हम सभी के जीवन में भाषा का बड़ा महत्व है। इसलिए हमें यह जानना जरूरी है कि जिस भाषा में हम बोलते है, जिस भाषा में हम लिखते है और जो भाषा हमारे संवाद का जरिया है आखिर उस भाषा का इतिहास क्या है, वह भाषा कब और कहां आरंभ हुई और किन-किन पड़ावों पर विकसित होती हुई आज किस रूप में प्रतिष्ठित है।
उत्तर भारत की सभी आधुनिक भाषाओं का विकास आर्यकुल की विभिन्न मध्यकालीन भाषाओं से हुआ जो स्वयं भारत की सर्वप्राचीन भाषा संस्कृत से विकसति थीं। हिन्दी भाषा का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से माना जाता है जो ब्रजमण्ड ल के आस-पास की भाषा थी। हिन्दी में साहित्य – रचना आठवीं ईसवी शताब्दी में आरंभ हो गई थी। गत तेरह सौ वर्षों के हिन्दी साहित्य का विवेचन उसे चार भागों में बाँट कर किया जाता है। ये काल-विभाग आदिकाल (सन् ६४३ से १३४३ ई.), पूर्व मध्यकाल (१३४३ से १६४३ ई.), उत्तर मध्यकाल (१६४३ से १८४३ ई.) और आधुनिक काल (१८४३ से अब तक) कहे जाते हैं। इन कालों को उनकी साहित्यिक कृतियों की प्रवृत्तियों के आधार पर वीरगाथा काल, भक्तिकाल, रीतिकाल और नवीन विकास या पुनर्जागरणकाल भी कहा जाता है।
आदिकाल की अब तक केवल दस-बारह रचनाएँ ही प्राप्त हैं। इनमें सर्व-प्रसिद्ध दिल्लीपति पृथ्वीराज के राजकवि चन्दवरदायी-कृत पृथ्वीराज रासो है। नरपति नाल्ह-कृत बीसलदेव रासो और जगनिक कवि का आल्हखण्ड या परमाल रासो भी प्रसिद्ध रचनाएं हैं। आदिकाल में भाषा का रूप स्थिर नहीं हुआ था। उसके अनगढ़ होते हुए भी उसकी अभिव्यंजना में ओज की प्रधानता थी। संस्कृत के परम्परागत छंदों के अतिरिक्त अपभ्रंश-काल में विकसित दोहा, चौपाई, सोरठा आदि छंदों का भी प्रयोग रचनाओं में होने लगा था। वीर रस की सफल अभिव्यक्ति इस काल की रचनाओं में पायी जाती है। पर शृंगार आदि रसों की भी उतनी ही प्रमुखता है। अत: इतिहासकारों ने वीरगाथाकाल की अपेक्षा इसे आदिकाल कहना ही अधिक उपयुक्त समझा है।
भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्ण-युग कहा जाता है। कारण कबीर, जायसी, सूर, तुलसी जैसी महान साहित्यिक प्रतिभाओं का उदय इसी काल में हुआ, जिनकी वाणी से हिन्दी भाषा के गौरव में अपूर्व वृद्धि हुई। ईश्वर के निराकार और साकार उपासना भेद से इस काल के काव्य को दो शाखाओं में विभाजित किया गया है। निराकार ब्रह्म की उपासना करने वाले भक्ति कवि निर्गुण शाखा के कवि कहलाते हैं। इनकी भी ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी नामक दो उपशाखाएँ हो गई हैं। कबीर ज्ञानाश्रयी – उपशाखा के प्रधान कवि हैं। अन्य कवियों के नाम संत रैदास, नानक, दादू, मलूकदास, धर्मदास, सुंदरदास आदि हैं। सूफी कवियों द्वारा विकसित प्रेमाश्रयी शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं, जिनका पद्मावत महाकाव्य जगत-प्रसद्धि है। कुतबन की मृतावती, मंझन की मधुमालती, उस्मान की चित्रावली, मुहम्मद की इन्द्रावती आदि प्रेमाश्रयी भक्ति-उपशाखा की अन्य प्रधान रचनाएँ हैं।
