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परिचय

मूल नाम : सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन

उपनाम : अज्ञेय

जन्म : 7 मार्च 1911, कुशीनगर, देवरिया (उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी, अंग्रेजी

विधाएँ : कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध, नाटक, यात्रा वृत्तांत, संस्मरण

 प्रमुख कृतियाँ: 
कविता संग्रह: भग्नदूत 1933, चिन्ता 1942,इत्यलम् [1946,] हरी घास पर क्षण भर [1949] बावरा अहेरी [1954] इन्द्रधनु रौंदे हुये ये [1957] अरी ओ कस्र्णा प्रभामय [1959]आँगन के पार द्वार [1961] कितनी नावों में कितनी बार (1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूँ (1970), सागर मुद्रा (1970), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ (1974), महावृक्ष के नीचे (1977), नदी की बाँक पर छाया (1981), प्रिज़न डेज़ एण्ड अदर पोयम्स (अंग्रेजी में,1946)।
कहानियाँ:-
विपथगा [1937], परम्परा [1944], कोठरी की बात [1945], शरणार्थी [1948], जयदोल [1951]
उपन्यास:-
शेखर एक जीवनी-प्रथम भाग [1941] द्वितीय भाग [1944],नदी के द्वीप [1951] अपने – अपने अजनबी [1961]
यात्रा वृतान्त:-
अरे यायावर रहेगा याद [1943]एक बूँद सहसा उछली [1960]
निबंध संग्रह :
सबरंग, त्रिशंकु, आत्मनेपद, आधुनिक साहित्य: एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल,
आलोचना:-
त्रिशंकु [1945], आत्मनेपद [1960], भवन्ती [1971], अद्यतन [1971] ई.।
संस्मरण:
स्मृति लेखा
डायरियां:
भवंती, अंतरा और शाश्वती।
विचार गद्य:

संवत्‍सर
नाटक:
उत्तरप्रियदर्शी
संपादित ग्रंथ:-
आधुनिक हिन्दी साहित्य (निबन्ध संग्रह)1942, तार सप्तक (कविता संग्रह) 1943, दूसरा सप्तक (कविता संग्रह)1951, तीसरा सप्तक (कविता संग्रह), सम्पूर्ण 1959, नये एकांकी 1952, रूपांबरा 1960।उनका लगभग समग्र काव्य ‘सदानीरा’ ह्यदो खंडहृ नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध ‘केंद्र और परिधि’ नामक ग्रंथ में संकलित हुए हैं।

 विशेष

अज्ञेय का जन्म 7 मार्च, 1911 को कसया में हुआ। बचपन 1911 से ’15 तक लखनऊ में बिता। शिक्षा का प्रारम्भ संस्कृत-मौखिक परम्परा से हुआ 1915 से ’19 तक  श्रीनगर और जम्मू में। यहीं पर संस्कृत पंडित से रघुवंश रामायण, हितोपदेश, फारसी मौलवी से शेख सादी और अमेरिकी पादरी से अंग्रेजी की शिक्षा घर पर शुरू हुई। शास्त्री जी को स्कूल शिक्षा में विश्वास नहीं था। बचपन में व्याकरण के पण्डित से मेल नहीं हुआ। घर पर धार्मिक अनुष्ठान स्मार्त ढंग से होते थे। बड़ी बहन जो लगभग आठ की थीं, जितना अधिक स्नेह करती थीं। उतना ही दोनों बड़े भाई (ब्रह्मानन्द और जीवानन्द जो’ 34 में दिवंगत हो गए) प्रतिस्पर्धा रखते थे। छोटे भाई वत्सराज के प्रति सच्चिदानन्द का स्नेह बचपन से ही था, 1919 में पिता के साथ नालन्दा आए, इसके बाद’ 25 तक पिता के ही साथ रहे, पिता जी ने हिन्दी सिखाना शुरू किया। वे सहज और संस्कारी भाषा के पक्ष में थे। हिन्दुस्तानी के सख़्त ख़िलाफ़ थे। नालन्दा से शास्त्री जी पटना आए और वहीं स्व- काशी प्रसाद जायसवाल और स्व. राखालदास वन्द्योपाध्याय से इस परिवार का सम्बन्ध हुआ, पटना में ही अंग्रेजी से विद्रोह का बीज सच्चिदानन्द के मन में अंकुरित हुआ।

 अज्ञेय को प्रतिभासम्पन्न कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना जाता है। व्यक्तिगत जीवन अज्ञेय जी के पिता पण्डित हीरानंद शास्त्री प्राचीन लिपियों के विशेषज्ञ थे। इनका बचपन इनके पिता की नौकरी के साथ कई स्थानों की परिक्रमा करते हुए बीता। । लखनऊ, श्रीनगर, जम्मू घूमते हुए इनका परिवार 1919 में नालंदा पहुँचा। नालंदा में अज्ञेय के पिता ने अज्ञेय से हिन्दी लिखवाना शुरू किया । शास्त्रीजी के पुराने मित्र रायबहादुर हीरालाल ही उनकी हिन्दी भाषा की लिखाई की जाँच करते इसके बाद 1921 में अज्ञेय का परिवार ऊटी पहुँचा । ऊटी में अज्ञेय के पिता ने अज्ञेय का यज्ञोपवीत कराया और अज्ञेय को वात्स्यायन कुलनाम दिया । शिक्षा अज्ञेय ने घर पर ही भाषा, साहित्य, इतिहास और विज्ञान की प्रारंभिक शिक्षा आरंभ की। राखालदास के सम्पर्क में आने से बंग्ला की लिखाई की जाँच करते। राखालदास के संपर्क में आने से बंग्ला सीखी और इसी अवधि में इण्डियन प्रेस से छपी बाल रामायण बाल महाभारत, बालभोज इन्दिरा (बकिमचन्द्र) जैसी पुस्तकें पढ़ने को मिलीं और हरिनारायण आप्टे और राखालदास वन्द्योपाध्याय के ऐतिहासिक उपन्यास इसी अवधि में पढ़े गए। 1921-’25 तक ऊटकमंड में रहे यहां नीलिगिरि की श्यामल उपत्यका ने बहुत अधिक प्रभाव डाला। 1921 में उडिपी के मध्याचार्य के द्वारा इनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। इसी मठ के पण्डित ने छः महीने तक संस्कृत और तमिल की शिक्षा दी। इस समय ‘भड़ोत’ से ‘वात्स्यायन’ में परिवर्तन भी हुआ, जो प्राचीनतम संस्कार के नये उत्साह से जीने का एक संकल्प था। पिता ने संकीर्ण प्रदेशिका से ऊपर उठकर गोत्रनाम का प्रचलन कराया। इसी समय पहली बार गीता पढ़ी। पिताजी के आग्रह से अन्य धर्मों के ग्रन्थ भी पढ़े और घर पर ही पिताजी के पुस्तकालयों का सदुपयोग शुरू किया। वर्ड्सवर्थ, टेनिसन, लांगफेलो और व्हिटमैन की कविताएं इस अवधि में पढ़ीं। शेक्सि पियर, मारलो, वेब्स्टर के नाटक तथा लिटन, जार्ज एलियट, थैकरे, गोल्डस्मिथ, तोल्स्तोय, तुर्गनेव, गोगोल, विक्टर ह्यूगो तथा मेलविल के उपन्यास भी पढ़े गये। लयबद्ध भाषा के कारण टेनिसन का प्रभाव बड़ा गहरा पड़ा। टेनिसन के अनुकरण में, अंग्रेजी में ढेरों कविताएं भी लिखीं। उपन्यासकारों में ह्यूगो का प्रभाव, विशेषकर उनकी रचना टॉयलर ऑफ़ द सी का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। इसी अवधि में विश्वेश्वर नाथ रेऊ तथा गौरीचन्द हीराचन्द ओझा की हिन्दी में लिखी इतिहास की रचनाएं पढ़ने को मिलीं तथा मीरा, तुलसी के साहित्य का अध्ययन भी इन्होंने किया। साहित्यिक कृतित्व के नाम पर इस अवधि की देन है आनन्द बन्धु जो इस परिवार की निजी पत्रिका थी। इस पत्रिका के समीक्षक थे हीरालाल जी और डॉ.. मौद्गिल। इस अवधि में एक छोटा उपन्यास भी लिखा और इसी अवधि में जब मैट्रिक की तैयारी ये कर रहे थे, मां के साथ इन्होंने जलियावाला बाग-काण्ड की घटना के आसपास पंजाब की यात्रा की थी और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध विद्रोह की भावना ने जन्म लिया ।
१९३० से १९३६ तक विभिन्न जेलों में कटे। १९३६–१९३७ में ‘सैनिक’ और ‘विशाल भारत’ नामक पत्रिकाओं का संपादन किया। १९४३ से १९४६ तक ब्रिटिश सेना में रहे‚ इसके बाद इलाहाबाद से ‘प्रतीक’ नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। देश–विदेश की यात्राएं कीं। जिसमें उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम किया। विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं के संपादन के साथ–साथ ‘अज्ञेय’ ने ‘तार सप्तक’‚ ‘दूसरा सप्तक’‚ और ‘तीसरा सप्तक’ – जैसे युगांतरकारी काव्य–संकलनों का भी संपादन किया तथा ‘पुष्करिणी’ और ‘रूपांबरा’ जैसे काव्य–संकलनों का भी।
उनका लगभग समग्र काव्य सदानीरा (दो खंड) नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध सर्जना और सन्दर्भ तथा केंद्र और परिधि नामक ग्रंथो में संकलित हुए हैं। हिन्दी कहानी को आधुनिकता की दिशा में एक नया और स्थायी मोड़ देने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है । निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका-पुरूष थे जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया । दिल्ली लौटने पर‘दिनमान’ साप्ताहिक, ‘नवभारत टाइम्स’, अंग्रेजी पत्र ‘वाक्’ और ‘एवरीमैंस’ जैसी प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं का संपादन किया। १९८० में उन्होंने ‘वत्सलनिधि’ नामक एक न्यास की स्थापना की‚ जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था।१९६४ में ‘आँगन के पार द्वार’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ और १९७९ में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार।
दिल्ली में  ४ अप्रैल १९८७ में उनकी मृत्यु हुई। आइये उनकी कुछ कहानिया, संस्मरण, आत्मकथा कविताएँ और निबन्ध पढ़ें ——-
जयदोल  –  कहानी
लेफ्टिनेंट सागर ने अपना कीचड़ से सना चमड़े का दस्ताना उतार कर, ट्रक के दरवाजे पर पटकते हुए कहा,”गुरूंग, तुम गाड़ी के साथ ठहरो, हम कुछ बन्दोबस्त करेगा।”
गुरूंग सड़ाक से जूतों की एड़ियाँ चटका कर बोला,”ठीक ए सा’ब -”साँझ हो रही थी। तीन दिन मूसलाधार बारिश के कारण नवगाँव में रुके रहने के बाद, दोपहर को थोड़ी देर के लिए आकाश खुला तो लेफ्टिनेंट सागर ने और देर करना ठीक न समझा। ठीक क्या न समझा, आगे जाने के लिए वह इतना उतावला हो रहा था कि उसने लोगों की चेतावनी को अनावश्यक सावधानी माना और यह सोच कर कि वह कम से कम शिवसागर तो जा ही रहेगा रात तक, वह चल पड़ा था।
जोरहाट पहुँचने तक ही शाम हो गई थी, पर उसे शिवसागर के मन्दिर देखने का इतना चाव था कि वह रुका नहीं, जल्दी से चाय पी कर आगे चल पड़ा। रात जोरहाट में रहे तो सबेरे चल कर सीधे डिबरूगढ़ जाना होगा, रात शिवसागर में रह कर सबेरे वह मन्दिर और ताल को देख सकेगा। शिवसागर, रूद्रसागर, जयसागर – कैसे सुन्दर नाम है। सागर कहलाते हैं तो बड़े-बड़े ताल होंगे — और प्रत्येक के किनारे पर बना हुआ मन्दिर कितना सुन्दर दीखता होगा असमिया लोग हैं भी बड़े साफ-सुथरे, उनके गाँव इतने स्वच्छ होते हैं तो मन्दिरों का क्या कहना शिव-दोल, रूद्र-दोल, जय-दोल — सागर-तट के मन्दिर को दोल कहना कैसी सुन्दर कवि – कल्पना है। सचमुच जब ताल के जल में, मन्द-मन्द हवा से सिहरती चाँदनी में, मन्दिर की कुहासे-सी परछाई डोलती होगी, तब मन्दिर सचमुच सुन्दर हिंडोले-सा दीखता होगा इसी उत्साह को लिए वह बढ़ता जा रहा था — तीस-पैंतीस मील का क्या है — घण्टेभर की बात है।

लेकिन सात-एक मील बाकी थे कि गाड़ी कच्ची सड़क के कीचड़ में फँस गई। पहले तो स्टीयरिंग ऐसा मक्खन-सा नरम चला मानो गाड़ी नहीं, नाव की पतवार हो और नाव बड़े से भँवर में हचकोले खाती झूम रही हो; फिर लेफ्टिनेंट के सँभालते-सँभालते गाड़ी धीमी हो कर रूक गई, यद्यपि पहियों के घूमते रह कर कीचड़ उछालने की आवाज आती रही।

इसके लिए साधारणत: तैयार होकर ही ट्रक चलते थे। तुरन्त बेलचा निकाला गया, कीचड़ साफ करने की कोशिश हुई लेकिन कीचड़ गहरा और पतला था, बेलचे का नहीं, पम्प का काम था। फिर टायरों पर लोहे की जंजीरें चढ़ाई गईं। पहिये घूमने पर कहीं पकड़ने को कुछ मिले तो गाड़ी आगे ठिले — मगर चलने की कोशिश पर लीक गहरी कटती गई और ट्रक धँसता गया, यहाँ तक कि नीचे का गीयर-बक्स भी कीचड़ में डूबने को हो गया मानों इतना काफी न हो; तभी इंजन ने दो-चार बार फट्-फट्-फट् का शब्द किया और चुप हो गया — फिर स्टार्ट ही न हुआ।

अँधेरे में गुरूंग का मुँह दीखता था और लेफ्टिनेंट ने मन-ही-मन सन्तोष किया कि गुरूंग को उसका मुँह भी नहीं दीखता होगा गुरूंग गोरखा था और फौजी गोरखों की भाषा कम-से-कम भावना की दृष्टि से गूँगी होती है मगर आँखें या चेहरे की झुर्रियाँ सब समय गूँगी नहीं होतीं और इस समय अगर उनमें लेफ्टिनेंट सा’ब की भावुक उतावली पर विनोद का आभास भी दीख गया, तो दोनों में मूक वैमनस्य की एक दीवार खड़ी हो जाएगी।

तभी सागर ने दस्तानें फेंक कर कहा, ”हम कुछ बन्दोबस्त करेगा” और फिच्च-फिच्च कीचड़ में जमा-जमा कर बूट रखता हुआ आगे चढ़ चला।”
कहने को तो उसने कह दिया, पर बन्दोबस्त वह क्या करेगा रात में? बादल फिर घिरने लगे; शिवसागर सात मील है तो दूसरे सागर भी तीन-चार मील तो होंगे और क्या जाने कोई बस्ती भी होगी कि नहीं; और जयसागर तो बड़े बीहड़ मैदान के बीच में हैं उसने पढ़ा था कि उस मैदान के बीच में ही रानी जयमती को यन्त्रणा दी गई थी कि वह अपने पति का पता बता दे। पाँच लाख आदमी उसे देखने इकठ्ठे हुए थे और कई दिनों तक रानी को सारी जनता के सामने सताया तथा अपमानित किया गया था।

एक बात हो सकती है कि पैदाल ही शिवसागर चला जाए। पर उस कीचड़ में फिच्च-फिच्च सात मील – उसी में भोर हो जायेगा, फिर तुरंत गाड़ी के लिए वापस जाना पड़ेगा फिर नहीं, वह बेकार है। दूसरी सूरत रात गाड़ी में ही सोया जा सकता है। पर गुरूंग? वह भूखा ही होगा कच्ची रसद तो होगी पर बनाएगा कैसे? सागर ने तो गहरा नाश्ता किया था, उसके पास बिस्कुट वगैरह भी है पर अफसरी का बड़ा कायदा है कि अपने मातहत को कम-से-कम खाना तो ठीक खिलाये शायद आस-पास कोई गाँव हो —

कीचड़ में कुछ पता न लगता था कि सड़क कितनी है और अगल-बगल का मैदान कितना। पहले तो दो-चार पेड़ भी किनारे-किनारे थे, पर अब वह भी नहीं, दोनों ओर सपाट सूना मैदान था और दूर के पेड़ भी ऐसे धुँधले हो गए थे कि भ्रम हो, कहीं चश्मे पर नमी की ही करामात तो नहीं है अब रास्ता जानने का एक ही तरीका था, जहाँ कीचड़ कम गहरा हो वही सड़क; इधर-उधर हटते ही पिंडलियाँ तक पानी में डूब जाती थीं और तब वह फिर धीरे-धीरे पैर से टटोल कर मध्य में आ जाता था।

यह क्या है? हाँ, पुल-सा है — यह रेलिंग हैं। मगर दो पुल है समकोण बनाते हुए क़्या दो रास्ते है? कौन-सा पकड़ें?

एक कुछ ऊँची जमीन की ओर जाता जान पड़ता था। ऊँचे पर कीचड़ कम होगा, इस बात का ही आकर्षण काफी था; फिर ऊँचाई पर से शायद कुछ दीख भी जाए। सागर उधर ही को चल पड़ा। पुल के पार ही सड़क एक ऊँची उठी हुई पटरी-सी बन गई, तनिक आगे इसमें कई मोड़ से आये, फिर जैसे धन-खेत में कहीं-कहीं कई-एक छोटे-छोटे खेत एक-साथ पड़ने पर उनकी मेड़ मानो एक-साथ ही कई ओर जाती जान पड़ती है, इसी तरह वह पटरी भी कई ओर को जाती-सी जान पड़ी। सागर मानो एक बिन्दु पर खड़ा है, जहाँ से कई रास्ते हैं, प्रत्येक के दोनों ओर जल मानो अथाह समुद्र में पटरियाँ बिछा दी गईं हों।

सागर ने एक बार चारों ओर नजर दौड़ाई। शून्य। उसने फिर आँखों की कोरें कस कर झाँक कर देखा, बादलों की रेखा में एक कुछ अधिक घनी-सी रेखा उसे दीखी बादल ऐसा समकोण नहीं हो सकता। नहीं, यह इमारत है सागर उसी ओर को बढ़ने लगा। रोशनी नहीं दीखती, पर शायद भीतर कोई हो —

पर ज्यों-ज्यों वह निकट आता गया उसकी आशा धुँधली पड़ती गई। वह असमिया घर नहीं हो सकता — इतने बड़े घर अब कहाँ हैं — फिर यहाँ, जहाँ बाँस और फूस के बासे ही हो सकते हैं, इंट के घर नहीं– अरे, यह तो कोई बड़ी इमारत है — क्या हो सकती है?

मानो उसके प्रश्न के उत्तर में ही सहसा आकाश में बादल कुछ फीका पड़ा और सहसा धुँधला-सा चाँद भी झलक गया। उसके अधूरे प्रकाश में सागर ने देखा — एक बड़ी-सी, ऊपर से चपटी-सी इमारत — मानो दुमंजिली बारादरी बरामदे से, जिसमें कई-एक महराबें; एक के बीच से मानो आकाश झाँक दिया…

सागर ठिठक कर क्षण-भर उसे देखता रहा। सहसा उसके भीतर कुछ जागा जिसने इमारत को पहचान लिया — यह तो अहोम राजाओं का क्रीड़ा भवन है — क्या नाम है? — रंग-महल, नहीं, हवा-महल — नहीं, ठीक याद नहीं आता, पर यह उस बड़े पठार के किनारे पर है जिसमें जयमती —

एकाएक हवा सनसना उठी। आस-पास के पानी में जहाँ-तहाँ नरसल के झोंप थे, झुक कर फुसफुसा उठे जैसे राजा के आने पर भृत्योंसेवकों में एक सिहरन दौड़ जाए एकाएक यह लक्ष्य कर के कि चाँद फिर छिपा जा रहा है, सागर ने घूमकर चीन्ह लेना चाहा कि ट्रक किधर कितनी दूर है, पर वह अभी यह भी तय नहीं कर सका था कि कहाँ क्षितिज है जिसके नीचे पठार है और ऊपर आकाश या मेघाली कि चाँद छिप गया और अगर उसने खूब अच्छी तरह आकार पहचान न रखा होता तो रंग-महल या हवा-महल भी खो जाता।

महल में छत होगी। वहाँ सूखा होगा। वहाँ आग भी जल सकती है। शायद बिस्तर लाकर सोया भी जा सकता है। ट्रक से तो यही अच्छा रहेगा — गाड़ी को तो कोई खतरा नहीं —
सागर जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने लगा।
रंग-महल बहुत बड़ा हो गया था। उसकी कुरसी ही इतनी ऊँची थी कि असमिया घर उसकी ओट छिप जाए। पक्के फर्श पर पैर पड़ते ही सागर ने अनुमान किया, तीस-पैंतीस सीढ़ियाँ होंगी सीढ़ियाँ चढ़ कर वह असली ड्योढ़ी तक पहुँचेगा।

ऊपर चढ़ते-चढ़ते हवा चीख उठी। कई मेहराबों से मानो उसने गुर्रा कर कहा, ”कौन हो तुम, इतनी रात गए मेरा एकान्त भंग करनेवाले?” विरोध के फूत्कार का यह थपेड़ा इतना सच्चा था कि सागर मानो फुसफुसा ही उठा, ”मैं — सागर, आसरा ढूँढ़ता हूँ — रैनबसेरा –”
पोपले मुँह का बूढ़ा जैसे खिसिया कर हँसे; वैसे ही हवा हँस उठी।
”ही –ही — ही — खी — खी –खी: – यह हवा-महल है, हवा-महल — अहोम राजा का लीलागार — अहोम राजा का — व्यसनी, विलासी, छहों इन्द्रियों से जीवन की लिसड़ी बोटी से छहों रसों को चूस कर उसे झँझोड़ कर फेंक देने वाले नृशंस लीलापिशाचों का — यहाँ आसरा — यहाँ बसेरा ही –ही — ही — खी — खी –खी:।”

सीढ़ियों की चोटी से मेहराबों के तले खड़े सागर ने नीचे और बाहर की ओर देखा। शून्य, महाशून्य; बादलों में बसी नमी और ज्वाला से प्लवन, वज्र और बिजली से भरा हुआ शून्य। क्या उसी की गुर्राहट हवा में हैं, या कि नीचे फैले नंगे पठार की, जिसके चूतड़ों पर दिन-भर सड़ पानी के कोड़ों की बौछार पड़ती रही है? उसी पठार का आक्रोश, सिसकन, रिरियाहट?

इसी जगह, इसी मेहराब के नीचे खड़े कभी अधनंगे अहोम राज ने अपने गठीले शरीर को दर्प से अकड़ा कर, सितार की खूँटी की तरह उमेठ कर, बाँयें हाथ के अँगूठे को कमरबन्द में अटका कर, सीढ़ियों पर खड़े क्षत-शरीर राजकुमारों को देखा होगा, जैसे कोई साँड़ खसिया बैलों के झुण्ड को देखे, फिर दाहिने हाथ की तर्जनी को उठा कर दाहिने भ्रू को तनिक-सा कुंचित करके, संकेत से आदेश किया होगा कि यन्त्रणा को और कड़ी होने दो।

लेफ्टिनेण्ट सागर की टाँगें मानो शिथिल हो गयीं। वह सीढ़ी पर बैठ गया, पैर उसने नीचे को लटका दिये, पीठ मेहराब के निचले हिस्से से टेक दी। उसका शरीर थक गया था दिन-भर स्टीयरिंग पर बैठे-बैठे और पौने दो सौ मील तक कीचड़ की सड़क में बनी लीकों पर आँखें जमाये रहने से आँखें भी ऐसे चुनचुना रही थीं मानो उनमें बहुत बारीक पिसी हुई रेत डाल दी गई हो — आँखें बन्द भी वह करना चाहे और बन्द करने में क्लेश भी हो — वह आँख खुली रखकर ही किसी तरह दीठ को समेट ले, या बन्द करके देखता रह सके, तो

अहोम राजा चूलिक-फा राजा में ईश्वर का अंश होता है, ऐसे अन्धविश्वास पालनेवाली अहोम जाति के लिए यह मानना स्वाभाविक ही था कि राजकुल का अक्षत-शरीर व्यक्ति ही राजा हो सकता है, जिसके शरीर में कोई क्षत है, उसमें देवत्व का अंश कैसे रह सकता है?

देवत्व — और क्षुण्ण? नहीं। ईश्वरत्व अक्षुण्ण ही होता है और राजा शरीर अक्षत

अहोम परम्परा के अनुसार कुल-घात के सेतु से पार होकर चूलिक-फा भी राजसिंहासन पर पहुँचा। लेकिन वह सेतु सदा के लिए खुला रहे, इसके लिए उसने एक अत्यन्त नृशंस उपाय सोचा। अक्षत-शरीर राजकुमार ही राजा हो सकते हैं, अत: सारे अक्षत-शरीर राजकुमार उसके प्रतिस्पर्धी और सम्भाव्य घातक हो सकते हैं। उनके निराकरण का उपाय यह है कि सब का एक-एक कान या छिगुनी कटवा ली जाए — हत्या भी न करनी पड़े, मार्ग के रोड़े भी हट जायें। लाठी न टूटे, साँप भी मरे नहीं पर उसके विषदन्त उखड़ जाएँ। क्षत-शरीर, कनकटे या छिगुनी-कटे राजकुमार राजा हो ही नहीं सकेंगे, तब उन्हें राज-घात का लोभ भी न सताएगा –

चूलिक-फा ने सेनापति को बुला कर गुप्त आज्ञा दी कि रात में चुपचाप राज-कुल के प्रत्येक व्यक्ति के कान (या छिगुनी) काट कर प्रात:काल दरबार में राज-चरणों में अर्पित किए जाएँ।

और प्रात:काल वहीं रंगमहल की सीढ़ियों पर, उसके चरणों में यह वीभत्स उपहार चढ़ाया गया होगा — और उसने उसी दर्प-भरी अवज्ञा में, होठों की तार-सी तनी पतली रेखा को तनिक मोड़-सी देकर, शब्द किया होगा, ‘हूँ’ और रक्त-सने थाल को पैर से तनिक-सा ठुकरा दिया होगा –
चूलिक-फा — निष्कंटक राजा – लेकिन नहीं यह तीर-सा कैसा साल गया? एक राजकुमार भाग गया –अक्षत –
लेफ्टिनेंट सागर मानो चूलिका-फा के चीत्कार को स्पष्ट सुन सका। अक्षत – भाग गया?

वहाँ सामने — लेफ्टिनेंट ने फिर आँखों को कस कर बादलों की दरार को भेदने की कोशिश की — वहाँ सामने कहीं नगा पर्वत श्रेणी है। वनवासी वीर नगा जातियों से अहोम राजाओं की कभी नहीं बनी –वे अपने पर्वतों के नंगे राजा थे, ये अपनी समतल भूमि के कौशेय पहन कर भी अधनंगे रहने वाले महाराजा, पीढ़ियों के युद्ध के बाद दोनों ने अपनी-अपनी सीमाएँ बाँध ली थीं और कोई किसी से छेड़-छाड़ नहीं करता था — केवल सीमा-प्रदेश पर पड़ने वाली नमक की झीलों के लिए युद्ध होता था क्योंकि नमक दोनों को चाहिए था। पर अहोम राजद्रोही नगा जातियों के सरदार के पास आश्रय पाए — असह्य है – असह्य –

हवा ने साँय-साँय कर के दाद दी असह्य। मानो चूलिक-फा के विवश क्रोध की लम्बी साँस सागर की देह को छू गई- यहीं खड़े होकर उसने वह सांस खींची होगी — उस मेहराब ही की इँट-इँट में तो उसके सुलगते वायु-कण बसे होंगे?

लेकिन जाएगा कहाँ – उसकी वधू तो है? वह जानेगी उसका पति कहाँ है, उसे जानना होगा – जयमती अहोम राज्य की अद्वितीय सुन्दरी — जनता की लाडली — होने दो – चूलिक-फा राजा है, वह शत्रुविहीन निष्कण्टक राज्य करना चाहता है – जयमती को पति का पता देना होगा — उसे पकड़वाना होगा — चूलिक-फा उसका प्राण नहीं चाहता, केवल एक कान चाहता है, या एक छिगुनी — चाहें बायें हाथ की भी छिगुनी – क्यों नहीं बतायेगी जयमती? वह प्रजा है; प्रजा की हड्डी-बोटी पर भी राजा का अधिकार है –

बहुत ही छोटे एक क्षण के लिए चाँद झलक गया। सागर ने देखा, सामने खुला, आकारहीन, दिशाहीन, मानातीत निरा विस्तार; जिसमें नरसलों की सायँ-सायँ, हवा का असंख्य कराहटों के साथ रोना, उसे घेरे हुए मेहराबों की क्रुद्ध साँपों की-सी फुँफकार चाँद फिर छिप गया और पानी की नयी बौछार के साथ सागर ने आँखें बन्द कर लीं असंख्य सहमी हुई कराहें और पानी की मार ऐसे जैसे नंगे चूतड़ों पर स-दिया प्रान्त के लचीले बेतों की सड़ाक-सड़ाक। स-दिया अर्थात शव-दिया? कब किसका शव वहाँ मिलता था याद नहीं आता, पर था शव जरूर — किसका शव नहीं, जयमती का नहीं। वह तो — वह तो उन पाँच लाख बेबस देखने वालों के सामने एक लकड़ी के मंचपर खड़ी है, अपनी ही अस्पृश्य लज्जा में, अभेद्य मौन में, अटूट संकल्प और दुर्दमनीय स्पर्द्धा में लिपटी हुई; सात दिन की भूखी-प्यासी, घाम और रक्त की कीच से लथपथ, लेकिन शेषनाग के माथे में ठुकी हुई कोली की भाँति अडिग, आकाश को छूने वाली प्रात:शिखा-सी निष्कम्प लेकिन यह क्या? सागर तिलमिला कर उठ बैठा। मानों अँधेरे में भुतही-सी दीख पड़नेवाली वह लाखों की भीड़ भी काँप कर फिर जड़ हो गई — जयमती के गले से एक बड़ी तीखी करूण चीख निकल कर भारी वायु-मण्डल को भेद गई — जैसे किसी थुलथुल कछुए के पेट को मछेरे की बर्छी सागर ने बड़े जोर से मुठि्ठयाँ भींच ली क्या जयमती टूट गई? नहीं, यह नहीं हो सकता, नरसलों की तरह बिना रीढ़ के गिरती-पड़ती इस लाख जनता के बीच वही तो देवदारू-सी तनी खड़ी है, मानवता की ज्योति:शलाका सहसा उसके पीछे से एक दृप्त, रूखी, अवज्ञा-भरी हँसी से पीतल की तरह झनझनाते स्वर ने कहा, ”मैं राजा हूँ -”

सागर ने चौक कर मुड़ कर देखा –सुनहला, रेशमी वस्त्र, रेशमी उत्तरीय, सोने की कंठी और बड़े-बड़े अनगढ़ पन्नों की माला पहने भी अधनंगा एक व्यक्ति उसकी और ऐसी दया-भरी अवज्ञा से देख रहा था, जैसे कोई राह किनारे के कृमि-कीट को देखे। उसका सुगठित शरीर, छेनी से तराशी हुई चिकनी मांस-पेशियाँ, दर्प-स्फीत नासाएँ, तेल से चमक रही थीं, आँखों की कोर में लाली थी जो अपनी अलग अलग बात कहती थी — मैं मद भी हो सकती हूँ, गर्व भी, विलास-लोलुपता भी और निरी नृशंस नर-रक्त-पिपासा भी सागर टुकुर-टुकुत देखता रह गया। न उड़ सका, न हिल सका। वह व्यक्ति फिर बोला, ”जयमती? हुँ: , जयमती – अँगूठे और तर्जनी की चुटकी बना कर उसने झटक दी, मानो हाथ का मैल कोई मसल कर फेंक दे। बिना क्रिया के भी वाक्य सार्थक होता है, कम-से-कम राजा का वाक्य सागर ने कहना चाहा, ”नृशंस- राक्षस- ” लेकिन उसकी आँखों की लाली में एक बाध्य करनेवाली प्रेरणा थी, सागर ने उसकी दृष्टि का अनुसरण करते हुए देखा, जयमती सचमुच लड़खड़ा गई थी। चीखने के बाद उसका शरीर ढीला होकर लटक गया था, कोड़ों की मार रुक गई थी, जनता साँस रोके सुन रही थी सागर ने भी साँस रोक ली। तब मानो स्तब्धता में उसे अधिक स्पष्ट दीखने लगा, जयमती के सामने एक नगा बाँका खड़ा था, सिर पर कलगी, गले में लकड़ी के मुँड़ों की माला, मुँह पर रंग की व्याघ्रोपम रेखाएँ, कमर के घास की चटाई की कौपीन, हाथ में बर्छी। और वह जयमती से कुछ कह रहा था।

सागर के पीछे एक दर्प-स्फीत स्वर फिर बोला, ”चूलिक-फा के विधान में हस्तक्षेप करनेवाला यह ढीठ नगा कौन है? पर सहसा उस नंगे व्यक्ति का स्वर सुनाई पड़ने लगा और सब चुप हो गए।
”जयमती, तुम्हारा साहस धन्य है। जनता तुम्हें देवी मानती है। पर और अपमान क्यों सहो? राजा का बल अपार है — कुमार का पता बता दो और मुक्ति पाओ -”
अब की बार रानी चीखी नहीं। शिथिल-शरीर, फिर एक बार कराह कर रह गई।

नगा वीर फिर बोला, ”चुलिक-फा केवल अपनी रक्षा चाहता है, कुमार के प्राण नहीं। एक कान दे देने में क्या है? या छिगुनी? उतना तो भी खेल में या मल्ल-युद्ध में भी जा सकता है।”
रानी ने कोई उत्तर नहीं दिया।
”चूलिक-फा डरपोक है, डर नृशंस होता है। पर तुम कुमार का पता बता कर अपनी मान-रक्षा और पति की प्राण-रक्षा कर सकती हो।”
सागर ने पीछे सुना, ”हुँ:,” और मुड़ कर देखा, उस व्यक्ति के चेहरे पर एक क्रूर कुटिल मुसकान खेल रही है।
सागर ने उद्धत होकर कहा, ”हुँ: क्या?”
वह व्यक्ति तन कर खड़ा हो गया, थोड़ी देर सागर की ओर देखता रहा, मानो सोच रहा हो, इसे क्या वह उत्तर दे? फिर और भी कुटिल ओठों के बीच से बोला, ”मैं चूलिक-फा, डरपोक! अभी जानेगा। पर अभी तो मेरे काम की कह रहा है –”
नगा वीर जयमती के और निकट जाकर धीरे-धीरे कुछ कहने लगा।
चूलिक फा ने भौं सिकोड़ कर कहा क्या फुसफुसा रहा है?
सागर ने आगे झुक कर सुन लिया।
”जयमती, कुमार तो अपने मित्र नगा सरदार के पास सुरक्षित है। चूलिक तो उसे तो उसे पकड़ ही नहीं सकता, तुम पता बता कर अपनी रक्षा क्यों न करो? देखो, तुम्हारी कोमल देह –”

आवेश में सागर खड़ा हो गया, क्योंकि उस कोमल देह में एक बिजली-सी दौड़ गई और उसने तन कर, सहसा नगा वीर की ओर उन्मुख होकर कहा, ”कायर, नपुंसक तुम नगा कैसे हुए? कुमार तो अमर है, कीड़ा चूलिक-फा उन्हें कैसे छुएगा? मगर क्या लोग कहेंगे, कुमार की रानी जयमती ने देह की यन्त्रणा से घबड़ा कर उसका पता बता दिया? हट जाओ, अपना कलंकी मुँह मेरे सामने से दूर करो – ”

जनता में तीव्र सिहरन दौड़ गई। नरसल बड़ी जोर से काँप गए; गँदले पानी में एक हलचल उठी जिसके लहराते गोल वृत्त फैले कि फैलते ही गए; हवा फँुककार उठी, बड़े जोर की गड़गड़ाहट हुई। मेघ और काले हो गए — यह निरी रात है कि महानिशा, कि यन्त्रणा की रात — सातवीं रात, कि नवीं रात? और जयमती क्या अब बोल भी सकती है, क्या यह उसके दृढ़ संकल्प का मौन है, कि अशक्तता का? और यह वही भीड़ है कि नयी भीड़, वही नगा वीर, कि दूसरा कोई, कि भीड़ में कई नगे बिखरे है

चूलिक-फा ने कटु स्वर में कहा, ”फिर आया वह नंगा?”
नगा वीर ने पुकार कर कहा, ”जयमती – रानी जयमती – ”
रानी हिली-डुली नहीं।
वीर फिर बोला, ”रानी – मैं उसी नगा सरदार का दूत हूँ, जिसके यहाँ कुमार ने शरण ली है। मेरी बात सुनो।”
रानी का शरीर काँप गया। वह एक टक आँखों से उसे देखने लगी, कुछ बोली नहीं। सकी नहीं।
”तुम कुमार का पता दे दो। सरदार उसकी रक्षा करेंगे। वह सुरक्षित है।”
रानी की आँखों में कुछ घना हो आया। बड़े कष्ट से उसने कहा, ”नीच – ”एक बार उसने ओठों पर जीभ फेरी, कुछ और बोलना चाहा, पर सकी नहीं।
चूलिक-फा ने वहीं से आदेश दिया, ”पानी दो इसे — बोलने दो – ”

किसी ने रानी के ओठों की ओर पानी बढ़ाया। वह थोड़ी देर मिट्टी के कसोरे की ओर वितृष्ण दृष्टि से देखती रही, फिर उसने आँख भर कर नगा युवक की ओर देखा, फिर एक घूँट पी लिया। तभी चूलिक-फा ने कहा, ”बस, एक-एक घूँट, अधिक नहीं – ”
रानी ने एक बार दृष्टि चारों ओर लाख-लाख जनता की ओर दौड़ाई। फिर आँखें नगा युवक पर गड़ा कर बोली, ”कुमार सुरक्षित है। और कुमार की यह लाख-लाख प्रजा — जो उनके लिए आँखें बिछाये है — एक नेता के लिए, जिसके पीछे चल कर आततायी का राज्य उलट दे — जो एक आदर्श माँगती है — मैं उसकी आशा तोड़ दूँ — उसे हरा दूँ — कुमार को हरा दूँ?”
वह लक्षण भर चुप हुई। चूलिक-फा ने एक बार आँख दौड़ा कर सारी भीड़ को देख लिया। उसकी आँख कहीं टिकी नहीं मानो उस भीड़ में उसे टिकने लायक कुछ नहीं मिला, जैसे रेंगते कीड़ों पर दीठ नहीं जमती।

नगा ने कहा, ”प्रजा तो राजा चूलिक-फा की है न?”
रानी ने फिर उसे स्थिर दृष्टि से देखा। फिर धीरे-धीरे कहा, ”चूलिक-” और फिर कुछ ऐसे भाव से अधूरा छोड़ दिया कि उसके उच्चारण से मुँह दूषित हो जाएगा। फिर कहा, ”यह प्रजा कुमार की है — जा कर नगा सरदार से कहना कि कुमार — वह फिर रुक गई। पर तू — तू नगा नहीं, तू तो उस — उस गिद्ध की प्रजा है — जा उसके गन्दे पंजे को चाट –

रानी की आँखें चूलिक-फा की ओर मुड़ी पर उसकी दीठ ने उसे छुआ नहीं, जैसे किसी गिलगिली चीज की और आँखें चढ़ाने में भी घिन आती है नगा ने मुसकरा कर कहा, ”कहाँ है मेरा राजा – ” चूलिक-फा ने वहीं से पुकार कर कहा, ”मैं यह हूँ — अहोम राज्य का एकछत्र शासक – ” नगा युवक सहसा उसके पास चला आया।

सागर ने देखा, भीड़ का रंग बदल गया है। वैसा ही अन्धकार, वैसा ही अथाह प्रसार, पर उसमें जैसे कहीं व्यवस्था, भीड़ में जगह-जगह नगा दर्शक बिखरे, पर बिखरेपन में भी एक माप नगा ने पास से कहा, ”मेरे राजा – ”

एकाएक बड़े जोर की गड़गड़ाहट हुई। सागर खड़ा हो गया उसने आँखें फाड़ कर देखा, नगा युवक सहसा बर्छी के सहारे कई-एक सीढ़ियाँ फाँद कर चूलिक-फा के पास पहुँच गया है, बर्छी सीढ़ी की इँटों की दरार में फँसी रह गई है, पर नगा चूलिक-फा को धक्के से गिरा कर उसकी छाती पर चढ़ गया है; उधर जनता में एक बिजली कड़क गई है, ”कुमार की जय – ”किसीने फाँद कर मंच पर चढ़ कर कोड़ा लिए जल्लादों को गिरा दिया है, किसीने अपना-अंग-वस्त्र जयमती पर डाला है और कोई उसके बन्धन की रस्सी टटोल रहा है।

पर चूलिक-फा और नगा सागर मन्त्र-मुग्ध-सा खड़ा था; उसकी दीठ चूलिक-फा पर जमी थी सहसा उसने देखा, नगा तो निहत्था है, पर नीचे पड़े चूलिक-फा के हाथ में एक चन्द्रकार डाओ है जो वह नगा के कान के पीछे साध रहा है — नगा को ध्यान नहीं है; मगर चूलिक-फा की आँखों में पहचान है कि नगा और कोई नहीं, स्वयं कुमार है; और वह डाओ साध रहा है कुमार छाती पर है, पर मर जाएगा या क्षत भी हो गया तो चूलिक-फा ही मर गया तो भी अगर कुमार क्षत हो गया तो — सागर उछला। वह चूलिक-फा का हाथ पकड़ लेगा — डाओ छीन लेगा।

पर वह असावधानी से उछला था, उसका कीचड़-सना बूट सीढ़ी पर फिसल गया और वह लुढ़कता-पुढ़कता नीचे जा गिरा।
अब? चूलिक-फा का हाथ सध गया है, डाओ पर उसकी पकड़ कड़ी हो गई है, अब —

लेफ्टिनेन्ट सागर ने वहीं पड़े-पड़े कमर से रिवाल्वर खींचा और शिस्त लेकर दाग दिया धाँय –
धुआँ हो गया। हटेगा तो दीखेगा – पर धुआँ हटता क्यों नहीं? आग लग गई — रंग-महल जल रहा है, लपटें इधर-उधर दौड़ रही है। क्या चूलिक-फा जल गया? — और कुमार — क्या यह कुमार की जयध्वनि है? कि जयमती की यह अद्भुत, रोमांचकारी गँूज, जिसमें मानो वह डूबा जा रहा है, डूबा जा रहा है — नहीं, उसे सँभलना होगा।

लेफ्टिनेन्ट सागर सहसा जाग कर उठ बैठा। एक बार हक्का-बक्का होकर चारों ओर देखा, फिर उसकी बिखरी चेतना केन्द्रित हो गई। दूर से दो ट्रकों की दो जोड़ी बत्तियाँ पूरे प्रकाश से जगमगा रही थीं, और एक से सर्च-लाइट इधर-उधर भटकती हुई रंग-महल की सीढ़ियों को क्षण-क्षण ऐसे चमका देती थी मानो बादलों से पृथ्वी तक किसी वज्रदेवता के उतारने का मार्ग खुल जाता है। दोनों ट्रकों के हार्न पूरे जोर से बजाये जा रहे थे।

बौछार से भीगा हुआ बदन झाड़ कर लेफ्टिनेन्ट सागर उठ खड़ा हुआ। क्या वह रंग-महल की सीढ़ियों पर सो गया था? एक बार आँखें दौड़ा कर उसने मेहराब को देखा, चाँद निकल आया था, मेहराब की इँटें दीख रही थीं। फिर धीरे-धीरे उतरने लगा।
नीचे से आवाज आई, ”सा’ब, दूसरा गाड़ी आ गया, टो कर के ले जाएगा – ”

सागर ने मुँह उठा कर सामने देखा, और देखता रह गया। दूर चौरस ताल चमक रहा था, जिसके किनारे पर मन्दिर भागते बादलों के बीच में काँपता हुआ, मानो शुभ्र चाँदनी से ढका हुआ हिंडोला — क्या एक रानी के अभिमान का प्रतीक, जिसने राजा को बचाया, या एक नारी के साहस का, जिसने पुरूष का पथ-प्रदर्शन किया; या कि मानव मात्र की अदम्य स्वातंत्र प्रेरणा का अभीत,

रोजकहानी

दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते ही मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझिल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था…
मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक-सी मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, ‘‘आ जाओ।’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।
भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, ‘‘वे यहाँ नहीं हैं?’’
‘‘अभी आए नहीं, दफ्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।’’
‘‘कब से गये हुए हैं?’’
‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं।’’
मैं ‘हूँ’ कहकर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं है। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।
मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए।’’ पर वह नहीं मानी, बोली, ‘‘वाह। चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आए हो। यहाँ तो…’’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ मुझे दे दो।’’
वह शायद, ‘ना’ करनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुँह’ करके उठी और भीतर चली गयी।
मैं उसके जाते हुए, दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा। यह क्या है… यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है…
मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहिन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकठ्ठे खेले हैं, इकठ्ठे लड़े और पिटे हंक और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकठ्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्या की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के, या बड़े-छोटेपन के बन्धनों में नहीं घिरा…
मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखने आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लडक़ी ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी सोचा नहीं था, किन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई है… और विशेषतया मालती पर…
मालती बच्चे को लेकर लौट आयी और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, ‘‘इसका नाम क्या है?’’
मालती ने बच्चों की ओर देखते हुए उत्तर दिया, ‘‘नाम तो कोई निश्चित नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं।’’
मैंने उसे बुलाया, ‘‘टिटी, टीटी, आ जा’’ पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने लगा, ‘‘उहुँ-उहुँ-उहुँ-ऊँ…’’
मालती ने फिर उसकी ओर एक नजर देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने ली…
काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किन्तु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की… यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँ, कैसे आया हूँ… चुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयी? या अब मुझे दूर इस विशेष अन्तर पर-रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती… पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए…
मैंने कुछ खिन्न-सा होकर, दूसरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई-’’
उसने एकाएक चौंककर कहा, ‘‘हूँ?’’
यह ‘हूँ’ प्रश्न-सूचक था, किन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी नहीं, चुप बैठा रहा। मालती कुछ बोली ही नहीं, थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किन्तु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देख, उन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुन: जगाकर गतिमान करने कभी, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो… वैसे जैसे बहुत देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाए कि वह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता… मुझे ऐसा जान पड़ा मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाए…
तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये। मैंने मालती की ओर देखा, पर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाये गये, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी।
वे, यानी मालती के पति आए। मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि फोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गयी, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में, और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर…
मालती के पति का नाम है महेश्वर। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैं, उसकी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रात:काल सात बजे डिस्पेंसरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद दोपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैं, डिस्पेंसरी के साथ के छोटे-से अस्पातल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने… उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताये हुए हैं और इसलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं…
मालती हम दोनों के लिए खाना ले आयी। मैंने पूछा, ‘‘तुम नहीं खाओगी? या खा चुकीं?’’
महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, ‘‘वह पीछे खाया करती है…’’
पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!
महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देेखकर बोले, ‘‘आपको तो खाने का मजा क्या ही आएगा ऐसे बेवक्त खा रहे हैं?’’
मैंने उत्तर दिया, ‘‘वाह! देर से खाने पर तो और भी अच्छा लगता है, भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।’’
मालती टोककर बोली, ‘‘ऊहूँ, मेरे लिए तो यह नयी बात नहीं है… रोज़ ही ऐसा होता है…’’
मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी। बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था।
मैंने कहा, ‘‘यह रोता क्यों है?’’
मालती बोली, ‘‘हो ही गया है चिड़हिचड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है।’’ फिर बच्चे को डाँटकर कहा, ‘‘चुप कर।’’ जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया। और बोली, ‘‘अच्छा ले, रो ले।’’ और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी!
जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजनेवाले थे, महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, वहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आए हुए हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा… दो की शायद टाँग काटनी पड़े, गैंग्रीन हो गया है… थोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती किवाड़ बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, ‘‘अब खाना तो खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।’’
वह बोली, ‘‘खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,’’ किन्तु चली गयी। मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया।
दूर… शायद अस्पताल में ही, तीन खडक़े। एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना, मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी-सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है, ‘‘तीन बज गये…’’ मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य सम्पन्न हो गया हो…
थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयी, मैंने पूछा, ‘‘तुम्हारे लिए कुछ बचा भी था? सब कुछ तो…’’
‘‘बहुत था।’’
‘‘हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।’’ मैंने हँसकर कहा।
मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, ‘‘यहाँ सब्जी-वब्जी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं; मुझे आए पन्द्रह दिन हुए हैं, जो सब्जी साथ लाए थे वही अभी बरती जा रही है…’’
मैंने पूछा, ‘‘नौकर कोई नहीें है?’’
‘‘कोई ठीक मिला नहीं, शायद दो-एक दिन में हो जाए।’’
‘‘बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?’’
‘‘और कौन?’’ कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी। मैंने पूछा, ‘‘कहाँ गयी थीं?’’
‘‘आज पानी ही नहीं है, बरतन कैसे मँजेंगे?’’
‘‘क्यों, पानी को क्या हुआ?’’
‘‘रोज ही होता है… कभी वक्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बरतन मँजेंगे।’’
‘‘चलो तुम्हें सात बजे तक तो छुट्टी हुई’’ कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई?’’
यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, पर मेरी सहायता टिटी ने कह, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा। मैंने उसे दे दिया।
थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा नहीं, और बोली, ‘‘यहाँ आए कैसे?’’
मैंने कहा ही तो, ‘‘अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या करने?’’
‘‘तो दो-एक दिन रहोगे न?’’
‘‘नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है।’’
मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न-सी हो गयी। मैं फिर नोट बुक की तरफ़ देखने लगा।
थोड़ी देर बाद मुझे ही ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने किन्तु, यहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी क्या की जाए? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे-हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती…
मैंने पूछा, ‘‘तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?’’ मैं चारों ओर देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़ें।
‘‘यहाँ!’’ कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी, ‘‘यहाँ पढऩे को क्या?’’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं वापस जाकर जरूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा…’’ और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया…
थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, ‘‘आए कैसे हो, लारी में?’’
‘‘पैदल।’’
‘‘इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की।’’
‘‘आखिर तुमसे मिलने आया हूँ।’’
‘‘ऐसे ही आये हो?’’
‘‘नहीं, कुली पीछे आ रहा है,सामान लेकर। मैंने सोचा, बिस्तरा ले ही चलूँ।’’
‘‘अच्छा किया, यहाँ तो बस…’’ कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, ‘‘तब तुम थके होगे, लेट जाओ।’’
‘‘नहीं बिलकुल नहीं थका।’’
‘‘रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?’’
‘‘और तुम क्या करोगी?’’
‘‘मैं बरतन माँज रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे।’’
थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयी, टिटी को साथ लेकर। तब मैं भी लेट गया और छत की ओर दखेने लगा… मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बरतनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पडऩे लगे, मैं ऊँघने लगा…
एकाएक वह एक-स्वर टूट गया-मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी टूटी, मैं उस मौन में सुनने लगा…
चार खडक़ रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थी…
वही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार और उग्र रूप में। मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस यन्त्रवत- वह भी थके हुए यन्त्र के-से स्वर में कह रही है, ‘‘चार बज गये’’ मानो इस अनैच्छिक समय गिनने-गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडोमीटर यन्त्रवत् फासला नापता जाता है, और यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया… न जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गयी।
तब छह कभी के बज चुके थे,जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली, और मैं ने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं, और उनके साथ ही बिस्तर लिये हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आया, पानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, ‘‘आपने बड़ी देर की?’’
उन्होंने किंचित् ग्लानि -भरे स्वर में कहा, ‘‘हाँ, आज वह गैंग्रीन का ऑपरेशन करना ही पड़ा। एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेंस में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है।’’
मैंने पूछा, ‘‘गैंग्रीन कैसे हो गया?’’
‘‘एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के…’’
मैंने पूछा, ‘‘यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?’’
बोले, ‘‘हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पताल में भी…’’
मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गयी, बोली,’’हाँ, केस बनाते देर क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं, इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!’’
महेश्वर हँसे, बोले, ‘‘न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?’’
‘‘हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं…’’
महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिये, मालती मेरी ओर देखकर बोली, ‘‘ऐसे ही होते हैं डॉक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह है। मैं तो रोज ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो खयाल ही नहीं आता। पहले तो रात-रात भर नींद नहीं आया करती थी।’’
तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा, टिप् टिप् टिप् टिप् टिप् टिप्…
मालती ने कहा, ‘‘पानी!’’ और उठकर चली गयी। खनखनाहट से हमने जाना, बरतन धोये जाने लगे हैं…
टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्हें छोड़ मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, ‘‘उधर मत जा!’’ और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।
महेश्वर बोले… ‘‘अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी।’’
मैंने पूछा, ‘‘आप लोग भीतर ही सोते हैं? गरमी तो बहुत होती है?’’
‘‘होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाए? अबकी नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।’’ फिर कुछ रुककर बोले, ‘‘अच्छा तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।’’
टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, ‘‘मैं मदद करता हूँ,’’ और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिया।
अब हम तीनों… महेश्वर, टिटी और मैं पलंग पर बैठ गये और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किन्तु बीचबीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्र्तव्य याद करके रो उठता था, और फिर एकदम चुप हो जाता था… और कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे…
मालती बरतन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, ‘‘थोड़े-से आम लाया हूँ, वह भी धो लेना।’’
‘‘कहाँ हैं?’’
‘‘अँगीठी पर रखे हैं, कागज में लिपटे हुए।’’
मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये। जिस कागज में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार का टुकड़ा था। मालती चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षीण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी… वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी।
मुझे एकाएक याद आया… बहुत दिनों की बात थी… जब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाजिरी हो चुकने के बाद चोरी के क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बगीचे में पेड़ों में चढक़र कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना। मुझे याद आया… कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न-मन लौट आया करता था।
मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-पिता तंग थे, एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज पढ़ा करो, हफ्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मारकर चमड़ी उधेड़ दूँगा, मालती ने चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाडक़र फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क़ न पडऩे देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, ‘‘किताब समाप्त कर ली?’’ तो उत्तर दिया- ‘‘हाँ, कर ली,’’ पिता ने कहा, ‘‘लाओ मैं प्रश्न पूछूँगा,’’ तो चुप खड़ी रही। पिता ने फिर कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, ‘‘किताब मैंने फाडक़र फेंक दी है, मैं नहीं पढूँगी।’’
उसके बाद वह बहुत पिटी, पर वह अलग बात है। इस समय मैं यही सोच रहा था कि वही उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गयी है, कितनी शान्त, और एक अखबार के टुकड़े को तरसती है…. यह क्या, यह…
तभी महेश्वर ने पूछा, ‘‘रोटी कब बनेगी?’’
‘‘बस अभी बनाती हूँ।’’
पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्तव्यभावना बहुत विस्तीर्ण हो गयी,वह मालती की, ओर हाथ बढ़ाकर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठकर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई एक छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी…
और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, और भोजन की, और एक-दूसरे के कुछ कहने की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे।
हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी। वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी गया था, पर तुरन्त ही लेट गया।
मैंने महेश्वर से पूछा, ‘‘आप तो थके होंगे, सो जाइए।’’
वह बोले, ‘‘थके तो आप अधिक होंगे… अठारह मील पैदल चलकर आये हैं।’’ किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया, ‘‘थका तो मैं भी हूँ।’’
मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ रहे हैं।
तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी।
मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में-यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहीं, लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं इधर-उधर खिसककर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा।
पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था।
मैंने देखा.. उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस लगनेवाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यन्त शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो…
मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष… गरमी से सूखकर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष… धीरे-धीरे गा रहे हों… कोई राग जो कोमल है, किन्तु करुण नहीं, अशान्तिमय है, किन्तु उद्वेगमय नहीं…
मैंने देखा, प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुन्दर दीखते हैं…
मैंने देखा… दिन-भर की तपन, अशान्ति, थकान, दाह, पहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोये जा रहे हैं, जिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं..
पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंने… महेश्वर ऊँघ रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थी, और कह रही थी… ‘‘अभी छुट्टी हुई जाती है।’’ और मेरे कहने पर ही कि ‘‘ग्यारह बजनेवाले हैं’’ धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज ही इतने बज जाते हैं… मालती ने वह सब कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के लिए, रुकने को तैयार नहीं था…
चाँदनी में शिशु कैसा लगता है, इस अलस जिज्ञासा ने मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसककर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा, ‘‘क्या हुआ?’’ मैं झपटकर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल आयी, मैंने उस ‘खट्’ शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, ‘‘चोट बहुत लग गयी बेचारे के।’’
यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया।
मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए, हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘इसके चोटें लगती ही रहती हैं, रोज ही गिर पड़ता है।’’
एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने, मेरे समूचे अस्तित्व ने, विद्रोह के स्वर में कहा-मेरे मन ने भीतर ही, बाहर एक शब्द भी नहीं निकला -’’माँ, युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो-और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है?’’
और, तब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गयी है, उसके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गयी है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि वे उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया…
इतनी देर में, पूर्ववत् शान्ति हो गयी था। महेश्वर फिर लेटकर ऊँघ रहे थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपटकर चुप हो गया था, यद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप आकाश में देख रही थी, किन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?
तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठाकर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खडक़न के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज में उसने कहा, ‘‘ग्यारह बज गये…’’

अमरवल्लरी – कहानी

मैं दीर्घायु हूँ, चिरजीवी हूँ, पर यह बेल, जिसके पाश में मेरा शरीर, मेरा अंग-अंग बँधा हुआ है, यह वल्लरी क्षयहीन है, अमर है।मैं न जाने कब से यहीं खड़ा हूँ-अचल, निर्विकार, निरीह खड़ा हूँ। न-जाने कितनी बार शिशिर ऋतु में मैंने अपनी पर्णहीन अनाच्छादित शाखाओं से कुहरे की कठोरता को फोडक़र अपने नियन्ता से मूक प्रार्थना की है; न जाने कितनी बार ग्रीष्म में मेरी जड़ों के सूख जाने से तृषित सहस्रों पत्र-रूप चक्षुओं से मैं आकाश की ओर देखा किया हूँ; न-जाने कितनी बार हेमन्त के आने पर शिशिर के भावी कष्टों की चिन्ता से मैं पीला पड़ गया हूँ; न जाने कितनी बार वसन्त, उस आह्लादक, उन्मादक वसन्त में, नीबू के परिमल से सुरभित समीर में मुझे रोमांच हुआ है और लोमवत् मेरे पत्तों ने कम्पित होकर स्फीत सरसर ध्वनि करके अपना हर्ष प्रकट किया है! इधर कुछ दिनों से मेरा शरीर क्षणी हो गया है, मेरी त्वचा में झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, और शारीरिक अनुभूतियों के प्रति मैं उदासीन हो गया हूँ। मेरे पत्ते झड़ गये हैं, ग्रीष्म और शिशिर दोनों ही को मैं उपेक्षा की दृष्टि से देखता हूँ। किन्तु वसन्त? न-जाने उसके ध्यान में ही कौन-सा जादू है, उसकी स्मृतिमात्र में कौन-सी शक्ति है, कि मेरी इन सिकुड़ी हुई धमिनियों में भी नए संजीवन का संचार होने लगता है, और साथ ही एक लालसामय अनुताप मेरी नस-नस में फैल जाता है…

वसन्त… उसकी स्मृतियों में सुख है और कसक भी। जब मेरे चारों ओर क्षितिज तक विस्तृत उन अलसी और पोस्त के फलों के खेत एक रात-भर ही में विकसित हो उठते थे जब मैं अपने आपको सहसा एक सुमन-समुद्र के बीच में खड़ा हुआ पाता था, तब मुझे ऐसा भास होता था, मानो एक हरित सागर की नीलिमामय लहरों को वसन्त के अंशुमाली की रश्मियों ने आरक्त कर दिया हो। मेरा हृदय आनन्द और कृतज्ञता से भर जाता था। पर उस कृतज्ञता में सन्तोष नहीं होता था उस आनन्द से मेरे हृदय की व्यथा दबती नहीं थी। मुझे उस सौन्दर्यच्छटा में पड़ कर एकाएक अपनी कुरूपता की याद आ जाती थी, एक जलन मेरी शान्ति को उड़ा देती थी…

कल्पना की जड़ मन की व्यथा में होती है। जब मुझे अपनी कुरूपता के प्रति ग्लानि होती, तब मैं एक संसार की रचना करने लगता-ऐसे संसार की, जिसमें पीपल के वृक्षों में भी फूल लगते हैं… और एक रंग के नहीं, अनेक रंगों के जिसमें शाखें जगमगा उठें! एक शाखा में सहस्रदल शोण-कमल, दूसरी पर कुमुद, तीसरी पर नील नलिन, चौथी पर चम्पक, पाँचवीं पर गुलाब, ओर सब ओर, फुनगियों तक पर नाना रंगों के अन्य पुष्प-कैसी सुखद थी वह कल्पना! पर अब उस कल्पना की स्मृति से क्या लाभ है? अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूँ, और रक्तबीज की तरह अक्षय यह बेल मुझ पर पूरा अधिकार जमा चुकी है। मैं विराट् हूँ, अचल हूँ; किन्तु मेरी महत्ता और अचलता ने ही मुझे इस अमरवल्ली के सूक्ष्म, चंचल तन्तुओं के आगे इतना नि:सहाय बना दिया! किसी दिन वह कृशतनु, पददलिता थी, और आज यह मुझे बाँध कर, घोंट कर, झुका कर, अपनी विजय-कामना पूरी करने की ओर प्रवृत्त हो रही है!

कैसे सुदृढ़ हैं इसके बन्धन! कितने दारुण, कितने उग्र! लालसा की तरह अदम्य, पीड़ा की तरह असह्य, दावानल की तरह उत्तप्त, ये बन्धन मेरे निर्बल शरीर को घोंट कर उसकी स्फूर्ति और संजीवन को निकाल देना चाहते हैं। और मैं, निराश और मुमूर्ष मैं, स्मृतियों के बोझ से दिक्पालों की तरह दबा हुआ मैं, चुपचाप उसी कामना के आगे धीरे-धीरे अपना अस्तित्व मिटा रहा हूँ।

फिर भी कभी-कभी… ऐसा अनुभव होता है कि इस वल्लरी के स्पर्श में कोई लोमहर्षक तत्त्व है जिस प्रकार कोई पुरानी, विस्मृत तान संगीतकार के स्पर्शमात्र से सजग, सजीव हो उठती है, जिस प्रकार बूढ़ा, शुभ्रकेश, म्रियमाण शिशिर, वसन्त का सहारा पाकर क्षण भर के लिए दीप्त हो उठता है, जिस प्रकार तरुणी के अन्ध-विश्वास पूर्ण, कोमल, स्निग्ध प्रेम में पडक़र बूढ़े के हृदय में गुदगुदी होने लगती है, नई कामनाएँ उदित हो जाती हैं-उसी प्रकार मेरे शरीर में, मेरी शाखाओं में, मेरे पत्तों में, मेरे रोम-रोम में इसका विलुलित स्पर्श, एक स्नेहमय जलन का, एक दीप्तिमय लालसा का, एक अननुभूत, अकथ, अविश्लिष्ट, उन्मत्त प्रेमोल्लास का संचार कर देता है! मैं सोचने लगता हॅँू कि अगर मेरी शाखें भी उतनी ही लचकदार होतीं, जितनी इस अमर बेल की हैं, तो मैं स्वयं उसके आश्लेषण को दृढ़तर कर देता, उसके बन्धन को सव्य कस देता! पर विश्वकर्मा ने मुझे ऐसा निकम्मा बना दिया-मैं प्रेम पा सकता हूँ, दे नहीं सकता; प्रेम-पाश में बँध सकता हूँ, बाँध नहीं सकता; प्रेम की प्रस्फुटन-चेष्टा समझ सकता हूँ व्यक्त नहीं कर सकता! जब प्रेम-रस में मैं विमुग्ध होकर अपने हृदय के भाव व्यक्त करने की चेष्टा करता हूँ, तब सहसा मुझे अपनी स्थूलता, अचलता का ज्ञान होता है, और मेरी वे चिर-विचारित, चिर-निर्दिष्ट, अदमनीय चेष्टाएँ जड़ हो जाती हैं; मेरे सम्भ्रम का एकमात्र चिह्न वह पत्तों का कम्पन, मेरी आकुलता की अभिव्यक्ति का एकमात्र साधन उनका कोमल सरसर शब्द ही रह जाता है। इतना भीमकाय होकर भी एक लतिका के आगे मैं कितना नि:सहाय हूँ!

