उर्दू साहित्य का इतिहास

उर्दू भाषा व साहित्य का संक्षिप्त इतिहास

(उर्दू ज़बान व अदब की मुख्तसर तारीख)

हिन्दुस्तान की दूसरी ज़बानों की तरह उर्दू ज़बान (भाषा) हिन्दुस्तान की अस्ली ज़बान है । उर्दू ज़बान जदीद (आधुनिक) हिन्द आर्याई ज़बान है, जिसका रिश्ता (संबन्ध) शूर-सेनी अपभ्रंश की बोलियाँ “बृज-भाषा” अौर “खड़ी-बोली” से एक बहन का है । उर्दू ज़बान दिल्ली अौर उसके आस – पास के इलाकों (क्षेत्र) में पैदा हुई अौर यहीं से सारे हिन्दुस्तान में फैली । उर्दू ज़बान की बुनियाद 100 ई. में पड़ चुकी थी। जिसने धीरे – धीरे तरक्की (प्रगति) करके 14वीं सदी (शताब्दी) में हिन्दुस्तान की लिंगवा फ्रेन्का, आम बोल-चाल का दर्जा हासिल कर लिया था । उर्दू ज़बान के आगाज व इर्तिका (उद्भव व विकास) वक्त की ज़रूरत था । यह ज़बान मुशतर्का तहज़ीब (साझा संस्कृति) की अलामत (प्रतीक) अौर सैकूलर कदरों (मूल्यों) पर कायम (आधारित) है । इस ज़बान के उरूज (प्रगति) अौर तरक्की बिल्कुल गलत है कि उर्दू ज़बान मुसलमानों की ज़बान है । उर्दू मुशतर्का तहज़ीब (साझा संस्कृति) की ज़बान है जिसकी तरक्की (उन्नति) में हर मज़हब (धर्म) के लोगों का हाथ है । उर्दू ज़बान की बुनियादों में सैकूलर अनासिर (तत्व) कूट – कूट कर भरे हुए हैं । यह ज़बान दो कौमों के आपस में मिलने की वजह (कारण) से वजूद (अस्तित्व) में आई है । जब दो कौमें अौर दो तहज़ीबें (संस्कृतियाँ) आपस में मिलती हैं तो उनका एक दूसरे पर असर पड़ना लाज़िमी (अनिवार्य) होता है अौर एक नई ज़बान का पैदा होना भी ज़रूरी है । हिन्दुस्तान हमेशा से रंग बिरंगी तहज़ीबों (संस्कृतियों) का घर रहा है । हिन्दुस्तान के असली  बाशिन्दे (निवासी) अौर असली तहज़ीब (संस्कृति) क्या है ? अभी तक तारीख (इतिहास) के पास इसका जवाब नहीं है । कुछ माहेरीन (विशेषज्ञों) का खयाल (विचार) है कि आदिवासी लंबाडे इस मुल्क के असली बाशिन्दे (निवासी) है अौर कुछ के मुताबिक (अनुसार) आस्ट्रिक, जिनकी तहज़ीब के कुछ असरात (प्रभाव) द्राविणों पर भी दिखाई देता हैं । (मानव विज्ञान) इल्मुल इन्सान के माहेरीन (विशेषज्ञों) का खयौल (विचार) है कि द्राविण हिन्दुस्तान के असली बाशिन्दे (निवासी) नहीं हैं, बल्कि वह अफ्रीकी नस्ल (जाति) के हैं । यह लोग गिज़ा (भोजन) की तलाश में अफ्रीका के खुश्क अौर गर्म इलाके (क्षेत्र) से आकर सिन्ध के किनारों पर आबाद हो गए थे । हड़प्पा अौर मोहन जोदाड़ों की तहज़ीब (संस्कृति) से द्रविणों की सलाहियतों (प्रतिभा) का अन्दाज़ा होता है । जिससे आर्य भी मुतअस्सिर (प्रभावित हुए) आर्य अपने वतन वस्त (मध्य) ऐशिया से 1500 कब्ल मसीह (मसीह पूर्व) में ईरान अौर दर्र-ए-खैबर के रास्ते से हिन्दुस्तान में दाखिल हुए अौर उन्होंने द्रविणों को सिन्ध अौर पंजाब के जरखेज़ (उपजाऊ) इलाकों (क्षेत्रों) से खदेड़ कर जुनूबी हिन्द (दक्षिण शरत) में धकेल दिया । इस तरह जुनूबी हिन्द के इलाकों में द्राविणों ज़बानें फली फूली जबकि शुमाली हिन्द (उत्तरी भारत) में आर्य ज़बानों को तरक्की (उन्नति) हासिल हुई । आर्यो के एक ज़माने (युग) के बाद पाँच वीं सदी (शताब्दी) ईसवीं से पहले सामी नस्ल (जाति) के अरब ताजिरों (व्यापारियों) का अरब सागर के समुन्द्री रास्ते से जुनूबी हिन्द (उत्तरी भारत) के मालाबार साहिल (तट) पर तिजारती (व्यापारिक) माल लेकर आना जाना था । लेकिन अरब खलीफा वलीद बिन अब्दुल मालिक के दौर में मोहम्मद बिन कासिम ने 712 ई. में सिंध को जीत लिया अोर इस इलाके में मुसलमानों ने 150 साल तर हुकूमत (शासन) की ।

——–    मुसलमानों के इस दौरे हुकूमत (शासनकाल) में हिन्दुस्तान की तहज़ीब (संस्कृति) पर कोई खास इन्कलाबी असरात (प्रभाव) न हो सके । मोहम्मद बिन कासिम के तीन सौ साल बाद जब अरबों की अब्बासी सल्तनत (शासन) कमज़ोर पड़ गई तो गज़ने के सूबेदार सुबुकतगीं ने खुदमुख्तारी (स्वतंत्रता) का एलान करके अफगानिस्तान अौ पंजाब को अपने हमले का निशाना बनाया । सुबुकतगीं का बेटा महमूद गज़नवी हिन्द-ईरान की तारीख (इतिहास) में एक बड़ा मुकाम (स्थान) रखता है । गज़नवी एक रवादार (सैकूलर), इंसाफ पसंद नियायी), कुशादा दिल (विशाल हृदय) का बादशाह था, वह संस्कृत का आलिम (ज्ञानी) था, उसने संस्कृत से फारसी में अौर फारसी से संस्कृत में तर्जुमे (अनुवाद) करा कर इल्मी (ज्ञान) अौर तहज़ीबी (सांस्कृतिक) लेन-देन को बढ़ावा दिया । हिन्दुस्तान में गज़नवी की आमद (आगमन) ने यहाँ की तहज़ीब (संस्कृति) में एक इंकेलाब बरपा कर दिया जिसके नतीजे (फलस्वरूप) में हिन्द – इरानी तहज़ीब (संस्कृति) के मिलन से एक नई तहज़ीब उभर कर बाद इन दोनों को मिलने का मौका (अवसर) मिला । इसलिए नई तहज़ीब ने जल्द ही यहाँ के आम आदमी के दिल में घर कर लिया । हिन्दुस्तान पर गज़नवी बादशाहों ने 175 साल तक हुकूमत की ।

