके हेलेन को दिखाने लगती। कभी उसका हाथ पकड़ कर उसे रसोईघर में ले जाती, और उसे एक एक व्यंजन दिखाती कि उसने क्या क्या बनाया है और कैसे कैसे बनाया है। फिर वह अपनी कुल्लू की शाल उठा लाई और जब उसने देखा कि हेलेन को पसंद आई है, तो उसने उसके कंधों पर डाल दी।

इस सारी आवभगत के बावजूद हेलेन थक गई। भाषा की कठिनाई के बावजूद वह बड़ी शालीनता के साथ सभी से पेश आई। पर अजनबी लोगों के साथ आखिर कोई कितनी देर तक शिष्टाचार निभाता रहे? अभी ड्रिंक्स ही चल रहे थे जब वह एक कुर्सी पर थक कर बैठ गई। जब कभी मेरी नजर हेलेन की ओर उठती तो वह नजर नीची कर लेती, जिसक मतलब था कि मैं चुपचाप इस इंतजार में बैठी हूँ कि कब तुम मुझे यहाँ से ले चलो।

रात के बारह बजे के करीब पार्टी खत्म हुई और तिलकराज के यार दोस्त नशे में झूमते हुए अपने-अपने घर जाने लगे। उस वक्त तक काफी शोर गुल होने लगा था, कुछ लोग बहकने भी लगे थे। एक आदमी के हाथ से शराब का गिलास गिर कर टूट गया था।

जब हम लोग भी जाने को हुए और हेलेन भी उठ खड़ी हुई तो तिलकराज ने पंजाबी दस्तूर के मुताबिक कहा – बैठ जा, बैठ जा, कोई जाना वाना नहीं है।

‘नहीं यार, अब चलें। देर हो गई है।’

उसने फिर मुझे धक्का दे कर कुर्सी पर फेंक दिया।

कुछ हल्का हल्का सरूर, कुछ पुरानी याद, तिलकराज का प्यार और स्नेह उसकी पत्नी का आत्मीयता से भरा व्यवहार, मुझे भला लग रहा था। सलवार कमीज पहने बालों का जूड़ा बनाए, चूड़ियाँ खनकाती एक कमरे से दूसरे कमरे में जाती हुई तिलकराज की पत्नी मेरे लिए मेरे वतन का मुजस्समा बन गई थी, मेरे देश की समुची संस्कृति उसमें सिमट आई थी। मेरे दिल में, कहीं गहरे में, एक टीस सी उठी कि मेरे घर में भी कोई मेरे ही देश की महिला एक कमरे से दूसरे कमरे में घूमा करती, उसी की हँसी गूँजती, मेरे ही देश के गीत गुनगुनाती। वर्षों से मैं उन बोलों के लिए तरस गया था जो बचपन में अपने घर में सुना करता था।

हेलेन से मुझे कोई शिकायत नहीं थी। मेरे लिए उसने क्या नहीं किया था। उसने चपाती बनाना सीख लिया था। दाल छौंकना सीख लिया था। शादी के कुछ समय बाद ही वह मेरे मुँह से सुने गीत-टप्पे भी गुनगुनाने लगी थी। कभी कभी सलवार कमीज पहन कर मेरे साथ घूमने निकल पड़ती। रसोईघर की दीवार पर उसने भारत का एक मानचित्र टाँग दिया था जिस पर अनेक स्थानों पर लाल पेंसिल से निशान लगा रखे थे कि जालंधर कहाँ है और दिल्ली कहाँ है और अमृतसर कहाँ है जहाँ मेरी बड़ी बहन रहती थी। भारत संबंधी जो किताब मिलती, उठा लाती, जब कभी कोई हिंदुस्तानी मिल जाता उसे आग्रह अनुरोध करके घर ले आती। पर उस समय मेरी नजर में यह सब बनावट था, नकल थी, मुलम्मा था – इनसान क्यों नहीं विवेक और समझदारी के बल पर अपना जीवन व्यतीत कर सकता? क्यों सारा वक्त तरह तरह के अरमान उसके दिल को मथते रहते हैं?

‘फिर?’ मैंने आग्रह से पूछा।

उसने मेरी ओर देखा और उसके चेहरे की मांसपेशियों में हल्का सा कंपन हुआ। वह मुस्करा कर कहने लगा, ‘तुम्हे क्या बताऊँ।’ तभी मैं एक भूल कर बैठा। हर इनसान कहीं न कहीं पागल होता है और पागल बना रहना चाहता है… जब मैं विदा लेने लगा और तिलकराज कभी मुझे गलबहियाँ दे कर और कभी धक्का दे कर बिठा रहा था और हेलेन भी पहले से दरवाजे पर जा खड़ी हुई थी, तभी तिलकराज की पत्नी लपक कर रसोईघर की ओर से आई और बोली, ‘हाय, आप लोग जा रहे हैं? यह कैसे हो सकता है? मैंने तो खास आपके लिए सरसों का साग और मक्के की रोटियाँ बनाई हैं।’

मैं ठिठक गया। सरसों का साग और मक्की की रोटियाँ पंजाबियों का चहेता भोजन है।

‘भाभी, तुम भी अब कह रही हो? पहले अंटसंट खिलाती रही हो और अब घर जाने लगे हैं तो…’

‘मैं इतने लोगों के लिए कैसे मक्की की रोटियाँ बना सकती थी? अकेली बनाने वाली जो थी। मैंने आपके लिए थोड़ी सी बना दी। यह कहते थे कि आपको सरसों का साग और मक्की की रोटी बहुत पसंद है…’

सरसों का साग और मक्की की रोटी। मैं चहक उठा, और तिलकराज को संबोधन करके कहा, ‘ओ हरामी, मुझे बताया क्यों नहीं?’ और उसी हिलोरे में हेलेन से कहा, ‘आओ हेलेन, भाभी ने सरसों का साग बनाया है। यह तो तुम्हे चखना ही होगा।’

हेलेन खीज उठी। पर अपने को संयत कर मुस्कुराती हुई बोली, ‘मुझे नहीं, तुम्हे चखना होगा।’ फिर धीरे से कहने लगी, ‘मैं बहुत थक गई हूँ। क्या यह साग कल नहीं खाया जा सकता?’

सरसों का साग, नाम से ही मैं बावला हो उठा था। उधर शराब का हल्का हल्का नशा भी तो था।

‘भाभी ने खास हमारे लिए बनाया है। तुम्हे जरूर अच्छा लगेगा।’

फिर बिना हेलेन के उत्तर का इंतजार किए, साग है तो मैं तो रसोईघर के अंदर बैठ कर खाऊँगा। मैंने बच्चों की तरह लाड़ से कहा, ‘चल बे, उल्लू के पट्ठे, उतार जूते, धो हाथ और बैठ जा थाली के पास! एक ही थाली में खाएँगे।’

छोटा सा रसोईघर था। हमारे अपने घर में भी ऐसा ही रसोईघर हुआ करता था जहाँ माँ अंगीठी के पास रोटियाँ सेंका करती थी और हम घर के बच्चे, साझी थालियों में झुके लुकमे तोड़ा करते थे।

फिर एक बार चिरपरिचित दृश्य मानों अतीत में से उभर कर मेरी आँखों के सामने घूमने लगा था और मैं आत्मविभोर हो कर उसे देखे जा रहा था। चूल्हे की आग की लौ में तिलकराज की पत्नी के कान का झूमर चमक चमक जाता था। सोने के काँटे में लाल नगीना पंजाबियों को बहुत फबता है। इस पर हर बार तवे पर रोटी सेंकने पर उसकी चूड़ियाँ खनक उठतीं और वह दोनो हाथों से गरम गरम रोटी तवे पर से उतार कर हँसते हुए हमारी थाली में डाल देती।

यह दृश्य मैं बरसों के बाद देख रहा था और यह मेरे लिए किसी स्वप्न से भी अधिक सुंदर और हृदयग्राही था। मुझे हेलेन की सुध भी नहीं रही। मैं बिल्कुल भूले हुए था कि बैठक में हेलेन अकेली बैठी मेरा इंतजार कर रही है। मुझे डर था कि अगर मैं रसोईघर में से उठ गया तो स्वप्न भंग हो जाएगा। यह सुंदरतम चित्र टुकड़े टुकड़े हो जाएगा। लेकिन तिलकराज की पत्नी उसे नहीं भूली थी। वह सबसे पहले एक तशतरी में मक्की की रोटी और थोड़ा सा साग और उस पर थोड़ा सा मक्खन रख कर हेलेन के लिए ले गई थी। बाद में भी, दो एक बार बीच बीच में उठ कर उसके पास कुछ न कुछ ले जाती रही थी।

खाना खा चुकने पर, जब हम लोग रसोईघर में से निकल कर बैठक में आए तो हेलेन कुर्सीं में बैठे बैठे सो गई थी और तिपाई पर मक्की की रोटी अछूती रखी थी। हमारे कदमों की आहट पा कर उसने आँखें खोलीं और उसी शालीन शिष्ट मुस्कान के साथ उठ खड़ी हुई।

विदा ले कर जब हम लोग बाहर निकले तो चारों ओर सन्नाटा छाया था। नुक्क्ड़ पर हमें एक ताँगा मिल गया। ताँगे में घूमे बरसों बीत चुके थे, मैंने सोचा हेलेन को भी इसकी सवारी अच्छी लगेगी। पर जब हम लोग ताँगे में बैठ कर घर की ओर जाने लगे तो रास्ते में हेलेन बोली, ‘कितने दिन और तुम्हारा विचार जालंधर में रहने का है?’

‘क्यों अभी से ऊब गईं क्या?’ आज तुम्हे बहुत परेशान किया ना, आई ऐम सारी।’

हेलेन चुप रही, न हूँ, न हाँ।

‘हम पंजाबी लोग सरसों के साग के लिए पागल हुए रहते हैं। आज मिला तो मैंने सोचा जी भर के खाओ। तुम्हे कैसे लगा?’

‘सुनो, मैं सोचती हूँ मैं यहाँ से लौट जाऊँ, तुम्हारा जब मन आए, चले आना।’

‘यह क्या कह रही हो हेलेन, क्या तुम्हे मेरे लोग पसंद नहीं हैं?’

भारत में आने पर मुझे मन ही मन कई बार यह खयाल आया था कि अगर हेलेन और बच्ची साथ में नहीं आतीं तो मैं खुल कर घूम फिर सकता था। छुट्टी मना सकता था। पर मैं स्वयं ही बड़े आग्रह से उसे अपने साथ लाया था। मैं चाहता था कि हेलेन मेरा देश देखे, मेरे लोगों से मिले, हमारी नन्ही बच्ची के संस्कारों में भारत के संस्कार भी जुड़ें और यदि हो सके तो मैं भारत में ही छोटी मोटी नौकरी कर लूँ।

हेलेन की शिष्ट, संतुलित आवाज में मुझे रुलाई का भास हुआ। मैंने दुलार से उसे आलिंगन में भरने की कोशिश की। उसमे धीरे से मेरी बाँह को परे हटा दिया। मुझे दूसरी बार उसके इर्द-गिर्द अपनी बाँह डाल देनी चाहिए थी, लेकिन मैं स्वयं तुनक उठा।

‘तुम तो बड़ी डींग मारा करतीं हो कि तुम्हे कुछ भी बुरा नहीं लगता और अभी एक घंटे में ही कलई खुल गई।’

ताँगे में हिचकोले आ रहे थे। पुराना फटीचर सा ताँगा था, जिसके सब चूल ढीले थे। हेलेन को ताँगे के हिचकोले परेशान कर रहे थे। ऊबड़-खाबड़, गड्ढों से भरी सड़क पर हेलेन बार बार सँभल कर बैठने की कोशिश कर रही थी।

‘मैं सोचती हूँ, मैं बच्ची को ले कर लौट जाऊँगी। मेरे यहाँ रहते तुम लोगों से खुल कर नहीं मिल सकते।’ उसकी आवाज में औपचारिकता का वैसा ही पुट था जैसा सरसों के साग की तारीफ करते समय रहा होगा, झूठी तारीफ और यहाँ झूठी सद्भावना।

‘तुम खुद सारा वक्त गुमसुम बैठी रही हो। मैं इतने चाव से तुम्हे अपना देश दिखाने लाया हूँ।’

‘तुम अपने दिल की भूख मिटाने आए हो, मुझे अपना देश दिखाने नहीं लाए’, उसने स्थिर, समतल, ठंडी आवाज में कहा, और अब मैंने तुम्हारा देश देख लिया है।’

मुझे चाबुक सी लगी।

‘इतना बुरा क्या है मेरे देश में जो तुम इतनी नफरत से उसके बारे में बोल रही हो? हमारा देश गरीब है तो क्या, है तो हमारा अपना।’

‘मैंने तुम्हारे देश के बारे में कुछ नहीं कहा।’

‘तुम्हारी चुप्पी ही बहुत कुछ कह देती है। जितनी ज्यादा चुप रहती हो उतना ही ज्यादा विष घोलती हो।’

वह चुप हो गई। अंदर ही अंदर मेरा हीनभाव जिससे उन दिनों हम सब हिंदुस्तानी ग्रस्त हुआ करते थे, छटपटाने लगा था। आक्रोश और तिलमिलाहट के उन क्षणों में भी मुझे अंदर ही अंदर कोई रोकने की कोशिश कर रहा था। अब बात और आगे नहीं बढ़ाओ, बाद में तुम्हे अफसोस होगा, लेकिन मैं बेकाबू हुआ जा रहा था। अँधेरे में यह भी नहीं देख पाया कि हेलेन की आँखें भर आई हैं और वह उन्हें बार बार पोंछ रही है। ताँगा हिचकोले खाता बढ़ा जा रहा था और साथ साथ मेरी बौखलाहट भी बढ़ रही थी। आखिर ताँगा हमारे घर के आगे जा खड़ा हुआ। हमारे घर की बत्ती जलती छोड़ कर घर के लोग अपने अपने कमरों में आराम से सो रहे थे। कमरे मे पहुँच कर हेलेन ने फिर एक बार कहा, ‘तुम्हे किसी हिंदुस्तानी लड़की से शादी करनी चाहिए थी। उसके साथ तुम खुश रहते। मेरे साथ तुम बँधे बँधे महसूस करते हो।’

हेलेन ने आँख उठा कर मेरी ओर देखा। उसकी नीली आँखें मुझे काँच कि बनी लगी, ठंडी, कठोर, भावनाहीन, ‘तुम सीधा क्यों नही कहती हो कि तुम्हे एक हिंदुस्तानी के साथ ब्याह नहीं करना चाहिए था। मुझ पर इस बात का दोष क्यों लगाती हो?’

‘मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा’, बह बोली और पार्टीशन के पीछे कपड़े बदलने चली गई।

दीवार के साथ एक ओर हमारी बच्ची पालने में सो रही थी। मेरी आवाज सुन कर वह कुनकुनाई, इस पर हेलेन झट से पार्टीशन के पीछे से लौट आई और बच्ची को थपथपा कर सुलाने लगी। बच्ची फिर से गहरी नींद में सो गई। और हेलेन पार्टीशन की ओर बढ़ गई। तभी मैंने पार्टीशन की ओर जा कर गुस्से से कहा, ‘जब से भारत आए हैं, आज पहले दिन कुछ दोस्तों से मिलने का मौका मिला है, तुम्हे वह भी बुरा लगा है। लानत है ऐसी शादी पर!’

मैं जानता था पार्टीशन के पीछे से कोई उत्तर नहीं आएगा। बच्ची सो रही हो तो हेलेन कमरे में चलती भी दबे पाँव थी। बोलने का तो सवाल ही नहीं उठता।

पर वह उसी समतल आवाज में धीरे से बोली, तुम्हे मेरी क्या परवाह। तुम तो मजे से अपने दोस्त की बीवी के साथ फ्लर्ट कर रहे थे।’

‘हेलेन!’ मुझे आग लग गई, ‘क्या बक रही हो।’

मुझे लगा जैसे उसने एक अत्यंत पवित्र, अत्यंत कोमल और सुंदर चीज को एक झटके में तोड़ दिया हो।

‘तुम समझती हो मैं अपने मित्र की बीवी के साथ फ्लर्ट कर रहा था?’

‘मैं क्या जानूँ तुम क्या कर रहे थे। जिस ढंग से तुम सारा वक्त उसकी ओर देख रहे थे…’

दूसरे क्षण मैं लपक कर पार्टीशन के पीछे जा पहुँचा और हेलेन के मुँह पर सीधा थप्पड़ दे मारा।

उसने दोनो हाथों से अपना मुँह ढाँप लिया। एक बार उसकी आँखें टेढ़ी हो कर मेरी ओर उठीं। पर वह चिल्लाई नहीं। थप्पड़ पड़ने पर उसका सिर पार्टीशन से टकराया था। जिससे उसकी कनपटी पर चोट आई थी।

‘मार लो, अपने देश में ला कर तुम मेरे साथ ऐसा व्यवहार करोगे, मैं नहीं जानती थी।’

उसके मुँह से यह वाक्य निकलने की देर थी कि मेरी टाँगें लरज गईं और सारा शरीर ठंडा पड़ गया। हेलेन ने चेहरे पर से हाथ हटा लिए थे। उसके गाल पर थप्पड़ का गहरा निशान पड़ गया था। पार्टीशन के पीछे वह केवल शमीज पहने सिर झुकाए खड़ी थी क्योंकि उसने फ्राक उतार दिया था। उसके सुनहरे बाल छितरा कर उसके माथे पर फैले हुए थे।

यह मैं क्या कर बैठा था? यह मुझे क्या हो गया था? मैं आँखें फाड़े उसकी ओर देखे जा रहा था और मेरा सारा शरीर निरुद्ध हुआ जा रहा था। मेरे मुँह से फटी फटी सी एक हुंकार निकली, मानो दिल का सार क्षोभ और दर्द अनुकूल शब्द न पा कर मात्र क्रंदन में ही छटपटा कर व्यक्त हो पाया हो। मैं पार्टीशन के पीछे से निकल कर बाहर आँगन में चला गया। यह मुझसे क्या हो गया है? यही एक वाक्य मेरे मन में बार बार चक्कर काट रहा था…

इस घटना के तीन दिन बाद हमने भारत छोड़ दिया। मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब लौट कर नहीं आऊँगा। उस दिन जो जालंधर छोड़ा तो फिर लौट कर नहीं गया…

सीढ़ियों पर कदमों की आवाज आई। उसी वक्त रसोईघर से हेलेन भी एप्रेन पहने चली आई। सीढ़ियों की ओर से हँसने चहकने और तेज तेज सीढ़ियाँ चढ़ने की आवाज आई। जोर से दरवाजा खुला और हाँफती हाँफती दो युवतियाँ – लाल साहब की बेटियाँ – अंदर दाखिल हुईं। बड़ी बेटी ऊँची लंबी थी, उसके बाल काले थे और आँखें किरमिची रंग की थीं। छोटी के हाथ में किताबें थीं, उसका रंग कुछ कुछ साँवला था, और आँखों में नीली नीली झाइयाँ थीं। दोनो ने बारी बारी से माँ और बाप के गाल चूमे, फिर झट से चाय की तिपाई पर से केक के टुकड़े उठा उठा कर हड़पने लगीं। उनकी माँ भी कुर्सी पर बैठ गई और दोनो बेटियाँ दिन भर की छोटी छोटी घटनाएँ अपनी भाषा में सुनाने लगीं। सारा घर उनकी चहकती आवाजों से गूँजने लगा। मैंने लाल की ओर देखा। उसकी आँखों में भावुकता के स्थान पर स्नेह उतर आया था।

‘यह सज्जन भारत से आए हैं। यह भी जालंधर के रहने वाले हैं।’

बड़ी बेटी ने मुस्करा कर मेरा अभिवादन किया। फिर चहक कर बोली, ‘जालंधर तो अब बहुत कुछ बदल गया होगा। जब मैं वहाँ गई थी, तब तो वह बहुत पुराना पुराना सा शहर था। क्यों माँ?’ और खिलखिला कर हँसने लगी।

लाल का अतीत भले ही कैसा रहा हो, उसका वर्तमान बड़ा समृद्ध और सुंदर था।

वह मुझे मेरे होटल तक छोड़ने आया। खाड़ी के किनारे ढलती शाम के सायों में देर तक हम टहलते बतियाते रहे। वह मुझे अपने नगर के बारे में बताता रहा, अपने व्यवसाय के बारे में, इस नगर में अपनी उपलब्धियों के बारे में। वह बड़ा समझदार और प्रतिभासंपन्न व्यक्ति निकला। आते जाते अनेक लोगों के साथ उसकी दुआ सलाम हुई। मुझे लगा शहर में उसकी इज्जत है। और मैं फिर उसी उधेड़बुन में खो गया कि इस आदमी का वास्तविक रूप कौन सा है? जब वह यादों में खोया अपने देश के लिए छटपटाता है, या एक लब्धप्रतिष्ठ और सफल इंजीनियर जो कहाँ से आया और कहाँ आ कर बस गया और अपनी मेहनत से अनेक उपलब्धियाँ हासिल कीं?

विदा होते समय उसने मुझे फिर बाँहों में भींच लिया और देर तक भींचे रहा, और मैंने महसूस किया कि भावनाओं का ज्वार उसके अंदर फिर से उठने लगा है, और उसका शरीर फिर से पुलकने लगा है।

‘यह मत समझना कि मुझे कोई शिकायत है। जिंदगी मुझ पर बड़ी मेहरबान रही है। मुझे कोई शिकायत नहीं है, अगर शिकायत है तो अपने आप से…’ फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह हँस कर बोला, ‘हाँ एक बात की चाह मन में अभी तक मरी नहीं है, इस बुढ़ापे में भी नहीं मरी है कि सड़क पर चलते हुए कभी अचानक कहीं से आवाज आए ‘ओ हरामजादे!’ और मैं लपक कर उस आदमी को छाती से लगा लूँ’, कहते हुए उसकी आवाज फिर से लड़खड़ा गई।
खून का रिश्ता

खाट की पाटी पर बैठा चाचा मंगलसेन हाथ में चिलम थामे सपने देख रहा था। उसने देखा कि वह समधियों के घर बैठा है और वीरजी की सगाई हो रही है। उसकी पगड़ी पर केसर के छींटे हैं और हाथ में दूध का गिलास है जिसे वह घूँट-घूँट करके पी रहा है। दूध पीते हुए कभी बादाम की गिरी मुँह में जाती है, कभी पिस्‍ते की। बाबूजी पास खड़े स‍मधियों से उसका परिचय करा रहे हैं, यह मेरा चचाजाद छोटा भाई है, मंगलसेन! समधी मंगलसेन के चारों ओर घूम रहे हैं। उनमें से एक झुककर बड़े आग्रह से पूछता है, और दूध लाऊँ, चाचाजी? थोड़ा-सा और? अच्‍छा, ले आओ, आधा गिलास, मंगलसेन कहता है और तर्जनी से गिलास के तल में से शक्‍कर निकाल-निकालकर चाटने लगता है…

मंगलसेन ने जीभ का चटखरा लिया और सिर हिलाया। तंबाकू की कड़वाहट से भरे मुँह में भी मिठास आ गई, मगर स्‍वप्‍न भंग हो गया। हल्‍की-सी झुरझुरी मंगलसेन के सारे बदन में दौड़ गई और मन सगाई पर जाने के लिए ललक उठा। यह स्‍वप्‍नों की बात नहीं थी, आज सचमुच भतीजे की सगाई का दिन था। बस, थोड़ी देर बाद ही सगे-संबंधी घर आने लगेंगे, बाजा बजेगा, फिर आगे-आगे बाबूजी, पीछे-पीछे मंगलसेन और घर के अन्‍य संबंधी, सभी सड़क पर चलते हुए, समधियों के घर जाएँगे।

मंगलसेन के लिए खाट पर बैठना असंभव हो गया। बदन में खून तो छटाँक-भर था, मगर ऐसा उछलने लगा था कि बैठने नहीं देता था।

ऐन उसी वक्त कोठरी में संतू आ पहुँचा और खाट पर बैठकर मंगलसेन के हाथ में से चिलम लेते हुए बोला, ”तुम्‍हें सगाई पर नहीं ले जाएँगे; चाचा।”

चाचा मंगलसेन के बदन में सिर से पाँव तक लरजिश हुई। पर यह सोचकर कि संतू खिलवाड़ कर रहा है, बोला, ”बड़ों के साथ मजाक नहीं किया करते, कई बार कहा है। मुझे नहीं ले जाएँगे, तो क्‍या तुम्‍हें ले जाएँगे?”

”किसी को भी नहीं ले जाएँगे, तो क्‍या तुम्‍हें ले जाएँगे?”

”किसी को भी नहीं ले जाएँगे। वीरजी कहते हैं, सगाई डलवाने सिर्फ बाबूजी जाएँगे, और कोई नहीं जाएगा।”

”वीरजी आए हैं?” चाचा मंगलसेन के बदन में फिर लरजिश हुई और दिल धक्-धक् करने लगा। संतू घर का पुराना नौकर था, क्‍या मालूम ठीक ही कहता हो।

”ऊपर चलो, सब लोग खाना खा रहे हैं।” संतू ने चिलम के दो कश लगाए, फिर चिलम को ताक पर रखा और बाहर जाने लगा। दरवाजे के पास पहुँचकर उसने फिर एक बार घूमकर हँसते हुए कहा, ”तुम्‍हें नहीं ले जाएँगे, चाचा, लगा लो शर्त, दो-दो रुपये की शर्त लगती है?”

”सब, बक-बक नहीं कर, जा अपना काम देख!”

ऊपर रसोईघर में सचमुच बहस चल रही थी। संतू ने गलत नहीं कहा था। रसोईघर में एक तरफ, दीवार के साथ पीठ लगाए बाबूजी बैठे खाना खा रहे थे। चौके के ऐन बीच में वीरजी और मनोरमा, भाई-बहन, एक साथ, एक ही थाली में खाना खा रहे थे। माँजी चूल्‍हे के सामने बैठी पराठे सेंक रही थीं। माँ बेटे को समझा रही थीं, ”यही मौके खुशी के होते हैं, बेटा! कोई पैसे का भूखा नहीं होता। अकेले तुम्‍हारे पिताजी सगाई डलवाने जाएँगे तो समधी भी इसे अपना अपमान समझेंगे।”

”मैंने कह दिया, माँ, मेरी सगाई सवा रुपये में होगी और केवल बाबूजी सगाई डलवाने जाएँगे। जो मंजूर नहीं हो तो अभी से…”

”बस-बस, आगे कुछ मत कहना!” माँ ने झट टोकते हुए कहा। फिर क्षुब्‍ध होकर बोली, ”जो तुम्‍हारे मन में आए करो। आजकल कौन किसी की सुनता है! छोटा-सा परिवार और इसमें भी कभी कोई काम ढंग से नहीं हुआ। मुझे तो पहले ही मालूम था, तुम अपनी करोगे…”

”अपनी क्‍यों करेगा, मैं कान खींचकर इसे मनवा लूँगा।” बाबूजी ने बेटे की ओर देखते हुए बड़े दुलार से कहा।

पर वीरजी खीज उठे, ”क्‍या आप खुद नहीं कहा करते थे कि ब्‍याह-शादियों पर पैसे बर्बाद नहीं करने चाहिए। अब अपने बेटे की सगाई का वक्‍त आया तो सिद्धांत ताक पर रख दिए। बस, आप अकेले जाइए और सवा रुपया लेकर सगाई डलवा लाइए।”

”वाह जी, मैं क्‍यों न जाऊँ? आजकल बहनें भी जाती हैं!” मनोरमा सिर झटककर बोली, ”वीरजी, तुम इस मामले में चुप रहो!”

”सुनो, बेटा, न तुम्‍हारी बात, न मेरी, ”बाबूजी बोले, ”केवल पाँच या सात संबंधी लेकर जाएँगे। कहोगे तो बाजा भी नहीं होगा। वहाँ उनसे कुछ माँगेंगे भी नहीं। जो समधी ठीक समझे दे दें, हम कुछ नहीं बोलेंगे।”

इस पर वीरजी तुनककर कुछ कहने जा ही रहे थे, जब सीढ़ियों पर मंगलसेन के कदमों की आवाज आई।

”अच्‍छा, अभी मंगलसेन से कोई बात नहीं करना। खाना खा लो, फिर बातें होती रहेंगी।” माँजी ने कहा।

पचास बरस की उम्र के मंगलसेन के बदन के सभी चूल ढीले पड़ गए थे। जब चलता तो उचक-उचककर हिचकोले खाता हुआ और जब सीढ़ियाँ चढ़ता तो पाँव घसीटकर, बार-बार छड़ी ठकोरता हुआ। जब भी वह सड़क पर जा रहा होता, मोड़ पर का साइकिलवाला दुकानदार हमेशा मंगलसेन से मजाक करके कहता, ”आओ, मंगलसेनजी, पेच कस दें!” और जवाब में मंगलसेन हमेशा उसे छड़ी दिखाकर कहता, ”अपने से बड़ों के साथ मजाक नहीं किया करते। तू अपनी हैसियत तो देख!”

मंगलसेन को अपनी हैसियत पर बड़ा नाज था। किसी जमाने में फौज में रह चुका था, इस कारण अब भी सिर पर खाकी पगड़ी पहनता था। खाकी रंग सरकारी रंग है, पटवारी से लेकर बड़े-बड़े इन्‍सपेक्‍टर तक सभी खाकी पगड़ी पहनते हैं। इस पर ऊँचा खानदान और शहर के धनीमानी भाई के घर में रहना, ऐंठता नहीं तो क्‍या करता?

दहलीज पर पहुँचकर मंगलसेन ने अंदर झाँका। खिचड़ी मूँछें सस्‍ता तंबाकू पीते रहने के कारण पीली हो रही थीं। घनी भौंहों के नीचे दाईं आँख कुछ ज्यादा खुली हुई और बाईं आँख कुछ ज्यादा सिकुड़ी हुई थी। सामने के तीन दाँत गायब थे।

”भौजाईजी, आप रोटियाँ सेंक रही हैं? नौकरों के होते हुए…!”

”आओ मंगलसेनजी, आओ, जरा देखो तो यहाँ कौन बैठा है!”

”नमस्‍ते, चाचाजी!” वीरजी ने बैठे-बैठे कहा।

”उठकर चाचाजी को पालागन करो, बेटा, तुम्‍हें इतनी भी अक्‍ल नहीं है!” बाबूजी ने बेटे को झिड़ककर कहा।

वीरजी उठ खड़े हुए और झुककर चाचाजी को पालागन किया। चाचाजी झेंप गए।

कोने में बैठा संतू, जो नल के पास बर्तन मलने लगा था, कंधे के पीछे मुँह छिपाए हँसने लगा।

”जीते रहो, बड़ी उम्र हो!” मंगलसेन ने कहा और वीरजी के सिर पर इस गंभीरता से हाथ फेरा कि वीरजी के बाल बिखर गए।

मनोरमा खिलखिलाकर हँसने लगी।

”सगाईवाले दिन वीरजी खुद आ गए हैं। वाह-वाह!”

”बैठ जा, बैठ जा मंगलसेन, बहुत बातें नहीं करते।” बाबूजी बोले।

”आप मेरी जगह पर बैठ जाइए, चाचाजी, मैं दूसरी चटाई ले लूँगा।” वीरजी ने कहा।

”दो मिनट खड़ा रहेगा तो मंगलसेन की टाँगें नहीं टूट जाएँगी!” बाबूजी बोले, ”यह खुद भी चटाई पकड़ सकता है। जाओ मंगलसेन, जरा टाँगें हिलाओ और अपने लिए चटाई उठा लाओ।”

माँजी ने दाँत-तले होंठ दबाया और घूर-घूरकर बाबूजी की ओर देखने लगी, ”नौकरों के सामने तो मंगलसेन के साथ इस तरह रुखाई से नहीं बोलना चाहिए। आखिर तो खून का रिश्‍ता है, कुछ लिहाज करना चाहिए।”

मंगलसेन छज्‍जे पर से चटाई उठाने गया। दरवाजे के पास पहुँचकर, नौकर की पीठ के पीछे से गुजरने लगा, तो संतू ने हँसकर कहा, ”वहाँ नहीं है, चाचाजी, मैं देता हूँ, ठहरो। एक ही बर्तन रह गया है, मलकर उठता हूँ।”

संतू निश्चिन्‍त बैठा, कंधों के बीच सिर झुकाए बर्तन मलता रहा।

मनोरमा घुटनों के ऊपर अपनी ठुड्डी रखे, दोनों हाथों से अपने पैरों की उँगलियाँ मलती हुई, कोई वार्ता सुनाने लगी, ”दुकानदारों की टाँगें कितनी छोटी होती हैं, भैया, क्‍या तुमने कभी देखा है?” अपने भाई की ओर कनखियों से देखकर हँसती हुई बोली, ”जितनी देर वे गद्दी पर बैठे रहें, ठीक लगते हैं, पर जब उठें तो सहसा छोटे हो जाते हैं, इतनी छोटी-छोटी टाँगें! आज मैं एक दुकान पर सूटकेस लेने गई…”

”उठो, संतू, चटाई ला दो। हर वक्त का मजाक अच्‍छा नहीं होता।” चाचा मंगलसेन संतू से आग्रह करने लगा।

”वहाँ खड़े क्‍या कर रहे हो, मंगलसेन? चलो, इधर आओ! उठ संतू, चटाई ले आ, सुनता नहीं तू? इसे कोई बात कहो तो कान में दबा जाता है!” माँ बोली।

संतू की पीठ पर चाबुक पड़ी। उसी वक्त उठा और जाकर चटाई ले आया। माँजी ने चूल्‍हे के पास दीवार के साथ रखी दो थालियों में से एक थाली उठाकर मंगलसेन के सामने रख दी। मैले रूमाल से हाथ पोंछते हुए मंगलसेन चटाई पर बैठ गया। थाली में आज तीन भाजियाँ रखी थीं, चपातियाँ खूब गरम-गरम थीं।

सहसा बाबूजी ने मंगलसेन से पूछा, ”आज रामदास के पास गए थे? किराया दिया उसने या नहीं?”

मंगलसेन खुशी में था। उसी तरह चहककर बोला, ”बाबूजी वह अफीमची कभी घर पर मिलता है, कभी नहीं। आज घर पर था ही नहीं।”

”एक थप्‍पड़ मैं तेरे मुँह पर लगाऊँगा, तुमने क्‍या मुझे बच्‍चा समझ रखा है?”

रसोईघर में सहसा सन्‍नाटा छा गया। माँ ने होंठ भींच लिए। मंगलसेन की पुलकन सिहरन में बदल गई। उसका दायाँ गाल हिलने-सा लगा, जैसे चपत पड़ने पर सचमुच हिलने लगता है।

”छह महीने का किराया उस पर चढ़ गया है, तू करता क्‍या रहता है?”

नुक्‍कड़ में बैइे संतू के भी हाथ बर्तनों को मलते-मलते रुक गए। भाई-बहन फर्श की ओर देखने लगे। हाय, बेचारा, मनोरमा ने मन-ही-मन कहा और अपने पैरों की उँगलियों की ओर देखने लगी। वीरजी का खून खौल उठा। चाचाजी गरीब हैं न, इसीलिए इन्‍हें इतना दुत्‍कारा जाता है…

”और पराठा डालूँ, मंगलसेनजी?” माँ ने पूछा। मंगलसेन का कौर अभी गले में ही अटका हुआ था। दोनों हाथें से थाली को ढँकते हुए हड़बड़ाकर बोला, ”नहीं, भौजाईजी, बस जी!”

”जब मेरे यहाँ रहते यह हाल है, तो जब मैं कभी बाहर जाऊँगा तो क्‍या हाल होगा? मैं चाहता हूँ, तू कुछ सीख जाएगा और किराए का सारा काम सँभाल ले। मगर छह महीने तुझे यहाँ आए हो गए, तूने कुछ नहीं सीखा।”

इस वाक्‍य को सुनकर मंगलसेन के सर्द लहू में थोड़ी-सी हरारत आई।

”मैं आज ही किराया ले आऊँगा, बाबूजी! न देगा तो जाएगा कहाँ? मेरा भी नाम नाम मंगलसेन है!”

”मुझे कभी बाहर जाना पड़ा, तो तुम्‍हीं को काम सँभालना है। नौकर कभी किसी को कमाकर नहीं खिलाते। जमीन-जायदाद का काम करना हो तो सुस्‍ती से काम नहीं चलता। कुछ हिम्‍मत से काम लिया करो।”

मंगलसेन के बदन में झुरझुरी हुई। दिल में ऐसा हुलास उठा कि जी चाहा, पगड़ी उतारकर बाबूजी के कदमों पर रख दे। हुमककर बोला, ”चिंता न करो जी, मेरे होते यहाँ चिड़ी पड़क जाएगा तो कहना? डर किस बात का? मैंने लाम देखी है, बाबूजी! बसरे की लड़ाई में कप्‍तान रस्किन था हमारा। कहने लगा, देखो मंगलसेन, हमारी शराब की बोतल लारी में रह गई है। वह हमें चाहिए। उधर मशीनगन चल रही थी। मैंने कहा, अभी लो, साहब! और अकेले मैं वहाँ से बोतल निकाल लाया। ऐसी क्‍या बात है…”

मंगलसेन फिर चहकने लगा। मनोरमा मुसकराई और कनखियों से अपने भाई की ओर देखकर धीमे-से बोली, ”चाचाजी की दुम फिर हिलने लगी!”

मंगलसेन खाना खा चुका था। उठते हुए हँसकर बोला, ”तो चार बजे चलेंगे न सगाई डलवाने?”

”तू जा, अपना काम देख, जो जरूरत हुई तो तुम्‍हें बुला लेंगे।” बाबूजी बोले।

चाचा मंगलसेन का दिल धक्-से रह गया। संतू शायद ठीक ही कहता था, मुझे नहीं ले चलेंगे। उसे रुलाई-सी आ गई, मगर फिर चुपचाप उठ खड़ा हुआ। बाहर जाकर जूते पहले, छड़ी उठाई और झूलता हुआ सीढ़ियों की ओर जाने लगा।

वीरजी का चेहरा क्रोध और लज्‍जा से तमतमा उठा। मनोरमा को डर लगा कि बात और बिगड़ेगी, वीरजी कहीं बाबूजी से न उलझ बैठें। माँजी को भी बुरा लगा। धीमे-से कहने लगीं, देखों जी, नौकरों के सामने मंगलसेन की इज्‍जत-आबरू का कुछ तो खयाल रखा करे। आखिर तो खून का रिश्‍ता है। कुछ तो मुँह-‍मुलाहिजा रखना चाहिए। दिन-भर आपका काम करता है।”

”मैंने उसे क्‍या कहा है?” बाबूजी ने हैरान होकर पूछा।

”यों रुखाई के साथ नहीं बोलते। वह क्‍या सोचता होगा? इस तरह बेआबरूई किसी की नहीं करनी चाहिए।”

”क्‍या बक रही हो? मैंने उसे क्‍या कहा है?” बाबूजी बोले। फिर सहसा वीरजी की ओर घूमकर कहने लगे, ”अब तू बोल, भाई, क्‍या कहता है? कोई भी काम ढंग से करने देगा या नहीं?”

”मैंने कह दिया, पिताजी, आप अकेले जाइए और सवा रुपया लेकर सगाई डलवा लाइए।”

रसोईघर में चुप्‍पी छा गई। इस समस्‍या का कोई हल नजर नहीं आ रहा था। वीरजी टस-से-मस नहीं हो रहे थे।

सहसा बाबूजी ने सिर पर से पगड़ी उतारी और सिर आगे को झुकाकर बोले, ”कुछ तो इन सफेद बालों का खयाल कर! क्‍यों हमें रुसवा करता है?”

वीरजी गुस्से में थे। चाचा मंगलसेन गरीब हैं, इसीलिए उसके साथ ऐसा बुरा व्‍यवहार किया जाता है। यह बात उसे खल रही थी। मगर जब बाबूजी ने पगड़ी उतारकर अपने सफेद बालों की दुहाई दी तो सहम गया। फिर भी साहस करके बोला, ”यदि आप अकेले नहीं जाना चाहते तो चाचाजी को साथ ले जाइए। बस दो जने चले जाएँ।”

”कौन-से चाचा को?” माँजी ने पूछा।

”चाचा मंगलसेन को।”

कोने में बैठे संतू ने भी हैरान होकर सिर उठाया। माँ झट-से बोली, ”हाय-हाय बेटा, शुभ-शुभ बोलो! अपने रईस भाइयों को छोड़कर इस मरदूद को साथ ले जाएँ? सारा शहर थू-थू करेगा!”

”माँजी, अभी तो आप कह रही थीं, खून का रिश्‍ता है। किधर गया खून का रिश्‍ता? चाचाजी गरीब हैं, इसीलिए?”

”मैं कब कहती हूँ, यह न जाए! लेकिन और संबंधी भी तो जाएँ। अपने धनी-मानी संबंधियों को छोड़ दें और इस बहु‍रूपिए को साथ ले जाएँ, क्‍या यह अच्‍छा लगेगा?”

”तो फिर बाबूजी अकेले जाएँ,” वीरजी परेशान हो उठे, ”मैंने जो कहना था कह दिया! अब जो तुम्‍हारे मन में आए करो, मेरा इससे कोई वास्‍ता नहीं।” और उठकर रसोईघर से बाहर चले गए।

बेटे के यों उठ जाने से रसोईघर में चुप्‍पी छा गई। माँ और बाप दोनों का मन खिन्‍न हो उठा। ऐसा शुभ दिन हो, बेटा घर पर आए और यों तकरार होने लगे। माँ का दिल टूक-टूक होने लगा। उधर बाबूजी का क्रोध बढ़ रहा था। उनका जी चाहता था कह दें, जा फिर मैं भी नहीं जाऊँगा। भेज दे जिसको भेजना चाहता है। मगर यह वक्‍त झगड़े को लंबा करने का न था।

सबसे पहले माँ ने हार मानी, ”क्‍या बुरा कहता है! आजकल लड़के माँ-बाप के हजारों रुपये लुटा देते हैं। इसके विचार तो कितने ऊँचे हैं! यह तो सवा रुपये में सगाई करना चाहता है। तम मंगलसेन को ही अपने साथ ले जाओ। अकेले जाने से तो अच्‍छा है।”

बाबूजी बड़बड़ाए, बहुत बोले, मगर आखिर चुप हो गए। बच्‍चों के आगे किस माँ-बाप की चलती है? और चुपचाप उठकर अपने कमरे में जाने लगे।

”जा संतू, मंगलसेन को कह, तैयार हो जाए।” माँजी ने कहा।

मनोरमा चहक उठी और भागी हुई वीरजी को बताने चली गई कि बाबूजी मान गए हैं।

मंगलसेन को जब मालूम हुआ कि अकेला वही बाबूजी के साथ जाएगा, तो कितनी ही देर तक वह कोठरी में उचकता और चक्‍कर लगाता रहा। बदन का छटाँक-भर खून फिर उछलने लगा। जी चाहा कि संतू से उसी वक्‍त शर्त के दो रुपये रखवा ले। क्‍यों न हो, आखिर मुझसे बड़ा संबंधी है भी कौन, मुझे नहीं ले जाएँगे तो किसे ले जाएँगे? मैं और बाबूजी ही इस घर के कर्त्ता-धर्त्ता हैं और कौन है? जितना ही अधिक वह इस बात पर सोचता, उतना ही अधिक उसे अपने बड़प्‍पन पर विश्‍वास होने लगता। आखिर उसने कोने में रखी ट्रंकी को खेला और कपड़े बदलने लगा।

घंटा-भर बाद जब मंगलसेन तैयार होकर आँगन में आया, तो माँजी का दिल बैठ गया – यह सूरत लेकर समधियों के घर जाएगा? मंगलसेन के सिर पर खाकी पगड़ी, नीचे मैली कमीज के ऊपर खाकी फौजी कोट, जिसके धागे निकल रहे थे और नीचे धारीदार पाजामा और मोटे-मोटे काले बूट। माँ को रुलाई आ गई। पर यह अवसर रोने का नहीं था। अपनी रुलाई को दबाती हुई वह आगे बढ़ आई।

”मनोरमा, जा भाई की आलमारी में से एक धुला पाजामा निकाल ला।” फिर बाबूजी के कमरे की ओर मुँह करके बोली, ”सुनते हो जी, अपनी एक पगड़ी इधर भेज देना। मंगलसेन के पास ढंग की पगड़ी नहीं है।”

मंगलसेन का कायाकल्‍प होने लगा। मनोरमा पाजामा ले आई। संतू बूट पालिश करने लगा। आँगन के ऐन बीचोंबीच एक कुरसी पर मंगलसेन को बिठा दिया गया और परिवार के लोग उसके आसपास भाग-दौड़ करने लगे। कहीं से मनोरमा की दो सहेलियाँ भी आ पहुँची थीं। मंगलसेन पहले से भी छोटा लग रहा था। नंगा सिर, दोनों हाथ घुटनों के बीच जोड़े वह आगे की ओर झुककर बैठा था। बार-बार उसे रोमांच हो रहा था।

मंगलसेन का स्‍वप्‍न सचमुच साकार हो उठा। समधियों के घर में उसकी वह आवभगत हुई कि देखते बनता था। मंगलसेन आरामकुरसी पर बैठा था और पीछे एक आदमी खड़ा पंखा झल रहा था। समधी आगे-पीछे, हाथ बाँधे घूम रहे थे। एक आदमी ने सचमुच झुककर बड़े आग्रह से कहा, ”और दूध लाऊँ, चाचाजी? थोड़ा-सा और?”

और जवाब में मंगलसेन ने कहा, ”हाँ, आधा गिलास ले आओ।”

समधियों के घर की ऐसी सज-धज थी कि मंगलसेन दंग रह गया और उसका सिर हवा में तैरने लगा। आवाज ऊँची करके बोला, ”लड़की कुछ पढ़ी-लिखी भी है या नहीं? हमारा बेटा तो एम.ए. पास है।”

”जी, आपकी दया से लड़की ने इसी साल बी.ए. पास किया है।”

मंगलसेन ने छड़ी से फर्श को ठकोरा, फिर सिर हिलाकर बोला, ”घर का काम-धंधा भी कुछ जानती है या सारा वक्‍त किताबें ही पढ़ती रहती है?”

”जी, थोड़ा-बहुत जानती है।”

”थोड़ा-बहुत क्‍यों?”

आखिर सगाई डलवाने का वक्त आया। समधी बादामों से भरे कितने ही थाल लाकर बाबूजी और मंगलसेन के सामने रखने लगे। बाबूजी ने हाथ बाँध दिए, ”मैं तो केवल एक रुपया और चार आने लूँगा। मेरा इन चीजों में विश्‍वास नहीं है। हमें अब पुरानी रस्‍मों को बदलना चाहिए। आप सलामत रहें, आपका सवा रुपया भी मेरे लिए सवा लाख के बराबर है।”

”आपको किस चीज की कमी है, लालाजी! पर हमारा दिल रखने के लिए ही कुछ स्‍वीकार कर लीजिए।”

बाबूजी मुसकराए, ”नहीं महराज, आप मुझे मजबूर न करें। यह उसूल की बात है। मैं तो सवा ही रुपया लेकर जाऊँगा। आपका सितारा बुलंद रहे! आपकी बेटी हमारे घर आएगी, तो साक्षात लक्ष्‍मी विराजेगी!”

मंगलसेन के लिए चुप रहना असंभव हो रहा था। हुमककर बोला, ”एक बार कह जो दिया जी कि हम सवा रुपया ही लेंगे। आप बार-बार तंग क्‍यों करते हैं?”

बेटी के पिता हँस दिए और पास खड़े अपने किसी संबंधी के कान में बोले, ”लड़के के चाचा हैं, दूर के। घर में टिके हुए हैं। लालाजी ने आसरा दे रखा है।”

आखिर समधी अंदर से एक थाल ले आए, जिस पर लाल रंग का रेशमी रूमाल बिछा था और बाबूजी के सामने रख दिया। बाबूजी ने रूमाल उठाया, तो नीचे चाँदी के थाल में चाँदी की तीन चमचम करती कटोरियाँ रखी थीं, एक में केसर, दूसरी में रांगला धागा, तीसरी में एक चमकता चाँदी का रुपया और चमकती चवन्‍नी। इसके अलावा तीन कटोरियों में तीन छोटे-छोटे चाँदी के चम्‍मच रखे थे।

”आपने आखिर अपनी ही बात की,” बाबूजी ने हँसकर कहा, ”मैं तो केवल सवा रुपया लेने आया था…” मगर थाल स्‍वीकार कर लिया और मन-ही-मन कटोरियों, थाल और चम्‍मचों का मूल्‍य आँकने लगे।

मनोरमा और उसकी सहेलियाँ छज्‍जे पर खड़ी थीं जब दोनों भाई सड़क पर आते दिखाई दिए। मंगलसेन के कंधे पर थाल था, लाल रंग के रूमाल से ढँका हुआ और आगे-आगे बाबूजी चले आ रहे थे।

वीरजी अब भी अपने कमरे में थे और पलंग पर लेटे किसी नावल के पन्‍नों में अपने मन को लगाने का विफल प्रयास कर रहे थे। उनका माथा थका हुआ था, मगर हृदय धूमिल भावनाओं से उद्वेलित होने लगा था। क्‍या प्रभा मेरे लिए भी कोई संदेश भेजेगी? सवा रुपये में सगाई डलवाने के बारे में वह क्‍या सोचती होगी? मन-ही-मन तो जरूर मेरे आदर्शों को सराहती होगी। मैंने एक गरीब आदमी को अपनी सगाई डलवाने के लिए भेजा। इससे अधिक प्रत्‍यक्ष प्रमाण मेरे आदर्शों का क्‍या हो सकता है?

”लाख-लाख बधाइयाँ, भौजाईजी!” घर में कदम रखते ही मंगलसेन ने आवाज लगाई।

मनोरमा और उसकी सहेलियाँ भागती हुई जँगले पर आ गईं। बाबूजी गंभीर मुद्रा बनाये, आँगन में आए और छड़ी कोने में रखकर अपने कमरे में चले गए।

मनोरमा भागती हुई नीचे गई और झपटकर थाल चाचा मंगलसेन के हाथ से छीन लिया।

”कैसी पगली है! दो मिनट इंतजार नहीं कर सकती।”

”वाह जी, वाह!” मनोरमा ने हँसकर कहा, ”बाबूजी की पगड़ी पहन ली तो बाबूजी ही बन बैठे हैं! लाइए, मुझे दीजिए। आपका काम पूरा हो गया।”

माँजी की दोनों ब‍हनें जो इस बीच आ गई थीं, माँजी से गले मिल-मिलकर बधाई देने लगीं। आवाज सुनकर वीरजी भी जँगले पर आ खड़े हुए और नीचे आँगन का दृश्‍य देखने लगे। थाल पर रखे लाल रूमाल को देखते ही उनका रोम-रोम पुलकित हो उठा। सहसा ही वह ससुराल की चीजों से गहरा लगाव महसूस करने लगे। इस रूमाल को जरूर प्रभा ने अपने हाथ से छुआ होगा। उनका जी चाहा कि रूमाल को हाथ में लेकर चूम लें। इस भेंट को देखकर उनका मन प्रभा से मिलने के लिए बेताब होने लगा।

माँजी ने थाल पर से रूमाल उठाया। चमकती कटोरियाँ, चमकता थाल बीच में रखे चम्‍मच। वीरजी को महसूस हुआ, जैसे प्रभा ने अपने गोरे-गोरे हाथों से इन चीजों को करीने से सजाकर रखा होगा।

”पानी पिलाओ, संतू, ”चाचा मंगलसेन ने आँगन में कुर्सी पर बैठते हुए, टाँग के ऊपर टाँग रखकर, संतू को आवाज लगाई।

इतने में माँजी को याद आई, ”तीन कटोरियाँ और दो चम्‍ममच? यह क्‍या हिसाब हुआ? क्‍या तीन चम्‍मच नहीं दिए समधियों ने।” फिर बाबूजी के कमरे की ओर मुँह करके बोलीं, ”अजी सुनते हो! तुम भी कैसे हो, आज के दिन भी कोई अंदर जा बैठता है?”

”क्‍या है?” बाबूजी ने अंदर से ही पूछा।

”कुछ बताओ तो सही, समधियों ने क्‍या कुछ दिया है?”

”बस, थाल में जो कुछ है वही दिया है, तेरे बेटे ने मना जो कर दिया था।”

”क्‍या तीन कटोरियाँ थीं और दो चम्‍मच थे?”

”नहीं तो, चम्‍मच भी तीन थे।”

”चम्‍मच तो यहाँ सिर्फ दो रखे हैं।”

”नहीं-नहीं, ध्‍यान से देखों, जरूर तीन होंगे। मंगलसेन से पूछो, वही थाल उठाकर लाया था।”

”मंगलसेनजी, तीसरा चम्‍मच कहाँ है?”

मंगलसेन संतू को सगाई का ब्‍यौरा दे रहा था – समधी हमारे सामने हाथ बाँधे यों खड़े थे, जैसे नौकर हों। लड़की बड़ी सुशील है, बड़ी सलीकेवाली है, बी.ए. पास है, सीना-पिरोना भी जानती है…

”मंगलसेनजी, तीसरा चम्‍मच कहाँ है?”

”कौन-सा चम्‍मच? वहीं थाल में होगा।” मंगलसेन ने लापरवाही से जवाब दिया।

”थाल में तो नहीं है।”

”तो उन्‍होंने दो ही चम्‍मच दिए होंगे। बाबूजी ने थाल लिया था।”

”हमें बेवकूफ बना रहे हो, मंगलसेनजी, तुम्‍हारे भाई कह रहे हैं तीन चम्‍मच थे!”

इतने में बाबूजी की गरज सुनाई दी, ”इसीलिए मेरे साथ गए थे कि चम्‍मच गवाँ आओगे? कुछ नहीं तो पाँच-पाँच रुपये का एक-एक चम्‍मच होगा।”

मंगलसेन ने उसी लापरवाही से कुरसी पर से उठकर कहा, ”मैं अभी जाकर पूछ आता हूँ, इसमें क्‍या है? हो सकता है, उन्‍होंने दो ही चम्‍मच रखे हों।”

”वहाँ कहाँ जाओगे? बताओ चम्‍मच कहाँ है? सारा वक्त तो थाल पर रूमाल रखा रहा।”

”बाबूजी, थाल तो आपने लिया था, आपने चम्‍मच गिने नहीं थे?”

”मेरे साथ चालाकी करता है? बदजात! बता तीसरा चम्‍मच कहाँ है?”

माँजी चम्‍मच खो जाने पर विचलित हो उठी थीं। बहनों की ओर घूमकर बोलीं, ”गिनी-चुनी तो समधियों ने चीजें दी हैं, उनमें से भी अगर कुछ खो जाए, तो बुरा तो आखिर लगता ही है!”

”कैसा ढीठ आदमी है, सुन रहा है और कुछ बोलता नहीं!” बाबूजी ने गरजकर कहा।

चम्‍मच खो जाने पर अचानक वीरजी को बेहद गुस्‍सा आ गया। प्रभा ने चम्‍मच भेजा और वह उन तक पहुँच ही नहीं। प्रभा के प्रेम की पहली निशानी ही खो गई। वीरजी सहसा आवेश में आ गए। वीरजी ने आव देखा न ताव, मंगलसेन के पास जाकर उसे दोनों कंधों से पकड़कर झिंझोड़ दिया।

”आपको इसीलिए भेजा था कि आप चीजें गँवा आएँ?”

सभी चुप हो गए। सकता-सा छा गया। वीरजी खिन्‍न-से महसूस करने लगे कि मुझसे यह क्‍या भूल हो गई और झेंपकर वापस जाने लगे। ”तुम बीच में मत पड़ो, बेटा! अगर चम्‍मच खो गया है तो तुम्‍हारी बला से! सबका धर्म अपने-अपने साथ है। एक चम्‍मच से कोई अमीर नहीं बन जाएगा!”

”जेब तो देखो इसकी।” बाबूजी ने गरजकर कहा।

मौसियाँ झेंप गईं और पीछे हट गईं। पर मनोरमा से न रहा गया। झट आगे बढ़कर वह जेब देखने लगी। रसोईघर की दहलीज पर संतू हाथ में पानी का गिलास उठाए रुक गया और मंगलसेन की ओर देखने लगा। चाचा मंगलसेन खड़ा कभी एक का मुँह देख रहा था, कभी दूसरे का। वह कुछ कहना चाहता था, मगर मुँह से एक शब्‍द भी नहीं निकल रहा था।

एक जेब में से मैला-सा रूमाल निकला, फिर बीड़ियों की गड्डी, माचिस, छोटा-सा पैन्सिल का टुकड़ा।

”इस जेब में तो नहीं है।” मनोरमा बोली और दूसरी जेब देखने लगी। मनोरमा एक-एक चीज निकालती और अपनी सहेलियों को दिखा-दिखाकर हँसती।

दाईं जेब में कुछ खनका। मनोरमा चिल्‍ला उठी, ”कुछ खनका है, इसी जेब में है, चोर पकड़ा गया! तुमने सुना, मालती?”

जेब में टूटा हुआ चाकू रखा था, जो चाबियों के गुच्‍छे से लगकर खनका था।

”छोड़ दो, मनोरमा! जाने दो, सबका धर्म अपने-अपने साथ है। आपसे चम्‍मच अच्‍छा नहीं है, मंगलसेनजी, लेकिन यह सगाई की चीज थी।”

मंगलसेन की साँस फूलने लगी और टाँगें काँपने लगीं, लेकिन मुँह से एक शब्‍द भी नहीं निकल पा रहा था।

”दोनों कान खोलकर सुन ले, मंगलसेन!” बाबूजी ने गरजकर कहा, ”मैं तेरे से पाँच रुपये चम्‍मच के ले लूँगा, इसमें मैं कोई लिहाज नहीं करूँगा।”

मंगलसेन खड़े-खड़े गिर पड़ा।

”बधाई, बहनजी!” नीचे आँगन में से तीन-चार स्त्रियों की आवाज एक साथ आ गई।

मंगलसेन गिरा भी अजीब ढंग से। धम्‍म-से जमीन पर जो पड़ा तो उकड़ूँ हो गया, और पगड़ी उतरकर गले में आ गई। मनोरमा अपनी हँसी रोके न रोक सकी।

”देखो जी, कुछ तो खयाल करो। गली-मुहल्‍ला सुनता होगा। इतनी रुखाई से भी कोई बोलता है!” माँजी ने कहा, फिर घबराकर संतू से कहने लगीं, ”इधर आओ संतू, और इन्‍हें छज्‍जे पर लिटा आओ।”

वीरजी फिर खिन्‍न-सा अनुभव करते हुए अपने कमरे में चले गए। मैंने जल्‍दबाजी की, मुझे बीच में नहीं पड़ना चाहिए था। इन्‍होंने चम्‍मच कहाँ चुराया होगा, जरूर कहीं गिर गया होगा।

बाबूजी नीचे अपने कमरे में चले गए। शीघ्र ही घर में ढोलक बजने की आवाज आने लगी। मनोरमा और उसकी सहेलियाँ आँगन में कालीन बिछवाकर बैठ गईं। ढोलक की आवाज सुनकर पड़ोसिनें घर में बधाई देने आने लगीं।

ऐन उसी वक्त गलीवाले दरवाजे के पास एक लड़का आ खड़ा हुआ। संकोचवश वह निश्‍चय नहीं कर पा रहा था कि अंदर जाएगा या वहीं खड़ा रहे। मनोरमा ने देखते ही पहचान लिया कि प्रभा का भाई, वीरजी का साला है। भागी हुई उसके पास जा पहुँची और शरारत से उसके सिर पर हाथ फेरने लगी।

”आओ, बेटाजी, अंदर आओ, तुम यहाँ पड़ोस में रहते हो न?”

”नहीं, मैं प्रभा का भाई हूँ।”

”मिठाई खाओगे?” मनोरमा ने फिर शरारत से कहा और हँसने लगी। लड़का सकुचा गया।

”नहीं, मैं तो यह देने आया हूँ,” उसने कहा और जाकेट की जेब में से एक चमकता, सफेद चम्‍मच निकाला और मनोरमा के हाथ में देकर उन्‍हीं कदमों वापस लौट गया।

”हाय, चम्‍मच मिल गया! माँजी चम्‍मच मिल गया!”

पर माँजी संबंधियों से घिरी खड़ी थीं। मनोरमा रुक गई और माँ से नजरें मिलाने की कोशिश करते हुए, हाथ ऊँचा करके चम्‍मच हिलाने लगी। चम्‍मच को कभी नाक पर रखती, कभी हवा में हिलाती, कभी ऊँचा फेंककर हाथ में पकड़ती, मगर माँजी कुछ समझ ही नहीं रही थीं…

छज्‍जे पर संतू ने मंगलसेन को खाट पर लिटाया और मुँह पर पानी का छींटा देते हुए बोला, ”तुम शर्त जीत गए। बस तनख्‍वाह मिलने पर दो रुपये नकद तुम्‍हारी हथेली पर रख दूँगा।”
मरने से पहले

रने से एक दिन पहले तक उसे अपनी मौत का कोई पूर्वाभास नहीं था। हाँ, थोड़ी खीझ और थकान थी, पर फिर भी वह अपनी जमीन के टुकड़े को लेकर तरह-तरह की योजनाएँ बना रहा था, बल्कि उसे इस बात का संतोष भी था कि उसने अपनी मुश्किल का हल ढूँढ़ निकाला है और अब वह आराम से बैठकर अपनी योजनाएँ बना सकता है। वास्‍तव में वह पिछले ही दिन, शाम को, एक बड़ी चतुराई का काम कर आया था – अपने दिल की ललक, अपने जैसे ही एक वयोवृद्ध के दिल में उड़ेलने में सफल हो गया था। पर उसकी मौत को देखते हुए लगता है मानो वह कोई नाटक खेलता रहा हो, और उसे खेलते हुए खुद भी चलता बना हो।

एक दिन पहले, जब उसे जमीन के मामले को ले कर, डिप्‍टी कमिश्‍नर के दफ्तर में जाना था तो वह एक जगह, बस में से उतरकर पैदल ही उस दफ्तर की ओर जाने लगा था। उस समय दिन का एक बजने को था, चिलचिलाती धूप थी, और लंबी सड़क पर एक भी सायादार पेड़ नहीं था। पर एक बजे से पहले उसे दफ्तर में पहुँचना था, क्‍योंकि कचहरियों के काम एक बजे तक ही होते हैं। इसके बाद अफसर लोग उठ जाते हैं, कारिंदे सिगरेट-बीड़ियाँ सुलगा लेते हैं और किसी से सीधे मुँह बात नहीं करते, तब तुम कचहरी के आँगन में और बरामदों में मुँह बाए घूमते रहो, तुम्‍हें कोई पूछता नहीं। इसीलिए वह चिलचिलाती धूप में पाँव घसीटता, जल्‍दी से जल्‍दी डिप्‍टी-कमिश्‍नर के दफ्तर में पहुँच जाना चाहता था। बार-बार घड़ी देखने पर, यह जानते हुए भी कि बहुत कम समय बाकी रह गया है, वह जल्‍दी से कदम नहीं उठा पा रहा था। एक जगह, पीछे से किसी मोटरकार का भोंपू बजने पर, वह बड़ी मुश्किल से सड़क के एक ओर को हो पाया था। जवानी के दिन होते तो वह सरपट भागने लगता, थकान के बावजूद भागने लगता, अपना कोट उतारकर कंधे पर डाल लेता और भाग खड़ा होता। उन दिनों भाग खड़ा होने में ही एक उपलब्धि का-सा भास हुआ करता था – भाग कर पहुँच तो गए, काम भले ही पूरा हो या न हो। पर अब तो वह बिना उत्‍साह के अपने पाँव घसीटता जा रहा था। प्‍यास के कारण मुँह सूख रहा था और मुँह का स्‍वाद कड़वा हो रहा था। धूप में चलते रहने के कारण, गर्दन पर पसीने की परत आ गई थी, जिसे रूमाल से पोंछ पाने की इच्‍छा उसमें नहीं रह गई थी।

अगर पहुँचने पर कचहरी बंद मिली, डिप्‍टी कमिश्‍नर या तहसीलदार आज भी नहीं आया तो मैं कुछ देर के लिए वहीं बैठ जाऊँगा – किसी बेंच पर, दफ्तर की सीढ़ियों पर या किसी चबूतरे पर – कुछ देर के लिए दम लूँगा और फिर लौट आऊँगा। अगर वह दफ्तर में बैठा मिल गया तो मैं सीधा उसके पास जा पहुँचूँगा – अफसर लोग तो दफ्तर के अंदर बैठे-बैठे गुर्राते हैं, जैसे अपनी माँद में बैठा कोई जंतु गुर्राता है – पर भले ही वह गुर्राता रहे, मैं चिक उठाकर सीधा अंदर चला जाऊँगा।

उस स्थिति में भी उसे इस बात का भास नहीं हुआ कि उसकी जिंदगी का आखिरी दिन आ पहुँचा है। चिलचिलाती धूप में चलते हुए एक ही बात उसके मन में बार-बार उठ रही थी, काम हो जाए, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, बस, काम हो जाए।

उससे एक दिन पहले, तहसीलदार की कचहरी में तीन-तीन कारिंदों को रिश्‍वत देने के बावजूद उसका काम नहीं हो पाया था। कभी किसी चपरासी की ठुड्डी पर हाथ रखकर उसकी मिन्‍नत-समागत करता रहा था, तो कभी किसी क्‍लर्क-कारिंदे को सिगरेट पेश करके! जब धूप ढलने को आई थी, कचहरी के आँगन में वीरानी छाने लगी थी और वह तीनों कारिंदों की जेब में पैसे ठूँस चुका था, फिर भी उसका काम हो पाने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे तो वह दफ्तर की सीढ़ियों पर आ बैठा था। वह थक गया था और उसके मुँह में कड़वाहट भरने लगी थी। उसने सिगरेट सुलगा ली थी, यह जानते हुए कि भूखे पेट, धुआँ सीधा उसके फेफड़ों में जाएगा। तभी सिगरेट के कश लेते हुए वह अपनी फूहड़ स्थिति के बारे में सोचने लगा था। अब तो भ्रष्‍टाचार पर से भी विश्‍वास उठने लगा है, उसने मन-ही-मन कहा, पहले इतना तो था कि किसी की मुठ्टी गर्म करो तो काम हो जाता था, अब तो उसकी भी उम्‍मीद नहीं रह गई है। और यह वाक्‍य बार-बार उसके मन में घूमता रहा था।

तभी उसे इस सारी दौड़-धूप की निरर्थकता का भास होने लगा था : यह मैं क्‍या कर रहा हूँ? मैं 73 वर्ष का हो चला हूँ, अगर जमीन का टुकड़ा भी मिल गया, उसका स्‍वामित्‍व भी मेरे हक में बहाल कर दिया गया, तो भी वह मेरे किस काम का? जिंदगी के कितने दिन मैं उसका उपभोग कर पाऊँगा? बीस साल पहले यह मुकदमा शुरू हुआ था, तब मैं मनसूबे बाँध सकता था, भविष्‍य के बारे में सोच सकता था, इस पुश्‍तैनी जमीन को लेकर सपने भी बुन सकता था, कि यहाँ छोटा-सा घर बनाऊँगा, आँगन में फलों के पेड़ लगाऊँगा, पेड़ों के साए के नीचे हरी-हरी घास पर बैठा करूँगा। पर अब? अव्‍वल तो यह जमीन का टुकड़ा अभी भी आसानी से मुझे नहीं मिलेगा। घुसपैठिए को इसमें से निकालना खालाजी का घर नहीं है। मैं घूस दे सकता हूँ तो क्‍या घुसपैठिया घूस नहीं दे सकता, या नहीं देता होगा? भले ही फैसला मेरे हक में हो चुका है, वह दस तिकड़में करेगा। पिछले बीस साल में कितने उतार-चढ़ाव आए हैं, कभी फैसला मेरे हक में होता तो वह अपील करता, अगर उसके हक में होता तो मैं अपील करता, इसी में जिंदगी के बीस साल निकल गए, और अब 73 साल की उम्र में मैं उस पर क्‍या घर बनाऊँगा? मकान बनाना कौन-सा आसान काम है? और किसे पड़ी है कि मेरी मदद करे? अगर बना भी लूँ तो भी मकान तैयार होते-होते मैं 75 पार कर चुका होऊँगा। मेरे वकील की उम्र इस समय 80 साल की है, और वह बौराया-सा घूमने लगा है। बोलने लगता है तो बोलना बंद ही नहीं करता। उसकी सूझ-बूझ भी शिथिल हो चली है, बैठा-बैठा अपनी धुँधलाई आँखों से शून्‍य में ताकने लगता है। कहता है उसे पेचिश की पुरानी तकलीफ भी है, घुटनों में भी गठिया है। वह आदमी 80 वर्ष की उम्र में इस हालत में पहुँच चुका है, तो इस उम्र तक पहुँचते-पहुँचते मेरी क्‍या गति होगी? मकान बन भी गया तो मेरे पास जिंदगी के तीन-चार वर्ष बच रहेंगे, क्‍या इतने-भर के लिए अपनी हड्डियाँ तोड़ता फिरूँ? क्‍यों नहीं मैं इस पचड़े में से निकल आता? मुझसे ज्‍यादा समझदार तो मेरा वह वकील ही है, जिसने अपनी स्थिति को समझ लिया है और मेरे साथ तहसील-कचहरी जाने से इनकार कर दिया है। ‘बस, साहिब, मैंने अपना काम पूरा कर दिया है, आप मुकदमा जीत गए हैं, अब जमीन पर कब्‍जा लेने का काम आप खुद सँभालें।’ उसने दो टूक कह दिया था। …यही कुछ सोचते-सोचते, उसने फिर से सिर झटक दिया था। क्‍या मैं यहाँ तक पहुँच कर किनारा कर जाऊँ? जमीन को घुसपैठिए के हाथ सौंप दूँ? यह बुजदिली नहीं होगी तो क्‍या होगा? किसी को अपनी जमीन मुफ्त में क्‍यों हड़पने दूँ? क्‍या मैं इतना गया-बीता हूँ कि मेरे जीते-जी, कोई आदमी मेरी पुश्‍तैनी जमीन छीन ले जाए और मैं खड़ा देखता रहूँ? और अब तो फैसला हो चुका है, अब तो इसे केवल हल्‍का-सा धक्‍का देना बाकी है। तहसील के कागजात मिल जाएँ, इंतकाल की नकलें मिल जाएँ, फिर रास्‍ता खुलने लगेगा, मंजिल नजर आने लगेगी। …सोचते-सोचते एक बार फिर उसने अपना सिर झटक दिया। ऐसे मौके पहले भी कई बार आ चुके थे। तब भी यही कहा करता था, एक बार फैसला हक में हो जाए तो रास्‍ता साफ हो जाएगा। पर क्‍या बना? बीस साल गुजर गए, वह अभी भी कचहरियों की खाक छान रहा है। …’साँप के मुँह में छछूँदर, खाए तो मरे, छोड़े तो अंधा हो।’ न तो मैं इस पचड़े से निकल सकता हूँ, न ही इसे छोड़ सकता हूँ।

डिप्‍टी कमिश्‍नर दफ्तर में नहीं था। वही बात हुई। किसी ने बताया कि वह किसी मीटिंग में गया है, कुछ मालूम नहीं कब लौटेगा, लौटेगा भी या नहीं।

वह चुपचाप एक बेंच पर जा बैठा, कल ही की तरह सिगरेट सुलगाई और अपने भाग्‍य को कोसने लगा। मैं काम करना नहीं जानता, छोटे-छोटे कामों के लिए खुद भागता फिरता हूँ। ये काम मिलने-मिलाने से होते हैं, खुद मारे-मारे फिरने से नहीं, मैं खुद मुँह बाए कभी तहसील में तो कभी जिला कचहरी में धूल फाँकता फिरता हूँ। मेरी जगह कोई और होता तो दस तरकीबें सोच निकालता। सिफारिश डलवाने से लोगों के बीसियों काम हो जाते हैं और मैं यहाँ मारा-मारा फिर रहा हूँ।

तब डिप्‍टी कमिश्‍नर के चपरासी ने भी कह दिया था कि अब साहिब नहीं आएँगे और दफ्तर के बाहर, दरख्‍वास्तियों के लिए रखा बेंच उठाकर अंदर ले गया था। उधर कचहरी का जमादार बरामदे और आँगन बुहारने लगा था। सारा दिन यों बर्बाद होता देखकर वह मन ही मन तिलमिला उठा था। आग की लपट की तरह एक टीस-सी उसके अंदर उठी थी, हार तो मैं नहीं मानूँगा, मैं भी अपनी जमीन छोड़ने वाला नहीं हूँ, मैं भी हठ पकड़ लूँगा, इस काम से चिपक जाऊँगा, ये लोग मुझे कितना ही झिंझोड़ें, मैं छोडूँगा नहीं, इसमें अपने दाँत गाड़ दूँगा, जब तक काम पूरा नहीं हो जाता, मैं छोडूँगा नहीं…

वह मन-ही-मन जानता था कि मन में से उठने वाला यह आवेग उसकी असमर्थता का ही द्योतक था कि जब भी उसे कोई रास्‍ता नहीं सूझता, तो वह ढिठाई का दामन पकड़ लेता है, इस तरह वह अपने डूबते आत्‍मविश्‍वास को धृष्‍टता द्वारा जीवित रख पाने की कोशिश करता रहता है।

पर उस दिन सुबह, जिला कचहरी की ओर जाने से पहले उसकी मनःस्थिति बिल्‍कुल दूसरी थी। तब वह आश्‍वस्‍त महसूस कर रहा था, नहा-धोकर, ताजादम घर से निकला था और उसे पता चला था कि डिप्‍टी कमिश्‍नर दफ्तर में मिलेगा, कि वह भला आदमी है, मुंसिफ-मिजाज है। और फिर उसका तो काम भी मामूली-सा है, अगर उससे बात हो गई और उसने हुक्‍म दे दिया तो पलक मारते ही काम हो जाएगा। शायद इसीलिए जब वह घर से निकला था तो आसपास का दृश्‍य उसे एक तस्‍वीर जैसा सुंदर लगा था, जैसे माहौल में से बरसों की धुंध छँट गई हो और विशेष रोशनी-सी चारों ओर छिटक गई हो, एक हल्‍की-सी झिलमिलाहट, जिसमें एक-एक चीज – नदी का पाट, उस पर बना सफेद डँडहरों वाला पुल, और नदी के किनारे खड़े ऊँचे-ऊँचे भरे-पूरे पेड़, सभी निखर उठे थे। सड़क पर जाती युवतियों के चेहरे खिले-खिले। हर इमारत निखरी-निखरी, सुबह की धूप में नहाई। और इसी मन‍ःस्थिति में वह उस बस में बैठ गया था जो उसे शहर के बाहर दूर, डिप्‍टी कमिश्‍नर के दफ्तर की ओर ले जाने वाली थी।

फिर शहर में से निकल जाने पर, वह बस किसी घने झुरमुट के बीच, स्‍वच्‍छ, निर्मल जल के एक नाले के साथ-साथ चली जा रही थी। उसने झाँककर, बस की खिड़की में से बाहर देखा था। एक जगह पर नाले का पाट चौड़ा हो गया था, और पानी की सतह पर बहुत-सी बतखें तैर रही थीं, जिससे नाले के जल में लहरियाँ उठ रही थीं। किनारे पर खड़े बेंत के छोटे-छोटे पेड़ पानी की सतह पर झुके हुए थे और उनका साया जालीदार चादर की तरह पानी की सतह पर थिरक रहा था। अब बस किसी छोटी-सी बस्‍ती को लाँघ रही थी। बस्‍ती के छोटे-छोटे बच्‍चे, नंगे बदन, नाले में डुबकियाँ लगा रहे थे। उसकी नजर नाले के पार, बस्‍ती के एक छोटे से घर पर पड़ी जो नाले के किनारे पर ही, लकड़ी के खम्‍भों पर खड़ा था, उसकी खिड़की में एक सुंदर-सी कश्‍मीरी लड़की, अपनी छोटी बहिन को सामने बैठाए उसके बालों में कंघी कर रही थी। थोड़ी देर के लिए ही यह दृश्‍य उसकी आँखों के सामने रहा था और फिर बस आगे बढ़ गई थी। पर उसे देख कर उसके दिल में स्‍फूर्ति की लहर दौड़ गई थी… एक छोटा-सा घर तो बन ही सकता है। मन में एक बार निश्‍चय कर लो तो, जैसे-तैसे, काम पूरा हो ही जाता है। बेंत के पेड़ के नीचे, आँगन में, कुर्सी बिछाकर बैठा करूँगा, पेड़ों की पाँत के नीचे, मैं और मेरी पत्‍नी घूमने जाया करेंगे। पेड़ों पर से झरते पत्तों के बीच कदम बढ़ाते हुए, मैं हाथ में छड़ी लेकर चलूँगा, मोटे तले के जूते पहनूँगा, और ठंडी-ठंडी हवा गालों को थपथपाया करेगी। जिंदगी-भर की थकान दूर हो जाएगी …मकान बनाना क्‍या मुश्किल है! क्‍या मेरी उम्र के लोग काम नहीं करते? वे फैक्‍टरियाँ चलाते हैं, नई फैक्‍टरियाँ बनाते हैं, मरते दम तक अपना काम बढ़ाते रहते हैं।

पर अब, ढलती दोपहर में, खचाखच भरी बस में हिचकोले खाता हुआ, बेसुध-सा, शून्‍य में देखता हुआ, वह घर लौट रहा था। पिंडलियाँ दुख रही थीं और मुँह का जायका कड़वा हो रहा था।

उसे फिर झुँझलाहट हुई अपने पर, अपने वकील पर जिसने ऐन आड़े वक्‍त में मुकदमे पर पीठ फेर ली थी; अपनी सगे-संबंधियों पर, जिनमें से कोई भी हाथ बँटाने के लिए तैयार नहीं था। मैं ही मारा-मारा फिर रहा हूँ। सबसे अधिक उसे अपने पर क्रोध आ रहा था, अपनी अकर्मण्‍यता पर, अपने दब्‍बू स्‍वभाव पर, अपनी असमर्थता पर।

बस में से उतरते ही उसने सीधे अपने वकील के पास जाने का फैसला किया। वह अंदर-ही-अंदर बौखलाया हुआ था। फीस लेते समय तो कोई कसर नहीं छोड़ते, दस की जगह सौ माँगते हैं, और काम के वक्‍त पीठ मोड़ लेते हैं। तहसीलों में धक्‍के खाना क्‍या मेरा काम है? क्‍या मैंने तुम्‍हें उजरत नहीं दी?

कमिश्‍नरी का बड़ा फाटक लाँघकर वह बाएँ हाथ को मुड़ गया, जहाँ कुछ दूरी पर, अर्जीनवीसों की पाँत बैठती थी। बूढ़ा वकील कुछ मुद्दत से अब यहीं बैठने लगा था। उसने नजर उठाकर देखा, छोटे-से लकड़ी के खोखे में वह बड़े इत्‍मीनान से लोहे की कुर्सी पर बैठा था। उसका चौड़ा चेहरा दमक रहा था। और सिर के गिने-चुने बाल बिखरे हुए थे। उसे लगा जैसे बूढ़े वकील ने नया सूट पहन रखा है और उसके काले रंग के जूते चमक रहे हैं।

वह अपने बोझिल पाँव घसीटता, धीरे-धीरे चलता हुआ, वकील के खोखे के सामने जा पहुँचा। बूढ़ा वकील कागजों पर झुका हुआ था, और एक नोटरी की हैसियत से अर्जियों पर किए गए दस्‍तखतों की तसदीक कर रहा था, और नीचे, जमीन पर खड़ा, उधेड़ उम्र का उसका कारिंदा, हाथ में नोटरी की मोहर उठाए, एक-एक दर्ख्‍वास्‍त पर दस्‍तखत हो जाने पर, ठप्‍पा लगा रहा था।

”आज भी कुछ काम नहीं हुआ,” खोखे के सामने पहुँचते ही, उसने करीब-करीब चिल्लाकर कहा। वकील को यों आराम से बैठा देखकर उसका गुस्‍सा भड़क उठा था। खुद तो कुर्सी पर मजे से बैठा, दस्‍तखतों की तसदीक कर रहा है, और पैसे बटोर रहा है, जबकि मैं तहसीलों की धूल फाँक रहा हूँ।

वकील ने सिर उठाया, उसे पहचानते ही मुस्‍कराया। वकील ने उसका वाक्‍य सुन लिया था।

”मैंने कहा था ना?” वकील अपनी जानकारी बघारते हुए बोला, ”तहसीलों में दस-दस दिन लटकाए रखते हैं। मैं आजिज आ गया था, इसीलिए आपसे कह दिया था कि अब मैं यह काम नहीं करूँगा।”

”आप नहीं करेंगे तो क्‍या मैं तहसीलों की खाक छानता फिरूँगा?” उसने खीझकर कहा।

”यह काम मैं नहीं कर सकता। यह काम जमीन के मालिक को ही करना होता है।”

उसका मन हुआ बूढ़े वकील से कहे, बरसों तक तुम इस मुकदमें की पैरवी करते रहे हो। मैं तुम्‍हें मुँह-माँगी उजरत देता रहा हूँ, और अब, जब आड़ा वक्‍त आया है तो तुम इस काम से किनारा कर रहे हो, और मुझसे कह रहे हो कि जमीन के मालिक को ही यह काम करना होता है।

पर उसने अपने को रोक लिया, मन में उठती खीझ को दबा लिया। बल्कि बड़ी संयत, सहज आवाज में बोला, ”वकील साहिब, आप मुकदमे के एक-एक नुक्‍ते को जानते हैं। आपकी कोशिशों से हम यहाँ तक पहुँचे हैं। अब इसे छोटा-सा धक्‍का और देने की जरूरत है, और वह आप ही दे सकते हैं।”

पर बूढ़े वकील ने मुँह फेर लिया। उसकी उपेक्षा को देखते हुए वह मन-ही-मन फिर तमक उठा। पर उसकी नजर वकील के चेहरे पर थी – 80 साल का बूढ़ा शून्‍य में देखे जा रहा था। अपने दम-खम के बावजूद वकील की आँखें धुँधला गई थीं, और बैठे-बैठे अपने आप उसका मुँह खुल जाता था। इस आदमी से यह उम्‍मीद करना कि यह तहसीलों-कचहरियों के चक्‍कर काटेगा, बड़ी-बेइनसाफी-सा लगता था। और अगर काटेगा भी तो कितने दिन तक काट पाएगा?

उसे फिर अपनी निःसहायता का भास हुआ। कोई भी और आदमी नहीं था जो इसका बोझ बाँट सके, उसे साँस तक ले पाने की मोहलत दे सके। बेटे थे तो एक बंबई में जा बैठा तो दूसरा अंबाला में, और मैं इस उम्र में श्रीनगर में झख मार रहा हूँ। मैं आज हूँ, कल नहीं रहूँगा। मैं आँखे बंद कर लूँगा तो अपने आप जमीन का मसला सुलझाते फिरेंगे।

”वकील साहिब, आप ही इस नाव को पार लगा सकते हैं।” उसने कहना शुरू ही किया था कि वकील झट से बोला, ”मैं कहीं नहीं जा पाऊँगा, आप मुझे माफ करें, अब यह मेरे बस का नहीं है।”

फिर अपने खोखे की ओर इशारा करते हुए बोला, ”आपने देख लिया यह काम कैसा है। यहाँ से मैं अगर एक घंटे के लिए भी उठ जाऊँ तो कोई दूसरा नोटरी मेरी कुर्सी पर आकर बैठ जाएगा।”

फिर क्षीण-सी हँसी हँसते हुए कहने लगा, ”सभी इस ताक में बैठे हैं कि कब बूढ़ा मरे और वे उसकी कुर्सी सँभालें… मैं अपना अड्डा नहीं छोड़ सकता। मेरी उम्र ज्‍यादा हो चुकी है, और यहाँ पर बिना भाग-दौड़ के मुझे दो पैसे मिल जाते हैं, बुढ़ापे में यही काम कर सकता हूँ।”

”मुश्किल काम तो हो गया, वकील साहिब, अब तो छोटा-सा काम बाकी है।”

”छोटा-सा काम बाकी है?” वकील तुनककर बोला, ”जमीन का कब्‍जा हासिल करना क्‍या छोटा-सा काम है? यह सबसे मुश्किल काम है।”

”सुनिए, वकील साहिब…” उसने कहना शुरू ही किया था कि वकील ने हाथ जोड़ दिए, ”आप मुझे माफ करें, मैं कहीं नहीं जा पाऊँगा…”

सहसा, वकील के चेहरे की ओर देखते हुए एक बात उसके दिमाग में कौंध गई। वह ठिठक गया, और कुछ देर तक ठिठका खड़ा रहा, फिर वकील से बोला, ”नहीं, वकील साहिब, मैं तो कुछ और ही कहने जा रहा था।”

”कहिए, आप क्‍या कहना चाहते हैं?”

वह क्षण भर के लिए फिर सोच में पड़ गया, फिर छट से बोला, ”अगर आप जमीन पर कब्‍जा हासिल करने की सारी जिम्‍मेदारी अपने ऊपर ले लें, तो कब्‍जा मिलने पर मैं आपको जमीन का एक-तिहाई हिस्‍सा दे दूँगा।’

उसने आँख उठाकर बूढ़े वकील की ओर देखा। वकील जैसे सकते में आ गया था, और उसका मुँह खुलकर लटक गया था।

”पर इस शर्त पर कि अब इस काम में मैं खुद कुछ नहीं करूँगा। सब काम आप ही करेंगे।” वह कहता जा रहा था।

”मैंने तो अर्ज किया न, मेरी मजबूरी है…” बूढ़ा वकील बुदबुदाया।

”आप सोच लीजिए। एक तिहाई जमीन का मतलब है करीब चार लाख रुपए…”

यह विचार उसे अचानक ही सूझ गया था, मानो जैसे कौंध गया हो। अपनी विवशता के कारण रहा हो, या दबी-कुचली व्‍यवहार-कुशलता का कोई अधमरा अंकुर सहसा फूट निकला हो। पर इससे उसका जेहन खुल-सा गया था।

”आप नहीं कर सकते तो मैं आपको मजबूर नहीं करना चाहता। आप किसी अच्‍छे वकील का नाम तो सुझा सकते हैं जो दौड़धूप कर सकता हो। मुकदमे की स्थिति आप उसे समझा सकते हैं”, उसने अपनी व्‍यवहार-कुशलता का एक और तीर छोड़ते हुए कहा, ”आप मुकदमे को यहाँ तक ले आए, यही बहुत बड़ी बात है।”

उसने बूढ़े वकील के चेहरे की ओर फिर से देखा। बूढ़े वकील का मुँह अभी भी खुला हुआ था और वह उसकी ओर एकटक देखे जा रहा था।

”अब कोई वकील ही यह काम करेगा…”

बूढ़े वकील की आँखों में हल्‍की-सी चमक आ गई थी और उसका मुँह बंद हो गया था।

”मैं आपसे इसलिए कह रहा हूँ कि केस की सारी मालूमात आपको है। अपना सुझाव सबसे पहले आपके सामने रखना तो मेरा फर्ज बनता है। आपके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है, और अदालत का फैसला हमारे हक में हो चुका है। अब केवल कब्‍जा लेना बाकी है…”

अपनी बात का असर बूढ़े वकील के चेहरे पर होता देखकर, वह मन-ही-मन बुदबुदाया : ‘लगता है तीर निशाने पर बैठा है।’

”लेकिन मैं अपने पल्‍लू से अब और कुछ नहीं दूँगा। न पैसा, न फीस, न मुआवजा, कुछ भी नहीं। बस, एक-तिहाई जमीन आपकी होगी, और शेष मेरी…”

बोलते हुए उसे लगा जैसे उसके शरीर में ताकत लौट आई है, और आत्‍मविश्‍वास लहराने लगा है। उसे लगा जैसे अगर वह इस वक्‍त चाहे तो भाषण दे सकता है।

”पटवारी, तहसीलदार, घुसपैठिया, जिस किसी को कुछ देना होगा तो आप ही देंगे…”

फिर बड़े ड्रामाई अंदाज में वह चलने को हुआ, और धीरे-धीरे बड़े फाटक की ओर कदम बढ़ाने लगा।

”अपना फैसला आज शाम तक मुझे बता दें,” फिर, पहले से भी ज्‍यादा ड्रामाई अंदाज में बोला, ”अगर मंजूर हो तो मैं अभी मुआहिदे पर दस्‍तखत करने के लिए तैयार हूँ।”

और बिना उत्तर का इंतजार किए, बड़े फाटक की ओर बढ़ गया।

दूसरे दिन, अपनी मृत्‍यु के कुछ ही देर पहले, वह पार्क में, एक बेंच पर बैठा, हल्‍की-हल्‍की धूप का आनंद ले रहा था और पिछले दिनों की थकान उतार रहा था। वह मन-ही-मन बड़ा आश्‍वस्‍त था कि उसे एक बहुत बड़े बोझ से छुटकारा मिल गया है। अब वह चैन से बैठ सकता है और फिर से भविष्‍य के सपने बुन सकता है।

इस प्रस्‍ताव ने दोनों बूढ़ों की भूमिका बदल दी थी। जिस समय वह धूप में बैठा अधमुँदी आखों से हरी-हरी घास पर चमकते ओस के कण देख रहा था, उसी समय तहसील की ओर जाने वाली खचाखच भरी बस में, डँडहरे को पकड़कर खड़ा वकील अपना घर बनाने के मनसूबे बाँध रहा था। दिल में रह-रहकर गुदगुदी-सी उठती थी। जिंदगी-भर किराए के मकान में, तीसरी मंजिल पर टँगा रहा हूँ। किसी से कहते भी शर्म आती है कि सारी उम्र काम करने के बाद भी अपना घर तक नहीं बना पाया। बेटे बड़े हो गए हैं और दिन-रात शिकायत करते हैं कि तुमने हमारे लिए क्‍या किया है? …इधर खुली जमीन होगी, छोटा-सा आँगन होगा, दो-तीन पेड़ फलों के लगा लेंगे, छोटी-सी फुलवाड़ी बना लेंगे। जिंदगी के बचे-खुचे सालों में, कम-से-कम रहने को तो खुली जगह होगी, सँकरी गली में, तीसरी मंजिल पर लटके तो नहीं रहेंगे… एक स्‍फूर्ति की लहर, पुलकन-सी, एक झुरझुरी-सी उसके बदन में उठी और सरसराती हुई, सीधी, रीढ़ की हड्डी के रास्‍ते सिर तक जा पहुँची। खुली जमीन का एक टुकड़ा, लाखों की लागत का, बैठे-बिठाए, मुफ्त में मिल जाएगा, न हींग लगे, न फिटकरी। अच्‍छा हुआ जो लिखा-पढ़ी भी हो गई, मुवक्किल को दोबारा सोचने का मौका ही नहीं मिला।

इस गुदगुदी में वह बस पर चढ़ा था। पर कुछ फासला तय कर चुकने पर, बस में खड़े-खड़े बूढ़े वकील की कमर दुखने लगी थी। अस्‍सी साल के बूढ़े के लिए बस के हिचकोलों में अपना संतुलन बनाए रखना कठिन हो रहा था। दो बार वह गिरते-गिरते बचा था। एक बार तो वह, नीचे सीट पर बैठी एक युवती की गोद में जा गिरा था, जिस पर आसपास के लोग ठहाका मारकर हँस दिए थे। पाँव बार-बार लड़खड़ा जाते थे, पर मन में गुदगुदी बराबर बनी हुई थी।

पर कुछ ही देर बाद, बस में खड़े रहने के कारण, घुटनों में दर्द अब बढ़ेगा। तहसील अभी दूर है और वहाँ पहुँचते-पहुँचते मैं परेशान हो उठूँगा। दर्द बढ़ने लगा और कुछ ही देर बाद उसे लगने लगा जैसे किसी जंतु ने अपने दाँत उसके शरीर में गाड़ दिए, और उसे झिंझोड़ने लगा है। न जाने तहसील तक पहुँचने-पहुँचते मेरी क्‍या हालत होगी? …बैठे-बिठाए मुसीबत मोल ले ली। जाए भाड़ में जमीन का मालिक। और वह जहाँ पर खड़ा था, वहीं घुटने पकड़कर बस के फर्श पर, हाय-हाय करता बैठ गया।

उस समय बस, उस बस्‍ती को पार कर रही थी, जहाँ बेंत के पेड़ों के झुरमुट के बीच, नाले के किनारे-किनारे सड़क चलती जा रही थी, और जहाँ पानी की सतह पर लहरियाँ बनाती हुई, बतखें आज भी तैर रही थीं।

उधर, पार्क के बेंच पर बैठा जमीन का मालिक, थकान दूर हो जाने पर, धीरे-धीरे ऊँघने लगा था, उसकी मौत को कुछ ही मिनट बाकी रह गए थे। वह अभी भी आश्‍वस्‍त महसूस कर रहा था, चलो, इस सारी चख-चख और फजीहत में से निकल आया हूँ। उसे यह सोचकर सुखद-सा अनुभव हुआ कि वह आराम से बेंच पर बैठा सुस्‍ता रहा है जबकि वकील इस समय तहसील में जमीन के कागज निकलवाने के लिए भटक रहा है। …पर जमीन का ध्‍यान आते ही उसके मन को धक्‍का-सा लगा। सहसा ही वह चौंककर उठ बैठा। यह मैं क्‍या कर बैठा हूँ? एक तिहाई जमीन दे दी? अदालत का फैसला तो मेरे हक में हो चुका है। अब तो केवल कब्‍जा लेना बाकी था। जमीन तो मुझे मिल ही जाती। लाखों की जमीन उसके हवाले कर दी और लिखत भी दे दी। कहाँ तो वकील को ज्‍यादा-से-ज्‍यादा पाँच सौ-हजार की फीस दिया करता था, वह भी चौथे-पाँचवें महीने, और कहाँ एक-तिहाई जमीन ही दे दी। लूट कर ले गया, बैठे-बिठाए लूट कर ले गया। उसके मन में चीख-सी उठी। यह मैं क्‍या कर बैठा हूँ? न किसी से पूछा, न बात की। देना ही था तो एकमुश्‍त कुछ रकम देने का वादा कर देता। अपनी जमीन कौन देता है? बैठे-बिठाए मैंने कागज पर – वह भी स्‍टांप पेपर पर दस्‍तखत कर दिए। यह मैं क्‍या कर बैठा हूँ? और स्टांप पेपर की तस्‍वीर आँखों के सामने खिंच गई। तभी कहीं से जोर का धक्‍का आया और दर्द-सा उठा, पहले एक बार, फिर दूसरी बार, फिर तीसरी बार, और वह बेंच पर से लुढ़ककर, नीचे, ओस से सनी, हरी-हरी घास पर, औंधे मुँह जा गिरा।
आज के अतीत – संस्मरण

ज़िन्दगी में तरह-तरह के नाटक होते रहते हैं, मेरा बड़ा भाई जो बचपन में बड़ा आज्ञाकारी और ‘भलामानस’ हुआ करता था, बाद में जुझारू स्वभाव का होने लगा था। मैं, जो बचपन में लापरवाह, बहुत कुछ आवारा, मस्तमौला हुआ करता था, भीरु स्वभाव बनने लगा था।

अब सोचता हूँ, इसमें मेरे ‘शुभचिन्तकों’ का भी अच्छा-खासा योगदान रहा था, जो बात-बात पर मेरी तुलना बलराज से करते रहते। जिसके मुँह से सुनों, बलराज के ही गुण गाता, “मन्त्री जी के बड़े बेटे और छोटे बेटे में उतना ही अन्तर है जितना नार्थपोल और साउथपोल में है, वह गोरा-चिट्टा है, हँसमुख है, फुर्तीला है, जबकि छोटा मरियल है, उसे तरह-तरह के खेल सूझते हैं, वह लिखता है तो मोती पिरोता है, जबकि छोटा मनमानी करता है, आवारा घूमता है, पढ़ने-लिखने में उसका मन ही नहीं लगता” पर धीरे-धीरे, न जाने कब से और क्योंकर, एक प्रकार की हीन भावना मेरे अन्दर जड़ जमाने लगी। वह गोरे रंग का है, मैं साँवला हूँ, वह हष्ट-पुष्ट है, मैं दुबला हूँ, वह शरीफ है, मैं गालियाँ बकता हूँ, टप्पे गाता हूँ…

अब तक तो हमारा रिश्ता बराबरी का रहा था, यह सब सुनते-जानते हुए भी मैं उससे दबता नहीं था, कोई कुछ भी कहता रहे, मैं अपनी राह जाता था।
पर अब लोगों की टिप्पणियाँ सुन-सुनकर मेरा मन बुझने लगा था।

धीरे-धीरे हमारे बीच पाये जाने वाले अन्तर का बोध मुझे स्वयं होने लगा था और मैं अपने को छोटा महसूस करने लगा था, यहाँ तक कि मैं मानने लगा था कि मैं जिस मिट्टी का बना हूँ उसी में कोई दोष रहा होगा। मैं उससे ईर्ष्या तो करता ही था, पर यह ईर्ष्या मुझे विचलित नहीं करती थी, मैं अपनी धुन में, जो मन में आता करता रहता था। पर अब मैं उससे खम खाने लगा था। अब, एक ओर ईर्ष्या, दूसरे अपने ‘छुटपन’ का बोध, और इस पर उसके प्रति श्रद्धाभाव, यह अजीब-सी मानसिकता मेरे अन्दर पनप रही थी, पहले उसकी पहलकदमी पर चकित हुआ करता था, उसे नये-नये खेल सूझते हैं, मैं उत्साह से उनमें शामिल हो जाता, पर हमारे बीच बराबरी का भाव बना रहता। पर अब तो वह मेरा ‘हीरो’ बनता जा रहा था।

यदि उसके प्रति मेरे अन्दर विद्रोह के भाव उठते तो बेहतर था। तब मैं अपनी जगह पर तो खड़ा रहता। अब तो जो वह कहता वही ठीक था। मैं उसका अनुसरण करने लगा था और चूँकि वह मुझसे प्यार करता था, बड़े भाई का सारा वात्सल्य मुझ पर लुटाता था, मैं उत्तरोत्तर उसका अनुगामी बनता जा रहा था। वह नाटक खेलता तो मैं भी बड़े चाव से उसके साथ नाटक खेलने लगता। वह तीर-कमान चलाने लगता, तो मैं भी वही कुछ करने लगता और इस वृत्ति ने ऐसी जड़ जमा ली कि धीरे-धीरे मेरी दबंग तबीयत शिथिल पड़ने लगी। इस नये रिश्ते को मेरे प्रति उसके स्नेह ने और भी मजबूत किया। जब मैं उससे झगड़ता तो वह मुझे बाँहों में भर लेता। एक साथ, एक ही बिस्तर में सोते हुए, जब मैं गुस्से से उसे लातें जमाता, उसके हाथ नोच डालता तब भी वह मुझ पर हाथ नहीं उठाता था।

इस तरह मेरी अपनी मौलिकता बहुत कुछ दबने लगी थी।
यह श्रद्धाभाव मेरे स्वभाव का ऐसा अंग बना कि धीरे-धीरे हर हुनरमन्द व्यक्ति को अपने से बहुत ऊँचा, और स्वयं को बहुत नगण्य और छोटा समझने लगा।

हम लोग अपने घर में ईश्वरस्तुति के भजन गाते थे, सन्ध्योपासना से जुड़े मन्त्र, नीतिप्रधान दोहे, चौपाइयाँ आदि, पर ये लोग साहित्यिक कृतियों की अधिक बातें करते। अब सोचता हूँ तो दूर बचपन में ही घर में ऐसा माहौल बनने लगा था, माँ के मुँह से सुनी हुई कहानियाँ, विषाद भरे गीत, आर्यसमाज के जलसों में सुनी दृष्टान्त कथाएँ, जलसों पर से ही प्राप्त होने वाले कहानी संग्रह, आदि हमारी रुचियाँ यदि साहित्योन्मुख हुईं तो इसका श्रेय बहुत कुछ हमारे घर के वातावरण को है और उसमें इन फुफेरी बहनों की बहुत बड़ी देन रही। किसी झटके से हम लोग साहित्य की ओर उन्मुख नहीं हुए। इस तरह जब लिखना शुरू किया तो इसके पीछे कोई विशेष निर्णय अथवा आग्रह रहा हो, ऐसा नहीं था। कोई नया मोड़ काटने वाली बात नहीं थी। निर्णय करने का अवसर तब आया था जब साहित्य-सृजन को जीवन में प्राथमिकता दी जाने लगी थी, तब अन्य सभी व्यस्तताएँ गौण होने लगी थीं।

जन्मजात संस्कारों की भी सम्भवतः कोई भूमिका रही होगी। हमारे घर में जब कभी हमारे पूर्वजों की चर्चा होती तो माँ, हमारी दादी के बहुत गुण गाया करतीं। वह तो उन्हें ‘देवी’ कहा करतीं। जब भी उनकी बात करतीं तो बड़े श्रद्धाभाव से। एक घटना की चर्चा तो वह अक्सर किया करतीं:
“तुम्हारी दादी भी कवित्त कहती थीं, ईश्वर भक्ति के। बड़ी नेम-धर्मवाली स्त्री थीं, पूजा-पाठ करने वाली। देवी थीं देवी…” और माँ सुनातीं-
“तुम्हारे पिताजी का छोटा भाई, भरी जवानी में चल बसा था। न जाने उसे क्या रोग हुआ। देखते-देखते चला गया। तुम्हारी दादी के लिए यह सदमा सहना बड़ा कठिन था, पर वह शान्त रहीं। अपने जवान बेटे का सिर अपनी गोद में रखे सारा वक्त जाप करती रहीं।” जात-बिरादरी की औरतें टिप्पणियाँ कसती रहीं- “हाय-हाय, यह कैसी संगदिल माँ है, जवान बेटा चला गया और विलाप तक नहीं करती। रोती तक नहीं।”

इस दिशा में एक और चौंकाने वाला अनुभव ही हुआ। बरसों बाद जब मैं स्वयं कहानियाँ लिख-लिखकर पत्र-पत्रिकाओं को भेजने लगा था और पिताजी मेरे भविष्य के बारे में शंकित-से हो उठे थे तो एक दिन अचानक ही कहने लगे:
“मैंने भी एक बार नॉवेल लिखा था”
मैं चौंका। यह मेरे लिए सचमुच चौंकाने वाली बात थी। पिताजी तो व्यापारी थे और हम दोनों भाइयों को अपने ही कारोबार में शामिल करना चाहते थे।
“आपने कभी बताया तो नहीं”, मैंने कहा।
“दसवीं कक्षा की परीक्षा दे चुकने के बाद मैंने वह नॉवेल लिखा था।”
“फिर?”
“फिर क्या…? बात आयी-गयी हो गयी”।
उन्होंने इस लहजे से कहा मानो मूर्खों की-सी हरकतें छोटी उम्र में हर कोई करता है, इसमें अचरज की क्या बात है।
सम्भव है, कहीं-न-कहीं, साहित्य-सृजन में हमारी रुचि किसी हद तक हमें संस्कार रूप में अपने परिवार से मिली हो।
और बलराज की साहित्यिक रुचि तो शीघ्र ही कविता में व्यक्त होने लगी थी-

‘गुलदस्ता से क्यों तूने ठुकरा के मुझे फेंका
गो घास पे उगता हूँ, क्या फूल नहीं हूँ?’

उन्होंने पन्द्रह-एक वर्ष की अवस्था में यह शेर कहा था- और जब भगतसिंह को फाँसी दी गयी, तो बलराज ने पूरी-की-पूरी कविता अंग्रेजी में भगतसिंह की पुण्य स्मृति में कह डाली थी।
हम अपने संस्कार सचेत रूप से ग्रहण नहीं करते। कब, कौन-सी घटना कहीं गहरे में अपनी छाप छोड़ जाये, हम कुछ नहीं जानते।

कुछ यादें मरती नहीं हैं। कुछ घटनाओं-अनुभवों की यादें तो बरसों बाद भी दिल को मथती रहती हैं भले घटना अपना महत्व खो चुकी हो और उसका डंक कब का टूट चुका हो।
ऐसी ही एक याद मेरे हॉकी सम्बन्धी अनुभवों से जुड़ी है।

कॉलेज में दाखिले के दूसरे साल मैं कॉलेज की हॉकी टीम में ले लिया गया था और उस दिन मुझे यूनिवर्सिटी टूर्नामेंट का पहला मैच लॉ कॉलेज के विरुद्ध खेलने जाना था। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था। आखिर मेरे दिल की साध पूरी हुई थी। अब भी उस घटना को याद करता हूँ तो दिल को झटका-सा लगता है।

ऐन जब टीम मैदान में उतर रही थी, और मैं मैदान की ओर बढ़ रहा था तो कप्तान ने मुझे न बुलाकर, मेरी जगह एक अन्य खिलाड़ी अताउल्लाह नून को बुला लिया। मैं भौंचक्का-सा देखता रह गया था।

खेल शुरू हो गया। मैं ग्राउंड के बाहर, खेल की पोशाक पहने, हाथ में स्टिक उठाए, हैरान-सा खड़ा का खड़ा रह गया। फिर मेरे अन्दर ज्वार-सा उठा और मैं वहाँ से लौट पड़ा, साइकिल उठाई और घर की ओर चल पड़ा।

मैं थोड़ी ही दूर गया था जब दूसरी ओर से कॉलेज की टीम का एक पुराना खिलाड़ी, प्रेम, साइकिल पर आता नजर आया। वह मैच देखने जा रहा था। मुझे लौटता देखकर वह हैरान रह गया।
“क्यों? क्या मैच नहीं हो रहा? लौट क्यों रहे हो?”
मैंने केवल सिर हिला दिया। वह आगे निकल गया। मैं बेहद अपमानित महसूस कर रहा था और रोता हुआ घर पहुँचा।

घर लौटते ही मैंने हॉकी-स्टिक को कोने में रखा और मन-ही-मन गाँठ बाँध ली कि अब हॉकी के मैदान का मुँह नहीं देखूँगा। हॉकी स्टिक को हाथ नहीं लगाऊँगा। दो बरस तक बेहद चाव से और सब कुछ भूलकर खेलते रहने के बाद मैंने सहसा ही हॉकी के मैदान की ओर पीठ मोड़ ली और अपने साथी खिलाड़ियों से भी मिलना छोड़ दिया।
कुछ दिन बाद कॉलेज टीम का कप्तान चिरंजीव मिला।
“तुम चले क्यों आये?” उसने बेतकल्लुफी से पूछा।
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया।

वह कहने लगा, “उस दिन हमने अता नून को खेलने का मौका दिया। यह कॉलेज में उसका आखिरी साल है इसलिए, उसे कॉलेज कलर मिल जायेगा”।
पर मैं अन्दर-ही-अन्दर इतना कुढ़ रहा था कि मैंने मुँह फेर लिया। कोई उत्तर नहीं दिया। उसे इतना भी नहीं कहा कि अगर यह बात थी तो तुमने मुझे बताया क्यों नहीं।
दिन बीतने लगे। मैंने हॉकी खेलना छोड़ दिया।

अब उस घटना की याद करते हुए मुझे पछतावा होता। मैंने झूठे दम्भ के कारण हॉकी खेलना छोड़ दिया था। जिसे मैं आत्मसम्मान समझ रहा था वह झूठा दम्भ ही था और बड़ा बचकाना निर्णय था और मेरे इस व्यवहार के पीछे एक और कारण भी रहा था। मैं अपने भाई के पद-चिन्हों पर चल रहा था। कुछ ही समय पहले बलराज ने अपने बोट-क्लब से इस्तीफा दे दिया था। वह कॉलेज की बोट-क्लब का सेक्रेटरी था। क्लब के अध्यक्ष प्रोफेसर मैथाई द्वारा इतना-भर पूछे जाने पर कि तुमने क्लब के हिसाब-किताब का चिट्ठा अभी तक दफ्तर में क्यों नहीं दिया, बलराज ने अपमानित महसूस किया, मानो उसकी नीयत पर शक किया जा रहा हो और हिसाब के चिट्ठे के साथ अपना इस्तीफा भी दे आया था।

मैंने जो हॉकी खेलना छोड़ दिया तो वह बहुत कुछ बलराज की देखा-देखी ही था। दम्भ में आकर।
आज याद करने पर मुझे अपनी नासमझी पर गुस्सा आता है। कप्तान द्वारा यह बता दिये जाने पर कि ऐसा क्यों हुआ, मुझे अपना गुस्सा भूल जाना चाहिए था और हँसते-खेलते, हॉकी ग्राउंड पर लौट जाना चाहिए था। हॉकी खेलने में मुझे अपार आनन्द मिलता था और कॉलेज टीम का सदस्य होना मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। मुझे कॉलेज कलर मिलता। मेरा आत्मविश्वास बल्लियों ऊपर उठता। कॉलेज टीम के खिलाड़ी तो छाती तानकर कॉलेज के गलियारों में घूमते थे।

यह किस्सा यहाँ खत्म नहीं होता। जब अगले साल मैं एम.ए. का छात्र था तो हॉकी टीम का नया कप्तान, खन्ना, मुझसे आग्रह करने लगा कि मैं हॉकी टीम में लौट आऊँ, और मुझे टीम का सेक्रेटरी बनाया जायेगा, पर मैं नहीं माना। हॉकी से नाता तोड़ना मेरे लिए पत्थर की लकीर बन चुका था। वह भी मेरे रवैए पर हैरान हुआ पर चुप हो गया।

यदि कॉलेज छोड़ने के बाद मुझे पछतावा न होने लगता और मैं अपने को वंचित महसूस नहीं करने लगता, तो यह मामूली-सी घटना बनकर रह जाती, पर यह घटना तो बरसों तक दिल को कचोटती रही। आज भी कभी-कभी मैं नींद में, अपने को सपने में हॉकी खेलते देखता हूँ। इतना बढ़िया खेलता हूँ कि सपने में स्वयं ही अश-अश कर उठता हूँ। ऐसे दाँव खेलता हूँ कि ध्यानचन्द क्या खेलता रहा होगा।

उन्हीं दिनों एक और घटना भी घटी और वह भी दिल पर गहरी खरोंच छोड़ गई।
उस वर्ष मैं होस्टल छोड़कर अपने बहनोई श्री चन्द्रगुप्त विद्यालंकार के साथ ब्रेडलॉ हॉल के निकट उनके घर पर रहने लगा था। होस्टल छोड़ते ही मैं जैसे किसी दूसरे शहर में पहुँच गया था। चन्द्रगुप्त जी हिन्दी के सुपरिचित लेखक थे, लाहौर में उन दिनों अपना प्रकाशन गृह चला रहे थे। जहाँ कॉलेज का माहौल अंग्रेजीयत का था, वहाँ चन्द्रगुप्तजी के घर में हिन्दी साहित्य की चर्चा रहती। गाहे-बगाहे लेखकों का आना-जाना भी होता। वात्स्यायनजी से पहली बार वहीं पर मिलने का मौका मिला। देवेन्द्र सत्यार्थी से भी। उन्हीं दिनों उपेन्द्रनाथ अश्क को भी साइकिल पर बैठे सड़कों पर जाते देखा करता। लगभर हर शाम चन्द्रगुप्तजी के साथ मालरोड पर लम्बी सैर को जाता। चन्द्रगुप्तजी हिन्दी साहित्य की चर्चा करते जो मेरे लिए अभी दूर पार का विषय था, भले ही मेरी एक कहानी और दो-एक कविताएँ कॉलेज की पत्रिका ‘रावी’ में छप चुकी थीं।

एक दिन चन्द्रगुप्तजी ने बताया कि मुंशी प्रेमचन्द कुछ दिन के लिए लाहौर आ रहे हैं और हमारे ही निवास स्थान पर रहेंगे। यह बहुत बड़ी सूचना थी पर मुझ पर उसका ज्यादा असर नहीं हुआ। प्रेमचन्द की विशिष्टता से तो मैं अनभिज्ञ नहीं था, पर जाड़ों की छुट्टियों में मैं घर जाने के लिए एक-एक दिन गिन रहा था। इसमें भी सन्देह नहीं कि उन दिनों मेरे मस्तिष्क पर अंग्रेजी साहित्य हावी था और मैंने उस अवसर के महत्व को गौण समझा। चन्द्रगुप्तजी ने बहुत समझाया कि ऐसा अवसर बहुत कम मिल पाता है, तुम मेरे साथ रहोगे तो हम दोनों मिलकर उनकी देखभाल भी कर सकेंगे। पर मैं नहीं माना और यह कहकर कि भविष्य में भी ऐसा अवसर मिल सकता है, मैं रावलपिंडी के लिए रवाना हो गया।

प्रेमचन्द आये, उसी घर में पाँच दिन तक ठहरे, और जब मैं छुट्टियों के बाद लाहौर लौटा तो वह जा चुके थे। तब भी मुझे कोई विशेष खेद नहीं हुआ।

खेद तब हुआ जब कुछ ही महीने बाद पता चला कि प्रेमचन्द संसार में नहीं रहे और भी गहरा दुख तब हुआ जब एक लम्बे रेल-सफर में ‘गोदान’ पढ़ता रहा और पुस्तक समाप्त हो जाने पर अभिभूत-सा बैठा रह गया। तब इस बात का और भी शिद्दत से अहसास हुआ कि मैं कितना अभागा हूँ जो उस सुनहरे अवसर को खो बैठा।

कभी-कभी सोचता हूँ कि जिन्दगी में मैंने अपनी इच्छाओं से विवश होकर कोई भी दो टूक फैसला नहीं किया। मैं स्थितियों के अनुरूप अपने को ढालता रहा हूँ। अन्दर से उठने वाले आवेग और आग्रह तो थे, पर मैं उन्हें दबाता भी रहता था। मैंने किसी आवेग को जुनून का रूप लेने नहीं दिया। मैं कभी भी यह कहने की स्थिति में नहीं था कि जिन्दगी में यही एक मेरा रास्ता है, इसी पर चलूँगा।

कभी-कभी सोचता हूँ, यदि साहित्य सृजन जीवन की सच्चाई की खोज है तो जीवन के अनुभव इस खोज में सहायक ही होते होंगे। इस तरह जीवन के अनुभवों को गौण तो नहीं माना जा सकता। इस अनुभवों से दृष्टि भी मिलती है, सूझ भी बढ़ती है, लेखक के सम्वेदन को भी प्रभावित कर पाते होंगे। मैं इस तरह की युक्तियाँ देकर अपना ढाढ़स बँधाता रहता था।

”हानूश” का जन्म –  संस्मरण 

‘हानूश” नाटक की प्रेरणा मुझे चेकोस्लोवेकिया की राजधानी प्राग से मिली। यूरोप की यात्रा करते हुए एक बार शीला और मैं प्राग पहुँचे। उन दिनों निर्मल वर्मा वहीं पर थे। होटल में सामान रखने के फौरन ही बाद मैं उनकी खोज में निकल पड़ा। उस हॉस्टल में जा पहुँचा जिसका पता पहले से मेरे पास था। कमरा तो मैंने ढूँढ़ निकाला, पर पता चला कि निर्मल वहाँ पर नहीं हैं। संभवतः वह इटली की यात्रा पर गए हुए थे। बड़ी निराशा हुई। पर अचानक ही, दुसरे दिन वह पहुँच भी गए और फिर उनके साथ उन सभी विरल स्मारकों, गिरजा स्थलों को देखने का सुअवसर मिला, विशेषकर गॉथिक और ‘बरोक’ गिरजाघरों को जिनकी निर्मल को गहरी जानकारी थी।

और इसी धुमक्कड़ी में हमने हानूश की घड़ी देखी। यह मीनारी घड़ी प्राग की नगरपालिका पर सैंकड़ों वर्ष पहले लगाई गई थी, चेकोस्लोवेकिया में बनाई जानेवाली पहली मीनारी घड़ी मानी जाती थी। उसके साथ एक दंतकथा जुड़ी थी कि उसे बनानेवाला एक साधारण कुफ़लसाज था कि उसे घड़ी बनाने में सत्रह साल लग गए और जब वह बन कर तैयार हुई तो राजा ने उसे अंधा करवा दिया ताकि वह ऐसी कोई दूसरी घड़ी न बना सके। घड़ी को दिखाते हुए निर्मल ने इससे जुड़ी वह कथा भी सुनाई। सुनते ही मुझे लगा कि इस कथा में बड़े नाटकीय तत्व हैं, कि यह नाटक का रूप ले सकती है।

यूरोप की यात्रा के बाद मॉस्को लौटने पर मैं कुछ ही दिन बाद, चेकोस्लोवेकिया के इतावाद (मॉस्को स्थित) में जा पहुँचा। सांस्कृतिक मामलों के सचिव से, हानूश की दीवारी घड़ी की चर्चा और अनुरोध किया कि उसके संबंध में यदि कुछ सामग्री उपलब्ध हो सके तो मैं आभार मानूँगा। लगभग एक महीने बाद दूतावास से टेलीफ़ोन आया कि आकर मिलो। मैं भागता हुआ जो पहुँचा। अधिक सामग्री तो नहीं मिली पर किसी पत्रिका में प्रकाशित एक लेख ज़रूर मिला। मैं लेख की प्रति ले आया, पर लेख चेक भाषा में था।

सौभाग्यवश मेरे पत्रकार मित्र, मसऊद अली खान की पत्नी कात्या, चेकोस्लोवेकिया की रहने वाली थी। उन्होंने झट से उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद कर डाला। मुझे नाटक लिखने के लिए आधार मिल गया और वह दो पन्नों का आधार ही मेरे पास था। जब मैं भारत लौटा वे १९६३ के दिन थे। नाटक के लिखे जाने और खेले जाने में अभी बहुत वक्त था। और इसकी अपनी कहानी है। अंततः नाटक १९७७ में खेला गया।

हानूश नाटक पर मैं लंबे अर्से तक काम करता रहा था। पहली बार जब नाटक की पांडुलिपि तैयार हुई तो मैं उसे लेकर मुंबई जा पहुँचा बलराज जी को दिखाने के लिए। उन्होंने पढ़ा और ढ़ेरों ठंडा पानी मेरे सिर पर उड़ेल दिया। ”नाटक लिखना तुम्हारे बस का नहीं है।” उन्होंने ये शब्द कहे तो नहीं पर उनका अभिप्राय यही था। उनके चेहरे पर हमदर्दी का भाव भी यही कह रहा था।

पर मैं हतोत्साह नहीं हुआ। घर लौट आया। उसे कुछ दिन ताक पर रखा, पर फिर उठाकर उस पर काम करने लगा और कुछ अर्सा बाद नाटक की संशोधित पांडुलिपि लिए उनके पास फिर जा पहुँचा। उन्होंने पढ़ा और फिर सिर हिला दिया। उनका ढ़ाढस बँधाने का अंदाज़ भी कुछ ऐसा था कि यह काम तुम्हारे बस का नहीं है। इस पचड़े में से निकल आओ।

उनकी प्रतिक्रिया सुनते हुए मुझे संस्कृत की एक दृष्टांत-कथा याद हो आई जिसे बचपन में सुना था। एक गीदड़ अपने दोस्तों के सामने डींग हाँक रहा था कि शेर को मारने क्यों मुश्किल है। बस, आँखें लाल होनी चाहिए, मूँछ ऐंठी हुई और पूँछ तनी हुई, शेर आए तो एक ही झपट्टे में उसे चित कर दो। . . .वह कह ही रहा था कि उधर से शेर आ गया। बाकी गीदड़ तो इधर-उधर भाग गए पर यह गीदड़ शेर से दो-चार होने के लिए तैयारी करने लगा। वह मूँछें ऐंठ रहा था जब शेर पास आ पहुँचा और गीदड़ को एक झापड़ दिया कि गीदड़ लुढ़कता हुआ दूर तक जा गिरा. . .जब गीदड़ फिर से इकठ्ठा हुए तो गीदड़ अपनी सफ़ाई देते हुए बोला, ”और सब तो ठीक था पर मेरी आँखें ज़्यादा लाल नहीं हो पाई थीं, मूँछों में ज़्यादा ऐंठ भी नहीं आई थी।” पास में खड़ा एक बूढ़ा गीदड़ भी सुन रहा था। गीदड़ को समझाते हुए बोला,
”शूरोऽसि कृत विद्योऽसि, दर्शनीयोऽसि पुत्रक,
यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्नः सिंहस्तत्र न हन्यते।”
(बेटा, तुम बड़े शूरवीर हो, बड़े ज्ञानी हो, सभी दाँवपेंच जानते हो, पर जिस कुल में तुम पैदा हुए हो, उस में शेर नहीं मारे जाते।)
मैं अपना-सा मुँह लेकर दिल्ली लौट आया।
अब मैं बलराज जी की बात कैसे नहीं मानता। उनके निष्कर्ष के पीछे ‘इप्टा’ के मंच का वर्षों का अनुभव था, फिर फ़िल्मों का अनुभव।

मेरे अपने प्रयासों में भी त्रुटियाँ रही थीं। ”हानूश” का कथानक तो मुझे बाँधता था, पर उसे नाटक में कैसे ढ़ालूँ, मेरे लिए कठिन हो रहा था। पहले भी बार-बार कुछ लिखता रहा था। फिर निराश होकर छोड़ देता रहा था। न छोड़े बनता था, न लिखते बनता था। ऐसा अनुभव शायद हर लेखक को होता है। एक बार कीड़ा दिमाग़ में घुस जाए तो निकाले नहीं निकलता। हर दूसरे महीने मैं उसे फिर से उठा लेता। कथानक के नाम पर मेरे पास गिने-चुने ही तथ्य थे। नाटक का सारा ताना-बाना मुझे बुनना था। कथानक की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक थी और वह भी मध्ययुगीन यूरोप की चेकोस्लोवेकिया की। मेरे अपने देश की भी नहीं।

कुछ अरसा बाद नाटक की एक और संशोधित पांडुलिपि तैयार हुई। या यों कहूँ एक और पांडुलिपि तैयार हुई। अबकी बार मैं उसे बलराज जी के पास नहीं ले गया। नाटक की टंकित प्रति उठाए मैं सीधा अलकाजी साहिब के पास पहुँचा जो उन दिनों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निर्देशक थे। मैंने बड़ी विनम्रता से अनुनय-विनय के साथ कहा, ”यदि आप इसे एक नज़र देख जाएँ। मैं आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ।”
वह मुस्कराए। अलकाजी उन दिनों मुझे इतना भर जानते थे कि मैं बलराज का भाई हूँ। बलराज के साथ मुंबई में रहते हुए उनके साथ थोड़ा संपर्क रहा था।

उन्होंने नाटक की प्रति रख ली और मैं बड़ा हल्का-फुल्का महसूस करता हुआ लौट आया। अब कुछ तो पता चलेगा, मैंने मन ही मन कहा।
उसके बाद सप्ताह भर तो मैं शांत रहा, उसके बाद मेरी उत्सुकता और मेरा इंतज़ार बढ़ने लगा। हर सुबह उठने पर यही सोचूँ, अब अलकाजी साहिब ने पढ़ लिया होगा, अब तक ज़रूर पढ़ लिया होगा, उन्हें टेलीफ़ोन कर के पूछूँ? नहीं, नहीं अभी नहीं मुझे जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। मैं बड़ी बेसब्री से उनकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रहा था।
दो सप्ताह बीत गए, फिर तीन, फिर चार, महीना भर गुज़र गया। फिर डेढ़ महीना। मेरे मन में खीझ-सी उठने लगी। ऐसा भी क्या है, मुझे बता सकते थे, टेलीफ़ोन कर सकते थे। इस चुप्पी से क्या समझूँ?

