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परिचय

जन्म : 31 अगस्त, 1919 गुजरांवाला (पंजाब)

भाषा : पंजाबी, हिन्दी

विधाएँ : कविता, उपन्यास, कहानी, निबंध, आत्मकथा

मुख्य कृतियाँ

उपन्यास : डॉक्टर देव, पिंजर, आह्लणा, आशू, इक सिनोही, बुलावा, बंद दरवाज़ा, रंग दा पत्ता, इक सी अनीता, चक्क नम्बर छत्ती, धरती सागर ते सीपियाँ, दिल्ली दियाँ गलियाँ, एकते एरियल, जलावतन, यात्री, जेबकतरे, अग दा बूटा, पक्की हवेली, अग दी लकीर, कच्ची सड़क, कोई नहीं जानदाँ, उनहाँ दी कहानी, इह सच है, दूसरी मंज़िल, तेहरवाँ सूरज, उनींजा दिन, कोरे कागज़, हरदत्त दा ज़िंदगीनामा

आत्मकथा : रसीदी टिकट

कहानी संग्रह : हीरे दी कनी, लातियाँ दी छोकरी, पंज वरा लंबी सड़क, इक शहर दी मौत, तीसरी औरत

कविता संग्रह : कविता संग्रह:
अमृत लहरें (1936)जिन्दा जियां (1939)ट्रेल धोते फूल (1942)
ओ गीता वालियां (1942)बदलम दी लाली (1943)लोक पिगर (1944)पगथर गीत (1964)पंजाबी दी आवाज(1954)सुनहरे(1955)अशोकाचेती (1957)कस्तूरी (1957) नागमणि 1964)
इक सी अनीता (1964) चक नाबर छ्त्ती (1964) उनीझा दिन (1979) कागज़ ते कैनवास (1981) – ज्ञानपीठ पुरस्कार

अब तक प्रकाशित पुस्तकें : 80 के लगभग(काव्य संग्रह, कहानी संग्रह, उपन्यास, निबन्ध-संग्रह और आत्मकथा) कुछ पुस्तकें संसार की 34 भाषाओं में अनूदित
सम्मान और पुरस्कारसाहित्य अकादमी पुरस्कार (1956)
’पद्मश्री’ से अलंकृत (1979)
डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (दिल्ली युनिवर्सिटी- 1973)
डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (जबलपुर युनिवर्सिटी- 1973)
बल्गारिया वैरोव पुरस्कार (बुल्गारिया – 1979)
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (1981)
डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर (विश्व भारती शांतिनिकेतनी-1987)
फ़्रांस सरकार द्वारा सम्मान (1987)
प्रमुख कृतियाँ:
उपन्यास: पाँच बरस लंबी सड़क, पिंजर, अदालत,कोरे कागज़, उनचास दिन, सागर और सीपियाँ, नागमणि, रंग का पत्ता, दिल्ली की गलियाँ, तेरहवाँ सूरज,जिलावतन (1968)|
आत्मकथा: रसीदी टिकट (1976)
कहानी संग्रह: कहानियाँ जो कहानियाँ नहीं हैं, कहानियों के आँगन में
संस्मरण: कच्चा आँगन, एक थी सारा।
अब तक प्रकाशित पुस्तकें : 80 के लगभग (काव्य संग्रह, कहानी संग्रह, उपन्यास, निबन्ध-संग्रह और आत्मकथा) कुछ पुस्तकें संसार की 34 भाषाओं में अनूदित
साहित्य अकादेमी पुरस्कार : 1956 में
पद्मश्री उपाधि : 1969 में
दिल्ली विश्वविद्यालय से डी. लिट्. की उपाधि : 1973 में
वाप्तसारोव बुलगारिया पुरस्कार : 1979 में
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार : 1982 में
जबलपुर विश्वविद्यालय से डी. लिट्. की उपाधि : 1983 में
राज्यसभा में मनोनीत सांसद : 1986 में
पंजाब विश्वविद्यालय से डी. लिट्. की उपाधि : 1987 में
फ्रांस सरकार से उपाधि : 1987 में
एस. एन. डी. टी. विश्वविद्यालय, बंबई से डी. लिट्. की उपाधि : 1989 में
पंजाबी मासिक ‘नागमणि’ का संपादन : 1966 से
एक उपन्यास पर आधारित फिल्म : कादम्बरी
कुछ उपन्यासों पर आधारित टी. वी. सीरियल : ज़िंदगी
यात्रा : सोवियत संघ, बुलगारिया, युगोस्लाविया, चेकोस्लाविया, हंगरी, मॉरीशस, इंग्लैंड, फ्रांस, नार्वे और जर्मनी

निधन : 31 अक्तूबर 2005, नई दिल्ली
विशेष 
मृता प्रीतम का बचपन लाहौर में बीता और शिक्षा भी वहीं पर हुई। इनके माता पिता पंचखंड भसोड़ के स्कूल में पढ़ाते थे। इनका बचपन अपनी नानी के घर बीता जो रूढ़िवादी महिला थी। अमृता रूढ़ियों के विरूद्ध खड़ी होने वाली बालिका थीं। बचपन में अमृता ने देखा कि उनकी नानी की रसोई में कुछ बर्तन और तीन गिलास अन्य बर्तनों से अलग रखे रहते थे अमृता के पिता के मुसलमान दोस्तों के आने पर ही उन्हें उपयोग में लाया जाता था । बालिका अमृता ने अपनी नानी से जिद करते हुए गिलासों में ही पानी पीने की जिद की और फिर कई दिन की डांट-फटकार और सत्याग्रह के बाद अंततः अपने पिता के मुसलमान दोस्तों के लिए अलग किये गये गिलासों को सामान्य रसोई के बर्तनों में मिलाकर रूढ़ियों के विरूद्ध खड़ी होने का पहला परिचय दिया। जब ये ग्यारह वर्ष की हुईं तो इनकी माँ की मृत्यु हो गयी । इन्होंने अपना सृजन मुख्य रूप से पंजाबी और उर्दू भाषा में किया। अमृता की रचनाओं में विभाजन का दर्द और मानवीय संवेदनाओं का सटीक चित्रण हुआ है। इनके संबंध में नेपाल के उपन्यासकार धूंसवां सायमी ने 1972 में लिखा थाः-‘‘ मैं जब अमृता प्रीतम की कोई रचना पढ़ता हूँ , तब मेरी भारत विरोधी भावनाऐं खत्म हो जाती हैं।’’ इनकी कविताओं के संकलन ‘धूप का टुकड़ा ’ के हिंदी में अनूदित प्रकाशन पर कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा थाः-‘‘अमृता प्रीतम की कविताओं में रमना हृदय में कसकती व्यथा का घाव लेकर , प्रेम और सौन्दर्य की धूप छाँव वीथि में विचरने के समान है. इन कविताओं के अनुवाद से हिन्दी काव्य भाव धनी तथा शिल्प समृद्ध बनेगा— ’’इनकी रचनाओं में ‘दिल्ली की गलियाँ ’(उपन्यास), ‘एक थी अनीता’(उपन्यास), काले अक्षर, कर्मों वाली, केले का छिलका, दो औरतें (सभी कहानियाँ 1970 के आस-पास) ‘यह हमारा जीवन’(उपन्यास 1969 ), ‘आक के पत्ते’ (पंजाबी में बक्क दा बूटा ),‘चक नम्बर छत्तीस’( ), ‘यात्री’ (उपन्यास1968,), ‘एक सवाल (उपन्यास ),‘पिघलती चट्टान (कहानी 1974), धूप का टुकड़ा (कविता संग्रह), ‘गर्भवती’(कविता संग्रह), आदि प्रमुख हैं ।
इनके उपन्यासों पर फिल्मों और दूरदर्शन धारावाहिक का भी निर्माण भी हुआ है।
पुरस्कार
अमृता जी को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी नवाजा गया, जिनमे प्रमुख है 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1958 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कार, 1988 में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार;(अन्तर्राष्ट्रीय) और 1982 में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार। वे पहली महिला थीं जिन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला और साथ ही साथ वे पहली पंजाबी महिला थीं जिन्हे 1969 में ’पद्मश्री’ से अलंकृत/नवाज़ा गया।1961 तक इन्होंने ऑल इंडिया रेडियो मे काम किया । विभाजन की पीड़ा को लेकर इनके उपन्यास पिंजर पर एक फ़िल्म भी बनी थी, जो अच्छी खासी चर्चा में रही। इन्होंने पचास से अधिक पुस्तकें लिखीं और इनकी काफ़ी रचनाएँ विदेशी भाषाओं मे भी अनूदित हुईं।  यहाँ आप पंजाबी से अनूदित कवितायेँ,कहानियाँ उनकी आत्मकथा के कुछ अंश व लेख पढ़िएकविताएँ

 

चुप की साज़िश

 

रात ऊँघ रही है…
किसी ने इन्सान की
छाती में सेंध लगाई है
हर चोरी से भयानक
यह सपनों की चोरी है।

चोरों के निशान —
हर देश के हर शहर की
हर सड़क पर बैठे हैं
पर कोई आँख देखती नहीं,
न चौंकती है।
सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह
एक ज़ंजीर से बँधी
किसी वक़्त किसी की
कोई नज़्म भौंकती है।
धूप का टुकड़ा

 

मुझे वह समय याद है—
जब धूप का एक टुकड़ा सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता उस भीड़ में खो गया।

सोचती हूँ: सहम और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस छोटे बच्चे ने मेरा हाथ थाम लिया।

तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है न हाथ को छोड़ता है।

अंधेरे का कोई पार नही
मेले के शोर में भी खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह जैसे धूप का एक टुकड़ा।

 

जब मैं तेरा गीत लिखने लगी

 

मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं

दिल के घाट पर मेला जुड़ा ,
ज्यूँ रातें रेशम की परियां
पाँत बाँध कर आई……

जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के ऊपर उभर आईं
केसर की लकीरें

सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गई,
हमारी दोनों की तकदीरें

 

मैं तुझे फिर मिलूँगी

 

मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी

या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी

मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है

पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

मैं तुझे फिर मिलूँगी!!

 

मेरा पता

 

ज मैंने
अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा
गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की
दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की,
हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, यह एक वर है
और जहाँ भी
आज़ाद रूह की झलक पड़े
— समझना वह मेरा घर है।
ऐ मेरे दोस्त! मेरे अजनबी!

 

मेरे दोस्त! मेरे अजनबी!
एक बार अचानक – तू आया
वक़्त बिल्कुल हैरान
मेरे कमरे में खड़ा रह गया।
साँझ का सूरज अस्त होने को था,
पर न हो सका
और डूबने की क़िस्मत वो भूल-सा गया…

फिर आदि के नियम ने एक दुहाई दी,
और वक़्त ने उन खड़े क्षणों को देखा
और खिड़की के रास्ते बाहर को भागा…

वह बीते और ठहरे क्षणों की घटना –
अब तुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और मुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और शायद वक़्त को भी
फिर वह ग़लती गवारा नहीं

अब सूरज रोज वक़्त पर डूब जाता है
और अँधेरा रोज़ मेरी छाती में उतर आता है…

पर बीते और ठहरे क्षणों का एक सच है –
अब तू और मैं मानना चाहें या नहीं
यह और बात है।
पर उस दिन वक़्त
जब खिड़की के रास्ते बाहर को भागा
और उस दिन जो खून
उसके घुटनों से रिसा
वह खून मेरी खिड़की के नीचे
अभी तक जमा हुआ है…
दाग़

 

मोहब्बत की कच्ची दीवार
लिपी हुई, पुती हुई
फिर भी इसके पहलू से
रात एक टुकड़ा टूट गिरा

बिल्कुल जैसे एक सूराख़ हो गया
दीवार पर दाग़ पड़ गया…

यह दाग़ आज रूँ रूँ करता,
या दाग़ आज होंट बिसूरे
यह दाग़ आज ज़िद करता है…
यह दाग़ कोई बात न माने

टुकुर टुकुर मुझको देखे,
अपनी माँ का मुँह पहचाने
टुकुर टुकुर तुझको देखे,
अपने बाप की पीठ पहचाने

टुकुर टुकुर दुनिया को देखे,
सोने के लिए पालना मांगे,
दुनिया के कानूनों से
खेलने को झुनझुना मांगे

माँ! कुछ तो मुँह से बोल
इस दाग़ को लोरी सुनाऊँ
बाप! कुछ तो कह,
इस दाग़ को गोद में ले लूँ

दिल के आँगन में रात हो गयी,
इस दाग़ को कैसे सुलाऊँ!
दिल की छत पर सूरज उग आया
इस दाग़ को कहाँ छुपाऊँ!
एक ख़त
मैं – एक आले में पड़ी पुस्तक।
शायद संत–वचन हूँ, या भजन–माला हूँ,
या काम–सूत्र का एक कांड,
या कुछ आसन, और गुप्त रोगों के टोटके
पर लगता है मैं इन में से कुछ भी नहीं।
(कुछ होती तो ज़रूर कोई पढ़ता)
और लगता – कि क्रांतिकारियों की सभा हुई थीं
और सभा में जो प्रस्ताव रखा गया
मैं उसी की एक प्रतिलिपि हूँ
और फिर पुलिस का छापा
और जो पास हुआ कभी लागू न हुआ
सिर्फ़ कार्रवाई की ख़ातिर संभाल कर रखा गया।
और अब सिर्फ़ कुछ चिड़ियाँ आती हैं
चोंच में कुछ तिनके लाती हैं
और मेरे बदन पर बैठ कर
वे दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र करती हैं

तू नहीं आया
चैत ने करवट ली, रंगों के मेले के लिए
फूलों ने रेशम बटोरा – तू नहीं आया

दोपहरें लंबी हो गईं, दाख़ों को लाली छू गई
दरांती ने गेहूँ की वालियाँ चूम लीं – तू नहीं आया

बादलों की दुनिया छा गई, धरती ने दोनों हाथ बढ़ा कर
आसमान की रहमत पी ली – तू नहीं आया

पेड़ों ने जादू कर दिया, जंगल से आई हवा के
होंठों में शहद भर गया – तू नहीं आया

ऋतु ने एक टोना कर दिया, चाँद ने आकर
रात के माथे झूमर लटका दिया – तू नहीं आया

आज तारों ने फिर कहा, उम्र के महल में अब भी
हुस्न के दिये जल रहे हैं – तू नहीं आया

किरणों का झुरमुट कहता है, रातों की गहरी नींद से
रोशनी अब भी जागती है – तू नहीं आया
अश्वमेध यज्ञ

 

क चैत की पूनम थी
कि दूधिया श्वेत मेरे इश्क का घोड़ा
देश और विदेश में विचरने चला
सारा शरीर सच–सा श्वेत
और श्यामकर्ण विरही रंग के।
एक स्वर्णपत्र उसके माथे पर
“यह दिग्विजय का घोड़ा—
कोई सबल है तो इसे पकड़े और जीते”
और जैसे इस यज्ञ का एक नियम है
यह जहाँ भी ठहरा मैने गीत दान किये
और कई जगह हवन रचा
सो जो भी जीतने को आया वह हारा।
आज उमर की अवधि चुक गई है
यह सही सलामत मेरे पास लौटा है,
पर कैसी अनहोनी—
कि पुण्य की इच्छा नहीं, न फल की लालसा बाकी
यह दूधिया श्वेत मेरे इश्क का घोड़ा
मारा नहीं जाता . . . मारा नहीं जाता . . .
बस यह सलामत रहे, पूरा रहे!
मेरा अश्वमेध यज्ञ अधूरा है अधूरा रहे!
एक ख़त

 

चाँद सूरज दो दवातें, कलम ने बोसा लिया
लिखितम तमाम धरती, पढतम तमाम लोग
साइंसदानों दोस्तों!
गोलियाँ, बन्दूकें और एटम बनाने से पहले
इस ख़त को पढ़ लेना!
हुक्मरानों दोस्तो!
गोलियाँ, बन्दूकें और एटम बनाने से पहले
इस ख़त को पढ़ लेना!
सितारों के हरफ़ और किरनों की बोली अगर पढ़नी नहीं आती
किसी आशिक–अदीब से पढ़वा लेना
अपने किसी महबूब से पढ़वा लेना
और हर एक माँ की यह मातृ–बोली है
तुम बैठ जाना किसी भी ठांव
और ख़त पढ़वा लेना किसी भी माँ से
फिर आना और मिलना कि मुल्क की हद है जहाँ है
एक हद मुल्क की
और नाप कर देखो
एक हद इल्म की
एक हद इश्क की
और फिर बताना कि किस की हद कहाँ है।
चाँद सूरज दो दवातें
हाथ में एक कलम लो
इस ख़त का जवाब दो
और दुनिया की खैर खैरियत के दो हरफ़ भी डाल दो
—तुम्हारी —अपनी— धरती
तुम्हारे ख़त की राह देखती बहुत फिकर कर रही . . .
एक मुलाकात

मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी
सिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था……फिर समुन्द्र को खुदा जाने
क्या ख्याल आया
उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी
मेरे हाथों में थमाई
और हंस कर कुछ दूर हो गया

हैरान थी….
पर उसका चमत्कार ले लिया
पता था कि इस प्रकार की घटना
कभी सदियों में होती है…..