वसन्त, सुमन, पराग, समीर, रसोल्लास… कैसा संयोग होता है! पर अब, अपने जीवन के हेमन्त-काल में, क्यों मैं वसन्त की कल्पना करता हूँ? अब वे सब मेरे जीवन में नहीं आ सकते, अब मैं एक और ही संसार का वासी हो गया हूँ, जिसमें सुमन नहीं प्रस्फुटित होते, स्मृतियाँ जागती हैं, जिसमें मदालस नहीं, विरक्ति-शैथिल्य भरा हुआ है! मेरे चारों ओर अब भी वसन्त में अलसी और पोस्त के फूल खिलते हैं, हँसते हैं, नाचते हैं, फिर चले जाते हैं। मेरा हृदय उमड़ आता है; पर उसमें अनुरक्ति नहीं होती, उस रूप-सागर के मध्य में खड़ा होकर भी मैं अपनी सुदूरता का ही अनुभव करता हूँ, मानो आकाश-गंगा का ध्यान कर रहा होऊँ! जिस सृष्टि से मैं अलग हो गया हूँ, उसकी कामना मैं नहीं करता, उसमें भाग लेने की लालसा हृदय में नहीं होती। मेरा स्थान एक-दूसरे ही युग में है, और उसी का प्रत्यवलोकन मेरा आधार है, उसी की स्मृतियाँ मेरा पोषण करती हैं।

यह वल्लरी अमर है, अनन्त है। जब मैं गिर जाऊँगा, तब भी शायद यह मेरे शरीर पर लिपटी रहेगी और उसमें बची हुई शक्ति को चूसती रहेगी।

पर जब इसका अंकुर प्रस्फुटित हुआ था, तब मैं क्षीण नहीं था। मेरे सुगठित शरीर में ताजा रस नाचता था; मेरा हृदय प्रकृति-संगीत में लवलीन होकर नाचता था; मैं स्वयं यौवन रंग में प्रमत्त होकर नाच रहा था… जब मेरी विस्तृत जड़ों के बीच में कहीं से इसका छोटा-सा अंकुर निकला, उसके पीले-पीले कोमल, तरल तन्तु इधर-उधर सहारे की आशा में फैले और कुछ न पाकर मुरझाने लगे, तब मैंने कितनी प्रसन्नता से इसे शरण दी थी, कितना आनन्द मुझे इसके शिशुवत कोमल स्पर्श से हुआ था! उस समय शायद वात्सल्य-भाव ही मेरे हृदय में सर्वोपरि था। जब वह बढऩे लगी, जब उसके शरीर में एक नई आभा आ गयी, उसके स्पर्श में वह सरलता, वह स्नेह नहीं रहा; उसमें एक नूतनता आविर्भूत हुई, एक विचित्र भाव आ गया, जिसमें मेरी स्वतन्त्रता नहीं रही। जब भी मैं कुछ सोचना चाहता, उसी का ध्यान आ जाता। उस ध्यान में लालसा थी, और साथ ही कुछ लज्जा-सी; स्वार्थ था और साथ ही उत्सर्ग हो जाने की इच्छा; तृष्णा थी और साथ ही तृप्ति भी; ग्लानि थी और साथ ही अनुरक्ति भी! जिस भाव को आज मैं पूरी तरह समझ गया हूँ, उसका मुझे उन दिनों आभास भी नहीं हुआ था। उन दिनों इस परिवर्तन पर मुझे विस्मय ही होता रहता था-और वह विस्मय भी आनन्द से, ग्लानि से, लालसा से, तृप्ति से, परिपूरित रहता था!

मेरे चरणों के पास एक छोटा-सा चिकना पत्थर पड़ा हुआ था, जिसमें गाँव की स्त्रियाँ आकर सिन्दूर और तेल का लेप किया करती थीं। कभी-कभी वे अपने कोमल हाथों से सिन्दूर का एक लम्बा-सा टीका मेरे ऊपर लगा देती थीं, कोई-कोई युवती आकर सहज स्वभाव से मेरे दोनों और बाँहें फैला कर मेरे इस सुडौल शरीर से अंक भर लेती थी, कोई-कोई मेरा गाढ़ालिंगन करके अपने कपोल मेरी कठिन त्वचा से छूआ कर कुछ चुपचाप आँसू बहाकर चली जाती थी-मानो उसे कुछ सान्त्वना मिल गयी हो। मानव संसार की उन सुकोमल लतिकाओं के स्पर्श में, उनके परिष्वंग में, मुझे आसक्ति नहीं थी। कभी-कभी, जब कोई सरला अभागिनि मुझे अपनी बाँहों से घेर कर दीन स्वर से कहती, ‘‘देवता, मेरी इच्छा कब पूरी होगी?’’ तब मैं दयाद्र्र हो जाता और अपने पत्ते हिला कर कुछ कहना चाहता। न जाने वे मेरा इंगित समझतीं या नहीं। न-जाने उन्हें कभी मेरी कृतज्ञता का ज्ञान होता या नहीं। मैं यही सोचता रहता कि अगर मैं नीरस पीपल न होकर अशोक वृक्ष होता, तो अपनी कृतज्ञता तो जता सकता; उन प्रेम-विह्वलताओं के स्पर्श से पुष्पित हो, पुष्प-भार से झुक कर उन्हें नमस्कार तो कर सकता! पर मैं यह सोचता हुआ मूक ही रह जाता, और वे चली जातीं?

पर उनके स्पर्श से मुझे रोमांच नहीं होता था, मैं अपने शिखर से जड़ों तक काँपने नहीं लगता था। कभी-कभी जब कोई स्त्री आकर मेरी आश्रिता इस अमरवल्लरी के पुष्प तोडक़र मेरे पैरों में डाल देती, तब मेरे मर्म पर आघात पहुँचता था; पर उससे मुझे जितनी व्यथा होती, जितना क्रोध आता, उसे भी मैं व्यक्त नहीं कर पाता था। मैं विश्वकर्मा से मूक प्रार्थना करने लगता- विश्वकर्मा मूक प्रार्थना भी सुन लेते हैं-कि उस स्त्री को कोई भी वैसी ही दारुण वेदना हो! वह मुझे देवता मानकर पुष्पों से पूजा करती थी, और मैं उसके प्रति इतनी नीच कामना करता था-किन्तु प्रेम के प्रमाद में बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है!

कैसा विचित्र था वह प्रेम! अगर मैं जानता होता! अगर मैं जानता होता।

किन्तु क्या जानकर इस जाल में न फँसता? आज मैं जानता हूँ, फिर भी तो इस वल्लरी का मुझ पर इतना अधिकार है, फिर भी तो मैं इसके स्पर्श से गद्गद हो उठता हूँ?

प्रेम आईने की तरह स्वच्छ रहता है, प्रत्येक व्यक्ति उसमें अपना ही प्रतिबिम्ब पाता है, और एक बार जब वह खंडित हो जाता है, तब जुड़ता नहीं। अगर किसी प्रकार निरन्तर प्रयत्न से हम उसके भग्नावशिष्ट खंडों को जोडक़र रख भी लें तो उसमें पुरानी क्रान्ति नहीं आती। वह सदा के लिए कलंकित हो जाता है। स्नेह अनेकों चोटें सहता है, कुचला जाकर भी पुन: उठ खड़ा होता है; किन्तु प्रेम में अभिमान बहुत अधिक होता है, वह एक बार तिरस्कृत होकर सदा के लिए विमुख हो जाता है। आज इस वल्लरी के प्रति मेरा अनुराग बहुत है, पर उसमें प्रेम का नाम भी नहीं है-वह स्नेह का ही प्रतिरूप है। वह विह्वलता प्रेम नहीं है, वह प्रेम की स्मृति की कसक की है।

अपने इस प्रेम के अभिनय का जब मैं प्रत्यावलोकन करता हूँ, तब मुझे एक जलन-सी होती है। प्रेम से मुझे जो आशा थी, वह पूर्ण नहीं हुई, और उसकी आपूर्ति के लिए मैं किसी प्रकार भी दोषी नहीं था। मुझे यहाँ प्रतीत होता है कि नियन्ता ने मेरे प्रति, और इस लता के प्रति, और उन अबोध स्त्रियों के प्रति, जो मुझे देवता कहकर सम्बोधित करती थीं, न्याय नहीं किया। निर्दोष होते हुए भी हम अपने किसी अधिकार से, जिसका मैं वर्णन नहीं कर सकता, वंचित रह गये। जब इस भाव से, इस प्रवंचना के ज्ञान से, मैं उद्विग्न हो जाता हूँ, तब मुझे इच्छा होती है कि मैं वृक्ष न होकर मानव होता। इस तरह एक ही स्थान में बद्ध होकर न रहता, इधर-उधर घूमकर अपने प्रेम को व्यक्त कर सकता, और-और इस तरह भुजहीन असहाय न होता!

किन्तु क्या मानव-हृदय मेरी संज्ञा से इतना भिन्न है? क्या मानवों के प्रेम में और मेरे में इतनी असमानता है? क्या मानव में भी हमारी तरह मूकवेदनाएँ नहीं होती, क्या उनमें भी प्रेम के अंकुर का अँधेरे में ही प्रस्फुटन और विकसन और अवसान नहीं हो जाता? क्या वे प्रेम-विह्वल होकर अपने-आपको अभिव्यक्ति के सर्वथा अयोग्य नहीं पाते, क्या उनमें लज्जा अनुरक्ति का और ग्लानि लालसा का अनुगमन नहीं करती? ये मानव हैं, हम वनस्पति; ये चलायमान हैं, हम स्थिर; पर साथ ही हम उनकी अपेक्षा बहुत दीर्घजीवी हैं, और हमारी संयम-शक्ति भी उनसे बहुत अधिक बढ़ी-चढ़ी है। उनका प्रेम सफल होकर भी शीघ्र समाप्त हो जाता है, और हममें प्रेम की जलन ही कितने वर्षों तक कसकती रहती है।
बहुत दिनों की बात है। उन दिनों मुझे इस वल्लरी के स्पर्श में मादकता का भास हुआ ही था, इसके आलिंगन से गुदगुदी होनी आरम्भ ही हुई थी! उन दिनों मैं उस नए प्रेम का विकास देखने और समझने में ही इतना व्यस्त था कि आसपास होनेवाली घटनाओं में मेरी आसक्ति बिलकुल नहीं थी, कभी-कभी विमनस्क होकर मैं उन्हें एक आँख देखभर लेता था। वह जो बात मैं कहने लगा हूँ, उसे मैं नित्यप्रति देखा करता था, किन्तु देखते हुए भी नहीं देखना था। और जब वह बात खत्म हो गयी, तब उसकी ओर मेरा उतना ध्यान भी नहीं रहा। पर मेरे जाने बिना ही मुझ पर अपनी छाप छोड़ गयी, और आज मुझे वह बात नहीं, उस बात की छाप ही दीख रही है। मैं मानो प्रभात में बालुकामय भूमि पर अंकित पदचिह्नों को देखकर, निशीथ की नीरवता में उधर से गयी हुई अभिसारिका की कल्पना कर रहा हूँ!

मेरे चरणों पर पड़े हुए उस पत्थर की पूजा करने जो स्त्रियाँ आती थीं, उनमें कभी-कभी कोई नई मूर्ति आ जाती थी, और कुछ दिन आती रहने के बाद लुप्त हो जाती थी। ये नई मूर्तियाँ प्राय: बहुत ही लज्जाशील होतीं, प्राय: उनके मुख फुलकारी के लाल और पीले अवगुंठन से ढके रहते, और वे धोती इतनी नीची बाँधती कि उनके पैरों के नुपूर भी न दीख पाते! केवल मेरे समीप आकर जब वे प्रणाम करने को झुकतीं, तब उनका गोधूम-वर्ण मुख क्षण-भर के लिए अनाच्छादित हो जाता, क्षण-भर उनके मस्तक का सिन्दूर कृष्ण मेघों में दामिनी की तरह चमक जाता, क्षण-भर के लिए उनके उर पर विलुलित हारावली मुझे दीख जाती, क्षणभर के लिए पैरों की किंकिणियाँ उद्घाटित होकर चुप हो जाती और मुग्ध होकर बाह्य संसार की छटा को और अपनी स्वामिनियों के सौन्दर्य को निखरने लगतीं! फिर सब-कुछ पूर्ववत हो जाता, अवगुंठन उन मुखों पर अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए उन्हें छिपाकर रख लेते, हारावलियाँ उन स्निग्ध उरों में छिपकर सो जातीं, और नूपुर भी मुँह छिपाकर धीरे-धीरे हँसने लगते।

एक बार उन नई मूर्तियों में एक ऐसी मूर्ति आयी,जो अन्य सभी से भिन्न थी। वह सबकी आँख बचाकर मेरे पास आती और शीघ्रता से प्रणाम करके चली जाती, मानो डरती हो कि कोई उसे देख न ले। उसके पैरों में नुपूर नहीं बजते थे, गले में हारावली नहीं होती थी, मुख पर अवगुंठन नहीं होता था, ललाट पर सिन्दूर तिलक नहीं था। अन्य स्त्रियाँ रंग-बिरंगे वस्त्राभूषण पहनकर आती थीं, वह शुभ्र वसना थी। अन्य स्त्रियाँ प्रात:काल आती थीं; पर उसका कोई निर्दिष्ट समय नहीं था। कभी प्रात: काल, कभी दिन में, कभी सन्ध्या को वह आती थी… जिस दिन उसका आना संन्ध्या को होता था, उस दिन वह प्रणाम और प्रदक्षिण कर लेने के बाद मेरे पास ही इस अमरवल्लरी का सहारा लेकर भूमि पर बैठ जाती, और बहुत देर तक अपने सामने सूर्यास्त के चित्र-विचित्र मेघ-समूहों को, अलसी और पोस्त के पुष्पमय खेतों को, और गाँव से आनेवाले छोटे-से धूलभरे पथ को देखती रहती… उसके मुख पर अतीत स्मृति जनित वेदना का भाव व्यक्त हो जाता, कभी-कभी वह एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ देती… उस समय सहानुभूति और संवेदना में पत्ते भी सरसर ध्वनि कर उठते… वह कभी कुछ कहती नहीं थी, कभी कोई प्रार्थना नहीं करती थी। मुझे चुपचाप प्रणाम करती और चली जाती-या वहीं बैठकर किसी के ध्यान में लीन हो जाती थी। उस ध्यान में कभी-कभी वह कुछ गुनगुनाती थी, पर उसका स्वर इतना अस्पष्ट होता था कि मैं पूरी तरह समझ नहीं पाता।

पहले मेरा ध्यान उसकी ओर नहीं जाता था; किन्तु जब वह नित्य ही गोधूलि वेला में वहाँ आकर बैठने लगी, तब धीरे-धीरे मैं उसकी ओर आकृष्ट होने लगा। जब सूर्य की प्रखरता कम होने लगती, तब मैं उसकी प्रतीक्षा करने लग जाता था-कभी अगर उसके आने में विलम्ब हो जाता, तो मैं कुछ उद्विग्न-सा हो उठता…

एक दिन वह आयी नहीं। उस दिन मैं बहुत देर तक उसकी प्रतीक्षा करता रहा। सूर्यास्त हुआ, अँधेरा हुआ, तारे निकल आये, आकाश-गंगा ने गगन को विदीर्ण कर दिया, पर वह नहीं आयी।

उसके दूसरे दिन भी नहीं, तीसरे दिन भी नहीं-बहुत दिनों तक नहीं। जब मैंने उसकी प्रतीक्षा करनी छोड़ दी, तब सन्ध्या के एकान्त में मैं अपनी उद्भ्रान्त मनोगति को इस अमर वल्लरी की ओर ही प्रवृत्त करने लगा।

जब मैं उसे बिलकुल भूल गया, तब एक दिन वह सहसा आ गयी। वह दिन मुझे भली प्रकार याद है। उस दिन आँधी चल रही थी, काले-काले बादल घिर आये थे, ठंड खूब हो रही थी। मैं सोच रहा था कि वर्षा आएगी, तो अमरवल्लरी की रक्षा कैसे करूँगा। एकाएक मैंने देखा, उस धूलिधूसर पथ पर वह चली आ रही थी। वह अब भी पहले की भाँति अलंकृत थी, उसका शरीर अब भी श्वेत वस्त्रों से आच्छादित था; पर उसकी आकृति बदल गयी थी, उसका सौन्दर्य लुप्त हो गया था। उसके शरीर में काठिन्य आ गया था, मुख पर झुर्रियाँ पड़ गयी थीं, आँखें घँस गयी थीं, होंठ ढीले होकर नीचे लटक गये थे। जब उस पहली मूर्ति से मैंने उसकी तुलना की, तो मेरा अन्तस्तल काँप गया। पर मैं चुपचाप प्रतीक्षा में खड़ा रहा। उसने मेरे पास आकर मुझे प्रणाम नहीं किया, न इस वल्लरी का सहारा लेकर बैठी ही। उसने एक बार चारों ओर देखा, फिर बाँहें फैलाकर मुझसे लिपट गयी और फूट-फूटकर रोने लगी। उसके तप्त आँसू मेरी त्वचा को सींचने लगे।

मैंने देखा, वह एकवसना थी, और वह वस्त्र भी फटा हुआ था। उसके केश व्यस्त हो रहे थे, शरीर धूल से भरा हुआ था, पैरों से रक्त बह रहा था।

वह रोते-रोते कुछ बोलने भी लगी…
‘‘देवता, मैं पहले ही परित्यक्ता थी, पर मेरी बुद्धि खो गयी थी! पर फिर भी तुम्हारी शरण छोड़ गयी! मैं कृतघ्न थी, चली गयी। किस आशा से? प्रेम-धोखा-प्रवंचना! प्रतारणा! उस छली ने मुझे ठग लिया, फिर-फिर-देवता, मैं पतिता, भ्रष्टा कलंकिनी हूँ। मुझे गाँव के लोगों ने मारकर निकाल दिया, अब मैं-मैं निर्लज्जा हूँ! अब तुम्हारी शरण आयी हूँ, अकेली नहीं, कलंक के भार से दबी हुई, अपनी कोख में कलंक धारण किये हुए!’’

उसका वह रुदन असह्य था, पर हमको विश्वकर्मा ने चुपचाप सभी कुछ सहने को बनाया है!

मुझ पर उसका पाश शिथिल हो गया, उसके हाथ फिसलने लगे, पर उसकी मूर्छा दूर न हुई। रात बहुत बीत गयी, उसका संज्ञा-शून्य शरीर काँपने लगा, फिर अकड़ गया… वह मूर्छा में ही फिर बड़बड़ाने लगी :

‘‘देवता हो? छली! कितना धोखा, कितनी नीचता! प्रेम की बातें करते तुम्हारी जीभ न जल गयी! तुम्हारी शरण आऊँगी, तुम्हारी! वह कलंक का टीका नहीं है, मेरा पुत्र है! तुम नीच थे, तुमने मुझे अलग कर दिया। वह मेरा है, तुम्हारे पाप से क्यों कलंकित हो गया? तुम देवता हो देवता। मैं तुम्हारी शरण से भाग गयी थी। पर वह पाप-उसमें तो मेरा भी हाथ था? तुम्हारी शरण में मुझे शान्ति मिलेगी- मैं ही तो उसके पास गयी थी-कलंकिनी! पर वह अबोध शिशु तो निर्दोष है, वह क्यों जलेगा? क्यों काला होगा? देवता, तुम बड़े निर्दय हो। उसे छोड़ देना! मैं मरूँगी, जलूँगी, पर वह बचकर कहाँ जाएगा! देवता, देवता, तुम उसका पोषण करना!’’

उसके शरीर का कम्पन बन्द हो गया, प्रलाप भी शान्त हो गया-पर कुछ ही देर के लिए!
धीरे-धीरे तारागण का लोप हो गया, आकाश-गंगा भी छिप गयी। केवल पूर्व में एक प्रोज्ज्वल तारा जगमगाता रह गया। पवन की शीतलता एकाएक बढ़ गयी, अन्धकार भी प्रगाढ़तर हो गया… उस महाशान्ति में एकाएक उसके शरीर में संजीवन आ गया, वह एक हृदय-विदारक चीख मारकर उठी, उठते ही उसने अपने एकमात्र वस्त्र को फाड़ डाला। फिर वह गिर गयी, उसके अंगों के उत्क्षेप बन्द हो गये, उसका शरीर शिथिल, नि:स्पन्द हो गया…

जब सूर्य का प्रकाश हुआ, तब मैंने देखा, वह मेरे चरणों में पड़ी है,
उसका विवस्त्र और संज्ञाहीन शरीर पीला पड़ गया था, और उकसे अंग नीले पड़ गये थे… उसके पास ही उसका फटा हुआ एकमात्र वस्त्र रक्त से भीगा हुआ पड़ा था-और उसके ऊपर एक मलिन, दुर्गन्धमय माँसपिंड… और वर्षा के प्रवाह में वह रक्त धुलकर, बहकर, बहुत दूर तक फैल कर कीचड़ को लाल कर रहा था…

कैसी भैरव थी वह आहुति!
क्या यही है मानवों का प्रेम!

शायद मेरी धारण गलत है। शायद मेरे अपने प्रेम की उच्छृंखलता ने मेरी कल्पना को भी उद्भ्रान्त कर दिया है। मानव अल्पायु होकर भी इतने नीच हो सकते हैं, इसका सहसा विश्वास नहीं होता! पर जब मुझे ध्यान हो आता है कि मेरी जड़ें दो ऐसी बलियों के रक्तसे सिक्त हैं, जिनके अन्त का एकमात्र कारण यही था, जिसे वे मानव-प्रेम कहते हैं, तब मुझे मानवता के प्रति ग्लानि होने लगती है। पर उन दोनों का बलिदान प्रेम की वेदी पर हुआ था, या इन मानवों के समाज की, या वासना की? वह स्त्री तो वंचित थी, उसने तो प्रेम के उत्तर में वासना ही पायी थी। पर उसका अपना प्रेम तो दूषित नहीं था, वह तो वासना की दासी नहीं थी। और समाज-समाज ने तो पहले ही उसे ठुकरा दिया था, समाज ने तो उससे कोई सम्बन्ध नहीं रखा था। और उस अज्ञात शिशु ने समाज का क्या बिगाड़ा था, वह वासना में कब पड़ा था?

मेरे नीचे उस पत्थर की पूजा करने कितनी ही स्त्रियाँ आती थीं, वे तो सभी प्रसन्नवदना होती थीं, उनकी बात मैं क्यों सोचता? मानव-प्रेम की असफलता का एक यही उदाहरण मैंने देखा था, उसी पर क्यों अपना चित्त स्थिर किये हूँ? वे जो इतनी आच्छादित, अवगुंठित, अलंकृत चपलाएँ वहाँ आती थीं और सहज स्वभाव से या कभी-कभी सम्भ्रम से मेरे सिन्दूर-तिलक लगाती और मेरा आलिंगन कर लेती थीं, उनके प्रणय तो सभी सुखमय हो होंगे, उनका प्रेम तो इतना विमूढ़ और विवेकहीन नहीं होता होगा? और फिर मानवों का तो प्रेम के विषय में आत्मनिर्णय करने का अधिकार होता है? उनके जीवन में तो ऐसा नहीं होता कि विधाता-या मनुष्य ही- जिस वल्लरी को उनके निकट अंकुरित कर दें, उसी से प्रणय करने को बाध्य हो जाना पड़े?

पर मैंने सुना है-गाँव से पूजा के लिए आनेवाली उन स्त्रियों के मुख से ही सुना है-कि उनके समाज में भी इस प्रकार के अनिच्छित बन्धन होते हैं। एक बार मैंने देखा भी था-देखा तो नहीं था, किन्तु कुछ ऐसे दृश्य देखे थे जिससे मुझे इसकी अनुभूति हुई थी…

कभी-कभी, सन्ध्या के पक्षिरव-कूजित एकान्त में, मुझे एकाएक इस बात का उद्बोधन होता है कि मेरा जीवन-इतना लम्बा जीवन!…व्यर्थ बीत गया… इस वल्लरी के अनिश्चित बन्धन से-पर जो मुझे पागल कर देता है मेरे हृदय में उथल-पुथल मचा देता है, मेरे शरीर को दर्द और व्यथा से विह्वल कर देता है, जिससे छूट जाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता, उस बन्धन को अनिश्चित कैसे कहूँ? इस उद्बोधन की उग्रता को मिटाने के लिए मैं कितना प्रयत्न करता हूँ, पर वह जाती नहीं… मेरे हृदय में यह निरर्थकता का ज्ञान, यह जीने की इच्छा, यह संचित शक्ति का व्यय करने की कामना, किसी और भाव के लिए स्थान ही नहीं छोड़ती! मैं चाहता हूँ, अपने व्यक्तित्व को प्रकृति की विशालता में मिटा दूँ, इस निरर्थकता के ज्ञान को दबा दूँ और जैसा कभी अपने यौवन-काल में था, वैसा ही फिर से हो जाऊँ; पर कहाँ एक बूढ़े वृद्ध की चाह और कहाँ विधाता का अमिट निर्देश! मैं बोलना चाहता हूँ-मेरे जिह्वा नहीं है; हिलना चाहता हूँ-मेरे पैर नहीं हैं; रोना चाहता हूँ-पर उसके लिए आँखें ही नहीं हैं तो आँसू कहाँ से आएँगे… मैं चाहता हूँ, किसी से प्रेम कर पाऊँ-इतना विशाल, इतना अचल, इतना चिरस्थायी प्रेम कि संसार उससे भर जाए; पर मेरी अपनी विशालता, मेरी अपनी अचलता, मेरा अपना स्थायित्व इस कामना में बाधा डालता है! मैं प्रेम की अभिव्यक्तिकर नहीं सकता, और जब करना चाहता हूँ, तब लज्जित हो जाता हूँ… जितना विशाल मैं हूँ, इतनी विशाल धुरा अपने प्रेम के लिए कहाँ पाऊँ? और किसी अकिंचन वस्तु से प्रेम करना प्रेम की अवहेलना है…

यह अमरवल्लरी-इसमें स्थायित्व है, दृढ़ता है, पर यह चंचला भी है, और इसमें विशालता भी नहीं है-यह तो मेरे ही शरीर के रस से पुष्ट होती है!

एक स्मृति-सी मेरे अन्तस्तल में घूम रही है, पर सामने नहीं आती, मुझे उसकी उपस्थिति का आभास ही होता है। जिस प्रकार कुहरे में जलता हुआ दीपक नहीं दीख पड़ता, पर उससे आलोकित तुषारपुंज दीखता रहता, उसी तरह स्मृति स्वयं नहीं प्रकट होती, परन्तु स्मृति मेरे अन्तस्तल में काँप रही है।

उस स्मृति का सम्बन्ध इसी प्रेम की विशालता से था, इतना मैं जानता हूँ; पर क्या सम्बन्ध था, नहीं याद आता…
एक और घटना याद आती है, जिसने किसी समय एकाएक विद्युत की तरह मेरे हृदय को आलोकित कर दिया था-पर इतने प्रदीप्त आलोक से कि मैं बहुत देर के लिए चकाचौंध हो गया था…

उन दिनों मेरी पूजा-या मेरे चरणस्थित देवता की पूजा-नहीं होती थी। जब से वहाँ रक्त-प्रलिप्त देह और माँस पिंड पाया गया, तब से लोग शायद मुझसे डरने लगे थे। कभी-कभी सन्ध्या को जब कोई बटोही उधर से निकलता था, तब एक बार सम्भ्रम से मेरी ओर देखकर जल्दी-जल्दी चलने लग जाता था। दिन में कभी-कभी लडक़े उस धूल-भरे पथ में आकर खड़े हो जाते और वहीं से मेरी ओर इंगित करके चिल्लाते, ‘‘भुतहा!’’ मैं उनका अभिप्राय नहीं समझा था, फिर भी उनके शब्दों में उपेक्षा और तिरस्कार का स्पष्ट भाव मुझे बहुत दु:ख देता था…

क्या मानवों की भक्ति उतनी ही अस्थायिनी है, जितना उनका प्रेम। अभी उस दिन मैं गाँव के विधाता की तरह पूजित था, इतनी स्त्रियाँ मेरे चरणों में सिर नवाती थीं और प्रार्थना करती थीं, ‘‘देवता, मेरा दु:ख मिटा दो!’’ मुझमें दु:ख मिटाने की शक्ति नहीं थी, पर एक मूक सहानुभूति तो थी। मेरी अचलता उनकी मेरे प्रति श्रद्धा कम नहीं करती थी, बढ़ाती ही थी। पर जब उस स्त्री ने आकर मेरे चरणों में अपना दु:ख स्वयं मिटा लिया, तब उनके हृदय से आदर उठ गया! इतने दिन से मैं दु:ख की कथाएँ सुना करता था, देखा कुछ नहीं था। उस दिन मैंने देख लिया कि मानवता का दु:ख कहाँ है, पर उस ज्ञान से ही मैं कलुषित हो गया! जब मैं दु:ख जानता ही नहीं था, तब इतने प्रार्थी आते थे। अब मैं जान गया हूँ, तब वे दु:ख-निवारण की प्रार्थना करने नहीं आते, मेरा ही दु:ख बढ़ा रहे हैं।

भक्ति तो अस्थायिनी है ही-भक्ति और प्रेम का कुछ सम्बन्ध है। मैं अभी तक प्रेम ही के नहीं समझ पाया हूँ, यद्यपि इसकी मुझे स्वयं अनुभूति हुई है। भक्ति-भक्ति मैंने देखी ही तो है!

जब मेरे वे उन्माद के दिन बीत गये, जब मेरी त्वचा में कठोरता आने लगी, मेरी शाखाओं में गाँठें पड़ गयीं, तब मुझे पे्रम का नया उद्बोधन हुआ। मेरे बिखरे हुए विचारों में फिर एक नए आशा-भाव का संचार हुआ, संसार मानो फिर से संगीत से भर गया…

कीर्ति-अच्छी या बुरी-कुछ भी नहीं रहती। एक दिन मैंने अपनी सत्कीर्ति को धूल में मिलते देखा था, एक दिन ऐसा आया कि मेरी कुकीर्ति भी बुझ गयी। सत्कीर्ति का मन्दिर एक क्षण ही में गिर गया था, कुकीर्ति के मिटने में वर्षों लग गये-पर वह मिट गये। लोग फिर मेरे निकट आने लगे; पूजा-भाव से नहीं, उपेक्षा से। गाँव की स्त्रियाँ फिर मेरे चरणों में बैठने लगीं; आदर से नहीं, दर्प से, या कभी थकी होने के कारण। बालिकाएँ फिर मेरे आसपास एकत्र होकर नाचने लगीं; न श्रद्धा से, न तिरस्कार से, केवल इसलिए कि घर से भाग कर वहाँ आ जाने में उन्हें आनन्द आता था। मेरे टूटे हुए मन्दिर का पुनर्निर्माण तो नहीं हुआ, पर उसके भग्रावशेष पर चूना फिर गया!

पर उस खंडहर से ही नई आशा उत्पन्न हुई!

जब प्रभात होता था, मेरा शिखर तोतों के समूह से एकाएक ही कूजित हो उठता था, शीतल पवन में मेरे पत्ते धीरे-धीरे काँपने लगते थे, न जाने कहाँ से आकर कमलों की सुरभि वातावरण को भर देती थी, इस वल्लरी के शरीर में भी एक उल्लास के कम्पन का अनुभव मुझे होता था; जब सारा संसार एक साथ ही कम्पित, सुरभित, आलोकित हो उठता था, तब वह आती थी और उन खेतों में, जिनमें छटी हुई घास में, अर्धविस्मृत अलसी और पोस्त के फूलों का प्रेत नाच रहा था, बहुत देर तक इधर-उधर घूमती रहती थी। फिर जब धूप बहुत बढ़ जाती थी, जब उसका मुख श्रम से आरक्त हो जाता था, और उस पर स्वेद-बिन्दु चमकने लगते थे, तब वह हँसती हुई आकर मेरी छाया में बैठ जाती थी।

उसकी वेश-भूषा विचित्र थी। गाँव की स्त्रियों में मैंने वह नहीं देखी थी। वह प्राय: श्वेत या नीला आभरण पहनती थी, और उसके केश आँचल से ढके नहीं रहते थे। उसका मुख नमित नहीं रहता था, वह सदा सामने की ओर देखती थी। उसकी आँखों में भीरुता नहीं थी, अनुराग था, और साथ ही थी एक अव्यक्त ललकार-मानो वे संसार से पूछ रही हों, ‘‘अगर मैं तुम्हारी रीति को तोड़ूँ, तो तुम क्या कर लोगे?’’

वह वहाँ समाधिस्थ-सी होकर बैठी रहती, उसके मुख पर का वह मुग्ध भाव देख कर मालूम होता कि वह किसी अकथनीय सुख की आन्तरिक अनुभूति कर रही हो। मैं सोचता रहता कि कौन-सी ऐसी बात हो सकती है, जिसका स्मृतिमात्र इतनी सुखद है! कितने ही दिन वह आती रही, नित्य ही उसके मुख पर आत्म-विस्मृति का वह भाव जाग्रत होता, नित्य ही वह एक घंटे तक ध्यानस्थ रहती और आकर चली जाती, पर मुझे उस पर परमानन्द के निर्झर का स्रोत न मालूम होता।

फिर एक दिन एकाएक भेद खुल गया-जिस परिहासमय देवता की उपासना मैंने की थी, वह भी उसी की उपासिका थी; परन्तु परिणाम हमारे कितने भिन्न थे!

एक दिन वह सदा की भाँति अपने ध्यान में लीन बैठी थी। उस गाँव से आने वाले पथ पर एक युवक धीरे-धीरे आया, और मेरे पीछे छिप कर उसे देखने लगा। उसका ध्यान नहीं हटा, वह पूर्ववत् बैठी रही। जब उसकी समाधि समाप्त हो गयी, तब वह उठकर जाने लगी; तब भी उसने नवागंतुक को नहीं देखा।

वह युवक स्मित-मुख से धीरे-धीरे गाने लगा :
चूनरी विचित्र स्याम सजिकै मुबारक जू
ढाँकि नख-सिख से निपट सकुचाति है;
चन्द्रमै लपेटि कै समेटि कै नखत मानो
दिन को प्रणाम किये रात चली जाति है!

वह चौंक कर घूमी, फिर बोली, ‘‘तुम-यहाँ!’’ उसके बाद जो कुछ हुआ उसका वर्णन मैं नहीं कर सकता! वह था कुछ नहीं-केेवल कोमल शब्दों का विनिमय, आँखों का इधर-उधर भटक कर मिलन और फिर नमन-बस! पर मेरे लिए उसमें एक अभूतपूर्व आनन्द था-न जाने क्यों।

कुछ दिन तक नित्य यही होता रहा। किसी दिन वह पहले आती, किसी दिन युवक, पर दोनों ही के मुख पर वह विमुग्धता का, आत्म-विस्मृति का भाव रहता था। जिस दिन युवक पहले आता, वह मेरी छाया में बैठकर गाता :
नामसमेतं कृतसंकेतं वादयते मृदुवेणुम्-
बहुमनुतेऽतनु ते तनुसंगतपवनचलितमपि रेणुम्!

और जिस दिन वह पहले आती, वह उन खेतों में घूमती रहती, कभी-कभी ओस से भीगा हुआ एक-आध तृण उठाकर दाँतों से धीरे-धीरे कुतरने लगती।

एक दिन वह घूमते-घूमते थक गयी, और मेरे पत्तों की सघन छाया में इस वल्लरी के बन्धन का मेखलावत् पहनकर बैठ गयी। युवक नहीं आया।

दोपहर तक वह अकेली बैठी रही-उसके अंग-अंग में प्रतीक्षा थी, पर व्यग्रता नहीं थी। जब वह नहीं आया, तब वह कहने लगी-न जाने किसे सम्बोधित करके, मुझे या इस वल्लरी को, या अपने-आपको, या किसी अनुपस्थित व्यक्ति को-कहने लगी :
‘‘यह उचित ही हुआ। और क्या हो सकता था? अगर कर्तव्य भूल कर सुख ही खोजने का नाम प्रेम होता, तो-! मैं जो-कुछ सोचती हूँ, समझती हूँ, अनुभव करती हूँ, उसका अणुमात्र भी व्यक्त नहीं कर सकी-पर इससे क्या? जो कुछ हृदय में था-है-उससे मेरा जीवन तो आलोकित हो गया है। प्रेम में दु:ख-सुख, शान्ति और व्यथा, मिलन और विच्छेद, सभी हैं, बिना वैचित्र्य के प्रेमी जी नहीं सकता… नहीं तो जिसे हम प्रेम कहते हैं, उसमें सार क्या है?’’

वह उठी और चली गयी। मेरी छाया से ही निकल कर नहीं, मेरे जीवन से निकल गयी। पर उसके मुख पर मलिनता नहीं थी, अब भी वही आत्म-विस्मृति उसकी आँखों में नाच रही थी…

मेरे लिए उसका वहीं अवसान हो गया। उसके साथ ही मानवी प्रेम की मेरी अनुभूति भी समाप्त हो गयी। शायद प्रेम की सबसे अच्छी व्याख्या ही यही है कि इतने वर्षों के अन्वेषण के बाद भी मेरा सारा ज्ञान एक प्रश्न ही में समाप्त हो जाता है-’’नहीं तो, जिसे हम प्रेम कहते हैं, उसमें सार क्या है?’’ किन्तु इतने वर्षों में जिस अभिप्राय को, जिस सार्थकता को, मैं नहीं खोज पाता था, वह उसी स्त्री के एक ही प्रश्न में मुझे मिल गयी। उस दिन मैं समझने लगा कि अभिव्यक्ति प्रेम के लिए आवश्यक नहीं है… उसने कहा तो था, ‘‘जो कुछ मेरे हृदय में था-है-उससे मेरा जीवन तो आलोकित हो गया है!’’ मैं अपना प्रेम नहीं व्यक्त कर सका, मेरा जीवन एक प्रकार से न्यून, अपूर्ण रह गया, पर इससे क्या? उस दीप्तिमय आत्म-विस्मृति का एक क्षण भी इतने दिनों की व्यथा को सार्थक कर देता है!

मैं देखता हूँ, संसार दो महाशक्तियों का घोर संघर्ष है। ये शक्तियाँ एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं, एक ही प्रकृति के दो विभिन्न पथ हैं। एक संयोजक है-इसका भास फूलों से भौरों का मिलन में, विटप से लता के आश्लेषण में, चन्द्रमा से ज्योत्स्ना के सम्बन्ध में, रात्रि से अन्धकार के प्रणय में, उषा से आलोक के रेक्य में, होता है; दूसरी शक्ति विच्छेदक है-इसका भास आँधी से पेड़ों के विनाश में, विद्युत से लतिकाओं के झुलसने में, दावानल से वनों के जलने में, शकुन्त द्वारा कपोतों के मारे जाने में होता है… कभी-कभी दोनों शक्तियों का एक ही घटना में ऐसा सम्मिलन होता है कि हम भौचक हो जाते हैं, कुछ भी समझ नहीं पाते। प्रेम भी शायद ऐसी ही घटना है…

कभी-कभी मुझे ऐसा मालूम होता है कि इतना कुछ देख और पाकर भी मैं वंचित ही नहीं, अछूत, परित्यक्त रह गया हूँ, मुझे बन्धुत्व की, सखाओं की कामना होती है; पर पीपल के वृक्ष के लिए बन्धु कहाँ है, संवेदनाकहाँ है, दया कहाँ है; कभी पर्वत को भी सहारे की आवश्यकता होती है? मैं इतना शक्तिशाली नही हूँ कि बन्धुओं की कामना-उग्र कामना-ही मेरे हृदय के अन्तस्तल में न हो; किन्तु फिर भी देखने में मैं इतना विशाल हूँ, दीर्घकाय हूँ, दृढ़ हूँ, कि मुझ पर दया करने का, मेरे प्रति बन्धुत्व-भाव का ध्यान भी किसी को नहीं होता! उत्पत्ति और प्रस्फुटन की असंख्य क्रियाएँ मेरे चारों ओर होती हैं, और बीच में मैं वैसे ही अकेला खड़ा रह जाता हूँ, जैसे पुष्पित उपत्यकाओं से घिरा हुआ पर्वत-शृंग…

पर उसी समय मेरे हृदय में यह भाव उठता है कि मुझे यह दुखड़ा रोने का कोई अधिकार नहीं है, मैंने जीवन में सब-कुछ नहीं पाया, बहुत अनुभूतियों से मैं वंचित रह गया, पर जीवन की सार्थकता के लिए जो कुछ पाया है, वह पर्याप्त है। न जाने कितनी बार मैंने वसन्त की हँसी देखी है, पक्षियों का रव सुना है; न जाने कितनी देर मैंने मानवों की पूजा पायी है, न जाने कितनी सरलाओं की श्रद्धापूर्ण अंजलि प्राप्त की है, और उन सबसे अधिक न जाने कितनी बार मुझे इस अमरवल्लरी के स्पर्श में एक साथ ही वसन्त के उल्लास का, ग्रीष्म के ताप का, पावस की तरलता, शरद की स्निग्धता का, हेमन्त की शुभ्रता का और शिशिर के शैथिल्य का अनुभव हुआ है, न जाने कितनी बार इसके बन्धनों में बँधकर और पीडि़त होकर मुझे अपने स्वातन्त्र्य का ज्ञान हुआ है! एक व्यथा, एक जलन, मेरे अन्तस्तल में रमती गयी है-कि मैं मूक ही रह गया, मेरी प्रार्थना अव्यक्त ही रह गयी-पर मुझे इस ध्यान में सान्त्वना मिलती है कि मैं ही नहीं, सारा संसार ही मूक है… जब मुझे अपनी विवशता का ध्यान होता है, तो मैं मानव की विवशता देखता हूँ; जब भावना होती है कि विश्वकर्मा ने मेरी प्रार्थना की उपेक्षा करके मेरे प्रति अन्याय किया है, तब मुझे याद आ जाता है कि मैं स्वयं भी तो इस सहिष्णु पृथ्वी की मूक प्रार्थना का, इसकी अभिव्यक्ति-चेष्टा का, नीरव प्रस्फुटन ही हूँ?

ईश्वर ने सृष्टि की कहानी

ब ओर निराकार शून्य था, और अनन्त आकाश में अन्धकार छाया हुआ था। ईश्वर ने कहा, ‘प्रकाश हो’ और प्रकाश हो गया। उसके आलोक में ईश्वर ने असंख्य टुकड़े किये और प्रत्येक में एक-एक तारा जड़ दिया। तब उसने सौर-मंडल बनाया, पृथ्वी बनायी। और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी है।तब उसने वनस्पति, पौधे, झाड़-झंखाड़, फल फूल, लता-बेलें उगायीं; और उन पर मँडराने को भौंरे और तितलियाँ, गाने को झींगुर भी बनाए।

तब उसने पशु-पक्षी भी बनाये। और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी है।

लेकिन उसे शान्ति न हुई। तब उसने जीवन में वैचित्र्य लाने के लिए दिन और रात, आँधी-पानी, बादल-मेंह, धूप-छाँह इत्यादि बनाये; और फिर कीड़े-मकोड़े, मकड़ी-मच्छर, बर्रे-बिच्छू और अन्त में साँप भी बनाये।

लेकिन फिर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ। तब उसने ज्ञान का नेत्र खोलकर सुदूर भविष्य में देखा। अन्धकार में, पृथ्वी और सौर-लोक पर छायी हुई प्राणहीन धुन्ध में कहीं एक हलचल, फिर उस हलचल में धीरे-धीरे एक आकार, एक शरीर का, जिसमें असाधारण कुछ नहीं है, लेकिन फिर भी सामथ्र्य है; एक आत्मा जो निर्मित होकर भी अपने आकार के भीतर बँधती नहीं, बढ़ती ही जाती है; एक प्राणी जो जितनी बार धूल को छूता है नया ही होकर अधिक प्राणवान होकर, उठ खड़ा होता है…

ईश्वर ने जान लिया कि भविष्य का प्राणी यही मानव है। तब उसने पृथ्वी पर से धुन्ध को चीरकर एक मुट्ठी धूल उठायी और उसे अपने हृदय के पास ले जाकर उसमें अपनी विराट् आत्मा की एक साँस फूँक दी-मानव की सृष्टि हो गयी।

ईश्वर ने कहा, ‘जाओ, मेरी रचना के महाप्राणनायक, सृष्टि के अवतंस!’
लेकिन कृतित्व का सुख ईश्वर को तब भी नहीं प्राप्त हुआ, उसमें का कलाकार अतृप्त ही रहा गया।
क्योंकि पृथ्वी खड़ी रही, तारे खड़े रहे। सूर्य प्रकाशवान नहीं हुआ, क्योंकि उसकी किरणें बाहर फूट निकलने से रह गयी! उस विराट सुन्दर विश्व में गति नहीं आयी।

दूर पड़ा हुआ आदिम साँप हँसता रहा। वह जानता था कि क्यों सृष्टि नहीं चलती। और वह इस ज्ञान को खूब सँभालकर अपनी गुंजलक में लपेटे बैठा हुआ था।

एक बार फिर ईश्वर ने ज्ञान का नेत्र खोला, और फिर मानव के दो बूँद आँसू लेकर स्त्री की रचना की।
मानव ने चुपचाप उसकी देन को स्वीकार कर लिया; सन्तुष्ट वह पहले ही था, अब सन्तोष द्विगुणित हो गया। उस शान्त जीवन में अब भी कोई आपूर्ति न आयी और सृष्टि अब भी न चली।
और वह चिरन्तन साँप ज्ञान का अपनी गुंजलक में लपेटे बैठा हँसता रहा ।

[2]

साँप ने कहा, ‘मूर्ख, अपने जीवन से सन्तुष्ट मत हो। अभी बहुत कुछ है जो तूने नहीं पाया, नहीं देखा, नहीं जाना। यह देख, ज्ञान मेरे पास है। इसी के कारण तो मैं ईश्वर का समकक्ष हूँ, चिरन्तन हूँ।’

लेकिन मानव ने एक बार अनमना-सा उसकी ओर देखा, और फिर स्त्री के केशों से अपना मुँह ढँक लिया। उसे कोई कौतूहल नहीं था, वह शान्त था।

बहुत देर तक ऐसे ही रहा। प्रकाश होता और मिट जाता; पुरुष और स्त्री प्रकाश में, मुग्ध दृष्टि से एक-दूसरे को देखते रहते, और अन्धकार में लिपटकर सो रहते।
और ईश्वर अदृष्ट ही रहता, और साँप हँसता ही जाता।
तब एक दिन जब प्रकाश हुआ, तो स्त्री ने आँखें नीची कर लीं, पुरुष की ओर नहीं देखा। पुरुष ने आँख मिलाने की कोशिश की, तो पाया कि स्त्री केवल उसी की ओर न देख रही हो ऐसा नहीं है; वह किसी की ओर भी नहीं देख रही है, उसकी दृष्टि मानो अन्तर्मुखी हो गयी हो, अपने भीतर ही कुछ देख रही है, और उसी दर्शन में एक अनिर्वचनीय तन्मयता पा रही है… तब अन्धकार हुआ, तब भी स्त्री उसी तद्गत भाव से लेट गयी, पुरुष को देखती हुई, बल्कि उसकी ओर से विमुख, उसे कुछ परे रखती हुई…

पुरुष उठ बैठा। नेत्र मूँदकर वह ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। उसके पास शब्द नहीं थे, भाव नहीं थे, दीक्षा नहीं थी। लेकिन शब्दों से, भावों से, प्रणाली के ज्ञान से परे जो प्रार्थना है, जो सम्बन्ध के सूत्र पर आश्रित है, वही प्रार्थना उसमें से फूट निकलने लगी…

लेकिन विश्व फिर भी वैसा ही निश्चल पड़ा रहा, गति उसमें नहीं आयी।
स्त्री रोने लगी। उसके भीतर कहीं दर्द की एक हूक उठी। वह पुकारकर कहने लगी, ‘क्या होता है मुझे! मैं बिखर जाऊँगी, मैं मिट्टी में मिल जाऊँगी…’

पुरुष अपनी निस्सहायता में कुछ भी नहीं कर सका, उसकी प्रार्थना और भी आतुर, और भी विकल, और भी उत्सर्गमयी हो गयी, और जब वह स्त्री का दु:ख नहीं देख सका, तब उसनेनेत्र ख़ूब जोर से मींच लिये…

निशीथ के निविड़ अधकार में स्त्री ने पुकारकर कहा, ‘ओ मेरे ईश्वर, ओ मेरे पुरुष यह देखो!’
पुरुष ने पास जाकर देखा, टटोला और क्षण-भर स्तब्ध रह गया। उसकी आत्मा के भीतर विस्मय की, भय की एक पुलक उठी, उसने धीरे से स्त्री का सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया…

फूटते हुए कोमल प्रकाश में उसने देखा, स्त्री उसी के एक बहुत स्निग्ध, बहुत प्यारे प्रतिरूप को अपनी छाती से चिपटाये है और थकी हुई सो रही है। उसका हृदय एक प्रकांड विस्मय से, एक दुस्सह उल्लास से भर आया और उसके भीतर एक प्रश्न फूट निकला, ‘ईश्वर, यह क्या सृष्टि है जो तूने नहीं की?’

ईश्वर ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब मानव ने साँप से पूछा, ‘ओ ज्ञान के रक्षक साँप, बताओ यह क्या है जिसने मुझे तुम्हारा और ईश्वर का समकक्ष बना दिया है-एक स्रष्टा-बताओ, मैं जानना चाहता हूँ?’

उसके यह प्रश्न पूछते ही अनहोनी घटना घटी। पृथ्वी घूमने लगी, तारे दीप्त हो उठे, फिर सूर्य उदित हो आया और दीप्त हो उठा, बादल गरज उठे, बिजली तड़प उठी… विश्व चल पड़ा!

साँप ने कहा, ‘मैं हार गया। ईश्वर ने ज्ञान मुझसे छीन लिया।’ और उसकी गुंजलक धीरे-धीरे खुल गयी।
ईश्वर ने कहा, ‘मेरी सृष्टि सफल हुई, लेकिन विजय मानव की है। मैं ज्ञानमय हूँ, पूर्ण हूँ। मैं कुछ खोजना नहीं। मानव में जिज्ञासा है, अत: यह विश्व को चलाता है, गति देता है…’

लेकिन मानव की उलझन थी, अस्तित्व की समस्या थी। पुकार-पुकारकर कहता जाता था, ‘मैं जानना चाहता हूँ।’

और जितनी बार वह प्रश्न दुहराता था, उतनी बार सूर्य कुछ अधिक दीप्त हो उठता था, पृथ्वी कुछ अधिक तेज़ी से घूमने लगती थी, विश्व कुछ अधिक गति से चल पड़ता था और मानव के हृदय का स्पन्दन भी कुछ अधिक भरा हो जाता था।
आज भी जब मानव यह प्रश्न पूछ बैठता है, तब अनहोनी घटनाएँ होने लगती हैं।

कलाकार की मुक्ति – कहानी
मैं कोई कहानी नहीं कहता। कहानी कहने का मन भी नहीं होता, और सच पूछो तो मुझे कहानी कहना आता भी नहीं है। लेकिन जितना ही अधिक कहानी पढ़ता हूँ या सुनता हूँ उतना ही कौतूहल हुआ करता है कि कहानियाँ आखिर बनती कैसे हैं! फिर यह भी सोचने लगता हूँ कि अगर ऐसे न बनकर ऐसे बनतीं तो कैसा रहता? और यह प्रश्न हमेशा मुझे पुरानी या पौराणिक गाथाओं की ओर ले जाता है। कहते हैं कि पुराण-गाथाएँ सब सर्वदा सच होती है क्योंकि उनका सत्य काव्य-सत्य होता है, वस्तु-सत्य नहीं। उस प्रतीक सत्य को युग के परिवर्तन नहीं छू सकते।लेकिन क्या प्रतीक सत्य भी बदलते नहीं? क्या सामूहिक अनुभव में कभी परिवर्तन नहीं आता? वृद्धि भी तो परिवर्तन है और अगर कवि ने अनुभव में कोई वृद्धि नहीं की तो उसकी संवेदना किस काम की?

यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते मानो एक नई खिडक़ी खुल जाती है और पौराणिक गाथाओं के चरित-नायक नए वेश में दीखने लगते हैं। वह खिडक़ी मानो जीवन की रंगस्थली में खुलनेवाली एक खिडक़ी है, अभिनेता रंगमंच पर जिस रूप में आएँगे उससे कुछ पूर्व के सहज रूप में उन्हें इस खिडक़ी से देखा जा सकता है। या यह समझ लीजिए कि सूत्रधार उन्हें कोई आदेश न देकर रंगमंच पर छोड़ दे तो वे पात्र सहज भाव से जो अभिनय करेंगे वह हमें दीखने लगता है और कैसे मान लें कि सूत्रधार के निर्देश के बिना पात्र जिस रूप में सामने आते हैं-जीते हैं-यही अधिक सच्चा नहीं है?

शिप्र द्वीप के महान कलाकार पिंगमाल्य का नाम किसने नहीं सुना? कहते हैं कि सौन्दर्य की देवी अपरोदिता का वरदान उसे प्राप्त है-उसके हाथ में असुन्दर कुछ बन ही नहीं सकता। स्त्री-जातिमात्र से पिंगमाल्य को घृणा है लेकिन एक के बाद एक सैकड़ों स्त्री-मूर्तियाँ उसने निर्माण की है। प्रत्येक को देखकर दर्शक उसे उससे पहली निर्मित से अधिक सुन्दर बताते हैं और विस्मय से कहते हैं, ‘‘इस व्यक्ति के हाथ में न जाने कैसा जादू है। पत्थर भी इतना सजीव दीखता है कि जीवित व्यक्ति भी कदाचित् उसकी बराबरी न कर सके। कहीं देवी अपरोदिता प्रस्तर-मूर्तियों में जान डाल देतीं। देश-देशान्तर के वीर और राजा उस नारी के चरण चूमते जिसके अंग पिंगमाल्य की छेनी ने गढ़े हैं और जिसमें प्राण स्वयं देवी अपरोदिता ने फूँके हैं।’’

कभी कोई समर्थन में कहता, ‘‘हाँ, उस दिन पिंगमाल्य की कला पूर्ण सफल हो जाएगी, और उसके जीवन की साधना भी पूरी हो जाएगी-इससे बड़ी सिद्धि और क्या हो सकती है!’’

पिंगमाल्य सुनता और व्यंग्य से मुस्करा देता। जीवित सौन्दर्य कब तक पाषाण के सौन्दर्य की बराबरी कर सकता है! जीवन में गति है, ठीक है; लेकिन गति स्थानान्तर के बिना भी हो सकती है-बल्कि वह तो सच्ची गति है। कला की लयमयता-प्रवहमान रेखा का आवर्तन और विर्वतन-यह निश्चल सेतु जो निरन्तर भूमि को अन्तरिक्ष से मिलाता चलता है-जिस पर से हम क्षण में कई बार आकाश को छूकर लौट आ सकते हैं-वही तो गति है! नहीं तो सुन्दरियाँ पिंगमाल्य ने अमथ्य के उद्यानों में बहुत देखी थीं-उन्हीं की विलासिता और अनाचारिता के कारण तो उसे स्त्री-जाति से घृणा हो गयी थी… उसे भी कभी लगता कि जब वह मूर्ति बनाता है तो देवी अपरोदिता उसके निकट अदृश्य खड़ी रहती है-देवी की छाया-स्पर्श ही उसके हाथों को प्रेरित करता है, देवी का यह ध्यान ही उसकी मन:शक्ति को एकाग्र करता है। कभी वह मूर्ति बनाते-बनाते अपरोदिता के अनेक रूपों का ध्यान करता चलता-काम की जननी, विनोद की रानी, लीला-विलास की स्वामिनी, रूप की देवी…

एक दिन साँझ को पिंगमाल्य तन्मय भाव से अपनी बनायी हुई एक नई मूर्ति को देख रहा था। मूर्ति पूरी हो चुकी थी और एक बार उस पर ओप भी दिया जा चुका था। लेकिन उसे प्रदर्शित करने से पहले साँझ के रंजित प्रकाश में वह स्थिर भाव से देख लेना चाहता था। वह प्रकाश प्रस्तर को जीवित त्वचा की सी क्रान्ति दे देता है, दर्शक उससे और अधिक प्रभावित होता है, लेकिन कलाकार उसमें कहीं कोई कोर-कसर रह गयी हो तो उसे भी देख लेता है।

किन्तु कहीं कोई कमी नहीं थी, पिंगमाल्य मुग्ध माव से उसे देखता हुआ मूर्ति को सम्बोधन करके कुछ कहने ही जा रहा था कि सहसा कक्ष में एक नया प्रकाश भर गया जो साँझ के प्रकाश से भिन्न था। उसकी चकित आँखों के सामने प्रकट होकर देवी अपरोदिता ने कहा, ‘‘पिंगमाल्य, मैं तुम्हारी साधना से प्रसन्न हूँ। आजकल कोई मूर्तिकार अपनी कला से मेरे सच्चे रूप के इतना निकट नहीं आ सका है, जितना तुम। मैं सौन्दर्य की पारमिता हूँ। बोलो, तुम क्या चाहते हो-तुम्हारी कौन-सी अपूर्ण, अव्यक्त इच्छा है?’’
पिंगमाल्य अपलक उसे देखता हुआ किसी तरह कह सका, ‘‘देवि, मेरी तो कोई इच्छा नहीं है। मुझमें कोई अतृप्ति नहीं है।’’
‘‘तो ऐसे ही सही,’’ देवी तनिक मुस्करायी, ‘‘मेरी अतिरिक्त अनुकम्पा ही सही। तुम अभी मूर्ति से कुछ कहने जा रहे थे मेरे वरदान से अब मूर्ति ही तुम्हें पुकारेगी-’’
रोमांचित पिंगमाल्य ने अचकचाते हुए कहा, ‘‘देवि…’’
‘‘और उसके उपरान्त…’’ देवी ने और भी रहस्यपूर्ण भाव से मुस्कराकर कहा, ‘‘पर उसके अनन्तर जो होगा वह तुम स्वयं देखना, पिंगमाल्य! मैं मूर्ति को नहीं, तुम्हें भी नया जीवन दे रही हूँ-और मैं आनन्द की देवी हूँ!’’
एक हल्के-से स्पर्श से मूर्ति को छूती हुई देवी उसी प्रकार सहसा अन्तर्धान हो गयी, जिस प्रकार वह प्रकट हुई थी।
लेकिन देवी के साथ जो आलोक प्रकट हुआ था, वह नहीं बुझा। वह मूर्ति के आसपास पुंजित हो आया।
एक अलौकिक मधुर कंठ ने कहा, ‘‘मेरे निर्माता-मेरे स्वामी!’’ और पिंगमाल्य ने देखा कि मूर्ति पीठिका से उतरकर उसके आगे झुक गयी है।
पिंगमाल्य काँपने लगा। उसके दर्शकों ने अधिक-से-अधिक अतिरंजित जो कल्पना की थी वह तो सत्य हो आयी है। विश्व का सबसे सुन्दर रूप सजीव होकर उसके सम्मुख खड़ा है, और उसका है। रूप भोग्य है, नारी भी…
मूर्ति ने आगे बढक़र पिंगमाल्य की भुजाओं पर हाथ रखा और अत्यन्त कोमल दबाव से उसे अपनी ओर खींचने लगी।
यह मूर्ति नहीं, नारी है। संसार की सुन्दरतम नारी, जिसे स्वयं अपरोदिता ने उसे दिया है। देवी जो गढ़ती है उससे परे सौन्दर्य नहीं है; जो देती है उससे परे आनन्द नहीं है। पिंगमाल्य के आगे सीमाहीन आनन्द का मार्ग खुला है।
जैसे किसी ने उसे तमाचा मार दिया है, ऐसे सहसा पिंगमाल्य दो कदम पीछे हट गया। स्वर को यथासम्भव सम और अविकल बनाने का प्रयास करते हुए उसने कहा, ‘‘तुम यहाँ बैठो।’’

रूपसी पुन: उसी पीठिका पर बैठ गयी, जिस पर से वह उतरी थी। उसके चेहरे की ईषत् स्मित कक्ष में चाँदनी बिखरेनी लगी।

दूसरे दिन पिंगमाल्य का कक्ष नहीं खुला। लोगों को विस्मय तो हुआ, लेकिन उन्होंने मान लिया कलाकार किसी नई रचना में व्यस्त होगा। सायंकाल जब धूप फिर पहले दिन की भाँति कक्ष के भीतर वायुमंडल को रंजित करती हुई पडऩे लगी तब देवी अपरोदिता ने प्रकट होकर देखा कि पिंगमाल्य अपलक वहीं-का-वहीं खड़ा है और रूपसी जड़वत् पीठिका पर बैठी है। इस अप्रत्याशित दृश्य को देखकर देवी ने कहा, ‘‘यह क्या देखती हूँ, पिंगमाल्य? मैंने तो तुम्हें अतुलनीय सुख का वरदान दिया था?’’
पिंगमाल्य ने मानो सहसा जागकर कहा, ‘‘देवी, यह आपने क्या किया?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मेरी जो कला अमर और अजर थी, उसे आप ने जरा-मरण के नियमों के अधीन कर दिया! मैंने तो सुख-भोग नहीं माँगा-मैं तो यही जानता आया कि कला का आनन्द चिरन्तन है।’’

देवी हँसने लगी, ‘‘भोले पिंगमाल्य! लेकिन कलाकार सभी भोले होते हैं। तुम यह नहीं जानते कि तुम क्या माँग रहे हो-या कि क्या तुम्हें मिला है जिसे तुम खो रहे हो। किन्तु तुम चाहते हो तो और विचार करके देख लो। मैं तुम्हारी मूर्ति को फिर जड़वत् किये जाती हूँ। लेकिन रात को तुम उसे पुकारोगे और उत्तर न पाकर अधीर हो उठोगे। कल मैं आकर पूछूँगी-तुम चाहोगे तो कल मैं इसमें फिर प्राण डाल दूँगी। मेरे वरदान वैकल्पिक नहीं होते। लेकिन तुम मेरे विशेष प्रिय हो, क्योंकि तुम रूपस्रष्टा हो।’’

देवी फिर अन्तर्धान हो गयी। उसके साथ ही कक्ष का आलोक भी बुझ गया। पिंगमाल्य ने लपककर मूर्ति को छूकर देखा, वह मूर्ति ही थी, सुन्दर ओपयुक्त, किन्तु शीतल और निष्प्राण।

विचार करके और क्या देखना है? वह रूप का स्रष्टा है, रूप का दास होकर रहना वह नहीं चाहता। मूर्ति सजीव होकर प्रेय हो जाए, यह कलाकार की विजय भी हो सकती है, लेकिन कला की निश्चय ही वह हार है।…पिंगमाल्य ने एक बार फिर मूत्र्त को स्पर्श करके देखा। कल देवी फिर प्रकट होगी और इस मूर्ति में प्राण डाल देगी आज जो पिंगमाल्य की कला है, कल वह एक किंवदन्ती बन जाएगी। लोग कहेंगे कि इतना बड़ा कलाकार पहले कभी नहीं हुआ, और यही प्रशंसा का अपवाद भविष्य के लिए उसके पैरों की बेडिय़ाँ बन जाएगा… किन्तु कल…

चौंककर पिंगमाल्य ने एक बार फिर मूर्ति को छुआ और मूर्ति की दोनों बाँहें अपनी मुट्ठियों में जकड़ लीं। कल… उसकी मु_ियों की पकड़ धीरे-धीरे शिथिल हो गयी। आज वह मूर्ति है, पिंगमाल्य की गढ़ी हुई अद्वितीय सुन्दर मूर्ति, कल यह एक नारी हो जाएगी-अपरोदिता से उपहार में मिली हुई अद्वितीय सुन्दर नारी। पिंगमाल्य ने भुजाओं को पकड़ कर मूर्ति को ऊँचा उठा लिया और सहसा बड़े जोर से नीचे पटक दिया।

मूर्ति चूर-चूर हो गयी।
अब वह कल नहीं आएगा। पिंगमाल्य की कला जरा-मरण के नियमों के अधीन नहीं होगी। कला उसकी श्रेय ही रहेगी, प्रेय होने का डर अब नहीं है।
किन्तु अपरोदिता? क्या देवी का कोप उसे सहना होगा? क्या उसने सौन्दर्य की देवी की अवज्ञा कर दी है! और इसीलिए अब उसकी रूप-कल्पी प्रतिभा नष्ट हो जाएगी?
किन्तु अवज्ञा कैसी? देवी ने स्वयं उसे विकल्प का अधिकार दिया है।

पिंगमाल्य धरती पर बैठ गया और अनमने भाव से मूर्ति के टुकड़ों को अँगुलियों से धीरे-धीरे इधर-उधर करने लगा।
क्या देवी अब भी छायावत् उसकी कोहनी के पीछे रहेगी और उसकी अँगुलियों कोप प्रेरित करती रहेगी? या कि वह उदासीन हो जाएगी? क्या वह-क्या वह आज के कला साधना में अकेला हो गया है?