जब दो महीने बीत गए तो मुझसे नहीं रहा गया। मैं एक दिन सीधा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जा पहुँचा।
मैंने अपने नाम की ‘चिट’ अंदर भेजी। चपरासी अंदर छोड़ कर बाहर निकल आया।

मैं बाहर बरामदे में खड़ा इंतज़ार करता रहा। कोई जवाब नहीं, मुझे इतना भी मालूम नहीं था कि अलकाजी साहिब दफ़तर में हैं भी या नहीं। वास्तव में वह दफ़तर में नहीं थे। वह उस समय क्लास ले रहे थे। हमारे यहाँ चपरासियों की बेरुखी भी समझ में आती हैं, वे यही मानकर चलते हैं कि साहिब के पास ‘चिट’ भेजनेवाला आदमी नौकरी माँगने आया है। उस समय मुझे इस बात का भी ध्यान नहीं आया कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में भी क्लासें लगती होंगी। मैं समझ बैठा था कि नाट्य विद्यालय में क्लासों का क्या काम, वहाँ केवल रिहर्सलें होती होंगी।

मैंने फिर से एक ‘चिट’ भेजी और चपरासी से ताक़ीद की कि यह बहुत ज़रूरी है, जहाँ भी अलकाजी साहिब हों उन्हें देकर आओ।
मैं अपमानित-सा महसूस करने लगा था। अलकाजी साहिब की बेरुखी पर झुँझलाने लगा था। मैंने ऐसा कौन-सा गुनाह किया था कि मुझसे मिलने तक की उन्हें फ़ुर्सत नहीं थी।
इतने में देखा, अलकाजी साहिब बरामदे में चले आ रहे थे। आँखों पर चश्मा, हाथ में खुली किताब।
”मैं क्लास ले रहा था। आप थोड़ा इंतज़ार कर लेते।” मुझे लगा रुखाई से बोल रहे हैं। वास्तव में उन्हें मेरा क्लास में ‘चिट’ भेजना नागवार गुज़रा था।
”मैं अपने नाटक के बारे में पूछने आया था।”
”वह मैं अभी पढ़ नहीं पाया। इस सेशन में काम बहुत रहता है।”

किताब अभी भी उनके हाथ में थी और वह थोड़ा उद्विग्न से चश्मों में से मेरी ओर देख रहे थे, मानो क्लास में लौटने की जल्दी में हों।
तभी मैंने छूटते ही कहा!
”क्या मैं अपना नाटक वापस ले सकता हूँ।”

वह ठिठके। मेरी ओर कुछ देर तक देखते रहे और फिर क्लास की ओर जाने के बजाय, अपने दफ़तर का दरवाज़ा खोल कर अंदर चले गए और कुछ ही देर बाद नाटक की प्रति उठाए चले आए और मेरे हाथ में देते हुए, बिना कुछ कहे, क्लास रूम की ओर घूम गए।

मैंने घर लौट कर नाटक को मेज़ पर पटक दिया। मारो गोली, यह काम सचमुच मेरे वश का नहीं है।
दिन बीतने लगे। पर कुछ समय बाद फिर से मेरे दिल में धुकधुकी-सी होने लगी। अलकाजी साहिब ने इसके पन्ने पलटना तक गवारा नहीं किया। नहीं, नहीं पन्ने पलटे होंगे, नाटक बे सिर पैर का लगा होगा तो उसे रख दिया कि कभी फ़ुर्सत से पढ़ लेंगे। मैंने मन ही मन कहा- अब मैं नाटक का मुँह नहीं देखूँगा। बलराज ठीक ही कहते होंगे कि यह मेरे वश का रोग नहीं है।

फिर एक दिन यह संभवतः १९७६ के जाड़ों के दिन थे, शीला और मैं बुद्ध-जयंती बाग में टहल रहे थे जब कुछ ही दूरी पर मुझे राजिंदर नाथ और सांत्वना जी बाग में टहलते नज़र आए। राजिंदर नाथ जाने-माने निर्देशक थे। जब पास से गुज़रे और दुआ-सलाम हुई तो मैंने कहा!
”यार मैंने एक नाटक लिखा है। वक्त हो तो उसे एक नज़र देख जाओ।”
राजिंदर नाथ हँस पड़े। कहने लगे,
”मैं खुद इन दिनों किसी स्क्रिप्ट की तलाश में हूँ, कुछ ही देर बाद राष्ट्रीय नाट्य समारोह होने जा रहा है।”
नेकी और पूछ-पूछ। मैंने नाटक की प्रति उन्हें पहुँचा दी और अबकी बार नाटक शीघ्र ही पढ़ा भी गया। और कुछ ही अर्सा बाद खेला भी गया और वह मकबूल भी हुआ और मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था कि स्क्रिप्ट के नाते प्रतियोगिता में पहले नंबर पर भी आया।

नाटक अभी खेला ही जा रहा था जब एक दिन प्रातः मुझे अमृता प्रीतम जी का टेलीफ़ोन आया। मुझे नाटक पर मुबारकबाद देते हुए बोलीं,
”तुमने इमर्जेंसी पर खूब चोट की है। मुबारक हो!”
अमृता जी की ओर से मुबारक मिले इससे तो गहरा संतोष हुआ पर यह कहना कि इमर्जेंसी पर मैंने चोट है, सुन कर मैं ज़रूर चौंका। उन्हें इमर्जेंसी की क्या सूझी? इमर्जेंसी तो मेरे ख़्वाब में भी नहीं थी। मैं तो वर्षों से अपनी ही इमर्जेंसी से जूझता रहा था। बेशक ज़माना इमर्जेंसी का ही था जब नाटक ने अंतिम रूप लिया। पर हाँ, इसमें संदेह नहीं कि निरंकुश सत्ताधारियों के रहते, हर युग में, हर समाज में, हानूश जैसे फ़नकारों के लिए इमर्जेंसी ही बनी रहती है, और वे अपनी निष्ठा और आस्था के लिए यातनाएँ भोगते रहते हैं जैसे हानूश भोगता रहा। यही उनकी नियति है।

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असगर वजाहत https://sahityaganga.com/%e0%a4%85%e0%a4%b8%e0%a4%97%e0%a4%b0-%e0%a4%b5%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%b9%e0%a4%a4-2/ Thu, 19 May 2016 07:58:02 +0000 http://sahityaganga.com/?p=7153 परिचय

जन्म : 5 जुलाई 1946, फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी

विधाएँ : उपन्यास, कहानी, नाटक

मुख्य कृतियाँ

उपन्यास : सात आसमान, कैसी आगी लगाई, रात में जागने वाले, पहर-दोपहर, मन माटी, चहारदर, फिरंगी लौट आये, जिन्ना की आवाज, वीरगति

नाटक : जित लाहौर नईं वेख्या वो जन्‍म्‍या ई नईं, अकी, समिधा

नुक्कड़ नाटक : सबसे सस्ता गोश्त

कहानी संग्रह : मैं हिंदू हूँ, दिल्ली पहुँचना है, स्वीमिंग पूल, सब कहाँ कुछ

यात्रा संस्मरण : चलते तो अच्छा था, इस पतझड़ में आना

आलोचना : हिंदी-उर्दू की प्रगतिशील कविता

सम्मान : कथा क्रम सम्मान, हिंदी अकादमी, इंदु शर्मा कथा सम्मान
संपर्क : 79, कला विहार, मयूर विहार, फेज 1, दिल्ली-110091
फोन : 91-11-22744579, 91-9818149015
ई-मेल : awajahat@yahoo.com
  असगर वजाहत ने एम.ए. (हिंदी) और पीएच डी. अलिगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से की। डॉक्टरेट के बाद का शोधकार्य जवाहरलाल नेहरू यूनीवर्सिटी से  किया .लेखन का आरंभ १९६० में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अध्ययन के समय से हुआ। लघु कथा, नाटक, उपन्यास और अन्य कई विषयों पर लेख अलग–अलग प्रकाशित। अभी तक १९ पुस्तकें प्रकाशित जिनमें पांच कथासंग्रह, चार उपन्यास, छे नाटक और नुक्कड़ नाटकों के संग्रह शामिल हैं। कहानियों के हिंदीतर अनेक भारतीय व अंग्रेजी, रूसी तथा इतालवी भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित। ‘जिस लाहौर न वेख्या… नाटक की विश्व भर में अनेक प्रस्तुतियाँ।
चलचित्रों की पटकथा का लेखन और टेलीविजन सिरियल्स के निर्देशन का अनुभव। कोलाज, रेखाचित्रण व छायाचित्रण का शौक। पाँच साल तक बुदापेस्ट, हंगेरी में हिंदी के प्रोफेसर। अनेक पुरस्कारों व सम्मानों से सुशोभित। असगर वजाहत अपनी अलग लेखन शैली के कारण हिन्दी साहित्य में अपना एक अलग स्थान रखते हैं .प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कहानियाँ कुछ लघु कथाएं 
कहानियाँ

सूफी का जूता

पूरे हिन्दुस्तान में सूफियों की तलाश शुरू हो गई हैं। पुराने, अनुभवी और थोड़ा-बहुत अपने आत्म-सम्मान का ध्यान रखने वाले सूफी इधर-उधर छिप गए ताकि विज्ञापन कंपनियों के दलालों से बच सकें, जो उनकी तलाश में घूम रहे हैं। किस्सा ये है कि सूफियों को कई बड़ी भारतीय कंपनियां अपना ब्रांड एम्बेसडर बनाना चाहती हैं। ‘बिजनस विजार्ड्स’ ने बताया है कि अमेरिका में सफल हो जाने के बाद हिन्दुस्तान में भी सूफी फार्मूला पूरी तरह कामयाब होगा। अमेरिका में सूफी फॉर्मूला इसलिए सफल हो गया था कि वहां लोग सूफियों के दर्शन, प्रेम, त्याग और मैत्री के बारे में कुछ न जानते थे और ये उनके लिए आकर्षित करने वाले शब्द बन गए थे। जबकि हिन्दुस्तान में दो पीढ़ियों पहले लोग इन शब्दों से परिचित थे और अब ये शब्द नई जनरेशन के लिए नोस्टैल्जिया बन चुके हैं। और उनकी जगह डिस्को संगीत में सुरक्षित हो चुकी है।

(2)

बहुत खोजने के बाद एक सूफी मिला जो विज्ञापन एजेंसी वालों से बचने के लिए डाकू बन गया था। उसे यह भ्रम था कि डाकू बनकर बच जाएगा। पर चूंकि सूफी था इसलिए डाकू बनने के बाद भी सूफी ही रहा और पकड़ा गया। इस सूफी को दिल्ली की प्रसिद्ध तिहाड़ जेल से पकड़ा गया था। पहले उसकी सजा माफ कराई गई और उससे कहा गया कि अरबों डॉलर का मुनाफा कमानेवाली एक कारॅपोरेशन उसे जनहित के काम में लगाना चाहती है।

‘‘जनहित का क्या काम होगा’ सूफी ने पूछा।

‘‘कॉरपोरेशन ने जिस इलाके में अपनी विशालकाय फैक्टरी लगाई है। वहां पीने का पानी खत्म हो गया है, हवा दूषित हो गई है, पेड़ जल गए हैं। बच्चे अपंग पैदा होते हैं। वहां जाकर संतोष, त्याग, बलिदान का सन्देश देना है।’’

(3)

सूफियों की इतनी चर्चा के बाद एक सज्जन ने सोचा कि पुराने-धुराने सूफी की तलाश की जाए और उससे सूफी बनने के हुनर सीखकर खुद सूफी बना जाए।

बहुत खोजने पर सज्जन की सूफी तो नहीं, सूफी के एक पैर का जूता मिल गया। सज्जन को बहुत खोजने पर भी दूसरे पैर का जूता न मिला तो निराश होकर एक जूता घर ले आए।

पर रात में जूते ने बोलना शुरू कर दिया।

उसने कहा, ‘‘आजकल सूफियों का सबसे अच्छा प्रोफाइल डिजाइन अमेरिकन ड्रेस डिजाइनर पॉप जक्सीम करता है, तुम उसके पास जाओ।’’

ये सुनकर सज्जन बेहोश हो गए और सूफी का जूता हंसने लगा। और फिर जूता सज्जन की खोपड़ी और चेहरे पर लगातार बरसने लगा। सज्जन का चेहरा लाल हो गया।

कुछ देर बाद सज्जन की जब आंख खुली तो वो पूरे सूफी बन चुके थे। और जूता वहां नहीं था।

(4)

देश के सबसे महंगे ड्रेस डिजाइनर ने सूफी कॉस्ट्यूम डिजाइन किया। चार कॉरपोरेशनों ने गुडविल फंडिंग की। एक एयर लाइन ने कहा कि अब उनकी एयर लाइन की एयर होस्टेस अगले महीने से सूफी ड्रेस में होंगी।

बहरहाल, एक सात-सितारा होटल में सूफी अब्दुल कय्यूम अलसबा बोस्ताने बहश्तेवारे सकिने तूरानी को सूफी ड्रेस का उद्घाटन करने के लिए बुलाया गया।

जगमगाते दरकार हॉल में कई देशों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री मौजूद थे। बिजना और फैशन की दुनिया का तो कोई सितारा ऐसा न था जो वहां न हो।

सूफी अब्दुल कय्यूम अलसबा बोस्ताने बहश्तेवारे सकिने तूरानी के साथ कई राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सूफी ड्रेस पहनकर मंच पर आए।

फिर सबने देखा कि सूफी समेत सब वी.वी.आई.पी. नंगे नजर आने लगे।

(5)

जब मामला सूफी कविता और सूफी संगीत से होता सूफी कॉस्ट्यूम, सूफी टूरिज्म सूफी फर्नीचर, सूफी डेकोर, सूफी डेकोर, सूफी बाथरूम, सूफी फूड, सूफी ज्वैलरी, सूफी शू, सूफी अंडर वियर और सूफी चाट मसाले तक आ गया तो सूफी वहीउद्दीन वल्द जहीरुद्दीन वल्द सुहीदुद्दीन वल्द करीमुद्दीन ने अपने बेटे टॉमउद्दीन से कहा ‘‘बेटा, अब तुम सूफी कफन की दुकान खोल लो।’’

‘‘क्यों डैडी’ उनके बेटे टॉमउद्दीन ने पूछा।

‘‘बेटा, अब वही बचा है…वो काम हमने न किया तो यही कफन-चोर कर लेंगे।’’

(6)

कोई दो सौ साल के बाद सूफी कदीर ने फिर से शरीर धारण किया तो उन्हें पता चला कि उनकी कब्र पर बहुत शानदार मकबरा बन गया है। पास ही विशाल दरगाह है। मकबरे के परिसर में ही एक पांच-सितारा होटल है। हजारों लोग कब्र पर फातिहा पढ़ने और चादर चढ़ाने आते हैं। लाखों रुपए रोज का चढ़ावा आता है। मुम्बई का हर डॉन और फिल्म स्टार उनकी पूजा करता है। ये सब जानकर सूफी कदीर बहुत खुश हुए और अपने मकबरे की तरफ बढ़े तो उन्हें उस तरफ से कुछ लोग भागकर आते दिखाई पड़े। इन लोगों ने सूफी कदीर से कहा कि मकबरे की तरफ मत जाना।

‘‘क्यों’ सूफी कदीर ने पूछा।

‘‘उधर गालियां चल रही हैं।’’

रोकने के बावजूद सूफी दरगाह की तरफ लपके। उन्हें डर था कि कहीं पुलिस की गोली से कोई मासूम न मर जाए।

वे दरगाह के पास पहुंचे तो उन्होंने देखा बन्दूकधारियों का एक दल मकबरे के अन्दर है और दूसरा बाहर। दोनों के बीच गोलीबारी हो रही है।

‘‘ये कौन लोग हैं जो एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं।’’ सूफी ने किसी से पूछा।

‘‘ये सूफी कदीर की औलादें…उनके वंशज हैं।’’

‘‘ये क्यों लड़ रहे हैं।

‘‘दरगाह पर कब्जा करने के लिए।’’

‘‘कब्जा कैसा कब्जा।’’

‘‘लगता है, नए आए हो…चले…जाओ…नहीं तो बेकार में मार दिए जाओगे।’’

लेकिन सूफी कदीर तेजी से मकबरे की तरफ बढ़े।

‘‘ओय बुड्ढ़े, हट वहां से…कहां जा रहा है’

‘‘मैं सूफी कदीर हूं बेटा।’’

‘‘तो तू किसकी तरफ है हमारी तरफ या उनकी तरफ’

‘‘मैं अपनी तरफ हूं बेटा।’’

‘‘नौजवान ने उनके ऊपर गोलियां तड़तड़ा दीं और सूफी कदीर फिर दो सौ साल के लिए मर गए।

(7)

सूफी रहमानी के पास सब कुछ था। नाम था। इज्जत थी। शोहरत थी। लेकिन बदनसीबी यह कि सन्तान न थी। कोई औलाद न बचती थी। जब वह बहुत परेशान हो गया तो एक दिन उसके दोस्तों ने सलाह दी कि देश में एक ही आदमी है, जिसके आशीर्वाद से तुम्हारी औलाद बच सकती है।

‘‘ये आदमी कौन है।’’ सूफी ने पूछा।

‘‘ये हमारे देश का प्रधानमंत्री है।’’

‘‘क्या उसकी दुआ में इतनी तासीर है’

‘‘हां…वो चाहे तो ये हो सकता है…लेकिन उससे मिलना आसान नहीं है…’’

‘‘क्या करना होगा’

‘‘तुमको उसके दर तक सिर पर पैर रखकर जाना पड़ेगा।’’

मरता क्या न करता, सूफी प्रधानमंत्री के पास गया और उसके आशीर्वाद से एक बेटे का बाप बना। सूफी ने अपने बेटे का नाम प्रधानमंत्री के नाम पर रखा ताकि पूरी दुनिया ये समझ सके कि उसके ऊपर किसका क्या उपकार है।

(8)

सूफी हमीद की दुकान नहीं चल रही थी। सब कुछ करने के बावजूद न तो लोग उनके पास आते थे और न वे कहीं बुलाए जाते थे। खाने-पीने के लाले पड़ गए थे।

एक दिन सूफी हमीद की बीवी ने कहा, ‘‘सुनो, मेरी मानो तो तुम अंग्रेजी बोलना सीख लो।’’

सूफी हमीद को बीवी की अक्लमन्दी पर हैरत हुई।

वे बोले, ‘‘तू ये कैसे जानती है कि मेरी बदनसीबी का यही राज है कि मैं अंग्रेजी नहीं बोल सकता’

बीवी बोली, ‘‘लो, मैं न जानूंगी तो कौन जानेगा…सोते हुए तुम हर रात यही बड़बड़ाते हो कि अंग्रेजी बोल सकता होता तो ये हालत न होती।’’

(9)

सूफी अजमली के पुत्र ने अपने पिता से कहा कि डैडी आप बेकार में शायरी,वायरी किया करते हैं। उसे आजकल कौन समझता है। आजकल के सूफी तो सूफी मुखड़ों को फिल्मी गानों में लाकर लाखों कमा रहे हैं। आप इधर ट्राई क्यों नहीं करते

सूफी बोले, ‘‘बेटा वहां मैं ट्राई कर चुका हूं। गीतकारों और म्यूजिक डायरेक्टरों ने बड़ी सांठ-गाठं कर रखी है। वहां किसी की दाल गलना मुश्किल है।’’

बेटा बोला, ‘‘वो सब छोड़िए आप डांस के एरिया में क्यों नहीं निकल जाते मैं बैंड पकड़ लुंगा। सिस्टर डांस करेगी। मां एंकर हो जाएंगी। छोटू पब्लिसिटी में लग जाएगा। दादा जी को बुकिंग विंडो पर बैठा देंगे।’’

(10)

चार सूफियों को सोने के लिए एक कम्बल दे दिया गया। पहले तो चारों सूफी कम्बल देने वाले पर बहुत चिल्लाए। उन्होंने कहा, ‘‘चार कम्बल नहीं थे चार सूफियों को बुलाया ही क्यों था। ये सूफियों का अपमान है।’’ खैर कम्बल देने वाला जान बचाकर चला गया। लाने से पहले कह गया कि मैं आयोजकों को भेजता हूं।

उसके जाने के बाद एक सूफी ने कहा, ‘‘मैं तो तुम जैसे तीन घटिया सूफियों के साथ एक कम्बल में सोने से मर जाना ज्यादा पसन्द करूंगा।’’

‘‘तो यूं मर ही जाओ।’’ तीनो सूफियों ने उसे मार डाला।

अब तीन सूफी बचे।

तीनों ने तय किया कि कम्बल के तीन हिस्से कर लिये जाएं और तीनों एक-एक हिस्सा ले लें।

कम्बल कैसे बनता जाए, इस बात को लेकर तीनों में बहस हो गई। एक सूफी और मर गया। अब दो बचे।

उनमें ये झगड़ा शुरू हुआ कि कम्बल के तीन हिस्से दो सूफियों में केसे बांटे जाएं। इस बात पर दोनों लड़ने लगे और एक और सूफी की जान चली गई।

अब अकेले सूफी ने सोचा कि उस पर ही तीन की हत्या का आरोप आएगा। यह सोचकर उसने आत्महत्या कर ली।

तब आयोजक आए, जो एक नेता थे। उनके साथ तीन नेता और थे।

तमाशे में डूबा हुआ देश

मैं पहले कहानियाँ लिखा करता था। अब मैंने कहानियाँ लिखना छोड़ दिया है क्योंकि कहानी लिखने से कोई बात नहीं बनती। झूठे सच्चे पात्र गढ़ना, इधर उधर की घटनाओं को समेटना, चटपटे संवाद लिखना, अपनी पढ़ी हुई किताबों की जानकारियों और अपने ज्ञान को कहानी में उलट देने से क्या होता है? मैं अपने दूसरे कहानीकार मित्रों को सलाह देता हूँ कि वे कहानी वहानी लिखने का काम छोड़ दें। हमारे इस देश में जहाँ रोज, हर पल, हर जगह कहानी से ज्यादा निर्मम घट रहा हो वहाँ कहानी लिखना बेकार की बात है। अपने चारों तरफ निगाह उठा कर देखिए, आपको बिखरी पड़ी कहानियाँ देख कर अपने कहानीकार होने पर शर्म आएगी जो मुझे आ चुकी है और मैंने कहानियाँ लिखना बंद कर दिया है। लेकिन चूँकि लिखने की आदत पड़ चुकी है और लिखे बिना चैन भी नहीं आता इसलिए सोचा है मैं कहानियाँ न लिख कर ‘वाक्या’ लिखा करूँगा। ‘वाक्या’ उर्दू का शब्द है जिसका मतलब ‘घटना’ निकाला जा सकता है लेकिन शायद बात पूरी बनेगी नहीं। ‘वाक्या’ किसी ऐसी सच्ची घटना का विवरण कहा जा सकता है जो रोचक, नाटकीय और मनोरंजक हो। केवल घटना मात्र न हो। अगर मैं आपको सिर्फ घटनाएँ सुनाने लगूँगा तो उसमें कुछ मजा न आएगा और आप मुझे बेवकूफ और मूर्ख समझ कर पढ़ना बंद कर देंगे। हो सकता है यह काम आप ‘वाक्या’ सुनने के बाद भी करें लेकिन मुझे अब भी उम्मीद है कि और कुछ करें या न करें ‘वाक्ये’ को सुन लेंगे। यह सच्चा वाक्या है। बहरहाल सच्चाई तो वैसे भी सामने आ जाएगी। मेरे कहने से न सच झूठ हो सकता है और न झूठ सच हो जाएगा।

हमारे ही देश के एक शहर में एक आदमी गायब हो गया और दो कुत्ते के पिल्ले गायब हो गए। मैं शहर का नाम नहीं बताऊँगा क्योंकि वाक्यानिगार होने का यह मतलब नहीं है कि मैं लोगों का दिल दुखाऊँ और अपना जीना हराम कर लूँ। आप जानते ही हैं कि आज हमारे अहिंसक देश में हर तरह की हिंसा तरक्की पर है। पहले जो बात तू तू मैं मैं पर खत्म हो जाती वह अब हत्या का कारण बन जाती है। अब तो हत्यारों का सम्मान होता है। मैं जिस इलाके का रहनेवाला हूँ वहाँ जिसने जितनी हत्याएँ की होती हैं उसका उतना सम्मान होता है। यही कारण है कि आज तक मेरे इलाके में मेरा सम्मान नहीं हो सका है क्योंकि मैं मक्खी मारने लायक भी नहीं हूँ। सम्मान के मानदंड बदल गए हैं। इसे साबित करने के लिए मिसाल के लिए एक और वाक्या भी है। विधान सभा के चुनाव हो जाने के बाद कुछ नेतागण विधायक कैंटीन में बैठे बातचीत कर रहे थे और सब एक दूसरे से पूछ रहे थे कि आपने कहाँ से ‘कंटेस्ट’ किया था। ध्यान दें कि उनमें लोकतंत्र की भावना कितनी प्रबल थी। वे हारने या जीतने की बात नहीं कर रहे थे, केवल ‘कंटेस्ट’ करने की बात कर रहे थे। सबने बताया कि उन्होंने कहाँ कहाँ से ‘कंटेस्ट’ किया है। एक आदमी से पूछा गया तो उसने कहा कि मैंने कहीं से ‘कंटेस्ट’ नहीं किया है। सब उसे देख कर हैरत में पड़ गए और कहा, जाइए जा कर काउंटर से छह चाय ले आइए।

अब बात लोकतंत्र की शुरू हो गई है तो एक वाक्या और सुनते चलिए। विधान सभा के सामने किसी मुद्दे पर अनिश्चितकालीन अनशन जारी था। किसी सामाजिक सरोकार के मुद्दे पर किसी संस्था की ओर से प्रतिदिन एक आदमी अनशन पर बैठता था। मैं उधर से गुजर रहा था। मैंने देखा कि अनशन पर बैठा आदमी तो पम्मी शर्मा है। मैं उसे जानता हूँ। वह उभरता हुआ नेता है और उसने अपने लिए सभी पार्टियों के दरवाजे खुले रखे हैं। मैंने सोचा क्यों न पम्मी शर्मा से मिल लूँ, ऐसी कठिन घड़ी में मेरे दो शब्द उसे ताकत देंगे और फिर पम्मी से कोई काम पड़ा तो उसे याद रहेगा कि मैंने कठिन क्षणों में उससे कुछ अच्छे शब्द कहे थे। गरज यह कि मैं उसके पास गया। वह मुझे देख कर इतना खुश हो गया जितना पहले न होता था। उसने बताया कि अनशन चालीस दिन से चल रहा है, मुझे अपने देश के विकसित लोकतंत्र पर गर्व हुआ। मैंने उसकी तारीफ की। उसने कहा – ‘यार, एक दिन के लिए तुम भी अनशन पर बैठ जाओ।’

मैं पहले तो चौंका, कुछ घबराया पर उसने कहा – ‘यार एक दिन की तो बात है, सुबह बैठोगे… शाम को खत्म हो जाएगा।’

मैं तैयार हो गया। सोचा ठीक है यार देश की लोकतंत्रिक ताकतों को मजबूत करने के लिए इतना तो करना चाहिए।

मैं अगले दिन सुबह ही सुबह वहाँ पहुँच गया। वहाँ सात आठ लोग चाय पी रहे थे। पम्मी शर्मा भी था। उसने मुझे गद्दी पर बैठाया। गले में गेंदे के फूलों की माला डाली। तिलक लगाया। मेरा अनशन जारी हो गया। मैं अपनी आत्मा को उत्फुल्ल महसूस करने लगा। थोड़ी देर में पम्मी मेरे पास आया और बोला – ‘किसी आदमी का इंतिजाम कर लेना।’

मैं हैरत से उसकी तरफ देखने लगा। वह समझ गया था कि मैं अभी तक नहीं समझ पाया हूँ।

वह बोला – ‘जो अनशन से हटेगा… उसे टेंटवाले का, चायवाले का, जूसवाले का, माली का ‘पेमेंट’ करना होगा।’

मेरे तो पैरों तले से जमीन निकल गई। मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा – ‘यार, उस संगठन के लोग कहाँ हैं जिन्होंने अनशन कराया है?’ उसने कहा – ‘वे तो सब अपने अपने घर चले गए हैं… तुम्हें कुछ नहीं करना बस एक आदमी का इंतिजाम कर लो… और सुनो…’ वह जाने से पहले बोला – ‘शाम को जूसवाले से जूस मँगा लेना, उसके यहाँ भी हिसाब चल रहा है।’ पम्मी चला गया।

पम्मी ने अपनी टोपी मेरे सिर में फिट कर दी थी। मैं अब समझा कि यही है हमारा लोकतंत्र। अब मेरे साथ क्या हुआ यह मैं आपको नहीं बताऊँगा। बस यह समझ लीजिए कि अब मैं उस शहर नहीं जाता जहाँ अनशन पर बैठा था। क्योंकि टेंटवाला, चायवाला, जूसवाला, माली सब मुझे तलाश कर रहे हैं। पम्मी से मैंने जब यह बताया था कि यार टेंटवाला, चायवाला वगैरा मुझे खोज रहे हैं तो वह लापरवाही से बोला था – ‘खोजने दो सालों को, इस देश में यही हो रहा है। किसी न किसी को कोई न कोई खोज रहा है और किसी को कोई नहीं मिलता। तुम आराम से अपने लिखने पढ़ने के काम में लग जाओ।’

मैं पम्मी की सलाह पर लिखने पढ़ने के काम में लग गया हूँ तब ही यह वाक्या लिख रहा हूँ।

माफ कीजिएगा मैंने बात शुरू की थी, एक शहर में एक आदमी और कुत्ते के पिल्लों के गायब होने से लेकिन होते हुआते मैं देश के लोकतंत्र पर आ गया। दरअसल वाक्यानिगारों की यही कमी होती है, वो बात शुरू तो कर देते हैं पर जानते नहीं कि बात कहाँ पहुँचेगी।

तो जनाब एक शहर में एक आदमी गायब हो गया। उसकी पत्नी पता चलाने पुलिस के पास गई तो पुलिस ने कहा कि अभी तक कोई सिरकटी लाश नहीं मिली है, जैसे ही मिलेगी उसे बता दिया जाएगा। आदमी की पत्नी यह सुन कर डर गई। पुलिस ने कहा – ‘इस देश में मौत से डरोगी तो रह ही नहीं सकती। हम लोग मौत से नहीं डरते। आत्मा पर हमारा विश्वास है। मौतें तो इस देश में ऐसे आती हैं जैसे दूसरे देशों में बहार आती है। देखो दस पाँच हजार औरतें तो जला दी जाती हैं, दस बीस हजार सड़कों पर कुचल कर मर जाते हैं, पता नहीं कितने दंगों में मार दिए जाते हैं, अकाल और बाढ़ की तो पूछो ही मत। नौकरी पाने के इच्छुक गोली खा कर मर जाते है। आतंकवादी हजारों को मार डालते हैं। तो देश क्या है बूचड़खाना है। अब काजल की कोठरी में रह कर काला होने से क्या डरना… शुक्र कर, तेरे आदमी की अभी लाश नहीं मिली है। हो सकता है अपहरण हो गया हो। फिरौती के लिए चिट्ठी या फोन आए।’

औरत बोली – ‘दरोगा जी, हमारे पास क्या है जो कोई फिरौती के लिए अगवा करेगा! दो टाइम खाने को नहीं जुटता।’

‘तब तो अपहरण की ट्रेनिंग लेनेवालों ने अभ्यास के तौर पर तेरे पति का अपहरण कर लिया होगा।’

‘ये क्या होता है दरोगा जी।’

‘देख, देश में बहुत से प्राइवेट स्कूल कालिज खुल गए हैं। अपहरण उद्योग के रिटायर्ड लोगों ने मिल कर ‘अपहरण कालिज’ खोल दिया है। अच्छी फीस लेते हैं… वे अपने छात्रों से कहते हैं कि नमूने के तौर पर किसी का अपहरण करके दिखाओ… वे लोग तेरे पति को छोड़ देंगे… बशर्ते कि …’ पुलिसवाला बोलते बोलते रुक गया।

‘क्या बशर्ते कि दरोगा जी?’ औरत ने पूछा।

‘देख, यह भी हो सकता है कि अपहरण के प्रयोग के बाद उन्होंने तेरे पति को किसी दूसरे स्कूल में पहुँचा दिया हो।’

‘क्या मतलब दरोगा जी?’

‘देख हत्या करना, गोली मारना, गला काटना आदि आदि सिखाने के भी तो स्कूल खुले हैं न?’

औरत रोने लगी। पुलिस बोली – ‘रो मत, हो सकता है मानव अंगों की तस्करी करनेवाले किसी गिरोह ने पकड़ लिया हो। तेरा पति आ तो जाएगा पर ये समझ ले एक गुर्दा न होगा, या एक आँख न होगी, या मान ले …’ औरत रोने लगी। पुलिस ने कहा अब यहाँ थाने में न रो। यहाँ औरतें रोती हैं तो लोग जाने क्या क्या समझते हैं। यहाँ से तो तुझे हँसते हुए जाना चाहिए।’

ये तो हुई आदमी के गुम हो जाने की बात। अब सुनें कुत्ते के पिल्लों की गुमशुदगी की दास्तान। दरअसल जो कुत्ते के पिल्ले खोए है उन्हें कुत्ते का पिल्ला कहने से भी डर रहा हूँ। उसकी वजह है। आपको मालूम ही है कि कुछ साल पहले अमेरिका के राष्ट्रपति जब अपने दल बल के साथ दिल्ली आए थे तो उनके साथ कुत्ते भी थे। उनके कुत्तों की प्रतिष्ठा, गरिमा, पद आदि के बारे में पता न होने के कारण एक भारतीय अधिकारी ने उन्हें कुत्ता कह दिया था। इसी बात पर उस अधिकारी के खिलाफ कुत्तों की मानहानि का दावा कर दिया गया था। अदालत में अमेरिकी सरकार के प्रतिनिधि ने कहा था, ये कुत्ते नहीं हैं – इनके नाम और पद हैं। एक का नाम जैक जॉनी है और वह मेजर के पद पर है। दूसरे का नाम स्टीव शॉ है जो कैप्टेन है। तीसरी कुतिया का नाम लिंडा जॉन्स है जिसने अभी अभी ज्वाइन किया है और वह सेकेंड लेफ्टीनेंट है। अदालत ने इन अधिकारियों की मानहानि करने के सिलसिले में संबंधित अधिकारी को सजा सुनाई थी और यह आदेश दिया था कि भविष्य में इन कुत्तों को कुत्ता नहीं कहा जाएगा, यही वजह रही कि राजधानी के समाचारपत्र बड़े आदर और सम्मान से कुत्तों के नाम और पद छापते रहे। आप हम सब जानते हैं कि वैसे भी हमारे समाचारपत्र कुत्तों का कितना ध्यान रखते हैं क्योंकि उससे लाभ हानि जुड़ी होती है।

हुआ यह कि एक रात दो बजे मंत्रीपुत्र के घर से थाने फोन आया। थाने की नींद उड़ गई। मंत्रीपुत्र ने डाँटा और कहा कि तुम सोते रहते हो और चोर चोरी करते रहते हैं। तुम्हें पता है बेबी रतन और बेबी गौरी का अपहरण हो गया है। थाने में तुरंत कार्यवाही की बात उठी। पर सब जानते थे कि मंत्रीपुत्र अभी तक अविवाहित है और उसने कसम खाई हुई है कि जब तक स्वयं मंत्री नहीं बन जाएगा शादी नहीं करेगा। ऐसी हालत में बेबी रतन और बेबी गौरी कहाँ से आ गए। इस सवाल का जवाब कोई न दे सका तो हवालात में बंद एक अपराधी ने दिया। उसने बताया, बेबी रतन और बेबी गौरी मैडम लूसी और सर जॉनसन की औलादें हैं जिन्हें मंत्रीपुत्र यू.एस. से खरीद कर लाए थे और अनजान तथा अनाड़ी इन्हें कुत्ते के पिल्ले कह उठे थे जिस पर उसी समय उनकी जुबान खिंचवा ली गई थी।

रतन और गौरी के अपहरण की खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। स्थानीय पत्रकारों के बाद टी.वी. चैनल वाले धमक पड़े और पूरा थाना कैमरों, लाइटों, कटरों से भर गया। कुछ टी.वी.वाले मंत्रीपुत्र की कोठी पर पहुँच गए। सबसे पहले यह ‘ब्रेकिंग न्यूज’ ‘जल्वा चैनल’ ने दी। उसके बाद यह ब्रेकिंग न्यूज ‘समकुल चैनल’ पर शुरू हुई। उसके बाद तो घमासान शुरू हो गया। हर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज स्टोरी चलने लगी, रतन और गौरी के ‘स्टिल्स’ और ‘फुटेज’ की माँग इतनी बढ़ गई कि प्रोडक्शन हाउसोंवाले पागल हो गए।

चैनलों में तूफान मच गया। एक रिपोर्टर की नौकरी इसलिए चली गई कि वह रतन की फोटो नहीं ला सका। दूसरे चैनल में किसी का प्रोमोशन हो गया कि वह मंत्रीपुत्र की ‘बाइट’ ले आया। एक पत्रकार को पीटा गया, क्योंकि उसने मंत्रीपुत्र के कुत्ताघर, जिसे अंग्रेजी में सब ‘केनल्ल’ कहते थे, में घुसने की कोशिश की थी। दो पुलिसवाले सस्पेंड हो गए क्योंकि चार घंटे हो गए थे और उन्होंने रतन और गौरी का पता नहीं लगाया था। डी.एम. का ट्रांसफर होते होते बचा और एस.पी. को ‘कारण बताओ’ नोटिस दे दिया गया।

चैनलवालों ने पुलिस को पटाने का काम शुरू किया। वे चाहते थे कि इस पूरे ऑपरेशन में जिसे पुलिस ने ‘आपरेशन ट्रुथ’ का नाम दिया था, वे लगातार पुलिस के साथ रहें। ‘जल्वा’ चैनलवालों ने पुलिस को यह समझा कर पटाया कि ‘आपरेशन ट्रुथ’ के बाद चैनल पुलिस का इंटरव्यू दिखाएगा। यह बात ‘चैनल फोर फाइव सिक्स’वाले को पता चल गई। उन्होंने पुलिस को पच्चीस हजार नकद देने का वायदा किया। कहा यह कि ‘जल्वा’वालों की जगह उन्हें पूरे ‘ऑपरेशन ट्रुथ’ में साथ रखा जाए। यह बात ‘मून चैनल’वालों को पता चली तो उन्होंने गृह मंत्रालय के एक सीनियर ऑफीसर से फोन कराया और आदेश दिया गया कि पुलिस ‘मून चैनल’वालों को प्राथमिकता दे। बात इतने ऊपर पहुँच चुकी थी कि पुलिसवाले डरने लगे। डी.एम. को लगने लगा कि कल कहीं प्रधानमंत्री सचिवालय से फोन न आ जाए।

पुलिस ने छापे मारने शुरू किए। चार टीमें बनाई गईं और रात दिन रतन और गौरी की तलाश का काम शुरू हो गया। इसी दौरान मंत्रीपुत्र के पास फोन आया कि फलाँ फलाँ जगह पचास करोड़ रुपया न पहुँचाया गया तो रतन और गौरी की हत्या कर दी जाएगी। अब स्टोरी का एक नया ‘ऐंगिल’ निकल आया। चैनल विशेषज्ञों को बुला कर उनसे बहस कराने लगे। सुखद यह रहा कि चैनलवालों को इस मसले में विशेषज्ञ बदलने नहीं पड़े। दो चार आदमी जो राजनीति, समाज, वनस्पतिशास्त्र और खगोलशास्त्र के विशेषज्ञ थे और हर तरह के कार्यक्रमों में टी.वी. पर आया करते थे वही गौरी और रतनवाले मामले में भी आए और दर्शक यह सोच कर अचंभे में पड़ गए कि राजनीति के मर्मज्ञ कुत्तों के बारे में भी पूरी जानकारी रखते हैं। चैनलवाले गर्व से कहते थे कि विशेषज्ञता और ‘प्रोफेशलनिज्म’ के जमाने में हमने ऐसे लोग खोज रखे हैं जो संसार की किसी भी समस्या, ज्ञान विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में, लोक परलोक की किसी भी घटना के बारे में विद्वत्तापूर्ण ढंग से विचार व्यक्त कर सकते हैं।

ईश्वर का करना कुछ ऐसा हुआ कि पुलिस, सी.आई.डी., आई.बी., रॉ. और दूसरी खुफिया एजेन्सियों ने मिल कर रेड डालने शुरू किए और आखिरकार पता चला कि एक जगह शहर के बाहर एक फार्म हाउस में रतन और गौरी को रखा गया है। अपहरणकर्ता पूरे असलहे से लैस हैं। उनके पास बोफोर्स तोपों से ले कर ‘एंटी-एयरक्राफ्ट गन’ तक मौजूद है। अब तो सेना से मदद लेने की जरूरत पड़ी। गृह मंत्रालय ने सुरक्षा मंत्रालय से निवेदन किया और एक ले. जनरल के साथ ब्रिगेड भेज दी गई।

टी.वी. चैनलों पर बहस का मुद्दा यह था कि इस ‘ऑपरेशन ट्रुथ’ में रतन और गौरी सलामत निकल आएँगे या नहीं। यह भी जानकारी मिली कि अपहरणकर्ताओं ने मार्केट से दो सौ टन टी.एन.टी. भी खरीदी है और उसका जखीरा भी उनके पास है। टी.वी. चैनलों के वही विशेषज्ञ जो वनस्पति विज्ञान से ले कर सुपरसोनिक जेटों तक के विशेषज्ञ थे कहने लगे इतना ‘एक्सप्लोसिव मैटीरियल’ तो पूरे फार्म हाउस को ज्वालामुखी की तरह उड़ा देगा और जाहिर है उसमें नन्हे मुन्ने रतन और गौरी के बचने की क्या उम्मीद होगी। तब कहा गया कि यह दरअसल मनोवैज्ञानिक लड़ाई है। इसे भारत अकेले नहीं लड़ सकता। इसमें तो जब तक अमेरिका का सपोर्ट नहीं होगा यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। अमेरिका से कहा गया तो वहाँ से बड़ा सार्थक और उत्साहवर्धक जवाब आया। अमेरिका ने कहा कि वह तो संसार के हर कोने में शांति स्थापित करने के लिए दृढ़संकल्प है। जहाँ भी शांति भंग होने, मानव अधिकारों के हनन का सवाल उठता है अमेरिका उठ खड़ा होता है। और अब चूँकि भारत में ऐसी स्थिति आ गई है इसलिए अमेरिका अवश्य ही आएगा। यह भारत की सभ्यता है कि वह अमेरिका को आमंत्रित कर रहा है। यदि न भी कर रहा होता तो अमेरिका आता क्योंकि वह विश्व में शांति स्थापित करना चाहता है और यह उसके ‘एजेंडे’ का एक और पहला मुद्दा है। यही नहीं, अमेरिका ने घोषणा कर दी कि उसकी सेनाएँ ध्वनि से तेज चलनेवाले विमानों पर बैठ कर भारत के लिए रवाना हो चुकी हैं। हिंद महासागर में अमेरिकी बेड़ों को भारत की तरफ कूच करने का आदेश दे दिया गया है। और यह भी कहा गया कि भारत को चाहिए कि सेनाओं के पहुँचने से पहले कोकाकोला और पेप्सीकोला का पर्याप्त भंडार कर ले। मैक्डानाल्ड हैंबर्गर, अंकिल चिप्स, कनटकी चिकन, एफ.टी.जे. वगैरा की जितनी ज्यादा दुकानें खोली जा सकती हों खुलवा दे क्योंकि अमेरिकी सैनिक जाहिर है दाल रोटी नहीं खाएँगे। चूँकि यह आदेश था इसलिए इंतिजाम पूरा हो गया। बड़े बड़े अमेरिकी बाजार खुल गए जहाँ सुई से ले कर हवाई जहाज तक उपलब्ध था।

ऐसी तैयारी का नतीजा भी अच्छा निकला। लेजर बम से रतन और गौरी के एक अपहरणकर्ता को मार गिराया गया। दूसरा एक तहखाने में छिप गया था। उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी, उसे पकड़ा गया। अमेरिकी सैनिकों ने कहा कि हम इसे अमेरिका ले जाएँगे और चिड़ियाघर में बंद कर देंगे ताकि विश्व शांति भंग करनेवालों के लिए एक सबक हो।

चूँकि अमेरिकी सैनिकों के लिए पेप्सी, कोला, बियर, हैंबरगर आदि का बड़ा स्टाक था इसलिए उन्हें वापस जाने की जल्दी नहीं थी। उन्होंने कहा कि हम तो आपके देश से विश्वशांति भंग करनेवाली सभी शक्तियों को नष्ट करके ही जाएँगे। उनके इस विचार का स्वागत किया गया और वे यहाँ पेप्सी पी पी कर मोटे होने लगे।

जिस दिन थाने में रतन और गौरी पहुँचे उसी दिन वहाँ एक सिरकटी लाश भी पहुँची। रतन और गौरी के मिल जाने की वजह से थाने के चारों तरफ दफा 104 लगा दिया गया था, क्योंकि ओ.वी. वैनों से रास्ता बंद हो गया था और दर्शकों का सैलाब था जो अमेरिकी सैनिकों और रतन गौरी को देखने के लिए उमड़ पड़ा था। कई बार लाठी चार्ज हो चुका था पर दर्शक काबू में नहीं आ रहे थे। वे जयजयकार कर रहे थे। खुशी के मारे आपे से बाहर हुए जा रहे थे।

इसी बीच मैली कुचैली धोती बाँधे, तीन बच्चों को सँभाले किसी तरह गिरती पड़ती एक औरत थाने पहुँची। उसे पता लग गया था कि आज एक सिरकटी लाश थाने लाई गई है। किसी न किसी तरह यह औरत थाने के अंदर आ गई। वहाँ टीवी चैनलवाले भरे पड़े थे और अमेरिकी सैनिकों के साथ सिगरेटें पी रहे थे। एकआध बीयर की घूँट भी मिल जाती थी।

टी.बी.सी. चैनल की राधिका रमन ने देखा कि एक औरत सिरकटी लाश के पास खड़ी उसे पहचानने की कोशिश कर रही है। उसके साथ तीन छोटे छोटे बच्चे भी खड़े हैं। राधिका ने अपने बॉस सत्यकाम से कहा – ‘सर, ये देखिए कितनी अच्छी स्टोरी है। सिरकटी लाश को यह औरत पहचानने की कोशिश कर रही है। तीन बच्चे पास खड़े हैं। इसे शूट करें सर?’

सत्यकाम बिगड़ कर बोला – ‘क्या चाहती हो चैनल बंद हो जाए।’

‘नहीं सर… लेकिन क्यों?’ राधिका ने कहा।

सत्यकाम बोले – ‘इस औरत, बच्चों और लाश का ‘विजुअल’ देख कर सी.ई.ओ. मिस्टर मेहरा मेरी तो छुट्टी कर देंगे।’

‘क्यों सर?’

सत्यकाम बोले – ‘ओ माई गॉड… तुम्हें ये भी बताना पड़ेगा? अरे हमारे चैनल पर ‘ऐड’ आते हैं, विज्ञापन समझीं?’

‘हाँ सर।’

वो विज्ञापन किसके लिए होते हैं? कौन वह सामान खरीदता है? वह क्या देखना… ‘चलो चलो कैमरा लगाओ… रिफ्लेक्टर… साउंड…’ चैनल का संवाददाता चिल्लाने लगा क्योंकि थाने के अंदर बड़े खूबसूरत मंच पर रतन और गौरी को लाया जा रहा था। उनके पीछे पीछे मंत्रीपुत्र, कमल का फूल बना, आ रहा था। पीछे अधिकारी, सेना के पदाधिकारी आदि थे। संगीत बज रहा था। कबूतर और गुब्बारे हवा में छोड़े जा रहे थे। आतिशबाजी आसमान पर रंगबिरंगे करिश्मे दिखा रही थी। पूरी इमारत जगमगा रही थी। लगता था आज छब्बीस जनवरी या पंद्रह अगस्त है। चारों तरफ उल्लास, मस्ती, विजय का भव्य प्रदर्शन व्याप्त था।

उस औरत ने सिरकटी लाश पहचान ली थी। यह उसका पति ही था, औरत रो रही थी, पर मौज, मस्ती, आनंद, उल्लास, जश्न, गीत, संगीत के माहौल में उसकी आवाज कोई नहीं सुन रहा था।

उसके बच्चे अपने फटे पुराने कपड़ों में सहमे, सिकुड़े, मुँह खोले मंच पर होनेवाले तमाशे में डूबे हुए थे। वे न अपनी माँ को देख रहे थे, न बाप की सिरकटी लाश को।

केक

न्होंने मेज़ पर एक ज़ोरदार घूंसा मारा और मेज़ बहुत देर तक हिलती रही। ‘मैं कहता हूं जब तक ऐट ए टाइम पांच सौ लोगों को गोली से नहीं उड़ा दिया जायेगा, हालात ठीक नहीं हो सकते।’ अपनी खासी स्पीकिंगपावर नष्ट करके वह हांफने लगे। फिर उन्होंने अपना ऊपरी होंठ निचले होंठ से दबाकर मुझे घूरना शुरू किया। वह अवश्य समझ गये थे कि मैं मुस्करा रहा हूं। फिर उन्होंने घूरना बंद कर दिया और अपनी प्लेट पर पिल पड़े।रोज़ ही रात को राजनीति पर बात होती है। दिन के दो बजे से रात आठ बजे तक प्रूफ़रीडिंग का घटिया काम करते-करते वह काफ़ी खिसिया उठते हैं।

मैंने कहा, ‘उन पांच सौ लोगों में आप अपने को भी जोड़ रहे हैं?’
‘अपने को क्यों जोडूं? क्या मैं क्रुक पॉलिटीशियन हूं या स्मगलर हूं या करोड़ों की चोरबाज़ारी करता हूं?’ वह फिर मुझे घूरने लगे तो मैं हंस दिया। वह अपनी प्लेट की ओर देखने लगे।
‘आप लोग तो किसी भी चीज़ को सीरियसली नहीं लेते हैं।’
खाने के बाद उन्होंने जूठी प्लेटें उठायीं और किचन में चले गये। कुर्सी पर बैठे-ही-बैठे मिसेज़ डिसूजा ने कहा, ‘डेविड, मेरे लिये पानी लेते आना।’

डेविड जग भरकर पानी ले आये। मिसेज़ डिसूजा को एक गिलास देने के बोले, ‘पी लीजिए मिस्टर, पी लीजिए।’
मेरे इनकार करने पर जले-कटे तरीके से चमके, ‘थैंक्स टू गॉड! यहां दिन-भर पानी तो मिल जाता है। अगर इंद्रपुरी में रहते तो पता चल जाता। ख़ैर, आप नहीं पीते तो मैं ही पिये लेता हूं,’ कहकर वह तीन गिलास पानी पी गये।

खाने के बाद इसी मेज पर डेविड साहब काम शुरू कर देते हैं। आज भी वह प्रूफ़ का पुलिंदा खोलकर बैठ गये। उन्होंने मेज़ साफ की। मेज़ के पाये की जगह इसी ईंटों को हाथ से ठीक किया, ताकि मेज़ हिल न सके। फिर टूटी कुर्सी पर बैठे-बैठे अचानक अकड़ गये और नाक का चश्मा इस तरह फिट किया जैसे बंदूक में गोलियां भर ली हों। होंठ खास तरह से दबा लिये। प्रूफ़ पांडुलिपि से मिलाने लगे। गोलियां चलने लगीं। इसी तरह डेविड साहब रात बारह बजे तक प्रूफ़ देखते रहते हैं। इसी बीच से कम-से-कम पचास बार चश्मा उतारते और लगाते हैं। बंदूक में कुछ खराबी हैं। पांच साल पहले आंखें टैस्ट करवायी थीं और चश्मा खरीदा था। अब आंखें ज्यादा कमज़ोर हो चुकी हैं, परंतु चश्मे का नंबर नहीं बढ़ पाया है। हर महीने की पंद्रह तारीख को वह अगले महीने आंखें टैस्ट करवाकर नया चश्मा खरीदने की बात करते हैं। बंदूक की कीमत बहुत बढ़ चुकी है। प्रूफ़ देखने के बीच पानी पीयेंगे तो वह ‘बासु की जय` का नारा लगायेंगे। ‘बासु` उनका बॉस है जिससे उन्हें कई दर्जन शिकायतें मुझे भी हैं। ऐसी शिकायतें पेश्तर छोटा काम करने वालों को होती हैं।

‘बड़ा जान लेवा काम है साहब।’ वे दो-एक बार सिर उठाकर मुझसे कहते हैं। मैं ‘हूं-हां` में जबाव देकर बात आगे बढ़ने नहीं देता। लेकिन वह चुप नहीं होते। चश्मा उतार कर आंखों की रगड़ाई करते हैं, ‘बड़ी हाईलेविल बंगलिंग होती है। अब तो छोटे-मोटे करप्शन केस पर कोई चौंकता तक नहीं। पूरी मशीनरी सड़-गल चुकी है। ये आदमी नहीं, कुत्ते हैं कुत्ते. . .। मैं भी आजादी से पहले गांधी का स्टांच सपोर्टर था और समझता था कि नॉन-वाइलेंस इज द बेस्ट पॉलिसी। लटका दो पांच सौ आदमियों को सूली पर। अरे, इन सालों का पब्लिक ट्रायल होना चाहिए, पब्लिक ट्रायल!’

‘पब्लिक ट्रायल कौन करेगा, डेविड साहब,’ मैं झल्ला जाता हूं। इतनी देर से लगातार बकवास कर रहे हैं।

वे दोनों हाथों से अपना सिर पकड़कर बैठ जाते हैं।
‘मासेज में अगर लेफ़्ट फोर्सेज. . .’, वे धीरे-धीरे बहुत देर तक बड़बड़ाते रहते हैं।
मैं जासूसी उपन्यास के नायक को एक बार फिर गोलियों की बौछार से बचा देता हूं।
वह कहते हैं, ‘आप, भी क्या दो-ढाई सौ रुपये के लिए घटिया नॉवल खिला करते हैं!’ मैं मुस्कराकर उनके प्रूफ़ के पुलिंदे की तरफ़ देखता हूं और वह चुप हो जाते हैं। गंभीर हो जाते हैं।

‘मैं सोचता हूं ब्रदर, क्या हम-तुम इसी तरह प्रूफ़ पढ़ते और जासूसी नॉवल लिखते रहेंगे? सोचो तो यार! दुनिया कितनी बड़ी है। यह हमें मालूम है कि कितनी अच्छी तरह से जिंद़गी गुजारी जा सकती है। कितना आराम और सुख है, कितनी ब्यूटी है. . .।’
‘परेशानी तो मेरे लिए है, डेविड साहब। आप तो बहुत से काम कर सकते हैं। मुर्गी-खाना खोल सकते हैं। बेकरी लगा सकते हैं. . .।’

वह आंखें बंद करके अविश्वास-मिश्रित हंसी हंसने लगते हैं। और कमरे की हर ठोस चीज़ से टकराकर उनकी हंसी उनके मुंह में वापस चली जाती है।
अक्सर खाने के बाद वे ऐसी ही बात छेड़ देते हैं। काम में मन नहीं लगता और वक्त बोझ लगने लगता है। जी में आता है कि लोहे की बड़ी-सी रॉड लेकर किसी फैशनेबुल कॉलोनी में निकल जाऊँ। डेविड साब तो साथ चलने पर तैयार हो जायेंगे। वह फिर बोलने लगते हैं और उनके प्रिय शब्द ‘बिच`, ‘क्रूक`, ‘नॉनसेंस`, ‘बंगलिंग`, ‘पब्लिक ट्रायल`, ‘एक्सप्लॉइटेशन`, ‘क्लास स्ट्रगल` आदि बार-बार सुनायी पड़ते हैं। बीच-बीच में वह हिंदुस्तानी गालियां फर्राटे से बोलते हैं।

‘अब क्या हो सकता है! पच्चीस साल तक प्रूफ़रीडरी के बाद अब और क्या कर सकता हूं। सन् १९४८ में दिल्ली आया था। अरे साब, डिफेंस कॉलोनी की ज़मीन तीन रुपये गज मेरे सामने बिकी है, जिसका दाम आज चार सौ रुपये है। निजामुद्दीन से ओखला तक जंगल था जंगल। कोई शरीफ़ आदमी रहने को तैयार ही नहीं होता था। अगर उस वक्त उतना पैसा नहीं था और आज. . .। सीनियर कैम्ब्रिज में तेरे साथ पॉटी पढ़ता था। अब अगर आप आज उसे देख लें तो मान ही नहीं सकते कि मैं उसका क्लासफेलो और दोस्त था। गोरा-चिट्टा रंग, ए-क्लास सेहत, एक जीप, एंबेसेडर और एक ट्रैक्टर है उसके पास। मिर्जापुर के पास फार्मिंग करवाता है। उस जमाने में दस रुपये बीघा ज़मीन खरीदी थी उसने। मुझसे बहुत कहा था कि तुम भी ले लो डेविड भाई, चार-पांच सौ बीघा। बिलकुल उसी के फार्म के सामने पांच सौ बीघे का प्लाट था। ए-क्लास फर्टाइल ज़मीन। लेकिन उस ज़माने में मैं कुछ और था।’ वह खिसियानी हंसी हंसे, ‘आज उसकी आमदनी तीन लाख रुपये साल है। अपनी डेयरी, अपना मुर्गीखाना-ठाठ हैं, सब ठाठ।’ डेविड साहब खुश हो गये जैसे वह सब उन्हीं का हो। प्रूफ़ के पुलिंदे को उठाकर एक कोने में रखते हुए बोले, ‘मेरी तो किस्मत में इन शानदार कमरे में मिसेज़ डिसूजा का किरायेदार होना लिखा था।’

मिसेज़ डिसूजा को पचास रुपये दो, कमरा मिल जायेगा। पच्चीस रुपये और दो तो सुबह नाश्ता मिल जायेगा और तीस रुपये दो रात का खाना, जिसे मिसेज़ डिसूजा अंग्रेज़ी खाना कहती हैं, मिल जायेगा। मिसेज़ डिसूजा के कमरे से लगी तस्वीरों को, जो प्राय: उनकी जवानी के दिनों की हैं, किरायेदार हटा नहीं सकता। किसी तस्वीर में वह मोमबत्ती के सामने बैठी किताब पढ़ रही हैं, तो किसी में अपन बाल गोद में रखे शून्य में देखने का प्रयत्न कर रही हैं। कुछ लोगों का परिचय अंग्रेज़ अफ़सर के रूप में करवाती हैं, पर देखने में वे सब हिन्दुस्तानी लगते हैं। एक चित्र मिसेज़ डिसूजा की लड़की का भी है, जो डेविड साहब की मेज़ पर रखा रहता है। लड़की वास्तव में कंटाप है। छिनालपना उसके चेहरे से ऐसा टपकता है कि अगर सामने कोई बर्तन रख दे तो दिन में दसियों बार खाली करना पड़े। उसे सिर्फ देखकर अच्छे-अच्छे दोनों हाथों से दबा लेते होंगे। कुछ पड़ोस वालों का यह भी कहना है कि इसी तस्वीर को देख-देखकर डेविड साहब ने शादी करने और बच्चा पैदा करने की क्षमता से हाथ धो लिये हैं। मिसेज़ डिसूजा देसी ईसाइयों की कई लड़कियां उनके लिए खोज चुकी हैं। परंतु सब बेकार। वह तो ढाई सौ वोल्टेज ही के करंट से जल-भुनकर राख हो चुके थे और एक दिन तंग आकर मिसेज़ डिसूजा ने मोहल्ले में उनको नामर्द घोषित कर दिया और उनके सामने कपड़े बदलने लगीं।

सुबह का दूसरा नाम होता है। जल्दी-जल्दी बिना दूध की चाय के कुछ कप। रात के धेये कपड़ों पर उलटा-सीधा प्रेस। जूते पर पॉलिश। और दिन-भर फ्रूफ़ करेक्ट करते रहने के लिए आंखों की मसाज। फ्रूफ़ के पुलिंदे। करेक्ट किये हुए और प्रेस से आये हुए। फिर करेक्ट किये हुए फिर आये हुए। धम्! साला ज़ोर से गाली दे मारता है, ‘देख लो बाबू, जल्दी दे दो। बड़ा साहब कॉलम देखना मांगता है।’ पूरी जिंद़गी घटिया किस्म के कागज पर छपा प्रूफ़ हो गयी है, जिसे हम लगातार करेक्ट कर रहे हैं।

घर से बाहर निकलकर जल्दी-जल्दी बस स्टॉप की तरफ़ दौड़ना, जैसे किसी को पकड़ना हो, हम दोनों एक ही नंबर की बस पकड़ते हैं। रास्तें में डेविड साहब मुझसे रोज़ एक-सी बातें करते हैं, ‘हरी सब्जियों से क्या फायदा है, किस सब्जी में कितना स्टार्च होता है। अंडे और मुर्गे खाते रहो तो अस्सी साल की उम्र में भी लड़का पैदा कर सकते हो।` बकरी और भैंस के गोश्त का सूक्ष्म अंतर उन्हें अच्छी तरह मालूम है। अंग्रेजी खाने के बारे में उनकी जानकारी अथाह है। केक में कितना मैदा होना चाहिए। कितने अंडे डाले जायें। मेवा और जेली को कैसे मिलाया जाये। दूध कितना फेंटा जाये। केक की सिकाई के बारे में उनकी अलग धरणाएं हैं। क्रीम लगाने और केक को सजाने के उनके पास सैकड़ों फार्मूले हैं जिन्हें अब हिंदुस्तान में कोई नहीं जानता। कभी-कभी कहते, ‘ये साले धोती बांधने वाले, खाना खाना क्या जानें! ढेर सारी सब्जी ले ली, तेल में डाली और खा गये बस, खाना पकाना और खाना मुसलमान जानते हैं या अंग्रेज। अंग्रेज़ तो चले गये, साले मुसलमानों के पास अब भैंसे का गोश्त खा-खाकर अकल मोटी करने के सिवा कोई चारा नहीं है। भैंसे का गोश्त खाओ, भैंसे की तरह अकल मोटी हो जायेगी और फिर भैंसे की तरह ही कोल्हू में पिले रहो। रात घर आकर बीवी पर भैंसे की तरह पिल पड़ो।`

आज फिर घूम-फिर कर वह अपने विषय पर आ गये।
‘नाश्ता तो हैवी होना ही चाहिए।’
मैंने हामी भरी। इस बात से कोई उल्लू का पट्ठा ही इनकार कर सकता है।

‘हैवी और एनरजेटिक?’ चलते-चलते वह अचानक रुक गये। एक नये बनते हुए मकान को देखकर बोले, ‘किसी ब्लैक मार्किटियर का मालूम होता है। फिर उन्होंने अकड़कर जेब से चश्मा निकाला, आंखों पर फिट करके मकान की ओर देखा। फ़ायर हुआ ज़ोरदार धमाके के साथ, और सारा मकान अड़-अड़ धड़ाम करके गिर गया।’

‘बस, एक गिलास दूध, चार-टोस्ट और मक्खन, पौरिज और दो अंडे।’ उन्होंने एक लंबी सांस खींची, जैसे गुब्बारे में से हवा निकल गयी हो।
‘नहीं, मैं आपसे एग्री नहीं करता, फ्रूट जूस बहुत ज़रूरी है। बिना. . .।’
‘फ्रूट जूस?’ वह बोले? ‘नहीं अगर दूध हो तो उसकी ज़रूरत नहीं है।’
‘पराठे और अंडे का नाश्ता कैसा रहेगा?’

‘वैरी गुड, लेकिन परांठे हलके और नर्म हों।’
‘और अगर नाश्ते में केक हो?’ वह सपाट और फीकी हंसी हंसे।

कई साल हुए। मेरे दिल्ली आने के आसपास। डेविड साहब ने अपनी बर्थ डे पर केक बनवाया था। पहले पूरा बजट तैयार कर लिया गया था। सब खर्च जोड़कर कुल सत्तर रुपये होते थे। पहली तारीख को डेविड साहब मैदा, शक्कर और मेवा लेने खारीबावली गये थे। सारा सामान घर में फिर से तौला गया था। फिर अच्छे बेकर का पता लगाया गया था। डेविड साहब के कई दोस्तों ने दरियागंज के एक बेकर की तारीफ़ की तो वह उससे एक दिन बात करने गये बिलकुल उसी तरह जैसे दो देशों के प्रधनमंत्री गंभीर समस्याओं पर बातचीत करते हैं। डेविड साहब ने उसके सामने एक ऐसा प्रश्न रख दिया किया वह लाजवाब हो गया, ‘अगर तुमने सारा सामान केक में न डाला और कुछ बचा लिया तो मुझे कैसे पता चलेगा?` इस समस्या का समाधान भी उन्होंने खुद खोज लिया। कोई ऐसा आदमी मिले जो बेकर के पास उस समय तक बैठा रहे, जब तक कि केक बनकर तैयार न हो जाये। डेविड साहब को मिसेज़ डिसूजा ने इस काम के लिए अपने-आपको कई बार ‘ऑफ़र` किया। मगर वास्तव में डेविड साहब को मिसेज़ डिसूजा पर भी एतबार नहीं था। हो सकता है बेकर और मिसेज़ डिसूजा मिलकर डेविड साहब को चोट दे दें। जब पूरी दिल्ली में ‘मोतबिर` आदमी नहीं मिला तो डेविड साहब ने एक दिन की छुट्टी ली। मैंने इस काम में कोई रुचि नहीं दिखायी थी, इसलिए उन दिनों मुझसे नाराज़ थे और पीठ पीछे उन्होंने मिसेज़ डिसूजा से कई बार कहा कि जानता ही नहीं ‘केक` क्या होता है। मैं जानता था कि ‘केक` बन जाने के बाद किसी भी रात को खाने के बाद मुर्गी खाना खोलने वाली बात करके डेविड साहब को खुश किया जा सकता है या उनके दोस्त के बारे में बात करके उन्हें उत्साहित किया जा सकता है, जिसका मिर्जापुर के पास बड़ा फार्म है और वह वहां कैसे रहता है।

केक बर्थ डे से एक दिन पहले आ गया था। अब उसे रखने की समस्या थी। मिसेज़ डिसूजा के घर में चूहे ज़रूरत से ज्यादा हैं। इस आड़े वक्त में मैंने उनकी मदद की। अपने टीन के बक्स में से कपड़े निकालकर तौलिये में लपेटकर मेज़ पर रख दिये और बक्स में केक रख दिया गया। मेरा बक्स पूरे एक महीने घिरा रहा।

हम सबको उस केक के बारे में बातचीत कर लेना बहुत अच्छा लगता है। डेविड साहब तो उसे अपना सबसे बड़ा ‘एचीवमेंट` मानते हैं। और मैं अपने बक्स को खाली कर देना कोई छोटा कारनामा नहीं समझता। उसके बाद से लेकर अब तक केक बनवाने के कई प्रोग्राम बन चुके हैं। अब डेविड साहब की शर्त यह होती है कि सब ‘शेयर` करें। ज्यादा मूड में आते हैं तो आध खर्च उठाने पर तैयार हो जाते हैं।

उन्हीं के अनुसार, बचपन से उन्हें दो चीज़ें पंसद रही हैं जॉली और केक। जॉली की शादी किसी कैप्टन से हो गयी, तो वह धीरे-धीरे उसे भूलते गये। पर केक अब भी पसंद है। केक के साथ कौन शादी कर सकता है? लेकिन खारी-बावली के कई चक्कर लगाने पर उन्होंने महसूस किया कि केक की भी शादी हो सकती है। फिर भी पसंद करना बंद न कर सके।

दफ़्त़र से लौटकर आया तो सारा बदन इस तरह दर्द कर रहा था, जैसे बुरी तरह से मारा गया हो। बाहरी दरवाज़ा खोलने के लए मिसेज़ डिसूजा आयीं। वह शायद किचन में अपने खटोले पर सो रही थीं। अंदर आंगन में उनके गुप्त वस्त्र सूख रहे थे। ‘गुप्त वस्त्र` शब्द सोचकर हंसी आयी। कोई अंग गुप्त ही कहां रह गया है! डी.टी.सी. की बसों में चढ़ते-उतरते गुप्त अंगों के भूगोल का अच्छा-खासा ज्ञान हो गया है। उनकी गरमाहट, चिकनाई, खुदरेपन, गंदेपन और लुभावनेपन के बारे में अच्छी जानकारी है। ‘आज जल्दी चले आये।` मिसेज़ डिसूजा ‘गुप्त वस्त्र` उतारने लगीं, ‘चाय पीयोगे?` मैंने अभी तक नहीं पी है।`

‘हां, जरूर।’ सोचा अगर साली ने पी ली होती तो कभी न पूछती।
कमरे के अंदर चला आया। पत्थर की छत के नीचे खाने की मेज़ है। जिसके एक पाये की जगह ईंटें लगी हैं। दूसरे पायों को टीन की पट्टियों से जकड़ कर कीलें ठोंक दी गयी हैं। रस्सी, टीन, लोहा, तार और ईंटों के सहारे खड़ी मेज़ पहली नज़र में आदिकालीन मशीन-सी लगती है। मेज़ के उपर मिसेज़ डिसूजा की सिलाई मशीन रखी है। खाना खाते समय मशीन को उठाकर मेज़ के नीचे रख दिया जाता है। खाने के बाद मशीन फिर मेज़ पर आ जाती है। रात में डेविड साहब इसी मेज पर बैठकर प्रूफ़ देखते हैं। कई गिलास पानी पीते हैं और एक बजते-बजते उठते हैं तो कमरा अकेला हो जाता है। मैं कमरे में रखी सिलाई मशीन या मेज़ की तरह कमरे का एक हिस्सा बन जाता हूं।

‘ये लो टी, ग्रीनलेबुल है!’ मिसेज़ डिसूजा ने चाय की प्याली थमा दी। वह खानों के नाम अंग्रेज़ी में लेती है। रोटी को ब्रेड कहती है, दाल को पता नहीं क्यों उन्होंने सूप कहना शुरू कर दिया है। तरकारी को ‘बॉयल्ड वेजिटेबुल्स` कहती हैं। करेलों को ‘हॉटडिश` कहती हैं। मिसेज़ डिसूजा थोड़ी बहुत गोराशाही अंग्रेज़ी भी बोल लेती हैं, जिससे मोहल्ले के लोग काफ़ी प्रभावित होते हैं। मैंने टी ताजमहल ले ली। मिसेज़ डिसूजा आज के जमाने की तुलना पहले जमाने से करने लगीं। उन्हें चालीस साल तक पुराने दाम याद हैं। इसके बाद अपने मकान की चर्चा उनका प्रिय विषय है, जिसका सीधा मतलब हम लोगों पर रोब डालना होता है। वैसे रोब, डालते वक्त यह भूल जाया करती हैं कि दोनों कमरे किराये पर उठा देने के बाद वह स्वयं किचन में सोती हैं। मैं उनकी बकवास से तंग आकर बाथरूम में चला गया। अगर डेविड साहब होते तो मजा आता। मिसेज़ डिसूजा मुंह खोलकर और आंखें फाड़कर मुर्गी-पालन की बारीकियों को समझने का प्रयत्न करतीं। ‘ याद नहीं, सिर्फ दो हज़ार रुपये से काम शुरू करे कोई। चार सौ मुर्गियों से शानदार काम चालू हो सकता है। चार सौ अंडे रोज़ का मतलब है कम-से-कम सौ रुपये रोज़। एक महीने में तीन हज़ार रुपये और एक साल में छत्तीस हज़ार रुपये। मैं तो आंटी, लाइफ में कभी-न-कभी ज़रूर करूंगा कारोबार। फायदा. . .? मैं कहता हूं चार साल में लखपति। फिर अंडे, मुर्गीखाने का आराम अलग। रोज़ एक मुर्गी काटिये साले को। बीस अंड़ों की पुडिंग बनाइए। तब यह मकान आप छोड़ दीजिएगा, आंटी। यह भी कोई आदमियों के रहने लायक मकान है। फिर तो महारानी बाग या बसंत विहार में कोठी बनवाइएगा। एक गाड़ी ले लीजिएगा।`

तब थोड़ी देर के लिए वे दोनों ‘बसंत विहार` पहुंच जाया करते। बड़ी-सी कोठी के फाटक की दाहिनी तरफ़ पीतल की चमचमाती हुई प्लेट पर एरिक डेविड और मिसेज़ जे. डिसूजा के अक्षर इस तरह चमकते जैसे छोटा-मोटा सूरज।

मैं लौटकर आया तो डेविड साहब आ चुके थे। कपड़े बदलकर आंगन में बैठे वह बासु को थोक में गालियां दे रहे थे, ‘यह साला बासु इस लायक है कि इसका ‘पब्लिक ट्रायल` किया जाये।’ उनकी आंखों में नफ़रत और उकताहट थी। चश्मा थोड़ा नीचे खिसक गया था। उन्होंने अपनी गर्दन अकड़ाकर चश्मा चेहरे पर फिट किया। मैंने तिलक ब्रिज के सामने एक पेड़ की बड़ी-सी डाल पर रस्से के सहारे बासु की लाश को झूलते हुए देखा। लहरें मारती भीड़-अथाह भीड़। और कुछ ही क्षण बाद डेविड साहब को एक नन्हें से मुर्गीखाने में बंद पाया। चारों ओर जालियां लगी हुई हैं। और उसके अंदर दो सौ मुर्गियों के साथ डेविड साहब दाना चुग रहे हैं। गर्दन डालकर पानी पी रहे हैं और अंडे दे रहे हैं। अंडों के एक ढेर पर बैठे हैं। मुर्गीखाने की जालियों से बाहर ‘बसंत विहार` साफ दिखाई पड़ रहा है।

मैंने कहा, ‘आप क्यों परेशान हैं डेविड साहब? छोड़िए साली नौकरी को। एक मुर्गीखाना खोल लीजिए। फिर बसंत विहार में मकान।’

‘नहीं-नहीं, मैं बसंत विहार में मकान नहीं बनवा कसता। वहां तो बासु का मकान बन रहा है। भाई साहब, यह तो दावा है कि इस देश में बगैर चार सौ बीसी किये कोई आदमी की तरह नहीं रह सकता। आदमियों की तरह रहने के लिए आपको ब्लैक मार्केर्टिंग करनी पड़ेगी लोगों को एक्सप्लायट करना पड़ेगा. . .अब आप सोचिए, मैं किसी साले से कम काम करता हूं। रोज़ आठ घंटे ड्यूटी और दो घंटे बस के इंतजार में. . .।’

‘तुम बहुत गाली बकते हो,’ मिसेज़ डिसूजा बोलीं।
‘फिर क्या करूं आंटी? गाली न बकूं तो क्या ईशू से प्रार्थना करूं, जिसने कम-से-कम मेरे साथ बड़ा ‘जोक` किया है?’

‘छोड़िए यार डेविड साहब। कुछ और बात कीजिए। कहीं प्रूफ़ का काम ज्यादा तो नहीं मिला।’

‘ठीक है, छोड़िए। दिल्ली में अभी तीन साल हुए हैं न! कुछ जवानी भी है। अभी शायद आपने दिल्ली की चमक-दमक भी नहीं देखी? क्या हमारा कुछ भी हिस्सा नहीं है उसमें? कनाट प्लेस में बहते हुए पैसे को देखा है कभी?’ वह हाथ चला-चलाकर पैसे के बहास के बारे में बताने लगे, ‘लाखों-करोड़ों रुपये लोग उड़ा रहे हैं। औरतों के जिस्मों पर से बहता पैसा। कारों की शक्ल में तैरता हुआ।’ वह उत्तेजित हो गये, और उन्होंने जेब से चश्मा निकाला, गर्दन अकड़ायी और चश्मा आंखों पर फिट कर लिया।

मुझे उकताहट होने लगी। तबीयत घबराने लगी, जैसे उमस एकदम बैठ गयी हो। सांस लेने में तकलीफ होने लगी। लोहे का सलाखोंदार कमरा मुर्गीखाना लगने लगा जिसमें सख्त बदबूभर गयी हो। मिसेज़ डिसूजा कई बार भविष्यवाणी कर चुकी हैं कि डेविड साहब एक दिन हम लोगों को एरेस्ट करवायेंगे और डेविड साहब कहते हैं कि मैं उस दिन का ‘वेलकम` करूंगा।

गुस्से में लगातार होंठ दबाये रहने के कारण उनका निचला होंठ काफी मोटा हो गया है। चेहरे पर तीन लकीरें पड़ जाती हैं। बचपन में सुना करते थे कि माथे पर तीन लकीरें पड़ने वाला राजा होता है।

कुछ ही देर में वह काफ़ी शांत हो चुके थे। खाने की मेज़ पर उन्होंने ‘बासु की जय` पर नारा लगाया और दो गिलास पानी पी गये। मिसेज़ डिसूजा की ‘हॉटडिश`, ‘सूप` और ‘ब्रेड` तैयार थी।

‘करेले की सब्जी पकाना भी आर्ट है, साब!’ डेविड साहब ने जोर-जोर से मुंह चलाया।

‘तीन डिश के बराबर एक डिश है।’ मिसेज़ डिसूजा ने एहसान लादा।

डेविड उनकी बात अनसुनी करते हुए बोले, ‘करेले खाने का मज़ा तो सीतापुर में आता था आंटी। कोठी के पीछे किचन गार्डन में डैडी तरह-तरह की सब्जी बुआते थे। ढेर सारी प्याज के साथ इन केरेलों में अगर कीमा भरकर पकाया जाये तो क्या कहना!’

हम लोग समझ गये कि अब डेविड साहब बचपन के किस्से सुनायेंगे। इन किस्सों के बीच नसीबन गवर्नेस का ज़िक्र भी आयेगा जो केवल एक रुपया महीना तनख्व़ाह पाकर भी कितनी प्रसन्न रहा करती थी। और जिसका मुख्य काम डेविड बाबा की देखभाल को दीपक बाबा ही कहती रही। इसी सिलसिले में उस पिकनिक पार्टी का जिक्र आयेगा जिसमें डेविड बाबा ने जमुना के स्लोप पर गाड़ी चढ़ा दी थी। तजुर्बेकार ड्राइवर इस्माइल खां को पसीना छूट आया था। खां को डांटकर गाड़ी से उतार दिया था। सब लड़के और लड़कियां उतर गये। अंग्रेज़ लड़के की हिम्मत छूट गयी थी। परंतु जॉली ने उतरने से इंकार कर दिया था। डेविड बाबा ने गाड़ी स्टार्ट की। दो मिनट सोचा। गियर बदलकर एक्सीलेटर पर दबाव डाला और गाड़ी एक फर्राटे के साथ उपर चढ़ गयी। इस्माइल खां ने उपर आकर डेविड बाबा के हाथ चूम लिये थे। वह बड़े-बड़े अंग्रेज़ अफ़सरों को गाड़ी चलाते देख चुका था मगर डेविड बाबा ने कमाल ही कर दिया था। जॉली ने डेविड बाबा को उसी दिन ‘किस` देने का प्रामिस किया था।

इन बातों को सुनाते समय डेविड साहब की बिटरनेस गायब हो जाती है। वह डेविड साहब नहीं, दीपक बाबा लगते हैं। हलकी-सी धूल उड़ती है और सीतापुर की सिविल लाइंस पर बनी बड़ी-सी कोठी के फाटक में १९३० की फोर्ड मुड़ जाती है। फाटक के एक खंभे पर साफ अक्षरों में लिखा हुआ है पीटर जे. डेविड, डिप्टी कलेक्टर। कोठी की छत खपरैलों की बनी हुई है। कोठी के चारों ओर कई बीघे का कंपाउंड। पीछे आम और संतरे का बाग। दाहिनी तरफ़ टेनिस कोर्ट की बायीं तऱफ बड़ा-सा किचन गार्डन, कोठी के उंचे बरामदे में बावर्दी चपरासी उंघता हुआ दिखाई पड़ेगा। अंदर हाल में विक्टोरियन फ़र्नीचर और छत पर लटकता हुआ हाथ से खींचने वाला पंखा। दोपहर में पंखा-कुली पंखा खींचते-खींचते उंघ जाता है तो मिस्टर पीटर जे.डेविड डिप्टी कलेक्टर अपने विलायती जूतों की ठोकरों से उसके काले बदन पर नीले रंग के फल उगा देते हैं। बाबा लोग टाई बांधकर खाने की मेज़ पर बैठकर चिकन सूप पीते हैं। खाना खाने के बाद आइसक्रीम खाते हैं और मम्मी-डैडी को गुडनाइट कहकर अपने कमरे में चले जाते हैं। साढ़े नौ बजे के आस-पास १९३० की फोर्ड गाड़ी फिर स्टार्ट होती है। अब वह या तो क्लब चली जाती है या किसी देशी रईस की कोठी के अंदर घुसकर आधी रात को डगमगाती हुई लौटती है।

मिसेज़ डिसूजा के मकान की छत के उपर से दिल्ली की रोशनियां दिखाई पड़ती हैं। सैकड़ों जंगली जानवरों की आंखें रात में चमक उठती है। पानी पीने के लिए नीचे आता हूं तो डेविड साहब प्रूफ़ पढ़ रहे हैं। मुझे देखकर मुस्कराते हैं, कलम बंद कर देते हैं और बैठने के लिए कहते हैं। आंखों में नींद भरी हुई है। वह मुझे धीरे-धीरे समझाते हैं। उनके इस समझाने से मैं तंग आ गया हूं। शुरू-शुरू में तो मैं उनको उल्लू का पट्ठा समझता था, परंतु बाद में पता नहीं क्यों उनकी बातें मेरे उपर असर करने लगीं। ‘भाग जाओ इस शहर से। जितनी जल्दी हो सके, भाग जाओ। मैं भी तुम्हारी तरह कॉलेज से निकलकर सीधे इस शहर में आ गया था राजधनी जीतने। लेकिन देख रहे हो, कुछ नहीं है इस शहर में, कुछ नहीं। मेरी बात छोड़ दो। मैं कहां चला जाउं! गांड़ के रास्ते यह शहर मेरे अंदर घुस चुका है।’

‘लेकिन कब तक कुछ नहीं होगा, डेविड साहब?’
‘उस वक्त तक, जब तक तुम्हारे पास देने के लिए कुछ नहीं है। और मैं जानता हूं, तुम्हारे पास वह सब कुछ नहीं है जो लोगों को दिया जा सकता है।’

मैं लौटकर उपर आ जाता हूं। मेरे पास क्या है देने के लिए? उंची कुर्सियां, कॉकटेल पार्टियां, लंबे-चौड़े लान, अंग्रेज़ी में अभिवादन, सूट और टाइयां, लड़कियां, मोटरें, शॉपिंग! तब ये लोग, जो तंग गलियारों में मुझसे वायदे करते हैं, मुस्कुराते हैं, कौन हैं? इसके बारे में फिर सोचना पड़ेगा। और काफ़ी देर तक फिर मैं सोचने का साहस जुटाता हूं। परंतु वह पीछे हटता जाता है। मैं उसकी बांहें पकड़कर आगे घसीटता हूं। एक बिगड़े हुए खच्चर की तरह वह अपनी रस्सी तुड़ाकर भाग निकलता है।

मैं फिर पानी के लिए नीचे उतरता हूं। अपनी मेज़ पर सिर रखे वह सो रहे हैं। प्रूफ़ का पुलिंदा सामने पड़ा है। मैं उसका कंधा पकड़कर लगा देता हूं। ‘अब सो जाइए। कल आपको साइट देखने जाना है।` उनके चेहरे पर मुस्कराहट आती है। कल वह मुर्गीखाना खोलने की साइट देखने जा रहे हैं। इससे पहले भी हम लोग कई साइट देख चुके हैं। डेविड साहब उठकर पानी पीते हैं। फिर अपने पलंग पर इस तरह गिर पड़ते हैं जैसे राजधनी के पैरों पर पड़ गये हों। मैं फिर उपर आकर लेट जाता हूं। ‘मैंने कॉलेज में इतना पढ़ा ही क्यों? इतना और उतना की बात नहीं है, मुझे कॉलेज में पढ़ना ही नहीं चाहिए था और अब दो साल तक ढाई सौ रुपये की नौकरी करते हुए क्या किया जा सकता है? क्यों मुस्कराता और क्यों शांत रहा? दो साल से दोपहर का खाना गोल करते रहने के पीछे क्या था?` नीचे से भैंस के हगने की आवाज़ आती है। एक परिचित गंध फैल जाती है। उस अर्द्धपरिचित कस्बे की गंध, जिसे मैं अपना घर समझता हूं, जहां मुझे बहुत ही कम लोग जानते हैं। उस छोटे से स्टेशन पर यदि मैं उतरूं तो गाड़ी चली जाने के बाद कई लोग मुझे घूर कर देखेंगे। और इक्का-दुक्का इक्के वाले भी मुझसे बात करते डरेंगे। उनका डर दूर करने के लिए मुझे अपना परिचय देना पड़ेगा। अर्थात अपने पिता का परिचय देना पड़ेगा। तब उनके चेहरे पर मुस्कराहट आयेगी और वे मुझे इक्के पर बैठने के लिए कहेंगे। इस मिनट इक्का चलता रहेगा तो सारी बस्ती समाप्त हो जायेगी। उस पार खेत हैं जिनका सीधा मतलब है उस पर गरीबी है। वे गरीबी के अभ्यस्त हैं। पुलिस उनके लिए सर्वशक्तिमान है और अपनी हर होशियारी में वे काफी मूर्ख हैं. . .उपर आसमान में पालम की ओर जाने वाले हवाई जहाज की संयत आवाज सुनाई पड़ती है। नीचे सड़क पार बालू वाले ट्रक गुजर रहे हैं। लदी हुई बालू के उपर मजदूर सो रहे हैं, जो कभी-कभी किसान बन जाने का स्वप्न देख लेते हैं, अपने गांव की बात करते हैं, अपने खेतों की बात करते हैं, जो कभी उनके थे। ट्रक तेजी से चलता हुआ ओखला मोड़ से मथुरा रोड पर मुड़ जायेगा। फ्रेंड्स कालोनी और आश्रम होता हुआ ‘राजदूत` होटल के सामने से गुजरेगा जहां रात-भर कैबरे और रेस्तरां के विज्ञापन नियॉनलाइट में जलते बुझते रहते हैं। उसी के सामने फुटपाथ पर बहुत से दुबले-पतले, काले और सूखे आदमी सोते हुए मिलेंगे, जिनकी नींद ट्रक की कर्कश आवाज़ से भी नहीं खुलती। उपर तेज बल्ब की रोशनी में उनके अंग-प्रत्यंग बिखरे दिखाई पड़ते हैं। मैं अक्सर हैरान रहता हूं कि वे इस चौड़े फुटपाथ पर छत क्यों नहीं डाल लेते। उसके चारों ओर, कच्ची ही सही, दीवार तो उठाई जा सकती है। इन सब बातों पर सरसरी निगाह डाली जाये, जैसी कि हमारी आदत है, तो इनका कोई महत्व नहीं है। बेवकूफी और भावुकता से भरी बातें। परंतु यदि कोई उपर से कीड़े की तरह फुटपाथ पर टपक पड़े तो उसका समझ में सब कुछ आ जायेगा।

दिन इस तरह गुजरते हैं जैसे कोई लंगड़ा आदमी चलता है। अब इस महानगरी में अपने बहुत साधरण और असहाय होने का भाव सब कुछ करवा लेता है। और अपमान, जो इस महानगर में लोग तफरीहन कर देते हैं, अब उतने बुरे नहीं लगते, जितने पहले लगते थे। ऑफिस में अधिकारी की मेज़ पर तिवारी का सुअर की तरह गंदा मुंह, जो एक ही समय में पक्का समाजवादी भी है और प्रो-अमरीकन भी। उसकी तंग बुशर्ट में से झांकता हुआ हराम की कमाई का पला तंदुरुस्त जिस्म और उसकी समाजवादी लेखनी जो हर दूसरी पंक्ति केवल इसलिए काट देती है कि वह दूसरे की लिखी हुई है। उसका रोब-दाब, गंभीर हंसी, षड्यंत्र-भरी मुस्कान और उसकी मेज़ के सामने उसके साम्राज्य में बैठे हुए चार निरीह प्राणी, जो कलम घिसने के अलावा और कुछ नहीं जानते। उन लोगों के चेहरे के टाइपराइटरों की खड़खड़ाहट। इन सब चीज़ों को मुट्ठी में दबाकर ‘क्रश` कर देने को जी चाहता है। भूख भी कमबख्त लगती है तो इस जैसे सोरे शहर का खाना खाकर ही खत्म होगी। शुरू में पेट गड़गड़ाता है। यदि डेविड साहब होते तो बात यहीं ये झटक लेते, ‘जी, नहीं, भूख जब ज़ोर से लगती है तो ऐसा लगता है जैसे बिल्लियां लड़ रही हों। फिर पेट में हलका-सा दर्द शुरू होता है जो शुरू में मीठा लगता है। फिर दर्द तेज़ हो जाता है। उस समय यदि आप तीन-चार गिलास पानी पी लें तो पेट कुछ समय के लिए शांत हो जायेगा और आप दो-एक घंटा कोई भी काम कर सकते हैं। इतना सब कुछ कहने के बाद वह अवश्य सलाह देंगे कि इस महानगरी में भूखों मरने से अच्छा है कि मैं लौट जाउं। लेकिन यहां से निकलकर वहां जाने का मतलब है एक गरीबी और भुखमरी से निकलकर दूसरी भुखमरी में फंस जाना। इसी तरह की बहुत सारी बातें एक साथ दिमाग में कबड्डी खेलती रहती हैं। तंग आकर ऐसे मौके पर डेविड साहब से पूछता हूं, ‘ग्रेटर कैलाश की मार्केट चल रहे हैं?’ वह मुस्कराते हैं और कहते हैं, ‘अच्छा, तैयार हो जाउं।’ मैं जानता हूं उनके तैयार हाने में काफ़ी समय लगेगा। इसलिए मैं बड़े प्रेम से जूते पॉलिश करता हूं। एक मैला कपड़ा लेकर जूते की घिसाई करता हूं। जूते में अपनी शक्ल देख सकता हूं। टिपटाप होकर डेविड साहब से पूछता हूं, ‘तैयार हैं?’

हम दोनों बस स्टाप की तरफ़ जाते हुए एक-दूसरे के जूते देखकर उत्साहित होते हैं। एक अजीब तरह का साहस आ जाता है।

ग्रेटर कैलाश की मार्किट की हर दूकान का नाम हमें जबानी याद है। बस से उतरकर हम पेशाबखाने में जाकर अपने बाल ठीक करते हैं। वह मेरी ओर देखते हैं। मैं फर्नीचर की ओर देखता हूं। दो जोड़ा चमचमाते जूते बरामदे में घूमते हैं। मैं फर्नीचर की दूकान के सामने रुक जाता हूं। थोड़ी देर तक देखता रहता हूं। डेविड साहब अंदर चलने के लिए कहते हैं और मैं सारा साहब बटोर कर अंदर घुस जाता हूं। यहां के लोग बड़े सभ्य हैं। एक वाक्य में दो बार ‘सर` बोलते हैं। चमकदार जूते दूकान के अंदर टहलते हैं। डेविड साहब यहां कमाल की अंग्रेज़ी बोलते हैं कंधे उचकाकर और आंखें निकालकर। चीज़ों को इस प्रकार देखते हैं जैसे वे काफी घटिया हों। मैं ऐसे मौकों पर उनसे प्रभावित होकर उन्हीं की तरह बिहेव करने की कोशिश करता हूं।

कंफेक्शनरी की दूकान के सामने वह बहुत देर तक रुकते हैं। शो-विंडो में सब कुछ सजा हुआ है। पहली बार में भ्रम हो सकता है कि सारा सामान दिखावटी है, मिट्टी का, परंतु निश्चय ही ऐसा नहीं है।

‘जल्दी चलिए। साला देखकर मुस्करा रहा है।’
‘कौन?’ डेविड साहब पूछते हैं, मैं आंख से दूकान के अंदर इशारा करता हूं और वह अचानक दूकान के अंदर घुस जाते हैं। मैं हिचकिचाहट बरामदे में आगे बढ़ जाता हूं। ‘पकड़े गये बेटा! बड़े लाटसाहब की औलाद बने फिरते हैं। उनकी जेब में दस पैसे का बस का टिकट और कुल साठ पैसे निकलते हैं। सारे लोग हंस रहे हैं। डेविड साहब ने चमचमाता जूता उतारकर हाथ में पकड़ा और दूकान में भागे।` मैं साहस करके दूकान के अंदर जाता हूं। डेविड साहब दूकानदार से बहुत फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोल रहे हैं और वह बेचारा घबरा रहा है। मैं खुश होता हूं। ‘ले साले, कर दिया न डेविड साहब ने डंडा! बड़ा मुस्करा रहे थे।` डेविड साहब अंग्रेजी में उससे ऐसा केक मांग रहे हैं जिसका नाम उसके बाप, दादा, परदादा ने भी कभी न सुना होगा।

बाहर निकलकर डेविड साहब ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया।
रोज़ की तरह खाने की मेज़ पर यहां से वहां तक विलायती खाने सजे हुए हैं। मिसेज़ डिसूजा का मूड़ कुछ आफ है। कारण केवल इतना है कि मैं इस महीने की पहली तारीख को पैसा नहीं दे पाया हूं। एक-आध दिन मुंह फला रहेगा। फिर वे महंगाई के किस्से सुनाने लगेंगी। चीजों की बढ़ती कीमतें सुनते हम लोग तंग जा जायेंगे।

बात करने के लिए कुछ जरूरी था और चुप टूटती नहीं लग रही थी, तो मिसेज़ डिसूजा ने पूछा, ‘आज तुम डिफेंस कॉलोनी जाने वाले थे?’

‘नहीं जा सकता,’ डेविड साहब ने मुंह उठाकर कहा।

‘अब तुम्हारा सामान कैसे आयेगा?’ मिसेज़ डिसूजा बड़बड़ायीं, ‘बेचारी कैथी ने कितनी मुहब्बत से भेजा है।’

‘मुहब्बत से भिजवाया है आंटी?’ डेविड साहब चौंके, ‘आंटी, उसका हस्बैंड दो हज़ार रुपये कमाता है। कैथी एक दिन बाज़ार गयी होगी। सवा सौ रुपये की एक घड़ी और दो कमीजें खरीद ली होंगी। और डीनू के हाथ दिल्ली भिजवा दीं। इसमें मुहब्बत कहां से आ गयी?’

‘मगर तुम उन्हें जाकर ले तो जाओ।’

‘डीनू उस सामान को यहां ला सकता है।’
डीनू का डिफेंस कालोनी में अपना मकान है। कार है। डेविड साहब का बचपन का दोस्त है। वह उस शिकार पार्टी में भी था, जिसमें हाथी पर बैठकर डेविड साहब ने प्लाइंग शॉट में चार गाजें गिरा दी थीं।

‘डिफेंस कॉलोनी से यहां आना दूर पड़ेगा। और वह बिजी आदमी है।’
‘मैं बिज़ी प्रूफ़रीडर नहीं हूं?’ वह हंसे, ‘और वह तो अपनी काम से आ सकता है, जबकि मुझे दो बसें बदलनी पड़ेंगी।’ वह दाल-चावल इस तरह खा रहे थे, जैसे ‘केक` की याद में हस्तमैथुन कर रहे हों।

‘जैसी तुम्हारी मर्जी।’

खाना खत्म होने पर कुछ देर के लिए महफिल जम गयी। मिसेज़ डिसूजा पता नहीं कहां से उस बड़े जमींदार का जिक्र ले बैठीं जो जवानी के दिनों में उन पर दिलोजान से आशिक था, और उनके अवकाश प्राप्त कर लेने के बाद भी एक दिन पता लगाता हुआ दिल्ली के उनके घर आया था। वह पहला दिन था जब इस मकान के सामने सेकेंड-हैंड एंबेसडर खड़ी हुई थी और डेविड साहब को किचन में सोना पड़ा था। उस जमींदार का जिक्र डेविड साहब को बड़ा भाता है। मैं तो फौरन उस जमींदार की जगह अपने-आपको ‘फिट` करके स्थिति का पूरा मज़ा उठाने लगता हूं।

कुछ देर बाद इधर-उधर घूम-घामकर बात फिर खानों पर आ गयी। डेविड साहब सेंवई पकाने की तरकीब बताने लगे। फिर सबने अपने-अपने प्रिय खानों के बारे में बात की। सबसे ज्यादा डेविड साहब बोले।

खाने की बात समाप्त हुई तो मैंने धीरे से कहा, ‘यार डेविड साहब, इस गांव में कोई लड़की ऐसी नज़र पड़ जाती है कि पांव कांपने लगते हैं।’
‘कैसी थी, मुझे बताओ? छिद्दू की बहू होगी या. . .।’

‘बस डेविड, तुम लड़कियों की बात न किया करो। मैंने कितनी खूबसूरत लड़की से तुम्हारा ‘इंगेजमेंट` तय किया था।’
‘क्या खूबसूरती की बात करती हैं आंटी! अगर जॉली को आपने देखा होता. . .।’

‘जॉली? खैर, उसको तो मैंने नहीं देखा। तुमने अगर मेरी लड़की को देखा होता।’ उनकी आंखें डबडबा आयीं, ‘मगर वह हज. . .’ कुछ देर बाद बोलीं, ‘अगर अब वह होती तो यह दिन न देखना पड़ता। मैं उसकी शादी किसी मिलिटरी अफ़सर से कर देती। उससे तो कोई भी शादी कर सकता था।’

कुछ ठहर कर डेविड साहब से बोली, ‘तुम शादी क्यों नहीं कर लेते डेविड?’

‘मैं शादी कैसे कर लूं आंटी? दो सौ पचहत्तर रुपये इक्कीस पैसे से एक पेट नहीं भरता। एक और लड़की की जान लेने से क्या फायदा। मेरी जिंदगी तो गुजर ही जायेगी। मगर मैं यह नहीं चाहता कि अपने पीछे एक गरीब औरत और दो तीन प्रूफ़रीडर छोड़कर मर जाउं जो दिन-रात मशीनों की कान फाड़ देने वाली आवाज़ बैठकर आंखें फोड़ा करें।’ वह कुछ रुके, ‘यही बात मैं इनसे कहता हूं।’ उन्होंने मेरी ओर संकेत किया, ‘इस आदमी के पास गांव में थोड़ी-सी ज़मीन है जहां गेहूं और धन की फसल होती है। इसको चाहिए कि अपने खेत के पास एक कच्चा घर बना ले। उसके सामने एक छप्पर डाल ले, बस, उस पर लौकी की बेल चढ़ानी पडेग़ी। देहात में आराम से एक भैंस पाली जा सकती है। कुछ दिनों बाद मुर्गीखाना खोल सकते हैं। खाने और रहने की फिक्र नहीं रह जायेगी। ठाठ से काम करे और खायें।’

‘उसके बाद आप वहां आइएगा तो ‘केक` बनाया जायेगा। बहुत से अंडे मिलाकर’
मैंने मजाक किया।
दीपक बाबा हंसने लगे। बिलकुल बच्चों की-सी मासूम हंसी।

सरगम-कोला

जैसे कुत्तों के लिए कातिक का मौसम होता है वैसे ही कला और संस्कृति के लिए जोड़ का मौसम होता है दिल्ली में, गोरी चमड़ी वाले पर्यटक भरे रहते हैं खलखलाते, उबलते, चहकते, रिझाते, लबालब हमारी संस्कृति से सबसे बड़े खरीदार और इसीलिए पारखी। बड़े घरों की महिलाएं लिपी-पुती कलैंडर आर्ट जिससे घृणा करने का कोई कारण नहीं है, जाड़े की शामें किसी आर्ट गैलरी और नाटक देखने में गुजारना पसंद करती हैं। जाड़ा कला और संस्कृति का मौसम है।

सूरज जल्दी डूब जाता है और नर्म मुलायम गर्म कपड़ों से टकराती ताजगी देने वाली हवा आर्ट गैलरियों और आडीटोरियमों के आसपास महक जाती है? ऐसी सुगंध जो नामर्द को मर्द बना दे और मर्द को नामर्द। लोग कला और संस्कृति में डूब जाते हैं। कला और संस्कृति लोगों में डूब जाती है।

म्यूज़िक कांफ्रेंस के गेट पर चार सिपाही खड़े थे। ऊबे, उकताये डंडे लिये। उनके पीछे दो इंस्पेक्टर खड़े थे, गर्दन अकड़ाये क्योंकि उनके सामने चार सिपाही खड़े थे। फिर दो सूटधरी थे। सूटधरियों के सूट एक से थे। बनवाये गये होंगे। सूटधरी काफी मिलती-जुलती शक्ल के थे। काफी मुश्किल से खोजे गये होंगे।

गेट के सामने बजरी पड़ा रास्ता था। बजरी भी डाली गयी होगी। फलों के गमले जमीन के अंदर गाड़ दिये गये थे। न जानने वालों को अचंभा होता था कि ऊसर में फल उग आये हैं। उपर कागज के सफेद फलों की चादर-सी तानी गयी थी जो कुछ साल पहले तक-कागज के फलों की नहीं, असली फलों की, पीरों, फकीरों की मज़ारों पर तानी जाती थी। फिर शादी विवाह में लगायी जाने लगी। दोनों तरफ गिलाफ चढ़े बांस के खंभे थे। इन गिलाफ चढ़े बांसों पर ट्यूब लाइटें लगीं थीं। इसी रास्तें से अंदर जाने वाले जा रहे थे। दासगुप्ता को गेट के बिलकुल सामने खड़े होने पर केवल इतना ही दिखाई दे रहा था। जाने वाले दिखाई दे रहे थे, जो ऊंचे-ऊंचे जूतों पर अपने कद को और ऊंचा दिखाने की नाकाम कोशिश में इस तरह लापरवाही से टहलते अंदर जा रहे थे जैसे पूरा आयोजन उन्हीं के लिए किया गया हो। अधेड़ उम्र की औरतें थीं जिनकी शक्लें विलायती कास्मेटिक्स ने वीभत्स बना दी थीं। लाल साड़ी, लाल आई शैडो, नीली साड़ी, नीली आई शैडो, काली के साथ काला. . .पीली के साथ पीला। जापानी साड़ियों के पल्लू को लपेटने की कोशिश में और अपने अधखुले सीने दिखाती, कश्मीरी शालों को लटकने से बचाती या सिर्फ सामने देखती. . .या जीन्स और जैकेट में खट-खट खट-खट। सम्पन्नता की यही निशानियां हैं। दासगुप्ता ने मन-ही-मन सोचा। गंभीर, भयानक रूप से गंभीर चेहरे, आत्म संतोष से तमतमाये. . .गर्व से तेजवान्, धन, ख्याति, सम्मान से संतुष्ट. . .दुराश से मुक्त। ‘साला कौन आदमी इस कंट्री में इतना कान्फीडेंस डिजर्व करता है?’ दासगुप्ता अपनी डिजर्व करने वाली फिलासफी बुदबुदाने लगे। सामने से भीड़ गुजरती रही। हिप्पी लड़कियां. . .अजीब-अजीब तरह के बाल. . .घिसी हुई जीन्स. . .मर्दमार लड़कियां। उनको सूंघते हुए कुत्ते. . .कुत्ते-ही-कुत्ते. . .डागी. . .डागीज. . .स्वीट डागीज।

प्रोग्राम शुरू हो गया। भीमसेन जोशी का गायन शुरू हो चुका था, लेकिन दासगुप्ता का कोई जुगाड़ नहीं लग पाया था, बिना टिकट अंदर जाने का जुगाड़।

गेट, बजरी पड़े रास्ते, सूटधारी स्वागतकर्ताओं, पुलिस इंस्पेक्टरों और सिपाहियों से दूर बाहर सड़क पर दाहिनी तरफ़ एक घने पेड़ के नीचे अजब सिंह अपना पान-सिगरेट को खोखा रखे बैठा था। ताज्जुब की बात है, मगर सच है कि इतने बड़े शहर में दासगुप्ता और अजबसिंह एक-दूसरे को जानते हैं। दासगुप्ता गेट के सामने से हटकर अजबसिंह के खोखे के पास आकर खड़े हो गये। सर्दी बढ़ गयी थी और अजब सिंह ने तसले में आग सुलगा रखी थी।

‘दस बीड़ी।’
‘तीस हो गयीं दादा।’
‘हां, तीस हो गया। हम कब बोला तीस नहीं हुआ।. . .हम तुमको पैसा देगा।’ दासगुप्ता ने बीड़ी ले ली। ऐ बीड़ी तसले में जलती आग से सुलगायी। और खूब लंबा कश खींचा।

‘जोगाड़ नहीं लगा दादा?’
‘लगेगा, लगेगा।’
‘अब घर जाओ। ग्यारा बजने का हैं।’
‘क्यों शाला घर जाये। हमको भीमसेन जोशी को सुनने का है. . .।’
‘दो सादे बनारसी।’

उस्ताद भीमसेन जोशी की आवाज़ का एक टुकड़ा बाहर आ गया।
‘विल्स।’
‘किंग साइज, ये नहीं।’

दासगुप्ता खोखे के पास से हट आये। अब आवाज़ साफ सुनायी देगी।. . लेकिन आवाज़ बंद हो गयी।. . .एक आइडिया आया। पंडाल के अंदर पीछे से घुसा जाये। बीड़ी के लंबे-लंबे कश लगाते वे घूमकर पंडाल के पीछे पहुंच गये। अंधेरा। पेड़। वे लपकते हुए आगे बढ़े। टॉर्च की रोशनी।

‘कौन है बे?’ पुलिस के सिपाही के अलावा ऐसे कौन बोलेगा।
दासगुप्ता जल्दी-जल्दी पैंट के बटन खोलने लगे ‘पिशाब करना है जी पिशाब।’ टॉर्च की रोशनी बुझ गयी। दासगुप्ता का जी चाहा इन सिपाहियों पर मूत दें। साले यहां भी डियूटी बजा रहे हैं।. . .पिशाब की धर सिपाहियों पर पड़ी। पंडाल पर गिरी। चूतिये निकल-निकलकर भागने लगे।. . .दासगुप्ता हंसने लगे।

वे लौटकर फिर खोखे के पास आ गये। पास ही में एक छोटे-से पंडाल के नीचे कैन्टीन बनायी गयी थी। दो मेज़ों का काउंटर। काफी प्लांट। उपर दो सौ वाट का बल्ब। हाट डॉग, हैम्बर्गर, पॉपकार्न, काफी की प्यालियां। दासगुप्ता ने कान फिर अंदर से आने वाली आवाज़ की तरफ़ लगा दिये. . .सब अंदर वालों के लिए है। जो साला म्यूजिक सुनने को बाहर खड़ा है, चूतिया है। लाउडस्पीकर भी साला ने ऐसा लगाया है कि बाहर तक आवाज़ नहीं आता। और अंदर चूतिये भरे पड़े हैं। भीमसेन जोशी को समझते हैं? उस्ताद की तानें इनज्वाय कर सकते हैं? इनसे अगर यह कह दो कि उस्ताद जोशी तानों में मंद सप्तक से मध्य और मध्यम सप्तक से तार सप्तक तक स्वरों का पुल-सा बना देते हैं, तो ये साले घबराकर भाग जायेंगे. . .ये बात भीमसेन जोशी को नहीं मालूम होगा? होगा, जरूर होगा। साले संगीत सुनने आते हैं। अभी दस मिनट में उठकर चले जायेंगे. . .डकार कर खायेंगे और गधे की तरह पकड़कर सो जायेंगे।

‘दादा सर्दी है,’ अजब सिंह की उंगलियां पान लगाते-लगाते ऐंठ रही थीं।
‘शर्दी क्यों नहीं होगा। दिशम्बर है, दिशम्बर।’
‘ईंटा ले लो दादा, ईंटा।’ अजब सिंह ने दासगुप्ता के पीछे एक ईंटा रख दिया और वे उस पर बैठ गये।

जैसे-जैसे सन्नाटा बढ़ रहा था अंदर से आवाज़ कुछ साफ आ रही थी। उस्ताद बड़ा ख्याल शुरू कर रहे हैं। दासगुप्ता ईंटें पर संभलकर बैठ गये।. . .पग लगाने दे. . .घिं-घिं. . .धगे तिरकिट तू ना क त्ता धगे. . .तिरकिट धी ना. . .ये तबले पर संगत कर रहा है? दासगुप्ता ने अपने-आपसे पूछा। वाह क्या जोड़ हे।

‘ये तबले पर कौन है?’ उन्होंने अजब सिंह से पूछा।
‘क्या मालूम कौन है दादा।’
कितनी गरिमा और गंभीरता है। अंदर तक आवाज़ उतरती चली जाती है।. . .तू ना क त्ता. . .।

‘तुम्हारे पास कैम्पा हैय?’ तीन लड़कियां थीं और चार लड़के। दो लड़कियों ने जींस पहन रखी थीं और उनके बाल इतने लंबे थे कि कमर पर लटक रहे थे। तीसरी के बाल इतने छोटे थे कि कानों तक से दूर थे। एक लड़के ने चमड़े का कोट पहन रखा था और बाकी दो असमी जैकेट पहने थे। तीसरे ने एक काला कम्बल लपेट रखा था। एक की पैंट इतनी तंग थी कि उसकी पतली-पतली टांगे फैली हुई और अजीब-सी लग रही थीं। लंबे बालों वाली लड़कियों में से एक लगातार अपने बाल पीछे किये जा रही थी, जबकि उसकी कोई जरूरत नहीं थी। तीसरी लड़की ने अपनी नाक की कील पर हाथ फेरा।

‘तुम्हारे पास कैम्पा हैय?’ लंबी और पतली टांगों वाले लड़के ने कैंटीन के बैरे से पूछा। उसका ऐक्सेंट बिलकुल अंग्रेजी था। वह ‘त` को ‘ट` और ‘ह` को ‘य` के साथ मिलाकर बोल रहा था। ‘ए` को कुछ यादा लंबा खींच रहा था।

‘नहीं जी अभी खतम हो गया. . .’
‘ओ हाऊ सिली,’ छोटे बालों वाली लड़की ठुनकी।
‘हाऊ स्टूपिड कैन्टीन दे हैव।’
‘वी मस्ट कम्पलेन्ट।’
‘लेट्स हैव काफी स्वीटीज,’ लंबी टांगों वाले ने अदा से कहा।
‘बट आइ कान्ट हैव काफी हियर,’ जो लड़की अपनी नाक की कील छूए जा रही थी और शायद इन तीनों में सबसे ज्यादा खूबसूरत थी, बोली।

‘वाये माई डियर,’ लंबी टांगों वाला उसके सामने कुछ झुकता हुआ बोला और वह बात बाकी दो लड़कियों को कुछ बुरी लगी।
‘आई आलवेज हैव काफी इन माई हाउस ऑर इन ओबरॉयज।’
‘फाइन लेट्स गो टु द ओबरॉय देन,’ लंबी टांगों वाला नारा लगाने के से अंदाज़ में चीखा।

‘सर. . .सर कैम्पा आ गया,’ कैन्टीन के बैरे ने सामने इशारा किया। एक मजदूर अपने सिर पर कैंपा का क्रेट रखे चला आ रहा था।
‘ओ, कैम्पा हेज कम,’ दूसरी दो लड़कियों ने कोरस जैसा गाया। अंदर से भीमसेनी जोशी की आवाज़ का टुकड़ा बाहर आ गया।

‘ओ कैम्पा {{{{ हैज कम,’ सब सुर में गाने लगे, ‘के ए ए ए म पा {{{{. . . .पार करो अरज सुनो ओ. . .ओ. . .पा {{{{. . .कैम्पा {{{ पार करो. . .पा {{{{ र. . .कैम्पा {{{{. . .’
‘बट नाउ आई वांट टु हैव काफी इन ओबरॉय,’ खूबसूरत चेहरे वाली लड़की ठुनकी।
‘बट वी केम हियर टु लिसन भीमसेनी जोशी।’

‘ओ, डोन्ट बी सिली. . .ही विल सिंग फॉर द होल नाइट. . .हैव कॉफी इन ओबरॉय देन वी कैन कम बैक. . .इविन वी कैन हैव स्लीप एण्ड कम बैक. . .’ लंबी टांगों वाला चाबियों का गुच्छा हिलाता आगे बढ़ा. . .भीमसेन जोशी की दर्दनाक आवाज़ बाहर तक आने लगी थी. . .आत्मनिवेदन की, दुखों और कष्टों से भरी स्तुति. . .अरज सुनो {{{{. . . .मो{{{{. . .खचाक. . .खचाक. . .कार के दरवाजे एक साथ बंद हुए और क्रिर्रर क्रिर्ररर क्रिर्र. . .भर्र{{{{ भर्र {{{{. . .।’

बारह बज चुका था। सड़क पर सन्नाटा था। सड़क के किनारों पर दूर-दर तक मोटरों की लाइनें थीं। लोग बाहर निकलने लगे थे। ज्यादातर अधेड़ उम्र और गंभीर चेहरे वाले- उकताये और आत्मलिप्त. . .मोटी औरतें. . .कमर पर लटकता हुआ गोश्त. . .जमहाइयां आ रही हैं। साले, नींद आने लगी. . .टिकट बर्बाद कर दिया। अरे उस्ताद तो दो बजे के बाद मूड़ में आयेंगे। बस टिकट लिया. . .मंगवा लिया ड्राइवर से। घंटे-दो घंटे बैठे। पब्लिक रिलेशन. . .ये टिकट ही नहीं डिजर्व करते. . .पैसा वेस्ट कर दिया. . .उस्ताद को भी वेस्ट कर दिया. . .ऐसी रद्दी आडियन्स। जो लोग जा रहे हैं उनकी जगह खाली. . .उसमें शाला हमको नहीं बैठा देता. . .बोलो, पैशा तो तुमको पूरा मिल गया है। अब क्यों नहीं बैठायेगा।

दासगुप्ता को सर्दी लगने लगी और उन्होंने एयरफोर्स के पुराने ओवरसाइज कोट की जेबों में हाथ डाल दिये। अजब सिंह कुछ सूखी पत्ती उठा लाया। तसले की आग दहक उठी।. . .ये साला निकल रहा है ‘आर्ट सेंटर` का डायरेक्टर। पेंटिंग बेच-बेचकर कोठियां खड़ी कर लीं। अब सेनीटरी फिटिंग का कारोबार डाल रखा है। यही साले आर्ट कल्चर करते हैं। क्योंकि इनको पब्लिक रिलेशन का काम सबसे अच्छा आता है। पार्टियां देते हैं। एक हाथ से लगाते हैं, दूसरे से कमाते हैं। अपनी वाइफ के नाम पर इंटीरियर डेकोरेशन का ठेका लेता है। अमित से काम कराता है। उसे पकड़ा देता है हज़ार दो हज़ार. . .लड़की सप्लाई करने से वोट खरीदने तक के धंधे जानता है. . .देखो म्युजिक कान्फ्रेंस की आर्गनाइजर कैसे इसकी कार का दरवाजा खोल रही है. . .ब्रोशर में दिया होगा एक हजार का विज्ञापन। जैसे सुअर गू पर चलता है और उसे खा भी जाता है वही ये आर्ट-कल्चर के साथ करते हैं। फैक्ट्री न डाली ‘कला केन्द्र` खोल लिया।. . .विदेशी कार का दरवाजा सभ्य आवाज़ के साथ बंद हो गया। कुसुम गुप्ता. . .साली न मिस है, न मिसेज़ है. . .दासगुप्ता सोचने लगे। क्यों न इससे बात की जाये। वह तेजी से गेट की तरफ बढ़ रही थी। इससे अंग्रेजी ही में बात की जाये।

‘कैन यू प्लीज. . .’

उसने बात पूरी नहीं सुनी। मतलब समझ गयी। गंधे उचकाये।
‘नो आइ एम सॉरी. . .वी हैव स्पेंट थर्टी थाउजेंड टू अरैंज दिस. . .’ आगे बढ़ती चली गयी।
थर्टी थाउजेंड, फिफ्टी थाउजेंड, वन लैख. . .फायदे, मुनाफे के अलावा वह कुछ सोच ही नहीं सकती। वे आकर ईंट पर बैठ गये।
‘विल्स।’
‘मीठा पान।’
‘नब्बे नंबर डाल, नब्बे. . .’

‘ओ हाउ मीन यू आर।’ औरतनुमा लड़की को कमसिन लड़का अपना हैम्बर्गर नहीं दे रहा था। औरतनुमा लड़की ने अपना हाथ फिर बढ़ाया और कमसिन लड़के ने अपना हाथ पीछे कर लिया। उनके साथ की दूसरी दो लड़कियां हंसे जा रही थीं।
‘मीन,’ लड़की अदा से बोली।

मीन? मीन का मतलब तो नीच होता है। लेकिन ये साले ऐसे बोलते हैं जैसे स्वीट। और स्वीट का मतलब मीन होगा।

कमसिन लड़का और औरतनुमा लड़की एक ही हैम्बर्गर खाने लगे। उनके साथ वाली लड़कियां ऐसे हंसने लगीं जैसे वे दोनों उनके सामने संभोग कर रहे हों।
‘डिड यू अटेंड दैट चावलाज पार्टी?’
‘ओ नो, आई वानटेड टु गो बट. . .’

‘मेहराज गिव नाइस पार्टी।’
‘हाय बॉबी!’
‘हाय लिटी!’
‘हाय जॉन!’
‘हाय किटी!’

‘यस मेहराज गिव नाइस पार्टीज. . .बिकाज दे हैव नाइस लॉन. . .लास्ट टाइम देयर पार्टी वाज टिर्रेफिक. . .देयर वाज टू मच टू ईट एंड ड्रिंक. . .वी केम बैक टू थर्टी इन द मॉर्निंग. . .यू नो वी हैड टू कम बैक सो सून? माई मदर इनला वाज देयर इन अवर हाउस. . . डिड यू मीट हर? सो चार्मिंग लेडी दैड द एज आफ सेवेन्टी थ्री. . .सो एट्ट्रेक्टिव आइ कांट टेल यू।’

‘डिड यू लाइक द प्रोग्राम?’
‘ओ ही इस सो हैंडसम।’
‘डिड यू नोटिस द रिंग ही इज वियरिंग?’
‘ओ यस, यस. . .ब्यूटीफुल।’
‘मस्ट बी वेरी एक्सपेन्सिव।’
‘ओ श्योर।’

‘माइ मदर्स अंकल गाट द सेम रिंग।’
‘दैट इज प्लैटिनम।’
‘हैय वेटर, टू काफी।’

सुनने नहीं देते साले। अब अंदर से थोड़ी-बहुत आवाज़ आ रही थी। दासगुप्ता ने ईंट खिसका ली और अंगीठी के पास खिसक आये।

‘ही हैज जस्ट कम बैक फ्राम योरोप।’
‘ही हैज ए हाउस इन लण्डन।’
‘मस्ट बी वेरी रिच।’
‘नेचुरली ही टेस्ट टेन थाउजेंड फार ए नाइट।’

‘देन आइ विल काल हिम टु सिंग इन अवर मैरिज।’ कम उम्र लड़के ने औरतनुमा लड़की की कमर में हाथ डाल दिया।

साले के हाथ देखो। कलाइयां देखो। दासगुप्ता ने सोचा। अपने बल पर साला एक पैसा नहीं कमा सकता। बाप की दौलत के बलबूते पर उस्ताद को शादी में गाने बुलायेगा।
अजब सिंह ने फिर अंगीठी में सूखे पत्ते डाल दिये। बीड़ी पीता हुआ एक ड्राइवर आया और आग के पास बैठ गया। उसने खाकी वर्दी पहन रखी थी।
‘सर्दी है जी, सर्दी।’ उसने हाथ आग पर फैला दिये। कोई कुछ नहीं बोला।

‘देखो जी कब तक चलता है ये चुतियापा। डेढ़ सौ किलोमीटर गाड़ी चलाते-चलाते हवा पतली हो गयी। अब साले को मुजरा सुनने की सूझी है। दो बजने. . .’
‘सुबह छ: बजे तक चलेगा।’
‘तब तो फंस गये जी।’
‘प्राजी कोई पास तो नहीं है?’ अजब सिंह ने ड्राइवर से पूछा।
‘पास? अंदर जाना है?’
‘हां जी अपने दादा को जाना है,’ अजब सिंह ने दासगुप्ता की तरफ इशारा किया।
‘देखो जी देखते हैं।’

ड्राइवर उठा तेजी से गेट की तरफ बढ़ा। लंबा तडंग़ा। हरियाणा का जाट। गेट पर खड़े सिपाहियों से उसने कुछ कहा और सिपाही स्वागतकर्ता को बुला लाया।
ड्राइवर जोर-जोर से बोल रहा था, ‘पुलिस ले आया हूं जी। एस.पी. क्राइम ब्रांच, नार्थ डिस्ट्रिक्ट का ड्राइवर हूं जी। डी.वाई.एस.पी. क्राइम ब्रांच और डी.डी.एस.पी. ट्रैफिक की फैमिली ने पास मंगाया है जी,’ वह लापरवाही से एक सांस में सब बोल गया।

सूटधारी स्वागतकर्ता ने सूट की जेब से पास निकालकर ड्राइवर की तरफ बढ़ा दिये। वह लंबे-लंबे डग भरता आ गया।

‘सर्दी है जी, सदी है।’ हाथ आगे बढ़ाया ‘ये लो जी पास।’
‘ये तो चार पास हैं।’
‘ले लो जी अब, नहीं तो क्या इनका अचार डालना है।’
दासगुप्ता ने एक पास ले लिया, ‘हम चार पास का क्या करेगा?’

हरियाणा का जाट को काफी ऊब चुका था, इस सवाल का कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करना चाहता था। उसने बचे हुए तीन पास तसले में जलती आग में डाल दिये। ड्राइवर और अजबसिंह ने तसले पर ठंडे हाथ फैला दिये। दासगुप्ता गेट की तरफ लपके। अंदर से साफ आवाज़ आ रही थी. . .जा{ गो{. . .उस्ताद अलाप लेकर भैरवी शुरू करने वाले हैं. . .जा{ गो{ मो{ ह न प्या{{{{रे {{. . .ध धिं धिं ध ध तिं तिं ता. . .जा{ गो{ मो{ ह{ न प्या{ {{ {{ {{ रे {{ {{{. . .

दिल्ली पहुंचना है

रात के दो बजे थे और कायदे से इस वक्त स्टेशन पर सन्नाटा होना चाहिए था। इक्का-दुक्का चाय की ठेलियों को छोड़कर या दो-चार उंघते हुए कुलियों या सामान की गांठों और गट्ठरों या प्लेटफार्म पर सोये गरीब फटेहाल लोगों के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए था। पर ऐसा नहीं था। पूरे स्टेशन पर ऐसी चहल-पहल थी, जैसे रात के दो नहीं, सात बे हों। आठ-आठ दस-दस की टुकड़ियों में लोग प्लेटफार्म पर इधर-उधर खड़े थे या किसी कोने में गोले बनाये बैठे थे या पानी के नल के पास बैठे चिउड़ा खा रहे थे।ये सब एक ही तरह के लोग थे। मैली, फटी, उंची धोतियां या लुंगियां और उलटी, बेतुकी, सिलवटें पड़ी कमीजें या कपड़े की सिली बनियानें पहने। नंगे सिर, नंगे पैर, सिर पर छोटे-छोटे बाल। एक हाथ में पोटली और दूसरे हाथ में लाल झंडा।

बिपिन बिहारी शर्मा, मदनपुर गांव, कल्याणपुर ब्लाक, मोतिहारी, पूर्वी चंपारन आज सुबह गांव से उस समय निकले थे जब पूरब में आम के बड़े बाग के उपर सूरज का कोई अता-पता न था। सूरज की हलकी-हलकी लाली उन्हें खजुरिया चौक पहुंचने से कोई एक घंटा पहले दिखाई दी थी, जहां आकर सब जनों ने दातुन-कुल्ला किया था।

इमली, आम और नीम के बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे दुबका गांव सो रहा था। इन पेड़ों की अंधेरी परछाइयां इधर-उधर खपरैल के घरों, गलियारों, कच्ची दीवारों पर पड़ रही थीं। बड़े बरगद के पेड़ के पत्ते हवा में खड़खड़ाते तो सन्नाटा कुछ क्षण के लिए टूटता और फिर पूरे गांव को छाप कर बैठ जाता। उपर आसमान के सफेद रुई जैसे बादल उत्तर की ओर भागे चले जा रहे थे। चांद पीला पड़ चुका था और जैसे सहमकर एक कोने में चला गया था।

कुएं में किसी ने बाल्टी डाली और उसकी आवाज़ से कुएं के पास लगे नीम के पेड़ से तोतों का एक झुंड भर्रा मारकर उड़ा और गांव का चक्कर लगाता हुआ उत्तर की ओर चला गया। धीरे-धीरे इधर-उधर के बगानों से कुट्टी काटने की आवाजें आने लगीं। गंडासा चारा काटता हुआ लकड़ी से टकराता और आवाज़ दूर तक फैल जाती। कुट्टी काटने की दूर से आती आवाज़ के साघ्थ कुछ देर बाद घरों से जांता पीसने की आवाज़ भी आने लगी। कुछ देर तक यही दो आवाजें इधर-उधर मंडराती रहीं, फिर बलदेव के घर में आती बाबा बकी फटी और भारी आवाज़, ‘भये प्रकट क्रिपाला दीनदयाला. . .’ भी कुट्टी काटने और पीसने की आवाजों के साथ मिल गयी। अंधेरा ही था, पर कुछ परछाइयां इधर-उधर आती-जाती दिखायी पड़ने लगी थीं।

सुखवा काका की घर की ओर से एक परछाइयाँ भागी चली आ रही थी। पास आया तो दिखायी पड़ा दीनदयाला। उसने कमीज कंधे पर रखी हुई थी, एक हाथ में जूते, दूसरे में चिउड़ा की पोटली थी। माई के थान पर कई लोग लगा थे। दीनदयाला भी माई के थान पर खड़ी परछाइयों में मिल गया। नीचे टोली से ‘ललकारता` रघुबीरा चला आ रहा था। अब इन लोगों की बातें करने की आवाज़ों में दूसरी आवाज़ें दब गयी थीं।

खजुरिया चौक से सिवान स्टेशन के लिए बस मिलती है, पर बस के पैसे किसके पास थे? दातुन-कुल्ला के बाद वे फिर चल पड़े थे। अब सिवार रह ही कितना गया है, बस बीस ‘किलोमीटर`! बीस किलोमीटर कितना होता है। चलते-चलते रफ़्तार सुस्त पड़ने लगी तो बिपिनजी कहते, ‘लगाइए ललकारा।’ ललकारा लगाया जाता और सुस्त पड़े पैर तेज जो जाते। ग्यारह बजते-बजते सिवान स्टेशन पहुंच गये तो गाड़ी मिलेगी। और फिर पटना।

ट्रेन दनदनाती हुई प्लेटफार्म के नजदीक आती जा रही थी। इंजन के उपर बड़ी बत्ती की तेज रोशनी में रेल की पटरियां चमक रही थी। ट्रेन पूरी गरिमा और गंभीरता के साथ नपे-तुले कदम भरती स्टेशन के अंदर घुसती चली आयी। रफ़्तार सुस्त पड़ने लगी और दरवाजों पर लटके हुए आदमी प्लेटफार्म की सफेद रोशनी में नहा गये।

इंतजार करते लोगों में इधर-से-उधर तक बिजली-सी दौड़ गयी कि अगर यह ट्रेन निकल गयी तो कल शाम तक दिल्ली नहीं पहुंच पायेंगे। कल शाम तक उसको दिल्ली पहुंचना है, किसी भी हालत में। पोटली में बंधे मकई के सत्तू, चिउड़ा और भूजा इसी हिसाब से रखे गये हैं। ऐसा नहीं है कि दस-पन्द्रह दिन चलते रहेंगे और ऐसा भी नहीं कि गाड़ी नहीं पकड़ पाने का बहाना लेकर लौट जायेंगे। कल शाम दिल्ली जरूर पहुंचना है। सबको। हर हालत में।

ट्रेन खड़ी हो गयी। इस्पात, बिजली के तारों और लकड़ी के टुकड़ों से बनी ट्रेन एक चुनौती की तरह सामने खड़ी थी। यहां से वहां तक ट्रेन देख डाली गयी। पर बैठने क्या, खड़े होने क्या, सांस लेने तक की जगह नहीं है। सेकेंड क्लास के डिब्बे उसी तरह के लोगों से भरे हैं। उनको भी कल किसी भी हालत में दिल्ली पहुंचना है।

‘अब क्या होगा बिपिनजी?’ यह सवाल बिपिन बिहारी शर्मा से किसी ने पूछा नहीं, पर उन्हें लग रहा था कि हज़ारों बार पूछा जा चुका है।

‘बैठना तो है ही। काहे नहीं प्रथम श्रेणी में जायें।’
प्रथम श्रेणी का लंबा-सा डिब्बा बहुत सुरक्षित है। इस्पात के दरवाजे पूरी तरह से बंद। अंदर अलग-अलग केबिनों के दरवाजे पूरी तरह से बंद।

‘दरवाजा खुलवा बाबूजी!’ धड़-धड़-धड़।
‘बाबूजी दरवाजा खोलवा!’ धड़-धड़-धड़।
‘नीचे बैठ गइले बाबूजी!’ धड़-धड़-धड़।
‘बाबूजी दिल्ली बहुत जरूरी पहुंचना बा!’ धड़-धड़-धड़।

तीन-सौ आदमी बाहर खड़े दरवाजा खोलने के लिए कह रहे थे और जवाब में इस्पात का डिब्बा हंस रहा था। समय तेजी से बीत रहा था। अगर यह गाड़ी भी निकल गयी तो कल शाम तक दिल्ली पहुंच सकेंगे।

‘दरवाजे के पास वाली खिरकी तोरते हैं।’ बिपिनजी खिड़की के पास आ गये और फिर पता नहीं कहां से आया, किसने दिया, उनके हाथ में एक लोहे का बड़ा सा टुकड़ा आ गया। पूरा स्टेशन खिड़की की सलाखें तोड़ने की आवाज़ से गूंजने लगा।

‘कस के मार-मार दरवाजा तोड़े का पड़ी। हमनी बानी एक साथ मिलके चाइल जाई तो. . .’ भरपूर हाथ मारने वालों में होड़ लग गयी। दो। सलाखें टूट गयीं तो उनसे भी हथौड़े का काम लिया जाने लगा।

‘अरे, ये आप क्या करता हे, फर्स्ट क्लास का डिब्बा है,’ काले कोट वाले बाबू ने बिपिन का हाथ पकड़ लिया। बिपिनजी ने हाथ छुड़ाने की कोशिश नहीं की। उन्होंने पूरी ताकत से नारा लगाया।

‘हर जोर जुल्म की टक्कर में’
तीन सौ आदमियों ने पूरी ताकत से जवाब दिया:
‘संघर्ष हमारा नारा है।’

काले कोट वाले बाबू को जल्दी ही अपने दोनों कानों पर हाथ रखने पड़े।
‘संघर्ष हमारा नारा है’ प्रतिध्वनियां इन लोगों के चेहरों पर कांप रही थी।
काले कोट वाले बाबू को समझते देर न लगी कि स्थिति विस्फोटक है। वे लाल झंड़ों और अधनंगे शरीरों के बीच से मछली की तरह फिसलते निकल गये और सीधे स्टेशन मास्टर के कमरे में घुस गये।

कुछ देर बाद उधर से एक सिपाही डंडा हिलाता हुआ आया और सामने खड़ा हो गया।
‘क्या तुम्हारे बाप की गाड़ी है?’ सिपाही ने बिपिनजी से पूछा।
‘नहीं, तुम्हारे बाप की है?’ सिपाही ने बिपिन शर्मा को उपर से नीचे तक देखा। चमड़े की घिसी हुई चप्पल। नीचे से फटा पाजामा, उपर खादी का कुर्ता और कुर्ते की जेब में एक डायरी, एक कलम।

‘तुम इनके नेता हो?’
‘नहीं।’
‘फिर कौन हो?’
‘इन्हीं से पूछिए।’

सिपाही ने बिपिन बिहारी शर्मा को फिर ध्यान से देखा। उम्र यही कोई तेईस-चौबीस साल। अभी दाढ़ी-मूंछ नहीं निकली है। आंखों में ठहराव और विश्वास।
‘तुम्हारा नाम क्या है?’
‘अपने काम से काम रखिए। हमारा नाम पूछकर क्या करेंगे?’

बातचीत सुनने के लिए भीड़ खिसक आयी थी। रामदीन हजरा ने चिउड़ा की पोटली बगल में दबाकर सोचा, यही साली पुलिस थी जिसने उसे झूठे डकैती के केस में फंसाकर पांच-सौ रुपये वसूल कर लिये थे। बलदेव तो पुलिस को मारने की बात बचपन से सोचता है। जबसे उसने अपने पिता के मुंह पर पुलिस की ठोकरें पड़ती देखी हैं, तबसे उसके मन में आता है, पुलिस को कहीं जमके मारा जाये। आज उसे मौका मिला है। उसने डंडे मे लगे झंडे को निकालकर जेब में रख लिया और अब उसके हाथ में डंडा-ही-डंडा रह गया।

‘ठीक से जवाब नहीं देंगे तो तुम्हें बंद कर देंगे साले,’ सिपाही ने डंडा हवा में लहराते हुए कहा।

‘देखो भाई साहब, बंद तो हमें तुम कर नहीं सकते। और ये जो गाली दे रहे हैं, तो हम आपको मारे-पीटेंगे नहीं। आपको वर्दी-पेटी उतारकर वैसे ही छोड़ देंगे।’

सिपाही ने सिर उठाकर इधर-उधर देखा। चारों तरफ काले, अधनंगे बदनों और लाल झंड़ों की अभेद्य दीवार थी। अब उसके सामने दो ही रास्ते थे, नरम पड़ जाता या गरम। नया-नया लगा था, गरम पड़ गया।

‘मादर. . .कानून. . .’ फिर पता नहीं चला कि उसकी टोपी, डंडा, कमीज, हाफ पेंट, जूते और मोजे कहां चले गये, क्योंकि यदि बीस हाथ डंडा, कमीज, हाफ पेंट, जूते और मोजे कहां चले गये, क्योंकि यदि बीस हाथ डंडा छीनने के लिये बढ़े हों, दस हाथों ने टोपी उतारी हो, सात-आठ आदमी कमीज पर झपटे हों, तीन-चार लोगों ने जूते और मोजे उतारे हो, तो इस काम में कितना समय लगा होगा? अब सिपाही, सिपाही से आदमी बन चुका था। उसके चेहरे पर न रोब था, न दाब। सामने खड़ा था बिलकुल नंगा। इस छीना झपटी में उसकी शानदार मूंछ छोटी, बहुत अजीब लग रही थी। लोग हंस रहे थे।

पता नहीं कहा से विचार आया बहरहाल एक बड़ा-सा लाल झंडा सिपाही के मुंह और सिर पर कसकर लपेटा और फिर पतली रस्सी से पक्का करके बांध दिया गया। उसी रस्सी के दूसरे कोने से सिपाही के हाथ बांध दिये गये।

खोपड़ा और चेहरा लाल, शरीर नंगा। दु:ख, भुखमरी और जुल्म से मुरझाये चेहरों पर हंसी पहाड़ी झरनों की तरह फट पड़ी। उन चेहरों पर हंसी कितनी अच्छी लगती है, जिन पर शताब्दियों से भय, आतंक के कांटे लगे हों।

फिर सिपाही के नंगे चूतड़ पर उसी का डंडा पड़ा और वह प्लेटफार्म पर भागता चला गया।
इन मनोरंजन के बाद काम में तेजी आयी। बाकी बची दो सलाखें जल्दी ही टूट गयीं। शीशा टूटने में कितनी देर लगती है? अब रास्ता साफ था। एक लड़का बंदर की तरह खिड़की में से अंदर कूद गया। अंदर से उसने दरवाजे के बोल्ट खोल दिये।

सारे लोग जल्दी-जल्दी अंदर चढ़े। बत्ती हरी हो चुकी थी और ट्रेन रेंगने लगी थी। लंबे डिब्बे की पूरी गैलरी खचाखच भर गयी। और अब भी लोग दरवाजे के डंडे पकड़े लटक रहे थे। अब केबिन भी खुलना चाहिए। अंदर बैठने की ज्यादा जगह होगी।

बिपिनजी पहले केबिन के बंद दरवाजे के सामने आये।
‘देखिए, हमने आपके डिब्बे का बड़ा लोहा वाला दरवाजा तोर दिया है, भीतर आ गइले। केबिन का दरवाजा खोल दीजिए। नहीं तो इसे तोड़ने में क्या टैम लगेगा।’
अंदर से कोई साहब नहीं आया।

‘आप अपने से खोल देंगे तो हम केवल बैठभर जायेंगे। और जो हम तोर कर अंदर आयेंगे तो आप लोगों को मारेंगे भी।’
केबिन का दरवाजा खुला। धरीदार कमीज-पाजामा पहने-आदमी ने खोला था। अंदर मद्धिम नीली बत्ती जल रही थी, पर तीनों लोग जगे हुए थे और इस तरह सिमटे-सिकुड़े बैठे थे कि सीटों पर बैठने की काफी जगह हो गयी थी।

 

चंद्रमा के देश में

म दिल्ली के रहने वाले जब छोटे शहरों या कस्बों में पहुंचते हैं तो हमारे साथ कुछ इस तरह का बर्ताव किया जाता है जैसे पहले ज़माने में तीर्थयात्रा या हज से लौटकर आए लोगों के साथ होता था। हमसे उम्मीद की जाती है कि हम हिंदुस्तान के दिल दिल्ली की रग-रग जानते हैं। प्रधानमंत्री से न सही तो मंत्रियों से तो मिलते होंगे। मंत्रियों से न सही तो उनके चमचों से तो टकराते ही होंगे। हमसे उम्मीद की जाती है हम अखबारों में छपी खबरों के पीछे छिपी असली खबरों को जानते होंगे। नई आने वाली विपदाओं और परिवर्तनों की जानकारी हमें होगी। हमसे लोग वह सब सुनना चाहते हैं जिसकी जानकारी हमें नहीं होगी। लेकिन मुफ़्त में मिले सम्मान से कौन मुंह मोड़ लेगा? और वह भी अगर दो-चार उल्टी-सीधी बातें बनाकर मिल सकता हो, तो फिर मैं विश्वसनीय गप्पें पूरे कस्बे में फैल जाती हैं। रात तक दूसरे शहर और अगले दिन तक राज्य में इस तरह फैलती हैं, जैसे वहीं की जमीन से निकली हों।

छुट्टियों के समय बर्बाद करने के लिए वहां कई जगहें हैं। उनमें से एक ‘खादी आश्रम` भी है। चूंकि वहां के कर्मचारी फुर्सत में होते हैं। आसपास में लड़-लड़कर थक चुके होते हैं इसलिए ग्राहकों से दो-चार बातें कर लेने का मोह उन्हें बहुत शालीन बना देता है। अच्छी बात है कि गांधीजी ने खादी की तरह समय के सदुपयोग के बारे में जोर देकर कोई ऐसी बात नहीं कही है, जिससे उनके अनुयायियों को समय बर्बाद करने में असुविधा महसूस हो। लेकिन समय के बारे में ऐसी कोई बात न कहकर गांधीजी ने संस्थाएं बनाने वालों के साथ जरूर अन्याय किया है, नहीं तो अब तक ‘समय आश्रम` जैस कई संस्थाएं बन चुकी होतीं।

सफेद कुर्ता-पाजामाधरी युवक पान खाए था। मुझे अंदर आता देखकर उसने खादी प्रचारक से अपना वाकयुद्ध कर दिया और इत्मीनान से खादी के थान पर थान दिखाने लगा। मैं इस तरह जैसे गांधीजी के बाद दूसरा आदमी होऊँ जिसने खादी के महत्व का समझा हो, खादी देखता रहा। बीच-बीच में बातचीत होती रही। खादी आश्रम का विक्रेता कुछ देर बाद थोड़ा आत्मीय होकर बोला, ‘श्रीमान, आप जैसी खादी-प्रेमी यहां कम आते हैं?’

मैं बात करने का मौका क्यों छोड़ देता। पूछा, ‘कैसे?’
बोला, ‘यहां तो टिंपरेरी खादी-प्रेमी आते हैं?’
‘ये क्या होता है?’

‘अरे मतलब यही श्रीमान कि लखनऊ वाली बस पकड़ने से पहले धड़धड़ाते हुए आए। पैंट, कमीज उतारी। सफेद कर्ता-पाजामा खरीदा। पहना। टोपी लगाई। सड़क पर आए। लखनऊ जाने वाली बस रुकवाई। चढ़ने से पहले बोले, ‘शाम को पैंट-कमीज ले जाएंगे।` और सीधे लखनऊ।’
इस पर याद आया कि मरे भाई जो वकील हैं, एक बार बता रहे थे कि एक पेशेवर डाकू जो उनका मुवक्किल था, बहुत दिनों से कह रहा था कि वकील साहब हमें ‘सहारा` दिला दो। खैर, तो एक दिन वह शुभ दिन आया। हमारे भाई साहब, उनके दो दोस्त और पेशेवर डाकू भाड़े की टैक्सी पर लखनऊ की तरफ रवाना हुए। जैसे ही टैक्सी लखनऊ में दाखिल होने लगी, डाकू ने टैक्सी वाले को रुकने का आदेश दिया। टैक्सी रुकी। वे लोग समझे, साले को टुट्टी-टट्टी लगी होगी। वह अपना थैला लेकर झाड़ियों के पीछे चला गया। कुछ मिनट बाद झाड़ियों के पीछ से मंत्री निकला। सिर खादी की टोपी में, पैर खादी के पाजामे में, बदन खादी के कुर्ते में। पैर गांधी चप्पल में।

इनमें से एम ने पूछा, ‘ये क्या?’
‘जरूरी हे। उकील साब, जरूरी है,’ वह बोला।
‘अमां तुम तो हमसे होशियार निकले।’
‘सो तो हइये है उकील साब!’

अपना खादी-प्रेम प्रदर्शित करके और दो कुर्तों का कपड़ा बगल में इस तरह दबाए जैसे वही गांधीजी द्वारा देश के लिए छोड़ी संपूर्ण संपत्ति हो, मैं आगे बढ़ा। अब मेरा निशाना एक गृहस्थ आश्रम था।

अब छोटे शहरों में किसी भी चीज की कमी हो, वकीलों की कमी नहीं है। हर गांव, हर मोहल्ले, हर जाति, हर धर्म के वकील हैं। यही कारण है कि हर गांव, हर मोहल्ले, हर जाति, हर धर्म के लोगों के मुकदमेबाजियां हैं। कहने का मतलब यह कि वकीलों की कमी नहीं है।

इसका श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? आप चाहें तो मोतीलाल नेहरू या जवाहरलाल नेहरू को दे सकते हैं, लेकिन मैं तो ऐसा नहीं करूंगा, क्योंकि ये हमारे वकीलों के पुरखे नहीं हो सकते। कहां तो उनके विलायत से धुलकर कपड़े आते थे और कहां ये विलायत से मंगवाकर कपड़े धोते हैं। इतने अंतर के कारण इन्हें किसी और का ही जांनशीन कहा जाना चाहिए। ये फैसला आप करें, क्योंकि वकीलों के लिए किसी पर मानहानि का मुकदमा दाग देना उतना ही आसान है, जितना हमारे आपके लिए एक सिगरेट सुलगा लेना।

वकील साहब का घर यानी ‘गृहस्थ आश्रम` नजदीक था। छके हुए वकील हैं। छके हुए शब्दों के दो अर्थ हैं। पतला मतलब खूब खाए-पिए, मोटे-ताजे, तंदुरुस्त। दूसरा मतलब परेशान, सताए गए, थके हुए। कहते हैं कि यार यह काम करते-करते मैं छक गया। तो वकील साहब दूसरी तरह के छके हुए आदमी हैं। उर्दू के इम्तहानात यानी ‘अदीब` वगैरा पास करके बी.ए. किया था। फिर अलीगढ़ से एल.एल.बी। उसके बाद की पढ़ाई यानी जो असली पढ़ाई थी, यानी मजिस्ट्रेटों और जजों को कैसे काबू किया जाए। ये न पढ़ सके थे। इसीलिए जीवन के इम्तहान में फेल हो गए थे।

मैं उनके घर पहुंचा तो खुश हो गए। मुझमें उम्र में आठ-दल साल बड़े हैं इसका हम दोनों को एहसास है। और इसका ख्याल करते हैं। फिर वकील साब को अनुभव भी मुझसे ज्यादा है। अपनी जिंदगी में अब तक ये काम कर चुके हैं: खेती करवा चुके हैं, भट्टे लगवा चुके हैं, अनाज की मंडी लगवा चुके हैं, मोजे बुनवाने का काम किया है, पावरलूम लगवा चुके हैं, डेरी खोल चुके हैं और आपकी दुआ से इन सब कामों में इन्हें घाटा हो चुका है। सब काम बंद हो चुके हैं। कुछ कर्ज अब तक चुका रहे हैं। कुछ का चुक चुका है। अब आपको जिज्ञासा होगी कि ऐसे हालात में वकील साहब की गाड़ी कैसी चल रही है। वकील साहब के पिताश्री ने उनको किराए की तीन दुकानें और एक मकान एक तरह छोड़े हैं कि वकील साहब को ये लगता ही नहीं कि वालिद मरहूम हकीकत में मरहूम हो चुके हैं। इसके अलावा वकील साहब कचहरी रोज जाते हैं तो दस-बीस रुपया बन ही जाता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि खाली हाथ आए। अरे दो दरख्वास्तें ही लिख दीं तो दस रुपये हो गए।

‘आओ. . .कब आए?’
‘परसों। जी वो. . .’
‘खैर छोड़ो. . .सुनाओ दिल्ली के क्या हाल हैं।’

फिर वही दिल्ली। अरे आप लोग दिल्ली को छोड़ क्यों नहीं देते। ये क्यों नहीं कहते कि दिल्ली जाए चूल्हे भाड़ में, यहां के हाल सुनो!
‘कोई खास बात नहीं।’
‘बिजली तो आती होगी?’
‘हां, बिजली हो आती है।’

‘यहां तो साली दिन-दिन-भर नहीं आती। सुनते हैं इधर की बिजली काटकर दिल्ली सप्लाई कर देते हैं।’
‘हां जरूर होता होगा।’

‘होगा नहीं, है। इधर के पढ़े-लिखे लोग नौकरी करने दिल्ली चले जाते हैं। इधर के मजदूर मजदूरी करने दिल्ली चले जाते हैं। इधर का माल बिकने दिल्ली जाता है।’
‘दिल्ली से अधर कुछ नहीं आता?’ मैंने हंसकर पूछा।

‘हां आता है. . .आदेश. . .हुक्म. . .और तुम कह रहे हो दिल्ली में कोई खास बात नहीं है। अरे मैं तुम्हें गारंटी देता हूं कि दिल्ली में वक्त हर कहीं कोई-न-कोई खास बात होती रहती है।’

‘और आप आजकल क्या कर रहे हैं?’
‘मियां, सोचते है। एक इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूल खोल दें। बताओ कैसा आइडिया है? दिल्ली में तो बड़े-बड़े इंग्लिश मीडियम स्कूल हैं।’
‘लेकिन. . .’

उन्होंने मेरी बात काटी, ‘लेकिन क्या,’ वे शेर की तरह बमके। मैं समझ गया कि वे मन-ही-मन इंग्लिश मीडियम स्कूल खोलने की बात ठान चुके हैं।
‘क्या कुछ इस्कोप है?’