लाखों ख्याल आये
माथे में झिलमिलाये

पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा कर
अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?

मेरे शहर की हर गली संकरी
मेरे शहर की हर छत नीची
मेरे शहर की हर दीवार चुगली

सोचा कि अगर तू कहीं मिले
तो समुन्द्र की तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे

और नीची छतों
और संकरी गलियों
के शहर में बस सकते थे….

पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती
और अपनी आग का मैंने
आप ही घूंट पिया

मैं अकेला किनारा
किनारे को गिरा दिया
और जब दिन ढलने को था
समुन्द्र का तूफान
समुन्द्र को लौटा दिया….

अब रात घिरने लगी तो तूं मिला है
तूं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
मैं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
सिर्फ- दूर बहते समुन्द्र में तूफान है…..

 

याद

 

ज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया….

आसमान की भवों पर
जाने क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन खोल कर
उसने चांद का कुर्ता उतार दिया….

मैं दिल के एक कोने में बैठी हूं
तुम्हारी याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ी में से
गहरा और काला धूंआ उठता है….

साथ हजारों ख्याल आये
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख आग की आहें भरे,
दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं

वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये….

तेरे इश्क के हाथ से छूट गयी
और जिन्दगी की हन्डिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान
मेरे चौके से भूखा उठ गया….

 

हादसा

 

रसों की आरी हंस रही थी
घटनाओं के दांत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूट गया
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया

आंखों में ककड़ छितरा गये
और नजर जख्मी हो गयी
कुछ दिखायी नहीं देता
दुनिया शायद अब भी बसती है

 

आत्ममिलन

 

मेरी सेज हाजिर है
पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज है……

 

शहर

 

मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें – बेतुकी दलीलों सी…
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर

हर मकान एक मुट्ठी सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियां, ज्यों मूंह से झाग बहती है

यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां हार्न एक दूसरे पर झपटते

जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…

शंख घंटों के सांस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती

पर नींद में भी बहस खतम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….

भारतीय़ ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित अमृता प्रीतम चुनी हुई कवितायें से साभार
रोजी

नीले आसमान के कोने में
रात-मिल का साइरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
सफ़ेद गाढ़ा धुआँ उठता है

सपने — जैसे कई भट्टियाँ हैं
हर भट्टी में आग झोंकता हुआ
मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है

तेरा मिलना ऐसे होता है
जैसे कोई हथेली पर
एक वक़्त की रोजी रख दे।

जो ख़ाली हँडिया भरता है
राँध-पकाकर अन्न परसकर
वही हाँडी उलटा रखता है

बची आँच पर हाथ सेकता है
घड़ी पहर को सुस्ता लेता है
और खुदा का शुक्र मनाता है।

रात-मिल का साइरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
धुआँ इस उम्मीद पर निकलता है

जो कमाना है वही खाना है
न कोई टुकड़ा कल का बचा है
न कोई टुकड़ा कल के लिए है…

 

कुफ़्र

 

ज हमने एक दुनिया बेची
और एक दीन ख़रीद लिया
हमने कुफ़्र की बात की

सपनों का एक थान बुना था
एक गज़ कपड़ा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली

आज हमने आसमान के घड़े से
बादल का एक ढकना उतारा
और एक घूँट चाँदनी पी ली

यह जो एक घड़ी हमने
मौत से उधार ली है
गीतों से इसका दाम चुका देंगे

 

मुकाम

 

क़लम ने आज गीतों का क़ाफ़िया तोड़ दिया
मेरा इश्क़ यह किस मुकाम पर आ गया है

देख नज़र वाले, तेरे सामने बैठी हूँ
मेरे हाथ से हिज्र का काँटा निकाल दे

जिसने अँधेरे के अलावा कभी कुछ नहीं बुना
वह मुहब्बत आज किरणें बुनकर दे गयी

उठो, अपने घड़े से पानी का एक कटोरा दो
राह के हादसे मैं इस पानी से धो लूंगी…

 

चुप की साज़िश

 

रात ऊँघ रही है…
किसी ने इन्सान की
छाती में सेंध लगाई है
हर चोरी से भयानक
यह सपनों की चोरी है।

चोरों के निशान —
हर देश के हर शहर की
हर सड़क पर बैठे हैं
पर कोई आँख देखती नहीं,
न चौंकती है।
सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह
एक ज़ंजीर से बँधी
किसी वक़्त किसी की
कोई नज़्म भौंकती है।

 

आदि स्मृति

 

काया की हक़ीक़त से लेकर —
काया की आबरू तक मैं थी,
काया के हुस्न से लेकर —
काया के इश्क़ तक तू था।

यह मैं अक्षर का इल्म था
जिसने मैं को इख़लाक दिया।
यह तू अक्षर का जश्न था
जिसने ‘वह’ को पहचान लिया,
भय-मुक्त मैं की हस्ती
और भय-मुक्त तू की, ‘वह’ की

मनु की स्मृति
तो बहुत बाद की बात है…

 

नाग पंचमी

 

मेरा बदन एक पुराना पेड़ है…
और तेरा इश्क़ नागवंशी –
युगों से मेरे पेड़ की
एक खोह में रहता है।

नागों का बसेरा ही पेड़ों का सच है
नहीं तो ये टहनियाँ और बौर-पत्ते –

देह का बिखराव होता है…

यूँ तो बिखराव भी प्यारा
अगर पीले दिन झड़ते हैं
तो हरे दिन उगते हैं
और छाती का अँधेरा
जो बहुत गाढ़ा है
– वहाँ भी कई बार फूल जगते हैं।

और पेड़ की एक टहनी पर –
जो बच्चों ने पेंग डाली है
वह भी तो देह की रौनक़…

देख इस मिट्टी की बरकत –
मैं पेड़ की योनि में आगे से दूनी हूँ
पर देह के बिखराव में से
मैंने घड़ी भर वक़्त निकाला है

और दूध की कटोरी चुराकर
तुम्हारी देह पूजने आई हूँ…

यह तेरे और मेरे बदन का पुण्य है
और पेड़ों को नगी बिल की क़सम है
और – बरस बाद
मेरी ज़िन्दगी में आया –
यह नागपंचमी का दिन है…

 

एक जीवी, एक रत्नी, एक सपना कहानी

 

पालक एक आने गठ्ठी, टमाटर छह आने रत्तल और हरी मिर्चें एक आने की ढेरी “पता नहीं तरकारी बेचनेवाली स्त्री का मुख कैसा था कि मुझे लगा पालक के पत्तों की सारी कोमलता, टमाटरों का सारा रंग और हरी मिर्चों की सारी खुशबू उसके चेहरे पर पुती हुई थी।

एक बच्चा उसकी झोली में दूध पी रहा था। एक मुठ्ठी में उसने माँ की चोली पकड़ रखी थी और दूसरा हाथ वह बार-बार पालक के पत्तों पर पटकता था। माँ कभी उसका हाथ पीछे हटाती थी और कभी पालक की ढेरी को आगे सरकाती थी, पर जब उसे दूसरी तरफ बढ़कर कोई चीज़ ठीक करनी पड़ती थी, तो बच्चे का हाथ फिर पालक के पत्तों पर पड़ जाता था। उस स्त्री ने अपने बच्चे की मुठ्ठी खोलकर पालक के पत्तों को छुडात़े हुए घूरकर देखा, पर उसके होठों की हँसी उसके चेहरे की सिल्वटों में से उछलकर बहने लगी। सामने पड़ी हुई सारी तरकारी पर जैसे उसने हँसी छिड़क दी हो और मुझे लगा, ऐसी ताज़ी सब्जी कभी कहीं उगी नहीं होगी।

कई तरकारी बेचनेवाले मेरे घर के दरवाज़े के सामने से गुज़रते थे। कभी देर भी हो जाती, पर किसी से तरकारी न ख़रीद सकती थी। रोज़ उस स्त्री का चेहरा मुझे बुलाता रहता था। ,

उससे खरीदी हुई तरकारी जब मैं काटती, धोती और पतीले में डालकर पकाने के लिए रखती-सोचती रहती, उसका पति कैसा होगा! वह जब अपनी पत्नी को देखता होगा, छूता होगा, तो क्या उसके होंठों में पालक का, टमाटरों का और हरी मिर्चों का सारा स्वाद घुल जाता होगा?

कभी-कभी मुझे अपने पर खीज होती कि इस स्त्री का ख़याल किस तरह मेरे पीछे पड़ गया था। इन दिनों मैं एक गुजराती उपन्यास पढ़ रही थी। इस उपन्यास में रोशनी की लकीर-जैसी एक लड़की थी-जीवी। एक मर्द उसको देखता है और उसे लगता है कि उसके जीवन की रात में तारों के बीज उग आए हैं। वह हाथ लम्बे करता है, पर तारे हाथ नहीं आते और वह निराश होकर जीवी से कहता है, “तुम मेरे गाँव में अपनी जाति के किसी आदमी से ब्याह कर लो। मुझे दूर से सूरत ही दिखती रहेगी।” उस दिन का सूरज जब जीवी देखता है, तो वह इस तरह लाल हो जाता है, जैसे किसी ने कुँवारी लड़की को छू लिया हो कहानी के धागे लम्बे हो जाते हैं, और जीवी के चेहरे पर दु:खों की रेखाएँ पड़ जाती हैं इस जीवी का ख़याल भी आजकल मेरे पीछे पड़ा हुआ था, पर मुझे खीज नहीं होती थीं, वे तो दु:खों की रेखाएँ थीं, वही रेखाएँ जो मेरे गीतों में थीं, और रेखाएँ रेखाओं में मिल जाती हैं पर यह दूसरी जिसके होठों पर हँसी की बूँदे थीं, केसर की तुरियाँ थीं।

दूसरे दिन मैंने अपने पाँवों को रोका कि मैं उससे तरकारी ख़रीदने नहीं जाऊँगी। चौकीदार से कहा कि यहाँ जब तरकारी बेचनेवाला आए तो मेरा दरवाज़ा खटखटाना दरवाजे पर दस्तक हुई। एक-एक चीज़ को मैंने हाथ लगाकर देखा। आलू-नरम और गड्डों वाले। फरसबीन-जैसे फलियों के दिल सूख गए हों। पालक-जैसे वह दिन-भर की धूल फाँककर बेहद थक गई हो। टमाटर-जैसे वे भूख के कारण बिलखते हुए सो गए हो। हरी मिर्चें-जैसे किसी ने उनकी साँसों में से खुशबू निकाल ली हो, मैंने दरवाज़ा बन्द कर लिया। और पाँव मेरे रोकने पर भी उस तरकारी वाली की ओर चल पड़े।

आज उसके पास उसका पति भी था। वह मंडी से तरकारी लेकर आया था और उसके साथ मिलकर तरकारियों को पानी से धोकर अलग-अलग रख रहा था और उनके भाव लगा रहा था। उसकी सूरत पहचानी-सी थी इसे मैंने कब देखा था, कहाँ देखा था- एक नई बात पीछे पड़ गई।
“बीबी जी, आप!”
“मैं पर मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।”
“इसे भी नहीं पहचाना? यह रत्नी!”
“माणकू रत्नी।” मैंने अपनी स्मृतियों में ढूँढ़ा, पर माणकू और रत्नी कहीं मिल नहीं रहे थे।
“तीन साल हो गए हैं, बल्कि महीना ऊपर हो गया है। एक गाँव के पास क्या नाम था उसका आपकी मोटर खराब हो गई थी।”
“हाँ, हुई तो थी।”
“और आप वहाँ से गुज़रते हुए एक ट्रक में बैठकर धुलिया आए थे, नया टायर ख़रीदने के लिए।”
“हाँ-हाँ।” और फिर मेरी स्मृति में मुझे माणकू और रत्नी मिल गए।

रत्नी तब अधखिली कली-जैसी थी और माणकू उसे पराए पौधे पर से तोड़ लाया था। ट्रक का ड्राइवर माणकू का पुराना मित्र था। उसने रत्नी को लेकर भागने में माणकू की मदद की थी। इसलिए रास्ते में वह माणकू के साथ हँसी-मज़ाक करता रहा।

रास्ते के छोटे-छोटे गाँवों में कहीं ख़रबूजे बिक रहे होते, कहीं ककड़ियाँ, कहीं तरबूज़! और माणकू का मित्र माणकू से ऊँची आवाज़ में कहता, “बड़ी नरम हैं, ककडियाँ ख़रीद ले। तरबूज तो सुर्ख लाल हैं और खरबूजा बिलकुल मिश्री है ख़रीदना नहीं है तो छीन ले वाह रे रांझे!”