जिनके बाद गोरियों का ज़माना शुरू हुआ । शहाबुद्दीन नागोरी  ने पंजाब से निकल कर पहली बार दिल्ली को फतह (विजय) किया अौर कुतुबउद्दीन ऐबक को वहाँ का गवर्नर बनाया । इस दौर में मुसलमानों अौर हिन्दुओं में आपसी भाईचारा अौर बढ़ा अौर दोनों कौमें एक दूसरे के इलमी (ज्ञान) अौर सोच समझने के तौर तरीकों को समझने लगीं । पंजाब में दो सदियो  (शताब्दियों) से मुसलमानों के आने जाने से एक नई नस्ल (जाति) पैदा हो चुकी थी जो हिन्दुस्तान की तहज़ीब (संस्कृति) को अपने दिल में उतार चुकी थी। चुनान्वे गज़नवी दौर के शायर (कवि) ख्वाजा मस्ऊद सलमान मुखतरका तहज़ीब (साँझा संस्कृति) अौर उर्दू ज़बान के पहले शायर हैं । सलमान फारसी, तुर्की अौर उर्दू के साहिबे दीवान शाइर थे अफसोस उनकी उर्दू शायरी आज मौजूद नहीं है, उनके उर्दू दीवान (किताब) का जिक्र अमीर खुसरों ने अपनी मसनवी (कविता की एक विद्या) ”गुर्रतुल कमाल” के दीबाचे (प्राक्कथन) में किया है । सअद सलमान उर्दू के पहले शायर हैं । उर्दू ज़बान का गज़नवी अौर गोरी  हुकूमत में आगाज़ व इर्तिका (उदभव अौर विकास) हुआ । उस वक्त सरकारी ज़बान फारसी थी लेकिन हुकूमत के कामकाज को चलाने के लिए संस्कृत के सिवा किसी ऐसी ज़बान की ज़रूरत थी जो अवाम की बोल चाल अौर आम इस्तेमाल (प्रयोग) की ज़बान हो अौर यह अवामी ज़बान हिन्दी, हिन्दवी, या हिन्दुस्तानी ही थी जिसको 18वीं सदी (शताब्दी) के आखिर में उर्दू के नाम से पुकारा गया । उर्दू ज़बान को अलग – अलग अहद (युगों) अौर इलाकों में अलग अलग नामों से पुकारा गया । गज़नवी से लेकर अौरंगजेब के ज़माने तक शिमाली हिन्द (उत्तरी भारत) में इस ज़बान को हिन्दवी, हिन्दी कहा गया । (दक्षिण) में दकनी अौर गुजरात में गुजरी कहा गया । 18वीं सदी (शताब्दी) की शुरू में इस ज़बान को रीख्ता अौर 18वीं सदी के आखिर 1780 के आस पास इस ज़बान का नाम उर्दू पड़ा ।

उर्दू तुर्की का लफ्ज़ (शब्द) है जिसके मानी (अर्थ) है बाज़ार, लश्कर । लाल किले (दिल्ली)  के लश्कर (फौज) अौर उसके करीब बाज़ार की जबान को जुबान-ए-उर्दू-ए-मोअल्ला कहा जाता था यानि (अर्थात) लश्कर की ज़बान जो बाद में सिर्फ उर्दू हो गई । किले के आस पास की यह ज़बान उस वक्त (समय) बहुत मेअयारी (उच्च स्तरीय) मानी जाती थी ।

गोरियों के बाद खिल्जियों अौर तुगलकों के ज़माने में दिल्ली को मर्कज़ी हैसियत (केन्द्रीय पदवी) हासिल (प्राप्त) रही उस ज़माने में यहाँ ईरान से फारसी के बड़े – बड़े सूफी भी बगदाद अौर ईरान से हिन्दुस्तान आए । जिन्होंने अपनी तालीमात (शिक्षा) को यहाँ आम किया, जिसके लिए एक अवामी ज़बान का होना जरूरी था । उर्दू ज़बान की तरक्की (विकास) में सूफियों के अक्वाल (कथन), उनकी शाइरी अौर मज़हबी किताबों का बड़ा रोल रहा है । सफ़िया का बुनियाद पैगाम इश्क व मुहब्बत है । उनके लिए इन्सान अौर इन्सानियत सबसे बड़ी चीज़ है । इसलिए उर्दू ज़बान की बुनियाद में इश्क व मोहब्बत, इन्सानियत का ज़ज्बा अौर सैकुलरिज्म कूट – कूट कर भरा हुआ है । इन्हीं अनासरि (तत्व) की वजह से इस ज़बान में शीरीनी अौर मिठास के साथ दिलों को मोह लेने की सलाहियत है । सूफियों की मादरी ज़बान (मातृभाषा) आरबी व फारसी थी जबकि आम लोगों की ज़बान हिन्दवी (उर्दू) थी इसलिए उन्होंने देसी ज़बान हिन्दी पर अरबी व फारसी के पेवन्द लगाए अौर अपनी बात लोगों तक पहुंचाई । ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, बाबा फरीद गंज शकर, निज़ामुद्दीन अौलिया, शैख बू अली, शर्फुद्दीन कलन्दर, अमीर खुसरो, मुखदूम अशरफ जहाँगीर, शैख बाजन, शैख हमीदुद्दुीन नागौरी, ख्वाजा बंदा नवाज़ा गेसू दराज़ वगैरा सूफिया किराम ने उर्दू की इब्तिदाई नश्वो नुमा (उन्नति) में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया ।

हज़रत अमीर खुसरो अपने वक्ती की सबसे बड़ी शखसियत थे । खिल्जियों अौर तुगलकों के एहद (युग) में उन्होंने अदब व सकाफत (साहित्य संस्कृति) में बेहतरीन इज़ाफे किए अौर शेर व अदब अौर मौसीकी (संगीत) में अपनी इफिरादियत (अनुपमता) की छाप छोड़ी । अमीर शुकरो अपने एहद में बड़े – बड़े अोहदों (पद) पर भी फाइज़ रहे, वह बड़े फकीर अौर सूफी संत भी थे । मौसीकी के माहिर -ए – फन के होने के साथ तुर्की अौर फारसी ज़बान के बड़े शाइर अौर अदीब भी थे अौर उर्दू शाइरी के बुनियाद गुज़ार (नीव रखने वाले) भी थे । अमीर शुकरों ने अपनी हिन्दवी शाइरी में फारसी ज़बान की पैवंदकरी करके इसमें शिरीनी अौर मिठास पैदा की । उन्होंने उर्दू ज़बान में बहुत सी नज़में, दोहे, पहेलियाँ लिखीं जो अवाम में बेहद मकबूल हुईं ।

