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परिचय

मूल नाम : चंद्रधर शर्मा गुलेरी

जन्म : 7 जुलाई,1883

भाषा : हिंदी

विधाएँ : कहानी, शिलालेख

विशेष

चंद्रधर शर्मा गुलेरी (7 जुलाई,1883- 12 सितंबर, 1922) हिंदी के अतिविशिष्ट कथाकार हैं। इनके पिता पंडित शिवराम शास्त्री ख्यातिनाम व्यक्ति थे|मूलतः हिमाचल प्रदेश के गुलेर गाँव के वासी ज्योतिर्विद महामहोपाध्याय पंडित शिवराम शास्त्री राजसम्मान पाकर जयपुर (राजस्थान) में बस गए थे। उनकी तीसरी पत्नी लक्ष्मीदेवी ने सन् 1883 में चन्द्रधर को जन्म दिया। घर में बालक को संस्कृत भाषा, वेद, पुराण आदि के अध्ययन, पूजा-पाठ, संध्या-वंदन तथा धार्मिक कर्मकाण्ड का वातावरण मिला और मेधावी चन्द्रधर ने इन सभी संस्कारों और विद्याओं आत्मसात् किया। आगे चलकर उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा भी प्राप्त की और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से एफ. ए. (प्रथम श्रेणी में द्वितीय और प्रयाग विश्वविद्यालय से बी. ए. (प्रथम श्रेणी में प्रथम) करने के बाद चाहते हुए भी वे आगे की पढ़ाई परिस्थितिवश जारी न रख पाए हालाँकि उनके स्वाध्याय और लेखन का क्रम अबाध रूप से चलता रहा। बीस वर्ष की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे सम्बन्धित शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने “द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स” शीर्षक अंग्रेज़ी ग्रन्थ की रचना की। जयपुर वेधशाला के यंत्रों पर लगे जीर्णोद्धार तथा शोध-कार्य विषयक शिलालेखों पर ‘चंद्रधर गुलेरी’ नाम भी खुदा हुआ है।

अपने अध्ययन काल में ही उन्होंने सन् 1900 में जयपुर में नागरी मंच की स्थापना में योग दिया और सन् 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार भी सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे।

जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेनेवाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। सन् 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। सन् 1920 में पं॰ मदन मोहन मालवीय के प्रबंध आग्रह के कारण उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मनीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार भी ग्रहण किया।

इस बीच परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी उन्हें झेलने पड़े। सन् 1922 में 12 सितम्बर को पीलिया के बाद तेज ज्वर से मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में उनका देहावसान हो गया |उन्होंने बेहद कम लिखा. पर जो भी लिखा बेहद सराहा गया. उनकी कहानी उसने कहा था हिन्दी की कालजयी रचना मानी जाती है. प्रस्तुत है ,उनकी कुछ  कहानियाँ और एक निबन्ध 

 

कहानियाँ

 

उसने कहा था

 
डे-बडे शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जवान के कोड़ो से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगायें। जब बडे़-बडे़ शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लङ्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर, ‘बचो खालसाजी। “हटो भाईजी।”ठहरना भाई जी।”आने दो लाला जी।”हटो बाछा।’ – कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पडे़। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं – ‘हट जा जीणे जोगिए’; ‘हट जा करमा वालिए’; ‘हट जा पुतां प्यारिए’; ‘बच जा लम्बी वालिए।’ समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा। ऐसे बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दूकान पर आ मिले।
उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बडि़यां। दुकानदार एक परदेसी से गुँथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
“तेरे घर कहाँ है?”
“मगरे में; और तेरे?”
“माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?”
“अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।”
“मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ , उनका घर गुरूबाजार में हैं।”
इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुस्करा कर पूछा, “तेरी कुड़माई हो गई?”
इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।
दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, ‘तेरी कुडमाई हो गई?’ और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरूध्द बोली, “हाँ, हो गई।”
“कब?”
“कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।”
लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ी वाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।

“राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाडा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं – घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है।
इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का ज़लज़ला सुना था, यहाँ दिन में पचीस ज़लज़ले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।”
“लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिये। परसों रिलीफ आ जायेगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में – मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो , मेरे मुल्क को बचाने आये हो।”
“चार दिन तक पलक नहीं झपपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाए। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर न लौटँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े – संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था – चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो… ”
“नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?” सूबेदार हजारा सिंह ने मुस्कराकर कहा – “लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बडे अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?”
“सूबेदारजी, सच है,” लहनसिंह बोला – “पर करें क्या? हड्डियों में तो जाड्डा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाए।”
“उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदल ले।” – यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।
वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला – “मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!” इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गये।
लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा – “अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।”
“हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा जमीन यहाँ मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।”
“लाडी होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलाने वाली फरंगी मेम…”
“चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।”
“देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ेगा नहीं।”
“अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?”
“अच्छा है।”
“जैसे मैं जानता ही न होऊँ! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी क़े सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी क़े तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न मंदे पड़ जाना। जाडा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।”
“मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।”
वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा – “क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक ! हाँ, भाइयों, कैसे?”
दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए —
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
कद्द बणाया वे मजेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।
कौन जानता था कि दाढ़ियां वाले, घर-बारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों!
रात हो गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिस्कुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
“क्यों बोधा भाई¸ क्या है?”
” पानी पिला दो।”
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा — ” कहो कैसे हो?” पानी पी कर बोधा बोला – ” कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।”
” अच्छा¸ मेरी जरसी पहन लो !”
” और तुम?”
” मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।”
” ना¸ मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए…”
” हाँ¸ याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें¸ गुरू उनका भला करें।” यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।
” सच कहते हो?”
“और नहीं झूठ?” यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा भर थी।
आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज आई – ” सूबेदार हजारासिंह।”
” कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर !” – कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।
” देखो¸ इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं¸ जब तक दूसरा हुक्म न मिले डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।”
” जो हुक्म।”
चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें¸ इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गये और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा- ” लो तुम भी पियो।”
आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला – ” लाओ साहब।” हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?”
शायद साहब शराब पिये हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया हैं! लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
” क्यों साहब¸ हमलोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?”
” लड़ाई खत्म होने पर। क्यों¸ क्या यह देश पसंद नहीं?”
” नहीं साहब¸ शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है¸ पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गये थे!
हाँ- हाँ, वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था!
‘बेशक पाजी कहीं का!’
सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्‌ठे में निकली। ऐसे अफ़सर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब¸ शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगायेंगे।
‘हाँ, पर मैंने वह विलायत भेज दिया।’
” ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?”
” हाँ¸ लहनासिंह¸ दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?”
” पीता हूँ। साहब¸ दियासलाई ले आता हूँ।” कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।
” कौन? वजीरसिंह?”
” हां¸ क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?”
” होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।”
” क्या?”
” लपटन साहब या तो मारे गये है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है¸ पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।”
” तो अब!”
” अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरा¸ कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो¸ एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।
सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ¸ खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।”
“हुकुम तो यह है कि यहीं– ”
” ऐसी तैसी हुकुम की ! मेरा हुकुम — जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफसर है¸ उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।”
” पर यहाँ तो सिर्फ तुम आठ हो।”
” आठ नहीं¸ दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।”
लौट कर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बांध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी¸ जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने ही वाला था कि बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दूक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब ‘आँख मीन गौट्‌ट’कहते हुए चित्त हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला – ” क्यों लपटन साहब! मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो¸ ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिन ‘डेम’के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।”
लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए¸ दोनों हाथ जेबों में डाले।
लहनासिंह कहता गया – ” चालाक तो बड़े हो पर माझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिये चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रूपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो…”
साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आये।
बोधा चिल्लाया- ” क्या है?”
लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि ‘एक हड़का हुआ कुत्ता आया था¸ मार दिया’और¸ औरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था – वह खड़ा था और¸ और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे।
अचानक आवाज आई ‘वाह गुरूजी का खालसा, वाह गुरूजी की फतह!!’और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।
एक किलकारी और – ‘अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरूजी दी फतह! वाह गुरूजी दा खालसा! सत श्री अकालपुरूख!!!’और लड़ाई खत्म हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खन्दक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव -भारी घाव लगा है।
लड़ाई के समय चाँद निकल आया था¸ ऐसा चाँद¸ जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्‌ट की भाषा में ‘दन्तवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाडियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घण्टे के अन्दर-अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएंगे¸ इसलिये मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गये और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जायेगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा – ” तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनीजी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।”
” और तुम?”
” मेरे लिये वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिये भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ, वजीरासिंह मेरे पास है ही।”
“अच्छा, पर..”
“बोधा गाड़ी पर लेट गया, भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।”
गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा- ” तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा, साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?”
“अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।”
गाड़ी के जाते लहना लेट गया। – ” वजीरा पानी पिला दे¸ और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।”
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।
लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दही वाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब ‘धत्‌’ कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा – ” हाँ, कल हो गई¸ देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू!’सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?”
” वजीरासिंह¸ पानी पिला दे।”
पचीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी¸ या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है¸ फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
जब चलने लगे¸ तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला-” लहना¸ सूबेदारनी तुमको जानती हैं¸ बुलाती हैं। जा मिल आ।” लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर ‘मत्था टेकना’कहा। आसीस सुनी। लहनासिंह चुप।
मुझे पहचाना?”
“नहीं।”
‘तेरी कुड़माई हो गई -धत्‌ -कल हो गई – देखते नहीं¸ रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में.. ‘
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
‘वजीरा¸ पानी पिला’- ‘उसने कहा था।’
स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है – ” मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है¸ लायलपुर में जमीन दी है¸ आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पल्टन क्यों न बना दी¸ जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए¸ पर एक भी नहीं जीया।’ सूबेदारनी रोने लगी। ‘अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे¸ आप घोड़े की लातों में चले गए थे¸ और मुझे उठा-कर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।’
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।
‘वजीरासिंह¸ पानी पिला दे’ – ‘उसने कहा था।’
लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है¸ तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा¸ फिर बोला – “कौन ! कीरतसिंह?”
वजीरा ने कुछ समझकर कहा- ” हाँ।”
” भइया¸ मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।” वजीरा ने वैसे ही किया।
“हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस¸ अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था¸ उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।”
वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।
कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा – फ्रान्स और बेलजियम — 68 वीं सूची — मैदान में घावों से मरा – नं 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह।