ब्रह्म की साकार उपासना के आधार पर हिन्दी काव्य में सगुण भक्ति शाखा का विकास हुआ। कृष्ण और राम की उपासना को लेकर इसकी भी कृष्णाश्रयी और रामाश्रयी दो उपशाखाएं हो गर्इं। कृष्णाश्रयी उपशाखा के प्रमुख कवि सूरदास हैं, जिनका सूरसागर कृष्ण भगवान की लीलाओं के वर्णन का आगार है। सूरसागर की रचना ब्रजभाषा में हुई है। उसमें सवा लाख पद थे, जिनमें से इस समय केवल कुछ ही हजार उपलब्ध हैं। सूर के पदों का चरमोत्कर्ष कृष्ण की बाललीलाओं और गोपियों के विरह-वर्णन में दिखाई देता है। कृष्णाश्रयी भक्ति- उपशाखा के अन्य कवियों में मुख्य रूप से नन्ददास परमानंद, कृष्णदास, वुंâभनदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी आदि आते हैं। कृष्ण-भक्त कवियों में मीराबाई का नाम भी अग्रगण्य है।
भक्तिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि तुलसीदास रामाश्रयी उपशाखा के कवि हैं, जिनके विषय में कहा जाता है कि – कविता करि के तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला। समूचे मध्यकाल में तुलसीदास जैसा व्यक्ति समाज के किसी क्षेत्र में नहीं दिखाई देता। वे वाल्मीकि और कालिदास की परम्परा में आने वाले महान कवि तो थे ही, उससे भी महत्वपूर्ण उनकी भूमिका हिन्दू-समाज के उद्धारकत्र्ता के रूप में मानी जाती है। उनके द्वारा स्थापित लोक-आदर्श और राम-राज्य की कल्पना न केवल भारत को वरन समग्र विश्व को एक महान देन है।
भक्तिकाल का पर्यवसान रीतिकाल में हुआ। भक्ति सम्बन्धी विपुल साहित्य-सामग्रीका सृजन भक्तिकाल में हो चुका था। देश में मुगल शासन की स्थापना के साथ अपेक्षतया शान्ति लौट आई थी। समाज की प्रवृत्ति आमोद-प्रमोद और सुख-चैन की ओर हो चली थी। ऐसे में कवियों का मन भक्ति से हट कर शृंगार की ओर जाना स्वाभाविक था। भक्तिकाल में जो राधा और कृष्ण के आलम्बन थे, वे ही अब शृंगार के आलम्बन बन गए। ऐसी प्रवृत्ति का बीजारोपण भक्तिकाल में ही हो गया था। इस काल में उसका पूर्णपल्लवन नायक-नायिका भेद, रस, छंद, शब्द- शक्ति आदि के उदाहरण स्वरूप की जाने वाली कविताओं में हुआ। इस प्रकार की रचनाओं के संग्रह को रीति-ग्रंथ या लक्षण-ग्रंथ कहा गया। इसी कारण इस पूरे काल का नाम रीतिकाल पड़ गया। काव्योत्कृष्टता की दृष्टि से रीतिकाल के कवि बेजोड़ हैं, किन्तु उनकी रचनाओं में समाज का जो चित्र उभर कर सामने आता है, वह आत्म-प्रवंचना में डूबे हुए समाज का चित्र लगता है। रीतिकाल के प्रमुख कवियों में केशवदास, भूषण, मतिराम, बिहारी और पद्माकर की गणना की जाती है। रामचन्द्रिका और कविप्रिया, शिवराजभूषण, शिवाबावनी और छत्रसाल दशक, रसराज, ललित-ललाम और सतसई, बिहारी-सतसई, पद्माभरण, जगन्विनोद और गंगालहरी क्रम से इन कवियों की मुख्य-मुख्य रचनाएँ हैं।
रीतिकालीन प्रवृत्तियों का अंत होते-होते देश में अंग्रेजी राज्य स्थापित हो गया और उसके साथ ही हिन्दी साहित्य में भी एक नए युग का सूत्रपात हुआ। सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि साहित्यिक अभिव्यक्ति का रूप “पद्य” से बदल कर “गद्य” हो गया। ब्रजभाषा और अवधी का स्थान अब खड़ी बोली ने ले लिया। साहित्य-रचना के विषयों में भी महान परिवर्तन हुआ। साहित्य अब केवल मनोरंजन और आमोद-प्रमोद का साधन नहीं रह गया। विदेशी राज्य की स्थापना के साथ देश के सामने नई समस्याएँ आ उपस्थित हुई थीं। ज्ञान-विज्ञान के नए दरवाजे उद्घाटित हो गए थे। नई चुनौतियाँ जीवन के प्रति नए दृष्टिकोण अपनाने की मांग कर रही थीं। अत: देखते-देखते रीतिकालीन परम्पराओं पर जैसे पटाक्षेप हो गया और समाज नए युग के विहान में जागने के लिए नेत्र-उन्मीलन करने लगा।