उर्दू ज़बान व अदब को अमीर खुसरो के ज़ाने तक फारसी के मुकाबले में कोई वक्अत हासिल न थी । जबकि बोल चाल की ज़बान उर्दू थी । उर्दू ज़बान की असली तरक्की दक्षिण में हुई । दक्षिण के मुख्तलिफ इलाके जलालुद्दीन खिल्जी के एहद में शुमाली हिन्द की ज़बान से वाकिफ हो चुके थे । लेकिन 1327 ई. में जब सुल्तान मोहम्मद तुगलक ने मुल्क का पाया-ए-तख्त (राजधानी) दिल्ली के बजाए देवगिरी (दौलत आबाद) किया उसके बड़े नताइज सामने आए । उस ज़माने में दिल्ली की तकरीबन 70 फीसदी आबादी ने दक्षिण हिजरत की । दो साल बाद जब तुगलक ने दो बार दिल्ली को राजधानी बनाया तो अवाम व खवास की बड़ी तादाद ने दक्षिण को ही अपना वतन करार दिया । दक्षिण में अलाउद्दीन खिल्जी से पहले ही बहुत से बुजुर्गाने दीन तबलीग व इशाअत (प्रचार व प्रसार) के काम में लगे थे। शाह बुरहानुद्दीन गरीब, सैयद यूसुफ शाह राजू कताल वगैरा सूफी अवाम में मुकबूलियत हासिल कर चुके थे । जब तुगलकों की सल्तनत दिल्ली कमज़ोर पड़ गई तो । 1347 ई. मे अलाउद्दीन हसन बहमन शाह ने दक्षिण में खुद मुख्तारी का एलान कर दिया अौर पाया-ए-तख्त (राजधानी) दौलत आबाद के बजाए गुलबर्गा को बनाया । बहमन शाह ने अपने एहद में बड़े शाइर, अदीब अौर उलमा (धर्म गुरु) को जगह दी अौर ज़बान के असली घर से हज़ारो मील दूर उस एहद में उर्दू जबान व अदब की अस्ल तरक्की हुई । दक्षिण की मुख्तलिफ रियासतों में 1347 ई. में कायम हुई अौर उर्दू ज़बान को सरकारी ज़बान बनाया गया । इस एहद में दक्षिण इलाकें में तैलगू, कन्नड़ अौर मराठी बोलने वाले लोग आबाद थे यानी दक्षिण सल्तनत में तिलंगाना, कर्नाटक अौर महाराष्ट्र के इलाके शामिल थे । यहाँ की तहज़ीब मुख्तलिफ थी । वहमनी सल्तनत ने दकन में रहने वाली मुख्तलिफ कौमों में इत्तिहाद कायम किया अौर मेल जोल भाई चारे के जज्बात को उभार कर इंसानियत पर ज़ोर दिया अौर हिन्दू मुस्लिम इत्तिहाद सौहार्द कायम किया । इसलिए दक्षिण के अक्सर सुल्तानों की बीवियाँ हिन्दू थीं जो शादी के बाद भी अपने मज़हब पर कायम रहीं। किले में मंदिर व मस्जिद बराबर – बराबर बने । बहमनी बादशाहों ने हर इलाके के आलिमों अौर शाइरों की दिल खोल कर सरपरस्ती की अौर असल मानी में बैनुल अकवामी तहज़ीब (अंतरराष्ट्रीय संस्कृति) को कायम किया । उर्दू ज़बान के अव्वलीन नमूने तो शुमाली (उत्तर) हिन्द में मिलते हैं लेकिन उर्दू में किताबें लिखने का आगाज़ दक्षिण में हुआ । दक्षिण में उर्दू शेर व अदब में हिन्दुस्तानी रस्म व रिवाज अौर तहज़ीब कूट – कूट कर भरी हुई है । बहमनी सल्तनत बाद के ज़माने में पाँच रियासतों में बट गई । यहाँ उर्दू शेर व अदब के चार दौर बने ।

(1) बहमनी दौर 1350-1525, (2) आदिल शाही दौर 149-1686 (3) कुतुब शाही दौर 1508-1687 (4) ज़वाल गोलकुंडा अौर बीजापुर के बाद का दौर 1686-1750 । बहमनी दौर में ख्वाजा बंदा नवाज़ गेसू दराज़, फख्रूद्दीन निज़ामी बीदरी, मीरा जी शम्सुल उश्शाक, अशरफ बयाबानी, कुतुबुद्दीन कादरी अौर फिरोज़ वगैरा एहम शायर अौर अदीब हुए ।

इसी दौर में उर्दू नसर (गद्य) का आगाज़ हुआ । मेराजुल आशिकीन उर्दू नम्र (गद्य) की पहली किताब है जिसके मुसन्निफ (लेखक) ख्वाजा बंदा नवाज़ गेसू दराज़ हैं ।

आदिल शाही दौर में हसन शौकी, नुसरती, अली आदिल शाह सानी हाशमी बीजापुरी, अब्दुल जैसे बड़े शायर व अदीब हुए । इस एहद में मस्नवी (काव्य विधा) अौर दास्तान निगारी को उरूज हुआ । कुतुब शाही दौर में मोहम्मद कुली कुतुब शाह जो उर्दू ज़बान का पहला साहिबे दीवान (काव्य संग्रह) शायर है गंवासी, असदुल्लाह वजही जैसे एहम शाइर व अदीब हुए । मुगल बादशाह अौरंगजेब आलमगीर ने बीजापुर को 1686 ई. अौर गोलकुंडा 1687 ई. में फतह करके दक्षिण पर शुमाली हिंद की हुकूमत के कायम किया । जिसके बाद दक्षिण शेर व अदब पर शुमाली हिन्द के असरात मुरत्तिब होने लगे । अौर उसमें फारसी ज़बान व अदब के असरात की वजह से नई जान पैदा हो गई अौर उर्दू ज़बान अदब का दायरा दक्षिण से शुमाली हिंद तक वसी हो गया । इस दौर के बड़े शायरों में वली दकनी अौर सिराज अौरंग आबादी के नाम एहम हैं । वली दकनी की शायरी की एहमियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब 18वीं सदी के इब्तिदा में वली का दीवान दिल्ली पहुंचा तो रातों रात उसकी मक्बूलियत इस कद्र हुई कि शुमाली हिंद के फारसी के शाइरों ने भी उर्दू ज़बान में शेर गोई की तरफ रगबत दिखाई वर्ना इससे पहले शुमाली हिंद में शायर फारसी ज़बान में शेर गोई को मेयारी समझते थे, उर्दू में शेर कहना उनके लिए खिलाफे शान था । इस दौर के दकनी शोअरा में काज़ी महमूद बहरी, सैयद मोहम्मद फिराकी, दाऊद अौरंगाबादी जैब आबादी, फिदवी अौरंगाबादी काबिले जिक्र हैं । इन तमाम शायरो की शायरी में सैकूलर अनासिर, रवादारी अौर हिन्दुस्तानी अनासिर के साथ फारसी शाइरी के असरात अौर शुमाली हिंद की उर्दू ज़बान की आवाज़ मुकम्मल तौर पर दिखाई देती है । अौरंगजैब के फतह दकन के बाद दकन में शुमाली हिंद के असरात बढ़ते गए । राजधानी दिल्ली में फारसी सरकारी ज़बान थी अौर वली की आमद से कब्ल फारसी ज़बान में शायरी आम थी । लेकिन दिल्ली के शायर यह महसूस करने गए थे कि वह फारसी में कितना ही अच्छा शेर कहें ईरानी उनको कोई एहमियत नहीं देते । दूसरे यह कि फारसी अवामी ज़बान न होने की वजह से उनका हल्का महदूद था । दिल्ली में वली की आमद अौर उसकी मकबूलियत से यहाँ के शाइरों को उर्दू ज़बान में तखलीक करने की तहरीक मिली अौर 100 साल के अरसे में इतना वकीअ शेर व अदब मंज़रे आम पर आया जिसकी मिसाल किसी भी ज़बान में कहीं नहीं मिलती । दिल्ली के शायरो ने दक्नी उर्दू के ऐसे अल्फाज़ जो कानों को भद्दे मालूम होते थे, उन्हें तर्क करके मेयारी अौर मीठे अल्फाज़ से उर्दू के सजाया संवारा जैसे सीं की जगह से, ते की जगह थे, अंछु की जगह आंसू वगैरा, इस दौर में सिराजुद्दीन अली खान आरज़ु (1688-1756) की खिदमात बहुत एहम हैं । उन्होंने नौजवान शाइरों को उर्दू में शेर कहने की तरफ उक्साया । उस ज़माने में उर्दू को रीख्ता कहा जाता था । उनके शागिर्दो में मीर तकी मीर (1722-1810), ख्वाजा मीर दर्द (1720-1785), मिर्ज़ा मो. रफी सौदा – 1713-1781, शाह मुबारक अबरू – 1683-1733, मज़मून, यक्रंग, आनंद राम मुखलिस, टीक चंद बहार, एहम शाइर हुए । इस एहद में शाइरों का रूजहान ईहाम गोई (शलेष अलंकार) की तरफ था जो एक तहरीक की सूरत इख्तियार कर चुका था । मिर्जा मज़हर जाने जानाँ ने ईहाम गोई की तहरीक के खिलाफ ताज़ा गोई की तहरीक शुरू की अौर उर्दू शाइरी में जज्बात व एहसासात के सीधे इज़हार पर ज़ोर दिया । 18वीं सदी उर्दू शेर व अदब का एहद ज़रीं (स्वर्ण युग) कहलाती है । जिसकी वजह यह है कि इस दौर में मीर तकी मीर, मिर्जा़ मोहम्मद रफी सौदा, ख्वाजा मीर दर्द, मीर सोज़, मीर हसन अौर नज़ीर अक्बर आबादी जैसे साहिबे उसलूब (शैलीवान) अौर बड़े शाइर पैदा हुए । जिन्होंने आईंदा ज़ाने के शाइरों के उसलूब (शैली) को बनाया ।