                     बुद्धू का काँटा – कहानी

घुनाथ प् प् प्रसाद त् त् त्रिवेदी – या रुग्‍नात् पर्शाद तिर्वेदी – यह क्या?
क्या करें, दुविधा में जान हैं। एक ओर तो हिंदी का यह गौरवपूर्ण दावा है कि इसमें जैसा बोला जाता है वैसा लिखा जाता है और जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है। दूसरी ओर हिंदी के कर्णधारों का अविगत शिष्टाचार है कि जैसे धर्मोपदेशक कहते हैं कि हमारे कहने पर चलो, वैसे ही जैसे हिंदी के आचार्य लिखें वैसे लिखो, जैसे वे बोलें वैसे मत लिखो, शिष्टाचार भी कैसा? हिंदी साहित्य-सम्मेलन के सभापति अपने व्याकरणकषायति कंठ से कहें ‘पर्षोत्तमदास’ और ‘हर्किसन्लाल’ और उनके पिट्ठू छापें ऐसी तरह कि पढ़ा जाए – ‘पुरुषोत्तमदास अ दास अ’ और ‘हरि कृष्णलाल अ’! अजी जाने भी दो, बड़े-बड़े बह गए और गधा कहे कितना पानी! कहानी कहने चले हो, या दिल के फफोले फोड़ने?

अच्छा, जो हुकुम। हम लाला जी के नौकर हैं, बैंगनों के थोड़े ही हैं। रघुनाथप्रसाद त्रिवेदी अब के इंटरमीडिएट परीक्षा में बैठा है। उसके पिता दारसूरी के पहाड़ के रहनेवाले और आगरे के बुझातिया बैंक के मैनेजर हैं। बैंक के दफ्तर के पीछे चौक मे उनका तथा उनकी स्त्री का बारहमासिया मकान है। बाबू बड़े सीधे, अपने सिद्धांतों के पक्के और खरे आदमी हैं जैसे पुराने ढंग के होते हैं। बैंक के स्वामी इन पर इतना भरोसा करते है कि कभी छुट्टी नहीं देते और बाबू काम के इतने पक्‍के हैं कि छुट्टी माँगते नहीं। न बाबू वैसे कट्टर सनातनी हैं कि बिना मुँह धोए ही तिलक लगा कर स्‍टेशन पर दरभंगा महराज के स्वागत को जाएँ और न ऐसे समाजी ही हैं कि खँजड़ी ले कर ‘तोड़ पोपगढ़ लंका का’ करने दौड़ें। उसूलों के पक्के हैं।

