जन्म : 1 जुलाई 1925, बलिया (उत्तर प्रदेश)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : कहानी, उपन्यास, संस्मरण, बाल साहित्य
उपन्यास : सूखा पत्ता, आकाश पक्षी, सुखजीवी, बीच की दीवार, ग्रामसेविका, सुन्नर पांडे की पतोहू, कंटीली राह के फूल, इन्हीं हथियारों से, लहरें, बिदा की रात
बाल उपन्यास : वानर सेना, नेउर भाई, मँगरी, सच्चा दोस्त, बाबू का फैसला, खूंटों में दाल है
कहानी संग्रह : जिंदगी और जोंक, देश के लोग, मौत का नगर, कुहासा, तूफान, कला प्रेमी, एक धनी व्यक्ति का बयान, दुख और दुख का साथ, जाँच और बच्चे, औरत का क्रोध
संस्मरण : कुछ यादें कुछ बातें, दोस्ती
अन्य : सुग्गी चाची का गाँव, एक स्त्री का सफर, झगडूलाल का फैसला
कहानियाँ
- एक थी गौरा
- डिप्टी कलक्टरी
- दोपहर का भोजन
- पलाश के फूल
- लड़का-लड़की
- अमरकांत प्रेमचंद के बाद की पीढ़ी के प्रमुख लेखक हैं या यूँ कहें नई कहानी आन्दोलन के लेखकों में प्रमुख हस्ताक्षर है.उनका लेखन आम आदमी के जीवन संघर्ष के आसपास घूमता है . उनकी भाषा में प्रेमचन्द की तरह देशजता है .अमरकांत बेहद उच्च विचारों वाले लेखक थे वे कायस्थ वर्मा थे पर जाति सूचक शब्द से पीछा छुड़ाने के लिए उन्होंने अपनना मूल नाम बदलने के साथ ही उपनाम भी हटा दिया.अपने जीवन के आख़िरी दिनों में वे बेहद स्वास्थ्य और आर्थिक कारणों से परेशान थे तमाम जद्दोजहद के बाद प्रशासन के कानों पर जूं रेंगा. अमरकांत आम आदमी की संवेदनाओं को करीब से महसूस करने वाले महान लेखक हैं.उनकी कुछ कहानियाँ पढ़ें और स्वयं विचार करें
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कहानी
- दोपहर का भोजन
सिद्धेश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रख कर शायद पैर की उँगलियाँ या जमीन पर चलते चीटें-चीटियों को देखने लगी।
अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी हैं। वह मतवाले की तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी ले कर गट-गट चढ़ा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह हाय राम कह कर वहीं जमीन पर लेट गई।
आधे घंटे तक वहीं उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई, आँखों को मल-मल कर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध-टूटे खटोले पर सोए अपने छह वर्षीय लड़के प्रमोद पर जम गई।
लड़का नंग-धड़ंग पड़ा था। उसके गले तथा छाती की हड्डियाँ साफ दिखाई देती थीं। उसके हाथ-पैर बासी ककड़ियों की तरह सूखे तथा बेजान पड़े थे और उसका पेट हंडिया की तरह फूला हुआ था। उसका मुख खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियाँ उड़ रही थीं।
वह उठी, बच्चे के मुँह पर अपना एक फटा, गंदा ब्लाउज डाल दिया और एक-आध मिनट सुन्न खड़ी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जा कर किवाड़ की आड़ से गली निहारने लगी। बारह बज चुके थे। धूप अत्यंत तेज थी और कभी एक-दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा रखे हुए या मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए-से गुजर जाते।
दस-पंद्रह मिनट तक वह उसी तरह खड़ी रही, फिर उसके चेहरे पर व्यग्रता फैल गई और उसने आसमान तथा कड़ी धूप की ओर चिंता से देखा। एक-दो क्षण बाद उसने सिर को किवाड़ से काफी आगे बढ़ा कर गली के छोर की तरफ निहारा, तो उसका बड़ा लड़का रामचंद्र धीरे-धीरे घर की ओर सरकता नजर आया।
उसने फुर्ती से एक लोटा पानी ओसारे की चौकी के पास नीचे रख दिया और चौके में जा कर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने-पोतने लगी। वहाँ पीढ़ा रख कर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था कि रामचंद्र ने अंदर कदम रखा।
रामचंद्र आ कर धम-से चौकी पर बैठ गया और फिर वहीं बेजान-सा लेट गया। उसका मुँह लाल तथा चढ़ा हुआ था, उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और उसके फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी।
सिद्धेश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास आए और वहीं से वह भयभीत हिरनी की भाँति सिर उचका-घुमा कर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही। किंतु, लगभग दस मिनट बीतने के पश्चात भी जब रामचंद्र नहीं उठा, तो वह घबरा गई। पास जा कर पुकारा – बड़कू, बड़कू! लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गई और लड़के की नाक के पास हाथ रख दिया। साँस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रख कर देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आँखें खोलीं। पहले उसने माँ की ओर सुस्त नजरों से देखा, फिर झट-से उठ बैठा। जूते निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यंत्र की तरह चौकी पर आ कर बैठ गया।
सिध्देश्वर ने डरते-डरते पूछा, ‘खाना तैयार है। यहीं लगाऊँ क्या?’
रामचंद्र ने उठते हुए प्रश्न किया, ‘बाबू जी खा चुके?’
सिद्धेश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर दिया, ‘आते ही होंगे।’
रामचंद्र पीढ़े पर बैठ गया। उसकी उम्र लगभग इक्कीस वर्ष की थी। लंबा, दुबला-पतला, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें तथा होठों पर झुर्रियाँ।
वह एक स्थानीय दैनिक समाचार पत्र के दफ्तर में अपनी तबीयत से प्रूफरीडरी का काम सीखता था। पिछले साल ही उसने इंटर पास किया था।
सिद्धेश्वरी ने खाने की थाली सामने ला कर रख दी और पास ही बैठ कर पंखा करने लगी। रामचंद्र ने खाने की ओर दार्शनिक की भाँति देखा। कुल दो रोटियाँ, भर-कटोरा पनियाई दाल और चने की तली तरकारी।
रामचंद्र ने रोटी के प्रथम टुकड़े को निगलते हुए पूछा, ‘मोहन कहाँ हैं? बड़ी कड़ी धूप हो रही है।’
मोहन सिद्धेश्वरी का मँझला लड़का था। उम्र अठ्ठारह वर्ष थी और वह इस साल हाईस्कूल का प्राइवेट इम्तहान देने की तैयारी कर रहा था। वह न मालूम कब से घर से गायब था और सिद्धेश्वरी को स्वयं पता नहीं था कि वह कहाँ गया है।
किंतु सच बोलने की उसकी तबीयत नहीं हुई और झूठ-मूठ उसने कहा, ‘किसी लड़के के यहाँ पढ़ने गया है, आता ही होगा। दिमाग उसका बड़ा तेज है और उसकी तबीयत चौबीस घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है। हमेशा उसी की बात करता रहता है।’
रामचंद्र ने कुछ नहीं कहा। एक टुकड़ा मुँह में रख कर भरा गिलास पानी पी गया, फिर खाने लग गया। वह काफी छोटे-छोटे टुकड़े तोड़ कर उन्हें धीरे-धीरे चबा रहा था।
सिद्धेश्वरी भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी। कुछ क्षण बीतने के बाद डरते-डरते उसने पूछा, ‘वहाँ कुछ हुआ क्या?’
रामचंद्र ने अपनी बड़ी-बड़ी भावहीन आँखों से अपनी माँ को देखा, फिर नीचा सिर करके कुछ रुखाई से बोला, ‘समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।’
सिद्धेश्वरी चुप रही। धूप और तेज होती जा रही थी। छोटे आँगन के ऊपर आसमान में बादल में एक-दो टुकड़े पाल की नावों की तरह तैर रहे थे। बाहर की गली से गुजरते हुए एक खड़खड़िया इक्के की आवाज आ रही थी। और खटोले पर सोए बालक की साँस का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा था।
रामचंद्र ने अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा, ‘प्रमोद खा चुका?’
सिद्धेश्वरी ने प्रमोद की ओर देखते हुए उदास स्वर में उत्तर दिया, ‘हाँ, खा चुका।’
‘रोया तो नहीं था?’
सिद्धेश्वरी फिर झूठ बोल गई, ‘आज तो सचमुच नहीं रोया। वह बड़ा ही होशियार हो गया है। कहता था, बड़का भैया के यहाँ जाऊँगा। ऐसा लड़का..’
पर वह आगे कुछ न बोल सकी, जैसे उसके गले में कुछ अटक गया। कल प्रमोद ने रेवड़ी खाने की जिद पकड़ ली थी और उसके लिए डेढ़ घंटे तक रोने के बाद सोया था।
रामचंद्र ने कुछ आश्चर्य के साथ अपनी माँ की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके कुछ तेजी से खाने लगा।
थाली में जब रोटी का केवल एक टुकड़ा शेष रह गया, तो सिद्धेश्वरी ने उठने का उपक्रम करते हुए प्रश्न किया, ‘एक रोटी और लाती हूँ?’
रामचंद्र हाथ से मना करते हुए हडबड़ा कर बोल पड़ा, ‘नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। मेरा पेट पहले ही भर चुका है। मैं तो यह भी छोडनेवाला हूँ। बस, अब नहीं।’
सिद्धेश्वरी ने जिद की, ‘अच्छा आधी ही सही।’
रामचंद्र बिगड़ उठा, ‘अधिक खिला कर बीमार कर डालने की तबीयत है क्या? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस, अपनी जिद। भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता?’
सिद्धेश्वरी जहाँ-की-तहाँ बैठी ही रह गई। रामचंद्र ने थाली में बचे टुकड़े से हाथ खींच लिया और लोटे की ओर देखते हुए कहा, ‘पानी लाओ।’
सिद्धेश्वरी लोटा ले कर पानी लेने चली गई। रामचंद्र ने कटोरे को उँगलियों से बजाया, फिर हाथ को थाली में रख दिया। एक-दो क्षण बाद रोटी के टुकड़े को धीरे-से हाथ से उठा कर आँख से निहारा और अंत में इधर-उधर देखने के बाद टुकड़े को मुँह में इस सरलता से रख लिया, जैसे वह भोजन का ग्रास न हो कर पान का बीड़ा हो।
मँझला लड़का मोहन आते ही हाथ-पैर धो कर पीढ़े पर बैठ गया। वह कुछ साँवला था और उसकी आँखें छोटी थीं। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह अपने भाई ही की तरह दुबला-पतला था, किंतु उतना लंबा न था। वह उम्र की अपेक्षा कहीं अधिक गंभीर और उदास दिखाई पड़ रहा था।
सिद्धेश्वरी ने उसके सामने थाली रखते हुए प्रश्न किया, ‘कहाँ रह गए थे बेटा? भैया पूछ रहा था।’
मोहन ने रोटी के एक बड़े ग्रास को निगलने की कोशिश करते हुए अस्वाभाविक मोटे स्वर में जवाब दिया, ‘कहीं तो नहीं गया था। यहीं पर था।’
सिद्धेश्वरी वहीं बैठ कर पंखा डुलाती हुई इस तरह बोली, जैसे स्वप्न में बड़बड़ा रही हो, ‘बड़का तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहा था। कह रहा था, मोहन बड़ा दिमागी होगा, उसकी तबीयत चौबीसों घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है।’ यह कह कर उसने अपने मँझले लड़के की ओर इस तरह देखा, जैसे उसने कोई चोरी की हो।
मोहन अपनी माँ की ओर देख कर फीकी हँसी हँस पड़ा और फिर खाने में जुट गया। वह परोसी गई दो रोटियों में से एक रोटी कटोरे की तीन-चौथाई दाल तथा अधिकांश तरकारी साफ कर चुका था।
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। इन दोनों लड़कों से उसे बहुत डर लगता था। अचानक उसकी आँखें भर आईं। वह दूसरी ओर देखने लगी।
थोड़ी देर बाद उसने मोहन की ओर मुँह फेरा, तो लड़का लगभग खाना समाप्त कर चुका था।
सिद्धेश्वरी ने चौंकते हुए पूछा, ‘एक रोटी देती हूँ?’