मीर की शाइरी दिल अौर गम की शाइरी है उनके उसलूब में रवानी अौर सादगी है उन्होंने रोज़मर्रा के वाकिआत को इस तरह बयान किया है कि उसमें गहराई पैदा हो गई है । मीर ने गज़ल मस्नवी, कसीदा अौर शाइरी की दूसरी अस्नाफ (विधाऐं) पर तब आज़माई की लेकिन (मीर की गज़ल सबसे बढ़ कर है । सौदा की शाइरी ख्यालात की बुलंदी अौर इसतिआरा (रूपक) की शायरी है। सौदाने शायरी की तमाम अस्नाफ पर तबा आज़माई की लेकिन सौदा को कसीदा निगारी मे कमाम हासिल है । ख्वाजा मीर दर्द ने गज़ल में तसव्वुफ को शामिल किया जबकि मीर सौज ने गज़ल में चुलबुले लहजे अौर बेसाख्तगी पर जौर दिया । मीर हसन (1736-1786) ने मस्नवी यानी मन्जूम किस्सा गोई को बुलंदी पर पहुंचाया । मस्नवी सहरूल बयान उर्दू की एहम मसनवी है । नज़ीर अक्बर आबादी (1740-1830) ने अवामी शायरी पर तवज्जह की नज़ीर उर्दू ज़बान के पहले नज़म निगार हैं । नजीर की शाइरी में मुषतर्का तहजीब के अनासिर कूट – कूट कर भरे हुए हैं । नजीर ने हिन्दू देवीदेवताओं अौर उनके त्यौहारो पर नजमें लिखीं । 19वीं सदी मिर्जा असदुलाह खाँ गालिब (1797-1869) अौर हकीम मोमिन खाँ मोमिन (1800-1852) का दौर है । गालिब ने उर्दू शायरी अौर खास तौर से उर्दू गजल को उरूज पर पहुंचाया । उन्होंने उर्दू नज़म व नम्र दोनों तरफ तवज्जह की । गालिब के खत (पत्र) जदीद उर्दू नस्र की बुनियाद हैं । गालिब ने अपने खतों में बातचीत का तरीका अपनाया । गालिब की शाइरी में जिद्दत अौर नयापन बेइंतिहा है । हकीम मौमिन खाँ ने खालिस आषिकाना गजल पर तवज्जा दी अौर इष्क मजाजी (लौकिक प्रेम) की कैफियात को बहतरीन तरीके से बयान किया । इस एहद में शेख मोहम्मद इब्राहीम जौक (1789-1754) ने कसीदा को उरूज (ऊँचाई) पर पहुंचाया । बहादुर शाह जफर (1775-1869) अौर नवाब मुस्तुफा खाँ शैफता (1806-1871) भी इस एहद के एहम षायर थे।

दबिस्ताने दिल्ली की नस्र :-    दबिस्तान दिल्ली के नस्र में दिल्ली कालिज का एहम रोल रहा है । दिल्ली में नवाब गाज़ीउद्दीन हैदर ने अजमेरी गेट के बाहर 1792 ई. एक मदरसा कायम किया जो आगे चल कर दिल्ली कॉलेज बन गया उस वक्त हिन्दुस्तान में अंग्रेजों की हुकूमत कायम हो चुकी थी । अंग्रेजों ने 1825 में मदरसा गाज़ीउद्दीन हैदर में एक कॉलेज कायम किया जो दिल्ली कॉलेज के नाम से मश्हूर हुआ। इस कॉलेज की सबसे बड़ी खुसूसियत यह थी कि इस कॉलेज में मगरिबी उलूम (पश्चात्य विषय) साईंस, रियाज़ी (गणित) फिलासपी  वगैरा उर्दू जबान में पढ़ाई जाती थी इसलिए इस कॉलेज में उन तमाम उलूम की किताबों के तर्जुमे (अनुवाद) हुए जिससे उर्दू में वुस्अत पैदा हुई । मास्टर राम चन्द्र, ममलूक अली, इमाम बख्श सहबाईष शिव नारायण आराम, करीमुद्दीन, मोहम्मद हुसैन आज़ाद, ज़काउल्लाह, डिप्टी नजीर अहमद अौर जियाउद्दीन इस कॉलेज की एहम शखसियात हैं । गालिब, आजुर्दा, सरसय्यद अौर हाली की खिदमात भी अहम हैं । 1830 में शुमाली हिन्द में फारसी के बजाए उर्दू जबान को सरकारी जबान का दर्जा हासिल हुआ । जिसके बाद उर्दू जबान के फरोग अौर तरक्की में मजीद इजाफा हुआ । सर सैयद अौर गालिब की नस्र के उसलूब ने जदीद उर्दू नस्र की बुन्याद डाली ।

