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परिचय

जन्म : 1900, चुनार, मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी

विधाएँ : कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध, आत्मकथा, आलोचना, नाटक

मुख्य कृतियाँ
उपन्यास : चंद हसीनों के खतूत, दिल्ली का दलाल, बुधुवा की बेटी, शराबी, घंटा, सरकार तुम्हारी आँखों में, कढ़ी में कोयला, जीजीजी, फागुन के दिन चार, जूहू
नाटक : महात्मा ईसा, चुंबन, गंगा का बेटा, आवास, अन्नदाता माधव महाराज महान
कहानी : उग्र की श्रेष्ठ कहानियाँ
कविता : ध्रुवचरित
आलोचना : तुलसीदास आदि अनेक आलोचनात्मक निबंध
आत्मकथा : अपनी खबर
अन्य : गालिब : उग्र, उग्र का परिशिष्ट (संपादक : भवदेव पांडेय)
संपादन : भूत, उग्र (मासिक पत्रिका), मतवाला, संग्राम, हिंदी पंच, वीणा, विक्रम आदि कई पत्रिकाओं के संपादन से समय-समय पर जुड़े रहे, स्वदेश (दशहरा अंक का संपादन)
निधन : 1967, दिल्ली

रचनाएँ

कहानियाँ

  •  ईश्वरद्रोही
  • उरूज
  • एक भीषण स्मृति
  • कर्तव्य और प्रेम
  • खुदाराम
  • जल्लाद
  • डाँवाडोल
  • तीन कलाकारों की एक भूल
  • देश-द्रोह
  • दहीबड़े
  • नौकर सा’ब
  • पतित
  • प्यारे
  • पिशाची
  • बदमाश
  • भ्रम
  • मुक्ता
  • मूर्खा
  • रधिया नौची
  • रेन ऑफ टेरर
  • रिसर्च
  • विकास
  • वीभत्स
  • शहीद भोंदू भट्ट
  • सुधारक
  • साधु और असाधु
  • सिक्ख-सरदार
  • व्यंग्य
  • नेता का स्थान
  • आत्मकथा
  • अपनी खबर
  • निबंध
  • ‘उग्र’ को फाँसी दी जाए
  • कुछ साहित्यिक बम-गोले
  • क्या यह सच है
  • कसौटी
  • चाकलेट आन्दोलन
  • चाबुक
  • तुलसी दल
  • धरती और धान
  • मुख-मर्दन उर्फ चुम्बन
  • यह कौन साहित्य है
  • विप्लव-गान

उग्र जी का प्रारम्भिक जीवन बड़े अभाव में बीता. बचपन में ही पिता का देहांत हो गया.  इनके पिता पुरोहती करते थे, सो परिवार यजमानो के भरोसे ही चलता  था. पिता के जाने के बाद  जीवन में घोर अभाव  पसर गया. बड़े भाई  रामलीला में काम करते थे सो इन्हें भी रामलीला  में लगवा दिया. अपनी आत्मकथा में बेचन जी एक जगह लिखते हैं कि एक बार मैं रामलीला में भरत का रोल करते हुए रो रहा था. जनता और रामलीला के संचालक को लगा मैं अभिनय में डूब गया हूँ. वे अभिनय से बेहद खुस हुए और 10 रुपये का पुरस्कार दिया. जबकि सच यह था कि मैं अपने बड़े भाई के डर से रो दिया था और भाई राम बने थे.

बेचन जी के लेखन में  इसीलिए जीवन का एक अलग  ही रंग दिखाई देता है ,उबड़ – खाबड़  , खुरदुरा,थोड़ा बदरंग,थोड़ा स्याह, थोड़ा फक्कड़, उनके लेखन में बेबाकी रही. ”चंद हसीनों के खुतूत ” उसका प्रमाण है. उनकी कुछ खुरदुरी पर लाजवाब कहानी  पढ़िए और खुद फैसला कीजिये .

कहानी

 

उसकी माँ

दोपहर को ज़रा आराम  करके  उठा था।  अपने पढ़ने-लिखने  के कमरे में  खड़ा-खड़ा धीरे-धीरे सिगार पी रहा था और बड़ी-बड़ी अलमारियों  में सजे  पुस्तकालय  की ओर  निहार रहा था। किसी महान लेखक की कोई कृति उनमें से निकालकर देखने  की बात सोच रहा था। मगर, पुस्तकालय के एक सिरे से लेकर दूसरे तक मुझे महान ही महान नज़र आए।  कहीं गेटे,  कहीं रूसो, कहीं मेज़िनी, कहीं नीत्शे, कहीं शेक्सपीयर, कहीं टॉलस्टाय, कहीं ह्यूगो, कहीं मोपासाँ,  कहीं डिकेंस, सपेंसर,  मैकाले,  मिल्टन,   मोलियर—उफ़!  इधर से उधर तक एक-से-एक महान ही तो थे! आखिर मैं किसके  साथ  चंद  मिनट मनबहलाव  करूँ,  यह निश्चय ही न हो सका, महानों के नाम ही पढ़ते-पढ़ते परेशान  सा हो गया।

इतने में मोटर  की पों-पों सुनाई पड़ी। खिड़की से झाँका तो सुरमई रंग की कोई ‘फिएट’ गाड़ी दिखाई पड़ी। मैं सोचने लगा – शायद कोई मित्र पधारे हैं,  अच्छा ही है।  महानों से  जान बची!

जब नौकर ने सलाम कर आनेवाले का कार्ड  दिया, तब मैं कुछ घबराया। उसपर शहर के पुलिस सुपरिटेंडेंट का  नाम छपा था। ऐसे बेवक़्त ये कैसे आए?

पुलिस-पति भीतर आए।  मैंने हाथ मिलाकर, चक्कर खानेवाली एक गद्दीदार कुरसी पर उन्हें आसन दिया। वे व्यापारिक मुसकराहट से लैस होकर बोले,  “इस अचानक आगमन के लिए  आप मुझे क्षमा  करें।”

“आज्ञा   हो!” मैंने भी नम्रता से  कहा।

उन्होंने पॉकेट से डायरी निकाली,  डायरी से एक तसवीर। बोले,   “देखिए  इसे, जरा  बताइए तो,  आप पहचानते  हैं इसको?”

“हाँ,  पहचानता तो  हूँ,” जरा सहमते हुए मैंने बताया।

“इसके बारे में मुझे आपसे कुछ  पूछना है।”

“पूछिए।”

“इसका नाम  क्या है?”

“लाल! मैं इसी नाम से बचपन ही से इसे पुकारता आ रहा हूँ। मगर, यह पुकारने का नाम है। एक नाम कोई और है, सो मुझे स्मरण नहीं।”

“कहाँ रहता है यह?” सुपरिटेंडेंट ने मेरी ओर देखकर पूछा।

“मेरे बँगले के ठीक सामने एक दोमंजिला,  कच्चा-पक्का घर है,  उसी में वह रहता है। वह है और उसकी बूढ़ी    माँ।”

“बूढ़ी   का  नाम  क्या है?”

“जानकी।”

“और कोई नहीं है क्या इसके परिवार में?  दोनों का पालन-पोषण कौन करता है?”

“सात-आठ वर्ष हुए,  लाल के पिता का देहांत हो गया। अब उस परिवार में वह और उसकी माता ही बचे  हैं। उसका पिता जब तक जीवित रहा, बराबर मेरी जमींदारी का मुख्य मैनेजर रहा।  उसका नाम रामनाथ था।     वही मेरे  पास  कुछ हजार रुपए जमा कर गया था,  जिससे अब तक उनका खर्चा चल रहा है। लड़का कॉलेज  में पढ़ रहा है। जानकी को आशा है,  वह साल-दो साल बाद कमाने और परिवार को सँभालने लगेगा। मगर क्षमा  कीजिए, क्या  मैं यह पूछ सकता हूँ कि आप उसके बारे  में क्यों इतनी पूछताछ कर रहे हैं?”

“यह तो मैं आपको नहीं बता सकता, मगर इतना आप समझ लें, यह सरकारी काम है। इसलिए आज मैंने    आपको  इतनी  तकलीफ़ दी है।”

“अजी, इसमें  तकलीफ़ की क्या बात है!  हम तो सात पुश्त से सरकार के फ़रमाबरदार हैं। और कुछ आज्ञा—”

“एक बात  और—“, पुलिस-पति ने  गंभीरतापूर्वक धीरे से कहा,  “मैं मित्रता से आपसे निवेदन करता हूँ,  आप इस परिवार से जरा सावधान और दूर रहें।  फिलहाल इससे अधिक मुझे  कुछ  कहना  नहीं।”

“लाल की माँ!”  एक दिन जानकी को बुलाकर मैंने समझाया, “तुम्हारा लाल आजकल क्या पाजीपन करता है?  तुम उसे केवल प्यार ही करती हो  न!  हूँ! भोगोगी!”

“क्या है,  बाबू?” उसने कहा।

“लाल क्या  करता है?”

“मैं तो उसे कोई भी बुरा काम करते नहीं देखती।”

“बिना किए ही तो सरकार किसी के पीछे पड़ती नहीं। हाँ, लाल की माँ! बड़ी धर्मात्मा,  विवेकी और न्यायी सरकार है यह। ज़रूर तुम्हारा  लाल कुछ  करता होगा।”

“माँ!  माँ!”  पुकारता हुआ उसी समय लाल भी आया – लंबा,  सुडौल, सुंदर, तेजस्वी।

“माँ!!”  उसने मुझे  नमस्कार कर  जानकी से कहा, “तू  यहाँ भाग आई है।  चल तो! मेरे कई सहपाठी वहाँ खड़े हैं,  उन्हें चटपट  कुछ जलपान करा दे,  फिर हम घूमने जाएँगे!”

“अरे!” जानकी के चेहरे की झुर्रियाँ चमकने लगीं,  काँपने लगीं,  उसे  देखकर, “तू आ  गया लाल! चलती हूँ,  भैया! पर, देख तो, तेरे चाचा क्या शिकायत कर रहे हैं?  तू क्या पाजीपना करता है,  बेटा?”

“क्या  है,   चाचा  जी?”  उसने  सविनय,  सुमधुर स्वर में मुझसे पूछा,  “मैंने क्या अपराध  किया है?”

“मैं  तुमसे  नाराज हूँ  लाल!” मैंने  गंभीर स्वर में कहा।

“क्यों, चाचा जी?”

“तुम  बहुत  बुरे  होते जा रहे हो,  जो सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र करनेवाले के साथी हो।  हाँ,  तुम  हो! देखो लाल की माँ,  इसके चेहरे का  रंग उड़  गया,  यह सोचकर कि यह  खबर मुझे   कैसे   मिली।”

सचमुच एक बार उसका खिला हुआ रंग जरा मुरझा गया,  मेरी बातों से! पर तुरंत ही वह सँभला।

“आपने गलत सुना, चाचा जी। मैं किसी षड्यंत्र में नहीं। हाँ,  मेरे  विचार स्वतंत्र अवश्य हैं,  मैं जरूरत-बेजरूरत जिस-तिस के आगे उबल अवश्य उठता हूँ।  देश की दुरवस्था पर उबल उठता हूँ, इस  पशु-हृदय परतंत्रता पर।”

“तुम्हारी ही  बात  सही, तुम  षड्यंत्र  में   नहीं,   विद्रोह  में  नहीं,  पर यह  बक-बक क्यों?  इससे फ़ायदा?  तुम्हारी  इस बक-बक से न  तो  देश   की दुर्दशा  दूर  होगी और न  उसकी पराधीनता। तुम्हारा  काम पढ़ना है,  पढ़ो। इसके बाद कर्म  करना होगा, परिवार और  देश  की मर्यादा बचानी होगी। तुम पहले अपने घर का   उद्धार तो कर लो,  तब सरकार के सुधार का विचार  करना।”

उसने नम्रता से  कहा,  “चाचा  जी, क्षमा  कीजिए। इस विषय में मैं आपसे विवाद नहीं करना चाहता।”

“चाहना होगा, विवाद करना होगा। मैं  केवल चाचा जी नहीं, तुम्हारा बहुत कुछ हूँ।  तुम्हें देखते ही मेरी आँखों के सामने रामनाथ नाचने लगते हैं,  तुम्हारी बूढ़ी माँ घूमने लगती है। भला मैं तुम्हें बेहाथ होने दे सकता हूँ!   इस  भरोसे   मत  रहना।”

“इस  पराधीनता के विवाद में,  चाचा  जी, मैं और आप दो भिन्न सिरों पर हैं। आप कट्टर राजभक्त, मैं कट्टर राजविद्रोही। आप पहली बात को उचित समझते हैं – कुछ  कारणों से,  मैं दूसरी  को  – दूसरे कारणों से। आप अपना पद छोड़ नहीं सकते – अपनी प्यारी कल्पनाओं के लिए, मैं अपना भी नहीं छोड़  सकता।”

“तुम्हारी कल्पनाएँ क्या हैं,   सुनूँ  तो! जरा मैं भी जान लूँ कि अबके  लड़के कॉलेज की गरदन तक पहुँचते-पहुँचते कैसे-कैसे हवाई किले उठाने के सपने देखने लगते  हैं।  जरा मैं  भी तो सुनूँ,   बेटा।”

“मेरी कल्पना यह है कि जो व्यक्ति समाज या राष्ट्र के  नाश  पर जीता  हो, उसका सर्वनाश हो जाए!”

जानकी उठकर बाहर चली, “अरे! तू  तो  जमकर चाचा से  जूझने लगा। वहाँ चार बच्चे बेचारे दरवाजे पर खड़े  होंगे। लड़ तू,  मैं  जाती हूँ।”   उसने मुझसे कहा,  “समझा दो  बाबू,   मैं  तो आप ही कुछ नहीं  समझती, फिर  इसे  क्या  समझाऊँगी!” उसने फिर लाल की ओर  देखा, “चाचा  जो  कहें, मान जा, बेटा। यह तेरे भले  ही की कहेंगे।”

वह बेचारी  कमर  झुकाए,  उस साठ  बरस की वय में भी घूँघट सँभाले, चली गई। उस दिन उसने मेरी और लाल की बातों की गंभीरता नहीं समझी।

“मेरी कल्पना यह  है कि—“,  उत्तेजित स्वर में लाल ने कहा,  “ऐसे दुष्ट, व्यक्ति-नाशक राष्ट्र के सर्वनाश में मेरा भी हाथ हो।”

“तुम्हारे हाथ दुर्बल हैं,  उनसे जिनसे तुम पंजा लेने जा रहे हो,  चर्र-मर्र हो उठेंगे, नष्ट हो जाएँगे।”

“चाचा जी, नष्ट हो जाना तो यहाँ का नियम है। जो सँवारा गया है,  वह बिगड़ेगा ही। हमें दुर्बलता के डर से अपना काम नहीं रोकना चाहिए। कर्म के समय हमारी भुजाएँ दुर्बल नहीं,  भगवान की सहस्र भुजाओं की सखियाँ हैं।”

“तो  तुम  क्या  करना चाहते  हो?”

“जो  भी  मुझसे हो  सकेगा,  करूँगा।”

“षड्यंत्र?”

“जरूरत पड़ी तो जरूर—”

“विद्रोह?”

“हाँ,   अवश्य!”

“हत्या?”

“हाँ,   हाँ,  हाँ!”

“बेटा,  तुम्हारा माथा न जाने कौन सी किताब पढ़ते-पढ़ते बिगड़ रहा है। सावधान!”

मेरी  धर्मपत्नी और लाल की माँ  एक दिन बैठी हुई बातें कर रही थीं कि मैं पहुँच गया।  कुछ पूछने के लिए कई दिनों से मैं उसकी तलाश  में था।

“क्यों लाल की माँ,   लाल के साथ किसके लड़के आते हैं  तुम्हारे घर  में?”

“मैं  क्या  जानूँ, बाबू!”   उसने सरलता से कहा,  “मगर वे सभी मेरे लाल ही की तरह मुझे प्यारे  दिखते   हैं।  सब लापरवाह! वे इतना हँसते,  गाते और हो-हल्ला मचाते हैं कि मैं मुग्ध हो  जाती  हूँ।”

मैंने  एक ठंडी  साँस ली,  “हूँ,   ठीक  कहती हो।  वे बातें कैसी करते हैं,  कुछ समझ  पाती  हो?”

“बाबू,   वे  लाल की बैठक  में बैठते हैं।  कभी-कभी  जब मैं उन्हें  कुछ खिलाने-पिलाने जाती हूँ, तब  वे बड़े  प्रेम से  मुझे  ‘माँ’   कहते हैं। मेरी छाती फूल उठती है—मानो वे मेरे ही बच्चे हैं।”

“हूँ—“,   मैंने फिर साँस ली।

“एक लड़का उनमें बहुत ही  हँसोड़ है।  खूब तगड़ा और बली दिखता है। लाल कहता था,  वह डंडा लड़ने     में,   दौड़ने में,   घूँसेबाजी में,   खाने में,  छेड़ खानी करने और हो-हो, हा-हा कर  हँसने में समूचे  कालेज में    फ़र्स्ट  है।   उसी  लड़के ने एक दिन, जब मैं उन्हें हलवा  परोस  रही थी,  मेरे मुँह  की ओर देखकर कहा,   ‘माँ! तू  तो ठीक भारत माता-सी लगती है। तू बूढ़ी, वह बूढ़ी। उसका उजला हिमालय है, तेरे केश। हाँ,  नक्शे   से साबित करता हूँ—तू भारत माता  है।  सिर  तेरा हिमालय—माथे की दोनों गहरी बड़ी  रेखाएँ गंगा  और   यमुना,  यह  नाक  विंध्याचल, ठोढ़ी कन्याकुमारी तथा छोटी   बड़ी  झुरियाँ-रेखाएँ भिन्न-भिन्न पहाड़ और   नदियाँ  हैं। जरा पास आ मेरे! तेरे केशों को पीछे से आगे बाएँ कंधे पर लहरा दूँ,  वह बर्मा  बन जाएगा।   बिना उसके भारत माता का  श्रृंगार शुद्ध न  होगा।”

जानकी उस लड़के की बातें सोच गद्गद हो उठी,  “बाबू,  ऐसा ढीठ लड़का! सारे बच्चे हँसते रहे और  उसने    मुझे पकड़, मेरे  बालों को बाहर कर अपना बर्मा तैयार  कर  लिया!”

उसकी सरलता मेरी  आँखों में आँसू बनकर छा गई। मैंने पूछा,   “लाल की माँ, और भी वे कुछ बातें करते हैं?   लड़ने की,   झगड़ने की,  गोला,  गोली या बंदूक की?”

“अरे,  बाबू,” उसने  मुसकराकर कहा,   “वे  सभी बातें  करते हैं। उनकी  बातों   का कोई  मतलब  थोड़े    ही होता है। सब जवान हैं,  लापरवाह हैं। जो मुँह में आता है,  बकते हैं। कभी-कभी तो पागलों-सी बातें करते हैं। महीनाभर  पहले एक दिन लड़के बहुत उत्तेजित  थे। न  जाने कहाँ, लड़कों कोसरकार पकड़ रही है। मालूम  नहीं, पकड़ती भी है  या वे  यों ही गप हाँकते थे।  मगर उस दिन  वे यही बक रहे  थे, ‘पुलिसवाले केवल संदेह  पर भले आदमियों के बच्चों को त्रस देते  हैं, मारते हैं,  सताते हैं। यह अत्याचारी पुलिस की नीचता है। ऐसी  नीच  शासन-प्रणाली  को स्वीकार करना  अपने  धर्म को,  कर्म को,  आत्मा  को,  परमात्मा को भुलाना है।    धीरे-धीरे घुलाना-मिटाना है।’

एक ने उत्तेजित भाव से  कहा,  ‘अजी, ये  परदेसी कौन लगते हैं हमारे,  जो बरबस राजभक्ति  बनाए रखने  के लिए  हमारी छाती पर तोप का  मुँह लगाए अड़े और  खड़े हैं।   उफ़!  इस देश के लोगों के  हिये  की आँखें  मुँद   गई   हैं।    तभी   तो  इतने जुल्मों     पर भी     आदमी   आदमी   से   डरता  है।  ये  लोग  शरीर    की रक्षा  के   लिए अपनी-अपनी  आत्मा  की चिता   सँवारते  फिरते हैं।  नाश हो इस  परतंत्रवाद का!’

दूसरे ने  कहा,  ‘लोग ज्ञान न पा  सकें,  इसलिए इस सरकार ने हमारे पढ़ने-लिखने के साधनों को अज्ञान   से भर रखा  है।  लोग वीर  और स्वाधीन  न  हो  सकें,  इसलिए अपमानजनक  और मनुष्यताहीन   नीति-मर्दक कानून गढ़े हैं।  गरीबों  को चूसकर,   सेना के नाम  पर पले हुए पशुओं को शराब से,   कबाब से,  मोटा-ताजा रखती  है यह सरकार।   धीरे-धीरे जोंक की तरह हमारे  धर्म,   प्राण  और  धन  चूसती  चली जा रही है    यह  शासन-प्रणाली!’

‘ऐसे ही अंट-संट ये  बातूनी बका करते हैं,  बाबू।  जभी चार छोकरे  जुटे,  तभी यही चर्चा। लाल के  साथियों का  मिजाज  भी उसी-सा  अल्हड़-बिल्हड़  मुझे मालूम पड़ता है। ये  लड़के ज्यों-ज्यों पढ़ते जा रहे  हैं,  त्यों-त्यों बक-बक में बढ़ते  जा रहे  हैं।’

“यह बुरा है,  लाल की माँ!” मैंने गहरी  साँस ली।

जमींदारी के कुछ जरूरी काम से चार-पाँच दिनों के लिए बाहर गया था।  लौटने पर बँगले में घुसने के पूर्व    लाल के दरवाजे पर नजर पड़ी तो वहाँ एक भयानक सन्नाटा-सा नजर आया – जैसे घर उदास हो,  रोता हो।

भीतर आने  पर मेरी  धर्मपत्नी मेरे सामने उदास मुख खड़ी हो गई।

“तुमने   सुना?”