हाँ, उसूलों के पक्के हैं। सुबह का एक प्याला चाय पीते हैं तो ऐसा कि जेठ में भी नही छोड़ते और माघ में भी एक के दो नहीं करते। उर्द की दाल खाते हैं, क्‍या मजाल की बुखार में भी मूँग की दाल का एक दाना खा जाएँ। आजकल के एम.ए., बी.ए. पासवालों को हँसते हैं कि शेक्सपीयर और बेकन चाट जाने पर भी वे दफ्तर के काम की अंगरेजी-चिट्टी नहीं लिख सकते। अपने जमाने के साथियों को सराहते हैं जो शेक्सपीयर के दो-तीन नाटक न पढ़ कर सारे नाटक पढ़ते थे, डिक्शनरी से अंगरेजी शब्‍दों के लैटिन धातु याद करते थे। अपने गुरु बाबू प्रकाश बिहारी मुखर्जी की प्रशंसा रोज करते थे कि उन्होंने ‘लायब्रेरी इम्तहान’ पास किया था। ऐसा कोई दिन ही बीतता होगा (निगोशिएबल इन्सट्रूमेंट ऐक्ट के अनुसार होने वाली तातीलों को मत गिनिए) कि जब उनके ‘लायब्रेरी इम्‍तहान’ का उपाख्यान नए बी.ए. हेडक्लर्क को उसके मन और बुद्धि की उन्‍नति के लिए उपदेश की तरह नहीं सुनाया जाता हो। लाट साहब ने मुकर्जी बाबू को बंगाल-लायब्रेरी में जा कर खड़ा कर दिया। राजा हरिश्‍चंद्र के यज्ञ में बलि के खूँटे में बँधे हुए शुन:शेप की तरह बाबू आलमारियों की ओर देखने लगे। लाट साहब मनचाहे जैसी आलमारियों से मनचाहे जैसी किताब निकाल कर मनचाहे जहाँ से पूछने लगे। सब अलमारियाँ खुल गईं, सब किताबें चुक गईं, लाट साहब की बाँह दुख गई, पर बाबू कहते-कहते नहीं थके; लाट साहब ने आने हाथ से बाबू को एक घड़ी दी और कहा कि मैं अंगरेजी-विद्या का छिलका ही भर जानता हूँ, तुम उसकी गिरी खा चुके हो। यह कथा पुराण की तरह रोज कही जाती थी।

इन उसूल-धन बाबू जी का एक उसूल यह भी था कि लड़के का विवाह छोटी उमर में न‍हीं करेंगे। इनकी जाति में पाँच-पाँच वर्ष की कन्याओं के पिता लड़केवालों के लिए वैसे मुँह बाए रहते हैं जैसे पुष्कर की झील में मगरमच्छ नहानेवालों के लिए; और वे कभी-कभी दरवाजे पर धरना दे कर आ बैठते थे कि हमारी लड़की लीजिए, नहीं तो हम आपके द्वार पर प्राण दे देंगे। उसूलों के पक्के बाबू जी इनके भय से देश ही नहीं जाते थे और वे कन्या-पिता-रूपी मगरमच्छ अपनी पहाड़ी गोह को छोड़ कर आगरे आ कर बाबू जी की निद्रा को भंग करते थे। रघुनाथ की माता को सास बनने का बड़ा चाव था। जहाँ वह कुछ कहना आरंभ करती कि बाबू जी बैंक की लेजर-बुक खोल कर बैठ जाते या लकड़ी उठा कर घूमने चले देते। बहस करके स्त्रियों से आज तक कोई नहीं जीता, पर मष्ट मार कर जीत सकता है।

बाबू के पड़ोस में एक विवाह हुआ था। उस घर की मालकिन लाहना बाँटती हुई रघुनाथ की माँ के पास आई। रघुनाथ की माँ ने नई बहू को असीस दी और स्वयं मिठाई रखने तथा बहू की गोद में भरने के लिए कुछ मेवा लाने भीतर गई। इधर मुहल्ले की वृद्धा ने कहा – ‘पंद्रह बरस हो गए लाहना लेते-लेते। आज तक एक बतासा भी इनके यहाँ से नहीं मिला।’ दूसरी वृद्धा, जो तीन बड़ी और दो छोटी पतोहू की सेवा से इतनी सुखी थी कि रोज मृत्यु को बुलाया करती थी, बोली, ‘बड़े भागों से बेटों को ब्याह होता है।’

तीसरी ने नाक की झुलनी हिला कर कहा – ‘अपना खाने-पहनने का लोभ कोई छोड़े तब तो बेटे की बहू लावे। बहू के आते ही खाने-पहनने में कमी जो हो जाती है।’ चौथी ने कहा – ‘ऐसे कमाने-खाने जो आग लगे। यों तो कुत्ते भी अपना पेट भर लेते हैं। कमाई सफल करने का यही तो मौका होता है। इसके पति ने चारों बेटों के विवाह में मकान और जमीन गिरवी रख दिए थे और कम-से-कम अपने जीवन भर के लिए कंगाली का कंबल ओढ़ लिया था।’