‘अरे, छोड़ मुझे रांझा क्यों कहता है? रांझा साला आशिक था कि नाई था? हीर की डोली के साथ भैंसें हाँककर चल पड़ा। मैं होता न कहीं।’
‘वाह रो माणकू! तू तो मिर्ज़ा है मिर्ज़ा!’
‘मिर्ज़ा तो हूँ ही, अगर कहीं साहिबाँ ने मरवा न दिया तो!’ और फिर माणकू अपनी रत्नी को छेड़ता, ‘देख रत्नी, साहिबाँ न बनना, हीर बनना।’
‘वाह रे माणकू, तू मिर्ज़ा और यह हीर! यह भी जोड़ी अच्छी बनी!’ आगे बैठा ड्राइवर हँसा।

इतनी देर में मध्यप्रदेश का नाका गुज़र गया और महाराष्ट्र की सीमा आ गई। यहाँ पर हर एक मोटर, लॉरी और ट्रक को रोका जाता था। पूरी तलाशी ली जाती थी कि कहीं कोई अफ़ीम, शराब या किसी तरह की कोई और चीज़ तो नहीं ले जा रहा। उस ट्रक की भी तलाशी ली गई। कुछ न मिला और ट्रक को आगे जाने के लिए रास्ता दे दिया गया। ज्यों ही ट्रक आगे बढ़ा, माणकू बेतहाशा हँस दिया।
‘साले अफ़ीम खोजते हैं, शराब खोजते हैं। मैं जो नशे की बोतल ले जा रहा हूँ, सालों को दिखी ही नहीं।’
और रत्नी पहले अपने आप में सिकुड़ गई और फिर मन की सारी पत्तियों को खोलकर कहने लगी,
‘देखना, कहीं नशे की बोतल तोड़ न देना! सभी टुकड़े तुम्हारे तलवों में उतर जाएँगे।’
‘कहीं डूब मर!’
‘मैं तो डूब जाऊँगी, तुम सागर बन जाओ!’

मैं सुन रही थी, हँस रही थी और फिर एक पीड़ा मेरे मन में आई, ‘हाय री स्त्री, डूबने के लिए भी तैयार है, यदि तेरा प्रिय एक सागर हो!’
फिर धुलिया आ गया। हम ट्रक में से उतर गए और कुछ मिनट तक एक ख़याल मेरे मन को कुरेदता रहा- यह ‘रत्नी’ एक अधखिली कली-जैसी लड़की। माणकू इसे पता नहीं कहाँ से तोड़ लाया था। क्या इस कली को वह अपने जीवन में महकने देगा? यह कली कहीं पाँवों में ही तो नहीं मसली जाएगी?

पिछले दिनों दिल्ली में एक घटना हुई थी। एक लड़की को एक मास्टर वायलिन सिखाया करता था और फिर दोनों ने सोचा कि वे बम्बई भाग जाएँ। वहाँ वह गाया करेगी, वह वायलिन बजाया करेगा। रोज़ जब मास्टर आता, वह लड़की अपना एक-आध कपड़ा उसे पकड़ा देती और वह उसे वायलिन के डिब्बे में रखकर ले जाता। इस तरह लगभग महीने-भर में उस लड़की ने कई कपड़े मास्टर के घर भेज दिए और फिर जब वह अपने तीन कपड़ों में घर से निकली, किसी के मन में सन्देह की छाया तक न थी। और फिर उस लड़की का भी वही अंजाम हुआ, जो उससे पहले कई और लड़कियों का हो चुका था और उसके बाद कई और लड़कियों का होना था। वह लड़की बम्बई पहुँचकर कला की मूर्ती नहीं, कला की कब्र बन गई, और मैं सोच रही थी, यह रत्नी यह रत्नी क्या बनेगी?

आज तीन वर्ष बाद मैंने रत्नी को देखा। हँसी के पानी से वह तरकारियों को ताज़ा कर रही थी, ‘पालक एक आने गठ्ठी, टमाटर छह आने रत्तल और हरी मिर्चें एक आने ढेरी।’ और उसके चेहरे पर पालक की सारी कोमलता, टमाटरों का सारा रंग और हरी मिर्चों की सारी खुशबू पुती हुई थी।
जीवी के मुख पर दु:खों की रेखाएँ थीं – वहीं रेखाएँ, जो मेरे गीतों में थीं और रेखाएँ रेखाओं में मिल गई थीं।
रत्नी के मुख पर हँसी की बूँदे थीं- वह हँसी, जब सपने उग आएँ, तो ओस की बूँदों की तरह उन पत्तियों पर पड़ जाती है; और वे सपने मेरे गीतों के तुकान्त बनते थे।
जो सपना जीवी के मन में था, वही सपना रत्नी के मन में था। जीवी का सपना एक उपन्यास के आँसू बन गया और रत्नी का सपना गीतों के तुकान्त तोड़ कर आज उसकी झोली में दूध पी रहा था।

 

शाह की कंजरी –  कहानी
से अब नीलम कोई नहीं कहता था। सब शाह की कंजरी कहते थे।

नीलम को लाहौर हीरामंडी के एक चौबारे में जवानी चढ़ी थी। और वहां ही एक रियासती सरदार के हाथों पूरे पांच हजार में उसकी नथ उतरी थी। और वहां ही उसके हुस्न ने आग जला कर सारा शहर झुलसा दिया था। पर फिर वह एक दिन हीरा मंडी का रास्ता चौबारा छोड़ कर शहर के सबसे बड़े होटल फ्लैटी में आ गयी थी।

वही शहर था, पर सारा शहर जैसे रातों रात उसका नाम भूल गया हो, सबके मुंह से सुनायी देता था -शाह की कंजरी।

गजब का गाती थी। कोई गाने वाली उसकी तरह मिर्जे की सद नहीं लगा सकती थी। इसलिये चाहे लोग उसका नाम भूल गये थे पर उसकी आवाज नहीं भूल सके। शहर में जिसके घर भी तवे वाला बाजा था, वह उसके भरे हुए तवे जरूर खरीदता था। पर सब घरों में तवे की फरमायिश के वक्त हर कोई यह जरूर कहता था “आज शाह की कंजरी वाला तवा जरूर सुनना है।”

लुकी छिपी बात नहीं थी। शाह के घर वालों को भी पता था। सिर्फ पता ही नहीं था, उनके लिये बात भी पुरानी हो चुकी थी। शाह का बड़ा लड़का जो अब ब्याहने लायक था, जब गोद में था तो सेठानी ने जहर खाके मरने की धमकी दी थी, पर शाह ने उसके गले में मोतियों का हार पहना कर उससे कहा था, “शाहनिये! वह तेरे घर की बरकत है। मेरी आंख जोहरी की आंख है, तूने सुना हुआ नहीं है कि नीलम ऐसी चीज होता है, जो लाखों को खाक कर देता है और खाक को लाख बनाता है। जिसे उलटा पड़ जाये, उसके लाख के खाक बना देता है। और जिसे सीधा पड़ जाये उसे खाक से लाख बना देता है। वह भी नीलम है, हमारी राशि से मिल गया है। जिस दिन से साथ बना है, मैं मिट्टी में हाथ डालूं तो सोना हो जाती है।

“पर वही एक दिन घर उजाड़ देगी, लाखों को खाक कर देगी,” शाहनी ने छाती की साल सहकर उसी तरफ से दलील दी थी, जिस तरफ से शाह ने बत चलायी थी।
” मैं तो बल्कि डरता हूं कि इन कंजरियों का क्या भरोसा, कल किसी और ने सब्ज़बाग दिखाये, और जो वह हाथों से निकल गयी, तो लाख से खाक बन जाना है।” शाह ने फिर अपनी दलील दी थी।

और शाहनी के पास और दलील नहीं रह गयी थी। सिर्फ वक़्त के पास रह गयी थी, और वक़्त चुप था, कई बरसों से चुप था। शाह सचमुच जितने रुपये नीलम पर बहाता, उससे कई गुणा ज्यादा पता नहीं कहां कहां से बह कर उसके घर आ जाते थे। पहले उसकी छोटी सी दुकान शहर के छोटे से बाजार में होती थी, पर अब सबसे बड़े बाजार में, लोहे के जंगले वाली, सबसे बड़ी दुकान उसकी थी। घर की जगह पूरा महल्ला ही उसका था, जिसमें बड़े खाते पीते किरायेदार थे। और जिसमें तहखाने वाले घर को शाहनी एक दिन के लिये भी अकेला नहीं छोड़ती थी।

बहुत बरस हुए, शाहनी ने एक दिन मोहरों वाले ट्रंक को ताला लगाते हुए शाह से कहा था, ” उसे चाहे होटल में रखो और चाहे उसे ताजमहल बनवा दो, पर बाहर की बला बाहर ही रखो, उसे मेरे घर ना लाना। मैं उसके माथे नहीं लगूंगी।”

और सचमुच शाहनी ने अभी तक उसका मूंह नहीं देखा था। जब उसने यह बात कही थी, उसका बड़ा लड़का स्कूल में पढ़ता था, और अब वह ब्याहने लायक हो गया था, पर शाहनी ने ना उसके गाने वाले तवे घर में आने दिये, और ना घर में किसी को उसका नाम लेने दिया था।

वैसे उसके बेटे ने दुकान दुकान पर उसके गाने सुन रखे थे, और जने जने से सुन रखा था- “शाह की कंजरी। ”

बड़े लड़के का ब्याह था। घर पर चार महीने से दर्जी बैठे हुए थे, कोई सूटों पर सलमा काढ़ रहा था, कोई तिल्ला, कोई किनारी, और कोई दुप्पटे पर सितारे जड़ रहा था। शाहनी के हाथ भरे हुए थे – रुपयों की थैली निकालती, खोलती, फिर और थैली भरने के लिये तहखाने में चली जाती।

शाह के यार दोस्तों ने शाह की दोस्ती का वास्ता डाला कि लड़के के ब्याह पर कंजरी जरूर गंवानी है। वैसे बात उन्होंने ने बड़े तरीके से कही थी ताकी शाह कभी बल ना खा जाये, ” वैसे तो शाहजी कॊ बहुतेरी गाने नाचनेवाली हैं, जिसे मरजी हो बुलाओ। पर यहां मल्लिकाये तर्रन्नुम जरूर आये, चाहे मिरजे़ की एक ही ’सद’ लगा जाये।”
फ्लैटी होटल आम होटलों जैसा नहीं था। वहां ज्यादातर अंग्रेज़ लोग ही आते और ठहरते थे। उसमें अकेले अकेले कमरे भी थे, पर बड़े बड़े तीन कमरों के सेट भी। ऐसे ही एक सेट में नीलम रहती थी। और शाह ने सोचा – दोस्तों यारों का दिल खुश करने के लिये वह एक दिन नीलम के यहां एक रात की महफिल रख लेगा।

“यह तो चौबारे पर जाने वाली बात हुई,” एक ने उज्र किया तो सारे बोल पड़े, ” नहीं, शाह जी! वह तो सिर्फ तुम्हारा ही हक बनता है। पहले कभी इतने बरस हमने कुछ कहा है? उस जगह का नाम भी नहीं लिया। वह जगह तुम्हारी अमानत है। हमें तो भतीजे के ब्याह की खुशी मनानी है, उसे खानदानी घरानों की तरह अपने घर बुलाओ, हमारी भाभी के घर।”

बात शाह के मन भा गयी। इस लिये कि वह दोस्तों यारों को नीलम की राह दिखाना नहीं चाहता था (चाहे उसके कानों में भनक पड़ती रहती थी कि उसकी गैरहाजरी में कोई कोई अमीरजादा नीलम के पास आने लगा था।) – दूसरे इस लिये भी कि वह चाहता था, नीलम एक बार उसके घर आकर उसके घर की तड़क भड़क देख जाये। पर वह शाहनी से डरता था, दोस्तों को हामी ना भार सका।

दोस्तों यारों में से दो ने राह निकाली और शाहनी के पास जाकर कहने लगे, ” भाभी तुम लड़के की शादी के गीत नहीं गवांओगी? हम तो सारी खुशियां मनायेंगे। शाह ने सलाह की है कि एक रात यारों की महफिल नीलम की तरफ हो जाये। बात तो ठीक है पर हजारों उजड़ जायेंगे। आखिर घर तो तुम्हारा है, पहले उस कंजरी को थोड़ा खिलाया है? तुम सयानी बनो, उसे गाने बजाने के लिये एक दिन यहां बुला लो। लड़के के ब्याह की खुशी भी हो जायेगी और रुपया उजड़ने से बच जायेगा।”

शाहनी पहले तो भरी भरायी बोली, ” मैं उस कंजरी के माथे नहीं लगना चाहती,” पर जब दूसरों ने बड़े धीरज से कहा, ” यहां तो भाभी तुम्हारा राज है, वह बांदी बन कर आयेगी, तुम्हारे हुक्म में बधीं हुई, तुम्हारे बेटे की खुशी मनाने के लिये। हेठी तो उसकी है, तुम्हारी काहे की? जैसे कमीन कुमने आये, डोम मरासी, तैसी वह।”

बात शाहनी के मन भा गयी। वैसे भी कभी सोते बैठते उसे ख्याल आता था- एक बार देखूं तो सही कैसी है?

उसने उसे कभी देखा नहीं था पर कल्पना जरूर थी – चाहे डर कर, सहम कर, चहे एक नफरत से। और शहर में से गुजरते हुए, अगर किसी कंजरी को टांगे में बैठते देखती तो ना सोचते हुए ही सोच जाती – क्या पता, वही हो?

“चलो एक बार मैं भी देख लूं,” वह मन में घुल सी गयी, ” जो उसको मेरा बिगाड़ना था, बिगाड़ लिया, अब और उसे क्या कर लेना है! एक बार चन्दरा को देख तो लूं।”

शाहनी ने हामी भर दी, पर एक शर्त रखी – ” यहां ना शराब उड़ेगी, ना कबाब। भले घरों में जिस तरह गीत गाये जाते हैं, उसी तरह गीत करवाउंगी। तुम मर्द मानस भी बैठ जाना। वह आये और सीधी तरह गा कर चली जाये। मैं वही चार बतासे उसकी झोली में भी डाल दूंगी जो ओर लड़के लड़कियों को दूंगी, जो बन्ने, सहरे गायेंगी।”

“यही तो भाभी हम कहते हैं।” शाह के दोस्तों नें फूंक दी, “तुम्हारी समझदारी से ही तो घर बना है, नहीं तो क्या खबर क्या हो गुजरना था।”

वह आयी। शाहनी ने खुद अपनी बग्गी भेजी थी। घर मेहेमानों से भरा हुआ था। बड़े कमरे में सफेद चादरें बिछा कर, बीच में ढोलक रखी हुई थी। घर की औरतों नें बन्ने सेहरे गाने शुरू कर रखे थे….।

बग्गी दरवाजे पर आ रुकी, तो कुछ उतावली औरतें दौड़ कर खिड़की की एक तरफ चली गयीं और कुछ सीढ़ियों की तरफ….।

“अरी, बदसगुनी क्यों करती हो, सहरा बीच में ही छोड़ दिया।” शाहनी ने डांट सी दी। पर उसकी आवाज़ खुद ही धीमी सी लगी। जैसे उसके दिल पर एक धमक सी हुयी हो….।

वह सीढ़ियां चढ़ कर दरवाजे तक आ गयी थी। शाहनी ने अपनी गुलाबी साड़ी का पल्ला संवारा, जैसे सामने देखने के लिये वह साड़ी के शगुन वाले रंग का सहारा ले रही हो…।

सामने उसने हरे रंग का बांकड़ीवाला गरारा पहना हुआ था, गले में लाल रंग की कमीज थी और सिर से पैर तक ढलकी हुयी हरे रेशम की चुनरी। एक झिलमिल सी हुयी। शाहनी को सिर्फ एक पल यही लगा – जैसे हरा रंग सारे दरवाजे़ में फैल गया था।

फिर हरे कांच की चूड़ियों की छन छन हुयी, तो शाहनी ने देखा एक गोरा गोरा हाथ एक झुके हुए माथे को छू कर आदाब बजा़ रहा है, और साथ ही एक झनकती हुई सी आवाज़ – “बहुत बहुत मुबारिक, शाहनी! बहुत बहुत मुबारिक….”