18वीं सदी ईसवी में अौरंगजेब के अंतकाल के बाद दिल्ली की सल्तनत कमजोर पड़ गई । 1739 में निदर शाह ने अौर बाद के जमाने में अहमद शाह अबदाली अौर रेहेलों के हम्लों ने बची कुची ताकत को भी बर्बाद कर दिया । जिसके नतीजे में दिल्ली के अदीब व शाइर हिजरत करने पर मजबूर हो गए । उर्दू की एक नई बस्ती लखनऊ आबाद हो गई । बाद में जिसकी शनाख्त दिल्ली के मुकाबले लखनऊ दबिस्तान के तौर पर कायम हुई । मोहम्मद शाह बादशाह के एहद में सादात बारह की ताकत को चंद ईरानी अमीरों ने मुत्तहिद होकर बेअसर कर दिया । उन्हीं अमीरों में से एक सैयद मोहम्मद अमीन नेशापुरी थे जिन्हें पंजहज़ारी मंसब हासिल हुआ । सैयद अमीन नेशापुरी ने बाद में सल्तनते अवध की बुनियाद डाली अौर नवाब सआदत खाँ बुरहानुल मुल्क का लकब इख्तियार किया । सआदत यार खान ने अपनी राजधानी अयोधया से चार मील दूर दरियाए घागरा पर कायम की (फैज आबाद) । जिसका नाम बंगला साहब पड़ गया । सआदत खान के बाद उनके भांजे सफदर जंग जानशीन हुए । उसी के जमाने में बंगला साहब को फैज आबाद का नाम दिया गया । सफदर जंग के बाद, शुजउद्दोला 1854-1875 सल्तनत के जानशीन हुए । उनके जमाने में फैज आबाद एक अदबी मर्कज बन गया ।

शुजाउद्दोला के बाद उनके बेटे आसिफुद्दोला जानशीन हुए । जिन्होंने अपनी राजधानी लखनऊ को बनाया । लखनऊ के आखरी नवाब वाजिद अली शाह 1856 में माजूल हुए अौर इस इलाके में अंग्रेजों की हुकूमत कायम हो गई । दबिस्तान लखनऊ की शायरी में वहाँ के समाजी माहोल की अक्कासी भरपूर है । फुहश गोई, (नगंपान) अौरतपन अौर अल्फाज की बाजीगरी लखनऊ की शाइरी का हिस्सा है। यहाँ गजल के अलावा मरसिया, मसनवी अौर दास्तान गोई को भी काफी मकबूलियत हासिल हुई । दबिस्तान लखनऊ के एहम शाइरों में मुस्हफी, इंशा, आतिश, नासिख, अनीस दबीर अौर मिर्जा शौक लखनवी हैं । दबिस्ताने दिल्ली अौर दबिस्ताने लखऊ के शाइरी में फर्क यह है कि दिल्ली की शाइरी में आला जज्बात, कैफियत अौर तसव्वुफ है जबकि लखनऊ की शाइरी में फुहश गोई, अल्फाज की कारीगरी शामिल है । दबिस्तान लखनऊ के एहम नस्र निगार फकीर मोहम्मद गोया, रजब अली बेग सुरूर ठफसाना-ए-अजाइबठ दास्तान के मुसन्निफ, पंडित रतन नाथ सरशार, अब्दुल हलीम शरर (तारीखी नाविल निगार) मोहम्मद मिर्जा हादी रूसवा (नाविल निगार) ठउमराव जानठ हैं ।

—–    19वीं सदी में उर्दू नस्र के फरोग में फोर्ट विलियम कॉलेज अौर सेंट जार्ज कॉलेज की खिदमात भी एहम हैं । फोर्ट विलियम कॉलेज 1800 ई. में कल्कत्ता में कायम किया गया जिसका बुन्यादी मक्सद अंग्रेज मुलाजमीन को उर्दू जबान की तालीम देना था ताकि हुकूमत के काम काज में आसानी हो । इस गर्ज से जॉन गिलक्रिस्ट की कयादत में तलबा (छात्रों) की आसानी के लिए उर्दू अदब को आसान अौर सादा जबान में पेश करने की मुहिम शुरू हुई अौर किताबों का तर्जुमा उर्दू में किया गया । इस कॉलेज के तहत उर्दू नस्र के रिवायती (पारम्परिक) उसलूब तुकबंद इबारतों की जगह सादा अौर आसान उसलूब को अपनाया गया । इस कॉलेज के मुसन्निफीन (लेखकों) में जॉन गिलक्रिस्ट, मीर अम्मन देहलवी (बाग व बहार) मीर शेर अली अफसोस, सैयद हैदर बख्श हैदरी, निहाल चंद लाहोरी, मिर्जा काजिम अली जवान, मजहर अली खान विला, मिर्जा अली लुत्फ, लल्लू लाल जी वगैरा के नाम एहम हैं । यह तमाम मुसन्निफीन कॉलेज के तन्ख्वाहदार थे । फोर्ट विलियम कॉलेज ने उर्दू की तरक्की को एक नई राह दिखाई जिसका सिलसिला कायम है । फोर्ट विलियम कॉलेज की किताबों में मीर अम्मन देहलवी की दास्तान बाग व बहार को सबसे मकबूलियत हासिल हुई । बाग व बहार फारसी दास्तान किस्सा चहार दुरवेश का आज़ाद तर्जुमा है । मीर अम्मन से तकरीबन 20 बरस पहले भी मीर अता हुसैन तहसीन ने नौ तर्जे मुरस्सा के नाम से किया था जिसका उसलूब कदीम था । मीर अम्मन का उशलूब जदीद उर्दू नस्र का संगे बुनियाद साबित हुआ । फोर्ट विलयम कालेज ने ही हिन्दी अौर उर्दू जबान का झगड़ा पैदा किया जिसका नतीजा हिन्द अौर पाक है ।

सैंट जार्ज कालेज मद्रास या राइटर्स कॉलेज मदरास में था जहाँ मुशियों की तालीम का इंतिजाम था । इस कॉलेज में दूसरी जबानों के साथ उर्दू जबान की किताबें भी छपती थीं । तुराब अली नामी (1779-1826) सैयद हुसैन शाह हकीकत (1772-1833), हसन अली माहुली (1782-1842) थामस रूबक वगैरा इस कॉलेज के एहम मुसन्निफीन में से हैं ।

1707 से 1857 तक का एहद मुगलिया हुकूमत का जवाल का एहद है । चुन्नान्वे दिल्ली की सल्तनत की बदहाली वजह से जहाँ एक तरफ देहलीव अदीब व शाइर ने लखनऊ हिजरत की वहीं कुछ अदीब शाइर ने रियासत रोहेलखंड की तरफ कूच किया । रोहेलखंड की तक्सीम के बाद 1775 ई. में रिसायत रामपुर कायम हुई । जो रोहेला पठानों की रियासत थी । कायम चाँद पुरी नवाब अमीर खान अमीर वैगार ने दबिस्ताने रामपुर की बुनियाद डाली जिसकी अशल तरक्की 19वीं सदी में हुई । शेख अली बीमार, करम अली खाँ करम, गुलाम जीलानी रफअत, अखुंद जादा गफलत, निजाम रामपुरी, दाग, अमीर) मोहम्मद अली जौहर, महशर इनायती, शाद आरफी, जलील नोमानी, वाहिदुल कादरी, अजहर इनायती, जहीर रहमती वगैरा शाइरों ने दबिस्ताने रामपुर के वकार को कायम किया। दिल्ली अौर लखनऊ के दबिस्तान खत्म हो चुके हैं लेकिन दबिस्तान रामपुर मौजूदा दौर में भी अपना तसलसुल बरकरार रखे हुआ है । दबिस्तान रामपुर ने नसर व नज्म दोनों में अपने अलग अंदाज को कायम किया है। दबिस्ताने रामपुर हिन्द – अफगानी मिजाज रखता है ।