अवश्य ही ये सब बातें रघुनाथ की माँ को सुनाने के लिए कही गई थीं। रघुनाथ की माँ भी जानती थी कि ये मुझे सुनाने को कही जा रही हैं। परंतु उसके आते ही मुहल्ले की एक और ही स्‍त्री की निंदा चल पड़ी और रघुनाथ की माँ यह जान कर भी कि उस स्त्री के पास जाते ही मेरी भी ऐसी ही निंदा की जाएगी, हँसते-हँसते उसकी बातों में सम्मति देने लग गई। पतोहुओं से सुखिनी बुढ़ि‍या ने एक हलके से अनुदात्त से कहा – ‘अब तू रघुनाथ का ब्याह इस साल तो करोगी ?’ ‘उसके चाचा जानें, गहने तो बनवा रहें’ – रघुनाथ की माँ ने भी वैसे ही हलके उदात्त से उत्तर दिया। उसके अनुदात्त को यह समझ गई और इसके उदात्त को वे सब। स्वर का विचार हिंदुस्तान के मर्दों की भाषा में भले ही न रहा हो, स्त्रियों की भाषा में उससे अब भी कई अर्थ प्रकाश किए जाते हैं।

‘मैं तुम्हें सलाह देती हूँ कि जल्दी रघुनाथ का ब्याह कर लो। कलयुग के दिन हैं, लड़का बोर्डिंग में रहता है, बिगड़ जाएगा। आगे तुम्हारी मर्जी, क्यों बहन सच है न? तू क्यों नहीं बोलती ?’

‘मैं क्या कहूँ, मेरे रघुनाथ-सा बेटा होता तो अब तक पोता खिलाती।’ यों और दो-चार बातें करके यह स्त्रीदल चला गया और गृहिणी के हृदय-समुद्र को कई विचारों की लहरों से दलकता हुआ छोड़ गया।

सायंकाल भोजन करते समय बाबू बोले, ‘इन गर्मियों में रघुनाथ का ब्याह कर देंगे।’

स्त्री ने पहले ही लेजर और छड़ी छिपा कर ठान ली थी कि आज बाबू जी को दबाऊँगी कि पड़ोसियों की बोलियाँ नहीं सही जातीं। अचानक रंग पहले चढ़ गया। पूछने लगी – ‘हें आज यह कैसे सूझी?’

‘दारसूरी से भैया की चिट्ठी आई है। बहुत कुछ बातें लिखी हैं। कहा है कि तुम तो परदेशी हो गए। यहाँ चार महीने बाद वृहस्पति सिंहस्त हो जाएगा; फिर डेढ़-दो वर्ष तक ब्याह नहीं होंगे। इसलिए छोटी-छोटी बच्चियों के ब्याह हो रहे हैं, बृहस्पति के सिंह के पेट में पहुँचने के पहले कोई चार-पाँच वर्ष की लड़की नही बचेगी। फिर जब बृहस्पति कहीं शेर की दाढ़ में से जीता-जागता निकल आया तो न बराबर का घर मिलेगा, न जोड़ की लड़की। तुम्‍हें क्या है, गाँव में बदनाम तो हम हो रहे हैं। मैंने अभी दो-तीन घर रोक रखे हैं। तुम जानो, अब के मेरा कहना न मानोगे तो मैं तुमसे जन्म-भर बोलने का नहीं।’

‘भैया ठीक तो कहते हैं।’

‘मैं भी मानता हूँ कि अब लड़के को उन्नीसवाँ वर्ष है। अब के इंटरमीडिएट पास हो जाएगा। अब हमारी नहीं चलेगी, देवर-भौजाई जैसा नचाएँगे, वैसा ही नाचना पड़ेगा। अब तक मेरी चली, यही बहुत हुआ।’

‘भैया की कहो, मेरा कहना तो पाँच वर्ष से मान रहे हो।’

‘अच्छा अब जिदो मत। मैंने दो महीने की छुट्टी ली है। छुट्टी मिलते ही देश चलते हैं। बच्‍चा को लिख दिया है कि इम्तहान देकर सीधा घर चला आ। दस-पंद्रह दिन में आ जाएगा। तब तक हम घर भी ठीक कर लें औ दिन भी। अब तुम आगरे बहु को ले कर आओगी।’