“नहीं   तो,  कौन   सी बात?”
“लाल की माँ पर भयानक विपत्ति टूट पड़ी  है।”

मैं कुछ-कुछ समझ  गया,  फिर भी विस्तृत विवरण जानने को उत्सुक हो उठा, “क्या  हुआ?  जरा साफ़-साफ़  बताओ।”

“वही हुआ जिसका तुम्हें भय था। कल पुलिस की एक पलटन ने लाल का घर घेर लिया था। बारह घंटे तक तलाशी हुई। लाल,  उसके बारह-पंद्रह साथी, सभी पकड़  लिए  गए  हैं। सबके घरों से  भयानक-भयानक चीजें   निकली हैं।”

“लाल के यहाँ?”

“उसके यहाँ भी दो पिस्तौल, बहुत से कारतूस और पत्र पाए गए हैं। सुना है, उन पर हत्या, षड्यंत्र, सरकारी राज्य उलटने  की चेष्टा आदि अपराध लगाए गए  हैं।”

“हूँ,”  मैंने  ठंडी साँस ली,  “मैं तो महीनों से चिल्ला रहा था कि वह लौंडा धोखा देगा। अब यह बूढ़ी बेचारी  मरी।  वह कहाँ  है? तलाशी के बाद तुम्हारे पास आई थी?”

“जानकी मेरे  पास  कहाँ  आई!  बुलवाने पर भी कल  नकार गई।  नौकर से कहलाया, ‘परांठे बना रही हूँ,    हलवा, तरकारी अभी बनाना है, नहीं तो,  वे बिल्हड़ बच्चे हवालात में मुरझा न जाएँगे। जेलवाले और उत्साही  बच्चों   की दुश्मन  यह सरकार  उन्हें भूखों मार डालेगी।  मगर मेरे जीते-जी यह नहीं  होने  का’।”

“वह पागल है,  भोगेगी,”  मैं दुख से टूटकर चारपाई पर गिर पड़ा।  मुझे लाल के कर्मों  पर घोर खेद हुआ।

इसके बाद  प्रायः  एक वर्ष तक वह मुकदमा चला।  कोई भी अदालत के कागज उलटकर देख सकता है,  सी-आई-डी- ने  और  उनके प्रमुख सरकारी वकील ने उन लड़कों पर बड़े-बड़े दोषारोपण किए। उन्होंने चारों    ओर गुप्त समितियाँ कायम की थीं, खर्चे और प्रचार के लिए डाकेडाले थे,  सरकारी अधिकारियों के यहाँ  रात में  छापा  मारकर शस्त्र एकत्र किए थे। उन्होंने न जाने किस पुलिस के दारोगा को मारा था और न जाने कहाँ, न  जाने किस  पुलिस सुपरिटेंडेंट को। ये सभी बातें सरकार की ओर से  प्रमाणित  की गईं।

उधर उन लड़कों की पीठ पर कौन था?  प्रायः कोई नहीं। सरकार के डर के मारे पहले तो कोई वकील ही उन्हें नहीं मिल रहा था, फिर एक बेचारा मिला भी, तो ‘नहीं’  का भाई। हाँ,  उनकी पैरवी में सबसे अधिक परेशान वह बूढ़ी रहा करती। वह लोटा,  थाली, जेवर आदि  बेच-बेचकर सुबह-शाम उन बच्चों को भोजन पहुँचाती। फिर   वकीलों के यहाँ जाकर दाँत निपोरती, गिड़गिड़ाती,  कहती, “सब  झूठ है।  न  जाने  कहाँ  से  पुलिसवालों ने   ऐसी-ऐसी चीजें हमारे घरों से पैदा कर दी हैं। वे लड़के केवल बातूनी हैं। हाँ,  मैं  भगवान का चरण छूकर कह सकती हूँ,  तुम जेल में जाकर देख आओ,  वकील बाबू। भला,   फूल-से बच्चे हत्या कर  सकते हैं?” उसका तन सूखकर  काँटा हो गया,  कमर झुककर धनुष-सी हो  गई,  आँखें निस्तेज,  मगर उन बच्चों के लिए  दौड़ना,    हाय-हाय करना उसने बंद न किया। कभी-कभी  सरकारी नौकर,  पुलिस या वार्डन झुँझलाकर उसे  झिड़क  देते,   धकिया देते।

उसको अंत तक यह विश्वास रहा कि यह  सब पुलिस की चालबाजी है। अदालत में जब दूध का दूध और पानी  का पानी  किया जाएगा, तब वे बच्चे जरूर बेदाग छूट जाएँगे। वे फिर उसके घर में लाल के साथ आएँगे। उसे   ‘माँ’ कहकर पुकारेंगे।

मगर उस दिन उसकी कमर  टूट गई,   जिस दिन ऊँची अदालत ने भी लाल को, उस बंगड़ लठैत को तथा दो  और लड़कों को फाँसी और दस को दस वर्ष से सात वर्ष तक की कड़ी सजाएँ सुना  दीं।

वह अदालत के बाहर झुकी खड़ी थी। बच्चे  बेड़ियाँ बजाते,  मस्ती से झूमते बाहर आए।  सबसे  पहले उस बंगड़ की नजर  उसपर  पड़ी।

“माँ!” वह मुसकराया, “अरे, हमें तो हलवा खिला-खिलाकर तूने गधे-सा तगड़ा कर दिया है, ऐसा कि फाँसी की रस्सी टूट जाए और हम अमर के अमर बने रहें, मगर तू स्वयं सूखकर काँटा हो गई है। क्यों पगली, तेरे लिए  घर में खाना नहीं है क्या?”

“माँ!”   उसके लाल ने  कहा,  “तू भी जल्द वहीं आना जहाँ हम लोग जा रहे हैं।  यहाँ से थोड़ी ही देर का  रास्ता है, माँ!  एक साँस में   पहुँचेगी।  वहीं  हम स्वतंत्रता से  मिलेंगे।  तेरी गोद में  खेलेंगे। तुझे कंधे पर उठाकर  इधर  से  उधर दौड़ते  फिरेंगे। समझती है?  वहाँ बड़ा आनंद  है।”

“आएगी न,  माँ?”  बंगड़ ने पूछा।

“आएगी   न,  माँ?”  लाल ने  पूछा।

“आएगी न,  माँ?”  फाँसी-दंड प्राप्त दो दूसरे लड़कों ने भी पूछा।

और वह टुकुर-टुकुर उनका मुँह ताकती रही – “तुम   कहाँ  जाओगे पगलो?”

 

जब से लाल और उसके साथी पकड़े  गए, तब से शहर या   मुहल्ले का कोई भी आदमीलाल की माँ   से मिलने से डरता था। उसे रास्ते  में देखकर जाने-पहचाने बगलें  झाँकने  लगते। मेरा स्वयं अपार प्रेम था उस बेचारी  बूढ़ी  पर,  मगर मैं भी बराबर दूर ही रहा। कौन अपनी गदरन मुसीबत में डालता,  विद्रोही की माँ से संबंध रखकर?

उस दिन ब्यालू करने के बाद कुछ देर के लिए पुस्तकालय वाले कमरे में गया, किसी महान लेखक की कोई   महान कृति क्षणभर देखने  के लालच से।   मैंने मेजिनी की एक जिल्द निकालकर उसे खोला। पहले ही पन्ने  पर पेंसिल  की लिखावट देखकर चौंका।  ध्यान देने पर पता चला, वे लाल के हस्ताक्षर  थे। मुझे याद पड़   गई। तीन वर्ष पूर्व उस पुस्तक को मुझसे माँगकर उस लड़के ने पढ़ा था।

एक बार मेरे मन में बड़ा  मोह उत्पन्न हुआ उस लड़के के लिए।  उसके पिता रामनाथ की दिव्य और स्वर्गीय  तसवीर मेरी आँखों के आगे नाच गई। लाल की माँ पर उसके सिद्धांतों, विचारों या आचरणों  के कारण जो वज्रपात हुआ था, उसकी एक ठेस  मुझे भी,  उसके हस्ताक्षर को देखते ही लगी। मेरे मुँह से एक गंभीर,   लाचार, दुर्बल  साँस निकलकर  रह गई।

पर,  दूसरे ही क्षण पुलिस सुपरिटेंडेंट का ध्यान आया। उसकी भूरी,  डरावनी, अमानवी  आँखें मेरी   ‘आप सुखी  तो  जग  सुखी’  आँखों  में  वैसे ही चमक गईं,  जैसे ऊजड़  गाँव के   सिवान में   कभी-कभी    भुतही चिनगारी चमक  जाया करती है।  उसके रूखे  फ़ौलादी  हाथ, जिनमें  लाल की तसवीर थी,  मानो मेरी  गरदन चापने लगे। मैं मेज पर से रबर (इरेजर) उठाकर उस पुस्तक पर से उसका नाम उधेड़ने लगा। उसी समय मेरी  पत्नी के साथ लाल की माँ वहाँ आई। उसके हाथ में एक पत्र  था।

“अरे!” मैं अपने को रोक न सका, “लाल की माँ! तुम तो बिलकुल पीली पड़ गई हो। तुम इस तरह मेरी ओर  निहारती हो, मानो  कुछ देखती ही नहीं  हो। यह हाथ में  क्या है?”

उसने चुपचाप पत्र  मेरे हाथ में दे दिया।  मैंने  देखा,  उसपर जेल की मुहर  थी। सजा सुनाने के बाद वह वहीं भेज दिया गया था, यह  मुझे  मालूम था। मैं पत्र निकालकर पढ़ने लगा। वह उसकी अंतिम चिट्ठी  थी।      मैंने कलेजा रूखाकर उसे जोर से  पढ़ दिया –

“माँ!

जिस दिन तुम्हें यह पत्र मिलेगा उसके सवेरे मैं  बाल अरुण के किरण-रथ पर चढ़कर उस ओर चला जाऊँगा।   मैं चाहता तो अंत समय तुमसे मिल सकता था,  मगर इससे क्या फ़ायदा!  मुझे  विश्वास है,  तुम मेरी जन्म-जन्मांतर की जननी ही रहोगी। मैं तुमसे दूर कहाँ जा सकता हूँ!  माँ!  जब तक पवन साँस लेता है, सूर्य  चमकता है,  समुद्र लहराता  है,  तब तक कौन मुझे  तुम्हारी करुणामयी गोद से दूर  खींच सकता  है?

दिवाकर थमा  रहेगा,   अरुण रथ  लिए  जमा रहेगा! मैं,   बंगड़ वह, यह सभी   तेरे इंतजार  में   रहेंगे।

हम मिले  थे,   मिले हैं,   मिलेंगे। हाँ,  माँ!

तेरा— लाल”

काँपते हाथ से पढ़ने के बाद पत्र को मैंने उस भयानक लिफ़ाफ़े  में  भर दिया। मेरी पत्नी की विकलता हिचकियों  पर चढ़कर कमरे को करुणा से  कँपाने लगी। मगर, वह जानकी ज्यों-की-त्यों,  लकड़ी पर झुकी, पूरी  खुली  और भावहीन आँखों से मेरी ओर देखती रही,  मानो वह उस कमरे में थी ही नहीं।

क्षणभर बाद हाथ बढ़ाकर मौन भाषा में उसने पत्र   माँगा। और फिर,   बिना कुछ कहे  कमरे के फाटक  के    बाहर  हो   गई,    डुगुर-डुगुर   लाठी  टेकती   हुई। इसके  बाद  शून्य-सा होकर  मैं धम से कुरसी पर गिर पड़ा।  माथा चक्कर खाने लगा। उस पाजी लड़के के  लिए नहीं,   इस सरकार की क्रूरता के  लिए भी नहीं, उस बेचारी  भोली,  बूढ़ी  जानकी – लाल की माँ के लिए।  आह!  वह कैसी स्तब्ध थी। उतनी स्तब्धता किसी दिन  प्रकृति को मिलती तो आँधी आ  जाती। समुद्र पाता तो  बौखला   उठता।

जब एक का घंटा बजा, मैं जरा सगबगाया।  ऐसा मालूम  पड़ने लगा मानो  हरारत पैदा हो  गई   है—माथे   में,  छाती में,  रग-रग में।  पत्नी ने  आकर कहा, “बैठे ही  रहोगे! सोओगे नहीं?”    मैंने    इशारे से  उन्हें    जाने  का  कहा।

फिर  मेजिनी की जिल्द पर नजर गई। उसके ऊपर पड़े  रबर पर भी।  फिर अपने सुखों की,  जमींदारी  की,  धनिक  जीवन की और  उस पुलिस-अधिकारी की निर्दय, नीरस, निस्सार  आँखों   की स्मृति कलेजे में    कंपन  भर   गई। फिर  रबर  उठाकर  मैंने उस पाजी का  पेंसिल-खचित  नाम पुस्तक  की छाती  पर से   मिटा  डालना  चाहा।
“माँ—”

मुझे सुनाई पड़ा। ऐसा लगा,  गोया लाल की माँ कराह रही है।  मैं रबर हाथ में लिए, दहलते दिल से, खिड़की की ओर बढ़ा। लाल के घर की ओर कान लगाने पर सुनाई न पड़ा।  मैं सोचने लगा,  भ्रम होगा। वह अगर कराहती  होती तो  एकाध  आवाज और अवश्य सुनाई पड़ती। वह कराहनेवाली औरत है भी नहीं। रामनाथ के मरने पर भी उस तरह नहीं घिघियाई जैसे साधारण स्त्रियाँ ऐसे  अवसरों पर तड़पा करती हैं।
मैं  पुनः सोचने लगा। वह उस नालायक के लिए क्या नहीं करती थी! खिलौने  की तरह, आराध्य  की तरह, उसे  दुलराती और सँवारती फिरती थी। पर आह रे  छोकरे!

“माँ—”

फिर वही आवाज। जरूर जानकी रो रही है। जरूर वही विकल, व्यथित,  विवश बिलख रही है। हाय री माँ! अभागिनी वैसे ही पुकार रही है जैसे वह पाजी गाकर, मचलकर,  स्वर को खींचकर उसे  पुकारता था।

अँधेरा धूमिल  हुआ,  फीका पड़ा, मिट  चला।  उषा पीली हुई,  लाल हुई।  रवि रथ लेकर वहाँ  क्षितिज  से उस छोर  पर आकर पवित्र मन से खड़ा हो गया। मुझे लाल के पत्र  की याद  आ  गई।

“माँ—”

मानो लाल पुकार  रहा था,  मानो जानकी  प्रतिध्वनि की तरह उसी पुकार को गा रही  थी। मेरी  छाती   धक् धक् करने लगी। मैंने नौकर को पुकारकर कहा, “देखो तो,  लाल की माँ क्या कर  रही है?”

जब वह लौटकर आया, तब मैं  एक बार पुनः मेज और मेजिनी के सामने खड़ा था। हाथ में रबर लिए उसी उद्देश्य से। उसने घबराए स्वर से कहा,  “हुजूर,  उनकी तो अजीब  हालत है। घर में ताला पड़ा है और वे  दरवाजे पर पाँव पसारे,  हाथ  में कोई चिट्ठी  लिए, मुँह  खोल, मरी बैठी हैं।  हाँ सरकार, विश्वास मानिए,  वे   मर गई हैं।  साँस बंद है, आँखें  खुलीं—“

 

कहानी

 

जल्लाद

 