हिन्दी साहित्य में “गद्य” या “नव-जागरण युग” के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र थे। अपने पैंतीस वर्ष के अल्पकालीन जीवन में उन्होंने एक सौ पचहत्तर छोटे-बड़े ग्रंथों की रचना की। समाज-सुधार के कार्यों में भी वे अग्रणी रहे। उन्होंने न केवल स्वयं विविध विषयों पर द्रुतगति से लेखनी चलाई, वरन कितने लेखकों को भी जन्म दिया। श्रीनिवास दास, बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, राधा कृष्णदास, कार्तिक प्रसाद खत्री, राधाचरण गोस्वामी, बद्री नारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ आदि भारतेन्दु के समकालीन लेखक थे, जिन्होंने उनकी प्रेरणा से विविध प्रकार की गद्य और पद्य की रचनाओं से हिन्दी साहित्य की श्री-वृद्धि की। अब साहित्य-सृजन केवल कविता तक सीमित नहीं रहा, वरन उसमें नाटक, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, आलोचना, इतिहास आदि सभी विषयों पर धड़ल्ले से पुस्तकें आने लगीं। पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी आरंभ हो गया। स्वयं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने एक-एक करके कई पत्रिकाएँ निकालीं और अन्य लेखकों के लिए उदाहरण उपस्थित किया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का देहावसान पैंतीस वर्ष की अल्प-आयु में सन् १८८५ ई. में हो गया। किन्तु उन्होंने जो लेखक-मण्डली तैयार कर दी थी उसका सृजन कार्य सालों तक आगे भी चलता रहा। इसलिए हिन्दी साहित्य में उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक का समय “भारतेन्दु-युग” के नाम से अभिहित किया जाता है। इतना ही नहीं, बाबू हरिश्चन्द्र का हिन्दी पर जो ऋण है उसके उपलभ्य में हिन्दी वालों ने उन्हें ‘ भारतेन्दु’ की पदवी से अलंकृत किया है, जो अब उनका उपनामसा हो गया है।
भारतेन्दु-युग के बाद हिन्दी में द्विवेदी-युग का आरंभ हुआ। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम से पुकारे जाने वाले इस युग की मुख्य विशेषता यह है कि,अब कविता का माध्यम भी खड़ी बोली हो गया। भारतेन्दु ने कविता के लिए ब्रजभाषा को ही उपयुक्त समझा था, जबकि गद्य के लिए उन्होंने खड़ी बोली को अपनाया। द्विवेदी जी ने खड़ी बोली का रूप निखार कर उसे गद्य और कविता दोनों के उपयुक्त बनाया। यह कार्य उन्होंने मुख्य रूप से सरस्वती पत्रिका के माध्यम से किया। भारतेन्दु की भाँति द्विवेदी जी ने भी लेखकों का एक वृहत् मण्डल तैयार किया। इसमें लेखक भी थे और कवि भी। कवियों में मैथिलीशरण गुप्त का नाम अग्रगण्य है। गुप्तजी के समानान्तर एक अन्य कवि भी कविता के माध्यम से खड़ी बोली का रूप निखारने में लगे थे। उनका नाम अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ था, जिनका ‘प्रियप्रवास’ हिन्दी खड़ी बोली के प्रथम महाकाव्यों में स्थान रखता है। द्विवेदी-युग के महान लेखकों और कवियों में प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, बालमुकुंद गुप्त, पद्मसिंह शर्मा, श्यामसुदंर दास, रामचंद्र शुक्ल, पूर्ण सिंह, यशोदानंदन अखौरी आदि के नाम आते हैं।