स्त्री ने सोचा, बताशेवाली बुढ़ि‍या का उलाहना तो मिटेगा।

2

‘बा’छा मेरे हाल में आपका क्या जी लगेगा? गरीबों का क्या हाल? रब रोटी देता है, दिन-भर मेहनत करता हूँ, रात पड़े रहता हूँ। बा’छा, तुम जैसे साईं लोकों की बरकत से मैं हज कर आया, ख्वाजा का उर्स देख आया, तीन बेले नमाज पढ़ लेता हूँ, और मुझे क्या चाहिए? बा’छा, मेरा काम टट्टू चलाना नहीं है। अब तो इस मोती की कमाई खाता हूँ, कभी सवार ले जाता हूँ, कभी लादा, ढाई मण कणक पा लेता हूँ, तो दो पौली बच जाती है। रब की मरजी, मेरा अपना घर था; सिंहों के वक्त की माफी जमीन थी, नाते पड़ोसियों में मेरा नाम था। मैं धामपुर के नवाब का खाना बनाता था और मेरे घर में से उसके जनाने में पकाती थी। एक रात को मैं खाना बना-खिला के अपनी मँजडी पर सोया था कि मेरे मौला ने मुझे आवाज दी – ‘लाही, लाही, हज कर आ।’ मैं आँखें मल कर खड़ा हो गया, पर कुछ दिखा नहीं। फिर सोने लगा कि फिर वही आवाज आई कि ‘लाही, तू मेरी पुकार नहीं सुनता? जा हज कर आ।’ मैं समझा, मेरा मौला मुझे बुलाता है। फिर आवाज आई – ‘लाही, चल पड़; मैं तेरे नाल हूँ, मैं तेरा बेड़ा पार करूँगा।’ मुझसे रहा नहीं गया। मैंने अपना कंबल उठाया और आधी रात को चल पड़ा। बा’छा, मैं रातों चला, दिनों चला, भीख माँग कर चलते-चलते बंबई पहूँचा। वहाँ मेरे पल्ले टका नहीं था, पर एक हिंदू भाई ने मुझे टिकट ले लिया। काफले के साथ मैं जहाज पर चढ़ गया। वहीं मुझे छ: महीने लगे। पूरी हज की। जब लौटा तो रास्ते में जहाज भटक गया। एक चट्टान पानी के नीचे थी, उससे टकरा गया। उसके पीछे की दोनों लालटेन ऊपर आ गईं और वे हमे शैतान की-सी आँख दिखाई देने लगीं। सबने समझा मर जाएँगे, पानी में गोर बनेगी। कप्‍तान ने छोटी किश्तियाँ खोलीं और उनमें हाजियों को बिठा कर छोड़ दिया। मर्द का बच्चा आप अपनी जगह से नही टला, जहाज के नाल डूब गया। अँधेरे में कुछ सूझता नहीं था। सबेरा होते ही हमने देखा कि, दो कश्तियाँ बह रही हैं और जहाज है, न दूसरी कश्तियाँ। पता ही नहीं, हम कहाँ से किधर जा रहे थे। लहरें हमारी कश्तियों को उछालती, नचाती, डुबाती, झकझोरती थीं। जो लहमा बीतता था, हम खैर मनाते थे। पर मेरे मालिक ने करम किया। मेरे अल्‍लाह ने, मेरे मौला ने जैसे उस रात को कहा था, मेरा बेड़ा पर किया। तीन दिन, तीन रात हम हम बेपते रहे – चौथे दिन माल के जहाज ने हमको उठा लिया और छठे दिन कराची में हमने दुआ की नमाज पढ़ी। पीछे सुना की तीन सौ हाजी मर गए।

‘वहाँ से मैं ख्वाजा की जियारत को चला, अजमेर शरीफ में दरगाह का दीदार पाया। इस तरह बा’छा, साढ़े सात महीने पीछे मैं घर आया। आ कर घर देखता हूँ कि सब पटरा हो गया है। नवाब जब सबेरे उठा तो उसने नाश्ता माँगा। नौकरों ने कहा कि इलाही का पता नहीं। बस, वह जल गया। उसने मेरा घर फुँकवा दिया, मेरी जमीन अपनी रखवाल के भाई को दे दी और मेरी बीबी को लौंडी बना कर कैद कर लिया। मैं उसका क्या ले गया था, अपना कंबल ले गया था। और पिछले तीन महीने की तलब अपनी पेटी में उसके बावर्चीखाने में रख गया था। भला, मेरा मौला बुलावे और मैं न जाऊँ? पर उसको जो एक घंटा देर से खाना मिला, इससे बढ़ कर और गुनाह क्या होता?