प्रातः आठ साढ़े आठ बजे का समय था। रात को किसी पारसी कम्पनी का कोई रद्दी तमाशा अपने पैसे वसूल करने के लिए दो बजे तक झख मार-मार कर देखते रहने के कारण सुबह नींद कुछ विलम्ब से टूटी। इसी से उस दिन हवाखोरी के लिए निकलने में कुछ देर हो गई थी और लौटने में भी। मैं वायु सेवन के लिए अपने घर से कोई चार मील की दूरी तक रोज ही आया-जाया करता था। मेरे घर और उस रास्ते के बीच में हमारे शहर का जिला जेल भी पड़ता था, जिसकी मटमैली, लम्बी-चौड़ी और उदास चहारदीवारियाँ रोज आगे ही मेरी आँखों के आगे पड़ती और मेरे मन में एक प्रकार की अप्रिय और भयावनी सिहर पैदा किया करती थी। मगर उस दिन उसी जेल के दक्षिणी कोने पर अनेक घने और विस्तृत वृक्षों की अनुज्ज्वल छाया में मैंने जो कुछ देखा, उसे मैं बहुत दिनों तक चेष्टा करने पर भी शायद न भूल सकूँगा। मैंने देखा कि मुश्किल से तेरह-चौदह वर्ष का कोई रूखा पर सुन्दर लड़का, एक पेड़ की जड़ के पास अर्धनग्नावस्था में पड़ा तड़प रहा है और हिचक-हिचक कर बिलख रहा है। उसी लड़के के सामने एक कोई परम भयानक पुरुष असुन्दर भाव से खड़ा हुआ, रूखे शब्दों में उससे कुछ पूछ-ताछ कर रहा था। यह सब मैंने उस छोटी सड़क पर से देखा, जो उस स्थान से कोई पचीस-तीस गज की दूरी पर थी। यद्यपि दिन की बाढ़ के साथ-साथ तपन की गरमी भी बढ़ रही थी और यद्यपि मैं थका और अनमना सा भी था, पर मेरे मन की उत्सुकता उस दयनीय दृश्य का भेद जानने को मचल उठी। मैं धीरे-धीरे उन दोनों की नज़र बचाता हुआ उनकी तरफ़ बढ़ा। अब मुझे ज्ञात हुआ कि लड़का क्यों बिलख रहा था। मैंने देखा, उसके शरीर के मध्य-भाग पर, जो खुला हुआ था, प्रहार के अनेक काले और भयावने चिह्न थे। उसको बेंत लगाए गए थे। बेंत लगाए गए थे उस कोमल-मति गरीब बालक को अदालत की आज्ञा से। मेरा दिल धक् से होकर रह गया। न्याय ऐसा अहृदय, ऐसा क्रूर होता है? अब मैं आड़ में लुक कर उस तमाशे को न देख सका। झट मैं उन दोनों के सामने आ खड़ा हुआ और उस भयानक प्राणी से प्रश्न करने लगा-क्या इसको बेंत लगाए गए हैं? हाँ, उत्तर देने से अधिक गुर्रा कर उस व्यक्ति ने कहा-देखते नहीं हैं आप? ससुरे ने जमींदार के बाग से दो कटहल चुराए थे। लड़का फिर पीड़ा और अपमान से बिलबिला उठा। इस समय वह छाती के बल पड़ा हुआ था, क्योंकि उसके घाव उसे आराम से बेहोश भी नहीं होने देना चाहते थे। वह एक बार तड़पा और दाहिनी करवट होकर मेरी ओर देखने की कोशिश करने लगा। पर अभागा वैसा न कर सका। लाचार फिर पहले ही सा लेट कर अवरुद्ध कण्ठ से कहने लगा-नहीं बाबू, चुरा कहाँ सका? भूख से व्याकुल होकर लोभ में पड़ कर मैं उन्हें चुरा जरूर रहा था, पर जमींदार के रखवालों ने मुझे तुरन्त ही गिरफ्तार कर लिया। ‘गिरफ्तार कर लिया तो तेरे घर वाले उस वक्त कहाँ थे?’नीरस और शासन के स्वर में उस भयानक पुरुष ने उससे पूछा-‘क्या वे मर गए थे? तुझे बचाने-जमींदार से, पुलीस से, बेंत से-क्यों नहीं आए?’ ‘तुम विश्वास ही नहीं करते?’ लड़के ने रोते-रोते उत्तर दिया-‘मैंने कहा नहीं, मैं विक्रमपुर गाँव का एक अनाथ भिखमंगा बालक हूँ। मेरे माता-पिता मुझे छोड़ कर कब और कहाँ चले गए, मुझे मालूम नहीं। वे थे भी या नहीं, मैं नहीं जानता। छुटपन से अब तक दूसरों की जूठन और फटकारों में पला हूँ। मेरे अगर कोई होता तो मैं उस गाँव के जमींदार का चोर क्यों बनता? मेरी यह दुर्गति क्यों होती?…आह…बाप रे…बाप…।’ वह गरीब फिर अपनी पुकारों से मेरे कलेजे को बेधने लगा। मैं मन ही मन सोचने लगा कि किस रूप से मैं इस बेचारे की कोई सहायता करूँ। मगर उसी समय मेरी दृष्टि उस भयानक पुरुष पर पड़ी, जो जरा तेजी से उस लड़के की ओर बढ़ रहा था। उसने हाथ पकड़ कर अपना बल देकर उसको खड़ा किया। ‘तू मेरी पीठ पर सवार हो जा।’ उसी रूखे स्वर में उसने कहा-‘मैं तुझे अपने घर ले चलूँगा।’ ‘अपने घर?’ मैंने विवश भाव से उस रूखे राक्षस से पूछा–‘तुम कौन हो? कहाँ है तुम्हारा घर?…और इसको अब वहाँ क्यों लिए जाते हो?’ ‘मैं जल्लाद हूँ बाबू’ लड़के को पीठ पर लादते हुए खूनी आँखों से मेरी ओर देख कर लड़खड़ाती आवाज़ में उसने कहा-‘मैं कुछ रुपयों का सरकारी गुलाम हूँ। मैं सरकार की इच्छानुसार लोगों को बेंत लगाता हूँ तो प्रति प्रहार कुछ पैसे पाता हूँ और प्राण लेता हूँ तो प्रति प्राण कुछ रुपये।’ ‘फाँसी की सजा पाने वालों से तो नहीं, बेंत खाने वालों से सुविधानुसार मैं रिश्वत भी खाता हूँ। सरकार की तलब से मैंने तो बाबू यही देखा है-बहुत कम सरकारी नौकरों की गुजर हो सकती है। इसी से सभी अपने-अपने इलाकों में ऊपरी कमाई के ‘कर’ फैलाए रहते हैं। मैं गरीब छोटा सा गुलाम हूँ, मेरी रिश्वत की चर्चा तो वैसी चमकीली है भी नहीं कि किसी के आगे कहने में मुझे कोई भय हो। मैं तो सबसे कहता हूँ कि कोई मुझे पूजे तो मैं उसके सगे-सम्बन्धियों को ‘सुच्चे’ बेंत न लगा कर ‘हलके’ लगाऊँ। और नहीं…तो सड़ासड़…सड़ासड़…। उसने ऐसी मुद्रा बना ली जैसे किसी को बेंत लगा रहा हो। वह भूल गया कि उसकी पीठ पर उसकी ‘सड़ासड़’ का एक गरीब शिकार काँप रहा है। ‘मगर इस अनाथ को ‘सुच्चे’ बेंत लगा कर मैंने ठीक काम नहीं किया। इसने जेल में ही बताया था कि मेरे कोई नहीं है। मगर मैंने विश्वास नहीं किया। मैं अपने जिस शिकार का विश्वास नहीं करता, उसके प्रति भयानक हो उठता हूँ, और मेरा भयानक होना कैसा वीभत्स होता है, इसे आप इस लड़के की पीठ पर देखें। मगर इसे काट कर मैंने गलती की। यही न जाने क्यों मेरा मन कह रहा है। ‘इसी से बाबू मैं इसे अपने घर ले जा रहा हूँ, वहाँ इसके घाव पर केले का रस लगाऊँगा और इसको थोड़ा आराम देने के लिए ‘दारू’ पिलाऊँगा, बिना इसको चंगा किए मेरा मन सन्तुष्ट न होगा, यह मैं खूब जानता हूँ।’ भैंसे की तरह अपनी कठोर और रूखी पीठ पर उस अनाथ अपराधी को लाद कर वह एक ओर बढ़ चला। मगर मैंने उसे बाधा दी- ‘सुनो तो, मुझसे भी यह एक रुपया लेते जाओ। मुझको भी इस लड़के की दुर्दशा पर दया आती है।’ ‘क्या होगा रुपया बाबू? भयानकता से मुस्करा कर उसने रुपये की ओर देखा और उसको मेरी उँगलियों से छीन कर अपनी उंगलियों में ले लिया।’ ‘उसको दारू पिलाना, पीड़ा कम हो जाएगी। अभी एक ही रुपया जेब में था, मैं शाम को इसके लिए कुछ और देना चाहता हूँ। तुम्हारा घर कहाँ है? नाम क्या है?’ ‘मैं शहर के पूरब उस कबरिस्तान के पास के डोमाने में रहता हूँ, डोमों का चौधरी हूँ, मेरा नाम रामरूप है। पूछ लीजिएगा।’ उस अनाथ लड़के का नाम ‘अलियार’ था, यह मुझे उस घटना के सातवें या आठवें दिन मालूम हुआ। ग्रामीणों में अलियार शब्द ‘कूड़ा-कर्कट’ के पर्याय रूप में प्रचलित है। उस लड़के ने मुझे बताया। उसके गाँव वालों का कहना है कि उसे पहले-पहल गाँव के एक ‘भर’ ने अलियार पर पड़ा पाया था। उसी ने कई वर्षों तक उसे पाला भी और उसका उक्त नामकरण भी किया। अलियार के अंग पर के बेंतों के घाव, बधिक रामरूप के सफल उपायों से तीन-चार दिनों के भीतर ही सूख चले, मगर वह बालक बड़ा दुर्बल-तन और दुर्बल-हृदय था। सम्भव है, उसको बारह बेंतों की सजा सुनाने वाले मजिस्ट्रेट ने, पुलिस की मायामयी डायरियों पर विश्वास कर, उसकी उम्र अठारह या बीस वर्ष मान ली हो, मगर मेरी नज़रों में तो वह बेचारा चौदह-पन्द्रह वर्षों से अधिक वयस का नहीं मालूम पड़ा। तिस पर उसकी यह रूखी-सूखी काया, आश्चर्य, किसी डाक्टर ने किस तरह उसको बेंत खाने योग्य घोषित किया होगा। जेल के किसी जिम्मेदार और शरीफ अधिकारी ने किस तरह अपने सामने उस बेचारे को बेंतों से कटवाया होगा। जब तक अलियार खाट पर पड़ा-पड़ा कराहता रहा, अपने उसे बेंत खाने के भयानक अनुभव का स्वप्न देख-देख कर अपनी रक्षा के लिए करुण दुहाइयाँ देता रहा, तब तक मैं बराबर, एक बार रोज, रामरूप की गन्दी झोपड़ी में जाता था और अपनी शक्ति के अनुसार प्रभु के उस असहाय प्राणी की मन और धन से सेवा करता था, मगर मेरे इस अनुराग में एक आकर्षण था और यह था जल्लाद रामरूप। न जाने क्यों उसका यह ‘अलकतरा’ रंग, उसकी भयानक नैपालियों-सी नाटी काया, उसका वह मोटा, वीभत्स अधर और पतला ओंठ, जिस पर घनी काली, भयावनी तथा अव्यवस्थित मूँछों का भार अशोभायमान था, मुझे कुछ अपूर्ण सा मालूम पड़ता था। न जाने क्यों उसकी बड़ी-बड़ी, डोरीली, नीरस और रक्तपूर्ण आँखें मेरे मन में एक तरह की सिहर सी पैदा कर देती थीं। पर आश्चर्य, इतने पर भी मैं उसे अधिक से अधिक देखना और समझना चाहता था। उसकी मिट्टी की झोपड़ी में उसके अलावा उसकी प्रौढ़ा स्त्री भी थी। एक दिन जब मैंने रामरूप से उसकी जीवनी पूछी और यह पूछा कि उसके परिवार का कोई और भी कहीं है या नहीं, तो उसने अपनी विचित्र कहानी मुझे सुनाई। ‘बाबू’ उसने बताया-‘पुश्त दो पुश्त से नहीं, मेरे खानदान में तेरह पुश्तों से यही जल्लादी का काम होता है। हाँ, उसके पहले मुसलमानी राज में मेरे पुरखे डाके डाला करते थे। मेरे दादा के दादा ऐसे प्रतापी थे कि सन् ५७ के गदर में उन्होंने इसी शहर के उस दक्षिणी मैदान में सरकार बहादुर के हुकुम से पाँच सौ और तीन पचीस और दो दस आदमियों को चन्द दिनों के भीतर ही फाँसी पर लटका दिया था। उन दिनों वह आठों पहर शराब छाने रहा करते थे। …और कैसी शराब? मामूली नहीं बाबू, गोरों के पीने वाली-अंगरेजी।’ मैंने उसे टोका-रामरूप, क्या अब भी फाँसी देने से पूर्व तुम लोगों को शराब मिलती है? ‘हाँ, हाँ, मिलती क्यों नहीं बाबू, मगर देसी की एक बोतल का दाम मिलता है, विलायती का नहीं, जिसको छान-छान कर मेरे दादा के दादा गाहियों के गाही लोगों को काल के पालने पर सुला देते थे। यही मेरे खानदान में सबसे अधिक धनी और जबरदस्त भी थे। लम्बे-चौड़े तो वह ऐसे थे कि बड़े-बड़े पलटनिये साहब उनका मुँह बकर-बकर ताका करते थे। मगर उनमें एक दोष भी बहुत बड़ा था। वह शराब बहुत पीते थे। इसी में वह तबाह हो गए और मरते-मरते गदर की सारी कमाई फूँक-ताप गए। हाँ, मैं भूल कर गया बाबू, वह मरे नहीं, बल्कि शराब के नशे में एक दिन बड़ी नदी में कूद पड़े और तब से लापता हो गए। नदी के उस ऊँचे घाट पर हमारे दादा ने उनका ‘चौरा्’ भी वनवाया है, जिसकी सैकड़ों डोम पूजा किया करते हैं और हमारे वंश के तो वह ‘वीर’ ही हैं।’ अपने वीर परदादा के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए, उनकी कहानी समाप्त करते-करते रामरूप ने धीरे से अपने कान उमेठे। ‘रामरूप’, मैंने कहा-‘जाने दो अपने पुरखों की कहानी। वह बड़ी ही भयानक है। अब तुम यह बताओ कि तुम्हारे कोई बच्ची-बच्चा भी है?’ ‘नहीं बाबू’, किञ्चित गम्भीर होकर उसने कहा-‘मेरी औरतिया को, कोई सात बरस हुए-एक लड़का हुआ ज़रूर था, मगर वह दो साल का होकर जाता रहा। बच्चे तो वैसे भी मेरे खानदान में बहुत कम जीते हैं। न जाने क्यों, जहाँ तक मुझे मालूम है, मेरे किसी भी पुरखे का एक से ज्यादा बच्चा नहीं बचा। मुझको तो वह भी नसीब नहीं। मेरी लुगैया तो अब बूढ़ी हो जाने पर भी बच्चा-बच्चा रिरियाती रहती है। मगर यह मेरे बस की बात तो है नहीं। मैं तो आप ही चाहता हूँ कि मेरे एक वीर बच्चा हो, जो हमारे इस पुश्तैनी रोजगार को मेरे बाद संभाले, पर जब दाता देता ही नहीं तब कोई क्या करे?’ ‘जब तक तुम्हारे और कोई नहीं है’ मैंने उस जल्लाद के हृदय की थाह ली-‘तब तक तुम इसी भिखमंगे को क्यों नहीं पालते-पोसते? तुमने कुछ अन्दाज लगाया है? कैसा है उसका मिजाज? यह तुम्हारे यहाँ खप जाने लायक है?’ ‘है तो, और मेरी लुगइया उसको चाहती भी है।’ रामरूप ने ज़रा मुस्करा कर कहा-‘पर मेरे अन्दाज से वह अलियार कुछ दब्बू और डर्रू है। और मेरे लड़के को तो ऐसा निडर होना चाहिए कि जरूरत पड़े तो बिना डरे काल की भी खाल खींच ले और जान निकाल ले। यह मंगन छोकरा भला मेरे रोजगार को क्या सँभालेगा?’ ‘कोई दूसरा रोजगार देखो रामरूप’, मैंने कहा-‘छोड़ो इस हत्यारे व्यापार को, इसमें भला तुम्हें क्या आनन्द मिलता होगा। ग़ज़ब की है तुम्हारी छाती, जो तुम लोगों को प्रसन्न भाव से बेंत लगाते हो और फाँसी के तख्ते पर चढ़ा कर अपने परदादा के शब्दों में काल के पालने में सुला देते हो, मगर यह सुन्दर नही।’ ‘हा, हा, हा, हा’ रामरूप ठठाया-‘आप कहते हैं यह सुन्दर नहीं। नहीं बाबू, हमारे लिए यह परम सुन्दर है। आप जानते ही हैं कि मैं आप लोगों की ‘नीच जाति’ का एक तुच्छ प्राणी हूँ। आप तो नए ख़याल के आदमी हैं, इसलिए न जाने क्या समझ कर इस लड़के के प्रेम में मेरी झोपड़ी तक आए भी हैं, नहीं तो मैं और मेरी जाति इस इज्जत के योग्य कहाँ? मेरे घर वाले जल्लादी न करते, तो आप लोगों के मैले साफ करते और कुत्तों को मारते। मगर-हा, हा, हा, हा-कुत्तों को मारने से तो आदमी मारना कहीं अच्छा है, इसे आप भी मानेंगे, यद्यपि मेरी समझ से कुत्ता मारना और आदमी मारना, जल्लाद के लिए एक ही बात है। हमारे लिए वे भी अपरिचित और निरपराध और ये भी। दूसरों के कहने पर हम कुत्तों को भी मारते हैं और कुत्तों से ज्यादा समझदारों-आदमियों- को भी।’ इसके बाद मुझे एक काम के सिलसिले में बम्बई जाना पड़ा और वहीं पूरे दो महीने रुकना पड़ा। लौटने पर भूल गया उस जल्लाद को और परिचित उस अलियार को। प्रायः दो बरस तक उनकी कोई खबर न ली। फुर्सत भी अपनी मानविक हाय-हायों से, इतनी न थी कि उनकी ओर ध्यान देता। मगर उस दिन अचानक अलियार दिखाई पड़ा, और मैंने नहीं, उसी ने मुझको पहचाना भी। मुझे इस बार वह कुछ अधिक स्वस्थ, प्रसन्न और सुन्दर मालूम पड़ा। ‘कहां रहते हो आजकल अलियार?’ मैंने दरियाफ्त किया,’और वह अद्भुत मित्र कैसे हैं, जिनको तुम शायद सपने में भी न भूल सकते होगे।’ ‘वह मजे में है,’ उसने उत्तर दिया-‘और मैं तभी से उसी के साथ रहता हूँ। तभी से उसकी वह स्त्री मुझको अपने बेटे की तरह मानती और पालती है।’ ‘तो क्या अब तुम भी वही व्यापार सीख रहे हो और रामरूप की गद्दी के हकदार बनने के यत्न में हो?’ ‘मुझे स्वयं तो पसन्द नहीं है उसका वह हत्या-व्यापार, मगर उसकी रोटी खाता हूँ तो बातें भी माननी पड़ती हैं। वह अब अक्सर मुझे फाँसी या बेंत लगाने के वक्त अपने साथ जेल में ले जाता है और अपने निर्दय व्यापार को बार-बार मुझे दिखा कर अपना ही सा बनाना चाहता है।’ ‘तुम जेल में जाने कैसे पाते हो?’ मैंने पूछा-‘वहाँ तो बिना अफसरों की आज्ञा के कोई भी जाने नहीं पाता है। फिर खास कर बेंत मारने और फाँसी के वक्त तो और भी बाहरी लोगों की मनाही रहती है।’ ‘मगर’ उसने उत्तर दिया-‘अब तो मैं उसे मामा कह कर पुकारता हूँ और वह मुझे बहिन का लड़का और अपना गोद लिया हुआ बेटा कहकर अफसरों के आगे पेश करता है। कहता है, हमारे खानदान के सभी लड़कों ने इसी तरह देख-देख कर इस विद्या का अभ्यास किया था।’ ‘तो तुम भी अब,’ मैंने एक उदास साँस ली-‘जल्लाद बनने की धुन में हो? वही जल्लाद, जिसके अस्तित्व के कारण उस दिन जेल के उस कोने में पड़े तुम तड़प रहे थे और अपने भावी मामा की ओर देख-देख कर उसकी क्रूरता को कोस रहे थे। बाप रे… तुम उस भयानक रामरूप को प्यार करते हो- कर सकते हो?’ मेरे इस प्रश्न पर कुछ देर तक अलियार चुप और गम्भीर रहा। फिर बोला-‘नहीं बाबू जी मैं उस पशु को कदापि नहीं प्यार करता, बलिक आपसे सच कहता हूँ, उससे घृणा करता हूँ। जब-जब मेरी नजर उस पर पड़ती है, तब-तब मैं उसे उसी रूप में देखता हूँ, जिस रूप में उस दिन देखा था, जिसकी आप अभी चर्चा कर रहे थे। पर मैं उसकी स्त्री का आदर करता हूँ, जो हत्यारे की औरत होने पर भी हत्यारिणी नहीं, माँ है। बस उसी कारण मैं वहाँ रुका हूँ, नहीं तो मेरा बस चले तो मैं उस रामरूप को एक ही दिन इस पृथ्वी पर से उठा दूँ, जो लोगों की हत्या करके अपनी जीविका चलाता है। और आपसे छिपाता नहीं, मैं शीघ्र ही किसी न किसी तरह उसको इस व्यापार से अलग करूँगा, इसमें कोई सन्देह नहीं।’ ‘वह ऐसा कप़ड़ा नहीं है अलियार’ मैंने कहा-‘जिस पर कोई दूसरा रंग भी चढ़ सके। रामरूप को, जहाँ तक मैंने समझा है, स्वयं भगवान भी उसके व्यापार से अलग नहीं कर सकते। दूसरे जल्लाद चाहे कुछ कच्चे अधिक हों, मगर तुम्हारा यह मामा तो जरूर ही सभी जल्लादों का दादा गुरू है। बचना तुम उससे-…और उसको उसके पथ से विरत करना नहीं सो सावधान, वह ऐसा निर्दय है कि कुछ उलटी-सीधी समझते ही तुम्हारे प्राणों तक को मसल डालेगा।’ ‘पर बाबू’ अलियार ने सच-सच कहा-‘अब तो वह भी मुझको प्यार करने लग गया है। मुझे तो कभी-कभी ऐसा ही मालूम पड़ता है। आश्चर्य से चकित हो कर कभी-कभी मेरी वह नई माँ भी ऐसा ही कहा और सोचा करती है। वह क्रुद्ध होने पर अब भी अक्सर मेरी माँ को बुरी तरह मारने लगता है, पर मेरी ओर-बड़ा से बड़ा अपराध होने पर भी-न जाने क्यों, तर्जनी उँगली तक नहीं उठाता। मुझे अपने ही साथ खिलाता भी है, और यहाँ-वहाँ-जेल में और छोटे-मोटे अफसरों के पास-ले भी जाता है। मगर इतने पर भी मैं उससे घृणा करता हूँ। उसका अमंगल और सर्वनाश चाहता हूँ।’ ‘क्यों…न जाने क्यों?’ मैंने साश्चर्य से पूछा। उसने उत्तर दिया-‘मैं उस पशु को कभी प्यार नहीं कर सकता। अच्छा बाबू, आपको भी देर हो रही है, मुझे भी। यहाँ रहा तो फिर कभी सलाम करने आ जाऊँगा। इस वक्त जाने दीजिए-सलाम।’ मुझको यह विश्वास नहीं था कि वह दुबला-पतला भिखमंगा बालक अपने निश्चय का ऐसा पक्का निकलेगा कि एक दिन सारे शहर में तहलका मचा कर छोड़ेगा पर वह विचित्र निकला। एक दिन प्रातःकाल होते ही शहर में जोरों की सनसनी फैली कि आज स्थानीय जिला-जेल से कोई बड़ा मशहूर फाँसी का कैदी भाग निकला है। यद्यपि उसके भागने के वक्त पहरेदार वार्डरों को कुछ आहट मिल गई थी, पर उससे कोई फायदा नहीं हो सका। भागने वाला तो भाग ही गया। हाँ, भगाने वालों में से एक नवयुवक पकड़ा गया है। समाचार तो आकर्षक था, इसलिए कि फाँसी का कोई कैदी भागा था। मेरे जी में आया कि जरा जेल की ओर टहलता हुआ चलूँ। देखूँ, वहाँ शायद रामरूप या अलियार मिलें। उन दोनों में से किसी के भी मिलने से बहुत सी भीतरी बातों का पता चल सकेगा। कपड़े पहन और टहलने की छड़ी हाथ में लेकर जब मैं जेल के पास पहुँचा तो वहाँ का हँगामा देखकर एक बार आश्चर्य में आ गया। फाटक के बाहर अपने क्वार्टरों के सामने मैदान में ड्यूटी से बचे हुए अनेक वार्डर हताश और उदास खड़े गत रात्रि की घटना पर मनोरंजक ढंग से वाद-विवाद कर रहे थे। ‘भीतर बड़े साहब और कलेक्टर’ एक ने दरियाफ्त किया-‘उसका बयान ले रहे हैं, ग़ज़ब कर दिया उस लौंडे ने। ऐसे जालिम आदमी को भगा दिया, जिसे कि, अब सरकार पा ही नहीं सकती। मैंने पहले इस छोकरे को ऐसा नहीं समझा था।’ ‘अरे उसको छोकरा कहते हो?’ दूसरे मुसलमान वार्डर ने कहा-‘साला चाहे तो बड़े-बड़ों को चरा के छोड़ दे। मगर उस पाजी की वजह से बेचारा रामरूप पिस जाएगा, क्योंकि अपना-अपना बोझ हलका हल्का करने के लिए सभी गरीब रामरूप पर टूटेंगे। उसी की वजह से वह जेल में आने-जाने और उसके भेद पाने लायक हुआ था। अब देखना है, रामरूप की डोंगी किस घाट लगती है।’ ‘वह भी अफ़सरों के सामने जेलर साहब द्वारा बुलाया गया है। शायद उसको भी बयान देना होगा।’ ‘नहीं’, किसी गम्भीर वार्डर ने कहा-‘जेल के कर्मचारियों से जब कोई ग़लती हो जाती है, तब अपनी सारी ताकत लगा कर वह उसे छिपाने की कोशिश करते हैं। मुझे ठीक मालूम है कि उस लड़के के सिलसिले में रामरूप का नाम लिया ही न जाय और यह साबित ही न होने दिया जाय कि वह पहले से यहाँ आता-जाता था। यह बात रामरूप को और उस लौंडे को भी समझा दी गई है।’ ‘मगर वह पाजी छोकरा, जिसने उस मशहूर डाकू को भगा कर हमारे सर पर आफत का पहाड़ ढा दिया है, जेलर की सलाह मानेगा ही क्यों? अगर अपने बयान में वही कुछ कह दे?’ ‘अजी कहेगा ज़रूर ही’, किसी बूढ़े वार्डर ने राय दी-‘आखिर इस भगाई में एक खून भी तो हुआ है। माना कि खून लड़के ने नहीं, उस डाकू के किसी साथी ने किया होगा, पर अगर दूसरे न पकड़े गए तो उस वार्डर का खून तो इसी छोकरे के माथे मढ़ा जाएगा। उफ, बड़े जीवट की यह घटना हुई है। मैं तो तीस साल से इस नौकरी में हूँ। इस बीच में पचासों कैदियों के भागने की की बातें मैंने सुनीं, मगर उनमें ऐसी घटना एक भी नहीं। फाँसी के कैदी का भाग जाना और भाग जाने पाना-कमाल है। अरे, इस मामले में जेल का सारा स्टाफ बदल दिया जाएगा-बड़े साहब से लेकर छोटे जमादार तक। लोग तनज़्जुल होंगे, सो अलग।’ इसी समय रामरूप जेल के फाटक से बाहर आता दिखाई पड़ा। सबकी नज़र उस पर पड़ी। ‘वह देखो’, एक ने कहा-‘वह बाहर आया, ओह, कैसी लाल हैं आज उसकी आँखें। कैसे उसके होंठ फड़क रहे हैं। जरा बुलाओ तो इधर। पूछा जाय कि भीतर क्या हो रहा है।’ ‘क्या हो रहा है रामरूप?’ अपनी ओर बुलाकर वार्डरों ने उससे दरियाफ्त किया-‘क्या कलेक्टर के आगे तुम्हारा नाम भी लिया जा रहा है?’ ‘नहीं बाबू,’ उसने दाँत किटकिटा कर कहा-‘आप लोगों की दया से मेरा नाम तो नहीं लिया जा रहा है। वह छोकरा भी इस बारे में चुप है। कुछ बोलता ही नहीं, सिवा इसके कि- हाँ, मैंने ही उस डाकू को भगा दिया है। मैंने ही मारा भी है उस वार्डर को। मेरी सहायता में और लोग भी थे, मगर मैं उन्हें इस बारे में नहीं फँसाना चाहता। मेरी सज़ा हो, मुझको फाँसी दी जाय, मैं तैयार हूँ।’ ‘फिर क्या होगा, रामरूप’ एक ने पूछा-‘लच्छन कैसे दिखाई पड़ते हैं।’ ‘क्या होगा, इसे आज ही कौन बता सकता है जमादार साहब?’ उसने नीरस उत्तर दिया-‘अभी तो सरकार उस डाकू और उसके साथियों को पकड़ने की कोशिश करेगी। इसके बाद उस साले भिखमंगे को फाँसी दी जाएगी, इसमें कोई सन्देह नहीं, वह पाजी जरूर फाँसी पर लटकाया जाएगा। मैं फाँसी पाने वालों की आँखें पहचान जाता हूँ और सच कहता हूँ कि भैरव बाबा की दया से मैं उस शैतान के बच्चे को मृत्यु के झूले पर टाँगूँगा।’ न जाने क्या विचार कर रामरूप एकाएक उत्तेजित हो उठा- ‘इन्हीं हाथों से मैंने अच्छे-अच्छे और बड़े-बड़ों को फाँसी पर टाँग दिया है। सच मानना जमादार साहब, आज तक चार बीस और सात आदमियों को लटका चुका हूँ। अब यह साला आठवाँ होगा, हाँ, हाँ, आठवाँ होगा-आठवाँ होगा।’ उत्तेजित रामरूप उस भीड़ से दूर एक ओर तेजी से बड़बड़ाता हुआ बढ़ गया। उस समय उससे कुछ पूछने की हिम्मत न हुई। मगर आश्चर्य की बात तो यह है कि धीरे-धीरे वह क्रूर हृदय जल्लाद उस अलियार को प्यार करने लग गया था। अलियार उस दिन बिलकुल सच कह रहा था। क्योंकि सेशन अदालत से, और किसी प्रामाणिक मुजरिम के अभाव में और प्रमाणों के आधिक्य से, अलियार को फाँसी की सजा सुनाई गई, तब वही रामरूप कुछ ऐसा उत्तेजित हो उठा कि पागल सा हो गया। ‘हा हा हा हा?’ वह अदालत के बाहर ही निस्संकोच बड़बड़ाने लगा-‘अब लूँगा-अब बच्चू से लूँगा बदला। क्यों न लूँ बदला उससे? मैंन सरकारी हुक्म से उसको, उस दिन बेंत मारे थे, जिसका उसने मुझसे ऐसा भयानक बदला लिया है। मेरी रोजी मारते-मारते बचा। वह तो बचा ही, उस पापी ने मेरी औरत को अपने प्रेम में खाट पकड़वा दी है। अब भोगो बेटे, अब झूलो पालना बच्चू। हा हा हा हा।’ यद्यपि अलियार की फाँसी की सजा सुन कर जल्लाद अट्टहास कर उठा, पर मेरा तो कलेजा धक् से होकर रह गया। मुझको ऐसी आशा नहीं थी कि जिस कहानी का आरम्भ, उस दिन जेल के कोने में, अलियार और जल्लाद से मेरे परिचित होने से हुआ था, उसका अन्त ऐसा वीभत्स होगा। मैंने बड़े दुख के साथ, उस दिन यह निश्चय किया कि अब मैं कभी उस रामरूप के सामने न जाऊँगा। मगर संयोग को कौन टाल सकता है? जिस दिन अलियार को दुनिया के उस पार फेंक देने का निश्चय हो गया था, उससे एक दिन पूर्व मैंने उसको अन्तिम बार पुनः देखा। हाथ में एक हाँडी लिए परम उत्तेजित भाव से वह शहर की एक चौमुहानी पर खड़ा था और उसको घेरे हुए लड़कों, युवकों और बेकारों की एक भीड़ खड़ी थी। अजीब-अजीब प्रश्न लोग उस पर बरसा रहे थे और वह उनके रोमांचकारी उत्तर दे रहा था। किसी ने पूछा-‘तुम कौन हो भाई…’ ‘मैं?’ वह मुस्कराया-‘मैं महापुरुष हूँ। आह, पर अफसोस, तुम नहीं जानते कि मैं महापुरुष क्योंकर हो सकता हूँ, क्योंकि मैं तो खानदानी जल्लाद रामरूप हूँ। पर अफसोस, तुम नहीं जानते कि प्रत्येक जल्लाद महापुरुष होता है।’ ‘अच्छा यार,’एक ने कहा-‘हमने मान लिया कि तुम महापुरुष हो। पर यह तो बताओ कि आज यहाँ’ इस तरह क्यों खड़े हो?’ ‘यह हाँडी,’ उसने हाँडी का मुँह भीड़ के सामने किया-इसमें फाँसी की रस्सी है जरूर, यह असली नहीं है। असली रस्सी तो दुरुस्त करके आज ही जेल में ऐसे ही एक बरतन में रख आया हूँ। वह रस्सी इससे कहीं सुन्दर, कहीं मजबूत है। इसको तो केवल अभ्यास के लिए अपने साथ लेता आया हूँ। आज रात भर इन उस्ताद हाथों को फाँसी देने का अभ्यास जोर-शोर से कराऊँगा। क्योंकि इस बार मामूली आदमी को नहीं लटकाना है। इस बार उसको लटकाना है, जिसके झूलते ही कोई आश्चर्य नहीं, जो मेरी औरतिया भी इस दुनिया से कूच कर जाये, क्योंकि वह उस पापी को प्यार करती है। किसी ने कहा-जरा अपने गले में इस रस्सी को लगा कर दिखाओ तो रामरूप कि फाँसी की गाँठ कैसे दी जाती है? ‘हाँ, हाँ’ उसने रस्सी को अपने गले में चारों ओर लपेट कर, गाँठ देना शुरू किया। ‘यह देखो, यह गले का कण्ठ है और यह है मेरी मृत्यु-गाँठ। बस, अब केवल चबूतरे पर खड़ाकर झुला देने की कसर है। जहाँ एक झटका दिया कि बच्चू गए जग-धाम। यह देखो…यह देखो…।’ अपने गले में उस रस्सी को उसी तरह लपेटे वह उन्मत्त रामरूप हाँडी फेंक कर, भीड़ को चीरता हुआ एक ओर बेतहाशा भाग गया। दूसरे दिन अलियार को फाँसी देने के लिए जब सशस्त्र पुलिस, मैजिस्ट्रेट, जेल-सुपरिन्टेंडेंट और अन्य अधिकारी एकत्र हुए तो मालूम हुआ कि जल्लाद रामरूप हाजिर नहीं है। पुलिस दौड़ी, जेल के वार्डर दौड़े, उसको ढूँढने के लिए। मगर वह मिल न सका। न जाने कहाँ गायब हो गया। अलियार को उस दिन फाँसी नहीं हो सकी। मगर उसी दिन दोपहर को कुछ लोगों ने रामरूप को शहर के बाहर एक बरगद की डाल में, फाँसी पर टँगे देखा। उसकी गर्दन में वही रस्सी थी, जिसको कुछ घण्टे पूर्व शहर के अनेक लोगों ने उसके हाथ में देखा था। उस समय भी उसकी आँखें खुली, भयानक और नीरस थीं। जीभ मुँह से कोई बारह अंगुल बाहर निकल आई थी कि बड़े-बड़े हिम्मती तक उसकी ओर देख कर दहल उठते थे।
उग्र जी  की चर्चित  आत्मकथा ”अपनी खबर” का एक अंश