द्विवेदी युग से आरंभ करके आगे आधुनिक हिन्दी साहित्य में साहित्यिक अभिव्यक्ति की अनेकानेक विधाओं और वादों का जन्म हुआ और सच तो यह है कि वह क्रम अब भी बंद नहीं हुआ है। कविता के क्षेत्र में पहले छायावाद का आगमन हुआ, जिसको उत्कर्ष पर पहुँचाने वाले जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” जैसे कवि हुए। महादेवी वर्मा, राजकुमार वर्मा और भगवती चरण वर्मा की त्रयी ने भी छायावादी काव्यधारा को आगे बढ़ाया। छायावाद के बाद प्रगतिवाद का उदय हुआ, जिसकी प्रेरणा समाजवादी विचारों के प्रचार से आई। कविता से अधिक इसका जोर गद्य की रचनाओं में रहा। प्रगतिवाद का उत्तराधिकारी प्रयोगवाद बना;जिसके ध्वज-वाहक सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय रहे। तार-सप्तक, दूसरा-सप्तक आदि कई संकलनों में प्रयोगवादी कविता लोगों के सामने आर्इं। प्रयोगवाद के बाद नई कविता का युग आया। वादों से अलग दूर कविता के क्षेत्र में हम जिन कवियों का नाम सुनते है उनमें रामधारी सिंह दिनकर, शिवमंगल सिंह सुमन, सोहन लाल द्विवेदी की अपनी अलग-अलग विशेषताएं हैं। भवानी प्रसाद मिश्र, नागार्जुन, केदारनाथ, नरेश महेता के अपने काव्यादर्श हैं, जो किसी वाद से नहीं बंधे।
आधुनिक काल में हिन्दी गद्य में कविता से भी अधिक कर्तव्य देखने को मिलता है। समालोचना और इतिहास खन के क्षेत्र में आचार्य शुक्ल ने महान योगदान दिया। उनकी परंपरा में आगे चलकर नंद दुलारे बाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. रामकुमार वर्मा, लक्ष्मी सागर वाष्र्णेय ने प्रशंसनीय कार्य किया। प्रगतिवादी गद्य लेखकों में शिवदान सिंह चौहान, प्रकाश चन्द्र गुप्त, डॉ. रामविलास शर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं। रेखा-चित्र और संस्मरण लेखकों में पद्म सिंह शर्मा, बनारसी दास चतुर्वेदी, महादेवी वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, कन्हैया लाल मिश्र “प्रभाकर” विशेष उल्लेख के अधिकारी हैं। जीवनी-साहित्य को समृद्ध बनाने में रामनाथ सुमन, डॉ. रामविलास शर्मा, अमृत राय आदि का योगदान सराहनीय है;जबकि आत्मकथात्मक साहित्य के लिए बेचन शर्मा उग्र, गुलाब राय, हरिवंश राय बच्चन सदैव स्मरण किए जायेंगे। आधुनिक युग में हिन्दी निबंध की अनेक कोटियाँ विकसित हुई हैं – जैसे विचारात्मक निबंध, भावात्मक निबंध, वर्णनात्मक निबंध, विवरणात्मक निबंध। हर प्रकार के निबंध लेखकों ने अपनी प्रयोगशीलता से हमारे साहित्य की श्री-वृद्धि की।
नाटक लिखने की जो परंपरा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने चलाई थी वह अनवरत रूप से अग्रसर है। इस परंपरा में आगे चल कर सबसे बड़े नाटककार जयशंकर प्रसाद हुए। हरि कृष्ण प्रेमी, लक्ष्मी नारायण मिश्र, उदय शंकर भट्ट, गोविन्दवल्लभ पंत इस विधा के अन्य विख्यात लेखक थे। इधर नाटक के क्षेत्र में एकांकी को अधिक लोकप्रियता मिलने लगी। रामकुमार वर्मा एकांकी लेखकों में सर्वप्रथम आते हैं। भुवनेश्वर, उपेन्द्रनाथ अश्क, उदयशंकर भट्ट, गणेश शंकर द्विवेदी, जगदीश चंद्र माथुर, विष्णु प्रभाकर आदि अन्य प्रसिद्ध एकांकीकार हैं। उपन्यास और कहानी इस समय की कदाचित सबसे अधिक लोक-प्रिय विधा थीं। इन दोनों क्षेत्रों में इस समय इतना अधिक लिखा जा रहा था कि इन विधाओं के सभी लेखकों के नाम गिनाना असंभव है।