पिंगमाल्य अवष्टि-सा उठकर खड़ा हो गया। एक दुर्दान्त साहसपूर्ण भाव उसके मन में उदित हुआ और शब्दों में बँध आया। कला-साधना में अकेला होना ही तो साधक होना है। वह अकेला नहीं हुआ है, वह मुक्त हो गया है।
वह आसक्ति से मुक्त हो गया है और वह देवी से भी मुक्त हो गया है।

कथा है कि पिंगमाल्य ने उस मूर्ति से जिसमें देवी ने प्राण डाले थे, विवाह कर लिया था और उससे एक सन्तान भी उत्पन्न की थी, जिसने अनन्तर प्रपोष नाम का नगर बसाया। किन्तु वास्तव में पिंगमाल्य की पत्नी शिलोद्भवा नहीं थी। बन्धनमुक्त हो जाने के बाद पिंगमाल्य ने पाया कि वह घृणा से भी मुक्त हो गया है। और उसने एक शीलवन्ती कन्या से विवाह किया। भग्न मूर्ति के खंड उसने बहुत दिनों तक अपनी मुक्ति की स्मृति में सँभाल रखे। मूर्ति के लुप्त हो जाने का वास्तविक इतिहास किसी को पता नहीं चला। देवी ने भी पिंगमाल्य के लिए व्यस्त होना आवश्यक समझा। क्योंकि कला-साधना की एक दूसरी देवी है, और निष्ठावान गृहस्थ जीवन की देवी उससे भी भिन्न है।

और पिंगमाल्य की वास्तविक कला-सृष्टि इसके बाद ही हुई। उसकी कीर्ति जिन मूर्तियों पर आधारित है वे सब इस घटना के बाद ही निर्मित हुईं।

कहानी मैं नहीं कहता। लेकिन मुझे कुतूहल होता है कि कहानियाँ आखिर बनती कैसे हैं? पुराण-गाथाओं के प्रतीक सत्य क्या कभी बदलते नहीं? क्या सामूहिक अनुभव में अभी कोई वृद्धि नहीं होती? क्या कलाकार की संवेदना ने किसी नए सत्य का संस्पर्श नहीं पाया?

गैंग्रीन –  कहानी
दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते ही मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझिल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था…
मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक-सी मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, ‘‘आ जाओ।’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, ‘‘वे यहाँ नहीं हैं?’’
‘‘अभी आए नहीं, दफ्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।’’
‘‘कब से गये हुए हैं?’’
‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं।’’
मैं ‘हूँ’ कहकर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं है। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।
मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए।’’ पर वह नहीं मानी, बोली, ‘‘वाह। चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आए हो। यहाँ तो…’’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ मुझे दे दो।’’

वह शायद, ‘ना’ करनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुँह’ करके उठी और भीतर चली गयी।

मैं उसके जाते हुए, दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा। यह क्या है… यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है…
मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहिन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकठ्ठे खेले हैं, इकठ्ठे लड़े और पिटे हंक और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकठ्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्या की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के, या बड़े-छोटेपन के बन्धनों में नहीं घिरा…

मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखने आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लडक़ी ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी सोचा नहीं था, किन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई है… और विशेषतया मालती पर…

मालती बच्चे को लेकर लौट आयी और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, ‘‘इसका नाम क्या है?’’
मालती ने बच्चों की ओर देखते हुए उत्तर दिया, ‘‘नाम तो कोई निश्चित नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं।’’
मैंने उसे बुलाया, ‘‘टिटी, टीटी, आ जा’’ पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने लगा, ‘‘उहुँ-उहुँ-उहुँ-ऊँ…’’

मालती ने फिर उसकी ओर एक नजर देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने ली…
काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किन्तु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की… यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँ, कैसे आया हूँ… चुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयी? या अब मुझे दूर इस विशेष अन्तर पर-रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती… पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए…

मैंने कुछ खिन्न-सा होकर, दूसरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई-’’
उसने एकाएक चौंककर कहा, ‘‘हूँ?’’
यह ‘हूँ’ प्रश्न-सूचक था, किन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी नहीं, चुप बैठा रहा। मालती कुछ बोली ही नहीं, थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किन्तु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देख, उन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुन: जगाकर गतिमान करने कभी, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो… वैसे जैसे बहुत देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाए कि वह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता… मुझे ऐसा जान पड़ा मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाए…
तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये। मैंने मालती की ओर देखा, पर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाये गये, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी।
वे, यानी मालती के पति आए। मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि फोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गयी, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में, और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर…
मालती के पति का नाम है महेश्वर। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैं, उसकी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रात:काल सात बजे डिस्पेंसरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद दोपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैं, डिस्पेंसरी के साथ के छोटे-से अस्पातल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने… उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताये हुए हैं और इसलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं…

मालती हम दोनों के लिए खाना ले आयी। मैंने पूछा, ‘‘तुम नहीं खाओगी? या खा चुकीं?’’
महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, ‘‘वह पीछे खाया करती है…’’

पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!
महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देेखकर बोले, ‘‘आपको तो खाने का मजा क्या ही आएगा ऐसे बेवक्त खा रहे हैं?’’
मैंने उत्तर दिया, ‘‘वाह! देर से खाने पर तो और भी अच्छा लगता है, भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।’’
मालती टोककर बोली, ‘‘ऊहूँ, मेरे लिए तो यह नई बात नहीं है… रोज़ ही ऐसा होता है…’’
मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी। बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था।
मैंने कहा, ‘‘यह रोता क्यों है?’’
मालती बोली, ‘‘हो ही गया है चिड़हिचड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है।’’ फिर बच्चे को डाँटकर कहा, ‘‘चुप कर।’’ जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया। और बोली, ‘‘अच्छा ले, रो ले।’’ और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी!
जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजनेवाले थे, महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, वहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आए हुए हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा… दो की शायद टाँग काटनी पड़े, गैंग्रीन हो गया है… थोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती किवाड़ बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, ‘‘अब खाना तो खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।’’
वह बोली, ‘‘खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,’’ किन्तु चली गयी। मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया।
दूर… शायद अस्पताल में ही, तीन खडक़े। एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना, मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी-सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है, ‘‘तीन बज गये…’’ मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य सम्पन्न हो गया हो…
थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयी, मैंने पूछा, ‘‘तुम्हारे लिए कुछ बचा भी था? सब कुछ तो…’’
‘‘बहुत था।’’
‘‘हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।’’ मैंने हँसकर कहा।
मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, ‘‘यहाँ सब्जी-वब्जी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं; मुझे आए पन्द्रह दिन हुए हैं, जो सब्जी साथ लाए थे वही अभी बरती जा रही है…’’
मैंने पूछा, ‘‘नौकर कोई नहीें है?’’
‘‘कोई ठीक मिला नहीं, शायद दो-एक दिन में हो जाए।’’
‘‘बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?’’
‘‘और कौन?’’ कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी। मैंने पूछा, ‘‘कहाँ गयी थीं?’’
‘‘आज पानी ही नहीं है, बरतन कैसे मँजेंगे?’’
‘‘क्यों, पानी को क्या हुआ?’’
‘‘रोज ही होता है… कभी वक्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बरतन मँजेंगे।’’
‘‘चलो तुम्हें सात बजे तक तो छुट्टी हुई’’ कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई?’’
यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, पर मेरी सहायता टिटी ने कह, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा। मैंने उसे दे दिया।
थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा नहीं, और बोली, ‘‘यहाँ आए कैसे?’’
मैंने कहा ही तो, ‘‘अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या करने?’’
‘‘तो दो-एक दिन रहोगे न?’’
‘‘नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है।’’
मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न-सी हो गयी। मैं फिर नोट बुक की तरफ़ देखने लगा।
थोड़ी देर बाद मुझे ही ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने किन्तु, यहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी क्या की जाए? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे-हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती…
मैंने पूछा, ‘‘तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?’’ मैं चारों ओर देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़ें।
‘‘यहाँ!’’ कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी, ‘‘यहाँ पढऩे को क्या?’’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं वापस जाकर जरूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा…’’ और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया…
थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, ‘‘आए कैसे हो, लारी में?’’
‘‘पैदल।’’
‘‘इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की।’’
‘‘आखिर तुमसे मिलने आया हूँ।’’
‘‘ऐसे ही आये हो?’’
‘‘नहीं, कुली पीछे आ रहा है,सामान लेकर। मैंने सोचा, बिस्तरा ले ही चलूँ।’’
‘‘अच्छा किया, यहाँ तो बस…’’ कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, ‘‘तब तुम थके होगे, लेट जाओ।’’
‘‘नहीं बिलकुल नहीं थका।’’
‘‘रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?’’
‘‘और तुम क्या करोगी?’’
‘‘मैं बरतन माँज रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे।’’
थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयी, टिटी को साथ लेकर। तब मैं भी लेट गया और छत की ओर दखेने लगा… मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बरतनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पडऩे लगे, मैं ऊँघने लगा…
एकाएक वह एक-स्वर टूट गया-मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी टूटी, मैं उस मौन में सुनने लगा…
चार खडक़ रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थी…
वही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार और उग्र रूप में। मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस यन्त्रवत- वह भी थके हुए यन्त्र के-से स्वर में कह रही है, ‘‘चार बज गये’’ मानो इस अनैच्छिक समय गिनने-गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडोमीटर यन्त्रवत् फासला नापता जाता है, और यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया… न जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गयी।
तब छह कभी के बज चुके थे,जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली, और मैं ने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं, और उनके साथ ही बिस्तर लिये हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आया, पानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, ‘‘आपने बड़ी देर की?’’
उन्होंने किंचित् ग्लानि -भरे स्वर में कहा, ‘‘हाँ, आज वह गैंग्रीन का ऑपरेशन करना ही पड़ा। एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेंस में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है।’’
मैंने पूछा, ‘‘गैंग्रीन कैसे हो गया?’’
‘‘एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के…’’
मैंने पूछा, ‘‘यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?’’
बोले, ‘‘हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पताल में भी…’’
मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गयी, बोली,’’हाँ, केस बनाते देर क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं, इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!’’
महेश्वर हँसे, बोले, ‘‘न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?’’
‘‘हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं…’’
महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिये, मालती मेरी ओर देखकर बोली, ‘‘ऐसे ही होते हैं डॉक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह है। मैं तो रोज ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो खयाल ही नहीं आता। पहले तो रात-रात भर नींद नहीं आया करती थी।’’
तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा, टिप् टिप् टिप् टिप् टिप् टिप्…
मालती ने कहा, ‘‘पानी!’’ और उठकर चली गयी। खनखनाहट से हमने जाना, बरतन धोये जाने लगे हैं…
टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्हें छोड़ मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, ‘‘उधर मत जा!’’ और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।
महेश्वर बोले… ‘‘अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी।’’
मैंने पूछा, ‘‘आप लोग भीतर ही सोते हैं? गरमी तो बहुत होती है?’’
‘‘होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाए? अबकी नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।’’ फिर कुछ रुककर बोले, ‘‘अच्छा तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।’’
टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, ‘‘मैं मदद करता हूँ,’’ और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिया।
अब हम तीनों… महेश्वर, टिटी और मैं पलंग पर बैठ गये और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किन्तु बीचबीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्र्तव्य याद करके रो उठता था, और फिर एकदम चुप हो जाता था… और कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे…
मालती बरतन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, ‘‘थोड़े-से आम लाया हूँ, वह भी धो लेना।’’
‘‘कहाँ हैं?’’
‘‘अँगीठी पर रखे हैं, कागज में लिपटे हुए।’’
मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये। जिस कागज में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार का टुकड़ा था। मालती चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षीण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी… वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी।
मुझे एकाएक याद आया… बहुत दिनों की बात थी… जब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाजिरी हो चुकने के बाद चोरी के क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बगीचे में पेड़ों में चढक़र कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना। मुझे याद आया… कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न-मन लौट आया करता था।

मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-पिता तंग थे, एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज पढ़ा करो, हफ्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मारकर चमड़ी उधेड़ दूँगा, मालती ने चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाडक़र फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क़ न पडऩे देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, ‘‘किताब समाप्त कर ली?’’ तो उत्तर दिया- ‘‘हाँ, कर ली,’’ पिता ने कहा, ‘‘लाओ मैं प्रश्न पूछूँगा,’’ तो चुप खड़ी रही। पिता ने फिर कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, ‘‘किताब मैंने फाडक़र फेंक दी है, मैं नहीं पढूँगी।’’

उसके बाद वह बहुत पिटी, पर वह अलग बात है। इस समय मैं यही सोच रहा था कि वही उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गयी है, कितनी शान्त, और एक अखबार के टुकड़े को तरसती है…. यह क्या, यह…
तभी महेश्वर ने पूछा, ‘‘रोटी कब बनेगी?’’
‘‘बस अभी बनाती हूँ।’’
पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्तव्यभावना बहुत विस्तीर्ण हो गयी,वह मालती की, ओर हाथ बढ़ाकर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठकर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई एक छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी…
और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, और भोजन की, और एक-दूसरे के कुछ कहने की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे।
हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी। वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी गया था, पर तुरन्त ही लेट गया।
मैंने महेश्वर से पूछा, ‘‘आप तो थके होंगे, सो जाइए।’’
वह बोले, ‘‘थके तो आप अधिक होंगे… अठारह मील पैदल चलकर आये हैं।’’ किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया, ‘‘थका तो मैं भी हूँ।’’
मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ रहे हैं।
तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी।
मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में-यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहीं, लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं इधर-उधर खिसककर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा।
पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था।
मैंने देखा.. उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस लगनेवाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यन्त शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो…
मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष… गरमी से सूखकर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष… धीरे-धीरे गा रहे हों… कोई राग जो कोमल है, किन्तु करुण नहीं, अशान्तिमय है, किन्तु उद्वेगमय नहीं…
मैंने देखा, प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुन्दर दीखते हैं…
मैंने देखा… दिन-भर की तपन, अशान्ति, थकान, दाह, पहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोये जा रहे हैं, जिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं..
पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंने… महेश्वर ऊँघ रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थी, और कह रही थी… ‘‘अभी छुट्टी हुई जाती है।’’ और मेरे कहने पर ही कि ‘‘ग्यारह बजनेवाले हैं’’ धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज ही इतने बज जाते हैं… मालती ने वह सब कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के लिए, रुकने को तैयार नहीं था…
चाँदनी में शिशु कैसा लगता है, इस अलस जिज्ञासा ने मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसककर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा, ‘‘क्या हुआ?’’ मैं झपटकर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल आयी, मैंने उस ‘खट्’ शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, ‘‘चोट बहुत लग गयी बेचारे के।’’
यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया।
मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए, हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘इसके चोटें लगती ही रहती हैं, रोज ही गिर पड़ता है।’’

एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने, मेरे समूचे अस्तित्व ने, विद्रोह के स्वर में कहा-मेरे मन ने भीतर ही, बाहर एक शब्द भी नहीं निकला -’’माँ, युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो-और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है?’’

और, तब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गयी है, उसके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गयी है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि वे उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया…
इतनी देर में, पूर्ववत् शान्ति हो गयी था। महेश्वर फिर लेटकर ऊँघ रहे थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपटकर चुप हो गया था, यद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप आकाश में देख रही थी, किन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?

तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठाकर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खडक़न के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज में उसने कहा, ‘‘ग्यारह बज गये…’’

बदलाकहानी
अंधेरे डिब्बे में जल्दी-जल्दी सामान ठेल, गोद के आबिद को खिड़की से भीतर सीट पर पटक, बड़ी लड़की जुबैदा को चढ़ा कर सुरैया ने स्वयं भीतर घुस कर गाड़ी के चलने के साथ-साथ लम्बी सांस ले कर पाक परवर्दिगार को याद किया ही था कि उसने देखा, डिब्बे के दूसरे कोने में चादर ओढ़े जो दो आकार बैठे हुए थे, वे अपने मुसलमान भाई नहीं सिख थे! चलती गाड़ी में स्टेशन की बत्तियों से रह-रह कर जो प्रकाश की झलक पड़ती थी, उस में उसे लगा, उन सिखों की स्थिर अपलक आंखों में अमानुषी कुछ है। उन की दृष्टि जैसे उसे देखती है पर उस की काया पर रुकती नहीं, सीधी भेदती हुई चली जाती है; और तेज धार-सा एक अलगाव उन में है, जिसे कोई छू नहीं सकता, छुएगा तो कट जाएगा! रोशनी इस के लिए काफी नहीं थी, पर सुरैया ने मानो कल्पना की दृष्टि से देखा कि उन आंखों में लाल-लाल डोरे पड़े हैं, और…और…वह डर से सिहर गयी। पर गाड़ी तेज चल रही थी, अब दूसरे डिब्बे में जाना असम्भव था। कूद पड़ना एक उपाय होता, किन्तु उतनी तेज गति में बच्चे-कच्चे लेकर कूदने से किसी दूसरे यात्री द्वारा उठा कर बाहर फेंक दिया जाना क्या बहुत बदतर होगा? यह सोचती और ऊपर से झूलती हुई खतरे की चेन के हैंडिल को देखती हुई वह अनिश्चित-सी बैठ गयी…आगे स्टेशन पर देखा जाएगा…एक स्टेशन तक तो कोई खतरा नहीं हैकम से कम अभी तक तो कोई वारदात इस हिस्से हुई नहीं…”आप कहां तक जाएंगी?”

सुरैया चौंकी। बड़ा सिख पूछ रहा था। कितनी भारी उस की आवांज थी! जो शायद दो स्टेशन के बाद उसे मार कर ट्रेन से बाहर फेंक देगा, वह यहां उसे ‘आप’ कह कर सम्बोधन करे, इस की विडम्बना पर वह सोचती रह गयी और उत्तर में देर हो गयी। सिख ने फिर पूछा, ”आप कितनी दूर जाएंगी?”

सुरैया ने बुरका मुंह से उठा कर पीछे डाल रखा था, सहसा उसे मुंह पर खींचते हुए कहा, ”इटावे जा रही हूं।”

सिख ने क्षण-भर सोच कर कहा, ”साथ कोई नहीं है?”

उस तनिक-सी देर को लक्ष्य कर के सुरैया ने सोचा, ‘हिसाब लगा रहा है कि कितना वंक्त मिलेगा मुझे मारने के लिए…या रब, अगले स्टेशन पर कोई और सवारियां आ जाएं…और साथ कोई जरूर बताना चाहिएउस से शायद यह डरा रहे! यद्यपि आज-कल के जमाने में वह सफर में साथ क्या जो डिब्बे में साथ न बैठे…कोई छुरा भोंक दे तो अगले स्टेशन तक बैठी रहना कि कोई आ कर खिड़की के सामने खड़ा हो कर पूछेगा, ‘किसी चींज की जरूरत तो नहीं…’

उस ने कहा, ”मेरे भाई हैं…दूसरे डिब्बे में…”

आबिद ने चमक कर कहा, ”कहां मां? मामू तो लाहौर गये हुए हैं।…”

सुरैया ने उसे बड़ी जोर से डपट कर कहा, ”चुप रह!”

थोड़ी देर बाद सिख ने फिर पूछा ”इटावे में आप के अपने लोग हैं?”

”हां।”

सिख फिर चुप रहा। थोड़ी देर बाद बोला, ”आप के भाई को आप के साथ बैठना चाहिए था; आज-कल के हालात में कोई अपनों से अलग बैठता है?”

सुरैया मन ही मन सोचने लगी कि कहीं कम्बख्त ताड़ तो नहीं गया कि मेरे साथ कोई नहीं है!

सिख ने मानो अपने-आप से ही कहा, ”पर मुसीबत में किसी का कोई नहीं है, सब अपने ही अपने हैं…”

गाड़ी की चाल धीमी हो गयी। छोटा स्टेशन था। सुरैया असमंजस में बैठी थी कि उतरे या बैठी रहे? दो आदमी डिब्बे में और चढ़ आये सुरैया के मन ने तुरन्त कहा, ‘हिन्दू’ और तब वह सचमुच और भी डर गयी, और थैली-पोटली समेटने लगी।

सिख ने कहा, ”आप क्या उतरेंगी?”

”सोचती हूं भाई के पास जा बैठूं…”क्या जीव है इनसान कि ऐसे मौके पर भी झूठ की टट्टी की आड़ बनाए रखता है…और कितनी झीनी आड़, क्योंकि डिब्बा बदलवाने भाई स्वयं न आता? आता कहां से, हो जब न?…

सिख ने कहा, ”आप बैठी रहिये। यहां आप को कोई डर नहीं है। मैं आप को अपनी बहन समझता हूं और इन्हें अपने बच्चे…आप को अलीगढ़ तक ठीक-ठीक मैं पहुंचा दूंगा। उस से आगे खतरा भी नहीं है, और वहां से आप के भाई-बन्द भी गाड़ी में आ ही जाएंगे।”

एक हिन्दू ने कहा, ”सरदारजी, जाती है तो जाने दो न, आप को क्या?”

सुरैया न सोच पायी कि सिख की बात को, और इस हिन्दू की टिप्पणी को किस अर्थ में ले, पर गाड़ी ने चल कर ंफैसला कर दिया। वह बैठ गयी।

हिन्दू ने पूछा, ”सरदार जी, आप पंजाब से आये हो?”

”जी।”

”कहां घर है आप का?”

”शेखपुरे में था। अब यहीं समझ लीजिए…”

”यहीं? क्या मतलब?”

”जहां मैं हूं, वही घर है! रेल के डिब्बे का कोना।”

हिन्दू ने स्वर को कुछ संयत कर, जैसा गिलास में थोड़ी-सी हमदर्दी उंड़ेल कर सिख की ओर बढ़ाते हुए कहा, ”तब तो आप शरणार्थी हैं…”

सिख ने मानो गिलास को ‘जी, मैं नहीं पीता’ कह कर ठेलते हुए, एक सूखी हंसी हंस कर कहा, जिसकी अनुगूंज हिन्दू महाशय के कान नहीं पकड़ सके, ”जी।”

हिन्दू महाशय ने तनिक और दिलचस्पी के साथ कहा, ”आप के घर के लोगों पर तो बहुत बुरी बीती होगी…”

सिख की आंखों में एक पल के अंश-भर के लिए अंगार चमक गया, पर वह इस दाने को भी चुगने न बढ़ा। चुप रहा। हिन्दू ने सुरैया की ओर देखते हुए कहा, ”दिल्ली में कुछ लोग बताते थे, वहां उन्होंने क्या-क्या जुल्म किये हैं हिन्दुओं और सिक्खों पर। कैसी-कैसी बातें वे बताते थे, क्या बताऊं, जबान पर लाते शर्म आती है। औरतों को नंगा कर के…”

सिख ने अपने पास पोटली बन कर बैठे दूसरे व्यक्ति से कहा, ”काका, तुम ऊपर चढ़ कर सो रहो।” स्पष्ट ही वह सिख का लड़का था, और जब उस ने आदेश पा कर उठ कर अपने सोलह-सत्रह बरस के छरहरे बदन को अंगड़ाई में सीधा कर ऊपरी बर्थ की ओर देखा, तब उस की आंखों में भी पिता की आ/खों का प्रतिबिम्ब झलक आया। वह ऊपरी बर्थ पर चढ़ कर लेट गया, नीचे सिख ने अपनी टांगें सीधी की और खिड़की से बाहर की ओर देखने लगा।

हिन्दू महाशय की बात बीच में रुक गयी थी, उन्होंने फिर आरम्भ किया, ”बाप-भाइयों के सामने ही बेटियों-बहनों को नंगा कर के…”

सिख ने कहा, ”बाबू साहब, हम ने जो देखा है वह आप हमीं को क्या बताएंगे…” इस बार वह अनुगूंज पहले से ही स्पष्ट थी, लेकिन हिन्दू महाशय ने अब भी नहीं सुनी। मानो शह पा कर बोले, ”आप ठीक कहते हैं…हम लोग भला आप का दु:ख कैसे समझ सकते हैं! हमदर्दी हम कर सकते हैं, पर हमदर्दी भी कैसी जब दर्द कितना बड़ा है यही न समझ पाएं! भला बताइए, हम कैसे पूरी तरह समझ सकते हैं कि उन सिखों के मन पर क्या बीती होगी जिन की आंखों के सामने उन की बहू-बेटियों को…”

सिख ने संयम से कांपते हुए स्वर में कहा, ”बहू-बेटियां सब की होती हैं, बाबू साहब।”

हिन्दू महाशय तनिक-से अप्रतिभ हुए कि सरदार की बात का ठीक आशय उन की समझ में नहीं आ रहा। किन्तु अधिक देर तक नहीं बोले, ”अब तो हिन्दू-सिख भी चेते हैं। बदला लेना बुरा है, लेकिन कहां तक कोई सहेगा! इस दिल्ली में तो उन्होंने डट कर मोर्चे लिए हैं, और कहीं कहीं तो ईंट का जवाब पत्थर से देनेवाली मसल सच्ची कर दिखाई है। सच पूछो तो इलाज ही यही है। सुना है करोलबाग में किसी मुसलमान डॉक्टर की लड़की को…”

अब की बार सिख की वाणी में कोई अनुगूंज नहीं थी, एक प्रकट और रड़कनेवाली रुखाई थी। बोला, ”बाबू साहब, औरत की बेइज्जती सब के लिए शर्म की बात है। और बहिन…” यहां सिख सुरैया की ओर मुखातिब हुआ, ”आप से माफी मांगता हूं कि आप को यह सुनना पड़ रहा है।”

हिन्दू महाशय ने अचकचा कर कहा, ”क्या-क्या-क्या-क्या? मैंने इन से कुछ थोड़े ही कहा है?” फिर मानो अपने को कुछ संभालते हुए, और ढिठाई से कहा, ”ये आप के साथ हैं?”

सिख ने और भी रुखाई से कहा, ”जी। अलीगढ़ तक मैं पहुंचा रहा हूं।”

सुरैया के मन में किसी ने कहा, ‘यह विचारा शरींफ आदमी अलीगढ़ जा रहा है! अलीगढ़-अलीगढ़…’ उस ने साहस कर पूछा, ”आप अलीगढ़ उतरेंगे?”

”हां।”

”वहां कोई हैं आप के?”

”मेरा कहां कौन है? लड़का तो मेरे साथ है।”

”वहां कैसे जा रहे है? रहेंगे?”

”नहीं, कल लौट आऊंगा।”

”तो…तंफरीहन जा रहे हैं!”

”तंफरीह!” सिख ने खोये-से स्वर में कहा, ”तफरीह?” फिर संभल कर, ”नहीं, हम कहीं नहीं जा रहेअभी सोच रहे हैं कि कहां जाएं और जब टिकाऊ कुछ न रहे तब चलती गाड़ी में ही कुछ सोचा जा सकता है…”

सुरैया के मन में फिर किसी ने कोंच कर कहा, ‘अलीगढ़…अलीगढ़…बेचारा शरींफ है…”

उस ने कहा, ”अलीगढ़…अच्छी जगह नहीं है। आप क्यों जाते हैं?”

हिन्दू महाशय ने भी कहा, जैसे किसी पागल पर तरस खा रहे हों, ”भला पूछिए…”

”मुझे क्या अच्छी और क्या बुरी!”

”फिर भी आप को डर नहीं लगता? कोई छुरा ही मार दे रात में…”

सिख ने मुस्करा कर कहा, ”उसे कोई नजात समझ सकता है, यह आप ने कभी सोचा है?”

”कैसी बातें करते हैं आप!”

”और क्या! मारेगा भी कौन? या मुसलमान, या हिन्दू। मुसलमान मारेगा, तो जहां घर के और सब लोग गये हैं, वहीं मैं भी जा मिलूंगा; और अगर हिन्दू मारेगा, तो सोच लूंगा कि यही कसर वाकी थीदेश में जो बीमारी फैली है वह अपने शिखर पर पहुंच गयी और अब तन्दुरुस्ती का रास्ता शुरू होगा।”

”मगर भला हिन्दू क्यों मारेगा? हिन्दू लाख बुरा हो, ऐसा काम नहीं करेगा…”

सरदार को एकाएक गुस्सा चढ़ आया; उस ने तिरस्कारपूर्वक कहा, ”रहने दीजिए, बाबू साहब! अभी आप ही जैसे रस ले-ले कर दिल्ली की बातें सुना रहे थेअगर आप के पास छुरा होता और आप को अपने लिए ंखतरा न होता, तो आप क्याअपने साथ बैठी सवारियों को बंख्श देते? इन्हेंया मैं बीच में पड़ता तो मुझे?” हिन्दू महाशय कुछ बोलने को हुए पर हाथ के अधिकारपूर्ण इशारे से उन्हें रोकते हुए सरदार कहता गया, ”अब आप सुनना ही चाहते हैं तो सुन लीजिए कान खोल कर। मुझ से आप हमदर्दी दिखाते हैं कि मैं आप का शरणार्थी हूं। हमदर्दी बड़ी चीज है, मैं अपने को निहाल समझता, अगर आप हमदर्दी देने के काबिल होते। लेकिन आप मेरा दर्द कैसे जान सकते हैं, जब आप उसी सांस में दिल्ली की बातें ऐसे बेदर्द ढंग से करते हैं? मुझ से आप हमदर्दी कर सकते होतेउतना दिल आप में होता तो जो बातें आप सुनाना चाहते हैं, उनसे शर्म के मारे आप की जबान बन्द हो गयी होतीसिर नीचा हो गया होता! औरत की बेइंज्ंजती औरत की बेइंज्ंज्ती है, वह हिन्दू या मुसलमान की नहीं, वह इनसान की मां की बेइज्जती है। शेखपुरे में हमारे साथ जो हुआ सो हुआमगर मैं जानता हूं कि उस का मैं बदला कभी नहीं ले सकता हूं क्योंकि उसका बदला हो ही नहीं सकता। मैं बदला दे सकता हूं और वह यही, कि मेरे साथ जो हुआ है, वह और किसी के साथ न हो। इसीलिए दिल्ली और अलीगढ़ के बीच इधर और उधर लोगों को पहुंचता हूं, मैं; मेरे दिन भी कटते हैं और कुछ बदला चुका भी पाता हूं, और इसी तरह, अगर कोई किसी दिन मार देगा तो बदला पूरा हो जाएगाचाहे मुसलमान मारे, चाहे हिन्दू! मेरा मंकसद तो इतना है कि चाहे हिन्दू हो, चाहे सिख हो, चाहे मुसलमान हो, जो मैं ने देखा है वह किसी को न देखना पड़े; और मरने से पहले मेरे घर के लोगों की जो गति हुई, वह परमात्मा न करे किसी की बहू-बेटियों को देखनी पड़े।”

इस के बाद बहुत देर तक गाड़ी में बिलकुल सन्नाटा रहा। अलीगढ़ के पहले जब गाड़ी धीमी हुई, तब सुरैया ने बहुत चाहा कि सरदार से शुक्रिया के दो शब्द कह दे, पर उस के मुंह से भी बोल नहीं निकला।

सरदार ने ही आधे उठ कर ऊपर के बर्थ की ओर पुकारा, ”काका, उठो, अलीगढ़ आ गये है।” फिर हिन्दू महाशय की ओर पुकारा, ”काका, उठो, अलीगढ़ आ गया है।” फिर हिन्दू महाशय की ओर देख कर बोला, ”बाबू साहब, कुछ कड़ी बात कह गया हूं तो मांफ करना, हम लोग तो आप की सरन हैं!”

हिन्दू महाशय की मुद्रा से स्पष्ट दीखा कि वहां वह सिख न उतर रहा होता तो स्वयं उतर कर दूसरे डिब्बे में जा बैठते।

मेजर चौधरी की वापसीकहानी

किसी की टाँग टूट जाती है, तो साधारणतया उसे बधाई का पात्र नहीं माना जाता। लेकिन मेजर चौधरी जब छह सप्ताह अस्पताल में काटकर बैसाखियों के सहारे लडख़ड़ाते हुए बाहर निकले, तो बाहर निकलकर उन्होंने मिजाजपुर्सी के लिए आये हुये अफसरों को बताया कि उनकी चार सप्ताह की ‘वारलीव’ के साथ उन्हें छह सप्ताह की ‘कम्पेशनेट लीव1’ भी मिली है, और उसके बाद ही शायद कुछ और छुट्टी के अनन्तर उन्हें सैनिक नौकरी से छुटकारा मिल जाएगा, तब सुननेवालों के मन में अवश्य ही ईष्र्या की लहर दौड़ गयी थी। क्योंकि मोकोक्चङ् यों सब-डिवीजन का केन्द्र क्यों न हो, वैसे वह नगा पार्वत्य जंगलों का ही एक हिस्सा था, और जोंक, दलदल, मच्छर, चूती छतें, कीचड़ फर्श, पीने को उबाला जाने पर भी गँदला पानी और खाने को पानी में भिगोकर ताजा किये गये सूखे आलू-प्याज-ये सब चीज़ें ऐसी नहीं हैं कि दूसरों के सुख-दु:ख के प्रति सहज औदार्य की भावना को जागृत करें!मैं स्वयं मोकोक्चङ् में नहीं, वहाँ से तीस मील नीचे मरियानी में रहता था, जो कि रेल की पक्की सडक़ द्वारा सेवित छावनी थी। मोकोक्चङ् अपनी सामग्री और उपकरणों के लिए मरियानी पर निर्भर था इसलिए मैं जब-तब एक दिन के लिए मोकोक्चङ् जाकर वहाँ की अवस्था देख आया करता था। नाकाचारी चार-आली2 से आगे रास्ता बहुत ही खराब है और गाड़ी कीच-काँदों में फँस-फँस जाती है, किन्तु उस प्रदेश की आव नगा जाति के हँसमुख चेहरों और साहाय्य-तत्पर व्यवहार के कारण वह जोखम बुरी नहीं लगती।

मुझे तो मरियानी लौटना था ही, मेजर चौधरी भी मेरे साथ ही चले-मरियानी से रेल-द्वारा वह गौहाटी होते हुए कलकत्ते जाएँगे और वहाँ से अपने घर पश्चिम को…
स्टेशन-वैगन चलाते-चलाते मैंने पूछा, ‘‘मेजर साहब, घर लौटते हुए कैसा लगता है?’’ और फिर इस डर से कि कहीं मेरा प्रश्न उन्हें कष्ट ही न दे, ‘‘आपके इस-इस एक्सिडेंट से अवश्य ही इस प्रत्यागमन पर एक छाया पड़ गयी है, पर फिर भी घर तो घर है-’’
अस्पताल के छह हफ्ते मनुष्य के मन में गहरा परिवर्तन कर देते हैं, यह अचानक तब जाना जब मेजर चौधरी ने कुछ सोचते-से उत्तर दिया, ‘‘हाँ, घर तो घर ही है। पर जो एक बार घर से जाता है, वह लौटकर भी घर लौटता ही है, इसका क्या ठिकाना?’’
मैंने तीखी दृष्टि से उनकी ओर देखा। कौन-सा गोपन दु:ख उन्हें खा रहा है- ‘घर’ की स्मृति को लेकर कौन-सा वेदन ठूँठ इनकी विचारधारा में अवरोध पैदा कर रहा है? पर मैंने कुछ कहा नहीं, प्रतीक्षा में रहा कि कुछ और कहेंगे।
देर तक मौन रहा, गाड़ी नाकाचारी की लीक में उचकती-धचकती चलती रही।

थोड़ी देर बाद मेजर चौधरी फिर धीरे-धीरे कहने लगे, ‘‘देखो, प्रधान, फौज में जो भरती होते हैं, न जाने क्या-क्या सोचकर, किस-किस आशा से। कोई-कोई अभागा आशा से नहीं निराशा से भी भरती होता है, और लौटने की कल्पना नहीं करता। लेकिन जो लौटने की बात सोचते हैं-और प्राय: सभी सोचते हैं-वे मेरी तरह लौटने की बात नहीं सोचते।’’
उनका स्वर मुझे चुभ गया। मैंने सान्त्वना के स्वर में कहा, ‘‘नहीं मेजर चौधरी, इतने हतधैर्य आपको नहीं।’’
‘‘मुझे कह लेने दो, प्रधान!’’
मैं रुक गया।
‘‘मेरी जाँघ और कूल्हे में चोट लगी थी, अब मैं सेना के काम का न रहा पर आजीवन लँगड़ा रहकर भी वैसे चलने-फिरने लगूँगा, यह तुमने अस्पताल में सुना है। सिविल जीवन में कई पेशे हैं जो मैं कर सकता हूँ। इसलिए घबराने की कोई बात नहीं। ठीक है न? पर-’’ मेजर चौधरी फिर रुक गये और मैंने लक्ष्य किया कि आगे की बात कहने में उन्हें कष्ट हो रहा है; ‘‘पर चोटें ऐसी भी होती हैं-जिनका इलाज-नहीं होता…’’

मैं चुपचाप सुनता रहा।

‘‘भरती होने से साल-भर पहले मेरी शादी हुई थी। तीन साल हो गये। हम लोग साथ लगभग नहीं रहे-वैसी सुविधाएँ नहीं हुईं। हमारी कोई सन्तान नहीं है।’’
फिर मौन। क्या मेरी ओर से कुछ अपेक्षित है? किन्तु किसी आन्तरिक व्यथा की बात अगर वह कहना चाहते हैं, तो मौन ही सहायक हो सकता है, वही प्रोत्साहन है।
‘‘सोचता हूँ, दाम्पत्य-जीवन में शुरू में-इतनी-कोमलता न बरती होगी! कहते हैं कि स्त्री-पुरुष में पहले सख्य आना चाहिए-मानसिक अनुकूलता-’’
मैंने कनखियों ने उनकी तरफ़ देखा। सीधे देखने से स्वीकारी अन्तरात्मा की खुलती सीपी खट् से बन्द हो जाया करती है। उन्हें कहने दूँ।

पर उन्होंने जो कहा उसके लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं था और अगर उनके कहने के ढंग में ही इतनी गहरी वेदना न होती तो जो शब्द कहे गये थे उनसे पूरा व्यंजनार्थ भी मैं न पा सकता…
‘‘हमारी कोई सन्तान नहीं है। और अब-जिससे आगे कुछ नहीं है वह सख्य भी कैसे हो सकता है? उसे-एक सन्तान का ही सहारा होता है… कुछ नहीं! प्रधान, यह ‘कम्पैशनेट लीव’ अच्छा मजाक है-कम्पैशन भगवान को छोडक़र और कौन दे सकता है और मृत्यु के अलावा होता कहाँ है? अब इति से आरम्भ है! घर!’’ कुछ रुककर, ‘‘वापसी! घर!’’
मैं सन्न रह गया! कुछ बोल न सका। थोड़ी देर बाद चौंककर देखा कि गाड़ी की चाल अपने-आप बहुत धीमी हो गयी है, इतनी कि तीसरे गीयर पर वह झटके दे रही है। मैंने कुछ सँभलकर गीयर बदला, और फिर गाड़ी तेज़ करके एकाग्र होकर चलाने लगा-नहीं, एकाग्र होकर नहीं, एकाग्र दीखता हुआ।

तब मेजर चौधरी एक बार अपना सिर झटके से हिलाकर मानो उस विचार-शृंखला को तोड़ते हुए सीधे होकर बैठ गये। थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा, ‘‘क्षमा करना, प्रधान, मैं शायद अनकहनी कह गया। तुम्हारे प्रश्नों के लिए तैयार नहीं था-’’
मैंने रुकते-रुकते कहा, ‘‘मेजर, मेरे पास शब्द नहीं हैं कि कुछ कहूँ-’’
‘‘कहोगे क्या, प्रधान? कुछ बातें शब्द से परे होती हैं-शायद कल्पना से भी परे होती हैं। क्या मैं भी जानता हूँ कि-कि घर लौटकर मैं क्या अनुभव करूँगा? छोड़ो इसे। तुम्हें याद है, पिछले साल मैं कुछ महीने मिलिटरी पुलिस में चला गया था?’’
मैंने जाना कि मेजर विषय बदलना चाह रहे हैं। पूरी दिलचस्पी के साथ बोला, ‘‘हाँ-हाँ। वह अनुभव भी अजीब रहा होगा।’’
‘‘हाँ। तभी की एक बात अचानक याद आयी है। मैं शिलङ् में प्रोवोस्ट मार्शल1 के दफ्तर में था। तब-वें डिवीजन की कुछ गोरी पलटनें वहाँ विश्राम और नए सामान के लिए बर्मा से लौटकर आयी थीं।’’
‘‘हाँ, मुझे याद है। उन लोगों ने कुछ उपद्रव भी वहाँ खड़ा किया था।’’
‘‘काफ़ी! एक रात मैं जीप लिये गश्त पर जा रहा था। हैपी वैली की छावनी से जो सडक़ शिलङ् बस्ती को आती है वह बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी और उतार-चढ़ाव की है और चीड़ के झुरमुटों से छायी हुई, यह तो तुम जानते हो। मैं एक मोड़ से निकला ही था कि मुझे लगा, कुछ चीज़ रास्ते से उछलकर एक ओर को दुबक गयी है। गीदड़-लोमड़ी उधर बहुत हैं, पर उनकी फलाँग ऐसी अनाड़ी नहीं होती, इसलिए मैं रुक गया। झुरमुटों के किनारे खोजते हुए मैंने देखा; एक गोरा फौजी छिपना चाह रहा है। छिपना चाहता है तो अवश्य अपराधी है, यह सोचकर मैंने उसे जरा धमकाया और नाम, नम्बर, पलटन आदि का पता लिख लिया। वह बिना पास के रात को बाहर तो था ही, पूछने पर उसने बताया कि वह एक मील और नीचे नाङ्मिथ्-माई की बस्ती को जा रहा था। इससे आगे का प्रश्न मैंने नहीं पूछा, उन प्रश्नों का उत्तर जानते ही हो और पूछकर फिर कड़ा दंड देना पड़ता है जो कि अधिकारी नहीं चाहते-जब तक कि खुल्लमखुल्ला कोई बड़ा स्कैंडल न हो।’’
‘‘हूँ। मैंने तो सुना है कि यथासम्भव अनदेखी की जाती है ऐसी बातों की। बल्कि कोई वेश्यालय में पकड़ा जाए और उसकी पेशी हो तो असली अपराध के लिए नहीं होती, वरदी ठीक न पहनने या अफ़सर की अवज्ञा या ऐसे ही किसी जुर्म के लिए होती है।’’

‘‘ठीक ही सुना है तुमने। असली अपराध के लिए ही हुआ करे तो अव्वल तो चालान इतने हों कि सेना बदनाम हो जाए; इससे इसका असर फौजियों पर भी तो उलटा पड़े- उनका दिमाग हर वक्त उधर ही जाया करे। खैर उस दिन तो मैंने उसे डाँट-डपटकर छोड़ दिया। पर दो दिन बाद फिर एक अजीब परिस्थिति में उसका सामना हुआ।’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘उस दिन मैं अधिक देर करके जा रहा था। आधी रात होगी, गश्त पर जाते हुए उसी जगह के आसपास मैंने एक चीख सुनी। गाड़ी रोककर मैंने बत्ती बुझा दी और टार्च लेकर एक पुलिया की ओर गया जिधर से आवाज आयी थी। मेरा अनुमान ठीक ही था; पुलिया के नीचे एक पहाड़ी औरत गुस्से से भरी खड़ी थी, और कुछ दूर पर एक अस्त-व्यस्त गोरा फौजी, जिसकी टोपी और पेटी जमीन पर पड़ी थी और बुश्शर्ट हाथ में। मैंने नीचे उतरकर डाँटकर पूछा, ‘यह क्या है?’ पर तभी मैंने उस फौजी की आँखों में देखकर पहचाना कि एक तो वह परसोंवाला व्यक्ति है, दूसरे वह काफ़ी नशे में है। मैंने और भी कड़े स्वर में पूछा, ‘तुम्हें शरम नहीं आती? क्या कर रहे थे तुम’?’’
वह बोला, ‘‘यह मेरी है?’’
मैंने कहा, ‘‘बको मत!’’ और उस औरत से कहा कि वह चली जाए। पर वह ठिठकी रही। मैंने उससे पूछा, ‘‘जाती क्यों नहीं?’’ तब वह कुछ सहमी-सी बोली, ‘‘मेरे रुपये ले दो।’’
‘‘काफ़ी बेशर्म रही होगी वह भी!’’
‘‘हाँ मामला अजीब ही था। दोनों को डाँटने पर दोनों ने जो टूटे-फूटे वाक्य कहे उससे यह समझ में आया कि दो-तीन घंटे पहले वह गोरा एक बार उस औरत के पास हो गया था और फिर आगे गाँव की तरफ़ चला गया था। लौटकर फिर उसे वह रास्ते में मिली तो गोरे ने उसे पकड़ लिया था। झगड़ा इसी बात का था कि गोरे का कहना था, वह रात के पैसे दे चुका है, और औरत का दावा था कि पिछला हिसाब चुकता था, और अब फौजी उसका देनदार है। मैंने उसे धमकाकर चलता किया। पहले तो वह गालियाँ देने लगी पर जब उसने देखा कि गोरा भी गिरफ्तार हो गया है तो बड़बड़ाती चली गयी।’’
‘‘फिर गोरे का क्या हुआ? उसे तो कड़ी सजा मिलनी चाहिए थी?’’
मेजर चौधरी थोड़ी देर तक चुप रहे। फिर बोले, ‘‘नहीं प्रधान, उसे सजा नहीं मिली। मालूम नहीं वह मेरी भूल थी या नहीं, पर जीप में ले आने के घंटा भर बाद मैंने उसे छोड़ दिया।’’
मैंने अचानक कहा, ‘‘वाह, क्यों?’’ फिर यह सोचकर कि यह प्रश्न कुछ अशिष्ट-सा हो गया है, मैंने फिर कहा, ‘‘कुछ विशेष कारण रहा होगा-’’
‘‘कारण? हाँ, कारण… था शायद। यह तो इस पर है कि कारण कहते किसे हैं। मैंने जैसे छोड़ा वह बताता हूँ।’’
मैं प्रतीक्षा करता रहा। मेजर कहने लगे, ‘‘उसे मैं जीप में ले आया। थोड़ी देर टार्च का प्रकाश उसके चेहरे पर डालकर घुमाता रहा कि वह और जरा सहम जाए। तब मैंने कडक़कर पूछा, ‘‘तुम्हें शरम नहीं आयी अपनी फौज का और ब्रिटेन का नाम कलंकित करते? अभी परसों मैंने तुम्हें पकड़ा था और माफ कर दिया था।’’ मेरे स्वर का उसके नशे पर कुछ असर हुआ। जरा सँभलकर बोला, ‘‘सर, मैं कुछ बुरा नहीं करना चाहता था।’’ मैंने फिर डाँटा, ‘‘सडक़ पर एक औरत को पकड़ते हो और कहते हो कि बुरा करना नहीं चाहते थे?’’ वह बगलें झाँकने लगा, पर फिर भी सफाई देता हुआ-सा बोला, ‘‘सर, वह अच्छी औरत नहीं है। वह रुपया लेती है-मैं तीन दिन से रोज उसके पास आता हूँ।’’ मैंने सोचा, बेहयाई इतना हो तो कोई क्या करे? पर इस टामी जन्तु में जन्तु का-सा सीधापन भी है जो ऐसी बात कर रहा है। मैंने कहा, ‘‘और तुम तो अपने को बड़ा अच्छा आदमी समझते होगे न, एकदम स्वर्ग से झरा हुआ फरिश्ता?’’ वह वैसे ही बोला, ‘‘नहीं सर, लेकिन-लेकिन…’’
‘‘मैंने कहा, ‘‘लेकिन क्या? तुमने अपनी पलटन का और अपना मुँह काला किया है, और कुछ नहीं।’’ तभी मुझे उस औरत की बात याद आयी कि वह कुछ घंटे पहले उसके पास हो गया था, और मेरा गुस्सा फिर भडक़ उठा। मैंने उससे कहा, ‘‘थोड़ी देर पहले तुम एक बार बचकर चले भी गये थे, उससे तुम्हें सन्तोष नहीं हुआ? आगे गाँव में कहाँ गये थे? एक बार काफ़ी नहीं था!’’
‘‘अब तक वह कुछ और सँभल गया था। बोला, सर, गलती मैंने की है। लेकिन-लेकिन मैं अपने साथियों से बराबर होना चाहता हूँ।’’
मैंने चौंककर कहा, ‘‘क्या मतलब?’’
वह बोला, ‘‘हमारा डिवीजन छह हफ्ते हुए यहाँ आ गया था, आप जानते हैं। डेढ़ साल से हम लोग फ्रंट पर थे जहाँ औरत का नाम नहीं, खाली मच्छर और कीचड़ और पेचिश होती है। वहाँ से मेरी पलटन छह हफ्ते पहले लौटी थी, पर मैं एक ब्रेकडाउन टुकड़ी के साथ पीछे रह गया था।’’
‘‘तो फिर?’’ मैंने पूछा।
बोला, ‘‘डिवीजन में मेरी पलटन सबसे पहली यहाँ आयी थी, बाकी पलटनें पीछे आयीं। छह हफ्ते से वे लोग यहाँ हैं, और मैं कुल परसों आया हूँ और दस दिन में हम लोग वापस चले जाएँगे।’’
मैंने डाँटा, ‘‘तुम्हारा मतलब क्या है?’’ उसने फिर धीरे-धीरे जैसे मुझे समझाते हुए कहा, ‘‘सारे शिलङ् के गाँवों की, नेटिव बस्तियों की छाँट उन्होंने की है। मैं केवल परसों आया हूँ, किसी से पीछे मैं नहीं रहना चाहता।’’

मेजर चौधरी चुप हो गये। मैं भी कुछ देर चुप रहा। फिर मैंने कहा, ‘‘क्या दलील है! ऐसा विकृत तर्क वह कैसे कर सका-नशे का ही असर रहा होगा। फिर आपने क्या किया?’’
‘‘मैं मानता हूँ कि तर्क विकृत है। पर इसे पेश कर सकने में मनुष्य से नीचे के निरे मानव-जन्तु का साहस है, बल्कि साहस भी नहीं, निरी जन्तु-बुद्धि हैं, और इसलिए उस पर विचार भी उसी तल पर होना चाहिए ऐसा मुझे लगा। समझ लो जन्तु ने जन्तु को माफ कर दिया। बल्कि यह कहना चाहिए कि जन्तु ने जन्तु को अपराधी ही नहीं पाया।’’ कुछ रुककर वह कहते गये, ‘‘यह भी मुझे लगा कि व्यक्ति में ऐसी भावना पैदा करनेवाली सामूहिक मन:स्थिति ही हो सकती है, और यदि ऐसा है तो समूह को ही दायी मानना चाहिए।’’

स्टेशन-वैगन हचकोले खाता हुआ बढ़ता रहा। मैं कुछ बोला नहीं। मेजर चौधरी ने कहा, ‘‘तुमने कुछ कहा नहीं। शायद तुम समझते हो कि मैंने भूल की, इसीलिए चुप हो। पर वैसा कह भी दो तो मैं बुरा न मानूँ- मेरा बिलकुल दावा नहीं है कि मैंने ठीक किया।’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं, इतना आसान तो नहीं है कुछ कह देना।’’ और चुप लगा गया। अपने अनुभव की भी जो एक घटना मुझे याद आयी, उसे मैं मन-ही-मन दोहराता रहा। फिर मैंने कहा, ‘‘एक ऐसी ही घटना मुझे भी याद आती है-’’
‘‘क्या?’’
‘‘उसमें ऐसा तीखापन तो नहीं है, पर जन्तु-तर्क की बात वहाँ भी लागू होती। एक दिन जोरहाट में क्लब में एक भारतीय नृत्य-मंडली आयी थी-हम लोग सब देखने गये थे। उस मंडली को और आगे लीडो रोड की तरफ़ जाना था, इसलिए उसे एक ट्रक में बिठाकर मरियानी स्टेशन भेजने की व्यवस्था हुई। मुझे उस ट्रक को स्टेशन तक सुरिक्षत पहुँचा देने का काम सौंपा गया।’’
‘‘ट्रक में मंडली की छहों लड़कियाँ और साजिन्दे वगैरह बैठ गये, तो मैंने ड्राइवर को चलने को कहा। गाड़ी से उड़ी हुई धूल को बैठ जाने के लिए कुछ समय देकर मैं भी जीप में क्लब से बाहर निकला। कुछ दूर तो बजरी की सडक़ थी, उसके बाद जब पक्की तारकोल की सडक़ आयी और धूल बन्द हो गयी तो मैंने तेज बढक़र ट्रक को पकड़ लेने की सोची। कुछ देर बार सामने ट्रक की पीठ दीखी, पर उसकी ओर देखते ही मैं चौंक गया।’’
‘‘क्यों, क्या बात हुई?’’
‘‘मैंने देखा, ट्रक की छत तक बाँहें फैलाए और पीठ की तख्ती के ऊपरी सिरे को दाँतों से पकड़े हुए एक आदमी लटक रहा था। तनिक और पास आकर देखा, एक बाबर्दी गोरा था। उसके पैर किसी चीज़ पर टिके नहीं थे, बूट यों ही झूल रहे थे। क्षण-भर तो मैं चकित सोचता ही रहा कि क्या दाँतों और नाखूनों की पकड़ इतनी मजबूत हो सकती है! फिर मैंने लपककर जीप उस ट्रक के बराबर करके ड्राइवर को रुक जाने को कहा।’’
‘‘फिर?’’
‘‘ट्रक रुका तो हमने उस आदमी को नीचे उतारा। उसके हाथों की पकड़ इतनी सख्त थी कि हमने उसे उतार लिया तब भी उसकी उँगलियाँ सीधी नहीं हुईं-वे जकड़ी-जकड़ी ही ऐंठ गयी थीं! और गोरा नीचे उतरते ही जमीन पर ही ढेर हो गया।’’
‘‘जरूर पिये हुए होगा…’’
‘‘हाँ-एकदम धुत्! आँखों की पुतलियाँ बिलकुल विस्फारित हो रही थीं, वह भौंचक्का-सा बैठा था। मैंने डपटकर उठाया तो लडख़ड़ाकर खड़ा हो गया। मैंने पूछा, ‘‘तुम ट्रक के पीछे क्यों लटके हुए थे?’’ तो बोला, ‘‘सर, मैं लिफ्ट चाहता हूँ।’’ मैंने कहा, ‘‘लिफ्ट का वह कोई ढंग है? चलो, मेरी जीप में चलो, मैं पहुँचा दूँगा। कहाँ जाना है तुम्हें?’’ इसका उसने कोई उत्तर नहीं दिया। हम लोग जीप में घुसे, वह लडख़ड़ाता हुआ चढ़ा और पीछे सीटों के बीच में फर्श पर धप् से बैठ गया।

‘‘हम चल पड़े। हठात् उसने पूछा, ‘‘सर, आप स्कॉच हैं?’’ मैंने लक्ष्य किया, नशे में वह यह नहीं पहचान सकता कि मैं भारतीय हूँ या अँग्रेज, पर इतना पहचानता है कि मैं अफसर हूँ और ‘सर’ कहना चाहिए। फौजी ट्रेनिंग भी बड़ी चीज़ है जो नशे की तह को भी भेद जाती है! खैर! मैंने कहा, ‘‘नहीं, मैं स्कॉच नहीं हूँ।’’
‘‘वह जैसे अपने से ही बोला, ‘‘डैम फाइन ह्विस्की।’’ और जबान चटखारने लगा। मैं पहले तो समझा नहीं, फिर अनुमान किया कि स्कॉच शब्द से उसका मदसिक्त मन केवल ह्विस्की का ही सम्बोधन जोड़ सकता है… तब मैंने कहा, ‘‘हाँ। लेकिन तुम जाओगे कहाँ?’’
बोला, ‘‘मुझे यही कहीं उतार दीजिए-जहाँ कहीं कोई नेटिव गाँव पास हो।’’ मैंने डपटकर कहा, ‘‘क्यों, क्या मंशा है तुम्हारी?’’ तब उसका स्वर अचानक रहस्य-भरा हो आया, और वह बोला, ‘‘सच बताऊँ सर, मुझे औरत चाहिए।’’ मैंने कहा, ‘‘यहाँ कहाँ है औरत?’’ तो वह बोला, ‘‘सर, मैं ढूँढ़ लूँगा, आप कहीं गाँव-वाँव के पास उतार दीजिए।’’
‘‘फिर तुमने क्या किया?’’
‘‘मेरे जी में तो आया कि दो थप्पड़ लगाऊँ। पर सच कहूँ तो उसके ‘मुझे औरत चाहिए’ के निव्र्याज कथन ने ही मुझे निरस्त्र कर दिया-मुझे भी लगा कि इस जन्तुत्व के स्तर पर मानव ताडऩीय नहीं, दयनीय है। मैंने तीन-चार मील आगे सडक़ पर उसे उतार दिया- जहाँ आस-पास कहीं गाँव का नाम-निशान न हो और लौट जाना भी जरा मेहनत का काम हो। अब तक कई बार सोचता हूँ कि मैंने उचित किया कि नहीं-’’
‘‘ठीक ही किया-और क्या कर सकते थे? दंड देना कोई इलाज न होता। मैं तो मानता हूँ कि जन्तु के साथ जन्तुतर्क ही मानवता है, क्योंकि वही करुणा है; और न्याय, अनुशासन, ये सब अन्याय हैं जो उस जन्तुत्व को पाशविकता ही बना देंगे।’’
हम लोग फिर बहुत देर तक चुप रहे। नाकाचारी चार-आली पार करके हमने मरियानी की सडक़ पकड़ ली थी; कच्ची यह भी थी पर उतनी खराब नहीं, और हम पीछे धूल के बादल उड़ाते हुए जरा तेज चल रहे थे। अचानक मेजर चौधरी मानो स्वगत कहने लगे, ‘‘और मैं मनुष्य हूँ। मैं नहीं सोच सकता कि ‘यह मेरी है’ या कि ‘मुझे औरत चाहिए!’ मैं छुट्टी पर जा रहा हँ-कम्पैशनेटर छुट्टी पर। कम्पैशन यानी रहम-मुझ पर रहम किया गया है, क्योंकि मैं उस गोरे की तरह हिर्स नहीं कर सकता कि मैं किसी के बराबर होना चाहता हूँ। नहीं, हिर्स तो कर सकता हूँ, पर मनुष्य हूँ और मैं वापस जा रहा हूँ घर। घर!’’
मैं चुपचाप आँखें सामने गड़ाये स्टेशन-वैगन चलाता रहा और मानता रहा कि मेजर का वह अजीब स्वर में उच्चारित शब्द ‘घर!’ गाड़ी की घर्र-घर्र में लीन हो जाए; उसे सुनने, सुनकर स्वीकारने की बाध्यता न हो।

उन्होंने फिर कहा, ‘‘एक बार मैं ट्रेन से आ रहा था तो उसी कम्पार्टमेंट में छुट्टी से लौटता हुए एक पंजाबी सूबेदार-मेजर अपने एक साथी को अपनी छुट्टी का अनुभव सुना रहा था। मैं ध्यान तो नहीं दे रहा था, पर अचानक एक बात मेरी चेतना पर अँक गयी और उसकी स्मृति बनी रह गयी। सूबेदार मेजर कह रहा था, ‘छुट्टी मिलती नहीं थी, कुल दस दिन की मंजूर हुई तो घरवाली को तारीखें लिखीं, पर उसका तार आया कि छुट्टी और पन्द्रह दिन बाद लेना। मुझे पहले तो सदमा पहुँचा पर उसने चिट्ठी में लिखा था कि दस दिन की छुट्टी में तीन तो आने-जाने के, बाकी छह दिन में से मैं नहीं चाहती कि तीन यों ही जाया हो जाएँ।’ और इस पर उसके साथी ने दबी ईष्र्या के साथ कहा था, ‘‘तकदीरवाले हो भाई…’’

मैंने कहा, ‘‘युद्ध में इन्सान का गुण-दोष सब चरम रूप लेकर प्रकट होता है। मुश्किल यही है कि गुण प्रकट होते हैं तो मृत्यु के मुख में ले जाते हैं, दोष सुरक्षित लौटा लाते हैं। युद्ध के खिलाफ यह कदम बड़ी दलील नहीं है-प्रत्येक युद्ध के बाद इनसान चारित्रिक दृष्टि से और गरीब होकर लौटता है।’’
‘‘यद्यपि कहते हैं कि तीखा अनुभव चरित्र को पुष्ट करता है।’’
‘‘हाँ, लेकिन जो पुष्ट होते हैं वे लौटते कहाँ हैं?’’ कहते-कहते मैंने जीभ काट ली, पर बात मुँह से निकल गयी थी।

मेजर चौधरी की पलकें एक बार सकुचकर फैल गयीं, जैसे नश्तर के नीचे कोई अंग होने पर। उन्होंने सम्भलकर बैठते हुए कहा, ‘‘थैंक यू, कैप्टन प्रधान! हम लोग मरियानी के पास आ गये-मुझे स्टेशन उतारते जाना, तुम्हारे डिपो जाकर क्या करूँगा-’’

तिराहे से गाड़ी मैंने स्टेशन की ओर मोड़ दी।

हीली-बोन् की बत्तखें कहानी

हीली-बोन् ने बुहारी देने का ब्रुश पिछवाड़े के बरामदे के जँगले से टेककर रखा और पीठ सीधी करके खड़ी हो गयी। उसकी थकी-थकी-सी आँखें पिछवाड़े के गीली लाल मिट्टी के काई-ढके किन्तु साफ फर्श पर टिक गयी। काई जैसे लाल मिट्टी को दीखने देकर भी एक चिकनी झिल्ली से उसे छाये हुए थी; वैसे ही हीली-बोन् की आँखों पर भी कुछ छा गया जिसके पीछे आँगन के चारों ओर तरतीब से सजे हुए जरेनियम के गमलों, दो रंगीन बेंत की कुर्सियों और रस्सी पर टँगे हुए तीन-चार धुले हुए कपड़ों की प्रतिच्छवि रहकर भी न रही। और कोई और गहरे देखता तो अनुभव करता कि सहसा उसके मन पर भी कुछ शिथिल और तन्द्रामय छा गया है, जिससे उसकी इन्द्रियों की ग्रहणशीलता ज्यों की त्यों रही पर गृहीत छाप को मन तक पहुँचाने और मन को उद्वेलित करने की प्रणालियाँ रुद्ध हो गयी हैं…किन्तु हठात् वह चेहरे का चिकना बुझा हुआ भाव खुरदुरा होकर तन आया; इन्द्रियाँ सजग हुईं, दृष्टि और चेतना केन्द्रित, प्रेरणा प्रबल हीली-बोन् के मँुह से एक हल्की-सी चीख निकली और वह बरामदे से दौडक़र आँगन पार करके एक ओर बने हुए छोटे-से बाड़े पर पहुँची, वहाँ उसने बाड़े का किवाड़ खोला और फिर ठिठक गयी। एक ओर हल्की-सी चीख उसके मुँह से निकल रही थी, पर वह अध-बीच में ही रव-हीन होकर एक सिसकती-सी लम्बी साँस बन गयी।

पिछवाड़े से कुछ ऊपर की तरफ पहाड़ी रास्ता था; उस पर चढ़ते व्यक्ति ने वह अनोखी चीख सुनी और रुक गया। मुडक़र उसने हीली-बोन् की ओर देखा, कुछ झिझका, फिर जरा बढक़र बाड़े के बीच के छोटे-से बाँस के फाटक को ठेलता हुआ भीतर आया और विनीत भाव से बोला, ‘‘खू-ब्लाई!’’
हीली-बोन् चौंकी। ‘खू-ब्लाई’ खासिया भाषा का ‘राम-राम’ है, किन्तु यह उच्चारण परदेसी है और स्वर अपरिचित-यह व्यक्ति कौन है? फिर भी खासिया जाति के सुलभ आत्मविश्वास के साथ तुरन्त सँभलकर और मुस्कराकर उसने उत्तर दिया, ‘‘खू-ब्लाई!’’ और क्षण-भर रुककर फिर कुछ प्रश्न-सूचक स्वर में कहा, ‘‘आइए! आइए!’’
आगन्तुक ने पूछा, ‘‘मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूँ? अभी चलते-चलते-शायद कुछ…’’
‘‘नहीं, वह कुछ नहीं’’ कहते-कहते हीली का चेहरा फिर उदास हो आया। ‘‘अच्छा, आइए, देखिए।’’
बाड़े की एक ओर आठ-दस बत्तखें थीं। बीचोबीच फर्श रक्त से स्याह हो रहा था और आस-पास बहुत-से पंख बिखर रहे थे। फर्श पर जहाँ-तहाँ पंजों और नाखूनों की छापें थीं।

आगन्तुक ने कहा, ‘‘लोमड़ी।’’
‘‘हाँ, यह चौथी बार है। इतने बरसों में कभी ऐसा नहीं हुआ था; पर अब दूसरे-तीसरे दिन एक-आध बत्तख मारी जाती है और कुछ उपाय नहीं सूझता। मेरी बत्तखों पर सारे मंडल के गाँव ईष्र्या करते थे-स्वयं ‘सियेम’ के पास भी ऐसा बढिय़ा झुंड नहीं था! पर अब,’’ हीली चुप हो गयी।
आगन्तुक भी थोड़ी देर चुपचाप फर्श को और बत्तखों को देखता रहा। फिर उसने एक बार सिर से पैर तक हीली को देखा और मानो कुछ सोचने लगा। फिर जैसे निर्णय करता हुआ बोला, ‘‘आप ढिठाई न समझें तो एक बात कहूँ?’’
‘‘कहिए?’’
‘‘मैं यहाँ छुट्टी पर आया हूँ और कुछ दिनों नाङ्-थ्लेम ठहरना चाहता हूँ। शिकार का मुझे शौक है। अगर आप इजाजत दें तो मैं इस डाकू की घात में बैठूँ-’’ फिर हीली की मुद्रा देखकर जल्दी से, ‘‘नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं होगा, मैं तो ऐसा मौका चाहता हूँ। आपके पहाड़ बहुत सुन्दर हैं, लेकिन लड़ाई से लौटे हुए सिपाही को छुट्टी में कुछ शगल चाहिए।’’
‘‘आप ठहरे कहाँ हैं?’’
‘‘बँगले में। कल आया था, पाँच-छह दिन रहूँगा। सवेरे-सवेरे घूमने निकला था, इधर ऊपर जा रहा था कि आपकी आवाज सुनी। आपका मकान बहुत साफ और सुन्दर है-’’
हीली ने एक रूखी-सी मुस्कान के साथ कहा, ‘‘हाँ, कोई कचरा फैलानेवाला जो नहीं है! मैं यहाँ अकेली रहती हूँ।’’
आगन्तुक ने फिर हीली को सिर से पैर तक देखा। एक प्रश्न उसे चेहरे पर झलका, किन्तु हीली की शालीन और अपने में सिमटी-सी मुद्रा ने जैसे उसे पूछने का साहस नहीं दिया। उसने बात बदलते हुए कहा, ‘‘तो आपकी इजाजत है न? मैं रात को बन्दूक लेकर आऊँगा। अभी इधर आस-पास देख लूँ कि कैसी जगह है और किधर से किधर गोली चलायी जा सकती है।’’
‘‘आप शौकिया आते हैं तो जरूर आइए। मैं इधर को खुलने वाला कमरा आपको दे सकती हूँ।’’ कहकर उसने घर की ओर इशारा किया।
‘‘नहीं, नहीं, मैं बरामदे में बैठ लूँगा-’’
‘‘यह कैसे हो सकता है? रात को आँधी-बारिश आती है। तभी तो मैं कुछ सुन नहीं सकी रात! वैसे आप चाहें तो बरामदे में आरामकुरसी भी डलवा दूँगी। कमरे में सब सामान हैं।’’ हीली कमरे की ओर बढ़ी, मानो कह रही हो, ‘देख लीजिए।’
‘‘आपका नाम पूछ सकता हूँ?’’
‘‘हीली-बोन् यिर्वा। मेरे पिता सियेम के दीवान थे।’’
‘‘मेरा नाम दयाल है-कैप्टन दयाल। फौजी इंजीनियर हूँ।’’
‘‘बड़ी खुशी हुई। आइए-अन्दर बैठेंगे?’’
‘‘धन्यवाद-अभी नहीं। आपकी अनुमति हो तो शाम को आऊँगा। खू-ब्लाई-’’
हीली कुछ रुकते स्वर में बोली,’’खू-ब्लाई।’’ और बरामदे में मुडक़र खड़ी हो गयी। कैप्टन दयाल बाड़े में से बाहर होकर रास्ते पर हो लिये और ऊपर चढऩे लगे, जिधर नई धूप में चीड़ की हरियाली दुरंगी हो रही थी और बीच-बीच में बुरूस के गुच्छे-गुच्छे गहरे लाल फूल मानो कह रहे थे, पहाड़ के भी हृदय है, जंगल के भी हृदय है…

…[2]

दिन में पहाड़ की हरियाली काली दीखती है, ललाई आग-सी दीप्त; पर साँझ के आलोक में जैसे लाल ही पहले काला पड़ जाता है। हीली देख रही थी; बुरूस के वे इक्के-दुक्के गुच्छे न जाने कहाँ अन्धकार-लीन हो गये हैं, जब कि चीड़ के वृक्षों के आकार अभी एक-दूसरे से अलग स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं। क्यों रंग ही पहले बुझता है, फूल ही पहले ओझल होते हैं, जबकि परिपाश्र्व की एकरूपता बनी रहती है?