‘इस्कोप-ही-स्कोप है। आज शहर में आठ इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूल हैं। सब खचाखच भरे रहते हैं। सौ रुपया महीने से कम कहीं फीस नहीं लगती। सौ बच्चे भी आ गए तो फीस-ही-फीस के दस हज़ार महीना हो गए। टीचरें रख लो आठ-दस। उनको थोड़ा बहुत दिया जाता है।. . .मकान-वकान का किराया निकालकर सात-आठ हज़ार रुपया महीना भी मुनाफा रख लो तो इतनी आमदनी और किस धंधे से होगी? और फिर दो टीचर तो हम घर ही के लोग हैं।’

‘घर के, कौन-कौन?’
‘अरे मैं और सईद।’

उनको चूंकि अपना बड़ा मानता हूं और चूंकि वे मेरा हमेशा खयाल करते हैं, इसलिए दिल खोलकर हंसने की ख्वाहिश दिल ही में रह गई। वकील साहब को अगर छोड़ भी दें तो उनके सुपुत्र सईद मियां बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाते हुए मुझे कल्पना में ऐसे लगे जैसे भैंस उड़ रही हो। पेड़ की जड़ें उपर हों और डालियां जमीन के अंदर। मतलब ऐसा लगता है, जैसे उसे दुनिया का आठवां अजूबा मान लिया जाएगा।

उत्तर प्रदेश, बिहार ही नहीं, पूरे-के-पूरे बेल्ट में अंग्रेजी की जो हालत है, किसी से छिपी नहीं है। यह अच्छा है या बुरा, यह अपने-आप में डिबेटेबुल प्वाइंट हो सकता है। लेकिन ‘एम` को ‘यम`, ‘एन` को ‘यन` और ‘वी` को ‘भी` बोलने वालों और अंग्रेजी का रिश्ता असफल प्रेमी और अति सुंदर प्रेमिका का रिश्ता है। पर क्या करें कि यह प्रेमिका दिन-प्रतिदिन सुंदर से अति सुंदर होती जा रही है और प्रेमी असफलता की सीढ़ियों पर लुढ़क रहा है। प्रेमी जब प्रेमिका को पा नहीं पाता तो कभी-कभी उससे घृणा करने लगता हे। इस केस में आमतौर पर यही होता है। अगर आप अच्छी-खासी हिंदी जानते और बोलते हों, लेकिन किसी प्रदेश के छोटे शहर या कस्बे में अंग्रेजी बोलने लगें तो सुनने वाले की इच्छा पहले आपसे प्रभावित होकर फिर आपको पीट देने की होगी।

यह तो हुई सबकी हालत। इसकी तुलना में सईद मियां की हालत सोने पर सुहागे जैसी है। जब पढ़ाते थे तब अंग्रेजी का नाम सुनते ही किसी नए नाथे गए बछड़े की तरह बिदकते थे और ‘ग्रामर` का नाम सुनते ही उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम नहीं नहीं हो जाया करती थी, खून खुश्क हो जाया करता था। कुछ शब्द तो उन पर गोली से ज्यादा असर करते थे, जैसे ‘पंक्चुएशन`, ‘डायरेक्ट इनडायरेक्ट टेंस`, ‘फिल इन द ब्लैंक्स`। अंग्रेजी के अध्यापक को वे कसाई और आपको बकरा समझते थे।

सईद मियां को इंटर में अंग्रेजी के पर्चे में तीन सवाल नकल करते ही लगा था, जैसे एवरेस्ट फतह कर ली हो। उसके बाद कहां अंग्रेजी और कहां सईद मियां वे हथेली पर सरसों जमाना न जानते थे। होगी दुनिया में धूम-अपने ठेंगे पर।

वकील साहब ने फिर प्वाइंट क्लीयर किया, ‘भई हमें इन इंग्लिस स्कूल वालों का सिस्टम अच्छा लगा। रटा दो लौंडों को। दे दो सालों को होम वर्क। मां-बाप कराएं, नहीं तो टीचर रखें। हमारे ठेंगे से। होम वर्क पूरा न करता हो तो मां-बाप को खींच बुलवाओ और समझाओ कि मियां बच्चे को अंग्रेजी मिडीयम में पढ़वा रहे हो, हंसी-मजाक नहीं है। फिर कसकर फीस लो। आज इस नाम से, तो कल उस नाम से। बिल्डिंग फंड, फर्नीचर फंड, पुअर फंड, टीचर फंड और स्कूल फंड. . .’ वे हंसने लगे।

‘हां, ये बात तो है।’
‘अरे भइ भूल ही गया. . .चाय. . .लेकिन चाय तो तुम पीते ही रहते होंगे. . .बेल का शरबत पियोगे?’
जी में आया कि कहं, हुजूर, अब तो बियर पिलाइए। कहां इंग्लिश मीडियम, कहां बेल का शरबत।

बेल का शरबत आने से पहले आए सईद मिया। उन्हें देखते ही वकील साहब खुश हो गए, बोले, ‘ आओ आओ, बैठो। स्कूल के बारे में ही बात कर रहे हैं।’
मैंने सईद मियां के चेहरे पर वह सब कुछ देख लिया जो उनके बारे में लिखा जा चुका है।

‘जी!’ उन्होंने छोटा-सा जवाब दिया और बैठ गए। वकील साहब इस बात पर यकीन करने वाले आदमी हैं कि बच्चों को खिलाओ सोने का निवाला, पर देखो शेर की निगाह से। तो उन्होंने सईद मियां को हमेशा शेर की निगाह से देखा है और सईद मियां ने ‘अकबर` इलाहाबादी के अनुसार ‘अब काबिले जब्ती किताबें` पढ़ ली हैं और ‘बाप को खब्ती` समझते हैं।

लेकिन सईद मिया खब्ती बाप से बेतहाशा डरते हैं। वकील साब इसे कहते हैं, लड़का सआदतमंद है। लेकिन इधर कुछ साल से इस सआदतमंदी में कुछ कमी आ रही है। दरअसल चक्कर यह है कि वकील साहब ने बेटों को चकरघिन्नी की तरह नचाया है। एक तो बेटे का पूरा कैरियर ही ‘शानदार` था, दूसरे वकील साहब की रोज-रोज बनती-बिगड़ती योजनाओं ने सईद मियां को बुरी तरह कन्फ़्यूज़ कर रखा है। वकील साहब ने कभी उन्हें कम्प्यूटर साइंटिस्ट, कभी चार्टर्ड एकाउंटेंट, कभी एक्सपोर्टर वगैरा बनाने की ऐसी कोशिश की कि सईद मियां कुछ न बन सके।

‘अब तुम कोई अच्छा-सा नाम बताओ स्कूल के लिए। यहां तो यही सिटी मांटेसरी, इंग्लिस मिडियम पब्लिक नाम चलते हैं। लेकिन नाम अंग्रेजी में होना चाहिए. . .वो मुझे पसंद नहीं कि स्कूल तो इंग्लिश मिडियम है लेकिन नाम पक्का हिंदी का है।’ वे मेरी तरफ देखने लगे, ‘अरे दिल्ली में तो बहुत इंग्लिस मीडियम स्कूल होंगे. . .उनमें से दो-चार के नाम बताओ।’

फिर आ गई दिल्ली। मैंने मन में दिल्ली को मोटी-सी गाली दी और दिल्ली के पब्लिक स्कूलों के नाम सोचने लगा।
‘ज़रा माडर्न फैशन के नाम होना चाहिए,’ वे बोले।
मैंने सोचकर कहा, ‘टाइनी टॉट।’

‘टाइनी टॉट? ये क्या नाम हुआ? नहीं नहीं, ये तो बिलकुल नहीं चलेगा. . .अरे मियां, कोई समझेगा ही नहीं। अब तो कमस खुदा की, मैं भी नहीं समझा टाइनी क्या बला है। क्यों सईद मियां, क्या ख्य़ाल है?’

सईद मियां गर्दन इनकार में हिलाने लगे और और बोले, ‘चचा, यहां तो सिटी मांटेसरी और इंग्लिस मिडियम पब्लिक स्कूल ही समझते हैं और वो. . .’ उनकी बात काटकर वकील साहब बोले, ‘वो भी हिंदी में लिखा होना चाहिए।’

‘टोडलर्स डेन,’ फिर मैंने मजाक में कहा, ‘रख लीजिए।’
इस पर तो वकील साहब लोटने लगे। हंसते-हंसते उनके पेट में बल पड़ गए। बोले, ‘वा भई वाह. . .क्या नाम है. . .जैसे मुर्गी का दड़बा।’
अब सईद मियां की तरफ मुड़े, ‘तुम अंग्रेजी की प्रैक्टिस कर रहे हो?’
‘जी हां।’

‘क्या कर रहे हो?’
‘प्रेजेंट, पास्ट और ‘फ़्यूचर टेंस याद कर रहा हूं।’
‘पिछले हफ़्ते भी तुमने यही कहा था। अच्छी तरह समझ लो कि मैं स्कूल में एक लफ़्ज़ भी हिंदी या उर्दू का नहीं बर्दाश्त करूंगा।’
‘जी हां,’ सईद मियां बोले।
‘बच्चों से तो अंग्रेजी में बता कर सकते हो?’

‘क्यों नहीं कर सकता. . .जैसे ये सिटी व इंग्लिस मिडियम पब्लिक स्कूल, जो शहर का टॉप इंग्लिस स्कूल है, की टीचरें बच्चों से अंग्रेजी में बात करती हैं, वैसे तो कर सकता हूं।’
‘ये कैसे?’ मैंने पूछा।
‘अरे चचा, कापी में लिख लेती हैं। पहले सवाल लिखती हैं जो बच्चों को रटा देती हैं। जैसे बच्चों से कहती हैं अगर तुमको बाथरूम जाना है तो कहा, ‘मैम में आई गो टु बाथरूम।` जब बच्चे उनसे पूछते हैं तो वे कापी में देखकर जवाब दे देती हैं।’

‘लेकिन इस सवाल का जवाब देने के लिए तो कापी में देखने की जरूरत नहीं है।’
‘चचा, यह तो एग्जांपल दी है। करती ऐसा ही हैं।’
‘अच्छा जनाब, एडमीशन के लिए जो लोग आएंगे, उनसे भी आपको अंग्रेजी ही में बातचीत करनी पड़ेगी।’ मुझे लगा वकील साहब और सईद मियां के बीच रस्साकशी हो रही है। इस सवाल पर सईद मियां थोड़ा कसमसाए, फिर बोले, ‘हां अगर वो लोग अंग्रेजी में बोले तो मैं भी अंग्रेजी में बोलूंगा।’ वकील साहब जवाब सुनकर सकते में आ गए। सब जानते हैं कि इस शहर में जो लोग अपने बच्चों को इंग्लिश मिडियम स्कूल में दाखिल कराने आएंगे, वे अंग्रेजी नहीं बोल सकते।

‘यही तो तुम्हारी गलती है. . .तुम अपना सब काम दूसरों के हिसाब से करते हो. . .अरे तुम्हें क्या. . .वे चाहे बोले, चाहे न बोलो. . .तुम अपना अंग्रेजी पेलते रहो. . .साले समझें तो कहां आ गए हैं।’
‘यानी चाहे समझ में आए न आए?’
‘बिलकुल।’

‘तो ठीक है, यही सही,’ सईद मियां का चेहरा खिंच गया।
कुछ देर बाद वकील नरम होकर बोले, ‘अब ऐसा भी कर देना कि साले भाग ही जाएं।’
‘नहीं-नहीं, भाग क्यों जाएंगे।’

वकील साहब ने बताया कि उनके जमाने में हिंदी-इंग्लिश ट्रांसलेशन में इस तरह के जुमले दिए जाते थे, जैसे आज बाजार में जूता चल गया, या वह चप्पल लेकर नौ-दो ग्यारह हो गया। फिर वकील साहब ने कहा, ‘मैं यह भी सोचता हूं कि सईद मियां को टीचिंग में न डालूं. . .इन्हें वाइस प्रिंसिपल बना दूं।’
‘क्यों?’ मैंने पूछा।

‘अरे भाई स्कूल में पांच-छ: लड़कियां पढ़ाएंगी. . .ये उनके बीच कहां घुसेंगे।’ मैं पूरी बात समझ गया। सईद मियां भी समझ गए और झेंप गए।
शर्बत आने के बाद वकील साहब बातचीत को स्कूल के नाम की तरफ घसीट लाए। वे चाहते थे, ये मसला मेरे सामने ही तय हो जाए। सेंट पॉल, सेंट जांस, सेंट कोलंबस जैसे नाम उन्हें पसंद तो आए, पर डर यही था कि यहां उन नामों को कोई समझेगा नहीं। स्थानीय लोगों के अज्ञान पर रोते हुए वकील साहब बोले, ‘अमां मिया धुर गंवार. . .साले गौखे . . .ये लोग क्या जानें सेंट क्या होता है. . .घुर गंवार. . .मैली-चिक्कट धोती और गंदा सलूका, पांव में चमरौधा जूता- मुंह उठाये चलते जाते हैं। हिंदी तक बोलनी नहीं आती, लेकिन कहते हैं, ‘बबुआ का इंगरेजी इस्कूल में पढ़ावा चहत हन। टेंट में दो-तीन हज़ार के नोट दाबे रहता है. . .अब तुम ही बताओ, मुनाफे का धंधा हुआ कि न हुआ?’

‘बिलकुल हुआ।’

रात उपर आसमान में तारे-ही-तारे थे। चांदनी फैली हुई थी। रात की रानी की महक बेरोक-टोक थी। अच्छी-खासी तेज़ हवा न चल रही होती तो मच्छर इस सुहावनी रात में फिल्मी खलनायकों जैसा आचरण करने लगते। बराबर में सबकी चारपाइयां बिछी थीं। सब सो रहे थे। रात का आखिरी पहर था। मैं वकील साहब से जिरह कर रहा था, ‘आप ये क्यों नहीं समझते कि पूरी दुनिया में बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाता है।’

‘मुझे क्या मतलब लोगों से, क्या मतलब मातृभाषा से. . .ये तो धंधा है. . .धंधा। हर आदमी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़वाना चाहता है।’
‘लेकिन क्यों?’
‘अंग्रेजी तो पानी है. . .जैसे बिन पानी सब सून है. . .वैसे ही बिन अंग्रेजी सब कुछ सूना है।’

‘लेकिन ऐसा है क्यों?’
‘अंग्रेज़ी हम लोगों के हुक्मरानों की जबान है।’
‘क्या अब भी कोई हमारे उपर शासन करता है?’
वकील साहब जोर से हंसे, ‘तुम यही नहीं जानते?’
मैंने दिल में कहा, ‘जानता हूं पर मानता नहीं।`

वे धीरे-धीरे पूरे आत्मविश्वास के साथ इस तरह बोलने लगे जैसे उनका एक-एक वाक्य पत्थर पर खिंची लकीर जैसा सच हो- ‘अंग्रेजी से आदमी की इज्जत होती है. . .’रुतबा. . .पोजीशन. . .पावर. . .जो इज्जत तुम्हें अंग्रेजी बोलकर मिलेगी वह हिंदी या उर्दू या दीगर हिंदुस्तानी जुबानें बोलकर मिलेगी?’ उन्होंने सवाल किया।
‘हां मिलेगी. . .आज न सही तो कल मिलेगी।’
हवा के झोंकों ने मच्छरों को फिर तितर-बितर कर दिया। रात की रानी की महक दूर तक फैल गयी। पूरब में मीलों दूर ‘सूर्य के देश में` सुबह हो चुकी होगी।

 हरिराम और गुरु-संवाद

गुरु : तुम्हारा जीवन बर्बाद हो गया हरिराम!
हरिराम : कैसे गुरुदेव?
गुरु : तुम जीभी चलाना न सीख सके!
हरिराम : पर मुझे तलवार चलाना आता है गुरुदेव!
गुरु : तलवार से गरदन कटती है, पर जीभ से पूरा मनुष्य कट जाता है।
(2)
गुरु : हरिराम, भीड़ में घुसकर तमाशा देखा करो।
हरिराम : क्यों गुरुदेव?
गुरु : इसलिए की भीड़ में घुसकर तमाशा न देख सके तो खुद तमाशा बन जाओगे!

(3)
हरिराम : क्रांति क्या है गुरुदेव?
गुरु : क्रांति एक चिड़िया है हरिराम!
हरिराम : वह कहां रहती है गुरुदेव!
गुरु : चतुर लोगों की ज़ुबान पर और सरल लोगों के दिलों में।
हरिराम : चतुर लोग उसका क्या करते हैं?
गुरु : चतुर लोग उसकी प्रशंसा करते हैं, उसके गीत गाते हैं और समय आने पर उसे चबा जाते हैं।
हरिराम : और सरल लोग उसका क्या करते हैं?
गुरु : वह उनके हाथ कभी नहीं आती।

(4)
हरिराम : गुरुदेव, अगर एक हड्डी के लिए दो भूखे कुत्ते लड़ रहे हों तो उन्हें देखकर एक सरल आदमी क्या करेगा?
गुरु : बीच-बचाव कराएगा।
हरिराम : और चतुर आदमी क्या करेगा?
गुरु : हड्डी लेकर भाग जाएगा।
हरिराम : और राजनीतिज्ञ क्या करेगा?
गुरु : दो भूखे कुत्ते वहां और छोड़ देगा।

(5)
हरिराम : आदमी क्या है गुरुदेव?
गुरु : यह एक प्रकार का जानवर है हरिराम!
हरिराम : यह जानवर क्या करता है गुरुदेव?
गुरु : यह विचारों का निर्माण करता है।
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर विचारों के महल बनाता है।
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर उनमें विचरता है।
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर विचारों को खा जाता है।
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर नए विचारों का निर्माण करता है।

(6)
हरिराम : संसार क्या है गुरुदेव?
गुरु : एक चारागाह है हरिराम!
हरिराम : उसमें कौन चरता है?
गुरु : वही चरता है जिसके आंखें होती हैं।
हरिराम : आंखें किसके होती हैं गुरुदेव?
गुरु : जिसके जीभ होती है।
हरिराम : जीभ किसके होती है गुरुदेव?
गुरु : जिसके पास बुद्धि होती है।
हरिराम : बुद्धि किसके पास होती है गुरुदेव?
गुरु : जिसके पास दुम होती है।
हरिराम : दुम किसके पास होती है गुरुदेव?
गुरु : जिसे दुम की इच्छा होती है।

(7)
गुरु : हरिराम, बताओ सफलता का क्या रहस्य है?
हरिराम : कड़ी मेहनत गुरुदेव!
गुरु : नहीं।
हरिराम : बुद्धिमानी?
गुरु : नहीं।
हरिराम : ईमानदारी?
गुरु : नहीं।
हरिराम : प्रेम?
गुरु : नहीं।
हरिराम : फिर सफलता का क्या रहस्य है गुरुदेव?
गुरु : असफलता।

(8)
हरिराम : गुरुदेव, अगर एक सुंदर स्त्री के पीछे दो प्रेमी लड़ रहे हों तो स्त्री को क्या करना चाहिए।
गुरु : तीसरे प्रेमी की तलाश।
हरिराम : क्यों गुरुदेव?
गुरु : इसलिए कि स्त्री के पीछे लड़ने वाले प्रेमी नहीं हो सकते।

(9)
हरिराम : सबसे बड़ा दर्शन क्या है गुरुदेव?
गुरु : हरिराम, सबसे बड़ा दर्शन चाटुकारिता है।
हरिराम : कैसे गुरुदेव?
गुरु : इस तरह कि चाटुकार बड़े-से-बड़े दर्शन को चाट जाता है।

(10)
हरिराम : ईमानदारी क्या है गुरुदेव?
गुरु : यह एक भयानक जानलेवा बीमारी का नाम है।
हरिराम : क्या ये बीमारी हमारे देश में भी होती है?
गुरु : हरिराम, बहुत पहले प्लेग, टी.बी. और हैजे की तरह इसका भी कोई इलाज न था। तब ये हमारे देश में फैलती थी और लाखों लोगों को चट कर जाती थी।
हरिराम : और अब गुरुदेव?
गुरु : अब उस दवा का पता चल गया है, जिसके कारण यह बीमारी रोकी जा सकती है।
हरिराम : उस दवा का क्या नाम है गुरुदेव?
गुरु : आज बच्चे-बच्चे की जुबान पर उस दवा का नाम है लालच।

स्विमिंग पूल

मुझे लग रहा था कि जिसका मुझे डर था, वही होने जा रहा है। और अफसोस यह कि मैं कोशिश भी करूं तो उसे रोक नहीं सकता। मैंने कई प्रयत्न किए कि पत्नी मेरी तरफ देख लें ताकि इशारे-ही-इशारे में उन्हें खामोश रहने का इशारा कर दूं, लेकिन वे लगातार वी.आई.पी. से बातें किए जा रही थीं! मेरे सामने कुछ दूसरे अतिथि खड़े थे, जिन्हें छोड़कर मैं एकदम से पत्नी और वी.आई.पी. की तरफ नहीं जा सकता था। प्रयास करता हुआ जब तक मैं वहां पहुंचा तो पत्नी वी.आई.पी. से ‘उसी` के बारे में बात कर रही थीं। धाराप्रवाह बोल रही थीं। मैं शर्मिंदा हुआ जा रहा था। जब मुझसे खामोश न रहा गया तो बोला, ‘अरे छोड़ो, ठीक हो जाएगा।’

पत्नी गुस्से में बोली, ‘आपको क्या है, सुबह घर से निकल जाते हैं तो रात ही में वापस आते हैं। जो दिन-भर घर में रहता हो उससे पूछिए कि क्या गुज़रती है।’

यह कहकर पत्नी फिर ‘उसके` बारे में शुरू हो गईं। मैं दिल-ही-दिल में सोचने लगा कि पत्नी पागल नहीं हो, हद दर्जे की बेवकूफ जरूर है जो इतने बड़े, महत्वपूर्ण और प्रभावशाली वी.आई.पी. से शिकायत भी कर रही है तो ये कि देखिए हमारे घर के सामने नाला बहता है, उसमें से बदबू आती है, उसमें सुअर लौटते हैं, उसमें आसपास वाले भी निगाह बचाकर गंदगी फेंक जाते है।, नाले को कोई साफ नहीं करता। सैंकड़ों बार शिकायतें दर्ज कराई जा चुकी हैं। एक बार तो किसी ने मरा हुआ इतना बड़ा चूहा फेंक दिया था। वह पानी में फूलकर आदमी के बच्चे जैसा लगने लगा था।

यह सच है कि हमने घर के सामने वाले नाले की शिकायतें सैकड़ों बार दर्ज कराई हैं। लेकिन नाला साफ कभी नहीं हुआ। उसमें से बदबू आना कम नहीं हुई। जब हम लोग शिकायतें करते-करते थक गए तो ऐसे परिचितों से मिले जो इस बारे में मदद कर सकते थे, यानी कुछ सरकारी कर्मचारी या नगरपालिका के सदस्य या और दूसरे किस्म के प्रभावशाली लोग। लेकिन नाला साफ नहीं हुआ। हमारे यहां जो मित्र लगातार आते हैं, वे नाला-सफाई कराने संबंधी पूरी कार्यवाही से परिचित हो गए हैं। सब जानते हैं कि इस बारे में उपराज्यपाल को दो रजिस्टर्ड पत्र जा चुके हैं। इसके बारे में एक स्थानीय अखबार में फोटो सहित विवरण छप चुका है। इसके बारे में महानगरपालिका के दफ़्तर में जो पत्र भेजे गए हैं उनकी फ़ाइल इतनी मोटी हो गई है कि आदमी के उठाए नहीं उठती, आदि-आदि।

वी.आई.पी. को घर बुलाने से पहले भी मुझे डर था कि पत्नी कहीं उनसे नाले का रोना न लेकर बैठ जाएं। क्योंकि मैं उनकी मानसिक हालत समझता था, इसलिए मैंने उन्हें समझाया था कि देखो नाला-वाला छोटी चीज़ें हैं, वह वी.आई.पी. के बाएं हाथ का भी नहीं, आंख के इशारे का काम है। ये काम तो उनके यहां आने की खबर फैलते ही, अपने-आप हो जाएगा। लेकिन इस वक्त पत्नी सब कुछ भूल चुकी थीं। मजबूरन मुझे भी वी.आई.पी. के सामने ‘हां` ‘हूं` करनी पड़ रही थी। आखिरकार वी.आई.पी. ने कहा कि यह चिंता करने की कोई बात नहीं है।

वी.आई.पी. के आश्वासन के बाद ही पत्नी कई साल के बाद ठीक से सो पाईं। उन्हें दोस्तों और मोहल्ले वालों ने बधाई दी कि आखिर काम हो ही गया।

वी.आई.पी. के आश्वासन से हम लोग इतने आश्वस्त थे कि एक-दो महीने तो हमने नाले के बारे में सोचा ही नहीं, उधर देखा ही नहीं। नाला हम सबको कैंसर के उस रोगी जैसा लगता था जो आज न मरा तो कल मर जाएगा।. . .कल न सही तो परसों. . .पर मरना निश्चित है। धीरे-धीरे नाला हमारी बातचीत से बाहर हो गया।

जब कुछ महीने गुज़र गए तो पत्नी ने महानगर पालिका को फोन किया। वहां से उत्तर मिला कि नाला साफ किया जाएगा। फिर कुछ महीने गुज़रे, नाला वैसे का वैसा ही रहा। पत्नी ने वी.आई.पी. के ऑफिस फोन किए। वे इतने व्यस्त थे, दौरों पर थे, विदेशों में थे कि संपर्क हो ही नहीं सका।

महीनों बाद जब वी.आई.पी. से संपर्क हुआ तो उन्हें बहुत आत्मविश्वास से कहा कि काम हो जाएगा। चिंता मत कीजिए। लेकिन यह उत्तर मिले छ: महीने बीत गए तो पत्नी के धैर्य का बांध टूटने लगा। वे मंत्रालय से लेकर दीगर दफ़्तरों के चक्कर काटने लगीं। इस मेज से उस मेज तक। उस कमरे से इस कमरे तक। सिर्फ ‘हां` ‘हां` ‘हां` ‘हां` जैसे आश्वासन मिलते रहे, लेकिन हुआ कुछ नहीं।

एक दिन जब मैं ऑफिस से लौटकर आया तो पत्नी ने बताया कि उन्होंने नाले में बहुत-से फल बहते देखे हैं। मैंने कहा, ‘किसी ने फेंके होंगे।’
इस घटना के दो-चार दिन बाद पत्नी ने बताया कि उन्होंने नाले में किताबें बहती देखी हैं। यह सुनकर मैं डर गया। लगा शायद पत्नी का दिमाग हिल गया है, लेकिन पत्नी नार्मल थीं।

फिर तो पत्नी ही नहीं, मोहल्ले के और लोग भी नाले में तरह-तरह की चीजें बहती देखने लगे। किसी दिन जड़ से उखड़े पेड़, किस दिन चिड़ियों के घोंसले, किसी दिन टूटी हुई शहनाई।
एक दिन देर से रात गए घर आया तो पत्नी बहुत घबराई हुई लग रही थीं। बोली, ‘आज मैंने वी.आई.पी. को नालें में तैरते देखा था। वे बहुत खुश लग रहे थे। नाले में डुबकियां लगा रहे थे। हंस रहे थे। किलकारियां मार रहे थे। उछल-कूद रहे थे, जैसा लोग स्विमिंग पूल में करते हैं!’

 ज़ख्म़

दलते हुए मौसमों की तरह राजधानी में साम्प्रदायिक दंगों का भी मौसम आता है। फर्क इतना है कि दूसरे मौसमों के आने-जाने के बारे में जैसे स्पष्ट अनुमान लगाये जा सकते हैं वैसे अनुमान साम्प्रदायिक दंगों के मामले में नहीं लगते। फिर भी पूरा शहर यह मानने लगा है कि साम्प्रदायिक दंगा भी मौसमों की तरह निश्चित रूप से आता है। बात इतनी सहज-साधारण बना दी गयी है कि साम्प्रदायिक दंगों की खबरें लोग इसी तरह सुनते हैं जैसे ‘गर्मी बहुत बढ़ गयी है` या ‘अबकी पानी बहुत बरसा` जैसी खबरें सुनी जाती हैं। दंगों की खबर सुनकर बस इतना ही होता है कि शहर का एक हिस्सा ‘कर्फ़्यूग्रस्त` हो जाता है। लोग रास्ते बदल लेते हैं। इस थोड़ी-सी असुविधा पर मन-ही-मन कभी-कभी खीज जाते हैं, उसी तरह जैसे बेतरह गर्मी पर या लगातार पानी बरसने पर कोफ़्त होती है। शहर के सारे काम यानी उद्योग, व्यापार, शिक्षण, सरकारी काम-काज सब सामान्य ढंग से चलता रहता है। मंत्रिमंडल की बैठकें होती हैं। संसद के अधिवेशन होते हैं। विरोधी दलों के धरने होते हैं। प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर आते हैं, मंत्री उद्घाटन करते हैं, प्रेमी प्रेम करते हैं, चोर चोरी करते हैं। अखबार वाले भी दंगे की खबरों में कोई नया या चटपटापन नहीं पाते और प्राय: हाशिए पर ही छाप देते हैं। हां, मरने वालों की संख्या अगर बढ़ जाती है तो मोटे टाइप में खबर छपती है, नहीं तो सामान्य।

यह भी एक स्वस्थ परंपरा-सी बन गयी है कि साम्प्रदायिक दंगा हो जाने पर शहर में ‘साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` होता है। सम्मेलन के आयोजकों तथा समर्थकों के बीच अक्सर इस बात पर बहस हो जाती है कि दंगा होने के तुरंत बात न करके सम्मेलन इतनी देर में क्यों किया गया। इस इलज़ाम का जवाब आयोजकों के पास होता है। वे कहते हैं कि प्रजातांत्रिक तरीके से काम करने में समय लगता है क्योंकि किसी वामपंथी पार्टी का प्रान्तीय कमेटी सम्मेलन करने का सुझाव राष्ट्रीय कमेटी को देती है। राष्ट्रीय कमेटी एक तदर्थ समिति बना देती है ताकि सम्मेलन की रूपरेखा तैयार की जा सके। तदर्थ समिति अपने सुझाव देने में कुछ समय लगाती है। उसके बाद उसकी सिफारिशें राष्ट्रीय कमेटी में जाती हैं। राष्ट्रीय कमेटी में उन पर चर्चा होती है और एक नया कमेटी बनायी जाती है जिसका काम सम्मेलन के स्वरूप के अनुसार कार्य करना होता है। अगर राय यह बनती है कि साम्प्रदायिकता जैसे गंभीर मसले पर होने वाले सम्मेलन में सभी वामपंथी लोकतांत्रिक शक्तियों को एक मंच पर लाया जाये, तो दूसरे दलों से बातचीत होती है। दूसरे दल भी जनतांत्रिक तरीके से अपने शामिल होने के बारे में निर्णय लेते हैं। उसके बाद यह कोशिश की जाती है कि ‘साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` में साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए नामी हिंदी, मुसलमान, सिख नागरिकों का होना भी जरूरी है। उनके नाम सभी दल जनतांत्रिक तरीके से तय करते हैं। अच्छी बात है कि शहर में ऐसे नामी हिंदी, मुस्लिम, सिख नागरिक हैं जो इस काम के लिए तैयार हो जाते हैं। उन नागरिकों की एक सूची है, उदाहरण के लिए भारतीय वायुसेना से अवकाशप्राप्त एक लेफ़्टीनेंट जनरल हैं, जो सिख हैं, राजधानी के एक अल्पसंख्यकनुमा विश्वविद्यालय के उप-कुलपति मुसलमान हैं तथा विदेश सेवा से अवकाश-प्राप्त एक राजदूत हिंदू हैं, इसी तरह के कुछ और नाम भी हैं। ये सब भले लोग हैं, समाज और प्रेस में उनका बड़ा सम्मान है। पढ़े-लिखे और बड़े-बड़े पदों पर आसीन या अवकाशप्राप्त। उनके सेकुलर होने में किसी को कोई शक नहीं हो सकता। और वे हमेशा इस तरह के साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनों में आने पर तैयार हो जाते हैं।

एक दिन सो कर उठा और हस्बे-दस्तूर आंखें मलता हुआ अखबार उठाने बालकनी पर आया तो हैडिंग थी ‘पुरानी दिल्ली में दंगा हो गया। तीन मारे गये। बीस घायल। दस की हालत गंभीर। पचास लाख की सम्पत्ति नष्ट हो गयी।` पूरी खबर पढ़ी तो पता चला कि दंगा कस्माबपुरे में भी हुआ है। कस्माबपुरे का ख्याल आते ही मुख्तार का ख्याल आ गया। वह वहीं रहता था। अपने ही शहर का था। सिलाई का काम करता था कनाट प्लेस की एक दुकान में। अब सवाल ये था कि मुख्तार से कैसे ‘कान्टैक्ट` हो। कोई रास्ता नहीं था, न फोन, न कर्फ़्यूपास और न कुछ और।

मुख्तार और मैं, जैसा कि मैं लिख चुका हूं, एक ही शहर के हैं। मुख्तार दर्जा आठ तक इस्लामिया स्कूल में पढ़ा था और फिर अपने पुश्तैनी सिलाई के धंधे में लग गया था। मैं उससे बहुत बाद में मिला था। उस वक्त जब मैं हिंदी में एम.ए. करने के बाद बेकारी और नौकरी की तलाश से तंग आकर अपने शहर में रहने लगा था। वहां मेरे एक रिश्तेदार, जिन्हें हम सब हैदर हथियार कहा करते थे, आवारगी करते थे। आवारगी का मतलब कोई गलत न लीजिएगा, मतलब ये कि बेकार थे। इंटर में कई बार फेल हो चुके थे और उनका शहर में जनसम्पर्क अच्छा था। तो उन्होंने मेरी मुलाकात मुख्तार से कराई थी। पहली, दूसरी और तीसरी मुलाकात में वह कुछ नहीं बोला था। शहर का मुख्य सड़क पर सिलाई की एक दुकान में वह काम करता था और शाम को हम लोग उसकी दुकान पर बैठा करते थे। दुकान का मालिक बफाती भाई मालदार और बाल-बच्चेदार आदमी था। वह शाम के सात बजते ही दुकान की चाबी मुख्तार को सौंपकर और भैंसे का गोश्त लेकर घर चला जाता था। उसके बाद वह दुकान मुख्तार की होती थी। एक दिन अचानक हैदर हथियार ने यह राज खोला कि मुख्तार भी ‘बिरादर` है। ‘बिरादर` का मतलब भाई होता है, लेकिन हमारी जुबान में ‘बिरादर` का मतलब था जो आदमी शराब पीता हो।

शुरू-शुरू में मुख्तार का मुझसे जो डर था वह दो-चार बार साथ पीने से खत्म हो गया था। और मुझे ये जानकर बड़ी हैरत हुई थी कि वह अपने समाज और उसकी समस्याओं में रुचि रखता है। वह उर्दू का अखबार बराबर पढ़ता था। खबरें ही नहीं, खबरों का विश्लेषण भी करता था और उसका मुख्य विषय हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता थी। जब मैं उससे मिला तब, अगर बहुत सीधी जुबान से कहें तो वह पक्का मुस्लिम साम्प्रदायिक था। शराब पीकर जब वह खुलता था तो शेर की तरह दहाड़ने लगता था। उसका चेहरा लाल हो जाता था। वह हाथ हिला-हिलाकर इतनी कड़वी बातें करता था कि मेरा जैसा धैर्यवान न होता तो कब की लड़ाई हो गयी होती। लेकिन मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रहने और और वहां ‘स्टूडेंट्स फेडरेशन` की राजनीति करने के कारण थोड़ा पक चुका था। मुझे मालूम था कि भावुकता और आक्रोश का जवाब केवल प्रेम और तर्क से दिया जा सकता है। वह मुहम्मद अली जिन्ना का भक्त था। श्रद्धावश उनका नाम नहीं लेता था। बल्कि उन्हें ‘कायदे आजम` कहता था। उसे मुस्लिम लीग से बेपनाह हमदर्दी थी और वह पाकिस्तान के बनने और द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को बिलकुल सही मानता था। पाकिस्तान के इस्लामी मुल्क होने पर वह गर्व करता था और पाकिस्तान को श्रेष्ठ मानता था।

मुझे याद है कि एक दिन उसकी दुकान में मैं, हैदर हथियार और उमाशंकर बैठे थे। शाम हो चुकी थी। दुकान के मालिक बफाती भाई जा चुके थे। कड़कड़ाते जाड़ों के दिन थे। बिजली चली गयी थी। दुकान में एक लैंप जल रहा था, उसकी रोशनी में मुख्तार मशीन की तेजी से एक पैंट सी रहा था। अर्जेन्ट काम था। लैम्प की रोशनी की वजह से सामने वाली दीवार पर उसके सिर की परछाईं एक बड़े आकार में हिल रही थी। मशीन चलने की आवाज से पूरी दुकान थर्रा रही थी। हम तीनों मुख्तार के काम खत्म होने का इंतजार कर रहे थे। प्रोग्राम यह था कि उसके बाद ‘चुस्की` लगाई जायेगी। आधे घंटे बाद काम खत्म हो गया और चार ‘चार की प्यालियां` लेकर हम बैठ गये। बातचीत घूम-फिर कर पाकिस्तान पर आ गई। हस्बे दस्तूर मुख्तार पाकिस्तान की तारीफ करने लगा। ‘कायदे आजम` की बुद्धिमानी के गीत गाने लगा। उमाशंकर से उसका कोई पर्दा न था, क्योंकि दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। कुछ देर बाद मौका देखकर मैंने कहा, ‘ये बताओ मुख्तार, जिन्ना ने पाकिस्तान क्यों बनवाया?’

‘इसलिए कि मुसलमान वहां रहेंगे,’ वह बोला।
‘मुसलमान तो यहां भी रहते हैं।’
‘लेकिन वो इस्लामी मुल्क है।’
‘तुम पाकिस्तान तो गये हो?’
‘हां, गया हूं।’

‘वहां और यहां क्या फर्क है?’
‘बहुत बड़ा फर्क है।’
‘क्या फर्क है?’
‘वो इस्लामी मुल्क है।’

‘ठीक है, लेकिन ये बताओ कि वहां गरीबों-अमीरों में वैसा ही फर्क नहीं है जैसा यहां है? क्या वहां रिश्वत नहीं चलती? क्या वहां भाई-भतीजावाद नहीं है? क्या वहां पंजाबी-सिंधी और मोहाजिर ‘लीजिंग` नहीं है? क्या पुलिस लोगों को फंसाकर पैसा नहीं वसूलती?’ मुख्तार चुप हो गया। उमांशकर बोले, ‘हां, बताओ. . .अब चुप काहे हो गये?’ मुख्तार ने कहा, ‘हां, ये सब तो वहां भी है लेकिन है तो इस्लामी मुल्क।’

‘यार, वहां डिक्टेटरशिप है, इस्लाम तो बादशाहत तक के खिलाफ है, तो वो कैसा इस्लामी मुल्क हुआ?’
‘अमें छोड़ो. . .क्या औरतें वहां पर्दा करती हैं? बैंक तो वहां भी ब्याज लेते-देते होंगे. . .फिर काहे की इस्लामी मुल्क।’ उमाशंकर ने कहा।

‘भइया, इस्लाम ‘मसावात` सिखाता है. . .मतलब बराबरी, तुमने पाकिस्तान में बराबरी देखी?’
मुख्तार थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। फिर अचानक फट पड़ा, ‘और वहां क्या है मुसलमानों के लिए? इलाहाबाद, अलीगढ़, मेरठ, मुरादाबाद, दिल्ली, भिवण्डी- कितने नाम गिनाऊँ. . .मुसलमानों की जान इस तरह ली जाती है जैसे कीड़े-मकोड़े हों।’

‘हां, तुम ठीक कहते हो।’
‘मैं कहता हूं ये फसाद क्यों होते हैं?’
‘भाई मेरे, फसाद होते नहीं, कराये जाते हैं।’
‘कराये जाते हैं?’
‘हां भाई, अब तो बात जग जाहिर है।’

‘कौन कराते हैं?’
‘जिन्हें उससे फायदा होता है।’
‘किन्हें उससे फायदा होता है?’
‘वो लोग जो मजहब के नाम पर वोट मांगते हैं। वो लोग जो मजहब के नाम पर नेतागिरी करते हैं।

‘कैसे?’
‘देखो, जरा सिर्फ तसव्वुर करो कि हिंदुस्तान में हिंदुओं, मुसलमानों के बीच कोई झगड़ा नहीं है। कोई बाबरी मस्जिद नहीं है। कोई राम-जन्मभूमि नहीं है। सब प्यार से रहते हैं, तो भाई, ऐसा हालत में मुस्लिम लीग या आर.एस.एस. के नेताओं के पास कौन जायेगा? उनका तो वजूद ही खत्म हो जायेगा। इस तरह समझ लो कि किसी शहर में कोई डॉक्टर है जो सिर्फ कान का इलाज करता है और पूरे शहर में सब लोगों के कान ठीक हो जाते हैं। किसी को कान की कोई तकलीफ नहीं है, तो डॉक्टर को अपना पेशा छोड़ना पड़ेगा या शहर छोड़ना पड़ेगा।’

वह चुप हो गया। शायद वह अपना जवाब सोच रहा था। मैंने फिर कहा, ‘और फिरकापरस्ती से उन लोगों को भी फायदा होता है जो इस देश की सरकार चला रहे हैं।’
‘कैसे?’

‘अगर तुम्हारे दो पड़ोसी आपस में लड़ रहे हैं, एक-दूसरे के पक्के दुश्मन हैं, तो तुम्हें उन दोनों से कोई खतरा नहीं हो सकता. . .उसी तरह हिंदू और मुसलमान आपस में ही लड़ते रहे तो सरकार से क्या लड़ेंगे? क्या कहेंगे कि हमारा ये हक है, हमारा वो हक है तो तीसरा फायदा उन लोगों को पहुंचता है जिनका कारोबार उसकी वजह से तरक्की करता है। अलीगढ़ में फसाद, भिवण्डी में फसाद इसकी मिसालें हैं।’

ये तो शुरुआत थी। धीरे-धीरे ऐसा होने लगा कि हम लोग जब भी मिलते थे, बातचीत इन्हीं बातों पर होती। चाय का होटल हो या शहर के बाहर सड़क के किनारे कोई वीरान-सी पुलिया- बहस शुरू हो जाया करती थी। बहस भी अजब चीज है। अगर सामने वाले को बीच बहस में लग गया कि आप उसे जाहिल समझते हैं, उसका मजाक उड़ा रहे हैं, उसे कम पढ़ा-लिखा मान रहे हैं, तो बहस कका कभी कोई अंत नहीं होता।

उस जमाने में मुख्तार उर्दू के अखबारों और रिसालों का बड़ा भयंकर पाठक था। शहर में आने वाला शायद ही ऐसा कोई उर्दू अखबार, रिसाला, डाइजेस्ट हो जो वह न पढ़ता हो। इतना ज्यादा पढ़ने की वजह से उसे घटनायें, तिथियां और बयान इस कदर याद हो जाते थे कि बहस में उन्हें बड़े आत्मविश्वास के साथ ‘कोट` करता रहता था। एक दिन उसने मुझे उर्दू के कुछ रिसालों और अखबारों का एक पुलिंदा दिया और कहा कि इन्हें पढ़कर आओ तो बहस हो। उर्दू में सामान्यत: जो राजनीतिक पर्चे छपते हैं, उनके बारे में मुझे हल्का-सा इल्म था। लेकिन मुख्तार के दिये रिसाले जब ध्यान से पढ़े तो भौंचक्का रह गया। इन परचों में मुसलमानों के साथ होने वाली ज्यादतियों को इतने भयावह और करुण ढंग से पेश किया गया था कि साधारण पाठक पर उनका क्या असर होगा, यह सोचकर डर गया। मिसाल के तौर पर इस तरह के शीर्षक थे ‘मुसलमानों के खून से होली खेली गयी` या ‘भारत में मुसलमान होना गुनाह है` या ‘क्या भारत के सभी मुसलमानों को हिंदू बनाया जायेगा` या ‘तीन हजार मस्जिदें, मन्दिरबना ली गयी हैं।` उत्तेजित करने वाले शीर्षकों के नीचे खबरें लिखने का जो ढंग था वह भी बड़ा भावुक और लोगों को मरने-मारने या सिर फोड़ लेने पर मजबूर करने वाला था।

वह दो-चार दिन बाद मिला तो बड़ा उतावला हो रहा था। बातचीत करने के लिए बोला, ‘तुमने पढ़ लिये सब अखबार?’
‘हां, पढ़ लिये।’

‘क्या राय है. . .अब तो पता चला कि भारत में मुसलमानों के साथ क्या होता है। हमारी जान-माल, इज्जत-आबरू कुछ भी महफूज़ नहीं है।’
‘हां, वो तो तुम ठीक कहते हो. . .लेकिन एक बात ये बताओ कि तुमने जो रिसाले दिये हैं वो फिरकापरस्ती को दूर करने, उसे खत्म करने के बारे में कभी कुछ नहीं लिखते?’

‘क्या मतलब?’ वह चौंक गया।
‘देखो, मैं मानता हूं मुसलमानों के साथ ज्यादती होती है, दंगों में सबसे ज्यादा वही मारे जाते हैं। पी.ए.सी. भी उन्हें मारती है और हिंदू भी मारते हैं। मुसलमान भी मारते हैं हिंदुओं को। ऐसा नहीं है कि वे चुप बैठे रहते हों. . .।’

‘हां, तो कब तक बैठे रहे? क्यों न मारें?’ वह तड़पकर बोला।
‘ठीक है तो वो तुम्हें मारें तुम उनको मारो. . .फिर ये रोना-धोना कैसा?’
‘क्या मतलब है तुम्हारा?’
‘मेरा मतलब है इसी तरह मारकाट होती रही तो क्या फिरकापरस्ती खत्म हो जायेगी?’
‘नहीं, नहीं खत्म होगी।’

‘और तुम चाहते हो, फिरकापरस्ती खत्म हो जाये?’
‘हां।’
‘तो ये अखबार, जो तुमने दिये, क्यों नहीं लिखते कि फिरकापरस्ती कैसे खत्म की जा सकती है?’

‘ये अखबार क्यों नहीं चाहते होंगे कि फिरकापरस्ती खत्म हो?’
‘ये तो वही अखबार वाले बता सकते हैं। जहां तक मैं समझता हूं ये अखबार बिकते ही इसलिए हैं कि इनमें दंगों की भयानक दर्दनाक और बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गयी तस्वीरें होती हैं। अगर दंगे न होंगे तो ये अखबार कितने बिकेंगे।’

मेरी इस बात पर वह बिगड़ गया। उसका कहना था कि ये कैसे हो सकता है कि मुसलमानों के इतने हमदर्द अखबार ये नहीं चाहते कि दंगे रुकें, मुसलमान चैन से रहें, हिंदू-मुस्लिम इत्तिहाद बने।

कुछ महीनों की लगातार बातचीत के बाद हम लोगों के बीच कुछ बुनियादी बातें साफ हो चुकी थीं। उसे सबसे बड़ी दिलचस्पी इस बात में पैदा हो गयी थी कि दंगे कैसे रोके जा सकते हैं। हम दोनों ये जानते थे कि दंगे पुलिस, पी.ए.सी. प्रशासन नहीं रोक सकता। दंगे साम्प्रदायिक पार्टियां भी नहीं रोक सकतीं, क्योंकि वे तो दंगों पर ही जीवित हैं। दंगों को अगर रोक सकते हैं तो सिर्फ लोग रोक सकते हैं।

‘लेकिन लोग तो दंगे के जमाने में घरों में छिपकर बैठ जाते हैं।’ उसने कहा।
‘हां, लोग इसलिए छिपकर बैठ जाते हैं क्योंकि दंगा करने वालों के मुकाबले वो मुत्तहिद नहीं हैं. . .अकेला महसूस करते हैं अपने को. . .और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। जबकि दंगा करने वो ‘आरगेनाइज` होते हैं. . .लेकिन जरूरी ये है कि दंगों के खिलाफ जिन लोगों को संगठित किया जाये उनमें हिंदू-मुसलमान दोनों हों. . .और उनके ख्यालात इस बारे में साफ हों।’

‘लेकिन ये काम करेगा कौन?’
‘हम ही लोग, और कौन?’
‘लेकिन कैसे?’

‘अरे भाई, लोगों से बातचीत करके. . .मीटिंगें करके. . .उनको बता-समझाकर . . .मैं कहता हूं शहर में हिंदू-मुसलमानों का अगर दो सौ ऐसे लोगों का ग्रुप बन जाये जो जान पर खेलकर भी दंगा रोकने की हिम्मत रखते हों तो दंगा करने वालों की हिम्मत परस्त हो जायेगी। तुम्हें मालूम होगा कि दंगा करने वाले बुजदिल होते हैं। वो किसी ‘ताकत` से नहीं लड़ सकते। अकेले-दुकेले को मार सकते हैं, आग लगा सकते हैं, औरतों के साथ बलात्कार कर सकते हैं, लेकिन अगर उन्हें पता चल जाये कि सामने ऐसे लोग है। जो बराबर की ताकत रखते हैं, उनमें हिंदू भी हैं और मुसलमान भी, तो दंगाई सिर पर पैर रखकर भाग जायेंगे।’

वह मेरी बात से सहमत था और हम अगले कदम पर गौर करने की स्थिति में आ गये थे। मुख्तार इस सिलसिले में कुछ नौजवानों से मिला भी था।

कुछ साल के बाद हम दिल्ली में फिर साथ हो गये। मैं दिल्ली में धंधा कर रहा था और वह कनाट प्लेस की एक दुकान में काम करने लगा था और जब दिल्ली में दंगा हुआ और ये पता चला कि कस्साबपुरा भी बुरी तरह प्रभाव में है तो मुझे मुख्तार की फिक्र हो गयी। दूसरी तरफ मुख्तार के साथ जो कुछ घटा वह कुछ इस तरह था।. . .शाम का छ: बजा था। वह मशीन पर झुका काम कर रहा था। दुकान मालिक सरदारजी ने उसे खबर दी कि दंगा हो गया है और उसे जल्दी-से-जल्दी घर पहुंच जाना चाहिए।

पहाड़गंज में बस रोक दी गयी थी। क्योंकि आगे दंगा हो रहा था। पुलिस किसी को आगे जाने भी नहीं दे रही थी। मुख्तार ने मुख्य सड़क छोड़ दी और गलियों और पिछले रास्तों से आगे बढ़ने लगा। गलियां तक सुनसान थीं। पानी के नलों पर जहां इस वक्त चांव-चांव हुआ करती थी, सिर्फ पानी गिरने की आवाज आ रही थी। जब गलियों में लोग नहीं होते तो कुत्ते ही दिखाई देते हैं। कुत्ते ही थे। वह बचता-बचाता इस तरह आगे बढ़ता रहा कि अपने मोहल्ले तक पहुंच जाये। कभी-कभार और कोई घबराया परेशान-सा आदमी लंबे-लंबे कदम उठाता इधर से उधर जाता दिखाई पड़ जाता। एक अजीब भयानक तनाव था जैसे ये इमारतें बारूद की बनी हुई हों और ये सब अचानक एक साथ फट जायेंगे। दूर से पुलिस गाड़ियों से सायरन की आवाजें भी आ रही थीं। कस्साबपुरे की तरफ से हल्का-हल्का धुआं आसमान में फैल रहा था। न जाने कौन जल रहा होगा, न जाने कितने लोगों के लिए संसार खत्म हो गया होगा। न जाने जलने वालों में कितने बच्चे, कितनी औरतें होंगी। उनकी क्या गलती होगी? उसने सोचा अचानक एक बंद दरवाजे के पीछे से किसी औरत की पंजाबी में कांपती हुई आवाज गली तक आ गयी। वह पंजाबी बोल नहीं पाता था लेकिन समझ लेता था। और कह रही थी, बबलू अभी तक नहीं लौटा। मुख्तार ने सोचा, उसके बच्चे भी घर के दरवाजे पर खड़े झिर्रियों से बाहर झांक रहे होंगे। शाहिदा उसकी सलामती के लिए नमाज पढ़ रही होगी। भइया छत पर खड़े गली में दूर तक देखने की कोशिश कर रहे होंगे। छत पर खड़े एक-दो और लोगों से पूछ लेते होंगे कि मुख्तार तो नहीं दिखाई दे रहा है। उसके दिमाग में जितनी तेजी से ये ख्याल आ रहे थे उतनी तेज उसकी रफ़्तार होती जाती थी। सामने पीपल के पेड़ से कस्साबपुरा शुरू होता है और पीपल का पेड़ सामने ही है। अचानक भागता हुआ कोई आदमी हाथ में कनस्तर लिये गली में आया और मुख्तार को देखकर एक पतली गली में घुस गया। अब मुख्तार को हल्का-हल्का शोर भी सुनाई पड़ रहा था। पीपल के पेड़ के बाद खतरा न होगा, क्योंकि यहां से मुसलमानों की आबादी शुरू होती थी। ये सोचकर मुख्तार ने दौड़ना शुरू कर दिया। पीपल के पेड़ के पास पहुंचकर मुड़ा और उसी वक्त हवा में उड़ती कोई चीज उसके सिर से टकराई और उसे लगा कि सिर आग हो गया है। दहकता हुआ अंगारा। उसने दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया और भागता रहा। उसे ये समझने में देर नहीं लगी कि एसिड का बल्ब उसके सिर पर मारा गया है। सर की आग लगातार बढ़ती जा रही थी और वह भागता जा रहा था। उसे लगा कि वह जल्दी ही घर न पहुंच गया तो गली में गिरकर बेहोश हो जायेगा और वहां गिरने का नतीजा उसकी लाश पुलिस ही उठाएगी। दोनों बच्चों के चेहरे उसकी नजरों में घूम गये।

दंगा खत्म होने के बाद मैं मुख्तार को देखने गया। उसके बाल भूरे जैसे हो गये थे और लगातार गिरते थे। सिर की खाल बुरी तरह जल गयी थी और ज़ख्म़ हो गये थे। एसिड का बल्ब लगने के बराबर ही भयानक दुर्घटना ये हुई थी कि जब वह घर पहुंचा था तो उसे पानी से सिर नहीं धोने दिया गया था। सबने कहा था कि पानी मत डालो। पानी डालने से बहुत गड़बड़ हो जायेगी। और वह खुद ऐसी हालत में नहीं था कि कोई फैसला कर सकता। आठ दिन कर्फ्यू चला था और जब वह डॉक्टर के पास गया था तो डॉक्टर ने उसे बताया था कि अगर वह फौरन सिर धी लेता तो इतने गहरे ज़ख्म़ न होते।

दंगे के बाद साम्प्रदायिक सद्भावना स्थापित करने के लिए सम्मेलन किये जाने की कड़ी में इन दंगों में तीन महीने बाद सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में मैंने सोचा मुख्तार को ले चलना चाहिए। उसे एक दिन की छुट्टी करनी पड़ी और हम दोनों राजधानी की वास्तविक राजधानी- यानी राजधानी का वह हिस्सा जहां चौड़ी साफ सड़कें, सायादार पेड़, चमचमाते हुए फुटपाथ, उंचे-उंचे बिजली के खम्बे और चिकनी-चिकनी इमारते हैं और वैसे ही चिकने-चिकने लोग हैं। मुख्तार भव्य इमारत में घुसने से पहले कुछ हिचकिचाया, लेकिन मेरे बहादुरी से आगे बढ़ते रहने की वजह से उसमें कुछ हिम्मत आ गयी और हम अंदर आ गये। अंदर काफी चहल-पहल थी। विश्वविद्यालयों के छात्र, अध्यापक, संस्थानों के विद्वान, बड़े सरकारी अधिकारी, दफ़्तरों में काम करने वाले लोग, सभी थे। उनमें से अधिकतर चेहरे देखे हुए थे। वे सब वामपंथी राजनीति या उसके जन-संगठनों में काम करने वाले लोग थे। कहां कलाकार, लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, रंगकर्मी और संगीतज्ञ भी थे। पूरी भीड़ में मुख्तार जैसे शायद ही चन्द रहे हों या न रहे हों, कहा नहीं जा सकता।

अंदर मंच पर बड़ा-सा बैनर लगा हुआ था। इस पर अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू में ‘साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` लिखा था। मुझे याद आया कि वही बैनर है जो चार साल पहले हुए भयानक दंगों के बाद किये गये सम्मेलन में लगाया गया था। बैनर पर तारीखों की जगह पर सफेद कागज चिपकाकर नयी तारीखें लिख दी गयी थीं। मंच पर जो लोग बैठे थे वे भी वही थे जो पिछले और उससे पहले हुए साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनों में मंच पर बैठे हुए थे। सम्मेलन होने की जगह भी वही थी। आयोजक भी वही थे। मुझे याद आया। पिछले सम्मेलन के एक आयोजक से सम्मेलन के बाद मेरी कुछ बातचीत हुई थी और मैंने कहा था कि दिल्ली के सर्वथा भद्र इलाके में सम्मेलन करने तथा ऐसे लोगों को ही सम्मेलन में बुलाने का क्या फायदा है जो शत-प्रतिशत हमारे विचारों से सहमत हैं। इस पर आयोजक ने कहा था कि सम्मेलन मजदूर बस्तियों, घनी आबादियों तथा उपनगरीय बस्तियों में भी होंगे। लेकिन मुझे याद नहीं कि उसके बाद ऐसा हुआ हो।

हाल में सीट पर बैठकर मुख्तार ने मुझसे यही बात कही। वह बोला ‘इनमें तो हिंदु भी हैं और मुसलमान भी।’
मैंने कहा, ‘हां!’

वह बोला, ‘अगर ये सम्मेलन कस्साबपुरा में करते तो अच्छा था। वहां के मुसलमान ये मानते ही नहीं कि कोई हिंदू उनसे हमदर्दी रख सकता है।’

‘वहां भी करेंगे. . .लेकिन अभी नहीं।’ तभी कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। संयोजक ने बात शुरू करते हुए साम्प्रदायिक शक्तियों की बढ़ती हुई ताकत तथा उसके खतरों की ओर संकेत किया। यह भी कहा कि जब तक साम्प्रदायिकता को समाप्त नहीं किया जायेगा तब तक जनवारी शक्तियां मजबूत नहीं हो सकतीं। उन्होंने यह आश्वासन भी दिया कि अब सब संगठित होकर साम्प्रदायिक रूपी दैत्य से लडेंगे। इस पर लोगों ने जोर की तालियां बजायीं और सबसे पहले अल्पसंख्यकों के विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को बोलने के लिए आमंत्रित किया। उप-कुलपति आई.ए.एस. सर्विसेज में थे। भारत सरकार के उंचे ओहदों पर रहे थे। लंबा प्रशासनिक अनुभव था। उनकी पत्नी हिंदू थी। उनकी एक लड़की ने हिंदू लड़के से विवाह किया था। लड़के की पत्नी अमरीकन थी। उप-कुलपति के प्रगतिशील और धर्म निरपेक्ष होने में कोई संदेह न था। वे एक ईमानदार और प्रगतिशील व्यक्ति के रूप में सम्मानित थे। उन्होंने अपने भाषण में बहुत विद्वत्तापूर्ण ढंग से साम्प्रदायिकता की समस्या का विश्लेषण किया। उसके खतरनाक परिणामों की ओर संकेत किये और लोगों को इस चुनौती से निपटने को कहा। कोई बीस मिनट तक बोलकर वे बैठ गये। तालियां बजीं।

मुख्तार ने मुझसे कहा, ‘प्रोफेसर साहब की समझ तो बहुत सही है।’
‘हां, समझ तो उन सब लोगों की बिलकुल सही है जो यहां मौजूद हैं।’
‘तो फिर?’

तब तक दूसरे वक्ता बोलने लगे थे। ये एक सरदार जी थे। उनकी उम्र अच्छी-खासी थी। स्वतंत्रता सेनानी थे और दसियों साल पहले पंजाब सरकार में मंत्री रह चुके थे। उन्होंने अपने बचपन, अपने गांव और अपने हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख दोस्तों के संस्मरण सुनाये। उनके भाषण के दौरान लगभग लगातार तालियां बजती रहीं। फिर उन्होंने दिल्ली के हालिया दंगों पर बोलना शुरू किया।

मुख्तार ने मेरे कान में कहा, ‘सरदार जी दंगा कराने वालों के नाम क्यों नहीं ले रहे हैं? बच्चा-बच्चा जानता है दंगा किसने कराया था।’
मैंने कहा, ‘बचपने वाली बातें न करो। दंगा कराने वालों के नाम ले दिये तो वे लोग इन पर मुकदमा ठोक देंगे।’

‘तो मुकदमे के डर से सच बात न कही जाये?’
‘तुम आदर्शवादी हो। आइडियलिस्ट. . .।’
‘ये क्या होता है?’ मुख्तार बोला।
‘अरे यार, इसका मकसद दंगा कराने वालों के नाम गिनाना तो है नहीं।’
‘फिर क्या मकसद है इनका?’
‘बताना कि फिरकापरस्ती कितनी खराब चीज है और उसके कितने बुरे नतीजे होते हैं।’
‘ये बात तो यहां बैठे सभी लोग मानते हैं। जब ही तो तालियां बजा रहे हैं।’
‘तो तुम क्या चाहते हो?’

‘ये दंगा करने वालों के नाम बतायें।’ मुख्तार की आवाज तेज हो गई। वह अपना सिर खुजलाने लगा।
‘नाम बताने से क्या फायदा होगा?’
‘न बताने से क्या फायदा होगा?’

स्वतंत्रता सेनानी का भाषण जारी था। वे कुछ किये जाने पर बोल रहे थे। इस पर जोर दे रहे थे कि इस लड़ाई को गलियों और खेतों में लड़ने की जरूरत है। स्वतंत्रता सेनानी के बाद एक लेखक को बोलने के लिए बुलाया गया। लेखक ने साम्प्रदायिकता के विरोध में लेखकों को एकजुट होकर संघर्ष करने की बात उठाई।
‘तुम मुझ एक बात बताओ,’ मुख्तार ने पूछा।
‘क्या?’

‘जब दंगा होता है तो ये सब लोग क्या करते हैं?’
मैं जलकर बोला, ‘अखबार पढ़ते हैं, घर में रहते हैं और क्या करेंगे?’
‘तब तो इस जुबानी जमा-खर्च का फायदा क्या है?’
‘बहुत फायदा है, बताओ?’
‘भाई, एक माहौल बनता है, फिरकापरस्ती के खिलाफ।’

‘किन लोगों में? इन्हीं में जो पहले से ही फिरकापरस्ती के खिलाफ हैं? तुम्हें मालूम है दंगों के बाद सबसे पहले हमारे मोहल्ले में कौन आये थे?’
‘कौन?’

‘तबलीगी जमात और जमाते-इस्लामी के लोग. . .उन्होंने लोगों को आटा-दाल, चावल बांटा था, उन्होंने दवाएं भी दी थीं। उन्होंने कर्फ्यू पास भी बनवाये थे।’
‘तो उनके इस काम से तुम समझते हो कि वे फिरकापरस्ती के खिलाफ हैं।’
‘हों या न हों, दिल कौन जीतेगा. . .वही जो मुसीबत के वक्त हमारे काम आये या जो. . .’
मैं उसकी बात काटकर बोला, ‘खैर बाद में बात करेंगे, अभी सुनने दो।’
कुछ देर बाद मैंने उससे कहा, ‘बात ये है यार कि इन लोगों के पास इतनी ताकत नहीं है कि दंगों के वक्त बस्तियों में जायें।’

‘इनके पास उतनी ताकत नहीं है और जमाते इस्लामी के पास है?’
मैं उस वक्त उसके इस सवाल का जवाब न दे पाया। मैंने अपनी पहली ही बात जारी रखी, ‘जब इनके पास ज्यादा ताकत आ जायेगी तब ये दंगाग्रस्त इलाकों में जा सकेंगे, काम कर सकेंगे।’
‘उतनी ताकत कैसे आयेगी?’

‘जब ये वहां काम करेंगे।’
‘पर अभी तुमने कहा कि इनके पास उतनी ताकत ही नहीं है कि वहां जा सकें. . .फिर काम कैसे करेंगे?’
‘तुम कहना क्या चाहते हो?’
‘मतलब यह है कि इनके पास इतनी ताकत नहीं है कि ये दंगे क बाद या दंगे के वक्त उन बस्तियों में जा सकें जहां दंगा होता है, और ताकत इनके पास उसी वक्त आयेगी जब ये वहां जाकर काम करेंगे. . .और जा सकते नहीं।’

‘यार, हर वक्त दंगा थोड़ी होता रहता है, जब दंगा नहीं होता तब जायेंगे।’
‘अच्छा ये बताओ, जमाते इस्लामी के मुकाबले इन लोगों को कमजोर कैसे मान रहे हो. . .इनके तो एम.पी. हैं, दो तीन सूबों में इनकी सरकारें हैं, जबकि जमाते इस्लामी का तो एक एम.पी. भी नहीं।’
मैं बिगड़कर बोला, ‘तो तुम ये साबित करना चाहते हो कि ये झूठे, पाखंडी, कामचोर और बेईमान लोग हैं?’

‘नहीं, नहीं, ये तो मैंने बिलकुल नहीं कहा!’ वह बोला।
‘तुम्हारी बात से मतलब तो यही निकलता है।’
‘नही, मेरा ये मानना नहीं है।’
मैं धीरे-धीरे उसे समझाने लगा, ‘यार, बात दरअसल ये है कि हम लोग खुद मानते हैं कि काम जितनी तेजी से होना चाहिए, नहीं हो रहा है। धीरे-धीरे हो रहा है, लेकिन पक्के तरीके से हो रहा है। उसमें टाइम तो लगता ही है।’
‘तुम ये मानते होगे कि फिरकापरस्ती बढ़ रही है।’
‘हां।’

‘तो ये धीरे-धीरे जो काम हो रहा है उनका कोई असर नहीं दिखाई पड़ रहा है, हां फिरकापरस्ती जरूरी दिन दूनी रात चौगुनी स्पीड से बढ़ रही है।’
‘अभी बाहर निकलकर बात करते हैं।’ मैंने उसे चुप करा दिया।

इस बीच चाय सर्व की गयी। आखिरी वक्ता ने समय बहुत जो जाने और सारी बातें कह दी गयी हैं, आदि-आदि कहकर अपना भाषण समाप्त कर दिया। हम दोनों थोड़ा पहले ही बाहर निकल आये। सड़क पर साथ-साथ चलते हुए वह बोला, ‘कोई ऐलान तो किसी को करना चाहिए था।’
‘कैसा ऐलान?’

‘मतलब ये है कि अब ये किया जायेगा, ये होगा।’
‘अरे भाई, कहा तो गया कि जनता के पास जायेंगे, उसे संगठित और शिक्षित किया जायेगा।’
‘कोई और ऐलान भी कर सकते थे।’
‘क्या ऐलान?’

‘प्रोफेसर साहब कह सकते थे कि अगर फिर दिल्ली में दंगा हुआ तो वे भूख हड़ताल पर बैठ जायेंगे। राइटर जो थे वो कहते कि फिर दंगा हुआ तो वे अपनी पद्मश्री लौटा देंगे। स्वतंत्रता सेनानी अपना ताम्रपत्र लौटाने की धमकी देते।’ उसकी बात में मेरा मन खिन्न हो गया और मैं चलते-चलते रुक गया। मैंने उससे पूछा, ‘ये बताओ, तुम्हें इतनी जल्दी, इतनी हड़बड़ी क्यों है?’
वह मेरे आगे झुका। कुछ बोला नहीं। उसने अपने सिर के बाल हटाये। मेरे सामने लाल-लाल जख्म थे जिसे ताजा खून रिस रहा था।

 मुश्किल काम

जब दंगे खत्म हो गये, चुनाव हो गये, जिन्हें जीतना था जीत गये, जिनकी सरकार बननी थी बन गयी, जिनके घर और जिनके जख्म भरने थे भर गये, तब दंगा करने वाली दो टीमों की एक इत्तफाकी मीटिंग हुई। मीटिंग की जगह आदर्श थी यानी शराब का ठेका- जिसे सिर्फ चंद साल पहले से ही ‘मदिरालय` कहा जाने लगा था, वहां दोनों गिरोह जमा थे, पीने-पिलाने के दौरान किसी भी विषय पर बात हो सकती है, तो बातचीत ये होने लगी कि पिछले दंगों में किसने कितनी बहादुरी दिखाई, किसने कितना माल लूटा, कितने घरों में आग लगाई, कितने लोगों को मारा, कितने बम फोड़े, कितनी औरतों को कत्ल किया, कितने बच्चों की टाँगें चीरीं, कितने अजन्मे बच्चों का काम तमाम कर दिया, आदि-आदि।

मदिरालय में कभी कोई झूठ नहीं बोलता यानी वहां कही गयी बात अदालत में गीता या कुरान पर हाथ रखकर खायी गयी कसम के बराबर होती है, इसलिए यहां जो कुछ लिखा जा रहा है, सच है और सच के सिवा कुछ नहीं है। खैरियत खैरसल्ला पूछने के बाद बातचीत इस तरह शुरू हुई। पहले गिरोह के नेता ने कहा ‘तुम लोग तो जन्खे हो, जन्खे. . .हमने सौ दुकानें फूंकी हैं।’ दूसरे ने कहा, ‘उसमें तुम्हारा कोई कमाल नहीं है। जिस दिन तुमने आग लगाई, उस दिन तेज हवा चल रही थी. . .आग तो हमने लगाई थी जिसमें तेरह आदमी जल मेरे थे।’

बात चूंकि आग में आदमियों पर आयी थी, इसलिए पहले ने कहा, ‘तुम तेरह की बात करते हो? हमने छब्बीस आदमी मारे हैं।’ दूसरा बोला, ‘छब्बीस मत कहो।’
‘क्यों?’

‘तुमने जिन छब्बीस को मारा है. . .उनमें बारह तो औरतें थीं।’
यह सुनकर पहला हंसा। उसने एक पव्वा हलक में उंडेल लिया और बोला, ‘गधे, तुम समझते हो औरतों को मारना आसान है?’
‘हां।’

‘नहीं, ये गलत है।’ पहला गरजा।
‘कैसे?’

‘औरतों की हत्या करने के पहले उनके साथ बलात्कार करना पड़ता है, फिर उनके गुप्तांगों को फाड़ना-काटना पड़ता है. . .तब कहीं जाकर उनकी हत्या की जाती है।’
‘लेकिन वे होती कमजोर हैं।’

‘तुम नहीं जानते औरतें कितनी जोर से चीखती हैं. . .और किस तरह हाथ-पैर चलाती हैं. . .उस वक्त उनके शरीर में पता नहीं कहां से ताकत आ जाती है. . .’
‘खैर छोड़ो, हमने कुल बाइस मारे हैं. . .आग में जलाये इसके अलावा हैं।’ दूसरा बोला।
पहले ने पूछा, ‘बाईस में बूढे कितने थे?’

‘झूठ नहीं बोलता. . .सिर्फ आठ थे।’
‘बूढ़ों को मारना तो बहुत ही आसान है. . .उन्हें क्यों गिनते हो?’
‘तो क्या तुम दो बूढ़ों को एक जवान के बराबर भी न गिनोगे?’

‘चलो, चार बूढ़ों को एक जवान के बराबर गिन लूंगा।’
‘ये तो अंधेर कर रहे हो।’
‘अबे अंधेर तू कर रहा है. . .हमने छब्बीस आदमी मारे हैं. . .और तू हमारी बराबरी कर रहा है।’

दूसरा चिढ़ गया, बोला, ‘तो अब तू जबान ही खुलवाना चाहता है क्या?’
‘हां-हां, बोल बे. . .तुझे किसने रोका है।’
‘तो कह दूं सबके सामने साफ-साफ?’
‘हां. . .हां, कह दो।’

‘तुमने जिन छब्बीस आदमियों को मारा है. . .उनमें ग्यारह तो रिक्शे वाले, झल्ली वाले और मजदूर थे, उनको मारना कौन-सी बहादुरी है?’
‘तूने कभी रिक्शेवालों, मजदूरों को मारा है?’
‘नहीं. . .मैंने कभी नहीं मारा।’ वह झूठ बोला।
‘अबे, तूने रिक्शे वालों, झल्ली वालों और मजदूरों को मारा होता तो ऐसा कभी न कहता।’

‘क्यों?’

‘पहले वे हाथ-पैर जोड़ते हैं. . .कहते हैं, बाबूजी, हमें क्यों मारते हो. . हम तो हिंदू हैं न मुसलमान. . .न हम वोट देंगे. . .न चुनाव में खड़े होंगे. . .न हम गद्दी पर बैठेंगे. . .न हम राज करेंगे. . .लेकिन बाद में जब उन्हें लग जाता है कि वो बच नहीं पायेंगे तो एक-आध को ज़ख्म़ी करके ही मरते हैं।’

दूसरे ने कहा, ‘अरे, ये सब छोड़ो. . .हमने जो बाईस आदमी मारे हैं. . .उनमें दस जवान थे. . कड़ियल जवान. . . ‘

‘जवानों को मारना सबसे आसान है।’
‘कैसे? ये तुम कमाल की बात कर रहे हो!’
‘सुनो. . .जवान जोश में आकर बाहर निकल आते हैं उनके सामने एक-दो नहीं पचासों आदमी होते हैं. . .हथियारों से लैस. . .एक आदमी पचास से कैसे लड़ सकता है?. . .आसानी से मारा जाता है।’

इसके बाद ‘मदिरालय` में सन्नाटा छा गया, दोनों चुप हो गये। उन्होंने कुछ और पी, कुछ और खाया, कुछ बहके, फिर उन्हें धयान आया कि उनका तो आपस में कम्पटीशन चल रहा था।

पहले ने कहा, ‘तुम चाहो जो कहो. . .हमने छब्बीस आदमी मारे हैं. . .और तुमने बाईस. . .’
‘नहीं, यह गलत है. . .तुमने हमसे ज्यादा नहीं मारे।’ दूसरा बोला।
‘क्या उल्टी-सीधी बातें कर रहे हो. . .हम चार नंबरों से तुमसे आगे हैं।’

दूसरे ने ट्रम्प का पत्ता चला, ‘तुम्हारे छब्बीस में बच्चे कितने थे?’
‘आठ थे।’
‘बस, हो गयी बात बराबर।’
‘कैसे?’

‘अरे, बच्चों को मारना तो बहुत आसान है, जैसे मच्छरों को मारना।’
‘नहीं बेटा, नहीं. . .ये बात नहीं है. . . तुम अनाड़ी हो।’
दूसरा ठहाका लगाकर बोला, ‘अच्छा तो बच्चों को मारना बहुत कठिन है?’
‘हां।’

‘कैसे?’
‘बस, है।’
‘बताओ न . . ‘

‘बताया तो. . .’
‘क्या बताया?’

‘यही कि बच्चों को मारना बहुत मुश्किल है. . .उनको मारना जवानों को मारने से भी मुश्किल है. . .औरतों को मारने से क्या, मजदूरों को मारने से भी मुश्किल।’

‘लेकिन क्यों?’
‘इसलिए कि बच्चों को मारते वक्त. . .’

‘हां. . .हां, बोलो रुक क्यों गये?’
‘बच्चों को मारते समय. . .अपने बच्चे याद आ जाते हैं।’

होज वाज पापा

स्पताल की यह उंची छत, सफेद दीवारों और लंबी खिड़कियों वाला कमरा कभी-कभी ‘किचन` बन जाता है। ‘आधे मरीज` यानी पीटर ‘चीफ कुक` बन जाते हैं और विस्तार से यह दिखाया और बताया जाता है कि प्रसिद्ध हंगेरियन खाना ‘पलचिंता` कैसे पकाया जाता है। पीटर अंग्रेजी के चंद शब्द जानते हैं। मैं हंगेरियन के चंद शब्द जानता हूं। लेकिन हम दोनों के हाथ, पैर, आंखें, नाक, कान हैं जिनसे इशारों की तरह भाषा ‘ईजाद` होती है और संवाद स्थापित ही नहीं होता दौड़ने लगता है। पीटर मुझे यह बताते हैं कि अण्डे लिये, तोड़े, फेंटे, उसमें शकर मिलाई, मैदा मिलाया, एक घोल तैयार किया। ‘फ्राईपैन` लिया, आग पर रखा, उसमें तेल डाला। तेल के गर्म हो जाने के बाद उसमें एक चमचे से घोल डाला। उसे फैलाया और पराठे जैसा कुछ तैयार किया। फिर उसे बिना चमचे की सहायता से ‘फ्राइपैन` पर उछाला, पलटा, दूसरी तरफ से तला और निकाल लिया। पीटर ने मजाक में यह भी बताया था कि उनकी पत्नी जब ‘पलचिंता` बनाने के लिए मैदे का ‘पराठा` ‘फ्राइपैन` को उछालकर पलटती हैं तो ‘पराठा` अक्सर छत में जाकर चिपक जाता है। लेकिन पीटर ‘एक्सपर्ट` हैं, उनसे ऐसी गलती नहीं होती।पीटर का पूरा नाम पीटर मतोक है। उनकी उम्र करीब छियालीस-सैंतालीस साल है। लेकिन देखने में कम ही लगते हैं। वे बुदापैश्त में नहीं रहते। हंगेरी में एक अन्य शहर पॉपा में रहते हैं और वहां के डॉक्टरों ने इन्हें पेट की किसी बीमारी के कारण राजधानी के अस्पताल में भेजा है। यहां के डॉक्टर यह तय नहीं कर पाये हैं कि पीटर का वास्तव में ऑपरेशन किया जाना चाहिए या वे दवाओं से ही ठीक हो सकते हैं। यानी पीटर के टेस्ट चल रहे हैं। कभी-कभी डॉक्टर उनके चेहरे और शरीर पर तोरों का ऐसा जंगल उगा देते हैं कि पीटर बीमार लगने लगते हैं। लेकिन कभी-कभी तार हटा दिये जाते हैं तो पीटर मरीज ही नहीं लगते। यही वजह है कि मैं उन्हें आधे मरीज के नाम से याद रखता हूं। पीटर ‘सर्वे` करने वाले किसी विभाग में काम करते हैं। उनकी एक लड़की है जिसकी शादी होने वाली है। एक लड़का है जो बारहवीं क्लास पास करने वाला है। पीटर की पत्नी एक दफ़तर में काम करती हैं। पीटर कुछ साल पहले किसी अरब देश में काम करते थे। ये सब जानकारियां पीटर ने मुझे खुद ही दी थीं। यानी अस्पताल में दाखिल होते ही उनकी मुझसे दोस्ती हो गयी थी। पीटर मुझे सीधे-सादे, दिलचस्प, बातूनी और ‘प्रेमी` किस्म के जीव लगे थे। पीटर का नर्सों से अच्छा संवाद था। मेरे ख्याल से कमउम्र नर्सों को वे अच्छी तरह प्रभावित कर दिया करते थे। उन्हें मालूम था कि नर्सों के पास कब थोड़ा-बहुत समय होता है जैसे ग्यारह बजे के बाद और खाने से पहले या दो बजे के बाद और फिर शाम सात बजे के बाद वे किसी-न-किसी बहाने से किसी सुंदर नर्स को कमरे में बुला लेते थे और गप्पशप्प होने लगती थी। जाहिर है वे हंगेरियन में बातचीत करते थे। मैं इस बातचीत में अजीब विचित्र ढंग से भाग लेता था। यानी बात को समझे बिना पीटर और नर्सों की भाव-भंगिमाएं देखकर मुझे यह तय करना पड़ता था कि अब मैं हंसूं या मुस्कराऊँ या अफसोस जाहिर करूंगा ‘हद हो गयी साहब` जैसा भाव चेहरे पर लाऊँ या ‘ये तो कमाल हो गया` वाली शक्ल बनाऊँ? इस कोशिश में कभी-कभी नहीं अक्सर मुझसे गलती हो जाया करती थी और मैं खिसिया जाया करता था। लेकिन ऑपरेशन, तकलीफ, उदासी और एकांत के उस माहौल में नर्सों से बातचीत अच्छी लगती थी या उसकी मौजूदगी ही मजा देती थी। पीटर ने मरे पास भारतीय संगीत के कैसेट देख लिये थे। अब वे कभी-कभी शाम सात-आठ बजे के बाद किसी नर्स को सितार, शहनाई या सरोद सुनाने बुला लाते थे। बाहर हल्की-हल्की बर्फ गिरती होती थी। कमरे के अंदर संगीत गूंजता था और कुछ समय के लिए पूरी दुनिया सुंदर हो जाया करती थी।

पीटर के अलावा कमरे में एक मरीज और थे। जो स्वयं डॉक्टर थे और ‘एपेण्डिसाइटिस` का ऑपरेशन कराने आये थे। पीटर को जितना बोलने का शौक था इन्हें उतना ही खामोश रहने का शौक था। वे यानी इमैर अंग्रेजी अधिक जानते थे। मेरे और पीटर के बीच जब कभी संवाद फंस या अड़ जाता था तो वे खींचकर गाड़ी बाहर निकालते थे। लेकिन आमतौर पर वे खामोश रहना पसंद करते थे।

मैं कोई दस दिन पहले अस्पताल में भर्ती हुआ था। मेरा ऑपरेशन होना था। लेकिन एक जगह एक, एक ही किस्म का ऑपरेशन अगर बार-बार किया जाये तो ऑपरेशन पर से विश्वास उठ जाता है। मेरी यही स्थिति थी। मैं सोचता था, दुनिया में सभी डॉक्टर ‘ऑपरेशन` प्रेमी होते हैं और खासतौर पर मुझे देखते ही उनके हाथ ‘मचलने` लगता है। लेकिन बहुत से काम ‘आस्थाहीनता` की स्थिति में भी किए जाते हैं। कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता। तो मैं भर्ती हुआ था। तीसरे दिन ऑपरेशन हुआ था। पर सच बताऊँ आपरेशन में उम्मीद के खिलाफ काफी मजा आया था। ये डॉक्टरों, ‘टेक्नोलॉजी` का कमाल था या इसका कारण पिछले अनुभव थे, कुछ कह नहीं सकता। लेकिन पूरा ऑपरेशन ख्वाब और हकीकत का एक दिलचस्प टकराव जैसा लगा था। पूरे ऑपरेशन के दौरान मैं होश में था। लेकिन वह होश कभी-कभी बेहोशी या गहरी नींद में बदल जाता था। उपर लगी रोशनियां कभी-कभी तारों जैसी लगने लगती थीं। डॉक्टर परछाइयों जैसे लगते थे। आवाजें बहुत दूर से आती सरगोशियों जैसी लगती थीं। औजारों की आवाजें कभी ‘खट` के साथ कानों से टकराती थीं। और कभी संगीत की लय जैसी तैरती हुई आती थीं। कभी लगता था कि यह आपरेशन बहुत लंबे समय से हो रहा है और फिर लगता कि नहीं, अभी शुरू ही नहीं हुआ। कुछ सेकेण्ड के लिए पूरी चेतना एक गोता लगा लेती थी और फिर आवाजें और चेहरे धुंधले होकर सामने आते थे। जैसी पानी पर तेज हवा ने लहरें पैदा कर दी हों। एक बहुत सुंदर महिला डॉक्टर मेरे सिरहाने खड़ी थीं। उसका चेहरा कभी-कभी लगता था पूरे दृश्य में ‘डिज़ाल्व` हो रहा है और सिर्फ उसका चेहरा-ही-चेहरा है चारों तरफ बाकी कुछ नहीं है। इसी तरह उसकी आंखें भी विराट रूप धरण कर लेती थीं। कभी यह भी लगता था कि यहां जो कुछ हो रहा है उसका मैं दर्शक मात्र हूं।

जिस तरह तूफान गुजर जाने के बाद ही पता चलता है कि कितने मकान ढहे, कितने पेड़ गिरे, उसी तरह ऑपरेशन के बाद मैंने अपने शरीर को ‘टटोला` तो पाया कि इतना दर्द है कि बस दर्द-ही-दर्द हे। यह हालत धीरे-धीरे कम होती गयी लेकिन ऑपरेशन के बाद मैंने ‘रोटी सुगंध` का जो मजा लिया वह जीवन में पहले कभी न लिया था। चार दिन तक मेरा खाना बंद था। गैलरी में जब खाना लाया जाता था तो ‘जिम्ले` ;एक तरह की पाव रोटी की खुशबू मेरी नाक में इस तरह बस जाती थी कि निकाले न निकलती थी। चार दिन के बाद वही रोटी जब खाने को मिली तब कहीं जाकर उस सुगंध से पीछा छूटा।

जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं, एक ही जगह पर एक ऑपरेशन बार-बार किये जाने के क्रम में यह दूसरा ऑपरेशन था। डॉक्टरों ने कहा था कि इसकी प्रगति देखकर वे अगला ऑपरेशन करेंगे। फिर अगला और फिर अगला और फिर . . .तंग आकर मैंने उसके बारे में सोचना तक छोड़ दिया था।

पीटर मेरे ऑपरेशन के बाद दाखिल हुए थे या कहना चाहिए जब मैं दूसरे ऑपरेशन की प्रतीक्षा कर रहा था तब पीटर आये थे और उनके टेस्ट वगैरा हो रहे थे। आखिरकार उनसे कह दिया गया कि वे दवाओं से ठीक हो सकते हैं। पीटर बहुत खुश हो गये थे। उन्होंने जल्दी-जल्दी सामान बांध था और बाकायदा मुझसे गले-वले मिल गये थे। इमरे तो उससे पहले ही जा चुके थे। इन दोनों के चले जाने के बाद मैं कमरे में अकेला हो गया था, लेकिन अकेले होने का सुख बड़े भयंकर ढंग से टूटा। यानी मुझे सरकारी अस्पताल के कमरे में दो दिन तक अकेले रहने की सजा मिली। यानी तीसरे दिन मेरे कमरे में एक बूढ़ा मरीज आ गया था। देखने में करीब सत्तर के आसपास का लगता था। लेकिन हो सकता है ज्यादा उम्र रही हों। वह दोहरे बदन का था। उसके बाल बर्फ जैसे सफेद थे। चेहरे का रंग कुछ सुर्ख था। आंखें धुंधली और अंदर को धंसी हुई थीं। जाहिर है कि वह अंग्रेजी नहीं जानता था। वह देखने में खाता-पीता या सम्पन्न भी नहीं लग रहा था। लेकिन सबसे बड़ी मुसीबत यह थी कि उसके आते ही एक अजीब अजीब किस्त की तेज बदबू ने कमरे में मुस्तकिल डेरा जैसा जैसा जमा लिया था। मैं बूढ़े के आने से परेशान हो गया था। लगा कि शायद मैं नापसंद करता हूं, यह नहीं चाहता कि वह इस कमरे में रहे। लेकिन जाहिर है कि मैं इस बारे में कुछ न कर सकता था। सिर्फ उसे नापसंद कर सकता था और दिल-ही-दिल में उससे नफरत कर सकता था। उसकी अपेक्षा कर सकता था या उसके वहां रहने से लगातार बोर होता रह सकता था। फिर यह भी तय था कि अभी मुझे अस्पताल कम-से-कम बीस दिन और रहना है। यह बूढ़ा भी ऑपरेशन के लिए आया होगा और उसे भी लंबे समय तक रहना होगा। मतलब उसके साथ मुझे बीस दिन गुजारने थे। अगर मैं उससे घृणा करने लगता तो बीस दिन तक घृणित व्यक्ति के साथ रहना बहुत मुश्किल हो जाता। इसलिए मैंने सोचा कम-से-कम उससे घृणा तो नहीं करनी चाहिए। आदमी है बूढ़ा है, बीमार है, गरीब है, उसे ऐसी बीमारी है कि उसके पास से बदबू आती है तो उसमें उस बेचारे की क्या गलती? तो बहुत सोच-समझकर मैंने तय किया कि बूढ़े के बारे में मेरे विचार खराब नहीं होने चाहिए। जहां तक बदबू का सवाल है उसकी आदत पड़ जायेगी या खिड़की खोली जा सकती है, हालांकि बाहर का तापमान शून्य से चार-पांच डिग्री नीचे ही रहता था।

उसी दिन शाम को मुझसे मिलने डॉ. मारिया आयीं। वे भी बूढ़े को देख कर बहुत खुश नहीं हुईं। लेकिन जाहिर है वे भी कुछ नहीं कर सकती थीं। उन्होंने इतना जरूर किया कि एक खिड़की थोड़ी-सी खोल दी।

‘ये कब आये?’ उन्होंने पूछा।
‘आज ही।’ मैंने बताया।
‘क्या तकलीफ है इन्हें?’ उन्होंने कहा।
‘मैं नहीं जानता। आप पूछिए। मेरे ख्याल से ये अंग्रेज़ी नहीं जानते हैं।’

डॉ. मारिया ने बूढ़े सज्जन से हंगेरियन में बातचीत शुरू कर दी। मारिया बुदापैश्त में हिंदी पढ़ाती हैं और हम दोनों ‘क्लीग` हैं। एक ही विभाग में पढ़ाते हैं।
कुछ देर बूढ़े से बातचीत करने के बाद उन्होंने मुझे बताया कि बूढ़े को टट्टी करने की जगह पर कैंसर है और ऑपरेशन के लिए आया है। काफी बड़ा ऑपरेशन होगा। बूढ़ा काफी डरा हुआ है क्योंकि वह चौरासी साल का है और इस उम्र में इतना बड़ा आपरेशन खतरनाक हो सकता है। यह सुनकर मुझे बूढ़े से हमदर्दी पैदा हो गयी। बेचारा! पता नहीं क्या होगा!

अचानक कमरे में एक पचास साल की औरत आयी। वह कुछ अजीब घबराई और डरी-डरी-सी लग रही थी। उसके कपड़े और रखरखाव वगैरा देखकर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि वह बहुत साधरण परिवार की है। वह दरअसल इस बूढ़े की बेटी थी। उससे भी मारिया ने बातचीत की। वह अपने पिता के बारे में बहुत चिंतित लग रही थी। बूढ़े की लड़की से बातचीत करने के बाद मारिया ने मुझे फिर सब कुछ विस्तार से बताया। हम बातें कर ही रहे थे कि कमरे में हॉयनिका आ गयी। यहां कि नर्सों में वह एक खुशमिजाज नर्स है। खूबसूरत तो नहीं बस अच्छी है और युवा है। उसके हाथों में दवाओं की ट्रे थी। आते ही उसने हंगेरियन में एक हांक लगायी। मैं दस-बारह दिन अस्पताल में रहने के कारण यह समझ गया हूं कि यह हांक क्या होती है। सात बजे के करीब रात की ड्यूटी वाली नर्स हम कमरे में जाती है और मरीजों से पूछती है कि क्या उन्हें ‘स्लीपिंग पिल` या ‘पेन किलर` चाहिए? आज उसने जब यह हांक लगायी तो मैं समझ गया। लेकिन मारिया ने उसका अनुवाद करना जरूरी समझा और कहा, ‘पूछ रही हैं पेन किलर या सोने के लिए नींद की गोली चाहिए तो बताइए।’ मैंने कहा, ‘हां दो, ‘पेन किलर` और एक ‘स्लीपिंग पिल`।’

मारिया अच्छी बेतकल्लुफ दोस्त हैं। वे मजाक करने का कोई मौका नहीं चूकतीं। पता नहीं उनके मन में क्या आयी कि मुस्कुराकर बोलीं, ‘क्या मैं नर्स से यह भी कहूं कि इन दवाओं के अलावा, रात में ठीक से सोने के लिए आपको एक ‘पप्पी` भी दे?’

मैं बहुत खुश हो गया ‘क्या ये कहा जा सकता है? बुरा तो नहीं मानेगी? अपने महान देश में यह कहने का प्रयास वही करेगा जो लात-जूते से अपना इलाज कराना चाहता हो।’
‘नहीं, यहां कहा जा सकता है।’ वे हंसकर बोलीं।
‘तो कहिए।’

उन्होंने नर्स से कहा। वह हंसी, कुछ बोली और इठलाती हुई चली गयी।
‘कह रही है मैं पत्नियों केसामने पति को ‘पप्पी` नहीं देती। जब मैंने उससे बताया कि मैं पत्नी नहीं हूं तो बोली कि ठीक है, वह लौटकर आयेगी।’
मैंने मारिया से कहा, ‘उर्दू के एक प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य कवि अकबर इलाहाबादी का शेर है
‘तहज़ीबे गऱिबी में बोसे तलक है माफ
आगे अगर बढ़े तो शरारत की बात है।’

शेर सुनकर वे दिल खोलकर हंसी और बोलीं, ‘हां, ये सच है कि भारत और यूरोप की नैतिकता में बड़ा फर्क है। लेकिन उसी के साथ-साथ यह भी तय है कि भारतीय इस संबंध मैं प्राय: बहुत कम जानते हैं। जैसे अकबर इलाहाबादी शायद यह न जानते होंगे कि यूरोप में कुछ ‘बोसे` बिलकुल औपचारिक होते हैं। जिन्हें हम हाथ मिलाने जैसा मानते हैं।

अब मेरी बारी थी। मैंने कहा, ‘लेकिन हमारे यहां तो औरत से हाथ मिलाना तक एक ‘छोटा-मोटा` ‘बोसा` समझा जाता है।’ इस पर वे खूब हंसीं।

कमरे के दूसरी तरफ बूढ़े के पास उसकी लड़की बैठी थी। दोनों बातें कर रहे थे। हल्की-हल्की आवाजें हम लोगों तक आ रही थीं। मैंने मारिया से पूछा, ‘वे उधर क्या बातें कर रहे हैं?’

‘वह अपनी लड़की से कह रहा है कि मेरी प्यारी बेटी, तुम सिगरेट पीना छोड़ दो। पिछली बीमारी के बाद तुम्हें डॉक्टर ने मना किया था कि सिगरेट न पिया करो. . .लड़की कह रही है कि उसने कम कर दी है. . .अब कुत्ते के बारे में बात हो रही है। बूढ़ा कह रहा है कि उसके अस्पताल में रहते कुत्ते का पूरा ख्याल रखना। अगर कुत्ते का ध्यान नहीं रखा गया तो वह नाराज हो जायेगा. . .अब वह कह रहा है कि दोपहर के खाने में और सुबह के नाश्ते में भी गोश्त था। कम था, लेकिन था. . .अब बाजार में गोश्त की बढ़ती कीमतों पर बात हो रही है. . .बूढ़ा बहुत नाराज है. . .अब कुछ सुनाई नहीं दे रहा. . .’ मारिया कुर्सी की पीट से टिक गयीं।

‘बेचारे गरीब लोग मालूम होते हैं।’
‘गरीब?’
‘हां, हमारे यहां की गरीबी रेखा के नीचे के लोग।’

कुछ देर बाद ‘विजिटर्स` के जाने का वक्त हो गया। बूढ़े की लड़की चली गयी। मारिया भी उठ गयीं। गर्म कपड़ों और लोमड़ी के बालों वाली टोपी से अपने को लादकर बोलीं
‘आपकी नर्स तो नहीं आयी?’
‘अच्छा ही है जो नहीं आयी।’
‘क्यों?’

‘इसलिए कि औपचारिक बोसे से काम नहीं चलेगा और अनौपचारिक बोसे के बाद नींद नहीं आयेगी।’
उन्होंने कहा, ‘कोई-न-कोई समस्या तो रहनी ही चाहिए।’

अस्पताल की रातें बड़ी उबाऊ, नीरस, उकताहट-भरी और बेचैन करने वाली होती हैं। नींद क्यों आये जब जनाब दिन-भर बिस्तर पर पड़े रहे हों। नींद की गोली खा लें तो उसकी आदत-सी पड़ने लगती है। पढ़ने लगें तो कहां तक पढ़ें? सोचने लगें तो कहां तक सोचें? लगता है अगर अनंत समय हो तो कोई काम ही नहीं हो सकता। रात में सो पाने, सोचने, पढ़ने आदि-आदि की कोशिश करने के बाद मैं अपने कमरे में आये नये बूढ़े मरीज की तरफ देखने लगा। वह अखबार पढ़ते-पढ़ते सो गया था। जागते हुए भी उसका चेहरा काफी भोला और मासूम लगता है कि लेकिन सोते में तो बिलकुल बच्चा लग रहा था। उसके बड़े-बड़े कान हाथी के कान जैसे लग रहे थे। धंसे हुए गालों के उपर हड्डियां उभर आयी थीं। शायद उसने नकली दांतों का चौखटा निकाल दिया था। उसकी ओर देखकर मेरे मन में तरह-तरह के विचार आने लगे। सबसे प्रबल था कैंसर का बढ़ा हुआ मर्ज, चौरासी साल की उम्र में जिंद़गी का एक ऐसा मोड़ जो अंधेरी गली में जाकर गायब हो जाता है। लगता था बचेगा नहीं. . .जो कुछ मुझे बताया गया था उससे यही लगता था कि ऑपरेशन के बाद बूढ़ा सीधा ‘इन्टेन्सिव केयर यूनिट` में ही जायेगा। और फिर कहां? मुझे लगने लगा कि उसकी मृत्यु बिलकुल तय है। उसी तरह जैसे सूरज निकलना तय है। लगा कहीं ऑपरेशन टेबुल पर ही न चल बसे बेचारा . . .पता नहीं क्यों अचानक वह मुझे हंगरी के अतीत-सा लगा।

रात ही थी या पता नहीं दिन हो गया था। अचानक कमरे की सभी बत्तियां जल गयीं और हॉयनिका के अंदर आने की आवाज से मैं उठ गया। उसने मुस्कराकर ‘थरमामीटर` हाथ में दे दिया। इसका मतलब है सुबह का छ: बजा है। उसकी मुस्कराहट बड़ी कातिल थी। शायद कल वाली बात उसे याद होगी। मैंने दिल-ही-दिल में कहा, इस तरह मुस्कराने से क्या होगा, वायदा निभाओ तो जानें। उसने बूढ़े आदमी को ‘पापा` कहकर जगाया और उन्हें भी ‘थरमामीटर` पकड़ा दिया।

संसार के सभी अस्पतालों की तरह इस अस्पताल में भी आप समय का अंदाजा नर्सों की विजिट, डॉक्टरों के आने, नाश्ता दिये जाने, गैलरी की बत्तियां बंद किये जाने वगैरा से लगा सकते हैं।

सुबह के काम धीरे-धीरे होने लगे। ‘पापा` उठे। उन्होंने अपनी छड़ी उठायी। छड़ी बहुत पुरानी लगती है। उतनी तो नहीं जितने पापा हैं लेकिन फिर भी पुरानी है। छड़ी के हत्थे पर प्लास्टिक की डोरी का एक छल्ला-सा बंध हुआ था। उन्होंने छल्ले में हाथ डालकर छड़ी पकड़ ली और बाहर निकल गये। शायद बाथरूम गये होंगे। छड़ी के हत्थे से प्लास्टिक की डोरी बांधने वाला आइडिया मुझे अच्छा लगा। इसका मतलब यह है कि पापा के हाथ में छड़ी कभी गिरी होगी। बस में कभी चढ़ते हुए या ट्राम से उतरते हुए या मैट्रो से निकलते हुए। छड़ी गिरी होगी तो पापा भी गिरे होंगे। पापा गिरे होंगे तो उनके पास जो सामान रहा होगा वह भी गिरा होगा। लोगों ने फौरन उनकी मदद की होगी। सामान समेटकर उन्हें दिया होगा। उनकी छड़ी उन्हें पकड़ाई होगी। इस तरह के बूढ़ों को मैंने अक्सर बसों, ट्रामों से उतरते-चढ़ते समय गिरते देखा है। पूरा दृश्य आंखों के सामने कौंध गया। इसी तरह की घटना के बाद पापा ने प्लास्टिक की डोरी का छल्ला छड़ी के मुट्ठे से बांध लिया होगा।

इस शहर में मैंने अक्सर इतने बूढ़े लोगों को आते-जाते देखा है जो ठीक से चल भी नहीं पाते। फिर भी वे थैले लिये हुए बाजारों, बसों में नजर आ जाते हैं। शुरू-शुरू में मैं यह समझ नहीं पाता था कि यदि ये लोग इतने बूढ़े हैं कि चल नहीं सकते तो घरों से बाहर ही क्यों निकलते हैं। बाद में मेरी इस जिज्ञासा का सामाधान हो गया था। मुझे बताया गया था कि प्राय: बूढ़े अकेले रहते हैं। पेट की आग उन्हें कम-से-कम हफ़्ते में एक बार घर से निकलने पर मजबूर कर देती हैं।

यह आदमी, बूढ़ा आदमी, जिससे मैं कल नफरत करते-करते बचा, दरअसल बहुत अच्छा है। जैसे-जैसे दिन गुजर रहे हैं, मुझे उनके बारे में अधकि बातें पता चल रही हैं। भाषा के सभी बंधनों के होते हमारे जो रिश्ते बन रहे हैं उनके आधार पर उसे पसंद करने लगा हूं। हालांकि हम दोनों आमतौर पर चुप रहने के सिवाय इसके कि हर सुबह एक-दूसरे को ‘यो रैग्गैल्स` मतलब ‘गुड मार्निंग` कहते हैं। दिन में ‘यो नपोत किवानोक` यानी ‘विश यू गुड डे` कहते हैं। छोटी-मोटी मदद के बाद ‘कोसोनोम`, धन्यवाद कहते हैं। या धन्यवाद कहे जाने का जवाब ‘सीवैशैन` कहकर देते हैं।

मुझे याद है दो दिन पहले जब मैं अपने दूसरे ऑपरेशन के बाद कमरे में जाया गया था और दर्द-निवारक दवाओं का असर खत्म हो गया था तो दर्द इतना हो रहा था कि बकौल फैज अहमद ‘फैज` हर रगे जां से उलझ रहा था। डॉक्टर कह रहे थे जितनी स्ट्रांग दर्द-निवारक दवाएं वे दे चुके हैं उससे अधकि और कुछ नहीं दे सकते। अब तो बस झेलना ही है। मैं झेल रहा था। बिस्तर पर तड़प रहा था। कराह रहा था। आंखें कभी बंद करता था, कभी खोलता था। उसी वक्त एक बार आंखें खुलीं तो मैंने देखा कि पापा हाथ में छड़ी लिये मेरे बेड के पास खड़े हैं। मुझे यह उम्मीद न थी। वे कह कुछ न रहे थे। क्योंकि भाषा की रुकावट थी। लेकिन जाहिर था कि क्यों खड़े हैं। दर्द की वजह से उनका चेहरा धुंधला लग रहा था। उनकी धंसी हुई आंखें बिलकुल ओझल थीं। लंबे-लंबे कान लटके हुए थे। गर्दन झुकी हुई थी। सिर पर सफेद बाल बेतरतीबी से फैले थे। वे चुपचाप खड़े थे पर मुझे लगा जैसे कह रहे हों, देखो दर्द भी क्या चीज है कोई बांट नहीं सकता। उसे सब अकेला ही झेलते हैं। पापा को देखते ही मैं अपने दर्द से उनके दर्द की तुलना करने लगा। लगा इस विचार ने दर्द-निवारक गोली का काम कर दिया। मैंने सोचा, पापा, तुम्हारे ऑपरेशन के बाद मैं शायद तुम्हें देख भी न पाउंगा जिस तरह तुम मुझे देख रहे हो क्योंकि तुम शायद आई.सी.यू में होगे या किसी ऐसी जगह जहां मैं पहुंच न सकूंगा। तुम्हारे इस तरह मुझे देखने का एहसान मेरे उपर हमेशा के लिए बाकी रह जायेगा।

ऑपरेशन के बाद मैं ठीक होने लगा। दूसरे दिन टहलने लगा। इस दौरान पापा के टेस्ट वगैरा चल रहे थे। हंगेरियन अस्पतालों में कोई हबड़-तबड़ नहीं होती क्योंकि नफा-नुकसान, लेन-देन आदि का कोई चक्कर नहीं है। इसलिए पापा के ‘टेस्ट` काफी विस्तार से हो रहे थे। मैं दिन में घबराकर कमरे के चक्कर लगता था और उकताहट दूर करने के लिए या पता नहीं किसलिए दिन में दसियों बार पापा से पूछता था, होज वाज पापा? यानी कैसे हो पापा? पापा मेरे सवाल का हर बार एक ही जवाब देते थे, ‘कोसोनोम योल` धन्यवाद, ठीक हूं।` मैं समझता था कि शायद मेरे बार-बार एक सवाल पूछने से वे चिढ़ जायेंगे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ। शायद वे जानते थे कि मैं पता नहीं उनसे क्या-क्या कहना चाहता हूं लेकिन नहीं कह पाता।

पापा लगभग पूरे दिन बड़े ध्यान से अखबार पढ़ा करते थे। वे हंगेरी का वह अखबार पढ़ते थे जो पहले कम्युनिस्टों का था और अब समाजवादियों का अखबार है। पापा की अखबार में गहरी रुचि मुझे चमत्कृत कर देती थी। ऐसी उम्र में, इतनी खतरनाक बीमारी से जूझते हुए दुनिया में कितने लोगों की रुचि बचती है। या तो लोग चुप हो जाते हैं या रोते रहते हैं। लेकिन पापा के साथ ऐसा न था। एक रात अखबार पढ़ने के बाद वे हाथ बचाकर मेज पर चश्मा रखने लगे तो चश्मा फर्श पर गिर पड़ा था। तब मैंने पापा के मुंह से ऐसी आवाज सुनी जो दु:ख व्यक्त करने वाली आवाज थी। मैं तत्काल उठा और पापा का चश्मा उठाया। मैंने देखा, न केवल चश्मा बेहद गंदा था बल्कि उसे धागों से इस तरह बांध गया था कि कई जगहों से टूटा लगता था। जैसा भी रहा हो, उसका पापा के लिए बहुत ज्यादा महत्व था। मैंने चश्मा उनकी तरफ बढ़ाया। उनकी आंखों में कृतज्ञता का स्पष्ट भाव था। चश्मा टूटा नहीं था। अगर टूट जाता तो? बहुत बुरा होता, बहुत ही बुरा।

दो-चार दिन बाद मेरी हालत ये हो गयी थी, अपने बेड पर लेटा-लेटा मैं यह इंतजार किया करता था कि पापा की मदद करने का अवसर मिले। वे रात में सोने से पहले लैम्प बंद करने के लिए उठते थे। उठने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। पहले छड़ी टटोलते थे। फिर छल्ले में हाथ डालते थे। तब खड़े होते थे। बेड का पूरा चक्कर लगाकर दूसरी तरफ आते थे और तब लैम्प का ‘स्विच` ‘आफ` करते थे। मैं इंतजार करता रहता था। जैसे ही लैम्प बंद करने की जरूरत होती थी मैं जल्दी से उठकर लैम्प ‘ऑफ` कर देता था। पापा ‘कोसोनोम` कहते थे। इसी तरह दोपहर के खाने के बाद जैसे ही उनके बर्तन खाली होते थे मैं उठाकर बाहर रख आता था। पढ़ते-पढ़ते कभी उनका अखबार नीचे गिर जाता था तो झपटकर उठा देता था। कभी-कभी ये भी सोचता था कि यार मैं इस अजनबी बूढ़े के लिए यह सब क्यों करता हूं? मुझे इस सवाल का जवाब नहीं मिलता था।

तीन दिन बाद आज हॉयनिका फिर रात की ड्यूटी पर है। पिछली बार जब वह रात की ड्यूटी पर थी तो उसके केबिन में जाकर मैंने उसे अमजद अली खां का सरोद सुनाया था। उसे पसंद आया था। उसने मुझे कॉफी पिलायी थी। इशारों, दो-चार शब्दों, हंगेरियन-अंग्रेजी शब्दकोश की मदद से कुछ बातचीत हुई थी। पता चला कि वह विवाहित है। लेकिन उसके विवाहित होने ने मुझे हतोत्साहित नहीं किया था। क्या विवाह कर लेना किसी लड़की की इतनी बड़ी गलती करार दी जा सकती है कि उससे प्रेम न किया जाये? नहीं, नहीं, कदापि नहीं। शादी कर लेने का मतलब है कि उससे गलती हो गयी है। और हर तरह की गलती, भूल को माफ किया जाना चाहिए।

आज जब मुझे पता चला कि उसकी ड्यूटी है तो रात के दस बज जाने का इंतजार करने लगा। क्योंकि उसके बाद ही उसे कुछ फुर्सत होती थी। इस दौरान मुझसे मिलने एक-दो लोग आये। उनसे बातें होती रहीं। पापा की लड़की आयी तो मैं अपने ‘विजिटर्स` को लेकर बाहर आ गया। दरअसल अब मैं पापा और उनकी लड़की को बातचीत करने के लिए एकांत देने के पक्ष में हो गया था। कारण यह है कि एक दिन मैंने कनखियों से देखा कि पापा अपनी लड़की को चुपचाप अस्पताल का खाना दे रहे हैं। लड़की इधर-उधर देखकर खाना अपने बैग में रख रही है। अस्पताल में रोटी, ‘चीज` और दीगर चीजें खूब मिलती थीं। उन्हीं में से पापा कुछ बचाकर रख लेते थे और शाम को अपनी लड़की को दे देते थे। इसलिए अब जब उनकी लड़की आती थी तो मैं कमरे से बाहर आ जाता था।

आठ बजे के करीब सल चले गये। मैं कमरे में आकर लेट गया। हॉयनिका के बारे में सोचने लगा। मेरे और उसके संबंध मधुर होते जा रहे थे। न केवल उसकी मुस्कराहट में दोस्ती और अपनापन बढ़ रहा था बल्कि कभी-कभी बहुत प्यारसे मेरा कंधा भी दबा देती थी। मैं भी अपनी तरफ से यही दिखाता था कि उसे पसंद करता हूं। एक बार उसे छोटा-मोटा भारतीय उपहार भी दिया था। बहरहाल प्रगति थी और अच्छी प्रगति थी। चूंकि अस्पताल में कोरी कल्पनाएं करने के लिए काफी समय रहता था इसलिए मैं हॉयनिका के बारे में मधुर, कोमल, छायावादी किस्म की कल्पनाएं भी करने लगा थ। वह वैसे बहुत सुंदर तो न थी। क्योंकि हंगेरी में महिलाओं की सुंदरता के मानदण्ड बहुत उंचे हैं। अक्सर सड़क पर टहलते हुए ऐसी लड़कियां दिख जाती हैं कि लगता है कि आप स्वर्ग की किसी सड़क पर टहल रहे हैं। पर वह सुंदर न होते हुए भी अच्छी है। या शायद मुझे लगती हो। शायद इसलिए लगती हो कि मुझे थोड़ी-बहुत घास डाल देती है। बहरहाल कारण चाहे जो भी हो मैं ठीक दस बजे कमरे से बाहर आया। गैलरी की बत्तियां बंद हो चुकी थीं। चारों तरफ सन्नाटा था। डॉक्टर अपने कमरों में थके-मारे सो रहे होंगे। हॉयनिका अपने केबिन में बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी। मुझे देखते ही उसने पत्रिका रख दी। मुझे बैठने के लिए कहा। वह कॉफी पी रही थी। छोटे-से कप में काली कॉफी। मुझे भी दी। मैं अमृत समझकर पीने लगा। इधर-उधर की टूटी-फटी बातों के बाद मैंने उसे ‘वाकमैन` पर सितार सुनाया। मैं खुद हंगेरियन महिलाओं की पत्रिका के पन्ने पलटता रहा। कॉफी ने मुंह का मजा चौपट कर दिया था लेकिन क्या कर सकता था। सितार सुनने के बाद उसने ‘वाकमैन` मुझे वापस कर दिया। मैंने मुस्कराकर उसकी तरफ देखा। वह सुंदर लग रही थी। वही नींद में डूबी आंखें, बिखरे हुए बाल, लाल और कुछ मोटे होंठ, शरारत से भरी आंखें। मैंने धीरे से एक हाथ उसके कंधे पर रखा और कुछ आगे बढ़ा। उसकी आंखों में मुस्कराहट नाच उठी। वह कुछ नहीं बोली। बल्कि शायद मौन स्वीकृति। गैलरी का अंधेरा, बाहर लैम्प पोस्टों से आती पीली रोशनी, पेड़ों पर चमकती सफेद बर्फ, दूर से आती स्पष्ट आवाजें। मैंने अपना चेहरा और आगे बढ़ाया। इतना आगे कि उसका चेहरा ‘आउट ऑफ फोकस` हो गया। उसकी सांसें मुझसे टकराने लगीं। होंठों पर कॉफी, सिगरेट और ‘लिपिस्टिक` का मिला-जुला स्वाद था। होंठों के अंदर एक दूसरा स्वाद था जिसमें न तो मिठास थी और न कड़वाहट। उसका चेहरा एक ओर झुकता चला गया। मेरे हाथ कंधे से हटकर उसकी पीठ पर आ गये थे। उसके हाथ भी निश्चल नहीं थे। जब मैं उसे देखा पाया तो उसके चेहरे पर बड़ा दोस्ताना भाव था। उसने मेरा हाथ पकड़ रखा था। उसकी प्याली में कॉफी बच गयी थी। वह उसने मुंह में उड़ेल ली। मैं उठ गया। ‘विसोन्तलात आशरा` का एक्सचेंज हुआ। कल मैंने उसे कुछ और नया संगीत सुनाने का वायदा किया। उसने हंसकर स्वीकार किया।

ये कुछ औपचारिक और अनौपचारिक के बीच वाली बात हो गयी थी। मैं कमरे में आया तो इतना खुश था कि यह सोचा ही नहीं कि वहां पापा लेटे होंगे। पापा बिलकुल सीधे लेटे थे। उनके सफेद बाल बिखरे हुए थे। उन पर खिड़की से आती चांदनी पड़ रही थी। पापा का चेहरा फरिश्तों जैसा शांत लग रहा था। बिलकुल काम, क्रोध, माया, मोह से अछूता। एक अजीब तरह की आध्यात्मिकता छायी हुई थी। ऐसा लगता था जैसे वे अस्पताल के बेड पर नहीं अपने ताबूत में कब्र के अंदर लेटे हों। उनके चेहरे से दैवी ज्योति फट रही थी। मैं एकटक उन्हें देख रहा था। इससे पहले के दृश्य के बीच मैं कोई तारतम्य स्थापित करने की कोशिश कर रहा था। पर मुझे सफलता नहीं मिल रही थी। मुझे लगने लगा था कि कमरे में नहीं ठहरा जा सकता। मैं बाहर आ गया। हॉयनिका अपने केबिन में थी पर मैं उधर नहीं गया। दूसरी तरफ मुड़ गया और एक लंबी, विशाल खिड़की से बाहर देखने लगा। पत्तीविहीन लंबे-लंबे पेड़ों की हवा में हिलती शाखाएं, जमीन पर चमकती बर्फ, लोहे की रेलिंग से आगे फुटपाथ पर दूधिया रोशनी और उसके भी आगे मुख्य सड़कपर पर उंचे-उंचे पीली रोशनी फैलाते लैम्प पोस्ट खड़े थे। नीचे से कारों की हेडलाइटें गुजर रही थीं। खिड़की के बाहर का पूरा दृश्य प्रकाश, अंधकार, गति और स्थिरता का एक कलात्मक कम्पोजीशन-सा लग रहा था। तेजी से गुजरती कारें देखकर यह अजीब बेवकूफी का ख्याल आया कि इनमें कौन बैठा होगा? आदमी या औरत? व्यापारी, अपराधी, कर्मचारी, किसान, नेता, अध्यापक, पत्रकार, छात्र, प्रेमी युगल? कौन होगा? क्या सोच रहा होगा? उबाऊ और नीरस जीवन के बारे में या चुटकियों में उड़ा देने वाली जिंदगी के बारे में? फिर अपने पर हंसी आयी। सोचा कोई भी हो सकता है, कुछ भी सोच रहा होगा, तुमसे क्या मतलब, जाओ सो जाओ। लेकिन फिर पापा की याद आ गयी। अंदर जाने में एक अजीब तरह की झिझक पैदा हो गयी।

मुझे अस्पताल में इतने दिन हो गये थे कि और मैं उस जीवन में इतना रम गया था कि लगा अब घर वापस गया तो अस्पताल ‘मिस` करूंगा या शाम घर वापस लौटने के बजाय अस्पताल आ जाया करूंगा। क्योंकि अब मैं वार्ड में शायद सबसे सीनियर मरीज था इसलिए झिझक मिट गयी थी। मैं वार्ड के ‘किचन` तक में चला जाता था। अपने लिए चाय बना लेता था। गैलरी में खूब टहलता था। नये मरीजों से बात करने की कोशिश करता था। पुराने मरीजों को जान-पहचान वाली ‘हेलो` करता था। ये देखना भी मजेदार लगता था कि मरीज आते हैं तो उनके चेहरों पर क्या भाव होते हैं। ऑपरेशन के बाद कैसे लगते हैं और ठीक होकर वापस जाते समय उनके चेहरों पर क्या भाव होते हैं। और कुछ नहीं तो सुंदर नर्सों और लेडी डॉक्टरों की चाल देखता था। देखने वाली चीजों में पापा की मेज पर रखा जूस का डिब्बा भी था जिसे मैं कई दिन से उसी तरह देख रहा था जैसा वह था। पापा ने उसे नहीं खोला था। वह जैसे का तैसा कई दिन से वैसा ही रखा था।

हंगेरियन मैं नहीं जानता लेकिन इतना मालूम है कि संसार में किसी भाषा के समाचारपत्र में कई दिन तक ‘प्रमुख शीर्षक` एक नहीं हो सकता। पापा जो अखबार तीन दिन से पढ़ रहे थे उसमें मुझे ऐसा लगा। यानी वे तीन दिन पुराना अखबार तीन दिन से पढ़ रहे थे। मुझे अखबार पर गुस्सा आया। यह ताजा अखबार की बदनसीबी थी कि वह पापा तक नहीं पहुंचता। दोपहर को अखबार बेचने वाला आया और पापा सो रहे थे तो मैंने उससे नया अखबार लेकर पापा की मेज पर रख दिया और पुराना बाहर रख आया। पापा जब उठे तो उन्हें नया अखबार मिला। वे समझ नहीं पाये कि यह कैसे हो गया। मैं बताना भी नहीं चाहता था।

हॉयनिका दो-तीन दिन के ‘गैप` के बाद रात की ड्यूटी पर ही आती थी। मैं बराबर उससे मिलता था। लेकिन एक आध बार भाषा की बाध के कारण काफी खीज गया और सोचा किसी हंगेरियन मित्र के माध्यम से कभी हॉयनिका से लंबी बातचीत करूंगा। हमारी मित्रता में शब्दों का अभाव अब बुरी तरह खटकने लगा था और लगता था इस सीमा को तोड़ना जरूरी है। एक दिन शाम को जब मारिया आयीं तो मैंने उनसे अपनी समस्या बतायी। उन्होंने कहा, ‘ठीक है, आप दुभाषिए के माध्यम से प्रेम करना चाहते हैं।’

मैंने कहा, ‘नहीं, ये बात नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि अब मुझे उसके बारे में कुछ अधकि जानना चाहिए। हो सकता है उसके मन में भी यह हो।’
खैर तय पाया कि शाम के जरूरी काम जब वह निपटा लेगी तो हम उसके केबिन में जायेंगे और मारिया जी के माध्यम से बातचीत होगी। मैं खुश हो गया कि मेरी अमूर्त कल्पनाओं को कुछ ठोस सहारा मिल सकेगा।

हम जा हॉयनिका के केबिन में गये तो वह पत्रिका पढ़ रही थी और कॉफी पी रही थी। मारिया ने उसे जब मेरे और अपने आने का कारण बताया तो उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैलती चली गयी।
मैंने मारिया से कहा, पहले तो इसे बताइये कि मुझे इस बात का कितना दु:ख है कि हंगेरियन नहीं बोल सकता और उससे बातचीत नहीं कर सकता। यही वजह है कि मैं न उससे वह सब पूछ सका या कह सका जो चाहता था। मेरी बातों पर वह लगातार मुस्कराये जा रही थी।

‘ये कहां रहती है?’
‘बुदापैश्त से दूर एक छोटा-सा शहर है वहां रहती है।’
‘वहां से आने में कितना समय लगता है?’
‘तीन घंटे।’
‘तीन घंटे आने में और तीन ही जाने में?’
‘जी हां।’

‘यहां क्यों नहीं रहती है?’
‘यहां फ़्लैटों के किराये इतने ज्यादा हैं कि वह ‘एफोर्ड` नहीं कर सकती . . .और वहां इसने किश्तों पर एक मकान खरीद लिया है।’
‘कितनी किश्त देनी पड़ती है?’
‘पन्द्रह हजार फोरेन्त महीना।’
‘और इसे तनख्वाह कितनी मिलती है?’

‘सत्रह हजार फोरेन्त. . .’
‘तो कहां से खाती-पीती है?’
‘इसका पति भी काम करता है।’
‘क्या काम करता है?’

‘चौकीदार है. . .किसी फैक्ट्री में।’ सुनकर मुझे लगा कि यह नितांत अन्याय है। सुंदर महिलाओं के पतियों को उनकी पत्नियों की सुंदरता के आधार पर नौकरी मिलनी चाहिए।
‘इसकी एक दो साल की बच्ची भी है।’
‘उसे कौन देखता-भालता है?’

‘दिन में ये देखती है. . .कभी-कभी इसकी मां और रात में इसका पति. . .यह कह रही है कि उसकी जिंदगी काफी मुश्किल है। लेकिन घर-परिवार की या निजी समस्याएं यह अपने साथ अस्पताल में नहीं लाती। यहां तो हर मरीज के साथ हंसकर बात करनी पड़ती है।’
यह सुनकर मैं चौंक गया। ‘हर मरीज` में तो मैं भी आ गया और ‘करनी पड़ती है` का मतलब विवशता है। कुछ क्षण मैं खामोश रहा।

पता नहीं क्यों मैंने मारिया से कहा, ‘इससे पूछिए कि इसकी सबसे बड़ी इच्छा क्या है? यह क्या चाहती है कि क्या हो? बड़ी ख्वाहिश, अभिलाषा?’
‘ये कह रही है कि इसकी सबसे बड़ी कामना यही है कि हर महीने मकान की किश्तें अदा होती रहें और मकान अपना हो जाये. . .और यह भी चाहती है कि उसे एक बेटा भी हो। यानी एक बेटी, एक बेटा और अपना मकान।’

‘ठीक है, ठीक है. . .बहुत अच्छा. . .अब चलें।’ मैं थोड़ा घबराकर बोला। मारिया मुस्कराने लगीं बहुत अर्थपूर्ण और कुछ-कुछ व्यंग्यात्मक।

कल पापा का ऑपरेशन है। आज वे अच्छी तरह नहाये हैं। अच्छी तरह कंघी की है। मैं आज उनसे आंख मिलाने की हिम्मत नहीं कर सकता। उनकी धुंधली आंखों में देखना आज मुश्किल काम है।

शाम के वक्त कुछ जल्दी ही उनकी लड़की आ गयी। आज वह बहुत ज्यादा उदास लग रही है। दोनों धीमे-धीमे बातें करने लगे। पापा की आवाज में सपाटपन है। वे बोलते-बोलते रुक जाते हैं। कुछ अंतराल पर थोड़ी बातचीत होती है। फिर दोनों सिर्फ एक-दूसरे को देखते हैं। पापा की आंखें गहरी सोच में डूबी हुई हैं। वे छत की तरफ देख रहे हैं। लड़की खिड़की के बाहर देख रही है। बाहर से आवाजें आ रही हैं। पापा ने कुछ कहना शुरू किया। लड़की शायद सुन नहीं पा रही थी। वह और अधकि पास खिसक आयी। उसी वक्त मारिया कमरे में आयीं। उनका आना दैवी कृपा जैसा लगा। अभी वे अपना ओवरकोट, भारी-भरकम टोपी उतारकर बैठने भी न पायी थीं कि मैंने फरमाइश कर दी

‘जरा बताइये. . .क्या बातचीत हो रही है?’
‘आप भी कुछ अजीब आदमी हैं!’ वे हंसकर बोलीं।
‘कैसे?’
‘पूरे अस्पताल में आपको दो ही लोग पसंद आये हैं। एक पापा और दूसरी हॉयनिका। है ना?’
‘हां है।’?

‘और दोनों में अद्भुत साम्य है।’ वे हंसीं।

‘देखिए, बात मत टालिए. . .पापा कुछ कह रहे हैं. . .जरा सुनिए क्या कह रहे हैं।’ कुछ सुनने के बाद मारिया बोलीं, ‘पापा कह रहे हैं अब मैं किसी से नहीं डरता। अब मेरा कोई क्या बिगाड़ सकता है। मैं सच बोलूंगा. . .’ मारिया जी चुप हो गयीं। पापा भी चुप हो गये थे। बातचीत का चूंकि ओई ओर-छोर न था इसलिए मैं सोचने लगा ये पापा क्या कह रहे हैं? अब किसी से नहीं डरते. . .मतलब पहले किसी से डरते थे। किससे डरते थे? बूढ़ा आदमी, जो हर तरह से अच्छा नागरिक मालूम होता है, किसी से क्यों डरेगा? और अब वह डर नहीं रहा। यह कैसा डर है जो पहले था अब खत्म हो गया? इस पहले को सुलझाना मेरे बस की बात न थी। मैं पूछ भी नहीं सकता था। किसी के डरने का कारण पूछना वैसे भी असभ्यता है और निश्चित रूप से अगर डर किसी बूढ़े आदमी का हो तो और भी। पापा की दूसरी बात समझ में आती है, अब उनका कोई क्या बिगाड़ सकता, क्योंकि यह स्पष्ट है कि अब उसका सामना सीधे मृत्यु से है। और जो कब्र में पैर लटकाये बैठा हो उसे क्या सजा दी जा सकती है? सबसे बड़ी सजा तो मृत्युदण्ड ही है न। सबसे बड़ी इच्छा जीवित रहने की ही है न। तो जो इनसे उपर उठ गया हो उसका कोई कानून, कोई समाज, कोई व्यवस्था क्या बिगाड़ सकती है? और जब उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता तो वे ‘सब कुछ` कह सकते हैं। जो महसूस करते हैं बता सकते हैं। हद यह है कि ‘सच` तक बोल सकते हैं। सच-एक ऐसा शब्द तो घिसते-पिटते बिलकुल विपरीत अर्थ देने देने लगा है। लेकिन चौरासी वर्षीय कैंसर-पीड़ित पापा, आठ घंटे का ऑपरेशन होने से पहले अगर ‘सच` क्यों नहीं कह दिया? फैज की पंक्तियां याद आ गयीं ‘हफे हक दिल में खटकता है जो कांटे की तरह। आज इजहार करें और खलिश मिट जाये।` तो पापा आज वह सत्य कहना चाहते हैं जो उनके दिल के बोझ को हल्का कर देगा। ठीक है पापा, कहो, जरूर कहो। कभी, कहीं, कोई, किसी तरह ये कहे तो कि ‘हक` क्या है?

अगले दिन लंबे इंतजार के बाद शाम होते-होते पापा ऑपरेशन थियेटर से वापस लाये गये तो लगा जैसे तारों, नलकियों, बोतलों, बैगों का एक तिलिस्म है जो उनके चारों ओर लिपट गया है। पता नहीं कितनी तरह की दवाएं, कितनी जगहों से पापा के शरीर के अंदर जा रही थीं और शरीर से क्या-क्या निकल रहा था जो बेड के नीचे चटकते बैगों में जमा हो रहा था। इन सबमें जकड़े पापा को देखने की हिम्मत नहीं थी। वे बिलकुल शांत थे, आंखें बंद थीं। शायद बेहोश थे। वे सब बातें, वे सब डर, जो मेरे अंदर छिपे बैठे थे, सामने आ गये। पापा. . .बेचारे पापा. . .नर्सें थोड़ी-थोड़ी देर के बाद आ रही थीं और आवश्यक कार्यवाही कर रही थीं। कुछ देर बाद उनकी लड़की आयी। नर्स से बातचीत करके चली गयी। रात में मैं कई बार उठा लेकिन पापा की हालत में कोई बदलाव नहीं देखा। न हिल रहे थे, न डुल रहे थे, न खर्राटे ले रहे थे। बस ग्लूकोस की टपकती बूंदें ही बताती थीं कि सब कुछ ठीक है। रात में कई बार नर्स आयी, उसने बोतलें बदलीं, थैलियां बदलीं और पापा को टेम्प्रेचर वगैरा लिया और चली गयी।

रात में मुझ तरह-तरह से ख्याल आते रहे। कुछ बड़े भयानक ख्याल थे। जैसे अचानक नर्स घबराकर खट-खट करती हुई बाहर जायेगी। दूसरी ही क्षण कई डॉक्टर आ जायेंगे। पापा को बाहर निकाला जायेगा और फिर कुछ देर बाद दो-तीन लोगों के साथ पापा की लड़की आयेगी। वह सिसक रही होगी। उसकी आंखें लाल होंगी। वह धीरे-धीरे पापा का सामान समेटेगी। पापा का चश्मा, उनकी डायरी, उनका कलम, उनके कपड़े, जूते, तौलिया, साबुन और वह छोटी-सी गठरी जिसमें से सख्त बदबू आती है। मेज पर रखा जूस का वह डिब्बा उठायेगी जो अब तक बंद है। दराज खोलेगी तो उसमें से कुछ खाने का सामान, छुरी-कांटा और चम्मच निकलेगा। इस सबके दौरान वह रोती रहेगी। साथ वाले लोग सान्त्वना के एक-आध शब्द कहेंगे। फिर सामान समेटकर वह पापा के बेड पर एक नजर डालेगी और चीखकर रो पड़ेगी। उसी समय बड़ी नर्स जायेगी तो ताजी हवा अंदर आयेगी। छोटी नर्सें खटाखट बेड कवर, तकिये गिलाफ और चादरें बदल देंगी। लोहे के सफेद बेड को साफ कर देंगी और बाहर निकल जायेंगी। अब वहां सिर्फ मैं बचूंगा। और अगर मैं किसी को बताना भी चाहूंगा कि बेड पर पापा ने अपनी जिंदगी से सबसे सच्चे क्षण गुजारे हैं तो किसी को यकीन नहीं आयेगा।

दो दिन तक पापा की हालत बिल्कुल एक-सी रही। उसके बाद मेरा अपना छोटा वाला ऑपरेशन हुआ और मैं पड़ गया। एक-आध दिन के बाद करीब शाम के वक्त जब मेरे पास मारिया और पापा के पास उनकी लड़की बैठे थे तो सीनियर नर्स आयी और बोली कि पापा को बैठाया जायेगा। उसने पापा का बेड ऊँचा किया। पापा दर्द से चिल्लाने लगे। फिर बेड नीचा कर दिया गया। लेकिन नर्स ने कहा कि इस तरह काम नहीं चलेगा। आखिर दोनों के बीच फैसला हुआ कि जितना उंचा पहल किया गया था उसका आध उंचा कर दिया जाये। उस दिन मारिया ने बताया कि पापा कह रहे हैं कि ‘भगवान की कृपा से अब मैं डेढ़-दो साल और जी जाऊँगा।’ मारियाजी को इस वाक्य पर बड़ी हंसी आयी थी। उन्होंने कहा था कि भगवान पर ऐसा विश्वास हो तो फिर क्या समस्या है। पापा अपनी लड़की को यह भी बता रहे थे, उनका खाना बंद है और वे सूखकर कांटा हो गये है। पापा सिर्फ ‘लिक्विड डाइट` पर थे। जूस का सौभाग्यशाली डिब्बा खुल गया था। उसके अलावा पापा को कॉफी और सूप मिलता था।

एक-आध दिन बाद मैं बाथरूम से कमर में आया तो एक अद्भुत दृश्य देखा। बेड का सहारा लिये पापा खड़े थे। उनके सफेद बाल बिखरे थे। सफेद लंबा-सा अस्पताल का चोगा लटक रहा था। हाथ और पैर बिलकुल काले गये थे। शरीर के चारों ओर कुछ नलकियां और बैग झूल रहे थे। उनके चेहरे पर कोई भाव न थे। अपने खड़े रहने पर वे इतना ध्यान दे रहे थे कि और कुछ व्यक्त करने का उनके पास समय ही न था। मैंने सोचा कि उनके खड़ा होने पर बधाई दूं या कम-से-कम हंगेरियन शब्द ‘यो` ‘यो` कहूं जिसका मतलब ‘अच्छा` ‘सुंदर` आदि है। लेकिन फिर लगा कि कहीं मैं पापा को ‘डिस्टर्ब` न कर दूं। उसी तरह, जैसे बच्चे जब पहली-पहली बार खड़े होते हैं और उन्हें देखकर माता-पिता हंस देते हैं तो वे धप्प से बैठ जाते हैं। पापा खड़े रहे। उन्होंने एक बार गर्दन उठाकर सामने देखा। एक बार गर्दन झुकाकर नीचे देखा। बेड को पकड़े-पकड़े एक कदम आगे बढ़ाया, उसके बाद वे रुक गये। पापा को खड़े देखकर यह लगा कि केवल पापा ही नहीं खड़े हैं। उनके साथ न जाने क्या-क्या खड़ा हो गया है। मैं एकटक भी नहीं देख सकता था। डर था कहीं पापा मुझे देखता हुआ न देख लें।

मेरे अस्पताल से निकाल दिये जाने के दिन करीब आ रहे थे। मैं जानता था कि जितना यहां आराम है, उतना कहीं और न मिलेगा। जितनी यहां शांति है उतनी शायद शांति निकेतन में भी न होगी। यहां समय अपने वश में लगता है लेकिन बाहर मैं समय के वश में रहता हूं। बहरहाल अस्पताल से बाहर जाने का विचार इस माने में तो अच्छा था कि ठीक हो गया हूं लेकिन इस अर्थ में अच्छा नहीं था कि बाहर अधकि खुश रहूंगा। अस्पताल के जीवन का मैं इतना अभ्यस्त हो गया था या वह मुझे इतना पसंद आया था कि बाहर निकाल दिये जाने का विचार एक साथ खुशी और अफसोस की भावनाओं का संचार कर रहा था। हॉयनिका ने भी एक बार मजाक में कहा था कि मेरे अस्पताल से चले जाने के बाद मैं उसे बहुत याद आउंगा। मैंने कहा कि अस्पताल के बाहर भी कहीं मिला जा सकता है। लेकिन फिर खुद अपने प्रस्ताव पर शर्मिंदा हो गया था दो-तीन घंटे की यात्रा और पूरी रात अस्पताल में ड्यूटी के बाद सुबह सात बजे तीन घंटे की यात्रा करने के लिए निकलने वाले से ‘कहीं बाहर` मिलने की बात करना अपराध लगा।

पापा को खाना दिया जाने लगा था। अब वे अपनी लड़की से यह शिकायत करते थे कि खाना कम दिया जाता है। कई दिन भूखे रहने के बाद उनकी खुराक शायद बढ़ गयी थी। लेकिन इस संबंध में कुछ नहीं किया जा सकता था। अस्पताल वाले नियमित मात्रा में ही खाना देते थे। पापा अब चूंकि थैलियां लटकाये चलने फिरने लगे थे इसलिए भी भूख खुल गयी होगी। ऑपरेशन के बाद पापा के पास से वह दुर्गंध आना बंद हो गयी थी, लेकिन कभी-कभी वह ‘ट्यूब` या थैली खुल जाती थी जिसमें टट्टी आती थी। उसके खुलते ही भयानक दुर्गंध कमरे में भर जाती थी और बाहर निकलने के अलावा कोई रास्ता न बचता था। एक दिन यह हुआ कि पापा की टट्टी वाली थैली खुल गयी। उन्होंने स्वयं बंद करने की कोशिश की तो वह और ज्यादा खुल गयी। मैं कमरे से बाहर चला गया। कुछ देर बाद कमरे में आया तो देखा पापा खड़े हुए थैलियों से जूझ रहे हैं। टट्टी की थैली गंदगी निकलकर बिस्तर पर, फर्श पर फैल गयी है। पापा का चोगा उतर गया है। वे बिलकुल नंगे खड़े हैं। सफेद बाल बिखरे हुए हैं। पापा थैलियों को लगाने की कोशिश कर रहे थे। नर्स को नहीं बुला रहे। यह देखकर अच्छा लगा। पापा अब ये काम अपने आप कर सकते हैं। लेकिन मैंने नर्सों से जाकर कहा। वे आयीं। पापा और कमरे की पूरी सफाई हो गयी। पापा नये चोगे में लेट गये। चश्मा लगाकर अखबार ले लिया। खिड़की खोल दी थी। मैं भी लेट गया, अमजद अली खां को सुनने लगा।

पापा कुर्सी पर भी अक्सर बैठ जाते थे। एक दिन मैंने देखा कि पापा चश्मा लगाये, गंभीर मुद्रा में, हाथ में कलम लिये कुर्सी पर बैठे हैं। सामने मेज पर कुछ कागज रखे थे। मैं समझा शायद कुछ हिसाब लिख रहे हैं, लेकिन कलम चलने की रफ़्तार से कुछ समझ में नहीं आया। न तो वे पत्र लिख रहे थे, न शायरी लिख रहे थे, न हिसाब कर रहे थे। वे कलम को हाथ में पकड़े गंभीरता से कागज की तरफ देखकर देर तक कुछ सोचते थे और फिर झिझकते हुए कलम उठाते थे। एक-आध शब्द लिखते थे और फिर कलम रुक जाता था। एकाग्रता बहुत गहरी थी। माथे पर लकीरें पड़ी हुई थीं। चिंता में डूबे थे जैसे कोई ऐसा काम कर रहे हों जो उनके लिए जरूरी से भी ज्यादा जरूरी हो। यह जानने के लिए, ऐसा क्या हो सकता है, मैं उठा और टहलने के बहाने पापा के पीछे पहुंच गया। अब मैं देख सकता था कि वे क्या कर रहे हैं। वाह पापा वाह! तो ये ठाठ हैं। इसका मतलब हैं अब तुम बिलकुल ‘चंगे` हो गये हो। लाटरी वह भी यूरोप की सबसे बड़ी लाटरी. . .सौ मिलियन फोरेन्त। भई वाह. . .क्या करोगे इतना पैसा पापा? चर्च बनवाओगे? उस भगवान का घर जिसकी कृपा से तुम साल-डेढ़ साल और जीओगे या अपने लिए शानदार कोठी बनवाओगे? या हर साल जाड़ों में फ्रांस के समुद्र तट पर जाया करोगे? समुद्र में नहाओगे? ख़ूबसूरत फ्रांसीसी लड़कियों के साथ ‘बीच` पर लेटकर अपना रंग सुनहरा करोगे? या ये सौ मिलियन डालर तुम अपनी लड़की को दे दोगे? या महंगी-महंगी गाड़ियां खरीदोगे। जायदाद बनाओगे या कोई सरकारी फैक्टरी खरीद लोगे जो आजकल धड़ाधड़ बिक रही हैं? क्या करोगे पापा? क्या करोगे सौ मिलियन फोरेन्त? ये बताओ कि अगर ये लाटरी तुम्हारी नाम निकल आयी तो तुम्हें ये सूचना देने का जोखिम कौन उठायेगा? यह सुनकर तुम्हें क्या लगेगा कि मरने से डेढ़-दो साल पहले तुम करोड़पति हो गये हो? फिर तुम्हारे लिए एक मिनट एक महीने जैसा कीमती होगा। तब तुम अपना एक मिनट कितनी होशियारी, चतुराई, सतर्कता, समझदारी से गुजारोगे? कुछ भी कहो पापा, सौ मिलियन मिलने के बाद तुम्हारी परेशानियां बढ़ ही जायेंगी। लेकिन यह बड़ी बात है। कितने ऐसे लोग मिलेंगे जो तुम्हारी उम्र तक पहुंचते-पहुंचते इच्छाओं से खाली हो जाते हैं। तुम्हारे पास सौ मिलियन फोरेन्त खर्च करने की योजना भी होगी। क्योंकि हर लाटरी खेलने वाले के पास इस प्रकार की एक योजना होती है। तुम्हारे पास योजना है तो तुम सोचते हो अपने बारे में, परिवार के बारे में, लोगों के बारे में। यह बहुत है पापा, बहुत है। अच्छा पापा, एक बात पूछूं? कान में, ताकि कोई ओर सुन न लें। ये बताओ कि यह इच्छा- मतलब लाटरी निकल आने की इच्छा कब से है तुम्हारे मन में? क्या मंदी के दिनों से है जब तुम जवान और बेरोजगार थे? या उस समय से हैं जब जर्मन और रूसी गोलियों से बचने तुम किसी अंधेरे तहखाने में छिपे हुए थे? क्या यह इच्छा उस समय भी भी तुम्हारे मन में जब तुम विजयी लाल सेना का स्वागत कर रहे थे? बाद के दिनों में क्रांति के बीत गाते हुए या सहकारी आंदोलन में रात-दिन भिड़े रहने के बाद भी तुम यह सपना देखने के लिए थोड़ा-सा समय निकाल लेते थे? माफ करना पापा, मैं ये सब इसलिए पूछ रहा हूं कि ऐसे सपने देखना कोई बुढ़ापे में शुरू नहीं करता। है न?