‘इसके पंद्रहवें दिन जनाने में एक सोने की अंगूठी खो गई। नवाब ने मेरी घरवाली पर शक किया। उसने पूछा तो वह बोली कि मेरा कौन-सा घर और घरवाला बैठा है कि उसके पास अँगूठी ले जाऊँगी। मैं तो यहीं र‍हती हूँ। सीधी बात थी, पर उसने सुनी नहीं गई। जला-भुना तो था ही, बेंत ले कर लगा मारने। बा’छा, मैं क्‍या कहूँ, मौला मेरा गुनाह बख्शे, और पाँच बरस हो गए हैं। पर जब मैं घरवाली की पीठ पर पचासों दागों की गुच्छियाँ देखता हूँ, तो यही पछतावा रहता है कि रब ने उस सूर का (तोबा! तोबा!) गला घोंटने को यहाँ क्‍यों रखा। मारते-मारते जब मेरी घरवाली बेहोश हो गई तब डर कर उसे गाँव के बाहर फिकवा दिया। तीसरे दिन वह वहाँ से घिसटती-घिसटती चल कर अपने भाई के यहाँ पहुँची।’

रघुनाथ ने रुँधे गले से कहा, ‘तुमने फरयाद नहीं की ?’

‘कचहरियाँ गरीबों के लिए नहीं हैं, बा’छा, वे तो सेठों के लिए हैं। गरीबों की फरयाद सुननेवाला सुनता है। उसने पंद्रह दिन में सुन कर हुकुम भी दे दिया। मेरी औरत को मारते-मारते उस पाजी के हाथ की अँगुली में बेंत की एक सली चुभ गई थी। वही पक गई। लहू में जहर हो गया। पंद्रहवें दिन मर गया। हज से आ कर मैंने सारा हाल सुना। अपने जेल घर को देखा और अपने परदादे की सिंहों की माफी जमीन को भी देखा। चला आया। मसजिद में जा कर रोया। मेरे मौला ने मुझे हुकुम दिया, ‘लाही, मैं तेरे नाल हूँ, अपनी जोय को धीरज दे।’ मैं साले के यहाँ पहुँचा। उसने पच्चीस रुपए दिए, मैं टट्टू मोल ले कर पहाड़ चला आया और यहाँ रब का नाम लेता हूँ और आप जैसे साईं लोगों की बंदगी करता हूँ। रब का नाम बड़ा है।’

रघुनाथ इम्तहान दे कर रेल से घराठनी तक आया। वहाँ तीस मील पहाड़ी रास्ता था। दूरी पर चूने के-से ढेर चमकते दिखने लगे, जो कभी न पिघलनेवाली बर्फ के पहाड़ थे। रास्‍ता साँप की तरह चक्कर खाता था। मालूम होता की एक घाटी पूरी हो गई है, पर ज्योंही मोड़ पर आते, त्योंही उसकी जड़ में एक और आधी मील का चक्‍कर निकल पड़ता। एक ओर ऊँचा पहाड़, दूसरी ओर ढाई फुट गहरी खड्ड। और किराये के टट्टुओं की लत की सड़क सड़क के छोर पर चलें जिससे सवार की एक टाँग तो खड्ड पर ही लटकी रहे। आगे वैसा ही रास्ता, वैसी ही खड्ड, सामने वैसे ही कोने पर चलनेवाले टट्टू। जब धूप बढ़ी और जी न लगा तो मोती के स्वामी इलाही से रघुनाथ ने उसका इम्तहान पूछा। उसने जो सीधी और विश्वास से भरी, दु:ख की धाराओं से भीगी हुई कथा कही, उससे कुछ मार्ग कट गया। कितने गरीबों का इतिहास ऐसी चित्र-घटनाओं की धूपछाया से भरा हुआ है। पर हम लोग प्रकृति के इन सच्चे चित्रों को न देख कर उपन्यासों की मृगतृष्णा में चमत्कार ढूँढ़ते हैं।

धूप चढ़ गई थी कि वे एक ग्राम में पहुँचे। गाँव के बाहर सड़क के सहारे एक कुआँ था और उसी के पास एक पेड़ के नीचे इलाही ने स्वयं और अपने मोती के लिए विश्राम करने का प्रस्ताव किया। ‘घोड़े को न्हारी दे कर और पानी-वानी पी कर धूप ढलते ही चल देंगे और बात-की-बात में आपको घर पहुँचा देंगे।’ रघुनाथ को भी टाँगें सीधी करने में कोई उज्र न था। खाने की इच्‍छा बिल्कुल न थी। हाँ, पानी की प्यास लग रही थी। रघुनाथ अपने बक्स में से एक लोटा-डोर निकाल कर कुएँ की तरफ चला।