हीली का मन उदास होकर अपने में सिमट आया। सामने फैला हुआ नाङ्-थ्लेम का पार्वतीय सौन्दर्य जैसे भाप बनकर उड़ गया; चीड़ और बुरूस, चट्टानें, पूर्व पुरुषों और स्त्रियों की खड़ी और पड़ी स्मारक शिलाएँ, घास की टीलों-सी लहरें, दूर नीचे पहाड़ी नदी का ताम्र-मुकुर, मखमली चादर में रेशमी डोरे-सी झलकती हुई पगडंडी-सब मूर्त आकार पीछे हटकर तिरोहित हो गए। हीली की खुली आँखें भीतर की ओर को ही देखने लगीं-जहाँ भावनाएँ ही साकार थीं, और अनुभूतियाँ ही मूर्त…

हीली के पिता उस छोटे-से मांडलिक राज्य के दीवान रहे थे। हीली तीन सन्तानों में सबसे बड़ी थी, और अपनी दोनों बहनों की अपेक्षा अधिक सुन्दर भी। खासियों का जाति-संगठन स्त्री-प्रधान है; सामाजिक सत्ता स्त्री के हाथों में है और वह अनुशासन में चलती नहीं, अनुशासन को चलाती है। हीली भी मानो नाङ्-थ्लेम की अधिष्ठात्री थी। ‘नाङ्-क्रेम’ के नृत्योत्सव में, जब सभी मंडलों के स्त्री-पुरुष खासिया जाति के अधिदेवता नगाधिपति की बलि देते थे ओ उसके मत्र्यप्रतिनिधि अपने ‘सियेम’ का अभिनन्दन करते थे, तब नृत्य-मंडली में हीली ही मौन सर्वसम्मति से नेत्री हो जाती थी, और स्त्री-समुदाय उसी का अनुसरण करता हुआ झूमता था, इधर और उधर, आगे और दाएँ और पीछे…नृत्य में अंगसंचालन की गति न दु्रत थी न विस्तीर्ण; लेकिन कम्पन ही सही, सिहरन ही सही, वह थी तो उसके पीछे-पीछे; सारी समुद्र उसकी अंग-भंगिमा के साथ लहरें लेता था…

एक नीरस-सी मुस्कान हीली के चेहरे पर दौड़ गयी। वह कई बरस पहले की बात थी… अब वह चौंतीसवाँ वर्ष बिता रही है; उसकी दोनों बहनें ब्याह करके अपने-अपने घर रहती हैं; पिता नहीं रहे और स्त्री-सत्ता के नियम के अनुसार उनकी सारी सम्पत्ति सबसे छोटी बहन को मिल गयी। हीली के पास है यही एक कुटिया और छोटा-सा बगीचा-देखने में आधुनिक साहबी ढंग का बँगला, किन्तु उस काँच और परदों के आडम्बर को सँभालने वाली इमारत वास्तव में क्या है? टीन की चादर से छूता हुआ चीड़ पर चौखटा, नरसल की चटाई पर गारे का पलस्तर और चारों ओर जरेनियम, जो गमले में लगा लो तो फूल है, नहीं तो निरी जंगली बूटी…

यह कैसे हुआ कि वह, ‘नाङ्क्रेम’ की रानी, आज अपने चौंतीसवें वर्ष में इस कुटी से जरेनियम के गमले सँवारती बैठी है, और अपने जीवन में ही नहीं, अपने सारे गाँव में अकेली है?

अभिमान? स्त्री का क्या अभिमान! और अगर करे ही तो कनिष्ठा करे जो उत्तराधिकारिणी होती है-वह तो सबकी बड़ी थी, केवल उत्तरदायिनी! हीली के ओंठ एक विद्रूप की हँसी से कुटिल हो आये। युद्ध की अशान्ति के इस तीन-चार वर्षों में कितने ही अपरिचित चेहरे दीखे थे, अनोखे रूप; उल्लसित, उच्छ्वसित, लोलुप, गर्वित याचक, पाप-संकुचित, दर्प-स्फीत मुद्राएँ… और यह जानती थी कि इन चेहरों और मुद्राओं के साथ उसके गाँव की कई स्त्रियों के सुख-दु:ख, तृप्ति और अशान्ति, वासना और वेदना, आकांक्षा और सन्ताप उलझ गये थे, यहाँ तक कि वहाँ के वातावरण में एक पराया और दूषित तनाव आ गया था। किन्तु वह उससे अछूती ही रही थी। यह नहीं कि उसने इसके लिए कुछ उद्योग किया था कि उसे गुमान था-नहीं, यह जैसे उसके निकट कभी यथार्थ ही नहीं हुआ था।

लोग कहते थे कि हीली सुन्दर है, पर स्त्री नहीं है। वह बाँबी क्या, जिसमें साँप नहीं बसता?…हीली की आँखें सहसा और भी घनी हो आयीं-नहीं, इससे आगे वह नहीं सोचना चाहती! व्यथा मरकर भी व्यथा से अन्य कुछ हो जाती है? बिना साँप की बाँबी-अपरूप, अनर्थक मिट्टी का ढूह! यद्यपि, वह याद करना चाहती तो याद करने को कुछ था-बहुत कुछ था-प्यार उसने पाया था और उसने सोचा भी था कि –
नहीं, कुछ नहीं सोचा था। जो प्यार करता है, जो प्यार पाता है, वह क्या कुछ सोचता है? सोच सब बाद में होता है, जब सोचने को कुछ नहीं होता।

और अब वह बत्तखें पालती है। इतनी बड़ी, इतनी सुन्दर बत्तखें खासिया प्रदेश में और नहीं हैं। उसे विशेष चिन्ता नहीं है, बत्तखों के अंडों से इस युद्धकाल में चार-पाँच रुपये रोज की आदमनी हो जाती है, और उसका खर्च ही क्या है? वह अच्छी है, सुखी है, निश्चिन्त है-
लोमड़ी…किन्तु वह कुछ दिन की बात है-उनका तो उपाय करना ही होगा। वह फौजी अफसर जरूर उसे मार देगा-नहीं तो कुछ दिन बाद थेङ-क्यू के इधर आने पर वह उसे कहेगी कि तीर से मार दे या जाल लगा दे… कितनी दुष्ट होती है लोमड़ी-क्या रोज दो-एक बत्तख खा सकती है? व्यर्थ का नुकसान-सभी जन्तु जरूरत से ज्यादा घेर लेते और नष्ट करते हैं-
बरामदे के काठ के फर्श पर पैरों की चाप सुनकर उसका ध्यान टूटा। कैप्टन दयाल ने एक छोटा-सा बैग नीचे रखते हुए कहा, ‘‘लीजिए, मैं आ गया।’’ और कन्धे से बन्दूक उतारने लगे।
‘‘आप का कमरा तैयार है। खाना खाएँगे?’’
‘‘धन्यवाद-नहीं। मैं खाना खा आया। रात काटने को कुछ ले भी आया बैग में! मैं जरा मौका देख लूँ, अभी आता हूँ। आपको नाहक तकलीफ दे रहा हूँ लेकिन-’’
हीली ने व्यंग्यपूर्वक हँसकर कहा, ‘‘इस घर में न सही, पर खासिया घरों में अकसर पलटनिया अफसर आते हैं-यह नहीं हो सकता कि आपको बिलकुल मालमू न हो।’’
कैप्टन दयाल खिसिया-से गये। फिर धीरे-धीरे बोले, ‘‘नीचेवालों ने हमेशा पहाड़वालोंके साथ अन्याय ही किया है। समझ लीजिए कि पातालवासी शैतान देवताओं से बदला लेना चाहते हैं!’’
‘‘हम लोग मानते हैं कि पृथ्वी और आकाश पहले एक थे-पर दोनों को जोडऩेवाली धमनी इनसान ने काट दी। तब से दोनों अलग हैं और पृथ्वी का घाव नहीं भरता।’’
‘‘ठीक तो है।’’
कैप्टन दयाल बाड़े की ओर चले गये। हीली ने भीतर आकर लैम्प जलाया और बरामदे में लाकर रख दिया; फिर दूसरे कमरे में चली गयी।

…[3]

रात के दो-ढाई बजे बन्दूक की ‘धाँय!’ सुनकर हीली जागी, और उसने सुना कि बरामदे में कैप्टन दयाल कुछ खटर-पटर कर रहे हैं। शब्द से ही उसने जाना कि वह बाहर निकल गये हैं, और थोड़ी देर बाद लौट आये हैं। तब वह उठी नहीं; लोमड़ी जरूर मर गयी होगी और सवेरे भी देखा जा सकता है, यह सोचकर फिर सो रही।

किन्तु पौ फटते-न-फटते वह फिर जागी। खासिया प्रदेश के बँगलों की दीवारें असल में तो केवल काठ के परदे ही होते हैं; हीली ने जाना कि दूसरे कमरे में कैप्टन दयाल जाने की तैयारी कर रहे हैं। तब वह भी जल्दी से उठी, आग जलाकर चाय का पानी रख, मुँह-हाथ धोकर बाहर निकली। क्षण-भर अनिश्चय के बाद वह बत्तखों के बाड़े की तरफ जाने को ही थी कि कैप्टन दयाल ने बाहर निकलते हुए कहा, ‘‘खू-ब्लाई, मिस यिर्वा; शिकार जख्मी हो गया पर मिला नहीं, अब खोज में जा रहा हूँ।’’
‘‘अच्छा? कैसे पता लगा?’’
‘‘खून के निशानों से। जख्म गहरा ही हुआ है-घसीटकर चलने के निशान साफ दीखते थे। अब तक बचा नहीं होगा-देखना यही है कि कितनी दूर गया होगा।’’
‘‘मैं भी चलूँगी। उस डाकू को देखूँ तो-’’ कहकर हीली लपककर एक बड़ी ‘डाओ’ उठा लायी और चलने को तैयार हो गयी।
खून के निशान चीड़ के जंगल को छूकर एक ओर मुड़ गये, जिधर ढलाव था और आगे जरैंत की झाडिय़ाँ, जिनके पीछे एक छोटा-सा झरना बहता था। हीली ने उसका जल कभी देखा नहीं था, केवल कल-कल शब्द ही सुना था-जरैंत का झुरमुट उसे बिलकुल छाये हुए था। निशान झुरमुट तक आकर लुप्त हो गये थे।
कैप्टन दयाल ने कहा, ‘‘इसके अन्दर घुसना पड़ेगा। आप यहीं ठहरिए।’’
‘‘उधर ऊपर से शायद खुली जगह मिल जाए-वहाँ से पानी के साथ-साथ बढ़ा जा सकेगा-’’ कहकर हीली बाएँ को मुड़ी, और कैप्टन दयाल साथ हो लिये।

सचमुच कुछ ऊपर जाकर झाडिय़ाँ कुछ विरल हो गयी थीं और उनके बीच में घुसने का रास्ता निकाला जा सकता था। यहाँ कैप्टेन दयाल आगे हो लिये, अपनी बन्दूक के कुन्दे से झाडिय़ाँ इधर-उधर ठेलते हुए रास्ता बनाते चले। पीछे-पीछे हीली हटायी हुई लचकीली शाखाओं के प्रत्याघात को अपनी डाओ से रोकती हुई चली।

कुछ आगे चलकर झरने का पाट चौड़ा हो गया-दोनों ओर ऊँचे और आगे झुके हुए करारे, जिनके ऊपर जरैंत और हाली की झाड़ी इतनी घनी छायी हुई कि भीतर अँधेरा हो, परन्तु पाट चौड़ा होने से मानो इस आच्छादन के बीच में एक सुरंग बन गयी थी जिसमें आगे बढऩे में विशेष असुविधा नहीं होती थी।

कैप्टन दयाल ने कहा, ‘‘यहाँ फिर खून के निशान हैं-शिकार पानी में से इधर घिसटकर आया है।’’
हीली ने मुँह उठाकर हवा को सूँघा, मानो सीलन और जरैंत की तीव्र गन्ध के ऊपर और किसी गन्ध को पहचान रही हो। बोली, ‘‘यह तो जानवर की…’’
हठात् कैप्टन दयाल ने तीखे फुसफुसाते स्वर से कहा, ‘‘देखो-श्-अ्!’’
ठिठकने के साथ उनकी बाँह ने उठकर हीली को भी जहाँ-का-तहाँ रोक दिया।
अन्धकार में कई-एक जोड़े अँगारे-से चमक रहे थे।

हीली ने स्थिर दृष्टि से देखा। करारे में मिट्टी खोदकर बनायी हुई खोह में-या कि खोह की देहरी पर नर-लोमड़ी का प्राणहीन आकार दुबका पड़ा था कास के फूल की झाड़ू-सी पूँछ उसकी रानों को ढँक रही थी जहाँ गोली का जख्म होगा। भीतर शिथिल-गात लोमड़ी उस शव पर झुकी खड़ी थी, शव के सिर के पास मुँह किये मानो उसे चाटना चाहती हो और फिर सहमकर रुक जाती हो। लोमड़ी के पाँवों से उलझते हुए तीन छोटे-छोटे बच्चे कुनमुना रहे थे। उस कुनमुनाने में भूख की आतुरता नहीं थी; न वे बच्चे लोमड़ी के पेट के नीचे घुसड़-पुसड़ करते हुए भी उसके थनों को ही खोज रहे थे… माँ और बच्चों में किसी को ध्यान नहीं था कि गैर और दुश्मन की आँखें उस गोपन घरेलू दृश्य को देख रही हैं।
कैप्टने दयाल ने धीमे स्वर से कहा, ‘‘यह भी तो डाकू होगी-’’
हीली की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला। उन्होंने फिर कहा, ‘‘इसे भी मार दें-तो बच्चे पाले जा सकें-’’
फिर कोई उत्तर न पाकर उन्होंने मुडक़र देखा और अचकचाकर रह गये।
पीछे हीली नहीं थी।
थोड़ी देर बाद, कुछ प्रकृतिस्थ होकर उन्होंने कहा, ‘‘अजीब औरत है।’’ फिर थोड़ी देर वह लोमड़ी को और बच्चे को देखते रहे। तब ‘‘उँह, मुझे क्या!’’ कहकर वह अनमने से मुड़े और जिधर से आये थे वे उधर ही चलने लगे।

…[4]

हीली नंगे पैर ही आयी थी; पर लौटती बार उसने शब्द न करने का कोई यत्न किया हो, ऐसा वह नहीं जानती थी। झुरमुट से बाहर निकल कर वह उन्माद की तेजी से घर की ओर दौड़ी, और वहाँ पहुँच कर सीधी बाड़े में घुस गयी। उसके तूफानी वेग से चौंककर बत्तखें पहले तो बिखर गयीं पर जब वह एक कोने में जाकर बाड़े के सहारे टिककर खड़ी अपलक उन्हें देखने लगी तब वे गरदनें लम्बी करके उचकती हुई-सी उसके चारों ओर जुट गयीं और ‘क-क्!’ करने लगीं।
वह अधैर्य हीली को छू न सका, जैसे चेतना के बाहर से फिसलकर गिर गया। हीली शून्य दृष्टि से बत्तखों की ओर तकती रही।

एक ढीठ बत्तख ने गरदन से उसके हाथ को ठेला। हीली ने उसी शून्य दृष्टि से हाथ की ओर देखा। सहसा उसका हाथ कड़ा हो गया, उसकी मुट्ठी डाओ के हत्थे पर भिंच गयी। दूसरे हाथ से उसने बत्तख का गला पकड़ लिया और दीवार के पास खींचते हुए डाओ के एक झटके से काट डाला।

उसी अनदेखते अचूक निश्चय से उसने दूसरी बत्तख का गला पकड़ा, भिंचे हुए दाँतों से कहा, ‘‘अभागिन!’’ और उसका सिर उड़ा दिया। फिर तीसरी, फिर चौथी, पाँचवीं… ग्यारह बार डाओ उठी और ‘खट्’ के शब्द के साथ बाड़े का खम्भा काँपा; फिर एक बार हीली ने चारों ओर नजर दौड़ायी और बाहर निकल गयी!
बरामदे में पहुँचकर जैसे उसने अपने को सँभालने को खम्भे की ओर हाथ बढ़ाया और लडख़ड़ाती हुई उसी के सहारे बैठ गयी।
कैप्टन दयाल ने आकर देखा, खम्भे के सहारे एक अचल मूर्ति बैठी है जिसे हाथ लथपथ हैं और पैरों के पास खून से रँगी डाओ पड़ी है। उन्होंने घबराकर कहा, ‘‘यह क्या, मिस यिर्वा?’’ और फिर उत्तर न पाकर उसकी आँखों का जड़ विस्तार लक्ष्य करते हुए, उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए फिर, धीमे-से ‘‘क्या हुआ, हीली।’’
हीली कन्धा झटककर, छिटककर परे हटती हुई खड़ी हो गयी और तीखेपन से थर्राती हुई आवाज से बोली, ‘‘दूर रहो, हत्यारे!’’
कैप्टेन दयाल ने कुछ कहना चाहा, पर अवाक् ही रह गये, क्योंकि उन्होंने देखा, हीली की आँखों में वह निव्र्यास सूनापन घना हो आया है जो कि पर्वत का चिरन्तन विजन सौन्दर्य है।

हरसिंगार – कहानी

गोविन्द ने जल्दी से वह बही खोली, और उसके पन्ने उलटने लगा। पर दो-ही-तीन पन्ने उलटकर उसने देखा, एक पन्ने से कुछ चिपका हुआ है, जिसे उसने यत्न से उतारा और हाथ पैर फैलाकर देखने लगा।

बहुत-से फूल एक-दूसरे में पिरो कर एक लड़ी-सी बनाई गयी थी, और उसके अन्तिम फूल जोड़कर उसकी माला पूरी कर दी गयी थी। यही न जाने कब से उस पुरानी बही में दबी हुई थी, और सूखकर पीली-सी झुरझुरी हो गयी थी; किन्तु आज भी प्रत्येक फूल अलग-अलग दीख रहा था।

गोविन्द हड़बड़ाया हुआ-सा भीतर आया था। हड़बड़ाये हुए ही उसने बही खोली थी। पर अपने हाथ में अतीत की इस थोड़ी-सी धूल को लेकर वह सब-कुछ भूल गया; शान्त-सा स्तब्ध-सा होकर आलमारी के पास पड़े हुए स्टूल पर बैठ गया और एक हाथ में बही, दूसरे में वह माला लेकर कभी एक की, कभी दूसरे की ओर देखने लगा।

उसकी आँखें न जाने क्यों बही में दर्ज हुई एक संख्या पर अटक गयीं। उसने पढ़ा ‘गुप्तदान-3)’ और इसके साथ ही उसकी स्मृति ने एक वाक्य जोड़ा, ‘नहीं, नाम की क्या ज़रूरत है?’

कहाँ सुने थे उसने ये शब्द? कभी कहीं अवश्य, नहीं तो क्यों वह बाढ़ की तरह एकाएक उसके मन में आये?

शायद बहुत बार सुने हैं-पर नहीं, उस खास लहजे में उस विशेष झिझक-भरे से काँपते स्वर में एक ही बार… एक ही बार…

और मन में धीरे-धीरे ये शब्द ‘एक ही बार… एक ही बार’ दुहराता गोविन्द उस सूखी माला की ओर देखने लगा। फूल। सूखे फूल। माला में गुँथे हुए। ‘नहीं, नाम की क्या जरूरत है?’ ‘गुप्तदान-3)’, फूलों की माला। हरसिंगार के फूल।

हरसिंगार…

गोविन्द के हाथ से बही छूटकर गिर पड़ी। माला भी गिर जाती-अगर वह इतनी हल्की न होती, और अगर पसीने से गोविन्द के हाथ से चिपकी हुई न होती। गोविन्द मानो उन्हें और अपने-आपको भूल गया; शून्य दृष्टि से सामने की सूनी मैली दीवार को देखता हुआ, स्वयं एक सजीव स्मृति बना हुआ, कुछ देखने लगा।

बीस वर्ष पूर्व…

गुमटी बाजार की गन्दी गलियों में से होती हुई वह मंडली धीरे-धीरे बाहर निकल आयी थी, और अब लाहौर शहर की दीवार के बाहर की बस्ती में होती हुई चली जा रही थी। जिस गली में से होकर वे जा रहे थे, उसमें साधारण मध्यम श्रेणी के लोग रहते थे-जिनके पास घर नहीं, रिहाइश है; धन नहीं, गृहस्थी है; जो विद्वान नहीं पढ़े-लिखे हैं; संस्कृत नहीं, शरीफ़ हैं। जो संसार की गति में सबसे बड़े विघ्न हैं, किन्तु जो दुनिया की हस्ती को बनाये हुए हैं और क़ायम रखते हैं। उस मंडली के चारों व्यक्तियों को इस श्रेणी के लोगों का कुछ भी अनुभव नहीं था-वे अनाथालय में पले हुए अनपढ़ भिखमंगे इनके बारे में इससे अधिक क्या जानते कि इन्हीं के छोटे-छोटे दान पर उनका अनाथालय चलता था, इन्हीं की दया पर उनकी रोटी का आसरा था? -पर फिर भी, इस मुहल्ले में प्रवेश करते हुए वे चारों एक स्थान पर रुक गये और एक-दूसरे की ओर देखने लगे। सबकी आँखों में एक ही प्रश्न था, पर कुछ देर तक कोई भी कुछ न बोला, सब देखते ही रहे।

हाँ, सिवाय एक के जो अन्धा था। वह देख नहीं सकता था, फिर भी उसकी नेत्रहीन आँखें उसके तीन साथियों की ओर लगी हुई थीं, और अन्धों की छठी इन्द्रिय सहज-बुद्धि से जान गयी थी कि किसी सभ्यता के क़िले, मध्यम श्रेणी के मुहल्ले में प्रवेश किया जानेवाला है। उसने अपने गले में एक मैली पगड़ी से बाँध कर टाँगा हुआ हारमोनियम अपने मैले हाथों से उठाकर, शून्य की ओर उन्मुख होकर कहा – ‘‘गोविन्दा, ज़रा मेरे कोट का कालर ठीक कर दे। सब सिमट आया है और चुभता है।’’

उसके साथियों में से एक ने आगे बढ़कर उसका कोट थामते हुए कहा – ‘‘सूरदास बड़े हैं, पर वन-सँवरकर चलेंगे! ज़रा मेरा भी हाल देखो, जिसके पास कोट है ही नहीं!’’ कहते हुए उसने सूरदास का कोट ठीक कर दिया।

गोविन्द के शरीर पर वास्तव में कोट नहीं था। उसने अनाथालय के पीले रंग की मोटे खद्दर की कमीज़ और ऊँची धोती पहन रखी थी, और कुछ नहीं। पैर में जूता नहीं था, तलवों में फटी हुई बिवाइयाँ इतनी ऊपर तक आयी हुई थीं कि भूमि पर पड़े हुए पैर में भी दीख जाती थीं और पैरों के ऊपर, एड़ी तक, एक काली पपड़ी जमी हुई थी। सिर पर भी कुछ नहीं था, लेकिन बड़े-बड़े और उलझे हुए बालों में कोई बदबूदार तेल प्रचुर मात्रा में लगाया था, इतना कि वह माथे, गालों और कानों पर बह आया था; और बालों को बिना कंघी के, हाथ से चीरकर बिठाने की कोशिश की गयी थी। इसीलिए तो, माथे के दायीं ओर उलझे हुए बालों का एक बड़ा-सा गुच्छा आगे लटक रहा था और दाहिनी भौंह के ऊपर के किसी पुराने घाव के दाग़ को आधा छिपा रहा था। उसकी भवें, जो पहले ही से कुछ ऐसी थीं मानो पहले ऊपर उठने लगी हों और फिर राह भूलकर इधर-उधर हो गयी हों, इस घाव के कारण और भी विचित्र मालूम पड़ती थीं। पर उसका अंडाकार चेहरा और कमान की तरह खिंचे ओठ, जिनके कोने कभी-कभी काँप-से उठते थे, देखकर जान पड़ता था कि उसमें भावुकता की मात्रा ज़रूरत से अधिक है – इतनी जितनी अनाथालय में रहनेवाले लड़के की नहीं होनी चाहिए। और उसकी आँखें, बड़ी-बड़ी भावपूर्ण, आतुरता और प्यास को व्यक्त करनेवाली-कुछ जानने को उत्सुक-सी, इस भावना को पुष्ट ही करती थीं। गोविन्द की बात सुनकर तीसरे लड़के ने कहा – ‘‘कोट नहीं तो क्या हुआ, ठाठ तो पूरे हैं!’’

सूरदास हँसने लगा। बोला, ‘‘ठीक कहा, ‘हरि!’’

हरि भी अपने घुँघराले बालों में उँगलियाँ फेरता हुआ, अपने बड़े-बड़े ओठ खोलकर हँसने लगा। उसकी छोटी-सी, चपटी-सी, किन्तु नोक के पास कुछ उठी हुई नाक और ऊपर उठ गयी, उसकी तीखी और चमकती हुई आँखें कुछ और चमकने लगीं।

हरि ने, और चौथे लड़के ने भी, अनाथालय की वर्दी-पीली धोती और पीला कुरता-पहन रखी थी। लेकिन दोनों के पैरों में जूता था, यद्यपि टूटा हुआ; हरि गले में एक बड़े-बड़े दानोंवाली रुद्राक्ष की माला पहने हुए था, और चौथे ने एक पुरानी, इकहरी खद्दर की टोपी से अपनी तीन तरफ़ से पिचकी और चौथी तरफ से फफोले की तरह उभरी हुई खोपड़ी को भूषित कर रखा था। उसकी टोपी विशेष सफ़ेद नहीं थी, लेकिन उसकी धँसी हुई छोटी-छोटी आँखें और फाड़कर बनाये हुए मुँह वाले साँवले बेवकूफ़ चेहरे के ऊपर वह मानो दर्शक की आँखों में चुभती थीं। इस व्यक्ति के हाथ में एक चन्दे की बही और कुछ काग़ज़ थे, जिन्हें वह लपेटकर डंडे की तरह थामे हुए थे।

क्षण-भर के मौन के बाद, सूरदास ने पूछा – ‘‘यहाँ क्या गाएँगे?’’

हरि और गोविन्द ने एक साथ ही मुस्कराकर कहा – ‘‘घोंघे से पूछो। क्यों वे घोंघे, क्या गाएँ?’’

‘घोंघा’ अपना घोंघा-सा मुँह उनकी ओर फिराकर तनिक हँस दिया, बोला नहीं।

सूरदास ने पूछा, ‘‘‘प्रभो डूबतों का’ की तर्ज़ याद है न?’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये, मुँह उठाकर जल्दी-जल्दी हारमोनियम की धौंकनी चलाते हुए बजाने लगा। मंडली मुहल्ले की ओर चल पड़ी। उस तीखी समवेत आवाज़ से मुहल्ले की पुरानी खिड़कियों के चौखट गूँज उठे, उस आवाज़ से बच भागना मुश्किल जान पड़ने लगा, ऐसे हूल-हूलकर, प्राणी को घेर-घेरकर वह फैलने लगी-

प्रभो, डूबतों का तुही है सहारा-

सिवा तेरे दूजा नहीं है हमारा!

गली के मोड़ तक, केवल उन्हीं का स्वर मुहल्ले पर अखंड शासन कर रहा था, पर मोड़ पर आते ही उस मंडली को सुन पड़ा, आगे कहीं ढोल बज रहा है और कोई बड़ी पतली और तीखी आवाज़ में ढोल के साथ गा रहा है, ‘मंजनू हौके मारदा, लैला ओ गम दे बिच्च; मजनूँ हौके मारदा…’’

मंडली ने देखा, गली में नट का तमाशा हो रहा है, और लड़के-लड़कियों की भीड़ से गली भी बन्द हो रही है। वे भी चुप होकर देखने लगे-उन्हें मनोरंजन की सामग्री कभी नहीं मिली थी, लेकिन उससे क्या उनकी चाह मर गयी थी? अभी, क्षण-भर तक वे स्वयं नाथ हैं, क्षण-भर बाद, जब अनाथ हो जाएँगे, तब पुकारेंगे कृष्ण को और माँगेंगे भीख-दुहाई देंगे हिन्दू धर्म की…

नट एक खेल दिखाने के बाद दूसरे की तैयारी करने लगा, और उसके साथ का वह अनवरत तीखा गान भी थोड़ी देर के लिए रुक गया, तब अनाथ मंडली ने एकाएक फेफड़ों की पूरी शक्ति लगाकर गाना शुरू किया-

तुझे ना सुनाऊँ तो किसको सुनाऊँ?

सुना, डूबतों का तुही है सहारा!

जब प्रतिद्वन्द्वियों की इस मंडली को देखकर नट ने और उसके साथ के लड़के ने मिलकर ऊँचे स्वर से आलाप आरम्भ किया, तब इन्हें भी जोश आया, इनका स्वर भी अधिक तीखा हुआ, और सूरदास तो हारमोनियम पर इस प्रकार पटक-पटककर हाथ चलाने लगा कि उसका ‘खट्-खट्’ स्वर मानो तबले का काम करने लगा… तभी, एक घर में से एक लड़का बाहर निकला और गोविन्द के पास आकर कहने लगा, ‘भाई-तुम ऊपर आकर गाना सुनाओ।’’ गोविन्द उस प्रतियोगिता में इतना तन्मय था कि जब लड़के ने अपनी बात दुहरायी और सूरदास ने डपटककर कहा, ‘‘सुनता नहीं है?’’ तभी उसने समझा कि उसे क्या कहा जा रहा है।

मंडली उस लड़के के पीछे-पीछे ऊपर चली गयी। ऊपर पहुँचते ही किसी पुरुष के भारी-से स्वर ने कहा – ‘‘यहाँ बैठ जाइए, चटाई पर।’’ हरि और घोंघा बैठ गये, और गोविन्द ने सूरदास से कहा, ‘‘सूरा, यह चटाई है, बैठो!’’ और हाथ पकड़कर उसे बिठा दिया।

उसी भारी-से स्वर वाले व्यक्ति ने कहा – ‘‘कोई अच्छा-सा भजन सुनाओ।’’

हरि ने उँगली सूरदास की पसली में गड़ाकर इशारा किया कि वह चुना हुआ भजन हारमोनियम पर आरम्भ करे। सूरदास कुछ सोचता हुआ-सा हारमोनियम पर उँगलियाँ फेरने लगा।

इस अरसे में गोविन्द ने कमरे की वस्तुओं और उसमें बैठे हुए व्यक्तियों को देख लिया।

मंडली दरवाज़े के पास ही चटाई पर बैठी थी। उनके सामने की ओर, चारपाई पर एक लड़की कम्बल ओढ़े लेटी हुई थी। उसकी मुद्रा से जान पड़ता था, वह बहुत दिनों की रोगिणी है, और जिस स्थिर, अपलक किन्तु औत्सुक्यशून्य दृष्टि से, वह मंडली की ओर देख रही थी, उससे उसके भविष्य के बारे में आशा का भाव नहीं होता था। उसके पैताने एक प्रौढ़ा स्त्री-शायद उसकी माँ, बैठी थी, और सिरहाने से कुछ हटकर, आरामकुर्सी पर वही व्यक्ति, जिसके भारी-से स्वर ने उन्हें बैठने को कहा था। गोविन्द की दायीं ओर, दीवार के सहारे दो युवतियाँ खड़ी थीं, जो आकृति से रोगिणी की बहिनें जान पड़ती थीं।

ऊपर दीवार पर, विभिन्न मुद्राओं में कृष्ण के तीन-चार चित्र टँगे थे, सूत का एक बड़ा-सा लच्छा टँगा हुआ था, और उसके सामने एक अधमैला गीला तौलिया! खिड़की के चौखटे में एक कंघी, शीशा, साबुन, मंजन की डिबिया, एक पत्थर का गिलास और दवाई की दो-एक शीशियाँ पड़ी थीं।

एक बार यह सारा दृश्य देखकर गोविन्द की दृष्टि दुबारा रोगिणी के कम्बल से उठती हुई धीरे-धीरे उसके मुख की ओर जा रही थी। धीरे-धीरे डरते-डरते, सशंक कि कोई देख न ले… वह ठोड़ी तक पहुँची थी, कि सूरदास ने एकाएक गाना आरम्भ कर दिया, उसका ध्यान लौटकर भजन की ओर गया, और वह भी एक गहरी साँस भरकर गाने लगा-

अपना पता बता दे ओ बेनिशान वाले!

तू किस जगह निहाँ है…

पर गाते-गाते उसे अवसर मिला इधर-उधर देखने का, तो वह न जाने क्यों अपने ही साथियों की ओर देखने लगा। और देखने लगा एक नयी दृष्टि से, जिसमें एक नयी और गहरी आलोचना थी, और था एक अपरिचय का-सा भाव…

गोविन्द ने देखा, हरि बीच-बीच में आँख चुराकर दीवार के पास खड़ी दोनों युवतियों की ओर देख लेता था, और तब तक देखता रहता था जब तक कि, इस आशंका से कि वे उसकी ओर देख न लें, उसे अपनी दृष्टि हटानी पड़ जाती थी। और घोंघा बिलकुल अपलक दृष्टि से उनकी ओर देख रहा था, उसकी आँखों में कुछ भी भाव नहीं था, वे थीं किसी समुद्री जन्तु की आँखों की तरह खुली-खुली, बर्फ़-सी पथरायी हुई, किन्तु चमकदार…

गोविन्द की दृष्टि फिर उस रोगिणी की ओर गयी। उसने अब की बार देखा, उसके सिरहाने के पास कुछ-एक फूल पड़े थे। और वह कभी-कभी आँख उठाकर उनकी ओर देख लेती थी। और फिर इस मंडली की ओर, या फिर शून्य की ओर देखने लग जाती थी।

तभी गाना समाप्त हो गया और गोविन्द की दृष्टि फिर सिमट गयी, अपनी चटाई के कुछ आगे के फ़र्श तक जाकर रुक गयी।

एक युवती ने कहा – ‘‘पिताजी, इनको कहिए, कोई अच्छा-सा भजन सुनाएँ। ये तो हमारे सुने हुए हैं।’’

पिता ने मंडली की ओर देखकर कहा – ‘‘हाँ, भाई, कुछ और सुनाओ!’’

गोविन्द को एकाएक लगा, उसने अपने पाँच वर्ष के अनाथ जीवन में जो कुछ सीखा सब व्यर्थ, रद्दी, छिछोरा है – ‘‘ये तो हमारे हुए हैं!’’ वह टटोलने लगा अपने जीवन को, खोजने लगा कि क्या है उसमें, जो इतना सस्ता नहीं हो गया है, जो कि ‘सुना हुआ’ नहीं है, जिसका आदर है, कुछ मूल्य है…

कुछ नहीं…

उसने फिर अपने साथियों की ओर देखा-क्या उनके मन में भी कुछ ऐसा ही बोल रहा है? घोंघे के मन में? गोविन्द का अन्तर एक बड़ी उपहासपूर्ण हँसी से भर उठा – जिसके बाद आयी एक आत्मग्लानि की लहर-इसी व्यक्ति के साथ मैं इतने वर्षों तक रहता आया हूँ, सख्य का बर्ताव रखता आया हूँ – इस मिट्टी के लोंदे के साथ! हरि के मन में? शायद… पर उसके मन में शायद और ही कोई भाव है-वह क्यों ऐसे उन युवतियों की ओर देख रहा है? गोविन्द को याद आया अनाथालय में पढ़ते-पढ़ते लड़के-जिनमें वह भी था, वह भी! – अपनी स्लेटों पर स्त्रियों के शरीर के कल्पनात्मक चित्र (देखे कब थे उन्होंने स्त्रियों के शरीर?) बना-बनाकर उन पर भद्दे-भद्दे वाक्य लिखकर, मास्टर की आँख बचा-बचाकर एक-दूसरे को दिया करते थे… हरि की दृष्टि को देखते हुए, गोविन्द को वे सब वाक्य याद आ गये, और वह रोगिणी की ओर देखता हुआ सोचने लगा कि कैसे वह इसमें भाग ले सकता था, कैसे वह इन सब पशुओं में एक होकर रह सकता था…

देर होती जा रही थी, और गाना आरम्भ नहीं हुआ था। तीनों व्यक्ति अब सूरदास की ओर देखने लगे थे। गोविन्द सोचने लगा, ‘‘इस समय मैं ही भजन बना सकता, तो क्या ऐसा भजन नहीं बना सकता, जो नया होता, अभूतपूर्व? जो ‘सुना हुआ’ की श्रेणी में न आ पाता, आज नहीं, कल नहीं, कभी नहीं, इतना अभूतपूर्व होता वह…

आखिर सूरदास ने गाना आरम्भ किया :

कोई तुझ-सा ग़रीब-नवाज़ नहीं,

तेरे दर के सिवा कोई दर न मिला।

पर गोविन्द को लगा, यह गाना, जो उसने अनाथालय के बाहर कभी नहीं गाया था, वहीं अभ्यास के लिए गाया था, यह गाना भी पुराना है, सड़ा हुआ है, क्योंकि पराया है, उसका बनाया नहीं है, उसके हृदय का अभिन्न निचोड़ नहीं है… वह गा नहीं सका। उसने घोंघे के हाथ से काग़ज़ वगैरह ले लिये, और जेब से एक घिसा हुआ पेंसिल का टुकड़ा निकालकर चन्दे की कॉपी के अंक जोड़ने लगा…

पर उसमें मन कैसे लगता? उसके मन में आयी एक अशान्ति, जो हटाये नहीं हटी। उसे लगा, उसके जीवन में अब तक कुछ नहीं हुआ। जो कुछ है, उसके जीवन के बाहर ही है, बाहर ही रहेगा। वह सोचने लगा, वह माँ के मरने पर अनाथ नहीं हुआ, बाप के मरने पर नहीं, समाज से निकलकर नहीं पर, अनाथालय में आकर वह अनाथ हो गया, क्योंकि वहाँ आकर स्वयं उसकी आत्मा मर गयी उसे अकेला छोड़कर… अब वह क्या है? बहुत-सी निरर्थक मशीनों को चलता रखने के साधन बटोरनेवाली एक बड़ी मशीन का निरर्थक पुर्जा… भोजन उतना पाओ कि जीते रह सको, जियो ऐसे कि भोजन पाने में समर्थ हो सको; चन्दा माँगो कि पढ़-लिख सको; पहन सको; पहनो ऐसा कि चन्दा माँगने में सहायक हो… व्यक्ति में समाज का, समाज में व्यक्ति का, धर्म में दोनों का और धर्म का दोनों में विश्वास बनाए रखने के लिए, कीड़े बनकर आओ और कीड़े बन कर रहो…

गोविन्द का विचार फिर रुक गया, सामने पड़ी रोगिणी की ओर देखकर। क्या ये भी उन्हीं में से है, जो हमें कीड़ा बनाए रखने के उत्तरदायी हैं?

ये शायद हमें कुछ चन्दा देंगे। और, औरों की तरह अपने से और संसार से सन्तुष्ट होकर और रुपया बटोरने लग जाएँगे। औरों में और इनमें क्या भेद है? कुछ नहीं, कुछ नहीं…

पर उसकी आत्मा नहीं मानी, नहीं मानी। विद्रोह करके कहने लगी, यही तो तुम्हें कीड़े से कुछ अधिक बनाने के साधन हैं…

गाना समाप्त हो गया। तभी, रोगिणी के पैताने बैठी हुई स्त्री ने उठकर रोगिणी के सिरहाने के नीचे से दो रुपये निकाले और बोली – ‘‘बेटी, इन्हें छू दे। इनको देने हैं।’’

बेटी ने कम्बल के भीतर से एक क्षीण उँगली निकालकर उन्हें छू दिया।

पिता की भारी-सी आवाज़ ने कहा – ‘‘लो भई, यह हमारी ओर से – और चुप हो गये। माँ ने हाथ बढ़ा दिया।

गोविन्द ने उठकर रुपये थामते हुए पूछा – ‘‘रसीद में क्या नाम लिखूँ?’’

कोई उत्तर नहीं मिला। उसने रसीद बनाकर फिर पूछा, ‘‘नाम बता दीजिए तो’’

‘‘नहीं, नाम की क्या ज़रूरत?’’

‘गुप्तदान-3)’… रसीद देकर क्षण-भर गोविन्द कुछ नहीं कर सका, न उसके साथी ही हिले-यद्यपि यह तो सभी जानते थे कि अब उठकर बाहर जाना ही है – सड़क पर, गलियों में, माँगते हुए…

आगे-आगे सूरदास का हाथ थामे घोंघा, फिर हरि और फिर गोविन्द, सीढ़ी उतरने लगे। गोविन्द को लग रहा था कि वह कहीं से उठकर आया है, और ऐसे ही नहीं जा सकता। कुछ अभी होना चाहिए, कोई घटना घटनी चाहिए…

गोविन्द ने सुना, रोगिणी अस्पष्ट स्वर में कुछ कह रही है, और तभी बड़ी युवती ने पुकारकर कहा – ‘‘यह भी ले जाओ।’’

गोविन्द ने लौटकर देखा। वही हरसिंगार की माला उसे दी जा रही थी। उसने उसे लेते हुए युवती के मुख की ओर देखा, फिर सबकी ओर, फिर रोगिणी की ओर, और उतर गया।

तब अभी नट का साथी गा रहा था, ‘‘मजनूं हौके मारदा लैला दे ओ गम दे बिच्च; मजनूं हौके मारदा…’’

गोविन्द के मन में प्रतियोगिता का भाव नहीं उठा। उसे लगा, वह स्वर बड़ा मधुर है, वह भाव बहुत सत्य, बहुत महत्त्वपूर्ण – ‘मजनूं हौके मारदा लैला दे ओ गम दे विच्च’ वह भी तो किसी कमी का द्योतक है।

वहाँ से सड़क पर। गलियों में। माँगते हुए। पर क्या माँगते हुए? पैसा ? दान? दया? शिक्षा? माँगते हुए तृप्ति, माँगते हुए अनुभूति, माँगते हुए जीवन… जो सड़क पर, गलियों में नहीं मिलता, जो मिलता है – कहाँ मिलता है?

बस इतना ही तो! बीस साल बाद, याद करने को, इतनी-सी एक बात!

पर गोविन्द को याद आया, वह इतनी-सी बात नहीं थी। जो बात सारे अस्तित्व को, सारे संसार को बदल दे चाहे क्षण-भर के लिए ही, वह कैसे क्षुद्र हो सकती है!

सड़क पर आकर जब गोविन्द का ध्यान अपने साथियों की ओर गया, तब वे उसकी इस अन्यमनस्कता पर आलोचना कर रहे थे। और उस अन्तिम उपहार पर, जो उसे मिला था। वे आलोचनाएँ क्या थीं, गोविन्द अपने मन के सामने नहीं आने देगा-यद्यपि इस समय भी वे भोंड़ी छुरी की तरह चुभती हैं उसके मन में…

गोविन्द चाहता था, उन्हें पकड़-पकड़कर पीट डाले, जो बातें वह स्वयं नित्य कहा करता था, वही कहने के लिए उन्हें घोंट-घोंटकर मार डाले। उसके भीतर एक शान्ति थी, जो इतने दिनों के निरर्थक जीवन को सफल किये दे रही थी; उसके भीतर एक अशान्ति थी, जो इतने दिनों से जमे हुए जीवन के प्रति स्वीकृति का भाव नष्ट किये डालती थी।

वह चाहता था, एकदम इन सबके जीवन से निकल जाये, इन्हें अपने जीवन से निकाल फेंके; इन्हें इनके अनाथालय को, इनकी स्मृति को। इससे भी अधिक वह चाहता था कुछ, पर उसके अनाथालय के क्षुद्र जीवन ने उसे ‘कुछ’ के लिए उपयुक्त शब्द नहीं दिये थे, वह स्वयं अपने सामने प्रकट करने में असमर्थ था। तभी वह बिना शब्दों के, बिना वाक्यों के, बिना व्याकरण के बन्धनों के, अपने-आपसे कह रहा था, ‘स्त्री के बिना कुछ भी अच्छा नहीं है, कुछ भी मधुर नहीं है, कुछ भी मृदुल नहीं है, कुछ भी सुन्दर नहीं है, स्त्री-जो केवल स्त्री ही नहीं, संसार की कुल सुन्दर और मधुर वस्तुओं की प्रतिनिधि है…

वह क्यों नहीं आयी उसके जीवन में? मनुष्य के जीवन की सारी प्रगति जिस एक दिव्य अनुभूति की ओर, जिस अचरज की ओर है, वह क्यों नहीं हुआ उसके जीवन में? पहले वह अन्धा था, किन्तु जब उसकी आँखें खुल गयीं, तब भी इतनी प्रतीक्षा करके भी उसे कुछ क्यों नहीं दीखा? क्यों धीरे-धीरे उसी अनाथालय ने उसे फिर घेर लिया, जिसे एक बार उसने असह्य घृणा से ठुकरा दिया था?

गोविन्द ने धीरे-धीरे, जैसे कष्ट में झुककर, वह बही ज़मीन पर से उठा ली। वह हरसिंगार के फूलों की राख यथास्थान रखी। बही को बन्द कर दिया। उठ खड़ा हुआ।

गोविन्द ने एक बार अपने चारों ओर, धूल के पर्दे में ढँके हुए कमरे की दीवारों और फ़र्श की ओर देखा। और सोचा कि इस अनाथालय की इस अनात्म यथार्थता ने उस अचरज को नष्ट कर दिया-उसे होने नहीं दिया।

पर साथ ही उसने पूछा, क्या यह सब यथार्थ है, वास्तविक है? यह टूटी मेज़, यह कुर्सी, यह बही…उस फूल की राख से, उससे उत्पन्न होनेवाली छायाओं से, अधिक यथार्थ, अधिक वास्तविक, अधिक सत्य?

गोविन्द ने आवाज़ दी, ‘‘राम! केशो! देवा! तैयार हो जाओ!’’

चार-पाँच लड़के इकट्ठे हो गये। एक अन्धा भी, हारमोनियम गले में डाले। वही फटे-पुराने पीले कपड़े, वही तेल में चुपड़े हुए बाल, वही ओछा शृंगार, वही… वही मंडली, वही भीख…

गोविन्द सोचने लगा, पच्चीस साल से वह भीख माँग रहा है, शायद पच्चीस साल और माँगता रहेगा। यही सत्य है, यही यथार्थ है। बीस वर्ष पहले एक क्षण आया था, आज बीस वर्ष बाद फिर आया, जिसमें उसने इस अनाथ जीवन की सारी कटुता, कठोरता, विषाक्त निस्सहायता का अनुभव किया; पर वह अनाथ ही है, अब अनाथ ही रहेगा। अनाथ जीवन का वासनाओं, पीड़ाओं, संघर्षों, अँधियारी घटनाओं से अनाहत और अक्षुण्ण रहनेवाली प्रकांड शून्यता को भरने के लिए कुछ भी नहीं होगा।

लेकिन बाहर निकलकर जब उसने लड़कों से कहा, ‘‘गाओ, ‘सुना दे, सुना दे, सुना दे किशना’, …तब एकाएक कोई विश्वास उसके मन में जागकर पूछने लगा, ‘‘एक ही बार स्त्री ने उसके जीवन में पैर रखा, वहीं पद-चिन्ह्न की तरह पड़ी है फूलों की एक माला; तब क्या आगे के इस विराट् अन्धकार में एक भी किरण नहीं है; इस मरुस्थल में, जिसे उसने नहीं बताया, क्या एक भी कली न खिलेगी! वहाँ बाहर, सड़क पर, गलियों में, क्या एक भी घर नहीं होगा, एक भी स्त्री-मुख, एक भी मधुर पुकार – अनाथ जीवन की इस विषैली रिक्तता को भरने के लिए एक भी स्मृति, हरसिंगार का एक भी फूल?’’

हजामत का साबुन  – कहानी

दुकान में घुसा तो छोटे लाला नौकर को पीट रहे थे।
लाला की दुकान से मैं तब-तब थोड़ा-बहुत सामान लेता रहता हूँ। इसलिए बड़े लाला और छोटे लाला और उनके दोनों नौकरों को पहचानता हूँ। यों लाला कहने से जो चित्र आँखों के सामने आता है उसके चौखटे में दोनों में से कोई ठीक नहीं बैठता था। मुटापा तो दोनों में इतना था कि नाम के साथ मेल खा जाए, लेकिन इससे आगे थोड़ी कठिनाई होती थी। दोनों प्रायः सूट पहनकर दुकान पर बैठते थे, दुकान का फर्नीचर लोहे का था और मेज पर काँच लगा हुआ था। दुकान में किराने से लेकर परचून तक की चीजें तो थीं ही, इसके अलावा साज-सिंगार का सामान, अँग्रेजी दवाइयाँ वगैरह भी थीं और पिछले दो-एक वर्ष से दुकान को स्पिरिट और शराब रखने का भी परमिट मिल गया था। मुझे इस तरह की बहुधन्धी दुकानों से कोई विशेष प्रेम हो, ऐसा तो नहीं है, लेकिन दुकान बस-स्टैंड के निकट पड़ती थी और दफ्तर से घर लौटते समय वहाँ से कुछ खरीद ले जाने में सुभीता था।

थोड़ी देर मैं असमंजस में खड़ा रहा। लाला पीटने में इतना व्यस्त था तो नौकर का पिटने में और अधिक व्यस्त होना स्वाभाविक था। ग्राहक की तरफ ध्यान देने की फुरसत किसी को नहीं थी। समझदारी की बात तो यही थी कि वहाँ से चल देता और जो खरीदारी दूसरे दिन तक न टल सकती, वह कहीं और से कर लेता। इससे भी बड़ी समझदारी की बात यह है कि जहाँ हाथापाई हो रही हो, वहाँ नहीं ठहरना चाहिए। लेकिन मुझमें दोनों तरह की समझदारी की कमी है और हमेशा रही है। आज से कल तक टालने की बात तो समझ में आ सकती, लेकिन आदमी का पीटता हुआ देखकर समझदारी-भरी उपेक्षा मेरे बस की नहीं है।

लाला के मोटे थुलथुल हाथ का थप्पड़ जो नौकर के गाल पर और आड़े हुए हाथ पर पड़ा तो मेरे मन में तीखी प्रतिक्रिया हुई, ओ लाले के बच्चे, क्यों पीटता है!’’

ऐसी मेरी भाषा नहीं है, गुस्से में भी नहीं। पर उस समय लाला को ‘लाला का बच्चा’ कहना ही मुझे ठीक जान पड़ा, या ऐसे कह लीजिये कि लाला के बच्चे के नाम से ही मोटे और भौंड़े रूप को मैं कोई संगति दे सका।

लाला ने फिर एक थप्पड़ मारा और चिल्लाकर, बोले, तूने मुझे टेलीफोन क्यों नहीं कर दिया?’’

मेरी मुट्ठियाँ भिंच गयीं। टेलीफोन न करने पर नौकर को मारना मुझे सहन नहीं हुआ। मुझे पूरा विश्वास हो गया कि नौकर को भी वह सहन नहीं होगा। मैंने जैसे मान लिया कि अभी-अभी नौकर भी वापस एक थप्पड़ लाला के – लाला के बच्चे के – मुँह पर जड़ देगा।

पर वह हुआ नहीं। नौकर ने वह थप्पड़ भी चुपचाप खा लिया। और उसके बाद भी मार खाता गया और लाला के बच्चे की फटकार सुनता गया।

लाला ने और चीखकर कहा, ‘‘बोलता क्यों नहीं – हीरू के बच्चे?’’

तो नौकर का नाम हीरू है। इस तरह थोड़ा-थोड़ा करके परिस्थिति मेरी समझ में आने लगी। घटना कुल जमा यह हुई थी कि छोटे लाला जब दुकान पर आये थे तो नौकर को घर पर ललाइन की सेवा में और उनके छोटे बच्चे की टहल में छोड़ आये थे। इस बीच ललाइन ने नौकर को हुक्म दिया कि दुकान से चावल ला दे। नौकर बच्चे को घर पर छोड़कर दुकान से चावल ले आया। आधे घंटे के इस अवकाश में बच्चा ललाइन के अनदेखे बाहर निकल गया और पड़ोसी लाला के घर चला गया, जिसके हम उम्र लड़के से उसकी दोस्ती थी। नौकर ने लौटकर जब बच्चे को नहीं देखा, तब उसे और उसके कहने पर ललाइन को चिन्ता हुई। कोई आधे घंटे में यह पता लग गया कि बच्चा पड़ोस के घर में ही है, लेकिन इस बीच ललाइन का घबराहट से बुरा हाल हो चुका था। दोपहर को लाला जब खाने घर गये थे तब ललाइन ने उन्हें बता दिया था कि कैसे उन्हें बड़ी घबराहट हुई थी। अब लाला दुकान पर लौटकर नौकर से जवाब तलब कर रहे थे कि अगर बच्चा नहीं मिल रहा था तो फौरन उन्हें टेलीफोन क्यों नहीं कर दिया गया कि बच्चा नहीं मिल रहा है। अगर उसको कुछ हो गया होता तो?

टेलीफोन ललाइन भी कर सकती थी-या अगर खुद नम्बर मिलाना उन्हें नहीं आता था तो टेलीफोन करने की बात उन्हें भी सूझ सकती थी, यह नौकर ने अभी तक नहीं कहा। पता नहीं उसे सूझा ही नहीं था, या कि मार का डर उसका मुँह बन्द किये हुए था।

लाला ने काँच की मेज़ पर रखे हुए टेलीफोन को उठाकर पकड़ते हुए फिर कहा, ‘‘यह साला है किसलिए? अगर तू…’’ और फिर एक थप्पड़ हीरू को जड़ दिया।

मैंने बड़ी एकाग्रता से मन में कहा, ‘‘अरे हीरू, तू भी इनसान है। मार लाला के बच्चे को एक थप्पड़ और पूछ इससे कि…’’

लेकिन हीरू ने एक और थप्पड़ खा लिया, थोड़ा-सा लड़खड़ाया और फिर ज्यों-का-त्यों हो गया।

आप रेस खेलते हैं? मैं खेलता तो नहीं, लेकिन घुड़दौड़ भी मैंने देखी है और रेस खेलनेवाले भी, इसलिए पूछता हूँ। हारते हुए घोड़े पर दाँव लगानेवाले की घुड़दौड़ देखते हुए जो हालत होती है वही हालत मेरी हो रही थी। भीतर दुस्साहस उत्तेजना और तनाव, काँपते हुए हाथ और सूखकर तालू से चिपकती जबान, और ऊपर से इतना एकाग्र, उपशमन का अंकुश कि जैसे अपने एकाग्रता के बल पर ही हारे हुए घोड़े को जिता दूँगा।

हर उत्तेजना में एक बेबसी होती है। सहसा अपने में उसका अनुभव करके मैंने अपने-आपसे कहा, ‘‘यह उत्तेजना क्यों? क्यों तुम इस सेकेड हैंड सनसनी का शिकार हुए? इतना घबड़ा क्यों रहे हो? छटपटाहट किस बात की है? अरे साहब कुत्तों की दौड़ में मेरा कुत्ता पिछड़ा जा रहा है, दूसरा कुत्ता खरगोश को लपक लेगा! ‘अरे, तुम तो कुत्ते नहीं हो, न तुम खरगोश ही हो… तुम अपने जीवन की उत्तेजना से जूझो, कुत्ते की या खरगोश की उत्तेजना से तुम्हें मतलब? बल्कि कुत्ता तो उत्तेजित भी नहीं है, वह एकाग्र होकर खरगोश के पीछे दौड़ रहा है। और वह… बिना चेतन भाव से ऐसा सोचे भी… यह जानता है कि उत्तेजना उसकी मदद नहीं करेगी बल्कि उसके काम में बाधक होगी। और खरगोश को तो और भी उत्तेजना के लिए फुरसत नहीं है… जिसके सामने जिन्दगी और मौत का सवाल हो, उसको ऐसी टुच्ची सनसनी से क्या मतलब? और तुम, तुम दौड़ देखकर छटपटा रहे हो। बल्कि तुम चाह रहे हो, मना रहे हो कि खरगोश उलटकर कुत्ते पर खिसिया उठे या कि उसे अपने जबड़ों में दबोच ले! तुम्हारा दिमाग़ खराब हो रहा है!’’

लेकिन नहीं, नौकर निरा खरगोश नहीं है। वह आदमी है। आखिर वह विरोध में कुछ कह रहा है।

‘‘मगर लालाजी, मैं तो कुक्कू लाला को बीबीजी को सौंप के चला था’’ हाँ, नौकर इनसान है। अब वह तन जाएगा। अब वह…

‘‘ऊपर से सामने जवाब देता है? उल्लू के पट्ठे, साले, सूअर के बच्चे।’’

‘‘लाला-लाला के बच्चे… हीरू का बच्चा है और तुम्हारा साला है, तो तुम कौन हो, ओ सूअर के दामाद!’’

लेकिन यह तो मैं मन में कह रहा हूँ। और मुझे लाला से मतलब नहीं है। लाला से हीरू का मतलब है। मुझे तो नौकर से मतलब है। क्योंकि नौकर जो करे – या मैं जो चाहता हूँ कि वह करे – उसके नाते में मुझे उसकी इनसानियत से मतलब है। अब हीरू, तू एक थप्पड़ तो मार दे लाला के बच्चे को। चाहे धीरे से ही – चाहे असफल ही…

नहीं, फ़िजूल है। हीरू कुछ नहीं कर रहा है। और मुझे उससे जो मतलब है और उसके नाते इनसानियत से जो मतलब है वह मेरे सामने एक बड़ी-सी गरम-गरम और ठोस ललकार के रूप में आ खड़ा हुआ है। जैसे किसी ने एक बहुत गरम निवाला मुँह में रख लिया हो और तुरन्त निगल जाना ज़रूरी हो गया हो।

‘‘मैं भी मारूँगा लाला के बच्चे को!’’ मैं बढ़कर लाला के बहुत पास आ गया

कि सहसा हीरू बोला – ऐसे स्वरों में जिसको मैं कभी पहचान सकता लेकिन जिसको तुरन्त हीरू का मान लेने को मैं चालार हूँ क्योंकि हम तीनों के अलावा चौथा व्यक्ति वहाँ है ही नहीं।

‘‘मालिक, आप माई-बाप हैं। आपका लड़का मेरे अपने बच्चे के बराबर है। और मैं उस पर जान देने को तैयार हूँ। आप…’’

लाला का फिर उठता हुआ बेडौल हाथ हवा में ही रुक गया है। उनकी चुंधी आँखों में कुछ हुआ है। जिसने मानो उनके हाथ को वहीं-का-वहीं कर जड़ दिया है। आँखों और हाथों में ऐसा सीधा क्या सम्बन्ध होता है, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन जैसे हठात् बिजली फेर कर जाने से किसी मशीन का उठा हुआ हथौड़ा आकाश में रुक जाए, वैसी ही हालत लाला की हो गयी है।

लाला ने धीरे-धीरे जैसे ज़बरदस्ती हाथ को नीचे झुकाकर मेज़ पर से झाड़न उठा लिया है और वह हाथ पोंछने लगा।

अब मैं कुछ नहीं कर सकता – लड़ाई तो खत्म हो गयी है। इससे पहले ही मार देता तो…

असमंजस में मैंने जल्दी की थी, उसकी कुंठा को गुस्से का रूप ले लेना तो स्वाभाविक था। लेकिन लाला का बच्चा नौकर को मारकर अब हाथ पोंछता है। चाहिए तो नौकर को जाकर नहाना कि वह इस गलीज चीज़ से छू गया है जो लाला बनी फिरती है।

‘‘हाँ, साऽब – आपको क्या चाहिए?’’

मुझे? अच्छी तश्तरी पर रखा हुआ तुम्हारा कटा हुआ सिर! …इस दुकान से अब भी कुछ लेने का मन नहीं है। यह लाला जैसे इनसानियत के घावों पर जमा हुआ कच्चा खुरंट है, जिससे सम्पर्क में आने की बात ही घिनौनी जान पड़ती है…

मैंने कहा, ‘अब कुछ नहीं चाहिए। हुल्लड़ सुनकर रुक गया था। जो देखा, वह मुझे तो बड़ी शरम की बात लगी…’’

लाला बँगलें झाँकने लगा। फिर घिघियाता हुआ-सा बोला, ‘‘हाँ, सा’ब, शरम की बात तो है। क्या बताऊँ, मुझे गुस्सा आ गया। बच्चे की बात है, आप जानते हैं।’’ फिर कुछ रुककर अनिश्चय से, जैसे छोटे मुँहवाले कनस्तर से उँगली से खोद कर घी निकाला जा रहा हो, ‘‘वैसे यह थोड़े ही है कि मैं इस नौकर की कदर नहीं करता – उसकी लायल्टी का मुझे पूरा भरोसा है…’’ फिर सहसा व्यस्त होते हुए ‘‘लेकिन सा’ब, आप बिना कुछ लिए न जाएँ – नहीं तो मुझे बड़ा मलाल रहेगा – क्या चाहिए आपको?’’

वह क्या कहानी कभी सुनी थी – बुढ़िया बूचड़ की दुकान में गयी तो बूचड़ ने सिर पर से पैर तक उसको देखकर रुखाई से पूछा, ‘‘तुम्हें क्या चाहिए बुढ़िया?’’ गरीबिनी बुढ़िया को सवाल बड़ा अपमानजनक लगा – क्या हुआ उसे छोटा सौदा खरीदना है? तो वह बोली, ‘चाहिए? चाहिए मुझे माल रोड पर हवेली और तीन मोटरें और चन्दन का पलंग। लेकिन तुझसे, मियां बूचड़, मुझे चाहिए सिर्फ़ दो पैसे का सूखा गोश्त।’’

मैं थोड़ी देर चुपचाप लाला की तरफ़ देखता रहा। फिर जैसे मैंने भी अपने भीतर से कहीं खोदकर निकाला, ‘‘एक पैकेट चाय-छोटा पैकेट – और कोई सस्ता हजामत का साबुन है?’’