तख्ती

लोग अक्सर मुझसे कहते या पूछते हैं या सिर्फ इस हकीकत की तरफ इशारा करते हैं कि मुझे बहुत-सी आवश्यक जानकारियां नहीं हैं। गणित, व्याकरण खगोलशास्त्र, पुरातत्व जैसे बहुत से विषयों के बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम। यही नहीं, सामान्य जानकारियां भी नहीं। उदाहरण के लिए आप कहें कि मैं दस चिड़ियों, फलों, मछलियों या पत्थरों के नाम बता दूं तो नहीं बता सकता। यदि आप पूछें कि विश्व की दूसरी प्राचीनतम सभ्यता कौन-सी थी या भूमध्य रेखा कहां से गुजरती है तो मैं मुंह खोल दूंगा। शायद यही वजह है कि कहा जाता है, मेरी शिक्षा कुछ ठीक-ठाक नहीं हुई। लोग उन स्कूलों और विश्वविद्यालयों में नाम जानना चाहते हैं जहां मैं पढ़ा हूं। कुछ लोग मेरे गुरुजनों के नाम पता लगाने की धृष्टता करते हैं। अब मैं क्या कहूं, कमीनेपन की भी हद होती है।

बहरहाल, इन सवालों से घबराकर मैंने एक यात्रा शुरू की है, जिसमें चाहता हूं आप मेरे साथ चलें। लेकिन कोई मजबूरी नहीं है। लेकिन आप इनकार करें तो कोई खूबसूरत-सा बहाना जरूर तलाश करें। यह मुझे पंसद है। समझ जाउंगा कि बाहना बना रहे हैं लेकिन दिन नहीं दुखना चाहते। आज के जमाने में यह भी बड़ी बात है। मैं बिलकुल बुरा नहीं मानूंगा। लेकिन अगर आप मेरे साथ चलेंगे तो उसमें कम-से-कम आपको कोई नुकसान न होगा। हां, अगर आप मेरी धारणा के विपरीत समय को मूल्यवान समझते हो तो बात दूसरी है। अगर आप ऐसा नहीं समझते तो मेरे साथ चलें। बकौल नासिर काजमी ‘सब मेरे दौर में मुंहबोलती तस्वीरें हैं। कोई देखे मेरे दीवान के किरदारों को।`

कहां जाता है कि जब मैं सात-आठ साल का था तो मेरी पढ़ाई का सवाल उठा। इतनी देर से इसलिए कि परिवार में कई पीढ़ियों ने पढ़ने-लिखने की कोई जरूरत न महसूस की थी। सगड़ दादा को तो कलम-कागज से ऐसी नफरत थी कि वे अपनी जमींदारी का हिसाब-किताब करने वाले मुंशियों तक को लिखते-पढ़ते देखना बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। लेकिन सगड़ दादा बहुत समय तक परिवार के आदर्श न बने रह सके। हां, यह धारणा जरूर बची रही कि लोग नौकरी करने के लिए पढ़ते हैं और चूंकि हमारे पास अल्लाह का दिया सब कुछ है, हम किसी की नौकरी नहीं करेंगे तो क्यों पढ़ें। घर की पढ़ाई बहुत है। थोड़ी फारसी, थोड़ा हिसाब, थोड़ी अरबी आ जाए तो बहुत है। हमारे परदादा ने अपने दोनों लड़कों को घर की पढ़ाई के बाद पहली बार स्कूल भेजा था। इस वक्त बड़े लड़के की उम्र सोलह सात की छोटे की चौदह साल थी। यह उन्नीसवीं सदी के चलचलाव का जमाना था। बड़े लड़के की स्कूल तालीम इस तरह अंजाम तक पहुंची कि उसकी किसी टीचर से कहा-सुनी हो गई । टीचर ने गाली दे दी। उसने टीचर को उठाकर पटक दिया, हाथ-पैर तोड़ दिए और घर आ गया। परदादा ने इस मामले को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। सोचा, जहां बारह मुकदमे चले रहे हैं वहां तेरहवां भी चलेगा। बस छोटे बेटे की तालीम बड़े सुखद कारणों से अंजाम तक पहुंची। यानी उनकी शादी हो गई। चौथी के बाद उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया।

जिंद़गी के आखिरी दौर में तो नहीं बल्कि उससे पहले ही हमारे दादाजान की समझ में यह बात आ गई थी कि स्कूली शिक्षा जरूरी है। इसकी वजह यह थी कि वे शहर के रईस होने के नाते अंग्रेज अफसरों से उनकी कोठियों, दफ़्तरों, क्लबों में मिलते थे और देखते थे कि उनके दरबारों में आमतौर उन काले लोगों को सम्मान मिलता है जो टूटी-फटी ही सही, गोराशाही ही सही, लेकिन अंग्रेजी बोलते हैं। पर चिड़िया खेत चुग चुकी थी। यानी दादाजान अपने पढ़ने को सुहाना समय गंवा चुके थे इसलिए उन्होंने हमारे पिताजी की पढ़ाई का पक्का धयान रखा। पिताजी छोटे ही थे कि उनको पढ़ाने के लिए सुबह मौलवी, दोपहर के वक्त एक मास्टर अंग्रेजी पढ़ाने और शाम के वक्त एक मास्टर हिसाब पढ़ाने आने लगा। इस तरह दादाजान का इरादा था कि पिताजी की जड़ें मजबूत कर दी जाएं ताकि आगे कोई दिक्कत न हो। नतीजा यह हुआ कि अब्बा गणित से इतना डरने लगे जितना लोग अल्लाह से भी नहीं डरते। अंकगणित और बीजगणित उन्हें दो ऐसे जिन्न लगते थे जो उन्हें दबाकर बैठ गए हों और लगातार मार रहे हों। नतीजा यही निकला कि आठवीं में दो बार लुढ़क गए। दसवीं में थे कि आजादी मिल गई उनको ही,देश को। दसवीं ही में थे कि गांधीजी की हत्या हो गई। फिर दसवीं ही में थे कि जमींदारी खत्म हो गई। पर कुछ ऐसे जरूरी काम थे जो उनके दसवीं में लगातार वक़्त पास की जब दो बच्चों के बाप बन चुके थे।

अब्बा ने मेरी पढ़ाई की तरफ समय से ध्यान दिया। अब चूंकि जमींदारी नहीं थी। किसी-न-किसी को नौकरी करनी थी। इसलिए पढ़ाई जरूरी हो गई थी। मेरी जड़ें मजबूत करने का काम उतने बड़े पैमाने पर नहीं हुआ जितना अब्बा का हुआ था। मुझे पढ़ाने एक मास्टर आते थे। उनका नाम शराफत हुसैन था। प्राइमरी स्कूल के अध्यापक थे। पान के रसिया। जब पढ़ाते तो पान मुंह में इस कदर भरा रहता था कि मुंह से आवाज के बजाय पान की छींटें निकलती थीं। पढ़ाई के दौरान कई बार वे मुझे घर के अंदर पान लेने भेजते थे, ‘जाओ पान लगवा लाओ।’ मैं खुशी-खुशी उठकर भागने वाला होता तो कहते, ‘इससे पहले जो पान लाए थे वो किससे लगवाया था?’
‘अम्मा से।’

‘अबकी बड़ी बिटिया से लगवाना।’ बाकी डिटेल मुझे याद थी माट साब के पान में कत्था कम चूना ज्यादा, डली कम किमाम ज्यादा. . .

मास्टर साहब अच्छे आदमी थे। मुझे पर विश्वास करते थे। एक बार पढ़ाने के बाद पूछते थे, ‘क्यों, समझ गए?’ मैं कहता था, ‘हां समझ गया।’ और वे विश्वास कर लेते थे। कहते थे ‘लड़का जहीन है, जल्दी समझ जाता है। तरक्की करेगा।’ मैं यह जानता था कि यह पूछने के बाद कि समझ गये वे और कुछ नहीं पूछेंगे इसलिए हां कर दिया करता था। मुझे लगता था जैसे ‘हां समझ गया` कहकर मैंने अपनी जिंदगी को आसान बना लिया है वैसे ही दूसरे लोग क्यों नहीं करते। मुझे बचपन में कुएँ से पानी भरकर लाने वाले भिश्ती से बड़ी हमदर्दी थी। मैं यह चाहता कि मेरे काम की तरह उसका काम भी हल्का हो जाए। लड़कपन में कुएँ के पास जाने मनाही थी। एक दिन चला गया था। कुआं घर के बाहर कोने में था। वह मुख्य घर से करीब हजार-डेढ़ हजार फीट दूर था। वहां भिश्ती करीमउद्दीन पानी भर रहा था। मैंने उससे गिड़गिड़ाकर दरखास्त की थी कि क्या एक बाल्टी मैं भी खींच सकता हूं? उसने मुझे ऐसा करने दिया था कि तब से मैं सोचा करता था कि अल्लाह मियां, तू करीमउद्दीन का काम हल्का क्यों नहीं कर देता। बहरहाल, बात हो रही थी कि मास्टर साहब की तो माट साब मुझ पर विश्वास करते थे। मैं माट साहब पर विश्वास करता था। अब्बा जब भी पूछते थे कि माट साब जो पढ़ाते हैं वो समझ में आता है तो मैं कहता था हां आता है जबकि हकीकत यह थी कि जब माट साब पढ़ाते थे तो मैं करीमउद्दीन के बारे में सोचा करता था यह सोचा करता था कि फलों को अगर बहुत जोर से मसला जाए तो रंग निकाला जा सकता है। और रंग से बड़ी अच्छी तस्वीर बन सकती है। या सोचा करता था कि अबकी कमल तोड़ने के लिए किस तालाब में जाना चाहिए। या तैरना सीख लूं तो कितना अच्छा हो। वगैरह-वगैरह।

लड़कपन में माट साब के अलावा कभी-कभी जब जी चाहता था तो अब्बा भी पढ़ाते थे। वह वक्त मेरी उपर बहुत ही सख्त गुजरता था जब अब्बा कहते थे कि अपनी किताबें-कापियां लेकर आओ। अब्बा हिसाब नहीं पढ़ाते थे। हालांकि वे हाईस्कूल थे, मैं पाँचवी में पढ़ता थ। अब्बा का ख्याल था कि अंग्रेजी अच्छी होनी चाहिए। अब्बा साल-छह महीने में एकाध बार यह ऐलान करते थे कि वे मुझे पढ़ाने जा रहे हैं तो उसका असर घर में कुछ उसी तरह होता था जैसे हवाई हमले के सूचक सायरन का असर किसी सैनिक अड्डे पर होता है। मतलब अम्मा जानमाज बिछाकर बैठ जाती थी और दुआ मांगती थी कि आज की पढ़ाई के परिणामस्वरूप भंयकर हिंसा न हो। घर में खाना पकाने वाली औरत मेरी पसंद का खाना चढ़ा देती थी कि पिटने के बाद मुझे वह खाना खिलाया जा सके। एक नौकर अर्रे की पतली छड़ी ले आता था क्योंकि अब्बा छड़ी सामने रखकर ही पढ़ाते थे। मेरे साथ गेंद खेलने वाले नौकरों के लड़के भाग जाते थे। कोई जोर-जोर से बात नहीं करता था। बहुत साफ करके एक लालटेन पास रख दी जाती थी कि अंधेरा होने पर फौरन जलाई जा सके। एक नौकरानी हल्दी पीसने लगती थी कि पढ़ाई के बाद मेरी चोट पर लगाई जाएगी. . .जनाबेवाला, हो सकता है कि यह विवरण देने में कुछ अतिशयोक्ति से काम ले रहा हूं लेकिन यह सच है कि अब्बा ने मुझे किस तरह पढ़ाया था आज तक याद है। क्या पढ़ाया था वह भूल चुका हूं।

जब पांचवीं पास करने के बाद मैं छठी में आया तो पुराने माट साब को निकाल दिया गया और उनकी जगह नए माट साब, जो सरकारी स्कूल में अध्यापक भी थे, घर पढ़ाने आने लगे। उनका वेतन उस जमाने के हिसाब से बहुत ही ज्यादा था, जिसका उलाहना मुझे दिया जाता था कि तुम्हारी पढ़ाई पर इतना खर्च किया जा रहा है, तुम ठीक से पढ़ा करो। नए माट साब का नाम शुक्ला माट साब था लेकिन लड़के इन्हें पीछे बग्गड़ माट साब कहा करते थे। माफ कीजिएगा, मैं अपने गुरु का नाम बिगाड़कर उनका अपमान नहीं कर रहा हूं। न तो मैंने उन्हें यह नाम दिया था और न मैं इसे अच्छा समझता था। मैं तो केवल बताने के लिए बता रहा हूं। पाप अन पर पड़ेगा या पड़ा होगा जिन्होंने यह नाम रखा था। तो साहब, बग्गड़ माट साब की उम्र चालीस-पैंतालीस के बीच रही होगी। कद औसत था। जिस्म गठीला था। आंखें छोटी और अंदर को धंसी हुई थीं। होंठ पतले थे। क्लीन शेव रहते थे। गालों के उपर वाली हड्डियों कुछ अधकि उभरी हुई थीं। माथा छोटा था। सिर के बाल बड़े अजीबोग़रीब थे। यानी बिलकुल खड़े रहते थे। काले और बेहद मजबूत थे। रोज ही उनसे सरसों के असली तेल की सुगंध आती थी। उनकी गरदन छोटी थी। शायद उनके बालों के कारण ही लोग उन्हें बग्गड़ कहते थे। बहरहाल, खुदा जाने क्या वजह थी।

जैसा कि उपर बताया गया, बग्गड़ माट साब के बाल बहुत खास थे। उन्हें अपने बालों पर गर्व था। अक्सर उसका प्रदर्शन भी करते रहते थे जिसका तरीका बड़ा रोचक होता था। पढ़ाते-पढ़ाते कभी बालों की चर्चा छिड़ जाती तो पूरे एक घंटे का भाषण और प्रैक्टिकल हमेशा तैयार रहता था। विषय की थ्योरी में मेरी अधकि रुचि नहीं थी। प्रैक्टिकल में मजा आता था यानी बग्गड़ मास्टर अपना सिर झुका लेत थे और मुझसे कहते थे कि मैं उनके बाल पूरी ताकत से खींचूं। कभी-कभी मैं इतनी जोर से उनके बाल खींचता था कि मेरा चेहरा लाल हो जाया करता था, लेकिन बग्गड़ माट साब का एक बाल भी न टूटता था। वे मुस्कराते रहते थे। उसका रहस्य छिपा था थ्योरी में। बग्गड़ माट साहब कहते थे कि वे साबुन से नहीं नहाते। सिर में हमेशा शुद्ध – अपने सामने पिराया – सरसों का तेल लगाते हैं। तेल रोज सुबह लगाते हैं। कंघा कभी नहीं करते आदि-आदि। बग्गड़ माट साब रोज शाम पांच बजे आते थे। घर के बाहर अहाते में कच्ची कोठरी को लीप-पोतकर ‘स्टडी रूम` बनाया गया था। उसमें लकड़ी की मेज-कुर्सियां और एक अच्छा-सा मिट्टी के तेल का लैम्प रखा रहता था। बग्गड़ माट साह रोज एक घंटे के लिए आते थे। इतवार छुट्टी होती थी। कभी-कभी उनसे नागा भी हो जाता था। वह सबसे सुहावनी शाम होती थी।

बग्गड़ माट साब में और चाहे जितने दोष रहे हों वे हिंसक नहीं थे, जबकि स्कूल के दूसरे अध्यापक जैसे त्रिपाठी माट साब, खरे माट साब, संस्कृत के पंडित जी, आर्ट के माट साब वगैरह खाल उधेड़ने के लिए मशहूर थे। लेकिन इन सबसे हिंसक होने के अलग-अलग कारण हुआ करते थे और हिंसा व्यक्त करने के तरीके भी जुदा-जुदा थे। जैसे किसी को छड़ी चलाने का अच्छा अभ्यास था। कोई कुर्सी के पाए के नीचे हाथ रखवाकर उस पर बैठ जाता था। कोई तमाचे लगाने और कान खींचने में निपुण था। कोई मुर्गा बनाकर उपर बोझ रखा दिया करता था। कोई उंगलियों के बीच में पेंसिल रखकर उंगलियों को दबाकर असह्य पीड़ा पैदा करने का हुनर जानता था। बहरहाल, एक ऐसा बाग था जिसमें तरह-तरह के फल खिले थे। हां, त्रिपाठी माट साब का तरीका बड़ा मौलिक और रोचक था। वे कुर्सी पर बैठकर लड़के का सिर अपने दोनों घुटनों के बीच दबा लेते थे और उसकी पीट पर अपने दोनों हाथों से दोहत्थड़ मारते थे। यह करते समय वे ‘बोतल-बोतल` कहा करते थे। पता नहीं बोतल क्यों कहते थे। लड़कों ने इस सजा का नाम ‘बोतल बनाया` रखा था।

एक दिन का किस्सा है, त्रिपाठी माट साब ने बैजू हलवाई के लड़के को बोतल बनाने के लिए उसका सिर घुटने में दबाया और दोहत्थड़ मारा। पता नहीं लड़के को चोट बहुत ज्यादा लगी या वह तड़पा ज्यादा या त्रिपाठी माट साब ने उसे ठीक से पकड़ नहीं रखा था, वह छूट गया। उठकर भागा। माट साब उसके पीछे दौड़े। वह खिड़की से बाहर कूद गया। माट साब भी कूद गये। वह भागकर स्कूल के गेट से बाहर निकल गया। माट साब भी निकल गये। उन्हीं के पीछे पूरी क्लास ‘पकड़ो-पकडो` का शोर मचाती निकल गई। भागदौड़ में माट साब की धोती आधी खुल गई और उनकी चोटी भी खुल गई। पर वे सड़क पर उसका पीछा करते रहे। स्कूल के सामने तहसील थी। उसके बराबर में कुछ हलवाइयों की दुकानें थीं। बैजू हलवाई की दुकान और उसके पीछे घर था। लड़का दुकान में घुसा और घर के अंदर चला गया। पीछे-पीछे माट साब पहुँचे। माट साब कहने लगे, ‘निकालो ससुरउ को बाहर. . .अब तो जब तक हम दिल भर के मार न लेब, हमें खाया पिया हराम है।’
‘पर बात का भई माट साहिब?’ बैजू ने पूछा।

‘हमारा अपमान किहिस ही. . .और का बात है।’
बैजू समझ गया। उसकी पत्नी भी समझ गई। लोग भी समझ गए। तहसील के सामने वकीलों के बस्तों पर बैठे मुंशी भी उठकर आ गए। थोड़ी ही दे में मजमा लग गया। माट साब जिद ठाने थे कि लड़के को बाहर निकालकर उन्हें सौंप दिया जाये। बैजू बहाने बना रहा था। अत में उसने कहा कि लड़के ने घर के अंदर से जंजीर लगा ली है और खोल नहीं रहा है। यह जानकर त्रिपाठी माट साब और गरम हो गये। इस नाजुक मौके पर मुंशी अब्दुल वहीद काम आये, जो त्रिपाठी के साथ उठते-बैठते थे। मुंशीजी ने कहा, ‘ठीक है, त्रिपाठी जी, लड़का तुम्हें दे दिया जाएगा। जितना मारना चाहो मार लेना, पर यह तमाशा तो न करो। तुम अध्यापक हो, यहां इस तरह भीड़ तो न लगाओ।’ फिर उन्होंने सब लड़कों को डांटकर भगा दिया। और बैजू से कहा, ‘माट साब के हाथ-मुंह धोने को पानी दे।’ इशारा काफी था। बैजू ने एक बड़ा लोटा ठंडा पानी दिया। माट साब ने हाथ-मुंह धोया। फिर बैठ गये। बैजू ने करीब डेढ़ पाव ताजा बर्फ़ी सामने रख दी। एक लोटा पानी और रख दिया। त्रिपाठी जी का गुस्सा कुछ तो पानी ने ठंडा कर दिया था। कुछ बर्फ़ी ने कर दिया।

बैजू हलवाई ने कहा, ‘आप चिंता न करो। साला जायेगा कहां समझा-बुझा के आपके पास ले आएंगे। दंड तो ओका मिला चाही।’ उसी वक्त स्कूल का चपरासी आया और कहा कि त्रिपाठी माट साब को हेड मास्टर साहब याद करते हैं।

कुछ दिनों बाद यह पूरा किस्सा एक बड़े रोचक मोड़ पर आकर धीरे-धीरे खत्म हो गया। बैजू हलवाई के लड़के को एम.ए. की डिग्री मिल गई। यानी उसका शिक्षाकाल समाप्त हो गया। त्रिपाठी माट साब महीने में दो-तीन बार स्कूल आते वक्त जब जी चाहता था बैजू हलवाई की दुकान की तरफ मुड़ जाते थे। उन्हें देखते ही बैजू का लड़का घर के अंदर चला जाता था। बैजू से माट साब पूछते थे, ‘कहां गवा ससुरा?’ बैजू बहाना बना देता था। माट साब भी समझते थे कि टाल रहा है। तब बैजू उन्हें एक दोना जलेबी या बेसन के लड्डू या कलाकंद पकड़ा देता था। माट साब बेंच पर बैठकर खाते और पानी पीते थे। बैजू और उनके बीच कुछ गहरे आध्यात्मिक विषयों पर बातचीत होती थी कि यदि हम राम, रामहु, राम: वगैरह-वगैरह सीख भी लेंगे तो क्या होगा! कुछ दिनों बाद यह विश्वास हो गया था कि कभी न सीख सकेंगे और कुछ दिनों बाद इस नतीजे पर पहुँचे थे कि व्याकरण पैदा ही इसलिए हुई है कि हमें पिटने के अवसर मिलते रहें।

अगर मैं सभी अध्यापकों के सजा देने के तरीक़ों का पूरा विवरण दूं तो बहुत से पन्ने काले हो जाएंगे। आप ऊब जाएंगे। लगेगा मैं स्कूल का नहीं पुलिस थाने का विवरण दे रहा हूं। इसलिए मुख़तसर लिखे को बहुत जानो।

हमारे स्कूल का नाम गवर्नमैंट नार्मल स्कूल था। नाम शायद स्कूल खोले जाने के बाद रखा गया था क्योंकि वहां हर चीज ‘एबनार्मल` थी। लेकिन शहर के अन्य स्कूलों की तुलना में यह बहुत आदर्श स्कूल माना जाता था क्योंकि यहां कमरे, कुर्सियां, ब्लैकबोर्ड आदि थे। अध्यापक भी दूसरे स्कूलों की तुलना में पढ़े-लिखे तथा प्रशिक्षित थे। हम अक्सर गर्व भी किया करते थे कि हम शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ते हैं। बग्गड़ माट साब गर्व करते थे कि वे सरकारी नौकर हैं। रिटायर होने के बाद उन्हें बाकायदा पेंशन मिलेगी।

मेरा विषय चूंकि गुरुजनों पर केंद्रित है इसलिए लौटकर फिर बग्गड़ माट साब पर आता हूं जिनका प्रभाव आज तक मुझ पर है यानी उन्होंने मुझे जो सिखाया या नहीं सिखाया, जो बनाया या बिगाड़ा वह आज तक मरे अंदर झलकता है। मैं उनका आभारी हूं। बग्गड़ माट साब अनौपचारिक शिक्षा के महत्व को उस जमाने में भी बहुत गहराई से समझते थे। यही कारण था कि अक्सर गणित पढ़ाते-पढ़ाते वे अपनी घरेलू समस्याओं तक पहुंच जाते थे। उनकी एक समस्या, छोटी-सी उलझन यह थी कि उन्हें दूध बाजार में पीना पड़ता था। कारण यह था कि उनके बच्चे अधकि थे। घर में यदि दूध मंगाते तो सभी को थोड़ा-थोड़ा देना पड़ता। और इस तरह बग्गड़ माट साब के हिस्से में छटांक भर ही आता। यह सब सोच-समझकर वे बाजार में दूध पीते थे। किसी हलवाई की दुकान के सामने खड़े होकर डेढ़ पाव दूध गरमागरम पीने के बाद ही वे घर लौटते थे। लेकिन इसमें एक दिक्कत थी हलवाई की दुकान का दूध पीते उन्हें यदि कोई देख लेता था तो बग्गड़ माट साब को बड़ी शर्म आती थी। फिर उसे आमंत्रित करना पड़ता था। फिर शकर में खूब चर्चा होती थी कि बग्गड़ माट साब रात में ट्यूशन पढ़ाने के बाद जब घर लौटते हैं तो हलवाई के यहां खड़े होकर दूध पीते हैं। यह बात उड़ते-उड़ते घर भी पहुंच जाती थी जिससे बग्गड़ माट साब की उनकी पत्नी से लड़ाई तक जो जाया करती थी। इस लड़ाई में लड़के, जिनमें जवान लड़के से लेकर दो साल की उम्र तक के शामिल थे, अम्मा का पक्ष लेते थे।

बग्गड़ माट साब बी.ए., बी.टी. थे। पता नहीं उनके मन में क्या आई कि हिंदी में प्राइवेट एम.ए. करने के लिए फार्म भर दिया। वे स्कूल में लड़कों से तथा घर में मुझसे कहते थे कि यह हम लोगों के लिए गर्व की बात होगी कि हमारे अध्यापक एम.ए. पास हैं। कुछ दिनों के बाद यह होने लगा कि बग्गड़ माट साब अपने साथ एक मोटी-सी किताब लाने लगे। जब पढ़ाने बैठते तो कहीं-न-कहीं से अपनी एम.ए. की पढ़ाई का जिक्र छेड़ देते और फिर एक मोटी-सी पुस्तक निकालकर जोर-जोर से पढ़ने लगते। मेरी समझ में वह बिलकुल न आयी थी, लेकिन खुश होता था कि चलो मैं खुद पढ़ाई से बच रहा हूं। एक पुस्तक का नाम अभी तक याद है जो बग्गड़ माट साब लाया करते थे ‘पद्मावत`। वे जो पंक्तियां पढ़ते थे उसकी व्याख्या भी करते जाते थे। जब तक उन्होंने एम.ए. पास नहीं कर लिया तब तक उनकी पढ़ाई और मेरी पढ़ाई साथ-साथ होती थी। इसका मतलब यह नहीं कि वे एक घंटे के बजाय दो घंटे बैठते थे। एक दिन उन्होंने बताया कि वे एम.ए. पास हो गये हैं। डिवीजन पूछने पर बोले, ‘मैंने डिवीजन के लिए एम.ए. थोड़ी ही किया है। मेरा ध्येय है कि कभी जब मैं प्रिंसिपल बनूं तब तख़्ती पर मरे नाम के साथ जो डिग्रियां हों उनमें बी.ए., बी.टी., एम.ए. होना चाहिए।’ इस तरह वे अपने मकसद में कामयाब हो गये थे। स्कूल में अन्य अध्यापक कहते थे कि बग्गड़ माट साब की थर्ड डिवीजन आई है।

बग्गड़ माट साब ने मुझे कक्षा छ: से लेकर दस तक पढ़ाया था। नवीं तक मैं बराबर पास होता रहा। इसमें उनकी पढ़ाई का योगदान था या मेरी बुद्धि का चमत्कार, कह नहीं सकता। लेकिन नवीं तक सब ठीक-ठीक चलता रहा। दसवीं में जब पहुंचा तो बग्गड़ माट साब ने घोषणा कर दी कि मैं दूसरी सभी विषयों में पास हो जाउंगा लेकिन वे गणित में पास होने की गारंटी नहीं लेते। अब्बा को जब यह पता चला तो उन्होंने इस सहज ही लिया। वे जानते थे कि मैं गणित में बहुत कमजोर हूं। मैंने यह लाइन ले ली थी कि गणित की जो कमजोरी मुझे ‘विरसे` में मिली है उसके जिम्मेदार अब्बा हैं। मतलब यह कि बग्गड़ माट साब की तरफ से मेरी तरफ से, अब्बा की तरफ से यह तैयारी पूरी थी कि मैं गणित में फेल हो गया तो अचंभा किसी को नहीं होगा।

गणित से मेरी कभी नहीं पटी। गणित के अपने कृपा के द्वार मेरे लिए सदा बंद रखे हैं। और इसका आरोप बिना वजह मेरे उपर लगाया जाता था। सब, सबसे ज्यादा अब्बा कहा करते थे कि मैं ‘कूढ़मगज` हूं। मैं इस शब्द का मतलब यह समझता था कि मेरे दिमाग में कूड़ा भरा हुआ है। गणित पढ़ते समय यह संदेह विश्वास में बदल जाता था। मैं अपने गणित न सीख पाने का रहस्य समझ चुका था। लगता था कि अब प्रयास करना भी बेकार है। जब दिमाग में साला कूड़ा भरा हुआ है तो हम क्या कर सकते हैं। फिर खुशी भी होती थी कि चलो इसकी जिम्मेदारी हम पर नहीं आती, क्योंकि कोई अपने आप तो अपने दिमाग में कूड़ा नहीं भर सकता। अकल कम है वाली धारणा मेरे अंदर बहुत गहराई में जाकर बैठ गई थी।

जिस मेरे गणित का पेपर था, उस दिन अब्बा ने कहा कि वे नमाज पढ़ेंगे। मैंने कहा मैं भी पढ़ूंगा। तब अब्बा ने कहा, नहीं तुम अपना हिसाब पढ़ो। वे चाहते थे कि काट बंट जाये। बहरहाल, दोनों तरफ से तैयारियां पूरी थीं। मैं सुबह साढ़े छह बजे शहीदों वाली मुद्रा में घर से निकला। इतना ज्यादा पढ़ लिया था कि कुछ भी याद न था। सेंटर दूसरी जगह था। वहां गया। बरामदे में सीट लगी थी। पीछे की सीट पर एक दादा किस्म का लड़का बैठा था। उसने इम्तिहान शुरू होने से पहले मुझसे कहा कि ठीक एक घंटे के बाद मैं पेशाब करने के लिए जाउं और पेशाबखाने की खिड़की के पीछे नकल कराने आये लोगों में से कोई करीम मुझे हल किया पर्चा दे देगा। मैंने कहा, पर मैं करीम को पहचानूंगा कैसे. . .? उसने कहा, तुम आवाज देना करीम। वह रोशनदान से पर्चा दे देगा। कहना, सल्लू दादा ने भेजा है। पर्चा ले आना।

खैर साहब, घंटा बजा। पर्चा बांटा गया। देखा तो मामला पूरा गोल यानी कोई सवाल नहीं आता था। सल्लू दादा ने पर्चा बनाने वाले की मां-बहन को याद किया और पंद्रह मिनट बाद पर्चा जेब में ठूंसकर पेशाबखाने की तरफ दौड़े। उन्होंने इसकी इजाजत भी नहीं ली, जो जरूरी थी। बहरहाल, उनके हाव-भाव से सब समझ चुके थे कि वे दादा हैं और कुछ भी कर सकते हैं। इसलिए बेचारे सूखे मरियल अध्यापक उन्हें बड़ी-से-बड़ी सीमा तक बर्दाश्त करने के लिए तैयार थे। वे पर्चा दे आये और कापी पर इस तरह झुककर लिखने लगे जैसे सारी जान उसी में लगा देंगे। मैंने भी यही किया। जब पूरा एक घंटा हो गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं जाउं। मैं बाकायदा इजाजत लेकर गया तो मेरे पीछे-पीछे एक अध्यापक भी गये। और नतीजे में काम नहीं हो पाया। सल्लू दादा से मैंने बता दिया कि ऐसा हुआ। उन्होंने चुनिंदा गालियों का पिटारा खोल दिया। उठे और पेशाबखाने की तरफ बढ़ गये। अध्यापक उनके पास तक आया, कुछ बात हुई और फिर लौट गया। मतलब सल्लू दादा की विजय। वे आये। नजरों में विजय का हर्षोल्लास था। बिलकुल नेपोलियन की तरह। इसके बाद उन्होंने काम शुरू कर दिया। करीब एक घंटे इंतजार के बाद फिर मेरी बारी आई। जिंदगी में पहली बार यह पवित्र काम कर रहा था। हाथ कांप रहे थे। होंठ सूख रहे थे। लिखा कुछ था दिखाई कुछ दे रहा था। और एक ही घंटा रह गया था। निगरानी बढ़ गई थी। पकड़े जाने पर तीन साल के लिए निकाले जाने का डर था। बहरहाल, तनाव इतना था कि कह नहीं सकता। पर मरता क्या न करता!

गर्मियों की छुट्टियों के सुखद दिनों में एक तनावपूर्ण सप्ताह आया जब बताया गया कि ‘रिजल्ट` आने वाला है। साइकिलों पर बैठकर लड़के स्टेशन जाते थे, जहां सबसे पहले अखबार पहुंचता था। एक दिन गये, नहीं आया। बताया गया दो दिन बाद आयेगा। फिर गये, नहीं आया। फिर एक दिन आया। खुद देखने की हिम्मत न थी। किसी ने बताया, साले तुम पास हो गये हो। अपनी खुशी का हाल मैं क्या बताऊँ। लेकिन श्रेय सल्लू दादा को जाता है।

हाईस्कूल करने से पहले ही मेरे भविष्य के बारे में बड़ी-बड़ी योजनाएं बननी शुरू हो गई थीं। योजनाएं बनाने वालों के कई गुट हो गये थे। अब्बा मुझे एयरफोर्स में भेजना चाहते थे। हाईस्कूल के बाद ही कोई ट्रेनिंग होती थी जो मुझे करनी थी। अम्मा इसकी सख्त विरोधी थी। उसका मानना था कि मुझे डॉक्टर बनना चाहिए। अब्बा मान गये कि चलो ठीक है, मैं डॉक्टर बन जाउं। एक छोटा-सा गुट यह भी कहता था कि कृषि-विज्ञान में कुछ करना चाहिए ताकि घर की खेती-बाड़ी संभाल सकूं। तीसरे गुट की राय यह थी कि वकालत पढ़ लूं क्योंकि हम लोगों में बहुत से मुकदमे चला करते थे। बहरहाल जितने मुंह उतनी बातें। आखिरकार राय यह बनी कि मुझे डॉक्टर ही बनना चाहिए और घर पर रहकर प्रैक्टिस करनी चाहिए। इस तरह मैं घर की खेती भी देख सकूंगा, मुक़दमेबाज़ी भी कर सकूंगा वगैरह-वगैरह। मजेदार बात यह है कि मुझसे कभी कोई नहीं पूछता था कि तुम क्या बनना चाहते हो। मुझे मालूम था कि अगर मुझसे पूछा जाता और मैं अपनी मर्जी का पेशा बता भी देता तो मुझे वह न बनने दिया जाता। मैं दरअसल आर्टिस्ट बनना चाहता था- कलाकार, पेंटर। लेकिन चित्रकारों, या कहें हर तरह के कलाकर्मियों के बारे में अब्बा की राय बहुत ज्यादा खराब थी। वे लेखकों, शायरों, चित्रकारों आदि को बहुत ही घटिया और निम्नकोटि के लोग मानते थे। ऐसे लोग जो अनैतिक होते हैं, भ्रष्ट होते हैं, शराब पीते हैं, कई-कई औरतों से संबंध रखते हैं, खुदा को नहीं मानते वगैरह-वगैरह। मतलब, अगर मैं मुंह से यह बात निकाल भी देता तो डांट पड़ती। अब मैं आपको लगे हाथों एक मजेदार बात बता दूं। स्कूल में मुझे केवल कक्षा पांच तक आर्ट पढ़ाई गई थी। लेकिन मैं आगे भी पढ़ना चाहता था। पर थी ही नहीं तब मैं चाहता था कि रंग का एक डिब्बा खरीद लूं। लेकिन यह भी जानता था कि रंग का डिब्बा इतना बड़ा अपराध होगा कि उसकी माफी न मिलेगी, क्योंकि मुझे पेंसिल से तस्वीरें बनाते देखकर ही अब्बा को बेहद गुस्सा आ जाता था। करीब-करीब मारते-मारते छोड़ते थे। शायद यही वजह है कि आज सफेद कागज और रंग मेरी कमजोरी हैं। सफेद कागज मुझे ऐसी अद्वितीय सुंदरी जैसा लगता है जिसका अलौकिक सौंदर्य विवश कर देता है। कलम या रंग देखकर मेरी पहली तीव्र इच्छा उसे ले लेने की ही होती है। मैंने कागज की जितनी चोरी की है उतना शायद कुछ और नहीं चुराया। कागज में मेरा प्रेम बढ़ती हुई उम्र में साथ बढ़ता ही गया। करीब दस साल पहले अमेरिका में एक धनाढ्य महिला ने मुझसे पूछा कि मैं न्यूयार्क में क्या देखना या करना चाहता हूं। वह महिला मेरी मदद या खातिर वगैरह करना चाहती थी। वह समझ रही थी कि कम पैसा और कम साधन होने के कारण जो कुछ मैं अपने आप देख या खरीद नहीं सकता, उसमें वह मेरी मदद करेगी। मैंने उसे बताया कि मैं न्यूयॉर्क में कागज, कलम, रंग वगैरह, मतलब स्टेशनरी की दुकानें देखना चाहता हूं। वह प्रसन्न हो गई और मुझे कई दुकानें दिखाईं।

देखिए, बात कहां से कहां जा पहुंची। इसी तरह बग्गड़ माट साब भी बात को कहीं पहुंचाकर कहीं से कहीं ले आते थे। हाईस्कूल में मेरे पास होने के बाद बग्गड़ माट साहब मुझसे बिछुड़ गये। उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी कि विदाई ‘समारोह` में उन्हें एक घड़ी उपहारस्वरूप दी जाये जिस पर खुदा हो कि क्यों, कब, कैसे, कहां किसने दी है। मैंने उनकी यह इच्छा अब्बा के सामने रख दी थी। उन्होंने कहा था, घड़ी बहुत महंगी आती है। बग्गड़ माट साब को कुछ और दिया गया था।

विश्वविद्यालय में जब दाखिल हुआ तो डॉक्टर बनने की योजना के अंतर्गत सांइस के विषय ही दिलाए गये। हॉस्टल में रहने की जगह मिली। पहली बार आजादी मिली। हाथ में पैसा आया। डर खत्म हो गया। जल्दी ही ‘हाबीज वर्कशॉप` में पेंटिंग सीखने का कोर्स ज्वाइन कर लिया। यहां कलीम साहब नामक अध्यापक थे। काफी दोस्ताना माहौल में काम करते थे। हम तीन लड़कों से, जो आपस में दोस्त और क्लासफैलो थे, हमारी अच्छी-खासी दोस्ती हो गई थी। हद यह है कि थोड़ा उधर-व्यवहार तक चलने लगा था। कलीम साहब ने लखनऊ आर्ट कालिज से पढ़ाई की थी और ‘जुलाजी डिपार्टमैंट` में आर्टिस्ट के पद पर काम करते थे। शाम को ‘हाबीज वर्कशॉप` में क्लास लेते थे। कुछ ही महीनों में हमें पता लगा कि कलीम साब आदमी अच्छे हैं लेकिन आर्ट-वार्ट से उनका रिश्ता वाजबी-वाजबी-सा ही है। खैर, क्या किया जा सकता था। वैसे भी उनको जितना आता था उतना हम सीख लेते तो बड़ी बात थी, लेकिन धीरे-धीरे यह भी पता चला कि कलीम साब चतुर भी हैं। जैसे एक बार हमारे एक दोस्त को एक विशेष साइज के चित्र बनाना था। कलीम साब ने उसका खरीदा कैनवास इस तरह काट किया कि उस उसके लिए बेकार हो गया, लेकिन कलीम साब के काम आ गया। हमें यह बुरा लगा। पर कलीम साब हमें कभी-कभी अपने घर खाने के लिए भी बुलाते थे। और यह हमारे उपर इतना बड़ा उपकार होता था कि हमेशा उसके बोझ से दबा महसूस करते थे।

एक दिन मैं कलीम साब के घर पहुँचा तो देखा कि बड़ी मोटी-सी डिक्शनरी लिये बैठे हैं। पूछने पर कि क्या कर हैं, बोले कि ‘कंटम्पलेशन` का मतलब देख रहा हूं. . .

‘क्या कुछ पढ़ रहे थे?’
‘नहीं भाई,’ उन्होंने एक ठंडी सांस लेकर कहा, ‘ये लफ़्ज कहीं देखा था पंसद आया। सोचा कि इस पर एक पेंटिंग बनाऊँ।’

कलीम साहब ने हम लोगों को दो-तीन साल ही सिखाया। उसके बाद विश्वविद्यालय में ‘आर्ट क्लब` नामक संस्था खुल गई थी जिसके हम सब सदस्य हो गये थे।

कोर्स में दूसरे विषयों, जैसे केमिस्ट्री, बॉटनी आदि के अध्यापक बहुत साहब किस्म के लोग थे। पूरा सूट-टाई वगैरह पहनकर आते थे। लेक्चर थिएटर में टहल-टहलकर लेक्चर देते थे। कभी-कभी चाक से कुछ लिखते भी थे। फिर चले जाते थे। यानी उन्हें न हमसे कोई ताल्लुक था और न हमें उनसे कोई मतलब था। हम समझ रहे हैं या नहीं, इसकी वे चिंता नहीं करते थे। बस हमसे अपेक्षा की जाती थी कि हम चुपचाप क्लास में आकर बैठ जाएंगे। रोल नंबर पुकारने पर ‘यस सर` बोलेंगे। पैंतालीस मिनट खामोश बैठेंगे और घंटा बजने पर चले जायेंगे। इस व्यवस्था से हम लोग भी खुश रहते थे और अध्यापक भी।

अन्य विषयों के अतिरिक्त हम लोगों को धर्मशास्त्र भी शिक्षा भी दी जाती थी। हमें धर्मशास्त्र मौलाना घोड़ा पढ़ाते थे। मौलाना का असली नाम क्या था यह शायद कागजात को ही मालूम था। सारी यूनिवर्सिटी में वे मौलाना घोड़ा कहे, पुकारे जाते थे। इस नाम के पीछे शायद उनकी शक्ल का हाथ था। बहरहाल, मौलाना लड़कों के साथ बहुत दोस्ताना व्यवहार करते थे। मौलाना को पान खाने की लत थी और अक्सर वे पानों की डिबिया-बटुआ भूल आते थे। उनकी क्लास अक्सर इस तरह शुरू होती थी- भई, आज सुबह से मैं बड़ी बेचैनी महसूस कर रहा हूं। हुआ यह कि रोज बेगम मेरी शेरवानी की जेब में पानों की डिबिया और बटुआ रख देती हैं, आज पता नहीं क्या हुआ कि भूल गईं। मैं जब यहां पहुंचा तो देखा दोनों चीजें नहीं है।। खैर, फर्स्टइयर की क्लास आ गई। उनको पढ़ाया। फिर तुम लोग आ गये। अब मैं तुम लोगों से भी पान नहीं मंगा सकता क्योंकि तुम लोग जूनियर हो। थर्डइयर के तालिबेइलम जब आएंगे तो उनसे कहूंगा। मौलाना घोड़ा के इस वक्तव्य पर शोर मच जाता था। लड़के कहते थे कि ये नहीं हो सकता, वे अभी जाकर पान ले आएंगे। मौलाना ‘ना-ना` करते थे, लड़के ‘हां-हां` करते थे। काफी खींचातानी, बहस-मुबाहिसों के बाद आखिरकार बहुत कलात्मक ढंग से मौलाना घोड़ा हथियार डाल देते थे। एक लड़का उठता था। मौलाना उसे बाजार जाकर पान लाने की इजाजत देते थे। वह अनुरोध करता था कि वह अकेला नहीं जा सकता, कम-से-कम एक लड़के को उसके साथ जाने दिया जाये। ऐसा हो जाता था। फिर कुछ लड़के कहते थे कि उन्हें भी पान की तलब महसूस हो रही है। जाहिर है, तलब तो तलब है। उसके महत्व से कौन इनकार कर सकता है। मौलाना उन लड़कों को भी जाने की इजाजत देते थे। तब कुछ और लड़के खड़े हो जाते थे कि उन्हें सिगरेट की तलब लगी है। इस तरह होता यह था कि पूरी क्लास अपनी ‘तलब` पूरी करने चली जाती थी और दो लड़के साइकिल पर जाकर मौलाना घोड़ा के लिए दो पान ले आते थे।

साइंस की पढ़ाई में मेरा ही नहीं, हम तीनों दोस्तों का दिल न लगता था। हम सब अपने आपको आर्टिस्ट समझने लगे थे। क्लास में न जाना, प्रॉक्सी हाजिरी लगवाना, आवारागर्दी करना, चाय पना, रातों में टहलना, सिगरेट पीना, शेरो-शायरी में दिलचस्पी लेना, लड़कियों को देखने के लिए मीलों चले जाना, कलाकारों जैसे कपड़े पहनना, किराये की साइकिल पर शहर की वर्जित सड़कों के चक्कर काटना, साहित्यिक-सांस्कृतिक कामों में जान लड़ा देना, अपने से बड़ी उम्र के लोगों से दोस्ती करना, धर्म में अरुचि, ईश्वर है या नहीं, विषय पर विवाद करना आदि-आदि हम करते थे। इसलिए जाहिर है साइंस की पढ़ाई के लिए वक्त न मिलता था।

अध्यापकों से हमारा रिश्ता भी दिलचस्प था। जो हमें नहीं पढ़ाते थे, उनसे हमारे बड़े अच्छे संबंध थे। मतलब, विज्ञान पढ़ाने वाले अध्यापकों को हम जानते भी न थे, पर साहित्य और कला के अध्यापकों से हमारी मित्रता थी। केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में हम कभी न जाते थे लेकिन कला-प्रदर्शनी में जाना अपना पहला कर्तव्य समझते थे। नतीजा जो निकलना था वही निकला। पहले साल में फेल। दूसरे साल में सोचा सिफारिश कराई जाये। यह पूरा प्रसंग कुछ इस तरह मुड़ गया कि सिफारिश करने वाला ही असुविधा में पड़ गया। हमें मालूम था कि केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में हम फेल हो ही जाएंगे। पढ़ाने और परीक्षा लेने वाले अध्यापक के पास हम तीनों मित्र सिफारिश करने वाले सज्जन के साथ पहुँचे। सिफारिश करने वाले सज्जन ने बातचीत शुरू की, ‘ये तीनों आपके स्टूडेंट मुझे यहां लाये हैं..’ अध्यापक बात काटकर बोले, ‘ये तीनों? नहीं, ये तो मेरी क्लास में नहीं हैं।’ सिफारिश करने वाले अध्यापक सटपटाए। जल्दी ही समझ गये कि मामला क्या है। उन्होंने हम लोगों की तरफ अजीब नजरों से देखा। उन्हें लगा कि हमने उन्हें बहुत गलत काम के लिए राजी कर लिया था और धोखा दिया था। हमने नजरें झुकाकर भरी आवाज में कहा, ‘जी, हम आपकी क्लास में ही हैं।’

अध्यापक ने फिर ध्यान से देखकर बड़ी उपेक्षा-भरी आवाज में कहा, ‘नहीं, ये लोग मेरी क्लास में नहीं है। इन्हें क्लास में कभी नहीं देखा।’

अब काटो तो खून नहीं। बेशर्मों की तरह सिर झुकाए खड़े रहे। ये सच है कि हम तीनों दोस्त क्लास में न जाते थे। उसके अलावा हमें कहीं भी देखा जा सकता था। बी.एस.सी. के दूसरे साल में थे। सेशन समाप्त हो गया था। हाजिरी निकली तो हम सबकी हाजिरियां कम थीं और इम्तिहान में नहीं बैठ सकते थे। पढ़ाई या इम्तिहान की तैयारी नहीं थी। हॉस्टल तथा फीस आदि का जो पैसा चुकाना था वह बहुत ज्यादा था, क्योंकि हम उसे उड़ा गये थे। हम तीनों हॉस्टल के कमरे में बैठे सोच रहे थे कि इस मुसीबत से कैसे निबटा जाए। कोई रास्ता न नजर आता था। फिर एक ने सलाह दी कि यार ऐसा किया जाये कि किताबें बेल डाली जाएं। तीनों अपनी-अपनी किताबें बेचेंगे तो इतने पैसे आ जाएंगे कि एक रम की बोतल खरीदी जा सके। एक फिल्म देखी जा सके और घर वापस जाने का टिकट आ जाये। यह राय सबको पसंद आई। वैसा ही किया गया।

नशे की आदत हम सबको यानी तीनों दोस्तों को थी। तीनों सिगरेट पीते थे। कभी-कभी जब पैसा ज्यादा होते थे या घर से मनीआर्डर आता था तो ‘ब्लैक फॉक्स` की तंबाकू खरीदते थे और पाइप पिया करते थे। शराब की आदत तो न थी पर पीना पंसद करते थे और जब पैसे होते थे तो शहर जाते थे जहां एक ‘भगवान रेस्टोरेंट` नाम का होटल था। उसके पिछले केबिनों में बैठकर शराब पी जा सकती थी। वही हमारा अड्डा होता था।

मैंने जिंदगी में जब पहली बार पी तो मुझे बहुत मजा आया। जिस मित्र ने पिलाई थी उससे मैंने बहुत शिकायत की कि उसने पहले क्यों नहीं पिलाई। शहर से शराब पीकर रात में दस-ग्यारह बजे सुनसान सड़क पर टहलते हुए हम लोग हॉस्टल वापस आते थे। लगता था कि पूरा ‘इंडिया अपने बाप` का है। यानी ऐसा मौज-मस्ती की हालत होती थी कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इस तरह सड़कों पर शराब के नशे में टहलते हुए हम लोग ‘मजाज़` की नज़्म ‘अवारा` गाया करते थे।

एक बार पैसे कम थे हम शराब पीना चाहते थे। उतने पैसे में क्वार्टर भी न आता था। इसलिए सोचा कि चलो भांग खाकर देखते हैं। हो सकता है मजा आ जाए। पानवाले की दुकान पर भांग मिला करती थी। हमने उससे पूछा कि कितनी-कितनी गोलियां खानी चाहिए कि मजा आ जाए। उसने कहा कि चार-चार गोलियां खा लो। मैं समझ गया कि साला अपनी भांग बेचने के लिए हमें चूतिया बना रहा है। लेकिन मेरे दोस्तों ने कहा कि नहीं यार, जब वह चार-चार कह रहा है तो चार-चार ही खानी चाहिए। गोलियां काफी बड़ी, यानी कंचे की बड़ी गोलियों जैसी थीं। बहरहाल, हमने चार-चार खा लीं। पानी के साथ सटक गये और सिनेमा में जाकर बैठ गये। थोड़ी देर के बाद मुझे लगा कि मेरे पैर नहीं है और जब इंटरवल होगा तो मैं कैसे उठूंगा? मैंने दूसरे दोस्तों से पूछा कि क्या उनके पैर हैं? उन दोनो ने भी बताया कि उनके पैर नहीं है। अब बड़ी समस्या खड़ी हो गई। खैर, फिल्म खत्म होने के बाद हम किसी तरह बाहर आ गये। और फिर हम तीनों का बुरा हाल हो गया। उल्टियां करते-करते पस्त पड़ गये। कान पकड़ने और तौबा करने लगे कि कभी भांग नहीं खाएंगे। भांग खाने के प्रयोग के बाद एक बार कम पैसे में नशा करने की गरज से हम ताड़ी पीने भी गये थे।

हम तीनों दोस्तों में एक बड़ा पुराना पापी था। हम सब उसे इसी वजह से पापी कहकर पुकारते थे। पापी का असली नाम नामदार हुसैन रिजवी था। लेकिन दोस्त उसे पापी कहते थे। पापी शायरी भी करता था। उसका तखल्लुस ‘वफा` या ‘वफा साब` कहकर पुकारा जाता था। दूसरों के सामने हम लोग भी उसे ‘वफा` कहते थे। ‘वफा` भी एक तरह से हमारा अध्यापक था उसने हमें सिगरेट पीना, शराब पीना और रंडियों के कोठों पर जाना सिखाया था। ‘वफा` एक पुराने ताल्लुकेदार का इकलौता लड़का था। वह ग्यारह-बारह साल का ही था कि उसके अब्बाजान का इंतकाल हो गया था। मां उसे बहुत चाहती थी। पैसा भी अच्छा-खासा था। यही वजह थी कि ‘वफा` उन सब कामों में माहिर हो गया जो हमें नहीं आते थे।

मेरा एक और शिक्षक मेरा तीसरा दोस्त था। उसका नाम वाहिद था। वह चित्रकार था। अच्छे चित्र बनाने, लड़कियों को फंसाने और अपना काम निकाल लेने की कला में वह माहिर था। इन तीनों कलाओं में उसका जवाब नहीं था। एक बार उसका एक पेपर खराब हो गया। हम सब सोच रहे थे कि किस तरह उसे पास कराया जाये। उसने कहा कि किसी सिफारिश की जरूरत नहीं है। वह खुद परीक्षक के पास जाएगा और अपनी सिफारिश करेगा। हम लोगों ने सोचा कि साला पागल हो गया है। जरूर बुरी तरह अपमानित होकर वापस आएगा। लेकिन वह गया और आकर बोला कि पास हो जाएगा। हमें यकीन नहीं आया, लेकिन जब रिजल्ट निकला तो वह पास था। फिर उसने हमें विस्तार से बताया कि उसने परीक्षक से क्या बात की थी और कैसे उसे इस बात पर तैयार कर लिया था कि उसे पास कर दिया जाए। लड़कियों को फंसाने की कला में भी वह माहिर और शातिर था। लड़कियों और औरतों के बारे में उसकी राय अंतिम और प्रामाणिक सिद्ध हुआ करती थी। जैसे लड़कियों को देखकर ही बता देता था कि वह कैसी है? क्या पंसद करती है, उसके कमजोर पक्ष क्या है? अच्छाई क्या है? उस पर किस तरह ‘अटैक` लेना चाहिए। लड़कियों से संबंध बनाने की प्रक्रिया को वह ‘अटैक` लेना कहा करता था। उसका यह मानना था कि संसार में किसी भी आदमी को पटाया जा सकता है। उससे काम निकाला जा सकता है। लेकिन सबको पटाने का रास्ता एक नहीं है। हर आदमी के अंदर तक पहुंचने के लिए एक नये रास्ते की खोज करनी पड़ती है। वह केवल ऐसी बातें ही नहीं करता था, बल्कि प्रयोग करके भी दिखाता था। एक बार एक लड़की को हम तीनों ने किसी कला प्रदर्शनी में देखा। लड़की पसंद आई। हमने चुनौती दी। उससे कहा कि वह लड़की को हमारे साथ चाय पीने के लिए तैयार करके दिखा दे तो हम जानें कि वह बड़ा लड़कीमार है। उसने कहा कि चाय पिलाने के पैसे उसके पास नहीं है। अगर हम दोनों उसे पैसे दे दें तो वह लड़की को चाय पीने के लिए आमंत्रित कर सकता है। हम तैयार हो गए। वाहिद गया और आया बोला चलो तैयार है।

वाहिद की दसियों लड़कियों से दोस्ती थी और वे सब समझती थीं कि वह बहुत सीधा-सादा, सम्मानित और कलाकार किस्म का आदमी है। वह कभी-कभी झोंक में आकर लड़कियों के बारे में अपने मौलिक विचार बताया करता था। कहता था हर औरत प्रशंसा पसंद करती है पर यह प्रशंसा कैसी हो, किस गुण की हो और कितनी हो यह बहुत गंभीर बात है। दूसरी बात यह बताता था कि हर औरत एक बंद चारदीवारी की तरह होती है। लेकिन आप जिधर से चाहें रास्ता खोल सकते हैं। यदि चारदीवारी को वास्तव में चारदीवारी समझा तो कभी सफल नहीं हो सकते। इसी तरह की न जाने कितनी बातें वह किया करता था। कभी-कभी उसकी बातें ‘वेग` भी हुआ करती थीं। जैसे कहता था, औरतें जिसे सबसे ज्यादा चाहती हैं उससे सबसे ज्यादा डरती हैं। औरतों से ‘एप्रोच` करने की पहली शर्त वह मासूमियत मानता था। वह कहता था कि कहीं धोखे से भी आपने अपने को घाघ सिद्ध कर दिया तो औरत पास नहीं आएगी।

आमतौर पर महीने के पहले हफ़्ते में घर से मनीआर्डर आता था और दूसरे हफ़्ते तक हम लोग खलास हो जाते थे। उसके बाद शाम को चाय के पैसे न होते थे। मुफ़्त चाय पीने के चक्कर में हम लोग परिचित लोगों के घरों के चक्कर काटते थे। अक्सर तो ये भी होता था कि कई घरों के चक्कर काटने और कई मील का पैदल सफर करने के बाद भी चाय न मिल पाती थी। वैसे, हमारे चाय पीने के इतने अधकि अड्डे थे कि कहीं-न-कहीं कामयाबी हो ही जाती थी। जब हर तरफ से थक-हार जाते थे तो युनिवर्सिटी कैंटीन आ जाते थे। कैंटीन के ठेकेदार खां साहब से हमारे संबंध थे। वे न सिर्फ चाय, बल्कि विल्स फिल्टर की सिगरेट और शानदार पान तक खिलाया करते थे। खां साहब शायर थे। अच्छे शायर थे। ‘कमाल` तखल्लुस रखते थे। रामपुर के रहने वाले थे। ‘खां साहबियत` और ‘शेरिअत` उनके व्यक्तित्व के बड़े कलात्मक ढंग से घुल-मिल गई थी। वे उर्दू में एम.ए. थे। वैसे भी अनुभवी आदती थे। बातचीत करने के बेहद शौकीन थे। पैसे को हाथ का मैल समझते थे। उन्होंने दरअसल क्लासिकी शायरी की तरफ हम लोगों को खींचा था। कभी-कभी मीर तकी ‘मीर` के शेर सुनाने से पहले कहते थे कि यह शेर किसी लोकप्रिय गजल का नहीं है। उन्होंने ‘कुल्लियात` से खुद ढूंढकर निकाला है। शायरी पर उनकी बातें बहुत दिलचस्प और मौलिक हुआ करती थीं। उनकी कैंटीन में विश्वविद्यालय के दूसरे शायर भी आते थे और देर रात तक महफिल जमी रहती थी। खां साहब अपने आप में एक संस्था थे। एक शेर पर चर्चा करते-करते कभी रात के बारह बजे जाया करते थे। शायरी के अलावा खां साहब अपने जीवन के लंबे अनुभवों का निचोड़ बताया करते थे। हमें लगता था कि जीवन अपनी परतें खोल रहा है।

खां साहब फिल्मों के भी रसिया थे। खासतौर पर अच्छी कलात्मक फिल्में दिखाने हम सबको ले जाते थे। तरीका काफी शाही किस्म का होता था। रिक्शे बुलवाए जाते थे। हम सब सिनेमा हॉल पहुंचते थे। पूरा खर्चा खां साहब करते थे हद यह है कि इंटरवल में चाय के पैसे भी किसी को न देने देते थे। फिल्म के बाद उस पर विस्तार से बातचीत होती थी। विश्वविद्यालय के सभी नामी-गिरामी शायरों से उनकी दोस्ती थी जो अक्सर शामें उनकी कैंटीन में गुजारते थे। खां साहब को हर चीज या काम उसकी चरम सीमा तक कर में मजा आता था। कहते थे, तुम लोग क्या पीते हो, मैंने एक जमाने में इतनी पी है कि छ: महीने तक नशा ही नहीं उरतने दिया।

खां साहब की कैंटीन के अलावा हमारे मुफ़्त चाय पीने के अड्डे प्राध्यापकों के घर थे। मजेदार बात यह कि वे सब प्राध्यापक वे न थे जो हमें साइंस के विषय पढ़ाते थे। साइंस पढ़ाने वाले प्राध्यापकों के बारे में हमारे अच्छे विचार न थे। हम उन्हें बिलकुल खुरा, नीरस और शुष्क समझते थे। साहित्य पढ़ाने वाले लोगों के घरों में दिलचस्प साहित्यिक चर्चाएं होती थीं। चाय पीने का मजा आता था। इन घरों के अलावा हमारा चाय पीने का अड्डा एक और भी था। शहर से कुछ दूर एक पुराने किस्म की कोठी में एक पुराने जमाने के रईस- जिनका नाम राजा मोहसिन अली खां उर्फ मीर साहब रंगेड़ा और राजा साहब छदामा था, रहते थे। उनकी उम्र पचास के आसपास थी। उनसे हम लोगों की दोस्ती हो गयी थी। राजा साहब सनकी और औबाश किस्म के आदमी थे। हमेशा अतीत के नशे में चूर रहा करते थे। लेकिन बीते जमाने के किस्से सुनाने की कला में बड़े माहिर थे। उनका बयान बहुत रोचक और छोटी-छोटी ‘डिटेल्स` से भरा होता था। उनकी स्मरण शक्ति भी जबरदस्त थी। मिसाल के तौर पर वे यह बताते थे कि तीस साल पहले जब वे किसी आदमी से मिलने गये थे तो उन्होंने किस रंग का सूट पहना था और कफ में जो बटन लगाए गए थे वे कैसे थे। राजा साहब की आर्थिक हालत खस्ता हो चुकी थी। अब वे सिर्फ बातों के धनी थे। उनके मनपसंद किस्से उनकी अय्याशियों की लंबी दास्तानें थीं। वे अनगिनत थीं। दास्तानें बताते हुए वे पूरा मजा लेते थे। औरतों के नख-शिख-वर्णन में उन्हें महारत हासिल थी। उसके साथ-ही-साथ संभोग का वर्णन काफी मनोयोग से करते थे।

कभी-कभी राजा साहब के यहां एक प्याली चाय और दालमोठ बहुत महंगी पड़ जाया करती थी। जैसे एक दिन चाय के लालच में हम थके-हारे उनके घर पहुंचे तो पता नहीं उनका क्या मूड था, बिना कुछ कहे-सुने एक अंग्रेजी की किताब के बीस पन्ने पढ़कर सुना दिए। फिर बताया, यह १८९१ का पटियाला गजेटियर है। इसमें मेरे खानदान का जिक्र है।

उनकी कई सनकें थीं। उनमें से एक यह थी कि अब तक अपने आपको बहुत बड़ा सामंत समझते थे। उन्होंने काले मखमल पर सुनहरे बेलबूटों वाला एक कोट सिलवाया था जिसे वे ‘चीफ कोट` कहा करते थे। उस ‘चीफ कोट` को पहन वे रिक्शे में बैठकर पूरे शहर का एक चक्कर लगाते। ऐसे मौकों पर उनके साथ होने में हम लोगों को बड़ी शर्म आती थी, लेकिन एक प्याली चाय की खातिर सब कुछ करना पड़ता था।

चाय पीने का एक और अड्डा गर्ल्स कॉलेज की एक सुंदर प्राध्यापिका का घर भी था। प्राध्यापिका बहुत सुंदर थीं। इतनी सुंदर कि उन्हें पहली बार देखकर ही हम तीनों दोस्त उन पर आशिक हो गये थे। और तय किया था कि वे इतनी सुंदर हैं कि उन पर कोई अपना अकेला अधिकार नहीं जमाएगा। जब भी कोई उनके पास जाएगा, अकेला नहीं जाएगा। इस समझौते पर हम कायम रहे। सुंदर प्राध्यापिका गर्ल्स हॉस्टल के अंदर रहती थीं। वे वार्डेन थीं। अकेली रहती थीं। उनके घर में शामें गुजारना इतना सुखद होता था जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन हम इतना तो सीख ही गये थे कि तांत को इतना नहीं तानते कि वह टूट जाए। इसलिए महीने में दो-तीन ही बार उनके पास जाते थे। उनकी हंसी ऐसी थी कि हम सिर्फ उसी पर फिदा थे।

किसी भी विश्वविद्यालय की यह विशेषता होती है कि जो उससे चिमटे रहते हैं वे उपकृत होते हैं। हम फेल होते थे। हाजिरी कम होती थी। इम्तिहान में नहीं बैठाए जाते थे, लेकिन विश्वविद्यालय से चिमटे हुए थे। इस तरह रगड़ते-रगड़ते बी.एस.सी. पास हो गये। हम तीन दोस्त थे और तीनों को तीन-तीन डंडे मिले थे। यानी तीन नंबर हमारी किस्मत में लिख गया था। लेकिन हम खुश थे। मेरा दो अन्य मित्रों को जैसे ही डिग्री मिली उन्हें अपने राष्ट्रपति तक हो जाने के रास्ते साफ नजर आने लगे और उन्होंने पढ़ाई को धता बताई।

मैंने सोचा कि मैं विश्वविद्यालय में कुछ और पढूं। क्या पढूं इसका पता न था। इतना तो तय थ कि साइंस के किसी विषय में एम.एस.सी करने से अच्छा था कि कहीं डाका मारता और जेल चला जाता। इसलिए साहित्य ही बचता था। किसी ने कहा उर्दू में एम.ए. कर डालो। लेकिन समस्या यह थी कि उस समय मैं हिंदी में लिखने लगा था। हाईस्कूल तक की पढ़ाई हिंदी में हुई थी। उर्दू बहुत कम, और लिखना तो बिलकुल नाम बराबर ही, जानता था। इसलिए सोचा उर्दू से अच्छा है हिंदी में एम.ए. किया जाए। किसी ने कहा साहित्य में ही एम.ए. करना है तो अंग्रेजी में करो। लेकिन उस समय तक अंग्रेज-विरोधी बन गया था इसलिए कि अंग्रेजी बिलकुल न आती थी। या इतनी कम आती थी कि मुझे उससे शर्म आती थी। बहरहाल, हिंदी के पक्ष में अधकि मत पड़े।

जब बी.एस.सी. में पढ़ता था उस जमाने में हिंदी विभाग से कोई विशेष लेना-देना न था। हां, मुझे साहित्य लिखने की प्रेरणा देने वाले और विश्वविद्यालय की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के महत्वपूर्ण व्यक्ति रामपाल सिंह हिंदी में पी-एच.डी. कर रहे थे। दरअसल उन्होंने ही मुझे हिंदी में लिखने और छपने आदि की प्रेरणा दी थी। डॉ. सिंह के बयान के बगैर यह पूरा विवरण अधूरा है। इसलिए मैं उनका बयान सामने रखना चाहूंगा। डॉ. सिंह विश्वविद्यालय में इस रूप में जाने जाते थे कि जिसका कोई नहीं है उसके डॉ. सिंह है। उनके पास कोई भी जा सकता है, कोई भी कुछ कह सकता है और कोई भी मदद की पूरी उम्मीद कर सकता है। मैंने हिंदी में जब लिखना शुरू किया तो उनके पास गया था। और उन्हें उनकी साख के अनुरूप ही पाया था। दरअसल विश्वविद्यालय की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के वे एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। उन्होंने ही मुझसे कहा कि हिंदी में एम.ए. करो।

लेने को तो मैंने हिंदी में दाखिला ले लिया था लेकिन एक बहुत बड़ी दिक्कत थी जो मुझे बाद में पता चली। वह यह कि जिस विश्वविद्यालय में मैं पढ़ता था वहां हिंदी की स्थिति अन्य विषयों की तुलना में ‘अछूत` जैसी थी। लोग मानते थे कि सबसे गए-गुजरे, सबसे बेकार या कहें कंडम या कहिए कूड़ा या कहिए बोगस या कहिए मूर्ख या कहिए घोंचू या कहिए बेवकूफ या कहिए मंदबुद्धि या कहिए गधे ही हिंदी पढ़ते और पढ़ाते हैं मतलब यह कि हिंदी की सामाजिक स्थिति बहुत ही खराब थी। जब मैं लोगों से कहता था कि मैंने हिंदी में दाखिला लिया है, तो मेरी तरफ इस तरह देखते थे जैसे मैं पागल हो गया हूं या अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा हूं। या लोग सिर्फ मुस्कराते थे या मेरे नाम के बाद ‘दास` शब्द जोड़ मुझे कबीरदास और तुलसीदास जैस कहकर मजाक उड़ाते थे। मैं इससे काफी परेशान हो गया था।

हिंदी के बारे में लोगों के मन में न केवल बड़े पूर्वाग्रह थे बल्कि एक अजीब तरह की घृणा और उपेक्षा के भाव भरे हुए थे। मैं यह समझ पाने में असमर्थ था।

हिंदी विभाग में पढ़ाई शुरू हुई। पहले दिन एक प्राध्यापक के कमरे में गया। क्लास को देखा। दो लड़कियां थीं, यह देखकर जान में जान आ गई। एक बुर्का पहने थी। खैर कोई बात नहीं, थी तो लड़की ही। प्राध्यापक कुछ मजेदार, मसखरे, लेकिन बहुत सरल आदमी थे। उन्होंने हम सबसे कहा कि हम क ख ग घ लिख डालें। पहले तो हम समझे कि वे मजाक कर रहे हैं पर उन्होंने गंभीरता से कहा था। पूरी क्लास ने क ख ग घ लिखा तो पता चला कि नब्बे प्रतिशत लड़कों को क ख ग घ लिखना नहीं आता। प्राध्यापक महोदय ने कहा कि यह कोई अजीब बात नहीं है। हिंदी में जो एम.ए. कर चुके हैं उन्हें क ख ग घ लिखना नहीं आता। यह पहला पाठ था। हमें हमेशा याद रहा कि हमें कहां से शुरू करना है। लेकिन सारे प्राध्यापक ऐसे न थे जो जीवन-भर के लिए एक पाठ पढ़ा दें। एक वरिष्ठ प्रोफेसर हमें हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ाते थे। वे विभाग के सबसे बड़े और वरिष्ठ प्रोफेसर थे। उनकी कक्षा कभी-कभी ही होती थी क्योंकि अच्छी चीजें रोज नहीं मिलतीं। उन्होंने इतनी कुशलता और लगन से पढ़ाया कि यदि उनका अनुकरण कोई और हिंदी अध्यापक करे तो जरूर नौकरी से निकाल दिया जाए। उन्होंने हमें कुल जमा चालीस मिनट में हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ा दिया था। वरिष्ठ होने के कारण प्राध्यापक महोदय सदा व्यस्त रहते थे। व्यस्त रहने के कारण उनका क्लास नहीं हो पाता था। होते-हुआते परीक्षाएं निकट आ जाती थीं। तब वह सुनहरा अवसर आता था कि क्लास होती थी। दुबले-पतले, शेरवानी, चूड़ीदार पाजामा और खद्दर की टोपी धरण किए प्रोफेसर साहब अपने विशाल कमरे की विशाल मेज के पीछे विशाल कुर्सी में इस तरह लेट जाते थे कि कभी-कभी हमें केवल उनकी टोपी का ऊपरी भाग ही दिखाई देता था। वे रामचन्द्र शुक्ल का ‘हिंदी साहित्य का इतिहास` खोल लेते थे। पढ़ाई इस तरह शुरू होती थी ‘आदिकाल, इसे वीरगाथा काल भी कहा जाता है। वीरगाथा मतलब वीरों की गाथा। स्पष्ट है न?’ हम सब एक स्वर में कहते थे, ‘जी हां, स्पष्ट है।’ अब भक्तिकाल। ‘भक्ति तो तुम सब जानते ही हो. . .अरे वही राम-भक्ति, कृष्ण-भक्ति. . .समझे? सूर पढ़ा है तुम लोगों ने, तुलसीदास पढ़ा है। जायसी को पढ़ा है. . .वही भक्तिकाल है।’ प्रोफेसर साहब इस विद्वत्तापूर्ण भाषण के दौरान किताब के पृष्ठ तेजी से पलटते जाते थे। ‘अब आता है रीतिकाल।’ रीतिकाल पर वे हंसते थे। उनके पीले बड़े-बड़े दांत बाहर निकल आते थे। क्लास के लड़के मुस्कराते थे। लड़कियां शरमाती थीं। ‘तो रीतिकाल मैं तुम लोगों को पढ़ा देता पर नहीं पढ़ाउंगा क्योंकि तुम्हारी क्लास में कन्याएँ हैं।’ दांतों से तरल पदार्थ बहने लगता था। दांत शांत हो जाते थे। ‘चलो आगे बढ़ो, आधुनिक काल। आधुनिक का मतलब है मॉडर्न। तुम सभी मॉडर्न हो। जब तुम सब स्वयं मॉडर्न हो तो मैं तुम्हें मॉडर्न काल क्या पढ़ाउं? मैं तो तुम्हारी तुलना में मॉडर्न नहीं हूं।’ दांत उनके मुंह में चले जाते थे। किताब बंद हो जाती थी। हिंदी साहित्य का इतिहास खत्म हो जाता था। तब प्रोफेसर कहते थे. . .’तुम लोग सौभाग्यशाली हो। आराम से हॉस्टल में रहते हो। पका-पकाया खाना मिल जाता है। टहलते हुए क्लास में चले आते हो। पुस्तकालय उपलब्ध हैं। बिजली की रोशनी है, नल का पानी है। तुम लोग क्या जानो कि मैंने शिक्षा प्राप्त करने के लिए कितने कष्ट उठाए हैं। मेरा गांव बहुत छोटा था। वहां कोई स्कूल न था। आठ मील दूर, नदी के उस पर एक बड़ा गांव था जहां पाठशाला थी। हमारे गांव से दो-तीन लड़के पाठशाला जाते थे। हमें अंदर घुसकर नदी पार करनी पड़ती थी। कभी-कभी पानी ज्यादा होता था तो कपड़े और रोटी की पोटली सिर पर रख लेते थे। नदी के उस पार छ: मील चलना पड़ता था। तब पाठशाला पहुंचते थे। पंडित जी के चरण छूते थे। पंडित हमें जंगल से लकड़ी बीनने भेजते थे। किसी को कुएं से पानी भर लाने भेजते थे। मैं छोटा था तो मुझसे कपड़े धुलवाते थे। किसी से चूल्हा जलवाते थे। मतलब हम सब मिलकर पंडित जी का पूरा काम करते थे। वे भोजन करते थे। हम लोग भी इधर-उधर बैठकर रोटी खाते थे। उस गांव में बंदर बहुत थे। कभी-कभी बंदर हमारी रोटी ले जाते थे। तब हमें दिन-भर भूखा रहना पड़ता था। वापसी पर काफी देर हो जाती थी तो भेड़ियों का डर होता था, समझे?’ हमें यह लगता था कि प्रोफेसर साहब हम लोगों से बदला ले रहे हैं या इस पर खिन्न हैं कि वो बदला नहीं ले सकते, लेकिन सच्चाई यह है कि वे हमें इस योग्य ही नहीं समझते थे कि हमसे बदला लें। वे केवल शोध छात्रों को यह सम्मान देते थे। उनके शोध छात्रों के बारे में कहा जाता था कि वे अपने विषय के पंडित होने के अतिरिक्त भैंसों की देखभाल करने की कला में भी निपुण हो जाते थे। कितना अच्छा था कि उनके सामने दो रास्ते खुल जाते थे। हिंदी के अध्यापक न बन पाते तो भैंस पालने का व्यवसाय शुरू कर सकते थे।

एम.ए. में हमारे साथ दो लड़कियां भी थीं। एक लड़की बुर्का वाली, दूसरी लड़की कई बुर्के उतारकर क्लास में आती थी। एक और लड़का भी क्लास में था जो साहित्यिक रुचि का था। हम तीनों की दोस्ती हो गई थी। मैं, आमोद और किरण बंसल साथ-साथ चाय पीने जाते थे। किसी लड़की के साथ कैंटीन जाना उन दिनों उस विश्वविद्यालय में इतनी बड़ी बात थी कि उसकी चर्चा हो जाया करती थी। सो विभाग में इस बात की चर्चा थी कि हम दो लड़के एक लड़की के साथ चाय पीने जाते हैं।

विभाग में एक और वरिष्ठ अध्यापक थे। उनका क्लास सुबह सवा आठ बजे होता था। वे हमेशा लेट आते थे। हम लोग भी हमेशा लेट जाते थे। जाड़े के दिनों में लेट आकर वे धूप खाने तथा दूसरे अध्यापकों से गप्प मारने लॉन के एक कोने में खड़े हो जाते थे। दूसरे कोने में क्लास के लड़के भी यही पवित्र काम करते थे। लड़कों को देखकर प्राध्यापक महोदय कहते थे, चलो क्लास में बैठो, मैं आता हूं। पर हमें मालूम था कि यदि हम ठंडी क्लास में जाकर बैठ भी गये तो वे घंटा बजने में पांच मिनट पहले ही क्लास में आयेंगे। हम न जाते थे। आखिरकार घंटा बजने में पांच मिनट पहले वे तेजी से क्लास की तरफ बढ़ते थे। हम उनसे पहले भागकर क्लास में चले जाते थे। वे हाजिरी लेने के बाद कहते थे हिंदी में एम.ए. पास करना संसार का सबसे सरल काम है। तुम लोग चिंता न करो। यह वाक्य वे अक्सर बोलते थे। हम से ही नहीं, जो लड़के पास हो चुके थे वे भी बताते थे कि उनको भी उन्होंने यही सूत्र दिया था। कभी-कभार जब उनका मन होता था तो पढ़ाते भी थे। मगर अनमने मन से।

तीसरे वरिष्ठ प्राध्यापक पी.पी.पी. शर्मा थे। शक्ल तो उनकी कुछ खास न थी, पर बने-ठने रहते थे। कभी सूट, कभी बंद गले का कोट पहनकर आते थे। बालों को बहुत जमाकर कंघी करते थे। उन्होंने हाल ही में किसी जवान औरत से दूसरी शादी की थी। वे क्लास में स्त्री-पुरुष संबंधों की चर्चा अक्सर छेड़ देते थे और उस पर बहुत गंभीर होकर अपने विद्वत्तापूर्ण विचार व्यक्त करते थे। लेकिन बीच-बीच में कुछ इस तरह हंसते थे कि विद्वता का आवरण छिन्न-छिन्न हो जाया करता था। लेकिन फिर वे तुरंत गंभीर हो जाया करते थे। उनका नाम हम लोगों ने थ्री पी रख लिया था। उन्होंने अक्सर ढके शब्दों में यह भी कहा कि वह हम दो लड़कों और एक लड़की का एक साथ कैंटीन जाना पसंद नहीं करते। लेकिन शुक्र है लड़की धाकड़ थी और उसने हम दोनों से साफ-साफ कहा था कि हमारी सिर्फ मित्रता है और मित्र के साथ चाय पीना अपराध नहीं है। लेकिन थ्री पी उसे भयंकर अपराध मानते थे। इस तरह वे मुझसे, आमोद और किरण से कुछ नाखुश रहा करते थे और मौका आने पर भारतीय संस्कृति और सभ्यता का डंडा उठा लेते थे।

एक अत्यंत निरीह किस्म के प्राध्यापक थे जो हमें ब्रजभाषा की रीतिकालीन कविता पढ़ाते थे। पता नहीं क्या रहस्य था, क्या चमत्कार था, क्या अजीब बात थी, क्या न समझ में आने वाली गुत्थी थी कि उनकी क्लास में मुझे बहुत नींद आती थी। लगता था कि मैं वर्षों से सोया नहीं हूं और इससे अच्छी लोरी मैंने कभी सुनी ही नहीं है। मैं अपने चुटकी काट लेता था। आंखें फाड़ता था। क्लास शुरू हो जाने से पहले ठंडे पानी से मुंह धोता था। मुंह में कुछ रखकर बैठता था। लेकिन सब बेकार। अंत में मैंने यह तरकीब निकाली थी कि मैं बुर्केवाली लड़की के बराबर बैठता था और जब नींद आने लगती थी तो उसे छू लेता था। उसके छूने से नींद गायब हो जाती थी और कविता भी अच्छी तरह समझ में आती थी। लेकिन यह डर बना रहता था कि कहीं लड़की ने किसी से कुछ कह दिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। पर उसने कभी किसी ने नहीं कहा। शायद उसकी भी वही समस्या रही होगी जो मेरी थी। दीगर बात यह है कि मैं बहुत शालीन ढंग से छूने के अतिरिक्त कभी और आगे नहीं बढ़ा। वह जान गई कि यह लड़का अपनी सीमाएं समझता है।

एक प्राध्यापक घोषित कवि थे। घोषित इसलिए की बाकी प्राध्यापक भी कविता करते थे, पर घोषित नहीं थे। मतलब स्वान्त:सुखाय वाला मामला था। पर ‘मधु` जी अपने को स्थापित कवि समझते थे। मधुजी वैसे तो उपन्यास के विषय हैं। उन पर कुछ पंक्तियां या पृष्ठ लिखकर केवल उनका अपमान ही किया जा सकता है। लेकिन अपनी खोज में यह पाप भी करना पड़ेगा। पर आशा है कि ‘मधु` जी की आत्मा मुझे क्षमा करेगी।

मधुजी का का पूरा नाम ऐसा था कि उन्होंने हाईस्कूल करने के बाद ही उसे बदलने की जरूरत महसूस कर ली थी और माता-पिता का दिया नाम बदलकर पेन नेम ‘मधुकर मधु` रख लिया था। अब बहुत जरूरी कागजात के अलावा या उन्हें छेड़ने के प्रयासों के अतिरिक्त उसका इस्तेमाल कहीं नहीं होता था। अपना पुराना नाम लिखा देखकर मधुजी को सख्त चोट पहुंचती थी। क्रोध आ जाता था। उनके शत्रु ये जानते थे। शत्रुओं की संख्या भी अच्छी-खासी थी। इसलिए शत्रु कोशिश करते रहते थे कि वे मधुजी का पुराना नाम बराबर चलता रहे तो दूसरी ओर मधुजी अपना पुराना नाम जड़ से मिटा देने के प्रयासों में जुटे रहते थे। कभी-कभी उन्हें गुमनाम पत्र मिलते थे जिनके लिफाफों पर उनका पुराना नाम लिखा होता था। कभी-कभी स्थानीय समाचार-पत्रों में कविसम्मेलन की खबरों में उनका पुराना असली नाम तथा उपनाम ‘मधु` छाप दिया जाता था। बहरहाल, नाम वाला कांटा ‘मधु` जी की जिंदगी का एक नासूर बना हुआ था।

मधुजी रसिक थे। प्रमाण, आठ बच्चों के इकलौते पिता होने के दावेदार के अतिरिक्त उनके प्रेम-प्रसंग भी चर्चा में आते रहते थे। कुछ सामान्य थे, कुछ रोचक थे। एक रोचक प्रसंग कुछ इस प्रकार था- मधुजी की एक शोध छात्रा थी। जब उसका शोध प्रबंध पूरा हो गया तथा नौबत यहां तक पहुंची कि उसे मधुजी के हस्ताक्षरों की आवश्यकता पड़ी तो मधुजी को उसमें सैंकड़ों दोष दिखाई देने लगे। एक दिन एकांत में उन्होंने शोध प्रबंध के सबसे बड़े दोष की ओर इशारा किया। दोष यह था कि शोध छात्रा को ठीक से साड़ी बांधना न आता था। मधुजी ने उससे कहा कि शोध छात्रा एक दिन, जब उनकी पत्नी और बच्चे मंदिर गए हों तो, उनके घर आ जाए और उनसे साड़ी बांधना सीखकर दोषमुक्त हो जाए।

जैसा कि होता है, यह सुनकर लड़की सेमिनार रूम में बैठकर रोने लगी। कुछ लड़कों ने उसे सलाह दी कि वह विभागाध्यक्ष से यह सब कहे। विभागाध्यक्ष ने कहा, ‘मधुजी पुरुष हैं और तुम नारी हो, मैं इसके बीच कहां आता हूं?’ यह जवाब सुनकर लड़की और अधिक रोने लगी। अंतत: मामला पुरानी कहानियों जैसे सख्त आई.सी.एस. उपकुलपति के पास पहुंचा। ये उपकुलपति बदतमीज होने की सीमा तक सख्त थे। उन्होंने विभागाध्यक्ष तथा मधुजी से कहा कि यदि यह मामला न सुलझाया गया तो उन दोनों को ‘सस्पेंड` कर दिया जाएगा। उनके बाद विभागाध्यक्ष के कमरे में एक नाटक हुआ जिसमें तीन पात्र थे। दर्शक कोई न था। लेकिन श्रोता केवल दीवारें न थीं। नाटक का अंत इस तरह हुआ कि मधु जी ने शोध छात्रा को बहन मान लिया। विभागाध्यक्ष ने उसे बेटी माना। शोध छात्रा ने उन दोनों का चरण स्पर्श किया और मधुजी को भाई विभागाध्यक्ष को ताऊ माना।

इस तरह के छोटे-बड़े प्रसंग मधुजी की कविता के लिए कच्चे माल का काम करते थे। ऐसे प्रसंग बहुत थे। लड़कों की एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को अमूल्य विरासत के रूप में ये प्रसंग ‘पासऑन` करती रहती थी।

विभाग के एक और वरिष्ठ प्राध्यापक कृष्ण-भक्त थे और वे केवल कृष्ण भक्ति काव्य पढ़ाते थे। उसके अतिरिक्त कोई और पेपर वे न पढ़ाते थे। क्लास में प्राय: मस्त हो जाया करते थे। कहते थे यह प्रभु की कितनी कृपा है कि मेरा पूरा जीवन भक्तिमय है। भक्ति की भक्ति होती रहती है और व्यवसाय का व्यवसाय है। यह भी कहते थे कि घर में भी कृष्ण-भक्ति में लीन रहता हूं। इनकी अध्यापन शैली बहुत सरल थी। केवल काव्य पाठ करते थे। उसमें स्वयं डूबे रहते थे। हमसे भी यह आशा करते थे कि हम भी डूब जाएं। उसके अतिरिक्त किसी अन्य पक्ष पर बात करना उन्हें पसंद न था।

जैसे-जैसे समय बीत रहा था, मेरी, आमोद और किरण की मित्रता बढ़ रही थी। आमोद कविताएं लिखता था। मस्त किस्म का लड़का था। कभी-कभी कई-कई दिन दाढ़ी न बनाता था। चप्पलें पहनना पसंद करता था और झूम-झूमकर चलता था। नई कविताएं सुनाया करता था। बोहेमियन जैसा लगने की कोशिश करता था। मैं यह प्रतीक्षा कर रहा था कि किरण उसकी कविताओं में कब आती है। लेकिन अब तक ऐसा न हुआ था।

एक दिन यह हुआ कि किरण और आमोद थ्री पी के कमरे में गए। थ्री पी दो अन्य अध्यापकों के साथ गप्प-शप्प मार रहे थे। इन दोनों को कमरे में आते देखकर थ्री पी ने हंसकर कहा तुम कनक किरण के अंतराल में लुक-छिपकर चलते हो क्यों? ‘प्रसाद` की इस पंक्ति को सुनते ही अन्य प्राध्यापकों ने ठहाका लगाया। आमोद और किरण को काटो तो खून नहीं। दोनों उल्टे पैरों लौट गए। थ्री पी बुलाते रहे। सेमीनार रूम में जाकर किरण ने थ्री पी को हिंदी, उर्दू, पंजाबी में गालियां देनी शुरू कर दीं। आमोद भी बहुत नाराज था। दोनों शिकायत करना चाहते थे। पर केस नहीं बनता था। बनता था तो बहुत ही साधरण। अब क्या किया जाए? इसी नाजुक मोड़ पर कहानी में एक नया पात्र आया है किरण का भाई राकेश। खाते-पीते परिवार को होने के कारण उसके पास मोटरसाइकिल थी। वह अक्सर उस पर बैठकर आता था। इतिहास में एम.ए. कर रहा था और विश्वविद्यालय में रंगबाज टाइप के छात्रों में था। गुंडा या बदमाश नहीं था। लेकिन उसकी अच्छी धाक थी। छात्र संघ के चुनाव में उसका दबदबा रहता था और धाकड़ के रूप में उसकी ख्याति थी। किरण ने थ्री पी वाली बात उसे बताई।

थ्री पी साइकिल से घर लौट रहे थे। सड़क पर कुछ सन्नाटा था। सामने से एक तेज रफ़्तार मोटरसाइकिल आ रही थी। थ्री पी ने मोटरसाइकिल के लिए पूरा रास्ता छोड़ रखा था पर जैसे-जैसे वह पास आ रही थी उसकी रफ़्तार बढ़ रही थी और दिशा बिलकुल उनके सामने वे डर गए। लेकिन उससे पहले कि कुछ कर सकें, मोटरसाइकिल बिलकुल उसके सामने आ गई। फिर जोर को ब्रेक लगा। तेज आवाज आई। मोटरसाइकिल का अगला पहिया थ्री पी की साइकिल के अगले पहिए से एक-दो इंच के फासले पर ठहर गया। थ्री पी के दिल की धड़कने तेज थीं ही, लेकिन राकेश को देखते ही और बढ़ गयीं। वे सब कुछ एक झटके में समझ गये। राकेश ने बड़े क्रूर ढंग से मोटरसाइकिल खड़ी की और तेजी से उनकी ओर बढ़ा। वे कांप गये। राकेश ने अपने मजबूत हाथ से उनकी पुरानी साइकिल का हैंडिल पकड़ लिया।

‘नमस्ते सर!’ राकेश ने भारी-भरकम आवाज में कहा।
‘नमस्ते. . .नमस्ते. . .’ उनका गला सूख रहा था।
‘कैसे हैं सर?’
‘ठीक हूं भइया. . .ठीक हूं. . .तुम कैसे हो?’

‘मुझे क्या होगा. . .आप बताइए. . .घर जा रहे हैं?’ राकेश ने इस तरह कहा जैसे कह रहा हो, आप घर जा रहे हैं लेकिन मैं चाहूं तो आप अस्पताल पहुंच सकते हैं। ‘और तो सब ठीक है न?’
‘हां-हां, ठीक है. . .’

‘अच्छा नमस्ते. . .’ वह जाने के लिए मुड़ा लेकिन फिर थ्री पी की तरफ घूम गया और बोला, ‘ठीक ही रहना चाहिए।’ थ्री पी कांपने लगे। राकेश तेजी से मोटरसाइकिल पर बैठा और बड़े क्रूर ढंग से एक झटके के साथ आगे बढ़ गया।

थ्री पी ने अगले दिन क्लास में छायावाद नहीं पढ़ाया। छायावाद बहुत अमूर्तन हो गया है। उन्होंने अपने प्रिय विषय सेक्स पर भी बातचीत नहीं की। उन्होंने अपने पिताजी की महानता और विद्वता के किस्से भी नहीं सुनाए। वे केवल यह बताते रहे कि वे कितने अच्छे, सच्चे, सरल भले आदमी हैं। वे छात्रों और विशेष रूप से छात्राओं का बहुत सम्मान करते हैं। उन्हें भारतीय संस्कृति के अनुसार देवियां समझते हैं। जब उन्होंने देखा कि देवी कहने से भी बात नहीं बन रही है तो बोले, मैं तो क्लास की ही नहीं पूरे विश्वविद्यालय की सभी लड़कियों को बहन समझता हूं। उनका इतना सम्मान करता हूं कि उनको अपमानित करने की बात सोच भी नहीं सकता। थ्री पी ने ऐसा शानदार अभिनय किया कि अभिनेताओं को वैसा करने के लिए काफी अभ्यास और दसियों टेक देने पड़े। उनकी उच्चकोटि की मार्मिक भावनाओं के प्रति अपनी पूरी सदाशयता दर्शाते हुए क्लास के सभी लड़कों ने थ्री पी को आदर्श भारतीय, आदर्श प्रोफेसर, आदर्श व्यक्ति, आदर्श पति, आदर्श पति मतलब यह कि आदर्श की साक्षात् मूर्ति स्वीकार किया। हम लोग भी भावुक हो गये। थ्री पी तो भावुक थे ही। माहौल कुछ विदाई समारोह जैसा हो गया अब स्थिति यह थी कि थ्री पी जो कहते थे हम उनकी ‘हां` में ‘हां` मिलाते थे। हम जो कुछ कहते थे थ्री पी उसकी ‘हां` में ‘हां` मिलाते थे। लगने लगा कि हम एक-दूसरे से इतना सहमत हैं जितना सहमत हो पाना असंभव है। यानी हमने असंभव को संभव कर दिखाया था। इस सबके बावजूद मजे की बात यह थी कि हम सब और शायद थ्री पी सभी जानते थे कि हम सब जो कुछ कर रहे हैं उसका मतलब वह नहीं है जो है, जो नहीं है वह है। यही एक सूत्र था जो मैंने पकड़ा था इसी सूत्र के आधार पर मैंने अपनी शिक्षा को जांचा तो पता चला कि जो दिखता है वैसा नहीं है। अपने आपको भी देखा तो यही पाया। अपने परिवेश को भी पाया, जो दिखता है वह नहीं है। यहीं से मेरी समस्याएं शुरू हो गईं। अब तो जैसी मेरी शिक्षा हुई थी वह आप जान ही गये हैं। उस पर सोने में सुहागा यह कि वह वैसी नहीं थी जैसी लगती थी। जब मुझे यह लगने लगा कि मैंने जो कुछ भी अब तक पढ़ा है वह ‘ढोंग` था तो मुझे बहु खुशी भी हुई। अपने अध्यापकों के प्रति मेरे मन में सम्मान भी जागा। क्योंकि यदि वे वास्तव में गंभीरता से पढ़ा देते तो शायद मैं कहीं का न रहता।

 विकसित देश की पहचान

गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देश कपड़ा नहीं बनाते गुरुदेव।
गुरु : तब वे क्या बनाते हैं?
हरिराम : वे हथियार बनाते हैं।
गुरु : तब वे अपना नंगापन कैसे ढकते हैं?
हरिराम : हथियारों से उनकी नंगई ढक जाती है।

(2)

गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देश में लोग खाना नहीं पकाते।
गुरु : तब वे क्या खाते हैं?
हरिराम : वे ‘फास्ट फूड` खाते हैं।
गुरु : हमारे खाने और ‘फास्ट फूड` में क्या अंतर है।
हरिराम : हम खाने के पास जाते हैं और ‘फास्टर फूड` खाने वाले के पास दौड़ता हुआ आता है।

(3)

गुरु : हरिराम विकसित देश की पहचान बताओ।
हरिराम : विकसित देशों में बच्चे नहीं पैदा होते।
गुरु : तब कहां कौन पैदा होते हैं?
हरिराम : तब वहां कौन पैदा होते हैं?
गुरु : वहां जवान लोग पैदा होते हैं जो पैदा होते ही काम करना शुरू कर देते हैं।

(4)

गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में सच्चा लोकतंत्र है।
गुरु : कैसे हरिराम?
हरिराम : क्योंकि वहां केवल दो राजनैतिक दल होते हैं।
गुरु : तीसरा क्यों नहीं होता?
हरिराम : तीसरा होने से सच्चा लोकतंत्र समाप्त हो जाता है।

(5)

गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में आदमी जानवरों से बड़ा प्यार करते हैं।
गुरु : क्यों?
हरिराम : क्योंकि जानवर आदमियों से बड़ा प्यार करते हैं।
गुरु : क्यों नहीं वहां आदमी आदमियों से और जानवरों से प्यार करते हैं?
हरिराम : क्योंकि विकसित देशों में आदमियों को आदमी और जानवरों को जानवर नहीं मिलते।

(6)

गुरु : विकसित देश की कोई पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देश विकासशील देशों को दान देते हैं।
गुरु : और फिर?
हरिराम : फिर कर्ज देते हैं।
गुरु : और फिर?
हरिराम : फिर ब्याज के साथ कर्ज देते हैं।
गुरु : और फिर?
हरिराम : और फिर ब्याज ही कर्ज देते हैं।
गुरु : और फिर?
हरिराम : और फिर विकसित देशों को विकसित मान लेते हैं।

(7)

गुरु : विकसित देशों की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में बूढ़े अलग रहते हैं।
गुरु : और जवान?
हरिराम : वे भी अलग रहते हैं।
गुरु : और अधेड़?
हरिराम : वे भी अलग रहते हैं।
गुरु : तब वहां साथ-साथ कौन रहता है?
हरिराम : सब अपने-अपने साथ रहते हैं।

(8)

गुरु : विकसित देशों की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में मानसिक रोगी अधकि होते हैं।
गुरु : क्यों? शारीरिक रोगी क्यों नहीं होते?
हरिराम : क्योंकि शरीर पर तो उन्होंने अधिकार कर लिया है मन पर कोई अधिकार नहीं हो पाया है।

(9)

गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देशों में तलाक़ें बहुत होती हैं।
गुरु : क्यों?
हरिराम : क्योंकि प्रेम बहुत होते हैं।
गुरु : प्रेम विवाह के बाद तलाक़ क्यों हो जाती है?
हरिराम : दूसरा प्रेम करने के लिए।

(10)

गुरु : विकसित देश की पहचान बताओ हरिराम।
हरिराम : विकसित देश मानव अधिकारों के प्रति बड़े सचेत रहते हैं।
गुरु : क्यों?
हरिराम : क्योंकि उनके पास ही विश्व की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति है।
गुरु : हरिराम सैन्य शक्ति और मानव अधिकारों का क्या संबंध?
हरिराम : गुरुदेव, विकसित देश सैन्य बल द्वारा ही मानव अधिकारों की रक्षा करते हैं।

 मुर्गाबियों के शिकारी

धेड़ उम्र लोगों को आसानी से किसी बात पर हैरत नहीं होती। जीवन की पैंतालीस बहारें या पतझड़ इतने खट्टे-मीठे अनुभवों से उसका दामन भर देती हैं कि अच्छा और बुरा, सुंदर और कुरूप, त्याग और स्वार्थ वगैरा वगैरा के छोर और अतियां देखने के बाद अधेड़ उम्र आदमी बहुत कुछ पचा लेता है।

डॉ. रामबाबू सक्सेना यानी आर के सक्सेना पचास के होने वाले हैं। दिल्ली कॉलिज से रिटायरमेंट में अभी साल बचे हैं। डॉ. आर.के. सक्सेना को आज हैरत हो रही है। उन्हें लगता है, ऐसा तो उन्होंने सोचा भी न था! यह होगा, इसका अंश बराबर अनुमान भी न था और इस तरह अनजान पकड़े जाने पर अपमान का जो बोध होता है, वह भी डॉ. सक्सेना को हो रहा है। सामने क्लास में बैठे अध्यापक उनकी बातों पर हंस रहे हैं। चलिए छात्र हंस देते तो डॉ. सक्सेना सब्र कर लेते कि चलो नहीं जानते, इसलिए हंस रहे हैं। लेकिन ये स्कूल के अध्यापक, जिन्होंने कम से कम बी.ए. और उसके बाद बी.एड जरूर किया है, हंस रहे हैं तो डूब मरने की बात है।

किस्सा कुछ यों है कि डॉ. सक्सेना के पास सुबह-सुबह डॉ. पी.सी. पाण्डेय का फोन आया कि अगर आज कुछ विशेष न कर रहे हों तो स्कूल के अध्यापकों के ट्रेनिंग प्रोग्राम में आकर दो-ढाई घंटे का भाषण दे दें कि बच्चों को हिंदी कैसे पढ़ाई जानी चाहिए। जिस तरह कहा गया था उससे जाहिर था कि कुछ मिलेगा। डॉ. पांडेय ने अधकि स्पष्ट कर दिया, डॉक्टर साहब आप निश्चिंत रहो जैसा कि आप कहते हो मुर्गाबियों का शिकार है. . .हमने पूरी व्यवस्था करा रखी है। जाल-वाल लगवा दिये हैं। हांक-वाका लगवा दिया है. . .मचान-वचान बनवा दी है, अब आपकी कसर है कि आ जाओ और सोलह बोर की लिबलिबी दवा दो। डॉक्टर पांडेय ने विस्तार से बताया।

उम्र में कम होते हुए भी पांडेय और डॉ. सक्सेना में अंतरंगता है। मुर्गाबियों यानी पानी पर उतरने वाली चिड़ियों का शिकार डॉ. सक्सेना की ईजाद है। बचपन में चालीस-पैंतालीस साल पहले अपनी ननिहाल मिर्जापुर में अपने नाना दीवान रामबाबू राय के साथ मुर्गाबियों के शिकार पर जाया करते थे। मुर्गाबियों के शिकार पर जाने वालों की भीड़ लगी रहती थी, क्योंकि शिकार का मतलब था मुर्गाबियों में मुफ़्त का हिस्सा नौकरी करने के बाद इधर-उधर सेमीनारों, कार्यशालाओं, संगोष्ठियों वगैरा में जो मिल जाता है उसके लिए पता नहीं कैसे डॉ. सक्सेना ने मन में मुर्गाबियों के शिकार का बिंब बना लिया था। यह बात डॉ. सक्सेना के निकटतम लोग जानते हैं कि वे ‘उपरी` नहीं ‘भीतरी` आमदनी को मुर्गाबियों का शिकार कहते हैं।

हां वो तो है. . .अच्छा है लेकिन डॉ. पांडेय, ये बताओ कि आयोजन क्या है? हरियाणा के रहने वाले डॉ. शर्मा विस्तार से बात करते हैं, ‘अजी डॉ. साहेब क्या बतावें. . .ये वर्ल्ड बैंक का प्रोजेक्ट है जी. . .एक महीने का ट्रेनिंग प्रोग्राम, इससे पहले ‘टेक्स्ट बुक` बनवाने की ‘वर्कशाप` करायी थी। आजकल ये चल रहा है। दिल्ली में दस सेंटर बनाये हैं. . .हमारे जी ‘होयल` एक हजार से ज्यादा टीचर लैं. . .कुछ बड़े स्कूलों में तो हालात अच्छी है और कुछ में तो कूलर भी नहीं है डाक साब. . .अब तुम्मी बताओ जी. . .बिना कूलर विशेषज्ञ को बुलावे तो शरम नई आयेगी?. . .तो फिर इसी सकूल चुने हैं. . .कम से कम कूलर तो होवें न डाक साहब. . .विशेषज्ञ. . .`

विशेषज्ञ और ‘कूलर` यानी गर्मी में ठंडा तापमान और सर्दियों में गर्म बहुत जरूरी है वर्ल्ड बैंक में रिपोर्ट हो जाए तो डॉ. पांडेय जैसे निदेशकों की नौकरी पर बन आयेगी। वैसे डॉ. पांडेय से उनका परिचय पुराना है। उन्हें पीएच.डी. में एडमीशन लेना था इन्होंने प्रपोजल बनवाया, जमा कराया, पास करवाया, थीसिस लिखवाई, टाइप करायी, जमा करायी, परीक्षकों को भिजवायी, रिपोर्ट मंगवाई, वायवा कराया. . .पांडेय जी को पीएचडी एवार्ड करायी और डिग्री घर भिजवायी थी। डॉ. सक्सेना ने यह सब किसी उंचे आदर्श या विचार के तहत नहीं किया था। एक मामला यह था कि फरीदाबाद की सरकारी कालोनी से मिले गांव में पांडेय जी की जमीन थी जिस पर प्लाटिंग की हुई थी। ‘डील` यह थी कि इधर पीएचडी होगी, उधर जमीन का बैनामा होगा। यह आदान-प्रदान कार्यक्रम सुचारु रूप से चला।

डॉ. सक्सेना का ‘सेशन` दस बजे से शुरू होना था। इस वक्त सवा दस हो रहा है। ट्रेनिंग सेंटर यानी स्कूल में प्रिंसिपल के कमरे में डॉ. पांडेय का व्याख्यान जारी है, ‘डॉक्टर साहेब! गर्मियों में विशेषज्ञ मिलने मुश्किल हो जाते हैं. . .अरे शिमला या नैनीताल हो तो कहिए मैं सैकड़ों विशेषज्ञ जमा कर दूं लेकिन गर्मियों में दिल्ली. . .अरे भाईजी, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति वगैरा की बात तो छोड़ दो, छुटभइये नेता तक गर्मियों में राजधानी छोड़ देते हैं. . .अब जब पानी नहीं बरसेगा, यही समस्या रहेगी. . .अब देखोजी, हमें तो यही ओदश हैं कि विशेषज्ञों की मानो. . .तो हम पालन करते हैं. . .विश्व बैंक से हम लोगों ने दस करोड़ मांगा था नये स्कूल खोलने के लिए। उन्होंने कहा दस करोड़ से पहले ‘ये` और ‘ये` और ‘ये` करायेंगे। इसके लिए पांच करोड़ देंगे. . .फिर पाठ्यक्रम बदलने को इतना, फिर इतना. . .होते-होते सौ करोड़ हो गया. . .चलो ठीक है, शिक्षा पर पैसा लग रहा है. . .पर समझ में कम ही आता है। अब देखोगे, इन्हीं विशेषज्ञों ने बच्चों के बस्तों का वजन बढ़ाया फिर येई बोले, बच्चों की तो कमर टूटी जा रही है. . अब सुनो जी विशेषज्ञ कये हैं हमारी शिक्षा चौहद्दी में कैद हो गयी है। देखो जी, पहले स्कूल की चारदीवारें. ..फिर कहवें है। क्लास रूप की चार दीवारों. . .पाठ्यक्रम की चार दीवारें, अध्यापक की चार दीवारें. . .परीक्षा की चार दीवारी. . .अब बोलो. . .आदेश हो जाए तो तोड़ दी जावे सब दीवालें. . .`

‘साढे दस बज रहा है।` डॉ. सक्सेना बोले।
‘अरे डाक साहेब क्यों जल्दिया रहे हो. . .अभी न आये होंगे।`

पैंतालीस अध्यापक, जिनमें आधी के करीब महिलाएं और लड़कियां। कुछ अध्यापक गंवार जैसे लग रहे थे और कुछ अध्यापिकाएं अच्छा-खासा फैशन किये हुए थीं। इन सबके चेहरों पर एक असहज भाव था। ऐसा लगता था कि वे इस सबसे सहमत नहीं हैं जो हो रहा है या होने जा रहा है। डॉ. सक्सेना ने सोचा, ऐसा तो अक्सर ही होता है। जब बातचीत शुरू होगी तो विश्वास का रिश्ता बनता चला जाएगा और असहजता दूर हो जाएगी। डॉ. सक्सेना ने बहुत प्रभावशाली ढंग से अपनी बात शुरू की और मुद्दे के विभिन्न पक्षों को रेखांकित किया ताकि उन पर विस्तार से चर्चा हो सके। इन सब प्रयासों के बाद भी डॉ. सक्सेना को लगा कि सामने बैठे अध्यापकों-अध्यापिकाओं के चेहरे पर मजाक उड़ाने, उपहास करने, बोलने वालों को जोकर समझने के भाव आ गये हैं। कुछ जेरे-लब मुस्कुराने भी लगे। तीस साल पढ़ाने और दुष्ट से दुष्ट छात्र को सीधा कर देने का दावा करने वाले डॉ. सक्सेना अपना चेहरा, कितना कठोर बन सकते थे, बना लिया। आवाज जितनी भारी कर सकते थे कर ली और बॉडी लैंग्वेज को जितना आक्रामक बना सकते थे बना लिया। लेकिन हैरत की बात यह कि सामने बैठे लोगों के चेहरों पर उपहास उड़ाने वाला भाव दिखाई देता रहा। एक अध्यापिका के चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे वह कुछ कहना चाहती हैं।

‘सर आप जो कुछ बता रहे हैं बहुत अच्छा है। पर हमारे काम का नहीं है।` अध्यापिका बोली।

इस प्रतिक्रिया पर डॉ. सक्सेना को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन पी गये और बोले, ‘क्या समझ नहीं आ रहा?`
‘नो सर. . .समझ में तो सब आ रहा है।`

‘तब यह उपयोगी क्यों नहीं लग रहा है?` डॉ. सक्सेना ने पूछा और अध्यापकों की पूरी क्लास खुल कर मुस्कुराने लगी। डॉ. सक्सेना ने सोचा, क्या वे ‘थर्ड डिग्री` में चले जाएं? पर यह भी लगा कि ये लड़के नहीं हैं, अध्यापक हैं, कहीं गड़बड़ न हो जाए।

‘सर, जहां बच्चे पढ़ना ही न चाहते हों वहां टीचर क्या कर सकता है?` एक प्रौढ़ अध्यापक ने गंभीरता से कहा और कुछ नौजवान अध्यापक हंस दिये। डॉ. सक्सेना का खून खौल गया। वे तुरंत समझ गये कि ये साले मुझे. . .यानी मुझे यानी डॉ. आर.बी. सक्सेना प्रोफेसर अध्यक्ष और पता नहीं कितनी राष्ट्रीय समितियों और दलों के सदस्य को उखाड़ना चाहते हैं, इनको शायद मालूम नहीं कि इनका सबसे बड़ा बॉस मुझे सर कहता है और पूरी बातचीत में सिर्फ ‘सर` ही ‘सर` करता रहता है।

‘बच्चे पढ़ना नहीं चाहते या आप लोग पढ़ाना नहीं चाहते।` डॉ. सक्सेना ने पलटकर वार किया।

‘सर, हम बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. . .ईमानदारी से पढ़ाना चाहते हैं. . .पर वे नहीं पढ़ते।` एक लेडी टीचर बोली। उसका बोलने का ढंग और चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह सच बोल रही है और मजाक नहीं उड़ा रही है।
‘सर, आप ऐसे नहीं समझोगे. . .` एक ग्रामीण क्षेत्र का सा लगने वाला अध्यापक बोला, ‘ऐसे है जी कि हमारे स्कूलों में सबसे कमजोर बरग के बच्चे आवे हैं।`

‘बरग नहीं वर्ग. . .` किसी ने चुपके से कहा कि पूरी क्लास हंसने लगी।
‘वही समझ लो जी. . .अपनी तो भाषा ऐसी है. . .तो जी. . .`

‘ठीक है, ठीक है, बैठिए मैं समझ गया।` डॉ. सक्सेना ने अध्यापक को चुप करा दिया। एक फेशनेबुल अध्यापिका बोलने लगी, ‘सर, हमारे स्कूलों में मजदूरों, रेड़ी वालों, ठेले वालों, कामगारों, सफाई करने वालों, माली-धोबी परिवारों के बच्चे आते हैं। सर, हम उन्हें वह सब सिखाते हैं जो आमतौर पर बच्चों को मां-बाप सिखा देते हैं। उन्हें बैठना तक नहीं आता। खाना नहीं आता। इन्हें हम सिखाते हैं कि देखो सबके सामने नाक में उंगली डालकर. . .।` पूरी क्लास हंसने लगी।

‘तो फिर बताइये सर. . .?`
‘तो पढ़ाने में क्या प्राब्लम है?`
‘बच्चे रेगुलर स्कूल नहीं आते. . .लंच टाइम में आते हैं। स्कूल की तरफ से लंच मिलता है, वह खाते हैं और चले जाते हैं. . .कभी उनके परिवार वालों को इलाके में मजदूरी नहीं मिलती तो कहीं ओर चले जाते हैं. . .`

‘अरे, ये सब बच्चों के साथ तो न होता होगा?` डॉ. सक्सेना ने उन्हें पकड़ा।
‘सर, ये समझ लो. . .बच्चा स्कूल में पाँचवी तक पढ़ता है, पास होकर चला जाता है, पर वह क ख ग न तो पढ़ सकता है न लिख सकता है।`
डॉ. सक्सेना को लगा, यह सफेद झूठ है और अगर कहीं ये सच है तो इससे बड़ा कोई सच नहीं हो सकता।

यह कैसे ‘पॉसिबल` है, डॉ. सक्सेना की आवाज में विशेषज्ञों वाली ठनक आ गयी।
‘सर, इस तरह के बच्चों को हम फेल नहीं कर सकते?`
डॉ. सक्सेना को धक्का और लगा। यह कैसे पढ़ाई है और कैसा स्कूल है?
‘क्या आपको ऐसा आदेश दिया गया है कि. . .`

‘सर, लिखकर तो नहीं. . .मौखिक रूप से दिया ही गया है। तर्क यह है कि फेल होने पर लड़के पढ़ाई छोड़ देते हैं और. . .`
‘तो स्कूल में कोई फेल नहीं होता?`
‘यस, सर . . .७५ प्रतिशत हाजिरी जिसकी भी होती है उसे पास करना पड़ता है।`

एक कठिनाई डॉ. सक्सेना को यह लग रही थी कि बातचीत स्कूल व्यवस्था पर केंद्रित हो गयी थी जबकि यहां उनका काम अच्छे शिक्षण पर भाषण देना था।
‘देखिये, ऐसा है कि आप लोग बच्चों की पढ़ाई में दिलचस्पी पैदा कराने के लिए कुछ तो कर ही सकते हैं।`

‘क्यों नहीं. . .जरूर कुछ बच्चे पढ़ते भी हैं पर जब वे जानते हैं कि पढ़ने वाले और न पढ़ने वाले दोनों पास हो जाएंगे तो बस. . .`
‘देखिये, मैं यह जोर देकर कहना चाहता हूं कि आप लोग हर हालत में अपनी ‘परफार्मेंस` इंप्रूव कर सकते हैं।`

‘सर, कृपया मेरी एक छोटी और बुनियादी बात पर विश्वास करें कि अगर. . .उन्होंने दाढ़ी
वाले अध्यापक की बात काट दी क्योंकि उन्हें मालूम है कि छोटी बुनियादी बातों का वह जवाब न दे पायेंगे।
‘देखिये समस्याएं तो होंगी ही. . . .पर . . .`

उनकी बात काटकर एक अध्यापिका बोली, ‘सर, आपने वह किताब देखी है जो हम पहले दर्जे के बच्चे को पढ़ाते है।` उसने किताब बढ़ाते हुए कहा, ‘पहला पाठ है रसोईघर. . .पहला वाक्य ‘फल खा` जिन बच्चों को हम पढ़ाते हैं वे जानता ही नहीं कि फल क्या होता है?` अध्यापक ने कहा और बाकी सब हंसने लगे।

‘देखिये सर, यह रसोईघर का चित्र बना है. . .हमारे बच्चों ने तो गैस सिलेंडर, फ्रिज, बर्तन रखने की अलमारियां देखी तक नहीं होतीं. . .उनकी समझ में यह सब क्या आयेगा. . .?
जब तक डॉ. सक्सेना जवाब देते, एक दूसरा सवाल उछला, ‘सर, जिस बच्चे को ‘क` ‘ख` ‘ग` न आता हो वह वाक्य कैसे पढ़ेगा या सीखेगा?`
‘देखिये, इसे डायरेक्ट मैथेड कहते हैं।`

‘वो ‘क` ‘ख` ‘ग` वाले सिस्टम में क्या खराबी थी?`
‘अब देखिये, विशेषज्ञों को लगा कि नये मैथड से. . .`
‘सर मैथड छोड़िये. . .ये देखिये मां का चित्र सिलाई कर रही है। पिताजी ऑफिस जा रहे हैं। हाथ में छाता और पोर्ट फोलियो है. . हमारे स्कूल के बच्चे झुग्गी-झोपड़ी मजदूर. . .`

डॉ. सक्सेना उनकी बात काट कर बोले, ‘क्या नयी किताब बनाते समय विशेषज्ञों ने आप लोगों से या स्कूल के बच्चों से कोई बातचीत की थी।`
‘नहीं, चालीस आवाजें एक साथ आयी।
‘अब बताइये सर. . .हम क्या करें. . .गाज हमारे ही उपर गिरती है. . .बच्चों को क्या ‘इनकरेज` करे?`

‘आप, लोग निजी तौर पर तो कुछ कर सकते हैं?`
‘सर, हमारे स्कूल में सात सौ लड़के हैं। ग्यारह अध्यापक हैं। एक क्लास रूप में तीन क्लासें बैठती हैं। एक अध्यापक एक साथ तीन कक्षाओं को पढ़ाता है।`
डॉ. सक्सेना को लगा जैसे वे आश्चर्य के समुद्र में डूबते चले जा रहे हैं. . .धीरे-धीरे अंधेरे में किसी बहुत बड़े समुद्री जहाज की तरह उनके अंदर पानी भर रहा है और आत्मा धीरे-धीरे निकल रही है. . .यह क्या हो रहा है? अध्यापक यह सिद्ध किये दे रहे हैं कि वह भी एक बड़े भारी षड्यंत्र का हिस्सा है।

‘देखिये यह स्थिति हर स्कूल में तो नहीं होगी?` डॉ. सक्सेना ने कहा। ‘हां सर, यह बात तो आपकी ठीक है. . .ग्रामीण क्षेत्रों में जो स्कूल हैं. . .वहां यह स्थिति है. . .शहरी क्षेत्रों में. . .`
‘शहरी क्षेत्रों में बच्चे गैर-हाजिर बहुत रहते हैं. . .`
‘सर, दरअसल इनको पढ़ाना है तो पहले इनके मां-बाप को पढ़ाओ।` किसी चंचल अध्यापिका ने कहा और सब हंस पड़े।

‘हां जी, सौ की सीधी बात है।` किसी ने प्रतिक्रिया दी। डॉ. सक्सेना घबरा गये। फिर वही हो रहा है। ये लोग मुझे ‘डुबो` रहे हैं उस पानी में जहां मुर्गाबियां नहीं हैं. . .जहां पानी ही पानी है।
‘सर, बच्चों के मां-बाप को पढ़ाया जाए तो उन्हें खिलायेगा कौन?`
‘सरकार खिलाये?` किसी अध्यापक ने कहा।
‘सरकार के पास इतना है?` किसी दूसरे अध्यापक ने कहा।
‘क्यों नहीं है?`

‘अभी पढ़ा नहीं? उद्योगपतियों का ढाई हजार करोड़ कर्ज माफ कर दिया है सरकार ने. . .क्या कहते हैं अंग्रेजी में बड़ा अच्छा नाम दिया है- नॉन रिकवरिंग. . . .`
डॉ. सक्सेना ने घबराकर अध्यापक की बात काट दी, ‘ठहरिये. . .ये यहां डिस्कस करने का मुद्दा नहीं है।` वे डर हरे थे कि डायरेक्टर साहब कहेंगे- क्यों जी आप के यहां मुर्गाबियों का शिकार करने के लिए बुलाया गया था और आप तो शिकारियों का शिकार करने वाली बातें करने लगे। ‘अरे, ये राजनीति गंदी चीज हैं। छोड़िये इसको, केवल यह बताइए कि बच्चों की पढ़ाई को किस तरह से बेहतर बनाया जा सकता है।`

‘सर अब बात निकल आयी है तो कहने दीजिए सर. . .हमारे स्कूलों में हमारे अधिकारियों के बच्चे क्यों नहीं पढ़ते? मंत्रियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं जाते।`
डॉ. सक्सेना फिर विवश हो गये, ‘ठहरिये. . .ये बातें आप लोग अपने संगठनों में ‘डिस्कस करें।`
‘सर, हमारे संगठनों में यह कभी ‘डिस्कस` नहीं होता।`

‘देखिये अब मैं आप लोगों से मनोवैज्ञानिक पक्षों पर बात करना चाहता हूं। बच्चों के पढ़ाने के लिए आवश्यक है कि हम उनके मनोविज्ञान को समझें. . । हर बच्चे का अपन अलग मनोविज्ञान होता है. . .`

अध्यापक आपस में बातें कर रहे थे। महिला अध्यापिका बड़े सहज ढंग से खुसुर-पुसुर कर ही थी। ऐसा लगता था जैसे वे इतवार के दिन जाड़ों की रेशमी धूप में बैठी स्वेटर बुन रही हों और बातें कर रही हों। पुरुष अध्यापकों के भी कई गुट बन गये थे और सब बातों में लीन हो गये थे। एक दो अध्यापक बार-बार घड़ी देख रहे थे। डॉ. सक्सेना लगातार बिना रुके बोले जा रहा है। वह मुर्गाबियों का शिकार खेल रहे थे। वह चाहते भी नहीं थे कि अध्यापक ध्यान से उनके पास थे नहीं या वह दे नहीं सकते थे क्योंकि वह तो मुर्गाबियों के शिकारी हैं।

कुछ देर बात शोर का स्वरूप बदल गया। अब शोर ने छोटे-छोटे समूहों के आकार को तोड़ दिया और वह क्लासव्यापी हो गया और उन्हें लगा कि बोल भी नहीं पायेंगे।
‘आप लोग क्या बातें कर रहे हैं?` उन्होंने पूछा।
‘सर, हमारी क्लास एक बजे समाप्त होगी।`
‘हां, मुझसे आपके डायरेक्टर ने यही कहा है कि एक बजे तक मैं आपको लेक्चर देता रहूं।`
‘सर, उसके बाद हमारी हाजरी होगी।`
‘ठीक है।`

‘नहीं सर. . .ठीक कैसे है. . .एक बजे तो क्लास खत्म हो जाती है। हमें चले जाना है। एक बजे अगर हाजरी होगी तो पंद्रह मिनट तो हाजरी में लग जाएंगे।` एक महिला अध्यापिका बोली।
‘तो फिर`
‘हमारी हाजरी पौन बजे होना चाहिए ताकि हम ठीक एक बजे छुट्टी पा सकें।`
‘दस-पन्द्रह मिनट से क्या फर्क पड़ता है।` डॉ. सक्सेना ने कहा।

‘मेरी बस छुट जाएगी. . .फिर एक घंटे बाद बस है. . .घर पहुंचते-पहुंचते तीन बजे जाएंगे। उन्हें खाना देना है। बंटी को स्कूल बस से लेना है। रोटी डालना है. . .उन्हें गरम रोटी ही देती हूं। दाल में छोंक भी नहीं लगायी है. . .’महिला बोलती रही।. . .एक पुरुष अध्यापक ने कहा, ‘वैसे भी सिद्धांत की बात है…. यदि एक बजे छुट्टी होनी है तो एक ही बजे होनी चाहिए।`
‘मुझे तो नजफगढ़ जाना है. . .देर हो जाती है तो अंधेरा हो जाता है. . .क्रिमनल एरिया पड़ता है. . .कुछ हो गया तो. . .` लड़की चुप हो गयी।

‘हाजरी पैन बजे ही होनी चाहिए।` एक दादा किस्म के अध्यापक ने धमकी भरे अंदाज में कहा।
‘सर, लेडीज की प्रॉब्लम कोई नहीं समझता. . .मैं तो खैर मैरीड हूं. . .बच्चे बस्ते लिए घर के बाहर ‘वेट` कर रहे होंगे. . .चाबी पड़ोस में देने के लिए ‘वो` मना करते हैं. . .सर जो लेडी टीचर मैरीड नहीं हैं उनके घरों में भी कुछ तो है ही है सर. . .`
‘सर, हम लड़कियां देर से घर पहुंचे तो हजार तरह की बातें होने लगती हैं।`

डॉ. सक्सेना को लगा कि इस समय संसार का सबसे बड़ा और जरूरी काम यही है कि इन लोगों की पंद्रह मिनट पहले हाजरी हो जाए ताकि ये ठीक एक बजे स्कूल से निकल सकें। उन्होंने डायरेक्टर पांडेय जी को बुलाया। वे रजिस्टर लेकर आये।
रजिस्टर जैसे ही मेज पर रखा गया, यह लगा गंदे चिपचिपे मैले मिठाई बांधने वाले कपड़े पर मक्खियों ने हमला बोल दिया हो। ऐसी कांय-कांय, भांय-भांय होने लगी कि कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

डॉ. सक्सेना थके हारे और कुछ अपमानित भी डायरेक्टर के कमरे में जहां कूलर चल रहा था, आ गये। डॉ. पांडेय को पता नहीं कैसे मालूम हो गया कि क्लास में मेरे साथ क्या हुआ। ‘अब देखो जी, हम तो इन्हें ‘बेस्ट ट्रेनर` देते हैं. . .अब इनकी जिम्मेदारी है कि ये कुछ सीखते हैं या नहीं।`

डॉ. सक्सेना डॉ. पांडेय से कहना चाहते थे कि यार पांडेय क्या तुम्हें हकीकत में कुछ नहीं मालूम? या तुम सब जानते हो? डॉ. पांडेय क्या तुम्हें नहीं मालूम कि एक सौ तक सब उलट-पुलट गया है।

वह यह सब सोच रहे थे और डॉ. पांडेय पता नहीं कैसे समझ गये कि उनके पास सीधे और छोटे सवाल हैं। डॉ. पांडेय वही करने लगे जो डॉ. सक्सेना क्लास रूम में कर रहे थे। यानी बिना रुके, लगातार बोलने लगे ताकि सवाल पूछने का मौका न मिले। डॉ. पांडेय लगातार बोल रहे हैं, वे सांस ही नहीं ले रहे, ‘अब जी ये तो दूसरा दिन है. . .तीस दिन चलना है वर्कशाप. . .फिर रिपोर्ट बनेगी वर्ल्ड बैंक को जाएगी. . .बाइस सेंटर बनाये गये हैं। हर सेंटर में सौ के करीब टीचर हैं. . .` भाषण देते-देते ही उन्होंने डॉ. सक्सेना बढ़ाया। जाहिर है उसमें मुर्गाबी ही है। उन्होंने लिफाफा जेब में रख लिया। डॉ. पांडेय बोले जा रहे हैं. . .।

डॉ. सक्सेना दरवाजे के बाहर देख रहे हैं, शिक्षक स्कूल के बाहर निकल रहे हैं. . .फिर लगा कि न तो ये शिक्षक हैं, न वह ट्रेनर हैं, न डॉ. पांडेय निदेशक हैं, न ये स्कूल है। डॉ. सक्सेना को हैरत हुई कि वह इतने रहस्यवादी कैसे बने गये। पर अच्छा लगा. . .डॉ. पांडेय बोले जा रहे हैं. . .मुर्गाबियां पानी पर उतर रही है. . .डॉ. सक्सेना खामोश हैं क्योंकि शिकारी चुप रहते हैं, बोलते ही शिकार उड़ जाता है. . .लेकिन उन्हें यह यकीन क्यों है कि वह मुर्गाबियों का शिकारी है…हो सकता है वह या डॉ. त्रिपाठी मुर्गाबी हों और शिकारी. . .।

 लकड़ियां

(1)
श्यामा की जली हुई लाश जब उसके पिता के घर पहुंची तो बड़ी भीड़ लग गयी। इतनी भीड़ तो उसकी शादी में विदाई के समय भी नहीं लगी थी। श्याम की बहनों की हालत अजीब थी क्योंकि वे कुंवारी थीं। श्यामा की मां लगातार रोई जा रही थी। रिश्तेदार उसे दिलासा भी क्यों देते। श्यामा के पिता जली हुई श्यामा को देख रहे थे। उनकी आंखों से आंसू बहे चले जा रहे थे। श्यामा का पति और देवर पास खड़े थे। श्यामा के पति ने श्यामा के पिताजी से कहा ‘पापा आप रोते क्यों हैं. . .श्यामा को बिदा करते समय आपने ही तो कहा था कि बेटी तुम्हारी डोली इस घर जा रही है अब तुम ससुराल से तुम्हारी अर्थी ही निकले।’
देवर बोला ‘चाचा जी श्यामा ने आपकी इच्छा जल्दी ही पूरी कर दी।’
श्यामा के ससुर जी बोले ‘बेकार समय न बर्बाद करो। अब यहां तमाशा न लगाओ। चलो जल्दी क्रिया-करम कर दिया जाये।'(2)
श्यामा की जली हुई लाश थाने पहुंची तो वहां पहले से ही दो नवविवाहिता लड़कियों की जली हुई लाशें रखी थीं। थाने में शांति थी। पीपल के पत्ते हवा में खड़खड़ा रहे थे और जीप का इंजन लंबी-लंबी सांसें ले रहा था। दरोगा जी को खबर की गयी तो वे पूजा इत्यादि करके बाहर निकले और श्यामा की जली लाश को देखकर बोले, ‘यार ये लोग एक दिन मं एक ही लड़की को जलाकर मारा करें। एक दिन में तीन-तीन लड़कियों की जली लाशें आती हैं। कानूनी कार्यवाही भी ठीक से नहीं हो पाती।’
सिपाही बोला, ‘सरकार इससे तो अच्छा लोग हमारे गांव में करते हैं। लड़कियों को पैदा होते ही पानी में डुबोकर मार डालते हैं।’
दरोगा बोले, ‘ईश्वर सभी को सद्बुद्धि दे।'(3)
श्यामा की लाश अदालत पहुंची। जब सबके बयान हो गये तो श्यामा की जली लाश उठकर खड़ी हो गयी और बोली, ‘जज साहब मेरा भी बयान दर्ज किया जाये।’
श्यामा के पति का वकील बोला, ‘मीलार्ड ये हो ही नहीं सकता, जली हुई लड़की बयान कैसे दे सकती है।’
पेशकार बोला, ‘सरकार यह तो गैरकानूनी होगा।’
क्लर्क बोला, ‘हजूर ऐसा होने लगा तो कानून व्यवस्था का क्या होगा।’
श्यामा ने कहा, ‘मेरा बयान दर्ज किया जाये।’
अदालत ने कहा, ‘अदालत तुम्हारा दर्ज नहीं कर सकती क्योंकि तुम जलकर मर चुकी हो।’
श्यामा ने कहा, ‘दूसरी लड़कियां तो ज़िंदा हैं।’
अदालत ने कहा, ‘ये तुम लड़कियों की बात कहां से निकल बैठी।'(4)
श्यामा की जली लाश जब अखबार के दफ़्तर पहुंची तो नाइट शिफ़्ट का एक सब-एडीटर मेज़ पर सिर रखे सो रहा था। श्यामा ने उसका कंधा पकड़कर जगाया तो वह आंखें मलता हुआ उठकर बैठ गया। उसने श्यामा की तरफ देखा और उसे ‘आपका अपना शहर` पन्ने के कोने में डाल दिया।
श्यामा ने कहा, ‘अभी तीन साल पहले ही मेरी शादी हुई थी मेरे पिता ने पूरा दहेज दिया था लेकिन लालची ससुराल वालों ने मुझे दहेज के लालच में अपने लड़के की दूसरी शादी की लालच में मुझे जलाकर मार डाला।’
सब-एडीटर बोला, ‘जानता हूं, जानता हूं. . .वही लिखा है. . .हम अखबार वाले सब जानते हैं।’
‘तो तुम पहले पन्ने पर क्यों नही डालते,’ श्यामा ने कहा।
सब-एडीटर बोला, ‘मैं तो बहुत चाहता हूं। तुम ही देख लो पहले पन्ने पर जगह कहां है। लीड न्यूज लगी है। देश ने सौ अरब रुपये के हथियार खरीदे हैं। सेकेण्ड लीड है मंत्रिमण्डल ने चांद पर राकेट भेजने का निर्णय लिया है। आठ आतंकवादी मार गिराये गये हैं और सुपर डुपर हुपर स्टार को हॉलीवुड की फिल्म में काम मिल गया है। बाकी पेज पर ‘फिटमफिट अण्डर वियर` है।’
‘कहीं कोने में मुझे भी लगा दो’, श्यामा बोली।
‘लगा देता. . .पर नौकरी चली जायेगी।'(5)
श्यामा की जली हुई लाश जब प्रधनमंत्री सचिवालय पहुंची तो हड़कंप मच गया। सचिव-वचिव उठ-उठकर भागने लगे। संतरी पहरेदार डर गये। उन्हें श्यामा की शकल अपनी लड़कियों से मिलती जुलती लगी। इतने में विशेष सुरक्षा दस्ते वाले, छापामार युद्ध में दक्ष कमाण्डो आ गये और श्यामा की तरफ बंदूकें, संगीनें तानकर खड़े हो गये।
पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘एक कदम भी आगे बढ़ाया तो गोलियों से छलनी कर दी जाओगी।’
‘मैं प्रधनमंत्री से मिलना चाहती हूं।’
‘प्रधनमंत्री क्या करेंगे. . .यह पुलिस केस है।’
‘पुलिस क्या करेगी?’
‘अदालत में मामला ले जायेगी।’
‘अदालत क्या करेगी. . . वही जो मुझसे पहले जलाई गयी लड़कियों के हत्यारों के साथ किया है। मैं तो प्रधानमंत्री से मिलकर रहूंगी,’ श्यामा की जली लाश आगे बढ़ी।
और अधकि हड़कम्प मच गया। उच्च स्तरीय सचिवों की बैठक बुला ली गयी और तय पाया कि श्यामा को प्रधनमंत्री के सामने पेश करने से पहले गृहमंत्री, विदेश मंत्री, वित्त मंत्री, समाज कल्याण मंत्री आदि का बुला लिया जाये। नहीं तो न जाने श्यामा प्रधनमंत्री से क्या पूछ ले कि जिसका उत्तर उनके पास न हो।(6)
श्यामा की जली लाश जब बाज़ार से गुज़र रही थी तो लोग अफसोस कर रहे थे।
‘यार बेचारी को जलाकर मार डाला।’
‘क्या करें यार. . .ये तो रोज़ का खेल हो गया।’
‘पर यार इस तरह. . .नब्बे परसेंट जली है।’
‘अरे यार इसके पापा को चाहिए था कि मारुति दे ही देता।’
‘कहां से लाता, उसके पास तो स्कूटर भी नहीं है।’
‘तो फिर लड़की पैदा ही क्यों की?’
‘इससे अच्छा था, एक मारुति पैदा कर देता।’

(7)
श्यामा की जली लाश जब अपने स्कूल पहुंची तो लड़कियों ने उसे घेर लिया। न श्यामा कुछ बोली, न लड़कियां कुछ बोली, न श्यामा कुछ बोली, न लड़कियां कुछ बोली, न श्यामा कुछ बोली, न लड़कियां कुछ बोली, खामोशी बोलती रही।
कुछ देर के बाद एक टीचर ने कहा, ‘आठवीं में कितने अच्छे नंबर आये थे इसके।’
दूसरी टीचर ने कहा, ‘दसवीं में इसके नंबर अच्छे थे।’
तीसरी ने कहा ‘आगे पढ़ती तो अच्छा कैरियर बनता।’
श्यामा की लाश होठों पर उंगलियां रखकर बोलीं, ‘शी{शी{शी. . .आदमी भी सुन रहे हैं।’

(8)
श्यामा की जली हुई लाश उन पंडितजी के घर पहुंची जिन्होंने उसके फेरे लगवाये थे। पंडित जी श्यामा को पहचान गये। श्यामा ने कहा, ‘पंडित जी मुझे फिर से फेरे लगवा दो।’
पंडित जी बोले, ‘बेटी, अब तुम जल चुकी हो, तुमसे अब कौन शादी करेगा।’
श्यामा बोली, ‘पंडित जी शादी वाले नहीं, उल्टे फेरे लगवा दो।’
पंडित जी बोले, ‘बेटी तुम चाहती क्या हो?’
श्यामा बोली, ‘तलाक’
पंडित जी ने कहा, ‘अरे तुम जल चुकी हो, तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा तलाक से।’
श्यामा बोली, ‘हां आप ठीक कहते हैं, उल्टे फेरों से न मुझ पर अंतर पड़ेगा. . .न आप पर अंतर पड़ेगा. . .न मेरे पति पर फर्क पड़ेगा. . .पर जिनके सीधे फेरे लगने वाले हैं उन तो अंतर पड़ेगा।’

(9)
श्यामा की जली लाश भगवान के घर पहुंची तो भगवान सृष्टि को चलाने का कठिन काम बड़ी सरलता से कर रहे थे। श्यामा ने भगवान से पूछा, ‘सृष्टि के निर्माता आप ही हैं?’
भगवान छाती ठोंककर बोले, ‘हां मैं ही हूं।’
‘संसार के सारे काम आपकी इच्छा से होते हैं।’
‘हां, मेरी इच्छा से होते हैं।’
‘मुझे आपकी इच्छा से ही जलाकर मार डाला गया था।’
‘हां, तुम्हें मेरी ही इच्छा से जलाकर मार डाला गया था।’
‘मेरे पति के लिए आपने ऐसी इच्छा क्यों नहीं की थी?’
‘पति परमेश्वर होते हैं। वे जलते नहीं, केवल जलाते हैं।’

(10)
श्यामा की जली लाश मानव अधिकार समिति वाले के पास पहुंची तो वे सब उठकर खड़े हो गये। उन्होंने कहा, ‘यह जघन्य अपराध है। हमने इस तरह के बीस हज़ार मामलों का पता लगा कर मुक़दमे दायर कराये हैं लेकिन आमतौर पर अपराधी बच निकलते हैं। लोगों में लोभ और लालच बहुत बढ़ गया है, धन के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। ये सब जानते हैं।’
श्यामा बोली, ‘इसीलिए मैं खामोश हूं।’
सदस्यों ने कहा, ‘बोलो श्यामा बोलो. . .बोलो. . .जब तक तुम नहीं बोलोगी हमारी आवाज़ कोई नहीं सुनेगा।’

मैं हिंदू हूं

सी चीख कि मुर्दे भी कब्र में उठकर खड़े हो जाएं। लगा कि आवाज़ बिल्कुल कानों के पास से आई है। उन हालात में. . .मैं उछलकर चारपाई पर बैठ गया, आसमान पर अब भी तारे थे. . .शायद रात का तीन बजा होगा। अब्बाजान भी उठ बैठे। चीख फिर सुनाई दी। सैफ अपनी खुर्री चारपाई पर लेटा चीख रहा था। आंगन में एक सिरे से सबकी चारपाइयां बिछी थीं।

‘लाहौलविलाकुव्वत. . .’ अब्बाजान ने लाहौल पढ़ी
‘खुदा जाने ये सोते-सोते क्यों चीखने लगता है।’ अम्मा बोलीं।
‘अम्मा इसे रात भर लड़के डराते हैं. . .’ मैंने बताया।
‘उन मुओं को भी चैन नहीं पड़ता. . .लोगों की जान पर बनी है और उन्हें शरारतें सूझती हैं’, अम्मा बोलीं।

सफिया ने चादर में मुंह निकालकर कहां, ‘इसे कहो छत पर सोया करे।’
सैफ अब तक नहीं जगा था। मैं उसके पलंग के पास गया और झुककर देखा तो उसके चेहरे पर पसीना था। साँस तेज़-तेज़ चल रही थी और जिस्म कांप रहा था। बाल पसीने में तर हो गए और कुछ लटें माथे पर चिपक गई थी। मैं सैफ को देखता रहा और उन लड़कों के प्रति मन में गुस्सा घुमड़ता रहा जो उसे डराते हैं।

तब दंगे ऐसे नहीं हुआ करते थे जैसे आजकल होते हैं। दंगों के पीछे छिपे दर्शन, रणनीति, कार्यपद्धति और गति में बहुत परिवर्तन आया है। आज से पच्चीस-तीस साल पहले न तो लोगों को जिंद़ा जलाया जाता था और न पूरी की पूरी बस्तियां वीरान की जाती थीं। उस ज़माने में प्रधानमंत्रियों, गृहमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का आशीर्वाद भी दंगाइयों को नहीं मिलता था। यह काम छोटे-मोटे स्थानीय नेता अपन स्थानीय और क्षुद्र किस्म का स्वार्थ पूरा करने के लिए करते थे। व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता, ज़मीन पर कब्ज़ा करना, चुंगी के चुनाव में हिंदू या मुस्लिम वोट समेत लेना वगैरा उद्देश्य हुआ करते थे। अब तो दिल्ली दरबार का कब्ज़ा जमाने का साधन बन गए हैं। सांप्रदायिक दंगे। संसार के विशालतम लोकतंत्र की नाक में वही नकेल डाल सकता है जो सांप्रदायिक हिंसा और घृणा पर खून की नदियां बहा सकता हो।

सैफ को जगाया गया। वह बकरी के मासूम बच्चे की तरह चारों तरफ इस तरह देख रहा था जैसे मां को तलाश कर रहा हो। अब्बाजान के सौतेले भाई की सबसे छोटी औलाद सैफुद्दीन उर्फ़ सैफ ने जब अपने घर के सभी लोगों से घिरे देखा तो अकबका कर खड़ा हो गया।
सैफ के अब्बा कौसर चचा के मरने का आया कोना कटा पोस्टकार्ड मुझे अच्छी तरह याद है। गांव वालों ने ख़त में कौसर चचा के मरने की ख़बर ही नहीं दी थी बल्कि ये भी लिखा था कि उनका सबसे छोटा सैफ अब इस दुनिया में अकेला रह गया है। सैफ के बड़े भाई उसे अपने साथ बंबई नहीं ले गए। उन्होंने साफ़ कह दिया है कि सैफ के लिए वे कुछ नहीं कर सकते। अब अब्बाजान के अलावा उसका दुनिया में कोई नहीं है। कोना कटा पोस्ट कार्ड पकड़े अब्बाजान बहुत देर तक ख़मोश बैठे रहे थे। अम्मां से कई बार लड़ाई होने के बाद अब्बाजान पुश्तैनी गांव धनवाखेड़ा गए थे और बची-खुची ज़मीन बेच, सैफ को साथ लेकर लौटे थे। सैफ को देखकर हम सबको हंसी आई थी। किसी गंवार लड़के को देखकर अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के स्कूल में पढ़ने वाली सफिया की और क्या प्रतिक्रिया हो सकती थी, पहले दिन ही यह लग गया कि सैफ सिर्फ गंवार ही नहीं है बल्कि अधपागल होने की हद तक सीधा या बेवकूफ़ है। हम उसे तरह-तरह से चिढ़ाया या बेवकूफ़ बनाया करते थे। इसका एक फायदा सैफ को इस तौर पर हुआ कि अब्बाजान और अम्मां का उसने दिल जीत लिया। सैफ मेहनत का पुतला था। काम करने से कभी न थकता था। अम्मां को उसकी ये ‘अदा` बहुत पसंद थी। अगर दो रोटियां ज्यादा खाता है तो क्या? काम भी तो कमर तोड़ करता है। सालों पर साल गुज़रते गए और सैफ हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया। हम सब उसके साथ सहज होते चले गए। अब मोहल्ले का कोई लड़का उसे पागल कह देता तो तो मैं उसका मुंह नोंच लेता था। हमारा भाई है तुमने पागल कहा कैसे? लेकिन घर के अंदर सैफ की हैसियत क्या थी ये हमीं जानते थे।

शहर में दंगा वैसे ही शुरू हुआ था जैसे हुआ करता था यानी मस्जिद से किसी को एक पोटला मिला था जिसमे में किसी किस्म का गोश्त था और गोश्त को देखे बगैर ये तय कर लिया गया था कि चूंकि वो मस्जिद में फेंका गया गोश्त है इसलिए सुअर के गोश्त के सिवा और किसी जानवर का हो ही नहीं सकता। इसकी प्रतिक्रिया में मुगल टोले में गाय काट दी गई थी और दंगा भड़क गया था। कुछ दुकानें जली थीं और ज्यादातर लूटी गई थीं। चाकू-छुरी की वारदातों में क़रीब सात-आठ लोग मरे थे लेकिन प्रशासन इतना संवेदनशील था कि कर्फ़्यू लगा दिया गया था। आजकल वाली बात न थी हज़ारों लोगों के मारे जाने के बाद भी मुख्यमंत्री मूछों पर ताव देकर घूमता और कहता कि जो कुछ हुआ सही हुआ।

दंगा चूंकि आसपास के गांवों तक भी फैल गया था इसलिए कर्फ्यू बढ़ा दिया गया था। मुगलपुरा मुसलमानों का सबसे बड़ा मोहल्ला था इसलिए वहां कर्फ्यू का असर भी था और ‘जिहाद` जैसा माहौल भी बन गया था। मोहल्ले की गलियां तो थी ही पर कई दंगों के तजुर्बों ने यह भी सिखा दिया था कि घरों के अंदर से भी रास्ते होने चाहिए। यानी इमरजेंसी पैकेज। तो घरों के अंदर से, छतों के उपर से, दीवारें को फलांगते कुछ ऐसे रास्ते भी बन गए थे कि कोई अगर उनको जानता हो तो मोहल्ले के एक कोने से दूसरे कोने तक आसानी से जा सकता था। मोहल्ले की तैयारी युद्धस्तर की थी। सोचा गया था कि कर्फ्यू अगर महीने भर भी खिंचता है तो ज़रूरत की सभी चीजें मोहल्ले में ही मिल जाएं।

दंगा मोहल्ले के लड़कों के लिए एक अजीब तरह के उत्साह दिखाने का मौसम हुआ करता था। अजी हम तो हिंदुओं को ज़मीन चटा देंगे.. समझ क्या रखा है धोती बांधनेवालों ने. . .अजी बुज़दिल होते है।. . .एक मुसलमान दस हिंदुओं पर भारी पड़ता है. . .’हंस के लिया है पाकिस्तान लड़कर लेंगे हिन्दुस्तान जैसा माहौल बन जाता था, लेकिन मोहल्ले से बाहर निकलने में सबकी नानी मरती थी। पी.ए.सी. की चौकी दोनों मुहानों पर थी। पीएसी के बूटों और उनकी राइफलों के बटों की मार कई को याद थी इसलिए जबानी जमा-खर्च तक तो सब ठीक था लेकिन उसके आगे. . .