मोहन ने रसोई की ओर रहस्यमय नेत्रों से देखा, फिर सुस्त स्वर में बोला, ‘नहीं।’
सिद्धेश्वरी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘नहीं बेटा, मेरी कसम, थोड़ी ही ले लो। तुम्हारे भैया ने एक रोटी ली थी।’
मोहन ने अपनी माँ को गौर से देखा, फिर धीरे-धीरे इस तरह उत्तर दिया, जैसे कोई शिक्षक अपने शिष्य को समझाता है, ‘नहीं रे, बस, अव्वल तो अब भूख नहीं। फिर रोटियाँ तूने ऐसी बनाई हैं कि खाई नहीं जातीं। न मालूम कैसी लग रही हैं। खैर, अगर तू चाहती ही है, तो कटोरे में थोड़ी दाल दे दे। दाल बड़ी अच्छी बनी है।’
सिद्धेश्वरी से कुछ कहते न बना और उसने कटोरे को दाल से भर दिया।
मोहन कटोरे को मुँह लगा कर सुड़-सुड़ पी रहा था कि मुंशी चंद्रिका प्रसाद जूतों को खस-खस घसीटते हुए आए और राम का नाम ले कर चौकी पर बैठ गए। सिद्धेश्वरी ने माथे पर साड़ी को कुछ नीचे खिसका लिया और मोहन दाल को एक साँस में पी कर तथा पानी के लोटे को हाथ में ले कर तेजी से बाहर चला गया।
दो रोटियाँ, कटोरा-भर दाल, चने की तली तरकारी। मुंशी चंद्रिका प्रसाद पीढ़े पर पालथी मार कर बैठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चुभला-चबा रहे थे, जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है। उनकी उम्र पैंतालीस वर्ष के लगभग थी, किंतु पचास-पचपन के लगते थे। शरीर का चमड़ा झूलने लगा था, गंजी खोपड़ी आईने की भाँति चमक रही थी। गंदी धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ बनियान तार-तार लटक रही थी।
मुंशी जी ने कटोरे को हाथ में ले कर दाल को थोडा सुड़कते हुए पूछा, ‘बड़का दिखाई नहीं दे रहा?’
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके दिल में क्या हो गया है – जैसे कुछ काट रहा हो। पंखे को जरा और जोर से घुमाती हुई बोली, ‘अभी-अभी खा कर काम पर गया है। कह रहा था, कुछ दिनों में नौकरी लग जाएगी। हमेशा, बाबू जी, बाबू जी किए रहता है। बोला, बाबू जी देवता के समान हैं।’
मुंशी जी के चेहरे पर कुछ चमक आई। शरमाते हुए पूछा, ‘ऐं, क्या कहता था कि बाबू जी देवता के समान हैं? बड़ा पागल है।’
सिद्धेश्वरी पर जैसे नशा चढ़ गया था। उन्माद की रोगिणी की भाँति बड़बड़ाने लगी, ‘पागल नहीं है, बड़ा होशियार है। उस जमाने का कोई महात्मा है। मोहन तो उसकी बड़ी इज्जत करता है। आज कह रहा था कि भैया की शहर में बड़ी इज्जत होती हैं, पढ़ने-लिखनेवालों में बड़ा आदर होता है और बड़का तो छोटे भाइयों पर जान देता हैं। दुनिया में वह सब कुछ सह सकता है, पर यह नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाए।’
मुंशी जी दाल-लगे हाथ को चाट रहे थे। उन्होंने सामने की ताक की ओर देखते हुए हँस कर कहा, ‘बड़का का दिमाग तो खैर काफी तेज है, वैसे लड़कपन में नटखट भी था। हमेशा खेल-कूद में लगा रहता था, लेकिन यह भी बात थी कि जो सबक मैं उसे याद करने को देता था, उसे बर्राक रखता था। असल तो यह कि तीनों लड़के काफी होशियार हैं। प्रमोद को कम समझती हो?’ यह कह कर वह अचानक जोर से हँस पड़े।
मुंशी जी डेढ़ रोटी खा चुकने के बाद एक ग्रास से युद्ध कर रहे थे। कठिनाई होने पर एक गिलास पानी चढ़ा गए। फिर खर-खर खाँस कर खाने लगे।
फिर चुप्पी छा गई। दूर से किसी आटे की चक्की की पुक-पुक आवाज सुनाई दे रही थी और पास की नीम के पेड़ पर बैठा कोई पंडूक लगातार बोल रहा था।
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे। वह चाहती थी कि सभी चीजें ठीक से पूछ ले। सभी चीजें ठीक से जान ले और दुनिया की हर चीज पर पहले की तरह धड़ल्ले से बात करे। पर उसकी हिम्मत नहीं होती थी। उसके दिल में जाने कैसा भय समाया हुआ था।
अब मुंशी जी इस तरह चुपचाप दुबके हुए खा रहे थे, जैसे पिछले दो दिनों से मौन-व्रत धारण कर रखा हो और उसको कहीं जा कर आज शाम को तोड़ने वाले हों।
सिद्धेश्वरी से जैसे नहीं रहा गया। बोली, ‘मालूम होता है, अब बारिश नहीं होगी।’
मुंशी जी ने एक क्षण के लिए इधर-उधर देखा, फिर निर्विकार स्वर में राय दी, ‘मक्खियाँ बहुत हो गई हैं।’
सिद्धेश्वरी ने उत्सुकता प्रकट की, ‘फूफा जी बीमार हैं, कोई समाचार नहीं आया।
मुंशी जी ने चने के दानों की ओर इस दिलचस्पी से दृष्टिपात किया, जैसे उनसे बातचीत करनेवाले हों। फिर सूचना दी, ‘गंगाशरण बाबू की लड़की की शादी तय हो गई। लड़का एम.ए. पास है।’
सिद्धेश्वरी हठात चुप हो गई। मुंशी जी भी आगे कुछ नहीं बोले। उनका खाना समाप्त हो गया था और वे थाली में बचे-खुचे दानों को बंदर की तरह बीन रहे थे।
सिद्धेश्वरी ने पूछा, ‘बड़का की कसम, एक रोटी देती हूँ। अभी बहुत-सी हैं।’
मुंशी जी ने पत्नी की ओर अपराधी के समान तथा रसोई की ओर कनखी से देखा, तत्पश्चात किसी छँटे उस्ताद की भाँति बोले, ‘रोटी? रहने दो, पेट काफी भर चुका है। अन्न और नमकीन चीजों से तबीयत ऊब भी गई है। तुमने व्यर्थ में कसम धरा दी। खैर, कसम रखने के लिए ले रहा हूँ। गुड़ होगा क्या?’
सिद्धेश्वरी ने बताया कि हंडिया में थोडा सा गुड़ है।
मुंशी जी ने उत्साह के साथ कहा, ‘तो थोडे गुड़ का ठंडा रस बनाओ, पीऊँगा। तुम्हारी कसम भी रह जाएगी, जायका भी बदल जाएगा, साथ-ही-साथ हाजमा भी दुरूस्त होगा। हाँ, रोटी खाते-खाते नाक में दम आ गया है।’ यह कह कर वे ठहाका मार कर हँस पड़े।
मुंशी जी के निबटने के पश्चात सिद्धेश्वरी उनकी जूठी थाली ले कर चौके की जमीन पर बैठ गई। बटलोई की दाल को कटोरे में उड़ेल दिया, पर वह पूरा भरा नहीं। छिपुली में थोड़ी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास खींच लिया। उसमें केवल एक रोटी बची थी। मोटी-भद्दी और जली उस रोटी को वह जूठी थाली में रखने जा रही थी कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोए प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लड़के को कुछ देर तक एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकड़ों में विभाजित कर दिया। एक टुकड़े को तो अलग रख दिया और दूसरे टुकड़े को अपनी जूठी थाली में रख लिया। तदुपरांत एक लोटा पानी ले कर खाने बैठ गई। उसने पहला ग्रास मुँह में रखा और तब न मालूम कहाँ से उसकी आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे।
सारा घर मक्खियों से भनभन कर रहा था। आँगन की अलगनी पर एक गंदी साड़ी टँगी थी, जिसमें पैबंद लगे हुए थे। दोनों बड़े लड़कों का कहीं पता नहीं था। बाहर की कोठरी में मुंशी जी औंधे मुँह हो कर निश्चिंतता के साथ सो रहे थे, जेसे डेढ़ महीने पूर्व मकान-किराया-नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छँटनी न हुई हो और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो।
कहानी
डिप्टी कलक्टरी
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शकलदीप बाबू कहीं एक घंटे बाद वापस लौटे। घर में प्रवेश करने के पूर्व उन्होंने ओसारे के कमरे में झाँका, कोई भी मुवक्किल नहीं था और मुहर्रिर साहब भी गायब थे। वह भीतर चले गए और अपने कमरे के सामने ओसारे में खड़े होकर बंदर की भाँति आँखे मलका-मलकाकर उन्होंने रसोईघर की ओर देखा। उनकी पत्नी जमुना, चौके के पास पीढ़े पर बैठी होंठ-पर-होंठ दबाए मुँह फुलाए तरकारी काट रही थी। वह मंद-मंद मुस्कराते हुए अपनी पत्नी के पास चले गए। उनके मुख पर असाधारण संतोष, विश्वास एवं उत्साह का भाव अंकित था। एक घंटे पूर्व ऐसी बात नही थी। बात इस प्रकार आरंभ हुई। शकलदीप बाबू सबेरे दातौन-कुल्ला करने के बाद अपने कमरे में बैठे ही थे कि जमुना ने एक तश्तरी में दो जलेबियाँ नाश्ते के लिए सामने रख दीं। वह बिना कुछ बोले जलपान करने लगे। जमुना पहले तो एक-आध मिनट चुप रही। फिर पति के मुख की ओर उड़ती नजर से देखने के बाद उसने बात छेड़ी, ‘दो-तीन दिन से बबुआ बहुत उदास रहते हैं।’ ‘क्या?’ सिर उठाकर शकलदीप बाबू ने पूछा और उनकी भौंहे तन गईं। जमुना ने व्यर्थ में मुस्कराते हुए कहा, ‘कल बोले, इस साल डिप्टी-कलक्टरी की बहुत-सी जगहें हैं, पर बाबूजी से कहते डर लगता है। कह रहे थे, दो-चार दिन में फीस भेजने की तारीख बीत जाएगी।’ शकलदीप बाबू का बड़ा लड़का नारायण, घर में बबुआ के नाम से ही पुकारा जाता था। उम्र उसकी लगभग 24 वर्ष की थी। पिछले तीन-चार साल से बहुत-सी परीक्षाओं में बैठने, एम.एल.ए. लोगों के दरवाजों के चक्कर लगाने तथा और भी उल्टे-सीधे फन इस्तेमाल करने के बावजूद उसको अब तक कोई नौकरी नहीं मिल सकी थी। दो बार डिप्टी-कलक्टरी के इम्तहान में भी वह बैठ चुका था, पर दुर्भाग्य! अब एक अवसर उसे और मिलना था, जिसको वह छोड़ना न चाहता था, और उसे विश्वास था कि चूँकि जगहें काफी हैं और वह अबकी जी-जान से परिश्रम करेगा, इसलिए बहुत संभव है कि वह ले लिया जाए। शकलदीप बाबू मुख्तार थे। लेकिन इधर डेढ़-दो साल से मुख्तारी की गाड़ी उनके चलाए न चलती थी। बुढ़ौती के कारण अब उनकी आवाज में न वह तड़प रह गई थी, न शरीर में वह ताकत और न चाल में वह अकड़, इसलिए मुवक्किल उनके यहाँ कम ही पहुँचते। कुछ तो आकर भी भड़क जाते। इस हालत में वह राम का नाम लेकर कचहरी जाते, अक्सर कुछ पा जाते, जिससे दोनों जून चौका-चूल्हा चल जाता। जमुना की बात सुनकर वह एकदम बिगड़ गए। क्रोध से उनका मुँह विकृत हो गया और वह सिर को झटकते हुए, कटाह कुकुर की तरह बोले, ‘तो मैं क्या करूँ? मैं तो हैरान-परेशान हो गया हूँ। तुम लोग मेरी जान लेने पर तुले हुए हो। साफ-साफ सुन लो, मैं तीन बार कहता हूँ, मुझसे नहीं होगा, मुझसे नहीं होगा, मुझसे नहीं होगा।’ जमुना कुछ न बोली, क्योंकि वह जानती थी कि पति का क्रोध करना स्वाभाविक है। शकलदीप बाबू एक-दो क्षण चुप रहे, फिर दाएँ हाथ को ऊपर-नीचे नचाते हुए बोले, ‘फिर इसकी गारंटी ही क्या है कि इस दफे बाबू साहब ले ही लिए जाएँगे? मामूली ए.जी. ऑफिस की क्लर्की में तो पूछे नहीं गए, डिप्टी-कलक्टरी में कौन पूछेगा? आप में क्या खूबी है, साहब कि आप डिप्टी-कलक्टर हो ही जाएँगे? थर्ड क्लास बी.ए. आप हैं, चौबीसों घंटे मटरगश्ती आप करते हैं, दिन-रात सिगरेट आप फूँकते हैं। आप में कौन-से सुर्खाब के पर लगे हैं? बड़े-बड़े बह गए, गदहा पूछे कितना पानी! फिर करम-करम की बात होती है। भाई, समझ लो, तुम्हारे करम में नौकरी लिखी ही नहीं। अरे हाँ, अगर सभी कुकुर काशी ही सेवेंगे तो हँडिया कौन चाटेगा? डिप्टी-कलक्टरी, डिप्टी-कलक्टरी! सच पूछो, तो डिप्टी-कलक्टरी नाम से मुझे घृणा हो गई है!’ और होंठ बिचक गए। जमुना ने अब मृदु स्वर में उनके कथन का प्रतिवाद किया, ‘ऐसी कुभाषा मुँह से नहीं निकालनी चाहिए। हमारे लड़के में दोष ही कौन-सा है? लाखों में एक है। सब्र की सौ धार, मेरा तो दिल कहता है इस बार बबुआ जरूर ले लिए जाएँगे। फिर पहली भूख-प्यास का लड़का है, माँ-बाप का सुख तो जानता ही नहीं। इतना भी नहीं होगा, तो उसका दिल टूट जाएगा। यों ही न मालूम क्यों हमेशा उदास रहता है, ठीक से खाता-पीता नहीं, ठीक से बोलता नहीं, पहले की तरह गाता-गुनगुनाता नहीं। न मालूम मेरे लाड़ले को क्या हो गया है।’ अंत में उसका गला भर आया और वह दूसरी ओर मुँह करके आँखों में आए आँसुओं को रोकने का प्रयास करने लगी। जमुना को रोते हुए देखकर शकलदीप बाबू आपे से बाहर हो गए। क्रोध तथा व्यंग्य से मुँह चिढ़ाते हुए बोले, ‘लड़का है तो लेकर चाटो! सारी खुराफात की जड़ तुम ही हो, और कोई नहीं! तुम मुझे जिंदा रहने देना नहीं चाहतीं, जिस दिन मेरी जान निकलेगी, तुम्हारी छाती ठंडी होगी!’ वह हाँफने लगे। उन्होंने जमुना पर निर्दयतापूर्वक ऐसा जबरदस्त आरोप किया था, जिसे वह सह न सकी। रोती हुई बोली, ‘अच्छी बात है, अगर मैं सारी खुराफात की जड़ हूँ तो मैं कमीनी की बच्ची, जो आज से कोई बात…’ रुलाई के मारे वह आगे न बोल सकी और तेजी से कमरे से बाहर निकल गई। शकलदीप बाबू कुछ नहीं बोले, बल्कि वहीं बैठे रहे। मुँह उनका तना हुआ था और गर्दन टेढ़ी हो गई थी। एक-आध मिनट तक उसी तरह बैठे रहने के पश्चात वह जमीन पर पड़े अखबार के एक फटे-पुराने टुकड़े को उठाकर इस तल्लीनता से पढ़ने लगे, जैसे कुछ भी न हुआ हो। लगभग पंद्रह-बीस मिनट तक वह उसी तरह पढ़ते रहे। फिर अचानक उठ खड़े हुए। उन्होंने लुंगी की तरह लिपटी धोती को खोलकर ठीक से पहन लिया और ऊपर से अपना पारसी कोट डाल लिया, जो कुछ मैला हो गया था और जिसमें दो चिप्पियाँ लगी थीं, और पुराना पंप शू पहन, हाथ में छड़ी ले, एक-दो बार खाँसकर बाहर निकल गए। पति की बात से जमुना के हृदय को गहरा आघात पहुँचा था। शकलदीप बाबू को बाहर जाते हुए उसने देखा, पर वह कुछ नहीं बोली। वह मुँह फुलाए चुपचाप घर के अटरम-सटरम काम करती रही। और एक घंटे बाद भी जब शकलदीप बाबू बाहर से लौट उसके पास आकर खड़े हुए, तब भी वह कुछ न बोली, चुपचाप तरकारी काटती रही। शकलदीप बाबू ने खाँसकर कहा, ‘सुनती हो, यह डेढ़ सौ रुपए रख लो। करीब सौ रुपए बबुआ की फीस में लगेंगे और पचास रुपए अलग रख देना, कोई और काम आ पड़े।’ जमुना ने हाथ बढ़ाकर रुपए तो अवश्य ले लिए, पर अब भी कुछ नहीं बोली। लेकिन शकलदीप बाबू अत्यधिक प्रसन्न थे और उन्होंने उत्साहपूर्ण आवाज में कहा, ‘सौ रुपए बबुआ को दे देना, आज ही फीस भेज दें। होंगे, जरूर होंगे, बबुआ डिप्टी-कलक्टर अवश्य होंगे। कोई कारण ही नहीं कि वह न लिए जाएँ। लड़के के जेहन में कोई खराबी थोड़े है। राम-राम…! नहीं, चिंता की कोई बात नहीं। नारायण जी इस बार भगवान की कृपा से डिप्टी-कलक्टर अवश्य होंगे।’ जमुना अब भी चुप रही और रुपयों को ट्रंक में रखने के लिए उठकर अपने कमरे में चली गई। शकलदीप बाबू अपने कमरे की ओर लौट पड़े। पर कुछ दूर जाकर फिर घूम पड़े और जिस कमरे में जमुना गई थी, उसके दरवाजे के सामने आकर खड़े हो गए और जमुना को ट्रंक में रुपए बंद करते हुए देखते रहे। फिर बोले, ‘गलती किसी की नहीं। सारा दोष तो मेरा है। देखो न, मैं बाप होकर कहता हूँ कि लड़का नाकाबिल है! नहीं, नहीं, सारी खुराफात की जड़ मैं ही हूँ, और कोई नहीं।’ एक-दो क्षण वह खड़े रहे, लेकिन तब भी जमुना ने कोई उत्तर नहीं दिया तो कमरे में जाकर वह अपने कपड़े उतारने लगे। नारायण ने उसी दिन डिप्टी-कलक्टरी की फीस तथा फार्म भेज दिए। दूसरे दिन आदत के खिलाफ प्रातःकाल ही शकलदीप बाबू की नींद उचट गई। वह हड़बड़ाकर आँखें मलते हुए उठ खड़े हुए और बाहर ओसारे में आकर चारों ओर देखने लगे। घर के सभी लोग निद्रा में निमग्न थे। सोए हुए लोगों की साँसों की आवाज और मच्छरों की भनभन सुनाई दे रही थी। चारों ओर अँधेरा था। लेकिन बाहर के कमरे से धीमी रोशनी आ रही थी। शकलदीप बाबू चौंक पड़े और पैरों को दबाए कमरे की ओर बढ़े। उनकी उम्र पचास के ऊपर होगी। वह गोरे, नाटे और दुबले-पतले थे। उनके मुख पर अनगिनत रेखाओं का जाल बुना था और उनकी बाँहों तथा गर्दन पर चमड़े झूल रहे थे। दरवाजे के पास पहुँचकर, उन्होंने पंजे के बल खड़े हो, होंठ दबाकर कमरे के अंदर झाँका। उनका लड़का नारायण मेज पर रखी लालटेन के सामने सिर झुकाए ध्यानपूर्वक कुछ पढ़ रहा था। शकलदीप बाबू कुछ देर तक आँखों को साश्चर्य फैलाकर अपने लड़के को देखते रहे, जैसे किसी आनंददायी रहस्य का उन्होंने अचानक पता लगा लिया हो। फिर वह चुपचाप धीरे-से पीछे हट गए और वहीं खड़े होकर जरा मुस्कराए और फिर दबे पाँव धीरे-धीरे वापस लौटे और अपने कमरे के सामने ओसारे के किनारे खड़े होकर आसमान को उत्सुकतापूर्वक निहारने लगे। उनकी आदत छह, साढ़े छह बजे से पहले उठने की नहीं थी। लेकिन आज उठ गए थे, तो मन अप्रसन्न नहीं हुआ। आसमान में तारे अब भी चटक दिखाई दे रहे थे, और बाहर के पेड़ों को हिलाती हुई और खपड़े को स्पर्श करके आँगन में न मालूम किस दिशा से आती जाती हवा उनको आनंदित एवं उत्साहित कर रही थी। वह पुनः मुस्करा पड़े और उन्होंने धीरे-से फुसफुसाया, ‘चलो, अच्छा ही है।’ और अचानक उनमें न मालूम कहाँ का उत्साह आ गया। उन्होंने उसी समय ही दातौन करना शुरू कर दिया। इन कार्यों से निबटने के बाद भी अँधेरा ही रहा, तो बाल्टी में पानी भरा और उसे गुसलखाने में ले जाकर स्नान करने लगे। स्नान से निवृत्त होकर जब वह बाहर निकले, तो उनके शरीर में एक अपूर्व ताजगी तथा मन में एक अवर्णनीय उत्साह था। यद्यपि उन्होंने अपने सभी कार्य चुपचाप करने की कोशिश की थी, तो भी देह दुर्बल होने के कारण कुछ खटपट हो गई, जिसके परिणामस्वरूप उनकी पत्नी की नींद खुल गई। जमुना को तो पहले चोर-वोर का संदेह हुआ, लेकिन उसने झटपट आकर जब देखा, तो आश्चर्यचकित हो गई। शकलदीप बाबू आँगन में खड़े-खड़े आकाश को निहार रहे थे। जमुना ने चिंतातुर स्वर में कहा, ‘इतनी जल्दी स्नान की जरूरत क्या थी? इतना सबेरे तो कभी भी नहीं उठा जाया जाता था? कुछ हो-हवा गया, तो?’ शकलदीप बाबू झेंप गए। झूठी हँसी हँसते हुए बोले, ‘धीरे-धीरे बोलो, भाई, बबुआ पढ़ रहे हैं।’ जमुना बिगड़ गई, ‘धीरे-धीरे क्यों बोलूँ, इसी लच्छन से परसाल बीमार पड़ जाया गया था।’ शकलदीप बाबू को आशंका हुई कि इस तरह बातचीत करने से तकरार बढ़ जाएगा, शोर-शराबा होगा, इसलिए उन्होंने पत्नी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। वह पीछे घूम पड़े और अपने कमरे में आकर लालटेन जलाकर चुपचाप रामायण का पाठ करने लगे। पूजा समाप्त करके जब वह उठे, तो उजाला हो गया था। वह कमरे से बाहर निकल आए। घर के बड़े लोग तो जाग गए थे, पर बच्चे अभी तक सोए थे। जमुना भंडार-घर में कुछ खटर-पटर कर रही थी। शकलदीप बाबू ताड़ गए और वह भंडार-घर के दरवाजे के सामने खड़े हो गए और कमर पर दोनों हाथ रखकर कुतूहल के साथ अपनी पत्नी को कुंडे में से चावल निकालते हुए देखते रहे। कुछ देर बाद उन्होंने प्रश्न किया, ‘नारायण की अम्मा, आजकल तुम्हारा पूजा-पाठ नहीं होता क्या?’ और झेंपकर वह मुस्कराए। शकलदीप बाबू इसके पूर्व सदा राधास्वामियों पर बिगड़ते थे और मौका-बेमौका उनकी कड़ी आलोचना भी करते थे। इसको लेकर औरतों में कभी-कभी रोना-पीटना तक भी हो जाता था। इसलिए आज भी जब शकलदीप बाबू ने पूजा-पाठ की बात की, तो जमुना ने समझा कि वह व्यंग्य कर रहे हैं। उसने भी प्रत्युत्तर दिया, ‘हम लोगों को पूजा-पाठ से क्या मतलब? हमको तो नरक में ही जाना है। जिनको सरग जाना हो, वह करें!’ ‘लो बिगड़ गईं,’ शकलदीप बाबू मंद-मंद मुस्कराते हुए झट-से बोले, ‘अरे, मैं मजाक थोड़े कर रहा था! मैं बड़ी गलती पर था, राधास्वामी तो बड़े प्रभावशाली देवता हैं।’ जमुना को राधास्वामी को देवता कहना बहुत बुरा लगा और वह तिनककर बोली, ‘राधास्वामी को देवता कहते हैं? वह तो परमपिता परमेसर हैं, उनका लोक सबसे ऊपर है, उसके नीचे ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश के लोक आते हैं।’ ‘ठीक है, ठीक है, लेकिन कुछ पूजा-पाठ भी करोगी? सुनते हैं सच्चे मन से राधास्वामी की पूजा करने से सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं।’ शकलदीप बाबू उत्तर देकर काँपते होंठों में मुस्कराने लगे। जमुना ने पुनः भुल-सुधार किया, ‘इसमें दिखाना थोड़े होता है; मन में नाम ले लिया जाता है। सभी मनोरथ बन जाते हैं और मरने के बाद आत्मा परमपिता में मिल जाती है। फिर चौरासी नहीं भुगतना पड़ता।’ शकलदीप बाबू ने सोत्साह कहा, ‘ठीक है, बहुत अच्छी बात है। जरा और सबेरे उठकर नाम ले लिया करो। सुबह नहाने से तबीयत दिन-भर साफ रहती है। कल से तुम भी शुरू कर दो। मैं तो अभागा था कि मेरी आँखें आज तक बंद रही। खैर, कोई बात नहीं, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है, कल से तुम भी सवेरे चार बजे उठ जाना।’ उनको भय हुआ कि जमुना कहीं उनके प्रस्ताव का विरोध न करे, इसलिए इतना कहने के बाद वह पीछे घूमकर खिसक गए। लेकिन अचानक कुछ याद करके वह लौट पड़े। पास आकर उन्होंने पत्नी से मुस्कराते हुए पूछा, ‘बबुआ के लिए नाश्ते का इंतजाम क्या करोगी?’ ‘जो रोज होता है, वही होगा, और क्या होगा?’ उदासीनतापूर्वक जमुना ने उत्तर दिया। ‘ठीक है, लेकिन आज हलवा क्यों नहीं बना लेतीं? घर का बना सामान अच्छा होता है। और कुछ मेवे मँगा लो।’ ‘हलवे के लिए घी नहीं है। फिर इतने पैसे कहाँ हैं?’ जमुना ने मजबूरी जाहिर की। ‘पचास रुपए तो बचे हैं न, उसमें से खर्च करो। अन्न-जल का शरीर, लड़के को ठीक से खाने-पीने का न मिलेगा, तो वह इम्तहान क्या देगा? रुपए की चिंता मत करो, मैं अभी जिंदा हूँ!’ इतना कहकर शकलदीप बाबू ठहाका लगाकर हँस पड़े। वहाँ से हटने के पूर्व वह पत्नी को यह भी हिदायत देते गए, ‘एक बात और करो। तुम लड़के लोगों से डाँटकर कह देना कि वे बाहर के कमरे में जाकर बाजार न लगाएँ, नहीं तो मार पड़ेगी। हाँ, पढ़ने में बाधा पहुँचेगी। दूसरी बात यह कि बबुआ से कह देना, वह बाहर के कमरे में बैठकर इत्मीनान से पढ़ें, मैं बाहर सहन में बैठ लूँगा।’ शकलदीप बाबू सबेरे एक-डेढ़ घंटे बाहर के कमरे में बैठते थे। वहाँ वह मुवक्किलों के आने की प्रतीक्षा करते और उन्हें समझाते-बुझाते। और वह उस दिन सचमुच ही मकान के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे, जहाँ पर्याप्त छाया रहती थी, एक मेज और कुर्सियाँ लगाकर बैठ गए। जान-पहचान के लोग वहाँ से गुजरे, तो उन्हें वहाँ बैठे देखकर आश्चर्य हुआ। जब सड़क से गुजरते हुए बब्बनलाल पेशकार ने उनसे पूछा कि ‘भाई साहब, आज क्या बात है?’ तो उन्होंने जोर से चिल्लाकर कहा कि ‘भीतर बड़ी गर्मी है।’ और उन्होंने जोकर की तरह मुँह बना दिया और अंत में ठहाका मारकर हँस पड़े, जैसे कोई बहुत बड़ा मजाक कर दिया हो। शाम को जहाँ रोज वह पहले ही कचहरी से आ जाते थे, उस दिन देर से लौटे। उन्होंने पत्नी के हाथ में चार रुपए तो दिए ही, साथ ही दो सेब तथा कैंची सिगरेट के पाँच पैकेट भी बढ़ा दिए। ‘सिगरेट क्या होगी?’ जमुना ने साश्चर्य पूछा। ‘तुम्हारे लिए है,’ शकलदीप बाबू ने धीरे-से कहा और दूसरी ओर देखकर मुस्कराने लगे, लेकिन उनका चेहरा शर्म से कुछ तमतमा गया। जमुना ने माथे पर की साड़ी को नीचे खींचते हुए कहा, ‘कभी सिगरेट पी भी है कि आज ही पीऊँगी। इस उम्र में मजाक करते लाज नहीं आती?’ शकलदीप बाबू कुछ बोले नहीं और थोड़ा मुस्कराकर इधर-उधर देखने लगे। फिर गंभीर होकर उन्होंने दूसरी ओर देखते हुए धीरे-से कहा, ‘बबुआ को दे देना,’ और वह तुरंत वहाँ से चलते बने। जमुना भौंचक होकर कुछ देर उनको देखती रही, क्योंकि आज के पूर्व तो वह यही देखती आ रही थी कि नारायण के धूम्रपान के वह सख्त खिलाफ रहे हैं और इसको लेकर कई बार लड़के को डाँट-डपट चुके हैं। उसकी समझ में कुछ न आया, तो वह यह कहकर मुस्करा पड़ी कि बुद्धि सठिया गई है। नारायण दिन-भर पढ़ने-लिखने के बाद टहलने गया हुआ था। शकलदीप बाबू जल्दी से कपड़े बदलकर हाथ में झाड़ू ले बाहर के कमरे में जा पहुँचे। उन्होंने धीरे-धीरे कमरे को अच्छी तरह झाड़ा-बुहारा, इसके बाद नारायण की मेज को साफ किया तथा मेजपोश को जोर-जोर से कई बार झाड़-फटककर सफाई के साथ उस पर बिछा दिया। अंत में नारायण की चारपाई पर पड़े बिछौने को खोलकर उसमें की एक-एक चीज को झाड़-फटकारकर यत्नपूर्वक बिछाने लगे। इतने में जमुना ने आकर देखा, तो मृदु स्वर में कहा, ‘कचहरी से आने पर यही काम रह गया है क्या? बिछौना रोज बिछ ही जाता है और कमरे की महरिन सफाई कर ही देती है।’ ‘अच्छा, ठीक है। मैं अपनी तबीयत से कर रहा हूँ, कोई जबरदस्ती थोड़ी है।’ शकलदीप बाबू के मुख पर हल्के झेंप का भाव अंकित हो गया था और वह अपनी पत्नी की ओर न देखते हुए ऐसी आवाज में बोले, जैसे उन्होंने अचानक यह कार्य आरंभ कर दिया था – ‘और जब इतना कर ही लिया है, तो बीच में छोड़ने से क्या लाभ, पूरा ही कर लें।’ कचहरी से आने के बाद रोज का उनका नियम यह था कि वह कुछ नाश्ता-पानी करके चारपाई पर लेट जाते थे। उनको अक्सर नींद आ जाती थी और वह लगभग आठ बजे तक सोते रहते थे। यदि नींद न भी आती, तो भी वह इसी तरह चुपचाप पड़े रहते थे। ‘नाश्ता तैयार है,’ यह कहकर जमुना वहाँ से चली गई। शकलदीप बाबू कमरे को चमाचम करने, बिछौने लगाने तथा कुर्सियों को तरतीब से सजाने के पश्चात आँगन में आकर खड़े हो गए और बेमतलब ठनककर हँसते हुए बोले, ‘अपना काम सदा अपने हाथ से करना चाहिए, नौकरों का क्या ठिकाना?’ लेकिन उनकी बात पर संभवतः किसी ने ध्यान नहीं दिया और न उसका उत्तर ही। धीरे-धीरे दिन बीतते गए और नारायण कठिन परिश्रम करता रहा। कुछ दिनों से शकलदीप बाबू सायंकाल घर से लगभग एक मील की दूरी पर स्थित शिवजी के एक मंदिर में भी जाने लगे थे। वह बहुत चलता मंदिर था और उसमें भक्तजनों की बहुत भीड़ होती थी। कचहरी से आने के बाद वह नारायण के कमरे को झाड़ते-बुहारते, उसका बिछौना लगाते, मेज-कुर्सियाँ सजाते और अंत में नाश्ता करके मंदिर के लिए रवाना हो जाते। मंदिर में एक-डेढ़ घंटे तक रहते और लगभग दस बजे घर आते। एक दिन जब वह मंदिर से लौटे, तो साढ़े दस बज गए थे। उन्होंने दबे पाँव ओसारे में पाँव रखा और अपनी आदत के अनुसार कुछ देर तक मुस्कराते हुए झाँक-झाँककर कोठरी में नारायण को पढ़ते हुए देखते रहे। फिर भीतर जा अपने कमरे में छड़ी रखकर, नल पर हाथ-पैर धोकर, भोजन के लिए चौके में जाकर बैठ गए। पत्नी ने खाना परोस दिया। शकलदीप बाबू ने मुँह में कौर चुभलाते हुए पूछा, ‘बबुआ को मेवे दे दिए थे?’ वह आज सायंकाल जब कचहरी से लौटे थे, तो मेवे लेते आए थे। उन्होंने मेवे को पत्नी के हवाले करते हुए कहा था कि इसे सिर्फ नारायण को ही देना, और किसी को नहीं। जमुना को झपकी आ रही थी, लेकिन उसने पति की बात सुन ली, चौंककर बोली, ‘कहाँ? मेवा ट्रंक में रख दिया था, सोचा था, बबुआ घूमकर आएँगे तो चुपके से दे दूँगी। पर लड़के तो दानव-दूत बने हुए हैं, ओना-कोना, अँतरा-सँतरा, सभी जगह पहुँच जाते हैं। टुनटुन ने कहीं से देख लिया और उसने सारा-का सारा खा डाला।’ टुनटुन शकलदीप बाबू का सबसे छोटा बारह वर्ष का अत्यंत ही नटखट लड़का था। ‘क्यों?’ शकलदीप बाबू चिल्ला पड़े। उनका मुँह खुल गया था और उनकी जीभ पर रोटी का एक छोटा टुकड़ा दृष्टिगोचर हो रहा था। जमुना कुछ न बोली। अब शकलदीप बाबू ने गुस्से में पत्नी को मुँह चिढ़ाते हुए कहा, ‘खा गया, खा गया! तुम क्यों न खा गई! तुम लोगों के खाने के लिए ही लाता हूँ न? हूँ! खा गया!’ जमुना भी तिनक उठी, ‘तो क्या हो गया? कभी मेवा-मिश्री, फल-मूल तो उनको मिलता नहीं, बेचारे खुद्दी-चुन्नी जो कुछ मिलता है, उसी पर सब्र बाँधे रहते हैं। अपने हाथ से खरीदकर कभी कुछ दिया भी तो नहीं गया। लड़का ही तो है, मन चल गया, खा लिया। फिर मैंने उसे बहुत मारा भी, अब उसकी जान तो नहीं ले लूँगी।’ ‘अच्छा तो खाओ तुम और तुम्हारे लड़के! खूब मजे में खाओ! ऐसे खाने पर लानत है!’ वह गुस्से से थर-थर काँपते हुए चिल्ला पड़े और फिर चौके से उठकर कमरे में चले गए। जमुना भय, अपमान और गुस्से से रोने लगी। उसने भी भोजन नहीं किया और वहाँ से उठकर चारपाई पर मुँह ढँककर पड़ रही। लेकिन दूसरे दिन प्रातःकाल भी शकलदीप बाबू का गुस्सा ठंडा न हुआ और उन्होंने नहाने-धोने तथा पूजा-पाठ करने के बाद सबसे पहला काम यह किया कि जब टुनटुन जागा, तो उन्होंने उसको अपने पास बुलाया और उससे पूछा कि उसने मेवा क्यों खाया? जब उसको कोई उत्तर न सूझा और वह भक्कू बनकर अपने पिता की ओर देखने लगा, तो शकलदीप बाबू ने उसे कई तमाचे जड़ दिए। डिप्टी-कलक्टरी की परीक्षा इलाहाबाद में होनेवाली थी और वहाँ रवाना होने के दिन आ गए। इस बीच नारायण ने इतना अधिक परिश्रम किया कि सभी आश्चर्यचकित थे। वह अट्ठारह-उन्नीस घंटे तक पढ़ता। उसकी पढ़ाई में कोई बाधा उपस्थित नहीं होने पाती, बस उसे पढ़ना था। उसका कमरा साफ मिलता, उसका बिछौना बिछा मिलता, दोनों जून गाँव के शुद्ध घी के साथ दाल-भात,रोटी, तरकारी मिलती। शरीर की शक्ति तथा दिमाग की ताजगी को बनाए रखने के लिए नाश्ते में सबेरे हलवा-दूध तथा शाम को मेवे या फल। और तो और, लड़के की तबीयत न उचटे, इसलिए सिगरेट की भी समुचित व्यवस्था थी। जब सिगरेट के पैकेट खत्म होते, तो जमुना उसके पास चार-पाँच पैकेट और रख आती। जिस दिन नारायण को इलाहाबाद जाना था, शकलदीप बाबू की छुट्टी थी और वे सबेरे ही घूमने निकल गए। वह कुछ देर तक कंपनी गार्डन में घूमते रहे, फिर वहाँ तबीयत न लगी, तो नदी के किनारे पहुँच गए। वहाँ भी मन न लगा, तो अपने परम मित्र कैलाश बिहारी मुख्तार के यहाँ चले गए। वहाँ बहुत देर तक गप-सड़ाका करते रहे, और जब गाड़ी का समय निकट आया, तो जल्दी-जल्दी घर आए। गाड़ी नौ बजे खुलती थी। जमुना तथा नारायण की पत्नी निर्मला ने सबेरे ही उठकर जल्दी-जल्दी खाना बना लिया था। नारायण ने खाना खाया और सबको प्रणाम कर स्टेशन को चल पड़ा। शकलदीप बाबू भी स्टेशन गए। नारायण को विदा करने के लिए उसके चार-पाँच मित्र भी स्टेशन पर पहुँचे थे। जब तक गाड़ी नहीं आई थी, नारायण प्लेटफार्म पर उन मित्रों से बातें करता रहा। शकलदीप बाबू अलग खड़े इधर-उधर इस तरह देखते रहे, जैसे नारायण से उनका कोई परिचय न हो। और जब गाड़ी आई और नारायण अपने पिता तथा मित्रों के सहयोग से गाड़ी में पूरे सामान के साथ चढ़ गया, तो शकलदीप बाबू वहाँ से धीरे-से खिसक गए और व्हीलर के बुकस्टाल पर जा खड़े हुए। बुकस्टाल का आदमी जान-पहचान का था, उसने नमस्कार करके पूछा, ‘कहिए, मुख्तार साहब, आज कैसे आना हुआ?’ शकलदीप बाबू ने संतोषपूर्वक मुस्कराते हुए उत्तर दिया, ‘लड़का इलाहाबाद जा रहा है, डिप्टी-कलक्टरी का इम्तहान देने। शाम तक पहुँच जाएगा। ड्योढ़े दर्जे के पास जो डिब्बा है न, उसी में है। नीचे जो चार-पाँच लड़के खड़े हैं, वे उसके मित्र है। सोचा, भाई हम लोग बूढ़े ठहरे, लड़के इम्तहान-विम्तहान की बात कर रहे होंगे, क्या समझेंगे, इसलिए इधर चला आया।’ उनकी आँखे हास्य से संकुचित हो गईं। वहाँ वह थोड़ी देर तक रहे। इसके बाद जाकर घड़ी में समय देखा, कुछ देर तक तारघर के बाहर तार बाबू को खटर-पटर करते हुए निहारा और फिर वहाँ से हटकर रेलगाड़ियों के आने-जाने का टाइम-टेबुल पढ़ने लगे। लेकिन उनका ध्यान संभवतः गाड़ी की ओर ही था, क्योंकि जब ट्रेन खुलने की घंटी बजी, तो वहाँ से भागकर नारायण के मित्रों के पीछे आ खड़े हुए। नारायण ने जब उनको देखा, तो उसने झटपट नीचे उतरकर पैर छुए। ‘खुश रहो, बेटा, भगवान तुम्हारी मनोकामना पूरी करे!’ उन्होंने लड़के से बुदबुदाकर कहा और दूसरी ओर देखने लगे। नारायण बैठ गया और अब गाड़ी खुलने ही वाली थी। अचानक शकलदीप बाबू का दाहिना हाथ अपने कोट की जेब में गया। उन्होंने जेब से कोई चीज लगभग बाहर निकाल ली, और वह कुछ आगे भी बढ़े, लेकिन फिर न मालूम क्या सोचकर रुक गए। उनका चेहरा तमतमा-सा गया और जल्दीबाजी में वह इधर-उधर देखने लगे। गाड़ी सीटी देकर खुल गई तो शकलदीप बाबू चौंक उठे। उन्होंने जेब से वह चीज निकालकर मुट्ठी में बाँध ली और उसे नारायण को देने के लिए दौड़ पड़े। वह दुर्बल तथा बूढ़े आदमी थे, इसलिए उनसे तेज क्या दौड़ा जाता, वह पैरों में फुर्ती लाने के लिए अपने हाथों को इस तरह भाँज रहे थे, जैसे कोई रोगी, मरियल लड़का अपने साथियों के बीच खेल-कूद के दौरान कोई हल्की-फुल्की शरारत करने के बाद तेजी से दौड़ने के लिए गर्दन को झुकाकर हाथों को चक्र की भाँति घुमाता है। उनके पैर थप-थप की आवाज के साथ प्लेटफार्म पर गिर रहे थे, और उनकी हरकतों का उनके मुख पर कोई विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था, बस यही मालूम होता कि वह कुछ परेशान हैं। प्लेटफार्म पर एकत्रित लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो गया। कुछ लोगों ने मौज में आकर जोर से ललकारा, कुछ ने किलकारियाँ मारीं और कुछ लोगों ने दौड़ के प्रति उनकी तटस्थ मुद्रा को देखकर बेतहाशा हँसना आरंभ किया। लेकिन यह उनका सौभाग्य ही था कि गाड़ी अभी खुली ही थी और स्पीड में नहीं आई थी। परिणामस्वरूप उनका हास्यजनक प्रयास सफल हुआ और उन्होंने डिब्बे के सामने पहुँचकर उत्सुक तथा चिंतित मुद्रा में डिब्बे से सिर निकालकर झाँकते हुए नारायण के हाथ में एक पुड़िया देते हुए कहा, ‘बेटा, इसे श्रद्धा के साथ खा लेना, भगवान शंकर का प्रसाद है।’ पुड़िया में कुछ बताशे थे, जो उन्होंने कल शाम को शिवजी को चढ़ाए थे और जिसे पता नहीं क्यों, नारायण को देना भूल गए थे। नारायण के मित्र कुतूहल से मुस्कराते हुए उनकी ओर देख रहे थे, और जब वह पास आ गए, तो एक ने पूछा, ‘बाबू जी, क्या बात थी, हमसे कह देते।’ शकलदीप बाबू यह कहकर कि, ‘कोई बात नहीं, कुछ रुपए थे, सोचा, मैं ही दे दूँ, तेजी से आगे बढ़ गए।’ परीक्षा समाप्त होने के बाद नारायण घर वापस आ गया। उसने सचमुच पर्चे बहुत अच्छे किए थे और उसने घरवालों से साफ-साफ कह दिया कि यदि कोई बेईमानी न हुई, तो वह इंटरव्यू में अवश्य बुलाया जाएगा। घरवालों की बात तो दूसरी थी, लेकिन जब मुहल्ले और शहर के लोगों ने यह बात सुनी, तो उन्होंने विश्वास नहीं किया। लोग व्यंग्य में कहने लगे, हर साल तो यही कहते हैं बच्चू! वह कोई दूसरे होते हैं, जो इंटरव्यू में बुलाए जाते हैं! लेकिन बात नारायण ने झूठ नहीं कही थी, क्योंकि एक दिन उसके पास सूचना आई कि उसको इलाहाबाद में प्रादेशिक लोक सेवा आयोग के समक्ष इंटरव्यू के लिए उपस्थित होना है। यह समाचार बिजली की तरह सारे शहर में फैल गया। बहुत साल बाद इस शहर से कोई लड़का डिप्टी-कलक्टरी के इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। लोगों में आश्चर्य का ठिकाना न रहा। सायंकाल कचहरी से आने पर शकलदीप बाबू सीधे आँगन में जा खड़े हो गए और जोर से ठठाकर हँस पड़े। फिर कमरे में जाकर कपड़े उतारने लगे। शकलदीप बाबू ने कोट को खूँटी पर टाँगते हुए लपककर आती हुई जमुना से कहा, ‘अब करो न राज! हमेशा शोर मचाए रहती थी कि यह नहीं है, वह नहीं है! यह मामूली बात नहीं है कि बबुआ इंटरव्यू में बुलाए गए हैं, आया ही समझो!’ ‘जब आ जाएँ, तभी न,’ जमुना ने कंजूसी से मुस्कराते हुए कहा। शकलदीप बाबू थोड़ा हँसते हुए बोल, ‘तुमको अब भी संदेह है? लो, मैं कहता हूँ कि बबुआ जरूर आएँगे, जरूर आएँगे! नहीं आए, तो मैं अपनी मूँछ मुड़वा दूँगा। और कोई कहे या न कहे, मैं तो इस बात को पहले से ही जानता हूँ। अरे, मैं ही क्यों, सारा शहर यही कहता है। अंबिका बाबू वकील मुझे बधाई देते हुए बोले, ‘इंटरव्यू में बुलाए जाने का मतलब यह है कि अगर इंटरव्यू थोड़ा भी अच्छा हो गया, तो चुनाव निश्चित है।’ मेरी नाक में दम था, जो भी सुनता, बधाई देने चला आता।’ ‘मुहल्ले के लड़के मुझे भी आकर बधाई दे गए हैं। जानकी, कमल और गौरी तो अभी-अभी गए हैं। जमुना ने स्वप्निल आँखों से अपने पति को देखते हुए सूचना दी।’ ‘तो तुम्हारी कोई मामूली हस्ती है! अरे, तुम डिप्टी-कलक्टर की माँ हो न, जी!’ इतना कहकर शकलदीप बाबू ठहाका मारकर हँस पड़े। जमुना कुछ नहीं बोली, बल्कि उसने मुस्की काटकर साड़ी का पल्ला सिर के आगे थोड़ा और खींचकर मुँह टेढ़ा कर लिया। शकलदीप बाबू ने जूते निकालकर चारपाई पर बैठते हुए धीरे-से कहा, ‘अरे भाई, हमको-तुमको क्या लेना है, एक कोने में पड़कर रामनाम जपा करेंगे। लेकिन मैं तो अभी यह सोच रहा हूँ कि कुछ साल तक और मुख्तारी करूँगा। नहीं, यही ठीक रहेगा।’ उन्होंने गाल फुलाकर एक-दो बार मूँछ पर ताव दिए। जमुना ने इसका प्रतिवाद किया, ‘लड़का मानेगा थोड़े, खींच ले जाएगा। हमेशा यह देखकर उसकी छाती फटती रहती है कि बाबू जी इतनी मेहनत करते हैं और वह कुछ भी मदद नहीं करता।’ ‘कुछ कह रहा था क्या?’ शकलदीप बाबू ने धीरे-से पूछा और पत्नी की ओर न देखकर दरवाजे के बाहर मुँह बनाकर देखने लगे। जमुना ने आश्वासन दिया, ‘मैं जानती नहीं क्या? उसका चेहरा बताता है। बाप को इतना काम करते देखकर उसको कुछ अच्छा थोड़े लगता है!’ अंत में उसने नाक सुड़क लिए। नारायण पंद्रह दिन बाद इंटरव्यू देने गया। और उसने इंटरव्यू भी काफी अच्छा किया। वह घर वापस आया, तो उसके हृदय में अत्यधिक उत्साह था, और जब उसने यह बताया कि जहाँ और लड़कों का पंद्रह-बीस मिनट तक ही इंटरव्यू हुआ, उसका पूरे पचास मिनट तक इंटरव्यू होता रहा और उसने सभी प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर दिए, तो अब यह सभी ने मान लिया कि नारायण का लिया जाना निश्चित है। दूसरे दिन कचहरी में फिर वकीलों और मुख्तारों ने शकलदीप बाबू को बधाइयाँ दीं और विश्वास प्रकट किया कि नारायण अवश्य चुन लिया जाएगा। शकलदीप बाबू मुस्कराकर धन्यवाद देते और लगे हाथों नारायण के व्यक्तिगत जीवन की एक-दो बातें भी सुना देते और अंत में सिर को आगे बढ़ाकर फुसफुसाहट में दिल का राज प्रकट करते, ‘आपसे कहता हूँ, पहले मेरे मन में शंका थी, शंका क्या सोलहों आने शंका थी, लेकिन आप लोगों की दुआ से अब वह दूर हो गई है।’ जब वह घर लौटे, तो नारायण, गौरी और कमल दरवाजे के सामने खड़े बातें कर रहे थे। नारायण इंटरव्यू के संबंध में ही कुछ बता रहा था। वह अपने पिता जी को आता देखकर धीरे-धीरे बोलने लगा। शकलदीप बाबू चुपचाप वहाँ से गुजर गए, लेकिन दो-तीन गज ही आगे गए होंगे कि गौरी कि आवाज उनको सुनाई पड़ी, ‘अरे तुम्हारा हो गया, अब तुम मौज करो!’ इतना सुनते की शकलदीप बाबू घूम पड़े और लड़कों के पास आकर उन्होंने पूछा, ‘क्या?’ उनकी आँखें संकुचित हो गई थीं और उनकी मुद्रा ऐसी हो गई थी, जैसे किसी महफिल में जबरदस्ती घुस आए हों। लड़के एक-दूसरे को देखकर शिष्टतापूर्वक होंठों में मुस्कराए। फिर गौरी ने अपने कथन को स्पष्ट किया, ‘मैं कह रहा था नारायण से, बाबू जी, कि उनका चुना जाना निश्चित है।’ शकलदीप बाबू ने सड़क से गुजरती हुई एक मोटर को गौर से देखने के बाद धीरे-धीरे कहा, ‘हाँ, देखिए न, जहाँ एक-से-एक धुरंधर लड़के पहुँचते हैं, सबसे तो बीस मिनट ही इंटरव्यू होता है, पर इनसे पूरे पचास मिनट! अगर नहीं लेना होता, तो पचास मिनट तक तंग करने की क्या जरूरत थी, पाँच-दस मिनट पूछताछ करके…’ गौरी ने सिर हिलाकर उनके कथन का समर्थन किया और कमल ने कहा, ‘पहले का जमाना होता, तो कहा भी नहीं जा सकता, लेकिन अब तो बेईमानी-बेईमानी उतनी नहीं होती होगी।’ शकलदीप बाबू ने आँखें संकुचित करके हल्की-फुल्की आवाज में पूछा, ‘बेईमानी नहीं होती न?’ ‘हाँ, अब उतनी नहीं होती। पहले बात दूसरी थी। वह जमाना अब लद गया।’ गौरी ने उत्तर दिया। शकलदीप बाबू अचानक अपनी आवाज पर जोर देते हुए बोले, ‘अरे, अब कैसी बेईमानी साहब, गोली मारिए, अगर बेईमानी ही करनी होती, तो इतनी देर तक इनका इंटरव्यू होता? इंटरव्यू में बुलाया ही न होता और बुलाते भी तो चार-पाँच मिनट पूछताछ करके विदा कर देते।’ इसका किसी ने उत्तर नहीं दिया, तो वह मुस्कराते हुए घूमकर घर में चले गए। घर में पहुँचने पर जमुना से बोले, ‘बबुआ अभी से ही किसी अफसर की तरह लगते हैं। दरवाजे पर बबुआ, गौरी और कमल बातें कर रहे हैं। मैंने दूर ही से गौर किया, जब नारायण बाबू बोलते हैं, तो उनके बोलने और हाथ हिलाने से एक अजीब ही शान टपकती है। उनके दोस्तों में ऐसी बात कहाँ?’ ‘आज दोपहर में मुझे कह रहे थे कि तुझे मोटर में घुमाऊँगा।’ जमुना ने खुशखबरी सुनाई। शकलदीप बाबू खुश होकर नाक सुड़कते हुए बोले, ‘अरे, तो उसको मोटर की कमी होगी, घूमना न जितना चाहना।’ वह सहसा चुप हो गए और खोए-खोए इस तरह मुस्कराने लगे, जैसे कोई स्वादिष्ट चीज खाने के बाद मन-ही-मन उसका मजा ले रहे हों। कुछ देर बाद उन्होंने पत्नी से प्रश्न किया, ‘क्या कह रहा था, मोटर में घुमाऊँगा?’ जमुना ने फिर वही बात दोहरा दी। शकलदीप बाबू ने धीरे-से दोनों हाथों से ताली बजाते हुए मुस्कराकर कहा, ‘चलो, अच्छा है।’ उनके मुख पर अपूर्व स्वप्निल संतोष का भाव अंकित था। सात-आठ दिनों में नतीजा निकलने का अनुमान था। सभी को विश्वास हो गया था कि नारायण ले लिया जाएगा और सभी नतीजे की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे थे। अब शकलदीप बाबू और भी व्यस्त रहने लगे। पूजा-पाठ का उनका कार्यक्रम पूर्ववत जारी था। लोगों से बातचीत करने में उनको काफी मजा आने लगा और वह बातचीत के दौरान ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देते कि लोगों को कहना पड़ता कि नारायण अवश्य ही ले लिया जाएगा। वह अपने घर पर एकत्रित नारायण तथा उसके मित्रों की बातें छिपकर सुनते और कभी-कभी अचानक उनके दल में घुस जाते तथा जबरदस्ती बात करने लगते। कभी-कभी नारायण को अपने पिता की यह हरकत बहुत बुरी लगती और वह क्रोध में दूसरी ओर देखने लगता। रात में शकलदीप बाबू चौंककर उठ बैठते और बाहर आकर कमरे में लड़के को सोते हुए देखने लगते या आँगन में खड़े होकर आकाश को निहारने लगते। एक दिन उन्होंने सबेरे ही सबको सुनाकर जोर से कहा, ‘नारायण की माँ, मैंने आज सपना देखा है कि नारायण बाबू डिप्टी-कलक्टर हो गए।’ जमुना रसोई के बरामदे में बैठी चावल फटक रही थी और उसी के पास नारायण की पत्नी, निर्मला, घूँघट काढ़े दाल बीन रही थी। जमुना ने सिर उठाकर अपने पति की ओर देखते हुए प्रश्न किया, ‘सपना सबेरे दिखाई पड़ा था क्या?’ ‘सबेरे के नहीं तो शाम के सपने के बारे में तुमसे कहने आऊँगा? अरे, एकदम ब्रह्ममुहूर्त में देखा था! देखता हूँ कि अखबार में नतीजा निकल गया है और उसमें नारायण बाबू का भी नाम हैं अब यह याद नहीं कि कौन नंबर था, पर इतना कह सकता हूँ कि नाम काफी ऊपर था।’ ‘अम्मा जी, सबेरे का सपना तो एकदम सच्चा होता है न!’ निर्मला ने धीरे-से जमुना से कहा। मालूम पड़ता है कि निर्मला की आवाज शकलदीप बाबू ने सुन ली, क्योंकि उन्होंने विहँसकर प्रश्न किया, ‘कौन बोल रहा है, डिप्टाइन हैं क्या?’ अंत में वह ठहाका मारकर हँस पड़े। ‘हाँ, कह रही हैं कि सवेरे का सपना सच्चा होता है। सच्चा होता ही है।’ जमुना ने मुस्कराकर बताया। निर्मला शर्म से संकुचित हो गई। उसने अपने बदन को सिकोड़ तथा पीठ को नीचे झुकाकर अपने मुँह को अपने दोनों घुटनों के बीच छिपा लिया। अगले दिन भी सबेरे शकलदीप बाबू ने घरवालों को सूचना दी कि उन्होंने आज भी हू-ब-हू वैसा ही सपना देखा है। जमुना ने अपनी नाक की ओर देखते हुए कहा, ‘सबेरे का सपना तो हमेशा ही सच्चा होता है। जब बहू को लड़का होनेवाला था, मैंने सबेरे-सबेरे सपना देखा कि कोई सरग की देवी हाथ में बालक लिए आसमान से आँगन में उतर रही है। बस, मैंने समझ लिया कि लड़का ही है। लड़का ही निकला।’ शकलदीप बाबू ने जोश में आकर कहा, ‘और मान लो कि झूठ है, तो यह सपना एक दिन दिखाई पड़ता, दूसरे दिन भी हू-ब-हू वहीं सपना क्यों दिखाई देता, फिर वह भी ब्रह्ममुहूर्त में ही!’ ‘बहू ने भी ऐसा ही सपना आज सबेरे देखा है!’ ‘डिप्टाइन ने भी?’ शकलदीप बाबू ने मुस्की काटते हुए कहा। ‘हाँ, डिप्टाइन ने ही। ठीक सबेरे उन्होंने देखा कि एक बँगले में हम लोग रह रहे हैं और हमारे दरवाजे पर मोटर खड़ी है।’ जमुना ने उत्तर दिया। शकलदीप बाबू खोए-खोए मुस्कराते रहे। फिर बोले, ‘अच्छी बात है, अच्छी बात है।’ एक दिन रात को लगभग एक बजे शकलदीप बाबू ने उठकर पत्नी को जगाया और उसको अलग ले जाते हुए बेशर्म महाब्राह्मण की भाँति हँसते हुए प्रश्न किया, ‘कहो भाई, कुछ खाने को होगा? बहुत देर से नींद ही नहीं लग रही है, पेट कुछ माँग रहा है। पहले मैंने सोचा, जाने भी दो, यह कोई खाने का समय है, पर इससे काम बनते न दिखा, तो तुमको जगाया। शाम को खाया था, सब पच गया।’ जमुना अचंभे के साथ आँखें फाड़-फाड़कर अपने पति को देख रही थी। दांपत्य-जीवन के इतने दीर्घकाल में कभी भी, यहाँ तक कि शादी के प्रारंभिक दिनों में भी, शकलदीप बाबू ने रात में उसको जगाकर कुछ खाने को नहीं माँगा था। वह झुँझला पड़ी और उसने असंतोष व्यक्त किया, ‘ऐसा पेट तो कभी भी नहीं था। मालूम नहीं, इस समय रसोई में कुछ है या नहीं।’ शकलदीप बाबू झेंपकर मुस्कराने लगे। एक-दो क्षण बाद जमुना ने आँखे मलकर पूछा, ‘बबुआ के मेवे में से थोड़ा दूँ क्या?’ शकलदीप बाबू झट-से बोले, ‘अरे, राम-राम! मेवा तो, तुम जानती हो, मुझे बिलकुल पसंद नहीं। जाओ, तुम सोओ, भूख-वूख थोड़े है, मजाक किया था।’ यह कहकर वह धीरे-से अपने कमरे में चले गए। लेकिन वह लेटे ही थे कि जमुना कमरे में एक छिपुली में एक रोटी और गुड़ लेकर आई। शकलदीप बाबू हँसते हुए उठ बैठे। शकलदीप बाबू पूजा-पाठ करते, कचहरी जाते, दुनिया-भर के लोगों से दुनिया-भर की बातचीत करते, इधर-उधर मटरगश्ती करते और जब खाली रहते, तो कुछ-न-कुछ खाने को माँग बैठते। वह चटोर हो गए और उनके जब देखो, भूख लग जाती। इस तरह कभी रोटी-गुड़ खा लेते, कभी आलू भुनवाकर चख लेते और कभी हाथ पर चीनी लेकर फाँक जाते। भोजन में भी वह परिवर्तन चाहने लगे। कभी खिचड़ी की फरमाइश कर देते, कभी सत्तू-प्याज की, कभी सिर्फ रोटी-दाल की, कभी मकुनी की और कभी सिर्फ दाल-भात की ही। उसका समय कटता ही न था और वह समय काटना चाहते थे। इस बदपरहेजी तथा मानसिक तनाव का नतीजा यह निकला कि वह बीमार पड़ गए। उनको बुखार तथा दस्त आने लगे। उनकी बीमारी से घर के लोगों को बड़ी चिंता हुई। जमुना ने रुआँसी आवाज में कहा, ‘बार-बार कहती थी कि इतनी मेहनत न कीजिए, पर सुनता ही कौन है? अब भोगना पड़ा न!’ पर शकलदीप बाबू पर इसका कोई असर न हुआ। उन्होंने बात उड़ा दी – ‘अरे, मैं तो कचहरी जानेवाला था, पर यह सोचकर रुक गया कि अब मुख्तारी तो छोड़नी ही है, थोड़ा आराम कर लें।’ ‘मुख्तारी जब छोड़नी होगी, होगी, इस समय तो दोनों जून की रोटी-दाल का इंतजाम करना है।’ जमुना ने चिंता प्रकट की। ‘अरे, तुम कैसी बात करती हो? बीमारी-हैरानी तो सबको होती है, मैं मिट्टी का ढेला तो हूँ नहीं कि गल जाऊँगा। बस, एक-आध दिन की बात हैं अगर बीमारी सख्त होती, तो मैं इस तरह टनक-टनककर बोलता?’ शकलदीप बाबू ने समझाया और अंत में उनके होंठों पर एक क्षीण मुस्कराहट खेल गई। वह दिन-भर बेचैन रहे। कभी लेटते, कभी उठ बैठते और कभी बाहर निकलकर टहलने लगते। लेकिन दुर्बल इतने हो गए थे कि पाँच-दस कदम चलते ही थक जाते और फिर कमरे में आकर लेटे रहते। करते-करते शाम हुई और जब शकलदीप बाबू को यह बताया गया कि कैलाशबिहारी मुख्तार उनका समाचार लेने आए हैं, तो वह उठ बैठे और झटपट चादर ओढ़, हाथ में छड़ी ले पत्नी के लाख मना करने पर भी बाहर निकल आए। दस्त तो बंद हो गया था, पर बुखार अभी था और इतने ही समय में वह चिड़चिड़े हो गए थे। कैलाशबिहारी ने उनको देखते ही चिंतातुर स्वर में कहा, ‘अरे, तुम कहाँ बाहर आ गए, मुझे ही भीतर बुला लेते।’ शकलदीप बाबू चारपाई पर बैठ गए और क्षीण हँसी हँसते हुए बोले, ‘अरे, मुझे कुछ हुआ थोड़े हैं सोचा, आराम करने की ही आदत डालूँ।’ यह कहकर वह अर्थपूर्ण दृष्टि से अपने मित्र को देखकर मुस्कराने लगे। सब हाल-चाल पूछने के बाद कैलाशबिहारी ने प्रश्न किया, ‘नारायण बाबू कहीं दिखाई नहीं दे रहे, कहीं घूमने गए हैं क्या?’ शकलदीप बाबू ने बनावटी उदासीनता प्रकट करते हुए कहा, ‘हाँ, गए होंगे कहीं, लड़के उनको छोड़ते भी तो नहीं, कोई-न-कोई आकर लिवा जाता है।’ कैलाशबिहारी ने सराहना की, ‘खूब हुआ, साहब! मैं भी जब इस लड़के को देखता था, दिल में सोचता था कि यह आगे चलकर कुछ-न-कुछ जरूर होगा। वह तो, साहब, देखने से ही पता लग जाता है। चाल में और बोलने-चालने के तरीके में कुछ ऐसा है कि… चलिए, हम सब इस माने में बहुत भाग्यशाली हैं।’ शकलदीप बाबू इधर-उधर देखने के बाद सिर को आगे बढ़ाकर सलाह-मशविरे की आवाज में बोले, ‘अरे भाई साहब, कहाँ तक बताऊँ अपने मुँह से क्या कहना, पर ऐसा सीधा-सादा लड़का तो मैंने देखा नहीं, पढ़ने-लिखने का तो इतना शौक कि चौबीसों घंटे पढ़ता रहे। मुँह खोलकर किसी से कोई भी चीज माँगता नहीं।’ कैलाशबिहारी ने भी अपने लड़के की तारीफ में कुछ बातें पेश कर दीं, ‘लड़के तो मेरे भी सीधे हैं, पर मँझला लड़का शिवनाथ जितना गऊ है, उतना कोई नहीं। ठीक नारायण बाबू ही की तरह है!’ ‘नारायण तो उस जमाने का कोई ऋषि-मुनि मालूम पड़ता है,’ शकलदीप बाबू ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘बस, उसकी एक ही आदत है। मैं उसकी माँ को मेवा दे देता हूँ और नारायण रात में अपनी माँ को जगाकर खाता है। भली-बुरी उसकी बस एक यही आदत है। अरे भैया, तुमसे बताता हूँ, लड़कपन में हमने इसका नाम पन्नालाल रखा था, पर एक दिन एक महात्मा घूमते हुए हमारे घर आए। उन्होंने नारायण का हाथ देखा और बोले, इसका नाम पन्नालाल-सन्नालाल रखने की जरूरत नहीं, बस आज से इसे नारायण कहा करो, इसके कर्म में राजा होना लिखा है। पहले जमाने की बात दूसरी थी, लेकिन आजकल राजा का अर्थ क्या है? डिप्टी-कलक्टर तो एक अर्थ में राजा ही हुआ!’ अंत में आँखें मटकाकर उन्होंने मुस्कराने की कोशिश की, पर हाँफने लगे। दोनों मित्र बहुत देर तक बातचीत करते रहे, और अधिकांश समय वे अपने-अपने लड़कों का गुणगान करते रहे। घर के लोगों को शकलदीप बाबू की बीमारी की चिंता थी। बुखार के साथ दस्त भी था, इसलिए वह बहुत कमजोर हो गए थे, लेकिन वह बात को यह कहकर उड़ा देते, ‘अरे, कुछ नहीं, एक-दो दिन में मैं अच्छा हो जाऊँगा।’ और एक वैद्य की कोई मामूली, सस्ती दवा खाकर दो दिन बाद वह अच्छे भी हो गए, लेकिन उनकी दुर्बलता पूर्ववत थी। जिस दिन डिप्टी-कलक्टरी का नतीजा निकला, रविवार का दिन था। शकलदीप बाबू सबेरे रामायण का पाठ तथा नाश्ता करने के बाद मंदिर चले गए। छुट्टी के दिनों में वह मंदिर पहले ही चले जाते और वहाँ दो-तीन घंटे, और कभी-कभी तो चार-चार घंटे रह जाते। वह आठ बजे मंदिर पहुँच गए। जिस गाड़ी से नतीजा आनेवाला था, वह दस बजे आती थी। शकलदीप बाबू पहले तो बहुत देर तक मंदिर की सीढ़ी पर बैठकर सुस्ताते रहे, वहाँ से उठकर ऊपर आए, तो नंदलाल पांडे ने, जो चंदन रगड़ रहा था, नारायण के परीक्षाफल के संबंध में पूछताछ की। शकलदीप वहाँ पर खड़े होकर असाधारण विस्तार के साथ सब कुछ बताने लगे। वहाँ से जब उनको छुट्टी मिली, तो धूप काफी चढ़ गई थी। उन्होंने भीतर जाकर भगवान शिव के पिंड के समक्ष अपना माथा टेक दिया। काफी देर तक वह उसी तरह पड़े रहे। फिर उठकर उन्होंने चारों ओर घूम-घूमकर मंदिर के घंटे बजाकर मंत्रोच्चारण किए और गाल बजाए। अंत में भगवान के समक्ष पुनः दंडवत कर बाहर निकले ही थे कि जंगबहादुर सिंह मास्टर ने शिवदर्शनार्थ मंदिर में प्रवेश किया और उन्होंने शकलदीप बाबू को देखकर आश्चर्य प्रकट किया, ‘अरे, मुख्तार साहब! घर नहीं गए? डिप्टी-कलक्टरी का नतीजा तो निकल आया।’ शकलदीप बाबू का हृदय धक-से कर गया। उनके होंठ काँपने लगे और उन्होंने कठिनता से मुस्कराकर पूछा, ‘अच्छा, कब आया?’ जंगबहादुर सिंह ने बताया, ‘अरे, दस बजे की गाड़ी से आया। नारायण बाबू का नाम तो अवश्य है, लेकिन….’ वह कुछ आगे न बोल सके। शकलदीप बाबू का हृदय जोरों से धक-धक कर रहा था। उन्होंने अपने सूखे होंठों को जीभ से तर करते हुए अत्यंत ही धीमी आवाज में पूछा, ‘क्या कोई खास बात है?’ ‘कोई खास बात नहीं है। अरे, उनका नाम तो है ही, यह है कि जरा नीचे है। दस लड़के लिए जाएँगे, लेकिन मेरा ख्याल है कि उनका नाम सोलहवाँ-सत्रहवाँ पड़ेगा। लेकिन कोई चिंता की बात नहीं, कुछ लड़के तो कलक्टरी में चले जाते हैं कुछ मेडिकल में ही नहीं आते, और इस तरह पूरी-पूरी उम्मीद है कि नारायण बाबू ले ही लिए जाएँगे।’ शकलदीप बाबू का चेहरा फक पड़ गया। उनके पैरों में जोर नहीं था और मालूम पड़ता था कि वह गिर जाएँगे। जंगबहादूर सिंह तो मंदिर में चले गए। लेकिन वह कुछ देर तक वहीं सिर झुकाकर इस तरह खड़े रहे, जैसे कोई भूली बात याद कर रहे हों। फिर वह चौंक पड़े और अचानक उन्होंने तेजी से चलना शुरू कर दिया। उनके मुँह से धीमे स्वर में तेजी से शिव-शिव निकल रहा था। आठ-दस गज आगे बढ़ने पर उन्होंने चाल और तेज कर दी, पर शीघ्र ही बेहद थक गए और एक नीम के पेड़ के नीचे खड़े होकर हाँफने लगे। चार-पाँच मिनट सुस्ताने के बाद उन्होंने फिर चलना शुरू कर दिया। वह छड़ी को उठाते-गिराते, छाती पर सिर गाड़े तथा शिव-शिव का जाप करते, हवा के हल्के झोंके से धीरे-धीरे टेढ़े-तिरछे उड़नेवाले सूखे पत्ते की भाँति डगमग-डगमग चले जा रहे थे। कुछ लोगों ने उनको नमस्ते किया, तो उन्होंने देखा नहीं, और कुछ लोगों ने उनको देखकर मुस्कराकर आपस में आलोचना-प्रत्यालोचना शुरू कर दी, तब भी उन्होंने कुछ नहीं देखा। लोगों ने संतोष से, सहानुभूति से तथा अफसोस से देखा, पर उन्होंने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। उनको बस एक ही धुन थी कि वह किसी तरह घर पहुँच जाएँ। घर पहुँचकर वह अपने कमरे में चारपाई पर धम-से बैठ गए। उनके मुँह से केवल इतना ही निकला, ‘नारायण की अम्माँ!’ सारे घर में मुर्दनी छाई हुई थी। छोटे-से आँगन में गंदा पानी, मिट्टी, बाहर से उड़कर आए हुए सूखे पत्ते तथा गंदे कागज पड़े थे, और नाबदान से दुर्गंध आ रही थी। ओसारे में पड़ी पुरानी बँसखट पर बहुत-से गंदे कपड़े पड़े थे और रसोईघर से उस वक्त भी धुआँ उठ-उठकर सारे घर की साँस को घोट रहा था। कहीं कोई खटर-पटर नहीं हो रही थी और मालूम होता था कि घर में कोई है ही नहीं। शीघ्र ही जमुना न मालूम किधर से निकलकर कमरे में आई और पति को देखते ही उसने घबराकर पूछा, ‘तबीयत तो ठीक है?’ शकलदीप बाबू ने झुँझलाकर उत्तर दिया, ‘मुझे क्या हुआ है, जी? पहले यह बताओ, नारायण जी कहाँ हैं?’ जमुना ने बाहर के कमरे की ओर संकेत करते हुए बताया, ‘उसी में पड़े है।, न कुछ बोलते हैं और न कुछ सुनते हैं। मैं पास गई, तो गुमसुम बने रहे। मैं तो डर गई हूँ।’ शकलदीप बाबू ने मुस्कराते हुए आश्वासन दिया, ‘अरे कुछ नहीं, सब कल्याण होगा, चिंता की कोई बात नहीं। पहले यह तो बताओ, बबुआ को तुमने कभी यह तो नहीं बताया था कि उनकी फीस तथा खाने-पीने के लिए मैंने 600 रुपए कर्ज लिए हैं। मैंने तुमको मना कर दिया था कि ऐसा किसी भी सूरत में न करना।’ जमुना ने कहा, ‘मैं ऐसी बेवकूफ थोड़े हूँ। लड़के ने एक-दो बार खोद-खोदकर पूछा था कि इतने रुपए कहाँ से आते हैं? एक बार तो उसने यहाँ तक कहा था कि यह फल-मेवा और दूध बंद कर दो, बाबू जी बेकार में इतनी फिजूलखर्ची कर रहे हैं। पर मैंने कह दिया कि तुमको फिक्र करने की जरूरत नहीं, तुम बिना किसी चिंता के मेहनत करो, बाबू जी को इधर बहुत मुकदमे मिल रहे हैं।’ शकलदीप बाबू बच्चे की तरह खुश होते हुए बोले, ‘बहुत अच्छा। कोई चिंता की बात नहीं। भगवान सब कल्याण करेंगे। बबुआ कमरे ही में हैं न?’ जमुना ने स्वीकृति से सिर लिया दिया। शकलदीप बाबू मुस्कराते हुए उठे। उनका चेहरा पतला पड़ गया था, आँखे धँस गई थीं और मुख पर मूँछें झाड़ू की भाँति फरक रही थीं। वह जमुना से यह कहकर कि ‘तुम अपना काम देखो, मैं अभी आया’, कदम को दबाते हुए बाहर के कमरे की ओर बढ़े। उनके पैर काँप रहे थे और उनका सारा शरीर काँप रहा था, उनकी साँस गले में अटक-अटक जा रही थी। उन्होंने पहले ओसारे ही में से सिर बढ़ाकर कमरे में झाँका। बाहरवाला दरवाजा और खिड़कियाँ बंद थीं, परिणामस्वरूप कमरे में अँधेरा था। पहले तो कुछ न दिखाई पड़ा और उनका हृदय धक-धक करने लगा। लेकिन उन्होंने थोड़ा और आगे बढ़कर गौर से देखा, तो चारपाई पर कोई व्यक्ति छाती पर दोनों हाथ बाँधे चित्त पढ़ा था। वह नारायण ही था। वह धीरे-से चोर की भाँति पैरों को दबाकर कमरे के अंदर दाखिल हुए। उनके चेहरे पर अस्वाभाविक विश्वास की मुस्कराहट थिरक रही थी। वह मेज के पास पहुँचकर चुपचाप खड़े हो गए और अँधेरे ही में किताब उलटने-पुलटने लगे। लगभग डेढ़-दो मिनट तक वहीं उसी तरह खड़े रहने पर वह सराहनीय फुर्ती से घूमकर नीचे बैठक गए और खिसककर चारपाई के पास चले गए और चारपाई के नीचे झाँक-झाँककर देखने लगे, जैसे कोई चीज खोज रहे हों। तत्पश्चात पास में रखी नारायण की चप्पल को उठा लिया और एक-दो क्षण उसको उलटने-पुलटने के पश्चात उसको धीरे-से वहीं रख दिया। अंत में वह साँस रोककर धीरे-धीरे इस तरह उठने लगे, जैसे कोई चीज खोजने आए थे, लेकिन उसमें असफल होकर चुपचाप वापस लौट रहे हों। खड़े होते समय वह अपना सिर नारायण के मुख के निकट ले गए और उन्होंने नारायण को आँखें फाड़-फाड़कर गौर से देखा। उसकी आँखे बंद थीं और वह चुपचाप पड़ा हुआ था, लेकिन किसी प्रकार की आहट, किसी प्रकार का शब्द नहीं सुनाई दे रहा था। शकलदीप बाबू एकदम डर गए और उन्होंने काँपते हृदय से अपना बायाँ कान नारायण के मुख के बिलकुल नजदीक कर दिया। और उस समय उनकी खुशी का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने अपने लड़के की साँस को नियमित रूप से चलते पाया। वह चुपचाप जिस तरह आए थे, उसी तरह बाहर निकल गए। पता नहीं कब से, जमुना दरवाजे पर खड़ी चिंता के साथ भीतर झाँक रही थी। उसने पति का मुँह देखा और घबराकर पूछा, ‘क्या बात है? आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? मुझे बड़ा डर लग रहा है।’ शकलदीप बाबू ने इशारे से उसको बोलने से मना किया और फिर उसको संकेत से बुलाते हुए अपने कमरे में चले गए। जमुना ने कमरे में पहुँचकर पति को चिंतित एवं उत्सुक दृष्टि से देखा। शकलदीप बाबू ने गद्गद् स्वर में कहा, ‘बबुआ सो रहे हैं।’ वह आगे कुछ न बोल सके। उनकी आँखें भर आई थीं। वह दूसरी ओर देखने लगे।
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