दारोगा अमीचन्दकहानी

यों तो जिस जेल की यह बात है उसका नाम मैं बता देता, पर मुश्किल यह है कि उसके साथ फिर दारोगा का नाम भी बताना पड़ेगा या आप खुद पता लगा लेंगे, और एक कहानी के नाम पर किसी को दुख देना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता, फिर चाहे कहानी सच्ची ही क्यों न हो। इतना बता सकता हूँ कि बात सन चौंतीस की है, जब देश-भर की जेलें दूसरी बार खचाखचा भर रही थीं, और ए, बी,सी क्लासों में बँटकर, अलग-अलग दलों के बिल्ले लगाकर भी बहुत-से असन्तुष्ट आन्दोलक ‘सियासी’ के नाम से एक बिरादरी में शामिल होकर अपने दिन बिता रहे थे।

कहने को कह लीजिए कि वह हज़ारा की जेल थी, क्योंकि हज़ारा जेल पंजाब की शायद सबसे बड़ी जेल थी और सच को छिपाना ही तो उसे झूठ में नहीं, बड़प्पन में छिपाना ज़रा भला मालूम होता है। मैं हज़ारा जेल में नया-नया आया था। तब तक ‘बी’ क्लास लेकर लाहौर की जेल में सूने मगर आराम के दिन काटता रहा था; एक ओर सूनेपन से ऊबकर कुछ झगड़ा कर बैठा तो ‘सी’ क्लास हो गयी और तब मैं हरिपुर हज़ारा की जेल भेज दिया गया। मैंने सोचा कि चलो, आराम गया तो सूनापन भी जाएगा; जीवन में कुछ गति आएगी, हज़ारा की बड़ी जेल में कुछ रंगीनी तो होगी-कहीं अधिक स्याह रंग होंगे तो कहीं लाल-उजला-नौरंगी रंग भी तो उभरेगा ही! और इसमें मुझे निराश नहीं होना पड़ा। यों तो रंगीनी की मुझे सिर्फ़ आशा थी और स्याहपन का पक्का विश्वास, क्योंकि हज़ारा के नये दारोगा साहब, जिनकी बात सुन रहा हूँ, एक नम्बर ज़ालिम मशहूर थे। अटक जेल में मार्शल लॉ के पुराने क़ैदियों के साथ उन्होंने जो-जो ज्यादतियाँ की थीं, उसे पंजाब-भर की जेलों में लोग जानते थे, और उन्हीं के कारण दारोगा अमीचन्द अटकवाला हो गया था, यद्यपि उनकी बदौलत अब वह दारोगा से बढ़कर डिप्टी साहब हो गये और राय साहब का खिताब भी उन्हें मिल चुका था। यह भी सुना जाता है कि ब्रिटिश एम्पायर का आर्डर भी उन्हें शीघ्र मिलनेवाला है! इन्हीं दारोगा साहब की वजह से अटक जेल का भी आतंक सूबेभर में फैल गया था; जिसको अटक भेजा जाता था। वह समझ लेता कि उसे द्वीपान्तरित किये बग़ैर कालेपानी भेजा जा रहा है, और जो सुनता था, जान लेता था कि जिसे भेजा गया है, वह या बड़ा दबंग और खतरनाक सियासी क़ैदी है जिसके आत्माभिमान को सरकार जैसे भी हो तोड़ना चाहती है, या फिर कोई ऐसा दुष्ट और लाइलाज इख़लाक़ी जिसे सब सज़ाएँ देकर जेलवाले हार गये हों, यानी जो जेल के मुहावरे में ‘खलीफ़ा’ हो चुका हो। अटक जेल की जिन बारकों में खलीफ़ा को रखा जाता था, उनके बड़े हौलनाक वर्णन पंजाब की जेलों में प्रचलित थे और उनके प्रचार से दारोगा अमीचन्द का आतंक और भी बढ़ता जाता था।

दारोगा अमीचन्द की एक और बात भी मशहूर थी! वह यह कि उनका चेहरा ऐसा रोबीला है कि मामूली क़ैदी तो उनकी शक्ल देखकर ही थर-थर काँप उठते, और कहीं किसी की ओर वह एक नज़र देख दें तो बस उसके औसान ख़ता हो जाएँ…

यों अमीचन्द डीलडौल के साधारण थे। क़द मँझला, पर अकड़कर चलते थे; शरीर कुछ भारी, पर चाल में कुछ ऐसा कटाव-छँटाव और फुर्ती कि जब वह परेड पर निरीक्षण के लिए आते तो क़ैदी मानो अकस्मात् ही आधा क़दम पीछे हट जाते…

अमीचन्द थे तो खत्री, पर अपनी घनी मूँछें ऐसी उमेठकर रखते थे कि ठाकुर ठकुराई भूल जाय। मोम लगाकर मूँछों की नोंक का कसाब कुछ ऐसा तीखा रखते थे, मानो तारकशी का काम करनेवाले किसी अच्छे कारीगर ने लोहे के तारों के लच्छे लेकर उन्हें बँटकर नोक दे दी हो… बात मशहूर थी कि दारोगा अपनी मूँछों को बँटते रहते हैं और तब तक सन्तुष्ट नहीं होते जब तक कि नींबू उठाकर मूँछों की नोक पर उसे भोंककर तसल्ली न कर लें कि नींबू उससे आर-पार छिद जाता है। मानो कोई जल्लाद रोज़ किसी को सूली पर चढ़ाकर देखा करे कि वह ठीक जमी है कि नहीं! लोग कहते ही तो थे, ‘‘दारोगा अमीचन्द! वह तो पूरा जल्लाद है… उसकी मूँछें नहीं देखीं तुमने?’’

क़िस्सा कोताह, मैं जब हरिपुर पहुँचा तो दारोगा अमीचन्द वहाँ नये-नये तैनात होकर आये थे। उन दिनों हज़ारा जेल में बहुत-से अकाली क़ैदी थे; बहुत दिनों से जेलवालों से इनकी चल रही थी और सब जानते थे कि इन्हीं को ठीक करने के लिए अटक के जल्लाद को वहाँ भेजा गया है! और इस चुनौती को अकालियों ने तत्काल स्वीकार कर लिया। जेल में तो यह ऊब से बचने का एक उपाय है, फिर अकाली तो अकाली ठहरे!

यों बात कुछ नहीं थी। अकाली लोग सबेरे खाने पर बैठे तो किसी एक अकाली की दाल की बाटी में कंकड़ निकले। दाल में कंकड़ निकलना साधारण बात ही माननी होगी फिर जेल की दाल; मगर वह तो ठननी थी, कोई हीला चाहिए था। अकालियों ने खाना छोड़ दिया; कहा कि अब तो रोटी वे तब खाएँगे जब दारोगा अमीचन्द आकर मुआइना कर लें कि खाना किताब खराब है। और जब लड़ाई छिड़ ही गयी, तो फिर वाजिब और ग़ैरवाजिब को कौन पूछता है? लड़ाई में तो साधारण आदमी भी कुछ अनरीज़नेबल हो जाते हैं – फिर वाहे गुरु का खालसा! उन्होंने एक लम्बी सूची बनायी कि उनकी क्या-क्या शिकायतें या कह लीजिए माँगें हैं, और जब तक वे पूरी न हों वे जेल की डिसिप्लिन न मानेंगे… हर अकाली को आधा-आधा सेर दूध मिले, रात को उनकी कोठरियाँ खुली रहें, मशक़्क़त उन्हें न दी जाए, दाल की बजाय महापरशाद मिले। छोटी-बड़ी बीस-एक माँगें उनकी तैयार हो गयीं…

उधर दारोगा भी अपना लोहा मनवाने को उतावले थे, उन्होंने कहलवा दिया कि क़ैदी क़ैदी हैं, उन्हें कोई फ़रियाद करनी हो तो परेड के दिन कर सकते हैं; धौंस कोई नहीं मानेगा और डिसिप्लिन न मानने पर सख़्त कार्रवाई की जाएगी।

बात बढ़ती ही गयी! अकालियों को एक पर एक सज़ाएँ मिलने लगीं। धीरे-धीरे मामला जेल से बाहर फैलने लगा, और क्रमशः सूबे में यह बात फैल गयी कि अमीचन्द अटकवाला हज़ारा में नयी लड़ाई ले रहा है अकालियों से; अगर बात ने और तूल पकड़ा तो शायद लोग अमीचन्द न कहकर हज़ारेवाला कहने लगेंगे। दारोगा अमीचन्द ख़ुश थे। उनका छोटा-सा शरीर कुछ और भी अकड़कर चलता; पैन्ट की क्रीज कुछ और भी कटार की धार-सी तीखी नज़र आती, और मूँछों की ऐंठन तो ऐसी मानो नींबू तो क्या, अगर बिल्लौर की गोलियाँ भी होंगी तो बिंध जाएँगी।

लेकिन बात फैलने के कुछ ऐसे ही असर हुए जिनके लिए दारोगा तैयार नहीं थे। सूबे-भर में उनका जो दबदबा था, जिसकी वज़ह से उन्हें इन्स्पेक्टर जनरल भी जानते थे, उसका एक पहलू यह भी था कि एक महीना हो गया और अभी तक दारोगा अमीचन्द भी क़ैदियों का विद्रोह कुचल नहीं पाए। तब या तो वह काम में ढील देने लगे हैं, यह फिर मामला ही कुछ संगीन है, हड़ताल की नहीं बलवे का है! इन्स्पेक्टर जनरल ने तय किया कि वह मुआइना के लिए आवेंगे, और जेल को सूचना दे दी गयी।

हम लोगों को यह बात तत्काल नहीं मालूम हुई। बल्कि हमसे छिपाने की खास वजह थी। दारोगा साहब ने सोचा कि जहाँ मुआइना एक मुसीबत है वहाँ एक मौक़ा भी है। अगर आई.जी. के आने पर वह उन्हें यह सूचित कर सकें कि बलवा उन्होंने शान्त कर दिया है, तो उनकी सफलता दूनी होगी और उसका रौब भी सीधे आई.जी. पर काफ़ी पड़ेगा-आमने-सामने की बात और होती है और किसी जिले से आयी हुई रिपोर्ट की बात और। मगर बलवा दबे, तो न! जुल्म तो उन्होंने बहुत कर लिये, अकालियों पर कोई असर नहीं हुआ। मानो गैंडे की पीठ पर कोड़े पड़ रहे हों-सौ पड़ें तो क्या और हज़ार पड़ें तो क्या!

सहसा ऐलान हुआ कि सवेरे परेड होगी, और डिप्टी साहब अकालियों के वार्ड में जावेंगे। अकाली क़ैदी तैयार हो गये कि शायद कोई नया अत्याचार होने वाला है।

मगर परेड में जाकर डिप्टी साहब ने कहा, ‘‘तुम लोग अभी झगड़ा करके थके नहीं? क्या फ़ायदा है और… जेल तो जेल है, यहाँ तो कानून मान के रहना पड़ेगा-क्यों मुसीबत उठाते हो?’’ उनकी नज़र क़तार पर फिरती हुई एक जगह रुक गयी।

जिस पर रुकी, उसने उत्तर दिया, ‘‘मुसीबत तो ऐसे भी है, वैसे भी, फिर क्यों न अकड़कर रहा जाय?’’

डिप्टी साहब की आँखें दबे गुस्से से छोटी-छोटी हो आयीं। मगर उन्होंने समस्वर में कहा, ‘‘अच्छा, चलो, तुम लोगों ने बहुत दिखा लिया कि तुम अकाली हो; और मैं भी अटकवाला दारोगा अमीचन्द हूँ। अब काम की बात करो – तुम लोग क्या चाहते हो?’’

दो-तीन क़ैदियों ने कहा,‘‘हमारी माँगें आपको मालूम हैं, उन्हें पूरा कर दो, बस।’’

‘‘पूरी शर्तें तो खुदा की भी नहीं मानी जातीं; तुम लोग आपस में सोच-विचार कर तै कर लो, और पाँच आदमियों का डेपुटेशन मेरे दफ़्तर में भेज दो, मैं विचार करके फैसला करूँगा।’’

डिप्टी साहब चले गये। परेड बरखास्त हो गयी… उनकी मूँछों की चमकीली काली ऐंठन अकालियों के दिल में सूई-सी चुभती रही, पर उन्होंने पाँचों पंचों को चुनकर बातचीत चलाने का काम उन्हें सौंप दिया।

मसल मशहूर है, ‘एक खालसा सवा लाख’। फिर पाँच पंचों में अगर पच्चीस मत हो गये तो क्या अचम्भा। बड़ी देर चखचख चली। कुछ की राय थी कि दारोगा सीधे रास्ते पर आ रहा है, यानी माँगों में और नयी माँगें जोड़कर जाना चाहिए। किसी का ख़याल था कि नहीं, समझौता करना चाहता है तो कुछ रियायत तो होनी ही चाहिए! बीच में कई तरह के मत थे। फिर यह भी सवाल था कि रियायत हो तो किस या किन शर्तों पर, इसके बारे में भी मतभेद था।

अन्त में एक बुजुर्ग ने कहा, ‘‘भाइयो, मेरी बात मानो तो मैं एक सलाह दूँ!’’

सबने पूछा, ‘‘क्या?’’

‘‘वह यह कि हम लोग अपनी सब माँगें वापस ले लें; दारोगा से कहें कि जाओ, हमने तुम्हें बख्शा। जो सुलह करने आवे उससे बनिये की तरह मोल-तोल नहीं करना चाहिए।’’

सब लोग अचकचाकर बूढ़े सरदार की ओर देखने लगे। क्या महीने-भर का सब संघर्ष व्यर्थ जाएगा? जितनी सज़ाएँ, जितने अपमान उन्होंने सहे थे, एक बार उनकी आँखों के आगे दौड़ गये। एक ने कहा भी, ‘‘आपसे इसकी तवक्को नहीं थी।’’

बूढ़े ने अविचलित भाव से कहा, ‘‘सिर्फ़ एक बात हम अपनी तरफ़ से रखें।’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘वह यह कि हमारा दरोगा से कोई झगड़ा नहीं है; मगर वह भी हम पर हेकड़ी जताना छोड़ दे। बस एक बार वह हमारे सामने अपनी मूँछें नीची कर लें; फिर हम उसके सब क़ायदे-कानून मान लेंगे।’’

बात बिलकुल अप्रत्याशित थी। सब थोड़ी देर चुप रहे। फिर किसी ने कहा, ‘‘हमको तो बात नहीं जँचती-लड़ाई को बीच में नहीं छोड़ना चाहिए। दारोगा का क्या है, कल को फिर मुकर जाय तो सारी तकलीफ़ें फिर शुरू से उठानी पड़ें-’’

बूढ़े ने कहा, ‘‘वह बात तो शर्तें मनवाने पर भी हो सकती है – आज मान ले, कल मुकर जाय तो फिर भूख-हड़ताल हो।’’

‘‘मगर लड़ाई बीच में छोड़ना तो खालसे का काम नहीं।’’

‘‘पर सरन आए दुश्मन को दबाना भी तो ठीक नहीं। मैं तो कहता हूँ कि एक बार आज़माकर तो देखो।’’

अन्त में बात मान ली गयी। पाँच का भी डेपुटेशन नहीं गया, केवल बूढ़ा सरदार अकेला भेजा गया। दफ़्तर में जाकर उसने कहा, ‘‘डिप्टी साहब, आप सुलह करना चाहते हैं तो हम भी राज़ी हैं। हम अपनी सब माँगें वापस लेते हैं।’’

डिप्टी साहब ने कुछ अचम्भे में, मगर अपनी खुशी को भी छिपाते हुए कहा, ‘‘क्या? वैसे चाहिए यही; जो काम लड़कर नहीं होता वह दबकर रहने से होता है। तुम राय साहब अमीचन्द को जानते नहीं। मैं क़ानून-वानून की परवाह नहीं करता। मैं चाहूँ तो तुम्हारी बैरक में पीपे के पीपे घी के भिजवा दूँ – चन्दन के बाग़ लगवा दूँ – हाँ, चन्दन के बाग़!’’

‘‘हमारी दरख़ास्त सिर्फ़ इतनी है कि आप हमारे सामने एक बार अपनी मूँछें नीची कर लें।’’

‘‘क्या?’’ दारोगा साहब की त्योरियाँ चढ़ गयीं। मगर, सामने शायद आई.जी. के दौरे का प्रोग्राम रखा था, तुरन्त ही सँभलकर बोले, ‘‘तुम जा सकते हो, तुम्हारी दरख़ास्त पर ग़ौर करूँगा।’’

दूसरे दिन सवेरे-सवेरे, जब पौ फटने के बाद जमादार ताले खड़का कर देखकर ‘‘सब अच्छा!’’ चिल्लाकर अभी गये ही थे – बारकों की कोठरियों के दरवाज़े अभी खुले नहीं थे – दारोगा अमीचन्द सहसा अकालियों की बारक के फाटक पर पहुँचे। चारों ओर सन्नाटा था; दारोगा के साथ कोई अमला नहीं था, यहाँ तक कि चाभियाँ लिये चीफ़ हेडवार्डर भी नहीं। फाटक पर खड़े होते ही अकालियों के पंच भीतर उनके समाने आ गये।

दारोगा ने कहा, ‘‘तुम लोगों की दरख़ास्त पर हमने विचार कर लिया। हमें-तुम्हें आखिर साथ रहना है-न तुम जेल छोड़कर भागे जा रहे हो, न हमीं सर्विस छोड़कर जा रहे हैं। फिर हेकड़ी की क्या बात? आपस में तो खींचतान होती ही रहती है, उससे कोई छोटा थोड़े ही हो जाता है! कभी हमने दबा लिया, तुम दब गये; कभी तुमने ज़ोर मारा तो हमने पैंतरा बदल लिया। कभी हमने तुम्हारी गर्दन नाप ली, कभी तुम्हारे सामने हमने मूँछें नीची कर लीं-’’ कहते-कहते उन्होंने हाथ उठाया, अँगूठे और उँगली से मूँछों की नोंकें दबायीं और गालों पर उन्हें मलते हुए नीचे को मोड़ दिया। ऐंठन के बल तो भला क्या मिटते, पर मोम तो था ही, मूँछों के दायें-बायें दोंनों गुच्छ ऐसे हो गये मानो फुलचुही-सी बहुत छोटी मगर काली चिड़िया कीड़ा-वीड़ा पकड़ने का चोंच झुकाये हो। दारोगा ने कहा, ‘‘लो – इससे कुछ आता-जाता थोड़े ही है! बस, अब हमारी सुलह; मैं अभी जमादार को भेजता हूँ कि बारक खोल दे-’’

कहते-कहते वह लौट पड़े। अहाते के फाटक तक पहुँचने के पहले ही उन्होंने मुँछें फिर ऐंठ कर पूर्ववत् कर ली थीं, एक हल्की-सी मुस्कान ओठों के कोनों को उभार कर मूँछों की ऐंठन को और बल दे रही थी। मन-ही-मन दारोगा साहब अपनी पीठ ठोंक रहे थे-किस सफ़ाई से हँसी-हँसी में उन्होंने सारी बात ही उड़ा दी-शर्त भी पूरी हो गयी, कुछ बिगड़ा भी नहीं; तीन दिन बाद आकर आई. जी. देखेगा कि जेल में बिलकुल शान्ति है, राय साहब अमीचन्द के दबदबे के मुताबिक ही सब काम क़ायदे से और मुस्तैदी से हो रहा है। जब परेड लगेगी और दूसरे क़ैदियों की तरह अकाली भी क़तार बाँध कर खड़े होंगे, यह आई. जी. को उनके सामने गुज़रते हुए कहेंगे कि इन लोगों का मामला अब ‘सेटल’ हो गया है और सब जेल की डिसिप्लिन मान रहे हैं, तब कितनी बड़ी विजय का क्षण होगा वह…

उधर अकालियों की बारक में कुछ क़ैदी बूढ़े सरदार की ओर एकटक देख रहे थे। उनकी आँखों में प्रश्न था-क्या यही बात थी, बस? इसमें कहाँ था कि विजय का सुख, या कि समझौते की सी शान्ति! दारोगा अमीचन्द तो उन्हें बनाकर चला गया-

कहानी तो इतनी ही है। लेकिन बात इससे आगे भी है। दारोगा अभी ड्योढ़ी तक नहीं पहुँचे होंगे कि दूर दूसरी सियासी बारक में हमें खबर मिल गयी, दारोगा अमीचन्द ने अकालियों के सामने मूँछें नीची कर लीं। और ताले खुलने से पहले जेल के साढ़े छः हजार क़ैदियों को पता लग गया था कि दारोगा अमीचन्द अटकवाले ने अकालियों के सामने मूँछें नीची कर लीं। दूसरे दिन आई. जी. के दौरे का ऐलान हुआ और तैयारी की परेड हुई; राय साहब अमीचन्द क़तार देखते हुए गुज़र रहे थे कि एक क़ैदी ने हाथ उठाकर नाक के दोनों ओर अँगूठा और उँगली जमा कर धीरे-धीरे ओठों के कोनों तक खींचे, जैसे कोई पसीना पोंछने के लिए करे; और उसकी इस हरकत पर सारी परेड के चेहरों पर एक मुस्कान दौड़ गयी।

राय साहब अमीचन्द ने सहसा कड़े पड़कर रूखे स्वर में पूछा, ‘‘क्या है?’’ जिसे सुनकर अटक के खलीफ़ाओं की रूहें काँप जातीं। किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। केवल कुछ आगे एक दूसरी जगह एक क़ैदी ने वैसी ही हरकत की, और अब की बार हँसी भी स्पष्ट हो गयी।

दारोगा साहब बड़ा कड़ा चेहरा बनाये जल्दी से मुआइना समाप्त कर चले गये।

लेकिन तीसरे दिन जब आई.जी. आये और परेड की बिलकुल सीधी क़तारों के सामने से गुज़रने लगे तो कई क़ैदियों ने एक साथ नाक के आस-पास पसीना पोंछा, और एक चौड़ी रुपहली हँसी कई क़तारों के चेहरे खिला गयी।

आई.जी. ने पूछा ‘‘राय साहब अमीचन्द, क्या बात है – आपकी जेल की डिस्प्लिन बड़ी ढीली है-’’

राय साहब ने डूबते-से स्वर में कहा, ‘‘सर, इस मामले पर दफ़्तर में – मुझे कुछ कानफ़िडेंशल’’ – और रह गये।

आई.जी. ने कहा, ‘‘हूँ।’’ फिर मानो यह ध्यान करके कि राय साहब के अनुशासन को पुष्ट करना चाहिए, उन्होंने फिर, ‘‘आफ़ कोर्स! वहीं बातें होंगी।’’

आई.जी. के जाने के एक हफ़्ते बाद दारोगा अमीचन्द की बदली का आर्डर आ गया, क्योंकि हज़ारा जेल की डिसिप्लिन बिगड़ रही थी। उन्हें मुल्तान भेजा गया। पर वे वहाँ पहुँचे तो क़ैदियों को पहले से खबर थी-वह राय साहब अमीचन्द अटकवाले की नहीं, उस दारोगा की प्रतीक्षा कर रहे थे जिसने हज़ारा में क़ैदियों के आगे मूँछें नीची कर ली थीं। जल्दी ही वहाँ से उनकी बदली हुई; पर जहाँ भी वह गये, उनकी कीर्ति उनसे पहले पहुँची, और क़ैदियों का अनुशासन उनसे नहीं बन पड़ा। अन्त में डिप्टी से फिर दारोगा होकर वह एक छोटी जिला-जेल के इनचार्ज बनाए गये, मगर पंजाब-भर में ऐसी कोई जेल नहीं थी जिसे मूँछों वाला क़िस्सा न मालूम हो। हारकर दारोगा साहब ने रिटायर किये जाने की दरख़ास्त दी, और दारोगा के पद से ही पेंशन लेकर चले गये।

मैं जब जेल से छूटकर आया, तब वह सर्विस छोड़ गये थे। कहाँ, किस उपेक्षित कोने में उन्हें मुँह छिपाने लायक़ जगह मिली, यह पता नहीं। क़ैदियों के लिए चन्दन के बाग़ तो क्या, अपने लिए बबूल की छाँह भी बेचारे पा सके या नहीं, नहीं मालूम। जेलों के खलीफा भी बड़ी जल्दी उनका नाम तक भूल गये। लेकिन आज भी अगर कोई नये इकबारे क़ैदी से भी पूछें तो वह मुस्कराकर सिर हिला देगा कि हाँ, उसे उस दरोगा की बात मालूम है जिसने क़ैदियों के सामने मूँछें नीची कर ली थीं।

पुलिस की सीटी कहानी
सीटी बजी।सत्य सड़क पर चलता-चलता एकाएक रुक गया, स्तब्ध, बिलकुल निश्चेष्ट होकर खड़ा रह गया।सीटी फिर बजी।
सत्य के हाथ-पैर काँपने लगे, टाँगें लड़खड़ा-सी गयीं, उसे जान पड़ा, मानो अभी संसार में अँधेरा हो जाएगा, पृथ्वी स्थानच्युत हो जाएगी – उसने सहारे के लिए हाथ आगे बढ़ाया। हाथ कुछ थाम नहीं सका, मुट्ठी-भर उड़ती हुई हवा को अँगुलियों में से फिसल जाने देकर खाली ही रह गया, तब सत्य ने समझ लिया कि वह गिरेगा, गिरकर ही रहेगा। उसने आँखें बन्द कर लीं…
एक साल पहले-
पार्क में सत्य धीरे-धीरे टहल रहा था। उसके हृदय में जो व्यग्रता भर रही थी उसे किसी तरह वह छिपा लेना चाहता था, लेकिन वह छिपती नहीं थी। इस पर उसका मन एकाएक झल्ला उठता था, क्योंकि वह तो क्रान्तिकारी है, उसकी तो पहली सीख ही यह है कि अपने उद्वेगों को प्रकट मत होने दो। जो आत्मिक शक्ति उद्वेग पैदा करना चाहती है उसे क्रिया-शक्ति में, कठोर कर्मठता में परिवर्तित कर दो। फिर उसी झल्लाहट से वह उद्वेग और भी प्रकट हो गया-सा जान पड़ता, और सत्य ज़रा तेज़ी से टहलने लग जाता…
विस्तृत हरियाली के परले पार से एक आदमी निकलकर सत्य की ओर जा रहा था। जब वह सत्य के बिलकुल निकट आ गया, तब सत्य ने धीरे से कहा, ‘‘कहिए-’’ और फिर दोनों बाँह में बाँह डाले एक घने छायादार वृक्ष की ओर चल पड़े।
‘‘क्या-क्या समाचार हैं?’’
सत्य जल्दी-जल्दी अपनी बात कहने लगा। समाचार उसके पास अधिक नहीं थे, लेकिन इस मितभाषी, प्रचंडकर्मी नेता चूड़ामणि के प्रति उसमें इतनी श्रद्धा थी कि उसके प्रत्येक आदर्श को वह एक साँस में ही पूरा कर डालना चाहता था। अभी उसकी कोई बात पूरी नहीं हुई थी कि चूड़ामणि ने उसे टोककर शान्त किया, किन्तु फिर भी न जाने क्यों, अधिकार-भरे स्वर में कहा, ‘‘अच्छा, मेरे पीछे पुलिस है। मेरे यहाँ होने का तो पता था ही, आज एक आदमी ने शायद पहचान भी लिया है। पुराना दोस्त था। कुछ गड़बड़ हो सकती है।’’
सत्य ने अचानक कहा, ‘‘तो-?’’
‘‘मैं उसके लिए तैयार हूँ। तुम हो कि नहीं? तुम्हें अभी यहाँ से निकल जाने के लिए तैयार होना चाहिए।’’
एकाएक सत्य को लगा कि पार्क में कहीं कुछ शंकनीय बात है। अकारण ही उसके मन में घिर गये होने का, थोड़ी-सी घबराहट का भाव उदित हुआ। जो लोग खतरे में रहते हैं वही इस तर्कातीत भावना को समझ सकते हैं – बल्कि वे भी सदा नहीं समझते। सत्य भी नहीं समझ सका कि वह ऐसा शंकित और कंटकित क्यों हो उठा है। उसने अनिश्चित स्वर में कहा, ‘‘मुझे शक होता है, कुछ गड़बड़ है-’’
चूड़ामणि स्थिर दृष्टि से हरियाली के पार तीव्र गति से पेड़ों के झुरमुट की ओर जाते हुए एक मानवी आकार की ओर देख रहे थे। आँखें उधर गड़ाये हुए ही बोले, ‘‘तुम्हें शक है, मुझे निश्चय। उस आदमी को मैं जानता हूँ। अभी पाँच मिनट के अन्दर कुछ होगा। इधर आओ।’’

चूड़ामणि उठकर पेड़ के तने की ओट हो गये। सत्य भी पीछे-पीछे हो लिया। इस तरफ़ पेड़ के पीछे एक पत्थरों की दीवार थी, दीवार के दूसरी ओर एक खाई जिसमें बरसाती पानी भरा हुआ था।

चूड़ामणि ने कहा, ‘‘अभी जो कुछ होनेवाला है उससे चौंकना मत। उसका सम्बन्ध मुझसे है – मुझसे है – मुझी से है। तुम सुनो, तुम्हें क्या करना है और सुनकर जाओ यहाँ से-’’

तभी सीटी बजी। एक बार, दूसरी बार कुछ अधिक तीखी, फिर एक साथ सीटियाँ-वातावरण मानो अनेक साँपों की फुफकार से सजीव होकर चीख उठा हो।

चूड़ामणि ने अपने कपड़ों के भीतर से दो रिवाल्वर निकाले और दोनों के चेम्बर जाँचकर सन्नद्ध होकर बैठ गये।

सत्य ने देखा, सामने एक झुरमुट की आड़ में तीन-चार व्यक्ति-छिपी-छिपी, दीख न सकनेवाली, किसी छठी इन्द्रिय से जानी जानेवाली गति-फिर इस्पात की नीली-सी चमक…

‘‘मेरे ठीक पीछे खड़े रहो-पेड़ के इधर-उधर न होना।’’
सत्य ने आज्ञा का पालन किया। सर्राती हुई एक गोली उसके पास से निकल गयी।
‘‘ठीक। शुरू है।’’
एक और गोली। फिर एक साथ सनसनाती हुई कई गोलियाँ।
‘‘अब मेरी बारी है।
एक!
दो!
तीन!
दूसरी ओर से कराहने की आवाज़ें, और उसके बाद गोलियों की तीव्र बौछार।
‘‘लो और!’’ चूड़ामणि ने भी तीन-चार फ़ायर और किये।
‘‘लो, इसे, भरो।’’ रिवाल्वर सत्य को थमाकर वह दूसरे रिवाल्वर से निशाना साधने लगे।
‘‘हाँ सुनो। तुम्हें यहाँ से सीधे कानपुर जाना होगा। वहाँ विश्वनाथ से मिलो। उसे एक पत्र देना है – मेरी बायीं जेब से निकाल लो और कहना है कि इसमें दी हुई हिदायतों के अनुसार वह काम करे। पते भी इसी पत्र में दिये हुए हैं। पढ़ने की विधि वह जानता है।’’

दो-एक गोलियाँ चलाकर वे फिर कहने लगे, ‘‘वहाँ से फिर यहाँ लौटकर आना – पर बहुत जल्दी नहीं, और गरिमा से मिलना। उसे मैं कह आया था कि जब तक मेरा आदेश न हो, वहाँ से टले नहीं। और अब – मैं आदेश देने नहीं जा सकूँगा।’’ उनकी हँसी बिलकुल खोखली थी। ‘‘उसे कहना कि यहाँ से टल जाए – लेकिन तुम उसे पहचान तो लोगे न? एक ही बार देखा है-’’

‘‘हाँ!’’ सत्य को याद आ गया। गरिमा चूड़ामणि की बहन थी और विधवा थी। उसका पति चूड़ामणि के क्रान्तिकारी दल की ओर से किसी आक्रमण की तैयारी में अकस्मात् विस्फोट हो जाने से मर गया था। वही उस आक्रमण का नेता था, इसलिए उसकी आकस्मिक मृत्यु से सबके हौसले पस्त हो गये थे। लेकिन गरिमा ने कहा, ‘‘उनका काम मैं पूरा करूँगी। और अगर उनके चले जाने से लोगों के हौसले टूट जाएँगे, तो – तो मैं उनकी मृत्यु को अत्यन्त गुप्त रखूँगी। उसका किसी को पता भी नहीं लगेगा। मैं अपने मन, वचन और कर्म के ज़ोर से लोगों के सामने उन्हें जीवित रखूँगी। आप लोग इसमें मेरी सहायता करें।’’ सत्य ने गरिमा को केवल एक बार देखा था – पति के देहान्त के अगले दिन प्रातःकाल के समय। उस समय वह स्नान के उपरान्त एक ऐसा काम कर रही थी, जिसके एक क्रान्तिकारिणी द्वारा किए जा सकने की बात सत्य ने कल्पना में भी नहीं देखी थी – वह मांग में सिन्दूर भर रही थी। सत्य ने जब जाकर उससे अपना सन्देश कहा था तब वह मुस्करा भी सकी थी…

‘‘पहचान लूँगा।’ एक ही बार देखा है, वह वैसे दो बार दीखता कौन है?
‘‘लेकिन-’’
‘‘क्या?’’
‘‘लेकिन यदि मैं पहुँच न सका तो?’’

‘‘सकना क्या होता है? मैं कहता हूँ कि पहुँचना होगा, तो पहुँचना होगा। तुम्हें नहीं, मेरे सन्देश को। होना, न होना, सम्भव होना, यह आदमियों के साथ, जीवन के साथ है कर्त्तव्य के साथ एक ही बात होती है – होना। चाहे किसी तरह, किसी के हाथ।’’

गोलियों की बौछार फिर हुई।

‘‘अच्छी बात; तो गरिमा से कह देना। यदि वह न माने कि तुम मेरा सन्देश लेकर आये हो, तो उसे याद दिलाना कि हरनौटा गाँव के पास उसने मेरी बाँह पर पट्टी बाँधी थी तो उसमें एक फूल भी बाँध दिया था। और वह फूल-’’

फिर गोलियों में तीखी बौछार हुई। चूड़ामणि ने धीरे-धीरे निशाना साधकर उत्तर दिया। दूसरी ओर से फिर बौछार हुई। लेकिन गोलियों का शोर कराहने की आवाज़ों को छिपा न सका।

‘‘इसे भरो – वह मुझे दो।’’
सत्य चुपचाप दूसरे रिवाल्वर में कारतूस भरने लगा।
‘‘और कितने राउंड हैं?’’

‘‘बाईस।’’
‘‘दस अलग करो।’’
अनैच्छिक क्रिया से चलती हुई गोलियों में धमाके गिनते हुए सत्य ने चूड़ामणि की आज्ञा का पालन किया। गोलियाँ चलती रहीं। दूसरी ओर से फिर कराहने का स्वर आया और फिर उसके बाद एकाएक गोलियों की तीखी उत्क्रुद्ध बौछार…

‘‘हूँ। किसी अफ़सर के गोली लगी है।’’

‘‘कैसे?’’

‘‘देखते नहीं, कैसा क्रुद्ध और बेअन्दाज़ फ़ायरिंग हो रहा है?’’

‘‘हूँ।’’

क्षण-भर की नीरवता, जिसे एकाध गोली ने ज़रा-सा कँपा-सा दिया।

‘‘इसे भरो। बाक़ी चार राउंड अपनी जेब में डाल लो।’’

सत्य ने वैसा ही किया।

‘‘बाक़ी बारह मेरे आगे रख दो।’’

यन्त्रचालित-से सत्य ने यह आदेश भी पूरा किया।

‘‘अब तुम्हारे जाने का वक़्त आ गया – जाओ! उफ़…!’’

एक गोली चूड़ामणि की दाहिनी बाँह में कलाई से कुछ ऊपर लगी थी।

‘‘यह तो ठीक नहीं हुआ। ख़ैर।’’ उन्होंने दूसरा हाथ सत्य की ओर बढ़ाया ‘‘वह भरा रिवाल्वर मुझे दो – और यह खाली कारतूस तुम ले जाओ – भागते-भागते भर लेना।’’

‘‘पर-’’

इसकी अनसुनी करते हुए चूड़ामणि ने कहा, ‘‘‘यहाँ से पेड़ की आड़ रखते हुए ही दीवार के पास जाओ – वहाँ झाड़ी के पीछे झुककर गोली की मार से बाहर हो जाना। बस, फिर दौड़ना-निकल जाओगे।’’

‘‘पर आपको छोड़कर-’’

‘‘जाओ! कारतूस थोड़े हैं और मेरा बायाँ हाथ है। जाओ – मैं कहता हूँ – चले जाओ!’’
सत्य अत्यन्त अनिच्छापूर्वक हटने लगा। झाड़ी के पास पहुँचकर उसने लौटकर देखा। रिवाल्वर में कारतूस भरते समय चूड़ामणि के एक और गोली लगी थी।
‘‘भइया, प्रणाम।’’ भर्रायी हुई आवाज़ में सत्य ने पुकारा।
‘‘हूँ। अभी यहीं हो? मेरी आख़िरी फ़िल है।’’
सत्य दीवार के नीचे पहुँच गया। अब दौड़कर गोलियों की मार से बाहर निकल जाना ही शेष था। दौड़ने से पहले उसने एक बार फिर लौटकर देखा।

‘‘गये?’’ चूड़ामणि एकाएक पेड़ की आड़ में से निकलकर खुले में आ गये थे, निशाना साधकर गोली चलाते हुए आगे बढ़े जा रहे थे।
कराहने की आवाज़ें – उसके ऊपर चूड़ामणि का कृत निश्चय से गूँजता हुआ स्वर – ‘‘और लो! और लो! और यह लो! सिर्फ़ आखिरी राउंड मेरा है।’’

चीखें। कराहने का स्वर। फिर और तीखी दर्द-भरी चीखें।
सत्य दौड़ा।
‘‘और गरिमा से कहना, वह फूल अभी तक मेरे पास है।’’
भागते हुए सत्य ने गोली का एक दबा हुआ-सा स्वर सुना, मानो नली शरीर के बहुत नज़दीक रखकर रिवाल्वर चलाया गया हो। उसके बाद गोलियों की लगातार कई मिनट की तीखी बौछार…

फिर सीटियाँ, तीखी, कर्कश सीटियाँ… और खाई का एक छोटा-सा पुल, फिर सड़क का एक मोड़, और फिर नीरवता!
एकदम अखंड नीरवता-केवल उसके पैरों का ‘धम्-धम्’ और उसके हृदय का ‘धक्-धक्’-स्पन्दन…
सीटी फिर बजी, तीखी और कर्कश।

जितना ही सत्य का शरीर अवश जड़ित होता जाता था, उतना ही उसका मन अवश गति से दौड़ रहा था…
गरिमा की आँखें कैसी थीं? गति नहीं थी, ज्योंति नहीं थी – थी एक भीषण जड़ता, एक साहस रोमांचित कर देनेवाली प्राणहीन स्थिरता। और वह वैसे ही निष्प्राण स्वर से सत्य की कही हुई बात का एक-एक वाक्य उसके पीछे दोहराती जा रही थी – एक अबोध पक्षी की तरह जिसे बोलने को ज़बान तो है लेकिन समझने को मस्तिष्क नहीं। ‘‘पट्टी बाँधी थी, तो एक फूल भी बांध दिया था।’ ‘हाँ, बांध दिया था।’ ‘कहा था, मेरे आदेश के बिना कहीं मत जाना।’ ‘हाँ, कहा था।’ ‘उससे कहना, वह फूल अभी तक मेरे पास है।’ ‘आखिरी राउण्ड…’’
हाँ, जब सत्य को जान पड़ा था कि गरिमा कुछ देर भी और ऐसे रही, तो वह या तो अपना सिर फोड़ लेगा या उसे मार डालेगा – इतना अमानुषी थी वह परिस्थिति – तभी उसकी आँखों में एक आँसू आया था। एक ही आँसू – दूसरा नहीं आया था, और पहला आँख से टपका नहीं था। लेकिन दुबारा उसने कहना चाहा था, ‘राउण्ड मेरा है’ तब उसकी आवाज़ बदल गयी थी, टूट गयी थी-
आज एक साल बाद भी क्यों वह आँसू भरी आँख – सीटी फिर बजी। अबकी बार सत्य के बहुत ही निकट। इतने निकट कि उसकी घबराहट दूर हो गयी, हाथ-पैर काँपने बन्द हो गये, उसने आँखें खोलीं कि अब तो वह घिर ही गया। उसकी बारी आ ही गयी, क्या हुआ एक साल बाद आयी तो – क्या हुआ ऐसा घटना – पूर्ण खिंचाव-भरे एक साल बाद आयी तो!

लेकिन आज एक साल भी बाद क्यों वह आँसू-भरी आँख-
एक छोटा-सा लड़का सत्य के आगे खड़ा था। उसके हाथ में चमकता-सा कुछ था-
सत्य को एकाएक लगा कि वह बेवकूफ़ है – परले दर्जे का बेवकूफ़, वज्र-मूर्ख है – उसने हँसना चाहा लेकिन हँसी उसके गले के भीतर ही सूख गयी। अपने-आपको और भी अधिक बेवक़ूफ अनुभव करते हुए अटकती हुई ज़बान से उसने किसी तरह कहा, ‘‘ओ बच्चे, तुम-तुम…’’

बच्चे ने सीटी मुँह में डालते हुए सन्देह-भरे स्वर में पूछा, ‘‘क्या तुम-तुम?’’

नम्बर दस – कहानी

वेरे रतन के मन में बहुत मिठास रही हो, ऐसी बात तो नहीं थी, लेकिन अब शाम को वह कड़वाहट से भर गया था। सवेरे और नहीं तो एक खुलापन तो था, मिठास के प्रति एक अनुमति – भाव कि ले तू आती है तो आ जा, मैं मना नहीं करता’, लेकिन शाम को उसने रस के प्रति अपने-आपको एकदम बन्द कर लिया था। और बन्द करने से ही मालिन्य और भी बढ़ता जा रहा था। जैसे आग खुली हो तो जल लेती है, लेकिन बन्द कर दी जाए तो खूब धुआँ देने लगती है।

रतन का दिन बहुत लम्बा बीता था। सवेरे जिस समय वह जेल से निकला, उस समय से वह दर-दर, गली-गली, चौक-मुहल्ले फिर आया था, कहीं उसका रुकने का मन नहीं हुआ था-कहीं उसने ऐसी जगह ही नहीं पायी थी जहाँ वह रुक सके। चलते-चलते वह थक गया था, लेकिन उन काग़ज़ के खिलौनों की तरह, जो भीतर के जलते दिए के धुएँ से घूमते जाते हैं, वह भी अनथक घूमता जा रहा था। उसके भीतर एक अभूतपूर्व संघर्ष हो रहा था, ‘मैं जेल में नहीं हूँ’, और दूसरी ओर एक प्रतिध्वनि-सी, जो असली ध्वनि से भी तीखी ही थी, पुकार उठती थी, ‘तुम सज़ायाफ़्ता चोर हो, सज़ायाफ़्ता चोर हो’ और इस दुहरी मार से पिटता हुआ वह रुक नहीं सकता था, और भटकता जा रहा था, भटकता जा रहा था…

सूर्यास्त के समय के क़रीब वह जुमना के किनारे एक घाट पर पहुँच गया। अपने आगे उसे चमकते हुए पानी का विस्तार देखकर मन में, दिन-भर में पहली बार, कुछ ऐसा बोध हुआ कि वह दुनिया में आ नहीं गया है, उससे उसका कुछ नाता भी है…

वह क्षण-भर के लिए रुक गया। तब जैसे आस-पास की दुनिया धीरे-धीरे उसके भीतर प्रवेश करने लगी, और उसके भीतर का धुआँ, कुछ-कुछ फूट निकलने लगा। वह घाट की सीढ़ी पर बैठ गया।

फरवरी के दिन थे। शीत की कठोरता का ज़माना बीत चुका था और विकल्प का ज़माना आ गया था, जिसमें कभी वह कठोर होने की इच्छा से भरकर धुँधला हो जाता था, कभी मृदुता के आवेश में हल्की-सी पीली धूप में निखर-सा आता था। रतन के देखते-देखते नदी के ऊपर एक धुन्ध छाने लगी और धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। कुछ देर में उसी बादल में सूर्य ने उदास होकर मुँह छिपा लिया। बादल में अरुणाई नहीं आयी, एक श्वेत परदा-सा आकाश पर तन गया, और उसके ऊपर जमुना-किनारे की एक मिल की चिमनी से उठता हुआ धुआँ कुछ लिखत लिखने लगा।

देखते हुए रतन को वह लिखत अच्छी नहीं लगी। उसे लगा कि जिस तरह यह उस परदे की स्वच्छता को बिगाड़ रही है, उसी तरह पृथ्वी को भी मानव की लिखत ने बिगाड़ रखा है। नहीं तो जेल क्यों होते?

फिर एक कड़वाहट की बाड़-सी आयी और रतन उसमें डूबते-उतराने लगा। उसे याद आया कि जेल से बाहर आते समय जब उससे पूछा गया कि उसका घर कहाँ है, ताकि उसे लौटाने के लिए पैसे दिऐ जाएँ, तब उसने पैसे लेने से इनकार कर दिया था। उसे लगा था कि जिसने उसे सज़ा दी थी, उसी संगठन से पैसे लेकर वह घर जाएगा, तो घर जिसके पास जा रहा है उसे मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहेगा। उस संगठन के प्रति उसके मन में जलन थी। चोरी उसने अवश्य की थी, लेकिन अभी तक अपने को अपराधी वह नहीं मान पाया था। चोरी करते समय उसके मन से भी कभी भी यह बात ओझल नहीं हुई थी कि वह चोरी कर रहा है। पर यह जानते हुए भी कि चोरी अनुचित है, वह यह भी देख रहा था कि रुपया लेना अनुचित नहीं है, और ज़रूरी भी है, और उसे नहीं मिल रहा है, यद्यपि वह उसके बदले में अपना पसीना देने को तैयार है। बल्कि, उस दिन तो वह अपना खून देने के लिए भी तैयार था…

तब? आज जब उसे रुपये मिल रहे थे, तब उसने क्यों नहीं लिए? क्यों नहीं लिए? आज क्या उसे कुछ कम ज़रूरत है? और क्या आज उनका मिलन कुछ अधिक आसान है जब कि वह ‘सज़ायाफ़्ता चोर’ की उपाधि पा चुका है।

उस बात को छः महीने हो गये। छः महीने पहले उसकी बहिन यशोदा बहुत बीमार थी -क्योंकि अब पता नहीं वह कैसी है – है भी या नहीं। उसे बचाने के लिए बेकार रतन ने भरसक कोशिश की थी, और अन्त में अपनी जमा की हुई पूँजी खत्म पाकर हर तरह के काम के लिए हर तरह के यत्न किये थे… जब उसे कोई काम नहीं मिला-दवा की क़ीमत पाने का कोई साधन नहीं मिला – तब उसने अपनी बुद्धि के आसरे कुछ पा लेने की कोशिश की, तो क्या बुरा किया? उसने अपनी बहिन की रक्षा के लिए रुपये चुराए, सो भी ऐेसे आदमी के, जिसके लिए उतने रुपये खो देना कोई बड़ी बात नहीं थी। तब?

हो सकता है कि उसका यह मोह ही ग़लत रहा हो। वह कौन होता है बहिन की रक्षा के लिए अपने को ज़िम्मेदार समझने वाला? खुदा ने जिसको बनाया है, उसको जिलाएगा भी। नहीं भी जिलाएगा तो उनका स्थान लेने के लिए और बना देगा। रतन खुदा का काम हथियाने वाला कौन, और हथिया कर वह कितनों को दवा-दारू पहुँचा सकेगा? बहुत से लोग बिना दवा के मरेंगे, बहुत-से बिना रोटी के मरेंगे, बहुत-से बिना कपड़ों के मरेंगे, बहुत-से बिना किसी वज़ह से यों ही मर जाएँगे। क्यों रतन यह दम्भ करे कि उसकी बहिन बचने की ज्यादा अधिकारिणी है?

क्यों नहीं करे वह दम्भ? उसकी बहिन है। दूसरों के भी जो भाई हैं, वे उनके लिए दम्भ करें।

लेकिन जिनका कोई नहीं है…

सरकार? लेकिन सरकार ने किसी के रुपये की रक्षा का दम्भ तो किया ही है, तब तो सरकार ठीक है, और वह… वह भी ठीक है…

लेकिन – मैं ठीक हूँ तो सरकार भी ठीक है। मैं नहीं ‘हूँ’ तो सरकार भी नहीं। यानी मैं चोर नहीं हूँ, तो चोर हूँ, तो नहीं हूँ पागल हूँ मैं! जेल ने दिमाग़ खराब कर दिया है।

लेकिन पागल कहने से छुट्टी मिल जाती है? मैंने सवेरे वे रुपये क्यों नहीं लिए? जिस ममता की बात सोच रहा हूँ, उसकी रक्षा क्या उसी तरह नहीं होती? यशोदा शायद जीती है -शायद बाट देख रही है। उसने दिन गिने होंगे, और आज शायद ओर उस बेवकूफ़ ने झूठे अहंकार में रुपये नहीं लिये, और…

अँधेरा हो चला था। घाट पर जो एक-आध आदमी आता-जाता भी था, वह भी अब बन्द हो गया था। घाट बिलकुल सूना था। आसपास मन्दिरों में घंटे बज रहे थे। कहीं-कहीं दियों का क्षीण प्रकाश भी झलक जाता था…

पहले तो घंटा-नाद रतन को बहुत खटका था। लेकिन धीरे-धीरे वह कुछ आकृष्ट-सा हुआ -उसे उस स्वर में एक विचित्र चीज मालूम हुई। ये घंटे दिन और रात न जाने कब से ऐसे ही बजते आते हैं, इसी स्वर से, इसी गूँज से, इसी सम्पूर्ण तन्मयता से और इसी उपेक्षा से… कोई मरता है, कोई पैदा होता है, कोई मिलता है, कोई बिछुड़ता है, पर इनमें कोई फ़र्क नहीं होता, ये वैसे ही गूँजते रहते हैं… ये प्रार्थना के घंटे हैं-और प्रार्थना के जो मन्त्र कभी गये ज़माने में दुहराए जाते थे, वही आज भी हैं। हमारी ज़रूरतें क्यों नहीं बदलती हैं? ईश्वर क्यों नहीं बदला है?

लेकिन यशोदा वहाँ बैठी है। और मैं यहाँ हूँ – मैंने उसके लिए चोरी भी की थी, लेकिन मिलता हुआ रुपया नहीं लिया। और यहाँ बैठा हुआ ईश्वर की बात सोच रहा हूँ। क्या मैं यशोदा के पास जाना नहीं चाहता? क्या मैं ईश्वर के पास जाना चाहता हूँ?

ये घंटे जड़ हैं, मैं जीता हूँ। तभी इनका स्वर नहीं बदलता।

मैं क्यों जीता हूँ? यशोदा के लिए मैं जेल गया था, लेकिन अब यहाँ बैठा हूँ, दिन-भर में एक बार भी मैंने नहीं सोचा है कि उसके पास लोटूँ। क्या यह जीना है?

मैं स्वाधीन कहाँ हूँ? अब भी जेल में हूँ? चाह कर भी मैं नहीं जा सकता उसके पास। रेल में पकड़ा जाऊँगा, तो फिर वही जेल। मैं जेल से डरता नहीं, मैं अपराधी नहीं हूँ। पर…

जीना। घंटे। जड़ता। मैं भी जीता न होता, तो इतना निकम्मा न होता। इतना परवश, विवश। मरना छुटकारा है।

इस एक शब्द पर आकर रतन का तन अटक गया – छुटकारा! छुटकारा!!

जहाँ वह बैठा था, वहाँ धुन्ध घनी हो चली थी। आकाश में किसी तरह का प्रकाश नहीं था, इसलिए नदी का पानी भी अब तक नहीं दीख रहा था। रतन धीरे-धीरे घाट की सीढ़ियाँ उतरने लगा। पानी के तल के दो-तीन सीढ़ी ऊपर ही, जब उसे सील-सी मालूम हुई, तब उसने ध्यान से नीचे देखा, और जाना कि कुछ ही आगे जमुना का पानी बहा चला जा रहा है, घाट को निःशब्द स्वर से छूता है और आगे बढ़ जाता है। मानो कह जाता है, ‘लो, मैं मेहमान बनकर आया तो हूँ, लेकिन तुम्हारी शान्ति भंग नहीं करता, मिल तो लिया ही, अब जाता हूँ।’ और प्रणत प्रणाम करता हुआ चल देता है।

और एक हम हैं कि आते हैं तब रोना-चिल्लाना और दर्द; जाते हैं तब रोना-पीटना और तड़पन; रहते हैं तब झींकना-कल्पना और हो-हल्ला।

और जेलखाने ओर पगली घंटी। और हथकड़ियाँ, बेड़ियाँ, और पैसे की कमी। और…

छुटकारा। छुटकारा।

यशोदा वहाँ है – थी। है या थी, इससे मुझे क्या ? मैं वहाँ नहीं जा सकता हूँ, उसके लिए कुछ नहीं कर सकता हूँ।

क्यों जी रहा हूँ मैं?

और उसे लगा, जमुना भी अपनी बड़ी-बड़ी काली आँखें खोले उसकी ओर विस्मय से देख रही है, मानो कह रही है, हाँ, मैं भी सोच रही हूँ कि क्यों जी रहे हो तुम…

छुटकारा…

रतन उठकर दो सीढ़ी और उतरा। अगली सीढ़ी पर पानी था। वह अपना फटा जूता उतारने को हुआ कि पानी में पैर डाले, फिर एकदम से उसे जूता उतारने के मोह पर हँसी-सी आयी और वह जूतों-समेत दो सीढ़ियाँ और उतर गया।

बहुत ठंडा था पानी। लेकिन रतन का ध्यान उधर गया ही नहीं। वह घंटा-नाम सुनता जाता था। और प्रत्येक चोट पर उस एक आकर्षक शब्द को दुहराता जाता था – छुटकारा, छुटकारा।

एक सीढ़ी और उतरकर वह ठिठक गया। क्या वह छुटकारा है – सचमुच छुटकारा है? मेरी चोरी की सज़ा धुल जाएगी? किसी का भी कोई भी बन्धन ढीला हो जाएगा?

मुझे किसी के बन्धन से क्या? मरना तो है ही मुझे। डूब मरूँगा, तो कोई पूछेगा नहीं। किसी को क्या?… पूछेगा तो। हाज़िरी नहीं दूँगा, तब खोज़ होगी। तब…

एकदम से उसे याद आया, जब वह जेल से छुटा था, तब उसे आज्ञा दी गयी थी कि पुलिस में नाम लिखाए और हफ़्ते में एक दिन रिपोर्ट दिया करे। वह थाने गया था। बाहर ही एक मुटियल बूढ़े सिपाही ने उसे टोका था, और यह जानकर कि रतन अपना नाम दस नम्बर में लिखाने आया है, उसे नसीहत देना शुरू की थी। रतन वह नहीं सह सका था, और झल्लाये स्वर में कह उठा था, ‘‘तुम्हें मतलब? तुम अपना काम देखो, मैं रिपोर्ट न दूँ, तब जी में आये सो करना। अभी अपनी नसीहत रखो अपने पास!’’ इस गुस्ताखी से कुछ चकित और कुछ क्रुद्ध कांस्टेबल ने अपनी बुच्ची दाढ़ी हिलाकर अनुभव से भारी स्वर में कहा था, ‘‘ऐं हैं! ये नखरे तब तो जल्दी ही जाओगे, जल्दी!’’

जल्दी। कहाँ आऊँगा?

डूबकर मर जाऊँगा, तो खोज होगी। लाश मिलेगी, तो किसी के दिल में दर्द होगा? दुनिया जानेगी, तो कहेगी, ‘अजी होगा। दस नम्बरिया बदमाश था साला। मर गया, अच्छा हुआ। कहीं इधर-उधर आँख लड़ गयी होगी, काम नहीं बना होगा, बस। बदमाशों के हौसला थोड़े ही होता है।’

इतना-भर दुनिया उसे देगी। इतना भी खूसट कंजूस की तरह घिसघिस करके।

इसी दुनिया के लिए मैं फ़िक्र में पड़ा हूँ-इसी के लिए मर रहा हूँ? इसी हृदयहीन दुनिया के लिए मैं अपने जिगर का ख़ून दे रहा हूँ?

ऐसी-की-तेसी दुनिया की! सोच ही सब रोगों की जड़ है, वही तो है जिससे छुटकारा लेना चाहिए। पाप-पुण्य क्या है? सोचें तो चोरी है, सोचें तो ठीक हैं। सब चोर हैं, सब भले हैं।

आज मैंने दस चोरियाँ और की होतीं-कौन कह सकता है कि पकड़ा ही जाता? घर भी जाता, यशोदा से भी मिलता, जो जी में आता करता – न होता तो जेल ही तो आता, जहाँ हो आया हूँ? जैसा अब हूँ, इससे जेल क्या बुरी है?

रतन दृढ़ कदमों से घाट की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। मन का बोझा इतना हल्का हो गया था कि वह अपने पैरों की चाप के साथ-साथ ताल देकर कहने लगा, ‘‘ऐसी-तैसी दुनिया की!’’

घाट के ऊपर तक पहुँचते-पहुँचते उसने तय कर लिया था कि वह फिर चोरी करेगा, और फिर जेल जाएगा। पहली बार चोरी करने के लिए जेल गया था, अब की बार जेल जाने के लिए चोरी करेगा।

2

तब शायद साढ़े बारह बजे थे। रतन अपनी गाढ़े की धोती से फाड़े हुए एक टुकड़े में कुछ नोट और कुछ रुपये बाँधे उस छोटी-सी पोटली को एक मुट्ठी में मज़बूती से थामे हुए, दूसरे हाथ में जूते उठाये, एक ऊँचे घर की दीवार के साथ सटता हुआ दबे-पैर एक ओर को हट रहा था।

दूरी कहीं आधा घंटा धड़का टन्-ढम्। सरदी की धुँधली रात में उस स्वर ने रतन को चौंका दिया। उसके बाद ही उसे लगा कि पास कहीं खटका हो रहा है। शायद लोग जाग उठे हैं। शायद अभी उसकी चोरी पकड़ी जाएगी। शायद…

वह लपककर सड़क के पार हो लिया। वहाँ एक छोटी-सी झोंपड़ी थी, जिसके छोटे-से झरोखे से टिमटिमाती-सी रोशनी बाहर झाँकने की कोशिश कर रही थी। रतन जानता था कि प्रकाश की ओट में अँधेरा अधिक मालूम होता है, वहाँ पड़ी चीज़ दिखती नहीं, इसलिए वह झरोखे से ज़रा आगे बढ़कर ही, फूस के छप्पर के नीचे दुबककर बैठ रहा।

पहले तो उसे लगा कि वह यों ही डर गया। अपने हृदय की धक्-धक् के सिवाय कोई स्वर उसे नहीं सुन पड़ा। लेकिन बैठे-बैठे जब वह धड़कन ज़रा कम हुई तब उसे जान पड़ा कि सचमुच कहीं कोलाहल हो रहा है। पर वह बहुत दूर पर है, जिस मकान में रतन ने चोरी की है उससे बहुत आगे कहीं। उस शोर का रतन से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता।

पर-यह स्वर तो बहुत पास नहीं है। रतन ने सुनने की कोशिश की कि वह किधर से आ रहा है, पर ऐसा लगता था, मानो सभी ओर से धीरे-धीरे की जा रही बातचीत का स्वर आ रहा हो-कोई खास दिशा उसकी जान नहीं पड़ रही थी…

क्या मैं सो तो नहीं रहा-स्वप्न तो नहीं देख रहा? रतन ने अपने को कुछ हिलाया, ज़रा आगे बढ़कर झरोखे के बिलकुल पास आकर देखने की कोशिश करने लगा।

आगे झुकते ही स्वर साफ़ हो गया, रतन ने जान लिया कि वह झरोखे में से होता हुआ झोंपड़ी के भीतर से आ रहा है। और वह बिना खास चेष्टा किये हुए भी ध्यान से सुनने लगा।

एक पुरुष का स्वर, जो अपने से ही बात करता मालूम होता है। उस स्वर में दुख है, निराशा है, थोड़ी-सी कुढ़न भी है।

‘‘मैं और क्या करूँ अब। अब तो उधार भी नहीं मिलता। ताने मिलते हैं सो अलग।’’

थोड़ी देर बाद एक दूसरा स्वर-क्षीण, कुछ उदास, लेकिन साथ ही जैसे एक वात्सल्य भाव लिये : ‘‘तुम भी क्यों फिक्र किये जाते हो? ऐसे तो तुम भी बीमार हो जाओगे। मेरी दवा का क्या है? सरकारी अस्पताल से ले आया करो – वहाँ तो मुफ़्त मिल जाती है।’’

‘‘पिछली बार वहीं से तो लाया था। पर फायदा नहीं होता। हो कैसे, डॉक्टर देखे मरीज़ को तब न दवा हो? वह यहाँ आता नहीं, बुलाने को पैसे नहीं हैं।’’

‘‘डॉक्टर को बुलाकर क्या होगा। अब तो मुझे मरना ही है। मेरे करम ही खोटे थे – तुम्हारी सेवा तो की नहीं, उलटे दुख इतना दिया। यही था, तो पहले ही मर जाती, तुम्हें इतना तंग भी न करती और-’’

‘‘ऐसी बात मत करो, प्रेम। मैं-’’

काफ़ी देर तक मौन रहा। आगे कुछ बात हो, इसकी प्रतीक्षा में बैठे-बैठे रतन जब ऊब गया, तब उसने झरोखे के और पास सरककर भीतर झाँका। एक ही झाँकी में भीतर का दृश्य देखकर वह एकदम से पीछे हट गया-डरकर नहीं, कुछ सहमा हुआ-सा…

एक टुटियल चारपायी पर एक स्त्री लेटी हुई थी। उसका सब शरीर और चारपायी का काफी-सा हिस्सा, एक मैली लाल गाढ़े की रजाई से ढका हुआ था, केवल नाक और सिर बाहर दीखते थे। नाक की पीली पड़ी हुई त्वचा प्रकाश में अजब तरह से चमक रही थी। पीछे हटाये हुए बहुत रूखे और और उलझे हुए बालों के भूरेपन के कारण माथा बहुत सफेद और बहुत चौड़ा लग रहा था। और आँखें-आँखें एक स्थिर, खुली, अर्थभरी दृष्टि से सिरहाने बैठे पुरुष के मुँह पर लगी हुई थीं।

और पुरुष उस स्त्री के सिर के पास, दोनों पैर समेटकर चारपायी की बाँही पर बैठा हुआ था। एक हाथ उसका घुटनों पर था जिस पर उसने ठोड़ी टेक रखी थी, दूसरा जैसे निरुद्देश्य, भूला हुआ-सा, स्त्री के सिरहाने पड़ा हुआ था।

रतन सहमा हुआ-सा बैठा था। उसका मन न जाने कहाँ-कहाँ दौड़ने लगा था, बिजली के तीव्र वेग से, पर बाहर से वह बहुत शान्त स्तब्धत-सा हो गया था। जैसे लट्टू जब बहुत तेजी से घूमता है तब धुरी पर बिलकुल स्थिर हो जाता है, वैसे ही रतन का मन अतीत और भविष्य में पागल-सा भटकता हुआ एक धुरी पर स्थिर हो गया था उस स्त्री प्रेमा की आँखों पर जिसमें मानो सरस्वती बस रही थी इतनी अर्थपूर्ण हो रही थीं वे…

उस सारगर्भित मौन में रतन ने एक लम्बी साँस की आवाज़ सुनी। उसके बाद फ़ौरन ही पुरुष का स्वर आया-अब पहले-सा शिथिल नहीं, अब जैसे प्रबल आवेग से भरा हुआ, गूँजता हुआ-सा-

‘‘प्रेमा, कभी जी में आता है कहीं, डाका डालूँ – ये जो पड़ोस में मोटे लाला लोग रहते हैं, इनको मार डालूँ और इनकी हवेलियाँ लूट लूँ या उस सरकारी डॉक्टर को चुटिया पकड़कर घसीट लाऊँ, जिसने आने की बात पर अकड़ कर कहा था कि सरकरी डॉक्टर कोई रास्ते की धूल नहीं है जो हर कोई उठा ले जाए। कभी सोचता हूँ कि… लेकिन फिर ख़याल आता है, जो लोग सरकारी डॉक्टर को बुला सकते हैं, वे भी तो कभी कुढ़ते होंगे कि विलायत से डॉक्टर बुलाकर शायद इलाज ठीक हो सकता। यह रोग तो ऊपर से नीचे तक लगा है, मैं एक लाला को लूटकर क्या कर लूँगा? पर प्रेमा, किसी तरह तुम्हें अच्छा कर सकूँ तो-’’

पुरुष एकदम चुप हो गया। रतन ने फिर झाँककर देखा-प्रेमा का एक हाथ पुरुष के कन्धे पर था और शायद उसके ओठों को छूने की कोशिश कर रहा था। रतन फिर पीछे को हट गया, और शून्य की ओर देखने लगा।

पुरुष का स्वर फिर बोला, ‘‘प्रेमा, अगर चोरी करके या लूटकर तुम्हें अच्छा भी कर लूँगा, तो भी सुखी नहीं होऊँगा, मुझे लगता है-’’

थोड़ी देर रुककर फिर ‘‘शायद हमारे मन में पाप का झूठा डर होता है – डर ही से पाप बनते हैं। पर जाता भी नहीं वह। मैं सोचता हूँ-मैं जान देकर तुम्हें अच्छा कर दूँ-’’ इस बीच में स्वर फिर रुक गया, मानो किसी ने मुँह के आगे हाथ रख दिया हो – ‘‘पर एक छोटी-सी चोरी नहीं होती।’’

एक शब्द सुनकर रतन ने फिर झाँककर देखा। पुरुष उठ खड़ा हो गया था। एक हाथ से सिरहाना पकड़ते हुए, दूसरे से अपना माथा, वह सिर उठाकर छत की ओर देख रहा था। एकाएक उसने कहा – ‘‘भगवान!’’ उसके हाथ शिथिल-से हो गये, कन्धे लटक गये और वह एक ओर को हटने लगा। तभी प्रेमा ने हाथ बढ़ाकर, गर्दन ज़रा मोड़कर, आर्द्र स्वर में पुकार कर कहा, ‘‘मेरे पास आओ!’’ गर्दन मोड़ने से दिये का पूरा प्रकाश उसके मुँह पर चमक उठा।

एक ज़रा-सी बात से मानो रतन का हृदय हजारों और करोड़ों बरसों का व्यवधान पार कर गया-एक ही बहुत बड़ी-सी धड़कन में वह रतन का हृदय न रहकर उस आदम का हृदय हो गया हो जो अपने पाप के लिए दण्ड पाकर अँधियारे मे अपनी आदिम प्रेयसी की खोज़ रहा था – और उसे लगा कि सारा संसार उस स्त्री की आवाज़ में चीख कर पुकार उठा है, ‘‘मेरे पास आओ!’’ उस स्त्री की, जो सुन्दरी नहीं है, लेकिन जिसकी उस दृष्टि के लिए रतन एक बार नहीं, हजार बार चोरी कर सकता है और दण्ड भी भुगत सकता!