वह बड़ी नाजुक सी, पतली सी थी। हाथ लगते ही दोहरी होती थी। शाहनी ने उसे गाव-तकिये के सहारे हाथ के इशारे से बैठने को कहा, तो शाहनी को लगा कि उसकी मांसल बांह बड़ी ही बेडौल लग रही थी…।
कमरे के एक कोने में शाह भी था। दोस्त भी थे, कुछ रिश्तेदार मर्द भी। उस नाजनीन ने उस कोने की तरफ देख कर भी एक बार सलाम किया, और फिर परे गाव-तकिये के सहारे ठुमककर बैठ गयी। बैठते वक्त कांच की चूड़िया फिर छनकी थीं, शाहनी ने एक बार फिर उसकी बाहों को देखा, हरे कांच की और फिर स्वभाविक ही अपनी बांह में पड़े उए सोने के चूड़े को देखने लगी….

कमरे में एक चकाचौध सी छा गयी थी। हरएक की आंखें जैसे एक ही तरफ उलट गयीं थीं, शाहनी की अपनी आंखें भी, पर उसे अपनी आंखों को छोड़ कर सबकी आंखों पर एक गुस्सा-सा आ गया…

वह फिर एक बार कहना चाहती थी – अरी बदशुगनी क्यों करती हो? सेहरे गाओ ना …पर उसकी आवाज गले में घुटती सी गयी थी। शायद ओरों की आवाज भी गले में घुट सी गयी थी। कमरे में एक खामोशी छा गयी थी। वह अधबीच रखी हुई ढोलक की तरफ देखने लगी, और उसका जी किया कि वह बड़ी जोर से ढोलक बजाये…..

खामोशी उसने ही तोड़ी जिसके लिये खामोशी छायी थी। कहने लगी, ” मैं तो सबसे पहले घोड़ी गाऊंगी, लड़के का ’सगन’ करुंगी, क्यों शाहनी?” और शाहनी की तरफ ताकती, हंसती हुई घोड़ी गाने लगी, “निक्की निक्की बुंदी निकिया मींह वे वरे, तेरी मां वे सुहागिन तेरे सगन करे….”

शाहनी को अचानक तस्सली सी हुई – शायद इसलिये कि गीत के बीच की मां वही थी, और उसका मर्द भी सिर्फ उसका मर्द था – तभी तो मां सुहागिन थी….

शाहनी हंसते से मुंह से उसके बिल्कुल सामने बैठ गयी -जो उस वक्त उसके बेटे के सगन कर रही थी…

घोड़ी खत्म हुई तो कमरे की बोलचाल फिर से लौट आयी। फिर कुछ स्वाभाविक सा हो गया। औरतों की तरफ से फरमाईश की गयी – “डोलकी रोड़ेवाला गीत।” मर्दों की तरफ से फरमाइश की गयी “मिरजे़ दियां सद्दां।”

गाने वाली ने मर्दों की फरमाईश सुनी अनसुनी कर दी, और ढोलकी को अपनी तरफ खींच कर उसने ढोलकी से अपना घुटना जोड़ लिया। शाहनी कुछ रौ में आ गयी – शायद इस लिये कि गाने वाली मर्दों की फरमाईश पूरी करने के बजाये औरतों की फरमाईश पूरी करने लगी थी….

मेहमान औरतों में से शायद कुछ एक को पता नहीं था। वह एक दूसरे से कुछ पूछ रहीं थीं, और कई उनके कान के पास कह रहीं थीं – “यही है शाह की कंजरी…..”

कहनेवालियों ने शायद बहुत धीरे से कहा था – खुसरफुसर सा, पर शाहनी के कान में आवाज़ पड़ रही थी, कानों से टकरा रही थी – शाह की कंजरी…..शाह की कंजरी…..और शाहनी के मूंह का रंग फीका पड़ गया।

इतने में ढोलक की आवाज ऊंची हो गयी और साथ ही गाने वाली की आवाज़, “सुहे वे चीरे वालिया मैं कहनी हां….” और शाहनी का कलेजा थम सा गया — वह सुहे चीरे वाला मेरा ही बेटा है, सुख से आज घोड़ी पर चढ़नेवाला मेरा बेटा…..

फरमाइश का अंत नहीं था। एक गीत खत्म होता, दूसरा गीत शुरू हो जाता। गाने वाली कभी औरतों की तरफ की फरमाईश पूरी करती, कभी मर्दों की। बीच बीच में कह देती, “कोई और भी गाओ ना, मुझे सांस दिला दो।” पर किसकी हिम्मत थी, उसके सामने होने की, उसकी टल्ली सी आवाज़ …..वह भी शायद कहने को कह रही थी, वैसे एक के पीछे झट दूसरा गीत छेड़ देती थी।

गीतों की बात और थी पर जब उसने मिरजे की हेक लगायी, “उठ नी साहिबा सुत्तिये! उठ के दे दीदार…” हवा का कलेजा हिल गया। कमरे में बैठे मर्द बुत बन गये थे। शाहनी को फिर घबराहट सी हुई, उसने बड़े गौर से शाह के मुख की तरफ देखा। शाह भी और बुतों सरीखा बुत बना हुआ था, पर शाहनी को लगा वह पत्थर का हो गया था….

शाहनी के कलेजे में हौल सा हुआ, और उसे लगा अगर यह घड़ी छिन गयी तो वह आप भी हमेशा के लिये बुत बन जायेगी….. वह करे, कुछ करे, कुछ भी करे, पर मिट्टी का बुत ना बने…..

काफी शाम हो गयी, महफिल खत्म होने वाली थी…..

शाहनी का कहना था, आज वह उसी तरह बताशे बांटेगी, जिस तरह लोग उस दिन बांटते हैं जिस दिन गीत बैठाये जाते हैं। पर जब गाना खत्म हुआ तो कमरे में चाय और कई तरह की मिठायी आ गयी…..

और शाहनी ने मुट्ठी में लपेटा हुआ सौ का नोट निकाल कर, अपने बेटे के सिर पर से वारा, और फिर उसे पकड़ा दिया, जिसे लोग शाह की कंजरी कहते थे।

“रहेने दे, शाहनी! आगे भी तेरा ही खाती हूं।” उसने जवाब दिया और हंस पड़ी। उसकी हंसी उसके रूप की तरह झिलमिल कर रही थी।

शाहनी के मुंह का रंग हल्का पड़ गया। उसे लगा, जैसे शाह की कंजरी ने आज भरी सभा में शाह से अपना संबंध जोड़ कर उसकी हतक कर दी थी। पर शाहनी ने अपना आप थाम लिया। एक जेरासा किया कि आज उसने हार नहीं खानी थी। वह जोर से हंस पड़ी। नोट पकड़ाती हुई कहने लगी, “शाह से तो तूने नित लेना है, पर मेरे हाथ से तूने फिर कब लेना है? चल आज ले ले…….”

और शाह की कंजरी नोट पकड़ती हुई, एक ही बार में हीनी सी हो गयी…..

कमरे में शाहनी की साड़ी का सगुनवाल गुलाबी रंग फैल गया…….
बृहस्पतिवार का व्रत कहानी

 

ज बृहस्पतिवार था, इसलिए पूजा को आज काम पर नहीं जाना था…
बच्चे के जागने की आवाज़ से पूजा जल्दी से चारपाई से उठी और उसने बच्चे को पालने में से उठाकर अपनी अलसायी-सी छाती से लगा लिया, ‘‘मन्नू देवता ! आज रोना नहीं, आज हम दोनों सारा दिन बहुत-सी बातें करेंगे…सारा दिन…।’’

यह सारा दिन पूजा को हफ़्ते में एक बार नसीब होता था। इस दिन वह मन्नू को अपने हाथों से नहलाती थी, सजाती थी, खिलाती थी और उसे कन्धे पर बिठाकर आसपास के किसी बगीचे में ले जाती थी।
यह दिन आया का नहीं, मां का दिन होता था…
आज भी पूजा ने बच्चे को नहला-धुलाकर और दूध पिलाकर जब चाबीवाले खिलौने उसके सामने रख दिए, तो बच्चे की किलकारियों से उसका रोम-रोम पुलकित हो गया…

चैत्र मास के प्रारम्भिक दिन थे। हवा में एक स्वाभाविक खुशबू थी, और आज पूजा की आत्मा में भी एक स्वाभाविक ममता छलक रही थी। बच्चा खेलते-खेलते थककर टांगों पर सिर रखकर ऊंघने लगा, तो उसे उठाकर गोदी में डालते हुए वह लोरियों जैसी बातें करने लगी–‘‘मेरे मन्नू देवता को फिर नींद आ गई…मेरा नन्हा-सा देवता…बस थोड़ा-सा भोग लगाया, और फिर सो गया…।’’

पूजा ने ममता से विभोर होकर मन्नू का सिर भी चूम लिया, आंखें भी, गाल भी, गरदन भी–और जब उसे उठाकर चारपाई पर सुलाने लगी तो मन्नू कच्ची नींद के कारण जागकर रोने लगा।
पूजा ने उसे उठाकर फिर कन्धे से लगा लिया और दुलारने लगी, ‘‘मैं कहीं नहीं जा रही, मन्नू ! आज मैं कहीं नहीं जाऊंगी…।’’
लगभग डेढ़ वर्ष के मन्नू को शायद आज भी यह अहसास हुआ था कि मां जब बहुत बार उसके सिर व माथे को चूमती है, तो उसके बाद उसे छोड़कर चली जाती है।

और कन्धे से कसकर चिपटे हुए मन्नू को वह हाथ से दुलारते हुए कहने लगी, ‘‘हर रोज़ तुम्हें छोड़कर चली जाती हूं न…जानते हो कहां जाती हूं ? मैं जंगल में से फूल तोड़ने नहीं जाऊंगी, तो अपने देवता की पूजा कैसे करूंगी ?’’
और पूजा के मस्तिष्क में बिजली के समान वह दिन कौंध गया जब एक ‘गेस्ट हाउस’ की मालकिन मैडम डी. ने उसे कहा था–‘‘मिसिज़ नाथ। यहां किसी लड़की का असली नाम किसी को नहीं बताया जाता। इसलिए तुम्हें जो भी नाम पसन्द हो, रख लो।’’

और उस दिन उसके मुंह से निकला था–‘‘मेरा नाम पूजा होगा।’’ गेस्ट हाउसवाली मैडम डी. हंस पड़ी थी–‘‘हां, पूजा ठीक है, पर किस मन्दिर की पूजा ?’’
और उसने कहा था–‘‘पेट के मन्दिर की।’’

मां के गले से लगी बांहों ने जब बच्चे की आंखों में इत्मीनान की नींद भर दी, तो पूजा ने उसे चारपाई पर लिटाते हुए, पैरों के बल चारपाई के पास बैठकर अपना सिर उसकी छाती के निकट, चारपाई की पाटी पर रख दिया और कहने लगी–‘‘क्या तुम जानते हों, मैंने अपने पेट को उस दिन मन्दिर क्यों कहा था ? जिस मिट्टी में से किसी देवता की मूर्ति मिल जाए, वहां मन्दिर बन जाता है–तू मन्नू देवता मिल गया तो मेरा पेट मन्दिर बन गया…।’’ और मूर्ति को अर्घ्य देनेवाले जल के समान पूजा की आंखों में पानी भर आया, ‘‘मन्नू, मैं तुम्हारे लिए फूल चुनने जंगल में जाती हूं। बहुत बड़ा जंगल है, बहुत भयानक, चीतों से भरा हुआ, भेड़ियों से भरा हुआ, सांपों से भरा हुआ…।’’

और पूजा के शरीर का कम्पन, उसकी उस हथेली में आ गया, जो मन्नू की पीठ पर पड़ी थी…और अब वह कम्पन शायद हथेली में से मन्नू की पीठ में भी उतर रहा था।
उसने सोचा–मन्नू जब बड़ा हो जाएगा, जंगल का अर्थ जान लेगा, तो मां से बहुत नफ़रत करेगा–तब शायद उसके अवचेतन मन में से आज का दिन भी जागेगा, और उसे बताएगा कि उसकी मां किस तरह उसे जंगल की कहानी सुनाती थी–जंगल के चीतों की, जंगल के भेड़ियों की और जंगल के सांपों की–तब शायद…उसे अपनी मां की कुछ पहचान होगी। पूजा ने राहत और बेचैनी का मिला-जुला सांस लिया। उसे अनुभव हुआ जैसे उसने अपने पुत्र के अवचेतन मन में अपने दर्द के एक कण को अमानत की तरह रख दिया हो…

पूजा ने उठकर अपने लिए चाय का एक गिलास बनाया और कमरे में लौटते हुए कमरे की दीवारों को ऐसे देखने लगी जैसे वह उसके व उसके बेटे के चारों ओर बनी हुई किसी की बहुत ही प्यारी बांहें हों…उसे उसके वर्तमान से भी छिपाकर बैठी हुई…

पूजा ने एक नज़र कमरे के उस दरवाज़े की तरफ़ देखा–जिसके बाहर उसका वर्तमान बड़ी दूर तक फैला हुआ था…
शहर के कितने ही गेस्ट हाउस, एक्सपोर्ट के कितने ही कारखाने एअर-लाइन्स के कितने ही दफ़्तर और साधारण कितने ही कमरे थे, जिनमें उसके वर्तमान का एक-एक टुकड़ा पड़ा हुआ था…
परन्तु आज बृहस्पतिवार था–जिसने उसके व उसके वर्तमान के बीच में एक दरवाज़ा बन्द कर लिया था।
जंगली बूटी  – कहानी

 

अंगूरी, मेरे पड़ोसियों के पड़ोसियों के पड़ोसियों के घर, उनके बड़े ही पुराने नौकर की बिलकुल नयी बीवी है। एक तो नयी इस बात से कि वह अपने पति की दूसरी बीवी है, सो उसका पति ‘दुहाजू’ हुआ। जू का मतलब अगर ‘जून’ हो तो इसका मतलब निकला ‘दूसरी जून में पड़ा चुका आदमी’, यानी दूसरे विवाह की जून में, और अंगूरी क्योंकि अभी विवाह की पहली जून में ही है, यानी पहली विवाह की जून में, इसलिए नयी हुई। और दूसरे वह इस बात से भी नयी है कि उसका गौना आए अभी जितने महीने हुए हैं, वे सारे महीने मिलकर भी एक साल नहीं बनेंगे।