 

ज जिन्दगी के साठ साल सकुशल समाप्त हो जाने के उपलक्ष्‍य में उन्हें, जो कि मुझे कम या बेश जानते हैं, अपने जीवन के आरंभिक बीस बरसों की घटनाओं से कसमसाती कहानी सुनाना चाहता हूँ।

विक्रमीय संवत् के 1957 वें वर्ष के पौष शुक्‍ल अष्‍टमी की रात साढ़े आठ बजे मेरा जन्‍म यू.पी. के मिर्ज़ापुर ज़िले की चुनार तहसील के सद्दूपुर नामक मुहल्‍ले में बैजनाथ पाँडे नामक कौशिक गोत्रोत्पन्न सरयूपारीण ब्राह्मण के घर पर हुआ। मेरी माता का नाम जयकली, जिसे बिगाड़कर लोग ‘जयकल्‍ली’ पुकारते थे। मेरे पिता तेजस्वी, सतोगुणी,वैष्णव-हृदय के थे। मेरी माता ब्राह्मणी होने के बावजूद परम उग्र, कराल-क्षत्राणी स्वभाव की थीं। मेरे एक दर्जन बहन-भाई थे जिनमें अधिकतर पैदा होते ही या साल-दो साल के होते-होते प्रभु के प्यारे हो गए थे। पहले भाइयों के नाम उमाचरण, देवीचरण, श्रीचरण, श्‍यामाचरण, रामाचरण आदि थें। इनमें अधिकतर बच्चे दग़ा दे गए थे, अत: मेरे जन्म पर कोई ख़ास उत्साह नहीं प्रकट किया गया। शायद थाली भी न बजाई गई हो, नौबत और शहनाई तो दूर की बात। मैं भी कहीं दिवंगत अग्रेजों की राह न लगूँ, अत: तय यह पाया कि पहले तो मेरी जन्म-कुंडली न बनाई जाए, साथ ही जन्मते ही मुझे बेच दिया जाए। सो, जन्मते ही मुझे यारों ने बेच डाला। और किस क़ीमत पर? महज़ टके पर एक! उसका भी गुड़ मँगाकर मेरी माँ ने खा लिया था। अपने पल्ले उस पर टके में से एक छदाम नहीं पड़ा था, जो मेरे जीवन का संपूर्ण दाम था। अलबत्ता ‘जन्मजात बिका’ का बिल्ला-जैसा नाम तौक की तरह गले मढ़ा गया— बेचन! बेचन नाम ऐसा नहीं, जिसे ओमप्रकाश की तरह भारत-प्रचलित कहा जाए। यह तो उत्तर भारत के पूरबी ज़िलों में चलनेवाला नाम है, सो भी अहीरों, कोरियों, तथाकथित निम्‍न-वर्गीयों में प्रचलित। ब्राह्मण के घर में पैदा होने पर भी मुझे यह जो मंद नाम बख्शा गया. उसकी बुनियाद में मेरी बहबूदी, जिन्दगी-दराज़ की कामना ही थी। किसी भी नाम से बेटा जिए तो! आज जीवन के 60वें साल में मैं साधिकार कह सकता हूँ कि मुझे ही नहीं, मौत को भी यह नाम नापसन्‍द है। लेकिन, अब, इस उम्र में तो ऐसा लगता है यह नाम नहीं, तिलस्मी गंडा है, जिसके आगे काल काहथकंडा भी नहीं चल पा रहा है।

इस तरह—मैं शिकायत नहीं करता—देखिए तो जहाँ मैं पैदा हुआ वह परिवार तो ग़रीब था ही, नाम भी मुझे जगन्नाथ, भुवनेश्वर, राजेश्वर, धनीराम, मनीराम, सूर्यनारायण, सुमित्रानंदन, सच्चिदानन्द हीरानन्‍द वात्‍स्यायन जैसा नहीं मिला ! और गोया इससे भी मेरे दुर्भाग्य को संतोष नहीं हुआ तो मैंने अभी तुतलाना भी नहीं सीखा था कि पिता का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद मैं अपने बड़े भाई के अंडर में आया , जो विवाहित थे और पिता के बाद घर के पालक थे। मेरे बड़े भाई ने विधि से कुछ भी पढ़ा नहीं था, फिर भी बुद्धि उनकी ऐसी तीव्र थी कि वह हिंदी तो बहुत ही अच्छी साथ ही संस्कृति और बंगला भी ख़ासी जानते थे; वैद्यक और ज्योंतिष में भी टाँग अड़ाने की योग्यता रखते थे। वह समस्या-पूर्ति-युग के कवि और गद्य-लेखक भी ख़ासे थे। प्रूफ-शोधन तथा पत्रकार-कला से भी उनका घनघोर सम्बन्ध था। मेरे यह बड़े भाई साहब जब जवान थे तभी सनातन धर्म के भाग्य में, परिवार-पद्धति के भाग्य में, सर्वनाश की भूमिका लिखी हुई थी। अतएव जाने-अनजाने युग के साथ भाई साहब को भी इस सर्वनाश नाटक में अपने हाथों पाँव में कुल्‍हाड़ी मारने का उन्मत्त पार्ट अदा करना पड़ा। हम नज़दीक थे, अत: भाई साहब का काम हमें अधिक दुखदायी एवं बुरा लगा। लगा, दुनिया में उन-जैसा बुरा कोई था ही नहीं। लेकिन ज़रा ही ध्यान से देखने से पता चल जाएगा कि मेरे घर में जो हो रहा था वह अकेले मेरे ही घर का नहीं, कमोबेश समाज के घर-घर का नाटक था।

और मैं उस गली की कहानी बतला दूँ जिसमें मैंने जन्म लिया था। सद्दूपुर मुहल्‍ले की एक गली—बँभन-टोली। गली के इस सिरे से उस सिरे तक ब्राह्मणों ही के मकान एक तरफ़ और दूसरी तरफ़ भी एक तेली तथा दो-तीन कोरियों के घरों को छोड़ बाकी ज़मीनें ब्राह्मणों की। दो-तीन घरों को छोड़ बाक़ी सभी ब्राह्मण खाते-पीते ख़ासे। एकाध तो पूँजीवाले भी। दक्खिनी नाके पर भानुप्रताप तिवारी, जिनके बड़े-बड़े दो-दो मकान। फिर ग़रीब मुसई पाठक, फिर मेरे पिता की योग-क्षेम गृहस्थी, चचा भी हमीं-जैसे लेकिन वैद्य होने से उनके हाथ में कल्पवृक्ष की डाल-जैसी अलौकिक विभूति हमेशा ही रही, जिससे वह प्रभाववाले और अभावहीन थे। इसके बाद हमारे पट्टीदार भाई विन्देश्वरी पाँडे का परिश्रमी, प्रसन्न परिवार। फिर ब्रह्मा मिश्र की हवेली। जयमंगल त्रिपाठी का घर और अंत में बेचू पाँडे का सहन। एक भानुप्रताप तिवारी को छोड़ बाकी सभी ब्राह्मण जजमानी वृत्ति वाले थे। हवेली वाले ब्रह्मा मिश्र की जजमानी सबसे ज्यादा थी। बाग-बगीचे, खेती-बाड़ी, लेन-देन भी होता था। बेचू पाँडे उनके आधे के भागीदार थे। हम लोगों की जजमानी यूँ ही जयसीताराम थी। कहिए हम शानदार भिखारी सड़क पर कपड़े फैला या गलियों में हाथ पसारकर भीख माँगता है, लेकिन हमें ग़रीब और बाह्मण जानकर जाने लोग हमारे घर भीख पहुँचा जाते थे। यह भीख भी शानदार थी, तब तक जब तक बाह्मणों के घर में बाह्मण पैदा होते थे। लेकिन जब ब्राह्मणों के घर में ब्रह्मराक्षस पैदा होने लगे तब तो यह जजमानी वृत्ति नितान्‍त कमीना धन्‍धा—सव्यं नीचातिनीच होकर भी दूसरों से चरण पुजवाना—रह गई थी। यह कथा आज से 55 वर्ष पूर्व की है। तभी तथाकथित सनातन धर्म के नाश का आरंभ उसी के अनुगामियों—धर्म के ठेकेदार ब्राह्मणों—द्वारा हो चुका था। मानो तो देव नहीं पत्थर ! धर्म विश्वास पर पनपता है। जिस जनरेशन में मेरे बड़े भाई साहब पैदा हुए थे उसका विश्वास धर्म से उठ रहा था। मुहल्ले के हरेक घर में एक-न-एक ऐसा जवान पैदा हो चुका था जो पुरानी मर्यादाओं और धर्म को ताक पर रखकर उच्छ्श्रृंखल आचरण में रत रहा रहता था। और घरवाले मारे मोह के परिवार के उस प्राणी का विरोध करने में असमर्थ थे। शास्त्रों में विधान है कि कुल-धर्म-विरुद्ध आचरण करनेवाले को सड़ी अँगुली की तरह काटकर समाज-जन से अलग कर देना चाहिए। हम जब तक ऐसा करते रहे तब तक समाज का स्वास्थ्य चुस्त–दुरुस्त था।

ग़लतीवश, मोहवश, दुर्भाग्य जब से हमने गलितांग को अपना अंग जानकर काट फेंकने से इनकार कर गले से लगाना शुरू किया है, तभी से विष सारे शरीर में व्याप्त हो गया है। अब से पचास-साठ वर्ष पहले अखिल-भारतीय स्तर पर सहस्र-सहस्र ऐसे ब्रह्मराक्षस पैदा हुए थे, जिन्‍होंने कुकर्मों के स्लो – पॉयज़न द्वारा मारते-मारते सनातन धर्म को मार ही डाला। इस पूर्णता से कि वह सनातन धर्म तो अब पुन: जागने-जीनेवाला नहीं जिसके सरग़ना ब्राह्मण लोग थे। ब्राह्मण-कुल में मैं भी पैदा हुआ हूँ। कोई पूछ सकता है कि सनातन धर्म या ब्राह्मण धर्म के इस विनाश पर मेरी क्या राय है। मेरी क्या राय हो सकती है? मैं कोई व्यावसायिक ‘राय’ साहब नहीं। जो वस्तु नष्ट होने योग्य होती है, जिसकी उपयोगिता सर्वथा समाप्त हो जाती है, वही नष्ट होती है, उसी का अंत होता है। रहा मेरा बाह्मण-कुल में पैदा होना, सो उसे मैं नियति की भूल मानता हूँ। जब से पैदा हुआ तब से आज तक शूद्र-का-शूद्र हूँ। ‘जन्मना जायते शुद्र’; मनु का वाक्य है कि नहीं— ‘संस्कारात द्विज मुच्यते।’ जन्म से सभी शूद्र होते हैं, बाद को संस्कार द्वारा नव-प्रज्ञा प्राप्त कर द्विज बनते हैं। वह संस्कार पाण्डेय बेचन शर्मा के पल्ले न तो बचपन में पड़ा था, न जवानी में और न आज तक। आदि से आज तक एक दिन भी जो ब्राह्मण रहा हो, उसे फिर मनुष्य-जन्म मिले, फिर टट्टी की हाजत सताए, फिर राम-राम के पहर आबदस्‍त लेने की घृणित घड़ी उसके हाथ में आए। और अब इस साठ वर्ष की वय में यदि मैं शिकायत करूँ कि हाय रे, मैं सारे जीवन शूद्र-का-शूद्र ही रहा तो, मुझ-सा मतिमंद टॉर्च लाइट लेकर ढूँढ़ने पर भी दुनिया में नहीं मिलेगा। सो, जैसे मैं स्वयं को बुरा नहीं मानता, वैसे ही शूद्र को भी नहीं मानता। मैं जैसे स्वयं को भला ही समझता हूँ, वैसे ही शूद्र को भी भला ही समझता हूँ। शूद्र द्विज (या ब्राह्मण) का पूर्व-रूप है, वैसे ही जैसे मूर्ति का पूर्व-रूप अनगढ़ पत्थर और मैं अपनी अनगढ़ता को गर्व से देखता हूँ, इसलिए कि जब तक अनगढ़ हूँ तभी तक विश्वविराट् की मूर्तियों की संभावनाएं मुझमें सुरक्षित हैं। गढ़ा गया नहीं कि एकरूपता, जड़ता गले पड़ी। श्रीकृष्ण की मूर्ति का पत्थर श्रीकृष्ण ही की मूर्तिभावना का प्रतीक रह जाता है। उसे राधा बनाना असंभव है। सो, लो! मैं ऐसा अनगढ़ पत्थर जिसमें रूप नहीं, रेखा नहीं। और न ही विकट-विकट भविष्य में कुछ बनता-बनाता ही दिखाई देता है। फिर भी, मैं परम संतुष्ट इस कल्पना-मात्र से कि मुझे कोई एक बड़ा-से-बड़ा रूप नहीं मिला तो बला से मेरी, मैं अपनी अनगढ़ता से ही खुश हूँ। यह अनगढ़ता जब तक है तब तक कोई भी यानी सभी रूप मुझमें हैं। ख़ैर, इन बातों में क्‍या धरा है! मैं यह कहना चाहता था कि आज भी, मैं निस्‍संकोच शूद्र हूँ और ब्राह्मणों के घर में पैदा होने के सबब—साधारण नहीं—असाधारण शूद्र हूँ। ब्राह्मण-ब्राह्मणी से मुझे शूद्र-शूद्राणी अधिक आकर्षक, अपने अंग के, मालूम पड़ते हैं। यहाँ तक कि आज भी जब मैं खानाबदोशों, बंजारों, जिप्सियों का गन्दगी, जवानी, जादू और मूर्खता से भरा गिरोह देखता हूँ तब मेरा मन करता है कि ललककर उन्ही में लीन हो जाऊँ, विलीन। उन्‍हीं के साथ आवारा घूमूँ-फिरूँ, किसी हरजाई, आवारा, बंजारन युवती के मादक मोह में— नगर-नगर, शहर-शहर, दर-दर—छुरी, छुरे, मूँगे, कस्तूरी मृग के नाफ़े, शिलाजीत बेचता।