रतन ने अपने को सँभालने के लिए झरोखे का चौखट पकड़ लिया – और फ़ौरन ही छोड़ दिया। जिस हाथ से उसने चौखट पकड़ा था, उसी में नौटों और रुपयों की पोटली थी।

रतन ने एक बार उस पोटली की ओर देखा, एक बार प्रेमा की ओर, एक बार उस पुरुष की ओर, फिर धीरे से कहा, ‘‘नालायक़!’’

फिर उसने पोटली झरोखे में रख दी। एक बार चारों ओर झाँककर देखा, और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ वहाँ से हट गया।

रतन का शरीर ढीला पड़ गया। वह इस हद तक खुश भी हो गया कि किसी किस्म की कोई फ़िक्र उसके मन में न रही। एक हलवाई की दुकान के बाहर पड़ा हुआ तख्त देखकर वह रुक गया। तख़्त पर बैठकर उसने अपने गीले जूते उतारे, उन पर अपनी चादर का एक छोर रखकर, इस तकिये पर सिर रखकर वह लेट गया। बाक़ी चादर अपने ऊपर ओढ़कर वह आकाश की ओर देखने लगा।

तारे थे। बहुत साफ़ नहीं दिखते थे, धुन्ध के कारण कभी छिप भी जाते थे, पर थे। कभी, पाँच, कभी चार, कभी आठ-दस-वे दीखते और मिट जाते, मिटते और फिर दीखने लगते। धुन्ध के इस खेल में मानो रतन भी घुलने लगा। उसकी आँख लग गयी।

नालायक़ वह?

चौंककर रतन उठ बैठा। क्या उसने कुछ देखा, या कुछ सोचा, या कुछ याद आ गया? कोड़े की मार से आहत-सा वह उठ बैठा।

नालायक़ वह? और मैं नहीं नालायक़, जिसने एक तो चोरी की, दूसरे अपनी बहिन को भुलाया और तीसरे हाथ आयी दौलत फेंक दी?

चोर। दस नम्बर का बदमाश। और बेवकूफ़।

चोरी मैंने किसलिए की थी? यशोदा के लिए? क्या चोरी करने ही के लिए नहीं की, मैंने चोरी? और फिर रुपये वहाँ क्यों पटक आया? उस आदमी को दे आया जो-जो प्रेमा को मरती देख सकता है और हाथ-पैर नहीं हिलाता?

उसका कुछ उसूल तो था। नहीं करता चोरी, तो नहीं करता। फिर चाहे कोई मर जाए। कुछ बात तो हुई। प्रेमा की शक्ल यशोदा से मिलती थी। झूठ। प्रेमा तो ऐसी कुरूप थी। लेकिन उसका गर्दन मोड़कर पुकारना-यशोदा भी तो ऐसे ही पुकार उठती थी जब मैं पास नहीं होता था।

मेरे पास फिर रुपये आते, तो मैं फिर दे देता – सौ बार दे देता।

हाँ, क्यों नहीं दे देता। चोरी के ही तो थे रुपये। चोरी के रुपये से पुण्य

कमाना चाहता हूँ। कुछ कमाकर दिये होते, तब भी बात होती।

दिये भी कब मैंने यशोदा की याद को? मैंने प्रेम को दिये, प्रेमा की आँखों को दिये, उस प्रेमा को, जो मेरी बहिन नहीं, किसी दूसरे की घरवाली है। पाप को दिये।

लेकिन प्रेमा सुन्दरी कब थी। पाप करने में अक्ल खर्च होती है। मैंने रुपयें फेंक दिये। नालायक़ी की। बेवकूफ़ी की। चोरी तो की थी, पकड़ा भी नहीं गया था। रुपये पास रखता, कई दिन काम आते। अच्छी तरह रहता, मौज करता, दुनिया को दाँत दिखाता, उस बुच्ची दाढ़ी वाले सिपाही को भी दाँत दिखाता, सबकी ऐसी-तेसी करता जो मुझे दस नम्बर का बदमाश समझते हैं। और जब चुक जाते तो जेल तो कहीं गया नहीं था-या शायद बच जाता…

लेकिन प्रेमा की आँखें वैसी क्यों थीं!

नहीं थीं आँखें। रतन ही अंधा था, अंधा है। लेकिन…

गलियों में चक्कर काटते हुए रतन ने फ़ैसला कर दिया कि वह लौटकर जाएगा और अपनी पोटली वहाँ से उठा लाएगा जहाँ उसे छोड़ आया था। अभी रात ख़त्म नहीं हुई थी – अभी पोटली किसने उठा ली होगी? दिन निकलने के बाद, बल्कि और भी देर से, जब घर की सफ़ाई होने लगेगी, तभी कोई उसे उठाएगा, यही सोचकर वह उलटे-पाँव लौट पड़ा।

लेकिन इन पिछले दो घंटों में वह कितनी गलियों में से होता हुआ भटक आया था, इसका उसे कुछ अनुमान नहीं था। यह याद करने की कोशिश करता, कहाँ से वह किधर को मुड़ा था, ताकि उसी रास्ते-लौटे, लेकिन जिस गली कोई और रास्ता है, दायीं ओर को जो हरे किवाड़ हैं वे तो उसके रास्ते में नहीं आये थे, या बायीं ओर को जो बहुत बड़ा-सा साइनबोर्ड किस वैद्य का लगा हुआ है वह तो उसने नहीं देखा था, और सामने की दीवार से जो बड़े-बड़े अक्षर मानो मुँह-बाये अपने काले हलक से यह सूचना दे रहे हैं कि अमुक तेल सब चर्म-रोगों की अचूक दवा है, उसे देखकर कोई क्या भूल सकता? फिर भी मुट्ठियाँ भींचकर अपनी थकान को वश में कर लेने की कोशिश करता हुआ रतन चलता जा रहा था और सोच रहा था कि कभी तो वह झोंपड़ी मिलेगी ही।

धीरे-धीरे रात का रंग बदल चला। हवा में एकाएक शीतलता भी बढ़ गयी और नमी भी, उस स्पर्श से मानो एकाएक रात ने जान लिया कि वह नंगी है और लज्जित होकर, कुछ सिहर कर, धुँध के आवरण में छिप गया। मैला-सा कुहासा रतन की नसों में भरने लगा, आँखों में चुभने लगा। उसने एक बार आँख मल कर सामने देखा, वह यह समझ कर कि अब सवेरा होने ही वाला है और उस झोंपड़े की तलाश बेकार है, वह एक ओर मुड़ने को हुआ ही था कि उसने देखा, उसकी बग़ल में वही मकान है जिसमें उसने चोरी की थी।

वह अब पहचाने हुए पथ पर जल्दी-जल्दी झोंपड़े की ओर बढ़ने लगा। चारों ओर कुछ अस्पष्ट-सा शोर था-शहर जाग रहा था। ऐसे समय कोई आता-जाता किसी का ध्यान आकृष्ट नहीं करेगा, यह सोच कर रतन बढ़ा जा रहा था।

झोंपड़ी से कुछ दूर पर ही कोलाहल सुन कर रतन ठिठक गया। आँखें सिकोड़ कर सामने देख कर उसने पहचाना-झोंपड़े के आगे भीड़ लग रही है – चोरी का पता लग गया है, चोर भी पकड़ा गया है।

रतन स्तम्भित रह गया।

लेकिन फ़ौरन ही एक विद्रूप की लहर-सी उस पर छा गयी – बहुत ठीक हुआ। यही होना चाहिए था। साले में इतनी हिम्मत थी कि प्रेमा की जान बचाये – चोरी करने से डरता था। मेरी चोरी का माल उसे पचता कैसे – भुगते अब!

प्रेमा की आँखें – मैंने चोरी करके अपनी जान जोखिम में डाली थी, उसका फल वह कैसे लेता? वह तो नालायक़ है, बेवकूफ़ है, हिजड़ा है। चोर पकड़ा गया है, चोरी की सजा काटे। प्रेमा का पति होने का दावा करता है – प्रेमा का-पति? यह?

रतन ने लपककर चौकी के सिपाही के हाथ से उस आदमी का हाथ छुड़ाकर सिपाही को पीछे धकेलते हुए उद्धत और कर्कश स्वर में कहा, ‘‘हटो तुम! चोरी मैंने की थी। वह पोटली मैं यहाँ भूल गया था और अब लेने आया हूँ।’’

सिपाही हक्का-बक्का-सा हो गया। रतन की बाँह पकड़ने की कोशिश करते हुए किसी तरह उसने कहा – ‘‘तुम पागल हो क्या?’’ लेकिन इससे पहले रतन अपने भिचे हुए दाँतों को पीस कर कहे, ‘‘हाँ, हूँ पागल।’’ उस सिपाही की आँखों में पहचान की एक बिजली-सी दौड़ गयी और उसने एकदम से अपनी बुच्ची दाढ़ी लटका कर ढीले मुँह से कहा, ‘‘अच्छा तुम!’’

कोठरी की बातकहानी

मुझ पर किसी ने कभी दया नहीं की, किन्तु मैं बहुतों पर दया करती आयी हूँ। मेरे लिए कभी कोई नहीं रोया, किन्तु मैंने कितनों के लिए आँसू बहाये हैं, ठंडे, कठोर, पत्थर के आँसू…किन्तु इसके विपरीत, कितने ही भावुक व्यक्तियों ने मेरे विषय में काव्य रचे हैं, कितने ही मेरे ध्यान में तन्मय हो गये हैं, पर मैं कभी किसी की ओर आकर्षित नहीं हुई, मेरी भावना किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में नहीं बँधी, मुझे कभी आत्म-विस्मृति और तन्मयता का अनुभव नहीं हुआ…

क्योंकि मैं सदा दूसरों पर विचार करती आयी हूँ; और मेरा निर्णय, मेरा न्याय, सदा ही कठोर रहा है, यद्यपि पक्षपातपूर्ण नहीं; नपा-तुला रहा है पर दया से विकृत नहीं…

मुझसे जीवन नहीं है, किन्तु मैं जीवन देने की उतनी ही क्षमता रखती हूँ जितनी उसे छीन लेने की, विनष्ट करने की। मेरा काम है तोड़ना; मेरा आविष्कार ही इसलिए हुआ है; किन्तु जब मैं बनती हूँ, तब जो कुछ मैं बनाती हूँ, वह अखंड और अजेय होता है। मैं स्वयं पत्थर की हूँ, वज्र-हृदय हूँ, इसलिए मेरी रचनाएँ भी वज्र की सहिष्णुता रखनेवाली होती हैं…

मैं हूँ एक नगण्य वस्तु, सभ्यता के विकास का एक बड़े यत्न से छिपाया हुआ उच्छिष्ट अंश, जो उसी सभ्यता में अपनी कुढ़न के अत्यन्त अकिंचन कीटाणु फैलाता जाता है – बिना जाने ही नहीं बल्कि जान-बूझकर अपने से छिपाये गये साधनों द्वारा, चुपचाप, चोरी-चोरी किसी भावी, व्यापक, चिरन्तन, घोर आतंकमय जीवन-विस्फोट के लिए…

मैं हूँ मुक्ति का साधन एक बन्धन – मैं संसार के किसी भी राज्य के किसी भी जेल की एक छोटी-सी कोठरी हूँ…

मैं जहाँ हूँ, वहाँ से कभी हिली नहीं। एक बार, कभी किसी ने मुझे बना दिया था, तब से मैं वैसी ही चली आ रही हूँ। कभी-कभी लोग आकर मेरे अलंकार-भूषण बदल जाते हैं अवश्य; मुझे नयी कड़ियाँ, नयी शृंखलाएँ, और नये पट दे जाते हैं, मेरे मुख और वक्ष पर नया आलेप कर जाते हैं, पर इससे मौलिक और प्रत्यक्ष एकरूपता नहीं बदलती – वैसे ही जैसे स्त्री के आचरण और अलंकार बदल देने पर भी उसका आन्तरिक रूप वही रहता है… पर ऐसा होते हुए भी मैंने दुनिया देखी है और देखती हूँ, दुनिया के अनुभव सुने हैं और सुनती हूँ, और इसके अतिरिक्त अपने प्रगाढ़ अकेलेपन में मैंने एक शक्ति पायी है-मैं आत्माएँ पढ़ती हूँ। मेरे पास जो आता है, मैं उसे आर-पार देख, पढ़ और समझ लेती हूँ…

कभी सोचती हूँ, मेरा जीवन एक निष्प्राण पत्थर की बनी हुई वार-वधु का-सा है; क्योंकि मेरे अपने स्थान से टले बिना ही अनेकों लोग मेरे पास से हो जाते हैं, अपना गूढ़तम निजत्व मुझ पर व्यक्त कर जाते हैं, और लुटकर, कुछ सीखकर, अवश्य पुनः आने का या कभी फिर आने का नाम न लेने का निश्चय करके चले जाते हैं; और मैं अपना अपरिवर्त्त अनन्त-यौवन लिये, उसी भाँति निर्लिप्त और अजेय और सम्पूर्णतः अनासक्त, उन्हें जाने देती हूँ, और अग्रिम आगन्तुक की प्रतीक्षा करने लग जाती हूँ…

और जब याद आता है कि किसी भी नवागन्तुक के लिए मुझे सजाया और साफ किया जाता है मेरा प्रत्यंग धोया और अलिप्त किया जाता है, मेरे धातु के आभूषण चमकाये जाते हैं, और जब प्रति सन्ध्या को आकर मेरे कपाट और ताले खड़काकर मानो घोषित करते हैं कि ‘वस्तु अच्छी है’, तब तो मुझे स्वयं यह विश्वास हो जाता है कि मैं वर-वधू ही हूँ और मैं लज्जा से सकुचा जाती हूँ, कुंठित होकर पहले से भी अधिक छोटी और घिरी हुई जान पड़ने लगती हूँ, मेरा दम घुटने लगता है… तभी तो कभी-कभी मेरे क़ैदियों को एकाएक ध्यान आ जाता है कि वे बद्ध हैं, या कि उनके बन्धन एकाएक संकुचित और कठोर हो गये हैं; और वे ‘कुछ’ कर डालने के लिए तड़फड़ाने लगते हैं…

कभी सोचा करती हूँ, मेरा आदिम पिता, मेरा अत्यन्त पूर्वज कौन था? क्योंकि कोई व्यक्ति यदि संसार की कुत्सा और घृणा का पात्र है तो वही… तब जान पड़ता है कि मेरा एकमात्र सम्भव आदि निर्माता स्वयं ईश्वर है (-यदि वह है तो) क्योंकि मैं अत्यन्त प्राचीन काल से किसी-न-किसी रूप में संसार में चली आ रही हूँ, संसार की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक घटना, प्रत्येक आकार, प्रत्येक अनुभूति, मेरा ही कोई छिपा हुआ या विकृत रूप है… मैं ही वह आदिम समुद्र थी जिससे सृष्टि की उत्पत्ति हुई है, मैं ही ईडन-उद्यान की परिधि थी, मैं ही उस आदिम धूम्रपुंज का आकार थी जिससे तारे और ग्रह और नक्षत्र और अन्य भौतिक आकार उत्पन्न हुए… यदि संसार में पहले प्रज्ञा और माया थीं, तब मैं माया का अन्धकार थी; यदि पहले-पहल लिलिथ को बनाया तो मैं लिलिथ के कांचन कचों की एक लट थी जिसके द्वारा वह युवकों के हृदय बाँधती थी और घोंट देती थी…

किन्तु ये सब विचार मिथ्या हैं, आत्मप्रवंचा हैं। मैं वास्तव में कुछ नहीं हूँ; केवल एक समय एक मिथ्या डर, ज्यामिति के आकारों की भाँति एक काल्पनिक रेखा-जाल जिसे समाज ने पत्थर में खींच दिया है… यही मेरे अन्तर्विरोध का हल है। मैं कुचलती हूँ तो उद्दीप्त भी करती हूँ; दबाती हूँ तो स्वयं उपेक्षित भी होती हूँ; आतंक फैलाती हूँ तो पराजित भी होती हूँ मैं सब-कुछ हूँ जो लोग मुझे बना देते हैं; और वास्तव में मैं हूँ ‘कुछ’ अपरिवर्त्त, तुषार-शीतल, निष्प्राण…

मैं बाँधती हूँ, पर निष्क्रिय रहकर, न्याय करती हूँ तो निरीह होकर। मैं चुप रहती हूँ-पर कभी-कभी उस मौन के विरुद्ध किस कारण मेरा सारा अस्तित्व उठ खड़ा होता है? तब चुप रहना मुझे स्वयं चुभता है, सालता है, मैं चाहती हूँ कि फटकर खुल जाऊँ, एक मार्ग बना दूँ, पर कहाँ… मैं रो भी नहीं सकती और यही सोचकर और भी रोना आता है-कि मैं रोने से वंचित इसलिए हूँ कि मेरी सम्पूर्णता ही एक जड़ीभूत प्रस्तर-खचित आँसू है!

इस विक्षोभ से मेरे कहाँ-कहाँ घाव हो गये हैं… और इतने कि मैं गिन भी न सकूँ, न इंगित कर सकूँ। घाव की स्थिति तो तब बतायी जा सके जब उसकी वेदना की कोई सीमा हो। वह तो इतनी फैली हुई है कि सर्वत्र एक ही घाव की पीड़ा जान पड़ती है…

पर, बिना स्थिति बता सकने के भी, मुझे कभी-कभी याद आ जाता है कि कैसे कभी कहीं कोई घाव हुआ था… और तब फिर मैं सोचने लगती हूँ…

यह वेदना क्यों होती है? मैं काम करके थक जाती हूँ पर याद नहीं आता कि यह कब से होने लगी और कैसे… संसार की बहुत-सी वेदनाएँ इसी प्रकार की होती हैं। जब कोई आत्मीय मरता है, तब हम उसे याद करके रोते हैं, पर शीघ्र ही आत्मीय की स्मृति तो खो जाती है, किन्तु एक कोमल-सी कसक रह जाती है। हम रोते रहते हैं, पर पीड़ा के उद्रेक से नहीं, केवल अभ्यास के वश… और फिर ये वेदनाएँ लुप्त भी इसी भाँति हो जाती हैं। तब हमें उनकी सत्यता में ही सन्देह होने लगता है। जिस प्रकार मूल कारण के लुप्त हो जाने के बाद भी पीड़ा की अनुभूति रह जाती है, उसी प्रकार मूल कारण के लुप्त हो जाने के बाद भी हमारे मन में उसकी भावना देर तक रहती है, जैसे लम्बी यात्रा के बाद जहाज़ से उतरने पर भूमि डगमगाती हुई जान पड़ती है, जब हमें ध्यान होता है कि भूमि नहीं डगमगा रही, केवल अभ्यास का भ्रम है; तब हम जहाज़ के डगमगाने को भी भ्रम समझने लगते हैं। उसी भाँति, जब हमें एक दिन ज्ञान होता है जिस पीड़ा की अनुभूति से हम रो रहे हैं, वह चिरकाल से वहाँ नहीं है, तब हमें इस बात में ही सन्देह होने लगता है कि वह कभी थी भी…

पर-

यह मानव-हृदय की कमजोरी है, यह सभ्यता से उत्पन्न एक गहरा विषण्ण दुःखवाद या पीड़ा की व्यापकता और सार्वजनिक अनुभूति के जहाँ हम आनन्द को एक भंगुर भावना मानते हैं, वहाँ पीड़ा को अवश्यम्भावी और चिरन्तन समझते हैं…

मुझे याद आता है…

पर, उसे कहने के पहले यह कहूँ कि मैं कहाँ हूँ, कैसी हूँ, और मेरे पास-पड़ोस में कौन है…

मैं अन्धी हूँ, मुझे साधारण दृष्टि से कुछ नहीं दीखता। इसीलिए, साधारण वस्तुओं के साधारण रूपाकार का वर्णन मैं नहीं कर सकती… मुझे दीखती हैं, विभिन्न आकारों के किसी श्याम आवरण में लिपटी हुई आत्माएँ – जिन्हें आकार-भेद के अनुसार हम विभिन्न नाम देते हैं…

मेरे तीन ओर मुझ-सी ही अनेक कोठरियाँ हैं, और चौथी ओर एक ऊँचा परकोटा जिसकी आत्मा मानो विद्रूप से हँस रही है… और इसके बाहर विस्तृत मरु, जिससे कहीं-कहीं सरकंडे का एकाध झुरमुट, कहीं करील की एक सूखी-सी झाड़ी, या कहीं दो-चार खजूर खड़े हैं, ऐसी मुद्रा में मानो मरु से कह रहे हों, ‘हम दीन हैं, पर झुकते नहीं; हम झुकते नहीं, पर अत्यन्त दीन और दुखी हैं…’ ग्रीष्म में, जब यहाँ उत्तप्त लू बहती है, रेत उड़-उड़कर खजूरों से उलझती है मानो मरु ने उन दीनों को कुचलने के लिए सेना भेजी हो, तब कुछ उत्तप्त कण आकर मेरे आश्रित कैदी को भी झुलसाते हैं; वैसे ही जैसे रणोन्मत्त सैनिक प्रतिद्वन्द्वी के पास-पड़ोस में बसे हुए लोगों का भी विनाश कर देते हैं, क्योंकि विनाश-भावना औचित्य नहीं देखती… तब मैं स्वयं आहत होकर अपने आश्रित की रक्षा करती हूँ। मेरा शरीर लू की तपन से नहीं, अपने आन्तरिक विक्षोभ से उत्तप्त हो जाता है, और मैं उद्देश्य-भ्रष्ट हो जाती हूँ – अपने आश्रित का भला करने की भावना लेकर उसके अनिष्ट का साधन होती हूँ… और शीतकाल में… किन्तु शीत और ग्रीष्म केवल मात्रा के भेद हैं, हम सब रहते तो वहीं हैं और हमारे परस्पर सम्बन्धी भी… यदि चन्द्रमा आकाश में आकर मेरे बालरूप पर अपनी सम्मोहिनी ज्योत्स्ना का आवरण डालकर, मुझे सुन्दर और आकर्षण तक बना देता है, तो क्या इससे मैं कोठरी नहीं रहती? क्या मैं उसी प्रकार लोगों को बाँधती और तोड़ती नहीं? …और, मेरे इन दो-चार सीखचों के बाहर विस्तीर्ण आकाश या प्रच्छन्न मेघमंडल होने से क्या मेर बन्धन ढीले या अधिक कठिन हो जाते हैं? क्या दृष्टि की सीमा, या अन्य इन्द्रियों की सीमा की प्राणों की गुणानुभूति की सीमा है?…

हाँ, तो मुझे याद आता है…

वह बहुत पुरानी बात है – मेरी बाल्य स्मृतियों में से एक… यद्यपि उससे पहले मेरे पास कई लोग आ चुके थे, तथापि उसमें कुछ था जिसने एकाएक मुझे चौंका दिया, जिसमें मैंने कुछ देखा जिसके कारण मैं उसे भूल नहीं सकी… उसके पहले, एक ऐसा आया था जो मानो किसी के प्राण उधार लेकर आया था। इसे प्राणों का कोई मूल्य नहीं था-वीरोचित उपेक्षा के कारण नहीं, किसी गूढ़ अक्षमता के कारण, जीवन-शक्ति के किसी भीतरी अपघात के कारण… यह उन व्यक्तियों में से था जो कुछ भी कर सकते हैं किन्तु अपनी प्रेरणा से नहीं, सक्रिय होकर नहीं, केवल काल-गति के पुतले बनकर… इनमें अपनी नीति, अपना आचार, अपना चारित्र्य, कुछ नहीं होता, व मानो जीवन-ज्वार पर तैरते हुए घास-फूस होते हैं। उन्हें अपने किसी कार्य के लिए दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता और क्षमा भी नहीं किया जा सकता; वे स्वयं कुछ भी नहीं करते, किन्तु समाज के सच्चे शत्रु वही होते हैं… इनमें आरम्भ में तो थोड़ी-बहुत अनुभूति होती है, शायद वह कभी-कभी यह भी देखते हैं कि वे किधर बहे जा रहे हैं, पर इस ज्ञान के पीछे बतलाने की प्रेरणा नहीं होती। वे देखकर खिन्न हो लेते हैं, और फिर उसी खेद की प्रतिक्रिया में पहले से अधिक गिर जाते हैं, और यह प्रक्रिया बराबर होती रहती है, तब तक जब तक कि उनमें यह अनुभूति भी सर्वथा नष्ट हो जाती, और वे बिलकुल पाषाणहृदय नहीं हो जाते…

और एक और भी आया था… जिसे भूलना ही क्षमा है, और जिसकी स्मृति उसका सबसे बड़ा दंड है, क्योंकि वह महत्त्वाकांक्षी था, संसार पर अपनी छाप बिठाना चाहता था, पर उसके लिए जो त्याग करना पड़ता, उसे घबराता था… महत्त्वाकांक्षा ने उसे विद्रोह की ओर प्रेरित किया था, किन्तु जब महत्त्वाकांक्षी ने ही विद्रोह का मूल्य उससे माँगा तब उसने न केवल किये को ही विनष्ट किया, प्रत्युत औरों के भी, जो कि महत्त्वकांक्षी न होकर भी त्याग करने को तैयार थे… वह अपना पुरस्कार यह समझता था कि वह लोगों की स्मृति में जीवित रहे, किन्तु आज उसे याद रखना उसकी सत्यता को याद रखना, उसका सबसे बड़ा दंड है…

किन्तु मैं उसे याद रखने का यत्न करना नहीं चाहती। वह संसार का कार्य है, जो दंड देता है। मैं दंड नहीं देती, न पुरस्कार देती हूँ; मैं केवल विचार करती हूँ, निर्णय करके रह जाती हूँ…ये व्यक्ति आते हैं और मेरे व्रजवक्ष पर बनते या टूटते हैं, और मैं संसार को जता देती हूँ कि उन पर क्या हुआ… मैं उनके भग्नावशेषों को पुनः जोड़ती नहीं, उन्हें छिपाती भी नहीं…

जिसे याद करती हूँ उसकी बात कहूँ…

परिधियाँ, बन्धन व्यक्तियों को अधोगामी बनाते हैं, किन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जो उसकी स्फूर्तिदायिनी उत्तेजना के बिना जी ही नहीं सकते… जिसकी मैं बात कहने लगी हूँ, वह इसी दूसरी श्रेणी में था… उसका नाम था सुशील। इस नाम से यह नहीं सिद्ध होता कि उसमें शील का आधिक्य या न्यूनता थी, यह केवल यही जताता है कि उसके पिता को शील की आवश्यकता थी – वे क्रोधी, सहसा बिगड़ उठनेवाले, और सहसा ही शान्त हो जानेवाले, प्रायः संसार के प्रति एक विक्षुब्ध चिड़चिड़ापन लिए किन्तु कभी-कभी अत्यन्त प्रसन्न; साधारणतया अपनी सन्तान को उपेक्षापूर्ण सीमा में बाँधकर रखनेवाले किन्तु कभी-कभी, या किसी-किसी सम्बन्ध में, बहुत स्वच्छन्दता दे देनेवाले या छीन लेनेवाले, व्यक्ति थे… सम्भवतः उनका मन उन्हें कोसा करता था कि उनमें गम्भीरता की, एकरूप शील की कमी है, और इसीलिए उन्होंने उसका नाम सुशील रखा था… हम सभी अपनी न्यूनता को अपनी कृतियों द्वारा छिपाने की चेष्टा करते हैं…

सुशील स्वभावतः विद्रोही थी। किन्तु जो ‘स्वभावतः विद्रोही’ होते हैं, उनकी विद्रोह-चेष्टा बौद्धिक नहीं होती, उसका मूलोद्भव एक भावुकता से होता है। कभी वह भावुकता बौद्धिक विद्रोह से परिपुष्ट भी होती है, तब वह विद्रोही अपनी छाया देश और काल पर बिठा जाता है। पर बहुधा ऐसा नहीं होता, बहुधा भावुक विद्रोही समय के किसी बवंडर में फँसकर खो जाते हैं – क्योंकि भावुकता स्वयं एक बवंडर है… हाँ तो, सुशील अपने घर के नियमित अत्याचार से और अनियमित आकस्मिक दुलार में, अधिकाधिक विद्रोही होता जाता था, क्योंकि घर का वातावरण उसे स्थैर्य नहीं देता था, बल्कि ज्वालामुखी-सी एक विस्फोटक निश्चेष्टा-जो एक दिन फूट पड़ी! सुशील घर से भाग निकला, और इधर-उधर सच्चे-झूठे विद्रोहियों में फँसकर मेरे पास आ गया…

लोग समझते हैं कि जो नवयुवक जेल में आते हैं, वे स्वेच्छा से, एक बौद्धिक प्रेरणा से आते हैं… झूठ! वे आते हैं एक अनिवार्यता के वश, जिस पर उनका किंचितमात्र भी नियन्त्रण नहीं है! अगर कोई प्रौढ़ व्यक्ति, आवे तब तो यह बात सम्भव है, किन्तु युवकों के आने का कारण, उनका आवाहन करनेवाली प्रेरणा, उनके मस्तिष्क से नहीं आती! वह आती है एक अज्ञात मार्ग द्वारा, और जाती है उन युवकों के घरों से माता-पिता से और उनकी परिस्थिति से, उनके समाज की उनसे मिलनेवाली (या बहुधा न मिलनेवाली) स्त्रियों से – विशेषतः उनकी बहनों से… सुशील से कोई पूछता कि वह क्यों विद्रोही हुआ, उससे तर्क करता है उसका मार्ग लाभकर नहीं है, तो उसकी बुद्धि शायद इसका समुचित उत्तर न दे पाती, किन्तु उसका हृदय अवश्य पुकार उठता – नहीं! मैंने इस मार्ग को ग्रहण इसलिए नहीं किया कि यह अधिक लाभकर है, प्रत्युत इसलिए कि मेरे वास्ते और कोई मार्ग है ही नहीं… यदि मेरे कार्य से देश को लाभ होता है, तो अच्छा है, पर मैंने यह मार्ग इसलिए नहीं ग्रहण किया। मैं यदि विद्रोही हूँ तो बस इसीलिए कि मेरी प्रकृति यह माँगती है मेरी जीवन-शक्ति की वही निष्पत्ति है…’ और उसके हृदय का कथन बिलकुल सच होता… मैं जानती हूँ! मैं अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देखती हूँ – उसके जीवन के कुछ-एक दिन-कुछ एक क्षण… एक वह क्षण में जिसमें उसकी विस्फारित आँखें रात में दिये के प्रकाश से, उसके माता-पिता के बीच एक छोटे-से, अत्यन्त प्राचीन, अत्यन्त साधारण किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और गोपनीय दृश्य को देखती हैं – अच्छी आँखें, क्योंकि वे मन के पट पर जो कुछ लिखती हैं, मन उसे पढ़ नहीं पाता। …वह लिखावट उसी भाँति मन के एक कोने में पड़ी रहती है जैसे किसी पुरातत्त्ववेत्ता के दफ़्तर में कोई ताम्रपट, जिसकी लिपि से वह अभ्यस्त नहीं है, और जिसे किसी दिन वह एक कोष की, और अन्य लिपियों की सहायता से एकाएक पढ़ लेता है… फिर एक वह क्षण जब वह और उसकी बहिन पास-पास लेटे हुए किसी विचार में निमग्न हैं – शायद अपने उस समीपत्व के पवित्र, रहस्यम सुख में, और जब उसके पिता एकाएक आकर उसे उठा देते हैं, फटकारते हैं कि वह अपनी बहिन के पास क्यों लेटा है, और एक ऐसी क्रुद्ध, सन्देहपूर्ण, जुगुप्सा-मिश्रित ईर्ष्यावाली और इतनी विषाक्त दृष्टि से उनकी ओर देखते हैं कि उसके मन में कोई परदा फट जाता है, उसे एक कोष मिल जाता है, जिससे पहला दृश्य भी सुलझ जाता है, और अन्य अनेकों दृश्य और शब्द और विचार अपना रहस्य सहसा उस पर बिखरा देते हैं, जिनके बोझ से वह दबा जाता है, जिनकी तीखी गन्ध से उसका मानसिक वातावरण असह्य हो उठता है, और वह एक अँधेरे कोने में बैठकर रोता है और निश्चय करता है कि अब कभी बहिन के पास खड़ा भी नहीं होऊँगा… और वह क्षण जब यह देखकर कि उसकी बहिन ने ऐसा ही निश्चय किया है, और बहिन की अकथ्य मर्मव्यथा समझकर, वह एक साथ ही अपना और उसका निश्चय तोड़कर उसके गले लिपटककर रोता है और उसे भी रुलाता है… और वह क्षण – पर ये तीन क्षण ही प्रखर प्रकाशक हैं, किसी व्यक्ति का इतना जीवन देखकर ही मैं उसके जीवन का इतिहास लिख सकती हूँ – उसके जीवन की घटनाओं का नहीं, समूचे जीवन का, उसकी प्रगति का, मानसिक प्रेरणाओं का, उसके उद्देश्य का…

जब वह मेरे पास आया था, तब उसे पक्का निश्चय था कि उसके जीवन के कुछ-एक दिन बाक़ी रह गये हैं, किन्तु उसे फाँसी नहीं मिली, नहीं मिली… तब धीरे-धीरे, जो शक्ति उसे ढकेलकर वहाँ तक लायी थी, वह बिखर गयी, उसका जिसमें कभी-कभी तूफान की तरह एक पागलपन आ जाता है। यह पागलपन मानो उसके जीवन का आधार था, उसकी परिवर्त्तनहीन समरूपता को तोड़कर कुछ दिन के लिए उसे शान्त कर देता था… यानी अशान्त कर देता था-क्योंकि जीवन और अशान्ति एक ही क्रिया के दो नाम हैं शान्ति तो उस तूफ़ान के पहले होती थी जब वह बिलकुल ही निर्लिप्त, बिलकुल निरीह, एक गतिमान अचेतना-सा हो जाता था, शिथिल किन्तु घातक, जैसे दलदल… उस तूफ़ान में वह उन्मत्त होकर मेरे वक्ष पर सिर पटक-पटक कर कहता था, ‘मैं पागल हो जाऊँ! यदि मैं इस जीती मृत्यु से नहीं बच सकता, तो उसकी अनुभूति ही नष्ट हो जाये! शरीर को जितने कष्ट मिलें, मिलें; आत्मा की पीड़ा-अच्छा ही है; पर इस नीरस विशेष शून्यता का अनुभव करनेवाली मनःशक्ति मर जाये! मर जाये! मर जाये! पर व्यथा पर यदि विचार किया जाये, तो वह भी कुछ पिघल जाती है… वह इस बात को समझता कि उसके असह्य कष्ट का कारण जीवन का विशेषाभाव है, और इसी समझ के कारण वह आगे टूटता नहीं था… चिन्तन से उसे पीड़ा होती थी, किन्तु पीड़ा उसे चिन्तन का आधार देती थी…

और इसीलिए वह पागल नहीं हुआ… इसीलिए, जब वह तूफ़ान आकर उसे अशान्त करके चला जाता था, तब वह उन्मद दानव की भाँति, उस छोटी-सी कोठरी में टहलने लगता था-एक सिरे से दूसरे सिरे तक, एक, दो, तीन,चार पाँच क़दम फिर वापस, एक, दो, तीन, चार, पाँच, फिर लौटकर एक, दो, तीन… और इसी तरह वह सारी रात बिता देता, तब उसकी टाँगें थक जातीं, वह एकाएक रुककर भूमि पर बैठ जाता, और चुपचाप मन-ही-मन रोने या कविता करने लगता… उसका एक शब्द भी बाहर नहीं निकलता, एक छाया भी उसके मुख पर व्यक्त नहीं होती, वह मानो किसी अदृश्य समुद्र के भाटे की भाँति धीरे-धीरे उतर जाती और निश्चल हो जाती-उस समय तक जब कि दूसरा तूफ़ान पुनः उसे न उठावे… पर मैं उसे देखती थी और सुनती भी थी – केवल मैं ही उसके नस-नस में उसके प्राणों से भी अधिक अभिन्नता से व्याप्त थी…

वह सोचा करता था… एक चित्र, एक कल्पना… कहीं पर्वत की उपत्यका में, एक काठ का झोपड़ा, एक खुली हुई खिड़की। उसके सामने, रीछ का चर्म बिछा हुआ है, जिसके पास चौकी पर वह बैठा है। और उसके आगे, चर्म पर बैठी है – कौन? वह सुशील के घुटने पर सिर टेके हुए है, उसके केश बिथुरे हुए हैं। दोनों स्थिर दृष्टि से सामने बुझती हुई आग को देख रहे हैं। सुशील धीरे-धीरे उसके ललाट पर अपनी ठोड़ी टेक देता है, और उसके बिखरे केशों को और भी बिखेरकर उसमें अपना शीश, अपने स्कन्ध, और उसका शीश, सभी लपेट लेता है… उसका मन कहता है, ‘‘इनके सौरभ में ही खो जाऊँ, इन्हीं में घुटकर चाहे मर भी जाऊँ…’’

यह दृश्य न जाने सुशील को कैसा कर देता था! मानो उसे बेधता था; मानो उसका अप्रतिहत मौन साँय-साँय करके सुशील के कानों में कहता, ‘‘तुम्हारा जीवन कितना सूना है – जैसे रेगिस्तान में अनभ्र अमावस्या की रात ! जिसके तारों का असंख्य अनुपात और अकिंचन प्रकाश उसकी शून्यता और आलोकहीनता को दिखाता ही भर है…’’

तब फिर वह मेरे कपाट के पास आकर, सीखचों को दोनों हाथों से पकड़कर और भिंची हुई मुट्ठियों पर सिर टेककर बाहर देखने लगता। तब फिर उसका मन भागता-उसके जीवन के गुप्ततम विचारों, भावों और आकांक्षाओं की ओर, और मैं फिर उन्हें पढ़ती, चुपचाप…

‘आकाश… निर्बाध आकाश… नील, हरित, शुभ्र, श्याम का विस्तीर्ण प्रसार – हाँ मेरी कल्पना के पर्वत और झरने और शिलाखंड और चीड़ के वृक्ष और काई के बिस्तर, और हाँ यह लोहे के सीखचों में से दीखता मरु, उसकी सीमा पर धुँधलु-से सरकंडे के झुरमुट, नीरस करील की सूखी हुई झाड़ियाँ और यह रुग्ण आकाश!…’

वह निकम्मा था, फिर भी निकम्मा नहीं बैठ सकता था। उसका मन सदा किसी विचार में लगा रहता-कभी भूत की ओर, कभी भविष्य की, कभी वर्तमान का विश्लेषण करता हुआ, किन्तु सदा निरत…और इस अनवरत चेष्टा का कारण केवल वहाँ का जीवन ही नहीं था, केवल उसका स्वभाव ही नहीं था। मैं, सूक्ष्मदर्शी मैं भी दिन भुलावे में रही थी, किन्तु अन्त में मैंने देख ही लिया कि उसके भीतर एक और प्रेरणा छिपी है, उसके भीतर कहीं बहुत गहरे तल में, कहीं जहाँ प्रेम का प्रकाश भी नहीं पहुँच पाता…

यह मैंने कैसे जाना? एक दिन सन्ध्या के समय वह अकेला बैठा था, बिलकुल शान्त, निश्चल; और बाहर देख रहा था। उस समय सान्ध्य-प्रकाश फीका पड़ चुका था, और उदय होनेवाले चाँद की पीली पूर्वज्योति रुग्ण न रहकर दीप्तिमान-सी जान पड़ने लगी थी। सुशील बिलकुल शान्त बैठा था, किन्तु मेरे भीतर किसी संज्ञा ने कहा कि जिस प्रकार समुद्र के बहुत नीचे अत्यन्त शीत स्रोत गतिमान होते हैं, उसी भाँति उसके शान्त बाह्य पट के नीचे कुछ दौड़ रहा है… वह शान्ति किसी तल्लीनता की शान्ति थी, इसलिए मैंने चुपचाप उसके प्राणों में झाँककर देखा, बहुत गहराई तक? इतनी दूर तक कि यदि वह तल्लीन न होता तो चौंककर प्रातः कुमुद की भाँति एकाएक बन्द हो जाता, छिप जाता, डूब जाता, मुझे अपने हृदय का रहस्य न देखने देता-जो मैंने अनजाने में देख लिया!

सुशील बाहर झाँक रहा था। मरुभूमि के उस सूखे पट पर एक छाया चली जा रही थी – मरु को चीरती हुई किसी बादल के टुकड़े की छाया की भाँति – और (सुशील के लिए) उतनी ही निःसत्त्व! घघरी पहने हुए एक स्त्री, सिर पर एक छोटा-सा मटका और बाँह के नीचे एक टोकरी दाबे… सुशील उसी को देख रहा था, और उसका हृदय किसी अज्ञात कारण से धड़क रहा था, बिलकुल निष्काम होकर, उस स्त्री के प्रति बिना कोई भी भाव अच्छा या बुरा धारण किये हुए…

मैं उसे देख रही थी और सब-कुछ समझ रही थी। पर, एकाएक उसने मुँह फेर लिया… मैंने सुना (उसके सुख से नहीं, उसके मस्तिष्क के भीतर) मेरे लिए कोई आधार आवश्यक है… मेरे सखा-बन्धु सब मर चुके हैं। एक तुम हो, तुम भी कितना दूर, अनुपगम्य… और एक है यह छाया! मैं तुम्हारी ओर ही उन्मुख हूँ, फिर भी ऐसा जान पड़ता है, उस छाया के बिना जी नहीं सकता… फिर थोड़ी देर चुप रहकर, धीरे-धीरे…गाने लगा-

‘मिथ्या कथा, के बोले जे भूलो नाइ?

के बोले ये खोलो नाइ

स्मृतिर पिंजर द्वार?’…

मैंने पूछा, यह ‘तुम’ कौन है? उसकी मुझे एक झाँकी मिली, जिसमें मैं उसे पहचान नहीं पायी! शायद सुशील की बहिन, शायद वही नामहीन आकार जिसे लेकर वह बिखरे बालों की कल्पना करता था, शायद कोई और… इसलिए मेरी उस प्रश्न-भरी दृष्टि का उत्तर नहीं मिला…

कभी सोचती हूँ, संसार में कभी किसी प्रश्न का उत्तर मिलता भी है? जो प्रश्न एक बार पूछा जावे, वह क्या कभी भी अपना उत्तर पाकर सम्पूर्णता में लीन हो सकता है?

प्रश्न जब पूछा जाता है, तब वह आकाश में फैल जाता है… उसका उत्तर कितनी भी शीघ्रता से दिया जाये, प्रश्न और उत्तर में कुछ अन्तर ही रह जाता है। प्रश्न अबाध गति से अनन्त की ओर बढ़ता जाता है, और उत्तर उसी की गति से उसका पीछा करता जाता है… वे सदा निकट रहते हैं, किन्तु केवल निकट – वे कभी मिलकर और एक होकर सम्पूर्ण, सम्पन्न, समाप्त नहीं होते…

पर, इससे शायद जीवन, को स्थायित्व, नित्यता मिलती है, शायद इसके कारण ही जीवन की द्रोही-शक्ति मृत्यु के बाद तक अपरिवर्त्त रहती है, क्योंकि मृत्यु उसे पकड़ नहीं पाती… हाँ, तो उस प्रश्न का उत्तर मैंने कभी नहीं पाया। उसके बाद बहुत अवसर भी नहीं मिले। एक दिन मैंने देखा, उसके भीतर कुछ अधिक चहल-पहल है। उस दिन उसने भूख-हड़ताल आरम्भ कर दी…

उसके बाद… उसके हृदय में ऐसे तूफ़ान उठने लगे कि मैं भी घबरा जाती! मैं जो पत्थर की हूँ, जो अनुभूतिहीन हूँ, मैं उन भावनाओं की चोट नहीं सह सकती, जिन्हें वह लेटा-लेटा नित्य-प्रति अपने मन में फेरा करता। कई-एक मास बीत जाने के बाद, कभी-कभी मैं डरते-डरते उसके कोमल-तर विचारों की आहट पाकर, क्षणभर में कान लगाकर सुनती, एक-आध अभूतपूर्व उद्भावनाएँ चुरा लेती, अपने वज्रकोष में संचित करके रख लेती… मुझ जैसे प्राणहीन पत्थरों से ही विकासगति में पड़कर मानव बने हैं, तब किसी दिन मेरे कण-कण के भी बन जाएँगे; उन्हीं भविष्यत् प्राणियों के लिए मैं ये भावनाएँ एकत्र किया करती…

सदियों पहले, जब मैं किसी पहाड़ का एक अंश थी, तब बहुत-से प्राकृतिक दृश्य देखा करती थी, उन्हीं की स्मृति से एक कल्पना मुझे सूझती है। कभी, जब वायु-मंडल अत्यन्त स्वच्छ होता है, पर आकश में दो-एक छोटे-छोटे बादल के टुकड़े मँडरा रहे होते हैं, ऐसी सान्ध्य में सान्ध्य तारे के आलोक से एक कोमल धवल दीप्तिमंडल बन जाता है। श्वास की भाँति चंचल और स्वप्न की भाँति विचित्र। उसी दीप्तिमंडल के छायानृत्य की भाँति सुशील के मुख पर विचार-विवर्त्तन होता रहता, और मैं उसे देखती।

‘‘मैं क़ैदी हूँ – तीन-चार वर्षों से मैंने किसी स्वतन्त्र व्यक्ति का मुख नहीं देखा – ये जेल के कर्मचारी तो मुझसे भी अधिक क़ैदी हैं! और यदि जीता रहा तो दस वर्ष और नहीं देखूँगा। मैं सब ओर बन्धनों से, सीखचों से, पशु-बल से घिरा हुआ हूँ। कोई मुझसे मिल नहीं सकता, कोई मुझसे बात नहीं कर सकता; मैं सदा इन्हीं सीखचों से घिरा बन्द रहता हूँ।…

‘‘मैं प्राणिमात्र का उपासक हूँ, पर मुझे हिंसावादी कहते हैं। मैं संसार को दबाव और अनुचित प्रभुत्व से मुक्त करना चाहता हूँ, पर मेरा नाम आतंकवादी है।

‘‘मैं जनशक्ति का सेवक हूँ, इसलिए सर्वथा अकेला हूँ।

‘‘इस विराट् षड्यन्त्र के विरुद्ध, अपने अकेलेपन से घिरे हुए मैंने, क्या अस्त्र ग्रहण किया है? विस्तीर्ण और दुर्जेय पशु-बल से, सूक्ष्म किन्तु अजेय आत्मा की रक्षा के लिए, एक युक्ति की है?

‘‘भूख-हड़ताल!’’

और फिर, एक दूसरी बार :

‘‘मैं निहिलिस्ट नहीं हूँ, मैं रोमांटिक नहीं हूँ। मुझे आत्मपीड़न में ऐन्द्रयिक सुख नहीं मिलता, मुझे गौरव का उन्माद भी नहीं हुआ है। पर मेरी परिस्थिति में एक ऐसी अपरिवर्त्त, तुषारमय, अमोघ अनिवार्यता है कि मुझे और कोई उपाय सूझता ही नहीं, जिससे कुछ लाभ हो सके…

‘‘मैं एक महीने से भूखा हूँ – भूखा तो नहीं हूँ, क्योंकि भूख चार-पाँच दिन में ही मर गयी थी – एक महीने से मैंने कुछ नहीं खाया। जब मैंने खाना छोड़ा था, तब भी यही सब सोचकर छोड़ा था, तब भी अपने जीवन की शक्ति क्षीणतर होती जाती है, त्यों-त्यों उसका महत्त्व क्यों बढ़ता जाता है? इस हीन दशा में आकर मुझे जान पड़ता है, मैंने पहले कभी जीवन का अनुभव ही नहीं किया! यद्यपि अब मेरे जीवन में क्या है? दिन में दो बार, बहुत-से क़ैदी और नम्बरदार आकर मेरे क्षीण शरीर पर अपनी शक्ति की परीक्षा करते हैं, डॉक्टर मेरे बिस्तर और मुँह पर थोड़ा दूध बिखेर जाता है, और मैं थका पड़ा रहता हूँ! हाय जीवन!

‘‘पर जब तक हम मरते नहीं, तब तक जीवन नहीं जाता। मैं यहाँ बन्द हूँ, मेरे आसपास सनसनाती हुर्ह शिशिर की हवा बह रही है, पर…’’

और फिर भी…

‘‘बाहर मैं देख सकता हूँ, अनभ्र आकाश में चन्द्रमा की ज्योति… दूर पर, शुभ्र आकाश के पट पर श्याम, स्पष्ट और भीमकाय एक सन्तरी खड़ा है, और उसके हाथ की बन्दूक पर लगी हुई संगीन ज्योत्स्ना में चमचमा रही है… लोहे की छड़ी से सीमित मेरे ‘अनन्त’ आकाश में एक साथ ही दो वस्तुएँ चमक रही हैं – ऊपर प्रकृति का सवोत्तम रत्न चन्द्रमा, और नीचे उसका उपहास करती हुई मानवीय शिल्प की सर्वोत्तम कृति, वह हिंसा का निमित्त, संगीन…

‘‘दूर, जेल की दीवारों से बाहर, मैं देख सकता हूँ एक छोटा-सा ऊजाड़ भूमि का टुकड़ा – एक काव्यबद्ध सहारा मरुस्थल… उसके सिर पर खजूरों के छोटे-से झुरमुट में कहीं से एक क्षीण-सी आवाज़ रहट चलने की आ रही है; बाहर कहीं लड़के खेल में चिल्ला रहे हैं, और चन्द्रमा के छलिया प्रकाश में मुझे जान पड़ता है कि उस भूमि को पार करती हुई एक बैलगाड़ी जा रही है… और इस सबके ऊपर वह एक संगीन चमचमा रही है…

‘‘मानवता और प्रकृति एक-दूसरे के सामने खड़े हो रहे हैं। मानवता की एक ललकार है किन्तु उसमें डर का भाव निहित है। प्रकृति का भाव सम्पूर्ण उपेक्षापूर्ण है, किन्तु उस उपेक्षा में एक कविता, एक प्रशान्त भव्य विराट् तत्त्व है…’’

बुझते समय दीपक का आलोक सहसा दीप्त हो उठता है किन्तु दीपक आजीवन उसी प्रखरता दीप्ति से नहीं जल सकता। मरणासन्न मानव का मानसिक जीवन पहले से अधिक गतिमान हो जाता है, किन्तु मानव आजीवन उसी तल पर नहीं रह सकता…एक दिन सुशील बेहोश हो गया, और बहुत देर तक रहा… जब उसे होश हुआ, तब उसने जाना कि अब उसका विद्रोह शान्त होनेवाला है, क्योंकि उसकी दासता मिटनेवाली है… तब, एकाएक ही, वह बहुत थके हुए प्राणी की तरह मेरे वक्ष पर सिर टेककर रोया…

पागल! पागल! किन्तु कितना स्नेहपूर्ण पागल! रोया जीवन के लिए नहीं, मुक्ति के लिए नहीं, उन रहस्यपूर्ण आकारों के लिए नहीं, रोया इसलिए कि वे उसे मेरे पास से ले जाएँगे; कि उसे अपनी अन्तिम निद्रा और अन्तिम (या सर्वप्रथम?) जागृति मेरी छाती पर नहीं प्राप्त होगी, रोया कि वह मुझसे बिछुड़ जाएगा…

मैं पत्थर, कठोर पत्थर! और अपनी जड़ता के ज्ञान से ही, अपनी गति-विवशता से ही, मैं उस दीन पिघल जाने के कितना निकट आ गयी… पर पत्थर कविता-कहानी के बाहर कभी नहीं पिघलता, मैं भी पिघल नहीं सकी, उसके भस्म कर देनेवाले आँसुओं से भी नहीं…

किन्तु मैंने जो किया, वह उसमें कहीं अधिक व्याथापूर्ण, कहीं अधिक यातनाभि भूत था – मैं उन आँसुओं को पी गयी…

उन्हीं की ज्वाला से, मेरा वक्ष अभी झुलसा हुआ है। पर वह उन्हें देखने को नहीं है, वह मुझे अकृतज्ञ समझता हुआ ही चला गया…

स्मृति भी मानो अफ़ीम की तरह का एक सम्मोहक विष है, वह एक विचित्र, थकी हुई-सी तन्द्रा लाती है, और ज्यों-ज्यों हम उसके आगे नमित होते जाते हैं, त्यों-त्यों विष का प्रभाव द्रुततर होता जाता है और फिर सोते समय एकाएक वह पूरा हो जाता है, भीतर कुछ नष्ट कर डालता है…

मैं कह चुकी हूँ कि मैं कुछ नहीं हूँ और सब-कुछ हूँ। प्रत्येक व्यक्ति मुझमें अपने प्राणों का, अपनी भावना का, प्रतिरूप पाता है। मैं कृष्ण-मन्दिर नहीं हूँ, न दासता की संकेत हूँ। मैं हूँ केवल एक दर्पण किन्तु काले शीशे का दर्पण… मुझमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा-भर देखता है, बिलकुल यथा-तथा; बिना किसी भी प्रकार के परिवर्तन या गोपन-चेष्टा के – आत्मा की नग्नता में, निवारणता में बाह्य आडम्बर और दर्प और प्रतिभा और शक्तिमत्ता की हीनता में… नंगे सत्य की तरह अकोमल और कृष्णकाय…

एक और की बात कहती हूँ। वह मेरे पास बहुत दिन नहीं रहा किन्तु मेरे पास आने से पहले भी वह कुछ काल जेल में रह चुका था। वह आया ही, तो मैंने देखा, उसने अपने भीतर एक छोटी-सी मंजूषा अलग बन्द कर रखी है; और वह समझता है, उसमें बहुमूल्य वस्तुएँ हैं; वह समझता है, वे परकीय आँखों से अत्यन्त सुरक्षित हैं… पर मैंने पहले-पहल उन्हीं की परीक्षा ली, और मैंने देखा, उनमें महत्त्वपूर्ण वस्तु कोई नहीं है – यदि किसी भावना की प्राचीनता और अनिवार्यता ही उसे महत्त्वपूर्ण नहीं बना देती तो।

मैंने देखकर और जाँचकर कहा, ‘‘कायर!’’

यह बात मेरे अतिरिक्त कोई नहीं जानता था। संसार उसे सच्चा वीर, एक नेता, पौरुष की सम्पूर्णता का पुरुष समझता था। किन्तु मैंने देखा-

मेरी ललकार, उसके प्राणों ने सुन ली। हमारे बाह्य आकार अपनी चेतनाएँ खो चुके हैं, इसलिए परस्पर व्यवहार नहीं कर सकते, किन्तु हमारे प्राण अब भी वह क्षमता रखते हैं, और स्वतन्त्र रूप से अपना व्यवहार जारी रखते हैं। तो उसके प्राणों ने उत्तर दिया, ‘‘मैं कायर नहीं हूँ। मैं कायर शरीर में बसनेवाली वीर आत्मा हूँ। मैं शारीरिक कष्ट से डरता हूँ, पर मुझमें नैतिक बल है।’’

मैंने कहा, ‘‘तुम किसी प्रकार के भी आघात से डरते हो। तुम जो विद्रोही बने हो, उसका कारण कोई नैतिक विशालता या बौद्धिक विश्वास या शारीरिक बल नहीं है, उसका कारण है केवल आघात के डर की प्रतिक्रिया-मात्र!’’

उसके प्राण, मानो किसी अभौतिक चादर से अपने को ढाँपने का प्रयत्न करते हुए बोले, ‘‘नहीं! मैं इसलिए नहीं रोता कि मैं अपने आघात से डरता हूँ; मेरी खिन्नता का कारण है कि मैं इतना कुछ तोड़ता और विनष्ट करता हूँ, इतनों को इतने भयंकर आघात पहुँचाता हूँ…’’

मैं हँसी। उसके प्राणों ने भी अनुभव किया कि उस हँसी में एक कठोरता है – वह आखिर एक पत्थर की ही हँसी तो थी! मैंने कहा, ‘‘तुम कायर ही नहीं, झूठे भी हो!’’ पर वह अपने में इतना लीन था, अपने को धोखा देने में इतना पटु कि उसने सुना नहीं, कोई लम्बी-चौड़ी स्कीम लेकर उसी पर विचार करने लगा… मैंने फिर कहा, ‘‘जो आज के दिन इसलिए रोते हैं कि उनके हाथों से पाप हो रहे हैं, कल इसलिए रोएँगे कि उनकी आत्मा भूखी मर रही है! क्योंकि स्वस्थ और सक्षम पुरुष को रोने का समय कहाँ है? मैं यह अनुभव से कहती हूँ, क्योंकि मेरी आत्मा भी रुग्ण और भूखी है…’’ पर इसने यह भी नहीं सुना…

एक और दिन की बात है, मैंने देखा, वह मेरे मध्य में चुप खड़ा है। मैंने यह भी देखा उसके प्राणों पर एक परदा छाया हुआ है – यानी वह किसी विषय में फिर आत्माप्रवंचना कर रहा है…

मैंने उसके विचार पढ़े। वह, अपनी ओर से अब भी क्रान्ति के विषय में विचार कर रहा था। किन्तु उनका धरातल सत्यता से इतनी दूर, बौद्धिक बारीकियों में इतना उलझा हुआ, और मानव जाति के प्रति ऐसी विमुख उपेक्षा से पूर्ण था कि मैंने अपना साधारण नियम तोड़कर उन्हें बिखेर दिया और कहा, ‘‘युवक, वह धोखा है, उधर मत देखो, उतनी दूर! अपने सामने, अपने पास, अपने सब ओर देखो, उसमें मिल जाओ! तुम्हारा जन्म पृथ्वी की अक्षय कोख से हुआ है, तुम्हारा पोषण भी आकाश से नहीं, धरती से ही हो सकता है… शक्ति, प्रेरणा सूर्य की प्रखर दीप्ति, आकाश से आती है अवश्य, किन्तु केवल धरती को जीवन का एक आधार देने के लिए…’’

उसने सुना, पर माना नहीं। मैंने देखा, उसके नख अकारण और अकामतः मेरे वक्ष पर लिख रहे हैं, ‘गेट दी बिहाइंड मी, ‘सेटन’ …हा अन्याय! पर मेरा विचारकर्त्ता कौन है?’

तब वह दिन भी आ गया जब वह अपने पापों के लिए नहीं, अपनी भूख के लिए रोया…

वह स्नान कर चुका था। हाथ में शीशा लिए हुए, वह स्थिर दृष्टि से उसमें अपने प्रतिबिम्ब को देख रहा था। उसका शरीर तना हुआ, सिर कुछ पीछे मुड़ा हुआ, आँखें अर्धनिमीलत,-उसकी मुद्रा में कुतूहलपूर्ण पर्यवेक्षण के अतिरिक्त कुछ नहीं था, किन्तु मैंने जाना, उसका हृदय दर्पण में प्रतिबिम्बित अपनी छाया का आलिंगन कर रहा था, एक कोमल लालसा से कह रहा था, ‘‘मैं तुम्हें चाहता हूँ, मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ…’’ और एक डर से घबरा रहा था – ‘‘तुम नष्ट हो जाओेगे, व्यर्थ खो जाओगे, अपूर्ति में मर जाओगे…’’

मैंने सहसा उसे रोककर कहा, ‘‘युवक! तुममें एक ही शक्ति, एक पौरुष प्रेरणा है, जो अपनी निष्पत्ति माँगती है। वह विद्रोह से भी मिल सकती है, और इस – इस प्रेम से भी; पर दोनों से नहीं! प्रेम की शक्ति उस नागिन के सिर की तरह है; जो उसे एक बार देख लेता है, वह फिर जड़ हो जाता है…’’ मैंने यह नहीं सोचा कि यदि है, तो फिर मेरी शिक्षा का क्या लाभ है? वह तो उस मूर्ति को देख चुका है, जिसके प्रति अन्धा रहना अन्धेपन से बचे रहना है…

मैंने उसे ‘प्रेम’ तो कहा, पर वह प्रेम नहीं था, वह थी एक और शक्ति जो अँधकार से उत्पन्न होती है, और जो अधिकार पा लेने पर अन्धकार की ओर, शून्यत्व की ओर, अधोगमन की ओर खींचती है…

जाने दो। कोई अन्धा है, तो हमारी रो-रोकर अपनी आँख फोड़ लेने से उसे कुछ दीखेगा नहीं। उसके अन्धेपन को ही फलने दो, उसकी वही गति है। और जिनके आँखें हैं –

वे एक तरह से अलग हैं –

इस अलगाव का पता सहसा नहीं लगता, क्योंकि निर्बलताओं में बँधे इस संसार में हम निर्बलताएँ ही देखते हैं, और निर्बलता के क्षण में आँखें होने या न होने से कोई विशेष भेद नहीं होता…

सच्चे विद्रोही, और साधारण व्यक्ति में एक बहुत ही बड़ी समानता है-एक समानता जिससे उनकी आत्यन्तिक विभिन्नता प्रखर दीप्ति से चमक जाती है – कि विद्रोही अपनी कमज़ोरी के क्षण में वह इच्छा करता है जो कि साधारण व्यक्ति अपनी शक्ति के चरम विकास में-मुक्ति की, बचाव की छुटकारे की, इच्छा इस झंझट से, उस उलझन से, इस प्रपीड़न और यातना और अपवित्रता से भरे जीवन और संसार से निकल भागने की तीव्र, भयंकर, आत्मा को झुलसानेवाली इच्छा…

क्योंकि, विद्रोही अपनी सारी दीप्ति और तेज अपने भीतर से पाता है, और उसी की आँच पर संसार को परखता है, और साधारण व्यक्ति अपनी प्रेरणा संसार से पाता है और उसकी आँच पर स्वयं परखा जाता है…

और, साधारण व्यक्ति एक व्यक्ति, एक इकाई होता है जो अपने आपको खोजती हुई अपनी निष्पत्ति की ओर बढ़ती है, किन्तु खोयी रहती है संसार की समष्टि में; विद्रोही होता है एक समष्टि में छिपी हुई प्रेरणा, एक विराट् समूह में वितरित शक्ति, किन्तु होता है अत्यन्त आत्म-सन्निहित और अकेला…

ऐसा भी, एक आया था। मैंने उसे देखा, परखा, और जाना; मुझे मालूम हुआ, यही है मेरे जीवन का पूरक, यही है जिसके लिए मैं बनी थी और जिसकी प्रतीक्षा में इतनी देर जड़वत् मुग्ध खड़ी थी… फिर मुझे ध्यान आया, कैसा है मेरा यह प्रणय, जो अपने वांछित को कष्ट ही कष्ट दे सकता है, जिसका असमापन ही उसकी सफलता है, क्योंकि उसी में सुख है! पर उसे कोई पीड़ा नहीं हुई, कोई कष्ट नहीं हुआ। उसमें इतनी निर्वेयक्तिकता थी कि उसे व्यक्तिगत अनुभूति मानो थी ही नहीं, और इसीलिए मैं उसका आदर करके भी प्यार नहीं कर सकती – पवन की गति को कौन प्यार कर सकता है?