पाँच-छह साल हुए, प्रभाती जब अपने मालिकों से छुट्टी लेकर अपनी पहली पत्नी की ‘किरिया’ करने के लिए गाँव गया था, तो कहते हैं कि किरियावाले दिन इस अंगूरी के बाप ने उसका अंगोछा निचोड़ दिया था। किसी भी मर्द का यह अँगोछा भले ही पत्नी की मौत पर आंसुओं से नहीं भीगा होता, चौथे दिन या किरिया के दिन नहाकर बदन पोंछने के बाद वह अँगोछा पानी से ही भीगा होता है, इस पर साधारण-सी गाँव की रस्म से किसी और लड़की का बाप उठकर जब यह अँगोछा निचोड़ देता है तो जैसे कह रहा होता है—‘‘उस मरनेवाली की जगह मैं तुम्हें अपनी बेटी देता हूँ और अब तुम्हें रोने की ज़रूरत नहीं, मैंने तुम्हारा आँसुओं भीगा हुआ अँगोछा भी सुखा दिया है।’’

इस तरह प्रभाती का इस अंगूरी के साथ दूसरा विवाह हो गया था। पर एक तो अंगूरी अभी आयु की बहुत छोटी थी, और दूसरे अंगूरी की माँ गठिया के रोग से जुड़ी हुई थी इसलिए भी गौने की बात पाँच सालों पर जा पड़ी थी।…फिर एक-एक कर पाँच साल भी निकल गये थे। और इस साल जब प्रभाती अपने मालिकों से छु्ट्टी लेकर अपने गाँव गौना लेने गया था तो अपने मालिकों को पहले ही कह गया था कि या तो वह बहू को भी साथ लाएगा और शहर में अपने साथ रखेगा, या फिर वह भी गांव से नहीं लौटेगा। मालिक पहले तो दलील करने लगे थे कि एक प्रभाती की जगह अपनी रसोई में से वे दो जनों की रोटी नहीं देना चाहते थे। पर जब प्रभाती ने यह बात कही कि वह कोठरी के पीछेवाले कच्ची जगह को पोतकर अपना चूल्हा बनाएगी, अपना पकाएगी, अपना खाएगी तो उसके मालिक यह बात मान गये थे। सो अंगूरी शहर आ गयी थी। चाहे अंगूरी ने शहर आकर कुछ दिन मुहल्ले के मर्दों से तो क्या औरतों से भी घूँघट न उठाया था, पर फिर धीरे-धीरे उसका घूँघट झीना हो गया था। वह पैरों में चाँदी के झाँझरें पहनकर छनक-छनक करती मुहल्ले की रौनक बन गयी थी। एक झाँजर उसके पाँवों में पहनी होती, एक उसकी हँसी में। चाहे वह दिन के अधिकरतर हिस्सा अपनी कोठरी में ही रहती थी पर जब भी बाहर निकलती, एक रौनक़ उसके पाँवों के साथ-साथ चलती थी।

‘‘यह क्या पहना है, अंगूरी ?’’
‘‘यह तो मेरे पैरों की छैल चूड़ी है।’’
‘‘और यह उँगलियों में ?’’
‘‘यह तो बिछुआ है।’’
‘‘और यह बाहों में ?’’
‘‘यह तो पछेला है।’’
‘‘और माथे पर ?’’
‘‘आलीबन्द कहते हैं इसे।’’
‘‘आज तुमने कमर में कुछ नहीं पहना ?’’

‘‘तगड़ी बहुत भारी लगती है, कल को पहनूंगी। आज तो मैंने तौक भी नहीं पहना। उसका टाँका टूट गया है कल शहर में जाऊँगी, टाँका भी गढ़ाऊँगी और नाक कील भी लाऊँगी। मेरी नाक को नकसा भी था, इत्ता बड़ा, मेरी सास ने दिया नहीं।’’
इस तरह अंगूरी अपने चाँदी के गहने एक नख़रे से पहनती थी, एक नखरे से दिखाती थी।

पीछे जब मौसम फिरा था, अंगूरी का अपनी छोटी कोठरी में दम घुटने लगा था। वह बहुत बार मेरे घर के सामने आ बैठती थी। मेरे घर के आगे नीम के बड़े-बड़े पेड़ हैं, और इन पेड़ों के पास ज़रा ऊँची जगह पर एक पुराना कुआँ है। चाहे मुहल्ले का कोई भी आदमी इस कुएँ से पानी नहीं भरता, पर इसके पार एक सरकारी सड़क बन रही है और उस सड़क के मज़दूर कई बार इस कुएँ को चला लेते हैं जिससे कुएँ के गिर्द अकसर पानी गिरा होता है और यह जगह बड़ी ठण्डी रहती है।

‘‘क्या पढ़ती हो बीबीजी ?’’ एक दिन अंगूरी जब आयी, मैं नीम के पेड़ों के नीचे बैठकर एक किताब पढ़ रही थी ।
‘‘तुम पढ़ोगी ?’’
‘‘मेरे को पढ़ना नहीं आता।’’
‘‘सीख लो।’’
‘‘ना।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘औरतों को पाप लगता है पढ़ने से।’’
‘‘औरतों को पाप लगता है, मर्द को नहीं लगता ?’’
‘‘ना, मर्द को नहीं लगता ?’’
‘‘यह तुम्हें किसने कहा है ?’
‘‘मैं जानती हूँ।’’
फिर तो मैं पढ़ती हूँ मुझे पाप लगेगा ?’’
‘‘सहर की औरत को पाप नहीं लगता, गांव की औरत को पाप लगता है।’’

मैं भी हँस पड़ी और अंगूरी भी। अंगूरी ने जो कुछ सीखा-सुना हुआ था, उसमें कोई शंका नहीं थी, इसलिए मैंने उससे कुछ न कहा। वह अगर हँसती-खेलती अपनी जिन्दगी के दायरे में सुखी रह सकती थी, तो उसके लिए यही ठीक था। वैसे मैं अंगूरी के मुँह की ओर ध्यान लगाकर देखती रही। गहरे साँवले रंग में उसके बदन का मांस गुथा हुआ था। कहते हैं—औरत आंटे की लोई होती है। पर कइयों के बदन का मांस उस ढीले आटे की तरह होता है जिसकी रोटी कभी भी गोल नहीं बनती, और कइयों के बदन का मांस बिलकुल ख़मीरे आटे जैसा, जिसे बेलने से फैलाया नहीं जा सकता। सिर्फ़ किसी-किसी के बदन का मांस इतना सख़्त गुँथा होता है कि रोटी तो क्या चाहे पूरियाँ बेल लो।…मैं अंगूरी के मुँह की ओर देखती रही, अंगूरी की छाती की ओर, अंगूरी की पिण्डलियों की ओर …..वह इतने सख़्त मैदे की तरह गुथी हुई थी कि जिससे मठरियाँ तली जा सकती थीं और मैंने इस अंगूरी का प्रभाती भी देखा हुआ था, ठिगने क़द का, ढलके हुए मुँह का, कसोरे जैसा और फिर अंगूरी के रूप की ओर देखकर उसके ख़ाविन्द के बारे में एक अजीब तुलना सूझी कि प्रभाती असल में आंटे की इस घनी गुथी लोई को पकाकर खाने का हक़दार नहीं—वह इस लोई की ढककर रखने वाला कठवत है।….इस तुलना से मुझे खुद ही हंसी आ गई। पर मैंने अंगूरी को इस तुलना का आभास नहीं होने देना चाहती थी। इसलिए उससे मैं उसके गाँव की छोटी-छोटी बातें करने लगी।

माँ-बाप की, बहन-भाइयों की, और खेतों-खलिहानों की बातें करते हुए मैंने उससे पूछा, ‘‘अंगूरी, तुम्हारे गांव में शादी कैसे होती है ?’’
‘‘लड़की छोटी-सी होती है। पाँच-सात साल की, जब वह किसी के पाँव पूज लेती है।’’
‘‘कैसे पूजती है पाँव ?’’
‘‘लड़की का बाप जाता है, फूलों की एक थाली ले जाता है, साथ में रुपये, और लड़के के आगे रख देता है।’’
‘‘यह तो एक तरह से बाप ने पाँव पूज लिये। लड़की ने कैसे पूजे ?’’
‘‘लड़की की तरफ़ से तो पूजे।’’
‘‘पर लड़की ने तो उसे देखा भी नहीं ?’’
‘‘लड़कियाँ नहीं देखतीं।’’
‘‘लड़कियाँ अपने होने वाला ख़ाविन्द को नहीं देखतीं।’’
‘‘ना।’’
‘‘कोई भी लड़की नहीं देखती ?’’
‘‘ना।’’

पहले तो अंगूरी ने ‘ना’ कर दी पर फिर कुछ सोच-सोचकर कहने लगी, ‘‘जो लड़कियाँ प्रेम करती हैं, वे देखती हैं।’’
‘‘तुम्हारे गाँव में लड़कियाँ प्रेम करती हैं ?’’
‘‘कोई-कोई।’’
‘‘जो प्रेम करती हैं, उनको पाप नहीं लगता ?’’ मुझे असल में अंगूरी की वह बात स्मरण हो आयी थी कि औरत को पढ़ने से पाप लगता है। इसलिए मैंने सोचा कि उस हिसाब से प्रेम करने से भी पाप लगता होगा।
‘‘पाप लगता है, बड़ा पाप लगता है।’’ अंगूरी ने जल्दी से कहा।
‘‘अगर पाप लगता है तो फिर वे क्यों प्रेम करती हैं ?’’
‘‘जे तो…बात यह होती है कि कोई आदमी जब किसी की छोकरी को कुछ खिला देता है तो वह उससे प्रेम करने लग जाती है।’’

‘‘कोई क्या खिला देता है उसको ?’’
‘‘एक जंगली बूटी होती है। बस वही पान में डालकर या मिठाई में डाल कर खिला देता है। छोकरी उससे प्रेम करने लग जाती है। फिर उसे वही अच्छा लगता है, दुनिया का और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘सच ?’’
‘‘मैं जानती हूँ, मैंने अपनी आँखों से देखा है।’’
‘‘किसे देखा था ?’’
‘‘मेरी एक सखी थी। इत्ती बड़ी थी मेरे से।’’
‘‘फिर ?’’

‘‘फिर क्या ? वह तो पागल हो गयी उसके पीछे। सहर चली गयी उसके साथ।’’
‘‘यह तुम्हें कैसे मालूम है कि तेरी सखी को उसने बूटी खिलायी थी ?’’
‘‘बरफी में डालकर खिलायी थी। और नहीं तो क्या, वह ऐसे ही अपने माँ-बाप को छोड़कर चली जाती ? वह उसको बहुत चीज़ें लाकर देता था। सहर से धोती लाता था, चूड़ियाँ भी लाता था शीशे की, और मोतियों की माला भी।’’
‘‘ये तो चीज़ें हुईं न ! पर यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि उसने जंगली बूटी खिलायी थी !’’
‘‘नहीं खिलायी थी तो फिर वह उसको प्रेम क्यों करने लग गयी ?’’
‘‘प्रेम तो यों भी हो जाता है।’’
‘‘नहीं, ऐसे नहीं होता। जिससे माँ-बाप बुरा मान जाएँ, भला उससे प्रेम कैसे हो सकता है ?’’
‘‘तूने वह जंगली बूटी देखी है ?’’

‘‘मैंने नहीं देखी। वो तो बड़ी दूर से लाते हैं। फिर छिपाकर मिठाई में डाल देते हैं, या पान में डाल देते हैं। मेरी माँ ने तो पहले ही बता दिया था कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खाना।’’
‘‘तूने बहुत अच्छा किया कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खायी। पर तेरी उस सखी ने कैसे खा ली ?’’
‘‘अपना किया पाएगी।’’
‘‘किया पाएगी।’’ कहने को तो अंगूरी ने कह दिया पर फिर शायद उसे सहेली का स्नेह याद आ गया या तरस आ गया, दुखे मन से कहने लगी, ‘‘बावरी हो गयी थी बेचारी ! बालों में कंघी भी नहीं लगाती थी। रात को उठ-उठकर गाती थी।’’
‘‘क्या गाती थी ?’’

‘‘पता नहीं, क्या गाती थी। जो कोई जड़ी बूटी खा लेती है, बहुत गाती है। रोती भी बहुत है।’’
बात गाने से रोने पर आ पहुँची थी। इसलिए मैंने अंगूरी से और कुछ न पूछा।
और अब थोड़े ही दिनों की बात है। एक दिन अंगूरी नीम के पेड़ के नीचे चुपचाप मेरे पास आ खड़ी हुई। पहले जब अंगूरी आया करती थी तो छन-छन करती, बीस गज़ दूर से ही उसके आने की आवाज़ सुनाई दे जाती थी, पर आज उसके पैरों की झाँझरें पता नहीं कहाँ खोयी हुई थीं। मैंने किताब से सिर उठाया और पूछा, ‘‘क्या बात है, अंगूरी ?’’
अंगूरी पहले कितनी ही देर मेरी ओर देखती रही, फिर धीरे से कहने लगी, ‘‘बीबीजी, मुझे भी पढ़ना सिखा दो।’’
‘‘क्या हुआ अंगूरी ?’’
दो खिड़कियाँ – कहानी

 

मारतों-जैसी इमारत थी, पाँच मंजिलोंवाली, जैसी और, वैसी वह। और जैसे औरों में पन्द्रह-पन्द्रह घर थे, वैसे ही, उसमें भी। बाहर से कुछ भी भिन्न नहीं था, सिर्फ अंदर से….
‘‘यह जो एक-सा दिखते हुए भी एक-सा नहीं होता, यह….’’डाँका इस ‘यह’ के आगे खाली जगह को देखने लगती…
‘‘खाली जगह का क्या होता है, उसे जब तक चाहे देखते रहो….पर जो खाली दिखता है, क्या सचमुच ही खाली होता है…’’ और डाँका को लगता जैसे ऐसी बहुत-सी बातें थीं जिनके शब्द उनके पास रह गए थे और अर्थ उस खाली जगह चले गए थे….

आज भी डाँका अपने बड़े कमरे की एक-एक चीज़ को देखती हुई शब्दों को ढूँढ़ने लगी, ‘‘न सही अर्थ, शब्द ही सही, पर वे भी कहाँ हैं ?’’
डाँका के बड़े कमरे में दो खिड़कियाँ थीं। आगेवाली खिड़की की तरफ बड़ी सड़क थी, वहाँ बड़ी रात तक लोग आते-जाते रहते थे। पर पीछे की खिड़की की तरफ एक जंगल था, जिसके पेड़ कहीं आते-जाते नहीं थे। और डाँका दोनों खिड़कियों को देखते-देखते रो-सी पड़ती, ‘‘लगता है शब्द आगेवाली खिड़की में से निकलकर बाहर बड़ी सड़क पर चले गए हैं, और अर्थ पीछे की खिड़की में से निकलकर बाहर जंगल में चले गए….’’