1857 के गदर ने हिन्दुस्तान पर पूरी तरह अंग्रेजों के गलब का कायम कर दिया था । अौर हिन्दुस्तान सीधे ब्रिटिश हुकूमत के जेरे इंतेजाम था । गदर के बाद हिन्दुस्तान में इंकलाबी तबदीलियाँ पैदा हुईं । इस एहद में सर सैयद अहमद खान की खिदमात एहम हैं । सर सैयद ने अंग्रेजों की हुकूमत को तस्लीम करते हुए मुसलमानों को अंग्रेजी उलूम व फनून में महारत हासिल करने पर जौर दिया। सर सैयद के जमाने तक उर्दू अदब के मोजुआत (विषय) महदूद थे । उर्दू अदब शाइरी अौर किस्सा गोई तक महदूद था। सर सैयद ने जबान व अदब को हकीकत व वाकियत से करीब किया । उन्होनें न सिर्फ खुद सादा अौर आसान ज़बान इस्तेमाल की बल्कि अपने साथियों में भी यह तहरीक पैदा की । जिसकी वजह से उर्दू का दायरा वसी हो गया । सर सैयद अौर उनके साथियों ने अंग्रेजी अदब अौर तकीद (साहित्य व आलोचना) से इस्तेफादा करके उर्दू अदब में वह मेयार कायम किए । सर सैयद के एहद में उर्दू नस्र को बेहद तरक्की हुई । इसी जमाने मे तंकीद, नाविल, अफसाना, नजम गोई वगैरा का बाकायदगी से आगजा हुआ । सर सैयद के एहद से पहले उर्दू शेर व अदब पर अरबी अौर बिलखुसूस फारसी जबान व अदब अौर उसकी असनाफ (विधा) गा गलबा था । इस एहद के एहम निसर निगारों में सर सैयद अहमद खान, ख्वाजा अल्ताफ हाली 1837-1914, मौलाना शिबली नौमानी (1857-1914) डिप्टी नज़ीर अहमद, मोहम्मद हुसैन आज़ाद (1832-1910) वगैरा एहम मुसन्निफीन हैं । इस एहद के एहम शाइरों में हाली, मोहम्मद हुसैन आजाद, अक्बर इलाहाबादी (1864-1921) वगैरा जिन्होंने नजीर अकबर आबादी के बाद उर्दू में नज्म निगारी की रिवायत पर भरपूर तवज्जुह की ।

सर सैयद के एहद में गजल के मजामीन में भी वुस्अत पैदा हुई । गजल महज हुस्न व इश्क का बयान नहीं थी बल्कि उसमें समाजी हालात शामिल हुए । सर सैयद का एहद उर्दू अदब में सर सैयद तहरीक के नाम से जाना जाता था । सर सैयद तहरीक का मकसद अदब में इस्लाह करना था । अल्लामा इक्बाल सर सैयद तहकीक का ही नतीजा थे । इक्बाल के एहद में दुन्या सियासी, समाजी, तहजीबी अौर जहनी इंकलाबात से गुजर रही थी अौर बड़े एहम साईंसी अौर इल्मी इंकेशाफात हो रहे थे । सर सैयद अहमद खाँ की इस्लाही अौर तालीमी तहरीक ने हिन्दुस्तान की जद्दोजहेदे आजादी की तहरीकात अौर मगरिबी अदब के जदीद रूजहानात के असरात उर्दू अदब पर पड़ने लगे थे । इकबाल के एहद में  मुख्तलिफ अदबी रूजहानात एक दूसरे से टकरा रहे थे । इकबाल उर्दू के अजीम तरीन शाइरों में से हैं उनके मुकाबिल सिर्फ मीर अौर गालिब का नाम लिया जा सकता है । इकबाल ने उर्दू नज्म को उरूज पर पहुंचाया उन्होंने इंसान व इंसानियत को मर्कज (केन्द्र) में रख कर इंसानी खुदी को बेदार (जागाया) करके इंसानी अजमत को कायम करने का पैगाम दिया । इस एहद के दूसरे नज्म निगार शायर हैं  जफर अली खान (1870), मुंशी दुर्गा सहाय सुरूर जहाँआबादी (1873-1910), मोहम्मद अजमतुल्लाह खाँ (1887) वगैरा सर सैयद की इस्लाही तहरीक अौर अहदे इकबाल में शाइरों की तवज्जह गजल से कम हो गई थी । ऐसे दौर में हसरत मोहानी, पानी बदायूनी, असगर गोंडवी (1888-1940) जिगर मुरादाबादी (1890-1960) यगाना चंगेजी (1883-1956) वगैरा शाइरों ने गजल की अजमत को काइम किया।

रियाज खैराबादी, आरजू लखनवी, जलील मानकपुरी, अौर रघुपती सहाय फिराक गौरखपुरी वगैरा शाइरों ने गजल को मजीद पुख्तगी बख्शी। एहदे अकबाल (1900-1947) उर्दू नस्र में इमतियाजी हैसियत रखता है । इस एहद में मुख्तालिफ नस्री अस्नाफ को फरोग हासिल हुआ अौर बेशुमार उलूम व फनून की किताबें लिखी गईं । दूसरी जबानों से उर्दू में तर्जुमे किए गए । तर्जुमे में जामिआ उस्मानिया के दारूल तर्जुमा की खिदमात बेमिसाल हैं । इस एहद में अफसाना, नाविल मजमून निगारी, इंशाइया, तंकीद, सवानेह निगारी, अौर सहाफत को खूब फरोग हासिल हुआ । अब्दुल हलीम शरर (1860-1926), नियाज फतेहपुरी (1884-1966), मौलाना अबुल कलाम आजाद (1888-1958), मौलवी अब्दुल हक (1870-1961), अब्दुल माजिद दरियाबादी (1892-1960), ख्वाजा हसन निजामी (1878-1955), प्रेम चंद (1880-1936), मिर्जा हादी रूसवा (1858-1921), अली अब्बास हुसैनी (1897-1969), रशीद अहमद सिद्दीकी (1882-1977), पितरस बुखारी (1898-1958), कन्हैया लाल कपूर (1910-1986), अजीम बैग चुगताई, मुल्ला रमूजी, शौकत थानवी वगैरा एहम नस्र निगार हैं ।

बीसवीं सदी में पहली आलमी जंग के बाद हिन्दुस्तान में जद्दौजहदे आजादी की तहरीक ने जौर पकड़ना शुरू कर दिया था । अंग्रेजों के जुल्म रोज बरोज बढ़ते जा रहे थे । हर तरफ गरीबी फैलती जा रही थी । इस सूरते हाल में उर्दू अदब में इंकलाबे रूस के बाद 1935 में तरक्की पसंद तहरीक शुरू हुई। तरक्की पसंद तहरीक (प्रगतिवाद) मार्कसी नज़रियात की हामिल थी । अौर इशतिराकियत कम्यूनिजम को इंसानों की निजात का वाहिद जरिया समझती थी । सज्जाद जहीर, मुलक राज आनन्द, अहमद अली, दीन मोहम्मद तासीर, सपरू वगैरा ने इस तहरीक को हिन्दुस्तान में शुरू किया अौर उर्दू शेर व अदब में समाजी हकीकत निगारी अौर समाजी मसाईल के इजहार पर जौर दिया । इस तहरीक ने अदब को अवाम के करीब किया भूक, इफलास, समाजी पस्ती अौर गुलामी के हर मसाईल (समस्याऐं) को मौजू विषय बनाया । फैज अहमद फैज, मखदूम मुहय्युद्दीन, एहसान दानिश, असरारूल हक मजाज, मुईन एहसन जज्बी, जॉनिसार अख्तर, अली सरदार जाफरी, साहिर लुधयानवी, कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी, अहमद नदीम कासमी इस तहरीक के अहम शाइर हैं ।