वह राजनैतिक खून के मामले में आया था, किन्तु यदि मैंने किसी को अहिंसा का मूर्तिमान् स्वरूप कहाने लायक देखा है तो उसी को। उसकी आत्मा ने कभी हिंसा नहीं की, कभी अत्याचार नहीं किया, यद्यपि उसके हाथों से अवश्य ही कई मृत्युएँ हुई होंगी और उसके जैसी शक्तिमती घृणा (यद्यपि बिलकुल बौद्धिक, विषयाश्रित घृणा) का अनुभव करने वाले कम ही होंगे…

मानव समझते हैं, अहिंसा एक नकारात्मक परिस्थिति है-हिंसा का न करना मात्र। वे यह नहीं समझते कि संसार में कोई भी नकारात्मक परिस्थिति कभी नहीं टिक सकतीं – हिंसा न करना, पीड़ा न पहुँचाना, घृणा न करना, बिलकुल निरर्थक, नहीं असम्भव है, तब तक जब तक कि हम शान्ति नहीं फैलाते, सुख नहीं देते, प्रेम नहीं करते; शक्ति अपने को बाँधने में नहीं, अपने को सीमाओं से उन्मुक्त करने में है…

वह भी मेरे पास से चला गया – या यह कहूँ कि नहीं गया? क्योंकि उसे फाँसी के लिए ही निकालकर ले गये थे…

यह एक भयंकर स्मृति में – मुझे याद है कि मुझे उस समय भी ध्यान हुआ था कि वह पहला व्यक्ति है जो मेरे वक्ष पर अपना नाम नहीं लिख गया है; उससे पूर्व जितने आये थे, वे सभी अपना नाम कोयले से, या पेन्सिल से, या नाखून से ही खोद-खोदकर लिख गये थे, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया… शायद उसे परवाह नहीं थी कि उसे कोई स्मरण करता है या नहीं; या शायद अपने प्रकांड आत्मविश्वास में वह जानता था कि उसे मेरे वक्ष पर यह छोटी-सी छाप छोड़ जाने की आवश्यकता नहीं; या शायद विद्रोही की संसार के प्रति अवज्ञा के कारण ही – एक अन्तिम अवमानना की तरह…

एक अन्तिम स्मृति…

वह भावुक था, किन्तु उसका मोह टूट चुका था, वह खट्टा हो गया था। इतना नहीं कि उसके लिए जीवन निस्सार हो जाये, इतना नहीं कि वह निरीह होकर पाप करने में प्रवृत्त हो जाये, पर इतना अवश्य कि उसके पुराने नैतिक आदर्श बिखर जाएँ, और नये आदर्श उनका स्थान लें-आदर्श, जो वास्तव में किसी प्रकार की भी आदर्शवादिता के शत्रु हैं…

ऐसा था मानो उसके लिए संसार के मुख पर पहना हुआ कोई छद्म-मुख उतर गया हो, या मानो उसका मनःक्षेत्र एकाएक विस्तृत होक मानवीय चेतना से परे की-ऊपर और नीचे दोनों ओर परे की – अनुभूत शक्ति पा गया हो, और इतना ही नहीं, उस अनुभूति को वह पहले की अपेक्षा कम काल में प्राप्त कर लेने में समर्थ हो गया हो…

उसका नाम था दिनमणि। वह आया था केवल दो दिन के लिए, किन्तु मैं उसे नहीं भूलती। जब वह उठकर बाहर चल दिया, तब उसने लौटकर मेरी ओर देखा भी नहीं चुपचाप चला गया। मैंने सोचा, क्या है? जब मुझे याद करनेवाले आते हैं तब भूलनेवाले भी होने चाहिए, जब मेरे प्रति एक पूजा भाव रखनेवाले होते हैं, तब ऐसे उपेक्षाभाव रखनेवाले भी तो होने चाहिए… पर नहीं, दूसरे दिन मैंने देखा-यानी एक शारीरिक अनुभूति से अनुभव किया-कि वह दूर पर, बड़ी दीवार के बाहर बैठा है – उसी स्थान पर जहाँ कभी सुशील आँख लगाये रहता था, किसी एक छाया के लिए, ‘जहाँ आकर वह छाया कभी-कभी सम्भ्रम की दृष्टि से मेरी ओर देख लेती थी और सुशील को एक सुखद शान्ति दे जाती थी’…

दिनमणि को वहाँ बैठ देखकर मुझे जिज्ञासा हुई कि यह क्यों आया है? तब मैं उसकी आत्मा से मूक वार्तालाप करने लगी, और मैंने जाना कि वह कितना थका हुआ है, किन्तु हारता नहीं है। संसार में आकर वह अनुभव कर रहा है कि वह संसार से बाहर है, किन्तु उसे छोड़ता नहीं… मैंने पूछा, ‘‘दिनमणि, तुम्हें क्या हो रहा है?’’

उसकी आत्मा ने उत्तर नहीं दिया, केवल एक आँख-भर मेरी ओर देख दिया… उसका सिर, उसका मन, उसकी समूची आत्मा एक दबी हुई, स्पन्दनयुक्त, और कभी-कभी तीखी हो जानेवाली, एक अद्भुत पीड़ा से दुख रही थी।

हमारा वार्तालाप होने लगा :

मैंने पूछा, ‘‘तुम सुखी क्यों नहीं थे?’’

‘‘यह देखो, संसार का खोखलापन… इधर, और उधर, और इधर-’’ उसने आँखों-ही-आँखों से संसार का फेरा करते हुए कहा – ‘‘यह देखो, इसकी झूठी प्रशंसा और निस्सारता, और यह देखो मेरी मौन ग्लानिपूर्ण लज्जा, जिससे मैं इसे सहे जाता हूँ, और जो इसलिए अधिकाधिक होती जाती है कि मुझे बड़े यत्न से इसे चुपचाप सहना पड़ता है, ताकि मैं किसी को कष्ट न पहुँचाऊँ… यद्यपि मेरा हृदय चाहता है इस पर आक्रमण करना, इसका विध्वंस करके, इसे तहस-नहस करके जला डालना…’’

‘‘तुम अपने सच्चे भावों को छिपाकर चुपचाप यह सहते हो, यह क्या ढोंग नहीं है?’’

‘‘है। किन्तु ढोंग हमेशा ही दुर्बलता नहीं होता – कई बार यह शक्ति और बड़ी गहन शक्ति का, द्योतक होता है, और ऐसी अवस्था में जो ढोंगी नहीं होता वह कायर और दगाबाज होता है… मैं कहता हूँ, सच्चाई अमाया, जितनी बार नैतिक बल से उत्पन्न होती है, उतनी ही बार नैतिक दुर्बलता, कायरता से भी…’’

‘‘पर, यदि ऐसा है, तो तुम्हें संसार को देखकर पीड़ा क्यों होती है? वह पीड़ा तो ढोंग नहीं है…’

‘‘नहीं। वह इसलिए कि वह मैं अपने विश्वास में दृढ़ होकर भी उस तक पहुँच नहीं पाता। क्योंकि, जो जीवन मैंने देखा है, उसने मेरे प्राणों को ही नहीं, संसार को ही निरावरण कर दिया है… उसकी खून से लथपथ और वीभत्स कुरूपता के प्रति मैं आँख बन्द नहीं कर पाता…’’

‘‘यह कब से? तुम क्या सदा से ऐसे थे?’’

‘‘नहीं। जब मैं जेल गया, (पाँच वर्ष हुए) तब ऐसा नहीं था; तब सब-कुछ भिन्न था -यद्यपि यह नहीं है कि संसार बदल गया है, या कि मैं ही बहुत बदला हूँ। केवल इसी अज्ञात क्रिया द्वारा वह पहले की तरुण आवेगपूर्ण उद्वगता जैसे खो गयी है, वह अपने सम्पूर्ण, सदर्प आत्म-गौरवमय विश्वास, उन कुछ-एक सिद्धान्तों में विश्वास जिनके लिए मैंने त्याग और संग्राम किया था, – मानो नष्ट हो गया है। आज वह सब-कुछ नहीं है; आज मैं सोच सकता हूँ, किन्तु उन सच्चे विचारकों की भाँति जो समझते हैं कि प्रत्येक प्रश्न के एक से अधिक पहलू होते हैं, और इतना ही नहीं, उन अनेक पहलुओं को देखते भी हैं …और जितना भी सोचता हूँ, उतना ही सन्देह विकल्प बढ़ता है…’’

‘‘तुम्हारी इस प्रगति को कोई समझता है?’’

‘‘मैं तो समझता हूँ।’’

मैंने फिर पूछा, ‘‘संसार समझता है?’’

दिनमणि की आत्मा एक फीकी हँसी हँसी। ‘‘संसार! संसार में मेरा व्यवहार ऐसा है कि मानो मैं आज जो कहता हूँ उसे यह पाँच वर्ष बाद सुनता है – मेरे और संसार के मध्य में एक आलोक तथ्य की भाँति सदा उन पाँच वर्षों का अन्तर रहेगा जो मैंने जेल में बिताये हैं…’’

मैं और प्रश्न नहीं पूछ सकी। चुपचाप दिनमणि को देखने लगी, और सोचने लगी कि ऐसी समस्याओं का कभी हल होगा या नहीं… संसार में, शासन-संस्थाएँ बदलती ही रहेंगी, विधान भी बदलते ही रहेंगे… साथ-ही-साथ स्वाधीनता के आदर्श भी बदलते रहेंगे तब सदा ही पूर्ण स्वाधीनता में कुछ न्यूनता रहेगी, उसे पूरी करने के लिए उद्धत और मनचले युवक भी उठते ही रहेंगे, …बाह्य प्रश्नों का, राजनैतिक समस्याओं का हल तो अनेक बार होगा और फिर होगा, किन्तु मानव-हृदय की वह ऊर्ध्वगति या पागलपन, कब कैसे मिटेगा – यह तो सदा ऐसा ही बना रहेगा, यही तो मानव-हृदय की स्पन्दन-गति है जिसके बिना वह नहीं चलेगा…

तब तो, मुझे कभी मुक्ति नहीं मिलेगी? मैं सदा ही दूसरों को पीड़ा देकर अपनी पीड़ा के बोझ को चुकता करती रहूँगी, किन्तु कभी नहीं पाऊँगी, बूढ़ी और कमजोर होती जाऊँगी, किन्तु मरूँगी नहीं – अभिशप्त टाइथोनस की भाँति कुढ़-कुढ़कर रह जाऊँगी – निर्दय अमरत्व एक मात्र मुझे ही सालेगा…

एकाएक मैंने सुना, दिनमणि बिलख-बिलखकर रो रहा है और अपने से एक निराश प्रश्न पूछ रहा है, मैं क्यों आया, मैं यहाँ क्या करने आया…’’ ओह, वह रात्रि की घोंट देनेवाली नीरवता, ओह, उस प्रश्न की यन्त्रणा… उसके लिए भी मेरे लिए भी, जिसे याद आ रहा है कि मैं अमर हूँ, और मेरे अमरत्व का बोझ मुझ पर से उठ नहीं सकता…

दिनमणि उठा। एक बार उसने अत्यन्त स्थिर दृष्टि से मेरी ओर देखा – देखता रहा। फिर एक भयंकर अभिशापमय स्वर में बोला, ‘‘मैं नहीं आऊँगा, नहीं आऊँगा! प्रत्येक प्रेरणा मुझे इधर धकेलती है (क्यों धकेलती है? क्यों चाहता हूँ कि संसार से लौट जाऊँ अपने कारावास में?) पर मैं नहीं आऊँगा, मैं जीते रहकर ही अपनी मृत्यु-यन्त्रणा भोगूँगा…’’

और चला गया।

मैं चुप रही, शान्ति रही। पत्थर हूँ – पत्थर रही… पर, मैंने इतने जीवन में जो कुछ अनुभव प्राप्त किया है, वह विद्रोह कर उठा… तब मैंने कहा ही तो – विवश होकर कहा…

‘‘पागल! पागल! नहीं आओगे, अपनी माता के पास नहीं आओगे, जो तुम्हें सत्य देती है और प्यार करती है; जो निर्दय और कठोर घृणा से तुम्हें संसार में धकेलती है कि तुम काम करो और दुख भोगो और लड़ो और फिर उसके पास लौट आओ उसके अकेलेपन में… उस माँ के पास नहीं आओगे?…’’

पर वह चला गया-उस समय उसने कुछ नहीं सुना। पर मैं अपनी बात पूरी कर डालने के लिए बोलती गयी-क्योंकि मैं जानती हूँ कि कोई अपने मन में निश्चय नहीं कर सकता कि वह मेरे पास आएगा या नहीं… यह निश्चय मैं करती हूँ, और मेरी सहायक होती है मानव-हृदय की भूख… दिनमणि ने आज नहीं सुना, पर किसी दिन उसके प्राण ही उसे यह सुनाएँगे…

मैं कहकर चुप हो गयी। और निविड़ रात्रि में तारों द्वारा बढ़ाये हुए अन्धकार की ओर उन्मुख होकर सोचने लगी-उस तारापट में अपना भी एक अमर आँसू गूँथने लगी, जो कि मेरी जीवनी का सार और मेरी कहानी का सबसे गूढ़तम सत्य, उसका अन्त है; एक आँसू जो नीरवता में बोलता है, अन्धकार में चमकता है, विस्मृति में जागता है और जो नियति का नैराश्यवाद होगा, और तुम्हारे रोने में नवजीवन की अनुभूति का रस… मैं हसूँगी जैसे प्रसूतिकाल में मरती हुई माता वह सुख-समाचार सुनकर हँस उठती है एक उन्मत्त ओर दुःख भरी, हँसी; तुम रोओगे जैसे नवजात शिशु संसार की असह्य सजीवता और ज्योति को देखकर एकाएक रो उठता है…

कि मैं कहती हूँ, यही मैंने अपने पत्थर के जीवन में सीखा है, पत्थर के आँसू में सींचा है, और पत्थर की कठोरता से तुम्हें सिखाऊँगी…

यात्रा वृत्त

एक बूँद सहसा उछली

घुम्मकड़ी एक प्रवृत्ति ही नहीं, एक कला भी है। देशाटन करते हुए नये देशों में क्या देखा, क्या पाया, यह जितना देश पर निर्भर करता है उतना ही देखने वाले पर भी। एक नजर होती है जिसके सामने देश भूगोल की किताब के नक्शे जैसे या रेल-जहाज के टाइम-टेबल जैसे बिछे रहते है; एक दूसरी होती है जिसके स्पर्श से देश एक प्राणवान प्रतिमा-सा आपके सामने आ खड़ा होता है-आप उसकी बोली ही नहीं, हृदय की धड़कन तक सुन सकते हैं।

‘एक बूँद सहसा उछली’ के लेखक की दृष्टि ऐसी ही है। वह देश में नहीं, काल में भी यात्रा करता है। जो प्रदेश वह आपके सामने लाता है उसका सांस्कृतिक परिपार्श्व भी आपकी आँखों के सामने रूप ले लेता है। जिस चरित्र को वह आपके सम्मुख खड़ा करता है उसकी एक चितवन में एक पूरे समाज के इतिहास की झाँकी आपको मिल जाती है। यात्रा-साहित्य हिंदी में यों भी बहुत अधिक नहीं है,पर ऐसी पुस्तक तो अद्वितीय है। लेखक संस्कार से भारतीय है। मानव जाति से वह जो तादात्म्य खोजता है, उसमें वह केवल एक संयोग है; पर विभिन्न देशों के वर्णन और वृतांत की ओट में भारत और भारतीयता की जो गौरवमयी प्रतिमा वह उत्थापित करता है, वह उसकी कला दृष्टि और शिल्प-कला का प्रमाण तो देती ही है, उसकी वैचारिक निष्ठा का भी प्रमाण है।

घुमक्कड़ी का शास्त्र दूसरों ने लिखा है, पर ‘एक बूँद सहसा उछली’ घुमक्कड़ी का काव्य है। उसमें मंत्र नहीं आत्मा बोलती है। यात्रा-वृत्तांत में लेखक ने स्थलों और चेहरों की अविस्मरणीय झाँकियाँ दिखाई हैं। नश्वरता से मुक्त करनेवाले जिस ‘आलोक छुए अपनेपन’ की बात पुस्तक को शीर्षक देनेवाली कविता में है, वह पुस्तक में सर्वत्र बिखरा है। पाठक को भी वह अवश्य अपनी परिधि में खींच लेगा।]

इस पुस्तक में क्या है, इसके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता मैं नहीं समझता। इसके लिए पाठकों में एक वर्ग अवश्य ऐसा होगा जो कि पुस्तक पढ़ने के बाद ही स्वतंत्र रूप से निर्णय करना चाहेगा कि उसकी राय में इस पुस्तक में क्या है; और उस पर इसका तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ेगा कि मैंने उसके विषय में क्या कहा है। नि:संदेह एक दूसरा वर्ग ऐसा भी होगा जिसने पुस्तक पढ़ने से पहले अपनी पक्की धारणा बना रखी होगी कि क्या उसे मेरी पुस्तक में पाना है; इस वर्ग को भी इससे प्रयोजन नहीं होगा कि मैंने भूमिका में पुस्तक के विषय में क्या-कहा है-या कि पुस्तक में ही क्या कहा है। इसलिए पुस्तक में जो कुछ है उसके बारे में कोई सफाई मुझे नहीं देनी है। क्या-क्या वह नहीं है, इसी के बारे में दो एक शब्द कहना चाहता हूँ।

यह पुस्तक मार्गदर्शिका नहीं है। इसके सहारे यूरोप की यात्रा करने वाला यह जान लेना चाहे कि कैसे वह कहाँ से कहाँ जा सकेगा, या कैसे मौसम के लिए कैसे कपड़े उसे ले जाने होंगे, या कि कहाँ कितने में उसका खर्चा चल सकेगा, तो उसे निराशा होगी। जो यह जानना चाहते हों कि कहाँ से नाइलान की साड़ियाँ- या कैमरे, या घड़ियाँ या सेण्ट, या ऐसी दूसरी चीजें जो कि भारतवासी विदेशों से उन कला-वस्तुओं के एवज में लाते हैं जो कि विदेशी यहाँ से ले जाते हैं- कहाँ से किफायत में मिल जाएँगी, उनके भी काम की यह पुस्तक नहीं होगी। वास्तव में ऐसे पाठक को यह पुस्तक पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है; और मैं उन लेखकों में से नहीं हूँ जो समझते हैं कि अगर पाठक ने मुगालते से किताब खरीद ली तो वह भी लाभ ही हुआ क्योंकि ब्रिकी तो हुई। जिस पाठक के द्वारा मैं पढ़ा जाना चाहता हूँ उसका स्वरूप मेरे सम्मुख स्पष्ट है। मैं उसका सम्मान भी करता हूँ और इसलिए भरसक उसे भ्रान्ति में नहीं रखना चाहता, न भ्रान्त होने का अवसर देना चाहता हूँ।

उस मेरे वांछित पाठकवर्ग में समाज के और शिक्षा के सभी स्तरों के लोग हैं। (अशिक्षा शिक्षा का स्तर नहीं है, उसका नकार है।) उसमें ऐसे भी हैं जो अँगरेजी या अँगरेज़ी के अलावा दूसरी विदेशी भाषाएँ जानते हैं (और इसके बावजूद हिंदी भी पढ़ लेते हैं !) और ऐसे भी हैं जो कोई विदेशी भाषा नहीं जानते, या हिंदी के अतिरिक्त कोई दूसरी भाषा नहीं जानते। उनमें ऐसे लोग हैं जो अनेक बार पश्चिम और पूर्व के विभिन्न देशों की सैर कर आये हैं, जो जानेवाले हों या न हों, विदेश-यात्रा के सपने देखते हैं; और ऐसे भी हैं जिनके सम्मुख ऐसी कोई सम्भावना नहीं है, और इसके लिए विशेष उत्कण्ठा भी नहीं है। वास्तव में इन सब बातों में से कोई भी पाठक की कसौटी नहीं है।

मेरा पाठक संवेदनशील हो, यह मैं उससे चाहता हूँ। क्योंकि बिना इसके वह उसे नहीं अपना सकता जो मेरी संवेदना ने ग्रहण किया। जो स्वयं संवेदनशील नहीं है वह यह नहीं पहचानता कि सबकी संवेदना अलग-अलग होती है- उसके निकट संवेदना का भी एक बना-बनाया ढाँचा होता है। वह किसी अनुभव को तद्वत् ग्रहण ही नहीं कर सकता, केवल उसके टुकड़े करके अलग-अलग खाँचों में रख सकता है।

पाठक उदारमना हो, यह भी मैं चाहता हूँ। बिना इसके वह दूसरे के विचारों का सम्मान नहीं कर सकता। बल्कि वह शायद अपने भी विचार नहीं रख सकता, क्योंकि अनुदार विचार तो अपनी उपलब्धि नहीं, रूढ़ि की देन होते हैं।

पाठक अनुभव के प्रति खुला हो, जीवन से प्रेम करता हो, यह भी मैं चाहता हूँ। जो अनुभव के प्रति खुला नहीं है, उसे दूसरे के अनुभव से भी क्या प्रयोजन हो सकता है ? और जो जीवन से प्रेम नहीं करता उसके निकट अनुभव का ही क्या मूल्य है ? जीवन-प्रेम हो तभी तो अनुभव को धन के रूप में पहचाना जा सकता है; तभी ‘संपन्न’ और ‘दरिद्र’ की पहचान के आधार आर्थिक मूल्य न रहकर मानवीय मूल्य हो जाते हैं-जीवन के मूल्य ही तो मानवीय मूल्य हैं।

वास्तव में जो ऐसे पाठक हैं उन्हें यह भी नहीं बताना होगा कि पुस्तक में क्या नहीं है। उनकी सदाशयता-और सत्ता-स्वयं नीर-क्षीर करती चलेगी। उन्हें जो मिलेगा उतना ही केवल उनकी नहीं बल्कि मेरी भी उपलब्धि होगा। जो नहीं मिलेगा, वह उसमें है ऐसा कहने की हठधर्मी मैं न करूँगा।

क्या ऐसे पाठक बहुत थोड़े हैं ? कहा जाता है कि मैं अभिजात वर्ग का हूँ (कहनेवालों के निकट ‘अभिजात’ का जो भी अर्थ हो), और इसलिए अल्पसंख्य पाठकों के लिए ही लिखता हूँ- अभिजात पाठकों के लिए ही। कोई क्यों जान-बूझकर अपने पाठकों की संख्या कम करना चाहेगा, यह मैं नहीं जानता। हर कोई मेरा लिखा हुआ जरूर पढ़े ही, ऐसा मेरा कोई आग्रह नहीं है, ऐसी कोई अवचेतन कामना भी मेरी न होगी। किन्तु हर कोई मेरा पाठक हो सकता है ऐसा मैं मानता हूँ। मानव में मेरी श्रद्धा है। मानव-मात्र को मैं अभिजात मानता हूँ। मेरा परिश्रम उसके काम आवे, इसे मैं अपनी सफलता मानता हूँ। इस पुस्तक में जो परिश्रम हुआ है, जो कुछ प्रस्तुत किया गया है, वह उस समृद्धि में कुछ भी योग दे सके जिसके मानदण्ड आर्थिक नहीं हैं, तो मैं अपने को धन्य मानूँगा। योग वह दे सके या न दे सके, उस परिश्रम के पीछे मेरी भावना यही रही है, उसके मूल में यही साध है।

***

ज्ञान-वृद्धि और अनुभव-संचय के लिए देशाटन उपयोगी है, यह पुरानी बात है। एक समय था जब कि कवि के लिए- और क्योंकि काव्यकार ही एकमात्र कृतिकार था इसलिए समझ लीजिए कि अपने अर्थ में साहित्यकार मात्र के लिए देशाटन अनिवार्य समझा जाता था। किन्तु देशाटन कैसे किया जाय इसकी कोई विशेष पद्धति शास्त्रकारों ने नहीं बतायी- तीर्थाटन की परम्परा थी लेकिन उसका उद्देश्य अनुभव-संचय नहीं बल्कि पुण्य-संचय था, और वह भी भवानुभव से मुक्ति पाने के लिए।

दुनिया की जानकारी-और आज ज्ञान अथवा अनुभव से जानकारी ही अधिक महत्वपूर्ण समझी जाती है-प्राप्त करने और उसके विषय में अधिकार पूर्वक लिख सकने के इधर दो अलग-अलग तरीके हो गये हैं। एक तो यह है कि आप सप्ताह-भर में दुनिया का हवाई-बल्कि तूफानी दौरा करके लौट आइए; फिर या तो एक ‘संवाददाता सम्मेलन’ बुला लीजिए और उसे अपनी प्रत्येक धारणा के बारे में एक-एक बयान दे डालिए, या फिर एक शीघ्रलिपिक बुला लीजिए और पुस्तक लिखा डालिए जो साथ-साथ छपती भी जाए-क्योंकि अन्यथा आपके अनुभवों के पुराने पड़कर अरोचक हो जाने का डर है। लिखने के लिए अनुकूल समय और एकान्त आवश्यक हो तो पुस्तक लिपिक की बजाय रिकार्ड करने वाले यन्त्र को भी लिखा दी जा सकती है।

स्पष्ट है कि यह मार्ग बड़े आदमी ही अपना सकते है, जिनके बयान का महत्त्व जितना उसकी विषय वस्तु के कारण हो उतना ही वक्ता के नाम के कारण। ‘‘आपने यह बात कहाँ सुनी ?’’ ‘‘जी, ठीक घोड़े के मुख से प्राप्त हुई है।’’ (आज-कल सब कुछ का अँगरेजी अनुवाद कराने के लिए समितियाँ बन रही हैं। अत: यहाँ भी अँगरेजी मुहावरे का अनुवाद कर दिया गया है। इतना अवश्य है कि यदि यह अनुवाद किसी समिति द्वारा किया गया होता तो ‘घोड़े के मुँह’ जैसे सीधी और सहज बात न कहकर ‘हय-वदन’ या ‘तुरंगमुख’ जैसे किसी प्रभावशाली पद का उपयोग किया जाता। अपनी अल्पज्ञता और गुरुत्वहीनता स्वीकार करता हूँ।)

दूसरा तरीका यह है कि आप ‘कालो ह्ययं निरवधि:’ मानकर इस ‘विपुला पृथ्वी’ की परिक्रमा पर निकल जाइए और यह चिन्ता छोड़ दीजिए कि कब लौटना होगा या कब यात्रा पूरी होगी; प्रकाशक-रूपी विन्ध्य-शिखर कब अगस्त्य-रूपी लेखक का प्रत्यावर्तन का आशीर्वाद पाकर सिर उठाकर पूछ सकेगा कि प्रभु, पाण्डुलिपि कब प्राप्त होगी ? आप यह मार्ग अपनाएँ तो जो देश जितना समय माँगे निस्संकोच देते चलिए; पहले ही देश में दो-चार-छह वर्ष लग जाँय तो भी चिन्ता न कीजिए, यह मान लीजिए कि आरम्भ का यह विलम्ब आगे की प्रगति के लिए विशद भूमिका का काम देगा। स्पष्ट है कि यह दूसरा मार्ग सिद्धों-सन्तों का है- सिद्धों का नहीं तो असाध्य घुमक्कड़ों का। मैं साधारण बीच-बचौला आदमी होने के नाते न तो इतना सौभाग्यशाली हो सका हूँ कि दूसरी कोटि में आऊँ, न इतना विशिष्ट अभागा ही हूँ कि पहली कोटि में गिन लिया जाऊँ। मुझे यूरोप-भ्रमण के लिए छह मास का समय दिया गया जिसे खींच-खाँचकर मैंने दस मास तक बढ़ाया; किन्तु इतना समय भी केवल यही-भर जानने के लिए पर्याप्त होता है कि कुछ भी जानने के लिए वह कितना अपर्याप्त है ! यात्री अपने पहले सप्ताह का ‘सब जानतावाला-पन’ खो चुकता है और जिज्ञासाओं की सूची-भर बनाकर लौट आता है।

किन्तु जानना ही सब कुछ नहीं है। देखना, और जो देखा उसके बारे में सोचना भी बड़ी बात है। और पूर्वग्रहों को छोड़, तथा पूछने के लिए सही प्रश्नों की सूची बना लेना- यह और भी बड़ी उपलब्धि है। आज के युग में, जब ‘कुछ खोजने’ चलने से ‘कुछ मानकर’ चलने को अधिक महत्त्व दिया जाता है और जब यात्री प्राय: कुछ देखने नहीं, जो मानकर चले हैं उसकी पुष्टि पाने निकलते हैं, तब उसका महत्त्व और भी अधिक है। यात्री अधिक पूँजी न लेकर लौटे तो फालतू असबाब से छुट्टी पाकर सहज यात्रा करना ही सीख आये, यही बहुत है। मैं उन लोगों की बात नहीं कहता जो यहाँ से कई-एक खाली झोले लेकर चलते हैं और लौटते समय जिनके कपड़ों के हर सलवट से कलाई-घड़ियों की लड़ियाँ, जूतों के भीतर से छह-छह जोड़े नाइलोन के मोजे या कोट के अस्तर में से गजों जारजेट निकला करती है। न उन्हीं लोगों की बात कहता हूँ जिनके लिए स्वर्गीय आनन्दकुमार स्वामी ने बहुत दु:खी होकर कहा था कि ‘‘आप जब विदेश में आएँ तो वहाँ के लोगों को यह भी अनुभव करने का कारण दीजिए कि आप अपने साथ खर्च करने के लिए पैसों के अलावा भी कुछ लेकर आये हैं!’’ इन दोनों प्रकार के यात्रियों को दूर ही से नमस्कार करता हूँ। जितनी अधिक दूर वे चले जाएँ उतना ही अधिक विनत मेरा नमस्कार!

***

मृत्यु से पूर्व अमरीका आये हुए विद्यार्थियों को सम्बोधित करते समय स्व. कुमार स्वामी ने भारतीय संस्कारों पर बल देते हुए यह कहा था। फालतू असबाब से छुट्टी पाते हुए सहज भाव से यात्रा करना सीखते चलना ही मेरा उद्देश्य रहा है-विदेशाटन में ही नहीं, जीवन-यात्रा में भी। इस प्रकार क्रमागत ‘बेसरोसामान’ हो जाने में सन्यास की नाटकी तीव्रता या आत्यन्तिकता नहीं है लेकिन इससे मिलनेवाले हलकेपन से मुक्ति का जो बोध होता है वह कुछ कम मूल्यवान् नहीं है। लेकिन अन्तिम उपलब्धि की बात अभी से करना दार्शनिकता का पचड़ा ले बैठना जान पड़ सकता है, इसलिए उसे छोड़ आपको शब्दों के विमान पर बिठाकर सैर कराने के मेरे प्रयत्न में मेरा उद्देश्य यही है कि इस सहज भ्रमण का अपूर्व स्वाद कुछ आपको भी प्राप्त करा सकूँ। यह एक गुड़ है जिसका गूँगे का होना आवश्यक नहीं है ! तो लीजिए, न्यूनतम असबाब लेकर शब्द-विमान की सवारी के लिए तैयार हो जाइए !

***

अप्रैल के उत्तरार्द्ध की एक रात का पिछला पहर। खुला आकाश। वास्तव में खुला आकाश, क्योंकि आकाश के जिस अंश में धूल या धुन्ध होती है वह तो हमारे नीचे है। और धूल उसमें है भी नहीं, हलकी-सी वसन्ती धुन्ध ही है, बहुत बारीक धुनी हुई रुई की-सी:

यह ऊपर आकाश नहीं, है

रूपहीन आलोक-मात्र। हम अचल-पंख

तिरते जाते हैं

भार-मुक्त।

नीचे यह ताजी धुनी रुई की उजली

बादल-सेज बिछी है

स्वप्न-मसृण:

या यहाँ हमीं अपना सपना हैं ?

हम नीचे उतर रहे हैं। धीरे-धीरे आकाश कुछ कम खुला हो आता है और फिर नीचे बहुत धुँधली रोशनी दीखने लगती है। विमान के भीतर, चालक के कैबिन को यात्रियों के कमरे से अलग करनेवाले द्वार के ऊपर बत्ती जल उठती है। ‘पेटियाँ लगा लीजिए’-‘सिगरेट बुझा दीजिए।’ एक गूँज-सी होती है, फिर स्वर आता है; ‘‘थोड़ी देर में हम लोग रोम के चाम्पीनो हवाई अड्डे पर उतरेंगे।’’

भारत से रोम (इटालीय रोमा का अँगरेजी रूप) तक 22 घण्टे लगे। देश से ब्राह्मवेला में चलना हुआ था और रोम में तो अभी रात ही थी। असबाब की पड़ताल में अधिक समय नहीं लेनेवाला अंश वह होता है जब भूमि पर होते हैं, शहर से हवाई अड्डे तक या अड्डे से शहर तक आते-जाते और विमान की प्रतीक्षा में। पर रात के सन्नाटे में हमारी बस बहुत तेजी से सड़क की लम्बाई नापती चलती है और शीघ्र ही हम रोम शहर में प्रवेश करते हैं। मैं जानता हूँ कि दिन के प्रकाश में रोम बिलकुल दूसरा दीखने लगेगा पर इस समय भी जो दीख रहा वह अपूर्व और आकर्षक है। अंगूर की कटी-छटी बेलें-इतनी नीची कटी हुई कि पौधे मालूम हों। लिलाक की झाड़ियाँ जिनके बकायन-जैसे फूलों के गुच्छों का रंग रात में नहीं पहचाना जाता। पर मधुर गन्ध वायुमण्डल को भर रही है। तरह-तरह के खँड़हर जिनमें कुछ चित्रों द्वारा परिचित हैं कुछ अपरिचित। स्वच्छ सुन्दर सड़कें, जहाँ-तहाँ प्रतिमा-मण्डित फव्वारे-ये फव्वारे न केवल इटली की मूर्तिशिल्प और वास्तु-प्रतिभा के उत्कृष्ट नमूने हैं वरन् पौराणिक आख्यानों से इतने गुँथे हुए हैं कि पूरी क्लासिकल परम्परा उनकी फुहार के साथ मानो झरती रहती है। नगर के मध्य में फोन्तांना दि त्रेवी मानो कल्पस्रोत्र हैं-वहाँ पर यात्री जल में सिक्का फेंककर मन्नत करते हैं कि उनका फिर रोम आना हो। सुना है कि त्रेवी की शक्ति दिल्ली के ‘हड़िया पीर’ से कुछ कम नहीं है; किन्तु इटली फिर आना चाहकर भी मैंने उसका सहयोग नहीं माँगा ! यों उत्सुक अथवा चिन्तित प्रेमी-युगलों की भीड़ त्रेवी पर लगी ही रहती है; और विदेशी यात्रियों को स्थायी स्मृति-सुख देने के लिए गिद्धों की-सी तीव्र द्वष्टिवाले फोटोग्राफरों की पंक्तियाँ भी दिन-रात कैमरे और रोशनी का सामान लिये फव्वारे के आस-पास मँडराती रहती हैं।

किन्तु मैं अपनी बस से भी अधिक तेज गति से चलने लगा !… मुड़ती, बलखाती हुई सड़कें और चक्करदार ऊँची-नीची गलियाँ जिनमें विभिन्न कालों के विभिन्न स्थापत्य-शैलियों के तरह-तरह के मकान, अपने-अपने ढंग से सुन्दर और शैलियों का यह मिश्रण और घरों की बेतरतीबी अपना एक अलग सौन्दर्य लिये हुए है ! और जहाँ-तहाँ अप्रत्याशित स्थलों पर-जैसे सड़कों के बीचों बीच, या चौराहे पर, गलियों के मोड़ पर, सिपाहियों के खड़े होने के चबूतरे के आस-पास, सन्तरी के ठिये के चारों ओर-फूलों की क्यारियाँ।

अनन्तर रोम के, इटली के, यूरोप की गलियों के बारे में और भी बहुत कुछ जानूँगा; पर यह तो पहली ही द्वष्टि में दीखता है कि यूरोप के पुराने शहरों की ये बलखाती गलियाँ एक अद्वितीय सौन्दर्य लिये हुए हैं। बड़ी सड़कों को देखकर चले जाना मानो एक लिफाफे को देखकर बिना उसके भीतर के निजी पत्र की बात पढ़े ही चल देना है ! रोम के पहले उस चार दिन के प्रवास के बाद मैंने इटली के विभिन्न शहरों की गलियों में- विशेषकर फ़िरेंज़ें (अर्थात् फ्लोरेंस), पेरूजिया, असोसी आदि मध्य इटली के प्राचीन शहरों की गलियों में पैदल भटक-भटक कितने घण्टे बिताये हैं और कितने मील नापे हैं, इसका हिसाब नहीं है। और इसी प्रकार पैरिस की गलियों में, और जेनीवा, बीएना, बाँन, एम्स्टर्डाम, डैल्फ़्ट, स्टाकहोम, आदि पुराने और कम पुराने शहरों के पुराने भागों की गलियों में ! और सर्वत्र इस बात से प्रसन्न हो सका हूँ कि, यद्यपि बड़ी सड़कों से हटकर गलियों में जाने का अर्थ सर्वदा यही हुआ कि किसी शहर के बारे में दावे से कुछ कह सकना कठिनतर हो गया, गलियों में जाने पर शहरों के निवासी सहसा एक गति-युत, कर्म-रत, परम्परा-सम्पन्न जीवन्त मानव-समाज के रूप में मेरे निकट आ गये हैं, पहचाने गये हैं। कोई पूछ सकता है कि यदि ऐसा है तो क्यों उनके बारे में कुछ कहना कठिनतर हो गया है ? तो उसका उत्तर यही है कि इसीलिए। इसलिए कि लोग सहसा एक इतर समाज से निकट आकर घर के-से लोग हो गये हैं। घर के लोगों के बारे में यह कह देना तो आसान होता है कि ‘अच्छे लगते है’ या कि ‘हमें नहीं अच्छे लगते हैं,’ पर उनका वर्णन करना उतना आसान नहीं रह जाता।

भीड़ों में

जब-जब जिस-जिससे आँखें मिलती हैं

वह सहसा दिख जाता है

मानव:

अंगारे-सा, भगवान्-सा

अकेला।

और इस प्रकार आँखें मिलने के बाद उसके बारे में कुछ कहना कठिनतर हो जाता है- इसलिए और भी अधिक कि उसकी आँखों में प्रच्छन्न या प्रकट रूप से अपनी प्रतिच्छवि झाँकती जान पड़ती है…

खड़ा मिलेगा

वहाँ सामने तुमको

अनपेक्षित प्रतिरूप तुम्हारा

नर, जिसकी अनझिप आँखों में नारायण ही व्यथा भरी है !

यों तो ऐसे एक अकेले व्यक्ति के चित्रण से भी एक पूरे देश का, सभ्यता का, युग का चित्र खींचा जा सकता है। यूरोप के एकाधिक देश में मुझे ऐसे व्यक्तियों को देखने या उनसे मिलने का सहयोग हुआ जिनके माध्यम से कुछ क्षणों में ही मुझे एक पूरे एक समाज की –या कम-से-कम विशेष युग-स्थिति के समाज की, जीवन-परिपाटी बिजली की-सी कौंध के साथ दीख गयी-मुझे ऐसा लगा कि मैंने सहसा पूरे देश- बल्कि समूचे यूरोप की आत्मा की एक झाँकी पा ली है। जैसा कि ब्राउनिंग ने कहा है:

देअर आर फ्लैशेज़ स्ट्रक फ्रॉम मिडनाइटस्….

(मध्यरात्रि में कभी ऐसी कौंध होती है….)

और मैं समूचे यूरोप का चित्र खींचना चाहता तो यह भी कर सकता, और कदाचित् वह अधिक प्रभावशाली ही होता- कि ऐसे चार-छह विशिष्ट व्यक्तियों का चरित्र उपस्थित कर देता। किन्तु उपन्यासकार की दृष्टि पर्यटक की दृष्टि नहीं है। वह विदेशी आत्मा को देखने की ओर बढ़ेगी जब कि मुझे अपनी देशी दृष्टि के सम्मुख विदेशी भूमि को भी रखना है। हाँ, मिट्टी की प्रतिमा बन जाने के बाद उसमें आत्मा की झलक जाए तो वह मेरा अहोभाग्य ! अनन्तर यह भी जाना कि रोम यूरोप का सबसे स्वच्छ शहर नहीं है। बल्कि स्काटहोम और कोपेनहागेन से लौटने पर इटली के बड़े शहर (और लन्दन और पैरिस भी) वैसे गन्दे जान पड़ते हैं। जैसे इटली से लौटकर भारत के शहर ! और यह भी जाना कि पहली दृष्टि में रोम की जो विशेषताएँ लगीं उनमें से बहुत-सी समूचे दक्षिणी-पश्चिमी यूरोप में पायी जाएँगी और कुछ तो सारे यूरोप में।

***

(कभी-कभी यह भी हुआ कि विदेशी शहरों में जो बात विशेष जान पड़ी थी भारत लौटकर पाया कि वह यहाँ भी पहुँच गयी है। उदाहरण के लिए फ्रांकफुर्त में रंग-बिरंगी बत्तियों द्वारा विज्ञापन; लौटकर देखा कि दिल्ली में भी उनका प्रवेश हो गया है। या कि लन्दन और पैरिस की दुकानों अथवा विज्ञापनों में स्त्रियों के अण्डरवियर का अतिरिक्त प्रदर्शन-अपने यहाँ शादियों में लाउडस्पीकर से गोलियों की बाढ़ की तरह बरसनेवाले घटिया फिल्मी गानों के समान गला फाड़-फाड़कर अपनी ओर ध्यान खींचने वाले भोंडे विज्ञापन-किन्तु भारत लौटकर देखता हूँ कि दिल्ली और कलकत्ता के केन्द्रीय बाजारों के गलियारे भी इन्हीं से पट गये हैं-दीवारों पर उभार-उभारकर टाँगी हुई चोलियाँ और जमीन पर बिखरी हुई उतनी ही भद्दी रंग-बिरंगी पत्रिकाएँ। मशीन सब कुछ उघाड़ती चलती है, मशीन के आत्मा नहीं है। लेकिन मशीन का दास होकर मनुष्य भी निरन्तर अपने को उघाड़ता जा रहा है-आत्मा उसके पास नहीं है यह मानना तो कठिन है लेकिन वह अनाहत है, यह कहना तो सरासर झूठ होगा !)

***

सड़क के बीच में फूल इटली में मिल सकते हैं और स्वीडन में भी, इंग्लैण्ड में भी और जर्मनी में भी। हाँ, इटली के मध्ययुगीन नियमित अलंकृत उद्यानों का सौष्ठव एक ढंग का है, फ्रांस की सजीली वीथियों का दूसरे ढंग का; इंग्लैण्ड के विशाल तरुराजियों से छाये हुए खुले हरियाले पार्कों का और एक ढंग का, और जर्मनी के वनोद्यानों का एक और ढंग का। सहज, अकुण्ठित और अनाहत भाव से बड़े हुए पेड़ों की शोभा क्या होती है, यह इंग्लैण्ड में ही देखने को मिला। यहाँ भारत के पेड़ पौधों को पूज तो लेते हैं, लेकिन सहज भाव से पनपने नहीं देते; जिनको गाय-बकरी के खाने के लिए, दतुवन के लिए नोच नहीं लेते उन्हें वैसे ही ऐसी तंग जगह में बाधँकर रखते हैं कि उनका सहज विकास नहीं होता। चमत्कार के लिए हम यह भी सिद्ध करना चाहते हों कि किसी जाति के स्वभाव और उसके बनाये गुए बगीचों में समानता होती है, तो उसके लिए मनचाही युक्तियाँ हमें यूरोप में उतनी ही आसानी से मिल सकती हैं जितनी पश्चिमोत्तर भारत के मुगल उद्यानों से, या बनारस की फुलवाड़ियों से। पर उसे छोड़ दें तो इतना अवश्य कहा जा सकता है कि शैली के उद्यान अपने-अपने प्रदेश, परिवेश और जलवायु में ही अधिक सुन्दर लगते हैं। इटली के तरतीबदार सरू और मोरपंखी के पेड़ और पलस्तर की मूर्तियाँ वहाँ के नीले आकाश और नीले सागर के परिपार्श्व में शोभा देती हैं और आस-पास के ऊँचे-नीचे प्रदेश के जैतून वृक्षों से भरी घाटियों और सजीले हँसमुख नर-नारियों के साथ मेल खाती हैं। बल्कि जैसे वहाँ के विनोद-प्रेमी, जीवनातुर, संगीत-मुखर, श्रृंगार-वृत्ति लोगों के बीच काले या भूरे लबादे और काले या उनाबी टोप पहने हुए कैथोलिक पादरी और श्रमण सहज-भाव से अपने को खपा लेते हैं, वैसे ही अपने में लिपटे-सिमटे ये सम्भ्रान्त मोरपंखी झाड़ भी वहाँ की दृश्य-परम्परा में अपना स्थान बना लेते हैं। और उन्हीं उद्यानों को जब हम किसी गिरजाघर से संलग्न विहार की चारदीवारी के अन्दर बन्द पाते हैं तो दीवार के पुराने पत्थरों के साथ इन वृक्षों का क्लान्त उदासीन भाव फिर एक नया सामंजस्य प्राप्त कर लेता है, मानो विलासिता से ऊबा हुआ कोई अभिजीत रसिक अब दूसरे को याद दिला रहा हो कि ‘कालो न जीर्णो वयमेव जीर्णा:!’

किन्तु शालीन उद्यानों और मधुदायिनी अंगूर-बेलों की चर्चा से यह न समझ लिया जाय कि पश्चिम का जीवन अचंचल गति से चलता है। पहली दृष्टि में यही सबसे बड़ा अन्तर पूर्व और पश्चिम को दीखता है: पूर्व का जीवन विलम्बित लय में चलता है और पश्चिम का द्रुत लय में। और भारत में तो हम-योजनाओं के बावजूद-आलाप लेने में ही खोये रहते हैं ! यों और देशों की अपेक्षा इटली कुछ धीरे चलना पसन्द करता है और जब-तब विश्राम करने या गली के मोड़ पर बिलमाने को तैयार है, फिर भी वह असन्दिग्ध रूप से है पश्चिमी देश ही। कम-से-कम आधुनिक इटली। पुराकाल में जब वह पूर्व नहीं तो मध्यपूर्व से अक्रान्त था, रोमिक लोग अधलेटे भोजन करते थे और एक व्यालू में छह घण्टे बीत जाना साधारण बात थी, पर आज का रोमी खड़े-खड़े ही खाता है। खाने के बाद का विश्राम वह अनिवार्य मानता है और इसलिए यूरोप-भर में इटली के दफ्तरों में लंच की लम्बी छुट्टी होती है-नियमत: दो घण्टे पर व्यवहार में तीन घण्टे। किन्तु दूसरी ओर वह काम देर तक करता है और उसकी कारीगरी प्रसिद्ध है। यूरोप में सवेरे उठते ही जीवन की दौड़ आरम्भ होती है, और रात तक चली ही जाती है। मेरा अनुमान है कि औसत यूरोपीय को प्रतिदिन छह-सात घण्टे तो पैरों पर खड़े-खड़े बीतते हैं- अधिक भी हों तो अचम्भा नहीं। फिर वह खड़े रहना चाहे घर पर नाश्ता बनाते समय का खड़े रहना हो, चाहे ट्राम-बस में दफ्तर जाते का खड़ा होना, चाहे सिनेमा के टिकट के लिए लगी कतार का खड़े होना। और चाहे खाते-पीते समय का खड़े होना-क्योंकि प्राय: दिन में एक बार ही बैठकर भोजन किया जाता होगा।

ऐसा क्यों है ? यन्त्रों ने इतनी सुविधा दी है सो क्या केवल खड़े होने के लिए ?

आत्मकथा

अपनी निगाह में

कृतिकार की निगाह नहीं होती, यह तो नहीं कहूँगा। पर यह असंदिग्ध है कि वह निगाह एक नहीं होती। एक निगाह से देखना कलाकार की निगाह से देखना नहीं है। स्थिर, परिवर्तनहीन दृष्टि सिद्घांतवादी की हो सकती है, सुधारक-प्रचारक की हो सकती है और- भारतीय विश्वविद्यालयों के संदर्भ में-अध्यापक की भी हो सकती है, पर वैसी दृष्टि रचनाशील प्रतिभा की दृष्टि नहीं है।

‘अज्ञेय’ : अपनी निगाह में इस शीर्षक के नीचे यहाँ जो कुछ कहा जा रहा है उसे इसलिए ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया जा सकता। वह स्थिर उत्तर नहीं है। यह भी हो सकता है कि उसके छपते-छपते उससे भिन्न कुछ कहना उचित और सही जान पड़ने लगे। चालू मुहावरे में कहा जाए कि यह केवल आज का, इस समय का कोटेशन है। कल को अगर बदला जाए तो यह न समझना होगा कि अपनी बात का खंडन किया जा रहा है, केवल यही समझना होगा कि वह कल का कोटेशन है जो कि आज से भिन्न है।

फिर यह भी है कि कलाकार की निगाह अपने पर टिकती भी नहीं। क्यों टिके? दुनिया में इतना कुछ देखने को पड़ा है : ‘क्षण-क्षण परिवर्तित प्रकृतिवेश’ जिसे ‘उसने आँख भर देखा।’ इसे देखने से उसको इतना अवकाश कहाँ कि वह निगाह अपनी ओर मोड़े। वह तो जितना कुछ देखता है उससे भी आगे बढ़ने की विवशता में देता है ‘मन को दिलासा, पुन: आऊँगा-भले ही बरस दिन अनगिन युगों के बाद!’

कलाकार की निगाह, अगर वह निगाह है और कलाकार की है तो, सर्वदा सब-कुछ की ओर लगी रहती है। अपने पर टिकने का अवकाश उसे नहीं रहता। नि:संदेह ऐसे बहुत-से कलाकार पड़े हैं, जिन्होंने अपने को देखा है, अपने बारे में लिखा है। अपने बारे में लिखना तो आजकल का एक रोग है। बल्कि यह रोग इतना व्यापक है कि जिसे यह नहीं है वही मानो बेचैन हो उठता है कि मैं कहीं अस्वस्थ तो नहीं हूँ? लेखकों में कई ऐसे भी हैं जिन्होंने केवल अपने बारे में लिखा है-जिन्होंने अपने सिवा कुछ देखा ही नहीं है। लेकिन सरसरी तौर पर अपने बारे में लिखा हुआ सब-कुछ एक ही मानदंड से नहीं नापा जा सकता, उसमें कई कोटियाँ हैं। क्योंकि देखनेवाली निगाह भी कई कोटियों की हैं। आत्म-चर्चा करनेवाले कुछ लोग तो ऐसे हैं कि निज की निगाह कलाकार की नहीं, व्यवसायी की निगाह है। यों आजकल सभी कलाकार न्यूनाधिक मात्रा में व्यवसायी हैं; आत्म-चर्चा आत्म-पोषण का साधन है इसलिए आत्म-रक्षा का एक रूप है। कुछ ऐसे भी होंगे जो कलाकार तो हैं लेकिन वास्तव में आत्म-मुग्ध हैं-नार्सिसस-गोत्रीय कलाकार! लेकिन अपने बारे में लिखनेवालों में एक वर्ग ऐसों का भी है जो कि वास्तव में अपने बारे में नहीं लिखते हैं-अपने को माध्यम बनाकर संसार के बारे में लिखते हैं। इस कोटि के कलाकार की जागरूकता का ही एक पक्ष यह है कि यह निरंतर अपने देखने को ही देखता चलता है, अनवरत अपने संवेदन के खरेपन की कसौटी करता चलता है। जिस भाव-यंत्र के सहारे वह दुनिया पर और दुनिया उस पर घटित होती रहती है, उस यंत्र की ग्रहणशीलता का वह बराबर परीक्षण करता रहता है। भाव-यंत्र का ऐसा परीक्षण एक सीमा तक किसी भी युग में आवश्यक रहा होगा, लेकिन आज के युग में वह एक अनिवार्य कर्तव्य हो गया है।

तो अपनी निगाह में अज्ञेय। यानी आज का अज्ञेय ही। लिखने के समय की निगाह में वह लिखता हुआ अज्ञेय। बस इतना ही और उतने समय का ही।

अज्ञेय बड़ा संकोची और समाजभीरु है। इसके दो पक्ष हैं। समाजभीरु तो इतना है कि कभी-कभी दुकान में कुछ चीज़ें खरीदने के लिए घुसकर भी उलटे-पाँव लौट आता है क्योंकि खरीददारी के लिए दुकानदार से बातें करनी पडेंग़ी। लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है जिसके मूल में निजीपन की तीव्र भावना है, वह जिसे अँग्रेज़ी में सेंस ऑफ़ प्राइवेसी कहते हैं। किन चीजों को अपने तक, या अपनों तक ही सीमित रखना चाहिए, इसके बारे में अज्ञेय की सबसे बड़ी स्पष्ट और दृढ़ धारणाएँ हैं। और इनमें से बहुत-सी लोगों की साधारण मान्यताओं से भिन्न हैं। यह भेद एक हद तक तो अँग्रेज़ी साहित्य के परिचय की राह से समझा जा सकता है : उस साहित्य में इसे चारित्रिक गुण माना गया है। मनोवेगों को अधिक मुखर न होने दिया जाए, निजी अनुभूतियों के निजीपन को अक्षुण्ण रखा जाए : ‘प्राइवेट फ़ेसेज़ इन पब्लिक प्लेसेज़’। लेकिन इस निरोध अथवा संयमन के अलावा भी कुछ बातें हैं। एक सीमा है जिसके आगे अज्ञेय अस्पृश्य रहना ही पसंद करता है। जैसे कि एक सीमा से आगे वह दूसरों के जीवन में प्रवेश या हस्तक्षेप नहीं करता है। इस तरह का अधिकार वह बहुत थोड़े लोगों से चाहता है और बहुत थोड़े लोगों को देता है। जिन्हें देता है उन्हें अबाध रूप से देता है, जिनसे चाहता है उनसे उतने ही निर्बाध भाव से चाहता है। लेकिन जैसा कि पहले कहा गया है, ऐसे लोगों की परिधि बहुत कड़ी है।

इससे गलतफहमी जरूर होती है। बहुत-से लोग बहुत नाराज भी हो जाते हैं। कुछ को इसमें मनहूसियत की झलक मिलती है, कुछ अहम्मन्यता पाते हैं, कुछ आभिजात्य का दर्प, कुछ और कुछ। कुछ की समझ में यह निरा आडंबर है और भीतर के शून्य को छिपाता है जैसे प्याज का छिलका पर छिलका। मैं साक्षी हूँ कि अज्ञेय को इन सब प्रतिक्रियाओं से अत्यंत क्लेश होता है। लेकिन एक तो यह क्लेश भी निजी है। दूसरे इसके लिए वह अपना स्वभाव बदलने का यत्न नहीं करता, न करना चाहता है। सभी को कुछ-कुछ और कुछ को सब-कुछ-वह मानता है उसके लिए आत्म-दान की परिपाटी यही हो सकती है। सिद्धांतत: वह स्वीकार करेगा कि ‘सभी को सब-कुछ’ का आदर्श इससे अधिक ऊँचा है। पर वह आदर्श सन्यासी का ही हो सकता है। या कम-से-कम निजी जीवन में कलाकार का तो नहीं हो सकता। बहुत-से कलाकार उससे भी छोटा दायरा बना लेते हैं जितना कि अज्ञेय का है और कोई-कोई तो ‘कुछ को कुछ, बाकी अपने को सब-कुछ’ के ही आदर्श पर चलते हैं। ऐसा कोई न बचे जिसे उसने अपना कुछ नहीं दिया हो, इसके लिए अज्ञेय बराबर यत्नशील है। लेकिन सभी के लिए वह सब-कुछ दे रहा है, ऐसा दावा वह नहीं करता और इस दंभ से अपने को बचाये रखना चाहता है।

अज्ञेय का जन्म खँडहरों में शिविर में हुआ था। उसका बचपन भी वनों और पर्वतों में बिखरे हुए महत्त्वपूर्ण पुरातत्त्वावशेषों के मध्य में बीता। इन्हीं के बीच उसने प्रारंभिक शिक्षा पायी। वह भी पहले संस्कृत में, फिर फारसी और फिर अँग्रेज़ी में। और इस अवधि में वह सर्वदा अपने पुरातत्त्वज्ञ पिता के साथ, और बीच-बीच में बाकी परिवार से-माता और भाइयों से-अलग, रहता रहा। खुदाई में लगे हुए पुरातत्त्वान्वेषी पिता के साथ रहने का मतलब था अधिकतर अकेला ही रहना। और अज्ञेय बहुत बचपन से एकांत का अभ्यासी है और बहुत कम चीज़ों से उसको इतनी अकुलाहट होती है जितनी लगातार लंबी अवधि तक इसमें व्याघात पड़ने से। जेल में अपने सहकर्मियों के दिन-रात के अनिवार्य साहचर्य से त्रस्त होकर उसने स्वयं काल-कोठरी की माँग की थी और महीनों उसमें रहता रहा। एकांतजीवी होने के कारण देश और काल के आयाम का उसका बोध कुछ अलग ढंग का है। उसके लिए सचमुच ‘कालोह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी।’ वह घंटों निश्चल बैठा रहता है, इतना निश्चल कि चिड़ियाँ उसके कंधों पर बैठ जाएँ या कि गिलहरियाँ उसकी टाँगों पर से फाँदती हुई चली जाएँ। पशु-पक्षी और बच्चे उससे बड़ी जल्दी हिल जाते हैं। बड़ों को अज्ञेय के निकट आना भले ही कठिन जान पड़े, बच्चों का विश्वास और सौहार्द उसे तुरत मिलता है। पशु उसने गिलहरी के बच्चे से तेंदुए के बच्चे तक पाले हैं, पक्षी बुलबुल से मोर-चकोर तक; बंदी इनमें से दो-चार दिन से अधिक किसी को नहीं रखा। उसकी निश्चलता ही उन्हें आश्वस्त कर देती है। लेकिन गति का उसके लिए दुर्दांत आकर्षण है। निरी अंध गति का नहीं, जैसे तेज मोटर या हवाई जहाज की, यद्यपि मोटर वह काफ़ी तेज रफ्तार से चला लेता है। (पहले शौक था, अब केवल आवश्यकता पड़ने पर चला लेने की कुशलता है, शौक नहीं है।) आकर्षण है एक तरह की ऐसी लय-युक्ति गति का-जैसे घुड़दौड़ के घोड़े की गति, हिरन की फलाँग या अच्छे तैराक का अंग-संचालन, या शिकारी पक्षी के झपट्टे की या सागर की लहरों की गति। उसके लेखन में, विशेष रूप से कविता में, यह आकर्षण मुखर है। पर जीवन में भी उतना ही प्रभावशाली है। एक बार बचपन में अपने भाइयों को तैरते हुए देखकर वह उनके अंग-संचालन से इतना मुग्ध हो उठा कि तैरना न जानते हुए भी पानी में कूद पड़ा और डूबते-डूबते बचा-यानी मूर्छितावस्था में निकाला गया। लय-युक्त गति के साथ-साथ, उगने या बढ़नेवाली हर चीज़ में, उसके विकास की बारीक-से-बारीक क्रिया में, अज्ञेय को बेहद दिलचस्पी है: वे चीज़ें छोटी हों या बड़ी, च्यूँटी और पक्षी हों या वृक्ष और हाथी; मानव-शिशु हो या नगर और कस्बे का समाज। वनस्पतियों और पशु-पक्षियों का विकास तो केवल देखा ही जा सकता है; शहरी मानव और उसके समाज की गतिविधियों से पहले कभी-कभी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया होती थी-क्षोभ और क्रोध होता था; अब धीरे-धीरे समझ में आने लगा है कि ऐसी राजस प्रतिक्रियाएँ देखने में थोड़ी बाधा जरूर होती है। अब आक्रोश को वश करके उन गतिविधियों को ठीक-ठीक समझने और उनको निर्माणशील लीकों पर डालने का उपाय खोजने का मन होता है। पहले विद्रोह था जो विषयिगत था-‘सब्जेक्टिव’ था। अब प्रवृत्ति है जो किसी हद तक असम्पृक्त बुद्धि से प्रेरित है। एक हद तक जरूर प्रवृत्ति के साथ एक प्रकार की अंतर्मुखीनता आई है। समाज को बदलने चलने से पहले अज्ञेय बार-बार अपने को जाँचता है कि कहाँ तक उसके विश्वास और उसके कर्म में सामंजस्य है-या कि कहाँ नहीं है। यह भी जोड़ दिया जा सकता है कि वह इस बारे में भी सतर्क रहता है कि उसके निजी विश्वासों में और सार्वजनिक रूप से घोषित (पब्लिक) आदर्श में भेद तो नहीं है? धारणा और कर्म में सौ प्रतिशत सामंजस्य तो सिद्धों को मिलता है। उतना भाग्यवान न होकर भी अज्ञेय अंतर्विरोध की भट्ठी पर नहीं बैठा है और इस कारण अपने भीतर एक शांति और आत्मबल का अनुभव करता है। शांति और आत्म-बल आज के युग में शायद विलास की वस्तुएँ हैं। इसलिए इस कारण से अज्ञेय हिंदी भाइयों और विशेष रूप से हिंदीवाले भाइयों से कुछ और अलग पड़ जाता है और कुछ और अकेला हो जाता है।

यहाँ यह भी स्वीकार कर लिया जाए कि यहाँ शायद सच्चाई को अधिक सरल करके सामने रखा गया है; उतनी सरल वास्तविकता नहीं है। एक साथ ही चरम निश्चलता का और चरम गतिमयता का आकर्षण अज्ञेय की चेतना के अंतर्विरोध का सूचक है। पहाड़ उसे अधिक प्रिय है या सागर, इसका उत्तर वह नहीं दे पाया है, स्वयं अपने को भी। वह सर्वदा हिमालय के हिमशिखरों की ओर उन्मुख कुटीर में रहने की कल्पना किया करता है और जब-तब उधर कदम भी बढ़ा लेता है; पर दूसरी ओर वह भागता है बराबर सागर की ओर, उसके उद्वेलन से एकतानता का अनुभव करता है। शांत सागर-तल उसे विशेष नहीं मोहता-चट्टानों पर लहरों का घात-प्रतिघात ही उसे मुग्ध करता है। सागर में वह दो बार डूब चुका है; चट्टानों की ओट से सागर-लहर को देखने के लोभ में वह कई बार फिसलकर गिरा है और दैवात् ही बच गया है। पर मन:स्थिति ज्यों-की-त्यों है : वह हिमालय के पास रहना चाहता है पर सागर के गर्जन से दूर भी नहीं रहना चाहता! कभी हँसकर कह देता है : ”मेरी कठिनाई यही है कि भारत का सागर-तट सपाट दक्षिण में है-कहीं पहाड़ी तट होता तो-!”