मेरा ख़याल है अक्षरारमृत से पहले ही मेरे कान में ‘वेश्या’ या ‘रंडी’ शब्द पड़ चुका था। मैं पाँच-ही-छह साल का रहा होऊँगा ,जब मेरे घर में मिर्ज़ापुर की एक टकैल वेश्या का प्रवेश हुआ था। पुरुष-वेश में चूड़ीदार चपकन और पगड़ी पहनकर वह बाहरवाली कोठरी में रात में आई और तब तक रही , जब तक मेरे चाचाजी हाथ में खड़ाऊँ लेकर उसे मारने को झपटे नहीं—यथायोग्य दुर्वचन सुनाते हुए। मुहल्ले के आधे दर्जन मनचले ब्राह्मण युवक उस वेश्या से मिलने मेरे यहाँ आ जमते थे। मकान के अन्दर की ब्राह्मणियाँ मेरी माँ और भाभी किंकर्तव्यविमूढ़ा हो गई थीं। भाभी तो रोने भी लगी थी। पर ये कुलीन औरतें मुखर विरोध करने में असमर्थ थीं, इसलिए कि मेरे उन्मत्त भाई साहब एक ही लाठी से दोनों ही को हाँकने में कोई ग्लानि या हानि नहीं समझते थे। वैसे वह मंद जमावड़ा मेरे घर हुआ था, लेकिन हमप्याले लोग पड़ोसी ही थे। नेता (यानी मेरे पिता) के उठ जाने से मेरे घर में अखंड अराजकता थी। लेकिन वश चलता और मज़बूत सरपरस्तों का शासन न होता, तो दूसरे यार भी अपने घरों में वेश्या को टिकाकर सुरा-सुंदरी-स्वाद लेने से बाज़ न आते। पाप पर मोहित सभी थे। सभी थे तत्त्वत: धर्म से विरहित। जुआ तो प्राय: मुहल्ले के किसी भी घर में खिलाया जाता था, जिससे उस घर के किसी-न-किसी प्राणी को नाल के रूप में एक-दो रुपए भी मिल जाते थे। मेरे घर में जुआ अक्सर हुआ करता। अक्सर जुए से जब नाल की रकम वसूल होती तब मेरे घर में भोजन की व्यवस्था होती थी; आटा, चावल, दाल और नमक आता था। मेरी माँ और भाभी को मकान के पिछले खण्ड में क़ैद कर मेरा भाई बिचले खण्ड में जुए का फड़ डालता, जिसमें मुहल्ले, कस्बा और आसपास के गाँवों के भी शातिर जुआरी जुड़ते। चरस और गाँजे की चिलमें लपलपातीं; ब्‍यौड़ा यानी विकट देसी दारू की दुर्गन्धमयी बोतलें खुलतीं। जब भी मेरे घर में जुआ जमता, भाई की आज्ञा से दरवाज़े पर बैठकर मैं गली के दोनों नाके ताड़ता रहता कि पुलिसवाले तो नहीं आ रहे हैं। ज़रूर इस ड़यूटी के बदले पैसा-दो पैसा मुझे भी किसी परिचित जुआरी से मिलता रहा होगा। जुए की इस जबरदस्त जकड़ में मेरा भाई इस क़दर पड़ गया था कि भाभी के सारे गहने बिक गए या अंत में बिक जाने के लिए गिरवी रख दिए गए। फिर मेरी माँ के गहनों की बारी आई। जिसने अपना संचय सौंपने में ज़रा भी हिचक दिखलाई उसे भाई साहब ने जूतों, थप्पड़ों, घूसों, लातों से घूरा—अक्सर गाँजा-चरस या शराब के नशे में। यों तो भाई मुझे भी मारता-पीटता था, बेसबब, बहुत बुरी तरह, अक्सर, लेकिन वह जब मेरी माँ को मारता और वह अनाथा विवशा रोती-घिघियाती (लड़का अपना ही था, अत: खुलकर रो-घिघिया भी नहीं सकती थी) तब भाई का आचरण मुझे बहुत ही बुरा मालूम पड़ता था,  पर मैं कर ही क्या सकता था! चार-पाँच साल का बालक! उसके सिर पर घर की सरदारी पगड़ी बाँधी गई थी। परिवार का नेता था वह। अन्नदाता था वह। सो, मेरी भाभी-आई के गहने जब जुआ-यज्ञ में स्वाहा हो गए .तब घर के बरतन-भाँडों की शामत आई। जितने भी काम या दाम लायक बरतन थे, या तो अड़ोसी-पड़ोसी के घर गिरों धरे गए या पाँच रुपए की वस्तु रुपया-दो रुपया में बरबाद की गई। इसके बाद ब्राह्मण के घर में जो दो-चार धर्म ग्रन्थ थे— भागवत, गरुड़़पुराण, रामायण, गीता— मेरे भाई ने एक-एक को दोनों हाथों से बेचकर प्राप्त रक़म को या तो जुआ में अथवा गाँजा-चरस के धुआँ में उड़ा दिया। इसके बाद दो-चार बीघे दान-दक्षिणा में मिले जो खेत थे, उनकी नौबत आई। खेतों को भीबंधक या भोग बंधक रखकर भाई साहब ने रुपए उतारे और उनका दुरुपयोगनिसंकोच भाव से किया। और कर्ज़ और कर्ज़ और कर्ज़! भाई के राज में परिवार ने जब जो भी पाया खाया कर्ज़ा।

उन्हीं दिनों, एक दिन, छापा मारकर चुनार की पुलिस ने सद्दूपुर मुहल्ले के जुआरियों और उनके संगियों को रँगे हाथ गिरफ्तार कर लिया था। जुआ उस दिन मेरे घर में नहीं, मेरे घर के पिछवाड़े अलगू नामक कुम्हार के घर में हो रहा था। उस दिन मेरे भाई साहब जुए में शामिल नहीं थे, एक दोस्त की बैठक में उपन्यास पढ़ रहे थे। लेकिन पुलिस-छापे के ठीक पहले अलगू के घर वह सूचना देने गए थे कहीं से खबर-सूराग पाकर कि भागो, पुलिस आ रही है, कि पुलिसवाले आ ही धमके! शायद सबसे पहले मेरे भाई साहब ही पुलिस की पकड़ में आए थे। गिरफ्तार दर्जन-भर जुआरी हुए होंगे। फिर भी, कई जान लेकर जूते छोड़कर भाग गए। उन जूतों की लम्‍बी माला अलगू कुम्हार से ही तैयार कराने के बाद उसी के गले में डालकर, जुलूस बनाकर जब पुलिसवाले राजपथ से जुआरियों को हवालात की तरफ़ ले चले तोबंधुओं में मेरा भाई भी था। उस भयकारी जुलूस के पीछे काफ़ी दूर तक अपने भाई या अन्नदाता के लिए रोता हुआ मैं भी गया था। फिर घर लौटने पर देखा आई और भाभी रो रही थीं। काफ़ी दिनों मिर्ज़ापुर में केस चलने के बाद उस मामले में भाई को पचास रुपए जुरमाना हुआ।

और चुनार में रहने का अब कोई तरीका बच नहीं रहा। और कर्ज़दाताओं से बेइज्जत होने का प्रसंग पगे-पगे प्रस्तुत होने लगा। और घर में अबलाएँ और बच्चे दाने-दाने के मोहताज हो गए। तब और तभी मेरे बड़े भाई को देस छोड़ परदेस जाने और कमाने की सूझी। फलत: वह पहले काशी और बाद में अयोध्या की रामलीला मंडलियों में एक्टिंग करने लगे। तनख्वाह पाते थे दोनों वक्त फ्री भोजन और तीस रुपए मासिक। इन रुपयों में से दस-पाँच अक्सर वह चुनार भी भेजते थे। पर चुनार में अक्सर चूहे डंड ही पेला करते थे, या जजमानी से भिक्षा मिल जाती थी, या मेरी आई किसी की मजूरी कर कूट-पीसकर लाती थी। बड़ी मुश्किलों से सुबह खाना मिलता तो शाम को नहीं, शाम मिलता तो सबेरे नहीं। जहाँ भोजन-वस्त्र के लाले वहाँ शिक्षा-दीक्षा की क्या हालत रही होगी, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। शिक्षा-दीक्षा दूर, मेरे सामने तो आँखें खोलते ही जीवन-ग्रन्थ का जो पृष्ठ पड़ा वह शिक्षा-दीक्षा को चौपट करने वाला था। जीवन को स्वर्ग और नरक दोनों ही का सम्मिश्रण कहा जाए तो मैंने नरक के आकर्षक सिरे से जीवन-दर्शन आरम्भ किया और बहुत देर, बहुत दूर, तक उसी राह चलता रहा। इस बीच में स्वर्ग की केवल सुनता ही रहा मैं। मेरी कोशिश सही न होगी, स्वर्ग जीवन में मुझे कहीं नज़र आया नहीं। और नरक की तलाश में किसी भी दिशा में दूर तक नज़र भटकाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। सो, समय पर न मिले तो स्‍वर्ग के लिए भी कौन प्रतीक्षा करे! नरक लाख बुरा बदनाम हो, लेकिन अपना तो जीवन-संगी बन चुका है, सहज हो गया है, रास आ गया है। डालडा खाते-खाते जैसे शुद्ध घृत की सुध-बुध भी समाप्त हो जाती है, पहचान-परख तक भूल जाती है, वैसे ही लगातार सुलभ होने से नरक भी धीरे-धीरे परिचित, प्रिय, प्रियवर यानी प्रियतम हो जाता है। ग़ालिब ने अपने ढंग से कहा है— ‘क्यों न फिरदौस को दोज़ख़ से मिला दें या रब! सैर के वास्‍ते थोड़ी-सी फ़िजा और सही।’ जब मेरे पिता जीवित थे तभी न जाने कैसे मेरे दोनों बड़े भाइयों को रामलीला में पार्ट करने का चस्का लगा गया था। ये किशोरावस्था ही में ऐसे बेकहे हो गए थे कि कुल और पिता को धता बताकर चुनार से मिर्ज़ापुर भागकर रामलीला में राम-लक्ष्मण का अभिनय करने लगे। क्रोध और रभविष्य के भय से काँपते हुए पिता, जब मिर्ज़ापुर पहुँचे तो क्या देखते हैं कि दोनों सपूत राम-लक्ष्मण बने रंगमंच पर शोभायमान हैं। कहते हैं वह दृश्‍य पिता से देखा न गया। जनता को भूल, स्टेज पर झपट लौंडों के माथे से मुकुट-किरीटादि नोच-फेंक वहीं से उन्हें झपड़ियाते भूले बछड़ों की तरह बाँधकर चुनार ले आए थे। पिता केदेहांत के बाद चुनार की विजयदशमीवाली लीला में, अक्सरर वह कोई-न-कोई पार्ट ही ‘प्ले’ किया करते थे। चुनार ही में एक-दो बार सीता बनाकर मुझे भी बड़े भाई ने इस घाट पर उतार रखा था। जब वह अयोध्या की रामलीला-मंडली में थे तब मुझे उन्‍होंने बनारस की एक लीला-मंडली में अपने किसी खत्री मित्र के हवाले कर रखा था। तब मैं आठ साल का रहा होऊँगा या नौ का। जुल्फों में तीन-तीन फूल-चिड़ी बनाता था। काफ़ी तेल लगाने के बाद बालों में सस्‍ती वेसलिन भी लगाता था। वह वेसलिन, जिसकी गंधपिता हाउस (बम्बई) या सरकटा गली (कलकत्ता) की सस्ती वेश्याओं के अंग से आती है। कुछ ही दिनों बाद भाई साहब ने बनारस वालों की मंडली से मुझे भी साधुओं की रामलीला-मंडली में बुला लिया था। भाई साहब की नज़र में मेरे उनके संग रहने में अनेक फ़ायदे थे। पहले तो घर में कोई शरारती नहीं रहेगा, दूसरे उनकी निगरानी में रामलीलावालों की बुरी हवा से मैं बचूँगा, तीसरे ‘ब्वाय सरवेंट’ चौबीस घंटे हाज़िर—बिला तनख़ाह। ऊपर से रामलीला में लक्ष्मणऔर जानकी बनकर आठ-दस रुपए मासिक कमा देने वाला। उन दिनों रामलीला के निश्चित पार्टों के संवाद बाज़बान करने के अलावा भाई का एक मित्र वैरागी पखावजी मुझे ताल और स्वर यानी पक्के रंग के संगीत की शिक्षा भी दिया करता था।उन्हीं दिनों नाचना नहीं, तो नाचने की चुस्‍ती से चंचल चरण चलाना, ठुमुकना, थिरकना, बल खाना वग़ैरह भी मुझे सिखलाया गया था। छुटपन में मेरी शिक्षा बिलकुल आरम्भिक क ख ग दरजों तक हुई थी। अभी थोड़ा ही बहुत अक्षर-शब्द-ज्ञान हो पाया था कि मुझे ऐसा लगा कि यह पढ़ना-पढ़ाना मेरे बलबूते की बात नहीं है। मगर इससे गला छूटे तो कैसे? सुना था हनुमानचालीसा का पाठ करने से सारे दुख दूर, मसले स्वमेव हल हो जाते हैं। लेकिन हनुमानचालीसा मेरे पास कहाँ! साथ ही पास में पैसा’ कहाँ कि हनुमानचालीसा ख़रीदा जा सके! मैं जिस दरजे में पढ़ता था उसी में एक काला-सा लड़का था किसी छोटी जाति का। वह अपने बस्ते में रोज़ हनुमानचालीसा की एक प्रति ले आता था और मैं ललचाकर, तड़पकर रह जाता था उस दो पैसे की विख्‍यात पुस्‍तक के लिए।अंत में मैंने चोरी करने का निश्चय किया। मैं ऊँच लड़का, वह नीच, लेकिन मैंने उसकी हनुमानचालीसा चुरा ली और बड़े चाव से मैं उसका पाठ करने लगा। मुझमें जो ब्राह्मण है वह आज भी यही सोचता है कि वह हनुमानचालीसा ही का प्रभाव था कि स्कूली शिक्षा से हटाकर मुझे रामलीला-मंडली में डटाया गया। वहाँ पर मेरा परिचय श्रीरामचरितमानस से होना ही था, क्योंकि मैं जानकी, लक्ष्मण और भरत तक का पार्ट किया करता था। रामलीला-मंडलियों ही में मैंने सुलझे ‘साधुओं’ के व्रत औरनिष्ठापूर्वक नवरात्रियों के नौ दिनों में रामायण का पाठ होते देखा। सुना, ऐसे पाठ के फल अनंत। सो, मैंने नौ-दस-ग्यारह की वय में सामर्थ्‍यानुसार श्रद्धा-भक्ति से रामायण के नवाह्न पाठ किए। एक नहीं, अनेक। इन लीला-धारियों की मंडली में फुरसत के अवसरों में लोग अन्ताक्षरी भी अक्सर किया करते थे, जिनमें ज्यादातर तुलसीकृत रामायण से ही उदाहरण दिए जाते थे। इन सम्मेलनों से भी मुझे रामायण का स्पर्शअधिकाधिक होने लगा था। उन दिनों रामायण के विविध अंश मेरे कंठाग्र, जिह्वाग्र रहा करते थे। और उन दिनों रामलीला में अभिनेता संवाद कैसे रहते थे? पहले रामायणी चौपाई या दोहा अर्ध-स्वर में सुनाता, फिर अभिनेता उसका (रटा या ज्ञात) अर्थ जनता को सुना देता था। रामायणी कहता- देवि, पूजि पद-कमल तुम्हारे, सुर-नर-मुनि सब होहिं सुखारे। तब सीताजी कहतीं—हे देवि!तुम्हारे सर्व-पूज्य पद-कमलों को पूज-पूजकर सुर, नर और मुनि सभी सुख पाते हैं। संवाद की इस विधि में अक्सर अभिनय और उसके प्रभाव का ख़ून हो जाता था, पर जो जनता लीला देखने आती थी वह रामलीला को थिएटर न समझ किसी भी भाव, भाषा या भेस में भगवान्-भगवती की भावना मात्र से प्रभावित होने वाली होती थी। एक बार कहीं भरत का पार्ट करने वाला हमारा संगी बीमार पड़ गया। अब मुश्किल यह सामने आई कि भरत का कठोर काम करे तो कौन? इस पर मेरे बड़े भाई ने मंडली के मालिक महंत को वचन दिया कि वह चिंता न करें, भरत का काम बेचन कर लेगा। मुझसे उन्होंने गाँजे के नशे में चूर आँखें दिखाकर कहा— भरत के काम में ज़रा भी भूल की तो याद रहे, लीला-भूमि से ही पीटते-पीटते तुझे डेरे पर ले चलूँगा। उनसे पिटने का मुझे इतना डर था कि भरत तो भरत, वह धमकाता तो मैं कमसिनी भूल दशरथ का पार्ट भी अदा करके रख देता, रावण का भी! उस दिन राम के वन-गमन के बाद ननिहाल से बेहाल लौटे भावुक भाई भरत का संवाद था कौशल्या के आगे।वशिष्ठ की सभा में परम साधु बड़े भाई के मोह में भरत को रोते चित्रित किया है तुलसीदासजी ने। मुझे रोना आया था बड़े भाई के क्रूर भय से और मैंने बहुत सावधानी से भरत का अभिनय किया। रामायण मुझे याद ही थी, सो बिना रामायणी का मुख देखे संवाद की चौपाई-पर-चौपाई, दोहे-पर-दोहा अर्थसहित मैं सुनाता गया। मैं रोता था भाई के भय से, जनता ने समझा भरतजी अभिनय-कला का शिखर छू रहे हैं। खूब ही जमा मेरा काम!महंतजी प्रसन्न हो गए और स्टेज ही पर दस रुपए इनाम, तथा एक रुपया महीना तनख़ाह बढ़ने की घोषणा हुई। बधाइयाँ और इनाम के रुपए भाई साहब के पल्ले लगे। पाँव तो उस दिन भी मैं भाई साहब के दाबता रहा, तब तक जब तक वह सो नहीं गये .हाँ उस दिन उन्होंने नित्य की तरह, पाँव दबवाते-दबवाते दो-चार लातें नहीं लगाईं कि मैं ठीक से क्यों नहीं दबाता? कि मैं झपकियाँ क्यों लेता हूँ?

 

कहानी

 

ईश्वरद्रोही

 

 

क वर्ष पहले की बात है। कलकत्ता के मछुआ बाजार की एक गली में एक भिखारिन चली जा रही थी। उसके तन पर गन्दा और कई स्थानों पर बुरी तरह से फटा हुआ पुराना चूडीदार पायजामा और उसी तरह का एक कुर्ता था। माथे पर चद्दर के स्थान पर दो हाथ लंबा और हाथ भर चौडा कपड़ा – कपड़ा क्या, चीथड़ा – था। प्रात: नौ-दस बजे का समय था। व्यापार-जीवी जन अपने अपने धंधे की धुन में इधर से उधर और उधर से इधर आ-जाकर गली के शांत हृदय पर अशांति का सिक्का बैठा रहे थे।

एक नवयुवक मुसलमान को अपनी बगल से गुजरते देख भिखारिन ने सवाल किया, ‘खुदा के नाम पर बड़े मियाँ कुछ रहम हो।’

‘क्या?’ नवयुवक ने जरा गौर से सवाल करने वाली की ओर देखा। वह युवती थी।

‘बड़ी भूख लगी है,’ युवक को रुकते देख भिखारिन ने अपने सवाल को दुहराया, ‘कल से ही कुछ खाने को नहीं मिला है। कुछ मेहरबानी हो, खुदा आपको सलामत रखे।’

‘घर पर चलेगी?’ युवक ने भिखारिन से ऐसे स्वर से पूछा जिसमें दया से अधिक शोहदापन था।

युवक की दुष्टता-भरी आँखों और मुसकराते हुए मुख को देखकर भिखारिन के कपोलों पर सुर्खी दौड़ गयी। उसने विनम्र भाव से उत्तर दिया, ‘यहीं कुछ रहम कर दीजिए।’

‘घर पर चल तो सब कुछ किया जा सकता है, यहाँ नहीं। पास में पैसे नहीं हैं।’

‘तो जाने दीजिए। किसी दूसरे दाता का दरवाजा खटखटाऊँगी। (सामने एक मकान की ओर अँगुली दिखाकर) यह मुसलमान का घर है?’

‘तो मेरे घर पर न चलेगी?’

‘नहीं। जरा बतला दीलिए, यह किसी मुसलमान का घर है?’

नवयुवक मुसलमान ने भिखारिन को घर पर चलने पर राजी होते न देख जरा चिढ़कर कहा, ‘हाँ, जाओ। वहाँ तुम्हारी खातिर हो जाएगी। मुसलमान का घर है।’

युवक आगे बढ़ा। भिखारिन भी उस मकान की ओर बढ़ी। मकान का दरवाजा छूते ही खुल गया और सीढ़ियों का सिलसिला दिखाई पड़ा। एक बार क्षण-भर के लिए भिखारिन हिचकी, मगर फिर न जाने क्या सोचकर, धीरे-धीरे सीढ़ियों पर चढ़ने लगी।

सीढ़ियों के सिरे पर दूसरा दरवाजा दिखाई पड़ा जो खुला था। दरवाजे से सटा हुआ, साधारण ढंग से सजा एक कमरा था। आपस में सटी हुई दो-तीन चौकियों पर गद्दे और सफेद चादर बिछे थे, और उस पर मसनद के सहारे बैठा कोई नवयुवक कुछ पढ़ रहा था। युवक लम्बा-गोरा और सुन्दर था। उसकी अवस्था सत्तरह-अठारह वर्ष की मालूम पड़ती थी। भिखारिन दरवाजे के पास चुपचाप खड़ी होकर युवक की ओर देखने लगी, मगर युवक को इस युवती भिखारिन के आने की कोई खबर नहीं। इसी समय मकान के भीतर से आवाज आयी, ‘राम ! बाहर जाना तो मुझसे कहकर जाना। मैं दरवाजा बन्द कर दूँगा।’

‘अच्छा, बाबूजी!!’ कहकर युवक ने अपनी गर्दन फेरी। दरवाजे पर जो नजर गयी तो देखा कि चीथड़ों में लिपटी हुई लक्ष्मी-सी सुन्दरी कोई स्त्री खड़ी है। यह रूप! यह वेश! ! माजरा क्या है? युवक बिना हिले-डुले चुपचाप उस युवती की ओर देखने लगा। युवती के कपोल रूखे थे, मगर थे गुलाबी। होंठ सूखे, मगर थे सरस! उसकी आँखों की चारों ओर कालिमा थी, मगर आँखें बोलती थीं। गन्दे और फटे कुरते और पाजामे के बाहर उसका चम्पक-वर्ण शरीर देखने से मालूम पड़ता था मानो सौन्दर्य फटा पड़ता है। क्षण-भर मुग्ध दृष्टि से उस भिखारिन के सौन्दर्य को देखने के बाद युवक को कर्तव्य का ज्ञान हुआ। वह जरा सँभलकर बैठ गया। उसने उस मुसकराहट के साथ, जिसे हृदय अधिक देखता है, आँखें कम, उससे पूछा – ‘क्या है?’