ख्वाजा अहमद अब्बास, कृष्णचन्द्र, सआदत हसन मंटो, अजीज अहमद, राजेन्द्र सिंह बेदी, असमत चुगताई, ऊपेन्द्र नाथ अश्क, देवेन्द्र सत्यारथी, बलवंत सिंह, हयातुल्लाह अंसारी, इस तहरीक के एहम नाविल अौर अफसाना निगार हैं । सज्जाद जहीर, कृष्ण चन्द्र, मंटो, अश्क, राजेन्द्र  सिंह, कर्तार सिंह दुग्गल, हबीब तनवीर इस तहरीक के एहम ड्रामा निगार हैं । अख्तर हुसैन रायपुरी, मजून गोरखपुरी, मुम्ताज हुसैन, एहतिशाम हुसैन, डा. अब्दुल अलीम, आले अहमद सुरूर, इस तहरीक के एहम नक्काद है । तरक्की पसंद तहरीक से बावस्ता तमाम शाइर अौर अदीब अंजुमन तरक्की पसंद मुसन्निफीन के बाकायदा मेम्बर होते थे । जो सिर्फ अदीब व शाइर ही नहीं थे बल्कि अमली सियासत में अपना दखल रखते थे । इसी एहद में अंजुमन तरक्की पसंद मुसन्निफीन के बिलमुकाबिल हल्का – ए – अरबाबे जौक, कायम हुआ । 1939 में लाहोर में बज्मे दास्तान गोयान कायम हुई बाद में जिसका नाम बदल कर हल्का-ए-अरबाब जौक हो गया । हल्के से वाबस्ता मुसन्निफीन किसी नजरिये के कायल नहीं थे। यह अदब को अदबी मेयरों से जांचने पर जोर देते थे । हल्कें के शायरों अौर अदीबों ने उर्दू अदब में अलामत निगारी अौर तहलील नफशी (मनो विश्लेषण) पर जौर देने के साथ नज्म में नए तर्जुबें किए । आजाद नज्म (छन्द मुक्त) अौर मुअर्रा नजम को उन्होंने फरोग दिया । मीरा जी, न.म. राशिद, कयूम नजर, जिया जालंधरी, इंतिजार हुसैन (नाविल अौर अफसाना निगार) मजीद अमजद वगैरा हलके के एहम अदीब व शायर हैं ।

तरक्की पसंद तहरीक अपना किरदार अदा करके 1960 तक दम तोड़ चुकी थी । उस जमाने में हल्का-ए-अरबाब जौक के रवैये ने जोर पकड़ा । अौर रूसी नजरयात की बजाए अमेरिकी अौर फ्रांसीसी नज़रयात ने उर्दू अदब में जौर पकड़ा ज़िसके नतीजे में जदीदियत (आधूनिक वादे) की तहरीक शुरू हुई । जदीदियत ने अदब में हर नजरिये अौर फल्सफे की मुखालफत का दावा करते हुए वजूदियत (अस्तित्व वाद) से अपने रिश्ते बनाए अौर इरफान जात (सम्बोध) के साथ बनी बनाई कदरों से हट कर नई इकदार को कायम करने की कोशिश की । आदिल मंसूरी, मोहम्मद अलवी, जैब गौरी, नासिक काजमी, निदा फाजली, बशीर बदर, शहरयार, अजहर इनायती, इफतिखार आरिफ, मुनीर नियाजी, बलराज कोमल, जफर इकबालस मुशताक अहमद, खलीलुर्रहमान आजमी (वैगार शाइर) जोगेन्द्र पाल, इंतिजार हुसैन, कमर एहसन वगैरा अफसाना निगार एहम हैं । शमसुर्रहमान फारूकी, महमूद हाशमी, वारिस अलवी, शमीम हनफी, वहाब अशरफी वगैरा नाकेदीन एहम हैं । शमसुर्रहमान फारूकी जदीदियत के सबसे बड़े अल्मबर्दार हैं । 1990 के बाद जदादियत की इबहाम पसंदी अौर मुहमल इरफान जात की वजह से यह तहरीक भी आखरी सांसें लेने लगी । जिसके बाद मा बाट जदीदियत (उत्तर आधुनिक वाद) शुरू हुई जो आज तक जारी है । मा बाद जदीदियत, तरक्की पसंदी अौर जदीदियत से मिली जुली है । शहपर रसूल, फरहत एहसास, अहमद महफूज, जहीर रहमती, शारिक कैफी, वगैरा अफसाना निगार अौर नाविल निगार, गोपी चंद नारंग, वहाब अशरफी, अतीकुल्लाह, वजीर आगा, मौला बख्श असीर, कौसर मजहरी वगैरा एहम नाकदीन हैं । इस तहरीक के सबसे बड़े अलमबर्दार गोपी चंद नारंग हैं ।

कुर्रतुल एैन हैदर, काजी अब्दुल सत्तार उर्दू जबान के एहम नाविल निगार हैं यह मुसन्निफीन किसी तहरीक से वाबस्ता नहीं रहे ।

उर्दू में सहाफत (पत्रकारिता) का आगाज 1822 से होता है । जामे जहाँ नुमा उर्दू का पहला अखबार था । लेकिन उस जमाने में फारसी का गल्बा था इसलिए उर्दू सहाफत की तरक्की बहुत सुस्त रफ्तार रही । उर्दू अखबारात में भी फारसी के खुतूत छपते थे । इसीलिए जामे जहाँ नुमा उर्दू से फारसी में छपने लगा । 1830 में अंग्रेजों ने फारसी के बजाए उर्दू को सरकारी जबान का दर्जा दिया तो उर्दू की तालीम बढ़ गई अौर सरकारी काम काज उर्दू जबान में होने लगे । उर्दू सहाफत अंग्रेजी सहाफत के असर से शुरू हुई । इब्तिदा में उर्दू अखबारात हफ्त रोजा (साप्ताहिक) या सेह रोजा (तीन दिन) होते थे। उर्दू का दूसरा अखबार दिल्ली से दिल्ली अखबार शाए हुआ जिसके ऐडिटर मोहम्मद हुसैन आजाद के वालिद मौलवी मोहम्मद बाकर थे । 1940 में इस अखबार का नाम बदल कर दिल्ली उर्दू अखबार कर दिया गया अौर 1857 में इस अखबार का नाम बदल कर अखबारूल जफर कर दिया गया बहादुर शाह जफर के नाम पर 1857 की पहली जंगे आजादी में इस अखबार के ऐडिटर मौलवी मोहम्मद बाकर को अंग्रेजों ने गोली मार दी । मौलवी मोहम्मद बाकर जंगे आजादी के पहले शहीद सहाफी थे । दिल्ली उर्दू अखबार सबसे बेहतर अौर बाअसर अखबार था । उर्दू का तीसरा अखबार सैयदुल अखबार था जो दिल्ली से शाए होता था । इस अखबार के ऐडिटर सर सैयद अहमद खाँ के बड़े शई सैयद मोहम्मद खान थे। यह हफ्त रोजा अखबार 1837 से 1848 तक जारी रहा । इन अखबारात के बाद कई उर्दू के अखबारात शाए हुए ।