और उन दोनों खिड़कियों के बीच जो जगह थी, डाँका को लगा—वह दो देशों की सरहदों के बीच छोड़ी गई थोड़ी-सी जगह थी, जहाँ वह कई वर्षों से खड़ी थी। बड़ी अकेली थी, पर वर्षों से वहीं खड़ी थी। उसे ख्याल आया कि वह कभी इधर की या उधर की सरहद पार कर किसी एक तरफ क्यों नहीं चली गई थी ? पर उसे लगा—उसके पाँव जैसे वर्षों से हिलते नहीं थे। और वह हमेशा वहीं की वहीं खड़ी रही थी।
आगे की खिड़की में से बड़ा शोर आता था—लोगों के पाँव, ट्रामों के पहिए—जैसे शब्दों का खड़ाक होता है, पर पीछे की खिड़की में से कोई खड़ाक नहीं आता था—जैसे अर्थों का कोई खड़ाक नहीं होता, और सिर्फ पेड़ों के पत्तों की तरह चुपचाप उग आते हैं, और चुपचाप झड़ जाते हैं।

कमरे की चीज़ें भी वैसी ही थीं, जैसी वह आप। एक गहरी लाल मखमल का, शाही किस्म का दीवान था, जिसके ऊँचे बाजुओं पर सोने के रंग का पत्तर चढ़ा हुआ था। एक तरफ काली और चमकती हुई लकड़ी का मेज था, जिस पर नक्काशी का काम किया हुआ था। एक तरफ अलमारी थी, जिसमें लम्बी गर्दन वाली काँच की सुराहियाँ थीं, नीले फूल से चित्रित प्लेटें थीं, और चाँदी के काँटे और चाँदी के चम्मच थे। तीनों दीवारों पर आयल पेंट की तीन बड़ी तस्वीरें थीं, जिनके बड़े-बड़े चौखट सोने के रंग के पत्तरों से मढ़े हुए थे। और इस बड़े कमरे के दूसरे कोने में रखा खाना खानेवाला एक बहुत बड़ा मेज था, जिसके गिर्द मखमल की, ऊँची पीठवाली, आठ कुर्सियाँ थीं। इसी बड़े कमरे में से एक दरवाजा एक छोटे कमरे में खुलता था, जिसमें एक पलँग था जिस पर रेशम की एक बहुत बड़ी शानदार चादर बिछी हुई थी। उसके दोनों तरफ रखी हुई पीतल, की तिपाइयों पर मीनाकारी की हुई थी। इसी कमरे की एक दीवार के साथ किताबों की अलमारी थी, जिसके खानों में बड़ी मँहगी जिल्दोंवाली किताबें चुनी हुई थीं।

इस सबकुछ की उमर भी डाँका जितनी थी—क्योंकि डाँका के बाप ने बताया था कि उसने यह सब डाँका के जन्म पर खरीदा था। और अब जैसे डाँका की जवानी ढल गई थी, इन चीजों की चमक-दमक भी ढल गई थी—सोने के रंग के पत्तर बुझ गए थे, मखमल फीका पड़ गया था।
ये चीज़ें भी डाँका की तरह बड़ी अकेली थीं—वह मेज पर खाना खाने बैठती तो आठ में से सात कुर्सियाँ खाली रह जातीं। नीले फूलोंवाली प्लेटों में से सिर्फ एक पानी से धुलती। चाँदी के चम्मचों में से सिर्फ एक चम्मच का इस्तेमाल होता। और रेशमी चादरवाले बड़े पलँग का सिर्फ एक कोना किसी जिंदा आदमी की साँसें सुनता।
आज पीछे की खिड़की में खड़े-खड़े डाँका को वह वक्त याद आ गया—जब ये सब-की-सब चीजें कहीं अलोप हो गई थीं। उसे, उसकी माँ की, और उसके बाप को, बागियों ने आधी रात को उनके घर से निकाल दिया था, घर और घर की एक-एक चीज़ छीन ली थी। फिर उन तीनों को एक कैम्प में रखा गया था, जहाँ से वे एक दिन उसके बाप को वहाँ ले गए थे जहाँ से वह कभी वापस नहीं आया था। और माँ पगलाई-सी मांस की एक गठरी बन गई थी। तब डाँका—एक कुँआरी कन्या….

उसका कौमार्य, डाँका को लगा, एक मर्द ने नहीं, राजनीति की एक घटना ने भंग किया था : राज्य बदला और राज्य का प्रबंध बदला। किसी का किसी चीज़ पर कोई हक नहीं रह गया था। किसी का किसी तरह के एतराज पर कोई अधिकार नहीं रह गया था। काम भी वही करना होना था, जिसका हुक्म मिले, सोचना भी वही होता था जिसका फरमान हो। डाँका को उसके बाप ने तीन जुबानों की तालीम दी थी—एक अपने देश की जुबान, एक फ्रैंच और एक जर्मन—। इतनी तालीम किसी विरले के पास थी, इसलिए नई राजनीति को उसकी जरूरत थी। और डाँका ने जब उन जुबानों में वही लिखना शुरू किया, जिसका उसे हुक्म मिला था—तो उसे लगा—जैसे सरकारी हुक्म ने एक उचक्के मर्द की तरह उसका कौमार्य भंग कर दिया था।

बाप का कत्ल हुआ था, पर डाँका ने कत्ल होते अपनी आँखों से नहीं देखा था।
माँ जिस तरह से जी रही थी, उसे तब आँखों से देखना ऐसा था जैसे कोई रोज़ किसी को तिल-तिल कत्ल होते देखे। माँ चारों तरफ देखा करती थी पर पहचानती कुछ नहीं थी। कभी डाँका का हाथ पकड़कर दूर तक देखते हुए पूछा करती, ‘‘हम कहाँ आ गए हैं ? हमारा शहर कहाँ गया ? यह किसका घर है ?’’ तो डाँका रोने-रोने को हो उठती थी…
और जब कुछ शांति सी हुई थी, डाँका को रहने के लिए यह घर मिला था, तब डाँका को एक ख्याल आया था—उसने ऊँची पदवी के अधिकारियों की मिन्नत की थी कि वह पहले से भी ज्यादा उनके हुक्म में रहेगी सिर्फ अगर कभी उसकी खिदमतों के बदले में से उसे कुछ वह सामान लौटा दिया जाए, जो कभी उसके बाप के वक्त घर में हुआ करता था।
डाँका की यह दरख्वास्त मंजूर हो गई थी और डाँका के इस ख्याल ने सचमुच ही उसकी मदद की थी—माँ की आँखों में कुछ पहचान लौट आई थी। कई बार वह उठकर मेजों की कुर्सियों को खुद पोंछने लगती थी। और फिर उसने यह पूछना छोड़ दिया था कि यह घर किसका था।

सो डाँका के घर में कुछ वही चीज़े थीं, जो एक दिन अलोप भी हुई थीं और प्रकट भी।
‘‘पर,’’ डाँका सोचा करती, ‘‘जो कुछ ख़्यालों और सपनों में से अलोप हो गया है, वह ?….’’ और डाँका उस ‘वह’ के आगे की खाली जगह को कितनी-कितनी देर तक घूरती रहती…

[2]

डाँका ने मेज की एक दराज खोली, इस दराज में वह कुछ सिगरेट रखा करती थी, जो उन बोझिल पलों में पिया करती थी—जब उसके प्राण, सिगरेट के धुएँ की तरह, एक धुआँ-सा बन हवा में घुल जाना चाहते थे…
उसे वह दिन भी याद था, जब उसने पहला सिगरेट भी पिया था। एक दिन माँ पलँग की रेशमी चादर को पलँग पर बिछा रही थी कि उसे अचानक याद हो आया था, ‘‘डाँका ! यह चादर तुम्हारे पिता चीन से खरीदकर लाए थे, देखो मैंने उसे कितना सँभालकर रखा है।’’
जवाब में डाँकी की आवाज काँप गई थी, उसे खौफ-सा हुआ था कि अभी माँ को अपने मर्द की याद आ जाएगी और वह फिर बैठी-बैठी रोने लगेगी। पहले भी कई बार उसे बैठे-बैठे कुछ हो जाया करता था, पर गनीमत यह थी कि उसकी माँ को यह नहीं पता था कि उसका मर्द कत्ल हो चुका था। उसके अचानक गुम हो जाने के सदमे ने उसके होश कुछ इस तरह छीन लिए थे कि उसने खुद ही सोचा और खुद ही विश्वास बना लिया कि उसका मर्द किसी दूर देश में तिजारत करने के लिए चला गया था, पर उस दिन डाँका को लगा—माँ के होश लौट रहे थे, घर की चीजों ने उसकी कुछ पहचान लौटा दी थी, अगर उसे कैंप के दिनोंवाली लोगों की खुसर-पुसर याद हो आई…

डाँका ने उसका ध्यान चीज़ों में ही लगाए रखने के लिए जल्दी से पूछा था, ‘‘माँ, यह इतना खूबसूरत पलँग कहाँ से बनवाया था ?’’
‘‘तुम्हारे पिता एक तस्वीरों वाली किताब लाए थे, मालूम नहीं कहाँ से, उसमें इस पलँग का नमूना था….’’
‘‘कुर्सियों का नमूना भी उसमें था ?’’
‘‘हाँ, कुर्सियों का भी…ऐसी रंगीली तस्वीरें थीं, जैसे कुर्सियों पर सचमुच ही मखमली लगी हुई हो…’’
‘‘और माँ, ऐसी प्लेटें भी तो किसी और के पास नहीं…’’
ये तो वे फ्रांस से लाए थे, देखो मैंने इनमें से एक भी नहीं टूटने दी, अभी तक पूरी बारह हैं, गिनो तो भला…’’
डाँका चाहती थी कि माँ का ध्यान कहीं लगा रहे, भले ही प्लेटें और चम्मच गिनने में ही। पर उसे उसमें भी कठिनाई-सी अनुभव होती थी जब माँ को कुछ ऐसी ही चीजें याद आ जाती थीं, जो अब वहाँ नहीं थीं। एक दिन तो माँ ने मोतियों की एक कंघी के लिए सारा दिन मुसीबत किए रखी थी—एक-एक चीज़ खोलती और रखती और वह कंघी को ऐसे ढूँढ़ रही थी जैसे सुबह वह खुद ही कहीं रखकर भूल गई हो।

पर उस दिन माँ को किसी और चीज़ की याद नहीं आई थी। डाँका कुछ आश्वस्त हो चली थी कि अचानक माँ ने मेज़ की एक दराज़ खोलते हुए पूछा था :
‘‘अरी डाँका, तुम्हारे पिता जी का यहाँ खत पड़ा हुआ था, कहाँ गया ?’’
‘‘खत….’’ डाँका चौंक उठी।
‘‘कल तुम्हारे पिता का खत आया था कि अब वह बड़ी जल्दी आ जाएगा, मैंने कल तुम्हें बताया नहीं था ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘फिर खुशी में भूल गई हूँगी ? मैंने यहाँ मेज की दराज में रखा था…’’
डाँका को लगा—जैसे माँ को रात कोई सपना आया हो।
‘‘बोलती क्यों नहीं ? तुमने लिया है खत ?’’ मैं पूछ रही थी, पर डाँका से कुछ बोला नहीं जा रहा था।
माँ फिर खुद ही पूछ रही थी, ‘‘पैरिस से आया था ना ?’’ और खुद ही दलीलों में पड़कर कह रही थी, ‘‘वहाँ से इटली ना चला जाए, अगर इटली चला गया…’’

‘‘इटली….’’ डाँका ने माँ का ध्यान दूसरी तरफ लगाने के लिए धीरे-से कहा, ‘‘माँ, तुम कभी इटली गई हो ?’’
‘‘नहीं, पर मुझे यह पता है कि इटली गया मर्द जल्दी नहीं लौटता। कई तो लौटते ही नहीं। क्या पता तुम्हारे पिता भी….’’ और माँ कुछ ऐसी दलीलों में पड़ गई थी कि वह खड़ी नहीं रह सकी थी। वह पलँग की एक बाँही पर गुमसुम-सी बैठ गई थी।
डाँका के लिए माँ की यह हालत भी बुरी थी, जब वह पत्थर सी हो जाया करती थी। उसने माँ को एक असीम चुप्पी से बचाने के लिए पूछा, ‘‘पर माँ, लोग इटली जाकर लौटते क्यों नहीं ?’’
माँ कितनी ही देर उसके मुँह की तरफ देखती रही, फिर हँस-सी पड़ी, ‘‘मर्द किसी देश भी जाए, उसकी औरत डरती नहीं, पर अगर इटली जाए तो औरत को उसका भरोसा नहीं रहता…’’
‘‘पर क्यों ?’’ डाँका भी हँस-सी पड़ी थी।

‘‘तुम तो पगली हो,’’ माँ को यह बात बताने में शर्म-सी आ रही थी, पर फिर वह संकोच में कहने लगी थी, ‘‘इटली की औरतें मर्दों पर जादू कर देती हैं।…’’
और फिर माँ ने एक गहरी साँस लेकर कहा था, ‘‘हाय रे ! वह कहीं इटली न चला जाए ! फिर मैं उमर-भर यहाँ इंतजार करती रहूँगी…वह नहीं आएगा…’’
उस दिन अकेले बैठकर डाँका ने जिंदगी में पहला सिगरेट पिया था…..

[3]

‘‘सिगरेट का इतिहास कौन लिखेगा ?’’ डाँका को एक ख्याल-सा आया, ‘‘देखने को लगता है कि सिगरेट का इतिहास उसके नाम में होता है। अलग-अलग नाम में, अलग-अलग ब्रांड में—किसी का इतिहास पैंतीस वर्ष का, किसी का पचास वर्ष का—फिल्मों में जब किसी का इश्तिहार रहता है, उसका इतिहास ऐसे ही बताया जाता है—पर यह सिगरेट का इतिहास कैसे हुआ ? यह तो उस कंपनी का विशेष इतिहास हुआ…’’
डाँका ने हाथवाले सिगरेट की आखिरी आग से एक और सिगरेट सुलगाया और सोचने लगी, ‘एक बार मेरे पिता ने मुझे खुद बताया था कि उसने पहला सिगरेट अपनी पहली कमाई के जश्न के मौके पर पिया था। उस दिन वह बहुत खुश था। पढ़ाई के दिनों में उसने इस तरह से संयम रखा था और मन से इकरार कर लिया था कि जब तक वह अपनी हथेली पर अपनी कमाई के पैसे नहीं रखेगा, तब तक वह सुख की कोई चीज़ नहीं खरीदेगा…सो उसके लिए यह सुख की निशानी थी….’