उसी स्वर और उसी भाव से भिखारिन ने भी पूछा – ‘तुम मुसलमान हो?’

भिखारिन का ‘तुम’ असभ्य था, धृष्ट था, मगर युवक को वह बड़ा ही प्यारा मालूम पड़ा।

उसने उत्तर दिया, ‘मैं मुसलमान नहीं, हिन्दू हँ। क्यों?’

‘नहीं, तुम मुसलमान हो,’ कहकर भिखारिन मुसकरा पड़ी।

युवक चौकी से नीचे उतर भिखारिन के सामने, दरवाजे के पास जा खड़ा हुआ और कहने लगा, ‘आखिर तुम्हें चाहिए क्या?’

‘भीख। पैसे!’

‘तुम भीख माँगा करती हो? तुम्हारी जात क्या है?’

‘देखते नहीं हो! मैं मुसलमान हूँ।’

‘कहाँ घर है?’

‘लखनऊ।’

‘यहाँ कलकत्ता में क्या करती हो?’

‘भीख माँगती हूँ।’

भिखारिन युवक के प्रश्नों का ढंग और उसके चेहरे का उतार-चढ़ाव देखकर हँसने लगी।

‘कुछ देते हो?’ भिखारिन ने युवक से पूछा।

‘क्या लोगी?’

‘जो दे दो।’

‘अच्छा, जरा ठहरो। बाबूजी को बुलाता हूँ। वही देंगे।’

‘तब मैं जाती हँ। तुम्हें कुछ देना-लेना नहीं है।’

भिखारिन एक सीढ़ी नीचे उतर गयी, मगर लीला से आँखें ऊपर चढ़ाकर। युवक ने उसे पुकारते हुए कहा, ‘जाना नहीं, जाना नहीं। एक बार बाबूजी से पूछ लूँ, फिर तुम्हें कुछ-न-कुछ दूँगा। जरूर दूँगा।’

युवक भिखारिन को वहीं छोड़कर के भीतर गया और थोड़ी देर बाद एक दूसरे पुरुष के साथ लौटा। दूसरे पुरुष की अवस्था पचास वर्ष की मालूम पड़ती थी। उसके सिर के आधे से अधिक बाल सफेद हो गये थे। मुख पर बड़ी-बड़ी मूँछें और दाढ़ी थी। उसका चेहरा बड़ा रोबदार मालूम पड़ता था। वही युवक का ‘बाबूजी’ था।

भिखारिन को सिर से पैर तक कई बार देख लेने के बाद उन्होंने पूछा, ‘तुम अकेली हो या तुम्हारे कोई और भी है?’

भिखारिन की नीचे झुकी हुई आँखें इस प्रश्न पर सजल हो गयीं। उसने गम्भीर होकर कहा, ‘इस वक्त मैं दुनिया में अकेली हूँ।’

‘तुम्हारा रूप साधारण भिखारिनों से भिन्न है। अनुभवी आँखें इस फटी अवस्था में भी तुम्हें भिखारिन मानने को तैयार नहीं हो सकतीं। तुम्हारे पिता-माता क्या करते थे?’

भिखारिन की आँखों से निकलकर पानी के दो छोटे टुकड़े उसके गुलाबी गालों पर चमकने लगे। युवक ने देखा, सौन्दर्य को जीवन मिल गया! वृध्द ने देखा ! रूप कविता करने लगा!

भिखारिन ने कहा, ‘मेरे पिता-माता दिन में अपनी बदकिस्मती पर रोया करते थे और रात में मुँह छिपाकर – वेश बदलकर – पेट को भरने के लिए, भीख माँगा करते थे!’

‘क्या वे हमेशा के भिखमंगे ही थे?’

‘नहीं!’ एक लम्बी साँस खींचकर भिखारिन ने कहा, ‘हमारे दादा लखनऊ के एक नवाब थे। अवध से नवाबी का खातमा होने के बाद मेरे दादा ने अँग्रेजों का विरोध और लखनऊ के नवाब वाजिद अली का समर्थन किया था। वाजिदअली शाह के कैद हो जाने के पन्द्रह साल बाद दादा की मौत हो गयी। उस वक्त भी मेरे पिता के पास, हमारी जिन्दगी आराम से बसर करने भर को, काफी धन था। मगर पिता में नवाबों का खून था। उन्होंने पैसे को पानी के भाव बहाने का अभ्यास किया था। जब तक उनके पास धन था वे उसकी कुछ भी परवाह न करते थे। आखिर एक दिन हम एकदम भिखमंगे हो गये। दाने-दाने के मुहताज हो गये और हिन्दुस्तान के कोड़ियों नवाबों की तरह हो गये दरवेश। मेरे वालिद और वालदा पर जो-जो मुसीबतें गुजरी हैं उन्हें मैं आपको सुना नहीं सकी। मेरे तीन बड़े भाई और एक बहन एक टुकड़ा रोटी और ‘चुल्लू-भर’ पानी के लिए मर गये। तकलीफें झेलते-झेलते और भीख माँगते-माँगते मेरे माँ-बाप अन्धे होकर, तीन महीने हुए, दुनिया से कूच कर गये! नवाबी के उन लाड़लों को कोई दफनाने वाला भी नहीं था। उनकी वही हालत हुई जो लावारिस मुर्दों की हुआ करती है।

‘वालिद के सामने ही लखनऊ के आवारों और शोहदों को बद-नजर मेरे ऊपर थी। उनके मरने के बाद मेरा वहाँ रहना दूभर हो गया। मेरी बेइज्जती करने की ताक में पचासों बदमाश लग गये। मुझे सहारा देने वाला कोई नहीं। लाचार होकर मुझे लखनऊ से भागना पड़ा। कलकत्ता की मैंने बड़ी तारींफ सुनी थी। सुना था, वहाँ हजारों गरीब दुखिया सुख से जीते हैं। इसीलिए मैं यहाँ भाग आयी। मगर उफ!! यहाँ भी दुनिया का वैसा ही रुख है जैसा लखनऊ में। यहाँ भी रहम करने वाले कम हैं और दोजखी कुत्तों की भरमार है। पन्द्रह दिनों से इस शहर की हालत देख रही हँ। जिसे देखो वही आवाज कसने और बेइज्जत करने को तैयार है, मगर, खुदा के नाम पर किसी गरीब को पनाह देनेवाला कोई नहीं। मैंने न जाने कौन-सा गुनाह किया था जिसका नतीजा इस तरह भुगत रही हूँ। मेरी किस्मत में मौत भी…’

भिखारिन की आँखों के मोती उसके रूखे और गन्दे पैरों पर बरसने लगे।

युवक के बाबूजी ने कहा, ‘इस घर में रहोगी, बेटी?’

‘मैं मुसलमान हँ।’

‘कोई हर्ज नहीं। मुसलमान भी आदमी है, हिन्दू भी। मैं आदमीपरस्त हूँ, हिन्दू या मुसलमानपरस्त नहीं। तुम्हें अगर कोई एतराज न हो तो इस घर में तुम्हारे लिए बहुत जगह है।’

भिखारिन की नीचे झुकी हुई आँखें ऊपर उठीं। वृद्ध की आँखों ने देखा, उस अभागिनी के नेत्रों में एक इतिहास था जिसे ‘हिन्दू’ नहीं, ‘मुसलमान’ या ‘ईसाई’ भी नहीं, केवल ‘आदमी’ ही पढ़ सकता था!

नवयुवक का नाम था रामजी और उसके बाबूजी का गोपालजी। गोपालजी को उनके वंश का जो कुछ इतिहास मालूम था वह विचित्र था। जिस व्यक्ति को गोपालजी अपना पिता समझते थे उसने अपने अन्तिम समय में उन्हें बुलाकर कहा, ‘बेटा! तुम मुझे ‘बाबूजी’ कहकर पुकारा करते हो। सन्तानहीन होने के कारण मैंने और मेरी स्त्री ने तुम्हें पुत्र की तरह पाला-पोसा और प्यार किया है। मगर तुम हमारे पुत्र नहीं हो, तुम्हारी नसों में इस गरीब व्यक्ति का रक्त नहीं बहता है। मेरी बड़ी इच्छा थी कि मैं इस बात को तुम पर प्रकट न करता और तुम्हारे हृदय को ठेस न देता, मगर अब मुझे ईश्वर के दरबार में जाना है, किसी को असत्य और अन्धकार में छोड़ देने से पाप होगा।

‘तुम्हारी असली माँ क्षत्राणी थी, मैं वैश्य हूँ। तुम्हारी माता के पति एक देशी रियासत के कर्मचारी थे। उसी रियासत के राजा की नजर तुम्हारी सुन्दरी और युवती माता पर गड़ी थी। वह किसी-न-किसी तरह उन्हें भ्रष्ट करने की धुन में था, मगर तुम्हारी माँ के पति भी वीर थे, क्षत्रिय थे। इसी कारण से राजा की हिम्मत न पड़ती थी। अन्त में राजा ने एक युक्ति सोची। तुम्हारी माँ के पति को एक झूठे बहाने से, रियासत के काम से, परदेश भेज दिया, और वहीं कभी यहाँ, कभी वहाँ डेढ़ वर्ष तक रखा।

‘पति को विदेश भेज उसकी पत्नी को महाराज ने पहले तो सीधे से लालच दिखाकर और भय दिखाकर अपने काबू में करना चाहा। मगर जब युक्ति से उनकी दाल न गली तब एक रात अपने गुप्त कर्मचारियों को भेज, उन्हें जबरदस्ती घर से पकड़वा मँगाया। किसी को कानोंकान ख़बर भी न हुई। उसी दिन से तुम्हारी माता के पतन का आरम्भ हुआ। फिर वह बिना किसी तरह के एतराज के महाराज की सेवा में बराबर जाया करती थीं। आखिर तुम्हारी सृष्टि हुई।

‘मैं रियासत का दस रुपये महीने का एक साधारण कर्मचारी था। जिस दिन तुमने जन्म लिया उस दिन महाराज ने मुझे बुलाया और मेरे हाथों में पाँच हजार रुपये की एक थैली और तुम्हें देकर कहा कि ‘इस लड़के को लेकर तुम कहीं और जाकर रहो। देखो, यह रहस्य प्रकट न करना।’ बस, मैं तुम्हें लेकर कलकत्ता चला आया। मेरी स्त्री, सन्तान न होने के कारण, तुम्हें पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और हम दोनों ने तुम्हें अपनी औलाद के नाम पर समाज में परिचित कराया, पढ़ाया-लिखाया। यह सब होते हुए भी हमारी सम्पत्ति तुम्हारी ही है। अब मैं मरने वाला हँ, तुम अपने पिता या माता को खोजने की चेष्टा न करना। क्योंकि संसार तुम्हारी बातों को सुनकर केवल हँसेगा, तुम्हारा अपमान करेगा। अस्तु, तुम मेरे पुत्र हो, मैं तुम्हारा पिता हूँ और यह धर्ममाता ही तुम्हारी जननी है!’

यही है वृद्ध गोपालजी का वंश-परिचय। मरने के दो वर्ष पूर्व ही उनके पालक पिता ने उनका ब्याह भी कर दिया था। धर्मपिता की मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद उनकी धर्ममाता की भी इहलीला समाप्त हो गयी। फिर गोपालजी और उनकी स्त्री के ही हाथों में उक्त वैश्य-परिवार की बची-खुची सम्पति आयी जिसे गोपालजी ने बढ़ाया भी। एक बार लोहे की दलाली में उन्हें एक लाख रुपये का मुनाफा हुआ। बस, उन्हीं रुपयों को बैंक में जमा कर, गोपालजी समाज से और व्यापार से अलग रहकर जीवन-यापन करने लगे।

समाज और व्यापार से अलग होने का एक कारण था। जब से उन्हें अपने जन्म का इतिहास मालूम हुआ तब से उनकी विचित्र अवस्था हो गयी। वह अक्सर एक ठंडी साँस लेकर अपने किसी मित्र या स्त्री से कहते कि ‘यह संसार धोंखेबाजों, बदमाशों और बेईमानों का अखाड़ा है।’ ईश्वर के तो नाम से उन्हें चिढ़ थी। उनकी चर्चा चलने पर गोपालजी तमककर कह उठते कि ‘सब झूठ है, सब धोखा है, ईश्वर कोई नहीं है, कहीं नहीं है। गरीबों और मूर्खों पर अपनी हुकूमत कायम रखने के लिए अमीरों और दुनिया को नरक बनाने वाले समझदारों की अक्ल ने इस ईश्वर की रचना की है। सब झूठ है, सब धोखा है।’

गोपालजी के हृदय की इस स्पष्ट तसवीर को देखने के लिए समाज तैयार नहीं हुआ। एक बात और भी थी। केवल ‘मानव-धर्म’ के पुजारी गोपालजी किसी भी जाति के किसी भी आदमी के हाथ से खाना-पानी ग्रहण कर लेते थे। यह समाज के लिए असह्य था। मगर गोपालजी अपने धर्म के पक्के थे। वह समाज की उपेक्षा को उपेक्षा की दृष्टि से देखते और समाज के ढोंगी कर्णधारों से नफरत करते थे।

वृध्द गोपालजी की नजरों में धर्म तुच्छ था, धन तुच्छ था, ढोंगियों का समाज तुच्छ था मन्दिर, मस्जिद और गिरजे तुच्छ थे और परम तुच्छ था उक्त सारी खुरांफातों की जड़ ईश्वर।

उनका हृदय आँसुओं के आगे पिघल उठता था, दुर्बलों पर द्रवित होता था। संसार के कमजोर और अपमानित, दरिद्र और पतित उनके ईश्वर थे । मनुष्यत्व उनका धर्म था!

रामजी जिस समय पाँच वर्ष का अज्ञान बालक था उसी समय उसकी माता गोपालजी की पत्नी का देहान्त हो गया था। तब से बराबर गोपालजी के ही प्रेम से उसका पालन-पोषण हुआ। पिता का पुत्र और पुत्र का पिता पर अलौकिक प्रेम था। स्त्री का देहान्त हो जाने के बाद, चाहते तो, गोपालजी दूसरी शादी कर सकते थे, मगर उन्होंने वैसा नहीं किया। उनका कहना था कि विवाह का मुख्य उद्देश्य प्रेम होना चाहिए, वासना नहीं। स्त्री के न रहने पर भी उनके प्रेम का पात्र, उनका और उनकी पत्नी का सम्मिलित स्नेह-चित्र रामजी तो था ही। फिर दूसरा विवाह करने की आवश्यकता?

स्त्री की मृत्यु के बाद, पहले कुछ दिनों तक, गोपालजी ने एक अधेड़ ब्राह्मणी को रामजी की देख-रेख और भोजन तैयार करने के लिए नौकर रख लिया था। मगर बाद को यह अनुभव कर कि ब्राह्मणी देवी ‘राम दोहाई’ और ‘भगवान् जानें’ की आड़ में रामजी के हिस्से का दूध, घी और मक्खन अपने या अपने बच्चों के मसरफ में लाती हैं, उन्होंने उसे निकाल बाहर किया और स्वयं रामजी की धात्री और माता बन बैठे। पुत्र का नहलाना-धुलाना, खाना पकाना और खिलाना वह स्वयं करने लगे। सहायता के लिए एक नौकर भी रख लिया। छुटपन से लेकर वयस्क हो जाने तक बराबर वह रामजी को अपने साथ छाती से लगाकर सुलाते थे। उनका ‘राम’ उनकी दृष्टि से इस दुखमय, पापमय और हाय-हायमय संसार का सर्वश्रेष्ठ सुख था। रामजी को देखते ही वह एक अद्वितीय और अनिर्वचनीय सुख का अनुभव करते, प्रसन्न-वदन हो जाते थे। राम को पढ़ाने का उन्होंने यथा-शक्य बहुत सुन्दर प्रबन्ध कर रखा था। वह कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेशिका परीक्षा पास कर द्वितीय वर्ष श्रेणी में पढ़ रहा था। कालेज में उसने अँग्रेजी के साथ संस्कृत ले रखी थी और घर पर गोपाल जी के एक पुराने मित्र मौलवी साहब उसे फारसी पढ़ाया करते थे।

ईश्वरद्रोही गोपालजी का हृदय-सर्वस्व ‘राम’ स्वभावत: हिन्दू था, ईश्वर को मानने वाला था। स्वयं देवी-देवताओं में विश्वास न रखते हुए भी, पुत्र के आग्रह से, वह राम-मन्दिर में भी जाते थे और काली-बाड़ी में भी। कभी-कभी नास्तिक पिता और आस्तिक पुत्र में ‘ईश्वर’ को लेकर बड़ा सुन्दर विवाद हुआ करता था, जिसमें विजयी होने पर भी, गोपालजी को पराजय स्वीकार करनी पड़ती। परन्तु तब जब पुत्र पिता के गले में हाथ डाल, कपोल से कपोल सटाकर कहता था कि ‘बाबूजी, जब तक तुम ‘राम-राम’ न कहोगे मैं भोजन न करूँगा, राम हमारे भगवान हैं।’ ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने पर गोपालजी मुसकराकर ‘राम-राम’ कहकर कहने लगते कि ‘राम तो मेरा दुलारा और प्यारा पुत्र है। भला ‘राम-राम’ कहने में मुझे आपत्ति हो सकती है?’

अभी कल तक कलकत्ता में जिस दंगे का तांडव नृत्य हो रहा था उसके आरम्भ होने के पन्द्रह दिनों पूर्व गोपालजी के पुराने मित्र और रामजी के फारसी-शिक्षक मौलवी सदाअतुल्ला और ईश्वरद्रोही गोपालजी में ‘हिन्दू और मुसलमान’ विषय पर खासी बहस हुई। बहस का आरम्भ मौलवी साहब ने इस प्रकार किया था :

‘आपकी भिखारिन बेटी कैसी है?’

गोपाल – ‘भली-चंगी और प्रसन्न। क्यों?’

मौलवी – ‘मुहल्ले के मुसलमान जानते हैं कि आपकी बेटी हिन्दू नहीं है।’

गोपाल – ‘तो? इसका अर्थ?’

मौलवी – ‘इसका अर्थ तो मैं नहीं जानता। हाँ, लोग आपस में इस बात की सलाह कर रहे हैं कि उसे आपसे माँगकर फिर से दीन इस्लाम में मिला लें। मुसलमान अपनी औलाद को हिन्दू के घर में, हिन्दू की तरह, नहीं देख सकते।’

‘हा हा हा हा!’ रुक्ष अट्टहास करते हुए ईश्वर-द्रोही ने कहा, ‘उस दिन मुसलमान कहाँ थे जब भिखारिन भूखों मर रही थी? उस दिन दीन इस्लाम कहाँ था जब अपने को मुसलमान कहनेवाले कुत्ते उसके पाक दामन को गन्दा करने पर उतारू थे? अरे यारो! बुग्ज, शैतानी, बदमाशी और लड़ाई का नाम ‘दीन इस्लाम’ नहीं है। काहे को खुदा और मंजहब को बदनाम करने पर कमर कसते हो?’

‘यह बदमाशी नहीं है जनाब, इसे अपने मजहब की कद्र करना कहते हैं।’

‘इनसान का मजहब इनसान की कद्र करना है। जिस धर्म में आदमी की इज्जत नहीं, वह धर्म नहीं धोखा है।’

‘मुसलमान का धर्म है मुसलमान की कद्र करना। जो मुसलमान नहीं, वह काफिर है।’

‘ठहरिए!’ नास्तिक ने उत्तेजित होकर कहा, ‘किसी को कांफिर समझना आदमीयत का अपमान करना है। वैसे तो मैं किसी भी धर्म और किसी भी ईश्वर को नहीं मानता, मगर…मगर…’

‘मगर?’

‘मगर…अगर कोई अपने को मुसलमान, ईसाई या कुछ और कहकर और मुझे ‘हिन्दू’ समझकर अपमानित करना चाहे, तो मुझसे बढ़कर कोई दूसरा ‘हिन्दू’ नहीं। वैसी हालत में मैं बिक जाऊँगा, मगर ‘हिन्दू’ रहँगा…मर जाऊँगा, मगर ‘हिन्दू’ रहूँगा। वैसी हालत में अपमान ‘हिन्दू’ का नहीं, ‘आदमी’ का होता है। मैं आदमी हँ। मौलवी साहब! मेरी नजरों में मजहब की उतनी ही इज्जत है जितनी पोशाकों की। लुंगी लगाने वाला धोती पहनने वाले को काफिर नहीं कह सकता। पगड़ी पहनने वाला तुर्की टोपी वाले को म्लेच्छ नहीं कह सकता। अपनी-अपनी पसन्द है। आप दीन इस्लाम को मानते हैं, लुंगी पहनिए, राम हिन्दू धोती पहने। मैं कुछ भी नहीं हूँ, आदमी हूँ – जो जी में आएगा पहनूँगा। पोशाकों के लिए लड़ना मुसलमानपन नहीं, हिन्दूपन भी नहीं, गधापन है!’

जरा गम्भीर होकर मौलवी साहब ने पूछा, ‘कलकत्ता में अगर दंगा हो तो आप क्या करेंगे?’

‘कमजोरों की तरफदारी, बेगुनाहों की मदद करूँगा और बदमाशों से लड़ूँगा।’

‘बदमाश कौन होगा?’

‘जो लड़ाई छेड़ेगा। वह हिन्दू हो या मुसलमान, कोई चिन्ता नहीं।’

जिस समय मौलवी और ईश्वरद्रोही में बहस हो रही थी उसी समय मकान के भीतर भिखारिन, जिसे अब लोग ‘नवाबजादी’ कहकर पुकारते थे और रामजी में इस प्रकार बातें हो रही थीं।

‘नवाबजादी!’

‘नवाबजादी के मालिक आका!’

‘मुझे मालिक क्यों कहती हो?’

‘मुझे नवाबजादी क्यों कहते हो?’

‘तुम नवाबजादी नहीं हो? तुम्हारे दादा नवाब नहीं थे?’