“साहित्य” समाज का दर्पण है। समाज के नग्न-यथार्थ को प्रकट कर उसे आदर्शोन्मुख करने में ही साहित्य का महत्त्व है। मुंशी प्रेमचन्द का साहित्य भारतीय जन-जीवन का दर्पण है, हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का भाष्य है। प्रेमचन्द की निर्मला (निर्मला), सूरदास (रंगभूमि) और होरी (गोदान) चीख-चीखकर भारत की आत्मा को अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं। राष्ट्र-कवि मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर का काव्य भारतीय जन-जीवन की आत्मा का दर्पण है। भारतेन्दु की वाणी से जो साहित्य रूपी सुरसरि प्रवाहित हुई, वह जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”, सुभद्राकुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर, प्रेमचंद, यशपाल, अमृतलाल नागर, फणीश्वरनाथ रेणु, राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय, धर्मवीर भारती रूपी धाराओं में प्रवाहित होती हुई आज भी भारत-राष्ट्र को सिंचित और पल्लवित कर रही हैं।
आजादी के बाद हिन्दी कहानी को करीब ६८ वर्ष हो चुके हैं। हिन्दी कहानी में एक नई ऊर्जा का सूत्रपात हुआ जिसे नई कहानी के आंदोलन के रूप में जाना जाता है। तभी तो १९५६ में भैरवप्रसाद गुप्त के संपादन में “कहानी” नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ;जिसने नई कहानी आंदोलन को पूरी तरह स्थापित कर दिया। कमलेश्वर, मोहन राकेश तथा राजेन्द्र यादव की त्रयी को इसका श्रेय जाता है। डॉ. नामवर सिंह जैसे आलोचक ने भी अपनी कलम और अपनी आवाज से नई कहानी की स्थापना में योगदान दिया। नई कहानी के युग में यथार्थ चित्रण की एक नई परंपरा हमें देखने को मिलती है। दोपहर का भोजन, राजा निरंबसिया, चीफ की दावत, यही सच है, जिंदगी और गुलाब के पुल, परिंदे, वापसी जैसी कहानियाँ सामान्य मनुष्य की गरीबी, उससे उत्पन्न मजबूरियाँ, दांपत्य संबंधों, प्रेम के निरूपण अथवा समाज में नारी की बदली हुई स्थिति को उजागर करती हैं। राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, भीष्म साहनी, अमरकांत, निर्मल वर्मा, उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, शिवप्रसाद सिंह, फणीश्वरनाथ रेणु, मार्कंडेय, रघुवीर सहाय, शानी, शेखर जोशी, शैलेश मटियानी, हरिशंकर परसाई आदि अनेक कहानीकारों ने अपनी-अपनी तरह से हिन्दी कहानी के भंडार को समृद्ध किया। इसके बाद के समय में नई कहानी से विद्रोह के रूप में अनेक आंदोलन उठ खड़े हुए जिन्हें अकहानी-आंदोलन, समकालीन-कहानी आंदोलन, सचेतन-कहानी आंदोलन, सहज-कहानी, समांतर-कहानी, जनवादी-कहानी, सक्रिय-कहानी आदि नामों से जाना गया।
अकहानी-आंदोलन में जगदीश चतुर्वेदी, गंगाप्रसाद विमल, रवीन्द्र कालिया, परेश और दूधनाथ सिंह प्रमुख हैं। वहीं सचेतन-कहानी आंदोलन में महीप सिंह, मधुकर सिंह, ह्रदयेश, हिमांशु जोशी, कुलदीप बग्गा, कुलभूषण, रामदरस मिश्र, गिरिराज किशोर आदि लेखकों ने कहानी को फिर अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं से जोड़ा। समांतर-कहानी आंदोलन के सूत्रधार कहानीकार कमलेश्वर ने मनुष्य के आर्थिक-संघर्ष को प्रमुखता से चित्रित किया। कामतानाथ, मधुकर सिंह, सुधा अरोड़ा, सुदीप, सतीश जमाली, निरुपमा सेवती, मृदुला गर्ग, श्रवण कुमार आदि ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। राजी सेठ, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मिथिलेश्वर, स्वदेश दीपक, राकेश वत्स, मृणाल पाण्डे, मृदुला गर्ग, सत्येन कुमार, गोविन्द मिश्र, चित्रा मुद्गल, रमेश उपाध्याय, धीरेन्द्र अस्थाना, नमिता सिंह, सिम्मी हर्षिता आदि अनेक नाम हैं, जिन्होंने आठवें दशक में न केवल सामान्य मनुष्य की संघर्ष गाथा को शब्द दिए बल्कि अपने समय और समाज की भयंकर विसंगतियों, राजनीति क्षेत्र की गंदगी, प्रशासनिक भ्रष्टाचार, विभिन्न सामाजिक इकाइयों और संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया।
आजादी के बाद ग्रामीण जीवन को केंद्र में रख कर अनेकों उपन्यास प्रकाशित हुए, जिसमें “मैला आँचल, राग दरबारी, लोक ऋण, सोना-माटी, धरती धन न अपना, अग्निपर्व, इदन्नमम, चाक” प्रमुख हैं। यशपाल के “झूठा-सच” का साहित्य में विशेष स्थान है। भगवतीचरण वर्मा के;”सबहिं नचावत राम गुसाई” में प्रशासनिक भ्रष्टाचार को बहुत ही गहराई से चित्रित किया गया है। अमृतलाल नागर के उपन्यास “करवट”, मन्नू भण्डारी के “महाभोज”, अज्ञेय के”शेखर एक जीवनी” (दो भाग) तथा “नदी के द्वीप”, उपेन्द्रनाथ की “अश्क से गिरती दीवारें”, “शहर में घूमता आईना”, “गर्म-राख” उपन्यासों का विशेष महत्व है। भीष्म साहनी का “तमस” व मय्यादास की “माड़ी”और शिवप्रसाद सिंह के उपन्यासों “गली आगे मुड़ती है”, “अलग-अलग वैतरणी”, “नीला-चाँद”, “शैलूष”, “कुहरे में युद्ध”, राही मासूम रजा का “आधा-गाँव”, गोविंद मिश्र की “लाल-पीली जमीन”, “हुजूर-दरबार”, “तुम्हारी रोशनी में धीर समीरे”, “पाँच आँगनों वाला घर”, गिरिराज किशोर के “यथा प्रस्तावित” तथा “ढाई-घर” काफी लोकप्रिय उपन्यास हैं।मंजूर एहतेशाम के “सूखा बरगद”, सत्येन कुमार का “छुट्टी का दिन”, बदीउज्जमा का “एक चूहे की मौत”, “छठा तंत्र”, “ह्रदयेश का साँड”, शानी का “काला-जल” चर्चित उपन्यास हैं। “मुझे चाँद चाहिए, नौकर की कमीज, खिलेगा तो देखेंगे, छिन्नमस्ता, सात आसमान, हमजाद, कलि-कथा : वाया बाईपास, मुखड़ा क्या देखें” भी पठनीय हैं।
आजादी के बाद के दौर में हिन्दी नाटक यथार्थ और रंग-मंच से जुड़कार नई दिशा की ओर बढ़ा। इनमें उल्लेखनीय नाटक हैं – “उपेन्द्रनाथ अश्क का अंजो दीदी, भंवर और अलग-अलग रास्ते”, विष्णु प्रभाकर का “डॉक्टर और युगे-युगे क्रांति”, नरेश मेहता का “खंडित-यात्राएँ”और “सुबह के घंटे”, डॉक्टर लक्ष्मीनारायण का “अंधा-कुआँ, मादा वैक्टस, तीन आँखों वाली मछली, रातरानी, दर्पन, वंलकी और करफ्यू”, मोहन राकेश का “आधे-अधूरे”, कणाद ऋषि भटनागर का “जहर और जनता का सेवक”, शरद जोशी का”एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ”और “अंधों का हाथी”, ब्रजमोहन शाह का “शह या मात”, शंकर शेष के “पाबंदी और बंधन अपने-अपने”,सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के “बकरी”और “अब गरीबी हटाओ”। शंकर शेष के “बिन बाती के दीप”, मुद्राराक्षस के “तिलचट्टा”, सत्यप्रकाश संगर के “दीप से दीप जले”, चिंरजीत के “दादी माँ जागी”और रेवतीशरण शर्मा के “अपनी धरती”आदि नाटकों में भारतीय संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं की गंध विद्यमान है।