संकट एकता सिखा देता है। एकता अनुशासन और अनुशासन व्यावहारिकता। हर घर से एक लड़का पहरे पर रहा करेगा। हमारे घर में मेरे अलावा, उस ज़माने में मुझे लड़का नहीं माना जा सकता था, क्योंकि मैं पच्चीस पार कर चुका था, लड़का सैफ ही था इसलिए उसे रात के पहरे पर रहना पड़ता था। रात का पहरा छतों पर हुआ करता था। मुगलपुरा चूंकि शहर के सबसे उपरी हिस्से में था इसलिए छतों पर से पूरा शहर दिखाई देता था। मोहल्ले के लड़कों के साथ सैफ पहरे पर जाया करता था। यह मेरे, अब्बाजान, अम्मां और सफिया-सभी के लिए बहुत अच्छा था। अगर हमारे घर में सैफ न होता तो शायद मुझे रात में धक्के खाने पड़ते। सैफ के पहरे पर जाने की वजह से उसे कुछ सहूलियतें भी दे दी गई थीं, जैसे उसे आठ बजे तक सोने दिया जाता था। उससे झाडू नहीं दिलवाई जाती थी। यह काम सफिया के हवाले हो गया था जो इसे बेहद नापसंद करती थी।

कभी-कभी रात में मैं भी छतों पर पहुंच जाता था, लाठी, डंडे, बल्लम और ईंटों के ढेर इधर-उधर लगाए गए थे। दो-चार लड़कों के पास देसी कट्टे और ज्यादातर के पास चाकू थे। उनमें से सभी छोटा-मोटा काम करने वाले कारीगर थे। ज्यादातर ताले के कारखानों के काम करते थे। कुछ दर्जीगिरी, बढ़ईगीरी जैसे काम करते थे। चूंकि इधर बाजार बंद था इसलिए उनके धंधे भी ठप्प थे। उनमें से ज्यादातर के घरों में कर्ज से चूल्हा जल रहा था। लेकिन वो खुश थे। छतों पर बैठकर वे दंगों की ताज़ा ख़बरों पर तब्सिरा किया करते थे या हिंदुओं को गालियां दिया करते थे। हिंदुओं से ज्यादा गालियां वे पीएसी को देते थे। पाकिस्तान रेडियो का पूरा प्रोग्राम उन्हें जबानी याद था और कम आवाज़ में रेडियो लाहौर सुना करते थे। इन लड़कों में दो-चार जो पाकिस्तान जा चुके थे उनकी इज्जत हाजियों की तरह होती थी। वो पाकिस्तान की रेलगाड़ी ‘तेज़गाम` और ‘गुलशने इक़बाल कॉलोनी` के ऐसे किस्से सुनाते थे कि लगता स्वर्ग अगर पृथ्वी पर कहीं है तो पाकिस्तान में है। पाकिस्तान की तारीफ़ों से जब उनका दिल भर जाया करता था तो सैफ से छेड़छाड़ किया करते थे। सैफ ने पाकिस्तान, पाकिस्तान और पाकिस्तान का वज़ीफ़ा सुनने के बाद एक दिन पूछ लिया था कि पाकिस्तान है कहां? इस पर सब लड़कों ने उसे बहुत खींचा था। वह कुछ समझा था, लेकिन उसे यह पता नहीं लग सकता था कि पाकिस्तान कहां है।

गश्ती लौंडे सैफ को मज़ाक़ में संजीदगी से डराया करते थे, ‘देखो सैफ अगर तुम्हें हिंदू पा जाएंगे तो जानते हो क्या करेंगे? पहले तुम्हें नंगा कर देंगे।’ लड़के जानते थे कि सैफ अधपागल होने के बावजूद नंगे होने को बहुत बुरी और ख़राब चीज़ समझता है, ‘उसके बाद हिंदू तुम्हारे तेल मलेंगे।’

‘क्यों, तेल क्यों मलेंगे?’
‘ताकि जब तुम्हें बेंत से मारें तो तुम्हारी खाल निकल जाए। उसके बाद जलती सलाखों से तुम्हें दागेंगे. . .’
‘नहीं,’ उसे विश्वास नहीं हुआ।

रात में लड़के उसे जो डरावने और हिंसक किस्से सुनाया करते थे उनसे वह बहुत ज्यादा डर गया था। कभी-कभी मुझसे उल्टी-सीधी बातें किया करता था। मैं झुंझलाता था और उसे चुप करा देता था लेकिन उसकी जिज्ञासाएं शांत नहीं हो पाती थीं। एक दिन पूछने लगा, ‘बड़े भाई पाकिस्तान में भी मिट्टी होती है क्या?’

‘क्यों, वहां मिट्टी क्यों न होगी।’
‘सड़क ही सड़क नहीं है…वहां टेरीलीन मिलता है…वहां सस्ती है… र
‘देखो ये सब बातें मनगढ़ंत हैं….तुम अल्ताफ़ वग़ैरा की बातों पर कान न दिया करो।’ मैंने उसे समझाया।

‘बड़े भाई क्या हिंदू आंखें निकाल लेते हैं. . .’
‘बकवास है. . .ये तुमसे किसने कहा?
‘बच्छन ने।’
‘गल़त है।’
‘तो ख़ाल भी नहीं खींचते?’
‘ओफ़्फोह. . .ये तुमने क्या लगा रखी है. . .’

वह चुप हो गया लेकिन उसकी आंखों में सैकड़ों सवाल थे। मैं बाहर चला गया। वह सफिया से इसी तरह की बातें करने लगा।

कर्फ्यू लंबा होता चला गया। रात की गश्त जारी रही। हमारी घर से सैफ ही जाता रहा। कुछ दिनों बाद एक दिन अचानक सोते में सैफ चीखने लगा था। हम सब घबरा गए लेकिन ये समझने में देर नहीं लगी कि ये सब उसे डराए जाने की वजह से है। अब्बाजान को लड़कों पर बहुत गुस्सा आया था और उन्होंने मोहल्ले के एक-दो बुजुर्गनुमा लोगों से कहा भी, लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। लड़के और वो भी मोहल्ले के लड़के किसी मनोरंजन से क्यों कर हाथ धी लेते?

बात कहां से कहां तक पहुंच चुकी है इसका अंदाज़ा मुझे उस वक़्त तक न था जब तक एक दिन सैफ ने बड़ी गंभीरता से मुझसे पूछा, ‘बड़े भाई, मैं हिंदू हो जाउं?’
सवाल सुनकर मैं सन्नाटे में आ गया, लेकिन जल्दी ही समझ गया कि यह रात में डरावने किस्से सुनाए जाने का नतीजा है। मुझे गुस्सा आ गया फिर सोचा पागल पर गुस्सा करने से अच्छा है गुस्सा पी जाउं और उसे समझाने की कोशिश करूं।
मैंने कहा, ‘क्यों तुम हिंदू क्यों होना चाहते हो?’

‘इसका मतलब है मैं न बच पाउंगा,’ मैंने कहा।
‘तो आप भी हो जाइए. . .’, वह बोला।
‘और तुम्हारे ताया अब्बार, मैंने अपने वालिद और उसके चचा की बात की।
‘नहीं. ..उन्हें. . .’ वह कुछ सोचने लगा। अब्बाजान की सफेद और लंबी दाढ़ी में वह कहीं फंस गया होगा।

‘देखा ये सब लड़कों की खुराफ़ात है जो तुम्हें बहकाते हैं। ये जो तुम्हें बताते हैं सब झूठ है। अरे महेश को नहीं जानते?’
‘वो जो स्कूटर पर आते हैं. . .’ वह खुश हो गया।
‘हां-हां वही।’
‘वो हिंदू है?’

‘हां हिंदू है।’ मैंने कहा और उसके चेहरे पर पहले तो निराशा की हल्की-सी परछाईं उभरी फिर वह ख़ामोश हो गया।
‘ये सब गुंडे बदमाशों के काम हैं. . .न हिंदू लड़ते हैं और न मुसलमान. . .गुंडे लड़ते हैं, समझे?’

दंगा शैतान की आंत की तरह खिंचता चला गया और मोहल्ले में लोग तंग आने लगे- यार शहर में दंगा करने वाले हिंदू और मुसलमान बदमाशों को मिला भी दिया जाए तो कितने होंगे. . . ज्यादा से ज्यादा एक हज़ार, चलो दो हज़ार मान लो तो भाई दो हज़ार आदमी लाखों लोगों की जिंद़गी को जहन्नुम बनाए हुए हैं और हम लोग घरों में दुबके बैठे हैं। ये तो वही हुआ कि दस हज़ार अंग्रेज़ करोड़ों हिंदुस्तानियों पर हुकूमत किया करते थे और सारा निज़ाम उनके तहत चलता रहता था और फिर इन दंगों से फ़ायदा किसका है, फ़ायदा? अजी हाजी अब्दुल करीम को फ़ायदा है जो चुंगी का इलेक्शन लड़ेगा और उसे मुसलमान वोट मिलेंगे। पंडित जोगेश्वर को है जिन्हें हिंदुओं के वोट मिलेंगे, अब तो हम क्या हैं? तुम वोटर हो, हिंदू वोटर, मुसलमान वोटर, हरिजन वोटर, कायस्थ वोटर, सुन्नी वोटर, शिआ वोटर, यही सब होता रहेगा इस देश में? हां क्यों नहीं? जहां लोग ज़ाहिल हैं, जहां किराये के हत्यारे मिल जाते हैं, जहां पॉलीटीशियन अपनी गद्दियों के लिए दंगे कराते हैं वहां और क्या हो सकता है? यार क्या हम लोगों को पढ़ा नहीं सकते? समझा नहीं सकते? हा-हा-हा-हा तुम कौन होते हो पढ़ाने वाले, सरकार पढ़ाएगी, अगर चाहेगी तो सरकार न चाहे तो इस देश में कुछ नहीं हो सकता? हां. . .अंग्रेजों ने हमें यही सिखाया है. . .हम इसके आदी हैं. . .चलो छोड़ो, तो दंगे होते रहेंगे? हां, होते रहेंगे? मान लो इस देश के सारे मुसलमान हिंदु हो जाएं? लाहौलविलाकुव्वत ये क्या कह रहे हो। अच्छा मान लो इस देश के सारे हिंदू मुसलमान हो जाएं? सुभान अल्लाह . . .वाह वाह क्या बात कही है. . .तो क्या दंगे रुक जाएंगे? ये तो सोचने की बात है. . .पाकिस्तान में शिआ सुन्नी एक दूसरे की जान के दुश्मन हैं. . .बिहारी में ब्राह्मण हरिजन की छाया से बचते हैं. . .तो क्या यार आदमी या कहो इंसान साला है ही ऐसा कि जो लड़ते ही रहना चाहता है? वैसे देखो तो जुम्मन और मैकू में बड़ी दोस्ती है। तो यार क्यों न हम मैकू और जुम्मन बन जाएं. . .वाह क्या बात कह दी, मलतब. . .मतलब. . .मतलब. . .

मैं सुबह-सुबह रेडियो के कान उमेठ रहा था सफिया झाडू दे रही थी कि राजा का छोटा भाई अकरम भागता हुआ आया और फलती हुई सांस को रोकने की नाकाम कोशिश करता हुआ बोला, ‘सैफ को पी.ए.सी. वाले मार रहे हैं।’

‘क्या? क्या कह रहे हो?’
‘सैफ को पीएसी वाले मार रहे हैं’, वह ठहरकर बोला।
‘क्यों मार रहे हैं? क्या बात है?’
‘पता नहीं. . .नुक्कड़ पर. . .’
‘वहीं जहां पीएसी की चौकी है?’
‘हां वहीं।’

‘लेकिन क्यों. . .’ मुझे मालूम था कि आठ बजे से दस बजे तक कर्फ्यू खुलने लगा है और सैफ को आठ बजे के करीब अम्मां ने दूध लेने भेजा था। सैफ जैसे पगले तक को मालूम था कि उसे जल्दी से जल्दी वापस आना है और अब दो दस बजे गए थे।

‘चलो मैं चलता हूं’ रेडियो से आती बेढंगी आवाज़ की फिक्र किए बग़ैर मैं तेजी से बाहर निकला। पागल को क्यों मार रहे हैं पीएसी वाले, उसने कौन-सा ऐसा जुर्म किया है? वह कर ही क्या सकता है? खुद ही इतना खौफज़दा रहता है उसे मारने की क्या ज़रूरत है. . .फिर क्या वजह हो सकती है? पैसा, अरे उसे तो अम्मां ने दो रुपए दिए थे। दो रुपए के लिए पीएसी वाले उसे क्यों मारेंगे?

नुक्कड़ पर मुख्य सड़क के बराबर कोठों पर मोहल्ले के कुछ लोग जमा था। सामने सैफ पीएसी वालों के सामने खड़ा था। उसके सामने पीएसी के जवान थे। सैफ जोर-जोर से चीख़ रहा था, ‘मुझे तुम लोगों ने क्यों मारा. . .मैं हिंदू हूं. . .हिंदू हूं. . .’

मैं आगे बढ़ा। मुझे देखने के बाद भी सैफ रुका नहीं वह कहता रहा, ‘हां, हां मैं हिंदू हूं. . .’ वह डगमगा रहा था। उसके होंठों के कोने से ख़ून की एक बूंद निकलकर ठोढ़ी पर ठहर गई थी।
‘तुमने मुझे मारा कैसे. . .मैं हिंदू. . .’
‘सैफ. . .ये क्या हो रहा है. . .घर चलो’
‘मैं. . .मैं हिंदू हूं।’
मुझे बड़ी हैरत हुई. . .अरे क्या ये वही सैफ है जो था. . .इसकी तो काया पलट कई है। ये इसे हो क्या गया।
‘सैफ होश में आओ’ मैंने उसे ज़ोर से डांटा।

मोहल्ले के दूसरे लोग पता नहीं किस पर अंदर ही अंदर दूर से हंस रहे थे। मुझे गुस्सा आया। साले ये नहीं समझते कि वह पागल है।
‘ये आपका कौन है?’ एक पीएसी वाले ने मुझसे पूछा।
‘मेरा भाई है. . . थोड़ी मेंटल प्राब्लम है इसे’
‘तो इसे घर ले जाओ,’ एक सिपाही बोला।

‘हमें पागल बना दिया,’ दूसरे ने कहा।
‘चलो. . .सैफ घर चलो। कर्फ्यू लग गया है. . .कर्फ्यू. . .’
‘नहीं जाउंगा. . .मैं हिंदू हूं. ..हिंदू. . .मुझे. . .मुझे. . .’
वह फट-फटकर रोने लगा. . .’मारा. . .मुझे मारा. . .मुझे मारा. . .मैं हिंदू हूं. . .मैं’ सैफ धड़ाम से ज़मीन पर गिरा. . .शायद बेहोश हो गया था. . .अब उसे उठाकर ले जाना आसान था।

 शाह आलम कैम्प की रूहें

(1)शाह आम कैम्प में दिन तो किसी न किसी तरह गुज़र जाते हैं लेकिन रातें क़यामत की होती है। ऐसी नफ़्स़ा नफ़्स़ी का अलम होता है कि अल्ला बचाये। इतनी आवाज़े होती हैं कि कानपड़ी आवाज़ नहीं सुनाई देती, चीख-पुकार, शोर-गुल, रोना, चिल्लाना, आहें सिसकियां. . .

रात के वक्त़ रूहें अपने बाल-बच्चों से मिलने आती हैं। रूहें अपने यतीम बच्चों के सिरों पर हाथ फेरती हैं, उनकी सूनी आंखों में अपनी सूनी आंखें डालकर कुछ कहती हैं। बच्चों को सीने से लगा लेती हैं। ज़िंदा जलाये जाने से पहले जो उनकी जिगरदोज़ चीख़ों निकली थी वे पृष्ठभूमि में गूंजती रहती हैं।

सारा कैम्प जब सो जाता है तो बच्चे जागते हैं, उन्हें इंतिजार रहता है अपनी मां को देखने का. . .अब्बा के साथ खाना खाने का।
कैसे हो सिराज, ‘अम्मां की रूह ने सिराज के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।’

‘तुम कैसी हों अम्मां?’
मां खुश नज़र आ रही थी बोली सिराज. . .अब. . . मैं रूह हूं . . .अब मुझे कोई जला नहीं सकता।’
‘अम्मां. . .क्या मैं भी तुम्हारी तरह हो सकता हूं?’

(2)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद एक औरत की घबराई बौखलाई रूह पहुंची जो अपने बच्चे को तलाश कर रही थी। उसका बच्चा न उस दुनिया में था न वह कैम्प में था। बच्चे की मां का कलेजा फटा जाता था। दूसरी औरतों की रूहें भी इस औरत के साथ बच्चे को तलाश करने लगी। उन सबने मिलकर कैम्प छान मारा. . .मोहल्ले गयीं. . .घर धूं-धूं करके जल रहे थे। चूंकि वे रूहें थीं इसलिए जलते हुए मकानों के अंदर घुस गयीं. . .कोना-कोना छान मारा लेकिन बच्चा न मिला।

आख़िर सभी औरतों की रूहें दंगाइयों के पास गयी। वे कल के लिए पेट्रौल बम बना रहे थे। बंदूकें साफ कर रहे थे। हथियार चमका रहे थे।
बच्चे की मां ने उनसे अपने बच्चे के बारे में पूछा तो वे हंसने लगे और बोले, ‘अरे पगली औरत, जब दस-दस बीस-बीस लोगों को एक साथ जलाया जाता है तो एक बच्चे का हिसाब कौन रखता है? पड़ा होगा किसी राख के ढेर में।’

मां ने कहा, ‘नहीं, नहीं मैंने हर जगह देख लिया है. . .कहीं नहीं मिला।’
तब किसी दंगाई ने कहा, ‘अरे ये उस बच्चे की मां तो नहीं है जिसे हम त्रिशूल पर टांग आये हैं।’

(3)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। रूहें अपने बच्चों के लिए स्वर्ग से खाना लाती है।, पानी लाती हैं, दवाएं लाती हैं और बच्चों को देती हैं। यही वजह है कि शाह कैम्प में न तो कोई बच्चा नंगा भूखा रहता है और न बीमार। यही वजह है कि शाह आलम कैम्प बहुत मशहूर हो गया है। दूर-दूर मुल्कों में उसका नाम है।
दिल्ली से एक बड़े नेता जब शाह आलम कैम्प के दौरे पर गये तो बहुत खुश हो गये और बोले, ‘ये तो बहुत बढ़िया जगह है. . .यहां तो देश के सभी मुसलमान बच्चों को पहुंचा देना चाहिए।’

(4)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। रात भर बच्चों के साथ रहती हैं, उन्हें निहारती हैं. . .उनके भविष्य के बारे में सोचती हैं। उनसे बातचीत करती हैं।
सिराज अब तुम घर चले जाओ, ‘मां की रूह ने सिराज से कहा।’
‘घर?’ सिराज सहम गया। उसके चेहरे पर मौत की परछाइयां नाचने लगीं।
‘हां, यहां कब तक रहोगे? मैं रोज़ रात में तुम्हारे पास आया करूंगी।’
‘नहीं मैं घर नहीं जाउंगा. . .कभी नहीं. . .कभी,’ धुआं, आग, चीख़ों, शोर।
‘अम्मां मैं तुम्हारे और अब्बू के साथ रहूंगा’
‘तुम हमारे साथ कैसे रह सकते हो सिक्कू. . .’
‘भाईजान और आपा भी तो रहते हैं न तुम्हारे साथ।’
‘उन्हें भी तो हम लोगों के साथ जला दिया गया था न।’
‘तब. . .तब तो मैं . . .घर चला जाउंगा अम्मां।’

(5)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद एक बच्चे की रूह आती है. . .बच्चा रात में चमकता हुआ जुगनू जैसा लगता है. . .इधर-उधर उड़ता फिरता है. . .पूरे कैम्प में दौड़ा-दौड़ा फिरता है. . .उछलता-कूदता है. . .शरारतें करता है. . .तुतलाता नहीं. . .साफ-साफ बोलता है. . .मां के कपड़ों से लिपटा रहता है. . .बाप की उंगली पकड़े रहता है।
शाह आलम कैम्प के दूसरे बच्चे से अलग यह बच्चा बहुत खुश रहता है।
‘तुम इतने खुश क्यों हो बच्चे?’
‘तुम्हें नहीं मालूम. . .ये तो सब जानते हैं।’
‘क्या?’
‘यही कि मैं सुबूत हूं।’
‘सुबूत? किसका सुबूत?’
‘बहादुरी का सुबूत हूं।’
‘किसकी बहादुरी का सुबूत हो?’
‘उनकी जिन्होंने मेरी मां का पेट फाड़कर मुझे निकाला था और मेरे दो टुकड़े कर दिए थे।’

(6)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक लड़के के पास उसकी मां की रूह आयी। लड़का देखकर हैरान हो गया।
‘मां तुम आज इतनी खुश क्यों हो?’
‘सिराज मैं आज जन्नत में तुम्हारे दादा से मिली थी, उन्होंने मुझे अपने अब्बा से मिलवाया. . .उन्होंने अपने दादा. . .से . . .सकड़ दादा. . .तुम्हारे नगड़ दादा से मैं मिली।’ मां की आवाज़ से खुशी फटी पड़ रही थी।
‘सिराज तुम्हारे नगड़ दादा. . .हिंदू थे. . .हिंदू. . .समझे? सिराज ये बात सबको बता देना. . .समझे?’

(7)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक बहन की रूह आयी। रूह अपने भाई को तलाश कर रही थी। तलाश करते-करते रूह को उसका भाई सीढ़ियों पर बैठा दिखाई दे गया। बहन की रूह खुश हो गयी वह झपट कर भाई के पास पहुंची और बोली, ‘भइया, भाई ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। वह पत्थर की मूर्ति की तरह बैठा रहा।’
बहन ने फिर कहा, ‘सुनो भइया!’
भाई ने फिर नहीं सुना, न बहन की तरफ देखा।
‘तुम मेरी बात क्यों नहीं सुन रहे भइया!’, बहन ने ज़ोर से कहा और भाई का चेहरा आग की तरह सुर्ख हो गया। उसकी आंखें उबलने लगीं। वह झपटकर उठा और बहन को बुरी तरह पीटने लगा। लोग जमा हो गये। किसी ने लड़की से पूछा कि उसने ऐसा क्या कह दिया था कि भाई उसे पीटने लगा. . .
बहन ने कहा, ‘नहीं सलीमा नहीं, तुमने इतनी बड़ी गल़ती क्यों की।’ बुज़ुर्ग फट-फटकर रोने लगा और भाई अपना सिर दीवार पर पटकने लगा।

(8)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक दिन दूसरी रूहों के साथ एक बूढ़े की रूह भी शाह आलम कैम्प में आ गयी। बूढ़ा नंगे बदन था। उंची धोती बांधे था, पैरों में चप्पल थी और हाथ में एक बांस का डण्डा था, धोती में उसने कहीं घड़ी खोंसी हुई थी।
रूहों ने बूढ़े से पूछा ‘क्या तुम्हारा भी कोई रिश्तेदार कैम्प में है?’
बूढ़े ने कहा, ‘नहीं और हां।’
रूहों के बूढ़े को पागल रूह समझकर छोड़ दिया और वह कैम्प का चक्कर लगाने लगा।
किसी ने बूढ़े से पूछा, ‘बाबा तुम किसे तलाश कर रहे हो?’
बूढ़े ने कहा, ‘ऐसे लोगों को जो मेरी हत्या कर सके।’
‘क्यों?’
‘मुझे आज से पचास साल पहले गोली मार कर मार डाला गया था। अब मैं चाहता हूं कि दंगाई मुझे ज़िंदा जला कर मार डालें।’
‘तुम ये क्यों करना चाहते हो बाबा?’
‘सिर्फ ये बताने के लिए कि न उनके गोली मार कर मारने से मैं मरा था और न उनके ज़िंदा जला देने से मरूंगा।’

(9)
शाह आलम कैम्प में एक रूह से किसी नेता ने पूछा
‘तुम्हारे मां-बाप हैं?’
‘मार दिया सबको।’
‘भाई बहन?’
‘नहीं हैं’
‘कोई है’
‘नहीं’
‘यहां आराम से हो?’
‘हो हैं।’
‘खाना-वाना मिलता है?’
‘हां मिलता है।’
‘कपड़े-वपड़े हैं?’
‘हां हैं।’
‘कुछ चाहिए तो नहीं,’
‘कुछ नहीं।’
‘कुछ नहीं।’
‘कुछ नहीं।’
नेता जी खुश हो गये। सोचा लड़का समझदार है। मुसलमानों जैसा नहीं है।

(10)
शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक दिन रूहों के साथ शैतान की रूह भी चली आई। इधर-उधर देखकर शैतान बड़ा शरमाया और झेंपा। लोगों से आंखें नहीं मिला पर रहा था। कन्नी काटता था। रास्ता बदल लेता था। गर्दन झुकाए तेज़ी से उधर मुड़ जाता था जिधर लोग नहीं होते थे। आखिरकार लोगों ने उसे पकड़ ही लिया। वह वास्तव में लज्जित होकर बोला, ‘अब ये जो कुछ हुआ है. . .इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है. . .अल्लाह क़सम मेरा हाथ नहीं है।’
लोगों ने कहा, ‘हां. . .हां हम जानते हैं। आप ऐसा कर ही नहीं सकते। आपका भी आख़िर एक स्टैण्डर्ड है।’
शैतान ठण्डी सांस लेकर बोला, ‘चलो दिल से एक बोझ उतर गया. . .आप लोग सच्चाई जानते हैं।’
लोगों ने कहा, ‘कुछ दिन पहले अल्लाह मियां भी आये थे और यही कह रहे थे।’

राजा

न दिनों शेर और लोमड़ी दोनों का धंधा मंदा पड़ गया था। लोमड़ी किसी से चिकनी-चुपड़ी बातें करती तो लोग समझ जाते कि दाल में कुछ काला है। शेर दहाड़कर किसी जानवर को बुलाता तो वह जल्दी से अपने घर में घुस जाता।

ऐसे हालात से तंग आकर एक दिन लोमड़ी और शेर ने सोचा कि आपस में खालें बदल लें। शेर ने लोमड़ी की खाल पहन ली और लोमड़ी ने शेर की खाल। अब शेर को लोग लोमड़ी समझते और लोमड़ी को शेर। शेर के पास छोटे-मोटे जानवर अपने आप चले आते और शेर उन्हें गड़प जाता।

लोमड़ी को देखकर लोग भागते तो वह चिल्लाती ‘अरे सुनो भाई. . .अरे इधर आना लालाजी. . .बात तो सुनो पंडितजी!’ शेर का यह रंग-ढंग देखकर लोग समझे कि शेर ने कंठी ले ली है। वे शेर, यानी लोमड़ी के पास आ जाते। शेर उनसे मीठी-मीठी बातें करता और बड़े प्यार से गुड़ और घी मांगता। लोग दे देते। खुश होते कि चलो सस्ते छूटे।

एक दिन शेर लोमड़ी के पास आया और बोला, ‘मुझे अपना दरबार करना है। तुम मेरी खाल मुझे वापस कर दो। मैं लोमड़ी की खाल में दरबार कैसे कर सकता हूं?’ लोमड़ी ने उससे कहा, ‘ठीक है, तुम परसों आना।’ शेर चला गया।

लोमड़ी बड़ी चालाक थी। वह अगले ही दिन दरबार में चली गई। सिंहासन पर बैठ गई। राजा बन गई।

दोस्तो, यह कहानी बहुत पुरानी है। आज जो जंगल के राजा हैं वे दरअसल उसी लोमड़ी की संतानें हैं, जो शेर की खाल पहनकर राजा बन गई थी।

 योद्धा

किसी देश में एक बहुत वीर योद्धा रहता था। वह कभी किसी से न हारा था। उसे घमंड हो गया था। वह किसी को कुछ न समझता था। एक दिन उसे एक दरवेश मिला। दरवेश ने उससे पूछा, ‘तू इतना घमंड क्यों करता है?’ योद्धा ने कहा, ‘संसार में मुझ जैसा वीर कोई नहीं है।’ दरवेश ने कहा, ‘ऐसा तो नहीं है।’

योद्धा को क्रोध आ गया, ‘तो बताओ पूरे संसार में ऐसा कौन है, जिसे मैं हरा न सकता हूं।’
दरवेश ने कहा, ‘चींटी है।’

यह सुनकर योद्धा क्रोध से पागल हो गया। वह चींटी की तलाश में निकलने ही वाला था कि उसे घोड़ी की गर्दन पर चींटी दिखाई दी। योद्धा ने चींटी पर तलवार का वार किया। घोड़े की गर्दन उड़ गई। चींटों को कुछ न हुआ। योद्धा को और क्रोध आया। उसने चींटी को ज़मीन पर चलते देखा। योद्धा ने चींटी पर फिर तलवार का वार किया। खूब धूल उड़ी। चींटी योद्धा के बाएं हाथ पर आ गई। योद्धा ने अपने बाएं हाथ पर तलवार का वार किया, उसका बायां हाथ उड़ गया। अब चींटी उसे सीने पर रेंगती दिखाई दी। वह वार करने ही वाला था कि अचानक दरवेश वहां आ गया। उसने योद्धा का हाथ पकड़ लिया।

योद्धा ने हांफते हुए कहा, ‘अब मैं मान गया। बड़े से, छोटा ज्यादा बड़ा होता है।’

बंदर

क दिन एक बंदर ने एक आदमी से कहा, ‘भाई, करोड़ों साल पहले तुम भी बंदर थे। क्यों न आज एक दिन के लिए तुम फिर बंदर बनकर देखो।’
यह सुनकर पहले तो आदमी चकराया, फिर बोला, ‘चलो ठीक है। एक दिन के लिए मैं बंदर बन जाता हूं।’बंदर बोला, ‘तो तुम अपनी खाल मुझे दे दो। मैं एक दिन के लिए आदमी बन जाता हूं।’
इस पर आदमी तैयार हो गया।
आदमी पेड़ पर चढ़ गया और बंदर ऑफिस चला गया। शाम को बंदर आया और बोला, ‘भाई, मेरी खाल मुझे लौटा दो। मैं भर पाया।’आदमी ने कहा, ‘हज़ारों लाखों साल मैं आदमी रहा। कुछ सौ साल तो तुम भी रहकर देखो।’
बंदर रोने लगा, ‘भाई, इतना अत्याचार न करो।’ पर आदमी तैयार नहीं हुआ। वह पेड़ की एक डाल से दूसरी, फिर दूसरी से तीसरी, फिर चौथी पर जा पहुंचा और नज़रों से ओझल हो गया।विवश होकर बंदर लौट आया।
और तब से हक़ीक़त में आदमी बंदर है और बंदर आदमी।

ज-1

वे लोग अत्यंत व्यस्त रहते हुए भी इसका ध्यान रखते थे कि उस आदमी, जिसको वे ‘ज’ कहा करते थे, को क्या परेशानी है या किस हद तक बढ़ी हुई है कि उसका इलाज कहां और कैसे हो सकता है। ‘ज’ के प्रति सहानुभूति दर्शाए बिना ही उनके सब काम जैसे तैसे चल सकते थे, लेकिन इसके बाद भी अगर वे ‘ज’ से हमदर्दी रखते थे तो कारण किसी बहुत मोटे और महान शब्द के पीडे छिपा हुआ था।

उन लोगों ने ‘ज’ को जब-जब जो-जो बीमारियां बतायीं तब-तब त्यों-त्यों ‘ज’ ने उन्हें स्वीकार किया। चूंकि मर्ज बताने वाले भी वही थे और इलाज करने वाले भी वही, इसलिए मामला काफी सुलझा हुआ था, इतना कि जब उन्होंने ‘ज’ से कहा कि उसका चेहरा बिगड़ गया है और उसका इलाज जरूरी है तो उन्हें ये बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि ‘ज’ इस बात से इनकार कर देगा। ‘ज’ ने उनसे कहा कि मेरे चेहरे में कई दोष हो सकते हैं, मसलन मैं दूर तक देख सकने वाली आंखें और खतरा सूंघ लेने वाली नाक रखता हूं, लेकिन इससे भी भयंकर रोग मेरे पेट में है। पहले उसका इलाज जरूरी है। उन लागों के लिए यह खतरे और आश्चर्य की बात थी कि ‘ज’ अपने मर्ज को पहचानने लगा है। इन लोगों ने ‘ज’ से कहा कि डॉक्टर ही मर्ज पहचान सकता है, मरीज नहीं इसलिए ‘ज’ को वह मर्ज है कि जो वे कहते हैं न कि वह जो ‘ज’ कहता है। इसलिए इस मामले में बहस की इतनी ही गुंजाइश थी कि बहस होती और ‘ज’ हार जाता।

वे ‘ज’ के चेहरे की चीर-फाड़ करके उसे सुन्दर बनाना शुरू ही करने वाले थे कि ‘ज’ ने कहा मेरे दर्द मेरे पेट में है।

वे बोले, ‘‘तुम्हारे पेट के दर्द के बारे में कितने लोगों को मालूम है या कितने लोग तुम्हें देखकर समझ सकते हैं कि तुम्हारे पेट में दर्द होगा’

‘ज’ ने कहा, ‘‘कोई नहीं। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि मेरे पेट में दर्द ही नहीं है।’’

उन लोगों ने कहा, ‘‘और तुम्हारे चेहरे को देखकर हर आदमी कह सकता है कि इसकी मरम्मत की जरूरत है।’’

उन्होेंने ‘ज’ के चेहरे की मरम्मत शुरू कर दी। उसके मोटे होंठों को पतला कर दिया गया। उसकी आंखों की नशीला बना दिया गया। इसके गाल सेब की तरह सुर्ख कर दिए गए। उसका रंग चमचमा दिया गया। इस बीच वह दोनों हाथों से अपना पेट पकड़े कराहता, चीखता और रोता रहा, लेकिन वे जानते थे बुखार की दवा कुनैन ही होती है और एक बार कड़वी चीज निगल जाने की आदत पड़ जाना हमेशा के लिए अच्छा होता है। उन लोगों ने ‘ज’ की घिनौनी और गंदी नाक की प्लास्टिक सर्जरी करने के लिए जब नाक काटी तो ऐसे निशान मिले जिनसे अंदाजा लगाया गया कि ‘ज’ की नाक भी वह नाक नहीं है जो थी। यानी नकली है। ‘ज’ संबंधी पुराने कागजों को उलटने-पलटने के बाद डाक्टरों ने ‘ज’ से कहा कि पिछले बीसियों सालों में तुम्हारी नाक इतनी बार काटी और जोड़ी और काटी और जोड़ी गयी है कि तुम्हारी असली नाक क्या अेर कैसी थी ये किसी को नहीं मालूम।

‘ज’ ने कराहते हुए कहा, ‘‘लेकिन मेरा पेट वहीं है और दर्द भी वही।’’

मंत्रालय

सके दिल में धुकधुकी मची थी। वह एकटक बिजली के सामने लगे हण्डे को देख रहा था, क्योंकि उसे बताया गया था कि मंत्रीजी के आते ही हण्डा जल उठता है।

कुछ देर पहले वह बीड़ी जलाने बाह गैलरी में गया था। चपरासी से माचिस मांगी थी और जब यह पता चला कि वह भी बनारस का है तो चपरासी ने उसे बहुत कुछ बताया था। यह भी बताया था कि मंत्री पीछे वाले रास्ते से आकर अपने कमरे में बैठ जाते हैं। वे इस तरफ से नहीं आते जिधर से सब लोग आते हैं।

सामने लगा बिजली का हण्डा अचानक भक से जल उठा। बेहद तेज और तीखी रोशनी से वह कोशिश करते रहने के बावजूद अपनी आंखें खुली न रख सका।

एक सूटधारी व्यक्ति उसके पास आया और बोला-‘‘मुंशी लाल’

और वह सेकेंड के पचासवें हिस्से में खड़ा हो गया।

उसने अपने साथ आने का इशारा किया और एक दरवाजे में घुस गया। उसे इतना तो मालूम था कि अंदर घुसने से पहले ‘में आई कम इन सर’ पूछ लेना जरूरी है उसने चपरासी दोस्त उसे ढकेलते हुए बोला, ‘‘जाओ, जाओ यहां सब ऐसे ही जाते हैं।’’ वह भरभरा का अंदर घुस गया।

उसने, सामने एक महान् भव्य मूर्ति बड़ी सी मेज के पीछे बैठी थी। कालीन ने उसके पैर पकड़ लिए। उसने हाथ जोड़े। मूर्ति कुछ नहीं बोली। कुछ देर बाद दीवर से आवाज आयी, ‘‘मंत्रीजी से क्यों मिलना चाहते हो’

अब वह समझा, ये मंत्री जी नहीं उनके पिछलगुए वगैरा हैं।

उसने कहा, ‘‘जी नौकरी के बारे में सर।’’

‘‘मंत्रीजी क्या नौकरी दिलाने की मशीन है’

‘‘जी वो नौकरी तो है, मतलब थी सर, लेकिन सर, बिना कारण के निकाल दिया।’’

‘‘तो तुम मंत्रीजी से कारण मालूम करना चाहते हो,’’

वह सटपटा गया। ये तो बड़ा जबर आदमी है। पार पाना मुश्किल है।

उसने अपनी पूरी फाइल मूर्ति की ओर बढ़ा दी।

मूर्ति फाइल में इस तरह लीन हो गयी जैसे जीवन का प्रत्येक रहस्य उसमें लिखा हो। पर जल्दी ही मूर्ति ने फाइल बंद कर दी। घंटी बजाई। सूटधारी आया। मूर्ति बोली, ‘ओ. के।’

सूटधारी ने उसे अपने आने का इशारा किया। सूटधारी एक दरवाजे में घुसा । फिर शायद उसी से निकला। फिर शायद उसी में घुसा। फिर शायद उसी से निकला और उसने अगले दरवाजे में घुसने से पहले टाई ठीक की तो वह समझ गया कि मंत्रीजी का यही कमरा है। वे दोनों अंदर घुसे। वह प्रार्थना वाली मुद्रा में खड़ा हो गया। मंत्रीजी मुर्रा भैंस की तरह काले और विशालकाय थे। सूटधारी चला गया। अचानक एक महीन जनानी आवाज आयी, ‘‘तुम्हारा नाम ही मुंशीलाल है’

अरे बाप रे बाप, उसने सोचा, इतने मोटे आदमी की इतनी महीन आवाज।

वह अच्छा खासा कांप रहा था। उसे लगा, लालू में जुबान ही नहीं है। फिर वह पूरा जोर लगाकर बोला, ‘‘जी सर।’’

उसने आंखें उठायीं, मंत्री जी अपनी संपीली आंखों से उसे घूर रहे थे। फिर आवाज आयी ‘‘तुम ही पेशाबखानों पर लिखे मूत्रालय में से बड़े ‘ऊ’ की मात्रा मिटा कर ‘म’ पर बिंदी रख देते हो’ उसको लगा, दिल उछलकर उसके हलक में आ गया हो। वह कांपती आवाज में बोला, ‘‘जी नहीं सर।’’

‘‘तुम मुत्रालय कभी नहीं गए’

‘‘गया हूं सर।’’

‘‘तो तुमने ऐसा कभी नहीं किया’

‘‘जी नहीं सर।’’

‘‘लेकिन तुमने अपने प्रार्थनापत्र में माननीय मंत्रीजी महोदय के स्थान पर माननीय मूत्रीजी महोदय लिखा है।’’

‘‘ये कैसे हो सकता है सर।’’ उसके दिमाग चक्कर खाने लगा।

‘‘नहीं, तुमने लिखा है।’’

‘‘मुझे मंत्रालय और मूत्रालय से क्या मतलब सर।’’ मैं तो अपनी नौकरी के लिए आया था।’’

उसके बाद घंटी बजी और वह पुलिस की हिरासत में बाहर निकाला गया।

उसके ऊपर पता नहीं कितने दफा लगे थे। उसकी हथकड़ियों की रस्सी पकड़े गैलरी में इंस्पेक्टर झूमता चला जा रहा था। पिछले कुछ मिनटों की मानसिक कबड्डी के कारण उसे वास्तव में पेशाब लग आया था। पर उसे मालूम था कि गिरफ्तार होने के बाद हर काम पुलिस से पूछकर करना चाहिए। उसने इंस्पेक्टर से पूछना चाहा, ‘मृत्…’

वाक्य पूरा भी नहीं होने पाया था कि इंस्पेक्टर गिद्ध की तरह उस पर झपट पड़ा, ‘‘साला चिढ़ाता है।’’ एक भारी भरकर झापड़ उसके गाल पर पड़ा और वह गैलरी में गिर पड़ा। उसकी आंखों के सामने कई सूरज नाच गए। और धीरे-धीरे उसका पाजामा, फिर कुर्ता और फिर गैलरी में बिछा कालीन भीगना शुरू हुआ।

तिल

क समय ऐसा आया कि तिल में से तेल निकालना बन्द हो गया। तेली बड़ा परेशान हुआ । उसने सोचा अगर ऐसा ही होता रहा तो उसका कारोबार चल चुका। वह किसान के पास गया। उसने कहा, ‘‘कुछ करो, तिल में से तेल नहीं निकलता।’’

किसान बोला, ‘‘कहां से तेल निकलेगा। हद होती है। सैकड़ों सालों से तेल निकाल रहे हो।’’

तेली ने कहा, ‘‘यह तो अपना धंधा है।’’

किसान ने कहा, ‘‘तिल होशियार हो गये हैं।’’

तेली बोला, ‘‘होशियार नहीं, तुम न तो खेत में खाद डालते हो, न ठीक से पानी लगाते हो। मैं चाहे जितना जोर क्यों न लगाऊं, तेल ही नहीं निकलता।’’

किसान ने कहा, ‘‘न हल है, न बैल, न खाद है, न पानी। तिल पैदा हो जाते हैं, यही बहुत है।’’

यह सुनकर तेली निराश नहीं हुआ। वह घर आया। तिल का बोरा खोला और उसे धूप में डाल दिया। फिर उन्हें कढ़ाव में डालकर खूब गरम करने लगा। उसने तिलों से कहा मैं तुम्हें जलाकर कोयला कर दूंगा।’’ लेकिन फिर तुरंत उसने तिलों को आग पर से उतार लिया और उन पर ठंडे पानी के छींटे मारे। फिर कोल्हू में डालकर पेरना शुरू किया और फिर तेल निकलने लगा।

वीरता

जैसा कि अक्सर होता है। यानि राजा जालिम था। वह जनता पर बड़ा अन्याय करता था और जनता अन्याय सहती थी, क्योंकि जनता को न्याय के बारे में कुछ नहीं मालूम था।

राजा को ऐसे ही सिपाही रखने का शौक था जो बेहद वफ़ादार हों। बेहद वफ़ादार सिपाही रखने का शौक उन्हीं को होता है जो बुनियादी तौर पर जालिम और कमीने होते हैं। राजा को हमेंशा ये डर लगा रहता था कि उसके सिपाही उसके वफ़ादार नहीं हैं और वह अपने सिपाहियों की वफ़ादारी का लगातार इम्तिहान लिया करता था। एक दिन उसने अपने एक सिपाही से कहा कि अपना एक हाथ काट डालो। सिपाही ने हाथ काट डाला। राजा बड़ा खुश हुआ और उसे वीरता का बहुत बड़ा इनाम दिया।

फिर एक दिन उसने एक दूसरे सिपाही से कहा कि अपनी टांग काट डालो। सिपाही ने ऐसा ही किया और वीरता दिखाने का इनाम पाया। इसी तरह राजा अपने सिपाहियों के अंग कटवा-कटवाकर उन्हें वीरता का इनाम देता रहा।

एक दिन राजा ने देश के सबसे वीर सैनिक से कहा कि तुम वास्तव में कोई ऐसा बहादुरी का काम करो जिसे और कोई न कर सकता हो। वीर सैनिक ने तलवार निकाली, आगे बढ़ा और राजा का सिर उड़ा दिया।

पहचान

राजा ने हुक्म दिया कि उसके राज में सब लोग अपनी आंखें बन्द रखेंगे ताकि उन्हें शान्ति मिलती रहे। लोगों ने ऐसा हीे किया, क्योंकि राजा की आज्ञा मानना जनता के लिए अनिवार्य है। जनता आंखें बंद किये-किये सारा काम करती थी और आश्चर्य की बात यह कि काम पहले की तुलना में बहुत अधिक और अच्छा हो रहा था। फिर हुक्म निकला कि लोग अपने-अपने कानों में पिघला हुआ सीसा डलवा लें। क्योंकि सुनना जीवित रहने के लिए बिलकुल जरूरी नहीं है। लोगों ने ऐसा ही किया और उत्पादन आश्चर्य जनक तरीके से बढ़ गया।

फिर हुक्म ये निकला कि लोग अपने-अपने होंठ सिलवा लें, क्योंकि बोलना उत्पादन में सदा से बाधक रहा है। लोगों ने काफी सस्ती दरों पर होंठ सिलवा लिए और फिर उन्हें पता कि अब वे खा भी नहीं सकते हैं। लेकिन खाना भी काम करने के लिए आवश्यक नहीं माना गया। फिर उन्हें कई तरह की चीजें कटवाने और जुड़वाने के हुक्म मिलते रहे और वे वैसा ही करवाते रहे। राज रात दिन प्रगति करता रहा।

फिर एक दिन खैराती, रामू और छिद्दू ने सोचा कि लाओं आंखें खोलकर तो देखें। अब तक अपना राज स्वर्ग हो गया होगा। उन तीनों ने आंखें खोली तो उन सबको अपने सामने राजा दिखाई दिया। वे एक दूसरे को न देख सके।

चार हाथ

क मिल मालिक के दिमाग में अजीब-अजीब ख्याल आया करते थे जैसे सारा संसार मिल हो जाएगा, सारे लोग मजदूर और वह उनका मालिक या मिल में और चीजों की तरह आदमी भी बनने लगेंगे, तब मजदूरी भी नहीं देनी पड़ेगी, बगैरा-बगैरा। एक दिन उसके दिमाग में ख्याल आया कि अगर मजदूरों के चार हाथ हों तो काम कितनी तेजी से हो और मुनाफा कितना ज्यादा। लेकिन यह काम करेगा कौन उसने सोचा, वैज्ञानिक करेंगे ये हैं किस मर्ज की दवा उसने यह काम करने के लिए बड़े वैज्ञानिकों को मोटी तनख्वाहों पर नौकर रखा और वे नौकर हो गए। कई साल तक शोध और प्रयोग करने के बाद वैज्ञानिकों ने कहा कि ऐसा असम्भव है कि आदमी के चार हाथ हो जाएं। मिल मालिक वैज्ञानिकों से नाराज हो गया। उसने उन्हें नौकरी से निकाल दिया और अपने-आप इस काम को पूरा करने के लिए जुट गया।

उसने कटे हुए हाथ मंगवाये और अपने मजदूरों के फिट करवाने चाहे, पर ऐसा नहीं हो सका। फिर उसने मजदूरों की लकड़ी के हाथ लगवाने चाहे, पर उनसे काम नहीं हो सका। फिर उसने लोहह के हाथ फिट करवा दिए, पर मजदूर मर गए।

आखिर एक दिन बात उसकी समझ में आ गई। उसने मजदूरी आधी कर दी और दुगुने मजदूर नौकर रख लिए।

कातिक

ड़े साहब के दफ्तर के सामने मुलाकातियों की अच्छी खासी भीड़ लगी हुई थी। चूंकि साहब बहुत बड़े थे इसलिए मुलाकाती भी काफी बड़े थे। वे चार-चार करके अंदर जा रहे थे और फिर किसी दूसरे दरवाजे से बाहर निकल रहे थे क्योंकि अन्दर गया आदमी इधर नहीं आता था। मुलाकातियों में एक अधेड़ उम्र की फेशनपरस्त औरत भी थी जो बार-बार अपनी साड़ी को खिसका-खिसका कर घड़ी देख रही थी। अचानक चार आदमियों की टोली अंदर ले जायी गयी और उन्हें एक कमरे में बैठा दिया गया। एक फैशनी आदमी कुत्ते का पट्टा पकड़े फैशनी लोगों के बीच आया और बोला, ‘‘ साहब उन्हीं लोगों से मिलेंगे जिन्हें सूंघ कर यह कुत्ता दुम हिलायेगा। जिन पर ये कुत्ता भौंक देगा उन लोगों को साहब से नहीं मिलने दिया जायेगा।’’

इस बात पर चारों लोग खुश हो गये। और बोले,‘‘हम लोग कुत्ते पाले हुए हैं। हमारे कुत्तें हमें सूंघते रहते हैं। हमारे जिस्मों से ऐसी खुशबू आती है जिसे कुत्ते पसंद करते हैं।’’

फैशनी आदमी ने कुत्ते का पट्टा खोल दिया। कुत्ता इन तीनों भद्र पुरुषों और एक भद्र महिला की तरफ झपटा। कुत्ते को अपनी तरफ आता देखकर ये चारों अपने चारों हाथों पर खड़े हो गये। कुत्ते ने चारों को देखा। तीनों पुरुषों को सूंघकर भौंकने लगा और महिला को सूंघकर दुम हिलाने लगा।

महिला चारों हाथों पैरों से चलती हुई आगे-आगे और कुत्ता उसे सूंघता हुआ पीछे-पीछे साहब के कमरे के अंदर चले गये।

वे तीनों भद्र पुरुष चारों हाथों पैरों पर टिके-टिके चीखने लगे, ‘‘हमारे साथ धोखा हुआ। हमें नहीं बताया गया था कि ये कौन सा महीना है।’’

ऊपर का आसमान

जोरावर सिंह ने पड़ोस के देश को शांतिदूत अर्थात् कबूतर भेजने का निश्चय किया। क्योंकि कम खर्च और नये तरीके से शांति संदेश भेजने का इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता इसलिए जोरावर सिंह अगले दिन बाजार गये। शांति दूत बन सकने लायक कबूतरों का अकेला जोड़ा बिक गया था और एक आदमी उसे घर की तरफ दिए जा रहा था। जोरावर सिंह ने उस आदमी से कहा, ‘‘तुम ये कबूतर मुझे दे दो।’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘क्यों मैं इन्हें पकाने ले जा रहा हूं।’’

जोरावर सिंह के मुंह में पानी भर आया। पर वे बोले, ‘‘तुम्हें शर्म नहीं आती शांतिदूत से अपना पेट भरोगे। लाओ तुम मेरे हाथ ये कबूतर उतने ही पैसे पर बेच दो जितने में खरीदे हों।’’

आदमी ने कहा, ‘‘खरीदे कहां हैं कबूतर वाले ने ऐसे ही दे दिए। उसने कहा, अब इन सालों का क्या करना है। ले जाओ, पकाकर खा लेना।’’

जोरावर सिंह कबूतर ले आये और अनजाने में उनकी वैसा ही सेवा करने लगे जैसी कुर्बानी के बकरे की होती है।

एक दिन ऐसा आया जब पड़ोस के देश को शांतिदूत भेज देना उन्हें बहुत जरूरी लगा और उन्होंने कबूतरों की चोंच में जैतून की टहनी पकड़ाने की कोशिश की लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि कबूतरों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। जोरावर सिंह क्रियेटिव किस्म के आदमी थे। एक-एक करके घर की सब चीजें कबूतरों की चोंच में ठूंसने का प्रयास करते रहे। आखिर तंग आकर वे कबूतरों के सामने थ्री नाट थी्र ले गये और कबूतरों ने झपट कर उसे पकड़ लिया। थ्री नाट थ्री खाली थी। और खाली चीज देना अपशगुन माना जाता है इसलिए जोरावर सिंह ने उसमें कारतूस भर दिये। थ्री नाट थ्री लेकर कबूतर खुशी-खुशी उड़े। कबूतरों ने ऊपर पहुंचते-पहुंचते फायरिंग शुरू कर दी। चिनगारियों और धुएं से ऊपर का आसमान लाल और काला हो गया।

साझा

हालांकि उसे खेती की हर बारीकी के बारे में मालूम था, लेकिन फिर भी डरा दिये जाने के कारण वह अकेला खेती करने का साहस न जुटा पाता था।

इससे पहले वह शेर, चीते और मगरमच्छ के साथ साझे की खेती कर चुका था, जब उससे हाथी ने कहा कि अब वह उसके साथ साझे की खेती करे। किसान ने उसको बताया कि साझे में उसका कभी गुजारा नहीं होता और अकेले वह खेती कर नहीं सकता। इसलिए वह खेती करेगा ही नहीं। हाथी ने उसे बहुत देर तक पट्टी पढ़ाई और यह भी कहा कि उसके हाथ साझे की खेती करने से यह लाभ होगा कि जंगल के छोटे-मोटे जानवर खेतों को नुकसान नहीं पहुंचा सकेंगे और खेती की अच्छी रखवाली हो जाएगी।

किसान किसी न किसी तरह तैयार हो गया और उसने हाथी से मिलकर गन्ना बोया।

हाथी पूरे जंगल में घूमकर डुग्गी पीट आया कि गन्ने में इसका साझा है। इसलिए कोई जानवर खेत को नुकशान न पहुंचाये नहीं तो अच्छा न होगा।

किसान फसल की सेवा करता रहा और समय पर जब गन्ने तैयार हो गये तो वह हाथी को खेत पर बुला लाया। किसान चाहता था कि फसल आधी-आधी बांट ली जाये। जब उसने हाथी से यह बात कही तो हाथी काफी बिगड़ा।

हाथी ने कहा, ‘‘अपने और पराये की बात मत करो। यह छोटी बात है। हम दोनों ने मिलकर मेहनत की थी हम दोनों उसके स्वामी हैं। आओ, हम मिलकर गन्ने खायें।’’

किसान के कुछ कहने से पहले ही हाथी ने बढ़कर अपनी सूंड़ से एक गन्ना तोड़ लिया और आदमी से कहा, ‘‘आओ खायें।’’

गन्ने का एक छोर हाथी की सूड़ में था और दूसरा आदमी में मुंह में। गन्ने के साथ-साथ आदमी हाथी के मुंह की तरफ खिंचने लगा तो उसने गन्ना छोड़ दिया।

हाथी ने कहा, ‘‘देखों, हमने एक गन्ना खा लिया।’’

इसी तरह हाथी और आदमी के बीच साझे की खेती बंट गयी।

ज-3

‘ज’ के पेट में बेहताशा गालियां भरी हुई थीं। लेकिन वे ज़बान पर नहीं आती थीं। ‘ज’ रात-दिन किसी ऐसे आदमी को तलाश में घूमता था जो उसकी ज़बान खोल सके। लेकिन कोई उसकी ज़बान न खोल सका कि वह गालियां बक सके। सब लोगों ने उससे कहा यही कहा कि धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान सिखा पढ़ा सकते हैं।, गालियां नहीं।

‘ज’ ने सबको एक ही जवाब दिया, ‘‘मैं तो सिर्फ गालियां बकना चाहता हूं।’’

‘ज’ के पेट में गालियों का अम्बार बढ़ता गया। वह बेचैन होकर रात-दिन घूमने लगा। आखिर एक दिन किसी ने उससे कहा कि जबान के डाक्टर के पास जाओ। वह तुम्हारी समस्या सुलझा सकता है।

ज़बान का डाक्टर उन दिनों अपने-आपको ‘घोड़ा डॉक्टर’ कहा करता था और गधों का इलाज करता था। ‘ज’ उसके पास पहुंचा। डॉक्टर ने ‘ज’को देखा और बताया कि वह गालियां कभी नहीं बक सकता।

‘ज’ ने बहुत परेशान होकर पूछा, ‘‘क्यों’

डॉक्टर ने जवाब दिया, ‘‘इसलिए कि तुम्हारे हाथ बंधे हुए हैं।’’

‘ज’ ने वास्तव में महसूस किया कि उसके दोनों हाथ नमस्ते करने वाली मुद्रा में जकड़े हुए हैं। ‘ज’ ने झटका देकर हाथ छुड़ा लिए तो उसके मुंह से गालियां फूलों की तरह झड़ने लगीं।

इस पतझड़ में आना –  शहर वृत्तान्त

लंदनवासी पंजाबी कवि यानी अमरजीत चंदन,
क्या तुमने कसम खाई है कि तुम जो पत्र लिखोगे उनकी लंबाई तुम्हारी कविताओं से ज्यादा न होगी।
इधर कुछ बदमाशों ने ‘पिक्चर पोस्टकार्ड’ बनाकर तुम्हारी इस कोशिश में चार चांद लगा दिए हैं। यानी तुम्हारा पिक्चर पोस्टकार्ड मिला। पढ़कर जल गया। खुदा के बंदे, दोस्तों को खत लिखा करो तो पिक्चर पोस्टकार्ड के वजूद को भूल जाया करो और मेरी तरह सफेद कागज के कई पन्ने स्याह कर डाला करो, अब तुम समय का रोना रोने लगोगे। तो समय पर एक शेर सुनो :
वक्त की डोर को थामे रहे मजबूती से
और जब छूटी तो अफसोस भी उसका न हुआ।

तो वक्त के बारे में थोड़ा निर्मम हो जाओ। अगर वक्त को ज्यादा महत्त्व दोगे तो तुम्हारे सिर पर चढ़कर बैठ जाएगा, तबला बजाएगा तब तुम क्या कर लोगे?
जहाँ तक तुम्हारे यहाँ आने की बात है, जब चाहो आओ –
खयाल खातिरे अहबाब चाहिए हर दम
अनीस ठेस न लग जाए आबगीनों को।

वैसे मेरा प्रोग्राम पूछना चाहते हो तो यह है कि शायद मई में जाना पड़े। यह अभी तक साफ नहीं है। बहरहाल तुम अप्रैल तक आ सकते हो, तब यहाँ रंगों की बहार होगी। पिछली बार तुम आए थे तो सर्दियाँ थीं और सिर्फ दो ही रंग थे। काला और सफेद। मैं नहीं कहता कि सिर्फ दो रंग खूबसूरत नहीं हो सकते। लेकिन अगर रंग ही देखने हैं तो यहाँ पतझड़ के समय आओ। जब लंबे जाड़ों के बाद पेड़ों में नए फूल और पत्ते निकलते हैं।

तुमने तो देखा ही है कि बुदापैश्त शायद यूरोप की अकेली राजधानी है जो अपने पहाड़ों के दामन में जंगलों के बड़े-बड़े टुकड़े छिपाए हुए हैं। यह भी शायद पुराने समाजवाद की ही देन है। नहीं तो बुदापेश्त भी लंदन होता। व्यावसायिकता का इतना दबाव होता कि पार्कों को छोड़कर जितनी भी हरित-पट्टी होती उस पर इमारतें खड़ी हो गई होतीं।

पिछले पतझड़ के मौसम में मैंने खासा वक्त बुदापैश्त के अंदर और ईद-गिर्द फैले जंगलों में बिताया, तुम बहुत उत्साहित न हो जाओ इसलिए यह बताना भी जरूरी है कि अकेले –
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता।
कुछ लोग कहते हैं कि पतझड़ का मौसम उदासी भरा होता है। मुझे तो ऐसा नहीं लगा। यह लगा कि शायद कोई न दिखाई देने वाला कलाकार है, शायद हवा, जो अपने हाथों में रंगों की झोली लिए एक-एक पत्ती और एक-एक फूल को ऐसे रंगों से रंग रही है जिनकी कल्पना करना भी आसान नहीं है। एक-एक पत्ती पर रंगों की ऐसी छटा देखने को मिली कि बयान से बाहर है। जंगल में पेड़ों के बदलते हुए रंग, दूर या पहाड़ के ऊपर से देखने पर ऐसे लगता है जैसे अद्भुत रंगों का बहुत बड़ा कैनवस हो। रंगों और उनके ‘शेड’ और बदलते हुए प्रभाव को कागज पर लिखना मेरे बस की बात नहीं है। भारतीय राजदूतावास के सेकेंड सेक्रेटरी त्रिपाठी जी के भाई बबलू त्रिपाठी उस जमाने में यहाँ आए हुए थे। उन्होंने उस सुंदरता को अभिव्यक्ति देने का एक तरीका खोज लिया था। रंगों की छटा को देख कर कहते थे –
“अरे यहाँ प्रसाद जी होते (मतलब जयशंकर प्रसाद) तो दसियों ‘कामायनियाँ’ लिख देते। यहाँ निराला होते तो न जाने कितनी ‘संध्या सुंदरियों’ की रचना हो जाती।”

बबलू की यह अभिव्यक्ति मुझे बहुत पसंद आई। निश्चित रूप से शहर के इतने अंदर प्रकृति का ऐसा आक्रामक रूप कहाँ देखने को मिलता है! पेड़ों के रंग काले, ऊदे, नीले, कत्थई, गहरे हरे, पीले, नारंगी, कासनी, सुर्ख, गुलाबी हो जाते हैं। अक्सर एक ही पेड़ की पत्तियाँ नीचे की डालों में ऊदी दिखाई देती हैं और ऊपरी हिस्से में लाल। कुछ पेड़ों में तो एक ही पत्ती में तीन-तीन, चार-चार तरह के रंग आपस में मिलते दिखाई देते हैं। कभी तो एक पेड़ में हवा के रूख की तरफ एक रंग दिखाई पड़ता है और उसके विपरीत कोई और रंग। फूल आम तौर पर नहीं रहते लेकिन पत्तियाँ फूलों से ज्यादा खूबसूरत हो जाती हैं। पेड़ों और पत्तियों के इन बदलते हुए रंगों के अनुसार ही शायद जंगलों में ऐसे पेड़ लगाए गए हैं जो तरह-तरह से रंग बदलते हैं। बहार के समय के रंगों को अगर ‘कन्वेंशनल’ कहा जा सकता है तो पतझड़ के समय के रंग ‘नॉन कन्वेंशनल’ होते हैं। ऐसे रंग जो शायद कलाकारों की कल्पना में होते हों तो होते हों, और कहीं नहीं देखे जा सकते। जंगल के इन रंगों में पीला रंग ज्यादा नुमाया होता है। खास तौर पर जब तुम जंगल की पगडंडियों पर चलते हो तो दूर तक पीले पत्ते बिछे दिखाई देते हैं। पीले पत्ते वाले पेड़ों के जंगल के नीचे धूप इस तरह आती है कि पीले पत्ते कुछ नारंगी हो जाते हैं। चमकने लगते हैं और धूप की आड़ी-तिरछी किरनें पत्तों के झुरमुट को चीरती नीचे तक आ जाती हैं। तब लगता है कि तुम किसी रहस्यमयी पीली गुफा में चले जा रहे हो। पतझड़ के मौसम में इस तरह के अनेकों चमत्कार होते हैं जैसे जंगल में आप घूम रहे हैं – पेड़ों के पत्तों का रंग गहरा हरा और कत्थई है, अचानक किसी मोड़ पर एक ऐसा पेड़ मिल जाता है जिसके पत्तों का रंग बिल्कुल सुर्ख है – बिल्कुल आतशी सुर्ख।

जहाँ तक शहर का सवाल है, तुम खुद देख चुके हो, लेकिन मेरी आंखों से नहीं देखा। लगभग तीन साल तक इस शहर में इसी दौरान लंदन, पेरिस, विएना, वगैरा घूमने और देखने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि अगर यूरोप में शहर हैं तो बुदापैश्त और प्राग। प्राग देखने से पहले शोरका से बात हुई तो उसने कहा था, “प्राग जरूर आओ, ये शहर नहीं है, जादू है, जादू।” प्राग जादूगर का बसाया नगर है तो बुदापैश्त प्रकृति, यानी सबसे बड़े जादूगर ने बसाया है।
दुनिया के दसियों शहरों के बीच से नदियाँ बहती हैं लेकिन बुदापैश्त के बीच बहने वाली दूना नदी की बात ही कुछ और है, जैसे –
अगरचे शैख ने दाढ़ी बढ़ाई सन की-सी
मगर वो बात कहाँ मालवी मदन की-सी।

दूना नदी शहर का एक ऐसा हिस्सा बन गई है कि वह शहर में आपके साथ-साथ रहती है। उसके एक तरफ ऊँचे हरे पहाड़ों के दरमियान से झाँकते मकान दिखाई देते हैं तो दूसरी तरफ मैदान में बसा हुआ शहर पैश्त है। कोई सौ साल से अधिक पहले दूना नदी के दो किनारों पर बसे ये शहर – यानी पहाड़ों पर बसा बुदा और मैदानी इलाके में बसा पैश्त दो शहर थे लेकिन १८७२ में इन दो शहरों की शादी हो गई थी और बुदापैश्त का जन्म हुआ था। लेकिन अब तक नदी के किनारे पहाड़ों पर बसे शहर को बुदा और दूसरी ओर के शहर को पैश्त कहते हैं। बीच से दूना नदी बल खाती हुई निकल गई हैं। उसके दोनों तरफ दो-दो सड़कें और ट्राम लाइने हैं। दूना इतनी पास लगती है कि तुम आसानी से झुककर उसके कान में कुछ कह सकते हो।

दूना मुझे अजीब रहस्यमयी-सी नदी लगती है। इतने रंग बदलती है कि हैरानी होती है कभी एकदम नीली हो जाती है कभी मटमैली-सी। कभी कुछ लाल-सी और कभी सफेद। कभी शांत, थकी-सी दिखाई देती है तो कभी चंचल और बेचैन। रात में उसके दोनों किनारे पर लगी रोशनियों और रोशन इमारतों की प्रतिच्छाया दूना में इस तरह दिखाई देती है जैसे दूना के अंदर भी एक शहर बसा हो। दिन में भी भव्य इमारतें दूना के अंदर से झाँकती दिखाई देती हैं।

हंगेरियन लोकगीतों में दूना का अपना महत्व है। जो गीत मैंने सुने हैं उनमें कहीं वह निर्मम ठंडी हवाओं का स्रोत है तो कहीं प्रेमिका कहती है कि उसका प्रेमी छलांग मारकर दूना पार कर लेता है और उसके पास आता है लेकिन आजकल तो दूना पर सात पुल हैं। जैसा कि तुमने देखा है, ये पुल लंदन पर बने पुलों जैसे निम्न कोटि के नहीं हैं। लंदन के सिर्फ एक पुल ‘टावर ब्रिज’ को छोड़ कर बाकी तो लगता है, भारतीय इंजीनियरों ने बनाए हैं। बुदापैश्त में दूना पर बने सातों पुलों का अपना-अपना चरित्र है। उन पर हंगेरियन कवियों की कविताएँ हैं और वे पुल शहर और लोगों की जिंदगी का अहम हिस्सा हैं। ‘चेन-ब्रिज’ जिस पर रात में रोशनियाँ होती हैं, उसके बारे में यहाँ एक रोचक किस्सा सुनाया जाता है। सुनो! लेकिन सुनने से पहले यह बता दूँ या शायद तुमने देखा हो, पुल के दोनों तरफ दो-दो पत्थर के शेर अपने मुँह खोले बैठे हैं। पुलों के शुरू में इस तरह के पत्थर के शेर खड़े करना शायद पुरानी यूरोपीय परंपरा है क्यों कि भारत में भी मैंने कुछ पुराने पुलों में ऐसे शेर देखे हैं। खैर जनाब, तो अब सुनिए किस्सा!

कहते हैं कि जिस आर्कीटेक्ट-इंजीनियर ने यह पुल डिज़ाइन किया था उसका दावा था कि पुल का डिजाइन आदि इतना ‘परफ़ेक्ट’ है कि कोई उसमें किसी तरह का खोट नहीं निकाल सकता। यानी आर्कीटेक्ट महोदय अपनी पीठ बार-बार ठोक रहे थे और फूलकर इतने कुप्पा हो गए थे कि बस एक छोटी-सी पिन की जरूरत थी उनकी हवा निकालने के लिए। यह काम किया एक बच्चे ने। वह अपनी माँ की उँगली पकड़े पुल पार कर रहा था। उसने मुँह खोले, दहाड़ते हुए शेर को देखा और माँ से कहा – “देखो-देखो अम्मा, शेर के मुँह में तो जबान नहीं है, कहते हैं, बच्चे द्वारा यह सामान्य गलती निकाले जाने पर आर्कीटेक्ट महोदय ने पुल से कूदकर दूना में खुदकुशी कर ली थी।
वैसे दूना जानें भी खूब लेती है। हंगरी में आत्महत्या की दर काफी ऊँची है। क्यों हैं? यह तो कोई समाजशास्त्री ही बता सकता है जिनकी यहाँ कमी नहीं है लेकिन दुर्भाग्य से मैं नहीं हूँ। तो खैर, पुलों पर से दूना में कूदकर जान देना यहाँ खुदकुशी करने का प्रचलित तरीका है। दूना पर बने एक पुल ‘मारग्रेट पुल’ पर हंगेरियन कवि यार्नोश अरन्य (१८१७-१८८२) की प्रसिद्ध कविता ‘पुल का उद्घाटन’ का यही विषय है। जिन लोगों ने दूना में डूबकर आत्महत्याएँ कर ली थीं वे पुल पर वापस आ जाते हैं।

कभी-कभी आत्महत्या करने वाले तमाशा भी कर देते हैं। एक अन्य पुल जिसे ‘फ्रीडम ब्रिज’ कहते हैं, उसके ऊपर आसनी से चढ़ा जा सकता है। कुछ आत्महत्या करने वाले ऊपर चढ़ जाते हैं। ऊपर पहुँचकर हिम्मत छूट जाती है। न तो कूद कर आत्महत्या कर पाते हैं और न उतर पाते हैं। सिर्फ चीख़ने लगते हैं। तब फायर ब्रिगेड आती है और अच्छा-खासा तमाशा हो जाता है। मज़ेदार बात यह है कि यहाँ के कानून में आत्महत्या जुर्म नहीं हैं।

खैर, तो बात हो रही थी दूना की। अगर मैं कवि होता, जैसे कि तुम हो, तो कह सकता था कि दूना शहर की प्रेमिका है जो उसकी गोद में इठलाती रहती है, मचलती रहती है, कभी रूठती और मनती है और प्रेमी उसे बहलाता रहता है। कभी प्रेमिका उसे सहलाती है और शहर उसकी आंखों में अपनी तस्वीर देखता है।

लेकिन मैं यह सब नहीं लिख सकता, पर ‘दूना प्रेमिका और शहर प्रेमी’ पर याद आया कि दिल्ली में किसी ने मुझसे पूछा था कि तुम्हें बुदापैश्त के सामाजिक जीवन में या लोगों के व्यवहार में क्या ऐसा लगा जो पसंद आया। पसंद तो पता नहीं क्या-क्या आया लेकिन मैंने बताया कि मुझे सबसे ज्यादा पसंद आया कि सार्वजनिक स्थानों, बसों, ट्रामों, मेट्रो और ट्रालियों वगैरा में जब प्रेमी और प्रेमिकाएँ साथ-साथ जाते दिखाई देते हैं तो आमतौर से प्रेमिकाएँ अपने प्रेमियों की अतिरिक्त चिंता करती या प्रेम जताती दिखाई पड़ती हैं।

मान लो कि एक लड़का और लड़की बस में साथ बैठे हैं तो तुम देखोगे कि लड़की लड़के की तरफ प्यार से देख रही है, चूम रही है, उसके बालों पर हाथ फेर रही है, उसके कपड़े ठीक कर रही है और लड़का बाहर देख रहा है। हमारे यहाँ इसका बिल्कुल उल्टा है। कारण दो समाजों के बीच जो अंतर हैं, वही हैं।

हंगेरियन लड़कियाँ कितनी सुंदर होती हैं, तुम देख चुके हो। तुमने कहा भी था कि पश्चिमी यूरोप में लड़कियां आमतौर पर ‘अनएप्रोचेबल’ लगती हैं जबकि हंगेरियन लड़कियों को देखकर ऐसा नहीं लगता। हंगेरियन लड़कियों की सुंदरता का राज मुझे यह बताया गया कि हंगेरियन लोग मूलत: एशियाई हैं। दसवीं शताब्दी में ये लोग मध्य एशिया में कहीं से यहाँ आए थे। बर्बर और घुमक्कड़ किस्म के लोग थे। एक जमाना था कि पश्चिमी यूरोप के चर्चों में ये प्रार्थनाएँ होती थीं कि ईश्वर, तू हमें हंगेरियन (हून) लोगों के तीरों से बचा। वह जमाना बीत गया। ये सब अपने बादशाह इश्तवान (९७०-१०३८) के ईसाई होने के बाद ईसाई हो गए। फिर यह देश तुर्कों के अधिकार में आ गए। फिर हब्सवुर्ग साम्राज्य का हिस्सा बन गया। तो कहने का मतलब यह है कि एशियाई और यूरोपीय सम्मिश्रण हंगेरियन जाति की विशेषता बन गया। यह तो सब ही जानते हैं कि जब दो रंग मिलते हैं तभी अच्छा रंग बनता है। यही सम्मिश्रण इनके व्यवहार और जीवन में भी दिखाई देता है। शादी करना, घर बसाना, बच्चे पैदा करना आधुनिक से आधुनिक लड़की का स्वप्न होता है। इसके साथ-साथ पश्चिमी संस्कृति की उन्मुक्तता भी काफी है लेकिन पारिवारिक रिश्ते पश्चिमी यूरोप और अमेरिका के मुकाबले यहाँ ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।

लेकिन प्यारे, हंगेरियन लड़कियों या औरतों की जिंद़गी बाहर से देखने में जितनी मुक्त और आकर्षक दिखाई देती है उतनी है नहीं। यहाँ लोग कहते हैं, हंगेरियन औरत का जीवन युवावस्था में प्रेम (आमतौर से कई) फिर शादी, एक या दो बच्चे और फिर तलाक और फिर पूरा एकाकी जीवन। यानी उम्र बढ़ने के कारण प्रेमी भी नहीं मिल पाता। पति तो पहले ही अलग हो चुके हैं, बच्चे भी अपना-अपना रास्ता नापते हैं, अब बचती है ढलती उम्र और अकेलापन। एक मित्र ने हंगेरियन औरतों पर एक लतीफा सुनाया। अगर तुम अट्ठारह-बीस साल की लड़की से कहो कि उसके लायक तुम किसी लड़के को जानते हो तो पहला सवाल यह करेगी कि देखने में कैसा है? अगर तुम यही बात पच्चीस-तीस साल की लड़की से करो तो पूछेगी कि उसके पास पैसा कितना है और अगर यही तुम चालीस साल की औरत से कहोगे तो कहेगी, कहाँ है?

यहाँ का समाज भी एक तरह से पुरूष प्रधान समाज है। अभी हाल में ही किसी हंगेरियन मित्र ने कहा कि उनके देश में हाल-फिलहाल एक महिला राजदूत बन गई है। फिर यह पूछा कि क्या भारत में औरतें इस तरह के पदों तक पहुँच पाती हैं?

खोजबीन करने तथा महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर कुछ पढ़ने का बाद यह स्पष्ट हुआ कि महिलाओं को इस देश में आमतौर से महत्वपूर्ण प्रशासनिक पद आदि नहीं मिल पाते। उन्हें छोटे-मोटे काम ही दिए जाते हैं। घरेलू हिंसा – आकाशवाणी की भाषा में गृह-कलह की घटनाएँ भी घटती रहती हैं। औरतों और मर्दों के बीच फर्क को यहाँ का एक मुहावरा दिलचस्प तरीके से सामने लाता है। मुहावरा है – ‘शैतान से थोड़ा ही कम सही लेकिन है तो आदमी।’ तो जनाबे शैतान यहाँ भी दनदना रहे हैं। पिछली सरकार ने जनाबे शैतान के काम को सरल और वैधानिक बना दिया है। वेश्यावृत्ति और समलैंगिक संबंध अब यहाँ कानूनी तौर पर अपराध नहीं हैं। सेक्स की दुकानों और टॉपलेस बारों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। रात में यहाँ का रेडलाइट एरिया नियॉन लाइटों से लिखे सेक्स और टॉपलेस के बोऱ्डों से जगमगाता रहता है। लेकिन अभी सेक्स यहाँ वैसा उद्योग नहीं बन सका है जैसा पेरिस में हैं।

बुदापैश्त एक माने में रात का शहर है। जब तुम आए थे तो सर्दियों की वजह से रातें ठंडी थीं। अगर गर्मियों में आओ तो देख सकते हो कि दूना के दोनों तरफ की इमारतें – खासतौर पर बुदा पहाड़ पर बने चर्च और महलों की जगमगाती छवि कुछ ऐसा आभास देती है जैसे काले आसमान में एक चमकता मध्ययुगीन शहर उड़ता चला जा रहा हो। ‘चेन ब्रिज’ को पूरी तरह रौशन कर दिया जाता है जो दूना नदी के गले में पड़े हीरों के हार जैसा लगता है। रात में अगर दूना नदी के किनारे वाले सबसे ऊंचे पहाड़ ‘गैलियत हिल’ पर चढ़कर देखो तो हवा में उड़ता रहस्यमय मध्यकालीन शहर और दूना के गले में पड़ा हार और अधिक स्पष्ट दिखाई देता है।

‘गैलियत हिल’ का भी एक दिलचस्प किस्सा है। जब हंगेरियन ईसाई नहीं थे तो बहुत से ईसाई प्रचारक यहाँ उनके धर्म परिवर्तन के लिए आया करते थे। उन्हीं के गैलियत (९८०-१०४६) नाम के एक इतालवी प्रचारक भी थे। वह आए और उन्होंने बताया कि उनका भगवान शक्तिमान है, आदि-आदि और फिर कहा कि हंगेरियन लोगों को चाहिए कि उनके भगवान को मानें। हंगेरियनों ने उनसे कहा कि ‘यदि तुम्हारा भगवान सब कुछ कर सकता है तो उसे मान लेंगे। लेकिन तुम्हें इसका प्रमाण देना होगा। हम लोग तुम्हें लकड़ी के एक बड़े से ड्रम में बंद कर के पहाड़ के ऊपर से लुढ़काएंगे, तुम्हारा ईश्वर यदि सब कुछ कर सकता है तो तुम्हें बचा लेगा और हम सब ईसाई हो जाएँगे। यदि तुम मर गए तो हम ईसाई नहीं होंगे, अब पता नहीं संत गैलियत इस परीक्षा के लिए तैयार हुए या नहीं। लेकिन उस जमाने के बर्बर हंगेरियन लोगों ने जैसा कहा था वैसा ही किया। परिणामस्वरूप संत गैलियत की मृत्यु हो गई। हंगेरियन ईसाई नहीं हुए लेकिन सम्राट के होने के बाद जब पूरा देश ईसाई हो गया तो उस पहाड़ का नाम ‘गैलियत पहाड़’ रख दिया गया जिस पर से संत को लुढ़काया गया था। आज उस पहाड़ पर उनकी एक विशाल प्रतिमा देखी जा सकती है जिस पर रात में रोशनी की जाती है और शहर के एक बड़े हिस्से से आप उसे देख सकते हैं।

रातें इसलिए भी सुंदर लगती हैं कि रात में देर तक सड़कों पर चहल-पहल रहती है। अकेली लड़कियां बड़ी बेफिक्री से टहलती-घूमती या आती-जाती दिखाई पड़ती है। जहाँ तक ‘लॉ एंड आर्डर’ का सवाल है, अब तक यानी पूँजीवाद के आगमन के समय भी बना हुआ है लेकिन यह पुराने समाजवादी दौर का ही प्रभाव है। अब अपराध बढ़ रहे हैं लेकिन वैसे नहीं, जैसे तुम्हारे देश में या मेरे देश में हैं। यहाँ अखबारों में छपता रहता है कि हंगेरी में ‘अंडरवर्ल्ड’ या अपराध जगत मजबूत हो रहा है लेकिन वे सब या तो रूसी लोग हैं या उक्रेनियन। कुछ अखबारों में मजाक और व्यंग्य जैसे स्वर में यह भी छपा कि ‘देखिए, हम हंगेरियन लोग कैसे हैं! हमारे अपराधी तक अपने देश में अपराध जगत का निर्माण नहीं कर सकते, उसके लिए मुक्त बाजार है।’

हंगरी या बुदापैश्त में अपराधों पर समाजवादी शासन के दौरान जो सख्त रोक लगी थी उसने अपराधियों का सफ़ाया कर दिया था। अब आयात हो रहे हैं। हंगेरियन लोग, अगर तुम मुझसे कसम दिलाकर भी पूछोगे तो भी यही कहूँगा कि बहुत सीधे और शरीफ लोग हैं। आम हंगेरियन धोखा देना तक नहीं जानता। वे ईमानदार लोग हैं। कुछ ‘रिजर्व’ लग सकते हैं पर परिचय के बाद वह भाव खत्म हो जाता है। मुझे यहाँ एक बार बैंक में चार सौ डॉलर फालतू दे दिए गए। फिर वैसे ही फोन किया गया कि आपको चार सौ डॉलर फालतू दे दिए गए हैं। आप लौटा दीजिए।

सीधेपन के बावजूद हंगेरियन लोगों और यहाँ के समाज में मैंने पाया कि अच्छे खासे लोग ‘एंटी सेमैटिक’ हैं यहूदियों के खिलाफ एक दबी हुई भावना हैं। क्यों हैं? उसका पता लगाने की भी मैंने अपने तौर पर कोशिश की है। सुनो, कहना यह है कि यहूदी इतने संगठित हैं तथा एक-दूसरे का इतना ध्यान रखते हैं कि अक्सर फ़ैसले सही नहीं हो पाते। बताया जाता है कि यदि एक संगठन में यहूदी ऊंचे पदों पर होते हैं तो पूरे संगठन में यहूदियों को भर देते हैं। यह काम इतने निर्मम ढंग से किया जाता है कि दूसरे लोग अपमानित महसूस करते हैं। कहते हैं कि हंगेरियन मीडिया तथा बौद्धिक जगत पर भी यहूदियों का कब्जा है तथा उसमें किसी यहूदी के दाखिल होने और ख्याति पाने की संभावनाएँ जितनी अधिक हैं उतनी अन्य हंगेरियन लोगों की नहीं हैं।

यही कारण है कि मैंने यहाँ कुछ लोगों को यहूदियों का विरोध पाया। हद यह है कि कुछ इस हद तक आ गए हैं कि हंगेरियन यहूदियों को हंगरी से बाहर निकाल देने की बात कहते हैं। इस पर अन्य कुछ लोगों का कहना है कि यदि हंगरी से यहूदी बुद्धिजीवियों को निकाला गया तो यहाँ तो कोई बुद्धिजीवी न बचेगा। यहूदियों के खिलाफ ही नहीं बल्कि जिप्सियों, अरबों तथा चीनियों के विरूद्ध भी वातावरण बनाने का प्रयास हो रहा है। अंध-राष्ट्रवादी शक्तियाँ यहाँ उतनी तो नहीं जितनी कुछ अन्य देशों में, पर फिर भी उभरकर सामने आ रही हैं। राजनीति और समाज में उनकी आहटों को सुना जा सकता है।

भारतीय मूल के जिप्सियों या रोमा लोगों से मिलने तथा उन्हें देखने-समझने के मैंने कुछ प्रयत्न किए हैं जिसका हाल-अहवाल किसी अगले पत्र में लिखूँगा। अभी लिखने का मन नहीं है क्यों कि पड़ोस के किसी फ्लैट से कुत्ते की रोने की चीत्कार की आवाज़ें आ रही हैं। कोई अपने कुत्ते को फ्लैट में बंद करके चला गया है। कुत्ता बहुत जोर-जोर से रो रहा है। वैसे आमतौर पर यहाँ कुत्तों के साथ मानवीय या अति-मानवीय व्यवहार की परंपरा है।

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डॉ राम कुमार वर्मा https://sahityaganga.com/%e0%a4%a1%e0%a5%89-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%ae-%e0%a4%95%e0%a5%81%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0-%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%be/ Tue, 17 May 2016 10:37:31 +0000 http://sahityaganga.com/?p=7141  परिचय

जन्म: 15 सितम्बर 1905
निधन: 1990
जन्म स्थान :सागर, मध्यप्रदेश
प्रमुख कृतियाँ
 काव्य में -अंजलि, हिमहास, निशीथ, जौहर, चित्तौड़ की चिंता एकांकी संग्रह-‘पृथ्वीराज की आँखें’, ’रेशमी टाई’, ’चारुमित्रा’, ’विभूति’, ’सप्तकिरण’, ’रूपरंग’, ’रजतरश्मि’, ’ऋतुराज’, ’दीपदान’, ’रिमझिम’, ’इंद्रधनुष’, ’पांचजन्य’, ’कौमुदी महोत्सव’, ’मयूर पंख‘, ’खट्टे-मीठे एकांकी’, ’ललित एकांकी’, ’कैलेंडर का आखिरी पन्ना’, ’जूही के फूल’। नाटक-’विजय पर्व’, ’कला और कृपाण’, ’नाना फड़नवीस’, ’सत्य का स्वप्न’। काव्य-’चित्ररेखा’, ’चंद्रकिरण’, ’अंजलि’, ’अभिशाप’, ’रूपराशि’, ’संकेत’, ’एकलव्य’, ’वीर हम्मीर’, ’कुल-ललना‘, ’चित्तौड़ की चिता’, ’निशीथ’, ’नूरजहां शुजा’, ’जौहर’, ’आकाशगंगा’, ’उत्तरायण’, ’कृतिका’। गद्यगीत संग्रह-’हिमालय’। आलोचना एवं साहित्येतिहास-’कबीर का रहस्यवाद’, ’इतिहास के स्वर’, ’साहित्य समालोचना’, ’साहित्य शास्त्र’, ’अनुशीलन’, ’समालोचना समुच्चय’, ’हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ एवं ’हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’। संपादन-’कबीर ग्रन्थावली’।

विशेष

डॉ0 रामकुमार वर्मा का जन्म 15 सितम्बर, 1905 को मध्यप्रदेश में सागर के एक अत्यंत कुलीन और धर्मपरायण परिवार में हुआ। उनके पिता श्री लक्ष्मीप्रसाद वर्मा डिप्टी कलेक्टर थे। वह बड़ी प्रगाढ़ सांस्कृतिक अभिरुचि वाले व्यक्ति थे और नगर में आई विभिन्न नाटक मंडलियों द्वारा रामलीला और रासलीला के प्रसंगों का घर पर ही मंचन कराते थे। भारतीय मनीषा के संवाहक डॉ0 रामकुमार वर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी सर्जक थे। अपने विपुल कृतित्व से उन्होंने हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं को समृद्ध किया। वह श्रेष्ठ कोटि के चिंतक और विचारक तो थे ही, उन्होंने कविता और नाट्य विधाओं का विशेष रूप से संवर्धन किया। एकांकी नाट्य लेखन में अपने अभिनव प्रयोगों और सृजन से वह समकालीन हिन्दी साहित्य में ‘एकांकी सम्राट’ के रूप में समादृत हुए। डॉ0 वर्मा की सुकुमार संवेदनाओं पर इन आयोजनों का बड़ा प्रभाव पड़ा और यहीं से उनके सांस्कृतिक सरोकार उनकी अंतश्चेतना में उतरते गए। उनकी माता श्रीमती राजरानी देवी अपने समय की प्रतिष्ठित कवयित्री और संगीतज्ञा थीं और उनसे उन्होंने कविता तथा संगीत के प्रति विशेष अनुराग के गुणों को आत्मसात किया। कवि, नाटककार और आलोचक के रूप में डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपने साहित्य सृजन के लिए नए आयाम खोजे। कविता में वे साधक की भूमिका में आए। अपने जीवनानुभवों से नाटकों की विषय-वस्तु तैयार की। चिंतन-मनन की तटस्थ अभिव्यक्ति ने उनके आलोचकीय व्यक्तित्व की मुद्राएँ तय कीं। इन सभी रूपों में उन्होंने हिंदी साहित्य को जो कृतियाँ सौंपी वे इस प्रकार हैं-हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों में भी उनका नाम अग्रिम पंक्ति में आता है। डॉ0 वर्मा अपने उर्वर जीवन में 101 कृतियों से हिन्दी साहित्य की समग्र विधाओं को श्रीमंडित कर 5 अक्टूबर, 1990 को दिवगंत हो गए।

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

सोने-चाँदी से नहीं किंतु

तुमने मिट्टी से दिया प्यार ।

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
जन कोलाहल से दूर-

कहीं एकाकी सिमटा-सा निवास,

रवि-शशि का उतना नहीं

कि जितना प्राणों का होता प्रकाश

श्रम वैभव के बल पर करते हो

जड़ में चेतन का विकास

दानों-दानों में फूट रहे

सौ-सौ दानों के हरे हास,

यह है न पसीने की धारा,

यह गंगा की है धवल धार ।

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
अधखुले अंग जिनमें केवल

है कसे हुए कुछ अस्थि-खंड

जिनमें दधीचि की हड्डी है,

यह वज्र इंद्र का है प्रचंड !

जो है गतिशील सभी ऋतु में

गर्मी वर्षा हो या कि ठंड

जग को देते हो पुरस्कार

देकर अपने को कठिन दंड !

झोपड़ी झुकाकर तुम अपनी

ऊँचे करते हो राज-द्वार !

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
ये खेत तुम्हारी भरी-सृष्टि

तिल-तिल कर बोये प्राण-बीज

वर्षा के दिन तुम गिनते हो,

यह परिवा है, यह दूज, तीज

बादल वैसे ही चले गए,

प्यासी धरती पाई न भीज

तुम अश्रु कणों से रहे सींच

इन खेतों की दुःख भरी खीज

बस चार अन्न के दाने ही

नैवेद्य तुम्हारा है उदार

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
यह नारी-शक्ति देवता की

कीचड़ है जिसका अंग-राग

यह भीर हुई सी बदली है

जिसमें साहस की भरी आग,

कवियो ! भूलो उपमाएँ सब

मत कहो, कुसुम, केसर, पराग,

यह जननी है, जिसके गीतों से

मृत अंकर भी उठे जाग,

उसने जीवन भर सीखा है,

सुख से करना दुख का दुलार !

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
ये राम-श्याम के सरल रूप,

मटमैले शिशु हँस रहे खूब,

ये मुन्न, मोहन, हरे कृष्ण,

मंगल, मुरली, बच्चू, बिठूब,

इनको क्या चिंता व्याप सकी,

जैसे धरती की हरी दूब

थोड़े दिन में ही ठंड, झड़ी,

गर्मी सब इनमें गई डूब,

ये ढाल अभी से बने

छीन लेने को दुर्दिन के प्रहार !

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !
तुम जन मन के अधिनायक हो

तुम हँसो कि फूले-फले देश

आओ, सिंहासन पर बैठो

यह राज्य तुम्हारा है अशेष !

उर्वरा भूमि के नये खेत के

नये धान्य से सजे वेश,

तुम भू पर रहकर भूमि-भार

धारण करते हो मनुज-शेष

अपनी कविता से आज तुम्हारी

विमल आरती लूँ उतार !

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

 

रजनीबाला

 

इस सोते संसार बीच
जग कर सज कर रजनी बाले!
कहाँ बेचने ले जाती हो,
ये गजरे तारों वाले?

मोल करेगा कौन
सो रही हैं उत्सुक आँखें सारी
मत कुम्हलाने दो,
सूनेपन में अपनी निधियाँ न्यारी

निर्झर के निर्मल जल में
ये गजरे हिला हिला धोना
लहर लहर कर यदि चूमे तो,
किंचित् विचलित मत होना

होने दो प्रतिबिम्ब विचुम्बित
लहरों ही में लहराना
‘लो मेरे तारों के गजरे’
निर्झर-स्वर में यह गाना

यदि प्रभात तक कोई आकर
तुम से हाय! न मोल करे!
तो फूलों पर ओस-रूप में,
बिखरा देना सब गजरे

 

अछूत

 

“तू अछूत है – दूर !” सदा जो कह चिल्लाते
“मुझे न छू” कह नाक-भौंह जो सदा चढ़ाते
दिन में दो-दो बार स्नान हैं करने वाले
ऊपर तो अति शुद्ध किन्तु है मन में काले
वे पंडित जी समझते हैं, पापी यही अछूत हैं
किन्तु समझते हैं नहीं, एकलव्य के पूत हैं

ये अछूत यदि काम आज से छोड़ें
अत्याचारी उक्त जनों के हाथ न जोड़ें
प्रतिदिन इनके सदन झाड़ना यदि वे त्यागें
वे भी अपना जन्म-स्वत्व यदि निर्भय माँगें
तो फिर लगाने न पायेंगे, तिलक विप्र जी माथ में
बस, लेना ही पड़ जायगी, डलिया-झाड़ू हाथ में

इसीलिए मत शीघ्र मान लें गांधी जी का
यह समाज है अंग हमारे जीवन का ही
भेद-भाव सब दूर हटा कर गले लगाओ
इन्हें शुद्र मत कहो पास इनको बिठलाओ
धरा सजाने के लिए यही स्वर्ग के दूत हैं
भाई हैं अपने सदा, नहीं दरिद्र अछूत हैं
फूलवाली

 

फूल-सी हो फूलवाली।
किस सुमन की सांस तुमने
आज अनजाने चुरा ली!
जब प्रभा की रेख दिनकर ने
गगन के बीच खींची।
तब तुम्हीं ने भर मधुर
मुस्कान कलियां सरस सींची,
किंतु दो दिन के सुमन से,
कौन-सी यह प्रीति पाली?
प्रिय तुम्हारे रूप में
सुख के छिपे संकेत क्यों हैं?
और चितवन में उलझते,
प्रश्न सब समवेत क्यों हैं?
मैं करूं स्वागत तुम्हारा,
भूलकर जग की प्रणाली।
तुम सजीली हो, सजाती हो
सुहासिनि, ये लताएं
क्यों न कोकिल कण्ठ
मधु ॠतु में, तुम्हारे गीत गाएं!
जब कि मैंने यह छटा,
अपने हृदय के बीच पा ली!
फूल सी हो फूलवाली।

 

पर तुम मेरे पास न आये।


देखो, यह खिल उठी जुही
यौवन के विकसित अंग छिपाये,
निराकार प्रेमी समीर
आया है सौरभ-साज सजाये,
मैंने कितनी बार साँस के–
शत सन्देश स्वयं दुहराये,
तारे हैं अपने दृग तारों–
की धाराओं पर तैराये।
पर तुम मेरे पास न आये॥
कोकिल की कोमल पुकार ने
पुष्प-शरीर वसन्त बुलाये,
उषा-बाल की प्रभा देख
बादल ने कितने वेष बनाये!
मैंने कितने रूप रखे पर
क्या न तुम्हें वे कुछ भी भाये?
जीवन मे साँसों की गति से
कितनी हूँ मैं व्यथा छिपाये!
पर तुम मेरे पास न आये.

 

मेरे उपवन की बाला।
आया द्वार वसन्,

सुरभि पाने, नव कुसुमित मुख वाला॥

नभ के दर्पण में अंकित है
विमल तुम्हारा ही प्रतिबिम्ब।
सभी दिशाओं ने पहनी है
आज तुम्हारी ही माला॥
सुरभि-सजे नव स्वच्छ शरद–
बादल का ले लघुतम परिधान।
शीतल करने आई हो
जलते जग की जीवन-ज्वाला?
प्रकृति प्रकट हो खोज रही थी
पुरुष-प्रणय का दिव्य विधान।
श्वेताक्षर में किसने लिख यह
रूप तुम्हें ही दे डाला?
ज्योत्स्ना का यह शस्य आज,
मेरे जीवन में करे विलास।
जुही, तुम्हारी माला शोभित–
हो जग में बन वनमाला॥
मेरे उपवन की बाला।

 

मेरे उपवन के अधरों में,
है वसन्त की मृदु मुस्कान।
मलय-समीरण पाकर कोकिल,
गा जीवन का मधुमय गान॥
नवल प्रसूनों में फूटा है,
केवल दो क्षण का अभिमान।
(लघुतम दो क्षण का अभिमान)
दो क्षण में ही छू आई है
सुरभि विश्व के अगणित प्राण॥
(सुरभि विश्व के पुलकित प्राण)
इतना-सा जीवन पर कितना
विस्तृत है जीवन का गान।
मेरे जीवन के अधरों में
है मेरे सुख की मुस्कान॥

 

चारूमित्रा – एकांकी

 

 

स्‍थान : कलिंग का शिविर

काल : ईसा पूर्व 261

पात्र

सम्राट अशोक : मगध के सम्राट

तिष्‍यरक्षिता : सम्राट अशोक की रानी

उपगुप्‍त : बौद्ध भिक्षु तथा आचार्य

चारुमित्रा : तिष्‍यरक्षिता की परिचारिका -1

स्‍वयंप्रभा : तिष्‍यरक्षिता की परिचारिका -2

राजुक : द्वार-रक्षक

पुष्‍य : शिविर-रक्षक

स्‍त्री, प्रहरी आदि

 

[261 ई.पू. सम्राट अशोक ने अपने शासन के तेरहवें वर्ष में कलिंग पर चढ़ाई कर दी है। उसका कारण यह है कि कलिंग-नरेश सम्राट अशोक की सत्ता स्‍वीकार करने में अपना अपमान समझते रहे हैं। उसने भारत के बाहर भी उपनिवेश स्‍थापित कर रखे हैं। सम्राट अशोक को यह सहन नहीं हो सकता। उसने उज्‍जैन और तक्षशिला में आत्‍माभिमान की जो दीक्षा प्राप्‍त की है, वह कलिंग-नरेश के स्‍वातंत्र्य-प्रेम से समझौता नहीं कर सकती। और जब अशोक ने महाराज चंद्रगुप्‍त के वंश में जन्‍म लिया है, तो वह कैसे अपने अधिकार में आँख मूँद सकता है? इस समय उसका राज्‍य उत्तर में हिंदूकुश से लेकर दक्षिण में पेनार नदी तक है और पश्चिम में अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक। सिर्फ कलिंग एक मतवाले नाग की तरह सिर उठाए हुए विषम दृष्टि से अशोक की ओर देखता है। अशोक उस नाग का सिर कुचलना चाहता है। उसने दो वर्ष पहले कलिंग पर चढ़ाई कर दी है।

उसकी सैन्‍य-शक्ति अपार है। पैदल, घुड़सवार, रथ और हाथियों को उसने कलिंग की सीमा पर अड़ा दिया है। वे आगे बढ़ते चले जा रहे हैं। सम्राट अशोक स्‍वयं सैन्‍य-संचालन करते हैं। उनका शिविर उनकी सेनाओं के साथ है। वे युद्ध के अतिरिक्‍त किसी भी विषय पर बात नहीं करना चाहते। उनका व्‍यक्तित्‍व दृढ़ और तेजस्‍वी है। ऊँचा कद और भरे हुए अंग, जिन पर शस्‍त्र सजे हुए हैं, एक बड़ी ढाल उनकी पीठ पर कसी हुई है और तलवार उनके हाथ का भाग बन गई है। सुंदर मुखाकृति, जिसमें अभिमान और उत्‍साह का चित्र शक्ति की रेखाओं से खिंचा हुआ है। मस्‍तक पर शिरस्‍त्राण और कानों में कुंडल, भौंहें मिली हुई और ओठ कसे हुए। शरीर पर सटा हुआ वस्‍त्र। चाल में सतर्कता और दृढ़ता। वे अपने व्‍यक्तित्‍व के प्रभाव से ही कुछ क्षणों तक विपक्षी को अप्रतिम बना देते हैं और अपनी विजय को विपक्षी की मृत्‍यु की रेखाओं से ही गिनते हैं। वे दया के अनुकूल नहीं – क्रूरता के प्रतिकूल नहीं।

उनका शिविर इस समय गोदावरी तट पर है। दूर पानी के बहने और शिलाओं से टक्‍कर खाने की आवाज है। शिविर के चारों ओर लताओं और गुल्‍मों का जाल है। समस्‍त वातावरण में शांति और सौंदर्य है, जो कभी किसी सैनिक की ललकार से या पक्षी के तीखे स्‍वर से भंग होता है लेकिन फिर शांत हो जाता है – जैसे एकाकी मार्ग में चलती हुई कोई स्‍त्री ठोकर खाने से चीख उठे लेकिन फिर अपने मार्ग पर चलने लगे। शिविर के पदों पर शस्‍त्र त्रिकोण में या लंबी रेखाओं के रूप में सजे हुए हैं। जगह-जगह युद्ध के वस्‍त्र टँगे हुए हैं।

इस समय शाम के छह बजे हैं। सम्राट अशोक युद्ध से नहीं लौटे। उनकी रानी तिष्यरक्षिता शिविर में बैठी हैं। या तो सम्राट अशोक ही महारानी तिष्‍यरक्षिता को अपने साथ युद्ध-कौशल दिखाने के लिए ले आए हैं या सम्राट का वियोग सहन न कर सकने के कारण उनकी कुशल-कामना करते हुए, उन्‍हें अपने दृष्टि-पथ में रखने के लिए ही तिष्‍यरक्षिता सम्राट अशोक के साथ चली आई हैं। इस समय वह अपने कक्ष में बैठी हुई चित्र बना रही हैं। शिविर के कक्ष में ऐश्‍वर्य बरस रहा है। स्‍तंभों में स्‍वर्ण-लताएँ लिपटी हैं और उन पर रत्‍नों के फूल हैं, जो प्रकाश में ज्‍योति-मंडल बन जाते हैं। नीलम और मोतियों की झालरों से कक्ष की दीवारों पर समुद्र की फेनिल लहरों का आभास उत्‍पन्‍न किया गया है। पीछे एक महराव है, जिसके दोनों ओर एक-एक हाथी घुटने टेके हुए हैं। चारों ओर दीप-स्‍तंभ हैं, जिनमें दीपक जल रहे हैं। और उसी स्‍तंभ में फूल के आकार के पात्र से सुगंध-धूम निकल रहा है। कक्ष के बीच में एक ऊँचा और सजा हुआ आसन है। उससे हट कर कोने की ओर चार छोटे-छोटे कुर्सीनुमा आसन हैं। उन आसनों में से एक पर तिष्‍यरक्षिता बैठी हुई है। उसके सामने चित्र-फलक पर एक अधबनी तस्‍वीर है, जिसमें प्रकृति का सौंदर्य अपनी पूर्णता के लिए तिष्‍यरक्षिता की तूलिका में से उतर रहा है।

कमरे में निस्‍तब्‍धता है। तिष्‍यरक्षिता चित्र बनाने में लीन है। रुककर एक ही स्‍थान पर खड़ी रहकर वह भिन्‍न-भिन्‍न कोणों से चित्र की ओर देख रही है। दो क्षणों तक चित्र देखने के बाद, वह अपनी तूलिका से दीप-स्तंभ के पात्र पर शब्‍द करती है। एक परिचारिका प्रवेश कर दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करती है।]

तिष्‍यरक्षिता : चारु! देख, यह चित्र कितना अच्‍छा बन रहा है !
चारुमित्रा : बहुत अच्‍छा, महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : चारु! मैंने चाहा कि इसी जगह की प्रकृति का चित्र बना लूँ। यहाँ रहते-रहते ये पेड़, ये झुरमुट, ये फूल, मुझे बहुत अच्‍छे लगने लगे हैं। लता खिलती है तो मालूम होता है जैसे उसके सुहाग के दिन आए हैं। और गोदावरी तो ऐसे बहती है, जैसे किसी के छूने पर उसे रोमांच हो आया है। तुझे भी तो यह जगह अच्‍छी लगी होगी?
चारुमित्रा : हाँ महारानी! मुझे बहुत अच्‍छी लगती है।
तिष्‍यरक्षिता : तब तो यह युद्ध समाप्‍त हो जाने दे। फिर तेरा विवाह इसी जगह रचाऊँगी। इन्‍हीं पेड़ों के नीचे मंडप होगा और इन्‍हीं फूलों से मेरी माँग भरूँगी।
चारुमित्रा : महारानी! आपका चित्र बहुत अच्‍छा बना है!
तिष्‍यरक्षिता : तू अपने विवाह की बात इस तरह उड़ा देना चाहती है? इसी चित्र में तेरे विवाह का भी चित्र होगा।
चारुमित्रा : महारानी! आप अपनी तूलिका को कष्‍ट न दें। आपकी कला हम लोगों के लिए बहुत ऊँची है।
तिष्‍यरक्षिता : तू बहुत मीठी बातें करती है चारु! लेकिन मेरी कला जीवन के हर एक चित्र को अपना अंग समझती है। यही दृश्‍य देख – कितना साधारण है पर मुझे तो बहुत प्रिय है।
चारुमित्रा : यह तो यहीं पास के कुंज का चित्र है।
तिष्‍यरक्षिता : हाँ, चारु! मैं कल वहाँ गई थी महाराज के साथ। वे न जाने कैसे हो गए हैं! हर समय युद्ध की बातें करते हैं। तेरे कलिंग देश पर जब से उन्‍होंने चढ़ाई कर दी है तब से तो सारा राज्‍य-कार्य महामात्रों पर ही छोड़ रखा है। आज दो वर्ष पूरे होने जा रहे हैं और कलिंग पर उनका क्रोध वैसा ही बना हुआ है!
चारुमित्रा : यह मेरे देश का दुर्भाग्‍य है!
तिष्‍यरक्षिता : मैं चाहती हूँ, चारु! कि यह लड़ाई शीघ्र ही समाप्‍त हो जाय। सच मान, यह युद्ध मुझे अच्‍छा नहीं लगता। हमारे सुख और शांति के जीवन में जहाँ हँसी का फूल खिलना चाहिए, वहाँ आह और कराह काँटे की तरह चुभ जाती है। च्‍छा ‍य तब से तो सारा राज्‍य
चारुमित्रा : महारानी! लड़ाई में यही आह और कराह तो तलवार का संगीत बनती है।
तिष्‍यरक्षिता : अच्‍छा, चारु! यह बता, तूने कभी लड़ाई लड़ी है?
चारुमित्रा : नहीं, महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : तू जानती ही नहीं, लड़ाई किसे कहते हैं? जीवन भी तो एक लड़ाई है। पुरुष की स्‍त्री से लड़ाई, स्‍त्री की पुरुष से लड़ाई। स्‍त्री-पुरुष की पुरुष-स्‍त्री से लड़ाई! तूने कभी लड़ाई लड़ी ही नहीं?
चारुमित्रा : नहीं, महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : विवाह होने से पहले इसका अभ्‍यास अवश्‍य कर ले!
चारुमित्रा : जी, महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : और चारु! मैं भी महाराज से लड़ना चाहती हूँ। वे यह युद्ध बंद कर दें। मुझे यह अच्‍छा नहीं लगता। कितने वीरों का नित्‍य रक्‍तपात होता है। आज जिन वीरों से देश की उन्‍नति होती, वही व्‍यर्थ मर रहे हैं – जो वीर मिट्टी छूकर सोना बनाते, वही आज मिट्टी हो रहे हैं!
चारुमित्रा : सच है, महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : लेकिन कलिंग के लोग लड़ना भी अच्‍छी तरह जानते हैं, नहीं तो मगध की सेना के सामने कौन टिक सकता है? दो वर्षों से तो यह लड़ाई चल रही है!
चारुमित्रा : अभी बहुत वर्षों तक चलेगी, महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : [आवेश से] क्‍या-क्‍या चारु! तू महाराज की शक्ति का अपमान करती है?
चारुमित्रा : महारानी! क्षमा कीजिए। इसमें महाराज की शक्ति का अपमान नहीं है। मेरे कलिंग के लोग वीर हैं! वे माता की तरह अपनी भूमि का आदर करते हैं। जब तक एक भी वीर है, तब तक तो कलिंग की जय का घोष वायु को सहन करना ही होगा!
तिष्‍यरक्षिता : तू विद्रोह की बातें करती है, चारु!
चारुमित्रा : महारानी! मैं विद्रोह की बातें नहीं करती, मैं अपने देश के गौरव की बातें कह रही हूँ।
तिष्‍यरक्षिता : तब तो तू महाराज के साथ विश्‍वासघात कर सकती है!
चारुमित्रा : महारानी! मैंने महाराज की सेवा उस समय से की है, जब उनका राज्‍याभिषेक भी नहीं हुआ था। आपके चरणों की छाया में बड़ी हुई हूँ। जब मैं महाराज की सेवा में कलिंग से आई थी, तब तो युद्ध की बात नहीं थी! आज मेरा देश कलिंग संकट में है, तो महारानी! मुझे उसके संबंध में कुछ कहने की आज्ञा भी नहीं मिलेगी?
तिष्‍यरक्षिता : चारु! तुझे पूरी आज्ञा है, किंतु मैं महाराज का अपमान सहन नहीं कर सकती।
चारुमित्रा : संसार में उनका अपमान करने की क्षमता किसी में नहीं है, महारानी! और मैं तो उनकी आजन्‍म सेविका हूँ।
तिष्‍यरक्षिता : लेकिन जब से कलिंग-युद्ध आरंभ हुआ है, तब से मैं महारानी होकर भी तुझसे डरती हूँ।
चारुमित्रा : महारानी, आप मुझे आत्‍म-हत्‍या की ओर प्रेरित करती हैं।
तिष्‍यरक्षिता : [हँसकर] मैं तो तुझसे हँसी कर रही थी, चारु! तू भी कभी हमसे विश्‍वासघात कर सकती है? चारु! मुझे प्‍यास लग रही है।
चारुमित्रा : जो आज्ञा [कोने से पात्र भर कर देती है।]
तिष्‍यरक्षिता : [दो घूँट पीकर] लेकिन चारु! यह युद्ध मुझे नहीं चाहिए। कितने दिनों से इस शिविर में रहते हुए जैसे मेरा सुख सपना बनता जा रहा है! महाराज का वियोग सहन कर सकती, तो चारु! मैं पाटलीपुत्र से कलिंग के इस शिविर में न आती। रात्रि में युद्ध की समाप्ति पर उनके दर्शन कर लेती हूँ तो जैसे फिर युवती बन जाती हूँ। आज कहूँगी कि वे कलिंग का युद्ध बंद कर दें। वीरों को स्‍वतंत्र साँस लेने देना भी तो दया की क्रूरता पर विजय है। मुझे तो इस विजय पर ही संतोष है।
चारुमित्रा : आप देवी हैं।
तिष्‍यरक्षिता : फिर बतला क्‍या उपाय करूँ, चारु? महाराज तक्षशिला में रह कर बड़े क्रूर बन गए हैं। कहते हैं, पूज्‍य पितामह जिन्‍होंने निकेटर सिल्‍यूकस की प्रचंड सेना का नाश कर दिया था, जिन्‍होंने अलक्षेंद्र के राज्‍य की दिशा बदल दी थी, तक्षशिला के ही तो विद्यार्थी थे। पितामह के योग्‍य पौत्र बनने का आदर्श जो है उनके सामने।
चारुमित्रा : हाँ, महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : अच्‍छा, चारु! आज महाराज से एक बात पूछूँगी कि आपके पूज्‍य पितामह ने तो सेल्‍यूकस पर विजय पाकर उनकी सुंदरी कन्‍या पर भी विजय पाई थी। क्‍या आपकी विजय में किसी…
चारुमित्रा : महारानी! क्षमा करें। कलिंग देश वीरों का देश है, कन्‍याओं का नहीं।
तिष्‍यरक्षिता : क्‍या कलिंग देश में कन्‍याएँ होती ही नहीं? चारु! तू तो अपने देश की प्रशंसा करते-करते ऊबती नहीं। महाराज की प्रशंसा क्‍यों नहीं करती जिन्‍होंने कलिंग से युद्ध होने पर भी कलिंग देश की सेविका को अपने देश से नहीं निकाला।
चारुमित्रा : महारानी! महाराज अशोक सम्राट हैं। मेरे यहाँ रहने से उनका क्‍या बिगड़ता-बनता है!
तिष्‍यरक्षिता : आचार्य चाणक्‍य ने शत्रु के विषय में क्‍या कहा है, जानती है? कहा है – शत्रु कभी छोटा नहीं होता।
चारुमित्रा : महारानी! मैं अपने पद से अलग होने की आज्ञा चाहती हूँ।
तिष्‍यरक्षिता : [हँसकर] बस, बुरा मान गई! बात-बात पर आज्ञा चाहती है। अरे, तू सेविका होकर भी मेरी सखी है। अच्‍छा देख, मेरा चित्र और ध्‍यान से देख!
चारुमित्रा : [ध्‍यान से देखते हुए] महारानी, आपने तो टूटे हुए वृक्ष बनाए हैं और उनमें लाल रंग भर दिया है।
तिष्‍यरक्षिता : बतला, इसमें क्‍या रहस्‍य है?
चारुमित्रा : मैं चित्रकला नहीं जानती, महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : अरे, यह तो साधारण समझ की बात है। यह चित्र मैं महाराज को दिखलाना चाहती हूँ। उनसे कहूँगी, देखिए आपने कलिंग के वीरों को तो रक्‍त से नहला ही दिया है, अब आपकी तलवार इन बेचारे वृक्षों पर भी पड़ी है और उनकी शाखाओं और टहनियों से रक्‍त निकल रहा है।
चारुमित्रा : महारानी! आपकी बात की थाह नहीं ली जा सकती।
तिष्‍यरक्षिता : चारु!
चारुमित्रा : महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : महाराज अभी नहीं आए?
चारुमित्रा : नहीं, महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : देख यह गोदावरी का सुरम्‍य तट, ये पानी की लहरें जैसे सौंदर्य की मालाएँ हों जो अपने आप गुँथ कर बड़ी होती है और तट पर किसी का हृदय न पाकर टूट जाती हैं!
चारुमित्रा : हाँ महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : और ये जो पक्षी उड़ते चले जा रहे हैं जैसे प्रेम की ग्रंथियाँ हैं, जिन्‍होंने आकाश में उड़ना सीख लिया है। अच्‍छा सुन, यह समस्‍त वातावरण तेरा नाच देखना चाहता है। तू नाच सकेगी?
चारुमित्रा : जो आज्ञा, महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : जा, जल्‍दी पैरों में संगीत भर ला!

[चारु जाती है। तिष्‍य थोड़ी देर प्रकृति की ओर देखती है, फिर अपने चित्र के पास आकर तूलिका उठाती है और उसमें रंग भरने लगती है। धीरे-धीरे गाती जाती है –

अलि पहचान गया कली को!

[चारु पैरों में नूपुर पहन कर आती है और तिष्‍य के सामने खड़ी होती है।]

चारुमित्रा : आज्ञा है?
तिष्‍यरक्षिता : मेरी और उस कली की भी जो नाच के साथ खिलना चाहती है।

[चारु प्रणाम कर नृत्‍य करती है। कुछ समय तक नृत्‍य होता है। तिष्‍य तन्‍मय होकर देखती है, कभी बीच में प्रशंसा करती जाती है। अकस्‍मात ‘महाराज अशोक की जय’ का घोष। नृत्‍य रुक जाता है। तिष्‍य चारु को देखती है और चारु तिष्‍य को। ‘महाराज अशोक की जय’, ‘सम्राट अशोक की जय’। शीघ्रता से एक परिचारिका का प्रवेश।]

परिचारिका : महारानी! महाराज शिविर से लौट रहे हैं।

[जाती है।]

चारुमित्रा : महारानी! अब क्‍या होगा?
तिष्‍यरक्षिता : कुछ नहीं। तू अपने नूपुर उतार दे।
चारुमित्रा : [सिर हिलाकर] जो आज्ञा।

[बैठकर नूपुर उतारने लगती है। एक पैर का नूपुर उतर जाता है, लेकिन दूसरे पैर का उतारने में उलझ जाता है और प्रयत्‍न करने पर भी नहीं उतरता। इतने में ही जय-घोष के साथ महाराज अशोक का प्रवेश। तिष्‍य और चारु प्रणाम करती हैं। अशोक अभय-मुद्रा में हाथ ऊपर करते हैं।]

अशोक : देवि, आज युद्ध में फिर विजय! ओह तुम्‍हारी मंगल-कामनाओं में कितनी शक्ति है! विजय – विजय – विजय! [हाथ उठाता है।]
तिष्‍यरक्षिता : महाराज की विजय हो!
चारुमित्रा : महाराजाधिराज की विजय हो!
अशोक : देवि, शत्रुओं की संख्‍या बहुत अधिक थी। हाथी और घोड़े जैसे दुर्भाग्‍य की तरह अड़े हुए थे, किंतु तुम्‍हारी मंगल-कामना ने मुझे और मेरे वीरों को ऐसी शक्ति दी कि वे सूखे पत्ते की तरह बिखर कर चूर-चूर हो गए! मेरी शक्ति के पीछे देवी! तुम्‍हारी मंगल-कामना है। चारुमित्रा! देवी पर पुष्‍प-वर्षा हो!

[चारुमित्रा आगे बढ़ने के लिए पैर उठाती है कि उसके पैर का नुपूर शब्‍द कर उठता है।]

अशोक : [चारुमित्रा के पैरों पर दृष्टि गड़ा कर] अरे यह क्‍या? नृत्‍य! संग्राम-भूमि में रंगभूमि! [प्रश्‍नवाचक मुद्रा में] चारु?
चारुमित्रा : महाराज! क्षमा चाहती हूँ।
अशोक : मेरी युद्ध-भूमि में केवल भैरवी का नृत्‍य हो सकता है, चारुमित्रा का नहीं।
चारुमित्रा : महाराज…
अशोक : और उस भैरवी-नृत्‍य में तलवारों का संगीत होगा, नूपुरों का नहीं।
चारुमित्रा : महाराज…
अशोक : मेरे युद्ध के उत्‍साह में कोमलता भरने वाली चारुमित्रा! तुझे क्‍या पुरस्‍कार चाहिए? रत्‍नों का हार? मोतियों की माला?
चारुमित्रा : मुझे दंड दीजिए, महाराज !
अशोक : मेरे युद्ध के उत्‍साह में कोमलता भरने वाली चारुमित्रा! तुझे दंड ही मिलेगा। तू इस नीति से मुझे युद्ध करने से रोकना चाहती है? स्‍त्री! कलिंग से उत्‍पन्‍न शरीर कलिंग का ही साथ देगा! विश्‍वासघातिनी! चारुमित्रा! [पुकार कर] राजुक!

[राजुक का प्रवेश]

अशोक : राजुक! चारुमित्रा जलते हुए अंगारों पर नाचना चाहती है! आग तैयार हो!
राजुक : जो आज्ञा [प्रणाम कर प्रस्‍थान]
अशोक : चारुमित्रा! दूसरे पैर में भी नूपुर पहन ले। एक पैर से पूरी ध्‍वनि नहीं निकलेगी। दूसरा पैर नूपुरों की प्रतीक्षा में है।

[चारु दूसरे में भी नूपुर पहनने के लिए झुकती है]

तिष्‍यरक्षिता : महाराज!
अशोक : देवि!
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! चारु का दोष नहीं है।
अशोक : देवि! चारु का दोष नहीं है? यह कैसी बात कहती हो? कलिंग के शरीर में कलिंग की आत्‍मा का मगध के साथ क्‍या व्‍यवहार हो सकता है? चारु जानती है कि मेरे क्रोध में उसका देश जल रहा है। वह मेरे क्रोध की ज्‍वाला को शांत करने के लिए अपने संगीत और नृत्‍य का प्रयोग करना चाहती है। मुझे नहीं सुना सकती तो तुम्‍हें सुना कर तुम्‍हारे द्वारा मुझमें कोमलता का संचार करना चाहती है। मैं देख रहा हूँ, तुम्‍हारे स्‍वभाव को भी उसने दया से भर दिया है। त्‍मा ‍ि‍क्षता
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! दया करना तो स्‍त्री का स्‍वाभाविक धर्म है। चारु मुझे क्‍या दया से भर सकती है! किंतु महाराज! चारु निरपराध है। आपके वियोग के क्षणों को काटने का वह मेरा साधारण उपाय था। मैंने ही चारु को आज्ञा दी थी कि वह नृत्‍य करे।
अशोक : तुमने आज्ञा दी थी?
तिष्‍यरक्षिता : हाँ, महाराज! युद्ध के भयानक क्षणों में स्‍त्री के एकाकी हृदय को कौन-सा सहारा है, संगीत, नृत्‍य, चित्रकला! यही तो!
अशोक : चारु अपनी ओर से नृत्‍य करने नहीं आई?
तिष्‍यरक्षिता : नहीं, नहीं महाराज! उसे क्षमा कीजिए।
अशोक : अशोक ने किसी को भी अपराध करने पर क्षमा नहीं किया, किंतु इस समय क्षमा करता हूँ। [चारु की ओर देखकर] चारु! तुम्‍हें क्षमा करता हूँ। अच्‍छा हो कि तुम्‍हारा नृत्‍य भैरवी नृत्‍य बनकर मगध की विजय के लिए हो! और यदि ऐसा न कर सको तो फिर यह नृत्‍य अपने कलिंग के कटते हुए वीरों के रुंडों और मुंडों के लिए रहने दो! [पुकार कर] राजुक!

[राजुक का प्रवेश]

अशोक : आग तैयार हो गई?
राजुक : जी।
अशोक : उस आग से उन कायरों को शीतल करो जो आज युद्ध-भूमि से पीछे हटे हैं।
राजुक : जो आज्ञा! [जाने लगता है।]
अशोक : और सुनो – यह मत सुनना कि वे संचालन-कौशल से सावधानी के साथ पीछे हटे हैं। युद्ध-भूमि के अतिरिक्‍त प्रत्‍येक भूमि वीरों के लिए कलंक भूमि है।
राजुक : जो आज्ञा!
: [जाता है]
अशोक : चारु! जा, इन संगीत भरे पैरों को विश्राम की आवश्‍यकता है।
: [चारु सिर झुकाकर जाती है]
अशोक : देवि! कलिंग से युद्ध करते समय मुझे ज्ञात होता था जैसे पाटलीपुत्र की शक्ति से एक प्रलय उत्‍पन्‍न हुआ है जो कलिंग को रक्‍त के समुद्र में डुबाना चाहता है। तक्षशिला, गंधार, उज्‍जैन और तोशली के बड़े-बड़े वीर मेरी घूमती हुई दृष्टि की दिशा में ही अपनी तलवार घुमाते थे। सेना की एक-एक टुकड़ी पानी की लहर की तरह बढ़ती और धीरे-धीरे बड़ी होकर शत्रुओं की तलवार से टकराती थी। वे तलवार भी नहीं घुमा सकते थे। उस समय मुझे तो ऐसा ज्ञात होता था कि मेरी ललकार भी तलवार थी, जिसके सामने घूमा हुआ हथियार भी लक्ष्‍यभ्रष्‍ट हो जाता था।
तिष्‍यरक्षिता : महाराज, इतना रक्‍तपात…
अशोक : मैंने अपनी सेना का अर्ध-व्‍यूह बनाकर आक्रमण किया था। शत्रु सोचते थे, जैसे सहस्रों धूमकेतु एक विशेष आकार में कसे हुए मौत की आग लेकर आ रहे हैं। न जाने कितने शत्रु हाथियों के पैरों से पिस गए – सैकड़ों घोड़ों के पैरों में उलझकर खून से लथ-पथ हो गए। मालूम होता था – रक्‍त का नाला महानदी में मिलने के लिए जा रहा है।
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! इतना भयानक युद्ध!
अशोक : मुझ पर भी एक वीर ने तलवार चलाई। मैंने तक्षक की तरह अपना सिर बचा लिया। उसकी तलवार वायु-मंडल में शून्‍य चक्र बना कर रह गई। अपने निष्‍फल हुए आक्रमण के वेग से वह मुड़ गया। उसके मुड़ते ही मैंने तलवार की नोक उसकी पसलियों में घुसेड़ दी। उसकी ललकार आह में बदल कर खून में डूब गई। वह टूटे हुए पेड़ की तरह भूमि पर गिर पड़ा।
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! आपका युद्ध-कौशल भयानक है।
अशोक : फिर मैं मरे हुए घोड़े की पीठ से पैर टेक कर लड़ता रहा। शत्रुओं के नायक वीरभद्र की तलवार जैसे ही आगे गिरने के लिए अर्ध-चंद्र बना रही थी वैसे ही मैंने झुक कर कक्ष भाग से कंधे पर ऐसा वार किया कि अपने वेग में, भुजा समेत उड़कर उसकी तलवार एक हाथी की पीठ में घुस गई। हाथी शत्रु-पक्ष को कुचलता हुआ भाग खड़ा हुआ। उसी समय सेना के पैर उखड़ गए और आज की विजय ने, देवि। तुम्‍हारे गले में माला पहना दी!
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! बहुत भयानक युद्ध है! अब सहन नहीं हो सकता।
अशोक : देवि! तुम बड़ी कोमल-हृदया हो। युद्ध तुम्‍हारे लिए नहीं है। इसीलिए मैं चाहता था कि तुम पाटलीपुत्र में रहो। किंतु तुम्‍हारा ही अनुरोध मुझे विवश कर सका कि तुम्‍हें साथ ले आया।
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! यदि मैं एक अनुरोध और करूँ?
अशोक : क्‍या?
तिष्‍यरक्षिता : यह युद्ध रोक दीजिए !
अशोक : यह क्‍या कह रही हो, देवि? युद्ध का रुक जाना पाटलीपुत्र की उन्‍नति का रुक जाना है। किसी भी साम्राज्‍य की सीमा तलवार से खींची जाती है और सीमा को स्‍थायी रखने के लिए उस रेखा में रक्‍त का रंग भरा जाता है। [कक्ष में दृष्टि डालते हैं। चित्र-फलक पर दृष्टि डाल कर] अच्‍छा; यह तुमने बड़ा सुंदर चित्र बनाया है?
तिष्‍यरक्षिता : हाँ, महाराज! आपको पसंद है!
अशोक : बहुत ही सुंदर है। यह तो उस कुंज का है, जहाँ बैठ कर मैंने युद्ध का कार्य-क्रम बनाया था।
तिष्‍यरक्षिता : हाँ, महाराज! मैं भी साथ थी !
अशोक : तो ये वृक्ष टूटे हुए क्‍यों दिखाए गए हैं?
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! युद्ध की गति में आपकी तलवार शत्रुओं पर पड़ने के साथ ही इन वृक्षों पर भी पड़ी है। वे बेचारे भी कट गए हैं और उनसे रक्‍त निकल रहा है !
अशोक : तो रक्‍त के स्‍थान पर लाल रंग की क्‍या आवश्‍यकता? सच्‍चा रक्‍त भरो इनमें। वह तो बहुत मिल सकता है। मैंने कितने रक्‍त-प्रवाह की शारीरिक सीमाएँ नष्‍ट कर उन्‍हें पृथ्‍वी पर बहने की पूर्ण स्‍वतंत्रता दी है। वहीं से रक्‍त लो!
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! मेरा हृदय काँप रहा है – इस युद्ध की भयानकता से! आप क्‍यों इतने वीरों के रक्‍त से राज्‍य-श्री को अग्नि का रूप देना चाहते हैं?
अशोक : देवि! अग्नि में तप कर ही स्‍वर्ण पवित्र होता है। आज मेरी तलवार में शक्ति है। उसका अधिक से अधिक उपयोग होने दो।
तिष्‍यरक्षिता : जैसी महाराज की इच्‍छा! लेकिन मुझे दुख है इस क्रूरता पर [सिर झुका लेती है।]
अशोक : [मनाते हुए] तुम दुखी हो, देवि? नहीं, दुखी होने की क्‍या बात? तुम तो दया की देवी हो। तुम्‍हें तो किसी के दुख से भी दुख होने लगता है। मैं यथा-शक्ति तुम्‍हारे सद्भावों की रक्षा तो करता हूँ। देखो देवि! आज तुम्‍हारी दया की ढाल ने मेरे दंड के कृपाण को अच्‍छा रोका…
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! चारु निरपराध थी।
अशोक : रण-भूमि की दृष्टि से या रंग-भूमि की दृष्टि से?
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! वह सेविका है, आपके चरणों की छाया में ही बड़ी हुई है।
अशोक : किंतु आवश्‍यकता से अधिक बढ़ने पर काटने-छाँटने की आवश्‍यकता होगी। देवि, मैं अपने शिविर में शत्रु-पक्ष के किसी व्‍यक्ति को अब रहने की आज्ञा नहीं दे सकता।
तिष्‍यरक्षिता : किंतु अब वह शत्रु-पक्ष की कहाँ है? महाराज! वह तो उस समय से आपकी सेविका है, जब कलिंग युद्ध छिड़ा भी नहीं था।
अशोक : किंतु कृपा की दृष्टि राजनीति की दृष्टि नहीं होती, देवि! आज युद्ध से लौटते समय मैंने चारु के संबंध में विचार किया था।
तिष्‍यरक्षिता : युद्ध से लौटते समय!
अशोक : हाँ, युद्ध से लौटते समय कलिंग के कुछ व्‍यक्ति मुझे प्रणाम कर रहे थे, मुझे उनके प्रणाम में चारु का प्रणाम दीख पड़ा। यदि इस समय चारु नृत्‍य न भी करती तो भी मैं उसे दंडित तो करता ही।
तिष्‍यरक्षिता : किंतु वह बेचारी!
अशोक : राजनीति तिष्‍यरक्षिता नहीं है देवि! जो दया से तरल हो जाय। किंतु आज तुम्‍हारे कहने से मैंने राजनीति को स्‍त्री का हृदय बना दिया।
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! आपकी कृपा। विश्राम कीजिए।
अशोक : देवि! मुझे विश्राम! पितामह चंद्रगुप्‍त ने 24 वर्ष के शासन में कितना विश्राम किया? तक्षशिला से मगध तक पृथ्‍वी का प्रत्‍येक कण उनकी आहट सुन कर काँपता था। बहुत से छोटे-छोटे राज्‍यों को एक संघ में गूँध कर उन्‍होंने अपनी राज्‍य-श्री को विजय-माला पहनाई थी। सेल्‍यूकस निकेटर से गांधार और सीमाप्रांत लेकर आर्यावर्त के मुकुट में उन्‍होंने कुछ रत्‍न और जड़ दिए थे। मैं उन्‍हीं की संतान हूँ, देवि! विश्राम के लंबे क्षणों में राज्‍य-सीमा संकुचित हो जाती है।
तिष्‍यरक्षिता : ठीक है, महाराज! पर कलिंग-युद्ध ने आपको बहुत उत्तेजित कर दिया है!
अशोक : कलिंग अपने को सम्राट मानता है। वह पाटली-पुत्र का आधिपत्‍य नहीं मानता। सुमात्रा और जावा में उसने अपने उपनिवेश स्‍थापित कर रखे हैं। जल-यानों में बिहार करता है और समझता है कि वह आर्यावर्त का सम्राट है। तिष्‍या! वह मेरे शासन के मार्ग को एक स्‍तूप बनकर रोकना चाहता है। मैं आचार्य उपगुप्‍त के उपदेशों की भाँति उसे भी ठोकर मार देना चाहता हूँ।
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! आचार्य उपगुप्‍त में और कलिंग में समानता नहीं हो सकती।
अशोक : क्‍यों नहीं? आचार्य उपगुप्‍त बौद्ध धर्म के सबसे बड़े आचार्य हैं, कलिंग विद्रोहियों का सबसे बड़ा नेता है। मैं बौद्ध धर्म और कलिंग दोनों का नाश करूँगा।
तिष्‍यरक्षिता : क्षमा, दया, करुणा, महाराज! आचार्य उपगुप्‍त कल यहाँ आए थे। उन्‍होंने कलिंग के भीषण रक्‍तपात को देख कर कहा था कि बुद्धि का अक्षय कोष मनुष्‍य, थोड़ी-सी भूमि के लिए मनुष्‍यत्‍व को मिट्टी में मिला देना चाहता है। कलिंग के संबंध में कहा था कि अहंकार का फल यही हुआ है और होगा।
अशोक : यह व्‍यंग्‍य मुझ पर किया गया, देवि!
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! उनके कथन में सत्‍य है। क्‍या अहंकार का नाश नहीं होना चाहिए?
अशोक : अहंकार और राज्‍य-धर्म में अंतर है। राज्‍य-धर्म पाटलीपुत्र का अधिकार है और अहंकार कलिंग की वृत्ति है। उसे अपनी सेना का अहंकार है। उसके पास साठ हजार पैदल, सात सौ हाथी और एक हजार घुड़सवार हैं। समझता है कि वह इंद्र का वंशज है। मैं अपनी सेना के हाथों उसके अहंकार के पौधे को उखाड़ फेकूँगा, तिष्‍या!
तिष्‍यरक्षिता : कितनों का रक्‍त बहेगा, महाराज!
अशोक : उसमें आर्यावर्त को नहला कर पवित्र करना चाहता हूँ, देवि!