‘तुम मेरे मालिक नहीं हो? तुमने मुझे पनाह नहीं दी है?’

‘अच्छा भाई, तुम नवाबजादी नहीं, ‘तुम’ हो।’

‘अच्छा भई, तुम भी मालिक नहीं, ‘तुम’ हो!’

‘तुम तरकारी लाने न जाया करो।’

‘क्यों?’

‘मछुआ बाजार के मुसलमान तुम्हें हिन्दू के घर से निकालने की धुन में हैं।’

‘वाह रे निकालने की धुन में हैं! अँग्रेजी राज नहीं, नवाबी है?’

‘अच्छा, तुम मुसलमान क्यों नहीं हो जातीं?’

‘तुम मुसलमान क्यों नहीं हो जाते?’

‘मैं हिन्दू हँ और हिन्दू रहने में फख्र समझता हँ।’

‘मैं भी हिन्दू हँ और हिन्दू रहने में फख्र समझती हँ। जिस धर्म में बाबूजी जैसे लोग हों और ‘तुम’ हो, वह धर्म मेरी नजरों में दुनिया के सब धर्मों से बेहतर है।’

‘दुनिया की नंजरों में तुमने हमें मुसलमान बना दिया है।’

‘और तुमने हमको हिन्दू नहीं बना दिया? तुमने…’

श्रीमती ‘तुम’ के मुख पर हाथ रखकर श्रीमान् ‘तुम’ ने कहा, ‘चुप !’

श्रीमान् ‘तुम’ के मुख पर हाथ रखकर श्रीमती ‘तुम’ ने कहा, ‘चुप !’

कलकत्ता के दंगे का तीसरा दिन था। वृध्द गोपालजी अपनी उसी बैठक में उदास मुँह बैठे थे जिसमें रामजी और भिखारिन की प्रथम भेंट हुई थी। भिखारिन नवाबजादी भी गोपालजी के सामने कुर्सी पर बैठी थी। उसके मुख से भी उदासी और अप्रसन्नता फूटी पड़ती थी।

‘बेटी!’ वृद्ध ने रुध्द कंठ से कहा, ‘मेरा राम आर्यसमाज का जुलूस देखने केवल एक घंटे के लिए गया था, मगर अभी तक नहीं लौटा। जरूर उस पर कोई-न-कोई विपत्ति पड़ी है, नहीं तो, बिना अपने बूढ़े बाप के राम को चैन नहीं पड़ता।’

इसी समय किसी ने दरवाजा खटखटाया। नवाबजादी द्वार खोलने के लिए उठी, मगर बूढ़े ने रोका, ‘तुम न जाओ नवाबजादी, मुमकिन है कोई बदमाश हो। मैं ही जाता हूँ।’ दरवाजा खोलने पर गोपालजी का नौकर नंदन भीतर आया। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। वह इतनी लम्बी-लम्बी साँसें ले रहा था मानो एक साँस में भागता हुआ आया है।

वृद्ध ने पूछा, ‘क्या खबर, नंदन? राम का कुछ पता चला?’

नौकर नीचे सिर करके चुपचाप खड़ा हो गया।

‘बोलता क्यों नहीं रे? मेरा राम कहाँ है?’

नौकर रोने लगा। गोपालजी का चेहरा, नौकर की हालत देखकर, काला पड़ गया। उन्हें ऐसा मालूम पड़ने लगा मानो उनके ऊपर क्षण-भर बाद निश्चित वज्रपात होने वाला है।

‘नंदन! नंदन!! बोलता क्यों नहीं? वह कहाँ है?’

नवाबजादी ने रुद्ध कंठ और भयभीत हृदय होकर पूछा।

नंदन ने धीरे-धीरे कहना आरम्भ किया, ‘बाबूजी, राम भैया को…।’ इस बार भी वह बात पूरी न कर सका। अबकी जरा डपटकर गोपालजी ने पूछा, ‘साफ-साफ क्यों नहीं कहता? बेवकूफ।’

नंदन ने अपनी सारी शक्ति मुख में एकत्र कर साफ-साफ कहा, ‘उस दिन जब आर्य समाज के जुलूस पर मुसलमानों ने धावा किया और हिन्दुओं को खूब पीटा तब राम भैया को उनके एक मित्र ने, जो अफीम चौरस्ते पर रहते हैं, अपने घर पर रोक रखा। दूसरे दिन मुसलमानों की ज्यादती बढ़ती देख उनके मित्र और वह अनेक दूसरे हिन्दुओं के साथ मुसलमानों का सामना करने के लिए निकले। उन लोगों ने कई जगहों पर मुसलमान गुंडों का सामना किया, उन्हें हराया और मार भगाया। आज सुबह राम भैया आपसे मिलने के लिए वहाँ से इधर को आ रहे थे, उसी समय एक मुलसमान गुंडे ने उनके पेट में छुरा भोंककर उन्हें मार डाला। इसके बाद उनका क्या हुआ, वह मुझे मालूम नहीं, इतनी ख़बर भी बड़ी मुश्किल से मिली है।’

‘उन्हें मुसलमानों ने मार डाला! उन्हें-उन्हें !’ कहकर नवाबजादी फूट-फूटकर रोने लगी। मगर गोपालजी गम्भीर थे। उनकी आँखों में आँसू नहीं, चिनगारियाँ थीं। क्षण-भर बाद वह अपने स्थान से उठे और नौकर से बोले, ‘घर में जितने शस्त्र हों मेरे सामने लाओ!’

थोड़ी देर में दो-तीन डंडे, दो तलवारें और एक तमंचा गोपालजी के सामने नौकर ने ला रखा। वृद्ध ने पहले तलवार को उठाकर दो-एक बार घुमा-फिराकर अंदाजा। इसके बाद कपड़े पहनना आरम्भ किया। कपड़े पहनते-पहनते उनकी नजर रोती हुई नवाबजादी पर पड़ी। उन्होंने कहा, ‘बेटी, अब यह घर तुम्हारा है। मैं अपने राम की तलाश में जाता हूँ। अगर मिला तो लौटूँगा, नहीं तो यही हमारी आखिरी भेंट है।’

गोपालजी की ओर अश्रुपूर्ण, रक्त-नेत्रों से देखकर नवाबजादी ने कहा :

‘मैं भी चलूँगी।’

‘तुम कहाँ चलोगी?’

‘उन्हें ढूँढ़ने।’

‘बड़ा मुश्किल काम है, नवाबजादी। तुम औरत हो। मेरे राम को मेरे हिस्से में छोड़ दो। मैं ही ढूँढ़ूँगा।’

‘नहीं, यह कदापि नहीं हो सकता। जहाँ आप होंगे वहीं पर मैं भी होऊँगी, ठहरिए।’

नवाबजादी घर के भीतर गयी और थोड़ी देर बाद मर्दाने कपड़े पहन और हाथ में एक लम्बा छुरा लेकर वृद्ध के सामने आयी। नवाबजादी के मर्दाने कपड़े वही थे जिन्हें रामजी पहना करता था। राम ही की तरह गोरी, लम्बी और सुन्दरी नवाबजादी को पुरुष-वेश में देखकर और राम को स्मरण कर बूढ़े ईश्वर-द्रोही की आँखों के आँसू, बाढ़ की नदी की तरह, उमड़ चले।

संसार से बहुत दूर रहनेवाले राम की तलाश में ईश्वर-द्रोही और नवाबजादी, शस्त्रों से सुसज्जित होकर, चल पड़े। उस समय वृद्ध गोपालजी के मुख पर वही भाव था जो किसी समय ‘केसरिया बाना’ धारण करने पर राजपूतों के मुख पर होता था। नवाबजादी के बदन पर वही तेज था तो ‘जौहर’ के वक्त राजपूतनियों के बदन पर दिखाई देता था!

वृध्द वीर गोपालजी और नवाबजादी उस गली को प्राय: पार कर चुके थे कि पीछे से पाँच-सात मुसलमानों ने उन पर धावा किया। ‘अली! अली ! अल्लाह! अल्लाह ! मारो सालों को! दोनों के दोनों हिन्दू हैं, काफिर हैं!’

हाथ का डंडा सँभालकर और नवाबजादी को पीछे कर गोपालजी खड़े हो गये और डपटकर उन गुंडों से कहने लगे,

‘हत्यारो! ‘अली-अली’ और ‘अल्लाह-अल्लाह’ क्यों पुकारते हो? ‘शैतान शैतान’ का नारा लगाओ! खून का प्यासा खुदा शैतान है, ईश्वर नहीं। बदमाश पीछे से धावा करते हैं! खड़े हो जाओ सामने और एक-एक कर निपट लो। तुम सात हो, हम दो। तुममें से एक भी जीता रह जाए तो कहना!’

लम्बी तलवार को बगल से खींच बूढ़ा ईश्वरद्रोही शेर की तरह उन गुंडों पर टूट पड़ा। गुंडे भी सावधानी से सामना करने लगे। दोनों और से प्रहार पर प्रहार होने लगे। देखते-देखते उस बूढ़े शेर ने तीन मुसलमानों को जमीन पर सुला दिया। इसी समय उनके पीछे से आवाज आयी, ‘मरी! मरी बाबूजी!!’

गोपालजी ने पीछे घूमकर देखा, दो मुसलमान नवाबजादी के कोमल शरीर पर बड़ी निर्दयता से छुरे चला रहे थे। जब तक वह वीर उस अबला की सहायता के लिए आगे बढ़े तब तक उन दुष्टों ने उसका काम तमाम कर डाला! गोपालजी झपटकर नवाबजादी के पास पहुँचे। उसकी दोनों आँखें खुली थीं, पर उनमें दर्शन-शक्ति नहीं थी। इसी समय एक मुसलमान ने, पीछे से, गोपालजी की बगल में लम्बा छुरा भोंक दिया। वह ‘हाय!’ करके घूम पड़े। उन्होंने तलवार का एक ऐसा सच्चा हाथ मारा कि वह मुसलमान भी दो होकर नाचने लगा। गुंडों में भगदड़ पड़ गयी।

गोपालजी को गहरी चोट लगी थी। उनकी अँतड़ियाँ बाहर निकली आ रही थीं। उन्हें भीतर की ओर ठेलकर बूढ़े ने उसी घाव पर अपने दुपट्टे को कसकर बाँधा और विक्षिप्त की तरह आगे पैर बढ़ाया।

कुछ दूर चलने के बाद गली पार हो गयी, सड़क मिली। सड़क पर एक सार्जेंट के साथ पाँच-सात सिपाही खड़े थे। उन्होंने उस वृध्द वीर को रोककर पूछा, ‘कहाँ जा रहे हो?’

‘अपने राम को खोजने।’ लड़खड़ाती आवाज से गोपालजी ने कहा, ‘आज अगर मेरा राम न मिला तो कलकत्ता के सारे मुसलमानों को मार डालूँगा। मस्जिदों को भस्म कर दूँगा। बेटा राम ! प्यारे राम !’

घाव बहुत गहरा था। वृद्ध वहीं गिरकर ढेर हो गया!

उस सड़क के आस-पास की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में बहुत देर तक ईश्वर-द्रोही गोपालजी के अन्तिम शब्द गूँजते रहे – ‘बेटा राम ! प्यारे राम!

 

कहानी

 

खुदाराम

 

 

 

मारे कस्बे के इनायत अली कल तक नौमुसलिम थे। उनका परिवार केवल सात वर्षों से खुदा के आगे घुटने टेक रहा था। इसके पहले उनके सिर पर भी चोटी थी, माथे पर तिलक था और घर में ठाकुरजी थे। हमारे समाज ने उनके निरपराध परिवार को जबर्दस्ती मन्दिर से ढकेलकर मस्जिद में भेज दिया था।

बात यों थी : इनायत अली के बाप उल्फत अली जब हिन्दू थे, देवनन्दन प्रसाद थे, तब उनसे अनजाने में एक अपराध बन पड़ा था। एक दिन एक दुखिया गरीब युवती ने उनके घर आश्रय माँगा। पता-ठिकाना पूछने पर उसने एक गाँव का नाम ले लिया। कहा –

“मैं बिलकुल अनाथ हूँ। मेरे मालिक को गुजरे छह महीने से ऊपर हो गए। जब तक वह थे, मुझे कोई फिक्र न थी। जमींदार की नौकरी से चार पैसे पैदा करके, वही हमारी दुनिया चलाते थे। उनके वक्त गरीब होने पर भी मैं किसी की चाकरी नहीं करती थी। अब उनके बाद, उसी गाँव में पेट के लिए परदा छोड़ते मुझे शर्म मालूम होने लगी। इसलिए उस गाँव को छोड़, इस शहर में नौकरी तलाश रही हूँ। मुझे और कुछ नहीं, चार रोटियाँ और चार गज कपड़े की जरूरत है। आपको भगवान ने चार पैसे दिये हैं। मेरी हालत पर रहम कीजिए। मुझे अपने घर के एक कोने में रहने और बाकी जिन्दगी ईश्वर का नाम लेने में बिताने दीजिए। आपका भला होगा।”

जात पूछने पर उसने अपने को अहीरिन बताया। देवनन्दन प्रसाद जी सरल हृदय थे। स्त्री की हालत पर दया आ गई। उनकी स्त्री ने भी अहीरिन की मदद ही की। कहा –

“रख लो न। चौका-बर्तन किया करेगी, पानी भरेगी, दो रोटी खायगी और पड़ी रहेगी।”

अहीरिन रख ली गई। दो महीनों तक वह घर का काम-काज सँभालती रही। इसके बाद एक दिन एकाएक वज्रपात हुआ। न जाने कहाँ से ढूँढता-ढूँढता एक आदमी देवनन्दन जी के यहाँ आया। पूछने लगा –

“बाबूजी, आपने कोई नई मजदूरिन रखी है?”

“क्यों भाई? तुम्हारे इस सवाल का क्या मतलब है?”

“बाबूजी, दो महीनों से मेरी औरत लापता है। मैं उसी की तलाश में चारों ओर की खाक छान रहा हूँ। जरा-सी बात पर लड़कर भाग खड़ी हुई। औरत की जात, अपने हठ के आगे मर्द की इज्जत को कुछ समझती ही नहीं।”

इसी समय हाथ में घड़ा और रस्सी लिए वह अहीरिन घर से बाहर निकली। उसे देखते ही वह पुरुष झपटकर उसके पास पहुँचा।

“अरे, फिरोजी! यह क्या? किसके लिए पानी भरने जा रही है?”

“इधर आओ जी।” जरा कड़े होकर देवनन्दन जी ने कहा –

“यह कैसा पागलपन है? तुम किसे फिरोजी कह रहे हो? वह हमारी मजदूरिन है। हमारे लिए पानी लेने जा रही है। उसका नाम फिरोजी नहीं, रुकमिनियाँ है। किसी गैर औरत का इस तरह अपमान करते तुम्हें शर्म नहीं आती?”

जोश में देवनन्दन जी इतना कह ते गए, मगर रुकमिनियाँ के चेहरे पर नजर पड़ते ही उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उस पुरुष को देखते ही अहीरिन रुकमिनियाँ का मुँह काला पड़ गया। वह काठमारी-सी जहाँ की तहाँ खड़ी रह गई।

रुकमिनियाँ को फिरोजी कहने वाले ने देवनन्दन को ओर देखकर कहा –

“बाबूजी, आपने धोखा खाया। यह हिन्दू नहीं, मुसलमान है। रुकमिनियाँ नहीं मेरी भागी हुई बीबी फिरोजी है।”

देवनन्दन के काटो तो खून नहीं।

शाम को, घर के सरदारों के घूमने-फिरने, मिलने-जुलने के लिए निकल जाने के बाद मुहल्ले की बूढ़ी औरतें और जवान लड़कियाँ अपने-अपने दरवाजों पर बैठकर जोर-जोर से देवनन्दन और फिरोजी की चर्चा करने लगीं।

“बाबा रे बाबा!” एक बूढ़ी ने राग अलापा – “औरत का ऐसा दीदा! मर्द को छोड़कर दूसरे देश और दूसरे के घर पर चली आई।”

“मुँहझौंसी थी तो तुर्किन, बन गयी अहीरिन! मुसलमान औरतों में लाज नहीं होती, माँ! वह तो इस तरह अपने मालिक को छोड़कर दूसरों के यहाँ चली आई, मुझे तो घर के बाहर भी जाने में डर मालूम होता है। निगोड़ी और क्या थी, पतुरिया थी।” एक विवाहित लड़की ने कहा।

सामने के दरवाजे पर से दूसरी अधेड़ औरत ने कहा –

“अब देखो रघुनन्दन के बाप का क्या होता है! दो महीनों तक तुर्किन के हाथ का पानी पीकर और उससे चौका-बर्तन कराकर उन्होंने अपना धरम खो दिया है। हमारे… तो कह रहे थे कि अब उनके घर से कोई नाता न रखा जायगा।”

“नाता कैसे रखा जा सकता है!” पहली बूढ़ी ने कहा, “धरम तो कच्चा सूत होता है। जरा-सा इधर-उधर होते ही टूट जाता है। फिर हमारा हिन्दू का धरम! राम-राम! जिसको छूना मना है, सुबह जिसका मुँह देखना पाप है, उनके हाथ से देवनन्दन ने जल ग्रहण किया। डूब गया… देवनन्दन का खानदान डूब गया। अब उससे खान-पान का नाता रख कौन अपना लोक-परलोक बिगाड़ेगा!”

विवाहिता लड़की बोली –

“यह बात शहर भर में फैल गई होगी। दो-चार आदमी जानते होते तो छिपाते भी। सुबह उस तुर्किन का आदमी चोटी पकड़कर धों-धों पीटता हुआ उसे ले जा रहा था। सबने देखा, सब जान गए।”

बस। दूसरे दिन मुहल्ले के मुखिया ने देवनन्दन को बुलाकर कहा – “देखो भाई, अब तुम अपने लिए किसी दूसरे कुएँ से पानी मँगाया करो।”

“क्यों?”

“तुम अब हिन्दू नहीं, मुसलमान हो। दो महीने तक मुसलमान से पानी भराने और चौका-बर्तन कराने के बाद भी क्या तुम्हारा हिन्दू रहना संभव है?”

“मैंने कुछ जान-बूझकर तो मुसलमानिन के हाथ का पानी पिया नहीं। उसने मुझे धोखा दिया। इसमें मेरा क्या अपराध हो सकता है?”

“भैया मेरे, हम हिन्दू हैं। कोई जान-बूझकर गो-हत्या करने के लिए गाय के गले में रस्सा नहीं बाँधता। फिर भी, बँधी हुई गाय के मरने पर बाँधने वाले को हत्या लगती है। प्रायश्चित करना पड़ता है।”

“यह ठीक है। उसके जाने के बाद ही मैंने तमाम मकान साफ कराया-लिपाया-पोताया है। मिट्टी के बर्तन बदलवा दिए हैं। धातु के बर्तन को आग से शुद्ध कर लिया है। इस पर भी जो कुछ प्रायश्चित कराना हो, करा लो। मैं कहीं भागा तो नहीं जा रहा हूँ।”

प्रायश्चित-चर्चा चलने पर व्यवस्था के लिए पुरोहित और पण्डितों की पुकार हुई। बस ब्राह्रणों ने चारों वेद, छह शास्त्र, छत्तीसों स्मृति और अठारहों पुराण का मत लेकर यह व्यवस्था दी कि “अब देवनन्दन पूरे म्लेच्छ हो गए। यह किसी तरह भी हिन्दू नहीं हो सकते।”

उधर देवनन्दन की दुर्दशा का हाल सुनकर मुसलमानों ने बड़ी प्रसन्नता से अपनी छाती खोल दी। कस्बे के सभी प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित मुसलमानों ने देवनन्दन को अपनी ओर बड़े प्रेम, बड़े आदर से खींचा।

“चले आओ! हम जात-पाँत नहीं, केवल हक को मानते हैं। इसलाम में मुहब्बत भरी हुई है। खुदा गरीबपरवर है। हिन्दुओं की ठोकर खाने से अच्छा है कि हमारी पलकों पर बैठो… मुसलमान हो जाओ।”

लाचार, समाज से अपमानित, परित्यक्त, पतित देवनन्दन सपरिवार अल्ला मियाँ की शरण में चले। वह और करते ही क्या! मनुष्य स्वभाव से ही समाज चाहता है, सहानुभूति चाहता है, प्रेम चाहता है। हिन्दू समाज ने इन सब दरवाजों को देवनन्दन के लिए बन्द कर दिया। इतना हो जाने पर उनके लिए मुसलमान होने के सिवा दूसरा कोई पथ ही नहीं था। देवनन्दन, उल्फत अली बन गए और उनका पुत्र रघुनन्दन, इनायत अली।

देवनन्दन की छाती पर समाज ने ऐसा क्रूर धक्का मारा कि धर्म-परिवर्तन के नौ महीने बाद ही वे इस दुनिया से कूच कर गए।

जिन दिनों की घटना ऊपर लिखी गई है, उन्हें भूत के गर्भ में गए सात वर्ष हो गए। तब से हमारे कस्बे की हालत अब बहुत कुछ बदल-सी गई है। पहले हमारे यहाँ सामाजिक या राजनीतिक जीवन बिलकुल नहीं था। सभी पेट के धन्धे की धुन में व्यस्त थे। उन दिनों हमारी दस हजार की बस्ती में, क्लब या सोसायटी के नाते तहसील का अहाता मात्र था, जहाँ नित्य सायंकाल नगर के दस-पाँच चापलूस धनी तहसीलदार से हें-हें करने के लिए या टेनिस खेलने के लिए एकत्र हुआ करते थे। आर्य-समाज का बदनाम नाम तो घर-घर था, मगर सच्चा आर्य-समाजी एक भी न था। एक सज्जन आगरे के ‘आर्यमित्र’ के ग्राहक थे। वह स्वामी दयानन्द का नाम लेकर कभी-कभी नवयुवकों के विनोद के साधन बना करते थे। वह बनते तो थे आर्य-समाजी, मगर बिलकुल मौखिक। हमें ठीक याद है; वह पुराने समाज की सभी प्रथा या कुप्रथाओं को मानते थे। एक बार उनकी स्त्री ने उनसे सत्यनारायण की कथा सुनने का आग्रह किया और उन्होंने अस्वीकार कर दिया। बस, इसी बात पर आर्य-समाजी पति के मुख पर सनातनी चण्डी झाड़ू फेरने, कालिख लगाने और चूना करने को तैयार हो गई। तीन दिनों तक मुहल्लेवालों की नींद हराम हो गई। विवश होकर ‘महाशयजी’ को स्त्री के आगे झुकना पड़ा।

मगर, अब कस्बे का वातावरण बिलकुल परिवर्तित हो गया। गत असहयोग सहयोग आन्दोलन के प्रसाद से हमारा कस्बा भी बहुत कुछ जीवित हो उठा है। अब हमारे यहाँ बाकायदा आर्य-समाज भवन है, और हैं उनके मंत्रीतथा सभापति। एक पुस्तकालय भी है और उसके सभी मन्त्री-सभापति हैं। हिन्दी के अनेक पत्र, अंग्रेजी के दी-तीन दैनिक आते हैं। सैकड़ों बालक, युवक और वृद्ध अखबारी-जीवी बन गए हैं। ऐसे अखबार-जीवियों की संख्या प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।

उस दिन आर्य-समाज के मंत्रीपण्डित वासुदेव शर्मा समाज-भवन में ही बैठे कोई उर्दू अखबार पढ़ रहे थे। भवन के बाहर-बरामदे में दो पंजाबी ‘महाशय’ पायजामा और कमीज पहने सायं-सन्ध्या कर रहे थे। उसी समय एक दुबला-पतला लम्बा-सा पुरुष भवन में आया। उसकी आहट पा शर्माजी ने चश्माच्छादित आँखों से उसकी ओर देखा। पहचान गए –

“कहो मियाँ इनायत अली, आज इधर कैसे?”