डाँका के सिर को एक चक्कर-सा आया—शायद इसलिए कि उसने सुबह से कुछ नहीं खाया था। रविवार था, काम पर नहीं जाना था, इसलिए कुछ भी बनाने का उपक्रम नहीं किया था। काफी के प्याले की जगह भी उसने सिगरेट पिया था, रोटी और पनीर के टुकड़े की जगह भी सिगरेट, और सिगरेट की जगह भी सिगरेट।
और डाँका को ख्याल आया—कि एक बार उसने खलील जिब्रान की एक किताब में पढ़ा था, खलील के अपने हाथों का लिखा हुआ खत, कि उसने एक दिन में दस लाख सिगरेट पिए थे….
डाँका फिर ख्यालों में डूब गई—सिगरेट का असली इतिहास यह होता है कि किसी को किस वक्त सिगरेट की तलब महसूस होती है…

और डाँका को पहाड़ी पर का यह गिरजा याद हो आया—जिसमें पत्थरों की कुछ कंदराएँ बनी हुई थीं। कहते हैं कि वर्षों पहले जब यहाँ तुर्कों का राज्य स्थापित हुआ था, लोगों पर बड़े जुल्म हुए थे। तब कुछ विद्वान इन कंदराओं में चले गए थे और तुर्कों की नजर से छुपकर समय का इतिहास लिखते रहे थे….जंगलों के कंद-मूल और तंबाकू के पत्ते खाकर वे गुजारा करते और इतिहास लिखते…..
डाँका के मन में, पहाड़ों की कंदराओं में बैठकर इतिहास लिखनेवालों के चेहरे, और खलील जिब्रान का उसकी तस्वीरों में से देखा चेहरा, गड्डमड्ड-से हो गए। सोचने लगी—सो यह भी सिगरेट का इतिहास है—किसी रचना के जरूरत के वक्त…
फिर एक और याद उसके बदन में झुरझुरी-सी पैदा कर गई। यह कोमारक की याद थी। उसके अन्दर भूख की एक लहर दौड़ गई—‘‘एक जिस्म को रोटी की भूख भी लगती है और दूसरे जिस्म की भी….’’

डाँका ने सिगरेट का लंबा कश लिया, और आँखें मींच लीं। हाथ, वहीं उसके होंठों के पास सो-सा गया। सिगरेट के साथ इकट्ठी होती रही राख जब झड़कर उसके मुँह पर गिरी तो उसकी तपिश से वह चौंक उठी।
‘‘कम्बख्त न जाने कहाँ होगा ?’’ डाँका के मन में कुछ हुआ तो उसे लगा—उसके कमरे की दोनों खिड़कियाँ अचानक बंद हो गई थीं। और हर शब्द जो आगे की खिड़की में से बाहर चला गया था, हमेशा के लिए बाहर रह गया था। और हर अर्थ जो आगे की खिड़की में से बाहर चला गया था, हमेशा के लिए बाहर रह गया था……
कमरे में सिगरेट जलता रहा, डाँका सुलगती रही….
‘‘सिगरेट का इतिहास…’’ डाँका की आँखों के आगे धुंध-सी छा गई—शायद सिगरेट का धुआँ।
‘‘यह पल, यह घड़ी…इस जैसे कई पल, कई घड़ियाँ…ये भी सिगरेट का इतिहास है…बेशक इनके लिए शब्द भी कोई नहीं, और अर्थ भी कोई नहीं….’’

डाँका ने पोरों में थामे हुए सिगरेट के आखिरी टुकड़े को वहीं फेंक दिया।
वह खुद बुझे हए सिगरेट की तरह वहीं निढाल हो गई जहाँ बैठी हुई थी।
‘‘डाँका तुम्हें मेरी कसम, अपना ध्यान रखना। बोलो रखोगी ?’’
‘‘रखूँगी।’’
‘‘यह मैं तुम्हें अमानत दे रहा हूँ।’’
‘‘अमानत ?’’
‘‘यह मेरी डाँका मेरी अमानत।’’
डाँका बुझी हुई भी सुलग उठी। उसके कानों में कोमारक की आवाज़ भर रही थी।
‘‘कोमारक कहाँ है ? कहीं भी नहीं…’’ डाँका का मन व्याकुल हो उठा, ‘‘यहाँ सिर्फ मैं रह गई हूँ, और उसकी आवाज़…’’
डाँका को बेचैनी भी महसूस हुई, एक चैन-सा मिला, ‘‘अगर व्यतीत की कुछ आवाजें भी आदमी के पास न रहतीं, आदमी का क्या बनता…’’

साथ ही डाँका को अपना इकरार याद हो आया कि वह कोमारक की अमानत थी, और उसे अमानत का ध्यान रखना था। उसने उठकर कॉफी का प्याला बनाया, पनीर का एक टुकड़ा प्लेट में रखा, और जब खाने लगी, उसे याद हो आया—कोमारक की जो नज़म कभी जल्सों में बड़े जोश के साथ सुनी जाती थी, वह नज़म लिखते वक्त उसने कोई एक सौ सिगरेट पिए थे। कोमारक घर में भी कभी-कभी वह नज़म बड़े मन से पढ़ा करता था—
‘‘मैं शहीदों की कबर पर जाकर
इक छुरी तेज़ कर रहा हूँ—
इस छुरी के दम से, इक बगावत आएगी
‘औ’ उनके लहू का बदला चुकाएगी…’’
और डाँका हँसा करती थी,’’ एक नज़म लिखते हुए तुमने एक सौ सिगरेट पिए हैं, अभी तो तुम छुरी को तेज़ ही कर रहे हो, जब इससे बगावत लाओगे तब कितने सिगरेट पिओगे ?’’
पुरानी हँसी में से डाँका को नई रुलाई आ गई, ‘‘इन सिगरेटों का इतिहास कौन लिखेगा ? ये जो कोमारक ने इस नज़म को लिखते वक्त पिए थे ?’’

डाँका ने कॉफी का आखिरी घूँट भरा, और फिर एक सिगरेट पीते हुए ख्यालों में डूब गई—‘‘इस नज़म का इतिहास भी कौन जानता है ? उसने ना जाने किसके लिए लिखी थी, लोगों ने किसके लिए समझी….’’
‘‘लोग जब इस नज़म पर तालियाँ बजाते हैं, मैं कुछ हैरान हो जाता हूँ,’’ कोमारक कहा करता था।
‘‘वे समझते हैं, यह जो बगावत है, यह नज़म उसका इतिहास है, ’’ डाँका उसे जवाब दिया करती थी।
‘‘यही तो मुश्किल है, यह जो कच्ची-पक्की-सी बगावत आई है, इससे क्या बदला है ? हुक्म नहीं बदले, सिर्फ हाकिमों के मुँह बदले हैं,’’ कोमारक की आवाज़ कुछ ऊँची हो जाया करती थी।
डाँका उसकी आवाज को अपने होंठों से ढँक दिया करती थी, ‘‘खुदा का वास्ता है, यह बात और किसी के आगे न कहना।’’
‘‘मुझे कुछ भी कहने में विश्वास नहीं, सिर्फ करने में विश्वास है,’’ कोमारक हँस पड़ा करता था।
‘‘पर तुम्हारे-मेरे किए क्या होता है,’’ डाँका उदास-सी हो जाया करती थी।

‘‘तुम्हें एक बात बताऊँ ?’’ एक दिन कोमारक ने आचनक ऐसे कहा था कि डाँका बिलकुल ही नहीं जान सकी थी कि वह कौन-सी बात कहने लगा था, जिसका पहले उसे पता नहीं था।
‘‘क्या ?’’
‘‘वह मेरी नज़म है ना…’’
‘‘कौन-सी ? मरे हुओं की कबर पर छुरी तेज़ करनेवाली कि कोई और ?’’
‘‘वही।’’
‘‘हाँ।’’
‘‘यह बड़ी देर से मेरे मन में थी, तब से जब इस पिछली बगावत का चेहरा कुछ निखर रहा था…’’
‘‘सो यह नज़म इसी की देन है ?’’
‘‘जब कल्पना की थी, तब इसी की थी, पर जब लिखी तो इसकी न रही।’’
कुछ लेख

 

श्रुति परम्परा

 

प्राचीन भारत में श्रुति-परम्परा की छाप इतनी गहरी थी कि प्राचीन ऋषियों के चिन्तन को लिखाई में उतारना किसी को मंजूर नहीं था।
वेदों के सूक्त आवाज़ की जिस अदायगी से उचारे जाते थे वह अदायगी सिर्फ़ श्रुति-परम्परा से ही क़ायम रखी जा सकती थी। इसलिए उन्हें भोजपत्रों पर, कपड़े पर या पत्थरों पर की लिखाई में नहीं उतारा गया।
यह फ़िक्र पहली बार बौद्धों और जैनियों को हुआ था कि चिन्तनशील बुजुर्गों के न रहने पर अयोग्य पात्र के हाथ पड़ने से यह चिन्तन खो जायगा। अगर सब कुछ लिखावट में हो तो खो नहीं पायेगा।
इतिहास मिलता है कि बौद्ध चिन्तन को सोने के पत्रों पर अंकित किया गया था और उन प्राचीन पत्रों पर चित्रकारी भी की गयी थी।

वेदों के पैरोकार फिर भी अपने निश्चय पर बने रहे, श्रुति-परम्परा से जुड़े हुए। लेकिन मुहम्मद गौरी हमले के वक़्त जब शहर और मंदिर तबाह होने लगे, लगा कि पूरी परम्परा खो जायगी तब वो श्रुति-परम्परा से कलमी परंपरा की ओर आये। लेकिन वह कैलीग्राफी के पहलू से एक हज़ार साल पीछे रह गये थे। खैर, श्रुति-साहित्य को कलमी सूरत मिली और बाद में पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी में उस साहित्य को सजा-सँवारकर पेश करने का वक़्त आया।
प्राचीन पत्ता लिखाईवाला चित्रित बौद्ध चिन्तन कुछ इसलिए बच गया कि तुर्क़ हमलावारों के वक़्त बौद्ध संन्यासी वो पाण्डुलिपियाँ नेपाल में ले गये।
प्राचीन पत्तालिखाई वाला चित्रित जैन चिन्तन भी इसीलिए बच गया कि जैन मुनि वो पाण्डुलिपियाँ दक्षिण भारत और पश्चिम भारत के उन मंदिरों में ले गये थे, जहाँ उनकी हिफा़ज़त के बहुत मज़बूत भंडार थे।

 

दस्तावेज़

 

1982 में मारग्रेट थैचर और इंदिरा गाँधी की सरपरस्ती में जो ‘फ़ैस्टिवल ऑफ़ इण्डिया’ हुआ था, उस समय ब्रिटिश लाइब्रेरी की ओर से एक किताब तैयार करायी गयी थी, उस फ़ैस्टिवल को एक तोहफ़ा देने के लिए। वह एक बहुत कीमती दस्तावेज़ है—THE ART OF THE BOOK IN INDIA BY JEREMIAH P.POSTY.
इस किताब में प्राचीन लिखाई के रंगीन चित्र भी दिये हुए हैं और उक्त के हालात भी।
पत्ता लिखाईवाली तमिल पाण्डुलिपियों के नमूने से लेकर जैन-बौद्ध पाण्डुलिपियों के चित्र भी दिये हैं।

प्राचीन पाण्डुलिपियों में घटनाओं के चित्र भी दिये जाते थे, जैसे-महावीर के जन्म के समय रानी त्रिशला अपने चौदह सपने सुना रही है, और उक्त के आलिम उन सपनों की ताबीर बता रहे हैं। इसी तरह हरिनेगनेशी नाम के देवता ने देवअनन्दा का गर्भ कैसे चुराया था, रानी त्रिशला की कोख में रखने के लिए।

अरब और ईरान से आयी कैलीग्राफ़ी का प्रभाव भारत की कला पर कितना हुआ इसकी तफ़सील से गुज़रते हुए इस पुस्तक में मुग़लराज के समय की चित्रकला का इतिहास भी सँभाला हुआ था। इतिहास के दिलचस्प हवालों में से कुछ यहाँ दर्ज़ करती हूँ।
‘कल्पसूत्र’ जैन चिन्तन की पुस्तक है जिसकी चित्रित लिखाई पन्द्रहवीं सदी में हुई थी। इसकी तैयारी गुजरात में हुई और चित्रों के लिए सोने और सीपियों का चूर्ण इस्तेमाल किया गया।
‘सिन्धबाद नामा’ सिन्धबाद की कहानियों की फ़ारसी किताब है जिसके लिखने का कोई नाम पता नहीं मिलता और किताब कब लिखी गयी है, वह समय भी नहीं मिलता। पहले सोचा जाता था कि शीरीज कला की मिसाल यह किताब वहीं कहीं लिखी गयी होगी लेकिन उसके रहने के लिए अपना घर भारत में मिला। लेकिन अब कला की बारीकियों से अनुमान होता है कि यह भारत में ही चित्रित हुई थी। इस नायाब किताब की कोई और प्रति कहीं और नहीं मिलती। शीरीज़ की कला तो ज़ाहिरा दिखाई देती है लेकिन किरदारों के लिबास दक्षिण भारत के हैं। गलों में लंबे और आगे से खुले चोगे कमरबन्द बँधे हुए।

मुग़ल दरबार के अलावा उस समय सिर्फ गोलकुण्डा का दरबार था, जहाँ ईरान की परम्परा भी थी और अहमदनगर-बीजापुर नगर की परंपरा थी।
‘शाहनामा’ फिरदौसी की उस लंबी कविता का नाम है जो ईरान के बादशाहों की ज़िन्दगी के हालात पेश करती है। यह पुस्तक गज़नी के महमूद की सरपरस्ती में तैयार हुई थी, आलीशान चित्रों के साथ। इसकी कई प्रतियाँ बनायी गईं थीं और लगता है कि एक प्रति भारत में तैयार हुयी थी। चौदह सौ तीस की इस प्रति में हैरात के शहज़ादे की लिखी हुई एक भूमिका है जिससे पता चलता है कि फिरदौसी ने एक बार गज़नी के महमूद से डरकर दिल्ली के बादशाह की पनाह ली थी और बादशाह ने बहुत कीमती तोहफे देकर उसे अपने वतन भिजवा दिया था। यहीं से अनुमान होता है कि ‘शाहनामा’ की एक प्रतिलिपि भारत में ही तैयार हुई थी।

एक और सबूत मिलता है कि भारत में तैयार की गयी प्रतिलिपि के चित्रों में वह पीला रंग इस्तेमाल किया गया है जो सिर्फ बंगाल के एक गाँव में बनाया जाता था। वह पीला रंग गोमूत्र से बनता था और इसके लिए केवल वही गायें ली जाती थीं जिन्हें आम के पत्ते खिलाए जाते थे।
सोलहवीं शताब्दी के मध्य में भारत मुसव्वरखानों की हालत बिखरी हुई थी। चाहे कई पुस्तकें बंगाल, माडू और गोलकुण्डा के कलाकारों के हाथों चित्रित हुई थीं।
राजपूत दरबार में संस्कृत और हिन्दी की कई पाण्डुलिपियाँ चित्रित हुई थीं और जैन चित्र उसी तरह गुजरात और राजस्थान में बन रहे थे। उस समय बादशाह अकबर ने कलाकारों के लिए बहुत बड़ा स्थान तैयार करवाया और कलाकार दूर-दूर से आगरा आने लगे, भारत की राजधानी में।