[नेपथ्‍य में भयानक तुमुल! किसी स्‍त्री का क्रंदन-स्‍वर – ‘अशोक का नाश हो’ … ‘अशोक का सर्वनाश हो! !’ प्रहरी का स्‍वर – ‘पुष्‍प मार डालो इसे भी।’]

तिष्‍यरक्षिता : [कान बंद कर क्रंदन स्‍वर में] नहीं महाराज! [अशोक के वक्षस्‍थल में छिप जाती है। अशोक जोर से आवाज देते हैं] नहीं! [फिर तिष्‍य की पीठ पर हाथ फेर कर] शांत हो! शांत हो – मैं अभी देखता हूँ। [अशोक तिष्‍य को सँभाल कर आसन पर बिठलाते हैं, फिर शिविर की खिड़की से देखते हुए] पुष्‍प! इस स्‍त्री को मेरे शिविर में भेजो।

[तिष्‍य अपने हाथों से नेत्र बंद किए हुए है। अशोक तिष्‍य के हाथों को आँखों से हटा अपने हाथों में लेते हैं।]

अशोक : देवि! मैं अभी देखता हूँ, कौन है?
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! मैं आपका अमंगल नहीं सुन सकती। [आकाश की ओर देखते हुए] महाराज का मंगल हो, महाराज का मंगल हो! महाराज का मंगल हो!
अशोक : कोई स्‍त्री है : गोद में एक बच्‍चे को लिए हुए है।
तिष्‍यरक्षिता : मैं पूछूँगी, वह कौन है – क्‍यों ऐसी अशुभ बात मुँह से निकालती है?
अशोक : अवश्‍य तुम्‍हीं पूछो। मैं वस्‍त्र बदलने जाता हूँ!

[जाते हैं]

[प्रहरी एक स्‍त्री को लेकर आता है तिष्‍य के संकेत से प्रहरी हट जाता है। वह स्‍त्री लगभग 25 वर्ष की होगी। उसके बाल और वस्‍त्र अस्‍त-व्‍यस्‍त हैं। वह अपने बच्‍चे को गोद में लिए हैं। उसकी मुद्रा पागल स्‍त्री की तरह है।]

तिष्‍यरक्षिता : आओ, आओ, देवि! तुम कौन हो?
सत्री : [विस्‍फारित नेत्रों से एक बार ही फूट कर] ओह, रानी! अशोक का सर्वनाश हो…! अशोक का सर्वनाश हो…! मुझे भी मार डालो! मुझे भी मार डालो!
तिष्‍यरक्षिता : ठहरो-ठहरो, तुम महाराज के संबंध में कुछ नहीं कह सकतीं। चुप रहो, क्‍या चाहती हो?
स्‍त्री : मैं क्‍या चाहती हूँ? मेरे बच्‍चे के टुकड़े-टुकड़े कर डालो! यह अभी मरा नहीं है! [पुत्र की ओर देख कर] लाल! अभी तुम मरे नहीं हो। ये लोग तुम्‍हारे टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे, तब तुम मरोगे। तब तक कुछ बोलो – बोलो मेरे लाल! [अपने बच्‍चे को हाथों ही में झकझोरती है।]

[अशोक का प्रवेश। वे दूर चुपचाप इस तरह खड़े हो जाते हैं कि तिष्‍य के पीछे हैं और तिष्‍य की दृष्टि उन पर नहीं पड़ती। माता अपने बच्‍चे को देखकर] तेरा खून इतना मीठा है, मेरे बच्‍चे! राजा तक उसे पीना चाहता है? और खून हो तो अपने नन्‍हें से क‍लेजे को सामने रख दे। ये सब मिलकर पी लें!

तिष्‍यरक्षिता : क्‍या तुम्‍हारा बच्‍चा मर गया है! कैसे?
स्‍त्री : अशोक राक्षस ले गया, मेरे बच्‍चे को! राज्‍य नहीं चाहता था मेरा लाल, लेकिन मेरे लाल को अशोक ले गया! इसे –
अशोक : [आगे बढ़कर] यह क्‍या कह रही हो, तुम? ठीक तरह से बतलाओ। तुम्‍हारा न्‍याय होगा। यह बच्‍चा कैसे मरा?
स्‍त्री : मुझे न्‍याय नहीं चाहिए – नहीं चाहिए! पाटलीपुत्र से न्‍याय उठ गया! इसके पिता को सैनिकों ने घेर कर मारा और जब मैं इसे बचाने लगी तो इसके फूल-से कलेजे में भाला घुसेड़ दिया उन राक्षसों ने। मेरे बच्‍चे को राज्‍य नहीं चाहिए था! मेरा छोटा राजा तुम्‍हारा राज्‍य नहीं चाहता था। तब भी इसे – तब भी इसे…
अशोक : ठहरो, मैं उन दुष्‍टों को दंड दूंगा। वीरों के लिए उनका भाला है, शिशुओं के लिए नहीं।
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! न्‍याय होना चाहिए बेचारी स्‍त्री का!
अशोक : होगा और अवश्‍य होगा।
स्‍त्री : मैं अब न्‍याय लेकर क्‍या करूँगी! लाओ, महाराज! मैं तुम्‍हें राजतिलक कर दूँ। अपने बच्‍चे के रक्‍त का तिलक लगाकर – [चिल्‍लाकर] महाराज अशोक… चक्रवर्ती अशोक…!
अशोक : मैं अभी न्‍याय करूँगा। [पुकारते हुए] पुष्‍य…

[प्रहरी का प्रवेश]

अशोक : इस स्‍त्री को विश्राम-शिविरों में ले जा कर अपराधियों की पहचान कराओ, मैं अभी आता हूँ। जाओ…

[जाने को उद्यत होता है।]

अशोक : और उन अपराधियों को बंदी कर मेरे सामने उपस्थित करना। समझे?
प्रहरी : जो आज्ञा। [स्‍त्री से] चलो। [स्‍त्री को बलपूर्वक ले जाता है]
स्‍त्री : [जाते हुए, नेपथ्‍य में] मेरा बच्‍चा! मेरा लाल! [धीरे-धीरे शब्‍द क्षीण हो जाता है। कुछ देर तक स्‍तब्‍धता रहती है। अशोक विचारमग्‍न हैं, तिष्‍य कहती है…
तिष्‍यरक्षिता : महाराज, मूर्छा-सी आ रही है।
अशोक : देवि विश्राम करो। मैं अभी न्‍याय करूँगा!
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! यह रक्‍त-पात अब बंद हो!
अशोक : एक छोटी-सी घटना राज्‍य की बढ़ती हुई बेल को काट दे! यह घटना तुम्‍हारा चित्र नहीं है देवि, जिसमें तूलिका के एक हल्‍के झटके से राज्‍य की बेल कट जाय! देवि! युद्ध में तो यह सब होता ही है।
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! मैं क्‍या करूँ?
अशोक : विश्राम करो। मैं विश्राम-शिविरों में अभी जाता हूँ। सेना के विश्राम की क्‍या व्‍यवस्‍था है, घायलों की क्‍या सुश्रूषा हो रही है, यह मुझे देखना है। [पुकार कर] राजुक! [राजुक का प्रवेश]
अशोक : महामात्रों से कहो कि अश्‍व तैयार हों। उन्‍हें मेरे साथ नैश-निरीक्षण के लिए चलना होगा।
राजुक : जो आज्ञा, महाराज! [जाता है]
अशोक : देवि! महाराज बिंदुसार ने राज्य की सीमा नहीं बढ़ाई। वे कदाचित यह उत्तरदायित्‍व मेरे लिए छोड़ गए हैं। सम्राट चंद्रगुप्‍त के परिश्रम की परंपरा कुछ वर्षों तक तो चले!
तिष्‍यरक्षिता : कब तक महाराज?
अशोक : जब तक कि पाटलिपुत्र का प्रवासी नागरिक कलिंग के जनपद में निवासी होकर न रहने लगे।

[राजुक का प्रवेश]

राजुक : महाराज! महामात्र और अश्‍व तैयार हैं!
अशोक : अच्‍छा, जाओ, मैं अभी आता हूँ। [तिष्‍य से] देवि! आज उस स्‍त्री का न्‍याय भी करूँगा और निरीक्षण भी। सैनिकों के पुरस्‍कार और दंड की व्‍यवस्‍था एक साथ ही होगी। देवि! मंगल-कामना करो कि मगध चिरंजीवी हो।
तिष्‍यरक्षिता : महाराज! मेरे दुख में भी मगध चिरंजीवी हो।

[अशोक का प्रस्‍थान]

तिष्‍यरक्षिता : वायु के प्रवाह की भाँति सदैव अस्थिर! अभी आए और अभी चले गए! मैं क्‍या करूँ! [चित्र की ओर दृष्टि डालती है।] यह चित्र! [क्रोध से फाड़ कर फेंक देती है। पुकार कर] स्‍वयंप्रभा!

[स्‍वयंप्रभा का प्रवेश। वह प्रणाम करती है।]

स्‍वयंप्रभा : महारानी! यह क्‍या? यह चित्र किसने फाड़ दिया? ओह… इतना सुंदर चित्र!
तिष्‍यरक्षिता : मैंने – मैंने इसे नष्‍ट कर दिया।
स्‍वयंप्रभा : मैं इसे, जोड़ सकती हूँ?
तिष्‍यरक्षिता : नहीं। इसे उठा कर बाहर फेंक दे।

[स्‍वयंप्रभा फटे हुए चित्र के टुकड़े एकत्र करती है।]

तिष्‍यरक्षिता : स्‍वयंप्रभा! महाराज गए?
स्‍वयंप्रभा : जी, महारानी! पाँच महामात्रों के साथ अभी-अभी गए हैं।
तिष्‍यरक्षिता : चले गए! तू क्‍या कर रही थी?
स्‍वयंप्रभा : महारानी! आपके सुंदर गीतों की स्‍वर-लिपि लिख रही थी। बड़े सुंदर गीत हैं।
तिष्‍यरक्षिता : उसको नष्‍ट कर दे। महाराज यह सब कुछ नहीं चाहते। इस विषय में बात मत कर, जा।

[स्‍वयंप्रभा जाना चाहती है।]

तिष्‍यरक्षिता : चारु कहाँ है?
स्‍वयंप्रभा : महारानी! अभी तो यहीं थी। कदाचित शिविर-कक्ष में हो।
तिष्‍यरक्षिता : रो रही थी?
स्‍वयंप्रभा : महारानी, उदास तो बहुत थी। ज्ञात होता था कि उसके आँसू सूख गए हैं, किंतु हृदय रो रहा है।
तिष्‍यरक्षिता : तूने उससे बातें कीं?
स्‍वयंप्रभा : महारानी! आपके गीतों की स्‍वर-लिपि पूछी, वह कुछ भी नहीं कह सकी।
तिष्‍यरक्षिता : बेचारी चारु! आज चारु पर महाराज बहुत अप्रसन्‍न हुए।
स्‍वयंप्रभा : महारानी! उससे कभी कोई अपराध तो हुआ नहीं।
तिष्‍यरक्षिता : कहते थे कि वह कलिंग की है, शत्रु-पक्ष की।
स्‍वयंप्रभा : महारानी! आज तक महाराज की सेवा उसने जितनी श्रद्धा और भक्ति से की है, उतनी पाटलीपुत्र की किसी सेविका ने नहीं। वह तो महाराज के अंतःपुर की अंगरक्षिका है।
तिष्‍यरक्षिता : हाँ, मैं भी यही समझती हूँ।
स्‍वयंप्रभा : महारानी, महाराज की इच्‍छा ही उसके कार्य का नाम है। वह कैसे विश्‍वासघातिनी हो सकती है?
तिष्‍यरक्षिता : कहते थे, राजनीति की दृष्टि दया की दृष्टि नहीं है।
स्‍वयंप्रभा : महारानी! राजनीति भी कोई राजनीति है यदि उससे सच्‍ची सेवा और सच्‍चे प्रेम में सदेह उत्‍पन्‍न हो जाय?
तिष्‍यरक्षिता : यही संदेह तो शायद उनके जीवन की सफलता है। उन्‍होंने शत्रु के छोटे-से-छोटे कार्य को अपनी शक्ति से छिन्‍न-भिन्‍न कर दिया है। आज मेरी प्रार्थना पर ही उन्‍होंने चारु को क्षमा किया।
स्‍वयंप्रभा : महारानी! आपकी करुणा ने महाराज की शक्ति के साथ रहकर राज्‍य को संतुलित किया है!
तिष्‍यरक्षिता : स्‍वयंप्रभा! आज मेरी करुणा सीमा तक पहुँच गई!
स्‍वयंप्रभा : कैसे, महारानी?
तिष्‍यरक्षिता : एक स्‍त्री के छोटे-से बच्‍चे को सैनिकों ने मार डाला।
स्‍वयंप्रभा : हाँ, महारानी! मैंने भी सुना।
तिष्‍यरक्षिता : महाराज न्‍याय करने गए हैं। देखें, क्‍या न्‍याय करते हैं। मैं तो आज बहुत अशांत हूँ।
स्‍वयंप्रभा : महारानी! विश्राम कीजिए…

[नेपथ्‍य में – ‘बुद्धं शरणं गच्‍छामि, धम्‍मं शरणं गच्‍छामि, संघं शरणं गच्‍छामि]

स्‍वयंप्रभा : आचार्य उपगुप्‍त का कंठ-स्‍वर है; महारानी!
तिष्‍यरक्षिता : [स्‍वस्‍थ होकर] जाकर उन्‍हें यहाँ ले आ। मैं बहुत विह्वल हो रही हूँ।
स्‍वयंप्रभा : जो आज्ञा, महारानी! [स्‍वयंप्रभा जाती है।]
तिष्‍यरक्षिता : [अपने-आप मंद कंठ स्‍वर से] महात्‍मा उपगुप्‍त…

[सँभल कर उठती है और स्‍वयं आसन ठीक करती है। प्रतीक्षा-दृष्टि से द्वार की ओर देखती है। स्‍वयंप्रभा के साथ महात्‍मा उपगुप्‍त का प्रवेश। महात्‍मा उपगुप्‍त बौद्ध भिक्षु के वेश में हैं। पीत वस्‍त्र धारण किए हुए। हाथ में भिक्षा-पात्र।]

तिष्‍यरक्षिता : प्रणाम करती हूँ, भंते!
उपगुप्‍त : [अभय-हस्‍त] सुखी रहो, देवि! क्‍या महाराज नहीं हैं?
तिष्‍यरक्षिता : भंते! वीर पुरुष घर नहीं रहते। रणक्षेत्र ही उनका घर है।
उपगुप्‍त : देवि! रणक्षेत्र हृदय को शांति नहीं दे सकता। तथागत ने कहा है – ‘अहंकार और ईषणा का नाश करो’। यह युद्ध अधिकार-लिप्‍सा है, इसका अंत नहीं है, देवि!
तिष्‍यरक्षिता : महात्‍मन! आपका उपदेश महाराज के कानों तक पहुँचा?
उपगुप्‍त : देवि! महाराज नीति-कुशल है। मेरी बातें सुनते हैं। मुस्‍कराकर कहते हैं – आप थक गए होंगे, भंते, विश्राम-गृह आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।
तिष्‍यरक्षिता : महात्‍मन! यह युद्ध बंद होना चाहिए। मैं इस अत्‍याचार को सहन नहीं कर सकती।
उपगुप्‍त : देवि! इस अत्‍याचार को कौन सहन कर सकता है? एक लाख आदमी तो रणक्षेत्र में मर गए। तीन लाख घायल हुए, जो एक लाख के पथ का अनुसरण करना चाहते हैं। देवि! रक्‍त की नदियाँ बह निकली हैं, जो महानदी की समानता करने को अग्रसर है। कलिंग राज्‍य के घर फूल की पँखुड़ियों की तरह गिर रहे हैं! देवि! तुम कुछ नहीं कर सकतीं?
तिष्‍यरक्षिता : महात्‍मन, आज मैं रानी न होकर एक साधारण स्‍त्री होती तो किसी प्रकार आत्‍म-बलिदान कर महाराज के मन की दिशा बदल देती। पत्‍नी हो कर पति के मार्ग की बाधिका बनने का साहस मुझमें नहीं होता। राज-वंश की मर्यादा कैसे नष्‍ट करूँ? महात्‍मन! मैं रानी होकर साधारण स्‍त्री भी नहीं रही!
उपगुप्‍त : तो कहता हूँ देवि! शांत होओ। जब तक मनुष्‍य आर्य-सत्‍य से परिचित नहीं होता, उसे दुख उठाना ही पड़ता है। तथागत ने कहा है – ‘भिक्‍खुओ! मैं सब बंधनों से – लौकिक और अलौकिक – मुक्‍त हो गया। अनेक के लाभ के लिए विचरण करो, अनेक के हित के लिए विचरण करो, संसार के प्रति करुणा के लिए विचरण करो। देवताओं और मनुष्‍यों के कल्याण के लिए विचरण करो।’ देवि! मुझे विश्‍वास है, महाराज अशोक इस धर्म-शिक्षा को मान कर संसार का कल्‍याण करेंगे।
तिष्‍यरक्षिता : भंते! मुझे विश्‍वास नहीं होता।
उपगुप्‍त : समय की प्रतीक्षा करो। महाराज में परिवर्तन होगा। जब किसी व्‍यक्ति में शक्ति की क्षमता होती है तो बुरे मार्ग से अच्‍छे पर और अच्‍छे मार्ग से बुरे मार्ग पर जाने में विलंब नहीं लगता। महाराज में शक्ति की क्षमता है और वे बुरे मार्ग पर हैं। किसी भयानक भावना से उनके हृदय की दिशा-परिवर्तन संभव है। वे विजय के आकांक्षी हैं। विजय प्राप्‍त करें किंतु हिंसा से नहीं, अहिंसा से। वे शासन करना चाहते हैं, करें किंतु क्रोध से नहीं, करुणा से। विनाश करें, किंतु जाति का नहीं, अपनी तृष्‍णा का। वे ज्ञान-प्राप्ति में प्रयत्‍नशील हों, राज्‍य-प्राप्ति में नहीं। ज्ञान अमर है, राज्‍य क्षण-भंगुर है!
तिष्‍यरक्षिता : महाभिक्षु, आपका ज्ञान सुनकर हृदय को शांति मिलती है।
उपगुप्‍त : शांति लाभ करो देवि, यही पथ निर्वाण का है। अच्‍छा देवि, अब मैं जाऊँगा। [उठ खड़े होते हैं।]
तिष्‍यरक्षिता : महात्‍मन, आशीर्वाद दीजिए कि राज्‍य में शांति हो।
उपगुप्‍त : ऐसा ही हो!
तिष्‍यरक्षिता : महात्‍मन, भिक्षा स्‍वीकार कीजिए। मैं अपने हाथ से लाऊँगी।

[तिष्‍य भीतर जाती है]

स्‍वयंप्रभा : महात्‍मन्, आप से एक प्रार्थना करना चाहती हूँ।
उपगुप्‍त : कैसी?
स्‍वयंप्रभा : महात्‍मन, आप चारु को जानते हैं!
उपगुप्‍त : हाँ, हाँ, महाराज की सेवा में सतत रहने वाली।
स्‍वयंप्रभा : आज वह बहुत दुखी है।
उपगुप्‍त : क्‍यों?
स्‍वयंप्रभा : महाराज का उस पर से विश्‍वास उठ गया है!
उपगुप्‍त : इसलिए कि वह कलिंग-बालिका है?
स्‍वयंप्रभा : जी हाँ।
उपगुप्‍त : तो उसके लिए उचित तो यही है कि वह महाराज की सेवा और संलग्‍नता के साथ करे। संदेह को सेवा से नष्‍ट कर दे। वह इस समय कहाँ होगी?
स्‍वयंप्रभा : महाराज के बाहरी शिविर में।
उपगुप्‍त : अच्‍छा, मैं उससे मिलता जाऊँगा। उसे संतोष और शांति देकर फिर संघाराम जाऊँगा।
स्‍वयंप्रभा : भंते, बड़ी कृपा होगी आपकी।
उपगुप्‍त : यह तो तथागत की आज्ञा है।

[तिष्‍य भिक्षा लेकर आती है]

तिष्‍यरक्षिता : मुझे अपने हाथों से आपकी सेवा में मधुकरी लाने में विशेष हर्ष होता है भंते!
उपगुप्‍त : तुम सुखी रहो देवि।
: [तिष्‍य उपगुप्‍त को मधुकरी देती है]
उपगुप्‍त : अच्‍छा अब जाऊँगा।
तिष्‍यरक्षिता : महात्‍मन! प्रणाम।
उपगुप्‍त : सुखी रहो।
तिष्‍यरक्षिता : स्‍वयं, महाभिक्षु को शिविर-द्वार तक पहुँचा दो।

[स्‍वयंप्रभा का उपगुप्‍त के साथ प्रस्‍थान]

तिष्‍यरक्षिता : [सोचते हुए] तिष्‍य, तेरी दशा एक कीड़े की तरह है, जो ऐसी लकड़ी में रहता है जिसके दोनों ओर आग लग रही है। तू कहाँ रहेगी?

[स्‍वयंप्रभा का प्रवेश]

स्‍वयंप्रभा : महारानी, भंते जाते समय आपके लिए स्‍वस्ति-वचन कह गए हैं।
तिष्‍यरक्षिता : तथागत को प्रणाम। स्‍वयंप्रभा या तो मैं संघाराम चली जाऊँगी या वनवासिनी हो जाऊँगी।
स्‍वयंप्रभा : महारानी, आप शांत हों।
तिष्‍यरक्षिता : नहीं स्‍वयंप्रभा, अब मुझे इस राज्‍यश्री से घृणा हो रही है। उसके सजाने के लिए कितने मनुष्‍यों की बलि देनी पड़ रही है। रात-दिन युद्ध की बात सुनते-सुनते जैसे मेरी श्रवण-शक्ति विद्रोह कर रही है। अब मैं और कुछ सुनना नहीं चाहती। देख, कितनी अच्‍छी वन-श्री है। यहाँ के पेड़ और पर्वत कैसे सुख में दीख पड़ रहे हैं। ये तो किसी से लड़ने नहीं जाते, किसी का खून नहीं बहाते, लेकिन रात-दिन बन पर हरियाली छाई रहती है, फूल खिलते रहते हैं। निर्झर वन के चरणों को धोते रहते हैं। इन्‍हें किस बात की कमी है? यह मनुष्‍य ही रात-दिन न जाने किसके लिए दूसरे का मुख नष्‍ट करने में जुटा रहता है, खून की नदियाँ बहाता है?
स्‍वयंप्रभा : महारानी, जीवन का सत्‍य यही है।
तिष्‍यरक्षिता : और स्‍वयंप्रभा, अगर मैं स्‍त्री न होकर इसी पास के पेड़ की एक कली होती, तो आनंद के साथ बसंत के किसी प्रातःकाल खिलकर सारे संसार को एक बार हँसती हुई आँखों से देख लेती और शाम होने पर सूर्य के पीछे-पीछे मैं चली जाती। स्‍त्री और महारानी होकर मैं सुखी नहीं हूँ स्‍वयंप्रभा! जीवन के सत्‍य से बहुत दूर जो जा पड़ी हूँ।
स्‍वयंप्रभा : महारानी, आपका हृदय शांत हो।
तिष्‍यरक्षिता : स्‍वयंप्रभा! कैसे शांत हो?
तिष्‍यरक्षिता : स्‍वयंप्रभा! कैसे शांत हो? शांति का उपाय करने के बदले मैं अशांति की लहरों में बही जा रही हूँ। पास में कोई कूल-किनारा नहीं है। मालूम होता है, युद्ध की समाप्ति होते-होते मेरा जीवन भी समाप्‍त हो जाएगा।
स्‍वयंप्रभा : महारानी, दुखी न हों, ऐसी बातें न करें!
तिष्‍यरक्षिता : मैं महाराज के सामने बहुत साहस कर कुछ बातें कहना चाहती हूँ। या तो मैं कह नहीं सकती या महाराज की दृष्टि मुझे कहने नहीं देती। साहस कर दो-एक शब्‍दों में यदि कुछ कहती भी हूँ, तो महाराज की वीरता की लहर में मेरे शब्‍द बुद्बुद की भाँति बह जाते हैं।
स्‍वयंप्रभा : महारानीजी, आप जो कुछ भी कह सकती हैं, महाराज के सामने उतना कहने की शक्ति संसार के किसी भी व्‍यक्ति में नहीं है।
तिष्‍यरक्षिता : किंतु उसका परिणाम कुछ नहीं स्‍वयंप्रभा, चारु को बुलाएगी।

[नेपथ्‍य में – महाराज अशोक की जय! जय!]

तिष्‍यरक्षिता : स्‍वयंप्रभा, रहने दे किसी को मत बुला। महाराज आ रहे हैं।

[चिंतित मुद्रा में अशोक का प्रवेश। तिष्‍य प्रणाम करती है। स्‍वयंप्रभा अधिक झुककर प्रणाम करती है।]

अशोक : देवी, न्‍याय नहीं हो सका!
तिष्‍यरक्षिता : महाराज, उस स्‍त्री का न्‍याय?
अशोक : हाँ देवी, वह स्‍त्री उसी शिविर में आत्‍म-हत्‍या करके मर गई।
तिष्‍यरक्षिता : मर गई! [करुण स्‍वर में] आह, बेचारी स्‍त्री!
अशोक : मैंने पुष्‍य को आज्ञा दी थी कि वह उस स्‍त्री को विश्राम-शिविर में ले जाकर खड़ी कर दे। शिविर का प्रत्‍येक सैनिक उसके सामने आए और वह स्‍त्री उस सैनिक को पहचाने, जिसने उसके शिशु की छाती में भाला घुसेड़ दिया था। मुझे ज्ञात हुआ कि 123 सैनिक घरों में घुसे थे। उन्‍हीं 123 सैनिकों के भाग्‍य का निर्णय था, किंतु उस स्‍त्री ने 17 सैनिकों के आने पर एक बार अपने बच्‍चे को चूमा, हृदय से चिपटा लिया और अट्ठारहवें सैनिक की कमर से छुरी निकाल कर स्‍वयं आत्‍म-हत्‍या कर ली। पुष्‍य उसे रोक नहीं सका और वह खून की नदी में तड़पने लगी। देवि, उसने मेरे न्‍याय पर विश्‍वास नहीं किया। उसने मेरी राज्‍य-सत्ता से बढ़कर अपने बच्‍चे को समझा।
तिष्‍यरक्षिता : महाराज, माता का हृदय संसार के किसी वैभव से नहीं तुल सकता। वह सबसे बड़ा है।
अशोक : किंतु माता के हृदय में विशालता भी तो होती है।
तिष्‍यरक्षिता : पहले वह अपने बच्‍चे के लिए होती है महाराज! आप अनुमान कर लीजिए कि इस युद्ध में जितने वीरों की मृत्‍यु हुई है, उनकी माताओं के हृदय की क्‍या दशा होगी?
अशोक : मैं देख रहा हूँ देवि! आज एक बच्‍चे की माँ ने मेरे सारे साम्राज्‍य को तुच्‍छ सिद्ध कर दिया!
तिष्‍यरक्षिता : महाराज आर्यावर्त्त के सब से बड़े वीर हैं।
अशोक : देवि, आज विश्राम-शिविर में जाने पर ज्ञात हुआ कि एक लाख से अधिक सैनिक अभी तक युद्ध में मारे जा चुके हैं, जिनमें बहुत अधिक संख्‍या कलिंग के सैनिकों की है, तीन लाख सैनिक घायल हुए हैं। उनकी माताओं के हृदय की क्‍या अवस्‍था होगी?
तिष्‍यरक्षिता : [आश्‍चर्य और दुख में] महाराज, चार लाख वीर संग्राम की बलि हुए हैं!
अशोक : जब कलिंग-नरेश को ज्ञात हुआ कि चार लाख वीर संग्राम-भूमि की बलि हुए हैं, तब उसने यह संधि-पत्र भेजा है। [संधि-पत्र खोलते हुए] आज पाटलिपुत्र की विजय हुई, किंतु देवी, उस स्‍त्री की आत्‍म-हत्‍या ने मेरा ध्‍यान संग्राम में मरे हुए वीरों की माताओं की ओर आकर्षित कर लिया है और मेरी विजय में जैसे उल्‍लास के बदले अभिशाप तड़प रहा है।

[बाहर कोलाहल होता है। ‘चारु’, ‘चारु’, ‘क्‍या हुआ’, ‘अभी प्राण शेष है’, ‘कहाँ चोट लगी है’, ‘यह कैसे हुआ’, ‘शांत-शांत’ की आवाजें आती हैं।]

अशोक : [चौंककर] यह कैसा शब्‍द? राजुक!
: [राजुक का प्रवेश]
राजुक : महाराज, चारुमित्रा का मृत शरीर बाहर है।
अशोक : [पुनः चौंककर] चारुमित्रा का मृत शरीर?
तिष्‍यरक्षिता : आह चारु – [सिर झुकाकर बैठ जाती है।]
राजुक : जी हाँ, उन्‍हें तलवार का गहरा घाव लगा है। आचार्य उपगुप्‍त उनके साथ हैं।
अशोक : शीघ्र भीतर लाओ।
: [चारुमित्रा का शरीर लेकर दो प्रहरी आते हैं, साथ में उपगुप्‍त भी हैं।]
अशोक : महाभिक्षु को अशोक का प्रणाम! महात्‍मन यह क्‍या? [प्रहरियों से] यह शरीर नीचे रख दो! आह, चारुमित्रा! [प्रहरी शरीर रख देते हैं]
तिष्‍यरक्षिता : ओह मेरी चारु! मेरी चारु!!
उपगुप्‍त : देवी शांत हों। महाराज, यह चारुमित्रा की स्‍वामिभक्ति का प्रमाण है!
अशोक : स्‍वामिभक्ति! कैसी स्‍वामिभक्ति? अभी जीवित है चारु?
उपगुप्‍त : महाराज, अभी जीवित तो है, पर वह अचेतावस्‍था में है।
तिष्‍यरक्षिता : भंते, क्‍या हुआ?
उपगुप्‍त : देवी, शांत हों! चारुमित्रा ने आज संसार के सामने यह घोषित कर दिया कि एक नारी में कितनी शक्ति है, कितनी क्षमता है!
अशोक : किस प्रकार भंते?
उपगुप्‍त : मैंने सुना था, आपने चारुमित्रा पर अविश्‍वास किया था!
अशोक : हाँ, वह कलिंग की अधिवासिनी थी। अविश्‍वास होना स्‍वाभाविक था।
उपगुप्‍त : किंतु महाराज, उसने बाल्‍यावस्‍था से आपकी सेवा की थी और आज उस सेवा से उसने अपने कलिंग को अमर बना दिया।
अशोक : मैं उत्‍सुक हूँ भंते, चारु के संबंध में सुनने के लिए।
उपगुप्‍त : महाराज! आर्यावर्त्त जानता है कि आपने रक्‍त की नदी बहाकर कलिंग-युद्ध में कितने वीरों को रणक्षेत्र में सुला दिया है। आपने रक्‍त की नदी से कलिंग की भूमि को लाल बना दिया है और अब तो आपकी विजय निश्चित है।
अशोक : मैंने विजय प्राप्‍त कर ली महाभिक्षु, यह संधिपत्र है।
उपगुप्‍त : महाराज, इस संधिपत्र से अधिक मूल्‍यवान चारु का बलिदान है।
अशोक : [आश्‍चर्य से] बलिदान!
तिष्‍यरक्षिता : मेरी चारु ने अपना बलिदान कर दिया!
उपगुप्‍त : हाँ, महारानी! महाराज के अविश्‍वास से उसे हार्दिक दुख हुआ था। आज वह महाराज के बाहरी शिविर में महाराज से आज्ञा लेकर चली जाती और महानदी की लहरों में विश्राम करती, किंतु उसके पूर्व ही उसे विश्राम करने का अवसर मिल गया।
अशोक : किस प्रकार? शीघ्र बतलाइए।
उपगुप्‍त : महाराज! यदि चारुमित्रा के चरित्र-गान में कुछ विलंब लग जाय, तो आप धैर्य रखें! उसका चरित्र ही ऐसा है। आज चारुमित्रा आपके बाहरी शिविर में आपके लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी, किंतु संभवतः आपके लौटने में देर हुई।
अशोक : हाँ, मैं आज शिविरों के निरीक्षण के लिए चला गया था। अभी तक मैं अपने शिविर में शयन के लिए नहीं पहुँचा।
उपगुप्‍त : महाराज, उस शिविर में आप पर आक्रमण करने के लिए कलिंग के कुछ सैनिक छिपे हुए थे। वे संध्या से ही मगध-सैनिक के वस्‍त्र में शिविर में घूम रहे थे। चारुमित्रा को उन पर संदेह हुआ। उसने बातें कर यह जान लिया कि कलिंग के सिपाही हैं।
अशोक : [आश्‍चर्य से] फिर?
उपगुप्‍त : महाराज! देवी चारुमित्रा ने उन्‍हें धिक्‍कारते हुए कहा – कायरो, तुम लोग मेरे देश कलिंग के नाम को कलंकित करने वाले हो! यदि महाराज अशोक को मारना है, तो युद्ध में तलवार लेकर क्‍यों नहीं जाते? यहाँ चोरों की तरह घुस कर एक वीर पुरुष से छल करते हुए तुम्‍हें लज्‍जा नहीं आती!े छल करते हुए तुम्‍हें लज्‍जा नज्‍जा ं े ता से बहुत दू
अशोक : चारुमित्रा तुम धन्‍य हो! तुम देवी हो!
उपगुप्‍त : महाराज! उन सैनिकों ने चारुमित्रा को लालच दिया, कलिंग की विजय का स्‍वप्‍न दिखलाया, किंतु चारुमित्रा ने कहा – मैं अपने स्‍वामी से विश्‍वासघात नहीं कर सकती! मैं देश-भक्ति को जितना आदर देती हूँ, उतना ही स्‍वामिभक्ति को।
अशोक : चारु, तू अमर हो!
उपगुप्‍त : महाराज, चारु निश्‍चय ही अमर होगी। उसने उन सैनिकों को हट जाने के लिए ललकारा। जब वे नहीं हटे तो कक्ष में टँगी हुई तलवार लेकर उसने उन सैनिकों पर आक्रमण कर दिया।
तिष्‍यरक्षिता : धन्‍य चारु, चारु सैनिक भी है!
उपगुप्‍त : हाँ देवी, दो सैनिक घायल होकर भाग गए लेकिन एक सैनिक की तलवार चारु के कंधे पर लगी और वह गिर पड़ी। उसी समय मैं पहुँचा। वह कायर वहाँ से भाग कर पास की झाड़ी में छिप गया। देवी चारु ने अचेत होने से पहिले सारी कथा मुझे टूटे-फूटे शब्‍दों में सुनाई थी।
अशोक : धन्‍य है चारु! आज तूने अपने देश कलिंग को अमर कर दिया।
तिष्‍यरक्षिता : महाराज, मेरी चारु…
अशोक : महारानी, अधीर मत हो। चारु ने जो कार्य किया है, वह नारी-जाति के इतिहास में स्‍वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। और सुनो देवी, आज से अशोक ने… अत्‍याचारी अशोक ने युद्ध को सदैव के लिए छोड़ दिया! [तलवार भूमि पर फेंक देता है।]
सब : महाराज अशोक की जय!
अशोक : महाभिक्षु, आज से मैं हिंसा किसी रूप में न करूँगा। और देखूँगा कि मनुष्‍य का रक्‍त इस पृथ्‍वी पर न पड़े। प्रत्‍येक स्‍थान पर, सिंहासन पर, अंतःपुर में, विहार में, मैं जनता की सेवा करूँगा। आज से मेरा महान कर्तव्‍य होगा कि मैं सब जीवों की रक्षा का अधिक से अधिक प्रबंध करूँ।
उपगुप्‍त : देवानांप्रिय प्रियदर्शी महाराज अशोक का कल्‍याण हो!
अशोक : मेरे आदेशों को शिलालेख के रूप में लिखवाकर समस्‍त आर्यावर्त्त में प्रचार कर दो कि अशोक आज से उनकी रक्षा करने वाला उनका बंधु है।
चारुमित्रा : [बेहोशी दूर होने पर] महाराज अशोक की जय!
तिष्‍यरक्षिता : ओह, चारु तू अच्‍छी है!
अशोक : चारुमित्रा की जय! चारु?
चारुमित्रा : महाराज, क्षमा! आपकी आज्ञा थी कि मैं मगध की ओर से तलवारों के साथ भैरवी-नृत्‍य सीखूँ! पूरी तरह नहीं सीख सकी। क्षमा हो।
अशोक : चारुमित्रा, तू पाटलिपुत्र की शोभा है, उसके गौरव की विभूति है।
चारुमित्रा : महाराज आग के अंगारों पर नाचने का अवसर तो आपने नहीं दिया – अब मैंने अंगारों पर अपनी देह रखने का अवसर आप से माँग लिया! [क्षमा करें, देवी!]
तिष्‍यरक्षिता : ओह चारु, तू अच्‍छी हो जाएगी।
चारुमित्रा : नहीं देवी [शिथिल स्‍वर से] महाराज अशोक की जय।

[आँखें बंद कर लेती है। अशोक अवाक हो चारुमित्रा की ओर देखते रह जाते हैं।]

पटाक्षेप

 

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विजयदेव नारायण साही https://sahityaganga.com/%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%9c%e0%a4%af%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b5-%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%a3-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%b9%e0%a5%80-2/ Mon, 16 May 2016 10:37:59 +0000 http://sahityaganga.com/?p=7124 परिचय

विजयदेव नारायण साही जन्म 7 अक्तूबर, 1924 जन्म भूमि काशी, उत्तर प्रदेश मृत्यु 5 नवम्बर, 1982 मृत्यु स्थान इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश कर्म-क्षेत्र कवि, निबंधकार, आलोचक भाषा हिंदी और अंग्रेज़ी शिक्षा एम.ए. (अंग्रेज़ी) नागरिकता भारतीय विधाएँ कविता, आलोचना, निबंध अन्य जानकारी जायसी पर दिए गए इनके व्याख्यायान एवं नई कविता संबंधी आलेख इनकी प्रखर आलोचकीय क्षमता के परिचायक हैं।

विशेष
हिंदी साहित्य के नई कविता के दौर के प्रसिद्ध कवि, एवं आलोचक थे। वे तार सप्तक के कवियों में शामिल थे। जायसी पर दिए गए इनके व्याख्यायान एवं नई कविता संबंधी आलेख इनकी प्रखर आलोचकीय क्षमता के परिचायक हैं। संक्षिप्त परिचय विजयदेव नारायण साही का जन्म 7 अक्तूबर, 1924 को काशी में हुआ। प्रयाग से अंग्रेज़ी में एम.ए. करके तीन वर्ष काशी विद्यापीठ और फिर प्रयाग विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे। मज़दूर संगठनों से सम्बद्ध रहे तथा कई बार जेल गए। साही की कविताओं में मर्मस्पर्शी व्यंग्य हैं। ‘मछली घर’ तथा ‘साखी’ इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। ये ‘तीसरे सप्तक के चर्चित प्रयोगवादी कवि हैं। इन्होंने निबंध तथा समालोचना भी लिखी है। प्रवर समीक्षक, बौद्धिक, निबंधकार, और जायसी काव्य के विशेषज्ञ विद्वान थे। इनके अकाल निधन (5 नवम्बर, 1982) से हिन्दी नई कविता की बड़ी हानि हुई। ‘आलोचना’ और ‘नई कविता’ नामक दोनों पत्रिकाओं के संपादक मंडल में शामिल रहे। प्रमुख कृतियाँ कविता संग्रह तीसरा सप्तक (छह अन्य कवियों के साथ) मछलीघर साखी संवाद तुमसे आवाज़ हमारी जाएगी निबंध संग्रह जायसी साहित्य और साहित्यकार का दायित्व वर्धमान और पतनशील छठवाँ दशक साहित्य क्यों लोकतंत्र की कसौटियाँ वेस्टर्निज्म एंड कल्चरल चेंज नाटक कुर्सी का उम्मीदवार कोठी का दान एक निराश आदमी सुभद्र धुले हुए रंग बेबी का कुत्ता रामचरन मिस्त्री का बेटा अनुवाद गार्गांतुआ (फ्रांसीसी उपन्यास) सोसियोलोजिकल क्रिटिसिजम (ग्वेसटेव रुडलर – फ्रेंच से अंग्रेज़ी में) संपादन-  आलोचना नई कविता
 प्रस्तुत है साही जी की कुछ कविताएँ व कुछ आलोचनात्मक लेख 

सत की परीक्षा
साधो, आज मेरे सत की परीक्षा है
आज मेरे सत की परीक्षा है
बीच में आग जल रही है
उस पर बहुत बड़ कड़ाह रखा है
कड़ह में तेल उबल रहा है
उस तेल में मुझे सबके सामने
हाथ जालना है
साधो, आज मेरे सत की परीक्षा है!
सुनसान शहर
मैं बरसों इस नगर की सड़कों पर आवारा फिरा हूँ
वहाँ भी जहाँ
शीशे की तरह
सन्नाटा चटकता है
और आसमान से मरी हुई बत्तखें गिरती हैं ।

अकेले पेड़ों का तूफ़ान
फिर तेजी से तूफ़ान का झोंका आया
और सड़क के किनारे खड़े
सिर्फ एक पेड़ को हिला गया
शेष पेड़ गुमसुम देखते रहे
उनमें कोई हरकत नहीं हुई।
जब एक पेड़ झूम-झूम कर निढाल हो गया
पत्तियाँ गिर गयीं
टहनियाँ टूट गयीं
तना ऐंचा हो गया
तब हवा आगे बढ़ी
उसने सड़क के किनारे दूसरे पेड़ को हिलाया
शेष पेड़ गुमसुम देखते रहे
उनमें कोई हरकत नहीं हुई।
इस नगर में
लोग या तो पागलों की तरह
उत्तेजित होते हैं
या दुबक कर गुमसुम हो जाते हैं।
जब वे गुमसुम होते हैं
तब अकेले होते हैं
लेकिन जब उत्तेजित होते हैं
तब और भी अकेले हो जाते हैं।
इस नगरी में रात हुई
मन में पैठा चोर अँधेरी तारों की बारात हुई
बिना घुटन के बोल न निकले यह भी कोई बात हुई
धीरे-धीरे तल्ख़ अँधेरा फैल गया, ख़ामोशी है
आओ ख़ुसरो लौट चलें घर इस नगरी में रात हुई ।

प्यास के भीतर प्यास
प्यास को बुझाते समय
हो सकता है कि किसी घूँट पर तुम्हें लगे
कि तुम प्यासे हो, तुम्हें पानी चाहिए
फिर तुम्हें याद आए
कि तुम पानी ही तो पी रहे हो
और तुम कुछ भी कह न सको।

प्यास के भीतर प्यास
लेकिन पानी के भीतर पानी नहीं।
चौकन्ना जंगल
निराले में, रौंदी हुई सड़क के किनारे
नामालूम पौधा
सर उठा कर टोह लेता है

कंकरीट के नीचे दबा हुआ जंगल
इस समूचे शहर को
एक दिन
निगल जाने का अवसर ताकता है।
इन दबी यादगारों से
न दबी हुई यादगारों से ख़ुशबू आती है
और मैं पागल हो जाता हूँ
जैसे महामारी डसा चूहा
बिल से निकल कर खुले में नाचता है
फिर दम तोड़ देता है।

न जाने कितनी बार
मैं नाच-नाच कर
दम तोड़ चुका हूँ
और लोग सड़क पर पड़ी मेरी लाश से
कतरा कर चले गए हैं।
पितृहीन ईश्वर : एक मेलोड्रामा
कथाकार

अंध शून्य को वेधित करता
एक क्षीण स्वर किसी बिगुल का
सूने जल में चमकीला मछली का सहसा
तैर गया।
मह महाशर की रात उठी थीं जब आत्माएँ।

डूबे मस्तक
ख़ाली आँखें
हारे चेहरे
घायल सीने
बोझिल बाँहें
उतरे कन्धे
घना अँधेरा
स्तब्ध प्रतीक्षा।

देवदूत

ओ आत्माओं,
ओ आत्माओं,
खंडित करता हूँ मैं अपने शुभ्र मंत्र वे
खंडित करता हूँ मैं वे संदेश पुरातन,
खंडित करता हूँ मैं अपनी पावन आस्था,
ओ आत्माओं,
देख लिया मैंने गिरि सागर,
जंगल, नदियाँ, व्योम, मरुस्थल,
पिता नहीं है,
पिता नहीं है
सचमुच कोई पिता नहीं है,
हम सब के सब सिर्फ़ अभागे, सिर्फ़ अभागे
क्योंकि हमारा पिता नहीं है।

नीले सागर तट पर जाकर
जिसके आगे राह नहीं है,
अपनी आस्तिक छाती का सब ज़ोर लगाकर
मैंने पूछा :
‘‘समय आ गया
राह देखती हैं आत्माएँ
पिता कहाँ हो ?’’
नहीं मिला कोई भी उत्तर,
पागल सागर
उसी तरह फूलता और फूटता रहा।
उत्तर के ध्रुव की सीमा पर
जिसके आगे अतल शून्य है
अपनी पावन छाती का सब ज़ोर लगाकर
मैंने पूछा,

धर्मनिरपेक्षता की खोज में हिन्दी साहित्य और उसके पड़ोस पर एक दृष्टि – आलोचनात्मक लेख

र्मांधता और धर्मनिरपेक्षता के इस टकराव में क्या ‘आधुनिकता’ से कोई हल निकलता है? जिसे हम आधुनिकता करके जानते हैं वह खासी घुलनशील चीज है। वह इस्लामी परम्परावाद के अलग्योझे में घुल जाती है और मौलाना हाली के मुसद्दस और अल्लामा इकबाल के निखिल-इस्लामवाद को जन्म देती है। आधुनिकता क्षेत्रीयता में भी घुल जाती है और उस अजीबो-गरीब प्रादेशिक विलायतीपन को जन्म देती है जिसके दर्शन हमें कलकत्ता, बम्बई, मद्रास और दिल्ली में होते हैं। फिर यह आधुनिकता टी.एस. इलियट में घुल जाती है और एकमात्र ईसाई समाज की परिकल्पना तथा धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध इलियटवादी जेहाद को जन्म देती है। आधुनिकता का पहला थपेड़ा हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को विचलित करता है। भारतेन्दु आधुनिक हिन्दी साहित्य के बाबा हैं। उनकी शिव धनुष जैसी प्रगतिशीलता के बारे में हिन्दी आलोचना के परशुराम कम्युनिस्ट आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने जो ललकारता हुआ श्रद्धा भाव व्यक्त किया है वैसी श्रद्धा पाने के लिए पण्डित सुमित्रानन्दन पन्त लाखों पुरस्कारों के बाद भी तरस गए। और मैं डॉ. रामविलास शर्मा की धर्मनिरपेक्षता पर शंका करूँ, यह ताब, यह मजाल, ये ताकत नहीं मुझे! लेकिन नई हवा में प्रचारती हुई भारतेन्दु की कुछ पंक्तियाँ हम देखें –

धिक तिनकहँ जे आर्य होय यवनन को चाहैं,

धिक तिनकहँ जे इन से कछु संबंध निबाहैं।

उठहु बीर तरवार खींचि मारहु धन संगर,

लौह लेखनी लिखहु आर्य बल यवन हृदय पर।

बेशक ये पंक्तियाँ नाटक का पात्र बोलता है। लेकिन भारतेन्दु के मन में यहाँ और अन्यत्र भी जो घुमड़ रहा है वह छिपा नहीं है। इसी तरह फिरंगी साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिरोध के रूप में भारतेन्दु की ये पंक्तियाँ अक्सर उद्धृत की जाती हैं और लोग इन्हें खूब जानते हैं –

अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी।

पै धन बिदेस चलि जात यहै अति ख्वारी।

लेकिन इन पंक्तियों के ठीक पहलेवाली पंक्तियाँ कम उद्धृत होती हैं और उन्हें लोग जानते भी कम हैं –

लरि वैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी,

करि कलह बुलाई जवन सैन पुनि भारी।

तिन नासी बुधि बल विद्या धन बहु बारी,

छाई अब आलस कुमति कलह अँधियारी।

यहाँ भी कई चीजें एक साथ घुलमिल गई हैं। लेकिन भावनाओं का यह जोशाँदा सौदा हाली या इकबाल के स्वाद से अलग है। इस घोल में साफ भौगोलिक चौहद्दी का लाभ है। इस भावना की सार्थकता ‘वे’ विदेशी और ‘हम’ स्वदेशी के दो टूक विभाजन पर निर्भर है। इस तरह धर्म, भारत की गौरवमयी संस्कृति, भीतरी कलह का दुःख, देशभक्ति, समाज सुधार, एका और स्वाधीनता की पुकार यह सब भारतेन्दु में है। सिर्फ ‘हम’ एक सीमित ‘हम’ है। यहाँ भी हम तराजू के पलड़े का झुकाव देख सकते हैं। वैष्णव हरिश्चन्द्र जब इस नए मैदान में पैर रखता है तो कहाँ जाता है? धर्म से धर्मनिरपेक्षता की ओर समान दूरी के अर्थ में नहीं, धर्म की अपर्याप्तता के अर्थ में। हाँ, लेकिन यह ‘हम’ कैसा है – धर्मान्ध है या धर्मनिरपेक्ष? क्या ‘नीलदेवी’ नाटक की घटना भारतेन्दु के मन में धार्मिक अनुभूति की तरह करकती है या इतिहास के अन्याय की एक तड़प है, जो अपना समाधान माँगती है? ‘श्री चंद्रावली’ से ‘नीलदेवी’ तक कितना और किस तरह का फासला है? धार्मिक अनुभूति कहाँ खत्म होती है और ऐतिहासिक अनुभूति कहाँ शुरू होती है? आधुनिकता की नई हवा के साथ सारे तत्व गड्डमड्ड होते हैं।

सच कहिए तो हम एक निरापद सिद्धान्त की स्थापना कर सकते हैं। जब भी दो धार्मिक सम्प्रदायों के बीच की सीमा रेखा गरम होने लगती है तो हर सम्प्रदाय के मर्म में जो धार्मिक अनुभूति है उसकी जगह ऐतिहासिक अनुभूति लेने लगती है। तनाव बढ़ता है। विचित्र बात यह है कि आखिरकार ऐतिहासिक अनुभूति धर्मनिरपेक्ष अनुभूति है।

जैसे-जैसे हम उन्नीसवीं सदी की ओर बढ़ते हैं, पच्छिम की हवाएँ आती हैं और चिन्ता में डालनेवाले तत्व उभरते हैं। परम्परा, संस्कृति, देशभक्ति, राष्ट्रीयता – ये सारी भावनाएँ इस नई धार्मिक ऐतिहासिक पहचान के सर्वग्रासी प्रश्न से जुड़ने लगती हैं। धर्म जैसा पहले समझा गया था वैसा धर्म नहीं रह जाता, इतिहास से जो ध्वनियाँ पहले निकलती थीं, वैसी ध्वनियाँ नहीं निकलतीं। शुरू में जिन दो तरह की धर्मनिरपेक्षताओं का उल्लेख किया गया वे एक-दूसरे से लिपट कर नये भँवर पैदा करती हैं। ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि जो लोग ज्यादा धर्म में डूबे हुए हैं वे कम धर्मान्ध हैं, और जो धर्म की सतह पर हैं वे ज्यादा धर्मान्ध हैं। लेकिन मन का यह बुखार, ये तेवर पहले की हिन्दी कविता में नहीं मिलते। तब क्या मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के अध्ययन से कुछ काम लायक नतीजे निकलते हैं?

मध्य काल में सवाल का रूप सीधा है। जो कुछ मिलाप या समन्वय की ओर झुकता है, धर्मनिरपेक्षता की प्रक्रिया का अंग है। जो अटकाव या अलगाव पैदा करता है, वह इसके विपरीत है। मिलाप या समन्वय के पक्ष में दबाव उस प्रक्रिया से पड़ता है जिसे मैंने आरम्भ में समान दूरी वाली धर्मनिरपेक्षता कहा है।

अब हम हिन्दी साहित्य की उन ढाई तीन शताब्दियों को देखें जिन्हें इतिहासकारों ने भक्तियुग कहा है। श्रेष्ठ कविता का वह आरम्भिक युग है। अगर हम शुरू में ख़ुसरो की फुलझड़ियों को छोड़ दें तो चारों ओर धर्म ही धर्म है। लेकिन सिर्फ हिन्दू धर्म नहीं है। हिन्दू, इस्लाम और दोनों से परे कुछ और, धर्म के विविध रूप हैं। ये सब आवाजें मिलकर हिन्दी साहित्य का मिजाज बनाती हैं, इसे न भूलना चाहिए। दुनिया के अधिकतर देशों में जब धर्म का दौरदौरा रहता है तो पूरे माहौल में एक ही धर्म रहता है। विधर्म नहीं होता। और जब धर्म का पाश टूटता है तो उसके तोड़नेवाले उसी धर्म से उपजते हैं, विधर्मी नहीं होते। भक्तिकाल का माहौल बहुधर्मी है। भक्ति काव्य कहने से मन में फौरन सूरदास या तुलसीदास का नाम आता है। लेकिन इन कवियों के महत्त्वपूर्ण अग्रज भी हैं – कबीरदास और जायसी।

कबीरदास को हम क्या कहें? धर्मान्ध या धर्मनिरपेक्ष? इस तरह पूछने पर फौरन लगता है कि सिर्फ दो चौखटे काफी नहीं हैं। और भी होने चाहिए। इसी से साबित होता है कि धर्मनिरपेक्षता का सवाल उतना इकहरा नहीं है जितना सिर्फ यूरोप के अनुभव को देख कर मान लिया जाता है। हिन्दू और मुसलमान दोनों से समान दूरी पर अपने को जमाने की कबीर की कोशिश को सब जानते हैं। इस मंशा से वह धर्म को बल्कि दोनों धर्मों को निचोड़ते हैं। धर्म का एक काम यह भी होता है कि वह कुछ दुनियावी चीजों को ‘पावनता’ से मण्डित करता है और बाकी को ‘अपावन’ बनाता है। धर्मान्धता में यह पावन-अपावन टक्कर बड़ी उग्र हो जाती है और बहुतों को लपेटती है। कबीरदास की निचोड़ धर्म के पावन तत्व को मनुष्य की सहज आन्तरिकता में सीमित कर देती है। दुनिया खाली हो जाती है। बाहरी बातें ‘पावनता’ के घेरे के बाहर हो जाती हैं, गौण या निरर्थक हो जाती हैं। दूसरे शब्दों में यह ललकारकर चालू पावनता को धर्मनिरपेक्षता में बदलने का ढंग है। इन सब धर्मों से समान दूरी का प्रयास, धर्मनिरपेक्षता उपजाता है। यह बहुधर्मी समाज की खास शैली है।

लेकिन यह जरूरी नहीं है कि कबीरदास की तरह सब धर्मों से कूद कर बाहर आने पर ही ‘सार तत्व’ की अनुभूति हो। अपने धर्म के भीतर रहकर भी निचोड़ने का काम हो सकता है और समान दूरी वाली धर्मनिरपेक्षता बन सकती है। जायसी और उनके बाद के भक्तिकवि इसके उदाहरण हैं। सूफी कवि जायसी की अत्यन्त जटिल काव्य-प्रक्रिया के बारे में संक्षेप में कुछ कहना बहुत कठिन है। इसलिए भी कि उनके बारे में आम जानकारी कम है। जायसी कबीर से भिन्न हैं। वह अपने इस्लाम में दृढ़ हैं। लेकिन अभिव्यक्ति के लिए लोकभाषा को चुनते हैं। यानी फ़ारसी से इस्लाम का अनावश्यक रिश्ता तोड़ते हैं। पद्मावत में वह मानवीय प्रेम के उस रसायन का आविष्कार करते हैं जो मनुष्य को मुट्ठी भर धूल से उठाकर ‘वैकुंठी’ बनाता है। यहाँ तक तो ईरान के सूफियों ने भी किया। लेकिन जायसी अपने परिवेश और काव्य-माध्यम के चुनाव के कारण ईरानी सूफियों से कुछ आगे बढ़ने को विवश हैं। ईरान के सूफियों के सामने सिर्फ एक धर्म था, इस्लाम – उसी को उन्होंने प्रेम रसायन डाल कर निचोड़ा। लेकिन जायसी के सामने दुहरी चुनौती थी। अगर यह रसायन मनुष्य मात्र के हृदय में है तो सबको निचोड़ेगा। इस तरह एक धर्म का सार तत्व सब धर्मों का सार तत्व बनता है। जायसी का तसव्वुफ़ आगे बढ़कर, बिना अपने इस्लाम को छोड़े, हिन्दू धर्म के मर्म को स्पर्श करता है। कविता में एक तत्काल नतीजा यह निकलता है कि धारणाओं, प्रत्ययों, प्रतीकों, पुराकथाओं, मिथकों, शब्दों की एक उभयधर्मी, या बहुधर्मी दुनिया खड़ी हो जाती है, जो किसी एक धर्म के पाश से मुक्त हो जाती है। दीवारें टूटने लगती हैं। ‘कविलास’ और ‘जन्नत’ का फर्क मिट जाता है। कबीरदास की ललकारती आन्तरिकता तो अपने से बाहर किसी पावनता को नहीं मानती। लेकिन जायसी का प्रेमरसायन बेहिचक फैलता है। पद्मावती की तरह जिसे छूता है, ‘पावन’ बनाता चलता है। यहाँ तक कि पावन-अपावन का परिचित अन्तर मिट जाता है। वसन्त पूजा धर्म या कुफ्र नहीं रह जाती। वह उस अनुपम उल्लास का प्रतीक बन जाती है जहाँ ‘वैकुंठी’ तत्व का निवास है। संक्षेप में जकड़बन्द धार्मिक प्रतीक प्रत्यय या मानवीय प्रतीकों में बदलकर धर्मनिरपेक्ष होने लगते हैं।

लेकिन जायसी का कलेजा इतना ही नहीं है। वह इससे भी बड़ा है। अक्सर प्रेम-रसायनवादी धर्मों की यथार्थ टकराहट के समय कन्नी काट जाते हैं या मीठी बातें बोलकर चुप हो जाते हैं। प्रेम-रसायन बस मुँह में चुभलाने की चीज रह जाती है। लेकिन जायसी के पद्मावत की बनावट दूसरी है। उसके दो हिस्से हैं। पहला अंश – रतनसेन और पद्मिनीवाला -खासा अलौकिक और जादुई है। यहीं वह प्रेम-रसायन परिभाषित होता है। दूसरा अंश -अलाउद्दीन बनाम चित्तौड़वाला – लगभग यथार्थवादी और ऐतिहासिक घटना सरीखा है। इस तरह सत्य के दो स्तरों की मुठभेड़ है। कलेजा इसमें है कि जायसी अलाउद्दीन-चित्तौड़ की टक्कर को बेलाग-लपेट न सिर्फ शुद्ध हिन्दू-मुसलमान संघर्ष के रूप में वर्णित करते हैं, बल्कि पूरी कथा में अलाउद्दीन की जीत अवश्यंभावी नियति के रूप में मँडराती है। जायसी कहीं लीपापोती नहीं करते। लगता है कि वह जान-बूझ कर उस अलौकिक प्रेम-रसायन को दुखती रगों के संग्राम में डालकर परखना चाहते हों कि इसमें कुछ दम भी है या सिर्फ लफ्फाजी है। ‘वैकुंठी’ प्रेम का प्रतीक बिचारा चित्तौड़ दिल्ली के प्रबल प्रताप के सामने कहाँ तक ठहरेगा? रतनसेन पद्मावती का वह सारा मायालोक अलाउद्दीन की जीत की घड़ी आते ही जल कर राख हो जाता है। लेकिन सतही इस्लाम की जीत की यह घड़ी, उसकी नितान्त निरर्थकता की घड़ी बल्कि पद्मावती की निष्कलंक लपटों के आगे समूची हार की भी घड़ी है। पद्मावत का अन्त यूनानी या यूरोपीय अर्थ में ट्रैजडी नहीं है। वह कई स्तरों पर एक साथ विवेक-दृष्टि के परिप्रेक्ष्य का उदय है। जिस जौहर से अलाउद्दीन डरता रहा वह होकर रहा। वह मुट्ठी भर धूल उड़ा देता है और कहता है ‘पृथिवी झूठी है’। तृष्णा फिर भी नहीं मानती। चित्तौड़ पर वह अधिकार करता है और कथा का अन्त इस दोहे से होता है –

जौहर भईं इस्तिरीं पुरुख भये संग्राम।

पातसाहि गढ़ चूरा चितउर भा इस्लाम ॥

आलोचकों ने इधर ध्यान नहीं दिया है लेकिन अन्तिम टुकड़े ‘चितउर भा इस्लाम’ में जो जटिल व्यंग्य अन्तर्निहित है, उससे अर्थ की हजार पर्तें खुलती हैं। इन पर्तों के पीछे सिर्फ तसव्वुफ़ और ‘धार्मिक उदारता’ नहीं। कृतिकार के रूप में जायसी अपनी ममता सब को देते हैं, यहाँ तक कि राघवचेतन को भी। इस ममता के बावजूद मूल्यों का विवेक धारदार ही बनता है। कुन्द नहीं होता। ममता और विवेक के इस रिश्ते में हजार पर्त्तें बनती हैं और समान दूरी की स्थापना होती है। यह ‘उदारता’ से ज्यादा प्रतिबद्ध दृष्टि है।

सूरदास और तुलसीदास से लोग ज्यादा परिचित हैं। अतः उनकी व्याख्या की अधिक आवश्यकता नहीं है। जायसी में परमतत्व के प्रति जो तड़प है, उसका एक और रूप इन भक्त कवियों में मिलता है। यहाँ हम विचार में इतनी बात रख लें कि सूरदास की धार्मिक अनुभूति परम दर्शन को इतना घनत्व दे देती है कि वह उनके भीतर ही समूचा समा जाता है। बाहर कोई वृन्दावन नहीं बचता। या अगर बचता भी है तो असली वृन्दावन के निमित्त छूछे संकेत की ही तरह। जब कि तुलसीदास थोड़े भिन्न हैं। यह सही है कि उनकी धार्मिक अनुभूति भी मुख्यतः उनके मर्म में ही लहराती है, लेकिन कुछ बाहर भी छलकती है। हमारी रोजमर्रा की दुनिया में भी पावन-अपावन का भेद पैदा करती दिखती है।

जो भी हो, इस विविध सन्त सूफी-भक्ति साहित्य का मिला-जुला निचोड़ यही है कि धर्म को ‘आन्तरिक अनुभूति’ की तरह परिभाषित किया जाए। ये सारे कविगण धर्म को एक तरह के भीतरी संगीत में बदलकर अपने-अपने ढंग से समान दूरीवाली धर्मनिरपेक्षता तक पहुँचते हैं और दुनिया को इसके लिए काफी आजाद छोड़ देते हैं कि अपने इहलौकिक कायदे-कानून खुद बनाए, बशर्ते कि अन्तर्वर्ती वैकुंठी तत्व में खाहमखाह दखल न दे। बहुधर्मी समाज को जोड़े रखने के लिए मध्ययुगीन मानस तरह-तरह से इस धार्मिक अनुभूति को गाता है। जितना खुला काव्य हिन्दू मुसलमान दोनों को छूनेवाली लोकभाषा में हुआ, उतना विदेशी भाषा में सम्भव नहीं था। जैसा मैंने पहले कहा, सूरदास की धार्मिक अनुभूति लगभग कुल की कुल कवि के भीतर ही पर्याप्त है। अन्तरपट का उधड़ जाना ही उसकी प्रामाणिकता है। जब कि तुलसीदास की अनुभूति अपने प्रमाण के लिए बाहर का, उदाहरण के लिए वेद-पुराण-स्मृति आदि का भी सहारा लेती है। इतने से अन्तर से वाद में कितना भेद पड़ गया, इसका अच्छा संकेत हिन्दी कविता के विकास के अगले चरण से मिलता है। बाद की, यानी सत्रहवीं-अट्ठारहवीं शताब्दी की कविता ने सूरदास के प्रतीक राधा कृष्ण के चारों ओर एक नया काव्यलोक ही रच डाला, जिसकी मुख्य प्रवृत्ति उत्तरोत्तर ऐसी धर्मनिरपेक्ष शैली निर्मित करने की रही जिसमें एक साथ हिन्दू-मुसलमान सब हिस्सा ले सकें। इसके प्रतिकूल, रामचरितमानस से बाद वालों का कोई विशेष सर्जनात्मक प्रयोजन नहीं सिद्ध हो सका।

इस तरह धार्मिक तत्ववाद एक हल है जिसे हिन्दी कविता ने धर्मों के टकराव के बीच ठोस तरीके से सामने रखा। अगर यह हल सिर्फ तुलसीदास या सिर्फ सूरदास से भी आया होता तो हमारे मन में इसकी तस्वीर अच्छी, लेकिन एकाकी और दुर्बल धारा की ही तरह होती। लेकिन चूँकि इसमें कबीरदास सन्त और जायसी सूफी जैसे दूसरे किनारों के भी लोग हैं, और इन दोनों के साथ इस रंग में औसत कविताओं की खासी परम्पराएँ हैं, इसलिए हम देख सकते हैं कि हिन्दी के मिजाज में इन सबके घोल-मेल में बड़ी सम्भावनाएँ थीं। इन सम्भावनाओं के सीधे प्रवाह में जब अटकाव पैदा हुआ तो कविता ने अपना रूप बदला और एक दूसरे माहौल में समान जमीन तैयार की गई।

धर्मान्धता और धर्मनिरपेक्षता की सीधी बहस में विषयवस्तु की ओर ध्यान बरबस चला जाता है। लेकिन काव्य-सत्य में निहित समूची सम्भावना को देखने के लिए विषयवस्तु और रूप-विधान को अलग न करना उचित है। और यही लोकप्रचलित धर्मनिरपेक्ष तत्व – यानी बोलचाल की भाषा बड़े पैमाने पर काम करती दीखती है। बोलचाल की भाषा धर्मनिरपेक्ष इसी अर्थ में होती है कि धर्मों के अन्तर के बावजूद सभी लोग उसे बोलें। भाषा सबकी होकर धर्मनिरपेक्ष हो जाती है। जैसा हम जायसी में देखते हैं। समन्वय के पक्ष में दबाव पैदा होता है। इन धार्मिक तत्ववादी कवियों ने अपने-अपने ढंग से भाषा की चूलें ढीली कीं और सब धर्मों के लिए समान उपयोगी कविता-भंगिमा, समान छन्द-लय और समान प्रतीक योजना बनाई। एक ही अवधी से जायसी और तुलसीदास दोनों का काम चलता है। कविरूप में दोनों एक ही मनोभूमि के अंग हैं। अगर जायसी अपनी बात फ़ारसी में कहते और तुलसीदास संस्कृत में, तो प्रेम-रसायन या भक्ति-रसायन में समानता के बावजूद दोनों के दायरे अलग रहते। जैसे शेख सादी और जायसी की दुनियाएँ अलग हैं। दरवेश दोनों हैं। यहाँ संस्कृत और फ़ारसी हिन्दू और मुसलमान के साथ क्रमशः नत्थी हो गई थीं। लोकभाषा-हिन्दी दीवारें तोड़ती है और समन्वय का आह्वान करती है।

इससे कुछ समझ में आता है कि गाँधीजी और उनके अनुयायियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान क्यों इन कवियों को इतना उपयोगी पाया। इसे आँखों से ओझल करने पर दो ‘आधुनिक’ जिन्ना साहब ‘धार्मिक’ गाँधी जी से ज्यादा धर्मनिरपेक्ष लगेंगे। आज धार्मिक तत्ववाद को धर्मान्धता या धार्मिक विषमता का आखिरी इलाज या महत्त्वपूर्ण इलाज भी मानना कठिन है। कई कारण हैं। खास कर यही कि धार्मिक तत्ववाद धर्म को निचोड़ चाहे जितना दे लोगों की पहचान फिर भी उनके धर्म के ऊपरी छिलके से ही होती रहती है। धार्मिक तत्ववाद भी यही मान कर चलता है। ताक-झाँक साहब-सलामत बढ़ जाती है लेकिन गिरोह नहीं टूटते। आज के शब्दों में कहें तो यह एक तरह का ‘सर्व-सम्प्रदायवाद’ है, ‘गैर-सम्प्रदायवाद’ नहीं। लेकिन गैर-सम्प्रदायवाद इतनी आसान चीज भी नहीं है कि मध्य युग के इस हिन्दी काव्य को बिल्कुल बेकार ही मान लिया जाए।

लेकिन हिन्दी कविता घुलावटी तेजाब की तलाश में तात्विक धार्मिक अनुभूति पर ही टिक कर नहीं बैठ गई जैसा भारत की दूसरी भाषाओं में हुआ। धर्म के अतिरिक्त हिन्दी के मिजाज में एक और बीज था जिसकी पहली झलक अमीर ख़ुसरो की हिन्दी कविता में मिलती है। सत्रहवीं-अट्ठारहवीं सदी की कविता में, जिसे फिलहाल इतिहासकारों ने रीतिकाल नाम दे रखा है, धीरे-धीरे एक दिलचस्प प्रवृत्ति उभरती है कि साहित्य के केन्द्र से धार्मिक अनुभूति को ठेलकर वहाँ एक ललित रसमय अनुभूति जमा दी जाए। रीतिकाल या रीति काव्य नाम इस पूरी कोशिश को नहीं बल्कि उसके अंश को ही व्यक्त करता है। लेकिन यहाँ नाम को लेकर विवाद उठाने की जगह या जरूरत नहीं है। इसलिए मैं इन शब्दों का प्रयोग तो करूँगा लेकिन कुछ ज्यादा खुले अर्थ में। इसके बीज तो पहले भी थे, लेकिन बराह बाद में ही आई। इस नये मोड़ में शायद केन्द्रीय व्यक्ति अकबर के महत्त्वपूर्ण कवि, योद्धा, दरबारी, राज पुरुष और कवियों के आश्रयदाता अब्दुर्रहीम खानखाना थे। एक ऐसा राजपन्थ निकला जिसमें जायसी और तुलसीदास का रहा-सहा भेद भी जाता रहा। यहाँ हिन्दू-मुसलमान सब एक हो काव्यभूमि में बेहिचक चौकड़ियाँ भर सकते थे। रीतियुग को रीतिबद्ध या रीतियुक्त धाराओं में बाँटकर देखने से भ्रम पैदा होता है। कविता के अन्दरूनी उत्स में कोई भेद नहीं है। अन्तर के बावजूद इस सारे काव्य की व्यापक प्रवृत्ति अनुभूति की कमनीयता और ‘सही उक्ति’ की खोज है, जो कलात्मक माध्यम के प्रति अत्यन्त जागरूक है। रीति कविता की जीवनीशक्ति और उसके औचित्य के बारे में भी बीसवीं सदी में काफी शंकाएँ उठाई गई हैं। कभी उसकी नैतिकता को लेकर, कभी उसकी रूढ़िवादिता को लेकर और अक्सर इसलिए कि यह सारा काव्य दरबारी और सामन्ती है। उँगली उठानेवालों में क्या आदर्शवादी, क्या यथार्थवादी, क्या ‘भारतीय संस्कृति’-वादी और क्या कम्युनिस्ट धर्मनिरपेक्षतावादी, सभी रहे हैं।

लेकिन हमारी ओर से सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी की ब्रजभाषा कविता कुछ ज्यादा समझदार विश्लेषण की हकदार है अगर हमें उन धर्मनिरपेक्ष स्फुरणों को ठीक-ठीक समझना है जो भारत में उस समय जन्म ले रहे थे। फिर 1761 में एक बेमतलब पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई जिसमें किसी चीज का निबटारा नहीं हुआ और 1757 में बहुत मतलबों से भरी हुई प्लासी की लड़ाई हुई जिसने भविष्य के लिए सब कुछ का निबटारा कर दिया। फिर जिन समन्वयों के प्रयोग लोग लड़ते-भिड़ते जाने-अनजाने कर रहे थे उन सब पर मुर्दनी छाने लगी। इस पटाक्षेप के बावजूद ब्रजभाषा कवियों ने सबसे बड़ा कमाल यह किया कि जब एक ओर राजनीतिक एकता टुकड़े-टुकड़े हो रही थी उन्होंने आज जो हिन्दी-भाषी क्षेत्र कहलाता है, इस पूरे खित्ते के लिए बड़े मनोयोग से एक सर्वमान्य भाषाई माध्यम निर्मित कर डाला। इतना ही नहीं उसे परवान भी चढ़ाया। पूरे क्षेत्र को एक समान रुचि और काव्यभंगिमा दी। और लोकभाषा में तराश और प्रगल्भता की यह खोज निकाली जो न सिर्फ सात समुन्दर पार उसी समय के अंग्रेजी ‘मेटाफिजिकल’ कवियों की बौद्धिकता की जैसी लगती है, बल्कि बात पैदा करने में उनसे आगे भी निकल जाती है। पंजाब से लेकर मिथिला तक और कश्मीर से सतारा तक का हृदय एक तरह धड़काना सिर्फ दरबारी विलासिता या विमूढ़ रूढ़िवादिता के बूते का काम नहीं है। कुछ और है जो बिहारी के दोहों को बाँकी मुस्तैदी और घनानन्द के स्वर को कसकता हुआ पकापन देता है। भाषा का स्तरीकरण और भी मार्के की बात लगती है जब हम पहले की ओर देखते हैं। माना कि भक्ति-काव्य ने ब्रजभाषा को फैलाया। लेकिन समूचा भक्ति-काव्य, विशेषतः श्रेष्ठ काव्य फिर भी स्थानीय बोलियों में बँटा दीखता है। मीरा राजस्थानी में लिखती हैं, विद्यापति मैथिल में, कबीरदास अनगढ़ खिचड़ी में, सूरदास ब्रज में, तुलसीदास अवधी में, यहाँ तक कि प्रतिभा के धनी खानखाना भी कई आवाजों में बोलते हैं। इतना ही नहीं, सूरदास बहुत बड़े कवि हैं, रीति-कवियों से कहीं बड़े, लेकिन उनकी कविता में बराबर लगता है कि एक महान प्रतिभा अपने को ब्रजभाषा में अभिव्यक्त कर रही है। जबकि रीति-काव्य में लगता है कि कवियों से अलग ब्रजभाषा की अपनी प्रतिभा की अभिव्यक्ति हो रही है। ‘भाषा की अपनी प्रतिभा’ की अभिव्यक्ति ही वह सृजनात्मक स्तरीकरण है जो भाषा को सबकी सम्पत्ति बना देती है।

इसके अलावा हिन्दू-मुसलमान दोनों दरबारों में ब्रजभाषा कविता के एक ही मुहावरे का उदय एक ऐसा समन्वय है जो अकेले धार्मिक तत्ववाद के मान का नहीं है। इसके लिए इस ‘बौद्धिक’ शृंगार रस की जरूरत थी जिसने इस नये फैशन को चालू किया। मैं ‘बौद्धिक’ विशेषण जान-बूझकर इस्तेमाल कर रहा हूँ क्योंकि रीति काव्य की अन्तर्निहित बौद्धिकता को न समझ पाने के कारण ही लोगों ने विलासिता या अनैतिकता के बेमानी फतवे किए और रीतिकाल के श्रेष्ठ काव्य की प्रकृति को नहीं पकड़ सके।

इस सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यद्यपि ब्रजभाषा बिहारीलाल और देव जैसे कवियों की नागरिक प्रगल्भता को विकसित करती है, उसका रिश्ता गाँवों से नहीं टूटता। विषय-वस्तु की दृष्टि से ही नहीं, और गहरे ब्रजभाषा के मिजाज की दृष्टि से। यह बोध बराबर होता रहता है कि यह नागरिकता नीचे से उठती हुई भाषा में से कल्ले फोड़ रही है। उधार ली हुई निजड़ी अन्तर्राष्ट्रीयता का नतीजा नहीं है। गाँव और शहर की पहली सन्धि रहीम की कविता में साफ दीखती है। बाद में तराश और खराद बढ़ी। इस हिन्दी कविता के विपरीत उसी समय की हिन्दुस्तानियों द्वारा लिखी हुई ढेरों फ़ारसी कविता है जिसकी शहरियत, फसाहत और बलागत बिल्कुल परदेशी नकल मालूम पड़ती है। अकबर के दरबार में ही यह दोमुँहापन मौजूद है। यह नहीं भूलना चाहिए कि उस समय एक ही सामाजिक सन्दर्भ को तीन न सही तो ढाई भाषाएँ रचनात्मक साँचे में ढाल रही थीं। एक फ़ारसी, एक ब्रजभाषा, आधी संस्कृत। आधी इसलिए कि संस्कृत की गर्दन ब्रजभाषा काफी मरोड़ चुकी थी। इन तीनों रचना संसारों को अगल-बगल रखने पर साफ दीखेगा कि ब्रजभाषा की जीवनीशक्ति कहाँ है और क्या कर रही है।

विस्तृत हिन्दू प्रजा पर जमे हुए इस्लामी राज ने कालान्तर में फिरदौसी-समन्वय को तो जन्म नहीं दिया लेकिन रीति काव्य के रूप में उसने एक-दूसरे तरह के समन्वय को आकार जरूर दिया : संस्कृत काव्य की निर्वैयक्तिक भावाभिव्यक्ति और फ़ारसी गजल की शेरगोई के बीच। बेशक इस घोल में देशी परम्परा की प्रधानता थी। लेकिन ब्रजभाषा के छन्द जिनसे भावों की लय अर्थात कविता के प्राणतत्व का सृजन होता है बिल्कुल ठेठ हैं। न वे संस्कृत के ऋणी हैं, न फ़ारसी के। सवैया, घनाक्षरी, बरवै, दोहा ये सब नीचे लोक-लय से उठते हैं और ब्रजभाषा के माध्यम से क्लासिकी स्तर पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं। सिद्धान्ततः प्रयोग का रास्ता बन्द नहीं है। साथ ही, इस समन्वय की कई मंजिलें हैं। घनानन्द तक आते-आते हिन्दी कविता फ़ारसी ग़ज़ल के बहुत निकट आ जाती है। घनानन्द और उर्दू कवि मीर लगभग एक ही समय के हैं। दोनों में कितनी समानता है, और फिर भी दोनों की दुनियाएँ कितनी अलग हैं।

इस तरह भारत की लोकभाषा और लोकमानस मुस्लिम राज के लगभग सात सौ बरसों के दौरान दो लहरें नीचे से ऊपर की ओर फेंकता है। लगता है कि दो शक्तिशाली बवण्डर धरती और आकाश को जोड़ने के लिए उठते हैं। एक उछाल भक्ति साहित्य के माध्यम से है जिसकी परिणति धार्मिक तत्ववाद में होती है। दूसरी उछाल निर्वैयक्तिक शृंगारिकता के माध्यम से है जिसकी परिणति एक तरह की सौन्दर्यवादी धर्मनिरपेक्षता में होती है।

मगर आकाश का रास्ता इन बवण्डरों के लिए बन्द है। आधुनिकतावादियों ने मान रखा है कि मध्य युग में जीवन के हर पहलू को धर्म निगल जाता है। यह धारणा यूरोप के बिल्कुल भिन्न एकधर्मी मध्ययुगीन समाजों के अनुभव पर आधारित है जिससे लोग भारत के सन्दर्भ में अक्सर आँख मूँद कर लागू कर देते हैं। इस व्यापक धारणा के बावजूद, धरती और आकाश के संगम के बीच भटकाव पैदा करनेवाली चीज भारत में न धर्म है, न इस्लाम, बल्कि एक तीसरा ही संयोग है जिसका कोई आन्तरिक या वास्तविक सम्बन्ध इस्लाम से है ही नहीं। वह है फ़ारसी भाषा। अपने को ठेठ देशी बनाने की धुन में जिस अकबर ने दीने-इलाही तक का आविष्कार किया, उसी ने ऊपर से नीचे तक राजकाज में विदेशी भाषा फ़ारसी को थोप दिया। फ़ारसी थी तो पहले भी, लेकिन अकबर के समय से यह ‘प्रगतिशील’ दुचित्तापन व्यवस्था का अनिवार्य अंग बन गया। इसका परिणाम कुछ दाराशिकोह ने भुगता, कुछ मुगल साम्राज्य ने, कुछ भारत-पाकिस्तान आज भी भुगत रहा है। ब्रजभाषा के सामने यह फ़ारसी भाषा फिरदौसी की व्यापक कल्पनाशीलता के रूप में नहीं है, बल्कि अपने ठस भौतिक रूप में है : सत्ता, नौकरशाही, रुतबेबाजी और महत्त्वाकांक्षा की भाषा के रूप में। प्रेम और महत्त्वाकांक्षा, शायद ये दो ही शक्तियाँ हैं जो किसी साहित्य को लोहा मनवाने लायक धर्मनिरपेक्षता प्रदान करती हैं। फ़ारसी के चलते हिन्दी भाषी क्षेत्र दुचित्ता हो गया। ब्रजभाषा प्रेम की भाषा हो गई। फ़ारसी महत्त्वाकांक्षा की। परिणाम हुआ अधूरापन।

इसीलिए जो सौन्दर्यात्मक अथवा शृंगारी धर्मनिरपेक्षता ब्रजभाषा ने संचित की वह बेसहारा और इतिहास विमुख है। इतिहास से टकराने का काम महत्त्वाकांक्षा का है। ब्रजभाषा कविता यूरोप की पैस्टोरल कविता की तरह अपना एक खास कविता-जगत बुन लेती है और ऐतिहासिक यथार्थ-देश काल में बँधे हुए यथार्थ से भरसक बचती है। इसे हम बेहतर यों कह सकते हैं कि जिस कदर यह कविता ऐतिहासिक यथार्थ के स्पर्श से अपना दामन बचाने में समर्थ होती है, उसी कदर वह उस चारुता को ग्रहण कर पाती है, जिसका उत्कर्ष उसकी अभिव्यंजना का लक्ष्य है। ऐतिहासिक यथार्थ का एक रूप राजनीति है। ब्रजभाषा की दुनिया ऐतिहासिक यथार्थ का सामना करने में कितनी अशक्त है इसका अच्छा दृष्टान्त भूषण की कविता है। औरंगज़ेब-शिवाजी संघर्ष में भूषण की प्रतिबद्धता मात्र राजस्तुति से कुछ ज्यादा है। लेकिन राजनीति से उलझने की इस अपवादस्वरूप कोशिश में कविता की चारुता नष्ट होने लगती है, भावों में लट्ठमारपन आने लगता है। इन सीमाओं के साथ रीतियुग की कविता धार्मिक अनुभूति के बाहर, या कम से कम उसके समानान्तर सबके लिए उपलब्ध एक नया रचना संसार सँजोने की कोशिश करती है जिसके एक सिरे पर केशवदास और रहीम हैं, दूसरे सिरे पर घनानन्द और गुलाम नबी रसलीन हैं।

फ़ारसी, अपनी अविनश्वर सत्ता के छलावे में डूबी हुई, और ब्रजभाषा इतिहास के व्याकुल करनेवाले संस्पर्श से दामन बचाती, संगीत की अमूर्त्त अवस्था में पहुँचने के लिए प्रयत्नशील – यही उस समय का साहित्यिक दृश्य है जब मुगल साम्राज्य बालू की दीवार की तरह गिरता है।

ब्रजभाषा का कलंक यह नहीं था कि वह दरबारी थी, बल्कि अधूरी दरबारी थी; यह नहीं कि उसे राजाओं का आश्रय मिला, बल्कि यह कि वह राज्य से एकाकार नहीं हो सकी। विदेशी फ़ारसी रास्ता रोके खड़ी रही।

शायद ही किन्हीं लोगों ने अपनी साम्राज्यशालिनी राजधानी के छीनने की गवाही इतनी संयत वेदना, इतनी नफीस वज़ादारी, इतनी शालीन आत्मलीनता के साथ दी हो जितनी दिल्ली के उन चुनिन्दा ‘मुंतखिबे रोजगार’ लोगों ने जिन्होंने मीर से लेकर ग़ालिब तक की दिल्ली कविता को जन्म दिया। न जाने पाटलिपुत्र और उज्जयिनी के लोगों ने अपने महानगरों की वीरानगी को किन आवाजों के साथ झेला। हम तक उनका कोई निशान बाकी नहीं है। रोम और एथेंस के लोग तो निश्चय ही बदहवास और चिटखते हुए दीखते हैं। लेकिन दिल्ली, और एक हद तक लखनऊ के भी लोग, सचमुच ‘आलम में इंतखाब’ हैं। वे चिटखते नहीं, निहायत फसीह शायरी रचते हैं। मीर की डबडबाई हुई आत्मीयता से लेकर ग़ालिब की सितम ज़रीफ़ी तक वजादारी की एक रेखा है जो व्यक्त-अव्यक्त आदर्श की तरह दिलों को सालती रहती है :

चली सिम्ते-ग़ैब से एक हवा

कि चमन सरूर का जल गया

मगर एक शाख़े-निहाले-ग़म

जिसे दिल कहें वो हरी रही।

बेशक यह कसावदार शालीनता, ग़म और ज़ब्त की यह खास घुलावट सब कवियों में नहीं है। कुछ टूट भी जाते हैं। कुछ सिर्फ छिछोरपन और चटखारे का रास्ता पकड़ते हैं। एक परिणति अमानत लखनवी की ‘इंदर सभा’ और दाग़ देहलवी की ‘हमने उनके सामने पहले तो ख़ंजर रख दिया, फिर कलेजा रख दिया, दिल रख दिया, सर रख दिया’ भी है। लेकिन इस सबके बावजूद एक ठहरी हुई कसक श्रेष्ठ उर्दू ग़ज़ल के लिए प्रतिमान बनकर बराबर छाई रही :

याद थीं हम को भी रंगारंग बज्म-आराइयाँ

लेकिन अब नक्शो-निगारे-ताक़े-निसियाँ हो गईं।

‘पूरब के साकिनों’ से भिन्न ये ‘रोजगार के मुंतख़िब’ लोग हैं। लेकिन जैसे-जैसे हम उस दिल्ली की कविता पढ़ते जाते हैं, हमारे ऊपर एक बन्द दुनिया का वातावरण छाता जाता है। मैंने पहले संकेत किया है कि मीर और घनानन्द को पास-पास रख कर देखने पर दोनों में निकटता दिखती है। दोनों ही फ़ारसी ग़ज़ल के पास खड़े हैं। दोनों ही का लहजा तरल पीड़ा को व्यक्त करता है। लेकिन घनानन्द पुरुष की ओर से विरह की अभिव्यक्ति और ‘माशूक की बेवफ़ाई’ जैसे ग़ज़लनुमा काव्य सन्दर्भ के बावजूद, ब्रजभाषा कविता की ही परम्परा में हैं। इसके विपरीत मीर उस सारी परम्परा से कट कर अपने को एक नए दायरे में घेर रहे हैं। मीर की कविता में कसक के साथ एक घिरता हुआ अँधेरा है, जब कि घनानन्द की कविता में खुलापन है।

यह भी एक नया समन्वय था, लेकिन बहुत दाम चुकाने के बाद। प्रो. एजाज़ हुसैन ने अपनी किताब ‘मज़हब और शायरी’ में दिखाया है कि उर्दू कविता का जन्म और पालन-पोषण सौ फ़ीसदी धर्म अर्थात इस्लाम का नतीजा है। लेकिन उन्होंने खुद उर्दू को फ़ारसी-परस्ती से जोड़ा है। फ़ारसी का इस्लाम से क्या सम्बन्ध है? मुगल साम्राज्यवाद का सम्बन्ध फ़ारसी से था। लेकिन मुगल साम्राज्यवाद और इस्लाम धर्म दो चीजें हैं। यह बात वैसे ही सच है जैसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद और ईसाई धर्म अलग-अलग चीजें हैं। अगर कोई ईसाइयों के लिए अंग्रेजी-परस्ती जरूरी समझे तो यह बुद्धि-विभ्रम ही कहा जाएगा। प्रो. एजाज़ हुसेन कुछ गहरे जाते तो शायद ठीक नतीजे निकालते और भविष्य के लिए कुछ रास्ता भी साफ करते।

बहरहाल जब तक दिल्ली में इतनी शक्ति आई कि ऊपर से थोपे हुए फ़ारसी के गुट्ठल और दमघोंटू ढक्कन को उतार फेंके तब तक अवसर बीत चुका था। ‘बड़ी देर की मेहरबाँ आते-आते।’ अगर खड़ी बोली ने फ़ारसी को अकबर के जमाने में ही उतार फेंका होता तो प्रेम और महत्त्वाकांक्षा, फिरदौसी और कालिदास के बीच आखिरी समन्वय करने का सेहरा दिल्ली की उर्दू के ही सर होता। जायसी ने जो काम शुरू किया था वह बड़े पैमाने पर आगे बढ़ता। शायद तब ब्रजभाषा और रीतिकाव्य की जरूरत भी न पड़ती। लेकिन उर्दू तब उठी जब दिल्ली गिर रही थी और पुरानी ऊर्जा चुक गई थी। इसलिए जन्म के साथ उर्दू में अनुभूति की धरोहर सँजोने, घेरे को छोटा करने की अलगाववादी मुद्रा आई। बेशक दिल्ली की उर्दू का मतलब था सात सौ बरसों की बंजर फ़ारसीगोई का बहिष्कार, लेकिन लगे हाथ सारे ब्रजभाषा साहित्य का बहिष्कार भी, जिससे उसका जन्म हुआ और जिसकी परम्परा को निभाने में उर्दू असमर्थ रही। मीर और ग़ालिब का मतलब सिर्फ देव और बिहारीलाल को ही भूलना नहीं हुआ बल्कि फेहरिस्त से कबीरदास, जायसी, रहीम और उन तमाम लोगों का नाम खारिज करने का हुआ जिन्होंने एक मिले-जुले देसी मिजाज को बनाने में पहल की थी। यहाँ तक कि पड़ोसी आगरे का नज़ीर भी इस दुनिया के लिए अजनबी रह गया। बदले में मिला क्या? शेख अली हजीं का नकचढ़ापन। इस उठाव के पीछे सिर्फ ब्रजभाषा की जगह खड़ी बोली को स्थापित करने का जोर नहीं था बल्कि खड़ी बोली पर खुरासान की चाशनी लपेटने का अरमान भी था, जिसका कोई वास्तविक रिश्ता इस्लाम से नहीं था। दिल्ली की आखिरी शमा से चाहे रहा हो। उर्दू ने लोकजीवन से विकसित छंदों और लयों को छोड़ दिया, नीचे से उठती हुई किसी नई लय के लिए नहीं बल्कि ईरान से मँगाए हुए फ़ारसी छन्दों के पक्ष में जिनकी जकड़बन्दी को अब जाकर उर्दू कविता में यहाँ-वहाँ चुनौती दी जा रही है। ऊपर नीचे, भीतर बाहर, सजधज सबमें ईरानियत छा गई। कितनी भिन्न थी खानखाना की दिशा जिन्होंने खुद फ़ारसी में हिन्दी का बरवै छन्द लिखा था :

मीगुज़रद ईं दिलरा वे दिलदार यक यक साअत हमचू साल हजार।

(प्रिय के बिना मेरे हृदय के लिए एक-एक घड़ी हजार वर्षों की तरह बीत रही है।)

एक वक्त था जब हिन्दी कविता ने फ़ारसी कविता को प्रभावित किया था और फ़ारसी में वह शैली निकली जिसे आज भी ‘सुबके-हिन्दी’ कहा जाता है। लेकिन फ़ारसी इसे पचा कर समृद्ध हुई। अरसे बाद फ़ारसी ने इस तरह हिन्दी को ‘सुबके-उर्दू’ दिया जो हिन्दी के पचाव के बाहर था। साहित्यिक भाषा के दो टुकड़े हो गए।

एक खास शहरियत का तेवर पाने के लिए दिल्ली की उर्दू ने गाँवों में फैले हुए हिन्दुस्तान से अपना सम्बन्ध बिल्कुल काट लिया। वस्तुतः ब्रजभाषा को उसके हिन्दूपन के कारण नहीं छोड़ा गया। आखिरकार उसी समय बिलग्राम के गुलाम नबी रसलीन अल्लाह पैगम्बर और अली की स्तुतियाँ ब्रजभाषा में लिख ही रहे थे। ब्रजभाषा मतरूक इसलिए हुई कि वह उस सिकुड़ती हुई महानागरीयता के लिए ‘फसीह’ नहीं लगती थी। दूसरे शब्दों में देहाती थी। इस तरह जहाँ महत्वाकांक्षा, कलेजे की चौड़ाई और भारत का प्रतिनिधित्व करनेवाली लहर होनी चाहिए थी, वहाँ ‘घर-की-याद’ में टीसता प्रवासी मन बैठ गया और सौदा को हिन्द की जमीन नापाक लगने लगी। चारों ओर विरोधियों से घिर जाने की मनःस्थिति ने दिल्ली की उर्दू कविता को एक तरह की सर्जनात्मक कुलीनता की ठसक दे दी, जैसे मुहम्मदशाह की पगड़ी में छिपा हुआ, न जाने किन यादगारों के साथ चमकता बेशकीमती कोहेनूर हो। गिरती हुई दिल्ली ने उर्दू ग़ज़ल के नये ब्राह्मणों को जन्म दिया।

लोगों को गुमाँ ये है कि वह अहले-ज़बाँ हैं।

दिल्ली नहीं देखी है ज़बाँदाँ वो कहाँ हैं।

इस मनःस्थिति की तुलना ब्रजभाषा के फैलाव से कीजिए :

ब्रजभाषा हेतु ब्रजवास ही न अनुमानो

एते-एते कविन्ह की बानी हू ते जानिये

इस अलगाव में उर्दू ने जो सबसे बड़ा मोल चुकाया वह था ब्रजभाषा के प्रभुत्व सम्पन्न तेवर का – उस अनायास क्षमता का जिसके सहारे ब्रजभाषा फ़ारसी और संस्कृत दोनों के ही शब्दों को अपने प्रवाह के कोड़े मारकर ठेठ रूप में बदल देती है, जिसके आगे कृष्ण कन्हैया हो जाते हैं और मुहम्मद मुहमद। संस्कृत शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने की ताकत तो उर्दू के पास बच गई लेकिन फ़ारसी के आगे उसे लकवा मार गया। और इसके साथ ही, पहले की ‘सुबके हिन्दी’ की तरह, फ़ारसी कविता को प्रभावित करने की शक्ति भी गई। आगे का प्रभाव सिर्फ एकतरफा-फ़ारसी से उर्दू की ओर।

दिल्ली-भाषा का यह नया फैशन ‘घर की याद’ वाली कसक के लिए निहायत मौजूँ था और इसने धर्मनिरपेक्ष ईरानीनुमा ग़ज़लों में लुभावनी कविता को जन्म दिया। ग़ालिब तक ग़ज़ल में वास्तविक सर्जनात्मकता है। उसके बाद ग़ज़ल की अनुभूति प्रामाणिकता – उसका ‘तगज्जुन’ – खत्म हो जाता है और ग़ज़ल महज ‘संस्कृति’ रह जाती है। कहते हैं कि खजुराहो में एक गाइड ने किसी सैलानी को समझाते हुए कहा, ”जी नहीं, यह मन्दिर जहाँ अभी भी पूजा चलती है हिन्दू धर्म है, वे मन्दिर जहाँ कोई नहीं पूजता भारतीय संस्कृति हैं।” संस्कृति उसी अर्थ में। इक़बाल से लेकर फ़िराक़ तक सब ग़ज़ल के सैलानी हैं, साधक नहीं। उर्दू कविता धीरे-धीरे केंचुल बदल रही है, लेकिन बहुत धीरे-धीरे।

यह नया समन्वय भी रीतिकाव्य की तरह इतिहासनिरपेक्ष और धर्मनिरपेक्ष था। सिर्फ इसका फाटक ईरान की ओर खुला हुआ था। इसलिए आगे चलकर फिरंगी राज में जब नये भारत को स्वदेशी-विदेशी के उत्कट विवेक की जरूरत पड़ी तो तरह-तरह के पेचोख़म पैदा होने लगे। आखिरकार सौदा हिन्दी क्षेत्र के पहले कवि हैं जिन्होंने कम्पनी बहादुर के अंग्रेज-अफसर की शान में कसीदा लिखा था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की मनःस्थिति का स्रोत इसी पेचोख़म में है जिसने हिन्दी उर्दू की दुनियाओं को अलग किया। इससे हिन्दी उर्दू दोनों को नुकसान पहुँचा। कुछ दिनों तक ब्रजभाषा और उर्दू दोनों ही इतिहास-विमुख निरपेक्षता की राह पर अलग-अलग चलीं। तब तक एक तरह का सहअस्तित्व बना रहा। लेकिन जैसे ही उन्नीसवीं सदी में नई हवाएँ, नई चुनौतियाँ आने लगीं, सर्जनात्मक अनुभूति में इतिहास की चेतना व्याकुल होने लगी, हिन्दी उर्दू दोनों के लिए धर्मान्धता और धर्मनिरपेक्षता को लेकर असली और पेचीदा सवाल उठने लगे। तूफान उठे और राजनीतिक तनाव सतह पर आ गए। जो भारत की अन्य भाषाओं में नहीं हुआ था, वह हिन्दी भाषी उत्तर में पहले ही हो चुका था। मनोभूमि दो टुकड़े हो चुकी थी, यद्यपि हिन्दी-उर्दू भाषा की नींव एक ही थी। दूसरी भाषाओं और भारतीय संगीत के लगभग समूचे समन्वय के प्रतिकूल, हिन्दी उर्दू की भाषाई समानता नए तनावों का मुकाबला करने की जगह इन आँधियों का खिलौना बन गई। धर्म की जो धार्मिक अनुभूति है उसे तो हिन्दी उर्दू दोनों ने छोड़ दिया। उसकी जगह ‘संस्कृति’ नाम की धर्मनिरपेक्ष-सी लगने वाली एक नई चीज केन्द्र में आ गई जिसने भारी झगड़े उठाए। उन्नीसवीं शताब्दी और उसके बाद के धर्मान्ध विवादों में धर्म का वह निजी रूप नहीं है जिसे मध्य युग के साहित्य ने केन्द्र में डाला था। उस निजीपन की जगह इतिहास ने ले ली। इतिहास के साथ उत्थान-पतन, सत्ता-विद्रोह, गौरव-अपमान, अपनापन-परायापन यह सब सामने आ गया। धर्मान्धता जितनी बढ़ती है धार्मिक अनुभूति उतनी ही गौण होती जाती है। साहित्य में आधुनिकता का पहला दौर इस तरह शुरू होता है। यही इस परिवर्तन का अन्तर्विरोध है जिससे एक तरफ नई हिन्दू धर्मनिरपेक्षता और नई मुस्लिम धर्मनिरपेक्षता की विचित्र टक्कर दिखती है दूसरी तरफ समान दूरीवाली पुरानी धर्मनिरपेक्षता अर्थात धार्मिक तत्ववाद के बचे हुए लोग बड़ी चिन्ता और लगन के साथ मिलाप की सतह खोजने में तल्लीन दिखते हैं।

जो लोग यूरोप के ही तजुर्बों से अपनी सारी धारणाएँ बनाते हैं और उन्हें भारत में कसौटी की तरह इस्तेमाल करके फैसला करते हैं, उन्हें इस पेचीदगी से सबक लेना चाहिए। यूरोप में नवजागरण का काम था मध्य युग के यूरोपव्यापी ईसाई महामण्डल के टुकड़े-टुकड़े करके नये राष्ट्रों को जन्म देना। हिन्दुस्तान में नवजागरण के सामने समस्या थी समाज को टूटने के खतरे से बचाकर एका पैदा करना। नवजागरण और आधुनिकता की हवा तनाव को और तीखा कर देती है। ‘धार्मिक’ अनुभूति सबको मिलाने की कोशिश करती है। यह विचित्रता क्यों है? यूरोप का नवजागरण पूरे समाज में सिर्फ एक धर्म का मुकाबला करता है। हिन्दुस्तान के नवजागरण के सामने मुकाबले के लिए कम-से-कम दो बड़े धर्म हैं। अतः नई दुनिया की रोशनी और राष्ट्रीय एकता की जरूरत एक ही दिशा में काम नहीं करती।

लगता है कि मैं सुझा रहा हूँ कि मध्य युग के धार्मिक तत्ववाद ने टकराव और मिलाप के मामले में आधुनिक युग के धार्मिक निरर्थकतावाद के मुकाबले कुछ ज्यादा समझदारी का समाधान पेश किया। बिल्कुल इसी तरह तो नहीं, लेकिन इतना जरूर कहना चाहूँगा कि आज धर्मान्धता और धर्मनिरपेक्षता की जाँच-पड़ताल में मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दिखती हुई मिलाप-तनाव, आकर्षण-विकर्षण की प्रक्रिया को आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता। आज की धर्मनिरपेक्षता को मध्य युग का सामना बेलौसपन के साथ और बिना कतराये करना होगा। आज धर्मनिरपेक्षता के हिमायतियों में जो दोमुँहापन है, उसके हल के संकेत और उस समस्या की जड़ भी वही हैं। कम-से-कम साहित्य का अध्ययन तो यही बताता है। मैं यह भी कहना चाहूँगा कि मैदानों में फैली ब्रजभाषा मिलाप की भट्ठी में पकती है और सिकुड़ती राजधानी की उर्दू अलगाववादी नए ब्राह्मणत्व की अभिलाषा में परवान चढ़ती है। साहित्यिक आलोचना की शब्दावली में कहें तो फर्क सिर्फ भाषा शब्दभण्डार का नहीं था, गहरे जाकर संवेदना और काव्यानुभूति की बनावट का था।

तब से अब तक उर्दू-हिन्दी दोनों ने बड़ी मंजिलें तय की हैं। हिन्दी ने केंचुल कुछ ज्यादा बदला, उर्दू ने कुछ कम। धर्मान्धता और धर्मनिरपेक्षता को लेकर मिजाजों में बदलाव आया है। मगर उर्दू और उसके रिश्तों की व्याख्या को हम फिलहाल छोड़कर हिन्दी को ही देखें जो इस लेख का मुख्य विषय है।

उर्दू की एकतरफा किनाराकशी के बाद, अधूरी ब्रजभाषा अपने अस्तित्व की शर्त पूरी करने में असमर्थ रह गई। नई हवा ने उसे विकसित करने के बजाय किनारे लगा दिया। भारतेन्दु की नई हिन्दी में जो झंकारें उठीं, उनकी एक अतिवादी ठनक हम इस लेख के आरम्भ में देख चुके हैं। खड़ी बोली हिन्दी के सिर पर तीन दायित्व थे। एक, नए सिरे से ब्रजभाषा की मिलाप वाली परम्परा को चलाना। दो, किसान समाज को, जिसे दिल्ली लखनऊ ने त्याग दिया था, अभिव्यक्ति देना। तीन, भारत के समूचे इतिहास को आत्मसात करके एक नया भारत-बिम्ब प्रस्तुत करना। भारतीय फिरदौसी के अभाव में इन तीनों दायित्वों को एक साथ निभाने के लिए कोई प्रतिनिधि विरासत नहीं थी। पहली हवा यही चली कि उर्दू मुसलमानों की ओर से बोलेगी, हिन्दी हिन्दुओं की ओर से। इस बँटवारे को मान लेने के बाद हिन्दी चाहे जितनी आधुनिक होती जाती शंका बनी ही रहती। लेकिन हिन्दी के ये तीनों दायित्व उसके साहित्य को स्थिर नहीं रहने देते। क्योंकि ये तीनों उसे एक दिशा में बेधड़क नहीं बढ़ने देते। उनमें आपस में खींचातानी होती है। गुत्थियाँ उपजती हैं। बीसवीं शताब्दी की इन गुत्थियों से हम परिचित हैं। आजादी की लड़ाई के दौरान और आजादी तथा बँटवारे के बाद से इन गुत्थियों के जो राजनीतिक भँवर रहे हैं, उनके विस्तार में मैं नहीं जाऊँगा। लेकिन हम कह सकते हैं कि हिन्दी साहित्य में पहले दो दायित्वों अर्थात ब्रजभाषा की मिलापवाली परम्परा और गाँव से सम्बन्ध, इन दोनों का असर कुल मिलाकर धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में पड़ा है। लेकिन तीसरा दायित्व, अर्थात भारत-बिम्ब का निर्माण, जो बीसवीं शताब्दी की संवेदना का सबसे बोलता हुआ रंग है, बड़े-बड़े उलझाव और घनचक्कर पैदा करता है। कौन-सा मुहावरा फिरदौसी की तरह ‘तीस बरस तक बड़े कष्ट’ उठायेगा, और अपनी भाषा में भारत को ‘जीवित’ कर देगा?

इस लेख में पहले जहाँ मैंने भारतेन्दु का उद्धरण दिया है वहाँ यह कहा है कि इतिहास की पहली आँच लगते ही सृजनात्मक चेतना में ‘हम-वे’ इन दो ध्रुवों का निर्माण होता है। इस आँच को लपट देती है फिरंगी राज की उपस्थिति और अपने सामाजिक निजत्व को पहचानने की तड़प। भारतेन्दु से लेकर मैथिलीशरण गुप्त तक यह इतिहासजनित ‘हम’ एक सीमित ‘हम’ है। भारत भारती में ‘हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी’ में हम का घेरा कितना बड़ा है इसके विपरीत ‘वे’ की धारणा लचीली है। जब आँख अंग्रेजों पर टिकती है तब इस ‘हम-वे’ से हिन्दुस्तानी धर्मनिरपेक्षता की आवाज निकलती है, जब मुगल राज्य की याद आती है तब हिन्दू धर्मनिरपेक्षता जैसी चीज सामने आती है।

इस लचीली और चंचल मनोदशा के बहुत से दृष्टान्त इस दौर से दिए जा सकते हैं। एक दिलचस्प उदाहरण मैं बालमुकुन्द से दे सकता हूँ जो कुछ ज्यादा सटीक ढंग से उलझाव को प्रकट करता है। बालमुकुन्द गुप्त के लेखन के बारे में चूँकि लोग ज्यादा परिचित नहीं हैं, इसलिए उद्धरण देने की कुछ ज्यादा छूट चाहूँगा।

लगता है कि बंगाल के छोटे लाट फ़ुलर साहब ने 1905 में कहीं यह धमकी दी कि हिन्दुओं के लिए बंगाल में शाइस्ता खाँ की हुकूमत फिर लाई जाएगी। इशारा इस ओर था कि शाइस्ता खाँ ने बंगाल में हिन्दुओं पर जज़िया लगाया था और औरंगजेबी दमन की नीति चलाई थी। जमाना बंग-भंग का था, जिससे राष्ट्रीय आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। बात फ़ुलर साहब ने भड़कानेवाली कही थी। इस पर बालमुकुन्द गुप्त ने ‘जन्नत’ से शाइस्ता खाँ के दो खत ‘भाई फुलरजंग साहब’ के नाम अपनी लाजवाब व्यंग्य शैली में लिखे। इन खतों में शाइस्ता खाँ समूचे हिन्दुस्तान की तरफ से अंग्रेज लाट को फटकारता है :

‘तो भी मैं तुम्हारे जानने को कहता हूँ कि हम मुसलमानों ने बहुत दफे हिन्दुओं के साथ इन्सानियत का बर्ताव भी किया है। बहुत-सी बदनामियों के साथ मेरी हुकूमत के वक्त की एक नेकनामी बंगाल की तवारीख़ में ऐसी मौजूद है, जिसकी नज़ीर तुम्हारी तवारीख़ में कहीं भी न मिलेगी। मैंने बंगाले के दारुस्सल्तनत ढाके में एक रुपए के 8 मन चावल बिकवाए थे। क्या तुममें वह जमाना फिर ला देने की ताकत है… जहाँ तुम्हारी हुकूमत जाती है, वहाँ खाने-पीने की चीजों को एकदम आग लग जाती है… अपने बादशाह के हुक्म से मैंने बंगाल के हिन्दुओं पर जज़िया लगाया था…इसी के लिए मैं शर्मिन्दा हूँ और इसका बदला भी हाथों-हाथ पाया और इसी का खौफ़ तुम अपने इलाके के हिन्दुओं को दिलाते हो। वरना यह हिम्मत तो तुममें कहाँ कि मेरे जमाने की तरह हिन्दुओं को हरवा-हथियार बाँधने दो और आठ मन का गल्ला दो… तुमने बिगड़कर कहा है कि तुम बंगालियों को पाँच सौ साल पीछे फेंक दोगे। अगर ऐसा हो तो भी बंगाली बुरे नहीं रहेंगे। उस वक्त बंगाल में एक राजा का राज था जिसने हिन्दुओं के लिए मन्दिर और मुसलमानों के लिए मस्जिदें बनवाई थीं और उस राजा के मर जाने पर हिन्दू उसकी लाश को जलाना और मुसलमान गाड़ना चाहते थे। वह जमाना तुम्हारे जैसा हाक़िम क्यों आने देगा?’

यह एक तस्वीर है, ‘वे’ का संधान अंग्रेज की ओर है। ‘हम’ का दायरा बढ़ रहा है। एक और तस्वीर बालमुकुन्द गुप्त के ‘अश्रुमती नाटक’ पर लिखे गए लेख में है। लगता है कि बंगाल के प्रसिद्ध ठाकुर घराने में किसी ने एक ‘अश्रुमती नाटक’ लिखा था। उस घराने में यह नाटक अक्सर खेला जाता था। हिन्दी में उसका अनुवाद हुआ जिसे बालमुकुन्द गुप्त ने पढ़ा। फिर वही तिलमिलाहट, आक्रोश और मन में सदा घुमड़ती हुई पीड़ा उभरी। उन्हीं के शब्दों में :

‘हमने नाटक पढ़ा। पढ़कर हमारे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए। हृदय काँप उठा। हमने उसकी आलोचना ‘हिन्दी बंगवासी’ में की और मुंशी उदितनारायण लाल को बताया कि यदि कोई बंगाली हिन्दूपति महाराणाप्रताप सिंह के चरित्र को न समझकर उन पर झूठा कलंक लगावे, तो लगा सकता है। पर आप हिन्दू हैं, हिन्दुस्तानी हैं, राजपूतों और महाराणाप्रताप सिंह के चरित्र को अच्छी तरह समझते हैं, फिर न जाने क्यों आपने ऐसी कलंकमयी पोथी का अनुवाद किया? यह पोथी हिन्दू जाति की, क्षत्रियवंश की बेइज्जती करती है और उन पर घोर कलंक लगाती है। इसका अनुवाद करने से आप पाप के भागी हुए हैं। इससे इस कलंकमयी पुस्तक के अनुवाद की जितनी पोथियाँ छपी हैं, वह सब गंगा जी में डुबो दीजिए और फिर गंगा स्नान करके पवित्र हूजिए।’

इस नाटक का कथासार यह था कि इतिहास प्रसिद्ध राणाप्रताप की एक लड़की अश्रुमती नाम की है। जब राणाप्रताप पराजित होकर जंगलों में भटक रहे थे तब मानसिंह के इशारे पर अकबर की सेना का एक मुसलमान सिपाही अश्रुमती को चुरा ले जाता है। अकबर के बेटे शाहजादा सलीम ने अश्रुमती की रक्षा की। अश्रुमती शाहजादा सलीम के प्रेम में पागल हो जाती है। बाद में राणाप्रताप की मृत्युशैया के सम्मुख भी वह सलीम के ही गुण गाती है। प्रताप को इसके सुनने से मानो मरने से पहले ही मर जाना पड़ा। प्रताप ने उसे भैरवी बनाने का हुक्म दिया। अन्त में भैरवी अवस्था में सलीम उससे फिर मिलता है और वह उसके साथ गायब हो जाती है।

‘इस पुस्तक के पढ़ने से आपकी गर्दन नीची होती है या ऊँची? बंग साहित्य के मुँह पर इससे स्याही फिरती है या नहीं? आपके बंग साहित्य में यदि ऐसी पुस्तकें बढ़ें तो उस साहित्य का मुँह काला होगा या नहीं?… किन्तु साहित्य जहन्नुम में जाए, हमको साहित्य से मतलब नहीं है। हमको जो कुछ मतलब है इस पुस्तक से है, वह हिन्दू धर्म लेकर, राजपूतों का गौरव लेकर और हिन्दूपति महाराणाप्रताप सिंह की उज्ज्वल कीर्ति लेकर है… कैसे दुःख की बात है कि जिस महाराणा ने दूसरे राजपूतों को मुसलमानों को कन्या देने से रोका- एक बंगाली ग्रन्थकार उसी पर कलंक लगाता है और उसकी एक कल्पित लड़की को एक मुसलमान के साथ भगाता है। अब विचारिए कि जिस ग्रन्थकार ने यह पुस्तक लिखी है उसने कैसा भारी अनर्थ किया है, और कहाँ तक हिन्दुओं के मन को कष्ट नहीं दिया…”

‘वे’ का सन्धान यहाँ दूसरी तरफ है और ‘हम’ का घेरा सिकुड़ता है। केन्द्र में मध्य युग की परिचित धार्मिक अनुभूति नहीं है बल्कि ‘हिन्दू धर्म’ राजपूतों का गौरव और राणाप्रताप की उज्ज्वल कीर्ति यहाँ समानार्थी हो गए हैं, बालमुकुन्द गुप्त के मन में जो घाव घर करता है, उसकी नाजुक विषय वस्तु अश्रुमती नाटक में भी है, भारतेन्दु के नीलदेवी नाटक में भी है, और जायसी के पद्मावत में भी है। लेकिन अनुभूति के रेशे अलग हैं। धर्मनिरपेक्ष भारत की मूर्ति किस शिल्प से गढ़ी जाएगी? आधुनिक युग का यह पहला अन्तर्विरोध है।

इतिहास की पहली झलक से उत्पन्न इस हिन्दू-मुसलमान फाँक को भरने की कोशिश सत्याग्रह युग में गाँधी जी के व्यापक प्रभाव के अन्तर्गत हुई। भारत-बिम्ब को गढ़ने के लिए अतीत से दूसरे रंग उठाए गए। घटनाओं के परे भारतीय आत्मा की तलाश की गई। भारत-बिम्ब को भौतिकवादी पश्चिम के मुकाबले में आध्यात्मिक करके उभारा गया। इस नए अध्यात्मवाद में पुराना धार्मिक तत्ववाद भी घुल-मिल गया। विवेकानन्द और रामकृष्ण जैसे लोगों ने यह आत्मदर्शी दार्शनिकता पहले ही सुलभ कर दी थी। रवि ठाकुर ने इसकी साहित्यिक उर्वरता का वैभव दिखला दिया था। इस सबको लेकर छायावाद ने आवाज बदली। यह भारतेन्दु-मैथिलीशरण गुप्त के समय के सीमित ‘हम’ को फुलाकर बड़ा करने की कोशिश है। व्यापक राष्ट्रीय मान्यता के अनुकूल ही, छायावादी कवि भौतिकता का अतिक्रमण करने का प्रयत्न करता है। लेकिन यह आत्मान्वेषी यात्रा सिर्फ उसकी निजी गवाही नहीं है। इसमें राष्ट्रीय व्यक्तित्व की खोज और देशभक्ति में कवि के व्यक्तित्व की घुलावट भी शामिल है। निजी और सार्वजनिक, ‘मैं’ और ‘हम सब’ – इन दोनों को जोड़ना इतना आसान खेल नहीं है जितना कहने भर से लगता है – इसमें बड़ा उतार-चढ़ाव, बड़ी पीड़ा और बड़ा उल्लास दोनों हैं, सन्तुलन बनता है, बिगड़ता है, ठहरता है, बिखरता है। इस प्रक्रिया का सबसे ठस उदाहरण सुमित्रानन्दन पन्त की कविता है, जिन्हें इस हलचल की भनक जरूर कहीं से मिली है लेकिन इसमें जो धुआँधार बेकरारी है उससे वह सरासर अछूते रह जाते हैं। दो सौ बरस पहले घनानन्द और मीर की दुनियाओं के अलगाव का एक नतीजा शायद सुमित्रानन्दन पन्त का ठसपन भी है। इस प्रक्रिया के सबसे चमकते और वेगवान उदाहरण प्रसाद और निराला हैं जो इसके रंगारंग पहलुओं को जीते हैं और सबसे तन्मय उदाहरण महादेवी हैं जिन्हें अतिक्रमण की एक अनुभूति के बाद और किसी चीज की आवश्यकता नहीं रह गई है।

क्या छायावादी को हम यूरोप की रोमांटिक धर्मनिरपेक्षता के तुल्य ठहरा सकते हैं? अक्सर आलोचक ऐसा करते हैं, चाहे प्रशंसा में चाहे निन्दा में। लेकिन रोमांटिक कवि और छायावादी कवि में जड़ में ही अन्तर है। छायावादी कवि जिस समाज का अंग है उसके पीछे वह लाठी लेकर नहीं पड़ा है। समाज से उसका गहरे स्तर पर सामंजस्य है। वह दुःखी होता है, उमड़ता है, पसीजता है, छटपटाता है, चिन्तामग्न हो जाता है, उड़ चलता है। शक्ति और ऐश्वर्य के सपने देखता है। लेकिन आखिरकार यह सारा मायालोक उसी आध्यात्मिक-नैतिक जगत में समाहित हो जाता है जिसका दूसरा नाम इन दिनों भारतवर्ष है। निराधार कल्पना छलावे दिखाती है। लेकिन सार्वजनिक आस्था के सहारे छायावादी कवि बायरन और शेली जैसी उद्दामता और कुण्ठा की पेंगों से बच जाता है।

फिर हम एक दूसरे रास्ते से एक नई किस्म के धार्मिक तत्ववाद तक जा पहुँचते हैं, जहाँ मध्य युग और उसके पहले की भी छायाएँ पड़ती दीखती हैं। यह मनोभूमि कहाँ तक और किस अर्थ में धर्मनिरपेक्ष है? रॉबर्ट फ्ऱॉस्ट ने कभी कहा था कि जितना ही मैं टैगोर को पढ़ता हूँ मेरी आस्था ईश्वर में दृढ़ होती जाती है। इस नई आध्यात्मिकता का बादल पकड़ में चाहे न आए, बालमुकुन्द गुप्त के ‘हम’ से ज्यादा कुछ लपेट सकता है, इतना तो साफ है। ऐसे ही बादल की तलाश में उर्दू कवि इक़बाल भी ‘खुदी’ को तान रहे थे। वहाँ बिल्कुल छायावाद तो नहीं है लेकिन भौतिकवाद से परे आध्यात्मिकता की प्रस्तावना जरूर है। सवाल यही था कि क्या ये दोनों बादल मिलेंगे या पावन-अपावन, पाक-नापाक के समानान्तर कठघरे बनाकर अलग-अलग दिशाओं में उड़ जाएँगे? संक्षेप में, संकुचित ‘हम’ को फैलाकर कुछ धर्मनिरपेक्ष बनाने की कोशिश में छायावाद धर्म के मर्म की ओर मुड़ता है। आधुनिक युग का यह दूसरा अन्तर्विरोध है।

तब किया क्या जाए? क्या हम अतीत से बिल्कुल मुँह मोड़ लें और नितान्त समसामयिक धर्मनिरपेक्षता का ढाँचा खड़ा करें? ऐसी ही समसामयिक धर्मनिरपेक्षता की खोज में, जिसमें न सिर्फ धर्म और ईश्वर बल्कि वह भी जिसे ‘संस्कृति’ कहा जाता है कोने में डाल दी जाए? उपन्यासकार प्रेमचन्द ने एक बार अपने नगरवासी जयशंकर प्रसाद और उनके स्वर्ण-युगवादी नाटकों पर टिप्पणी जड़ते हुए कहा था, ”आखिर इन गड़े मुर्दों को उखाड़ने से क्या लाभ?’ प्रेमचन्द उर्दू से हिन्दी में आए, गाँव और किसान की तलाश में और उन्होंने अपने प्रसिद्ध एकरंगी उपन्यास लिखे। उन्होंने यथार्थ तक पहुँचने के लिए सबसे छोटी राह पकड़ी – प्रत्यक्ष की राह। लेकिन गड़े मुर्दों को उखाड़ने की जरूरत नहीं पड़ती। वे खुद-ब-खुद बगैर न्यौते ही कब्र से निकल आते हैं और जब तक उनका डटकर सामना न किया जाए प्रेत लीला करते रहते हैं। अतीत के मुर्दों से एक बार प्रेमचन्द की बड़ी विचित्र भेंट हुई थी। अपने अजीब उपन्यास ‘कायाकल्प’ में, जहाँ आज का यथार्थ भी है, किसान जमींदार भी हैं, बाणभट्ट की कादम्बरी जैसा पुनर्जन्म भी है, हिमालय की रहस्यमयी गुफाएँ भी हैं और मन्त्र बल से उड़नेवाले साधु महात्मा भी हैं या फिर ‘महात्मा ईसा’ और ‘कर्बला’ जैसे निर्जीव नाटकों में। उन्होंने पाया कि पुराण और देवमालाएँ रचनेवाली ‘आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति’ उनके किसी खास मसरफ की नहीं है। सिर्फ अनमिल बेजोड़ ही पैदा करती है। उन्होंने प्रेतबाधित स्तरों को छोड़ दिया और प्रत्यक्षदर्शी उपन्यास लिखे। धीरे-धीरे यह सारी प्रत्यक्ष-सीमित मिथकहीन धर्मनिरपेक्षता उथली होती गई। जो भी हो, उन्होंने प्रत्यक्ष के स्तर पर पावनता और इहलौकिकता की भेंट ‘कायाकल्प’ की शैली में फिर नहीं दुहराई। जाहिर है कि यह ढंग न सिर्फ पश्चिम के वैज्ञानिक यथार्थवाद की रोशनी में, बल्कि उस समय के भारतीय तात्विक अध्यात्मवाद के आगे भी घोंघाबसन्ती लगने लगा था।

लेकिन प्रेमचन्द का प्रत्यक्षवाद उनके अन्तिम उपन्यास गोदान में कायाकल्प के मिथकीय प्रेतों की ओर फिर लौटता है। इस बार बिल्कुल नई पकड़ के साथ। उनके पहले उपन्यासों और कहानियों का किसान मुख्यतः आर्थिक चक्की में पिसता हुआ दरिद्र और शोषित किसान था। गोदान का होरी अभी भी कुल मिलाकर प्रेमचन्दीय किसान, यानी प्रधानतः आर्थिक आदमी ही है। पर अब उसके मन में एक पौराणिक आस्था घुमड़ती रहती है – गोदान की। उसके संघर्ष का मैदान जरूर आर्थिक ही दीखता है लेकिन गोदान की व्यथित अभिलाषा और उससे भी बढ़कर होरी की अनिवार्य धर्मभीरु नैतिकता उसके हर उद्वेलन को एक विनीत पावनता से दीप्त करती रहती है। कर्मभूमि या रंगभूमि के प्रेमचन्द इस पौराणिक या मिथकीय उद्वेलन को टाल जाते या नापसन्द करते। लेकिन धर्मनिरपेक्षता और धर्मभीरुता यहाँ जानबूझकर मिलाई हुई दीखती है। गोदान क्या सिर्फ होरी नाम के एक किसान की कहानी है या होरी नाम के एक आदमी की कहानी है? वह कौन-सी पातालगंगा है जो बहुत गहरे ‘एक किसान को एक आदमी’ बनाती है? ये सवाल प्रेमचन्द के अन्तिम सर्जनात्मक प्रयास में उलझे हुए हैं। धर्म और धर्मेतर की सीमा-रेखाएँ गड्ड-मड्ड हो जाती हैं। यह आधुनिक युग का तीसरा अन्तर्विरोध है।

इस तरह हमारे सामने हिन्दी साहित्य के माध्यम से आधुनिक धर्मनिरपेक्षता की समस्याओं का स्वरूप बनता है। अध्यात्मवादी तेवर जिस समन्वय का प्रयास करता है उसमें एक हद के बाद असफल रहता है। इसके विपरीत आर्थिक धर्मनिरपेक्षता के सामने सतहीपन का खतरा खड़ा हो जाता है। लगभग ऐसा ही खतरा रीतियुग ने उठाया था जिसने तनावों और उलझनों से बचने के लिए जिन्दगी की सतह पर ही बाँकपन दिखाने की कोशिश की। धर्मनिरपेक्षता आदमी की तलाश में कितने गहरे गोता लगाए – और वह भी किसके सहारे?

हल क्या है? मैं इस सवाल को यहाँ अनुत्तरित ही छोड़ देता हूँ क्योंकि अब हमारे विश्लेषण की सीमाएँ बिल्कुल पड़ोस में आजकल के सृजनात्मक ऊभचूभ के पास जा पहुँची हैं। आशा करता हूँ कि अब तक इतना अवश्य स्पष्ट हो गया होगा कि धर्मनिरपेक्षता एक गतिशील प्रक्रिया है। कोई बनी-बनाई या बाहर से उधार ली हुई अवधारणा नहीं है जिसको हम आँख मूँदकर हर जगह लागू कर दें। यह प्रक्रिया अभी भी उन्हीं दो ध्रुवों के बीच चक्कर काटती है। धार्मिक तत्ववाद के सहारे समन्वय नहीं हो पाता और प्रत्यक्षवाद सतह पर तैरता है। हम फिर उन्हीं आरम्भिक प्रश्नों को पूछ कर बात को फिलहाल खत्म करें – क्या सारे धर्म समान रूप से सार्थक हैं? क्या सारे धर्म समान रूप से निरर्थक हैं?

 

पच्चीस शील

 

पहला शीलः मैं बहुत अक्लमंद हूं। मुझ जैसे और भी हैं। बहुत-से ऐसे हैं जो न मुझे जैसे हैं, न मुझ-जैसों जैसे हैं। इसको छिपाने से कोई लाभ नहीं है, न छिपाने से कोई हानि नहीं है; छिपाने से हानि है, न छिपाने से लाभ है।

दूसरा शीलः मैं परम स्वतंत्र हूं। मेरे सिर पर कोई नहीं है। अर्थात् अपने किए के लिए मैं शत-प्रतिशत जिम्मेदार हूं। अर्थात् मेरे लिए नैतिक होना संभव है।

तीसरा शीलः मैं संसार का सबसे महत्त्वपूर्ण प्राणी हूं। यदि नहीं हूं तो आत्म-हत्या के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है। यही दशा आपकी भी है।

चौथा शीलः नितांत अव्यावहारिक होना नितांत ईमानदारी और अक्लमंदी का लक्षण है। समाज में सब तो नहीं, पर काफी लोग ऐसे होने चाहिए। जिस समाज में नितांत अव्यावहारिक कोई नहीं रह जाता, वह समाज रसातल को चला जाता है।

पांचवां शीलः मैं अपने को बहुत नहीं सेटता, क्योंकि यह मेरा कर्त्तव्य नहीं है। लेकिन आपका कर्त्तव्य है कि मुझे सेटें। इसका प्रतिलोम भी सत्य है।

छठा शीलः सर्वोत्तम समाज वह है जिसमें व्यक्ति के केवल अधिकार ही अधिकार हों, कर्त्तव्य कोई नहीं। अर्थात् जो भी मैं चाहूं वह मुझे मिल जाय, लेकिन जो मैं देना न चाहूं वह मुझे देना न पड़े।

सातवां शीलः कविता के क्षेत्र में केवल एक आर्य-सत्य हैः दुःख है। शेष तीन राजनीति के भीतर आते हैं।

आठवां शीलः कविता को राजनीति में नहीं घुसना चाहिए। क्योंकि इससे कविता का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, राजनीति के अनिष्ट की संभावना है।

नवां शीलः शेली महान् क्रांतिकारी कवि था, इसलिए उसको चाहता हूं; लेकिन उसके नेतृत्व में क्रांतिकारी होना नहीं चाहता। बाबा तुलसीदास महान् संत कवि थे, लेकिन वह संसद के चुनाव में खड़े हों तो उन्हें वोट नहीं दूंगा। नीत्शे का ‘जरदुस्त्र उवाच’ सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से जला देने लायक है, पर कविता की दृष्टि से महान् कृतियों में से एक है। उसकी एक प्रति पास रखता हूं और आपसे भी सिफारिश करता हूं।

दसवां शीलः कवि अनिर्वाचित मंत्रदाता हो सकता है। निर्वाचित मंत्री हो जाने से कवि का हित और जनता का अहित होने की आशंका है। दोनों ही अवांछनीय संभावनाएं हैं।

ग्यारहवां शीलः कविता से समाज का उद्धार नहीं हो सकता। यदि सचमुच समाज का उद्धार करना चाहते हैं तो देश का प्रधानमंत्री बनने या बनाने की चेष्टा कीजिए। बाकी सब लगो है।

बारहवां शीलः इससे पहले कि आलोचक मुझसे पूछे कि समाज का नागरिक होने के नाते आप ऐसा क्यों लिखते हैं, वैसा क्यों नहीं लिखते, मैं आलोचक से पूछता हूं कि पहले यह सिद्ध कीजिए कि समाज का नागरिक होने के नाते कविता लिखना भी मेरा कर्त्तव्य है।

तेरहवां शीलः कवि अ-कवियों से अधिक संवेदनशील या अनुभूतिशील नहीं होता। जो कवि इसके विपरीत कहते हैं उनका विश्वास मत कीजिए; वे अ-कवियों पर रंग जमाने के लिए ऐसा कहते हैं। यह संभव है कि कवि की संवेदना का क्षेत्र अ-कवि से कम हो। प्रायः यही होता है।

चौदहवां शीलः जो मैंने भोगा है वह सब मेरी कविता का विषय नहीं है। कविता का विषय वह होता है जो अब तक की भोगने की प्रणाली में नहीं बैठ पाता। हर कलाकृति ठोस, विशिष्ट अनुभूति से उपजती है और उसका उद्देश्य अनुभूति की सामान्य कोटियों को नए सिरे से परिभाषित करना होता है। परिभाषा विशिष्ट और सामान्य में सामंजस्य का नाम है। बिना सामंजस्य के भोगने में समर्थ होना असंभव है।

पंद्रहवां शीलः अ-कवि अपनी विशिष्ट अनुभूति और अब तक उपलब्ध सामान्य परिभाषा में असामंजस्य नहीं देखता। कभी दीख भी जाता है तो थोड़ी-सी बेचैनी के बाद वह अनुभूति को जबरदस्ती बदलकर परिभाषा में बैठा लेता है। यह अ-कवि का सौभाग्य है।

सोलहवां शीलः कवि अभागा है। वह विशिष्ट अनुभूति को बदल नहीं पाता। तब तक बेचैन रहता है जब तक परिभाषा को बदल नहीं लेता। असामंजस्य देखने का काम बुद्धि करती है। परिभाषा बदलने का काम कल्पना करती है। शब्दों में अभिव्यक्ति अभ्यास के द्वारा होती है। यह सब एक निमिष में हो सकता है, इसको एक युग भी लग सकता है; कवि-कवि पर निर्भर है।

सत्रहवां शीलः कवि की अमरता गलतफहमी पर निर्भर करती है। जिस कवि में गलत समझे जाने का जितना अधिक सामर्थ्य होता है वह उतना ही दीर्घजीवी होता है।

अठारहवां शीलः सार्थकता बराबर तप नहीं, शब्दाडम्बर बराबर पाप।

उन्नीसवां शीलः वस्तु-स्थिति यह है कि मेरे बाबा ने जो कहा था वह न मेरे पिता कहते हैं और न मैं कहता हूं। लेकिन जब मेरे पिता मुझसे कहते हैं कि मेरे बाबा ने क्या कहा था तो वह परंपरा है। जब मैं स्वयं कहता हूं कि मेरे बाबा ने क्या कहा था तो यह प्रयोग है। यदि मैं कुछ नहीं कह पाता तो न परंपरा है न प्रयोग।

बीसवां शीलः पश्चिम से छूटना असंभव दीखता है। अध्यात्म के बिना निस्तार नहीं है, यह भी पश्चिम ने कहा है और यह बासी है। अध्यात्म और भौतिकवाद में समन्वय होना चाहिए, यह भी पश्चिम ने कहा है और यह भी बासी है। केवल भौतिकवाद में निस्तार है यह भी पश्चिम ने कहा है लेकिन नया है।

इक्कीसवां शीलः कविता राग है। राग माया है। माया और अध्यात्म में वैर है। अतः आध्यात्मिक कविता असंभव है। जो इसमें दुविधा करते हैं उन्हें न माया मिलती है न राम। जैसा हाल छायावादियों का हुआ। इससे शिक्षा लेनी चाहिए।

बाईसवां शीलः मुझसे पहले की पीढ़ी में जो अक्लमंद थे, वे गूंगे थे। जो वाचाल थे वे अक्लमंद नहीं थे। अंग्रेजी ने अक्लमंद बनाया लेकिन गूंगा करके छोड़ा। गांधीजी ने आवाज तो दी लेकिन अक्ल बंधक रखवा ली। बड़ा क्रोध आता है। यह मेरा दुर्भाग्य है।

तेईसवां शीलः सोचने का काम क्यों सारे देश ने सिर्फ एक आदमी पर छोड़ दिया और स्वयं शरणागत होकर ‘मा शुचः’ का पाठ करने लगा? उस आदमी ने भी शरणागतों को ‘अटेंशन’ और ‘स्टैंड-एट-ईज’ के निर्देश तो दिए, पर यह नहीं बताया कि कब ‘अटेंशन’ कहना चाहिए और कब ‘स्टैंड-एट-ईज’। वह हमारी आकांक्षा को विराट् और विवेक को बौना छोड़कर चला गया। जो बचे हैं वे अटकल से ‘काशन’ बोलते हैं जिससे परेड तो हो सकती है लेकिन लड़ाई नहीं जीती जा सकती।

चौबीसवां शीलः पचास से ऊपर वय हो जाना अपने-आपमें अक्लमंदी का प्रमाण नहीं है। प्रमाण-पत्र मैं दूंगा।

पचीसवां शीलः अवज्ञा परमो धर्मः।

(‘दूसरा सप्तक’ में शामिल वक्तव्य)

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जाँ निसार अख्तर https://sahityaganga.com/%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%81-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%b0-%e0%a4%85%e0%a4%96%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%b0/ Mon, 16 May 2016 08:58:05 +0000 http://sahityaganga.com/?p=7114  

परिचय

नाम : जाँ निसार अख्तर
जन्म: 14 फ़रवरी 1914
निधन: 19 अगस्त 1976
जन्म स्थान :ग्वालियर, मध्य प्रदेश, भारत
प्रमुख कृतियाँ
नज़रे-बुताँ, सलासिल, जाँविदां, घर आँगन, ख़ाके-दिल, तनहा सफ़र की रात, जाँ निसार अख़्तर-एक जवान मौत

 

विशेष
मध्य प्रदेश के ग्वालियर में 8 फ़रवरी, 1914 को जन्मे (कुछ जगह उनकी जन्मतिथि 14 और 18 फरवरी भी दी गई है, मगर हम अमर देहलवी द्वारा संपादित और स्टार पब्लिकेशन, दिल्ली से प्रकाशित ‘जाँनिसार अख्तर की शायरी’ के आधार पर इसे 8 फ़रवरी मान रहे हैं) जाँनिसार अख्तर का ताल्लुक शायरों के परिवार से था। उनके परदादा ’फ़ज़्ले हक़ खैराबादी’ ने मिर्ज़ा गालिब के कहने पर उनके दीवान का संपादन किया था। बाद में 1857 में ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ ज़िहाद का फ़तवा ज़ारी करने के कारण उन्हें ’कालापानी’ की सजा दी गई। जाँनिसार अख्तर के पिता ’मुज़्तर खैराबादी’ भी एक प्रसिद्ध शायर थे। जाँनिसार ने 1930 में विक्टोरिया कालेज, ग्वालियर से मैट्रिक करने के बाद अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से बी०ए० (आनर्स) तथा एम०ए० की डिग्री प्राप्त की। कुछ घरेलू कारणों से उन्हें अपनी डाक्टरेट की पढ़ाई अधूरी छोड़ ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में उर्दू व्याख्याता के तौर पर काम शुरू करना पड़ा। प्रसिद्ध फिल्म लेखक एवं गीतकार जावेद अख्तर जाँ निसार अख्तर  जी के ही बेटे हैं
1943 में उनकी शादी प्रसिद्ध शायर ’मज़ाज लखनवी’ की बहन ’सफ़िया सिराज़ुल हक़’ से हुई। 1945 व 1946 में उनके बेटों जावेदऔर सलमान का जन्म हुआ। आज़ादी के बाद हुए दंगों के दौरान जाँनिसार ने भोपाल आकर ’हमीदिया कालेज’ में बतौर उर्दू और फारसी विभागाध्यक्ष काम करना शुरू कर दिया। सफ़िया ने भी बाद में इसी कालेज में पढ़ाना शुरू कर दिया। इसी दौरान आप ’प्रगतिशील लेखक संघ’ से जुड़े और उसके अध्यक्ष बन गए।

1949 में जाँनिसार फिल्मों में काम पाने के उद्देश्य से बम्बई आ गये। यहाँ वे कृश्न चंदर, इस्मत चुगताई और मुल्कराज आनंद जैसे लेखकों के संपर्क में आये। उनके संघर्ष के दिनों में सफ़िया भोपाल से उन्हें बराबर मदद करती रहीं। 1953 में कैंसर से सफ़िया की मौत हो गई। 1956 में उन्होंने ’ख़दीजा तलत’ से शादी कर ली। 1955 में आई फिल्म ’यासमीन’ से जाँनिसार के फिल्मी करियर ने गति पकड़ी तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। फिल्मों के लिए लिखे गये, उनके कुछ प्रसिद्ध गीत है: ’आँखों ही आँखों में इशारा हो गया’, ’ग़रीब जान के हमको न तुम दगा देना’, ’ये दिल और उनकी निगाहों के साये’, ’आप यूँ फासलों से गुज़रते रहे’, ’आ जा रे ओ नूरी’ आदि। कमाल अमरोही की फिल्म ’रज़िया सुल्तान’ के लिए लिखा गया गीत ’ऐ दिले नादाँ’ उनका आखिरी गीत था। जो लता जी का सबसे प्रिय गीत है ,
1935 से 1970 के दरमियान लिखी गई उनकी शायरी के संकलन “ख़ाक़-ए-दिल” के लिए उन्हें 1976 का साहित्य अकादमी पुरुस्कार प्राप्त हुआ। नेहरू जी ने जाँनिसार को पिछले 300 सालों की हिन्दुस्तानी शायरी के संकलन के लिये कहा था जिसे उन्होंने ’हिन्दुस्तान हमारा’ शीर्षक से दो खण्डों में प्रकाशित कराया। 2006 में यह संकलन हिन्दी में पुनर्प्रकाशित किया गया है।1976 में साहित्य अकादमी पुरूस्कार से नवाज़े गए अख्तर साहब के लिखे फिल्म अनारकली, नूरी ,प्रेम पर्वत, शंकर हुसैन, रज़िया सुलतान, बहु बेगम, बाप रे बाप, छूमंतर, सुशीला, सी.आई.डी. आदि फिल्म के गीतों ने धूम मचा दी थी. उनके गीत आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में घर किये हुए हैं जैसे …” लेके पहला पहला प्यार….”, आजा रे…नूरी…नूरी “, ये दिल और उनकी निगाहों के साए…”पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे…” गरीब जान के…”आ जाने वफ़ा आ…” बेमुरव्वत बेवफा बेगाना ऐ दिल आप हैं….”आदि. 19 अगस्त 1976 को मुंबई में इस महान शायर का निधन हो गया।पेश हैं कुछ गज़लें कुछ नज्में

आवाज़ दो हम एक हैं
क है अपना जहाँ, एक है अपना वतन
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं
आवाज़ दो हम एक हैं

ये वक़्त खोने का नहीं, ये वक़्त सोने का नहीं
जागो वतन खतरे में है, सारा चमन खतरे में है
फूलों के चेहरे ज़र्द हैं, ज़ुल्फ़ें फ़ज़ा की गर्द हैं
उमड़ा हुआ तूफ़ान है, नरगे में हिन्दोस्तान है
दुश्मन से नफ़रत फ़र्ज़ है, घर की हिफ़ाज़त फ़र्ज़ है
बेदार हो, बेदार हो, आमादा-ए-पैकार हो
आवाज़ दो हम एक हैं

ये है हिमालय की ज़मीं, ताजो-अजंता की ज़मीं
संगम हमारी आन है, चित्तौड़ अपनी शान है
गुलमर्ग का महका चमन, जमना का तट गोकुल का मन
गंगा के धारे अपने हैं, ये सब हमारे अपने हैं
कह दो कोई दुश्मन नज़र उट्ठे न भूले से इधर
कह दो कि हम बेदार हैं, कह दो कि हम तैयार हैं
आवाज़ दो हम एक हैं

उट्ठो जवानाने वतन, बांधे हुए सर से क़फ़न
उट्ठो दकन की ओर से, गंगो-जमन की ओर से
पंजाब के दिल से उठो, सतलज के साहिल से उठो
महाराष्ट्र की ख़ाक से, देहली की अर्ज़े-पाक से
बंगाल से, गुजरात से, कश्मीर के बागात से
नेफ़ा से, राजस्थान से, कुल ख़ाके-हिन्दोस्तान से
आवाज़ दो हम एक हैं!