कथाकारों की बिलकुल नई पीढ़ी ने टी.वी. कल्चर, उपभोक्तावाद और भूमण्डलीकरण के बढ़ते कुप्रभावों, खुले बाजार की अर्थव्यवस्था ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मायाजाल को जिस रूप में हमारे सामने पासारा है, उसका सजीव चित्रण संजीव, उदयप्रकाश, जयनंदन, प्रभा खेतान, अलका सरावगी, सुषमा बेदी, ऋता शुक्ल, जया जादवानी, मैत्रेय पुष्पा, क्षमा शर्मा, संजय खाती, अशोक शुक्ल, चन्द्रकिशोर जायसवाल, रामधारी सिंह दिवाकर आदि अनेक लेखक अपनी कलम से हिन्दी कहानी को समृद्धि के चरण पर पहुँचा रहे हैं।
पद्य लेखकों में ज्ञान रंजन, विनोद कुमार शुक्ल, प्रयाग शुक्ल, विष्णु नागर, चंद्रकांत देवतले, विष्णु खरे, लीलाधर जगूड़ी, लीलाधर मंडलोई, उमा शंकर चौधरी, प्रभात रंजन, स्वप्निल श्रीवास्तव, हरीशचंद्र वर्णवाल प्रमुख हैं। वहीं महिलाओं में सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, कृष्णा सोबती, शिवानी, मालती जोशी, मन्नू भण्डारी, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, प्रभा खेतान, मृदुला गर्ग, नाशिरा शर्मा, मैत्रेयी पुष्पा के बाद बढ़ते क्रम में सूर्यबाला, सुधा अरोड़ा, रमणिका गुप्ता, अनामिका, अलका सरावगी, जया जादवानी, गगन गिल, मनीषा कुलश्रेष्ठ, अर्चना पेन्युली प्रमुख हैं। इसी तरह आलोचना में रामचंद्र शुक्ल से होते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी फिर राम विलास शर्मा, विजय देव नारायण साही, देवी शंकर अवस्थी, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, नामवर सिंह, नंदकिशोर नवल, मैनेजर पांडेय, संजीव, विजय बहादुर सिंह, विजय कुमार जैसे नाम लिये जाते हैं। व्यंग्य विधा में श्रीलाल शुक्ल की पंरपरा को हरिशंकर परसाई, जोशी, त्यागी ने आगे बढ़ाते हुए व्यंग्य के जरिये अपनी बातों को प्रमुखता से प्रस्तुत किया। मौजूदा समय में के.पी. सक्सेना, ज्ञान चतुर्वेदी, आलोक पुराणिक, प्रेम जनमेजय जैसे व्यंग्यकार इस विधा को आगे ले जा रहे हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में साहित्य विधा में व्यंग्य का प्रचलन शुरू हुआ। श्रीलाल शुक्ल इसके पुरोधा कहे जाते हैं। कई मूर्धन्य कवि, शायर, चिंतक जैसे सआदत हसन मंटो, अली सरदार जाफरी, इस्मत चुगताई, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी, बलवीर सिंह रंग, गोपाल शरण सिंह नेपाली का साहित्य में योगदान रहा। डॉ. रविनाथ सिंह, डॉ. सी एल प्रभात, डॉ. बंशीधर पंडा, डॉ. रामयतन सिंह भ्रमर, डॉ. देवेश ठाकुर, प्रो. नंदलाल पाठक, डॉ. सुधाकर मिश्र, प्रो. जगदंबा प्रसाद दीक्षित, अनंतकुमार पाषाण, राधेश्याम उपाध्याय उनमें प्रमुख हैं। एकदम नये उपन्यासकारों में उदय प्रकाश, पंकज बिष्ट का नाम लिया जा सकता है। चंदन पांडेय, योगेन्द्र अहुजा, ओमा शर्मा, विमलचंद्र पांडेय, अच्छा गद्य लिख रहे हैं। रिपोर्ताज, यात्रा-साहित्य, भेंट-वार्ता साहित्य जैसी नई-नई विधाओं को अपनाने के कारण हिन्दी साहित्य का कलेवर नित्य बढ़ता जा रहा है। समग्र साहित्य पर एक उड़ती हुई दृष्टि भी पाठक को अभिभूत करने के लिए पर्याप्त है। इस प्रकार समय-समय पर राष्ट्र की माँग के अनुसार राष्ट्र का साहित्यकार अपनी कृतियों से राष्ट्र के निर्माण में सदा योगदान देता रहा है, दे रहा है और देता रहेगा।
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