“आप ही की सेवा में कुछ निवेदन करने आया हूँ।”

शर्माजी ने चश्मा उतार लिया। उसे कुरते के कोने से साफ करने के बाद पुन: नाक पर चढ़ाते-चढ़ाते बोले –

“भाई इनायत, बड़ी शुद्ध हिन्दी बोलते हो?”

“जी हाँ, शर्माजी, मैं बहुत शुद्ध हिन्दी बोल सकता हूँ। इसका कारण यही है कि मेरी नसों में बहुत शुद्ध हिन्दू रक्त बह रहा है। समाज ने जबर्दस्ती मेरे पिता को मुसलमान होने के लिए विवश किया, नहीं तो आज मैं भी उतना ही हिन्दू होता, जितने आप या कोई भी दूसरा हिन्दुत्व का अभिमानी। खैर, मुझे आपसे कुछ कहना है… ।”

“कहिए, क्या आज्ञा है?”

“मैं पुन: हिन्दू होना चाहता हूँ।”

“हिन्दू होना?” आश्चर्य से मुख विस्फारित कर शर्माजी ने पूछा।

“जी हाँ! अब मुसलमान रहने में लोक-परलोक दोनों का नाश दिखाई पड़ता है। इसलिए नहीं कि उस धर्म में कोई विशेषता नहीं है, बल्कि इसलिए कि मेरा और मेरे परिवार का हृदय मुसलमान धर्म के योग्य नहीं। अनन्त काल का हिन्दू-हृदय – हिन्दू सभ्यता का पक्षपाती शान्त हृदय – मुसलमानी रीति-नीति और सभ्यता का उपयोग करने में बिल्कुल अयोग्य साबित हुआ है। मेरी स्त्री नित्य प्रात:काल खुदा-खुदा नहीं, राम-राम जपती हैं। मैं मुसलमान रहकर क्या करूँगा? मेरी माता गंगा-स्नान और बदरिकाश्रम यात्रा के लिए तड़पा करती हैं। मेरा हृदय न तो उन्हें मक्का-मदीना का भक्त बनाने की धृष्टता कर सकता है और न वह बन सकती हैं। मैं मुसलमान रहकर क्या करूँगा? मैं स्वयं मसजिद में जाकर हृदय के मालिक को याद नहीं कर सकता। मेरा हिन्दू हृदय मसजिद के द्वार पर पहुँचते ही एक विचित्र स्पन्दन करने लगता है। उस स्पंदन का अर्थ खुदा और मसजिदवाले के प्रति अनुराग नहीं हो सकता, घृणा भी नहीं हो सकती। वह स्पन्दन घृणा और अनुराग के मध्य का निवासी है। इन्हीं सब कारणों से बहुत सोच-समझकर अब मैंने शुद्ध होकर हिन्दू होने का निश्चय किया है।”

पंजाबी महाशय भी सन्ध्या समाप्त कर ओम्-ओम् करते हुए भीतर आ गए। शर्माजी ने इनायत अली उर्फ रघुनन्दन का परिचय देते हुए उनके प्रस्ताव पर उन दोनों महाशयों की सम्मति माँगी।

“धन्य हो महाशय जी!” एक महाशय बोले – “ऋषि दयानन्द की कृपा होगी तो हमारे वे सब बिछड़े भाई एक-न-एक दिन फिर अपने आर्य धरम में चले आएँगे। इन्हें जरूर शुद्ध कीजिए।”

हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य का बाजार गर्म होने के एक महीना पूर्व एक विचित्र पुरुष हमारे कस्बे में आए। उनकी अवस्था पचास वर्षों से अधिक जान पड़ती थी। वह वस्त्र के नाम पर केवल लँगोटी धारण किया करते थे। वही उनकी सारी गृहस्थी और सम्पत्ति थी। उनका मुख तो रोबीला नहीं था, पर उस पर विचित्र आकर्षण दिखाई देता था। दाढ़ी फुट भर लम्बी थी। सर के बाल भी बड़े-बड़े थे।

उनमें एक ऐसा चमत्कार था, जिससे कस्बे के छोटे-छोटे लड़के उन पर जान दिया करते थे। हाँ, उनका नाम बताना तो भूल ही गया। वह अपने को ‘खुदाराम’ कहा करते थे। खुदाराम गली में आए हैं, यह सुनते ही लड़कों की मंडली जान छोड़कर उनकी ओर झपट पड़ती – “खुदाराम, पैसे दो! खुदाराम, पैसे दो!” की आवाज से गली गूँज उठती थी। पहले तो खुदाराम दो-चार बार लड़कों को मुँह बिगाड़-बिगाड़कर डराने की कोशिश करते, फिर दो-तीन बच्चों को पीठ पर चढ़ाकर बगल में दबाकर या कन्धों पर उठाकर भाग खड़े होते “भागो! भागो! हो हो हो? लेना जी?” आदि कहते हुए अन्य लड़के खुदाराम को रगेद लेते। अन्त में लाचार हो वह खड़े हो जाते, बच्चों की पीठ या कन्धे के नीचे उतार देते और पूछने लगते –

“बन्दरो! क्या चाहिए?”

“पैसे खुदाराम, पैसे!”

खुदाराम बड़े जोर से हँसते-हँसते खाली मुट्ठी को बन्द कर इधर-उधर हाथ चलाने लगते। चारों ओर झन्न-झन्न की आवाज गूँज उठती। लड़के प्रसन्न होकर पैसे लूटने लगते – और खुदाराम नौ दो ग्यारह हो जाते।

खुदाराम को सबसे अधिक इन लड़कों ने मशहूर किया।

इसके बाद एक घटना और हुई, जिससे उनकी शोहरत चौगुनी बढ़ गई। किसी गरीब चमार के पाँच वर्ष के पुत्र को हैजा हो गया था। उसके पास वैद्य, हकीम या डाक्टर बाबू के लिए पैसे नहीं थे। कई जगह जाने पर भी किसी ने उस अभागे की सुध न ली। बेचारा लड़का उपचार के अभाव पर मरने लगा।

उसी समय उधर से खुदाराम लड़कों की मण्डली के साथ गुजरे। चमार की स्त्री को दरवाजे पर बैठकर रोते देख, वह उसके सामने जाकर खड़े हो गए। पूछने लगे –

“क्यों रो रही है?”

स्त्री ने उत्तर तो कुछ न दिया, हाँ, स्वर को ‘पंचम’ से ‘निषाद’ कर दिया।

“क्यों रोती है? बोलती ही नहीं, तुझे भी पैसे चाहिए?”

“पैसे नहीं,” स्त्री ने इस बार हिचकते-हिचकते उत्तर दिया, “दवा चाहिए। मेरा लाल हैजे से मर रहा है!”

“तेरे बच्चे को हैजा हो गया है? पगली कहीं की। इतना खाना क्यों खिला दिया? मुझे तो कभी कुछ खिलाती नहीं। कुछ खिला तो तेरा बच्चा अभी चंगा हो जाय।”

“बाबा, मेरे घर में तुम्हारे खाने लायक है ही क्या? कहो तो चने खिलाऊँ।”

“ला, ला। जो कुछ भी हो, दौड़कर ले आ। तेरा बच्चा अभी अच्छा हो जायगा।”

स्त्री अपने मकान में गई और एक छोटी-सी पोटली में पाव-डेढ़-पाव भुने चने ले आई। खुदाराम ने पोटली लेकर बालक-मण्डली को चने दान करना आरम्भ किया। देखते-देखते पोटली साफ हो गई। केवल चार-पाँच चने बच रहे। स्त्री के हाथ में देते हुए उन्होंने कहा –

“इन चनों को पीस कर बच्चे को पिला दे। यह उसका हिस्सा है। ले जा!”

दूसरे दिन उसी चमारिन ने कस्बे भर में यह बात मशहूर कर दी कि खुदाराम पागल नहीं, होशियार हैं। मामूली आदमी नहीं, फकीर हैं, देवता हैं।

फिर तो हिन्दू-मुसलमान दोनों जाति के लोगों ने – विशेषत: स्त्रियों ने – खुदाराम को न जाने क्या-क्या बना डाला। कितनों के बच्चे उनकी ऊट-पटाँग औषधियों से अच्छे हो गए। कितनों को खुदाराम की कृपा से नौकरी मिल गई। कितने मुकदमे जीत गए। कस्बा का कस्बा उन्हें पूछने लगा।

मगर, खुदाराम ज्यों के त्यों रहे। उनका दिन-रात का चारों ओर लड़कों की मण्डली के साथ घूमना न रुका। अच्छे से अच्छे धनी भी उन्हें कपड़े न पहना सके। किसी के आग्रह करने पर वह कपड़े-धोती, कुरता-टोपी पहन तो लेते, मगर उसके घर से आगे बढ़ते ही टोपी किसी लड़के के मस्तक पर होती, धोती किसी गरीब के झोंपड़े पर और कुर्ता किसी भिखमंगे के तन पर। किसी-किसी दिन तो दो-दो बजे रात को किसी गली में खुदाराम को कण्ठ-ध्वनि सुनाई पड़ती –

तू है मेरा खुदा मैं हूँ तेरा खुदा,

तू खुदा मैं खुदा, फिर जुदाई कहाँ?

सात आदमी आपस में बात करते हुए समाज-भवन की ओर जा रहे थे। उनमें एक तो समाज के मंत्रीमहाशय थे, दो हमारे परिचित पंजाबी और चार बाहर से आए हुए दूसरे आर्य-समाजी थे। बातें इस प्रकार हो रही थीं –

“मुसलमान लोग भरसक इनायत अली को हिन्दू न होने देंगे।”

“यों न होने देंगे? अजी अब वह जमाना लद गया। यहाँ के सभी हिन्दू हमारे साथ हैं।”

“लड़ाई हो जाने का भय है।”

“अगर इस बात को लेकर कोई लड़े तो लड़े। बेवकूफी का भार लड़ाई छेड़ने वाले पर होगा।”

“अच्छा, हम लोग इनायत के परिवार को केवल शुद्ध करें – वेद भगवान की सवारी निकालने से लाभ?”

एक साथ कह उठे – “वाह! वेद भगवान की सवारी क्यों न निकालें। हम अपने बिछुड़े भाई को पाएँगे। ऐसे मौके पर आनन्द-मंगल मनाने से डरें क्यों?”

“सवारी पर,” पहले महाशय ने कहा – “मुसलमानों ने आक्रमण करने का निश्चय कर लिया है। यह मैं सच्ची खबर सुना रहा हूँ।”

“देखो भाई, इस तरह दबने से काम न चलेगा। हम किसी के धार्मिक कृत्यों में बाधा नहीं देते, तो कोई हमारे पथ में रोड़े क्यों डालेगा? फिर, अगर उन्होंने छेड़ा, तो देखा जायगा। भय के नाम पर धर्म कभी न छोड़ा जायगा।”

इसी समय बगल की एक गली से लँगोटी लगाए खुदाराम निकले। वह वही गुनगुना रहे थे –

तू है मेरा खुदा, मैं हूँ तेरा खुदा,

तू खुदा, मैं खुदा, फिर जुदाई कहाँ?

मंत्री महाशय ने पुकारा –

“खुदाराम!”

“चुप रहो!” खुदाराम ने कहा – “मैं कोई युक्ति सोच रहा हूँ।”

“कैसी युक्ति सोच रहे हो, खुदाराम? हमें भी तो बताओ।”

“सोच रहा हूँ कि क्या उपाय करूँ कि खुदा-खुदा में लड़ाई न हो। तुम लोग लड़ोगे?”

“नहीं, लड़ने का विचार नहीं है, पर सवारी जरूर निकलेगी।”

“खाना नहीं खाऊँगा, पर मुँह में कौर जरूर डालूँगा। हा हा हा हा! यही मतलब है न?”

“लाचारी है, खुदाराम।”

“तो धर्म के नाम पर खून की नदी बहेगी? हा हा हा हा। तुम लोग इन्सान क्यों हुए? तुम्हें तो भालू होना चाहिए था। शेर होना चाहिए था, भेड़िया होना चाहिए था। वैसी अवस्था में तुम्हारी रक्त-पिपासा मजे में शान्त होती। धर्म के नाम पर लड़ने वाले इन्सान क्यों होते हैं?”

अपरिचित आगन्तुक आर्यों ने शर्माजी से पूछा-

“क्या यह पागल है?”

“हाँ-हाँ,” खुदाराम ने कहा – “कुरान नहीं पढ़ा है, इसलिए पागल है, सत्यार्थ प्रकाश नहीं देखा है, इसलिए पागल है, धर्म के नाम खूँरेजी नहीं पसन्द करता, इसलिए पागल है, खद्दर का कुर्ता पहनता, इसलिए पागल है, लेक्चर नहीं दे सकता, इसलिए खुदाराम जरूर पागल है। हा हा हा हा! खुदाराम पागल है। मुसलमान कहते हैं – “तू पागल है, इस बीच में न पड़।” हिन्दू भी यही कहते हैं। अच्छी बात है – लड़ो! अगर होशियारी का नाम लड़ना ही है तो – लड़ो।”

तू भी इन्सान है, मैं भी इन्सान हूँ,

गर सलामत हैं हम, तो खुदाई कहाँ।

तू है मेरा खुदा, मैं हूँ तेरा खुदा,

तू खुदा, मैं खुदा, फिर जुदाई कहाँ?

खुदाराम नाचना-कूदता ‘हो हो हो’ करता अपने रास्ते लगा।

कस्बे के हजारों हिन्दू मर्द समाज-मन्दिर को ओर वेद भगवान के जुलूस में शामिल होने के लिए चले गए। मुसलमान पुरुष भी, पुराने पीर की मस्जिद में, जुलूस में बाधा डालने के लिए सशस्त्र एकत्र हो गए। हिन्दू और मुसलमान दोनों घरों पर या तो बूढ़े बचे थे या बच्चे और स्त्रियाँ। घर-घर का दरवाजा भीतर से बन्द था।

एक मुसलमान के दरवाजे पर किसी ने आवाज दी –

“माँ!”

“कौन है?”

“जरा बाहर आओ, मैं हूँ खुदाराम।”

दरवाजा खोलकर बूढ़ी बाहर निकली।

“क्या है खुदाराम? खाना चाहिए?’

“नहीं माँ, आज एक भीख माँगने आया हूँ – देगी न?”

“क्या है फकीर? तुम्हें क्या कमी है? माँगो, तुमने मेरी बेटी की जान बचाई है। हम हमेशा तुम्हारे गुलाम रहेंगे। माँगो क्या लोगे?’

“पहले कसम खा – देगी न?”

“कसम पाक परवरदिगार की। खुदाराम, तुम्हारी चीज अगर मेरे इमकान में होगी, तो जरूर दूँगी।”

“तो, चलो मेरे साथ! हम लोग हिन्दू-मुसलमानों का झगड़ा रोकें। बच्चों को भी ले लो। मैं मुहल्ले भर की – कसबे भर की औरतों, बच्चों की पलटन लेकर दोनों जातियों के पुरुषों पर आक्रमण करूँगा, उन्हें खुदा या धर्म के नाम पर लड़ने से रोकूँगा।”

मुसलमान जननी अवाक-सी खड़ी रह गई! खुदाराम कहता क्या है?

“चुप क्यों हो गई, माँ? तूने मुझे भीख देने की कसम खाई है। मैं तेरे हित की बात कहता हूँ! इस रक्तपात में पुरुषों के नहीं, स्त्रियों के कलेजे का खून बहाया जाता है। स्त्रियाँ विधवा होती हैं, माताएँ अपने बच्चे खोती हैं, बहिनें अपमानित होती हैं। पुरुषों की यह ज्यादती तुम्हीं लोगों के रोके से रुकेगी। चलो! उन पत्थरों के आगे रोओ और उन्हें लड़ने से रोको। उन्हें बताओ कि तुम्हारे शरीर तुम्हारी माताओं की धरोहर हैं। उनकी इच्छा के विरुद्ध उनका नाश करनेवाले तुम कौन हो? देर न करो, नहीं तो सब चौपट हो जायगा।”

एक ओर उत्तेजित मुसलमान खुदा के नाम पर ईट और डंडे चलाने पर उतारू थे, दूसरी ओर हिन्दू वेद भगवान का जूलूस, शुद्ध (इनायत अली) रघुनन्दन प्रसाद के परिवार के साथ और हजारों हिन्दुओं के साथ मसजिद के पास डटा था। युद्ध छिड़ने ही वाला था कि गंगा की कल-कल धारा की तरह हजारों स्त्रियों की कण्ठ-ध्वनि मुसलमान-दल के पीछे सुनाई पड़ी। पहले खुदाराम गाते और उनके बाद स्त्रियाँ उसी पद को दुहराती थीं –

तू है मेरा खुदा, मैं हूँ तेरा खुदा,

तू खुदा मैं खुदा, फिर जुदाई कहाँ?

छोटे-छोटे बच्चों के कण्ठ की उस कोमलता के आगे, माताओं के कण्ठ की करुण धारा के आगे, उत्तेजित युवकों के हृदय की राक्षसता मुग्ध होकर, पुलकित होकर और नतमस्तक होकर खड़ी हो गई! मुसलमान-दल ने स्त्रियों के इस जलूस के लिए चुपचाप रास्ता दे दिया। हिन्दू दलवाले आँखें फाड़-फाड़कर खुदाराम और उसकी स्वर्गीय सेना की ओर देखने लगे। उस सेना में हरेक हिन्दू और प्रत्येक मुसलमान के घर की माताएँ और बहिनें, बेटे और बेटियाँ थीं।

“तुम लोग क्यों यहाँ आईं?” मुसलमानों ने भी पूछा।

“तुम लोग क्यों यहाँ आईं?” हिन्दुओं ने भी प्रतिध्वनि की तरह मुसलमानों के प्रश्नों को दुहराया। एक मुसलमान बूढ़ी आगे बढ़ी – “हम आई हैं तुम्हें मरने से बचाने के लिए। तुम हमारे बेटे – वे बेटे, जिन्हें हमने रात-रात भर जागकर, भूखों रहकर, दुआएँ माँगकर अपनी आँखों को खुश रखने के लिए, दिल को शांत रखने के लिए इतना बड़ा किया है। तुम्हारे लिए हम खुदा की इबादत करती हैं – तुम्हीं हमारे खुदा हो।”

“यह क्या हो रहा है? धर्म के नाम पर खून बहाने की क्या जरूरत है? तुम्हें यह शरारत किस शैतान ने सिखाई है? बच्चो, तुम्हारी माँएँ तुम्हें खोकर अन्धी हो जायँगी। उनकी जिन्दगी खराब हो जायगी। बहिश्त पाने पर भी तुम्हें चैन न मिल सकेगा! लड़ो मत! खून से पाजी शैतान भले ही खुश हो जाय, पर खुदा कभी नहीं खुश हो सकता। खुदा अगर खून पसन्द करता, तो हमारे वजू करने के लिए पानी न बनाकर खून ही बनाता। गंगा खूनी गंगा होती, समन्दर खून का समन्दर होता। खून के फेर में न पड़ो, मेरे कलेजे। खुदा खून नहीं पसन्द करता।”

“वेद के पगलो,” खुदाराम ने हिन्दुओं को ललकारा – “चलो, ले जाओ अपना जुलूस? माताएँ तुम्हें रास्ता देती हैं।”

मुसलमानों के हाथ के शस्त्र नीचे झुक गए। बाजा बजाने वाले बाजा बजाना भूल गए। माताओं ने रास्ता बनाया और वेद भगवान की सवारी हजारों मंत्र-मुग्ध हिन्दुओं के साथ निकल गई।

सावन के बादल की तरह मधुर ध्वनि से खुदाराम पुन: गरजे, माता वसुन्धरा की तरह माताओं के हृदय से पुन: प्रतिध्वनि हुई –

तूने मन्दिर बनाया, तू भगवान है,

मैंने मसजिद उठाई, मैं रहमान हूँ।

तू भी भगवान है, मैं भी भगवान हूँ

तू खुदा, मैं खुदा फिर जुदाई कहाँ?

इस पवित्र जुलूस के नेता थे खुदाराम, उनके पीछे हिन्दू-मुसलमान बच्चे, बच्चों के पीछे दोनों जाति की माताएँ और सबके पीछे मुसलमान पुरुष – जुलूस के सशस्त्र रक्षकों की तरह चल रहे थे। प्रकृति पुलकित कलेवरा थी, तारिकाएँ खिलखिला रही थीं, चन्द्रमा हँस रहा था – वह दृश्य पृथ्वी का स्वर्ग था।

 

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