 

मैं उनके गीत गाता हूं,

 

मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

जो शाने तग़ावत का अलम लेकर निकलते हैं,
किसी जालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

जो रख देते हैं सीना गर्म तोपों के दहानों पर,
नजर से जिनकी बिजली कौंधती है आसमानों पर,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

जो आज़ादी की देवी को लहू की भेंट देते हैं,
सदाक़त के लिए जो हाथ में तलवार लेते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

जो पर्दे चाक करते हैं हुकूमत की सियासत के,
जो दुश्मन हैं क़दामत के, जो हामी हैं बग़ावत के,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

भरे मज्मे में करते हैं जो शोरिशख़ेज तक़रीरें,
वो जिनका हाथ उठता है, तो उठ जाती हैं शमशीरें,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

वो मुफ़लिस जिनकी आंखों में है परतौ यज़दां का,
नज़र से जिनकी चेहरा ज़र्द पड़ जाता है सुल्तां का,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

वो दहक़ां खि़रमन में हैं पिन्हां बिजलियां अपनी,
लहू से ज़ालिमों के, सींचते हैं खेतियां अपनी,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

वो मेहनतकश जो अपने बाजुओं पर नाज़ करते हैं,
वो जिनकी कूवतों से देवे इस्तिबदाद डरते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

कुचल सकते हैं जो मज़दूर ज़र के आस्तानों को,
जो जलकर आग दे देते हैं जंगी कारख़ानों को,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

झुलस सकते हैं जो शोलों से कुफ्ऱो-दीं की बस्ती को,
जो लानत जानते हैं मुल्क में फ़िरक़ापरस्ती को,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

वतन के नौजवानों में नए जज़्बे जगाऊंगा,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

 

हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर

 

मने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर

और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तिरी बातें अक्सर

हुस्न शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम है शायद
ग़मज़दा लगती हैं क्यों चाँदनी रातें अक्सर

हाल कहना है किसी से तो मुख़ातिब हो कोई
कितनी दिलचस्प, हुआ करती हैं बातें अक्सर

इश्क़ रहज़न न सही, इश्क़ के हाथों फिर भी
हमने लुटती हुई देखी हैं बरातें अक्सर

हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर

उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर

हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर

 

ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो

 

ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो

कू-ए-क़ातिल की बड़ी धूम है चलकर देखें
क्या ख़बर, कूचा-ए-दिलदार से प्यारा ही न हो

दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो

कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर
सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो

ज़िन्दगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझको
दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न हो

शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो

 

इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं

 

सी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं
झटक के फेंक दो पलकों पे ख़्वाब जितने हैं

वतन से इश्क़, ग़रीबी से बैर, अम्न से प्यार
सभी ने ओढ़ रखे हैं नक़ाब जितने हैं

समझ सके तो समझ ज़िन्दगी की उलझन को
सवाल उतने नहीं है, जवाब जितने हैं

 

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था

 

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था

दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था

मुआफ़ कर ना सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को
वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था

शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था

पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था

 

पूछ न मुझसे दिल के फ़साने

 

पूछ न मुझसे दिल के फ़साने
इश्क़ की बातें इश्क़ ही जाने

वो दिन जब हम उन से मिले थे
दिल के नाज़ुक फूल खिले
मस्ती आँखें चूम रही थी
सारी दुनिया झूम रही
दो दिल थे वो भी दीवाने

वो दिन जब हम दूर हुये थे
दिल के शीशे चूर हुये थे
आई ख़िज़ाँ रंगीन चमन में
आग लगी जब दिल के बन में
आया न कोई आग बुझाने

 

हमसे भागा न करो,

 

मसे भागा न करो, दूर ग़ज़ालों की तरह
हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह

खुद-ब-खुद नींद-सी आंखों में घुली जाती है
महकी-महकी है शब-ए-गम तेरे बालों की तरह

तेरे बिन, रात के हाथों पे ये तारों के अयाग
खूबसूरत हैं मगर जहर के प्यालों की तरह

और क्या उसमें जियादा कोई नर्मी बरतूं
दिल के जख्मों को छुआ है तेरे गालों की तरह

गुनगुनाते हुए और आ कभी उन सीनों में
तेरी खातिर जो महकते हैं शिवालों की तरह

तेरी ज़ुल्फ़ें तिरी आँखें तिरे अबरू तिरे लब
अब भी मशहूर हैं दुनिया में मिसालों की तरह

हम से मायूस न हो ऐ शब-ए-दौराँ कि अभी
दिल में कुछ दर्द चमकते हैं उजालों की तरह

मुझसे नजरे तो मिलाओ कि हजारों चेहरे
मेरी आंखों में सुलगते हैं सवालों की तरह

और तो मुझ को मिला क्या मिरी मेहनत का सिला
चंद सिक्के हैं मिरे हाथ में छालों की तरह

जुस्तजू ने किसी मंजिल पे ठहरने न दिया
हम भटकते रहें आवारा ख्यालों की तरह

जिन्दगी! जिसको तेरा प्यार मिला वो जाने
हम तो नाकाम रहें, चाहने वालों की तरह।

 

ज़िंदगी तनहा सफ़र की रात है

 

ज़िंदगी तनहा सफ़र की रात है
अपने–अपने हौसले की बात है

किस अकीदे की दुहाई दीजिए
हर अकीदा आज बेऔकात है

क्या पता पहुँचेंगे कब मंजिल तलक
घटते-बढ़ते फ़ासले का साथ है

 

खुशबू का सफ़र

 

मौज-ए-गुल, मौज-ए-सबा, मौज-ए-सहर लगती है
सर से पा तक वो समाँ है कि नज़र लगती है

हमने हर गाम पे सजदों के जलाये हैं चिराग़
अब तिरी राहगुज़र, राहगुज़र लगती है

लम्हे-लम्हे में बसी है तिरी यादों की महक
आज की रात तो खुशबू का सफ़र लगती है

जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं
देखना ये है कि अब आग किधर लगती है

सारी दुनिया में ग़रीबों का लहू बहता है
हर ज़मीं मुझको मिरे खू़न से तर लगती है

कोई आसूदा नहीं अह्ल-ए-सियासत के सिवा
ये सदी दुश्मन-ए-अरबाब-ए-हुनर लगती है

वाक़या शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ
ये तो अख़बार के दफ्‍तर की ख़बर लगती है

लखनऊ! क्या तिरी गलियों का मुक़द्दर था यही
हर गली आज तिरी ख़ाक-बसर लगती है

 

सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें

 

सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें
किसके घर जायेँ कि उस वादा-शिकन को भूलें

आज तक चोट दबाये नहीं दबती दिल की
किस तरह उस सनम-ए-संगबदन को भूलें

अब सिवा इसके मदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है
इतनी पी जायेँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें

और तहज़ीब-ए-गम-ए-इश्क़ निबाह दे कुछ दिन
आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें

 

सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है

 

सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है
ज़िन्दगी सहम के ख़्वाबों से लिपट जाती है

शाम ढलते ही तेरा दर्द चमक उठता है
तीरगी दूर तलक रात की छट जाती है

बर्फ़ सीनों की न पिघले तो यही रूद-ए-हयात
जू-ए-कम-आब की मानिंद सिमट जाती है

आहटें कौन सी ख़्वाबों में बसी है जाने
आज भी रात गये नींद उचट जाती है

हाँ ख़बर-दार कि इक लग़्ज़िश-ए-पा से भी कभी
सारी तारीख़ की रफ़्तार पलट जाती है

 

तमान उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा

 

मान उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा
ये कम नहीं हमें जीने का हौसला तो रहा

गुज़र ही आये किसी तरह तेरे दीवाने
क़दम क़ादम पे कोई सख़्त मरहला तो रहा

चलो न इश्क़ ही जीता न अक़्ल हार सकी
तमाम वक़्त मज़े का मुक़ाबला तो रहा

मैं तेरी ज़ात में गुम हो सका न तू मुझमें
बहुत क़रीब थे हम फिर भी फ़ासला तो रहा

ये और बात कि हर छेड़ लाउबाली थी
तेरी नज़र का दिलों से मुआमला तो रहा

बहुत हसीं सही वज़ए-एहतियात तेरी
मेरी हवस को तेरे प्यार से गिला तो रहा

 

ज़माना आज नहीं डगमगा के चलने का

 

माना आज नहीं डगमगा के चलने का
संभल भी जा कि अभी वक़्त है संभलने का

बहार आये चली जाये फिर चली आये
मगर ये दर्द का मौसम नहीं बदलने का

ये ठीक है कि सितारों पे घूम आये हैं
मगर किसे है सलीक़ा ज़मीं पे चलने का

फिरे हैं रातों को आवारा हम तो देखा है
गली गली में समाँ चाँद के निकलने का

तमाम नशा-ए-हस्ती तमाम कैफ़-ए-वजूद
वो इक लम्हा तेरे जिस्म के पिघलने का

 

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था

 

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था

मुआफ़ कर न सकी मेरी ज़िन्दगी मुझको
वो एक लम्हा कि मैं तुझसे तंग आया था

शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था

पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चन्द ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था

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सुभद्रा कुमारी चौहान https://sahityaganga.com/%e0%a4%b8%e0%a5%81%e0%a4%ad%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%81%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%9a%e0%a5%8c%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%a8-2/ Thu, 12 May 2016 09:22:38 +0000 http://sahityaganga.com/?p=7097 परिचय

जन्म: 16 अगस्त 1904
निधन: 15 फ़रवरी 1948
जन्म स्थान
ग्राम निहालपुर, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
प्रमुख कृतियाँ
कहानी संग्रह -बिखरे मोती (१९३२) उन्मादिनी (१९३४) सीधे साधे चित्र (१९४७)
कविता संग्रह – मुकुल , त्रिधारा, ‘झांसी की रानी’ इनकी बहुचर्चित रचना है।

 विशेष

सुभद्रा कुमारी चौहान (16 अगस्त 1904-15 फरवरी 1948) हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं। उनके दो कविता संग्रह तथा तीन कथा संग्रह प्रकाशित हुए पर उनकी प्रसिद्धि झाँसी की रानी कविता के कारण है। ये राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रही हैं, किन्तु इन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया। वातावरण चित्रण-प्रधान शैली की भाषा सरल तथा काव्यात्मक है, इस कारण इनकी रचना की सादगी हृदयग्राही है।
उनका जन्म नागपंचमी के दिन इलाहाबाद के निकट निहालपुर नामक गांव में रामनाथसिंह के जमींदार परिवार में हुआ था। बाल्यकाल से ही वे कविताएँ रचने लगी थीं। उनकी रचनाएँ राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान, चार बहने और दो भाई थे। उनके पिता ठाकुर रामनाथ सिंह शिक्षा के प्रेमी थे और उन्हीं की देख-रेख में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी हुई। 1919 में खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह के साथ विवाह के बाद वे जबलपुर आ गई थीं। 1921 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाली वह प्रथम महिला थीं। वे दो बार जेल भी गई थीं। सुभद्रा कुमारी चौहान की जीवनी, इनकी पुत्री, सुधा चौहान ने ‘मिला तेज से तेज’ नामक पुस्तक में लिखी है। इसे हंस प्रकाशन, इलाहाबाद ने प्रकाशित किया है। वे एक रचनाकार होने के साथ-साथ स्वाधीनता संग्राम की सेनानी भी थीं। डॉo मंगला अनुजा की पुस्तक सुभद्रा कुमारी चौहान उनके साहित्यिक व स्वाधीनता संघर्ष के जीवन पर प्रकाश डालती है। साथ ही स्वाधीनता आंदोलन में उनके कविता के जरिए नेतृत्व को भी रेखांकित करती है। 15 फरवरी 1948 को एक कार दुर्घटना में उनका आकस्मिक निधन हो गया था।
‘बिखरे मोती’ उनका पहला कहानी संग्रह है। इसमें भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंझलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम के फूल, किस्मत, मछुये की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, व ग्रामीणा कुल 15 कहानियां हैं! इन कहानियों की भाषा सरल बोलचाल की भाषा है! अधिकांश कहानियां नारी विमर्श पर केंद्रित हैं! उन्मादिनी शीर्षक से उनका दूसरा कथा संग्रह 1934 में छपा। इस में उन्मादिनी, असमंजस, अभियुक्त, सोने की कंठी, नारी हृदय, पवित्र ईर्ष्या, अंगूठी की खोज, चढ़ा दिमाग, व वेश्या की लड़की कुल 9 कहानियां हैं। इन सब कहानियों का मुख्य स्वर पारिवारिक सामाजिक परिदृश्य ही है। ‘सीधे साधे चित्र’ सुभद्रा कुमारी चौहान का तीसरा व अंतिम कथा संग्रह है। इसमें कुल 14 कहानियां हैं। रूपा, कैलाशी नानी, बिआल्हा, कल्याणी, दो साथी, प्रोफेसर मित्रा, दुराचारी व मंगला – 8 कहानियों की कथावस्तु नारी प्रधान पारिवारिक सामाजिक समस्यायें हैं। हींगवाला, राही, तांगे वाला, एवं गुलाबसिंह कहानियां राष्ट्रीय विषयों पर आधारित हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान ने कुल 46 कहानियां लिखी और अपनी व्यापक कथा दृष्टि से वे एक अति लोकप्रिय कथाकार के रूप में हिन्दी साहित्य जगत में सुप्रतिष्ठित हैं! बेटी सुधा चौहान ने- मिला तेज से तेज नाम से जीवनी लिखी है। 
भारतीय तटरक्षक सेना ने 28 अप्रैल 2006 को सुभद्राकुमारी चौहान की राष्ट्रप्रेम की भावना को सम्मानित करने के लिए नए नियुक्त एक तटरक्षक जहाज़ को सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम दिया है। भारतीय डाकतार विभाग ने 6 अगस्त 1976 को सुभद्रा कुमारी चौहान के सम्मान में 25 पैसे का एक डाक-टिकट जारी किया है। इन्हें ‘मुकुल तथा ‘बिखरे मोती पर अलग-अलग सेकसरिया पुरस्कार मिले।
कविता : अनोखा दान, आराधना, इसका रोना, उपेक्षा, उल्लास,कलह-कारण, कोयल, खिलौनेवाला, चलते समय, चिंता, जीवन-फूल, झाँसी की रानी की समाधि पर, झांसी की रानी, झिलमिल तारे, ठुकरा दो या प्यार करो, तुम, नीम, परिचय, पानी और धूप, पूछो, प्रतीक्षा, प्रथम दर्शन,प्रभु तुम मेरे मन की जानो, प्रियतम से, फूल के प्रति, बिदाई, भ्रम, मधुमय प्याली, मुरझाया फूल, मेरा गीत, मेरा जीवन, मेरा नया बचपन, मेरी टेक, मेरे पथिक, यह कदम्ब का पेड़-2, यह कदम्ब का पेड़, विजयी मयूर,विदा,वीरों का हो कैसा वसन्त, वेदना, व्याकुल चाह, समर्पण, साध, स्वदेश के प्रति, जलियाँवाला बाग में बसंत

पढ़िए सुभद्रा कुमारी चौहान की कुछ कविताएँ व दो कहानियाँ
झांसी की रानी

 

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।

महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
‘नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार’।

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
यह कदम्ब का पेड़

 

ह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली॥

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता॥

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता॥

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता॥

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे॥

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता॥

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं॥

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे॥
वीरों का कैसा हो वसंत
रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसंत

फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का कैसा हो वसंत

भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान;
मिलने को आए आदि अंत
वीरों का कैसा हो वसंत

गलबाहें हों या कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण;
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का कैसा हो वसंत

कह दे अतीत अब मौन त्याग
लंके तुझमें क्यों लगी आग
ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग;
बतला अपने अनुभव अनंत
वीरों का कैसा हो वसंत

हल्दीघाटी के शिला खण्ड
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
राणा ताना का कर घमंड;
दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत
वीरों का कैसा हो वसंत

भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छन्द नहीं
है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;
फिर हमें बताए कौन हन्त
वीरों का कैसा हो वसंत
झाँसी की रानी की समाधि पर
स समाधि में छिपी हुई है, एक राख की ढेरी |
जल कर जिसने स्वतंत्रता की, दिव्य आरती फेरी ||
यह समाधि यह लघु समाधि है, झाँसी की रानी की |
अंतिम लीलास्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||

यहीं कहीं पर बिखर गई वह, भग्न-विजय-माला-सी |
उसके फूल यहाँ संचित हैं, है यह स्मृति शाला-सी |
सहे वार पर वार अंत तक, लड़ी वीर बाला-सी |
आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर, चमक उठी ज्वाला-सी |

बढ़ जाता है मान वीर का, रण में बलि होने से |
मूल्यवती होती सोने की भस्म, यथा सोने से ||
रानी से भी अधिक हमे अब, यह समाधि है प्यारी |
यहाँ निहित है स्वतंत्रता की, आशा की चिनगारी ||

इससे भी सुन्दर समाधियाँ, हम जग में हैं पाते |
उनकी गाथा पर निशीथ में, क्षुद्र जंतु ही गाते ||
पर कवियों की अमर गिरा में, इसकी अमिट कहानी |
स्नेह और श्रद्धा से गाती, है वीरों की बानी ||

बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी |
खूब लड़ी मरदानी वह थी, झाँसी वाली रानी ||
यह समाधि यह चिर समाधि है , झाँसी की रानी की |
अंतिम लीला स्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||
कोयल

 

देखो कोयल काली है पर
मीठी है इसकी बोली
इसने ही तो कूक कूक कर
आमों में मिश्री घोली

कोयल कोयल सच बतलाना
क्या संदेसा लायी हो
बहुत दिनों के बाद आज फिर
इस डाली पर आई हो

क्या गाती हो किसे बुलाती
बतला दो कोयल रानी
प्यासी धरती देख मांगती
हो क्या मेघों से पानी?

कोयल यह मिठास क्या तुमने
अपनी माँ से पायी है?
माँ ने ही क्या तुमको मीठी
बोली यह सिखलायी है?

डाल डाल पर उड़ना गाना
जिसने तुम्हें सिखाया है
सबसे मीठे मीठे बोलो
यह भी तुम्हें बताया है

बहुत भली हो तुमने माँ की
बात सदा ही है मानी
इसीलिये तो तुम कहलाती
हो सब चिड़ियों की रानी
मेरा जीवन
मैंने हँसना सीखा है
मैं नहीं जानती रोना;
बरसा करता पल-पल पर
मेरे जीवन में सोना।

मैं अब तक जान न पाई
कैसी होती है पीडा;
हँस-हँस जीवन में
कैसे करती है चिंता क्रिडा।

जग है असार सुनती हूँ,
मुझको सुख-सार दिखाता;
मेरी आँखों के आगे
सुख का सागर लहराता।

उत्साह, उमंग निरंतर
रहते मेरे जीवन में,
उल्लास विजय का हँसता
मेरे मतवाले मन में।

आशा आलोकित करती
मेरे जीवन को प्रतिक्षण
हैं स्वर्ण-सूत्र से वलयित
मेरी असफलता के घन।

सुख-भरे सुनले बादल
रहते हैं मुझको घेरे;
विश्वास, प्रेम, साहस हैं
जीवन के साथी मेरे।

मेरे पथिक

 

ठीले मेरे भोले पथिक!
किधर जाते हो आकस्मात।
अरे क्षण भर रुक जाओ यहाँ,
सोच तो लो आगे की बात॥

यहाँ के घात और प्रतिघात,
तुम्हारा सरस हृदय सुकुमार।
सहेगा कैसे? बोलो पथिक!
सदा जिसने पाया है प्यार॥

जहाँ पद-पद पर बाधा खड़ी,
निराशा का पहिरे परिधान।
लांछना डरवाएगी वहाँ,
हाथ में लेकर कठिन कृपाण॥

चलेगी अपवादों की लूह,
झुलस जावेगा कोमल गात।
विकलता के पलने में झूल,
बिताओगे आँखों में रात॥

विदा होगी जीवन की शांति,
मिलेगी चिर-सहचरी अशांति।
भूल मत जाओ मेरे पथिक,
भुलावा देती तुमको भ्रांति॥
फूल के प्रति
डाल पर के मुरझाए फूल!
हृदय में मत कर वृथा गुमान।
नहीं है सुमन कुंज में अभी
इसी से है तेरा सम्मान॥

मधुप जो करते अनुनय विनय
बने तेरे चरणों के दास।
नई कलियों को खिलती देख
नहीं आवेंगे तेरे पास॥

सहेगा कैसे वह अपमान?
उठेगी वृथा हृदय में शूल।
भुलावा है, मत करना गर्व
डाल पर के मुरझाए फूल॥

मेरा नया बचपन
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥

मैंने पूछा ‘यह क्या लायी?’ बोल उठी वह ‘माँ, काओ’।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा – ‘तुम्हीं खाओ’॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

 

जलियाँवाला बाग में बसंत

 

 

हाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।

परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।

वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।

कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।

लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।

किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।

कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।

कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।

तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।

यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

पानी और धूप
भी अभी थी धूप, बरसने
लगा कहाँ से यह पानी
किसने फोड़ घड़े बादल के
की है इतनी शैतानी।

सूरज ने क्‍यों बंद कर लिया
अपने घर का दरवाजा़
उसकी माँ ने भी क्‍या उसको
बुला लिया कहकर आजा।

ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं
बादल हैं किसके काका
किसको डाँट रहे हैं, किसने
कहना नहीं सुना माँ का।

बिजली के आँगन में अम्‍माँ
चलती है कितनी तलवार
कैसी चमक रही है फिर भी
क्‍यों खाली जाते हैं वार।

क्‍या अब तक तलवार चलाना
माँ वे सीख नहीं पाए
इसीलिए क्‍या आज सीखने
आसमान पर हैं आए।

एक बार भी माँ यदि मुझको
बिजली के घर जाने दो
उसके बच्‍चों को तलवार
चलाना सिखला आने दो।

खुश होकर तब बिजली देगी
मुझे चमकती सी तलवार
तब माँ कर न कोई सकेगा
अपने ऊपर अत्‍याचार।

पुलिसमैन अपने काका को
फिर न पकड़ने आएँगे
देखेंगे तलवार दूर से ही
वे सब डर जाएँगे।

अगर चाहती हो माँ काका
जाएँ अब न जेलखाना
तो फिर बिजली के घर मुझको
तुम जल्‍दी से पहुँचाना।

काका जेल न जाएँगे अब
तूझे मँगा दूँगी तलवार
पर बिजली के घर जाने का
अब मत करना कभी विचार।
बचपन
बारबार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
गया, ले गया तू जीवन की सब से मस्त खुशी मेरी।।

चिन्ता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छन्द।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनन्द?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोपड़ी और चीथड़ों में रानी।

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया।।

रोना और मचल जाना भी क्या आनन्द दिखाते थे
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे।।

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आई, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम, गीले गालों को सुखा दिया।।

दादा ने चन्दा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे।।

यह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई।।

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमंग रंगीली थी
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी।।

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी।।

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तू ने।
अरे! जवानी के फन्दे में मुझको फँसा दिया तू ने।।

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी है।
प्यारी, प्रीतम की रंग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं।।

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहने वाला है।।

किन्तु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिन्ता के चक्कर में पड़ कर जीवन भी है भार बना।।

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शान्ति।
व्याकुल व्यथा मिटाने वाली वह अपनी प्राकृत विश्रान्ति।।

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का सन्ताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नन्दन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी।।

‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थीं।
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।।

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आहृलाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।।

मैंने पूछा ‘यह क्या लाई’? बोल उठी वह ‘माँ, काओ’।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा- ‘तुम्हीं खाओ’।।

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया।।

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।।

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया।।
उल्लास
शैशव के सुन्दर प्रभात का
मैंने नव विकास देखा।
यौवन की मादक लाली में
जीवन का हुलास देखा।

जग-झंझा-झकोर में
आशा-लतिका का विलास देखा।
आकांक्षा, उत्साह, प्रेम का
क्रम-क्रम से प्रकाश देखा

जीवन में न निराशा मुझको
कभी रुलाने को आई।
जग झूठा है यह विरक्ति भी
नहीं सिखाने को आई।

अरिदल की पहिचान कराने
नहीं घृणा आने पाई।
नहीं अशान्ति हृदय तक अपनी
भीषणता लाने पाई।
मधुमय प्याली
रीती होती जाती थी
जीवन की मधुमय प्याली।
फीकी पड़ती जाती थी
मेरे यौवन की लाली।।

हँस-हँस कर यहाँ निराशा
थी अपने खेल दिखाती।
धुंधली रेखा आशा की
पैरों से मसल मिटाती।।

युग-युग-सी बीत रही थीं
मेरे जीवन की घड़ियाँ।
सुलझाये नहीं सुलझती
उलझे भावों की लड़ियाँ।

जाने इस समय कहाँ से
ये चुपके-चुपके आए।
सब रोम-रोम में मेरे
ये बन कर प्राण समाए।

मैं उन्हें भूलने जाती
ये पलकों में छिपे रहते।
मैं दूर भागती उनसे
ये छाया बन कर रहते।

विधु के प्रकाश में जैसे
तारावलियाँ घुल जातीं।
वालारुण की आभा से
अगणित कलियाँ खुल जातीं।।

आओ हम उसी तरह से
सब भेद भूल कर अपना।
मिल जाएँ मधु बरसायें
जीवन दो दिन का सपना।।

फिर छलक उठी है मेरे
जीवन की मधुमय प्याली।
आलोक प्राप्त कर उनका
चमकी यौवन की लाली।।
हींगवाला [ कहानी ]
गभग 35 साल का एक खान आंगन में आकर रुक गया । हमेशा की तरह उसकी आवाज सुनाई दी – ”अम्मा… हींग लोगी?”
पीठ पर बँधे हुए पीपे को खोलकर उसने, नीचे रख दिया और मौलसिरी के नीचे बने हुए चबूतरे पर बैठ गया । भीतर बरामदे से नौ – दस वर्ष के एक बालक ने बाहर निकलकर उत्तर दिया – ”अभी कुछ नहीं लेना है, जाओ !”
पर खान भला क्यों जाने लगा ? जरा आराम से बैठ गया और अपने साफे के छोर से हवा करता हुआ बोला- ”अम्मा, हींग ले लो, अम्मां ! हम अपने देश जाता हैं, बहुत दिनों में लौटेगा ।” सावित्री रसोईघर से हाथ धोकर बाहर आई और बोली – ”हींग तो बहुत-सी ले रखी है खान ! अभी पंद्रह दिन हुए नहीं, तुमसे ही तो ली थी ।”
वह उसी स्वर में फिर बोला-”हेरा हींग है मां, हमको तुम्हारे हाथ की बोहनी लगती है । एक ही तोला ले लो, पर लो जरूर ।” इतना कहकर फौरन एक डिब्बा सावित्री के सामने सरकाते हुए कहा- ”तुम और कुछ मत देखो मां, यह हींग एक नंबर है, हम तुम्हें धोखा नहीं देगा ।”
सावित्री बोली- ”पर हींग लेकर करूंगी क्या ? ढेर-सी तो रखी है ।” खान ने कहा-”कुछ भी ले लो अम्मां! हम देने के लिए आया है, घर में पड़ी रहेगी । हम अपने देश कूं जाता है । खुदा जाने, कब लौटेगा ?” और खान बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए हींग तोलने लगा । इस पर सावित्री के बच्चे नाराज हुए । सभी बोल उठे-”मत लेना मां, तुम कभी न लेना । जबरदस्ती तोले जा रहा है ।” सावित्री ने किसी की बात का उत्तर न देकर, हींग की पुड़िया ले ली । पूछा-”कितने पैसे हुए खान ?”

”पैंतीस पैसे अम्मां!” खान ने उत्तर दिया । सावित्री ने सात पैसे तोले के भाव से पांच तोले का दाम, पैंतीस पैसे लाकर खान को दे दिए । खान सलाम करके चला गया । पर बच्चों को मां की यह बात अच्छी न लगीं ।
बड़े लड़के ने कहा-”मां, तुमने खान को वैसे ही पैंतीस पैसे दे दिए । हींग की कुछ जरूरत नहीं थी ।” छोटा मां से चिढ़कर बोला-”दो मां, पैंतीस पैसे हमको भी दो । हम बिना लिए न रहेंगे ।” लड़की जिसकी उम्र आठ साल की थी, बड़े गंभीर स्वर में बोली-”तुम मां से पैसा न मांगो । वह तुम्हें न देंगी । उनका बेटा वही खान है ।” सावित्री को बच्चों की बातों पर हँसी आ रही थी । उसने अपनी हँसी दबाकर बनावटी क्रोध से कहा-”चलो-चलो, बड़ी बातें बनाने लग गए हो । खाना तैयार है, खाओ । ”
छोटा बोला- ”पहले पैसे दो । तुमने खान को दिए हैं ।”
सावित्री ने कहा- ”खान ने पैसे के बदले में हींग दी है । तुम क्या दोगे?” छोटा बोला- ” मिट्टी देंगे ।” सावित्री हँस पड़ी- ” अच्छा चलो, पहले खाना खा लो, फिर मैं रुपया तुड़वाकर तीनों को पैसे दूंगी ।”
खाना खाते-खाते हिसाब लगाया । तीनों में बराबर पैसे कैसे बंटे ? छोटा कुछ पैसे कम लेने की बात पर बिगड़ पड़ा-”कभी नहीं, मैं कम पैसे नहीं लूंगा!” दोनों में मारपीट हो चुकी होती, यदि मुन्नी थोड़े कम पैसे स्वयं लेना स्वीकार न कर लेती ।
कई महीने बीत गए । सावित्री की सब हींग खत्म हो गई । इस बीच होली आई । होली के अवसर पर शहर में खासी मारपीट हो गई थी । सावित्री कभी- कभी सोचती, हींग वाला खान तो नहीं मार डाला गया? न जाने क्यों, उस हींग वाले खान की याद उसे प्राय: आ जाया करती थी । एक दिन सवेरे-सवेरे सावित्री उसी मौलसिरी के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठी कुछ बुन रही थी । उसने सुना, उसके पति किसी से कड़े स्वर में कह रहे हैं- ”क्या काम है ?’ भीतर मत जाओ । यहाँ आओ । ” उत्तर मिला-”हींग है, हेरा हींग । ” और खान तब तक आंगन मैं सावित्री के सामने पहुँच चुका था । खान को देखते ही सावित्री ने कहा- ”बहुत दिनों में आए खान ! हींग तो कब की खत्म हो गई ।”
खान बोला- ”अपने देश गया था अम्मां, परसों ही तो लौटा हूँ । ” सावित्री ने कहा- ” यहाँ तो बहुत जोरों का दंगा हो गया है ।” खान बोला-”सुना, समझ नहीं है लड़ने वालों में ।”
सावित्री बोली-”खान, तुम हमारे घर चले आए । तुम्हें डर नहीं लगा ?”
दोनों कानों पर हाथ रखते हुए खान बोला-”ऐसी बात मत करो अम्मां । बेटे को भी क्या मां से डर हुआ है, जो मुझे होता ?” और इसके बाद ही उसने अपना डिब्बा खोला और एक छटांक हींग तोलकर सावित्री को दे दी । रेजगारी दोनों में से किसी के पास नहीं थी । खान ने कहा कि वह पैसा फिर आकर ले जाएगा । सावित्री को सलाम करके वह चला गया ।
इस बार लोग दशहरा दूने उत्साह के साथ मनाने की तैयारी में थे । चार बजे शाम को मां काली का जुलूस निकलने वाला था । पुलिस का काफी प्रबंध था । सावित्री के बच्चों ने कहा- “हम भी काली का जुलूस देखने जाएंगे ।”
सावित्री के पति शहर से बाहर गए थे । सावित्री स्वभाव से भीरु थी । उसने बच्चों को पैसों का, खिलौनों का, सिनेमा का, न जाने कितने प्रलोभन दिए पर बच्चे न माने, सो न माने । नौकर रामू भी जुलूस देखने को बहुत उत्सुक हो रहा था । उसने कहा- “भेज दो न मां जी, मैं अभी दिखाकर लिए आता हूँ ।” लाचार होकर सावित्री को जुलूस देखने के लिए बच्चों को बाहर भेजना पड़ा । उसने बार-बार रामू को ताकीद की कि दिन रहते ही वह बच्चों को लेकर लौट आए ।
बच्चों को भेजने के साथ ही सावित्री लौटने की प्रतीक्षा करने लगी । देखते-ही-देखते दिन ढल चला । अंधेरा भी बढ़ने लगा, पर बच्चे न लौटे अब सावित्री को न भीतर चैन था, न बाहर । इतने में उसे -कुछ आदमी सड़क पर भागते हुए जान पड़े । वह दौड़कर बाहर आई, पूछा-”ऐसे भागे क्यों जा रहे हो ? जुलूस तो निकल गया न ।”
एक आदमी बोला-”दंगा हो गया जी, बडा भारी दंगा!’ सावित्री के हाथ-पैर ठंडे पड़ गए । तभी कुछ लोग तेजी से आते हुए दिखे । सावित्री ने उन्हें भी रोका । उन्होंने भी कहा-”दंगा हो गया है!”
अब सावित्री क्या करे ? उन्हीं में से एक से कहा-”भाई, तुम मेरे बच्चों की खबर ला दो । दो लड़के हैं, एक लड़की । मैं तुम्हें मुंह मांगा इनाम दूंगी ।” एक देहाती ने जवाब दिया-”क्या हम तुम्हारे बच्चों को पहचानते हैं मां जी ? ” यह कहकर वह चला गया ।
सावित्री सोचने लगी, सच तो है, इतनी भीड़ में भला कोई मेरे बच्चों को खोजे भी कैसे? पर अब वह भी करें, तो क्या करें? उसे रह-रहकर अपने पर क्रोध आ रहा था । आखिर उसने बच्चों को भेजा ही क्यों ? वे तो बच्चे ठहरे, जिद तो करते ही, पर भेजना उसके हाथ की बात थी । सावित्री पागल-सी हो गई । बच्चों की मंगल-कामना के लिए उसने सभी देवी-देवता मना डाले । शोरगुल बढ़कर शांत हो गया । रात के साथ-साथ नीरवता बढ़ चली । पर उसके बच्चे लौटकर न आए । सावित्री हताश हो गई और फूट-फूटकर रोने लगी । उसी समय उसे वही चिरपरिचित स्वर सुनाई पड़ा- “अम्मा!”
सावित्री दौड़कर बाहर आई उसने देखा, उसके तीनों बच्चे खान के साथ सकुशल लौट आए हैं । खान ने सावित्री को देखते ही कहा-”वक्त अच्छा नहीं हैं अम्मां! बच्चों को ऐसी भीड़-भाड़ में बाहर न भेजा करो ।” बच्चे दौड़कर मां से लिपट गए ।

 

होली  [कहानी]

 

“कल होली है।”
“होगी।”
“क्या तुम न मनाओगी?”
“नहीं।”
”नहीं?”
”न ।”
”’क्यों? ”
”क्या बताऊं क्यों?”
”आखिर कुछ सुनूं भी तो ।”
”सुनकर क्या करोगे? ”
”जो करते बनेगा ।”
”तुमसे कुछ भी न बनेगा ।”
”तो भी ।”
”तो भी क्या कहूँ?
“क्या तुम नहीं जानते होली या कोई भी त्योहार वही मनाता है जो सुखी है । जिसके जीवन में किसी प्रकार का सुख ही नहीं, वह त्योहार भला किस बिरते पर मनावे? ”
”तो क्या तुमसे होली खेलने न आऊं? ”
”क्या करोगे आकर?”
सकरुण दृष्टि से करुणा की ओर देखते हुए नरेश साइकिल उठाकर घर चल
दिया । करुणा अपने घर के काम-काज में लग गई ।

(2)
नरेश के जाने के आध घंटे बाद ही करुणा के पति जगत प्रसाद ने घर में प्रवेश किया । उनकी आँखें लाल थीं । मुंह से तेज शराब की बू आ रही थी । जलती हुई सिगरेट को एक ओर फेंकते हुए वे कुरसी खींच कर बैठ गये । भयभीत हिरनी की तरह पति की ओर देखते हुए करुणा ने पूछा- ”दो दिन तक घर नहीं आए, क्या कुछ तबीयत खराब थी? यदि न आया करो तो खबर तो भिजवा दिया करो । मैं प्रतीक्षा में ही बैठी रहती हूं।”

उन्होंने करुणा की बातों पर कुछ भी ध्यान न दिया । जेब से रुपये निकाल कर मेज़ पर ढेर लगाते हुए बोले- ”पंडितानी जी की तरह रोज़ ही सीख दिया करती हो कि जुआ न खेलो, शराब न पीयो, यह न करो, वह न करो । यदि मैं, जुआ न खेलता तो आज मुझे इतने रुपये इकट्ठे कहाँ से मिल जाते? देखो पूरे पन्द्रह सौ है । लो, इन्हें उठाकर रखो, पर मुझ से बिना पूछे इसमें से एक पाई भी न खर्च करना समझीं?
करुणा जुए में जीते हुए रुपयों को मिट्टी समझती थी । गरीबी से दिन काटना उसे स्वीकार था । परन्तु चरित्र को भ्रष्ट करके धनवान बनना उसे प्रिय न था । वह जगत प्रसाद से बहुत डरती थी इसलिए अपने स्वतंत्र विचार वह कभी भी प्रकट न कर सकती थी । उसे इसका अनुभव कई बार हो चुका था। अपने स्वतंत्र विचार प्रकट करने के लिए उसे कितना अपमान, कितनी लांछना और कितना तिरस्कार सहना पड़ा था। यही कारण था कि आज भी वह अपने विचारों को अन्दर ही अन्दर दबा कर दबी हुई ज़बान से बोली- ”रुपया उठाकर तुम्हीं न रख दो? मेरे हाथ तो आटे में भिड़े है।” करुणा की इस इनकारी से जगत प्रसाद क्रोध से तिलमिला उठे और कड़ी आवाज से पूछा– क्या कहा?”
करुणा कुछ न बोली नीची नजर किए हुए आटा सानती रही । इस चुप्पी से जगत प्रसाद का पारा एक सौ दस डिग्री पर पहुंच गया । क्रोध के आवेश में रुपये उठा कर उन्होंने फिर जेब में रख लिये- ”यह तो मैं जानता ही था कि तुम यही करोगी। मैं तो समझा था इन दो-तीन दिनों में तुम्हारा दिमाग़ ठिकाने आ गया होगा। ऊट-पटांग बातें भूल गई होगी और कुछ अकल आ गई होगी। परन्तु सोचना व्यर्थ था। तुम्हें अपनी विद्वत्ता का घमंड है तो मुझे भी कुछ है । लो! जाता हूँ अब रहना सुख से ” कहते-कहते जगत प्रसाद कमरे से बाहर निकलने लगे।
पीछे से दौड़कर करुणा ने उनके कोट का सिरा पकड़ लिया और विनीत स्वर में बोली- ”रोटी तो खा लो मैं रुपये रखे लेती हूँ। क्यों नाराज होते हो?” एक जोर के झटके के साथ कोट को छुड़ाकर जगत प्रसाद चल दिये । झटका लगने से करुणा पत्थर पर गिर पड़ी और सिर फट गया । खून की धारा बह चली, और सारी जाकेट लाल हो गई ।

( 3 )
संध्या का समय था । पास ही बाबू भगवती प्रसाद जी के सामने बाली चौक से सुरीली आवाज आ रही थी।

”होली कैसे मनाऊं? ”
”सैया बिदेस, मैं द्वारे ठाढ़ी, कर मल मल पछताऊं ।”
होली के दीवाने भंग के नशे में चूर थे। गाने वाली नर्तकी पर रुपयों की बौछार हो रही थी । जगत प्रसाद को अपनी दुखिया पत्नी का खयाल भी न था। रुपया बरसाने वालों में उन्हीं का सब से पहिला नम्बर था। इधर करुणा भूखी-प्यासी छटपटाती हुई चारपाई पर करवटें बदल रही थी।

”भाभी, दरवाजा खोलो” किसी ने बाहर से आवाज दी। करुणा ने कष्ट के साथ उठकर दरवाजा खोल दिया। देखा तो सामने रंग की पिचकारी लिए हुए नरेश खड़ा था। हाथ से पिचकारी छूट कर गिर पड़ी। उसने साश्चर्य पूछा–
”भाभी यह क्या? ”
करुणा की आँखें छल छला आई, उसने रूंधे हुए कंठ से कहा–
”यही तो मेरी होली है, भैय्या।”

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सुमित्रानंदन ‘पन्त’ https://sahityaganga.com/%e0%a4%b8%e0%a5%81%e0%a4%ae%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a4%a8-%e0%a4%aa%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%a4/ Thu, 12 May 2016 07:56:45 +0000 http://sahityaganga.com/?p=7090
परिचय
जन्म: 20 मई 1900
निधन: 28 दिसम्बर 1977
जन्म स्थान
ग्राम कौसनी, अल्मोडा़, उत्तराखंड, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँप्रमुख कृतियां : चिदम्बरा, वीणा, उच्छावास, पल्लव, ग्रंथी, गुंजन, लोकायतन, पल्लवणी, मधु ज्वाला, मानसी,युग वाणी, युग पथ, सत्यकाम, कला और बूढ़ा चांद, ग्राम्या,।

कहानी संग्रह -पांच कहानियाँ [1938], उपन्यास – हार [1960] आत्मकथात्मक संस्मरण – आठ वर्ष : एक रेखांकन [1963]

पुरस्कार/सम्मान : “चिदम्बरा” के लिये भारतीय ज्ञानपीठ, लोकायतन के लिये सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार और हिन्दी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिये उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया गया।
“चिदम्बरा” नामक रचना के लिये 1968 मेंज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित। “कला और बूढ़ा चांद” के लिये 1960 का साहित्य अकादमी पुरस्कार
विशेष
सुमित्रानंदन पंत (मई 20, 1900 – 1977) हिंदी में छायावाद युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उनका जन्म अल्मोड़ा ज़िले के कौसानी नामक ग्राम में मई 20, 1900 को हुआ। जन्म के छह घंटे बाद ही माँ को क्रूर मृत्यु ने छीन लिया। शिशु को उसकी दादी ने पाला पोसा। शिशु का नाम रखा गया गुसाई दत्त। वे सात भाई बहनों में सबसे छोटे थे।
गुसाई दत्त की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अल्मोड़ा में हुई। सन् 1918 में वे अपने मँझले भाई के साथ काशी आ गए और क्वींस कॉलेज में पढ़ने लगे। वहाँ से मैट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद वे इलाहाबाद चले गए। उन्हें अपना नाम पसंद नहीं था, इसलिए उन्होंने अपना नाम रख लिया – सुमित्रानंदन पंत। यहाँ म्योर कॉलेज में उन्होंने इंटर में प्रवेश लिया। 1919 में महात्मा गाँधी के सत्याग्रह से प्रभावित होकर अपनी शिक्षा अधूरी छोड़ दी और स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय हो गए और घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, बँगला और अंग्रेजी का अध्ययन करने लगे।आपको अपना नाम पसंद नहीं था सो आपने अपना नाम सुमित्रानंदन पंत रख लिया।
सुमित्रानंदन सात वर्ष की उम्र में ही जब वे चौथी कक्षा में पढ़ रहे थे, कविता लिखने लग गए थे। सन् 1917 से 1918 के काल को स्वयं कवि ने अपने कवि-जीवन का प्रथम चरण माना है। इस काल की कविताएँ वीणा में संकलित हैं। सन् 1922 में उच्छवास और 1928 में पल्लव का प्रकाशन हुआ। सुमित्रानंदन पंत की कुछ अन्य काव्य कृतियाँ हैं – ग्रंथि, गुंजन, ग्राम्या, युंगात, स्वर्ण-किरण, स्वर्णधूलि, कला और बूढ़ा चाँद, लोकायतन, निदेबरा, सत्यकाम आदि। उनके जीवनकाल में उनकी 28 पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिनमें कविताएं, पद्य-नाटक और निबंध शामिल हैं। श्री सुमित्रानंदन पंत अपने विस्तृत वाङमय में एक विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी के रूप में सामने आते हैं किंतु उनकी सबसे कलात्मक कविताएं ‘पल्लव’ में संकलित हैं, जो 1918 से 1925 तक लिखी गई ३२ कविताओं का संग्रह है।
उनका रचा हुआ संपूर्ण साहित्य ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ के संपूर्ण आदर्शों से प्रभावित होते हुए भी समय के साथ निरंतर बदलता रहा है। जहां प्रारंभिक कविताओं में प्रकृति और सौंदर्य के रमणीय चित्र मिलते हैं वहीं दूसरे चरण की कविताओं में छायावाद की सूक्ष्म कल्पनाओं व कोमल भावनाओं के और अंतिम चरण की कविताओं में प्रगतिवाद और विचारशीलता के। उनकी सबसे बाद की कविताएं अरविंद दर्शन और मानव कल्याण की भावनाओं सो ओतप्रोत हैं।
हिंदी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिए उन्हें पद्मभूषण(1961), ज्ञानपीठ(1968) तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से अलंकृत किया गया। सुमित्रानंदन पंत के नाम पर कौशानी में उनके पुराने घर को जिसमें वे बचपन में रहा करते थे, सुमित्रानंदन पंत वीथिका के नाम से एक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। इसमें उनके व्यक्तिगत प्रयोग की वस्तुओं जैसे कपड़ों, कविताओं की मूल पांडुलिपियों, छायाचित्रों, पत्रों और पुरस्कारों को प्रदर्शित किया गया है। इसमें एक पुस्तकालय भी है, जिसमें उनकी व्यक्तिगत तथा उनसे संबंधित पुस्तकों का संग्रह है।
उनका देहांत 28 दिसंबर 1977 को इलाहाबाद में हुआ । आधी शताब्दी से भी अधिक लंबे उनके रचनाकर्म में आधुनिक हिंदी कविता का पूरा एक युग समाया हुआ है। यहाँ पन्त जी की कुछ कविताएँ डी जा रही हैं—
कवितायेँ
सोनजुही
सोनजुही की बेल नवेली,
एक वनस्पति वर्ष, हर्ष से खेली, फूली, फैली,
सोनजुही की बेल नवेली!
आँगन के बाड़े पर चढ़कर
दारु खंभ को गलबाँही भर,
कुहनी टेक कँगूरे पर
वह मुस्काती अलबेली!
सोनजुही की बेल छबीली!
दुबली पतली देह लतर, लोनी लंबाई,
प्रेम डोर सी सहज सुहाई!
फूलों के गुच्छों से उभरे अंगों की गोलाई,
निखरे रंगों की गोराई
शोभा की सारी सुघराई
जाने कब भुजगी ने पाई!
सौरभ के पलने में झूली
मौन मधुरिमा में निज भूली,
यह ममता की मधुर लता
मन के आँगन में छाई!
सोनजुही की बेल लजीली
पहिले अब मुस्काई!
एक टाँग पर उचक खड़ी हो
मुग्धा वय से अधिक बड़ी हो,
पैर उठा कृश पिंडुली पर धर,
घुटना मोड़ , चित्र बन सुन्दर,
पल्लव देही से मृदु मांसल,
खिसका धूप छाँह का आँचल
पंख सीप के खोल पवन में
वन की हरी परी आँगन में
उठ अंगूठे के बल ऊपर
उड़ने को अब छूने अम्बर!
सोनजुही की बेल हठीली
लटकी सधी अधर पर!
झालरदार गरारा पहने
स्वर्णिम कलियों के सज गहने
बूटे कढ़ी चुनरी फहरा
शोभा की लहरी-सी लहरा
तारों की-सी छाँह सांवली,
सीधे पग धरती न बावली
कोमलता के भार से मरी
अंग भंगिमा भरी, छरहरी!
उदि्भद जग की-सी निर्झरिणी
हरित नीर, बहती सी टहनी!
सोनजुही की बेल,
चौकड़ी भरती चंचल हिरनी!
आकांक्षा सी उर से लिपटी,
प्राणों के रज तम से चिपटी,
भू यौवन की सी अंगड़ाई,
मधु स्वप्नों की सी परछाई,
रीढ़ स्तम्भ का ले अवलंबन
धरा चेतना करती रोहण
आ, विकास पथ पर भू जीवन!
सोनजुही की बेल,
गंध बन उड़ी, भरा नभ का मन!
वह बुड्ढा

ड़ा द्वार पर, लाठी टेके,
वह जीवन का बूढ़ा पंजर,
चिमटी उसकी सिकुड़ी चमड़ी
हिलते हड्डी के ढाँचे पर।
उभरी ढीली नसें जाल सी
सूखी ठठरी से हैं लिपटीं,
पतझर में ठूँठे तरु से ज्यों
सूनी अमरबेल हो चिपटी।

उसका लंबा डील डौल है,
हट्टी कट्टी काठी चौड़ी,
इस खँडहर में बिजली सी
उन्मत्त जवानी होगी दौड़ी!
बैठी छाती की हड्डी अब,
झुकी रीढ़ कमटा सी टेढ़ी,
पिचका पेट, गढ़े कंधों पर,
फटी बिबाई से हैं एड़ी।

बैठे, टेक धरती पर माथा,
वह सलाम करता है झुककर,
उस धरती से पाँव उठा लेने को
जी करता है क्षण भर!
घुटनों से मुड़ उसकी लंबी
टाँगें जाँघें सटी परस्पर,
झुका बीच में शीश, झुर्रियों का
झाँझर मुख निकला बाहर।

हाथ जोड़, चौड़े पंजों की
गुँथी अँगुलियों को कर सन्मुख,
मौन त्रस्त चितवन से,
कातर वाणी से वह कहता निज दुख।
गर्मी के दिन, धरे उपरनी सिर पर,
लुंगी से ढाँपे तन,–
नंगी देह भरी बालों से,–
वन मानुस सा लगता वह जन।

भूखा है: पैसे पा, कुछ गुनमुना,
खड़ा हो, जाता वह घर,
पिछले पैरों के बल उठ
जैसे कोई चल रहा जानवर!
काली नारकीय छाया निज
छोड़ गया वह मेरे भीतर,
पैशाचिक सा कुछ: दुःखों से
मनुज गया शायद उसमें मर!

रचनाकाल: जनवरी’४०

बाँध दिए क्यों प्राण

 

बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से

गोपन रह न सकेगी
अब यह मर्म कथा
प्राणों की न रुकेगी
बढ़ती विरह व्यथा
विवश फूटते गान प्राणों से

यह विदेह प्राणों का बंधन
अंतर्ज्वाला में तपता तन
मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को
दग्ध कामना करता अर्पण
नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से

भारत ग्राम

 

सारा भारत है आज एक रे महा ग्राम!
हैं मानचित्र ग्रामों के, उसके प्रथित नगर
ग्रामीण हृदय में उसके शिक्षित संस्कृत नर,
जीवन पर जिनका दृष्टि कोण प्राकृत, बर्बर,
वे सामाजिक जन नहीं, व्यक्ति हैं अहंकाम।

है वही क्षुद्र चेतना, व्यक्तिगत राग द्वेष,
लघु स्वार्थ वही, अधिकार सत्व तृष्णा अशेष,
आदर्श, अंधविश्वास वही,–हो सभ्य वेश,
संचालित करते जीवन जन का क्षुधा काम।

वे परंपरा प्रेमी, परिवर्तन से विभीत,
ईश्वर परोक्ष से ग्रस्त, भाग्य के दास क्रीत,
कुल जाति कीर्ति प्रिय उन्हें, नहीं मनुजत्व प्रीत,
भव प्रगति मार्ग में उनके पूर्ण धरा विराम।

लौकिक से नहीं, अलौकिक से है उन्हें प्रीति,
वे पाप पुण्य संत्रस्त, कर्म गति पर प्रतीति
उपचेतन मन से पीड़ित, जीवन उन्हें ईति,
है स्वर्ग मुक्ति कामना, मर्त्य से नहीं काम।

आदिम मानव करता अब भी जन में निवास,
सामूहिक संज्ञा का जिसकी न हुआ विकास,
जन जीवी जन दारिद्रय दुःख के बने ग्रास,
परवशा यहाँ की चर्म सती ललना ललाम!

जन द्विपद: कर सके देश काल को नहीं विजित,
वे वाष्प वायु यानों से हुए नहीं विकसित,
वे वर्ग जीव, जिनसे जीवन साधन अधिकृत,
लालायित करते उन्हें वही धन, धरणि, धाम।

ललकार रहा जग को भौतिक विज्ञान आज,
मानव को निर्मित करना होगा नव समाज,
विद्युत औ’ वाष्प करेंगे जन निर्माण काज,
सामूहिक मंगल हो समान: समदृष्टि राम!

रचनाकाल: दिसंबर’ ३९

ग्राम देवता

 

राम राम,
हे ग्राम देवता, भूति ग्राम !
तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्णकाम,
शिर पर शोभित वर छत्र तड़ित स्मित घन श्याम,
वन पवन मर्मरित-व्यजन, अन्न फल श्री ललाम।

तुम कोटि बाहु, वर हलधर, वृष वाहन बलिष्ठ,
मित असन, निर्वसन, क्षीणोदर, चिर सौम्य शिष्ट;
शिर स्वर्ण शस्य मंजरी मुकुट, गणपति वरिष्ठ,
वाग्युद्ध वीर, क्षण क्रुद्ध धीर, नित कर्म निष्ठ।

पिक वयनी मधुऋतु से प्रति वत्सर अभिनंदित,
नव आम्र मंजरी मलय तुम्हें करता अर्पित।
प्रावृट्‍ में तव प्रांगण घन गर्जन से हर्षित,
मरकत कल्पित नव हरित प्ररोहों में पुलकित!

शशि मुखी शरद करती परिक्रमा कुंद स्मित,
वेणी में खोंसे काँस, कान में कुँई लसित।
हिम तुमको करता तुहिन मोतियों से भूषित,
बहु सोन कोक युग्मों से तव सरि-सर कूजित।

अभिराम तुम्हारा बाह्य रूप, मोहित कवि मन,
नभ के नीलम संपुट में तुम मरकत शोभन!
पर, खोल आज निज अंतःपुर के पट गोपन
चिर मोह मुक्त कर दिया, देव! तुमने यह जन!

राम राम,
हे ग्राम देवता, रूढ़ि धाम!
तुम स्थिर, परिवर्तन रहित, कल्पवत्‌ एक याम,
जीवन संघर्षण विरत, प्रगति पथ के विराम,
शिक्षक तुम, दस वर्षों से मैं सेवक, प्रणाम।

कवि अल्प, उडुप मति, भव तितीर्षु,–दुस्तर अपार,
कल्पना पुत्र मैं, भावी द्रष्टा, निराधार,
सौन्दर्य स्वप्नचर,– नीति दंडधर तुम उदार,
चिर परम्परा के रक्षक, जन हित मुक्त द्वार।

दिखलाया तुमने भारतीयता का स्वरूप,
जन मर्यादा का स्रोत शून्य चिर अंध कूप,
जग से अबोध, जानता न था मैं छाँह धूप,
तुम युग युग के जन विश्वासों के जीर्ण स्तूप!

यह वही अवध! तुलसी की संस्कृति का निवास!
श्री राम यहीं करते जन मानस में विलास!
अह, सतयुग के खँडहर का यह दयनीय ह्रास!
वह अकथनीय मानसिक दैन्य का बना ग्रास!!

ये श्रीमानों के भवन आज साकेत धाम!
संयम तप के आदर्श बन गए भोग काम!
आराधित सत्व यहाँ, पूजित धन, वंश, नाम!
यह विकसित व्यक्तिवाद की संस्कृति! राम राम!!

श्री राम रहे सामंत काल के ध्रुव प्रकाश,
पशुजीवी युग में नव कृषि संस्कृति के विकास;
कर सके नहीं वे मध्य युगों का तम विनाश,
जन रहे सनातनता के तब से क्रीत दास!

पशु-युग में थे गणदेवों के पूजित पशुपति,
थी रुद्रचरों से कुंठित कृषि युग की उन्नति ।
श्री राम रुद्र की शिव में कर जन हित परिणति,
जीवित कर गए अहल्या को, थे सीतापति!

वाल्मीकि बाद आए श्री व्यास जगत वंदित,
वह कृषि संस्कृति का चरमोन्नत युग था निश्चित;
बन गए राम तब कृष्ण, भेद मात्रा का मित,
वैभव युग की वंशी से कर जन मन मोहित।

तब से युग युग के हुए चित्रपट परिवर्तित,
तुलसी ने कृषि मन युग अनुरूप किया निर्मित।
खोगया सत्य का रूप, रह गया नामामृत,
जन समाचरित वह सगुण बन गया आराधित!

गत सक्रिय गुण बन रूढ़ि रीति के जाल गहन
कृषि प्रमुख देश के लिए होगए जड़ बंधन।
जन नही, यंत्र जीवनोपाय के अब वाहन,
संस्कृति के केन्द्र न वर्ग अधिप, जन साधारण!

उच्छिष्ट युगों का आज सनातनवत्‌ प्रचलित,
बन गईं चिरंतन रीति नीतियाँ, — स्थितियाँ मृत।
गत संस्कृतियाँ थी विकसित वर्ग व्यक्ति आश्रित,
तब वर्ग व्यक्ति गुण, जन समूह गुण अब विकसित।

अति-मानवीय था निश्चित विकसित व्यक्तिवाद,
मनुजों में जिसने भरा देव पशु का प्रमाद।
जन जीवन बना न विशद, रहा वह निराह्लाद,
विकसित नर नर-अपवाद नही, जन-गुण-विवाद।

तब था न वाष्प, विद्युत का जग में हुआ उदय,
ये मनुज यंत्र, युग पुरुष सहस्र हस्त बलमय।
अब यंत्र मनुज के कर पद बल, सेवक समुदय,
सामंत मान अब व्यर्थ,– समृद्ध विश्व अतिशय।

अब मनुष्यता को नैतिकता पर पानी जय,
गत वर्ग गुणों को जन संस्कृति में होना लय;
देशों राष्ट्रों को मानव जग बनना निश्चय,
अंतर जग को फिर लेना वहिर्जगत आश्रय।

राम राम,
हे ग्राम्य देवता, यथा नाम ।
शिक्षक हो तुम, मै शिष्य, तुम्हें सविनय प्रणाम।
विजया, महुआ, ताड़ी, गाँजा पी सुबह शाम
तुम समाधिस्थ नित रहो, तुम्हें जग से न काम!

पंडित, पंडे, ओझा, मुखिया औ’ साधु, संत
दिखलाते रहते तुम्हें स्वर्ग अपवर्ग पंथ।
जो था, जो है, जो होगा,–सब लिख गए ग्रंथ,
विज्ञान ज्ञान से बड़े तुम्हारे मंत्र तंत्र।

युग युग से जनगण, देव! तुम्हारे पराधीन,
दारिद्र्य दुःख के कर्दम में कृमि सदृश लीन!
बहु रोग शोक पीड़ित, विद्या बल बुद्धि हीन,
तुम राम राज्य के स्वप्न देखते उदासीन!

जन अमानुषी आदर्शो के तम से कवलित,
माया उनको जग, मिथ्या जीवन, देह अनित;
वे चिर निवृत्ति के भोगी,–त्याग विराग विहित,
निज आचरणों में नरक जीवियों तुल्य पतित!

वे देव भाव के प्रेमी,–पशुओं से कुत्सित,
नैतिकता के पोषक,– मनुष्यता से वंचित,
बहु नारी सेवी,- – पतिव्रता ध्येयी निज हित,
वैधव्य विधायक,– बहु विवाह वादी निश्चित।

सामाजिक जीवन के अयोग्य, ममता प्रधान,
संघर्षण विमुख, अटल उनको विधि का विधान।
जग से अलिप्त वे, पुनर्जन्म का उन्हें ध्यान,
मानव स्वभाव के द्रोही, श्वानों के समान।

राम राम,
हे ग्राम देव, लो हृदय थाम,
अब जन स्वातंत्र्य युद्ध की जग में धूम धाम।
उद्यत जनगण युग क्रांति के लिए बाँध लाम,
तुम रूढ़ि रीति की खा अफ़ीम, लो चिर विराम!

यह जन स्वातंत्र्य नही, जनैक्य का वाहक रण,
यह अर्थ राजनीतिक न, सांस्कृति संघर्षण।
युग युग की खंड मनुजता, दिशि दिशि के जनगण
मानवता में मिल रहे,– ऐतिहासिक यह क्षण!

नव मानवता में जाति वर्ग होंगे सब क्षय,
राष्ट्रों के युग वृत्तांश परिधि मे जग की लय।
जन आज अहिंसक, होंगे कल स्नेही, सहृदय,
हिन्दु, ईसाई, मुसलमान,–मानव निश्चय।

मानवता अब तक देश काल के थी आश्रित,
संस्कृतियाँ सकल परिस्थितियों से थीं पीड़ित।
गत देश काल मानव के बल से आज विजित,
अब खर्व विगत नैतिकता, मनुष्यता विकसित।

छायाएँ हैं संस्कृतियाँ, मानव की निश्चित,
वह केन्द्र, परिस्थितियों के गुण उसमें बिम्बित।
मानवी चेतना खोल युगों के गुण कवलित
अब नव संस्कृति के वसनों से होगी भूषित।

विश्वास धर्म, संस्कृतियाँ, नीति रीतियाँ गत
जन संघर्षण में होगी ध्वंस, लीन, परिणत।
बंधन विमुक्त हो मानव आत्मा अप्रतिहत
नव मानवता का सद्य करेगी युग स्वागत।

राम राम,
हे ग्राम देवता, रूढ़िधाम!
तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्ण काम,
जड़वत्, परिवर्तन शून्य, कल्प शत एक याम,
शिक्षक हो तुम, मैं शिष्य, तुम्हें शत शत प्रणाम।

रचनाकाल: जनवरी’ ४०

यह धरती कितना देती है

 

मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा!
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!-
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल-कल्पना के अपलर पाँवडडे बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!

अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे!
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!
औ\’ जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये
गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,
मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की
गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे-
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो!
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में
टहल रहा था,- तब सहसा, मैने देखा
उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!

देखा-आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!
छांता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी-
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे-
डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चों से!
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया,-कुछ दिन पहिले
बीज सेम के मैने रोपे थे आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है!

तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,
हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे!
बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,-
मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है!
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से!

ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी!
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ,-
पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती!
लम्बी-लम्बी अँगुलियों – सी नन्हीं-नन्हीं
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!
आः इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बँटबाई
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !-
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ!

यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!
नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,-
बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;
इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,
इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,-
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की, – जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।

संध्या

हो, तुम रूपसि कौन?
व्योम से उतर रही चुपचाप
छिपी निज छाया-छबि में आप,
सुनहला फैला केश-कलाप,–
मधुर, मंथर, मृदु, मौन!
मूँद अधरों में मधुपालाप,
पलक में निमिष, पदों में चाप,
भाव-संकुल, बंकिम, भ्रू-चाप,
मौन, केवल तुम मौन!
ग्रीव तिर्यक, चम्पक-द्युति गात,
नयन मुकुलित, नत मुख-जलजात,
देह छबि-छाया में दिन-रात,
कहाँ रहती तुम कौन?
अनिल पुलकित स्वर्णांचल लोल,
मधुर नूपुर-ध्वनि खग-कुल-रोल,
सीप-से जलदों के पर खोल,
उड़ रही नभ में मौन!
लाज से अरुण-अरुण सुकपोल,
मदिर अधरों की सुरा अमोल,–
बने पावस-घन स्वर्ण-हिंदोल,
कहो, एकाकिनि, कौन?
मधुर, मंथर तुम मौन?

रचनाकाल: सितम्बर’ 1930

लहरों का गीत

पने ही सुख से चिर चंचल
हम खिल खिल पडती हैं प्रतिपल,
जीवन के फेनिल मोती को
ले ले चल करतल में टलमल!छू छू मृदु मलयानिल रह रह
करता प्राणों को पुलकाकुल;
जीवन की लतिका में लहलह
विकसा इच्छा के नव नव दल!सुन मधुर मरुत मुरली की ध्वनी
गृह-पुलिन नांध, सुख से विह्वल,
हम हुलस नृत्य करतीं हिल हिल
खस खस पडता उर से अंचल!चिर जन्म-मरण को हँस हँस कर
हम आलिंगन करती पल पल,
फिर फिर असीम से उठ उठ कर
फिर फिर उसमें हो हो ओझल!
धरती का आँगन इठलाता

रती का आँगन इठलाता!
शस्य श्यामला भू का यौवन
अंतरिक्ष का हृदय लुभाता!

जौ गेहूँ की स्वर्णिम बाली
भू का अंचल वैभवशाली
इस अंचल से चिर अनादि से
अंतरंग मानव का नाता!

आओ नए बीज हम बोएं
विगत युगों के बंधन खोएं
भारत की आत्मा का गौरव
स्वर्ग लोग में भी न समाता!

भारत जन रे धरती की निधि,
न्यौछावर उन पर सहृदय विधि,
दाता वे, सर्वस्व दान कर
उनका अंतर नहीं अघाता!

किया उन्होंने त्याग तप वरण,
जन स्वभाव का स्नेह संचरण
आस्था ईश्वर के प्रति अक्षय
श्रम ही उनका भाग्य विधाता!

सृजन स्वभाव से हो उर प्रेरित
नव श्री शोभा से उन्मेषित
हम वसुधैव कुटुम्ब ध्येय रख
बनें नये युग के निर्माता!

सुख – दुःख

मैं नहीं चाहता चिर-सुख,
मैं नहीं चाहता चिर-दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरन;
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन !

जग पीड़ित है अति-दुख से
जग पीड़ित रे अति-सुख से,
मानव-जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से !

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न;
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन !

यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का !

ऋतुओं की ऋतु वसंत

 

फिर वसंत की आत्मा आई,
मिटे प्रतीक्षा के दुर्वह क्षण,
अभिवादन करता भू का मन !
दीप्त दिशाओं के वातायन,
प्रीति सांस-सा मलय समीरण,
चंचल नील, नवल भू यौवन,
फिर वसंत की आत्मा आई,
आम्र मौर में गूंथ स्वर्ण कण,
किंशुक को कर ज्वाल वसन तन !
देख चुका मन कितने पतझर,
ग्रीष्म शरद, हिम पावस सुंदर,
ऋतुओं की ऋतु यह कुसुमाकर,
फिर वसंत की आत्मा आई,
विरह मिलन के खुले प्रीति व्रण,
स्वप्नों से शोभा प्ररोह मन !
सब युग सब ऋतु थीं आयोजन,
तुम आओगी वे थीं साधन,
तुम्हें भूल कटते ही कब क्षण?
फिर वसंत की आत्मा आई,
देव, हुआ फिर नवल युगागम,
स्वर्ग धरा का सफल समागम !

सावन

 

म झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के
छम छम छम गिरतीं बूँदें तरुओं से छन के।
चम चम बिजली चमक रही रे उर में घन के,
थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के।

ऐसे पागल बादल बरसे नहीं धरा पर,
जल फुहार बौछारें धारें गिरतीं झर झर।
आँधी हर हर करती, दल मर्मर तरु चर् चर्
दिन रजनी औ पाख बिना तारे शशि दिनकर।

पंखों से रे, फैले फैले ताड़ों के दल,
लंबी लंबी अंगुलियाँ हैं चौड़े करतल।
तड़ तड़ पड़ती धार वारि की उन पर चंचल
टप टप झरतीं कर मुख से जल बूँदें झलमल।

नाच रहे पागल हो ताली दे दे चल दल,
झूम झूम सिर नीम हिलातीं सुख से विह्वल।
हरसिंगार झरते, बेला कलि बढ़ती पल पल
हँसमुख हरियाली में खग कुल गाते मंगल?

दादुर टर टर करते, झिल्ली बजती झन झन
म्याँउ म्याँउ रे मोर, पीउ पिउ चातक के गण!
उड़ते सोन बलाक आर्द्र सुख से कर क्रंदन,
घुमड़ घुमड़ घिर मेघ गगन में करते गर्जन।

वर्षा के प्रिय स्वर उर में बुनते सम्मोहन
प्रणयातुर शत कीट विहग करते सुख गायन।
मेघों का कोमल तम श्यामल तरुओं से छन।
मन में भू की अलस लालसा भरता गोपन।

रिमझिम रिमझिम क्या कुछ कहते बूँदों के स्वर,
रोम सिहर उठते छूते वे भीतर अंतर!
धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर,
रज के कण कण में तृण तृण की पुलकावलि भर।

पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन,
आओ रे सब मुझे घेर कर गाओ सावन!
इन्द्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन,
फिर फिर आए जीवन में सावन मन भावन!

तप रे मधुर-मधुर मन!

विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ’ कोमल
तप रे विधुर-विधुर मन!अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन,
ढल रे ढल आतुर मन!तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन
निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,
मूर्तिमान बन, निर्धन!
गल रे गल निष्ठुर मन!आते कैसे सूने पल
जीवन में ये सूने पल?
जब लगता सब विशृंखल,
तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल!खो देती उर की वीणा
झंकार मधुर जीवन की,
बस साँसों के तारों में
सोती स्मृति सूनेपन की!बह जाता बहने का सुख,
लहरों का कलरव, नर्तन,
बढ़ने की अति-इच्छा में
जाता जीवन से जीवन!आत्मा है सरिता के भी
जिससे सरिता है सरिता;
जल-जल है, लहर-लहर रे,
गति-गति सृति-सृति चिर भरिता!क्या यह जीवन? सागर में
जल भार मुखर भर देना!
कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-
ब्रीड़ा से तनिक ने लेना!सागर संगम में है सुख,
जीवन की गति में भी लय,
मेरे क्षण-क्षण के लघु कण
जीवन लय से हों मधुमयदीपक जलता

दीपक जलता अँधियारे में,
जलकर कहता बात रे!
कभी न हटना अपने पथ से,
आए झंझावात रे!

दीवाली हर दिन है उसको,
जिसे मिल गई शांति रे!
जिसे सताती नहीं ईर्ष्या,
जिसे न भाती भ्रांति रे!
प्रबल प्रभंजन डरते उससे,
डरती है बरसात रे!!
जो खुशियाँ भर दे जीवन में,
वह लक्ष्मी महान रे!
जो कि बुद्धि विकसित कर देवे,
वह गणेश भगवान रे!
नारी लक्ष्मी, गुरु गणेश हैं,
दु:ख में थामें हाथ रे!!

भेद-भाव का भूत भगाकर,
भरो मन में प्रीत रे!
बैर-भाव जड़ से विनष्ट कर,
गाओ प्रेम-प्रगीत रे!
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई,
सब आपस में भ्रात रे!!

दूर करो मन का अँधियारा,
भर कर आत्म-प्रकाश रे!
प्रेम-प्रदीप जलाकर प्यारे,
जग का करो विकास रे!
देती है आदेश यही, यह
दीवाली की रात रे!!

भारतमाता ग्रामवासिनी

भारतमाता
ग्रामवासिनीखेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला-सा आँचल
गंगा जमुना में आँसू जल
मिट्टी की प्रतिमा उदासिनी,
भारतमाता
ग्रामवासिनीदैन्य जड़ित अपलक नत चितवन
अधरों में चिर नीरव रोदन
युग-युग के तम से विषण्ण मन
वह अपने घर में प्रवासिनी,
भारतमाता
ग्रामवासिनीतीस कोटी संतान नग्न तन
अर्द्ध-क्षुभित, शोषित निरस्त्र जन
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन
नतमस्तक तरुतल निवासिनी,
भारतमाता
ग्रामवासिनीस्वर्ण शस्य पर पद-तल-लुंठित
धरती-सा सहिष्णु मन कुंठित
क्रन्दन कम्पित अधर मौन स्मित
राहु ग्रसित शरदिंदु हासिनी,
भारतमाता
ग्रामवासिनीचिंतित भृकुटी क्षितिज तिमिरान्कित
नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित
आनन श्री छाया शशि उपमित
ज्ञानमूढ़ गीता-प्रकाशिनी,
भारतमाता
ग्रामवासिनीसफल आज उसका तप संयम
पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम
हरती जन-मन भय, भव तन भ्रम
जग जननी जीवन विकासिनी,
भारतमाता
ग्रामवासिनी
प्रार्थना
जग के उर्वर आँगन में
बरसो ज्योतिर्मय जीवन!
बरसो लघु लघु तृण तरु पर
हे चिर अव्यय, चिर नूतन!
बरसो कुसुमों के मधु बन,
प्राणो में अमर प्रणय धन;
स्मिति स्वप्न अधर पलकों में
उर अंगो में सुख यौवन!
छू छू जग के मृत रज कण
कर दो तृण तरु में चेतन,
मृन्मरण बांध दो जग का
दे प्राणो का आलिंगन!
बरसो सुख बन, सुखमा बन,
बरसो जग जीवन के घन!
दिशि दिशि में औ’ पल पल में
बरसो संसृति के सावन!
गीतों का दर्पण

दि मरणोन्मुख वर्तमान से
ऊब गया हो कटु मन,
उठते हों न निराश लौह पग
रुद्ध श्वास हो जीवन !
रिक्त बालुका यंत्र,…खिसक हो
चुके सुनहले सब क्षण,
क्यों यादों में बंदी हो
सिसक रहा उर स्पन्दन !

तो मेरे गीतों में देखो
नव भविष्य की झाँकी,
नि:स्वर शिखरों पर उड़ता
गाता सोने का पाँखी ।
चीर कुहासों के क्षितिजों को
भर उड़ान दिग् भास्वर,
वह प्रभात नभ में फैलाता
स्वर्णिम लपटों के पर !

दुविधा के ये क्षितिज,-
मौन वे श्रद्धा शुभ्र दिगंतर,
सत्यों के स्मित शिखर,
अमित उल्लास भरे ये अंबर !
नीलम के रे अंतरिक्ष,
विद्रुम प्रसार दिग् दीपित,
स्वप्नों के स्वर्गिक दूतों की
पद चापों से कंपित !

प्राणों का पावक पंछी यह,
मुक्त चेतना की गति,
प्रीति मधुरिमा सुषमा के स्वर,
अंतर की स्वर संगति !
उज्जवल गैरिक पंख, चंचु
मणि लोहित, गीत तरंगित,
नील पीठ, मुक्ताभ वक्ष,
चल पुच्छ हरित दिग्लंबित !

दृढ़ संयम ही पीठ, शांति ही
वक्ष, पक्ष मन चेतन,
पुच्छ प्रगति क्रम, सुरुचि चंचु,
लुंठित छाया भू जीवन !
हीरक चितवन, मनसिज शर-से
स्वर्ण पंख निर्मम स्वर,
मर्म तमस को वेध, प्रीति व्रण
करते उर में नि:स्वर !

दिव्य गरुड़ रे यह, उड़ता
सत रज प्रसार कर अतिक्रम,
पैने पंजों में दबोच, नत
काल सर्प सा भू तम !
वह श्रद्धा का रे भविष्य,–
जो देश काल युग से पर,
स्वप्नों की सतरंग शोभा से
रंग लो हे निज अंतर !

मन से प्राणों में, प्राणों से
जीवन में कर मूर्तित,
शोभा आकृति में जन भू का
स्वर्ग करो नव निर्मित !
उस भविष्य ही की छाया
इस वर्तमान के मुख पर,
सदा रेंगता रहा रहस छवि…
इंगित पर जो खिंचकर ।

यह भावी का वर्तमान रे
युग प्रभात सा प्रहसित,
कढ़ अतीत के धूमों से जो
नव क्षितिजों में विकसित !
यदि भू के प्राणों का जीवन
करना हो संयोजित,
तो अंतरतम में प्रवेश कर
करो बाह्य पट विस्तृत !

वर्तमान से छिन्न तुम्हें जो
लगता रिक्त भविष्यत्-
वह नव मानव का मुख,
अंकित काल पटी पर अक्षत !
नहीं भविष्यत् रे वह,
मानवता की आत्मा विकसित,
जड़ भू जीवन में, जन मन में
करना जिसे प्रतिष्ठित !

यदि यथार्थ की चकाचौंध से
मूढ़ दृष्टि अब निष्फल,–
डुबो गीतों में, जिनका
चेतना द्रवित अंतस्तल !
लहराता आनंद अमृत रे
इनमें शाश्वत उज्जवल,
ये रेती की चमक न,
प्यासा रखता जिसका मृग जल !

यदि ह्रासोन्मुख वर्तमान से
ऊब गया हो अब मन,
गीतों के दर्पण में देखो
अपना श्री-नव आनन ।

स्मृति

न फूलों की तरु डाली में
गाती अह, निर्दय गिरि कोयल,
काले कौओं के बीच पली,
मुँहजली, प्राण करती विह्वल !
कोकिल का ज्वाला का गायन,
गायन में मर्म व्यया मादन,
उस मूक व्यथा में लिपटी स्मृति,
स्मृति पट में प्रीति कथा पावन !

वह प्रीति तुम्हारी ही प्रिय निधि,
निधि, चिर शोभा की ! (जो अनंत
कलि कुसुमों के अंगों में खिल
बनती रहती जीवन वसंत ! )
उस शोभा का स्वप्नों का तन,
(जिन स्वप्नों से विस्मित लोचन ।–
जो स्वप्न मूर्त हो सके नहीं,
भरते उर में स्वर्णिम गुंजन ! )

उस तन कीभाव द्रवित आकृति,…
(जो धूपछाँह पट पर अंकित । )
आकृति की खोई सी रेखा
लहरों में वेला सी मज्जित !

यौवन बेला वह, स्वप्न लिखी
छबि रेखाएँ जिसमें ओझल,
तुम अंर्तमुख शोभा धारा
बहती अब प्राणों में शीतल !
प्राणों की फूलों की डाली
स्मृति की छाया मधु की कोयल,
यह गीति व्यथा, अंर्तमुख स्वर,
वह प्रीति कथा, धारा निश्चल !

आत्मबोध

ड़ू नीबू की डालों सी…
स्वर्ण शुभ्र कलियों में पुलकित,…
तुम्हें अंक भरने को मेरी
बांहें युग युग से लालायित !
ओ नित नयी क्षितिज की शोभे,
पत्र हीन मैं पतझर का वन,…
शून्य नील की नीरवता को
प्राणों में बाँधे हूँ उन्मन !

मुझमें भी बहता वन शोणित
हरा भरा,-मरकत सा विगलित,-
मूक वनस्पति जीवन मेरा
मलय स्पर्श पा होता मुकुलित !
वन का आदिम प्राणी तरु मैं
जिसने केवल बढ़ना जाना,…
यह संयोग कि खिले कुसुम कलि,
नीड़ों ने बरसाया गाना !

माना, इन डालों में कांटे,
गहरे चिंतन के जिनके व्रण,-
मर्म गूँज के बिना मधुप क्या
होता सुखी, चूम मधु के कण ?
अकथित थी इच्छा,-सुमनों में
हँस, उड़ गई अमित सुगंध बन,
मूल रहे मिट्टी से लिपटे
आए बहु हेमंत, ग्रीष्म, घन !

अन फिर से मधु ऋतु आने को,-
पर, मैं जान गया हूँ, निश्चित
मैं ही स्वर्ग शिखाओं में जल
नए क्षितिज करता हूँ निर्मित !
यह मेरी ही अमृत चेतना,-
रिक्त पात्र बन जिसका पतझर
नयी प्राप्ति के नव वसंत में
नव श्री शोभा से जाता भर !
4. प्रकाश, पतंगे, छिपकलियाँ

वह प्रकाश, वे मुग्ध पतंगे,
ये भूखी, लोभी छिपकलियाँ,
प्रीति शिखा, उत्सर्ग मौन,
स्वार्थों की अंधी चलती गलियाँ !

वह आकर्षण, वे मिलनातुर,
ये चुपके छिप घात लगातीं,
आत्मोज्वल वह, विरह दग्ध वे,
ये ललचा, धीरे रिरियातीं !

ऊर्ध्व प्राण वह, चपल पंख वे,
रेंग पेट के बल ये चलतीं, —
इनके पर जमते तो क्या ये
आत्म त्याग के लिए मचलतीं ?

छि:, फलाँग भर ये, निरीह
लघु शलभों को खाते न अघातीं
नोंच सुनहले पंख निगलतीं, —
दीपक लौं पर क्या बलि जातीं ?

उच्च उड़ान नहीं भर सकते
तुच्छ बाहरी चमकीले पर,
महत् कर्म के लिये चाहिए
महत् प्रेरणा बल भी भीतर !

पर, प्रकाश, प्रेमी पतंग या
छिपकलियाँ केवल प्रतीक भर,
ये प्रवृतियाँ भू मानव की,
इन्हें समझ लेना श्रेयस्कर!

ये आत्मा, मन, देह रूप हैं,
साथ-साथ जो जग में रहते,
शिखा आत्म स्थित, ज्योति स्पर्श हित
अंध शलभ तपते, दुख सहते !

पर, प्रकाश से दूर, विरत,
छिपकली साधती कार्य स्वार्थ रत,
ऊपर लटक, सरकती औंधी,
कठिन साधना उसकी अविरत !

उदर देह को भरना, जिससे
मन पंखों पर उड़, उठ पाए,
आत्मा लीन रहकर प्रकाश को
मार्ग सुझाना, मन खिंच आए !

तुच्छ सरट से उच्च ज्योति तक
एक सृष्टि सोपान निरंतर,
जटिल जगत्, गति गूढ़ , मुक्त चिति,
तीनों सत्य,– व्याप्त जगदीश्वर !

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श्याम नरायण पाण्डेय https://sahityaganga.com/%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%ae-%e0%a4%a8%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%a3-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%a3%e0%a5%8d%e0%a4%a1%e0%a5%87%e0%a4%af/ Wed, 11 May 2016 11:30:51 +0000 http://sahityaganga.com/?p=7082 परिचय
श्यामनारायण पाण्डेय
जन्म: 1907
निधन: 1991
जन्म स्थान मऊ, उत्तर प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ
हल्दीघाटी, जौहर,तुमुल,रूपान्तर,आरती,जय-पराजय,गोरा-वध,जय हनुमान,शिवाजी (महाकाव्य)

विशेष
श्याम नारायण पाण्डेय का जन्म श्रावण कृष्ण पंचमी सम्वत् 1964, तदनुसार ईसवी सन् 1907 में ग्राम डुमराँव, मऊ, आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में हुआ। आरम्भिक शिक्षा के बाद आप संस्कृत अध्ययन के लिए काशी चले आये। यहीं रहकर काशी विद्यापीठ से आपने हिन्दी में साहित्याचार्य किया। पाण्डेय जी के तीन विवाह हुए । पहली पत्नी से एक लड़की `सर्वदा’ हुई । दूसरी पत्नी से एक पुत्र भूदेव हुआ । तीसरी पत्नी रमावती जी से एक पुत्र छविदेव और चारपुत्रियाँ हुईं । पाण्डेयजी वीर रस के अनन्य गायक हैं। इन्होंने चार महाकाव्य रचे, जिनमें ‘हल्दीघाटी और ‘जौहर विशेष चर्चित हुए। ‘हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप के जीवन और ‘जौहर में रानी पद्मिनी के आख्यान हैं। ‘हल्दीघाटी पर इन्हें देव पुरस्कार प्राप्त हुआ। अपनी ओजस्वी वाणी के कारण ये कवि सम्मेलनों में बडे लोकप्रिय थे। डुमराँव में अपने घर पर रहते हुए ईसवी सन् 1991 में 84 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। मृत्यु से तीन वर्ष पूर्व आकाशवाणी गोरखपुर में अभिलेखागार हेतु उनकी आवाज में उनके जीवन के संस्मरण रिकार्ड किये गये।
श्याम नारायण पाण्डेय जी ने चार उत्कृष्ट महाकाव्य रचे, जिनमें हल्दीघाटी (काव्य) सर्वाधिक लोकप्रिय और जौहर (काव्य) विशेष चर्चित हुए।
हल्दीघाटी में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के जीवन और जौहर में चित्तौड की रानी पद्मिनी के आख्यान हैं। हल्दीघाटी के नाम से विख्यात राजस्थान की इस ऐतिहासिक वीर भूमि के लोकप्रिय नाम पर लिखे गये हल्दीघाटी महाकाव्य पर उनको उस समय का सर्वश्रेष्ठ सम्मान देव पुरस्कार प्राप्त हुआ था। अपनी ओजस्वी वाणी के कारण आप कवि सम्मेलन के मंचों पर अत्यधिक लोकप्रिय हुए। उनकी आवाज मरते दम तक चौरासी वर्ष की आयु में भी वैसी ही कड़कदार और प्रभावशाली बनी रही जैसी युवावस्था में थी ।
उनका लिखा हुआ महाकाव्य जौहर भी अत्यधिक लोकप्रिय हुआ । उन्होंने यह महाकाव्य चित्तौड की महारानी पद्मिनी के वीरांगना चरित्र को चित्रित करने के उद्देश्य को लेकर लिखा था ।.जौहर महाकाव्य ‘जौहर’ पाण्डेय जी का द्वितीय महाकाव्य है। कुल 21 चिनगारियों का यह प्रबन्ध चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी को कथाधार बनाकर रचा गया है। इस ग्रंथ में वीर-रस के साथ करुण का भी गम्भीर पुट है। ‘जौहर’ की कहानी राजस्थान के इतिहास के लोमहर्षक आत्म-बलिदान की ज्वलंत कथा है। उत्साह और करुणा, शौर्य और विवशता, रूप और नश्वरता, भोग और आत्म-सम्मान के भावों के प्रवाह काव्य को हर्ष और विषाद की अनोखी गहनता प्रदान करते हैं। ‘जौहर’ में पाण्डेय जी ने एक मौलिक वीर-रस शैली का उद्घाटन किया है। छन्दों में ‘हल्दी घाटी’ से अधिक वेग एवं भावानुकूल गति है। डोले का वर्णन एवं चिता-वर्णन की चिनगारियाँ अत्यंत प्रभावभूर्ण एवं मर्मस्पर्शी हैं। लोक-छन्दों के सहारे नवीन लयों एवं गतियों को पकड़ने का सफल प्रयास स्तुत्य है । प्रारम्भ में प्रस्तुत है पाण्डेय की कुछ रचनाएँ उनके खंडकाव्य हल्दीघाटी से व अन्य रचनाएँ

 

घास की रोटी

 

पनी तुतली भाषा में
वह सिसक–सिसककर बोली¸
जलती थी भूख तृषा की
उसके अन्तर में होली।।32।।
‘हा छही न जाती मुझछे
अब आज भूख की ज्वाला।
कल छे ही प्याछ लगी है
हो लहा हिदय मतवाला।।33।।
मां ने घाछों की लोती
मुझको दी थी खाने को¸
छोते का पानी देकल
वह बोली भग जाने को।।34।।
अम्मा छे दूल यहीं पल
छूकी लोती खाती थी।
जो पहले छुना चुकी हूं¸
वह देछ–गीत गाती थी।।35।।
छच कहती केवल मैंने
एकाध कवल खाया था।
तब तक बिलाव ले भागा
जो इछी लिए आया था।।36।।
छुनती हूं तू लाजा है
मैं प्याली छौनी तेली।
क्या दया न तुझको आती
यह दछा देखकल मेली।।37।।
लोती थी तो देता था¸
खाने को मुझे मिठाई।
अब खाने को लोती तो
आती क्यों तुझे लुलाई।।38।।
वह कौन छत्रु है जिछने
छेना का नाछ किया है?
तुझको¸ मां को¸ हंम छभको¸
जिछने बनबाछ दिया है।।39।।
यक छोती छी पैनी छी
तलवाल मुझे भी दे दे।
मैं उछको माल भगाऊं
छन मुझको लन कलने दे।।40।।
कन्या की बातें सुनकर
रो पड़ी अचानक रानी।
राणा की आंखों से भी
अविरल बहता था पानी।।41।।

 

चेतक की वीरता

 

ण बीच चौकड़ी भर-भर कर
चेतक बन गया निराला था
राणाप्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था

जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था

गिरता न कभी चेतक तन पर
राणाप्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरिमस्तक[1] पर
वह आसमान का घोड़ा था

था यहीं रहा अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरिमस्तक पर कहाँ नहीं

निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौडा करबालों में
फँस गया शत्रु की चालों में

बढ़ते नद-सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
विकराल वज्रमय बादल-सा
अरि[2] की सेना पर घहर गया

भाला गिर गया गिरा निसंग
हय[3] टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग

 

राणा प्रताप की तलवार

 

ढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट काट,
करता था सफल जवानी को॥

कलकल बहती थी रणगंगा,
अरिदल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी,
चटपट उस पार लगाने को॥

वैरी दल को ललकार गिरी,
वह नागिन सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो बचो,
तलवार गिरी तलवार गिरी॥

पैदल, हयदल, गजदल में,
छप छप करती वह निकल गई।
क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर,
देखो चम-चम वह निकल गई॥

क्षण इधर गई क्षण उधर गई,
क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई।
था प्रलय चमकती जिधर गई,
क्षण शोर हो गया किधर गई॥

लहराती थी सिर काट काट,
बलखाती थी भू पाट पाट।
बिखराती अवयव बाट बाट,
तनती थी लोहू चाट चाट॥

क्षण भीषण हलचल मचा मचा,
राणा कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह,
रण-चंडी जीभ पसार बढ़ी॥

 

चलो दिल्ली
गों में खूँ उबलता है,
हमारा जोश कहता है।
जिगर में आग उठती है,
हमारा रोष कहता है।
उधर कौमी तिरंगे को,
संभाले बोस कहता है।
बढ़ो तूफ़ान से वीरों,
चलो दिल्ली ! चलो दिल्ली!
अभी आगे पहाड़ों के,
यहीं बंगाल आता है,
हमारा नवगुरुद्वारा,
यही पंजाब आता है।
जलाया जा रहा काबा,
लगी है आग काशी में,
युगों से देखती रानी,
हमारी राह झांसी में।
जवानी का तकाजा है,
रवानी का तकाजा है,
तिरंगे के शहीदों की
कहानी का तकाजा है।
बुलाती है हमें गंगा,
बुलाती घाघरा हमको।
हमारे लाडलो आओ,
बुलाता आगरा हमको।
…… ने पुकारा है,
हमारे देश के लोहिया,
उषा, जय ने पुकारा है।
गुलामी की कड़ी तोड़ो,
तड़ातड़ हथकड़ी तोड़ो।
लगा कर होड़ आंधी से,
जमीं से आसमां जोड़ो।
शिवा की आन पर गरजो,
कुँवर बलिदान पर गरजो,
बढ़ो जय हिन्द नारे से,
कलेजा थरथरा दें हम।
किले पर तीन रंगों का,
फरहरा फरफरा दें हम।

 

शीत रजनी

 

हेमन्त-शिशिर का शासन,
लम्बी थी रात विरह-सी।
संयोग-सदृश लघु वासर,
दिनकर की छवि हिमकर-सी।।
निर्धन के फटे पुराने
पट के छिद्रों से आकर,
शर-सदृश हवा लगती थी
पाषाण-हृदय दहला कर।।

लगती चन्दन-सी शीतल
पावक की जलती ज्वाला।
वाड़व भी काँप रहा था।
पहने तुषार की माला।।

जग अधर विकल हिलते थे
चलदल के दल से थर-थर।
ओसों के मिस नभ-दृग से
बहते थे आँसू झर-झर।।

यव की कोमल बालों पर,
मटरों की मृदु फलियों पर,
नभ के आँसू बिखरे थे
तीसी की नव कलियों पर।।

घन-हरित चने के पौधे,
जिनमें कुछ लहुरे जेठे,
भिंग गये ओस के बल से
सरसों के पीत मुरेठे।।

यह शीत काल की रजनी
कितनी भयदायक होगी।
पर उसमें भी करता था
तप एक वियोगी योगी।

     जौहर [खंडकाव्य ]

 

      मंगलाचरण
गगन के उस पार क्या,
पाताल के इस पार क्या है?
क्या क्षितिज के पार? जग
जिस पर थमा आधार क्या है?

दीप तारों के जलाकर
कौन नित करता दिवाली?
चाँद – सूरज घूम किसकी
आरती करते निराली?

चाहता है सिन्धु किस पर
जल चढ़ाकर मुक्त होना?
चाहता है मेघ किसके
चरण को अविराम धोना?

तिमिर – पलकें खोलकर
प्राची दिशा से झाँकती है;
माँग में सिन्दूर दे
ऊषा किसे नित ताकती है?

गगन में सन्ध्या समय
किसके सुयश का गान होता?
पक्षियों के राग में किस
मधुर का मधु – दान होता?

पवन पंखा झल रहा है,
गीत कोयल गा रही है।
कौन है? किसमें निरन्तर
जग – विभूति समा रही है?

तूलिका से कौन रँग देता
तितलियों के परों को?
कौन फूलों के वसन को,
कौन रवि – शशि के करों को?

कौन निर्माता? कहाँ है?
नाम क्या है? धाम क्या है?
आदि क्या निर्माण का है?
अन्त का परिणाम क्या है?

खोजता वन – वन तिमिर का
ब्रह्म पर पर्दा लगाकर।
ढूँढ़ता है अन्ध मानव
ज्योति अपने में छिपाकर॥

बावला उन्मत्त जग से
पूछता अपना ठिकाना।
घूम अगणित बार आया,
आज तक जग को न जाना॥

सोचता जिससे वही है,
बोलता जिससे वही है।
देखने को बन्द आँखें
खोलता जिससे वही है॥

आँख में है ज्योति बनकर,
साँस में है वायु बनकर।
देखता जग – निधन पल – पल,
प्राण में है आयु बनकर॥

शब्द में है अर्थ बनकर,
अर्थ में है शब्द बनकर।
जा रहे युग – कल्प उनमें,
जा रहा है अब्द बनकर॥

यदि मिला साकार तो वह
अवध का अभिराम होगा।
हृदय उसका धाम होगा,
नाम उसका राम होगा॥

सृष्टि रचकर ज्योति दी है,
शशि वही, सविता वही है।
काव्य – रचना कर रहा है,
कवि वही, कविता वही है॥

 

पहली चिनगारी

 

थाल सजाकर किसे पूजने
चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का
पीताम्बर तन पर डाले?

कहाँ चले ले चन्दन अक्षत
बगल दबाए मृगछाला?
कहाँ चली यह सजी आरती?
कहाँ चली जूही माला?

ले मुंजी उपवीत मेखला
कहाँ चले तुम दीवाने?
जल से भरा कमंडलु लेकर
किसे चले तुम नहलाने?

मौलसिरी का यह गजरा
किसके गज से पावन होगा?
रोम कंटकित प्रेम – भरी
इन आँखों में सावन होगा?

चले झूमते मस्ती से तुम,
क्या अपना पथ आए भूल?
कहाँ तुम्हारा दीप जलेगा,
कहाँ चढ़ेगा माला – फूल?

इधर प्रयाग न गंगासागर,
इधर न रामेश्वर, काशी।
कहाँ किधर है तीर्थ तुम्हारा?
कहाँ चले तुम संन्यासी?

क्षण भर थमकर मुझे बता दो,
तुम्हें कहाँ को जाना है?
मन्त्र फूँकनेवाला जग पर
अजब तुम्हारा बाना है॥

नंगे पैर चल पड़े पागल,
काँटों की परवाह नहीं।
कितनी दूर अभी जाना है?
इधर विपिन है, राह नहीं॥

मुझे न जाना गंगासागर,
मुझे न रामेश्वर, काशी।
तीर्थराज चित्तौड़ देखने को
मेरी आँखें प्यासी॥

अपने अचल स्वतंत्र दुर्ग पर
सुनकर वैरी की बोली
निकल पड़ी लेकर तलवारें
जहाँ जवानों की टोली,

जहाँ आन पर माँ – बहनों की
जला जला पावन होली
वीर – मंडली गर्वित स्वर से
जय माँ की जय जय बोली,

सुंदरियों ने जहाँ देश – हित
जौहर – व्रत करना सीखा,
स्वतंत्रता के लिए जहाँ
बच्चों ने भी मरना सीखा,

वहीं जा रहा पूजा करने,
लेने सतियों की पद-धूल।
वहीं हमारा दीप जलेगा,
वहीं चढ़ेगा माला – फूल॥

वहीं मिलेगी शान्ति, वहीं पर
स्वस्थ हमारा मन होगा।
प्रतिमा की पूजा होगी,
तलवारों का दर्शन होगा॥

वहाँ पद्मिनी जौहर-व्रत कर
चढ़ी चिता की ज्वाला पर,
क्षण भर वहीं समाधि लगेगी,
बैठ इसी मृगछाला पर॥

नहीं रही, पर चिता – भस्म तो
होगा ही उस रानी का।
पड़ा कहीं न कहीं होगा ही,
चरण – चिह्न महरानी का॥

उस पर ही ये पूजा के सामान
सभी अर्पण होंगे।
चिता – भस्म – कण ही रानी के,
दर्शन – हित दर्पण होंगे॥

आतुर पथिक चरण छू छूकर
वीर – पुजारी से बोला;
और बैठने को तरु – नीचे,
कम्बल का आसन खोला॥

देरी तो होगी, पर प्रभुवर,
मैं न तुम्हें जाने दूँगा।
सती – कथा – रस पान करूँगा,
और मन्त्र गुरु से लूँगा॥

कहो रतन की पूत कहानी,
रानी का आख्यान कहो।
कहो सकल जौहर की गाथा,
जन जन का बलिदान कहो॥

कितनी रूपवती रानी थी?
पति में कितनी रमी हुई?
अनुष्ठान जौहर का कैसे?
संगर में क्या कमी हुई?

अरि के अत्याचारों की
तुम सँभल सँभलकर कथा कहो।
कैसे जली किले पर होली?
वीर सती की व्यथा कहो॥

नयन मूँदकर चुप न रहो,
गत–व्याधि, समाधि लगे न कहीं।
सती – कहानी कहने की,
अन्तर से चाह भगे न कहीं॥

आकुल कुल प्रश्नों को सुनकर
मुकुलित नयनों को खोला।
वीर – करुण – रस – सिंचित स्वर से
सती – तीर्थ – यात्री बोला॥

क्या न पद्मिनी – जौहर का
आख्यान सुना प्राचीनों से?
क्या न पढ़ा इतिहास सती का
विद्या – निरत नवीनों से?

यदि न सुना तो सुनो कहानी
सती – पद्मिनी – रानी की।
पर झुक झुककर करो वन्दना,
पहले पहल भवानी की॥

रूपवान था रतन, पद्मिनी
रूपवती उसकी रानी।
दम्पति के तन की शोभा से
जगमग जगमग रजधानी॥

रानी की कोमलता पर
कोमलता ही बलिहारी थी।
छुईमुई – सी कुँभला जाती,
वह इतनी सुकुमारी थी॥

राजमहल से छत पर निकली,
हँसती शशि – किरणें आईं।
मलिन न छवि छूने से हो,
इससे विहरीं बन परछाईं॥

मलयानिल पर रहती थी,
वह कुसुम – सुरभि पर सोती थी।
जग की पलकों पर बसकर,
प्राणों से प्राण सँजोती थी॥

ऊषा की स्वर्णिम किरणों
के झूले पर झूला करती।
राजमहल के नंदन – वन में,
बेला सी फूला करती॥

बिखरे केशों में अँधियाली,
मुख पर छायी उजियाली।
राका – अमा – मिलन होता था,
भरी माँग की ले लाली॥

बालों में सिन्दूर चिह्न ही
था दो प्राणों का बंधन।
मानो घनतम तिमिर चीरकर,
हँसी उषा की एक किरन॥

बालमृगी – सी आँखों में
आकर्षण ने डेरा डाला।
सुधा – सिक्त विद्रुम – अधरों पर
मदिरा ने घेरा डाला॥

मधुर गुलाबी गालों पर,
मँडराती फिरती मधुपाली।
एक घूँट पति साथ पिया मधु,
चढ़ी गुलाबी पर लाली॥

आँखों से सरसीरुह ने
सम्मोहन जा जाकर सीखा।
रानी का मधुवर्षी स्वर
कोयल ने गा गाकर सीखा॥

घूँघट – पट हट गया लाज से,
मुसकाई जग मुसकाया।
निःश्वासों की सरस सुरभि से
फूलों में मधुरस आया॥

अरुण कमल ने जिनके तप से
इतनी सी लाली पाई।
फूलों पर चलने से जिनमें
नवनी – सी मृदुता आई॥

फैल रही थी दिग्दिगन्त में
जिनकी नख – छबि मतवाली,
उन पैरों पर सह न सकी
लाक्षारस की कृत्रिम लाली॥

नवल गुलाबों ने हँस हँसकर
सुरभि रूप में भर डाली।
कमल – कोष से उड़ उड़कर
भौंरों ने भी भाँवर डाली॥

जैसी रूपवती रानी थी,
वैसा ही था पति पाया।
मानो वासव साथ शची का
रूप धरातल पर आया॥

भरे यहीं से तंत्र – मंत्र
मनसिज ने अपने बाणों में।
पति के प्राणों में पत्नी थी,
पति पत्नी के प्राणों में॥

दो मुख थे पर एक मधुरध्वनि,
दो मन थे पर एक लगन।
दो उर थे पर एक कल्पना,
एक मगन तो अन्य मगन॥

विरह नाम से ही व्याकुलता,
जीवन भर संयोग रहा।
एक मनोहर सिंहासन पर,
सूर्य – प्रभा का योग रहा॥

रानी कहती नव वसन्त में
कोयल किसको तोल रही।
पति के साथ सदा राका यह
कुहू कुहू क्यों बोल रही?

सावन के रिमझिम में पापी
डाल – डाल पर डोला क्यों?
पी तो मेरे साथ – साथ
‘पी कहाँ’ पपीहा बोला क्यों?

त्रिभुवन के कोने कोने में,
रूप – राशि की ख्याति हुई।
रूपवती के पातिव्रत पर
गर्वित नारी – जाति हुई॥

ग्राम – ग्राम में, नगर – नगर में,
डगर – डगर में, घर – घर में
पति – पत्नी का ही बखान
मुखरित था अवनी – अम्बर में॥

सुनी अलाउद्दीन राहु ने
चन्द्रमुखी की तरुणाई।
उसे विभव का लालच देकर,
की ग्रसने की निठुराई॥

जितने अत्याचार किए
उन सबका क्या वर्णन होगा!
सुनने पर वह करुण कहानी
विकल तुम्हारा मन होगा॥

बोला वह पथिक पुजारी से,
पावन गाथा आरम्भ करो।
चाहे जो हो पर दम्पति का
मेरे अन्तर में त्याग भरो॥

दलबल लेकर खिलजी ने क्या
गढ़ पर ललकार चढ़ाई की?
क्या रावल के नरसिंहों से
रानी के लिए लड़ाई की?

उस संगर का आख्यान कहो,
तुम कहो कहानी रानी की।
समझा समझा इतिहास कहो,
तुम कहो कथा अभिमानी की॥

जप जप माला निर्भय वर्णन
जौहर का करने लगा यती।
आख्यान – सुधा अधिकारी के
अन्तर में भरते लगा यती॥

 

दूसरी चिनगारी

 

निशि चली जा रही थी काली
प्राची में फैली थी लाली।
विहगों के कलरव करने से,
थी गूँज रही डाली डाली॥

सरसीरुह ने लोचन खोले,
धीरे धीरे तरु-दल डोले।
फेरी दे देकर फूलों पर,
गुन-गुन गुन-गुन भौंरे बोले॥

सहसा घूँघट कर दूर हँसी
सोने की हँसी उषा रानी।
मिल मिल लहरों के नर्तन से
चंचल सरिता सर का पानी॥

मारुत ने मुँह से फूँक दिया,
बुझ गए दीप नभ – तारों के।
कुसुमित कलियों से हँसने को,
मन ललचे मधुप – कुमारों के॥

रवि ने वातायन से झाँका,
धीरे से रथ अपना हाँका।
तम के परदों को फेंक सजग,
जग ने किरणों से तन ढाँका॥

दिनकर – कर से चमचम बिखरे,
भैरवतम हास कटारों के।
चमके कुन्तल – भाले – बरछे,
दमके पानी तलवारों के॥

फैली न अभी थी प्रात – ज्योति,
आँखें न खुली थीं मानव की।
तब तक अनीकिनी आ धमकी,
उस रूप लालची – दानव की॥

क्षण खनी जा रही थी अवनी
घोड़ों की टप – टप टापों से।
क्षण दबी जा रही थी अवनी
रण – मत्त मतंग – कलापों से॥

भीषण तोपों के आरव से
परदे फटते थे कानों के।
सुन – सुन मारू बाजों के रव
तनते थे वक्ष जवानों के॥

जग काँप रहा था बार – बार
अरि के निर्दय हथियारों से।
थल हाँफ रहा था बार – बार
हय – गज – गर्जन हुंकारों से।

भू भगी जा रही थी नभ पर,
भय से वैरी – तलवारों के।
नभ छिपा जा रहा था रज में,
डर से अरि – क्रूर – कटारों के॥

कोलाहल – हुंकृति बार – बार
आई वीरों के कानों में।
बापा रावल की तलवारें
बंदी रह सकीं न म्यानों में॥

घुड़सारों से घोड़े निकले,
हथसारों से हाथी निकले।
प्राणों पर खेल कृपाण लिए
गढ़ से सैनिक साथी निकले॥

बल अरि का ले काले कुंतल
विकराल ढाल ढाले निकले।
वैरी – वर छीने बरछी ने,
वैरी – भा ले भाले निकले॥

हय पाँख लगाकर उड़ा दिए
नभ पर सामंत सवारों ने।
जंगी गज बढ़ा दिए आगे
अंकुश के कठिन प्रहारों ने॥

फिर कोलाहल के बीच तुरत
खुल गया किले का सिंहद्वार।
हुं हुं कर निकल पड़े योधा,
धाए ले – ले कुंतल कटार॥

बोले जय हर हर ब्याली की,
बोले जय काल कपाली की।
बोले जय गढ़ की काली की,
बोले जय खप्परवाली की॥

खर करवालों की जय बोले,
दुर्जय ढालों की जय बोले,
खंजर – फालों की जय बोले,
बरछे – भालों की जय बोले॥

बज उठी भयंकर रण – भेरी,
सावन – घन – से धौंसे गाजे।
बाजे तड़ – तड़ रण के डंके,
घन घनन घनन मारू बाजे॥

पलकों में बलती चिनगारी,
कर में नंगी करवाल लिए।
वैरी – सेना पर टूट पड़े,
हर – ताण्डव के स्वर – ताल लिए॥

भैरव वन में दावानल – सम,
खग – दल में बर्बर – बाज – सदृश,
अरि – कठिन – व्यूह में घुसे वीर,
मृग – राजी में मृगराज – सदृश॥

आँखों से आग बरसती थी,
थीं भौंहें तनी कमानों – सी।
साँसों में गति आँधी की थी,
चितवन थी प्रखर कृपानों – सी॥

तलवार गिरी वैरी – शिर पर,
धड़ से शिर गिरा अलग जाकर।
गिर पड़ा वहीं धड़, असि का जब
भिन गया गरल रग रग जाकर॥

गज से घोड़े पर कूद पड़ा,
कोई बरछे की नोक तान।
कटि टूट गई, काठी टूटी,
पड़ गया वहीं घोड़ा उतान॥

गज – दल के गिर हौदे टूटे,
हय – दल के भी मस्तक फूटे।
बरछों ने गोभ दिए, छर छर
शोणित के फौवारे छूटे॥

लड़ते सवार पर लहराकर
खर असि का लक्ष्य अचूक हुआ।
कट गया सवार गिरा भू पर,
घोड़ा गिरकर दो टूक हुआ॥

क्षण हाथी से हाथी का रण,
क्षन घोड़ों से घोड़ों का रण।
हथियार हाथ से छूट गिरे,
क्षण कोड़ों से कोड़ों का रण॥

क्षण भर ललकारों का संगर,
क्षण भर किलकारों का संगर।
क्षण भर हुंकारों का संगर,
क्षण भर हथियारों का संगर॥

कटि कटकर बही, कटार बही,
खर शोणित में तलवार बही।
घुस गए कलेजों में खंजर,
अविराम रक्त की धार बही॥

सुन नाद जुझारू के भैरव,
थी काँप रही अवनी थर थर।
घावों से निर्झर के समान
बहता था गरम रुधिर झर झर॥

बरछों की चोट लगी शिर पर,
तलवार हाथ से छूट पड़ी।
हो गए लाल पट भीग भीग,
शोणित की धारा फूट पड़ी॥

रावल – दल का यह हाल देख
वैरी – दल संगर छोड़ भगा।
हाथों के खंजर फेंक फेंक
खिलजी से नाता तोड़ भगा॥

सेनप के डर से रुके वीर,
पर काँप रहे थे बार – बार।
डट गए तान संगीन तुरत,
पर हाँफ रहे थे वे अपार॥

खूँखार भेड़ियों के समान
भट अरि – भेड़ों पर टूट पड़े।
अवसर न दिया असि लेने का
शत – शत विद्युत् से छूट पड़े॥

लग गए काटने वैरी – शिर,
अपनी तीखी तलवारों से।
लग गए पाटने युद्धस्थल,
बरछों से कुन्त-कटारों से॥

अरि – हृदय – रक्त का खप्पर पी
थीं तरज रही क्षण क्षण काली।
दाढ़ों में दबा दबाकर तन
वह घूम रही थी मतवाली॥

चुपचाप किसी ने भोंक दिया,
उर – आरपार कर गया छुरा।
झटके से उसे निकाल लिया,
अरि – शोणित से भर गया छुरा॥

हय – शिर उतार गज – दल विदार,
अरि – तन दो दो टुकड़े करती।
तलवार चिता – सी बलती थी,
थी रक्त – महासागर तरती॥

 

तीसरी चिनगारी

 

शीशमहल की दीवालों पर
शोभित नंगी तसवीरें।
चित्रकार ने लिखीं बेगमों
की बहुरंगी तस्वीरें॥

घूमीं परियाँ आँगन में,
प्रतिबिम्ब दिवालों में घूमे।
झूमी सुन्दरियाँ मधु पी,
प्रतिबिम्ब दीवालों में झूमे॥

देह – सुरभि फैली गज – गति में,
छूकर छोर कुलाबों के।
मधुमाते चलते फिरते हों,
मानो फूल गुलाबों के॥

छमछम दो डग चलीं, नूपुरों
की ध्वनि महलों में गूँजी।
बोली मधुरव से, नखरे से,
कोयल डालों पर कूजी॥

उस पर दो दो रति – प्रतिमाएँ
तिरछी चितवन से जीतीं।
उनसे पूछो, उन्हें देखने में
कितनी रातें बीतीं॥

कटि मृणाल – सी ललित लचीली,
नाभी की वह गहराई।
त्रिबली पर अंजन रेखा – सी,
रोम – लता – छवि लहराई॥

भरी जवानी में तन की क्या
पूछ रहे हो सुघराई!
पथिक, थकित थी उनके तन की
सुघराई पर सुघराई॥

साकी ने ली कनक – सुराही,
कमरे में महकी हाला।
भीनी सुरभि उठी मदिरा की,
बना मधुप – मन मतवाला॥

मह मह सकल दिशाएँ महकीं,
महके कण दीवालों के।
सुरा – प्रतीक्षा में चेतन क्या,
हिले अधर मधु – प्यालों के॥

हँसी बेगमों की आँखें,
मुख भीतर रसनाएँ डोलीं।
गंध कबाबों की गमकी,
‘मधु चलो पियें’ सखियाँ बोलीं॥

बड़े नाज से झुकी सुराही,
कुल कुल कुल की ध्वनि छाई।
सोने – चाँदी के पात्रों में
लाल लाल मदिरा आई॥

एक घूँट, दो घूँट नहीं,
प्यालों पर प्याले टकराए।
और भरो मधु और पियो मधु
के रव महलों में छाए॥

मधु पी मत्त हुईं सुन्दरियाँ,
आँखों में सुर्खी छाई।
वाणी पर अधिकार नहीं अब,
गति में चंचलता आई॥

दो सखियों का वक्ष – मिलन,
मन-मिलन, पुलक-सिहरन-कम्पन।
दो प्राणों के मधु मिलाप से
अलस नयन, उर की धड़कन॥

खुली अधखुली आँखों में,
उर – दान – वासना का नर्तन।
एक – दूसरे को नर समझा,
सजल नयन, अर्पित तन – मन॥

डगमग डगमग पैर पड़े,
हाथों से मधु ढाले छूटे।
गिरे संगमरमर के गच पर,
नीलम के प्याले फूटे॥

गिरे वक्ष से वसन रेशमी,
गुँथे केश के फूल गिरे।
मस्त बेगमों के कन्धों से
धीरे सरक दुकूल गिरे॥

मिल मिल नाच उठीं सुन्दरियाँ,
हार मोतियों के टूटे।
तसवीरों के तरुणों ने
अनिमेष दृगों के फल लूटे॥

माणिक की चौकी से भू पर,
मधु के पात्र गिरे झन झन।
बिखरे कंचन के गुलदस्ते,
गिरे धरा पर मणि – कंगन॥

मदिरा गिरी बही अवनी पर,
हँसीं युवतियाँ मतवाली।
कमरे के गिर शीशे टूटे,
बजी युवतियों की ताली॥

नीलम मणि के निर्मल गच पर
गिरी सुराही चूर हुई।
कलकल से मूर्च्छित खिलजी की
कुछ कुछ मूर्च्छा दूर हुई॥

हँसीं, गा उठीं, वेणु बजे,
स्वर निकले मधुर सितारों से।
राग – रागिनी थिरकीं, मुखरित
वीणा के मृदु तारों से॥

परियों के मुख से स्वर – लहरी
निकली मधुर मधुर ताजी।
सारंगी के ताल ताल पर
छम छम छम पायल बाजी॥

एक साथ गा उठीं युवतियाँ,
मूर्च्छित के खुल गए नयन।
कर्कश स्वर के तारतम्य से
उठा त्याग कर राजशयन॥

बोला कहाँ मधुर मदिरा है?
कहाँ घूँट भर पानी है?
कहाँ पद्मिनी, कहाँ पद्मिनी,
कहाँ पद्मिनी रानी है?

हाव – भाव से चलीं युवतियाँ
सुन उन्मादी की बोली।
राग – रागिनी रुकी, रुका स्वर,
बन्द हुई मधु की होली॥

आकर उसे रिझाया हिलमिल,
सुरा – पात्र दे दे खेला।
हाथों में उसके हाथों की
अंगुलियों को ले खेला॥

नयन – कोर से क्षण देखा,
क्षण होंठों पर ही मुसकायीं,
जिधर अंग हिल गया उधर ही,
परियों की आँखें धायीं॥

उन्मादी के खुले वक्ष पर
कर रख कोई अलसाई।
तोड़ तोड़कर अंग हाव से
रह रहकर ली जमुहाई॥

आलिंगन के लिए मनोहर,
मृदुल भुजाएँ फैलाईं।
खिलजी की गोदी में गिर गिर,
आँख मूँद, ली जमुहाई॥

उन्मादी ने करवट बदली,
छम छम नखरे से घूमीं।
उसकी पलकों को चूमा, मधु –
मस्ती में झुक झुक झूमीं॥

पर इनका कुछ असर न देखा
तुरत तरुणियाँ मुरझाईं,
अरुण कपोलों पर विषाद की
रेखा झलकी, कुँभलाईं॥

अपनी कजरारी आँखों पर,
अपने गोल कपोलों पर,
अरुण अधर पर, नाहर कटि – पर,
सुधाभरे मधु बोलों पर,

अपने तन के रूप – रंग पर,
अपने तन के पानी पर,
अपने नाजों पर, नखरों पर,
अपनी चढ़ी जवानी पर,

घृणा हुई, गड़ गईं लाज से,
मादक यौवन से ऊबीं।
भरी निराशा में सुन्दरियाँ
चिन्ता – सागर में डूबीं॥

बोल उठा उन्मादी फिर,
मुझको थोड़ा सा पानी दो।
कहाँ पद्मिनी, कहाँ पद्मिनी,
मुझे पद्मिनी रानी दो॥

बोलो तो क्या तुम्हें चाहिए,
उसे ढूँढकर ला दूँ मैं।
रूपराशि के एक अंश पर ही,
साम्राज्य लुटा दूँ मैं॥

कब अधरों के मधुर हास से
विकसित मेरा मन होगा!
कब चरणों के नख – प्रकाश से
जगमग सिंहासन होगा॥

बरस रहा आँखों से पानी,
उर में धधक रही ज्वाला।
मुझ मुरदे पर ढुलका दो
अपनी छबि – मदिरा का प्याला॥

प्राणों की सहचरी पद्मिनी,
वह देखो हँसती आई।
ज्योति महल में फैल गई,
लो बिखरी तन की सुघराई॥

आज छिपाकर तुम्हें रखूँगा,
अपने मणि के हारों में;
अपनी आँखों की पुतली में,
पुतली के लघु तारों में॥

हाय पद्मिनी कहाँ गई? फिर
क्यों मुझसे इतनी रूठी।
अभी न मैंने उसे पिन्हा
पाई हीरे की अंगूठी॥

किस परदे में कहाँ छिपी
मेरे प्राणों की पहचानी।
हाय पद्मिनी, हाय पद्मिनी,
हाय पद्मिनी, महरानी॥

इतने में चित्तौड़ नगर से,
गुप्त दूत आ गया वहाँ।
उन्मादी ने आँखें खोलीं,
भगीं युवतियाँ जहाँ तहाँ॥

बड़े प्रेम से खिलजी बोला,
कहो यहाँ कब आए हो।
दूर देश चित्तौड़ नगर से
समाचार क्या लाए हो?