क्योंकि इस अंतर्विरोध का हल नहीं हुआ है, इसलिए वह अभी स्वयं निश्चयपूर्वक नहीं जानता है कि वह अंत में कहाँ जा टिकेगा। दिल्ली या कोई भी शहर तो वह विश्रामस्थल नहीं होगा, यह वह ध्रुव मानता है। पर वह कूर्मांचल हिमालय में होगा, कि कुमारी अंतरीप के पास (जहाँ चट्टानें तो हैं!), या समझौते के रूप में विंध्य के अंचल की कोई वनखंडी जहाँ नदी-नाले का मर्मर ही हर समय सुनने को मिलता रहे-इसका उत्तर उसे नहीं मिला। उत्तर की कमी कई बार एक अशांति के रूप में प्रकट हो जाती है। वह ‘कहीं जाने के लिए’ बैचेन हो उठता है। (मुक्तिबोध का ‘माइग्रेशन इन्स्टिंक्ट’?) कभी इसकी सूरत निकल आती है; कभी नहीं निकलती तो वह घर ही का सब सामान उलट-पुलटकर उसे नया रूप दे देता है : बैठक को शयनकक्ष, शयनकक्ष को पाठागार, पाठागार को बैठक इत्यादि। उससे कुछ दिन लगता है कि मानो नए स्थान में आ गए-फिर वह पुराना होने लगता है तो फिर सब बदल दिया जाता है! इसीलिए घर का फर्नीचर भी अज्ञेय अपने डिजाइन का बनवाता है। ये जो तीन चौकियाँ हैं न, इन्हें यों जोड़ दिया जाए तो पलंग बन जाएगा; ये जो दो डेस्क-सी दीखती हैं, एक को घुमाकर दूसरे से पीठ जोड़ दीजिए, भोजन की मेज बन जाएगी यदि आप फर्श पर नहीं बैठ सकते। वह जो पलंग दीखता है, उसका पल्ला उठा दीजिए- नीचे वह संदूक है। या उसे एक सिरे पर खड़ा कर दीजिए तो वह आलमारी का काम दे जाएगा! दीवार पर शरद् ऋतु के चित्र हैं न ? सबको उलट दीजिए : अब सब चित्र वसंत के अनुकूल हो गए-अब बिछावन भी उठाकर शीतलपाटियाँ डाल दीजिए और सभी चीज़ों का ताल-मेल हो गया…

पुरातत्त्ववेत्ता की छाया में अकेले रहने का एक लाभ अज्ञेय को और भी हुआ है। चाहे विरोधी के रूप में चाहे पालक के रूप में, वह बराबर परंपरा के संपर्क में रहा है। रूढि़ और परंपरा अलग-अलग चीज़ें हैं, यह उसने समझ लिया है। रूढि़ वह तोड़ता है और तोड़ने के लिए हमेशा तैयार है। लेकिन परंपरा तोड़ी नहीं जाती, बदली जाती है या आगे बढ़ाईजाती है, ऐसा वह मानता है; और इसी के लिए यत्नशील है। कहना सही होगा कि वह मर्यादावान विद्रोही है। फिर इस बात को चाहे आप प्रशंसा से कह लीजिए चाहे व्यंग्य और विद्रूप से।

एक ओर एकांत, और दूसरे में एकांत का निरंतर बदलता हुआ परिवेश-कभी कश्मीर की उपत्यकाएँ, कभी बिहार के देहात, कभी कोटागिरि-नीलगिरि के आदिम जातियों के गाँव, कभी मेरठ के खादर और कभी असम और पूर्वी सीमांत के वन-प्रदेश-इस अनवरत बदलते हुए परिवेश ने अकेले अज्ञेय के आत्म-निर्भरता का पाठ बराबर दुहरवाया है। इस कारण वह जितना जैसा जिया है अधिक सघनता और तीव्रता से जिया है। ‘रूप-रस-गंध-गान’-सभी की प्रतिक्रियाएँ उसमें अधिक गहरी हुई हैं। सिद्धांतत: भी वह मानता है कि कवि या कलाकार ऐंद्रिय चेतना की उपेक्षा नहीं कर सकता। और परिस्थितियों ने उसे इसकी शिक्षा भी दी है कि ऐंद्रिय संवेदन को कुंद न होने दिया जाए। यह यों ही नहीं कि आँख, कान, नाक आदि को ‘ज्ञानेंद्रियाँ’ कहा जाता है। ये वास्तव में खिड़कियाँ हैं जिनमें से व्यक्ति जगत को देखता और पहचानता है। इनके संवेदन को अस्वीकार करना संन्यास या वैराग्य का अंग नहीं है। वह पंथ आसक्ति को छोड़ता है यानी इन संवेदनों से बँध नहीं जाता; यह नहीं है कि इनका उपयोग ही वह छोड़ देता है। जब अज्ञेय को ऐसे लोग मिलते हैं जो गर्व से कहते हैं कि ”हमें तो खाने में स्वाद का पता ही नहीं रहता-हम तो यह भी लक्ष्य नहीं करते कि दाल में नमक कम है या ज्यादा,” तो अज्ञेय को हँसी आती है। क्योंकि यह वह अस्वाद नहीं जिसे आदर्श माना गया, यह केवल एक विशेष प्रकार की पंगुता है। इसमें और इस बात पर गर्व करने में कि ”मुझे तो यह भी नहीं दिखता कि दिन है या रात,” कोई अंतर नहीं है। अगर अन्धापन या बहरापन श्लाघ्य नहीं है तो जीभ का या त्वचा का अपस्मार ही क्यों श्लाघ्य है? ज्ञानेंद्रियों की सजगता अज्ञेय की कृतियों में प्रतिलक्षित होती है और वह मानता है होनी भी चाहिए। कम या ज्यादा नमक होने पर भी दाल खा लेना एक बात है, और इसको नहीं पहचानना बिलकुल दूसरी बात है।

अज्ञेय मानता है कि बुद्धि से जो काम किया जाता है उसकी नींव हाथों से किये गए काम पर है। जो लोग अपने हाथों का सही उपयोग नहीं करते उनकी मानसिक सृष्टि में भी कुछ विकृति या एकांगिता आ जाती है। यह बात काव्य-रचना पर विशेष रूप से लागू है क्योंकि अन्य सब कलाओं के साथ कोई-न-कोई शिल्प बँधा है, यानी अन्य सभी कलाएँ हाथों का भी कुछ कौशल माँगती हैं। एक काव्य-कला ही ऐसी है कि शुद्ध मानसिक कला है। प्राचीन काल में शायद इसीलिए कवि-कर्म को कला नहीं गिना जाता था। अज्ञेय प्राय: ही हाथ से कुछ-न-कुछ बनाता रहता है और बीच-बीच में कभी तो मानसिक रचना को बिलकुल स्थगित करके केवल शिल्प-वस्तुओं के निर्माण में लग जाता है। बढ़ईगिरी और बाग़वानी का उसे खास शौक है। लेकिन और भी बहुत-सी दस्तकारियों में थोड़ी-बहुत कुशलता उसने प्राप्त की है और इनका भी उपयोग जब-तब करता रहता है। अपने काम के देशी काट के कपड़े भी वह सी लेता है और चमड़े का काम भी कर लेता है। थोड़ी-बहुत चित्रकारी और मूर्तिकारी वह करता है। फोटोग्राफी का शौक भी उसे बराबर रहा है और बीच-बीच में प्रबल हो उठता है।
हाथों से चीज़ें बनाने के कौशल का प्रभाव ज़रूरी तौर पर साहित्य-रचना पर भी पड़ता है। अज्ञेय प्राय: मित्रों से कहा करता है कि अपने हाथ से लिखने और शीघ्रलेखक को लिखाने में एक अंतर यह है कि अपने हाथ से लिखने में जो बात बीस शब्दों में कही जाती लिखाते समय उसमें पचास शब्द या सौ शब्द भी सर्फ़कर दिए जाते हैं! मितव्यय कला का एक स्वाभाविक धर्म है। रंग का, रेखा का, मिट्टी या शब्द का अपव्यय भारी दोष है। अपने हाथ से लिखने में परिश्रम किफायत की ओर सहज ही जाता है। लिखाने में इसमें चूक भी हो सकती है। विविध प्रकार के शिल्प के अभ्यास से मितव्यय का-किसी भी इष्ट की प्राप्ति में कम-से-कम श्रम का-सिद्धांत सहज-स्वाभाविक बन जाता है। भाषा के क्षेत्र में इससे नपी-तुली, सुलझी हुई बात कहने की क्षमता बढ़ती है, तर्क-पद्धति व्यवस्थित, सुचिंतित और क्रमसंगत होती है। अज्ञेय इन सबको साहित्य के बड़े गुण मानता है और बराबर यत्नशील रहता है कि उसका लेखन इस आदर्श से स्खलित न हो।
दूसरे की बात को वह ध्यान से और धैर्य से सुनता है। दूसरे के दृष्टिकोण का, दूसरे की सुविधा का, दूसरे और प्रिय-अप्रिय का वह बहुत ध्यान रखता है-कभी-कभी जरूरत से ज्यादा। नेता के गुणों में एक यह भी होता है कि अपने दृष्टिकोण को अपने पर इतना हावी हो जाने दे कि दूसरे के दृष्टिकोण की अनदेखी भी कर सके। निरंतर दूसरे के दृष्टिकोण को देखते रहना नेतृत्व कर्म में बाधक भी हो सकता है। इसलिए नेतृत्व करना अज्ञेय के वश का नहीं है। वह सही मार्ग पहचानकर और उसका इंगित देकर भी फिर एक तरफ़ हट जाएगा, क्योंकि ‘दूसरों का दृष्टिकोण दूसरा है’ और वह उस दृष्टिकोण को भी समझ सकता है!
‘मार-मारकर हकीम’ न बनाने की इस प्रवृत्ति के कारण अज्ञेय को विश्वास बहुत लोगों का मिला है। मित्र उसके कम रहे हैं, पर अपनी समस्याएँ लेकर बहुत लोग उसके पास आते हैं; ऐसे लोगों को खुलकर बात करने में कभी कठिनाई नहीं होती। सभी की सहायता की जा सके ऐसे साधन किसके पास हैं : पर धीरज और सहानुभूति से सुनना भी एक सहायता है जो हर कोई दे सकता है। (पर देता नहीं)।
लेकिन इस धीरज के साथ-साथ अव्यवस्थित चिंतन के प्रति उसमें एक तीव्र असहिष्णुता भी है। चिंतन के क्षेत्र में किसी तरह का भी लबड़धोंधोंपन उसे सख्त नापसंद है और इस नापसंदगी को प्रकट करने में वह संकोच नहीं करता। इसीलिए उसके मित्र बहुत कम हैं। हिंदीवालों में और भी कम, क्योंकि हिंदी साहित्यकार का चिंतन भारतीय साहित्यकारों में अपेक्षया अधिक ढुलमुल होता है। साहित्यकार ही क्यों, हिंदी के आलोचकों और अध्यापकों का सोचने का ढंग भी एक नमूना है।

अज्ञेय हिंदी के हाथी का दिखाने का दाँत है। कभी-कभी उसको इस पर आश्चर्य भी होता है और खीझ भी। क्योंकि वह अनुभव करता है कि हिंदी के प्रति उसकी आस्था अनेक प्रतिष्ठित हिंदीवालों से अधिक है और साथ ही यह भी कि वह बड़ी गहराई में और बड़ी निष्ठा के साथ भारतीय है। यानी वह खाने के दाँतों की अपेक्षा हिंदी के हाथी का अधिक अपना है। यों तो खैर, दाँत ही हाथी का हो सकता है, कोई ज़रूरी नहीं है कि हाथी भी दाँत का हो। लेकिन शायद ऐसा सोचना भी अज्ञेय की दुर्बलता है-यह भी ‘दूसरे के दृष्टिकोण को देखना’ है। वह अपने को हिंदी का मानकर चलता है जब कि आर्थोडाक्स हिंदीवाला हिंदी को अपनी मानता ही नहीं वैसा दावा भी करता है : अज्ञेय अपने को भारत का मानता है जबकि आर्थोडाक्स भारतीय देश को अपना मानता है। हिंदी के एक बुजुर्ग ने कहा था, ”विदेशों में हिंदी पढ़ाने के लिए तो अज्ञेय बहुत ही उपयुक्त है, बल्कि इससे योग्यतर व्यक्ति नहीं मिलेगा; लेकिन भारतीय विश्वविद्यालयों में-” और यहाँ उनका स्वर एकाएक बिलकुल बदल गया था-“और हिंदी क्षेत्र में-देखिए, हिंदी क्षेत्र में हिंदी साहित्य पढ़ाने के लिए तो दूसरे प्रकार की योग्यता चाहिए।” इस कथन के पीछे जो प्रतिज्ञाएँ हैं उनसे अज्ञेय को अपना क्लेश होता है। लेकिन-और इसे उसका अतिरिक्त दुर्भाग्य समझिए-इस दृष्टिकोण को वह समझ भी सकता है। पिछले दस-बारह वर्षों के उसके कार्य की जड़ में यही उभयनिष्ठ भाव लक्षित होता है। यह दिखाने का दाँत चालानी माल (एक्सपोर्ट कमाडिटी) के रूप में बराबर रहता रहा है लेकिन हर बार इसलिए लौट आया है कि अंततोगत्वा वह भारतीय है, भारत का है और भारत में ही रहेगा।

यह समस्या अभी उसके साथ है और शायद अभी कुछ वर्षों तक रहेगी। बचपन में उसके भविष्य के विषय में जिज्ञासा करने पर उसके माता-पिता को एक ज्योतिषी ने बताया था कि ”इस जातक के शत्रु अनेक होंगे लेकिन हानि केवल बंधुजन ही पहुँचा सकेंगे।” अज्ञेय नियतिवादी नहीं है लेकिन स्वीकार करता है कि चरित्र की कुछ विशेषताएँ जरूर ऐसी होती हैं जो व्यक्ति के भविष्य का निर्माण करती हैं। इसलिए शायद ‘यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है’ कि अनेक शत्रुओं के रहते हुए भी अज्ञेय वध्य है तो केवल अपने बंधुओं द्वारा। ऐसा ही अच्छा है। उसी ज्योतिषी ने यह भी बताया था कि ”इस जातक के पास कभी कुछ जमा-जत्था नहीं होगा, लेकिन साथ ही ज़रूरी खर्चे की कभी तंगी भी नहीं होगी- यह या तो फकीर होगा या राजा।” और फिर कुछ रुककर, शायद फकीरी की आशंका के बारे में माता-पिता को आश्वस्त करने के लिए, और ‘सत्यं ब्रुयात् प्रियं ब्रुयात्’ को ध्यान में रखकर, उसने एक वाक्य और जोड़ दिया था जिसकी व्यंजनाएँ अनेक हैं- ”यह असल में तबीयत का बादशाह होगा।”

जी हाँ, तबीयत के अलावा और कोई बादशाहत अज्ञेय को नहीं मिली है। लेकिन यह बनी रहे तो दूसरी किसी की आकांक्षा भी उसे नहीं है।

संस्मरण

वसंत का अग्रदूत

निराला’ जी को स्मरण करते हुए एकाएक शांतिप्रिय द्विवेदी की याद आ जाए, इसकी पूरी व्यंजना तो वही समझ सकेंगे जिन्होंने इन दोनों महान विभूतियों को प्रत्यक्ष देखा था। यों औरों ने शांतिप्रियजी का नाम प्राय: सुमित्रानंदन पंत के संदर्भ में लिया है क्योंकि वास्तव में तो वह पंतजी के ही भक्त थे, लेकिन मैं निरालाजी के पहले दर्शन के लिए इलाहाबाद में पंडित वाचस्पति पाठक के घर जा रहा था तो देहरी पर ही एक सींकिया पहलवान के दर्शन हो गए जिसने मेरा रास्ता रोकते हुए एक टेढ़ी उँगली मेरी ओर उठाकर पूछा, ”आपने निरालाजी के बारे में ‘विश्वभारती’ पत्रिका में बड़ी अनर्गल बातें लिख दी हैं।” यह सींकिया पहलवान, जो यों अपने को कृष्ण-कन्हैया से कम नहीं समझता था और इसलिए हिंदी के सारे रसिक समाज के विनोद का लक्ष्य बना रहता था, शांतिप्रिय की अभिधा का भूषण था।
जिस स्वर में सवाल मुझसे पूछा गया था उससे शांतिप्रियता टपक रही हो ऐसा नहीं था। आवाज तो रसिक-शिरोमणि की जैसी थी वैसी थी ही, उसमें भी कुछ आक्रामक चिड़चिड़ापन भरकर सवाल मेरी ओर फेंका गया था। मैंने कहा, ”लेख आपने पढ़ा है ?”
”नहीं, मैंने नहीं पढ़ा। लेकिन मेरे पास रिपोर्टें आई हैं! ”
”तब लेख आप पढ़ लीजिएगा तभी बात होगी,” कहकर मैं आगे बढ़ गया। शांतिप्रियजी की ‘युद्धं देहि’ वाली मुद्रा एक कुंठित मुद्रा में बदल गई और वह बाहर चले गए।

यों ‘रिपोर्टें’ सही थीं। ‘विश्वभारती’ पत्रिका में मेरा एक लंबा लेख छपा था। आज यह मानने में भी मुझे कोई संकोच नहीं है कि उसमें निराला के साथ घोर अन्याय किया गया था। यह बात 1936 की है जब ‘विशाल भारत’ में पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी निराला के विरुद्ध अभियान चला रहे थे। यों चतुर्वेदी का आक्रोश निरालाजी के कुछ लेखों पर ही था, उनकी कविताओं पर उतना नहीं (कविता से तो वह बिलकुल अछूते थे), लेकिन उपहास और विडंबन का जो स्वर चतुर्वेदीजी की टिप्पणियों में मुखर था उसका प्रभाव निरालाजी के समग्र कृतित्व के मूल्यांकन पर पड़ता ही था और मेरी अपरिपक्व बुद्धि पर भी था ही।

अब यह भी एक रोचक व्यंजना-भरा संयोग ही है कि सींकिया पहलवान से पार पाकर मैं भीतर पहुँचा तो वहाँ निरालाजी के साथ एक दूसरे दिग्गज भी विराजमान थे जिनके खिलाफ भी चतुर्वेदीजी एक अभियान चला चुके थे। एक चौकी के निकट आमने-सामने निराला और ‘उग्र’ बैठे थे। दोनों के सामने चौकी पर अधभरे गिलास रखे थे और दोनों के हाथों में अधजले सिगरेट थे।

उग्रजी से मिलना पहले भी हो चुका था; मेरे नमस्कार को सिर हिलाकर स्वीकार करते हुए उन्होंने निराला से कहा, ”यह अज्ञेय है।”

निरालाजी ने एक बार सिर से पैर तक मुझे देखा। मेरे नमस्कार के जवाब में केवल कहा, ”बैठो।”
मैं बैठने ही जा रहा था कि एक बार फिर उन्होंने कहा, ”जरा सीधे खड़े हो जाओ।”

मुझे कुछ आश्चर्य तो हुआ, लेकिन मैं फिर सीधा खड़ा हो गया। निरालाजी भी उठे और मेरे सामने आ खड़े हुए। एक बार फिर उन्होंने सिर से पैर तक मुझे देखा, मानो तौला और फिर बोले, ”ठीक है।” फिर बैठते हुए उन्होंने मुझे भी बैठने को कहा। मैं बैठ गया तो मानो स्वगत-से स्वर में उन्होंने कहा, ”डौल तो रामबिलास जैसा ही है।”

रामविलास (डॉ. रामविलास शर्मा) पर उनके गहरे स्नेह की बात मैं जानता था, इसलिए उनकी बात का अर्थ मैंने यही लगाया कि और किसी क्षेत्र में न सही, एक क्षेत्र में तो निरालाजी का अनुमोदन मुझे मिल गया है। मैंने यह भी अनुमान किया कि मेरे लेख की ‘रिपोर्टें’ अभी उन तक नहीं पहुँची या पहुँचायी गई हैं।

निरालाजी सामान्य शिष्टाचार की बातें करते रहे-क्या करता हूँ, कैसे आना हुआ आदि। बीच में उग्रजी ने एकाएक गिलास की ओर इशारा करते हुए पूछा, ”लोगे ?” मैंने सिर हिला दिया तो फिर कुछ चिढ़ाते हुए स्वर में बोले, ”पानी नहीं है, शराब है, शराब।”
मैंने कहा, ”समझ गया, लेकिन मैं नहीं लेता।”
निरालाजी के साथ फिर इधर-उधर की बातें होती रहीं। कविता की बात न उठाना मैंने भी श्रेयस्कर समझा।
थोड़ी देर बाद उग्रजी ने फिर कहा, ”जानते हो, यह क्या है ? शराब है, शराब।”
अपनी अनुभवहीनता के बावजूद तब भी इतना तो मैं समझ ही सकता था कि उग्रजी के इस आक्रामक रवैये का कारण वह आलोचना और भर्त्सना ही है जो उन्हें वर्षों से मिलती रही है। लेकिन उसके कारण वह मुझे चुनौती दें और मैं उसे मानकर अखाड़े में उतरूँ, इसका मुझे कोई कारण नहीं दीखा। यह भी नहीं कि मेरे जानते शराब पीने का समय शाम का होता, दिन के ग्यारह बजे का नहीं! मैंने शांत स्वर में कहा, ”तो क्या हुआ, उग्रजी, आप सोचते हैं कि शराब के नाम से मैं डर जाऊँगा ? देश में बहुत से लोग शराब पीते हैं।”
निरालाजी केवल मुस्कुरा दिए, कुछ बोले नहीं। थोड़ी देर बाद मैं विदा लेने को उठा तो उन्होंने कहा, ”अबकी बार मिलोगे तो तुम्हारी रचना सुनेंगे।”
मैंने खैर मनायी कि उन्होंने तत्काल कुछ सुनाने को नहीं कहा, ”निरालाजी, मैं तो यही आशा करता हूँ कि अबकी बार आपसे कुछ सुनने को मिलेगा।”
आशा मेरी ही पूरी हुई : इसके बाद दो-तीन बार निरालाजी के दर्शन ऐसे ही अवसरों पर हुए जब उनकी कविता सुनने को मिली। ऐसी स्थिति नहीं बनी कि उन्हें मुझसे कुछ सुनने की सूझे और मैंने इसमें अपनी कुशल ही समझी।

इसके बाद की जिस भेंट का उल्लेख करना चाहता हूँ उससे पहले निरालाजी के काव्य के विषय में मेरा मन पूरी तरह बदल चुका था। वह परिवर्तन कुछ नाटकीय ढंग से ही हुआ। शायद कुछ पाठकों के लिए यह भी आश्चर्य की बात होगी कि वह उनकी ‘जुही की कली’ अथवा ‘राम की शक्तिपूजा’ पढ़कर नहीं हुआ, उनका ‘तुलसीदास’ पढ़कर हुआ। अब भी उस अनुभव को याद करता हूँ तो मानो एक गहराई में खो जाता हूँ। अब भी ‘राम की शक्तिपूजा’ अथवा निराला के अनेक गीत बार-बार पढ़ता हूँ, लेकिन ‘तुलसीदास’ जब-जब पढ़ने बैठता हूँ तो इतना ही नहीं कि एक नया संसार मेरे सामने खुलता है, उससे भी विलक्षण बात यह है कि वह संसार मानो एक ऐतिहासिक अनुक्रम में घटित होता हुआ दीखता है। मैं मानो संसार का एक स्थिर चित्र नहीं बल्कि एक जीवंत चलचित्र देख रहा हूँ। ऐसी रचनाएँ तो कई होती हैं जिनमें एक रसिक हृदय बोलता है। विरली ही रचना ऐसी होती है जिसमें एक सांस्कृतिक चेतना सर्जनात्मक रूप से अवतरित हुई हो। ‘तुलसीदास’ मेरी समझ में ऐसी ही एक रचना है। उसे पहली ही बार पढ़ा तो कई बार पढ़ा। मेरी बात में जो विरोधाभास है वह बात को स्पष्ट ही करता है। ‘तुलसीदास’ के इस आविष्कार के बाद संभव नहीं था कि मैं निराला की अन्य सभी रचनाएँ फिर से न पढूँ, ‘तुलसीदास’ के बारे में अपनी धारणा को अन्य रचनाओं की कसौटी पर कसकर न देखूँ।

अगली जिस भेंट का उल्लेख करना चाहता हूँ उसकी पृष्ठभूमि में कवि निराला के प्रति यह प्रगाढ़ सम्मान ही था। काल की दृष्टि से यह खासा व्यतिक्रम है क्योंकि जिस भेंट की बात मैं कर चुका हूँ, वह सन् 36 में हुई थी और यह दूसरी भेंट सन् 51 के ग्रीष्म में। बीच के अंतराल में अनेक बार अनेक स्थलों पर उनसे मिलना हुआ था और वह एक-एक, दो-दो दिन मेरे यहाँ रह भी चुके थे, लेकिन उस अंतराल की बात बाद में करूँगा।

मैं इलाहाबाद छोड़कर दिल्ली चला आया था, लेकिन दिल्ली में अभी ऐसा कोई काम नहीं था कि उससे बँधा रहूँ; अकसर पाँच-सात दिन के लिए इलाहाबाद चला जाता था। निरालाजी तब दारागंज में रहते थे। मानसिक विक्षेप कुछ बढ़ने लगा था और कभी-कभी वह बिलकुल ही बहकी हुई बातें करते थे, लेकिन मेरा निजी अनुभव यही था कि काफ़ी देर तक वह बिलकुल संयत और संतुलित विचार-विनिमय कर लेते थे; बीच-बीच में कभी बहकते भी तो दो-चार मिनट में ही फिर लौट आते थे। मैं शायद उनकी विक्षिप्त स्थिति की बातों को भी सहज भाव से ले लेता था, या बहुत गहरे में समझता था कि जीनियस और पागलपन के बीच का पर्दा काफ़ी झीना होता है- कि निराला का पागलपन ‘जीनियस का पागलपन’ है, इसीलिए वह भी सहज ही प्रकृतावस्था में लौट आते थे। इतना ही था कि दो-चार व्यक्तियों और दो-तीन संस्थाओं के नाम मैं उनके सामने नहीं लेता था और अँग्रेज़ी का कोई शब्द या पद अपनी बात में नहीं आने देता था-क्योंकि यह मैं लक्ष्य कर चुका था कि इन्हीं से उनके वास्तविकता बोध की गाड़ी पटरी से उतर जाती थी।

उस बार ‘सुमन’ (शिवमंगल सिंह) भी आए हुए थे और मेरे साथ ही ठहरे थे। मैं निरालाजी से मिलने जानेवाला था और ‘सुमन’ भी साथ चलने को उत्सुक थे। निश्चय हुआ कि सवेरे-सवेरे ही निरालाजी से मिलने जाया जाएगा- वही समय ठीक रहेगा। लेकिन सुमनजी को सवेरे तैयार होने में बड़ी कठिनाई होती है। पलंग-चाय, पूजा-पाठ और सिंगार-पट्टी में नौ बज ही जाते हैं और उस दिन भी बज गए। हम दारागंज पहुँचे तो प्राय: दस बजे का समय था।

निरालाजी अपने बैठके में नहीं थे। हम लोग वहाँ बैठ गए और उनके पास सूचना चली गई कि मेहमान आए हैं। निरालाजी उन दिनों अपना भोजन स्वयं बनाते थे और उस समय रसोई में ही थे। कोई दो मिनट बाद उन्होंने आकर बैठके में झाँका और बोले, ”अरे तुम !” और तत्काल ओट हो गए।

सुमनजी तो रसोई में खबर भिजवाने के लिए मेरा पूरा नाम बताने चले गए थे, लेकिन अपने नाम की कठिनाई मैं जानता हूँ इसीलिए मैंने संक्षिप्त सूचना भिजवायी थी कि ‘कोई मिलने आए हैं’। क्षणभर की झाँकी में हमने देख लिया कि निरालाजी केवल कौपीन पहने हुए थे। थोड़ी देर बाद आए तो उन्होंने तहमद लगा ली थी और कंधे पर अँगोछा डाल लिया था।

बातें होने लगीं। मैं तो बहुत कम बोला। यों भी कम बोलता और इस समय यह देखकर कि निरालाजी बड़ी संतुलित बातें कर रहे हैं मैंने चुपचाप सुनना ही ठीक समझा। लेकिन सुमनजी और चुप रहना? फिर वह तो निराला को प्रसन्न देखकर उन्हें और भी प्रसन्न करना चाह रहे थे, इसलिए पूछ बैठे, ”निरालाजी, आजकल आप क्या लिख रहे हैं?”
यों तो किसी भी लेखक को यह प्रश्न एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न जान पड़ता है। शायद सुमन से कोई पूछे तो उन्हें भी ऐसा ही लगे। फिर भी न जाने क्यों लोग यह प्रश्न पूछ बैठते हैं।

निराला ने एकाएक कहा, ”निराला, कौन निराला? निराला तो मर गया। निराला इज़ डेड।”

अँग्रेज़ी का वाक्य सुनकर मैं डरा कि अब निराला बिलकुल बहक जाएँगे और अँग्रेज़ी में न जाने क्या-क्या कहेंगे, लेकिन सौभाग्य से ऐसा हुआ नहीं। हमने अनुभव किया कि निराला जो बात कह रहे हैं वह मानो सच्चे अनुभव की ही बात है : जिस निराला के बारे में सुमन ने प्रश्न पूछा था वह सचमुच उनसे पीछे कहीं छूट गया है। निराला ने मुझसे पूछा, ”तुम कुछ लिख रहे हो ?”

मैंने टालते हुए कहा, ”कुछ-न-कुछ तो लिखता ही हूँ, लेकिन उससे संतोष नहीं है- वह उल्लेख करने लायक भी नहीं है।”
इसके बाद निरालाजी ने जो चार-छ: वाक्य कहे उनसे मैं आश्चर्यचकित रह गया। उन्हें याद करता हूँ तो आज भी मुझे आश्चर्य होता है कि हिंदी काव्य-रचना में जो परिवर्तन हो रहा था, उसकी इतनी खरी पहचान निराला को थी-उस समय के तमाम हिंदी आचार्यों से कहीं अधिक सही और अचूक- और वह तब जब कि ये सारे आचार्य उन्हें कम-से-कम आधा विक्षिप्त तो मान ही रहे थे।

निराला ने कहा, ”तुम जो लिखते हो वह मैंने पढ़ा है।” (इस पर सुमन ने कुछ उमँगकर पूछना चाहा था, ”अरे निरालाजी, आप अज्ञेय का लिखा हुआ भी पढ़ते हैं?” मैंने पीठ में चिकोटी काटकर सुमन को चुप कराया, और अचरज यह कि वह चुप भी हो गए- शायद निराला की बात सुनने का कुतूहल जयी हुआ) निराला का कहना जारी रहा, ”तुम क्या करना चाहते हो वह हम समझते हैं।” थोड़ी देर रुककर और हम दोनों को चुपचाप सुनते पाकर उन्होंने बात जारी रखी। ”स्वर की बात तो हम भी सोचते थे। लेकिन असल में हमारे सामने संगीत का स्वर रहता था और तुम्हारे सामने बोलचाल की भाषा का स्वर रहता है।” वह फिर थोड़ा रुक गए; सुमन फिर कुछ कहने को कुलबुलाए और मैंने उन्हें फिर टोक दिया। ”ऐसा नहीं है कि हम बात को समझते नहीं हैं। हमने सब पढ़ा है और हम सब समझते हैं। लेकिन हमने शब्द के स्वर को वैसा महत्त्व नहीं दिया, हमारे लिए संगीत का स्वर ही प्रमाण था।” मैं फिर भी चुप रहा, सुनता रहा। मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य की बात थी कि निराला इस अंतर को इतना स्पष्ट पहचानते हैं। बड़ी तेजी से मेरे मन के सामने उनकी ‘गीतिका’ की भूमिका और फिर सुमित्रानंदन पंत के ‘पल्लव’ की भूमिका दौड़ गई थी। दोनों ही कवियों ने अपने प्रारंभिक काल की कविता की पृष्ठभूमि में स्वर का विचार किया था, यद्यपि बिलकुल अलग-अलग ढंग से। उन भूमिकाओं में भी यह स्पष्ट था कि निराला के सामने संगीत का स्वर है, कविता के स्वर और ताल का विचार वह संगीत की भूमि पर खड़े होकर ही करते हैं; जबकि स्वर और स्वर-मात्रा के विचार में पंत के सामने संगीत का नहीं, भाषा का ही स्वर था और सांगीतिकता के विचार में भी वह व्यंजन-संगीत से हटकर स्वर-संगीत को वरीयता दे रहे थे। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि ‘पल्लव’ के पंत, ‘गीतिका’ के निराला से आगे या अधिक ‘आधुनिक’ थे। लेकिन जिस भेंट का उल्लेख मैं कर रहा हूँ उसमें निराला का स्वर-संवेदन कहीं आगे था जबकि उस समय तक पंत अपनी प्रारंभिक स्थापनाओं से न केवल आगे नहीं बढ़े थे बल्कि कुछ पीछे ही हटे थे (और फिर पीछे ही हटते गए)। उस समय का नए से नया कवि भी मानने को बाध्य होता कि अगर कोई पाठक उसके स्वर से स्वर मिलाकर उसे पढ़ सकता है तो वह आदर्श सहृदय पाठक निराला ही है। एक पीढ़ी का महाकवि परवर्ती पीढ़ी के काव्य को इस तरह समझ सके, परवर्ती कवि के लिए इससे अधिक आप्यायित करनेवाली बात क्या हो सकती है।

सुमन ने कहा, ”निरालाजी, अब इसी बात पर अपना एक नया गीत सुना दीजिए।”
मैंने आशंका-भरी आशा के साथ निराला की ओर देखा। निराला ने अपनी पुरानी बात दोहरा दी, ”निराला इज़ डेड। आई एम नॉट निराला!”
सुमन कुछ हार मानते हुए बोले, ”मैंने सुना है, आपकी नई पुस्तक आई है ‘अर्चना’। वह आपके पास है-हमें दिखाएँगे ?”
निराला ने एक वैसे ही खोये हुए स्वर में कहा, ”हाँ, आई तो है, देखता हूँ।” वह उठकर भीतर गए और थोड़ी देर में पुस्तक की दो प्रतियाँ ले आए। बैठते हुए उन्होंने एक प्रति सुमन की ओर बढ़ायी जो सुमन ने ले ली। दूसरी प्रति निराला ने दूसरे हाथ से उठायी, लेकिन मेरी ओर बढ़ायी नहीं, उसे फिर अपने सामने रखते हुए बोले, ”यह तुमको दूँगा।”
सुमन ने ललककर कहा, ”तो यह प्रति मेरे लिए है ? तो इसमें कुछ लिख देंगे ?”

निराला ने प्रति सुमन से ले ली और आवरण खोलकर मुखपृष्ठ की ओर थोड़ी देर देखते रहे। फिर पुस्तक सुमन को लौटाते हुए बोले, ”नहीं, मैं नहीं लिखूँगा। वह निराला तो मर गया।”

सुमन ने पुस्तक ले ली, थोड़े-से हतप्रभ तो हुए, लेकिन यह तो समझ रहे थे कि इस समय निराला को उनकी बात से डिगाना संभव नहीं होगा।

निराला फिर उठकर भीतर गए और कलम लेकर आए। दूसरी प्रति उन्होंने उठायी, खोलकर उसके पुश्ते पर कुछ लिखने लगे। मैं साँस रोककर प्रतीक्षा करने लगा। मन तो हुआ कि जरा झुककर देखूँ कि क्या लिखने जा रहे हैं, लेकिन अपने को रोक लिया। कलम की चाल से मैंने अनुमान किया कि कुछ अँग्रेज़ी में लिख रहे हैं।

दो-तीन पंक्तियाँ लिखकर उनका हाथ थमा। आँख उठाकर एक बार उन्होंने मेरी ओर देखा और फिर कुछ लिखने लगे। इसी बीच सुमन ने कुछ इतराते हुए-से स्वर में कहा, ”निरालाजी, इतना पक्षपात ? मेरे लिए तो आपने कुछ लिखा नहीं और…”

निरालाजी ने एक-दो अक्षर लिखे थे; लेकिन सुमन की बात पर चौंककर रुक गए। उन्होंने फिर कहा, ”नहीं, नहीं, निराला तो मर गया। देयर इज नो निराला। निराला इज़ डेड।”
अब मैंने देखा कि पुस्तक में उन्होंने अँग्रेज़ी में नाम के पहले दो अक्षर लिखे थे-एन, आई, लेकिन अब उसके आगे दो बिंदियाँ लगाकर नाम अधूरा छोड़ दिया, नीचे एक लकीर खींची और उसके नीचे तारीख डाली 18-5-51 और पुस्तक मेरी ओर बढ़ा दी।

पुस्तक मैंने ले ली। तत्काल खोलकर पढ़ा नहीं कि उन्होंने क्या लिखा है। निराला ने इसका अवसर भी तत्काल नहीं दिया। खड़े होते हुए बोले : ”तुम लोगों के लिए कुछ लाता हूँ।”
मैंने बात की व्यर्थता जानते हुए कहा, ”निरालाजी, हम लोग अभी नाश्ता करके चले थे, रहने दीजिए।” और इसी प्रकार सुमन ने भी जोड़ दिया, ”बस, एक गिलास पानी दे दीजिए।”
”पानी भी मिलेगा,” कहते हुए निराला भीतर चले गए। हम दोनों ने अर्थभरी दृष्टि से एक-दूसरे को देखा। मैंने दबे स्वर में कहा, ”इसीलिए कहता था कि सवेरे जल्दी चलो।”
फिर मैंने जल्दी से पुस्तक खोलकर देखा कि निरालाजी ने क्या लिखा था। कृतकृत्य होकर मैंने पुस्तक फुर्ती से बंद की तो सुमन ने उतावली से कहा, ”देखें, देखें…”
मैंने निर्णयात्मक ढंग से पुस्तक घुटने के नीचे दबा ली, दिखाई नहीं। घर पहुँचकर भी देखने का काफ़ी समय रहेगा।
इस बीच निराला एक बड़ी बाटी में कुछ ले आए और हम दोनों के बीच बाटी रखते हुए बोले, ”लो, खाओ, मैं पानी लेकर आता हूँ,” और फिर भीतर लौट गए।

बाटी में कटहल की भुजिया थी। बाटी में ही सफाई से उसके दो हिस्से कर दिए गए थे।
निराला के लौटने तक हम दोनों रुके रहे। यह क्लेश हम दोनों के मन में था कि निरालाजी अपने लिए जो भोजन बना रहे थे वह सारा-का-सारा उन्होंने हमारे सामने परोस दिया और अब दिन-भर भूखे रहेंगे। लेकिन मैं यह भी जानता था कि हमारा कुछ भी कहना व्यर्थ होगा-निराला का आतिथ्य ऐसा ही जालिम आतिथ्य है। सुमन ने कहा, ”निरालाजी, आप…”
”हम क्या?”
”निरालाजी, आप नहीं खाएँगे तो हम भी नहीं खाएँगे।”
निरालाजी ने एक हाथ सुमन की गर्दन की ओर बढ़ाते हुए कहा, ”खाओगे कैसे नहीं? हम गुद्दी पकड़कर खिलाएँगे।”
सुमन ने फिर हठ करते हुए कहा, ”लेकिन, निरालाजी, यह तो आपका भोजन था। अब आप क्या उपवास करेंगे ?”
निराला ने स्थिर दृष्टि से सुमन की ओर देखते हुए कहा, ”तो भले आदमी, किसी से मिलने जाओ तो समय-असमय का विचार भी तो करना होता है।” और फिर थोड़ा घुड़ककर बोले : ”अब आए हो तो भुगतो।”
हम दोनों ने कटहल की वह भुजिया किसी तरह गले से नीचे उतारी। बहुत स्वादिष्ट बनी थी, लेकिन उस समय स्वाद का विचार करने की हालत हमारी नहीं थी।
जब हम लोग बाहर निकले तो सुमन ने खिन्न स्वर में कहा, ”भाई, यह तो बड़ा अन्याय हो गया।”
मैंने कहा, ”इसीलिए मैं कल से कह रहा था कि सवेरे जल्दी चलना है, लेकिन आपको तो सिंगार-पट्टी से और कोल्ड-क्रीम से फ़ुरसत मिले तब तो! नाम ‘सुमन’ रख लेने से क्या होता है अगर सवेरे-सवेरे सहज खिल भी न सकें!”
यों हम लोग लौट आए। घर आकर फिर अर्चना की मेरी प्रति खोलकर हम दोनों ने पढ़ा। निराला ने लिखा था :

To Ajneya,
the Poet, Writer and Novelist
in the foremost rank.
Ni…
18.5.51

सन् ’36 और सन् ’51 के बीच, जैसा मैं पहले कह चुका हूँ, निरालाजी से अनेक बार मिलन हुआ। उनके ‘तुलसीदास’ का पहला प्रकाशन 1938 में हुआ था और मैंने उनकी रचनाओं के बारे में अपनी धारणा के आमूल परिवर्तन की घोषणा रेडियो से जिस समीक्षा में की थी उसका प्रसारण शायद 1940 के आरंभ में हुआ था। मेरठ में ‘हिंदी साहित्य परिषद्’ के समारोह के लिए मैंने उन्हें आमंत्रित किया तो आमंत्रण उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और मेरठ के प्रवास में वह कुछ समय श्रीमती होमवती देवी के यहाँ और कुछ समय मेरे यहाँ ठहरे। होमवतीजी उस समय परिषद् की अध्यक्षा भी थीं और निरालाजी को अपने यहाँ ठहराने की उनकी हार्दिक इच्छा थी। जिस बँगले में वह रहती थीं उसके अलावा एक और बँगला उनके पास था जो उन दिनों आधा खाली था और निरालाजी के वहीं ठहरने की व्यवस्था की गई। वह बँगला होमवतीजी के आवास से सटा हुआ होकर भी अलग था, इसलिए सभी आश्वस्त थे कि अतिथि अथवा आतिथेय को कोई असुविधा नहीं होगी- यों थोड़ी चिंता भी थी कि होमवतीजी के परम वैष्णव संस्कार निरालाजी की आदतों को कैसे सँभाल पाएँगे। मेरा घर वहाँ से तीन-एक फर्लांग दूर था और छोटा भी था; सुमन, प्रभाकर माचवे और भारतभूषण अग्रवाल को मेरे यहाँ ठहराने का निश्चय हुआ था।

होमवतीजी ने श्रद्धापूर्वक निरालाजी को ठहरा तो लिया, लेकिन दोपहर का भोजन उन्हें कराने के बाद वह दौड़ी हुई मेरे यहाँ आयीं। ”भाई जी, शाम का भोजन क्या होगा ? लोग तो कह रहे हैं कि निरालाजी तो शाम को शराब के बिना भोजन नहीं करते और भोजन भी माँस के बिना नहीं करते। हमारे यहाँ तो यह सब नहीं चल सकता। और फिर अगर हम उधर अलग इंतजाम करें भी तो लाएगा कौन और सँभालेगा कौन ?”

यह कठिनाई होने वाली है इसका हमें अनुमान तो था, लेकिन होमवतीजी के उत्साह और उनकी स्नेहभरी आदेशना के सामने कोई बोला नहीं था।

उन्हें तो किसी तरह समझा-बुझाकर लौटा दिया गया कि हम लोग कुछ व्यवस्था कर लेंगे, उन्हें इसमें नहीं पड़ना होगा। संयोजकों में शराब से परिचित कोई न हो ऐसा तो नहीं था। शाम को एक अद्धा निरालाजी की सेवा में पहुँचा दिया गया और निश्चय हुआ कि भोजन कराने भी उन्हें सदर के होटल में ले जाया जाएगा।

इधर हम लोग शाम का भोजन करने बैठे ही थे कि होटल से लौटते हुए निरालाजी मेरे यहाँ आ गए। (मैं दूसरी मंजिल पर रहता था।) पता लगा कि उन्होंने ही सीधे बँगले पर न लौटकर मेरे यहाँ आने की इच्छा प्रकट की थी। सुरूर की जिस हालत में वह थे उससे मैंने यह अनुमान किया कि ऐसा निरालाजी ने इसीलिए किया होगा कि वह उस हालत में होमवतीजी के सामने नहीं पड़ना चाहते थे। (मैंने दूसरे अवसरों पर भी लक्ष्य किया कि ऐसे मामलों में उनका शिष्ट आचरण का संस्कार बड़ा प्रबल रहता था।) लेकिन यहाँ पर भी मेरी बहिन अतिथियों को भोजन करा रही थीं, इससे निरालाजी को थोड़ा असमंजस हुआ। वह चुपचाप एक तरफ एक खाट पर बैठ गए। हम लोगों ने भोजन जल्दी समाप्त करके उनका मन बहलाने की कोशिश की, लेकिन वह चुप ही रहे। एक-आध बार ‘हूँ’ से अधिक कुछ बोले नहीं। उनसे जो बात करता उसकी ओर एकटक देखते रहते मानो कहना चाहते हों, ”हम जानते हैं कि हमें बहलाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन हम बहलेंगे नहीं।”
एकाएक निरालाजी ने कहा, ”सुमन, इधर आओ।” सुमनजी उनके समीप गए तो निराला ने उनकी कलाई पकड़ ली और कहा, ”चलो।”
”कहाँ, निरालाजी ?”
”घूमने।” सुमन ने बेबसी से मेरी ओर देखा। वह भी जानते थे कि छुटकारा नहीं है और मैं भी समझ गया कि बहस व्यर्थ होगी। नीचे उतरकर मैं एक बढिय़ा-सा ताँगा बुला लाया। निरालाजी सुमन के साथ उतरे और उस पर आगे सवार होने लगे तो ताँगेवाले ने टोकते हुए कहा, ”सरकार, घोड़ा दब जाएगा-आप पीछे बैठें और आपके साथी आगे बैठ जाएँगे।”
निरालाजी क्षण ही भर ठिठके। फिर अगली तरफ़ ही सवार होते हुए बोले, ”ये पीछे बैठेंगे, ताँगा दबाऊ होता है तो तुम भी पीछे बैठकर चलाओ। नहीं तो रास हमें दो-हम चलाएँगे।”
ताँगेवाले ने एक बार सबकी ओर देखकर हुक्म मानना ही ठीक समझा। वह भी पीछे बैठ गया, रास उसने नहीं छोड़ी। पूछा, ”कहाँ चलना होगा, सरकार ?”
निरालाजी ने उसी आज्ञापना भरे स्वर में कहा, ”देखो, दो घंटे तक यह सवाल हमसे मत पूछना। जहाँ तुम चाहो लेते चलो। अच्छी सड़कों पर सैर करेंगे। दो घंटे बाद इसी जगह पहुँचा देना, पैसे पूरे मिलेंगे।”
ताँगेवाले ने कहा, ‘सरकार’ और ताँगा चल पड़ा। मैं दो घंटे के लिए निश्चिंत होकर ऊपर चला आया।
रात के लगभग बारह बजे ताँगा लौटा और सुमन अकेले ऊपर आए। निरालाजी देर से लौटने पर वहीं सो सकते हैं, यह सोचकर उनके लिए एक बिस्तर और लगा दिया गया था, लेकिन सुमन ने बताया कि निरालाजी सोएँगे तो वहीं जहाँ ठहरे हैं क्योंकि होमवतीजी से कहकर नहीं आए थे। लिहाजा मैंने उसी ताँगे में उन्हें बँगले पर पहुँचा दिया और टहलता हुआ पैदल लौट आया।

अगले दिन सवेरे ही होमवतीजी के यहाँ देखने गया कि सब कुछ ठीक-ठाक तो है, तो होमवतीजी ने अलग ले जाकर मुझे कहा, ”भैया, तुम्हारे कविजी ने कल शाम को बाहर जो किया हो, यहाँ तो बड़े शांत भाव से, शिष्ट ढंग से रहते हैं।”
मैंने कहा, ”चलिए, आप निश्चिंत हुईं तो हम भी निश्चिंत हुए। यों डरने की कोई बात थी नहीं।”

दूसरे दिन मैं शाम से ही निरालाजी को अपने यहाँ ले आया। भोजन उन्होंने वहीं किया और प्रसन्न होकर कई कविताएँ सुनायीं। काश कि उन दिनों टेप रिकार्डर होते-‘राम की शक्तिपूजा’ अथवा ‘जागो फिर एक बार’ अथवा ‘बादल राग’ के वे वाचन परवर्ती पीढिय़ों के लिए संचित कर दिए गए होते। प्राचीन काल में काव्य-वाचक जैसे भी रहे हों, मेरे युग में तो निराला जैसा काव्य-वाचक दूसरा नहीं हुआ।

रघुवीर सहाय ने लिखा है, ”मेरे मन में पानी के कई संस्मरण हैं।” निराला के काव्य को अजस्र निर्झर मानकर मैं भी कह सकता हूँ कि ‘मेरे मन में पानी के अनेक संस्मरण हैं- अजस्र बहते पानी के, फिर वह बहना चाहे मूसलाधार वृष्टि का हो, चाहे धुआँधार जल-प्रपात का, चाहे पहाड़ी नदी का, क्योंकि निराला जब कविता पढ़ते थे तब वह ऐसी ही वेगवती धारा-सी बहती थी। किसी रोक की कल्पना भी तब नहीं की जा सकती थी- सरोवर-सा ठहराव उनके वाचन में अकल्पनीय था।’
और क्योंकि पानी के अनेक संस्मरण हैं, इसलिए उन्हें दोहराऊँगा नहीं।
उन्हीं दिनों के आसपास उनसे और भी कई बार मिलना हुआ; दिल्ली में वह मेरे यहाँ आए थे और दिल्ली में एकाधिक बार उन्होंने मेरे अनुरोध किये बिना ही सहज उदारतावश अपनी नई कविताएँ सुनाईं। फिर इलाहाबाद में भी जब-तब मिलना होता; पर कविता सुनने का ढंग का अवसर केवल एक बार हुआ क्योंकि इलाहाबाद में धीरे-धीरे एक अवसाद उन पर छाता गया था जो उन्हें अपने परिचितों के बीच रहते भी उनसे अलग करता जा रहा था। पहले भी उन्होंने गाया था :

मैं अकेला
देखता हूँ आ रही
मेरी दिवस की सांध्य वेला।
… …
जानता हूँ नदी झरने
जो मुझे थे पार करने
कर चुका हूँ
हँस रहा यह देख
कोई नहीं भेला।
अथवा
स्नेह निर्झर बह गया है
रेत-सा तन रह गया है
… …
बह रही है हृदय पर केवल अमा
मैं अलक्षित रहूँ, यह
कवि कह गया है।

लेकिन इन कविताओं के अकेलेपन अथवा अवसाद का स्वर एकसंचारी भाव का प्रतिबिंब है जिससे दूसरे भी कवि परिचित होंगे। इसके अनेक वर्ष बाद के,

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

का अवसाद मानो एक स्थायी मनोभाव है। पहले का स्वर केवल एक तात्कालिक अवस्था को प्रकट करता है जैसे और भी पहले की ‘सखि वसंत आया’ अथवा ‘सुमन भर न लिए, सखि वसंत गया’ आदि कविताएँ प्रतिक्रिया अथवा भावदशा को दर्शाती है। लेकिन ‘अर्चना’ और उसके बाद की कविताओं में हताश अवसाद का जो भाव छाया हुआ दीखता है वह तत्कालीन प्रतिक्रिया का नहीं, जीवन के दीर्घ प्रत्यवलोकन का परिणाम है जिससे निराला जब-तब उबरते दीखते हैं तो अपने भक्ति-गीतों में ही :

तुम ही हुए रखवाल
तो उसका कौन न होगा।
अथवा
वे दुख के दिन
काटे हैं जिसने
गिन-गिनकर
पल-छिन, तिन-तिन
आँसू की लड़ के मोती के
हार पिरोये
गले डालकर प्रियतम के
लखने को शशि मुख
दु:खनिशा में
उज्ज्वल, अमलिन।

कह नहीं सकता, इस स्थायी भाव के विकास में कहाँ तक महादेवीजी द्वारा स्थापित साहित्यकार संसद के उनके प्रवास ने योग दिया जिसमें निराला के सम्मान में दावतें भी हुईं तो मानो ऐसी ही जो उन्हें हिंदी कवि-समाज के निकट न लाकर उससे थोड़ा और अलग ही कर गईं। संसद के गंगा तटवर्ती बँगले को छोड़कर ही निरालाजी फिर दारागंज की अपनी पुरानी कोठरी में चले गए; वहीं अवसाद और भक्ति का यह मिश्र स्वर मुखरतर होता गया। और वहीं गहरे धुँधलके और तीखे प्रकाश के बीच भँवराते हुए निराला उस स्थिति की ओर बढ़ते गए जहाँ एक ओर वह कह सकते थे, ”कौन निराला ? निराला इज़ डेड!” और दूसरी ओर दृढ़ विश्वासपूर्वक ‘हिंदी के सुमनों के प्रति’ सम्बोधित होकर एक आहत किंतु अखंड आत्मविश्वास के साथ यह भी कह सकते थे, ”मैं ही वसंत का अग्रदूत”। सचमुच वसंत पंचमी के दिन जन्म लेनेवाले निराला हिंदी काव्य के वसंत के अग्रदूत थे। लेकिन अब जब वह नहीं हैं तो उनकी कविताएँ बार-बार पढ़ते हुए मेरा मन उनकी इस आत्मविश्वास भरी उक्ति पर न अटककर उनके ‘तुलसीदास’ की कुछ पंक्तियों पर ही अटकता है जहाँ मानो उनका कवि भवितव्यदर्शी हो उठता है- उस भवितव्य को देख लेता है जो खंडकाव्य के नायक तुलसीदास का नहीं, उसके रचयिता निराला का ही है :

यह जागा कवि अशेष छविधर
इसका स्वर भर भारती मुक्त होएँगी
… …
तम के अमाज्य रे तार-तार
जो, उन पर पड़ी प्रकाश धार
जग वीणा के स्वर के बहार रे जागो;
इस पर अपने कारुणिक प्राण
कर लो समक्ष देदीप्यमान-
दे गीत विश्व को रुको, दान फिर माँगो।

इस अशेष छविधर कवि ने दान कभी नहीं माँगा, पर विश्व को दिया- गीत दिया, पर उसके लिए भी रुका नहीं, बाँटते-बाँटते ही तिरोधान हो गया : मैं अलक्षित रहूँ, यह कवि कह गया है।

कविताएँ

मेरे देश की आँखें

हीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं
पुते गालों के ऊपर
नकली भवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठाई हुई
मुस्कान मुस्कुराती
ये आँखें –
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं…तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ –
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं…

वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झाँकती हैं
वे आँखें,
मेरे देश की आँखें,
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा को खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आँखें…

उसने
झुकी कमर सीधी की
माथे से पसीना पोछा
डलिया हाथ से छोड़ी
और उड़ी धूल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावस में से
मैले चाँद-चेहरे सुकचाते
में टँकी थकी पलकें
उठायीं –
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं
मेरे देश की आँखें…

सत्य तो बहुत मिले

खोज़ में जब निकल ही आया
सत्य तो बहुत मिले ।

कुछ नये कुछ पुराने मिले
कुछ अपने कुछ बिराने मिले
कुछ दिखावे कुछ बहाने मिले
कुछ अकड़ू कुछ मुँह-चुराने मिले
कुछ घुटे-मँजे सफेदपोश मिले
कुछ ईमानदार ख़ानाबदोश मिले ।

कुछ ने लुभाया
कुछ ने डराया
कुछ ने परचाया-
कुछ ने भरमाया-
सत्य तो बहुत मिले
खोज़ में जब निकल ही आया ।

कुछ पड़े मिले
कुछ खड़े मिले
कुछ झड़े मिले
कुछ सड़े मिले
कुछ निखरे कुछ बिखरे
कुछ धुँधले कुछ सुथरे
सब सत्य रहे
कहे, अनकहे ।

खोज़ में जब निकल ही आया
सत्य तो बहुत मिले
पर तुम
नभ के तुम कि गुहा-गह्वर के तुम
मोम के तुम, पत्थर के तुम
तुम किसी देवता से नहीं निकले:
तुम मेरे साथ मेरे ही आँसू में गले
मेरे ही रक्त पर पले
अनुभव के दाह पर क्षण-क्षण उकसती
मेरी अशमित चिता पर
तुम मेरे ही साथ जले ।

तुम-
तुम्हें तो
भस्म हो
मैंने फिर अपनी भभूत में पाया
अंग रमाया
तभी तो पाया ।

खोज़ में जब निकल ही आया,
सत्य तो बहुत मिले-
एक ही पाया ।

काशी (रेल में), 15 फरवरी, 1954

मैंने आहुति बन कर देखा

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

बड़ोदरा, 15 जुलाई, 1937

देखिये न मेरी कारगुज़ारी

ब देखिये न मेरी कारगुज़ारी
कि मैं मँगनी के घोड़े पर
सवारी पर
ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान
और सेठ साहब के लिए पंसार-हट्टे की हर दुकान
से किराया
वसूल कर लाया हूँ ।
थैली वाले को थैली
तोड़े वाले को तोड़ा
-और घोड़े वाले को घोड़ा
सब को सब का लौटा दिया
अब मेरे पास यह घमंड है
कि सारा समाज मेरा एहसानमन्द है ।शब्द और सत्य

ह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था
यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है :
दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं।
प्रश्न यही रहता है :
दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं
मैं कब, कैसे, उन के अनदेखे
उस में सेंध लगा दूँ
या भर कर विस्फोटक
उसे उड़ा दूँ।कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं, करें,
प्रयोजन मेरा बस इतना है :
ये दोनों जो
सदा एक-दूसरे से तन कर रहते हैं,
कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में
इन्हें मिला दूँ—
दोनों जो हैं बन्धु, सखा, चिर सहचर मेरे।

मोती बाग, नयी दिल्ली, 15 जून, 1957

आँगन के पार द्वार खुले

आँगन के पार द्वार खुले
द्वार के पार आँगन
भवन के ओर-छोर सभी मिले-
उन्‍हीं में कहीं खो गया भवन ः
कौन द्वारी कौनी आगारी,

न जाने,पर द्वार के प्रतिहारी को
भीतर के देवता ने
किया बार-बार पा-लागन।प्राण तुम्हारी पदरज फूली

प्राण तुम्हारी पदरज फूली
मुझको कंचन हुई तुम्हारे चरणों की
यह धूली!
प्राण तुम्हारी पदरज फूली!

आई थी तो जाना भी था –
फिर भी आओगी, दुःख किसका?
एक बार जब दृष्टिकरों के पद चिह्नों की
रेखा छू ली!
प्राण तुम्हारी पदरज फूली!

वाक्य अर्थ का हो प्रत्याशी,
गीत शब्द का कब अभिलाषी?
अंतर में पराग-सी छाई है स्मृतियों की
आशा धूली!
प्राण तुम्हारी पदरज फूली!

हँसती रहने देना

ब आवे दिन
तब देह बुझे या टूटे, इन
आँखों को
हँसती रहने देना।हाथों ने बहुत अनर्थ किये
पग ठौर-कुठौर चले,
मन के
आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
वाणी ने (जाने अनजाने) सौ झूठ कहे

पर आँखों ने
हार
दु:ख
अवसान
मृत्यु का
अंधकार भी देखा तो
सच-सच देखा।
इस पार
उन्हें जब आवे दिन –
ले जावे
पर उस पार
उन्हें
फिर भी आलोक कथा
सच्ची कहने देना :
अपलक
हँसती रहने देना
जब आवे दिन

साँप

साँप! तुम सभ्य तो हुए नहीं-
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ- (उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना-विष कहाँ पाया।
इशारे ज़िंदगी के

ज़िंदगी हर मोड़ पर करती रही हमको इशारे
जिन्हें हमने नहीं देखा।
क्योंकि हम बाँधे हुए थे पट्टियाँ संस्कार की
और हमने बाँधने से पूर्व देखा था-
हमारी पट्टियाँ रंगीन थीं
ज़िंदगी करती रही नीरव इशारे :
हम छली थे शब्द के।
‘शब्द ईश्वर है, इसी में वह रहस्य है :
शब्द अपने आप में इति है-
हमें यह मोह अब छलता नहीं था।
शब्द-रत्नों की लड़ी हम गूँथकर माला पिन्हाना चाहते थे
नए रूपाकार को
और हमने यही जाना था
कि रूपाकार ही तो सार है।
एक नीरव नदी बहती जा रही थी
बुलबुले उसमें उमड़ते थे
रह : संकेत के :
हर उमडऩे पर हमें रोमांच होता था।
फूटना हर बुलबुले का हमें तीखा दर्द होता था।
रोमांच! तीखा दर्द!
नीरव रह : संकेत-हाय।
ज़िंदगी करती रही
नीरव इशारे
हम पकड़े रहे रूपाकार को।
किंतु रूपाकार
चोला है
किसी संकेत शब्दातीत का,
ज़िंदगी के किसी
गहरे इशारे का।
शब्द :
रूपाकार :
फिर संकेत
ये हर मोड़ पर बिखरे हुए संकेत-
अनगिनती इशारे ज़िंदगी के
ओट में जिनकी छिपा है
अर्थ।
हाय, कितने मोह की कितनी दिवारें भेदने को-
पूर्व इसके, शब्द ललके।
अंक भेंटे अर्थ को
क्या हमारे हाथ में वह मंत्र होगा, हम इन्हें संपृक्त कर दें।
अर्थ दो अर्थ दो
मत हमें रूपाकार इतने व्यर्थ दो।
हम समझते हैं इशारा ज़िंदगी का-
हमें पार उतार दो-
रूप मत, बस सार दो।
मुखर वाणी हुई : बोलने हम लगे :
हमको बोध था वे शब्द सुंदर हैं-
सत्य भी हैं, सारमय हैं।
पर हमारे शब्द
जनता के नहीं थे,
क्योंकि जो उन्मेष हम में हुआ
जनता का नहीं था,
हमारा दर्द
जनता का नहीं था
संवेदना ने ही विलग कर दी
हमारी अनुभूति हमसे।
यह जो लीक हमको मिली थी-
अंधी गली थी।
चुक गई क्या राह! लिख दें हम
चरम लिखतम् पराजय की?
इशारे क्या चुक गए हैं
ज़िंदगी के अभिनयांकुर में?
बढ़े चाहे बोझ जितना
शास्त्र का, इतिहास,
रूढ़ि के विन्यास का या सूक्त का-
कम नहीं ललकार होती ज़िंदगी।
मोड़ आगे और है-
कौन उसकी ओर देखो, झाँकता है?

नंदा देवी

नंदा,
बीस-तीस-पचास वर्षों में
तुम्हारी वनराजियों की लुगदी बनाकर
हम उस पर
अखबार छाप चुके होंगे
तुम्हारे सन्नाटे को चीर रहे होंगे
हमारे धुँधुआते शक्तिमान ट्रक,
तुम्हारे झरने-सोते सूख चुके होंगे
और तुम्हारी नदियाँ
ला सकेंगी केवल शस्य-भक्षी बाढ़ें
या आँतों को उमेठने वाली बीमारियाँ
तुम्हारा आकाश हो चुका होगा
हमारे अतिस्वन विमानों के
धूम-सूत्रों का गुंझर।
नंदा,
जल्दी ही-
बीस-तीस-पचास बरसों में
हम तुम्हारे नीचे एक मरु बिछा चुके होंगे
और तुम्हारे उस नदी धौत सीढ़ी वाले मंदिर में
जला करेगा
एक मरुदीप।

जियो मेरे

जियो मेरे आज़ाद देश की शानदार इमारतो
जिनकी साहिबी टोपनुमा छतों पर गौरव ध्वज तिरंगा फहरता है
लेकिन जिनके शौचालयों में व्यवस्था नहीं है
कि निवृत्त होकर हाथ धो सकें।
(पुरखे तो हाथ धोते थे न? आज़ादी ही से हाथ धो लेंगे, तो कैसा?)

जियो, मेरे आज़ाद देश के शानदार शासको
जिनकी साहिबी भेजे वाली देशी खोपड़ियों पर
चिट्टी दूधिया टोपियाँ फब दिखाती हैं,
जिनके बाथरूम की संदली, अँगूरी, चंपई, फ़ाख्तई
रंग की बेसिनी, नहानी, चौकी तक की तहज़ीब
सब में दिखता है अँग्रेज़ी रईसी ठाठ
लेकिन सफाई का कागज़ रखने की कंजूस बनिए की तमीज़…

जियो, मेरे आज़ाद देश के सांस्कृतिक प्रतिनिधियो
जो विदेश जाकर विदेशी नंग देखने के लिए पैसे देकर
टिकट खरीदते हो
पर जो घर लौटकर देसी नंग ढकने के लिए
ख़ज़ाने में पैसा नहीं पाते,
और अपनी जेब में-पर जो देश का प्रतिनिधि हो वह
जेब में हाथ डाले भी
तो क्या ज़रूरी है कि जेब अपनी हो?

जियो, मेरे आज़ाद देश के रौशन ज़मीर लोक-नेताओ :
जिनकी मर्यादा वह हाथी का पैर है जिसमें
सबकी मर्यादा समा जाती है-
जैसे धरती में सीता समा गई थी!
एक थे वह राम जिन्हें विभीषण की खोज में जाना पड़ा,
जाकर जलानी पड़ी लंका :
एक है यह राम-राज्य, बजे जहाँ अविराम
विराट् रूप विभीषण का डंका!
राम का क्या काम यहाँ? अजी राम का नाम लो।
चाम, जाम, दाम, ताम-झाम, काम- कितनी
धर्म-निरपेक्ष तुकें अभी बाकी हैं।
जो सधे, साध लो, साधो-
नहीं तो बने रहो मिट्टी के माधो।

देवता अब भी

देवता अब भी
जलहरी को घेरे बैठे हैं
पर जलहरी में पानी सूख गया है।
देवता भी धीरे-धीरे
सूख रहे हैं
उनका पानी
मर रहा है।
यूप-यष्टियाँ
रेती में दबती जा रही हैं
रेत की चादर-ढँकी अर्थी में बँधे
महाकाल की छाती पर
काल चढ़ बैठा है।
मर रहे हैं नगर-
नगरों में
मरु-थर-
मरु-थरों में
जलहरी में
पानी सूख गया है

कहीं की ईंट

हीं की ईंट कहीं का रोड़ा
भानमती ने कुनबा जोड़ा
कुनबे ने भानमती गढ़ी
रेशम से भाँड़ी, सोने से मढ़ी
कवि ने कथा गढ़ी, लोक ने बाँची
कहो-भर तो झूठ, जाँचो तो साँची

घृणा का गान

सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
तुम, जो भाई को अछूत कह वस्त्र बचा कर भागे,
तुम, जो बहिनें छोड़ बिलखती, बढ़े जा रहे आगे!
रुक कर उत्तर दो, मेरा है अप्रतिहत आह्वान-
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!तुम, जो बड़े-बड़े गद्दों पर ऊँची दूकानों में,
उन्हें कोसते हो जो भूखे मरते हैं खानों में,
तुम, जो रक्त चूस ठठरी को देते हो जल-दान-
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!

तुम, जो महलों में बैठे दे सकते हो आदेश,
‘मरने दो बच्चे, ले आओ खींच पकड़ कर केश!’
नहीं देख सकते निर्धन के घर दो मुट्ठी धान
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!

तुम, जो पा कर शक्ति कलम में हर लेने की प्राण-
‘नि:शक्तों’ की हत्या में कर सकते हो अभिमान!
जिनका मत है, ‘नीच मरें, दृढ़ रहे हमारा स्थान’-
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!

तुम, जो मंदिर में वेदी पर डाल रहे हो फूल,
और इधर कहते जाते हो, ‘जीवन क्या है? धूल!’
तुम, जिस की लोलुपता ने ही धूल किया उद्यान-
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!

तुम, सत्ताधारी, मानवता के शव पर आसीन,
जीवन के चिर-रिपु, विकास के प्रतिद्वंद्वी प्राचीन,
तुम, श्मशान के देव! सुनो यह रण-भेरी की तान-
आज तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!

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