सद्दिकुल अखबार दिल्ली, कोहे नूर, ऐडिटर मुंशी हर सुख राय लाहोर, खैर ख्वाहे हिंद, मिर्ज़ापुर, (उर्दू का पहला रिसाला), ऐडिटर पादरी आर. सी. माथुर, करनुस साअदैन 1945 दिल्ली कॉलेज से शाए हुआ । फवाइदुल नाज़रीन, ऐडिटर मास्टर राम चन्द्र, 1845, मुहिबे हिंद, रिसाला 1847 ऐडिटर मास्टर राम चन्द्रा 1857 के बाद उर्दू सहाफत एक नए तर्ज के साथ सामने आई । 1858 में उर्दू का पहला रोजनामा उर्दू गाइड कलकत्ता से शाए हुआ जिसके ऐडिटर मौलवी करीमुद्दीन थे ।

हफ्त रोजा अखबार साईंटिफिक सोसायटी ऐडिटर सर सैयद अहमद खाँ 1864, तहजीबुल अखलाक रिसाला ऐडिटर सर सैयद अहमद खाँ 1879, हफ्त रोजा अवध पंज मालिक मुंशी सज्जाद हुसैन 1877, पैसा अखबार ऐडिटर महबूब आलम 1867, जमींदार ऐडिटर महबूब आलम 1881, माहनामा उर्दू-ए-मुअल्ला 1903 ऐडिटर हसरत मोहनी, हमदर्द एडिटर मौलाना मोहम्मद अली जोहर 1913, हफ्त रोजा अल् हिलाल, अबुल कलाम आजाद 1912 कल्कत्ता, मदीना बिजनौर मालिक मजीद हसन 1912 उर्दू के अहम अखबार है आजादी के पहले के उर्दू के दूसरे अखबारात अल् जमीअत, अल् हिलाल, दौरे जदीद, दावत नई दुनिया, मिलाप, प्रताप, तेज, सवेरा, कौमी आवाज वगैरह है । 1857 की जंगे आजादी से 1947 तक आजादी की हुसूलयाबी में उर्दू सहाफत ने एक बड़ा एहम रोल अदा किया। उर्दू सहाफत ने हमेशा दो कौमी नजरिये की मुखालफत की अौर हिन्दु मुस्लिम इत्तिहाद पर जौर दिया साथ ही जद्दोजहेदे आजादी के लिए अवाम के दिलों मे मुल्क व कौम के जज्बे को बैदार किया जिसके नतीजे में बहुत से उर्दू सहाफियों को जेल की मुसीबतें झेलनी पडीं  1947 तक हिन्दुस्तान के मुख्तलिफ इलाकों से 1547 हफ्त रोजा अौर रोजनामा शाए हुआ करते हैं । आजादी के बाद उर्दू सहाफत पर बुरा वक्त पड़ा क्योंकि हिन्दी उर्दू के झगड़े अौर उर्दू जबान के बजाए हिन्दी जबान को सरकारी जबान का दर्जा हासिल होने के बाद उर्दू अखबारात की रीडर शिप कम हो गई । मौजूदा दौर में उर्दू अखबारात में रोजनामा राष्ट्रीय सहारा, रोजनामा सियासत, रोजनामा इंकलाब, रोजनामा सहाफत, रोजनामा हिन्दुस्तान, एक्सप्रेस रोजनामा, अजीजुल हिन्द, रोजनामा अवाम, हफ्त रोजा नई दुनिया वगैरा एहम अखबार हैं। इसके अलावा बहुत से उर्दू अखबारात जिला सतह पर भी शाय होते हैं । मौजूदा दौर में छोटे बड़े अखबारात व रसाईल की तादाद तकरीबन 1500 है । उर्दू के अखबारात व रसाईल से उर्दू जबान व अदब को भी फरोग हासिल हुआ । शबखून, आजकल, ऐवाने उर्दू, वगैरा उर्दू के अदबी रसाइल हैं।

उर्दू जबान व अदब की तर्वीज व इशाअत (प्रचार व प्रसार) में उर्दू जबान के समाजी इदारों (समाजी संस्थानों) का भी बहुत बड़ा रोल रहा है । यह समाजी इदारे मुशायरा, कव्वाली, गजल गायकी, मुजरे, मरसिया ख्वानी, मस्नवी ख्वानी, दास्तान सराई, मीलाद ख्वानी, चहारबैत वगैरा हैं । समाजी इदारों ने उर्दू जबान व अदब का रिश्ता अवाम से बराहे रास्त कायम किया अौर उर्दू शेरो अदब को अवाम के दिलों में बिठा दिया । उर्दू शेर व अदब को इन समाजी इदारों की पुश्त पनाही हमेशा से हासिल रही है । जिसमें रोज बरोज तरक्की होती रही । इसी लिए उर्दू जबान सियासी रस्सा कशी का शिकार होकर भी आज भी हिन्दुस्तान में जिंदा है अौर इसकी जड़ें रोज बरोज गहरी होती जा रही हैं । उर्दू जबान व अदब की सबसे बड़ी खुससियत इसका सैकूलर किरदार है । उर्दू शेर व अदब ने हमेशा मजहबी इंतिहा पसंदी की मुखलफत की अौर इश्क व मुहब्बत पर जोर दिया ।

उर्दू शेर व अदब की नस्री अौर शेरी अस्नाफ फारसी अौर अंग्रेजी जबान व अदब से आई है । अस्नाफ दास्तान (नस्र), कसीदा, मरसिया, गजल, कतआ, रूबाई, मस्नवी, मुस्तजाद, फारसी से ड्रामा, सवानेह उमरी, मजमून, इंशाइया, तंकीद (नस्र में) पाबंद नज्म, आजाद नज्म, नस्री नज्म, नसरी नज्म, सानेट, तराइले, अोपेरा अंग्रेजी से अौर हाईको वगैरह जापानी अदब से उर्दू में आई हैं । दोहा, गीत, हिन्दुस्तानी अदब से उर्दू में आए हैं । उर्दू जबान में अंग्रेजी जबान की अस्नाफ का फरोग 1857 के बाद शुरू हुआ ।

उर्दू गीत

वो मासूम अल्लड़ जवानी हैं उर्दू

कन्हैया के दिल की कहानी है उर्दू

वो खुसरों की गोरी, कुतुब की पियारी

वली के नयन की रवानी है उर्दू

कबीरा का बाज़ार सौदा का लश्कर

अदा सोज की, बेजबानी है उर्दू

गुल अफशानियाँ वो नसीम-अो-हसन की

वो गालिब की रंगीं बयानी है उर्दू

वो अठखेलियाँ दाग की, दर्द का गम

जफर के अलम की निशानी है उर्दू

अनीस अौर इक्बाल का जोश–आहंग

नज़ी अौर नानक की बानी है उर्दू

वो माँ के लबों पर रसीली सी लोरी

वो परयों की मीठी कहानी है उर्दू

ज़बाँ मीर की अौर मीरा की बोली

मोहब्बत में पागल दीवानी है उर्दू

बस आँचल है शीरीं का राधा के सर पे

दिल-अो-जाँ से हिन्दोस्तानी है उर्दू

– डॉ. ज़हीर रहमती