मुझे विजय मिल सकती क्या
रावल – कुल के रणधीरों से?
मुझे पद्मिनी मिल सकती क्या
सदा अर्चिता वीरों से॥

सुनो पद्मिनी के बारे में
चुप न रहो कुछ कहा करो।
जब तक पास रहो उसकी ही
मधु – मधु बातें कहा करो॥

किया दूत ने नमस्कार फिर,
कहने को रसना डोली।
निकल पड़ी अधरों के पथ से
विनय भरी मधुमय बोली॥

जहाँ आप हैं, वहीं विजय है,
जहाँ चरण सुख स्वर्ग वहीं।
जहाँ आप हैं वहीं पद्मिनी,
जहाँ आप अपवर्ग वहीं॥

अभी आप इंगित कर दें,
नक्षत्र आपके घर आवें।
रखा पद्मिनी में क्या, नभ से
सूरज – चाँद उतर आवें॥

जिधर क्रोध से आप देख दें,
उधर प्रलय की ज्वाला हो।
जिधर प्रेम से आप देख दें,
उधर फूल हो, माला हो॥

महापुरुष चित्तौड़ नगर के
पास परी सी चित्तौड़ी।
सौत पद्मिनी को न चाहती,
वहीं मानिनी सी पौढ़ी॥

उसकी लेकर मदद आप
चाहें तो पहनें जय – माला।
उससे ही खिंच आ सकती है,
गढ़ की प्रभा रतन – बाला॥

और रानियाँ हो सकतीं
उसके पैरों की धूल नहीं।
सच कहता उसके समान
हँसते उपवन के फूल नहीं॥

रोम – रोम लावण्य भरा है,
रोम – रोम माधुर्य भरा।
बोल – बोल में सुधा लहरती,
शब्द शब्द चातुर्य भरा॥

हिम – माला है, पर ज्वाला भी,
लक्ष्मी है, पर काली भी।
दो डग चलना दुर्लभ, पर
अवसर पर रण – मतवाली भी॥

कानों से सुनकर आँखों से
देखा, जाना, पहचाना।
रतन – रूप की दीप – शिखा का
समझें उसको परवाना॥

इससे पहले जाल प्रेम के
आप बिछावें बिछवावें।
इस पर मिले न तरुणी तब फिर,
रण के बाजे बजवावें॥

इस प्रयत्न से कठिन न उसका
विवश अंक में आ जाना।
शरद – चाँदनी सी आकर
प्राणों में बिखर समा जाना॥

बड़े ध्यान से वचन सुने ये,
खिलजी ने अँगड़ाई ली।
बोला कहो सजे सेना अब,
भैरव सी जमुहाई ली॥

क्षण भर में ही बजे नगाड़े,
गरज उठे रण के बाजे।
निकल पड़ीं झनझन तलवारें,
सजे वीर हय – गज गाजे॥

उधर दुर्ग – सन्निधि अरि आया,
रूप – ज्वाल को रख प्राणो में।
रतन चला आखेट खेलने,
इधर भयद वन के झाड़ों में॥

मृग – दम्पति को मार विपिन में
रावल ने जो पुण्य कमाया।
वनदेवी का तप्त शाप ले
खिलजी से उसका फल पाया॥

वीर पुजारी विपिन – कहानी
लगा सुनाने चिंतित होकर।
सुनने लगा पथिक दंपति की
करुण – सुधा से सिंचित होकर॥

बोला पथिक पुजारी से, क्यों
वनदेवी ने शाप दिया था।
क्यों कैसे अपराध हुआ, क्या
रावल को जो ताप दिया था॥

कहो न देर करो, अब मेरी
उत्कंठा बढ़ती जाती है।
सुनने को विस्मित गाथा वह
मेरी इच्छा अकुलाती है॥

 

      हल्दीघाटी   [खंडकाव्य ]

       प्रथम सर्ग
वण्डोली है यही¸ यहीं पर
है समाधि सेनापति की।
महातीर्थ की यही वेदिका¸
यही अमर–रेखा स्मृति की।।1।।

एक बार आलोकित कर हा¸
यहीं हुआ था सूर्य अस्त।
चला यहीं से तिमिर हो गया
अन्धकार–मय जग समस्त।।2।।

आज यहीं इस सिद्ध पीठ पर
फूल चढ़ाने आया हूँ।
आज यहीं पावन समाधि पर
दीप जलाने आया हूँ।।3।।

आज इसी छतरी के भीतर
सुख–दुख गाने आया हूँ।
सेनानी को चिर समाधि से
आज जगाने आया हूँ।।4।।

सुनता हूँ वह जगा हुआ था
जौहर के बलिदानों से।
सुनता हूँ वह जगा हुआ था
बहिनों के अपमानों से।।5।।

सुनता हूँ स्त्री थी अँगड़ाई
अरि के अत्याचारों से।
सुनता हूँ वह गरज उठा था
कड़ियों की झनकारों से।।6।।

सजी हुई है मेरी सेना¸
पर सेनापति सोता है।
उसे जगाऊँगा¸ विलम्ब अब
महासमर में होता है।।7।।

आज उसी के चरितामृत में¸
व्यथा कहूँगा दीनों की।
आज यही पर रूदन–गीत में
गाऊँगा बल–हीनों की।।8।।

आज उसी की अमर–वीरता
व्यक्त करूँगा गानों में।
आज उसी के रणकाशल की
कथा कहूँगा कानों में।।9।।

पाठक! तुम भी सुनो कहानी
आँखों में पानी भरकर।
होती है आरम्भ कथा अब
बोलो मंगलकर शंकर।।10।।

विहँस रही थी प्रकृति हटाकर
मुख से अपना घूँघट–पट।
बालक–रवि को ले गोदी में
धीरे से बदली करवट।।11।।

परियों सी उतरी रवि–किरण्ों
घुली मिलीं रज–कन–कन से।
खिलने लगे कमल दिनकर के
स्वर्णिम–कर के चुम्बन से।।12।।

मलयानिल के मृदु–झोकों से
उठीं लहरियाँ सर–सर में।
रवि की मृदुल सुनहली किरण्ों
लगीं खेलने निझर्र में।।13।।

फूलों की साँसों को लेकर
लहर उठा मारूत वन–वन।
कुसुम–पँखुरियों के आँगन में
थिरक–थिरक अलि के नर्तन।।14।।

देखी रवि में रूप–राशि निज
ओसों के लघु–दर्पण में।
रजत रश्मियाँ फैल गई
गिरि–अरावली के कण–कण में।।15
इसी समय मेवाड़–देश की
कटारियाँ खनखना उठीं।
नागिन सी डस देने वाली
तलवारें झनझना उठीं।।16।।

धारण कर केशरिया बाना
हाथों में ले ले भाले।
वीर महाराणा से ले खिल
उठे बोल भोले भाले।।17।।

विजयादशमी का वासर था¸
उत्सव के बाजे बाजे।
चले वीर आखेट खेलने
उछल पड़े ताजे–ताजे।।18।।

राणा भी आलेट खेलने
शक्तसिंह के साथ चला।
पीछे चारण¸ वंश–पुरोहित
भाला उसके हाथ चला।।19।।

भुजा फड़कने लगी वीर की
अशकुन जतलानेवाली।
गिरी तुरत तलवार हाथ से
पावक बरसाने वाली।।20।।

बतलाता था यही अमंगल
बन्धु–बन्धु का रण होगा।
यही भयावह रण ब्राह्मण की
हत्या का कारण होगा।।21।।

अशकुन की परवाह न की¸
वह आज न रूकनेवाला था।
अहो¸ हमारी स्वतन्त्रता का
झण्डा झुकनेवाला था।।22।।

घोर विपिन में पहुँच गये
कातरता के बन्धन तोड़े।
हिंसक जीवों के पीछे
अपने अपने घोड़े छोड़े।।23।।

भीषण वार हुए जीवों पर
तरह–तरह के शोर हुए।
मारो ललकारों के रव
जंगल में चारों ओर हुए।।24।।

चीता यह¸ वह बाघ¸ शेर वह¸
शोर हुआ आखेट करो।
छेको¸ छेको हृदय–रक्त ले
निज बरछे को भेंट करो।।25।।

लगा निशाना ठीक हृदय में
रक्त–पगा जाता है वह।
चीते को जीते–जी पकड़ो
रीछ भगा जाता है वह।।26।।

उडे. पखेरू¸ भाग गये मृग
भय से शशक सियार भगे।
क्षण भर थमकर भगे मत्त गज
हरिण हार के हार भगे।।27।।

नरम–हृदय कोमल मृग–छौने
डौंक रहे थे इधर–उधर।
एक प्रलय का रूप खड़ा था
मेवाड़ी दल गया जिधर।।28।।

किसी कन्दरा से निकला हय¸
झाड़ी में फँस गया कहीं।
दौड़ रहा था¸ दौड़ रहा था¸
दल–दल में धँस गया कहीं।।29।।

लचकीली तलवार कहीं पर
उलझ–उलझ मुड़ जाती थी।
टाप गिरी¸ गिरि–कठिन शिक्षा पर
चिनगारी उड़ जाती थी।।30।।

हय के दिन–दिन हुंकारों से¸
भीषण–धनु–टंकारों से¸
कोलाहल मच गया भयंकर
मेवाड़ी–ललकारों से।।31।।

एक केसरी सोता था वन के
गिरि–गह्वर के अन्दर।
रोओं की दुर्गन्ध हवा से
फैल रही थी इधर उधर।।32।।

सिर के केसर हिल उठते
जब हवा झुरकती थी झुर–झुर;
फैली थीं टाँगे अवनी पर
नासा बजती थी घुरघुर।।33।।

नि:श्वासों के साथ लार थी
गलफर से चूती तर–तर।
खून सने तीखे दाँतों से
मौत काँपती थी थर–थर।।34।।

अन्धकार की चादर ओढ़े
निर्भय सोता था नाहर।।

मेवाड़ी–जन–मृगया से
कोलाहल होता था बाहर।।35।।

कलकल से जग गया केसरी
अलसाई आँखें खोलीं।
झुँझलाया कुछ गुर्राया
जब सुनी शिकारी की बोली।।36।।

पर गुर्राता पुन: सो गया
नाहर वह आझादी से।
तनिक न की परवाह किसी की
रंचक डरा न वादी से।।37
पर कोलाहल पर कोलाहल¸
किलकारों पर किलकारें।
उसके कानों में पड़ती थीं
ललकारों पर ललकारें।।38।।

सो न सका उठ गया क्रोध से
अँगड़ाकर तन झाड़ दिया।
हिलस उठा गिरि–गह्वर जब
नीचे मुख कर चिग्धाड़ दिया।।39।।

शिला–शिला फट उठी; हिले तरू¸
टूटे व्योम वितान गिरे।
सिंह–नाद सुनकर भय से जन
चित्त–पट–उत्तान गिरे।।40।।

धीरे–धीरे चला केसरी
आँखों में अंगार लिये।
लगे घेरने  राजपूत
भाला–बछरी–तलवार लिये।।41।।

वीर–केसरी रूका नहीं
उन क्षत्रिय–राजकुमारों से।
डरा न उनकी बिजली–सी
गिरने वाली तलवारों से।।42।।

छका दिया कितने जन को
कितनों को लड़ना सिखा दिया।
हमने भी अपनी माता का
दूध पिया है दिखा दिया।।43।।

चेत करो तुम राजपूत हो¸
राजपूत अब ठीक बनो।
मौन–मौन कह दिया सभी से
हम सा तुम निभीर्क बनो।।44
हम भी सिंह¸ सिंह तुम भी हो¸
पाला भी है आन पड़ा।
आओ हम तुम आज देख लें
हम दोनों में कौन बड़ा।।45।
घोड़ों की घुड़दौड़ रूकी
लोगों ने बंद शिकार किया।
शक्तसिंह ने हिम्मत कर बरछे
से उस पर वार किया।।46।।

आह न की बिगड़ी न बात
चएड़ी के भीषण वाहन की।
कठिन तड़ित सा तड़प उठा
कुछ भाले की परवाह न की।।47।।

काल–सदृश राणा प्रताप झट
तीखा शूल निराला ले¸
बढ़ा सिंह की ओर झपटकर
अपना भीषण–भाला ले।।48।।

ठहरो–ठहरो कहा सिंह को¸
लक्ष्य बनाकर ललकारा।
शक्तसिंह¸ तुम हटो सिंह को
मैंने अब मारा¸ मारा।।49।।

राजपूत अपमान न सहते¸
परम्परा की बान यही।
हटो कहा राणा ने पर
उसकी छाती उत्तान रही।।50।।

आगे बढ़कर कहा लक्ष्य को
मार नहीं सकते हो तुम।
बोल उठा राणा प्रताप ललकार
नहीं सकते हो तुम।।51।।

शक्तसिंह ने कहा बने हो
शूल चलानेवाले तुम।
पड़े नहीं हो शक्तसिंह सम
किसी वीर के पाले तुम।।52
क्यों कहते हो हटो¸ हटो¸
हूँ वीर नहीं रणधीर नहीं?
क्या सीखा है कहीं चलाना
भाला–बरछी–तीर नहीं?।।53।।

बोला राणा क्या बकते हो¸
मैंने तो कुछ कहा नहीं।
शक्तसिंह¸ बखरे का यह
आखेट¸ तुम्हारा रहा नहीं।।54।।

राजपूत–कुल के कलंक¸
धिक्कार तुम्हारी वाणी पर¸
बिना हेतु के झगड़ पड़े जो
वज` गिरे उस प्राणी पर।।55।।

राणा का सत्कार यही क्या¸
बन्धु–हृदय का प्यार यही?
क्या भाई के साथ तुम्हारा
है उत्तम व्यवहार यही?।।56।।

अब तक का अपराध क्षमा
आगे को काल निकाला यह
तेरा काम तमाम करेगा
मेरा भीषण भाला यह।।57।।

बात काटकर राणा की यह
शक्तसिंह फिर बोल उठा
बोल उठा मेवाड़ देश
इस बार हलाहल घोल उठा।।58।।

धार देखने को जिसने
तलवार चला दी उँगली पर।
उस अवसर पर शक्तसिंह वह
खेल गया अपने जी पर।।59।।

बार–बार कहते हो तुम क्या
अहंकार है भाले का?
ध्यान नहीं है क्या कुछ भी
मुझ भीषण–रण–मतवाले का।।60।।

राजपूत हूँ मुझे चाहिए
ऐसी कभी सलाह नहीं।
तुष्ट रहो या रूष्ट रहो¸
मुझको इसकी परवाह नहीं।।61।।

रूक सकता है ऐ प्रताप¸
मेरे उर का उद््गार नहीं।
बिना युद्ध के अब कदापि
है किसी तरह उद्धार नहीं।।62।।

मुख–सम्मुख ठहरा हूँ मैं¸
रण–सागर में लहरा हूँ मैं।
हो न युद्ध इस नम्र विनय पर
आज बना बहरा हूँ मैं।।63।।

विष बखेर कर बैर किया
राणा से ही क्या¸ लाखों से।
लगी बरसने चिनगारी
राणा की लोहित आँखों से।।64।।

क्रोध बढ़ा¸ आदेश बढ़ा¸
अब वार न रूकने वाला है।
कहीं नहीं पर यहीं हमारा
मस्तक झुकने वाला है।।65।।

तनकर राणा शक्तसिंह से
बोला – ठहरो ठहरो तुम।
ऐ मेरे भीषण भाला¸
भाई पर लहरो लहरो तुम।।66।।

पीने का है यही समय इच्छा
भर शोणित पी लो तुम।
बढ़ो बढ़ो अब वक्षस्थल में
घुसकर विजय अभी लो तुम।।67।।

शक्तसिंह¸ आखेट तुम्हारा
करने को तैयार हुआ।
लो कर में करवाल बचो अब
मेरा तुम पर वार हुआ।।68।।

खड़े रहो भाले ने तन को
लून किया अब लून किया!
खेद¸ महाराणा प्रताप ने¸
आज तुम्हारा खून किया।।69।।

देख भभकती आग क्रोध की
शक्तसिंह भी क्रुद्ध हुआ।
हा¸ कलंक की वेदी पर फिर
उन दोनों का युद्ध हुआ।।70।।

कूद पड़े वे अहंकार से
भीषण–रण की ज्वाला में।
रण–चण्डी भी उठी रक्त
पीने को भरकर प्याला में।।71।।

होने लगे वार हरके से
एकलिंग प्रतिकूल हुए।
मौत बुलानेवाले उनके
तीक्ष्ण अग्रसर शूल हुए।।72।।

क्षण–क्षण लगे पैतरा देने
बिगड़ गया रुख भालों का।
रक्षक कौन बनेगा अब इन
दोनों रण–मतवालों का।।73।।

दोनों का यह हाल देख
वन–देवी थी उर फाड़ रही।
भाई–भाई के विरोध से
काँप उठी मेवाड़–मही।।74।।

लोग दूर से देख रहे थे
भय से उनके वारों को।
किन्तु रोकने की न पड़ी
हिम्मत उन राजकुमारों को।।75।।

दोनों की आँखों पर परदे
पड़े मोह के काले थे।
राज–वंश के अभी–अभी
दो दीपक बुझनेवाले थे।।76।।

तब तक नारायण ने देखा
लड़ते भाई भाई को।
रूको¸ रूको कहता दौड़ा कुछ
सोचो मान–बड़ाई को।।77।।

कहा¸ डपटकर रूक जाओ¸
यह शिशोदिया–कुल–धर्म नहीं।
भाई से भाई का रण यह
कर्मवीर का कर्म नहीं।।78।।

राजपूत–कुल के कलंक¸
अब लज्जा से तुम झुक जाओ।
शक्तसिंह¸ तुम रूको रूको¸
राणा प्रताप¸ तुम रूक जाओ।।79।।

चतुर पुरोहित की बातों की
दोनों ने परवाह न की।
अहो¸ पुरोहित ने भी निज
प्राणों की रंचक चाह न की।।80।।

उठा लिया विकराल छुरा
सीने में मारा ब्राह्मण ने।
उन दोनों के बीच बहा दी
शोणित–धारा ब्राह्मण ने।।81।।

वन का तन रँग दिया रूधिर से
दिखा दिया¸ है त्याग यही।
निज स्वामी के प्राणों की
रक्षा का है अनुराग यही।।82।।

ब्राह्मण था वह ब्राह्मण था¸
हित राजवंश का सदा किया।
निज स्वामी का नमक हृदय का
रक्त बहाकर अदा किया।।83।।

जीवन–चपला चमक दमक कर
अन्तरिक्ष में लीन हुई।
अहो¸ पुरोहित की अनन्त में
जाकर ज्योति विलीन हुई।।84।।

सुनकर ब्राह्मण की हत्या
उत्साह सभी ने मन्द किया।
हाहाकार मचा सबने आखेट
खेलना बन्द किया।।85।।

खून हो गया खून हो गया
का जंगल में शोर हुआ।
धन्य धन्य है धन्य पुरोहित –
यह रव चारों ओर हुआ।।86।।

युगल बन्धु के दृग अपने को
लज्जा–पट से ढाँप उठे।
रक्त देखकर ब्राह्मण का
सहसा वे दोनों काँप उठे।।87।।

धर्म भीरू राणा का तन तो
भय से कम्पित और हुआ।
लगा सोचने अहो कलंकित
वीर–देश चित्तौर हुआ।।88।।

बोल उठा राणा प्रताप –
मेवाड़–देश को छोड़ो तुम।
शक्तसिंह¸ तुम हटो हटो¸
मुझसे अब नाता तोड़ो तुम।।89।।

शिशोदिया–कुल के कलंक¸
हा जन्म तुम्हारा व्यर्थ हुआ।
हाय¸ तुम्हारे ही कारण यह
पातक¸ महा अनर्थ हुआ।।90।।

सुनते ही यह मौन हो गया¸
घूँट घूँट विष–पान किया।
आज्ञा मानी¸ यही सोचता
दिल्ली को प्रस्थान किया।।91
हाय¸ निकाला गया आज दिन
मेरा बुरा जमाना है।
भूख लगी है प्यास लगी
पानी का नहीं ठिकाना है।।92
मैं सपूत हूँ राजपूत¸
मुझको ही जरा यकीन नहीं।
एक जगह सुख से बैठूँ¸ दो
अंगुल मुझे जमीन नहीं।।93
अकबर से मिल जाने पर हा¸
रजपूती की शान कहाँ!
जन्मभूमि पर रह जायेगा
हा¸ अब नाम–निशान कहाँ।।94।।

यह भी मन में सोच रहा था¸
इसका बदला लूँगा मैं।
क्रोध–हुताशन में आहुति
मेवाड़–देश की दूँगा मैं।।95।।

शिशोदिया में जन्म लिया यद्यपि
यह है कर्तव्य नहीं।
पर प्रताप–अपराध कभी
क्षन्तव्य नहीं¸ क्षन्तव्य नहीं।।96।।

शक्तसिंह पहुँचा अकबर भी
आकर मिला कलेजे से।
लगा छेदने राणा का उर
कूटनीति के तेजे से।।97।।

युगल–बन्धु–रण देख क्रोध से
लाल हो गया था सूरज।
मानों उसे मनाने को अम्बर पर
चढ़ती थी भू–रज।।98।।

किया सुनहला काम प्रकृति ने¸
मकड़ी के मृदु तारों पर।
छलक रही थी अन्तिम किरण्ों
राजपूत–तलवारों पर।।99।।

धीरे धीरे रंग जमा तक का
सूरज की लाली पर।
कौवों की बैठी पंचायत
तरू की डाली डाली पर।।100।।

चूम लिया शशि ने झुककर।
कोई के कोमल गालों को।
देने लगा रजत हँस हँसकर¸
सागर–सरिता–नालों को।।101।
हिंस्त्र जन्तु निकले गह्वर से
घ्ोर लिया गिरि झीलों को।
इधर मलिन महलों में आया
लाश सौंपकर भीलों को।।102।।

वंश–पुरोहित का प्रताप ने
दाह कर्म करवा डाला।
देकर घन ब्राह्मण–कुल के
खाली घर को भरवा डाला।।103।।

जहाँ लाश थी ब्राह्मण की
जिस जगह त्याग दिखलाया था।
चबूतरा बन गया जहाँ
प्राणों का पुष्प चढ़ाया था।।104।।

गया बन्ध¸ पर गया न गौरव¸
अपनी कुल–परिपाटी का।
पर विरोध भी कारण है
भीषण–रण हल्दीघाटी का।।105।।

मेवाड़¸ तुम्हारी आगे
अब हा¸ कैसी गति होगी।
हा¸ अब तेरी उन्नति में
क्या पग पग पर यति होगी?।।106।।

    द्वितीय सर्ग 

कर उन्मत्त प्रेम के
लेन–देन का मृदु–व्यापार।
ज्ञात न किसको था अकबर की
छिपी नीति का अत्याचार।।1।।

अहो¸ हमारी माँ–बहनों से
सजता था मीनाबाज़ार।
फैल गया था अकबर का वह
कितना पीड़ामय व्यभिचार।।2।।

अवसर पाकर कभी विनय–नत¸
कभी समद तन जाता था।
गरम कभी जल सा¸ पावक सा
कभी गरम बन जाता था।।3।।

मानसिंह की फूफी से
अकबर ने कर ली थी शादी।
अहो¸ तभी से भाग रही है
कोसों हमसे आजादी।।4।।

हो उठता था विकल देखकर
मधुर कपोलों की लाली।
पीता था अiग्न–सा कलियों
के अधरों की मधुमय प्याली।।5।।

करता था वह किसी जाति की
कान्त कामिनी से ठनगन।
कामातुर वह कर लेता था
किसी सुंदरी का चुम्बन।।6।।

था एक समय कुसुमाकर का
लेकर उपवन में बाल हिरन।
वन छटा देख कुछ उससे ही
गुनगुना रही थी बैठ किरन।।7।।

वह राका–शशि की ज्योत्स्ना सी
वह नव वसन्त की सुषमा सी।
बैठी बखेरती थी शोभा
छवि देख धन्य थे वन–वासी।।8।।

आँखों में मद की लाली थी¸
गालों पर छाई अरूणाई।
कोमल अधरों की शोभा थी
विद्रुम–कलिका सी खिल आई।।9।।

तन–कान्ति देखने को अपलक
थे खुले कुसुम–कुल–नयन बन्द।
उसकी साँसों की सुरभि पवन
लेकर बहता था मन्द–मन्द।।10।।

पट में तन¸ तन में नव यौवन
नव यौवन में छवि–माला थी।
छवि–माला के भीतर जलती
पावन–सतीत्व की ज्वाला थी।।11।।

थी एक जगह जग की शोभा
कोई न देह में अलंकार।
केवल कटि में थी बँधी एक
शोणित–प्यासी तीखी कटार।।12।।

हाथों से सुहला सुहलाकर
नव बाल हिरन का कोमल–तन
विस्मित सी उससे पूछ रही
वह देख देख वन–परिवर्तन।।13।।

“कोमल कुसुमों में मुस्काता
छिपकर आनेवाला कौन?
बिछी हुई पलकों के पथ पर
छवि दिखलानेवाला कौन?।।14।।

बिना बनाये बन जाते वन
उन्हें बनानेवाला कौन?
कीचक के छिद्रों में बसकर
बीन बजाने वाला कौन?।।16।।

कल–कल कोमल कुसुम–कुंज पर
मधु बरसाने वाला कौन?
मेरी दुनिया में आता है
है वह आने वाला कौन है?।।16।
छुमछुम छननन रास मचाकर
बना रहा मतवाला कौन?
मुसकाती जिससे कलिका है
है वह किस्मत वाला कौन?।।17।।

बना रहा है मत्त पिलाकर
मंजुल मधु का प्याला कौन
फैल रही जिसकी महिमा है
है वह महिमावाला कौन?।।18।।

मेरे बहु विकसित उपवन का
विभव बढ़ानेवाला कौन?
विपट–निचय के पूत पदों पर
पुष्प चढ़ाने वाला कौन?।।19।।

फैलाकर माया मधुकर को
मुग्ध बनाने वाला कौन?
छिपे छिपे मेरे आँगन में
हँसता आनेवाला कौन?।।20।।

महक रहा है मलयानिल क्यों?
होती है क्यों कैसी कूक?
बौरे–बौरे आमों का है¸
भाव और भाषा क्यों मूक।”।21।।

वह इसी तरह थी प्रकृति–मग्न¸
तब तक आया अकबर अधीर।
धीरे से बोला युवती से
वह कामातुर कम्पित–शरीर ।।22।।

“प्रेयसि! गालों की लाली में
मधु–भार भरा¸ मृदु प्यार भरा।
रानी¸ तेरी चल चितवन में
मेरे उर का संसार भरा।।23।।

मेरे इन प्यासे अधरों को
तू एक मधुर चुम्बन दे दे।
धीरे से मेरा मन लेकर
धीरे से अपना मन दे दे”।।24।।

यह कहकर अकबर बढ़ा समय
उसी सती सिंहनी के आगे।
आगे उसके कुल के गौरव
पावन–सतीत्व उर के आगे।।25।।

शिशोदिया–कुल–कन्या थी
वह सती रही पांचाली सी।
क्षत्राणी थी चढ़ बैठी
उसकी छाती पर काली सी।।26।।

कहा डपटकर – “बोल प्राण लूँ¸
या छोड़ेगा यह व्यभिचार?”
बोला अकबर – “क्षमा करो अब
देवि! न होगा अत्याचार”।।27।।

जब प्रताप सुनता था ऐसी
सदाचार की करूण–पुकार।
रण करने के लिए म्यान से
सदा निकल पड़ती तलवार।।28।।

 

तृतीय सर्ग

 

अखिल हिन्द का था सुल्तान¸
मुगल–राज कुल का अभिमान।
बढ़ा–चढ़ा था गौरव–मान¸
उसका कहीं न था उपमान।।1।।

सबसे अधिक राज विस्तार¸
धन का रहा न पारावार।
राज–द्वार पर जय जयकार¸
भय से डगमग था संसार।।2।।

नभ–चुम्बी विस्तृत अभिराम¸
धवल मनोहर चित्रित–धाम।
भीतर नव उपवन आराम¸
बजते थे बाजे अविराम।।3।।

संगर की सरिता कर पार
कहीं दमकते थे हथियार।
शोणित की प्यासी खरधार¸
कहीं चमकती थी तलवार।।4।।

स्वर्णिम घर में शीत प्रकाश
जलते थे मणियों के दीप।
धोते आँसू–जल से चरण
देश–देश के सकल महीप।।5।।

तो भी कहता था सुल्तान –
पूरा कब होगा अरमान।
कब मेवाड़ मिलेगा आन¸
राणा का होगा अपमान।।6।।

देख देख भीषण षड््यन्त्र¸
सबने मान लिया है मन्त्र।
पर वह कैसा वीर स्वतन्त्र¸
रह सकता न क्षणिक परतन्त्र।।7।।

कैसा है जलता अंगार¸
कैसा उसका रण–हुंकार।
कैसी है उसकी तलवार¸
अभय मचाती हाहाकार।।8।।

कितना चमक रहा है भाल¸
कितनी तनु कटि¸ वक्ष विशाल।
उससे जननी–अंक निहाल¸
धन्य धन्य माई का लाल।।9।।

कैसी है उसकी ललकार¸
कैसी है उसकी किलकार।
कैसी चेतक–गति अविकार¸
कैसी असि कितनी खरधार।।10।।

कितने जन कितने सरदार¸
कैसा लगता है दरबार।
उस पर क्यों इतने बलिहार¸
उस पर जन–रक्षा का भार।।11।।

किसका वह जलता अभिशाप¸
जिसका इतना भ्ौरव–ताप।
कितना उसमें भरा प्रताप¸
अरे! अरे! साकार प्रताप।।12।।

कैसा भाला कैसी म्यान¸
कितना नत कितना उत्तान!
पतन नहीं दिन–दिन उत्थान¸
कितना आजादी का ध्यान।।13।।

कैसा गोरा–काला रंग¸
जिससे सूरज शशि बदरंग।
जिससे वीर सिपाही तंग¸
जिससे मुगल–राज है दंग।।14।।

कैसी ओज–भरी है देह¸
कैसा आँगन कैसा गेह।
कितना मातृ–चरण पर नेह¸
उसको छू न गया संदेह।।15।।

कैसी है मेवाड़ी–आन;
कैसी है रजपूती शान।
जिस पर इतना है कुबार्न¸
जिस पर रोम–रोम बलिदान।।16।।

एक बार भी मान–समान¸
मुकुट नवा करता सम्मान।
पूरा हो जाता अरमान¸
मेरा रह जाता अभिमान।।17।।

यही सोचते दिन से रात¸
और रात से कभी प्रभात।
होता जाता दुबर्ल गात¸
यद्यपि सुख या वैभव–जात।।18।।

कुछ दिन तक कुछ सोच विचार¸
करने लगा सिंह पर वार।
छिपी छुरी का अत्याचार¸
रूधिर चूसने का व्यापार।।19।।

करता था जन पर आघात¸
उनसे मीठी मीठी बात।
बढ़ता जाता था दिन–रात¸
वीर शत्रु का यह उत्पात।।20।।

इधर देखकर अत्याचार¸
सुनकर जन की करूण–पुकार।
रोक शत्रु के भीषण–वार¸
चेतक पर हो सिंह सवार।।21।।

कह उठता था बारंबार¸
हाथों में लेकर तलवार –
वीरों¸ हो जाओ तैयार¸
करना है माँ का उद्धार।।22।।

 

     चतुर्थ सर्ग

 

पर मृदु कोमल फूल¸
पावक की ज्वाला पर तूल।
सुई–नोक पर पथ की धूल¸
बनकर रहता था अनुकूल।।1।।

बाहर से करता सम्मान¸
बह अजिया–कर लेता था न।
कूटनीति का तना वितान¸
उसके नीचे हिन्दुस्तान।।2।।

अकबर कहता था हर बार –
हिन्दू मजहब पर बलिहार।

मेरा हिन्दू से सत्कार;
मुझसे हिन्दू का उपकार।।3।।

यही मौलवी से भी बात¸
कहता उत्तम है इस्लाम।
करता इसका सदा प्रचार¸
मेरा यह निशि–दिन का काम।।4।।

उसकी यही निराली चाल¸
मुसलमान हिन्दू सब काल।
उस पर रहते सदा प्रसन्न¸
कहते उसे सरल महिपाल।।5।।

कभी तिलक से शोभित भाल¸
साफा कभी शीश पर ताज।
मस्जिद में जाकर सविनोद¸
पढ़ता था वह कभी नमाज।।6।।

एक बार की सभा विशाल¸
आज सुदिन¸ शुभ–मह¸ शुभ–योग।
करने आये धर्म–विचार¸
दूर दूर से ज्ञानी लोग।।7।।

तना गगन पर एक वितान¸
नीचे बैठी सुधी–जमात।
ललित–झाड़ की जगमग ज्योति¸
जलती रहती थी दिन–रात।।8।।

एक ओर पण्डित–समुदाय¸
एक ओर बैठे सरदार।
एक ओर बैठा भूपाल¸
मणि–चौकी पर आसन मार।।9।।

पण्डित–जन के शास्त्र–विचार¸
सुनता सदा लगातार ध्यान।
हिला हिलाकर शिर सविनोद¸
मन्द मन्द करता मुसकान।।10।।

कभी मौलवी की भी बात¸
सुनकर होता मुदित महान््।
मोह–मग्न हो जाता भूप¸
कभी धर्म–मय सुनकर गान।।11।।

पाकर मानव सहानुभूति¸
अपने को जाता है भूल।
वशीभूत होकर सब काम¸
करता है अपने प्रतिकूल।।12।।

माया बलित सभा के बीच¸
यही हो गया सबका हाल।
जादू का पड़ गया प्रभाव¸
सबकी मति बदली तत्काल।।13।।

एक दिवस सुन सब की बात¸
उन पर करके क्षणिक विचार।
बोल उठा होकर गम्भीर –
सब धर्मों से जन–उद्धार।।14।।

पर मुझसे भी करके क्लेश¸
सुनिए ईश्वर का सन्देश।
मालिक का पावन आदेश¸
उस उपदेशक का उपदेश।।15।।

प्रभु का संसृति पर अधिकार¸
उसका मैं धावन का अविकार।।

यह भव–सागर कठिन अपार¸
दीन–इलाही से उद्धार।।16।।

इसका करता जो विश्वास¸
उसको तनिक न जग का त्रास।
उसकी बुझ जाती है प्यास¸
उसके जन्म–मरण का नाश।।17।।

इससे बढ़ा सुयश–विस्तार¸
दीन–इलाही का सत्कार।
बुध जन को तब राज–विचार¸
सबने किया सभय स्वीकार।।18।।

हिन्दू–जनता ने अभिमान¸
छोड़ा रामायण का गान।
दीन–इलाही पर कुबार्न¸
मुसलमान से अलग कुरान।।19।।

तनिक न बा`ह्मण–कुल उत्थान¸
रही न क्षत्रियपन की आन।
गया वैश्य–कुल का सम्मान¸
शूद्र जाति का नाम–निशान।।20।।

राणा प्रताप से अकबर से¸
इस कारण वैर–विरोध बढ़ा।
करते छल–छल परस्पर थे¸
दिन–दिन दोनों का क्रोध बढ़ा।।21।।

कूटनीति सुनकर अकबर की¸
राणा जो गिनगिना उठा।
रण करने के लिए शत्रु से¸
चेतक भी हिनहिना उठा।।22।।
    पंचम सर्ग

 

भरा रहता अकबर का
सुरभित जय–माला से।
सारा भारत भभक रहा था
क्रोधानल–ज्वाला से।।1।।

रत्न–जटित मणि–सिंहासन था
मण्डित रणधीरों से।
उसका पद जगमगा रहा था
राजमुकुट–हीरों से।।2।।

जग के वैभव खेल रहे थे
मुगल–राज–थाती पर।
फहर रहा था अकबर का
झण्डा नभ की छाती पर।।3।।

यह प्रताप यह विभव मिला¸
पर एक मिला था वादी।
रह रह कांटों सी चुभती थी
राणा की आजादी।।4।।

कहा एक वासर अकबर ने –
“मान¸ उठा लो भाला¸
शोलापुर को जीत पिन्हा दो¸
मुझे विजय की माला।।5।।

हय–गज–दल पैदल रथ ले लो
मुगल–प्रताप बढ़ा दो।
राणा से मिलकर उसको भी
अपना पाठ पढ़ा दो।।6।।

ऐसा कोई यत्न करो
बन्धन में कस लेने को।
वही एक विषधर बैठा है
मुझको डस लेने को्”।।7।।

मानसिंह ने कहा –्”आपका
हुकुम सदा सिर पर है।
बिना सफलता के न मान यह
आ सकता फिरकर है।”।।8।।

यह कहकर उठ गया गर्व से
झुककर मान जताया।
सेना ले कोलाहल करता
शोलापुर चढ़ आया।।9।।

युद्ध ठानकर मानसिंह ने
जीत लिया शोलापुर।
भरा विजय के अहंकार से
उस अभिमानी का उर।।10।।

किसे मौत दूं¸ किसे जिला दूं¸
किसका राज हिला दूं?
लगा सोचने किसे मींजकर
रज में आज मिला दूं।।11।।

किसे हंसा दूं बिजली–सा मैं¸
घन–सा किसै रूला दूं?
कौन विरोधी है मेरा
फांसी पर जिसे झुला दूं।।12।।

बनकर भिक्षुक दीन जन्म भर
किसे झेलना दुख है?
रण करने की इच्छा से
जो आ सकता सम्मुख है।।13।।

कहते ही यह ठिठक गया¸
फिर धीमे स्वर से बोला।
शोलापुर के विजय–गर्व पर
गिरा अचानक गोला।।14।।

अहो अभी तो वीर–भूमि
मेवाड़–केसरी खूनी।
गरज रहा है निर्भय मुझसे
लेकर ताकत दूनी।।15।।

स्वतन्त्रता का वीर पुजारी
संगर–मतवाला है।
शत–शत असि के सम्मुख
उसका महाकाल भाला है।।16।।

धन्य–धन्य है राजपूत वह
उसका सिर न झुका है।
अब तक कोई अगर रूका तो
केवल वही रूका है।।17।।

निज प्रताप–बल से प्रताप ने
अपनी ज्योति जगा दी।
हमने तो जो बुझ न सके¸
कुछ ऐसी आग लगा दी।।18।।

अहो जाति को तिलांजली दे
हुए भार हम भू के।
कहते ही यह ढुलक गये
दो–चार बूंद आंसू के।।19।।

किन्तु देर तक टिक न सका
अभिमान जाति का उर में।
क्या विहंसेगा विटप¸ लगा है
यदि कलंक अंकुर में।।20।।

एक घड़ी तक मौन पुन:
कह उठा मान गरवीला–
देख काल भी डर सकता
मेरी भीषण रण–लीला।।21।।

वसुधा का कोना धरकर
चाहूं तो विश्व हिला दूं।
गगन–मही का क्षितिज पकड़
चाहूं तो अभी मिला दूं।।22।।

राणा की क्या शक्ति उसे भी
रण की कला सिखा दूं।
मृत्यु लड़े तो उसको भी
अपने दो हाथ दिखा दूं।।23।।

पथ में ही मेवाड़ पड़ेगा
चलकर निश्चय कर लूं।
मान रहा तो कुशल¸ नहीं तो
संगर से जी भर लूं।।24।।

युद्ध महाराणा प्रताप से
मेरा मचा रहेगा।
मेरे जीते–जी कलंक से
क्या वह बचा रहेगा?।।25।।

मानी मान चला¸ सोचा
परिणाम न कुछ जाने का।
पास महाराणा के भेजा
समाचार आने का।।26।।

मानसिंह के आने का
सन्देश उदयपुर आया।
राणा ने भी अमरसिंह को
अपने पास बुलाया।।27।।

कहा –! मिलने आता है
मानसिंह अभिमानी।
छल है¸ तो भी मान करो
लेकर लोटा भर पानी।।28।।

किसी बात की कमी न हो
रह जाये आन हमारी।
पुत्र! मान के स्वागत की
तुम ऐसी करो तयारी्”।।29।।

मान लिया आदेश¸ स्वर्ण से
सजे गये दरवाजे।
मान मान के लिये मधुर
बाजे मधुर–रव से बाजे।।30।।

जगह जगह पर सजे गये
फाटक सुन्दर सोने के।
बन्दनवारों से हंसते थे
घर कोने कोने के।।31।।

जगमग जगमग ज्योति उठी जल¸
व्याकुल दरबारी–जन¸
नव गुलाब–वासित पानी से
किया गया पथ–सिंचन।।32।।

शीतल–जल–पूरित कंचन के
कलसे थे द्वारों पर।
चम–चम पानी चमक रहा था
तीखी तलवारों पर।।33।।

उदयसिंधु के नीचे भी
बाहर की शोभा छाई।
हृदय खोलकर उसने भी
अपनी श्रद्धा दिखलाई।।34।।

किया अमर ने धूमधाम से
मानसिंह का स्वागत।
मधुर–मधुर सुरभित गजरों के
बोझे से वह था नत।।35।।

कहा देखकर अमरसिंह का
विकल प्रेम अपने मन में।
होगा यह सम्मान मुझे
विश्वास न था सपने में।।36।।

शत–शत तुमको धन्यवाद है¸
सुखी रहो जीवन भर।
झरें शीश पर सुमन–सुयश के
अम्बर–तल से झर–झर।।37।।

धन्यवाद स्वीकार किया¸
कर जोड़ पुन: वह बोला।
भावी भीषण रण का
दरवाजा धीरे से खोला –।।38।।

समय हो गया भूख लगी है¸
चलकर भोजन कर लें।
थके हुए हैं ये मृदु पद
जल से इनको तर कर लें।”।।39।।

सुनकर विनय उठा केवल रख
पट रेशम का तन पर।
धोकर पद भोजन करने को
बैठ गया आसन पर।।40।।

देखे मधु पदार्थ पन्ने की
मृदु प्याली प्याली में।
चावल के सामान मनोहर
सोने की थाली में।।41।।

घी से सनी सजी रोटी थी¸
रत्नों के बरतन में।
शाक खीर नमकीन मधुर¸
चटनी चमचम कंचन में।।42।।

मोती झालर से रक्षित¸
रसदार लाल थाली में।
एक ओर मीठे फल थे¸
मणि–तारों की डाली में।।43।।

तरह–तरह के खाद्य–कलित¸
चांदी के नये कटोरे
भरे खराये घी से देखे¸
नीलम के नव खोरे।।44।।

पर न वहां भी राणा था
बस ताड़ गया वह मानी।
रहा गया जब उसे न तब वह
बोल उठा अभिमानी।।45।।

“अमरसिंह¸ भोजन का तो
सामान सभी सम्मुख है।
पर प्रताप का पता नहीं है
एक यही अब दुख है।।46।।

मान करो पर मानसिंह का
मान अधूरा होगा।
बिना महाराणा के यह
आतिथ्य न पूरा होगा।।47।।

जब तक भोजन वह न करेंगे
एक साथ आसन पर;
तब तक कभी न हो सकता है
मानसिंह का आदर।।48।।

अमरसिंह¸ इसलिए उठो तुम
जाओ मिलो पिता से;
मेरा यह सन्देश कहो
मेवाड़–गगन–सविता से।।49।।

बिना आपके वह न ठहर पर
ठहर सकेंगे क्षण भी।
छू सकते हैं नहीं हाथ से¸
चावल का लघु कण भी।”।।50।।

अहो¸ विपत्ति में देश पड़ेगा
इसी भयानक तिथि से।
गया लौटकर अमरसिंह फिर
आया कहा अतिथि से।।51।।

“मैं सेवा के लिए आपकी
तन–मन–धन से आकुल।
प्रभो¸ करें भोजन¸ वह हैं
सिर की पीड़ा से व्याकुल।”।।51।।

पथ प्रताप का देख रहा था¸
प्रेम न था रोटी में।
सुनते ही वह कांप गया¸
लग गई आग चोटी में।।53।।

घोर अवज्ञा से ज्वाला सी¸
लगी दहकने त्रिकुटी।
अधिक क्रोध से वक्र हो गई¸
मानसिंह की भृकुटी।।54।।

चावल–कण दो–एक बांधकर
गरज उठा बादल सा।
मानो भीषण क्रोध–वह्नि से¸
गया अचानक जल सा।।55।।

“कुशल नहीं¸ राणा प्रताप का
मस्तक की पीड़ा से।
थहर उठेगा अब भूतल
रण–चण्डी की क्रीड़ा से।।56।।

जिस प्रताप की स्वतन्त्रता के
गौरव की रक्षा की।
खेद यही है वही मान का
कुछ रख सका न बाकी।।57।।

बिना हेतु के होगा ही वह
जो कुछ बदा रहेगा।
किन्तु महाराणा प्रताप अब
रोता सदा रहेगा।।58।।

मान रहेगा तभी मान का
हाला घोल उठे जब।
डग–डग–डग ब्रह्माण्ड चराचर
भय से डोल उठे जब।”।।59।।

चकाचौंध सी लगी मान को
राणा की मुख–भा से।
अहंकार की बातें सुन
जब निकला सिंह गुफा से।।60।।

दक्षिण–पद–कर आगे कर
तर्जनी उठाकर बोला।
गिरने लगा मान–छाती पर
गरज–गरज कर गोला।।61।।

वज्र–नाद सा तड़प उठा
हलचल थी मरदानों में।
पहुंच गया राणा का वह रव
अकबर के कानों में।।62।।

“अरे तुर्क¸ बकवाद करो मत
खाना हो तो खाओ।
या बधना का ही शीतल–जल
पीना हो तो जाओ।।63।।

जो रण को ललकार रहे हो
तो आकर लड़ लेना।
चढ़ आना यदि चाह रहे
चित्तौड़ वीर–गढ़ लेना।।64।।

कहां रहे जब स्वतन्त्रता का
मेरा बिगुल बजा था?
जाति–धर्म के मुझ रक्षक को
तुमने क्या समझा था।।65।।

अभी कहूं क्या¸ प्रश्नों का
रण में क्या उत्तर दूंगा।
महामृत्यु के साथ–साथ
जब इधर–उधर लहरूंगा।।66।।

भभक उठेगी जब प्रताप के
प्रखर तेज की आगी।
तब क्या हूं बतला दूंगा
ऐ अम्बर कुल के त्यागी।्”।।67।।

अभी मान से राणा से था
वाद–विवाद लगा ही¸
तब तक आगे बढ़कर बोला
कोई वीर–सिपाही।।68।।

“करो न बकझक लड़कर ही
अब साहस दिखलाना तुम;
भगो¸ भगो¸ अपने फूफे को
भी लेते आना तुम।”।।69।।

महा महा अपमान देखकर
बढ़ी क्रोध की ज्वाला।
मान कड़ककर बोल उठा फिर
पहन आर्च की माला–।।70।।

“मानसिंह की आज अवज्ञा
कर लो और करा लो;
बिना विजय के ऐ प्रताप
तुम¸ विजय–केतु फहरा लो।।71।।

पर इसका मैं बदल लूंगा¸
अभी चन्द दिवसों में;
झुक जाओगे भर दूंगा जब
जलती ज्वाल नसों में।।72।।

ऐ प्रताप¸ तुम सजग रहो
अब मेरी ललकारों से;
अकबर के विकराल क्रोध से¸
तीखी तलवारों से।।73।।

ऐ प्रताप¸ तैयार रहो मिटने
के लिए रणों में;
हाथों में हथकड़ी पहनकर
बेड़ी निज चरणों में।।74।।

मानसिंह–दल बन जायेगा
जब भीषण रण–पागल।
ऐ प्रताप¸ तुम झुक जाओगे
झुक जायेगा सेना–बल।।75।।

ऐ प्रताप¸ तुम सिहर उठो
सांपिन सी करवालों से;
ऐ प्रताप¸ तुम भभर उठो
तीखे–तीखे भालों से।।76।।

“गिनो मृत्यु के दिन्” कहकर
घोड़े को सरपट छोड़ा¸
पहुंच गया दिल्ली उड़ता वह
वायु–वेग से घोड़ा।।77।।

इधर महाराणा प्रताप ने
सारा घर खुदवाया।
धर्म–भीरू ने बार–बार
गंगा–जल से धुलवाया।।78।।

उतर गया पानी¸ प्यासा था¸
तो भी पिया न पानी।
उदय–सिन्धु था निकट डर गया
अपना दिया न पानी।।79।।

राणा द्वारा मानसिंह का
यह जो मान–हरण था।
हल्दीघाटी के होने का
यही मुख्य कारण था।।80।।

लगी सुलगने आग समर की
भीषण आग लगेगी।
प्यासी है अब वीर–रक्त से
मां की प्यास बुझेगी।।81।।

स्वतन्त्रता का कवच पहन
विश्वास जमाकर भाला में।
कूद पड़ा राणा प्रताप उस
समर–वह्नि की ज्वाला में।।82।।

 

षष्ठ सर्ग

 

मणि के बन्दनवार¸
उनमें चांदी के मृदु तार।
जातरूप के बने किवार
सजे कुसुम से हीरक–द्वार।।1।।

दिल्ली के उज्जवल हर द्वार¸
चमचम कंचन कलश अपार।
जलमय कुश–पल्लव सहकार
शोभित उन पर कुसुमित हार।।2।।

लटक रहे थे तोरण–जाल¸
बजती शहनाई हर काल।
उछल रहे थे सुन स्वर ताल¸
पथ पर छोटे–छोटे बाल।।3।।

बजते झांझ नगारे ढोल¸
गायक गाते थे उर खोल।
जय जय नगर रहा था बोल¸
विजय–ध्वजा उड़ती अनमोल।।4।।

घोड़े हाथी सजे सवार¸
सेना सजी¸ सजा दरबार।
गरज गरज तोपें अविराम
छूट रही थीं बारंबार।।5।।

झण्डा हिलता अभय समान
मादक स्वर से स्वागत–गान।
छाया था जय का अभिमान
भू था अमल गगन अम्लान।।6।।

दिल्ली का विस्तृत उद्यान
विहंस उठा ले सुरभि–निधान।
था मंगल का स्वर्ण–विहान
पर अतिशय चिन्तित था मान।।7।।

सुनकर शोलापुर की हार
एक विशेष लगा दरबार।
आये दरबारी सरदार
पहनेगा अकबर जय–हार।।8।।

बैठा भूप सहित अभिमान
पर न अभी तक आया मान।
दुख से कहता था सुल्तान –
्’कहां रह गया मान महान्््’।।9।।

तब तक चिन्तित आया मान
किया सभी ने उठ सम्मान।
थोड़ा सा उठकर सुल्तान
बोला ‘आओ¸ बैठो मान्’।।10।।

की अपनी छाती उत्तान
अब आई मुख पर मुस्कान।
किन्तु मान–मुख पर दे ध्यान
भय से बोल उठा सुल्तान।।11।।

“ऐ मेरे उर के अभिमान¸
शोलापुर के विजयी मान!
है किस ओर बता दे ध्यान¸
क्यों तेरा मुख–मण्डल म्लान।।12।।

तेरे स्वागत में मधु–गान
जगह जगह पर तने वितान।
क्या दुख है बतला दे मान¸
तुझ पर यह दिल्ली कुबार्न।”।।13।।

अकबर के सुन प्रश्न उदार
देख सभासद–जन के प्यार।
लगी ढरकने बारम्बार
आंखों से आंसू की धार।।14।।

दुख के उठे विषम उद्गार
सोच–सोच अपना अपकार।
लगा सिसकने मान अपार
थर–थर कांप उठा दरबार।।15।।

घोर अवज्ञा का कर ध्यान
बोला सिसक–सिसक कर मान–
“तेरे जीते–जी सुल्तान!
ऐसा हो मेरा अपमान्”।।16।।

सबने कहा “अरे¸ अपमान!
मानसिंह तेरा अपमान!”
“हां¸ हां मेरा ही अपमान¸
सरदारो! मेरा अपमान।”।।17।।

कहकर रोने लगा अपार¸
विकल हो रहा था दरबार।
रोते ही बोला – “सरकार¸
असहनीय मेरा अपकार।।18।।

ले सिंहासन का सन्देश¸
सिर पर तेरा ले आदेश।
गया निकट मेवाड़–नरेश¸
यही व्यथा है¸ यह ही क्लेश।।19।।

आंखों में लेकर अंगार
क्षण–क्षण राणा का फटकार–
‘तुझको खुले नरक के द्वार
तुझको जीवन भर धिक्कार।।20।।

तेरे दर्शन से संताप
तुझको छूने से ही पाप।
हिन्दू–जनता का परिताप
तू है अम्बर–कुल पर शाप।।21।।

स्वामी है अकबर सुल्तान
तेरे साथी मुगल पठान।
राणा से तेरा सम्मान
कभी न हो सकता है मान।।22।।

करता भोजन से इनकार
अथवा कुत्ते सम स्वीकार।
इसका आज न तनिक विचार
तुझको लानत सौ सौ बार।।23।।

म्लेंच्छ–वंश का तू सरदार¸
तू अपने कुल का अंगार।’
इस पर यदि उठती तलवार
राणा लड़ने को तैयार।।24।।

उसका छोटा सा सरदार
मुझे द्वार से दे दुत्कार।
कितना है मेरा अपकार
यही बात खलती हर बार।।25।।

शेष कहा जो उसने आज¸
कहने में लगती है लाज।
उसे समझ ले तू सिरताज
और बन्धु यह यवन–समाज।”।।26।।

वर्णन के थे शब्द ज्वलन्त
बढ़े अचानक ताप अनन्त।
सब ने कहा यकायक हन्त
अब मेवाड़ देश का अन्त।।27।।

बैठे थे जो यवन अमीर
लगा हृदय में उनके तीर।
अकबर का हिल गया शरीर
सिंहासन हो गया अधीर।।28।।

कहां पहनता वह जयमाल
उर में लगी आग विकराल।
आंखें कर लोहे सम लाल
भभक उठा अकबर तत्काल।।29।।

कहा – रह सकता चुपचाप¸
सह सकता न मान–संताप
बढ़ा हृदय का मेरे ताप
आन रहे¸ या रहे प्रताप।।30।।

वीरो! अरि को दो ललकार¸
उठो¸ उठा लो भीम कटार।
घुसा–घुसा अपनी तलवार¸
कर दो सीने के उस पार।।31।।

महा महा भीषण रण ठान
ऐ भारत के मुगल पठान!
रख लो सिंहासन की शान¸
कर दो अब मेवाड़ मसान।।32।।

है न तिरस्कृत केवल मान¸
मुगल–राज का भी अपमान।
रख लो मेरी अपनी आन
कर लो हृदय–रक्त का पान।।33।।

ले लो सेना एक विशाल
मान¸ उठा लो कर से ढाल।
शक्तसिंह¸ ले लो करवाल
बदला लेने का है काल।।34।।

सरदारों¸ अब करो न देर
हाथों में ले लो शमशेर।
वीरो¸ लो अरिदल को घेर
कर दो काट–काटकर ढेर।।।35।।

क्षण भर में निकले हथियार
बिजली सी चमकी तलवार।
घोड़े¸ हाथी सजे अपार
रण का भीषणतम हुंकार।।36।।

ले सेना होकर उत्तान
ले करवाल–कटार–कमान।
चला चुकाने बदला मान
हल्दीघाटी के मैदान।।37।।

मानसिंह का था प्रस्थान
सत्य–अहिंसा का बलिदान।
कितना हृदय–विदारक ध्यान
शत–शत पीड़ा का उत्थान।।38।।

 

सप्तम सर्ग

 

अभिमानी मान–अवज्ञा से¸
थर–थर होने संसार लगा।
पर्वत की उन्नत चोटी पर¸
राणा का भी दरबार लगा।।1।।

अम्बर पर एक वितान तना¸
बलिहार अछूती आनों पर।
मखमली बिछौने बिछे अमल¸
चिकनी–चिकनी चट्टानों पर।।2।।

शुचि सजी शिला पर राणा भी
बैठा अहि सा फुंकार लिये।
फर–फर झण्डा था फहर रहा
भावी रण का हुंकार लिये।।3।।

भाला–बरछी–तलवार लिये
आये खरधार कटार लिये।
धीरे–धीरे झुक–झुक बैठे
सरदार सभी हथियार लिये।।4।।

तरकस में कस–कस तीर भरे
कन्धों पर कठिन कमान लिये।
सरदार भील भी बैठ गये
झुक–झुक रण के अरमान लिये।।5।।

जब एक–एक जन को समझा
जननी–पद पर मिटने वाला।
गम्भीर भाव से बोल उठा
वह वीर उठा अपना भाला।।6।।

तरू–तरू के मृदु संगीत रूके
मारूत ने गति को मंद किया।
सो गये सभी सोने वाले
खग–गण ने कलरव बन्द किया।।7।।

राणा की आज मदद करने
चढ़ चला इन्दु नभ–जीने पर¸
झिलमिल तारक–सेना भी आ
डट गई गगन के सीने पर।।8।।

गिरि पर थी बिछी रजत चादर¸
गह्वर के भीतर तम–विलास।
कुछ–कुछ करता था तिमिर दूर¸
जुग–जुग जुगनू का लघु प्रकाश।।9।।

गिरि अरावली के तरू के थे
पत्ते–पत्ते निष्कम्प अचल।
वन–वेलि–लता–लतिकाएं भी
सहसा कुछ सुनने को निश्चल।।10।।

था मौन गगन¸ नीरव रजनी¸
नीरव सरिता¸ नीरव तरंग।
केवल राणा का सदुपदेश¸
करता निशीथिनी–नींद भंग।।11।।

वह बोल रहा था गरज–गरज¸
रह–रह कर में असि चमक रही।
रव–वलित बरसते बादल में¸
मानों बिजली थी दमक रही।।12।।

“सरदारो¸ मान–अवज्ञा से
मां का गौरव बढ़ गया आज।
दबते न किसी से राजपूत
अब समझेगा बैरी–समाज।”।।13।।

वह मान महा अभिमानी है
बदला लेगा ले बल अपार।
कटि कस लो अब मेरे वीरो¸
मेरी भी उठती है कटार।।14।।

भूलो इन महलों के विलास
गिरि–गुहा बना लो निज–निवास।
अवसर न हाथ से जाने दो
रण–चण्डी करती अट्टहास।।15।।

लोहा लेने को तुला मान
तैयार रहो अब साभिमान।
वीरो¸ बतला दो उसे अभी
क्षत्रियपन की है बची आन।।16।।

साहस दिखलाकर दीक्षा दो
अरि को लड़ने की शिक्षा दो।
जननी को जीवन–भिक्षा दो
ले लो असि वीर–परिक्षा दो।।17।।

रख लो अपनी मुख–लाली को
मेवाड़–देश–हरियाली को।
दे दो नर–मुण्ड कपाली को
शिर काट–काटकर काली को।।18।।

विश्वास मुझे निज वाणी का
है राजपूत–कुल–प्राणी का।
वह हट सकता है वीर नहीं
यदि दूध पिया क्षत्राणी का।।19।।

नश्वर तनको डट जाने दो
अवयव–अवयव छट जाने दो।
परवाह नहीं¸ कटते हों तो
अपने को भी कट जाने दो।।20।।

अब उड़ जाओ तुम पांखों में
तुम एक रहो अब लाखों में।
वीरो¸ हलचल सी मचा–मचा
तलवार घुसा दो आंखों में।।21।।

यदि सके शत्रु को मार नहीं
तुम क्षत्रिय वीर–कुमार नहीं।
मेवाड़–सिंह मरदानों का
कुछ कर सकती तलवार नहीं।।22।।

मेवाड़–देश¸ मेवाड़–देश¸
समझो यह है मेवाड़–देश।
जब तक दुख में मेवाड़–देश।
वीरो¸ तब तक के लिए क्लेश।।23।।

सन्देश यही¸ उपदेश यही
कहता है अपना देश यही।
वीरो दिखला दो आत्म–त्याग
राणा का है आदेश यही।।24।।

अब से मुझको भी हास शपथ¸
रमणी का वह मधुमास शपथ।
रति–केलि शपथ¸ भुजपाश शपथ¸
महलों के भोग–विलास शपथ।।25।।

सोने चांदी के पात्र शपथ¸
हीरा–मणियों के हार शपथ।
माणिक–मोति से कलित–ललित
अब से तन के श्रृंगार शपथ।।26।।

गायक के मधुमय गान शपथ
कवि की कविता की तान शपथ।
रस–रंग शपथ¸ मधुपान शपथ
अब से मुख पर मुसकान शपथ।।27।।

मोती–झालर से सजी हुई
वह सुकुमारी सी सेज शपथ।
यह निरपराध जग थहर रहा
जिससे वह राजस–तेज शपथ।।28।।

पद पर जग–वैभव लोट रहा
वह राज–भोग सुख–साज शपथ।
जगमग जगमग मणि–रत्न–जटित
अब से मुझको यह ताज शपथ।।29।
जब तक स्वतन्त्र यह देश नहीं
है कट सकता नख केश नहीं।
मरने कटने का क्लेश नहीं
कम हो सकता आवेश नहीं।।30।।

परवाह नहीं¸ परवाह नहीं
मैं हूं फकीर अब शाह नहीं।
मुझको दुनिया की चाह नहीं
सह सकता जन की आह नहीं।।31।।

अरि सागर¸ तो कुम्भज समझो
बैरी तरू¸ तो दिग्गज समझो।
आंखों में जो पट जाती वह
मुझको तूफानी रज समझो।।32।।

यह तो जननी की ममता है
जननी भी सिर पर हाथ न दे।
मुझको इसकी परवाह नहीं
चाहे कोई भी साथ न दे।।33।।

विष–बीज न मैं बोने दूंगा
अरि को न कभी सोने दूंगा।
पर दूध कलंकित माता का
मैं कभी नहीं होने दूंगा।”।।34।।

प्रण थिरक उठा पक्षी–स्वर में
सूरज–मयंक–तारक–कर में।
प्रतिध्वनि ने उसको दुहराया
निज काय छिपाकर अम्बर में।।35।।

पहले राणा के अन्तर में
गिरि अरावली के गह्वर में।
फिर गूंज उठा वसुधा भर में
वैरी समाज के घर–घर में।।36।।

बिजली–सी गिरी जवानों में
हलचल–सी मची प्रधानों में।
वह भीष्म प्रतिज्ञा घहर पड़ी
तत्क्षण अकबर के कानों में।।37।।

प्रण सुनते ही रण–मतवाले
सब उछल पड़े ले–ले भाले।
उन्नत मस्तक कर बोल उठे
“अरि पड़े न हम सबके पाले।।38।।

हम राजपूत¸ हम राजपूत¸
मेवाड़–सिंह¸ हम राजपूत।
तेरी पावन आज्ञा सिर पर¸
क्या कर सकते यमराज–दूत।।39।।

लेना न चाहता अब विराम
देता रण हमको स्वर्ग–धाम।
छिड़ जाने दे अब महायुद्ध
करते तुझको शत–शत प्रणाम।।40।।

अब देर न कर सज जाने दे
रण–भेरी भी बज जाने दे।
अरि–मस्तक पर चढ़ जाने दे
हमको आगे बढ़ जाने दे।।41।।

लड़कर अरि–दल को दर दें हम¸
दे दे आज्ञा ऋण भर दें हम¸
अब महायज्ञ में आहुति बन
अपने को स्वाहा कर दें हम।।42।।

मुरदे अरि तो पहले से थे
छिप गये कब्र में जिन्दे भी¸
‘अब महायज्ञ में आहुति बन्’¸
रटने लग गये परिन्दे भी।।43।।

पौ फटी¸ गगन दीपावलियां
बुझ गई मलय के झोंकों से।
निशि पश्चिम विधु के साथ चली
डरकर भालों की नोकों से।।44।।

दिनकर सिर काट दनुज–दल का
खूनी तलवार लिये निकला।
कहता इस तरह कटक काटो
कर में अंगार लिये निकला।।45।।

रंग गया रक्त से प्राची–पट
शोणित का सागर लहर उठा।
पीने के लिये मुगल–शोणित
भाला राणा का हहर उठा।।46।।

   

         अष्ठम सर्ग

 

गणपति के पावन पांव पूज¸
वाणी–पद को कर नमस्कार।
उस चण्डी को¸ उस दुर्गा को¸
काली–पद को कर नमस्कार।।1।।

उस कालकूट पीनेवाले के
नयन याद कर लाल–लाल।
डग–डग ब्रह्माण्ड हिला देता
जिसके ताण्डव का ताल–ताल।।2।।

ले महाशक्ति से शक्ति भीख
व्रत रख वनदेवी रानी का।
निर्भय होकर लिखता हूं मैं
ले आशीर्वाद भवानी का।।3।।

मुझको न किसी का भय–बन्धन
क्या कर सकता संसार अभी।
मेरी रक्षा करने को जब
राणा की है तलवार अभी।।4।।

मनभर लोहे का कवच पहन¸
कर एकलिंग को नमस्कार।
चल पड़ा वीर¸ चल पड़ी साथ
जो कुछ सेना थी लघु–अपार।।5।।

घन–घन–घन–घन–घन गरज उठे
रण–वाद्य सूरमा के आगे।
जागे पुश्तैनी साहस–बल
वीरत्व वीर–उर के जागे।।6।।

सैनिक राणा के रण जागे
राणा प्रताप के प्रण जागे।
जौहर के पावन क्षण जागे
मेवाड़–देश के व्रण जागे।।7।।

जागे शिशोदिया के सपूत
बापा के वीर–बबर जागे।
बरछे जागे¸ भाले जागे¸
खन–खन तलवार तबर जागे।।8।।

कुम्भल गढ़ से चलकर राणा
हल्दीघाटी पर ठहर गया।
गिरि अरावली की चोटी पर
केसरिया–झंडा फहर गया।।9।।

प्रणवीर अभी आया ही था
अरि साथ खेलने को होली।
तब तक पर्वत–पथ से उतरा
पुंजा ले भीलों की टोली।।10।।

भैरव–रव से जिनके आये
रण के बजते बाजे आये।
इंगित पर मर मिटनेवाले
वे राजे–महाराजे आये।।11।।

सुनकर जय हर–हर सैनिक–रव
वह अचल अचानक जाग उठा।
राणा को उर से लगा लिया
चिर निद्रित जग अनुराग उठा।।12।।

नभ की नीली चादर ओढ़े
युग–युग से गिरिवर सोता था।
तरू तरू के कोमल पत्तों पर
मारूत का नर्तन होता था।।13।।

चलते चलते जब थक जाता
दिनकर करता आराम वहीं।
अपनी तारक–माला पहने
हिमकर करता विश्राम वहीं।।14।।

गिरि–गुहा–कन्दरा के भीतर
अज्ञान–सदृश था अन्धकार।
बाहर पर्वत का खण्ड–खण्ड
था ज्ञान–सदृश उज्ज्वल अपार।।15।।

वह भी कहता था अम्बर से
मेरी छाती पर रण होगा।
जननी–सेवक–उर–शोणित से
पावन मेरा कण–कण होगा।।16।।

पाषाण–हृदय भी पिघल–पिघल
आंसूं बनकर गिरता झर–झर।
गिरिवर भविष्य पर रोता था
जग कहता था उसको निझर्र।।17।।

वह लिखता था चट्टानों पर
राणा के गुण अभिमान सजल।
वह सुना रहा था मृदु–स्वर से
सैनिक को रण के गान सजल।।18।।

वह चला चपल निझर्र झर–झर
वसुधा–उर–ज्वाला खोने को;
या थके महाराणा–पद को
पर्वत से उतरा धोने को।।19।।

लघु–लघु लहरों में ताप–विकल
दिनकर दिन भर मुख धोता था।
निर्मल निझर्र जल के अन्दर
हिमकर रजनी भर सोता था।।20।।

राणा पर्वत–छवि देख रहा
था¸ उन्नत कर अपना भाला।
थे विटप खड़े पहनाने को
लेकर मृदु कुसुमों की माला।।21।।

लाली के साथ निखरती थी
पल्लव–पल्लव की हरियाली।
डाली–डाली पर बोल रही
थी कुहू–कुहू कोयल काली।।22।।

निझर्र की लहरें चूम–चूम
फूलों के वन में घूम–घूम।
मलयानिल बहता मन्द–मन्द
बौरे आमों में झूम–झूम।।23।।

जब तुहिन–भार से चलता था
धीरे धीरे मारूत–कुमार।
तब कुसुम–कुमारी देख–देख
उस पर हो जाती थी निसार।।24।।

उड़–उड़ गुलाब पर बैठ–बैठ
करते थे मधु का पान मधुप।
गुन–गुन–गुन–गुन–गुन कर करते
राणा के यश का गान मधुप।।25।।

लोनी लतिका पर झूल–झूल¸
बिखरते कुसुम पराग प्यार।
हंस–हंसकर कलियां झांक रही
थीं खोल पंखुरियों के किवार।।26।।

तरू–तरू पर बैठे मृदु–स्वर से
गाते थे स्वागत–गान शकुनि।
कहते यह ही बलि–वेदी है
इस पर कर दो बलिदान शकुनि।।27।।

केसर से निझर्र–फूल लाल
फूले पलास के फूल लाल।
तुम भी बैरी–सिर काट–काट
कर दो शोणित से धूल लाल।।28।।

तुम तरजो–तरजो वीर¸ रखो
अपना गौरव अभिमान यहीं।
तुम गरजो–गरजो सिंह¸ करो
रण–चण्डी का आह्वान यहीं।।29।।

खग–रव सुनते ही रोम–रोम
राणा–तन के फरफरा उठे।
जरजरा उठे सैनिक अरि पर
पत्ते–पत्ते थरथरा उठे।।30।।

तरू के पत्तों से¸ तिनकों से
बन गया यहीं पर राजमहल।
उस राजकुटी के वैभव से
अरि का सिंहासन गया दहल।।31।।

बस गये अचल पर राजपूत¸
अपनी–अपनी रख ढाल–प्रबल।
जय बोल उठे राणा की रख
बरछे–भाले–करवाल प्रबल।।32।।

राणा प्रताप की जय बोले
अपने नरेश की जय बोले।
भारत–माता की जय बोले
मेवाड़–देश की जय बोले।।33।।

जय एकलिंग¸ जय एकलिंग¸
जय प्रलयंकर शंकर हर–हर।
जय हर–हर गिरि का बोल उठा
कंकड़–कंकड़¸ पत्थर–पत्थर।।34।।

देने लगा महाराणा
दिन–रात समर की शिक्षा।
फूंक–फूंक मेरी वैरी को
करने लगा प्रतीक्षा।।35।।

 

नवम सर्ग

 

धीरे से दिनकर द्वार खोल
प्राची से निकला लाल–लाल।
गह्वर के भीतर छिपी निशा
बिछ गया अचल पर किरण–जाल।।1।।

सन–सन–सन–सन–सन चला पवन
मुरझा–मुरझाकर गिरे फूल।
बढ़ चला तपन¸ चढ़ चला ताप
धू–धू करती चल पड़ी धूल।।2।।

तन झुलस रही थीं लू–लपटें
तरू–तरू पद में लिपटी छाया।
तर–तर चल रहा पसीना था
छन–छन जलती जग की काया।।3।।

पड़ गया कहीं दोपहरी में
वह तृषित पथिक हुन गया वहीं।
गिर गया कहीं कन भूतल पर
वह भूभुर में भुन गया वहीं।।4।।

विधु के वियोग से विकल मूक
नभ जल रहा था अपाा उर।
जलती थी धरती तवा सदृश¸
पथ की रज भी थी बनी भउर।।5।।

उस दोपहरी में चुपके से
खोते–खोते में चंचु खोल।
आतप के भय से बैठे थे
खग मौन–तपस्वी सम अबोल।।6।।

हर ओर नाचती दुपहरिया
मृग इधर–उधर थे डौक रहे।
जन भिगो–भिगो पट¸ ओढ़–ओढ़
जल पी–पी पंखे हौक रहे।।7।।

रवि आग उगलता था भू पर
अदहन सरिता–सागर अपार।
कर से चिनगारी फेंक–फेंक
जग फूंक रहा था बार–बार।।8।।

गिरि के रोड़े अंगार बने
भुनते थे शेर कछारों में।
इससे भी ज्वाला अधिक रही
उन वीर–व्रती तलवारों में।।9।।

आतप की ज्वाला से छिपकर
बैठे थे संगर–वीर भील।
पर्वत पर तरू की छाया में
थे बहस कर रहे रण धीर भील।।10।
उन्नत मस्तक कर कहते थे
ले–लेकर कुन्त कमान तीर।
मां की रक्षा के लिए आज
अर्पण है यह नश्वर शरीर।।11।।

हम अपनी इन करवालों को
शोणित का पान करा देंगे।
हम काट–काटकर बैरी सिर
संगर–भू पर बिखरा देंगे।।12।।

हल्दीघाटी के प्रांगण में
हम लहू–लहू लहरा देंगे।
हम कोल–भील¸ हम कोल–भील
हम रक्त–ध्वजा फहरा देंगे।।13।।

यह कहते ही उन भीलों के
सिर पर भ्ौरव–रणभूत चढ़ा।
उनके उर का संगर–साहस
दूना–तिगुना–चौगुना बढ़ा।।14।।

इतने में उनके कानों में
भीषण आंधी सी हहराई।
मच गया अचल पर कोलाहल
सेना आई¸ सेना आई।।15।।

कितने पैदल कितने सवार
कितने स्पन्दन जोड़े जोड़े।
कितनी सेना¸ कितने नायक¸
कितने हाथी¸ कितने घोड़े।।16।।

कितने हथियार लिये सैनिक
कितने सेनानी तोप लिये।
आते कितने झण्डे ले¸ ले
कितने राणा पर कोप किये।।17।।

कितने कर में करवाल लिये
कितने जन मुग्दर ढाल लिये।
कितने कण्टक–मय जाल लिये¸
कितने लोहे के फाल लिये।।18।।

कितने खंजर–भाले ले¸ ले¸
कितने बरछे ताजे ले¸ ले।
पावस–नद से उमड़े आते¸
कितने मारू बाजे ले–ले।।19।।

कितने देते पैतरा वीर
थे बने तुरग कितने समीर।
कितने भीषण–रव से मतंग
जग को करते आते अधीर।।20।।

देखी न सुनी न¸ किसी ने भी
टिड्डी–दल सी इतनी सेना।
कल–कल करती¸ आगे बढ़ती
आती अरि की जितनी सेना।।21।।

अजमेर नगर से चला तुरत
खमनौर–निकट बस गया मान।
बज उठा दमामा दम–दम–दम
गड़ गया अचल पर रण–निशान।।22
भीषण–रव से रण–डंका के
थर–थर अवनी–तल थहर उठा।
गिरि–गुहा कन्दरा का कण–कण
घन–घोर–नाद से घहर उठा।।23।।

बोले चिल्लाकर कोल–भील
तलवार उठा लो बढ़ आई।
मेरे शूरो¸ तैयार रहो
मुगलों की सेना चढ़ आई।।24।।

चमका–चमका असि बिजली सम
रंग दो शोणित से पर्वत कण।
जिससे स्वतन्त्र रह रहे देश
दिखला दो वही भयानक रण।।25।।

हम सब पर अधिक भरोसा है
मेवाड़–देश के पानी का।
वीरो¸ निज को कुबार्न करी
है यही समय कुबार्नी का।।26।।

भौरव–धनु की टंकार करो
तम शेष सदृश फुंकार करो।
अपनी रक्षा के लिए उठो
अब एक बार हुंकार करो।।27।।

भीलों के कल–कल करने से
आया अरि–सेनाधीश सुना।
बढ़ गया अचानक पहले से
राणा का साहस बीस गुना।।28।।

बोला नरसिंहो¸ उठ जाओ
इस रण–वेला रमणीया में।
चाहे जिस हालत में जो हो
जाग्रति में¸ स्वप्न–तुरिया में।।29।।

जिस दिन के लिए जन्म भर से
देते आते रण–शिक्षा हम।
वह समय आ गया करते थे
जिसकी दिन–रात प्रतीक्षा हम।।30।।

अब सावधान¸ अब सावधान¸
वीरो¸ हो जाओ सावधान।
बदला लेने आ गया मान
कर दो उससे रण धमासान।।31।।

सुनकर सैनिक तनतना उठे
हाथी–हय–दल पनपना उठे।
हथियारों से भिड़ जाने को
हथियार सभी झनझना उठे।।32।।

गनगना उठे सातंक लोक
तलवार म्यान से कढ़ते ही।
शूरों के रोएं फड़क उठे
रण–मन्त्र वीर के पढ़ते ही।।33।।

अब से सैनिक राणा का
दरबार लगा रहता था।
दरबान महीधर बनकर
दिन–रात जगा रहता था।।34।।

 

       दशम सर्ग

 

तरू–वेलि–लता–मय
पर्वत पर निर्जन वन था।
निशि वसती थी झुरमुट में
वह इतना घोर सघन था।।1।।

पत्तों से छन–छनकर थी
आती दिनकर की लेखा।
वह भूतल पर बनती थी
पतली–सी स्वर्णिम रेखा।।2।।

लोनी–लोनी लतिका पर
अविराम कुसुम खिलते थे।
बहता था मारूत¸ तरू–दल
धीरे–धीरे हिलते थे।।3।।

नीलम–पल्लव की छवि से
थी ललित मंजरी–काया।
सोती थी तृण–शय्या पर
कोमल रसाल की छाया।।4।।

मधु पिला–पिला तरू–तरू को
थी बना रही मतवाला।
मधु–स्नेह–वलित बाला सी
थी नव मधूक की माला।।5।।

खिलती शिरीष की कलियां
संगीत मधुर झुन–रून–झुन।
तरू–मिस वन झूम रहा था
खग–कुल–स्वर–लहरी सुन–सुन।।6।।

मां झूला झूल रही थी
नीमों के मृदु झूलों पर।
बलिदान–गान गाते थे
मधुकर बैठे फूलों पर।।7।।

थी नव–दल की हरियाली
वट–छाया मोद–भरी थी¸
नव अरूण–अरूण गोदों से
पीपल की गोद भरी थी।।8।।

कमनीय कुसुम खिल–खिलकर
टहनी पर झूल रहे थे।
खग बैठे थे मन मारे
सेमल–तरू फूल रहे थे।।9।।

इस तरह अनेक विटप थे
थी सुमन–सुरभि की माया।
सुकुमार–प्रकृति ने जिनकी
थी रची मनोहर काया।।10।।

बादल ने उनको सींचा
दिनकर–कर ने गरमी दी।
धीरे–धीरे सहलाकर¸
मारूत ने जीवन–श्री दी।।11।
मीठे मीठे फल खाते
शाखामृग शाखा पर थे।
शक देख–देख होता था
वे वानर थे वा नर थे।।12।।

फल कुतर–कुतर खाती थीं
तरू पर बैठी गिलहरियां।
पंचम–स्वर में गा उठतीं
रह–रहकर वन की परियां।।13।।

चह–चह–चह फुदक–फुदककर
डाली से उस डाली पर।
गाते थे पक्षी होकर
न्योछावर वनमाली पर।।14।।

चरकर¸ पगुराती मां को
दे सींग ढकेल रहे थे।
कोमल–कोमल घासों पर
मृग–छौने खेल रहे थे।।15।।

अधखुले नयन हरिणी के
मृदु–काय हरिण खुजलाते।
झाड़ी में उलझ–उलझ कर
बारहसिंगों झुंझलाते।।16।।

वन धेनु–दूध पीते थे
लैरू दुम हिला–हिला कर।
मां उनको चाट रही थीं
तन से तन मिला–मिलाकर।।17।।

चीते नन्हें शिशु ले–ले
चलते मन्थर चालों से।
क्रीड़ा करते थे नाहर
अपने लघु–लघु बालों से।।18।।

झरनों का पानी लेकर
गज छिड़क रहे मतवाले।
मानो जल बरस रहे हों
सावन–घन काले–काले।।19।।

भैंसे भू खोद रहे थे
आ¸ नहा–नहा नालों से।
थे केलि भील भी करते
भालों से¸ करवालों से।।20।।

नव हरी–हरी दूबों पर
बैठा था भीलों का दल।
निर्मल समीप ही निझर्र
बहता था¸ कल–कल छल–छल।।21।
ले सहचर मान शिविर से
निझर्र के तीरे–तीरे।
अनिमेष देखता आया
वन की छवि धीरे–धीरे।।22।।

उसने भीलों को देखा
उसको देखा भीलों ने।
तन में बिजली–सी दौड़ी
वन लगा भयावह होने।।23।।

शोणित–मय कर देने को
वन–वीथी बलिदानों से।
भीलों ने भाले ताने
असि निकल पड़ी म्यानों से।।24।।

जय–जय केसरिया बाबा
जय एकलिंग की बोले।
जय महादेव की ध्वनि से
पर्वत के कण–कण डोले।।25।।

ललकार मान को घ्ोरा
हथकड़ी पिन्हा देने को।
तरकस से तीर निकाले
अरि से लोहा लेने को।।26।।

वैरी को मिट जाने में
अब थी क्षण भर की देरी।
तब तक बज उठी अचानक
राणा प्रताप की भेरी।।27।।

वह अपनी लघु–सेना ले
मस्ती से घूम रहा था।
रण–भेरी बजा–बजाकर
दीवाना झूम रहा था।।28।।

लेकर केसरिया झण्डा
वह वीर–गान था गाता।
पीछे सेना दुहराती
सारा वन था हहराता।।29।।

गाकर जब आंखें फेरी
देखा अरि को बन्धन में।
विस्मय–चिन्ता की ज्वाला
भभकी राणा के मन में।।30।।

लज्जा का बोझा सिर पर
नत मस्तक अभिमानी था।
राणा को देख अचानक
वैरी पानी–पानी था।।31।।

दौड़ा अपने हाथों से
जाकर अरि–बन्धन खोला।
वह वीर–व्रती नर–नाहर
विस्मित भीलों से बोला।।32।।

्”मेवाड़ देश के भीलो¸
यह मानव–धर्म नहीं है।
जननी–सपूत रण–कोविद
योधा का कर्म नहीं है।्”।।33।।

अरि को भी धोखा देना
शूरों की रीति नहीं है।
छल से उनको वश करना
यह मेरी नीति नहीं है।।34।।

अब से भी झुक–झुककर तुम
सत्कार समेत बिदा दो।
कर क्षमा–याचना इनको
गल–हार समेत बिदा दो।”।।35।।

आदेश मान भीलों ने
सादर की मान–बिदाई।
ले चला घट पीड़ा की
जो थी उर–नभ पर छाई।।36।।

भीलों से बातें करता
सेना का व्यूह बनाकर।
राणा भी चला शिविर को
अपना गौरव दिखलाकर।।37।।

था मान सोचता¸ दुख देता
भीलों का अत्याचार मुझे।
अब कल तक चमकानी होगी
वह बिजली–सी तलवार मुझे।।38।।

है त्रपा–भार से दबा रहा
राणा का मृदु–व्यवहार मुझे।
कल मेरी भयद बजेगी ही।
रण–विजय मिले या हार मुझे।।39।।

 

        एकादश सर्ग

 

में जाग्रति पैदा कर दूं¸
वह मन्त्र नहीं¸ वह तन्त्र नहीं।
कैसे वांछित कविता कर दूं¸
मेरी यह कलम स्वतन्त्र नहीं।।1।।

अपने उर की इच्छा भर दूं¸
ऐसा है कोई यन्त्र नहीं।
हलचल–सी मच जाये पर
यह लिखता हूं रण षड््यन्त्र नहीं।।2।।

ब्राह्मण है तो आंसूं भर ले¸
क्षत्रिय है नत मस्तक कर ले।
है वैश्य शूद्र तो बार–बार¸
अपनी सेवा पर शक कर ले।।3।।

दुख¸ देह–पुलक कम्पन होता¸
हा¸ विषय गहन यह नभ–सा है।
यह हृदय–विदारक वही समर
जिसका लिखना दुर्लभ–सा है।।4।।

फिर भी पीड़ा से भरी कलम¸
लिखती प्राचीन कहानी है।
लिखती हल्दीघाटी रण की¸
वह अजर–अमर कुबार्नी है।। 5।।

सावन का हरित प्रभात रहा
अम्बर पर थी घनघोर घटा।
फहरा कर पंख थिरकते थे
मन हरती थी वन–मोर–छटा।।6।।

पड़ रही फुही झीसी झिन–झिन
पर्वत की हरी वनाली पर।
‘पी कहां’ पपीहा बोल रहा
तरू–तरू की डाली–डाली पर।।7।।

वारिद के उर में चमक–दमक
तड़–तड़ बिजली थी तड़क रही।
रह–रह कर जल था बरस रहा
रणधीर–भुजा थी फड़क रही।।8।।

था मेघ बरसता झिमिर–झिमिर
तटिनी की भरी जवानी थी।
बढ़ चली तरंगों की असि ले
चण्डी–सी वह मस्तानी थी।।9।।

वह घटा चाहती थी जल से
सरिता–सागर–निझर्र भरना।
यह घटा चाहती शोणित से
पर्वत का कण–कण तर करना।।10।।

धरती की प्यास बुझाने को
वह घहर रही थी घन–सेना।
लोहू पीने के लिए खड़ी
यह हहर रही थी जन–सेना।।11।।

नभ पर चम–चम चपला चमकी¸
चम–चम चमकी तलवार इधर।
भ्ौरव अमन्द घन–नाद उधर¸
दोनों दल की ललकार इधर।।12।।

वह कड़–कड़–कड–कड़ कड़क उठी¸
यह भीम–नाद से तड़क उठी।
भीषण–संगर की आग प्रबल
बैरी–सेना में भड़क उठी।।13।।

डग–डग–डग–डग रण के डंके
मारू के साथ भयद बाजे।
टप–टप–टप घोड़े कूद पड़े¸
कट–कट मतंग के रद बाजे।।14।।

कलकल कर उठी मुगल सेना
किलकार उठी¸ ललकार उठी।
असि म्यान–विवर से निकल तुरत
अहि–नागिन–सी फुफकार उठी।।15।।

शर–दण्ड चले¸ कोदण्ड चले¸
कर की कटारियां तरज उठीं।
खूनी बरछे–भाले चमके¸
पर्वत पर तोपें गरज उठीं।।16।।

फर–फर–फर–फर–फर फहर उठा
अकबर का अभिमानी निशान।
बढ़ चला कटक लेकर अपार
मद–मस्त द्विरद पर मस्त–मान।।17।।

कोलाहल पर कोलाहल सुन
शस्त्रों की सुन झनकार प्रबल।
मेवाड़–केसरी गरज उठा
सुनकर अरि की ललकार प्रबल।।18।
हर एकलिंग को माथ नवा
लोहा लेने चल पड़ा वीर।
चेतक का चंचल वेग देख
था महा–महा लiज्जत समीर।।19।।

लड़–लड़कर अखिल महीतल को
शोणित से भर देनेवाली¸
तलवार वीर की तड़प उठी
अरि–कण्ठ कतर देनेवाली।।20।।

राणा का ओज भरा आनन
सूरज–समान चमचमा उठा।
बन महाकाल का महाकाल
भीषण–भाला दमदमा उठा।।21।।

मेरी प्रताप की बजी तुरत
बज चले दमामे धमर–धमर।
धम–धम रण के बाजे बाजे¸
बज चले नगारे घमर–घमर।।22।।

जय रूद्र बोलते रूद्र–सदृश
खेमों से निकले राजपूत।
झट झंडे के नीचे आकर
जय प्रलयंकर बोले सपूत।।23।।

अपने पैने हथियार लिये
पैनी पैनी तलवार लिये।
आये खर–कुन्त–कटार लिये
जननी सेवा का भार लिये।।24।।

कुछ घोड़े पर कुछ हाथी पर¸
कुछ योधा पैदल ही आये।
कुछ ले बरछे कुछ ले भाले¸
कुछ शर से तरकस भर लाये।।25।।

रण–यात्रा करते ही बोले
राणा की जय¸ राणा की जय।
मेवाड़–सिपाही बोल उठे
शत बार महाराणा की जय।।26।।

हल्दीघाटी के रण की जय¸
राणा प्रताप के प्रण की जय।
जय जय भारतमाता की जय¸
मेवाड़–देश–कण–कण की जय।।27।
हर एकलिंग¸ हर एकलिंग
बोला हर–हर अम्बर अनन्त।
हिल गया अचल¸ भर गया तुरंत
हर हर निनाद से दिiग्दगन्त।।28।।

घनघोर घटा के बीच चमक
तड़ तड़ नभ पर तड़ित तड़की।
झन–झन असि की झनकार इधर
कायर–दल की छाती धड़की।।29।।

अब देर न थी वैरी–वन में
दावानल के सम छूट पड़े।
इस तरह वीर झपटे उन पर
मानों हरि मृग पर टूट पड़े।।30।।

मरने कटने की बान रही
पुश्तैनी इससे आह न की।
प्राणों की रंचक चाह न की
तोपों की भी परवाह न की।।31।।

रण–मत्त लगे बढ़ने आगे
सिर काट–काट करवालों से।
संगर की मही लगी पटने
क्षण–क्षण अरि–कंठ–कपालों से।।32।
हाथी सवार हाथी पर थे¸
बाजी सवार बाजी पर थे।
पर उनके शोणित–मय मस्तक
अवनी पर मृत–राजी पर थे।।33।।

कर की असि ने आगे बढ़कर
संगर–मतंग–सिर काट दिया।
बाजी वक्षस्थल गोभ–गोभ
बरछी ने भूतल पाट दिया।।34।।

गज गिरा¸ मरा¸ पिलवान गिरा¸
हय कटकर गिरा¸ निशान गिरा।
कोई लड़ता उत्तान गिरा¸
कोई लड़कर बलवान गिरा।।35।।

झटके से शूल गिरा भू पर
बोला भट मेरा शूल कहां
शोणित का नाला बह निकला¸
अवनी–अम्बर पर धूल कहां।।36।।

आंखों में भाला भोंक दिया
लिपटे अन्धे जन अन्धों से।
सिर कटकर भू पर लोट लोट
लड़ गये कबन्ध कबन्धों से।।37।।

अरि–किन्तु घुसा झट उसे दबा¸
अपन सीने के पार किया।
इस तरह निकट बैरी–उर को
कर–कर कटार से फार दिया।।38।।

कोई खरतर करवाल उठा
सेना पर बरस आग गया।
गिर गया शीश कटकर भू पर
घोड़ा धड़ लेकर भाग गया।।39।।

कोई करता था रक्त वमन¸
छिद गया किसी मानव का तन।
कट गया किसी का एक बाहु¸
कोई था सायक–विद्ध नयन।।40।।

गिर पड़ा पीन गज¸ फटी धरा¸
खर रक्त–वेग से कटी धरा।
चोटी–दाढ़ी से पटी धरा¸
रण करने को भी घटी धरा।।41।।

तो भी रख प्राण हथेली पर
वैरी–दल पर चढ़ते ही थे।
मरते कटते मिटते भी थे¸
पर राजपूत बढ़ते ही थे।।42।।

राणा प्रताप का ताप तचा¸
अरि–दल में हाहाकर मचा।
भेड़ों की तरह भगे कहते
अल्लाह हमारी जान बचा।।43।।

अपनी नंगी तलवारों से
वे आग रहे हैं उगल कहां।
वे कहां शेर की तरह लड़ें¸
हम दीन सिपाही मुगल कहां।।44।।

भयभीत परस्पर कहते थे
साहस के साथ भगो वीरो!
पीछे न फिरो¸ न मुड़ो¸ न कभी
अकबर के हाथ लगो वीरो!।।45।।

यह कहते मुगल भगे जाते¸
भीलों के तीर लगे जाते।
उठते जाते¸ गिरते जाते¸
बल खाते¸ रक्त पगे जाते।।46।।

आगे थी अगम बनास नदी¸
वर्षा से उसकी प्रखर धार।
थी बुला रही उनको शत–शत
लहरों के कर से बार–बार।।47।।

पहले सरिता को देख डरे¸
फिर कूद–कूद उस पार भगे।
कितने बह–बह इस पार लगे¸
कितने बहकर उस पार लगे।।49।।

मंझधार तैरते थे कितने¸
कितने जल पी–पी ऊब मरे।
लहरों के कोड़े खा–खाकर
कितने पानी में डूब मरे।।50।।

राणा–दल की ललकार देख¸
अपनी सेना की हार देख।
सातंक चकित रह गया मान¸
राणा प्रताप के वार देख।।51।।

व्याकुल होकर वह बोल उठा
्”लौटो लौटो न भगो भागो।
मेवाड़ उड़ा दो तोप लगा
ठहरो–ठहरो फिर से जागो।।52।।

देखो आगे बढ़ता हूं मैं¸
बैरी–दल पर चढ़ता हूं मैं।
ले लो करवाल बढ़ो आगे
अब विजय–मन्त्र पढ़ता हूं मैं।्”।।53।।

भगती सेना को रोक तुरत
लगवा दी भ्ौरव–काय तोप।
उस राजपूत–कुल–घातक ने
हा¸ महाप्रलय–सा दिया रोप।।54।।

फिर लगी बरसने आग सतत््
उन भीम भयंकर तोपों से।
जल–जलकर राख लगे होने
योद्धा उन मुगल–प्रकोपों से।।55।।

भर रक्त–तलैया चली उधर¸
सेना–उर में भर शोक चला।
जननी–पद शोणित से धो–धो
हर राजपूत हर–लोक चला।56।।

क्षणभर के लिये विजय दे दी
अकबर के दारूण दूतों को।
माता ने अंचल बिछा दिया
सोने के लिए सपूतों को।।57।।

विकराल गरजती तोपों से
रूई–सी क्षण–क्षण धुनी गई।
उस महायज्ञ में आहुति–सी
राणा की सेना हुनी गई।।58।।

बच गये शेष जो राजपूत
संगर से बदल–बदलकर रूख।
निरूपाय दीन कातर होकर
वे लगे देखने राणा–मुख।।59।।

राणा–दल का यह प्रलय देख¸
भीषण भाला दमदमा उठा।
जल उठा वीर का रोम–रोम¸
लोहित आनन तमतमा उठा।।60।।

वह क्रोध वह्नि से जल भुनकर
काली–कटाक्ष–सा ले कृपाण।
घायल नाहर–सा गरज उठा
क्षण–क्षण बिखेरते प्रखर बाण।।61।।

बोला “आगे बढ़ चलो शेर¸
मत क्षण भर भी अब करो देर।
क्या देख रहे हो मेरा मुख
तोपों के मुंह दो अभी फेर।”।।62।।

बढ़ चलने का सन्देश मिला¸
मर मिटने का उपदेश मिला।
“दो फेर तोप–मुख्” राणा से
उन सिंहों को आदेश मिला।।63।।

गिरते जाते¸ बढ़ते जाते¸
मरते जाते चढ़ते जाते।
मिटते जाते¸ कटते जाते¸
गिरते–मरते मिटते जाते।।64।।

बन गये वीर मतवाले थे
आगे वे बढ़ते चले गये।
राणा प्रताप की जय करते
तोपों तक चढ़ते चले गये।।65।।

उन आग बरसती तोपों के
मुंह फेर अचानक टूट पड़े।
बैरी–सेना पर तड़प–तड़प
मानों शत–शत पत्रि छूट पड़े।।66।।

फिर महासमर छिड़ गया तुरत
लोहू–लोहित हथियारों से।
फिर होने लगे प्रहार वार
बरछे–भाले तलवारों से।।67।।

शोणित से लथपथ ढालों से¸
करके कुन्तल¸ करवालों से¸
खर–छुरी–कटारी फालों से¸
भू भरी भयानक भालों से।।68।।

गिरि की उन्नत चोटी से
पाषाण भील बरसाते।
अरि–दल के प्राण–पखेरू
तन–पिंजर से उड़ जाते।।69।।

कोदण्ड चण्ड–रव करते
बैरी निहारते चोटी।
तब तक चोटीवालों ने
बिखरा दी बोटी–बोटी।।70।।

अब इसी समर में चेतक
मारूत बनकर आयेगा।
राणा भी अपनी असि का¸
अब जौहर दिखलायेगा।।71।।

 

द्वादश सर्ग

 

ल बकरों से बाघ लड़े¸
भिड़ गये सिंह मृग–छौनों से।
घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी¸
पैदल बिछ गये बिछौनों से।।1।।

हाथी से हाथी जूझ पड़े¸
भिड़ गये सवार सवारों से।
घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े¸
तलवार लड़ी तलवारों से।।2।।

हय–रूण्ड गिरे¸ गज–मुण्ड गिरे¸
कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे।
लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे¸
भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे।।3।।

क्षण महाप्रलय की बिजली सी¸
तलवार हाथ की तड़प–तड़प।
हय–गज–रथ–पैदल भगा भगा¸
लेती थी बैरी वीर हड़प।।4।।

क्षण पेट फट गया घोड़े का¸
हो गया पतन कर कोड़े का।
भू पर सातंक सवार गिरा¸
क्षण पता न था हय–जोड़े का।।5।।

चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी¸
लेकर अंकुश पिलवान गिरा।
झटका लग गया¸ फटी झालर¸
हौदा गिर गया¸ निशान गिरा।।6।।

कोई नत–मुख बेजान गिरा¸
करवट कोई उत्तान गिरा।
रण–बीच अमित भीषणता से¸
लड़ते–लड़ते बलवान गिरा।।7।।

होती थी भीषण मार–काट¸
अतिशय रण से छाया था भय।
था हार–जीत का पता नहीं¸
क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय।।8
कोई व्याकुल भर आह रहा¸
कोई था विकल कराह रहा।
लोहू से लथपथ लोथों पर¸
कोई चिल्ला अल्लाह रहा।।9।।

धड़ कहीं पड़ा¸ सिर कहीं पड़ा¸
कुछ भी उनकी पहचान नहीं।
शोणित का ऐसा वेग बढ़ा¸
मुरदे बह गये निशान नहीं।।10।।

मेवाड़–केसरी देख रहा¸
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़–दौड़ करता था रण¸
वह मान–रक्त का प्यासा था।।11।।

चढ़कर चेतक पर घूम–घूम
करता मेना–रखवाली था।
ले महा मृत्यु को साथ–साथ¸
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।।12।।

रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर
चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से¸
पड़ गया हवा को पाला था।।13।।

गिरता न कभी चेतक–तन पर¸
राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर¸
या आसमान पर घोड़ा था।।14।।

जो तनिक हवा से बाग हिली¸
लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं¸
तब तक चेतक मुड़ जाता था।।15।।

कौशल दिखलाया चालों में¸
उड़ गया भयानक भालों में।
निभीर्क गया वह ढालों में¸
सरपट दौड़ा करवालों में।।16।।

है यहीं रहा¸ अब यहां नहीं¸
वह वहीं रहा है वहां नहीं।
थी जगह न कोई जहां नहीं¸
किस अरि–मस्तक पर कहां नहीं।।17।
बढ़ते नद–सा वह लहर गया¸
वह गया गया फिर ठहर गया।
विकराल ब्रज–मय बादल–सा
अरि की सेना पर घहर गया।।18।।

भाला गिर गया¸ गिरा निषंग¸
हय–टापों से खन गया अंग।
वैरी–समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग।।19।।

चढ़ चेतक पर तलवार उठा
रखता था भूतल–पानी को।
राणा प्रताप सिर काट–काट
करता था सफल जवानी को।।20।।

कलकल बहती थी रण–गंगा
अरि–दल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी
चटपट उस पार लगाने को।।21।।

वैरी–दल को ललकार गिरी¸
वह नागिन–सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो¸बचो¸
तलवार गिरी¸ तलवार गिरी।।22।।

पैदल से हय–दल गज–दल में
छिप–छप करती वह विकल गई!
क्षण कहां गई कुछ¸ पता न फिर¸
देखो चमचम वह निकल गई।।23।।

क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸
क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई।
था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸
क्षण शोर हो गया किधर गई।।24।।

क्या अजब विषैली नागिन थी¸
जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर¸
फैला शरीर में जहर नहीं।।25।।

थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸
वह बरछी–असि खरधार कहीं।
वह आग कहीं अंगार कहीं¸
बिजली थी कहीं कटार कहीं।।26।।

लहराती थी सिर काट–काट¸
बल खाती थी भू पाट–पाट।
बिखराती अवयव बाट–बाट
तनती थी लोहू चाट–चाट।।27।।

सेना–नायक राणा के भी
रण देख–देखकर चाह भरे।
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे
दूने–तिगुने उत्साह भरे।।28।।

क्षण मार दिया कर कोड़े से
रण किया उतर कर घोड़े से।
राणा रण–कौशल दिखा दिया
चढ़ गया उतर कर घोड़े से।।29।।

क्षण भीषण हलचल मचा–मचा
राणा–कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह
रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी।।30।।

वह हाथी–दल पर टूट पड़ा¸
मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू¸ ऐसा
शोणित का नाला फूट पड़ा।।31।।

जो साहस कर बढ़ता उसको
केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ–बीच फेंक¸
बरछे पर उसको रोक दिया।।32।।

क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸
क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते
क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर।।33।।

क्षण भर में गिरते रूण्डों से
मदमस्त गजों के झुण्डों से¸
घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸
पट गई भूमि नर–मुण्डों से।।34।।

ऐसा रण राणा करता था
पर उसको था संतोष नहीं
क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह
पर कम होता था रोष नहीं।।35।।

कहता था लड़ता मान कहां
मैं कर लूं रक्त–स्नान कहां।
जिस पर तय विजय हमारी है
वह मुगलों का अभिमान कहां।।36।।

भाला कहता था मान कहां¸
घोड़ा कहता था मान कहां?
राणा की लोहित आंखों से
रव निकल रहा था मान कहां।।37।।

लड़ता अकबर सुल्तान कहां¸
वह कुल–कलंक है मान कहां?
राणा कहता था बार–बार
मैं करूं शत्रु–बलिदान कहां?।।38।।

तब तक प्रताप ने देख लिया
लड़ रहा मान था हाथी पर।
अकबर का चंचल साभिमान
उड़ता निशान था हाथी पर।।39।।

वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा¸
अपने दल को था बढ़ा रहा।
वह भीषण समर–भवानी को
पग–पग पर बलि था चढ़ा रहा।।40।
फिर रक्त देह का उबल उठा
जल उठा क्रोध की ज्वाला से।
घोड़ा से कहा बढ़ो आगे¸
बढ़ चलो कहा निज भाला से।।41।।

हय–नस नस में बिजली दौड़ी¸
राणा का घोड़ा लहर उठा।
शत–शत बिजली की आग लिये
वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा।।42।।

क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸
ज्वर सiन्नपात लकवा था वह।
था शोर बचो घोड़ा–रण से
कहता हय कौन¸ हवा था वह।।43।।

तनकर भाला भी बोल उठा
राणा मुझको विश्राम न दे।
बैरी का मुझसे हृदय गोभ
तू मुझे तनिक आराम न दे।।44।।

खाकर अरि–मस्तक जीने दे¸
बैरी–उर–माला सीने दे।
मुझको शोणित की प्यास लगी
बढ़ने दे¸ शोणित पीने दे।।45।।

मुरदों का ढेर लगा दूं मैं¸
अरि–सिंहासन थहरा दूं मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दे
शोणित सागर लहरा दूं मैं।।46।।

रंचक राणा ने देर न की¸
घोड़ा बढ़ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सिर काट–काट
राणा चढ़ आया हाथी पर।।47।।

गिरि की चोटी पर चढ़कर
किरणों निहारती लाशें¸
जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸
कुछ की चलती थी सांसें।।48।।

वे देख–देख कर उनको
मुरझाती जाती पल–पल।
होता था स्वर्णिम नभ पर
पक्षी–क्रन्दन का कल–कल।।49।।

मुख छिपा लिया सूरज ने
जब रोक न सका रूलाई।
सावन की अन्धी रजनी
वारिद–मिस रोती आई।।50।।

 

त्रयोदश सर्ग

 

कुछ बचे सिपाही शेष¸
हट जाने का दे आदेश।
अपने भी हट गया नरेश¸
वह मेवाड़–गगन–राकेश।।1।।

बनकर महाकाल का काल¸
जूझ पड़ा अरि से तत्काल।
उसके हाथों में विकराल¸
मरते दम तक थी करवाल।।2।।

उसपर तन–मन–धन बलिहार
झाला धन्य¸ धन्य परिवार।
राणा ने कह–कह शत–बार¸
कुल को दिया अमर अधिकार।।3।।

हाय¸ ग्वालियर का सिरताज¸
सेनप रामसिंह अधिराज।
उसका जगमग जगमग ताज¸
शोणित–रज–लुiण्ठत है आज।।4।।

राजे–महराजे–सरदार¸
जो मिट गये लिये तलवार।
उनके तर्पण में अविकार¸
आंखों से आंसू की धार।।5।।

बढ़ता जाता विकल अपार
घोड़े पर हो व्यथित सवार।
सोच रहा था बारम्बार¸
कैसे हो मां का उद्धार।।6।।

मैंने किया मुगल–बलिदान¸
लोहू से लोहित मैदान।
बचकर निकल गया पर मान¸
पूरा हो न सका अरमान।।7।।

कैसे बचे देश–सम्मान
कैसे बचा रहे अभिमान!
कैसे हो भू का उत्थान¸
मेरे एकलिंग भगवान।।8।।

स्वतन्त्रता का झगड़ा तान¸
कब गरजेगा राजस्थान!
उधर उड़ रहा था वह वाजि¸
स्वामी–रक्षा का कर ध्यान।।9।।

उसको नद–नाले–चट्टान¸
सकते रोक न वन–वीरान।
राणा को लेकर अविराम¸
उसको बढ़ने का था ध्यान।।10।।

पड़ी अचानक नदी अपार¸
घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार¸
तब तक चेतक था उस पार।।11।।

शक्तसिंह भी ले तलवार
करने आया था संहार।
पर उमड़ा राणा को देख
भाई–भाई का मधु प्यार।।12।।

चेतक के पीछे दो काल¸
पड़े हुए थे ले असि ढाल।
उसने पथ में उनको मार¸
की अपनी पावन करवाल।।13।।

आगे बढ़कर भुजा पसार¸
बोला आंखों से जल ढार।
रूक जा¸ रूक जा¸ ऐ तलवार¸
नीला–घोड़ारा असवार।।14।।

पीछे से सुन तार पुकार¸
फिरकर देखा एक सवार।
हय से उतर पड़ा तत्काल¸
लेकर हाथों में तलवार।।15।।

राणा उसको वैरी जान¸
काल बन गया कुन्तल तान।
बोला ्”कर लें शोणित पान¸
आ¸ तुझको भी दें बलिदान्”।।16।।

पर देखा झर–झर अविकार
बहती है आंसू की धार।
गर्दन में लटकी तलवार¸
घोड़े पर है शक्त सवार।।17।।

उतर वहीं घोड़े को छोड़¸
चला शक्त कम्पित कर जोड़।
पैरों पर गिर पड़ा विनीत¸
बोला धीरज बन्धन तोड़।।18।।

“करूणा कर तू करूणागार¸
दे मेरे अपराध बिसार।
या मेरा दे गला उतार¸
“तेरे कर में हैं तलवार्”।।19।।

यह कह–कहकर बारंबार¸
सिसकी भरने लगा अपार।
राणा भी भूला संसार¸
उमड़ा उर में बन्धु दुलार।।20।।

उसे उठाकर लेकर गोद¸
गले लगाया सजल–समोद।
मिलता था जो रज में प्रेम¸
किया उसे सुरभित–सामोद।।21।।

लेकर वन्य–कुसुम की धूल¸
बही हवा मन्थर अनुकूल।
दोनों के सिर पर अविराम¸
पेड़ों ने बरसाये फूल।।22।।

कल–कल छल–छल भर स्वर–तान¸
कहकर कुल–गौरव–अभिमान।
नाले ने गाया स–तरंग¸
उनके निर्मल यश का गाना।।23।।

तब तक चेतक कर चीत्कार¸
गिरा धर पर देह बिसार।
लगा लोटने बारम्बार¸
बहने लगी रक्त की धार।।24।।

बरछे–असि–भाले गम्भीर¸
तन में लगे हुए थे तीर।
जर्जर उसका सकल शरीर¸
चेतक था व्रण–व्यथित अधीर।।25।।

करता धावों पर दृग–कोर¸
कभी मचाता दुख से शोर।
कभी देख राणा की ओर¸
रो देता¸ हो प्रेम–विभोर।।26।।

लोट–लोट सह व्यथा महान््¸
यश का फहरा अमर–निशान।
राणा–गोदी में रख शीश
चेतक ने कर दिया पयान।।27।।

घहरी दुख की घटा नवीन¸
राणा बना विकल बल–हीन।
लगा तलफने बारंबार
जैसे जल–वियोग से मीन।।28।।

“हां! चेतक¸ तू पलकें खोल¸
कुछ तो उठकर मुझसे बोल।
मुझको तू न बना असहाय
मत बन मुझसे निठुर अबोल।।29।।

मिला बन्धु जो खोकर काल
तो तेरा चेतक¸ यह हाल!
हा चेतक¸ हा चेतक¸ हाय्”¸
कहकर चिपक गया तत्काल।।30।।

“अभी न तू तुझसे मुख मोड़¸
न तू इस तरह नाता तोड़।
इस भव–सागर–बीच अपार
दुख सहने के लिए न छोड़।।31।।

बैरी को देना परिताप¸
गज–मस्तक पर तेरी टाप।
फिर यह तेरी निद्रा देख
विष–सा चढ़ता है संताप।।32।।

हाय¸ पतन में तेरा पात¸
क्षत पर कठिन लवण–आघात।
हा¸ उठ जा¸ तू मेरे बन्धु¸
पल–पल बढ़ती आती रात।।33।।

चला गया गज रामप्रसाद¸
तू भी चला बना आजाद।
हा¸ मेरा अब राजस्थान
दिन पर दिन होगा बरबाद।।34।।

किस पर देश करे अभिमान¸
किस पर छाती हो उत्तान।
भाला मौन¸ मौन असि म्यान¸
इस पर कुछ तो कर तू ध्यान।।35।।

लेकर क्या होगा अब राज¸
क्या मेरे जीवन का काज?्”
पाठक¸ तू भी रो दे आज
रोता है भारत–सिरताज।।36।।

तड़प–तड़प अपने नभ–गेह
आंसू बहा रहा था मेह।
देख महाराणा का हाल
बिजली व्याकुल¸ कम्पित देह।।37।।

घुल–घुल¸ पिघल–पिघलकर प्राण¸
आंसू बन–बनकर पाषाण।
निझर्र–मिस बहता था हाय
हा¸ पर्वत भी था मि`यमाण।।38।।

क्षण भर ही तक था अज्ञान¸
चमक उठा फिर उर में ज्ञान।
दिया शक्त ने अपना वाजि¸
चढ़कर आगे बढ़ा महान््।।39।।

जहां गड़ा चेतक–कंकाल¸
हुई जहां की भूमि निहाल।
बहीं देव–मन्दिर के पास¸
चबूतरा बन गया विशाल।।40।।

होता धन–यौवन का हास¸
पर है यश का अमर–विहास।
राणा रहा न¸ वाजि–विलास¸
पर उनसे उज्ज्वल इतिहास।।41।।

बनकर राणा सदृश महान
सीखें हम होना कुबार्न।
चेतक सम लें वाजि खरीद¸
जननी–पद पर हों बलिदान।।42।।

आओ खोज निकाले यन्त्र
जिससे रहें न हम परतन्त्र।
फूंके कान–कान में मन्त्र¸
बन जायें स्वाधीन–स्वतन्त्र।।43।।

हल्दीघाटी–अवनी पर
सड़ती थीं बिखरी लाशें।
होती थी घृणा घृणा को¸
बदबू करती थीं लाशें।।44।।

 

चतुर्दश सर्ग:

 

भर तड़प–तड़पकर
घन ने आंसू बरसाया।
लेकर संताप सबेरे
धीरे से दिनकर आया।।1।।

था लाल बदन रोने से
चिन्तन का भार लिये था।
शव–चिता जलाने को वह
कर में अंगार लिये था।।2।।

निशि के भीगे मुरदों पर
उतरी किरणों की माला।
बस लगी जलाने उनको
रवि की जलती कर–ज्वाला।।3।।

लोहू जमने से लोहित
सावन की नीलम घासें¸
सरदी–गरमी से सड़कर
बजबजा रही थीं लाशें।।4।।

आंखें निकाल उड़ जाते¸
क्षण भर उड़कर आ जाते¸
शव–जीभ खींचकर कौवे
चुभला–चुभलाकर खाते।।5।।

वर्षा–सिंचित विष्ठा को
ठोरों से बिखरा देते¸
कर कांव–कांव उसको भी
दो–चार कवर ले लेते।।6।।

गिरि पर डगरा डगराकर
खोपड़ियां फोर रहे थे।
मल–मूत्र–रूधिर चीनी के
शरबत सम घोर रहे थे।।7।।

भोजन में श्वान लगे थे
मुरदे थे भू पर लेटे।
खा मांस¸ चाट लेते थे
चटनी सम बहते नेटे।।8।।

लाशों के फार उदर को
खाते–खाते लड़ जाते।
पोटी पर थूथुन देकर
चर–चर–चर नसें चबाते।।9।।

तीखे दांतों से हय के
दांतों को तोर रहे थे।
लड़–लड़कर¸ झगड़–झगड़कर
वे हाड़ चिचोर रहे थे।।10।।

जम गया जहां लोहू था
कुत्ते उस लाल मही पर!
इस तरह टूटते जैसे
मार्जार सजाव दही पर।।11।।

लड़ते–लड़ते जब असि पर¸
गिरते कटकर मर जाते।
तब इतर श्वान उनको भी
पथ–पथ घसीटकर खाते।12।।

आंखों के निकले कींचर¸
खेखार–लार¸ मुरदों की।
सामोद चाट¸ करते थे
दुर्दशा मतंग–रदों की।।13।।

उनके न दांत धंसते थे
हाथी की दृढ़ खालों में।
वे कभी उलझ पड़ते थे
अरि–दाढ़ी के बालों में।।14।।

चोटी घसीट चढ़ जाते
गिरि की उन्नत चोटी पर।
गुर्रा–गुर्रा भिड़ते थे
वे सड़ी–गड़ी पोटी पर।।15।।

ऊपर मंडरा मंडराकर
चीलें बिट कर देती थीं।
लोहू–मय लोथ झपटकर
चंगुल में भर लेती थीं।।16।।

पर्वत–वन में खोहों में¸
लाशें घसीटकर लाते¸
कर गुत्थम–गुत्थ परस्पर
गीदड़ इच्छा भर खाते।।17।।

दिन के कारण छिप–छिपकर
तरू–ओट झाड़ियों में वे
इस तरह मांस चुभलाते
मानो हों मुख में मेवे।।18।।

खा मेदा सड़ा हुलककर
कर दिया वमन अवनी पर।
झट उसे अन्य जम्बुक ने
खा लिया खीर सम जी भर।।19।।

पर्वत–श्रृंगों पर बैठी
थी गीधों की पंचायत।
वह भी उतरी खाने की
सामोद जानकर सायत।।20।।

पीते थे पीव उदर की
बरछी सम चोंच घुसाकर¸
सानन्द घोंट जाते थे
मुख में शव–नसें घुलाकर।।21।।

हय–नरम–मांस खा¸ नर के
कंकाल मधुर चुभलाते।
कागद–समान कर–कर–कर
गज–खाल फारकर खाते।।22।।

इस तरह सड़ी लाशें खाकर
मैदान साफ कर दिया तुरत।
युग–युग के लिए महीधर में
गीधों ने भय भर दिया तुरत।।23।।

हल्दीघाटी संगर का तो
हो गया धरा पर आज अन्त।
पर¸ हा¸ उसका ले व्यथा–भार
वन–वन फिरता मेवाड़–कन्त।।24।।

 

पंचदश सर्ग

 

बीता पर्वत पर
नीलम घासें लहराई।
कासों की श्वेत ध्वजाएं
किसने आकर फहराई?।।1।।

नव पारिजात–कलिका का
मारूत आलिंगन करता
कम्पित–तन मुसकाती है
वह सुरभि–प्यार ले बहता।।2।।

कर स्नान नियति–रमणी ने¸
नव हरित वसन है पहना।
किससे मिलने को तन में
झिलमिल तारों का गहना।।3।।

पर्वत पर¸ अवनीतल पर¸
तरू–तरू के नीलम दल पर¸
यह किसका बिछा रजत–तट
सागर के वक्ष:स्थल पर।।4।।

वह किसका हृदय निकलकर
नीरव नभ पर मुसकाता?
वह कौन सुधा वसुधा पर
रिमझिम–रिमझिम बरसाता।।5।।

तारक मोती का गजरा
है कौन उसे पहनाता?
नभ के सुकुमार हृदय पर
वह किसको कौन रिझाता ।।6।।

पूजा के लिए किसी की
क्या नभ–सर कमल खिलाता?
गुदगुदा सती रजनी को
वह कौन छली इतराता।।7।।

वह झूम–झूमकर किसको
नव नीरव–गान सुनाता?
क्या शशि तारक मोती से
नभ नीलम–थाल सजाता।।8।।

जब से शशि को पहरे पर
दिनकर सो गया जगाकर¸
कविता–सी कौन छिपी है
यह ओढ़ रूपहली चादर।।9।।

क्या चांदी की डोरी से
वह नाप रहा है दूरी?
या शेष जगह भू–नभ की
करता ज्योत्स्ना से पूरी।।10।।

इस उजियाली में जिसमें
हंसता है कलित–कलाधर।
है कौन खोजता किसको
जुगनू के दीप जलाकर।।11।।

लहरों से मृदु अधरों का
विधु झुक–झुक करता चुम्बन।
धुल कोई के प्राणों में
वह बना रहा जग निधुवन।।12।।

घूंघट–पट खोल शशी से
हंसती है कुमुद–किशोरी।
छवि देख देख बलि जाती
बेसुध अनिमेष चकोरी।।13।।

इन दूबों के टुनगों पर
किसने मोती बिखराये?
या तारे नील–गगन से
स्वच्छन्द विचरने आये।।14।।

या बंधी हुई हैं अरि की
जिसके कर में हथकड़ियां¸
उस पराधीन जननी की
बिखरी आंसू की लड़ियां।।15।।

इस स्मृति से ही राणा के
उर की कलियां मुरझाई।
मेवाड़–भूमि को देखा¸
उसकी आंखें भर आई।।16।।

अब समझा साधु सुधाकर
कर से सहला–सहलाकर।
दुर्दिन में मिटा रहा है
उर–ताप सुधा बरसाकर।।17।।

जननी–रक्षा–हित जितने
मेरे रणधीर मरे हैं¸
वे ही विस्तृत अम्बर पर
तारों के मिस बिखरे हैं।।18।।

मानव–गौरव–हित मैंने
उन्मत्त लड़ाई छेड़ी।
अब पड़ी हुई है मां के
पैरों में अरि की बेड़ी।।19।।

पर हां¸ जब तक हाथों में
मेरी तलवर बनी है¸
सीने में घुस जाने को
भाले की तीव्र अनी है।।20।।

जब तक नस में शोणित है
श्वासों का ताना–बाना¸
तब तक अरि–दीप बुझाना
है बन–बनकर परवाना।।21।।

घासों की रूखी रोटी¸
जब तक सोत का पानी।
तब तक जननी–हित होगी
कुबार्नी पर कुबार्नी।।22।।

राणा ने विधु तारों को
अपना प्रण–गान सुनाया।
उसके उस गान वचन को
गिरि–कण–कण ने दुहराया।।23।।

इतने में अचल–गुहा से
शिशु–क्रन्दन की ध्वनि आई?
कन्या के क्रन्दन में थी
करूणा की व्यथा समाई।।24।।

उसमें कारागृह से थी
जननी की अचिर रिहाई।
या उसमें थी राणा से
मां की चिर छिपी जुदाई।।25।।

भालों से¸ तलवारों से¸
तीरों की बौछारों से¸
जिसका न हृदय चंचल था
वैरी–दल ललकारा से।।26।।

दो दिन पर मिलती रोटी
वह भी तृण की घासों की¸
कंकड़–पत्थर की शय्या¸
परवाह न आवासों की।।27।।

लाशों पर लाशें देखीं¸
घायल कराहते देखे।
अपनी आंखों से अरि को
निज दुर्ग ढाहते देखे।।28।।

तो भी उस वीर–व्रती का
था अचल हिमालय–सा मन।
पर हिम–सा पिघल गया वह
सुनकर कन्या का क्रन्दन।।29।।

आंसू की पावन गंगा
आंखों से झर–झर निकली।
नयनों के पथ से पीड़ा
सरिता–सी बहकर निकली।।30।।

भूखे–प्यासे–कुम्हालाये
शिशु को गोदी में लेकर।
पूछा¸ ्”तुम क्यों रोती हो
करूणा को करूणा देकर्”।।31।।

अपनी तुतली भाषा में
वह सिसक–सिसककर बोली¸
जलती थी भूख तृषा की
उसके अन्तर में होली।।32।।

‘हा छही न जाती मुझछे
अब आज भूख की ज्वाला।
कल छे ही प्याछ लगी है
हो लहा हिदय मतवाला।।33।।

मां ने घाछों की लोती
मुझको दी थी खाने को¸
छोते का पानी देकल
वह बोली भग जाने को।।34।।

अम्मा छे दूल यहीं पल
छूकी लोती खाती थी।
जो पहले छुना चुकी हूं¸
वह देछ–गीत गाती थी।।35।।

छच कहती केवल मैंने
एकाध कवल खाया था।
तब तक बिलाव ले भागा
जो इछी लिए आया था।।36।।

छुनती हूं तू लाजा है
मैं प्याली छौनी तेली।
क्या दया न तुझको आती
यह दछा देखकल मेली।।37।।

लोती थी तो देता था¸
खाने को मुझे मिठाई।
अब खाने को लोती तो
आती क्यों तुझे लुलाई।।38।।

वह कौन छत्रु है जिछने
छेना का नाछ किया है?
तुझको¸ मां को¸ हंम छभको¸
जिछने बनबाछ दिया है।।39।।

यक छोती छी पैनी छी
तलवाल मुझे भी दे दे।
मैं उछको माल भगाऊं
छन मुझको लन कलने दे।।40।।

कन्या की बातें सुनकर
रो पड़ी अचानक रानी।
राणा की आंखों से भी
अविरल बहता था पानी।।41।।

उस निर्जन में बच्चों ने
मां–मां कह–कहकर रोया।
लघु–शिशु–विलाप सुन–सुनकर
धीरज ने धीरज खोया।।42।।

वह स्वतन्त्रता कैसी है
वह कैसी है आजादी।
जिसके पद पर बच्चों ने
अपनी मुक्ता बिखरा दी।।43।।

सहने की सीमा होती
सह सका न पीड़ा अन्तर।
हा¸ सiन्ध–पत्र लिखने को
वह बैठ गया आसन पर।।44।।

कह ‘सावधान्’ रानी ने
राणा का थाम लिया कर।
बोली अधीर पति से वह
कागद मसिपात्र छिपाकर।।45।।

“तू भारत का गौरव है¸
तू जननी–सेवा–रत है।
सच कोई मुझसे पूछे
तो तू ही तू भारत है।।46।।

तू प्राण सनातन का है
मानवता का जीवन है।
तू सतियों का अंचल है
तू पावनता का धन है।।47।।

यदि तू ही कायर बनकर
वैरी सiन्ध करेगा।
तो कौन भला भारत का
बोझा माथे पर लेगा।।48।।

लुट गये लाल गोदी के
तेरे अनुगामी होकर।
कितनी विधवाएं रोतीं
अपने प्रियतम को खोकर।।49।।

आज़ादी का लालच दे
झाला का प्रान लिया है।
चेतक–सा वाजि गंवाकर
पूरा अरमान किया है।।50।।

तू सiन्ध–पत्र लिखने का
कह कितना है अधिकारी?
जब बन्दी मां के दृग से
अब तक आंसू है जारी।।51।।

थक गया समर से तो तब¸
रक्षा का भार मुझे दे।
मैं चण्डी–सी बन जाऊं
अपनी तलवार मुझे दे।”।।52।।

मधुमय कटु बातें सुनकर
देखा ऊपर अकुलाकर¸
कायरता पर हंसता था
तारों के साथ निशाकर।।53।।

झाला सम्मुख मुसकाता
चेतक धिक्कार रहा है।
असि चाह रही कन्या भी
तू आंसू ढार रहा है।।54।।

मर मिटे वीर जितने थे¸
वे एक–एक कर आते।
रानी की जय–जय करते¸
उससे हैं आंख चुराते।।55।।

हो उठा विकल उर–नभ का
हट गया मोह–धन काला।
देखा वह ही रानी है
वह ही अपनी तृण–शाला।।56।।

बोला वह अपने कर में
रमणी कर थाम “क्षमा कर¸
हो गया निहाल जगत में¸
मैं तुम सी रानी पाकर।”।।57।।

इतने में वैरी–सेना ने
राणा को घ्ोर लिया आकर।
पर्वत पर हाहाकार मचा
तलवारें झनकी बल खाकर।।58।।

तब तक आये रणधीर भील
अपने कर में हथियार लिये।
पा उनकी मदद छिपा राणा
अपना भूखा परिवार लिये।।59।।

 

     षोडश सर्ग

 

आधी रात अंधेरी
तम की घनता थी छाई।
कमलों की आंखों से भी
कुछ देता था न दिखाई।।1।।

पर्वत पर¸ घोर विजन में
नीरवता का शासन था।
गिरि अरावली सोया था
सोया तमसावृत वन था।।2।।

धीरे से तरू के पल्लव
गिरते थे भू पर आकर।
नीड़ों में खग सोये थे
सन्ध्या को गान सुनाकर।।3।।

नाहर अपनी मांदों में
मृग वन–लतिका झुरमुट में।
दृग मूंद सुमन सोये थे
पंखुरियों के सम्पुट में।।4।।

गाकर मधु–गीत मनोहर
मधुमाखी मधुछातों पर।
सोई थीं बाल तितलियां
मुकुलित नव जलजातों पर।।5।।

तिमिरालिंगन से छाया
थी एकाकार निशा भर।
सोई थी नियति अचल पर
ओढ़े घन–तम की चादर।।6।।

आंखों के अन्दर पुतली
पुतली में तिल की रेखा।
उसने भी उस रजनी में
केवल तारों को देखा।।7।।

वे नभ पर कांप रहे थे¸
था शीत–कोप कंगलों में।
सूरज–मयंक सोये थे
अपने–अपने बंगलों में।।8।।

निशि–अंधियाली में निद्रित
मारूत रूक–रूक चलता था।
अम्बर था तुहिन बरसता
पर्वत हिम–सा गलता था।।9।।

हेमन्त–शिशिर का शासन¸
लम्बी थी रात विरह–सी।
संयोग–सदृश लघु वासर¸
दिनकर की छवि हिमकर–सी।।10।।

निर्धन के फटे पुराने
पट के छिद्रों से आकर¸
शर–सदृश हवा लगती थी
पाषाण–हृदय दहला कर।।11।।

लगती चन्दन–सी शीतल
पावक की जलती ज्वाला।
बाड़व भी कांप रहा था
पहने तुषार की माला।।12।।

जग अधर विकल हिलते थे
चलदल के दल से थर–थर।
ओसों के मिस नभ–दृग से
बहते थे आंसू झर–झर।।13।।

यव की कोमल बालों पर¸
मटरों की मृदु फलियों पर¸
नभ के आंसू बिखरे थे
तीसी की नव कलियों पर।।14।।

घन–हरित चने के पौधे¸
जिनमें कुछ लहुरे जेठे¸
भिंग गये ओस के जल से
सरसों के पीत मुरेठे।।15।।

वह शीत काल की रजनी
कितनी भयदायक होगी।
पर उसमें भी करता था
तप एक वियोगी योगी।।16।।

वह नीरव निशीथिनी में¸
जिसमें दुनिया थी सोई।
निझर्र की करूण–कहानी
बैठा सुनता था कोई।।17।।

उस निझर्र के तट पर ही
राणा की दीन–कुटी थी।
वह कोने में बैठा था¸
कुछ वंकिम सी भृकुटी थी।।18।।

वह कभी कथा झरने की
सुनता था कान लगाकर।
वह कभी सिहर उठता था¸
मारूत के झोंके खाकर।।19।।

नीहार–भार–नत मन्थर
निझर्र से सीकर लेकर¸
जब कभी हवा चलती थी
पर्वत को पीड़ा देकर।।20।।

तब वह कथरी के भीतर
आहें भरता था सोकर।
वह कभी याद जननी की
करता था पागल होकर।।21।।

वह कहता था वैरी ने
मेरे गढ़ पर गढ़ जीते।
वह कहता रोकर¸ मा की
अब सेवा के दिन बीते।।22।।

यद्यपि जनता के उर में
मेरा ही अनुशासन है¸
पर इंच–इंच भर भू पर
अरि का चलता शासन है।।23।।

दो चार दिवस पर रोटी
खाने को आगे आई।
केवल सूरत भर देखी
फिर भगकर जान बचाई।24।।

अब वन–वन फिरने के दिन
मेरी रजनी जगने की।
क्षण आंखों के लगते ही
आई नौबत भगने की।।25।।

मैं बूझा रहा हूं शिशु को
कह–कहकर समर–कहानी।
बुद–बुद कुछ पका रही है
हा¸ सिसक–सिसककर रानी।।26।।

आंसू–जल पोंछ रही है
चिर क्रीत पुराने पट से।
पानी पनिहारिन–पलकें
भरतीं अन्तर–पनघट से।।27।।

तब तक चमकी वैरी–असि
मैं भगकर छिपा अनारी।
कांटों के पथ से भागी
हा¸ वह मेरी सुकुमारी।।28।।

तृण घास–पात का भोजन
रह गया वहीं पकता ही।
मैं झुरमुट के छिद्रों से
रह गया उसे तकता ही।।29।।

चलते–चलते थकने पर
बैठा तरू की छाया में।
क्षण भर ठहरा सुख आकर
मेरी जर्जर–काया में।।30।।

जल–हीन रो पड़ी रानी¸
बच्चों को तृषित रूलाकर।
कुश–कण्टक की शय्या पर
वह सोई उन्हें सुलाकर।।31।।

तब तक अरि के आने की
आहट कानों में आई।
बच्चों ने आंखें खोलीं
कह–कहकर माई–माई।।32।।

रव के भय से शिशु–मुख को
वल्कल से बांध भगे हम।
गह्वर में छिपकर रोने
रानी के साथ लगे हम।।33।।

वह दिन न अभी भूला है¸
भूला न अभी गह्नर है।
सम्मुख दिखलाई देता
वह आंखों का झर–झर है।।34।।

जब सहन न होता¸ उठता
लेकर तलवार अकेला।
रानी कहती –– न अभी है
संगर करने की बेला।।35।।

तब भी न तनिक रूकता तो
बच्चे रोने लगते हैं।
खाने को दो कह–कहकर
व्याकुल होने लगते हैं।।36।।

मेरे निबर्ल हाथों से
तलवार तुरत गिरती है।
इन आंखों की सरिता में
पुतली–मछली तिरती है।।37।।

हा¸ क्षुधा–तृषा से आकुल
मेरा यह दुबर्ल तन है।
इसको कहते जीवन क्या¸
यह ही जीवन जीवन है।।38।।

अब जननी के हित मुझको
मेवाड़ छोड़ना होगा।
कुछ दिन तक मां से नाता
हा¸ विवश तोड़ना होगा।।39।।

अब दूर विजन में रहकर
राणा कुछ कर सकता है।
जिसकी गोदी में खेला¸
उसका ऋण भर सकता है।।40।।

यह कहकर उसने निशि में
अपना परिवार जगाया।
आंखों में आंसू भरकर
क्षण उनको गले लगाया।।41।।

बोला –” लोग यहीं से
मां का अभिवादन कर लो।
अपने–अपने अन्तर में
जननी की सेवा भर लो।।42।।

चल दो¸ क्षण देर करो मत¸
अब समय न है रोने को।
मेवाड़ न दे सकता है
तिल भर भी भू सोने को।।43।।

चल किसी विजन कोने में
अब शेष बिता दो जीवन।
इस दुखद भयावह ज्वर की
यह ही है दवा सजीवन।्”।।44।।

सुन व्यथा–कथा रानी ने
आंचल का कोना धरकर¸
कर लिया मूक अभिवादन
आंखों में पानी भरकर।।45।।

हां¸ कांप उठा रानी के
तन–पट का धागा–धागा।
कुछ मौन–मौन जब मां से
अंचल पसार कर मांगा।।46।।

बच्चों ने भी रो–रोकर
की विनय वन्दना मां की।
पत्थर भी पिघल रहा था
वह देख–देखकर झांकी।।47।।

राणा ने मुकुट नवाया
चलने की हुई तैयारी।
पत्नी शिशु लेकर आगे
पीछे पति वल्कल–धारी।।48।।

तत्काल किसी के पद का
खुर–खुर रव दिया सुनाई।
कुछ मिली मनुज की आहट¸
फिर जय–जय की ध्वनि आई।।49।
राणा की जय राणा की
जय–जय राणा की जय हो।
जय हो प्रताप की जय हो¸
राणा की सदा विजय हो।।50।।

वह ठहर गया रानी से
बोला – “मैं क्या हूं सोता?
मैं स्वप्न देखता हूं या
भ्रम से ही व्याकुल होता।।51।।

तुम भी सुनती या मैं ही
श्रुति–मधुर नाद सुनता हूं।
जय–जय की मन्थर ध्वनि में
मैं मुक्तिवाद सुनता हूं।्”।।52।।

तब तक भामा ने फेंकी
अपने हाथों की लकुटी।
‘मेरे शिशु्’ कह राणा के
पैरों पर रख दी त्रिकुटी।।53।।

आंसू से पद को धोकर
धीमे–धीमे वह बोला –
“यह मेरी सेवा्” कहकर
थैलों के मुंह को खोला।।54।।

खन–खन–खन मणिमुद्रा की
मुक्ता की राशि लगा दी।
रत्नों की ध्वनि से बन की
नीरवता सकल भगा दी।।55।।

“एकत्र करो इस धन से
तुम सेना वेतन–भोगी।
तुम एक बार फिर जूझो
अब विजय तुम्हारी होगी।।56।।

कारागृह में बन्दी मां
नित करती याद तुम्हें है।
तुम मुक्त करो जननी को
यह आशीर्वाद तुम्हें हैं।”।।57।।

वह निबर्ल वृद्ध तपस्वी
लग गया हांफने कहकर।
गिर पड़ी लार अवनी पर¸
हा उसके मुख से बहकर।।58।।

वह कह न सका कुछ आगे¸
सब भूल गया आने पर।
कटि–जानु थामकर बैठा
वह भू पर थक जाने पर।।59।।

राणा ने गले लगाया
कायरता धो लेने पर।
फिर बिदा किया भामा को
घुल–घुल कर रो लेने पर।।60।।

खुल गये कमल–कोषों के
कारागृह के दरवाजे।
उससे बन्दी अलि निकले
सेंगर के बाजे–बाजे।।61।।

उषा ने राणा के सिर
सोने का ताज सजाया।
उठकर मेवाड़–विजय का
खग–कुल ने गाना गाया।।62।।

कोमल–कोमल पत्तों में
फूलों को हंसते देखा।
खिंच गई वीर के उर में
आशा की पतली रेखा।।63।।

उसको बल मिला हिमालय का¸
जननी–सेवा–अनुरक्ति मिली।
वर मिला उसे प्रलयंकर का¸
उसको चण्डी की शक्ति मिली।।64।।

सूरज का उसको तेज मिला¸
नाहर समान वह गरज उठा।
पर्वत पर झण्डा फइराकर
सावन–घन सा वह गरज उठा।।65।
तलवार निकाली¸ चमकाई¸
अम्बर में फेरी घूम–घूम।
फिर रखी म्यान में चम–चम–चम¸
खरधार–दुधारी चूम–चूम।।66।।

 

सप्तदश सर्ग

 

था शीत भगाने को
माधव की उधर तयारी थी।
वैरी निकालने को निकली
राणा की इधर सवारी थी।।1।।

थे उधर लाल वन के पलास¸
थी लाल अबीर गुलाल लाल।
थे इधर क्रोध से संगर के
सैनिक के आनन लाल–लाल।।2।।

उस ओर काटने चले खेत
कर में किसान हथियार लिये।
अरि–कण्ठ काटने चले वीर
इस ओर प्रखर तलवार लिये।।3।।

उस ओर आम पर कोयल ने
जादू भरकर वंशी टेरी।
इस ओर बजाई वीर–व्रती
राणा प्रताप ने रण–भेरी।।4।।

सुनकर भेरी का नाद उधर
रण करने को शहबाज चला।
लेकर नंगी तलवार इधर
रणधीरों का सिरताज चला।।5।।

दोनों ने दोनों को देखा¸
दोनों की थी उन्नत छाती।
दोनों की निकली एक साथ
तलवार म्यान से बल खाती।।6।।

दोनों पग–पग बढ़ चले वीर
अपनी सेना की राजि लिये।
कोई गज लिये बढ़ा आगे
कोई अपना वर वाजि लिये।।7।।

सुन–सुन मारू के भ्ौरव रव
दोनों दल की मुठभेड़ हुई।
हर–हर–हर कर पिल पड़े वीर¸
वैरी की सेना भेंड़ हुई।।8।।

उनकी चोटी में आग लगी¸
अरि झुण्ड देखते ही आगे।
जागे पिछले रण के कुन्तल¸
उनके उर के साहस जागे।।9।।

प्रलयंकर संगर–वीरों को
जो मुगल मिला वह सभय मिला।
वैरी से हल्दीघाटी का
बदला लेने को समय मिला।।10।।

गज के कराल किलकारों से
हय के हिन–हिन हुंकारों से।
बाजों के रव¸ ललकारों से¸
भर गया गगन टंकारों से।।11।।

पन्नग–समूह में गरूड़–सदृश¸
तृण में विकराल कृशानु–सदृश।
राणा भी रण में कूद पड़ा
घन अन्धकार में भानु–सदृश।।12।।

राणा–हय की ललकार देख¸
राणा की चल–तलवार देख।
देवीर समर भी कांप उठा
अविराम वार पर वार देख।।13।।

क्षण–क्षण प्रताप का गर्जन सुन
सुन–सुन भीषण रव बाजों के¸
अरि कफन कांपते थे थर–थर
घर में भयभीत बजाजों के।।14।।

आगे अरि–मुण्ड चबाता था
राना हय तीखे दांतों से।
पीछे मृत–राजि लगाता था
वह मार–मार कर लातों से।।15।।

अवनी पर पैर न रखता था
अम्बर पर ही वह घोड़ा था।
नभ से उतरा अरि भाग चले¸
चेतक का असली जोड़ा था।।16।।

अरि–दल की सौ–सौ आंखों में
उस घोड़े को गड़ते देखा।
नभ पर देखा¸ भू पर देखा¸
वैरी–दल में लड़ते देखा।।17।।

वह कभी अचल सा अचल बना¸
वह कभी चपलतर तीर बना।
जम गया कभी¸ वह सिमट गया¸
वह दौड़ा¸ उड़ा¸ समीर बना।।18।।

नाहर समान जंगी गज पर
वह कूद–कूद चढ़ जाता था।
टापों से अरि को खूंद–खूंद
घोड़ा आगे बढ़ जाता था।।19।।

यदि उसे किसी ने टोक दिया¸
वह महाकाल का काल बना।
यदि उसे किसी ने रोक दिया¸
वह महाव्याल विकराल बना।।20।।

राणा को लिये अकेला ही
रण में दिखलाई देता था।
ले–लेकर अरि के प्राणों को
चेतक का बदला लेता था।।21।।

राणा उसके ऊपर बैठा
जिस पर सेना दीवानी थी।
कर में हल्दीघाटी वाली
वह ही तलवार पुरानी थी।।22।।

हय–गज–सवार के सिर को थी¸
वह तमक–तमककर काट रही।
वह रूण्ड–मुण्ड से भूतल को¸
थी चमक–चमककर पाट रही।।23।।

दुश्मन के अत्याचारों से
जो उज़ड़ी भूमि विचारी थी¸
नित उसे सींचती शोणित से
राणा की कठिन दुधारी थी।।24।।

वह बिजली–सी चमकी चम–चम
फिर मुगल–घटा में लीन हुई।
वह छप–छप–छप करती निकली¸
फिर चमकी¸ छिपी¸ विलीन हुई।।25।
फुफुकार भुजंगिन सी करती
खच–खच सेना के पार गई।
अरि–कण्ठों से मिलती–जुलती
इस पार गई¸ उस पार गई।।26।।

वह पीकर खून उगल देती
मस्ती से रण में घूम–घूम।
अरि–शिर उतारकर खा जाती
वह मतवाली सी झूम–झूम।।27।।

हाथी–हय–तन के शोणित की
अपने तन में मल कर रोली¸
वह खेल रही थी संगर में
शहबाज–वाहिनी से होली।।28।।

वह कभी श्वेत¸ अरूणाभ कभी¸
थी रंग बदलती क्षण–क्षण में।
गाजर–मुली की तरह काट
सिर बिछा दिये रण–प्रांगण में।।29।।

यह हाल देख वैरी–सेना
देवीर–समर से भाग चली।
राणा प्रताप के वीरों के
उर में हिंसा की आग जली।।30।।

लेकर तलवार अपाइन तक
अरि–अनीकिनी का पीछा कर।
केसरिया झण्ड़ा गाड़ दिया
राणा ने अपना गढ़ पाकर।।31।।

फिर नदी–बाढ़ सी चली चमू
रण–मत्त उमड़ती कुम्भलगढ़।
तलवार चमकने लगी तुरत
उस कठिन दुर्ग पर सत्वर चढ़।।32।।

गढ़ के दरवाजे खोल मुगल
थे भग निकले पर फेर लिया¸
अब्दुल के अभिमानी–दल को¸
राणा प्रताप ने घेर लिया।।33।।

इस तरह काट सिर बिछा दिये
सैनिक जन ने लेकर कृपान।
यव–मटर काटकर खेतों में¸
जिस तरह बिछा देते किसान।।34।।

मेवाड़–देश की तलवारें
अरि–रक्त–स्नान से निखर पड़ीं।
कोई जन भी जीता न बचा
लाशों पर लाशें बिखर पड़ीं।।35।।

जय पाकर फिर कुम्हलगढ़ पर
राणा का झंडा फहर उठा।
वह चपल लगा देने ताड़न¸
अरि का सिंहासन थहर उठा।।36।।

फिर बढ़ी आग की तरह प्रबल
राणा प्रताप की जन–सेना।
गढ़ पर गढ़ ले–ले बढ़ती थी
वह आंधी–सी सन–सन सेना।।37।।

वह एक साल ही के भीतर
अपने सब दुर्ग किले लेकर¸
रणधीर–वाहिनी गरज उठी
वैरी–उर को चिन्ता देकर।।38।।

मेवाड़ हंसा¸ फिर राणा ने
जय–ध्वजा किले पर फहराई।
मां धूल पोंछकर राणा की
सामोद फूल–सी मुसकाई।।39।।

घर–घर नव बन्दनवार बंधे¸
बाजे शहनाई के बाजे।
जल भरे कलश दरवाजों पर
आये सब राजे महराजे।।40।।

मंगल के मधुर स–राग गीत
मिल–मिलकर सतियों ने गाये।
गाकर गायक ने विजय–गान
श्रोता जन पर मधु बरसाये।।41।।

कवियों ने अपनी कविता में
राणा के यश का गान किया।
भूपों ने मस्तक नवा–नवा
सिंहासन का सम्मान किया।।42।।

धन दिया गया भिखमंगों को
अविराम भोज पर भोज हुआ।
दीनों को नूतन वस्त्र मिले¸
वर्षों तक उत्सव रोज हुआ।।43।।

हे विश्ववन्द्य¸ हे करूणाकर¸
तेरी लीला अद््भुत अपार।
मिलती न विजय¸ यदि राणा का
होता न कहीं तू मददगार।।44।।

तू क्षिति में¸ पावक में¸ जल में¸
नभ में¸ मारूत में वर्तमान¸
तू अजपा में¸ जग की सांसें
कहती सो|हं तू है महान््।।45।।

इस पुस्तक का अक्षर–अक्षर¸
प्रभु¸ तेरा ही अभिराम–धाम।
हल्दीघाटी का वर्ण–वर्ण¸
कह रहा निरन्तर राम–राम।।46।।

पहले सृजन के एक¸ पीछे¸
तीन¸ तू अभिराम है।
तू विष्णु है¸ तू शम्भु है¸
तू विधि¸ अनन्त प्रणाम है।।47।।

जल में अजन्मा¸ तव करों से
बीज बिखराया गया।
इससे चराचर सृजन–कतातू
सदा गाया गया।।48।।

तू हार–सूत्र समान सब में
एक सा रहता सदा!
तू सृष्टि करता¸ पालता¸
संहार करता सर्वदा।।49।।

स्त्री–पुरूष तन के भाग दो¸
फल सकल करूणा–दृष्टि के।
वे ही बने माता पिता
उत्पत्ति–वाली सृष्टि के।।50।।

तेरी निशा जो दिवस सोने
जागने के हैं बने¸
वे प्राणियों के प्रलय हैं¸
उत्पत्ति–क्रम से हैं बने।।51।।

तू विश्व–योनि¸ अयोनि है¸
तू विश्व का पालक प्रभो!
तू विश्व–आदि अनादि है¸
तू विश्व–संचालक प्रभो!।।52।।

तू जानता निज को तथा
निज सृष्टि है करता स्वयम््।
तू शक्त है अतएव अपने
आपको हरता स्वयम््।।53।।

द्रव¸ कठिन¸ इन्दि`य–ग्राह्य और
अग्राह्य¸ लघु¸ गुरू युक्त है।
आणिमादिमय है कार्य¸ कारण¸
और उनसे मुक्त है।।54।।

आरम्भ होता तीन स्वर से
तू वही ओंकार है।
फल–कर्म जिनका स्वर्ग–मख है
तू वही अविकार है।।55।।

जो प्रकृति में रत हैं तुझे वे
तत्व–वेत्ता कह रहे।
फिर प्रकृति–द्रष्टा भी तुझी को¸
ब्रह्म–वेत्ता कह रहे।।56।।

तू पितृगण का भी पिता है¸
राम–राम हरे हरे।
दक्षादि का भी सृष्टि–कर्ता
और पर से भी परे।।57।।

तू हव्य¸ होता¸ भोग्य¸ भोक्ता¸
तू सनातन है प्रभो!
तू वेद्य¸ ज्ञाता¸ ध्येय¸ ध्याता¸
तू पुरातन है प्रभो!।।58।।

हे राम¸ हे अभिराम¸
तू कृतकृत्य कर अवतार से।
दबती निरन्तर जा रही है
मेदिनी अघ–भार से।।59।।

राणा–सदृश तू शक्ति दे¸
जननी–चरण–अनुरक्ति दे।
या देश–सेवा के लिए
झाला–सदृश ही भक्ति दे।।60।।

 

परिशिष्ट

 

यह एकलिंग का आसन है¸
इस पर न किसी का शासन है।
नित सिहक रहा कमलासन है¸
यह सिंहासन सिंहासन है।।1।।

यह सम्मानित अधिराजों से¸
अiर्चत है¸ राज–समाजों से।
इसके पद–रज पोंछे जाते
भूपों के सिर के ताजों से।।2।।

इसकी रक्षा के लिए हुई
कुबार्नी पर कुबार्नी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर
यह सिंहासन अभिमानी है।।3।।

खिलजी–तलवारों के नीचे
थरथरा रहा था अवनी–तल।
वह रत्नसिंह था रत्नसिंह¸
जिसने कर दिया उसे शीतल।।4।।

मेवाड़–भूमि–बलिवेदी पर
होते बलि शिशु रनिवासों के।
गोरा–बादल–रण–कौशल से
उज्ज्वल पन्ने इतिहासों के।।5।।

जिसने जौहर को जन्म दिया
वह वीर पद््मिनी रानी है।
राणा¸ तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है।।6।।

मूंजा के सिर के शोणित से
जिसके भाले की प्यास बुझी।
हम्मीर वीर वह था जिसकी
असि वैरी–उर कर पार जुझी।।7।।

प्रण किया वीरवर चूड़ा ने
जननी–पद–सेवा करने का।
कुम्भा ने भी व्रत ठान लिया।
रत्नों से अंचल भरने का।।8।।

यह वीर–प्रसविनी वीर–भूमि¸
रजपूती की रजधानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर
यह सिंहासन अभिमानी है।।9।।

जयमल ने जीवन–दान किया।
पत्ता ने अर्पण प्रान किया।
कल्ला ने इसकी रक्षा में
अपना सब कुछ कुबार्न किया।।10।।

सांगा को अस्सी घाव लगे¸
मरहमपट्टी थी आंखों पर।
तो भी उसकी असि बिजली सी
फिर गई छपाछप लाखों पर।।11।।

अब भी करूणा की करूण–कथा
हम सबको याद जबानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर
यह सिंहासन अभिमानी है।।12।।

क्रीड़ा होती हथियारों से¸
होती थी केलि कटारों से।
असि–धार देखने को उंगली
कट जाती थी तलवारों से।।13।।

हल्दी–घाटी का भैरव –पथ
रंग दिया गया था खूनों से।
जननी–पद–अर्चन किया गया
जीवन के विकच प्रसूनों से।।14।।

अब तक उस भीषण घाटी के
कण–कण की चढ़ी जवानी है!
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है।।15।।

भीलों में रण–झंकार अभी¸
लटकी कटि में तलवार अभी।
भोलेपन में ललकार अभी¸
आंखों में हैं अंगार अभी।।16।।

गिरिवर के उन्नत–श्रृंगों पर
तरू के मेवे आहार बने।
इसकी रक्षा के लिए शिखर थे¸
राणा के दरबार बने।।17।।

जावरमाला के गह्वर में
अब भी तो निर्मल पानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है।।18।।

चूंड़ावत ने तन भूषित कर
युवती के सिर की माला से।
खलबली मचा दी मुगलों में¸
अपने भीषणतम भाला से।।19।।

घोड़े को गज पर चढ़ा दिया¸
्’मत मारो्’ मुगल–पुकार हुई।
फिर राजसिंह–चूंड़ावत से
अवरंगजेब की हार हुई।।20।।

वह चारूमती रानी थी¸
जिसकी चेरि बनी मुगलानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है।।21।।

कुछ ही दिन बीते फतहसिंह
मेवाड़–देश का शासक था।
वह राणा तेज उपासक था
तेजस्वी था अरि–नाशक था।।22।।

उसके चरणों को चूम लिया
कर लिया समर्चन लाखों ने।
टकटकी लगा उसकी छवि को
देखा कजन की आंखों ने।।23।।

सुनता हूं उस मरदाने की
दिल्ली की अजब कहानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है।।24।।

तुझमें चूंड़ा सा त्याग भरा¸
बापा–कुल का अनुराग भरा।
राणा–प्रताप सा रग–रग में
जननी–सेवा का राग भरा।।25।।

अगणित–उर–शोणित से सिंचित
इस सिंहासन का स्वामी है।
भूपालों का भूपाल अभय
राणा–पथ का तू गामी है।।26।।

दुनिया कुछ कहती है सुन ले¸
यह दुनिया तो दीवानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है।।27।।

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