अकबर के इस बहुत बड़े ‘तस्वीरखाना’ में से जो पहली किताब तैयार हुई वह थी—तोतीनामा।
अकबर की सरपरस्ती में जो बहुत बड़ा काम हुआ, वह था—हमज़ानामा। यह हजरत मोहम्मद के चाचा अमीरहमज़ा के जंगी कारनामों की दास्तान है जो चौदह जिल्दों में तरतीब दी गयी। हर जिल्द में एक सौ चित्र थे। यह सूती कपड़े के टुकड़ों पर चित्रित की गई थी और इसे मुकम्मल सूरत देते हुए पन्द्रह बरस लगे।
‘जरीन-कलम़’ का अर्थ है सुनहरी कलम। यह एक किताब थी जो अकबर बादशाह ने कैलीग्राफी़ के माहिर एक कलाकार मुहम्मद हुसैन अल कश्मीरी को दी गई थी।
‘अम्बरी क़लम़’ भी एक किताब थी जो अकबर ने अब्दुल रहीम को दिया था। महाभारत, रामायण, हरिवंश, योगवाशिष्ठ और अथर्ववेद जैसे कई ग्रंथों का फारसी से अनुवाद भी बादशाह अकबर ने कराया था।
‘रज़म-नामा’ महाभारत फारसी अनुवाद का नाम है जिसका अनुवाद विद्वान ब्राह्मणों की मदद से बदायूँनी जैसे इतिहासकारों ने किया था, पन्द्रह सौ बयासी में और उसे फारसी के शायर फ़ैजी ने शायराना जुबान दी थी।
‘राज कुँवर’ किसी हिन्दू कहानी को लेकर फ़ारसी में लिखी हुई किताब है जिसके लेखक ने गुमनाम रहना पसंद किया था। इसकी इक्यावन पेण्टिंग सलीम के इलाहाबाद वाले तस्वीर खाने में तैयार हुई थीं।

‘बादशानामा’ शाहजहाँ के राज को लेकर अफदाल क़रीम लाहौरी की लिखी हुई वह किताब है जो औरंगजेब की बगावत ने पूरी नहीं होने दी थी।

‘ख़बरनामा’ इब्न हसन की लिखी हुई अली के कारनामों को बयान करती पुस्तक है जिसकी प्रतिलिपि मूलचन्द मुलतानी ने तैयार की थी। इसमें एक सौ छत्तीस मिनिएचर्स (भित्तिचित्र) हैं जो अफदाल हकीम मुल्तानी ने तैयार किये थे। मुल्तान में तैयार हुई इस पुस्तक के चित्रों के लिए बहुत-सा सोना और चाँदी इस्तेमाल किया गया था।
‘कारनामा-ए-इश्क़’ लाहौर के एक खत्री राय आनन्दराम की फ़ारसी में लिखी हुई किताब थी जिसके चित्र बनाते हुए उस वक़्त के मशहूर कलाकार गोवर्धन को पाँच साल लगे थे।
‘दस्तूर ए हिम्मत’ 1685 में लिखी हुई मुहम्मद मुराद की किताब थी जिसमें अवध के राजा कामरूप की और सीलोन की शहजादी कामलता की कहानी है। जिन्हें सपनों में एक दूसरे का दीदार हुआ था। राजा उसे खोजता हुआ आखिर सीलोन पहुँच जाता है और कामलता भी कामरूप को पहचान लेती है। इसकी चित्रकारी मुर्शिदाबाद में हुई, 1760 में। हर पृष्ठ पर बहुत सा सोना इस्तेमाल किया गया।

‘रागमाला’ के चित्रण में मुगल की दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन मुगल दरबार के राजपूतों ओहदेदारों के कारण आगरा के तस्वीर खाने में यह पुस्तक तैयार हुई जिसमें रागों के परिवारों का ब्यौरा है। हर राग की पाँच पत्नियाँ (रागिनियाँ), और आगे उनके राग पुत्र हैं।
ब्रिटिश लाईब्रेरी लन्दन में देवचित्रों की दो एलबम हैं, जिनके चौंसठ चित्र अठारहवीं सदी के आखिर में लखनऊ के कलाकारों ने तैयार किये थे। हर चित्र के हाशिये पर सोने-चाँदी के पत्ते बनाये गये थे। ये दो एलबम दो लाख सड़सठ हज़ार एक सौ अठ्ठावन पौण्ड में बिके थे।
अठारहवीं शताब्दी के खत्म होने पर हस्तलिपियों की पाण्डुलिपियाँ बनाने की परम्परा भी खत्म हो गयी। तब कलकत्ता में प्रेस लग गया था जिसने किताबों की सूरत बदल दी।

बात दो हज़ार साल पहले की

‘अब जब जीसस का जन्म हुआ
हैरोड के राज में
देखो ! तीन आलम पूरब से चलकर
जेरुसलम आये
कहते-
वो जो जन्म से बादशाह है, वो कहाँ है ?
हमने पूरब दिशा में रहते हुए
उसका सितारा देखा है
और अपनी अकी़दत पेश करने आये हैं…….’

मैथ्यू की ऐतिहासिक किताब के ये लफ़्ज, फ़िदा हसनैन ने अपनी इस किताब में दिये हैं जो जीसस की जिन्दगी को लेकर खोज में उतरी हुई है….
किताब का नाम है-‘फ़िफ्त़ गॉस्पल’, ये फिदा हसनैन और देहन लैबी ने मिलकर लिखी है…
कहते हैं-यह खबर जब वक़्त के राजा तक पहुँची थी, उसने पूरब दिशा से आये तीनों आलिमों को बुलाया पता किया क्या वो सचमुच उसके राज में पैदा हुए उस बच्चे को देखने के लिए आए हैं जो किसी वक़्त यहूदियों का राजा होगा। इससे राजा के मन में खौफ़ आया कि उसका राज उसके हाथों से चला जाएगा। उसने तीनों से कहा-अच्छा जाओ ! तलाश करो ! पता चले तो मुझे आकर बता देना।

वो तीनों पेलेस्टीन में उस तारे की दिशा देखने लगे, जिसे देखकर वो पूरब से इस दिशा की ओर आये थे। उस वक़्त देखा, वो तारा एक नगर बैथेलेहम के ऊपर दिखाई दे रहा था। वे तीनों उस नगर चले गये, घर तलाश किया, बाल जीसस को देखा, पहचाना, और बच्चे के सामने झुककर उसे अपना सम्मान पेश किया। वो लोग साथ ही कुछ सोना, धूप और सुगन्धित सामग्री लाये थे, वो सब बच्चे को अर्पित किया और खुशी में झूमते से अपने देश लौट गये…
अनुमान किया जाता है कि वे तीनों बौद्ध थे, तन्त्र विद्या के ज्ञाता..
भारत से मध्य एशिया के कई देशों का रास्ता बौद्ध लोग जानते थे। वे बुद्ध मत को लोगों तक पहुंचाने के लिए कई बरसों से देश-देश में जा रहे थे। कई देशों में उनके बनाये हुए मठ भी मिलते हैं….
फ़िदा हुसनैन ने लिखा है कि सितारों का इल्म रखनेवाले मैगी लोगों का ज़िक्र कश्मीर में लिखे गये ‘भविष्य महापुराण’ में भी मिलता है…
बौद्ध लोगों की नज़र में यह एक नये बुद्ध का जन्म हुआ था-

वो धरती जहाँ जीसस का जन्म हुआ, रोमन हुकूमत के अधीन थी, और यहूदी लोग इन्तज़ार कर रहे थे कि ख़ुदा उनकी मदद ज़रूर करेगा और किसी मसीहा को भेजेगा। वो ऐसे किसी बच्चे के जन्म का इन्तज़ार ही कर रहे थे।
ज़ाहिर है कि वक़्त का बादशाह ऐसे बच्चे के जन्म का पता लगाकर उस बच्चे का कत्ल करवा देना चाहता था। इसलिए उसके जासूस सब घरों पर नज़र रख रहे थे।….

 

मिस्र में

 

जीसस के बाप जोज़फ़ को एक बुरा सपना आया कि ये बच्चा जीसस उससे और मैरी से छीन लिया गया है। बच्चे को राजा के दरबार में ले जाया जा रहा है। इससे जोज़फ़ और मैरी इतने फिक्रमन्द हुए कि उसी रात वहाँ से निकलकर मिस्र की ओर चल दिये….
कुछ दिनों बाद राजा का फ़रमान हुआ कि उसके राज में पैदा हुए सब छोटे बच्चे मरवा दिये जाएँ। ये कत्लेआम हर माँ-बाप के लिए भयानक जुल्म का समय था। कुछ मां-बाप अपने-अपने बच्चे को छिपाकर किसी-न-किसी दूसरे देश की ओर निकल गये, लेकिन सरहद पर पहरा था, इसलिए बहुत लोग निकल नहीं पाये…हर जगह कत्लेआम होने लगा।
मिस्र के पहाड़ी इलाकों में एक ऐसी जगह थी, जिसे बूटी बाग़ कहा जाता था-हर्बल गार्डन। वहां कोई चार हज़ार ऐसे लोग रहते थे, जो बड़ी सादी ज़िन्दगी जीते थे, और पेड़-पौधों का इल्म रखते थे, जिनसे वे कई तरह की दवादारू बनाना जानते थे। कहते हैं कि मैरी और जोज़फ़ ने बच्चे को लेकर वहीं पनाह ली…

उस बूटी बाग में अभी तक अंजीर का वो बहुत बड़ा पेड़ का़यम कहा जाता है जिसके एक ओर बड़ी सी खुली गहरी जगह थी, जिसके अन्दर राजा के जासूसों से डरकर बच्चे को छिपा दिया जाता था…
मोसिस के वक़्त उसकी अगवाई में एक क़बीला ऐसा बना था, बड़े भले और रहमदिल लोगों का, जो सिर्फ़ सफ़ेद कपड़े पहनते थे, पेड़-पौधों का इल्म करते थे, और उनका अक़ीदा ख़ुदा की ख़लकत को प्यार करता था। वो किसी जानवर की हत्या भी नहीं करते थे इसलिए तारीख़दानों को अनुमान होता है कि वे पश्चिम के बौद्ध सन्त थे। वही लोग थे जो हर जगह मैरी की और बच्चे की हिफा़जत करते रहे….

जीसस की ज़िन्दगी के लापता वर्ष

ज़िलावतनी के दिनों में बच्चे को पढ़ाया भी जाता था और दूसरी शिक्षा भी दी जाती थी। जोज़फ़ बढ़ई का काम अच्छी तरह जानता था इसलिए वो भी बच्चे को सिखलाया गया। और जब पेसेस्टीन में राज बदल गया, उस समय जीसस बारह साल का था। माँ-बाप उसे और अपने छोटे बच्चों को लेकर घर लौट आये। करीब एक साल जीसस वहां मां-बाप के पास रहा, और फिर आगे इतिहास नहीं जानता कि जीसस कहाँ चला गया….

ये जीसस की उम्र के सत्रह वर्ष थे, उसकी तेरह साल की उम्र से लेकर उनतीस साल की उम्र तक, जो लापता कहे जाते हैं…
इस किताब की खोज है कि जीसस व्यापारियों की एक टोली से मिलकर वहाँ से भारत आ गया था-रूहानी इल्म पाने के लिए। वो कई नगरों, शहरों में गया, बनारस भी, लेकिन ज़्यादा वक़्त हिमालय की पहाड़ियों में
रहा।
अब तिब्बत में कप़ड़े पर लिखी हुई ऐसी इबारत मिली है कि जीसस ने बुद्ध मत की गहराई को पाया था, और फिर उनतीस साल की उम्र में अपने देश इज़राइल चला गया था….

कई और पहलू

ये किताब जीसस की जिन्दगी के और पहलुओं की खोज में भी उतरती है-कुँवारी माँ वाले चमत्कारी मसले को भी तलाशती है, प्राचीन इबारतों के हवाले भी देती है और ये पता भी देती है कि वहाँ जीसस के देश में कई प्राचीन किताबें जान-बूझकर जला दी गयीं या छिपा दी गयीं, और कई अदल-बदल कर दी गयीं….

लेकिन वो सबकुछ तलब वालों के लिए इस किताब के हरफ-हरफ में उतरने के लिए हैं। मैं इस किताब का ज़िक्र सिर्फ़ इस पहलू से कर रही हूँ कि इस खोज की रोशनी में देखा जा सकता है कि जीसस ने बुद्ध मत से क्या-क्या पाया और कितना समय बौद्ध मठों में गुज़ारा, और फिर सूली वाली घटना से तीन दिन बाद मित्रों, मुरीदों की मदद से जब उसके जख़्म कुछ ठीक हुए, तब वो कहां चला गया….
वक़्त उसके देश में क्यों खामोश रहा ?
ये ठीक है कि दुनिया की बादशाहत उसके लिए नहीं थी उसका अक़ीदा था कि ख़ुदा की बादशाहत हमारे अन्दर होती है…..

 

ईशा नाथ

 

इस किताब ने भारत रत के नाथ योगियों की ‘नाथ नामावली’ खोज ली है, और उसमें दिया गया ज़िक्र दर्ज किया है-
ईशा नाथ चौदह साल की उम्र में भारत आया था। योग विद्या लेने के बाद वो अपने देश लौट गया, अपने लोगों को रूहानी इल्म देने के लिए…
‘‘दुनियावालों ने उसके ख़िलाफ़ साजिश की और उसे सूली पर लटका दिया। सूली के समय ईशा नाथ ने अपने प्राण समाधि में लगा दिये थे। वो ट्रान्स में चला गया था, जिससे लोगों ने समझा वो मर गया है। वो योगी था। उसे मुर्जा समझ कर क़ब्र में उतार दिया गया….

ठीक वही समय था, जब उसके नाथ गुरु महाचेतना नाथ ने हिमालय में बैठे हुए एक विज़न देखा-एक भयानक तकलीफ जिसमें से ईशा नाथ गुज़र रहा था। उस वक़्त महाचेतना नाथ ने अपनी स्थूल काया वहीं छोड़ दी, सूक्ष्म काया अख्तियार कर ली, और इजराइल पहुँचकर जीसस को क़ब्र से निकाला…
‘‘महाचेतना नाथ यहूदियों पर बहुत नाराज़ थे, जिन्होंने ईशा नाथ को सूली पर लटका दिया था, इसलिए अपने गुस्से का इजहार कुदरत के माध्यम से किया-उस समय भयानक बादल गरजे, बिजली चमकी सारे इज़राइल में।
‘‘चेतना नाथ, ईशा नाथ को समाधि से वापस लाये। उसके जख़्म ठीक किये और उसे भारत लौट आने के लिए कहा..ईशा नाथ ने लौटकर हिमालय के निचले हिस्से में अपना आश्रम बनाया…’’.

 

कुछ क़बीला

 

 

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