3

कुएँ पर देखा कि छह-सात स्त्रियाँ पानी भरने और भर कर ले जाने की कई दशाओं में हैं। गाँवों में परदा नहीं होता। वहाँ सब पुरुष सब स्त्रियों से और सब स्त्रियाँ सब पुरुषों से निडर हो कर बातें कर लेती हैं। और शहरों के लंबे घूँघटों के नीचे जितना पाप होता है, उसका दसवाँ हिस्सा भी गाँवों में नहीं होता। इसी से तो कहावत में बाप ने बेटे को उपदेश दिया है कि घूँघटवाली से बचना। अनजाना पुरुष किसी भी स्त्री से ‘बहन’ कह कर बात कर लेता है और स्त्री बाजार में जा कर किसी भी पुरुष से ‘भाई’ कह कर बोल लेती है। यही वाचिकसंधि दिन-भर के व्यवहारों में ‘पासपोर्ट’ का काम कर देती है। हँसी-ठट्ठा भी होता है, पर कोई दुर्भाव नहीं खड़ा होता। राजपूताने के गाँवों में स्त्री ऊँट पर बैठी निकल जाती है ओर खेतों के लोग ‘मामी जी, मामी जी’ चिल्लाया करते हैं। न उनका अर्थ उस शब्द से बढ़ कर कुछ होता है और न वह चिढ़ती है। एक गाँव में बरात जीमने बैठी। उस समय स्त्रियाँ समधियों को गाली गाती हैं। पर गालियाँ न गाई जाती देख नागरिक-सुधारक बराती को बड़ा हर्ष हुआ। वह ग्राम के एक वृद्ध से कह बैठा, ‘बड़ी खुशी की बात है कि आपके यहाँ इतनी तरक्की हो गई है।’ बुड्ढा बोला, ‘हाँ साहब, तरक्की हो रही है। पहले गालियों में कहा जाता था फलाने की फलानी के साथ और अमुक की अमुक के साथ। लोग-लुगाई सुनते थे, हँसते थे। अब घर-घर में वे ही बातें सच्ची हो रही हैं। अब गालियाँ गाई जाती हैं तो चोरों की दाढ़ी में तिनका निकलते हैं। तभी तो आंदोलन होते हैं कि गालियाँ बंद करो, क्योंकि वे चुभती हैं।’

रघुनाथ यदि चाहता तो किसी भी पानी भरनेवाली से पीने को पानी माँग लेता। परंतु उसने अब तक अपनी माता को छोड़ कर किसी स्त्री से कभी बात नहीं की थी। स्त्रियों के सामने बात करने को उसका मुँह खुल न सका। पिता की कठोर शिक्षा से बालकपन से ही उसे वह स्वभाव पड़ गया था कि दो वर्ष प्रयाग में स्वतंत्र रह कर भी वह अपने चरित्र को, केवल पुरुषों के समाज में बैठ कर, पवित्र रख सका था। जो कोने में बैठ कर उपन्यास पढ़ा करते हैं, उनकी अपेक्षा खुले मैदान में खेलनेवालों के विचार अधिक पवित्र रहते हैं। इसीलिए फुटबाल और हॉकी के खिलाड़ी रघुनाथ को कभी स्त्री-विषयक कल्पना ही नहीं होती थी; वह मानवीय सृष्टि में अपनी माता को छोड़ कर और स्त्रियों के होने या न होने से अनभिज्ञ था। विवाह उसकी दृष्टि में एक आवश्यक किंतु दुर्ज्ञेय बंधन था जिसमें सब मनुष्य फसते हैं और पिता के आज्ञानुसार वह विवाह के लिए घर उसी रुचि से आ रहा था जिससे कि कोई पहले-पहल थियेटर देखने जाता है। कुएँ पर इतनी स्त्रियों को इकट्ठा देख कर वह सहम गया, उसके ललाट पर पसीना आ गया और उसका बस चलता तो वह बिना पानी पिए ही लौट जाता। अस्तु, चुपचाप डोर-लोटा ले कर एक कोने पर जा खड़ा हुआ और डोर खोल कर फाँसा देने लगा।

प्रयाग के बोर्डिग की टोटियों की कृपा से, जन्म-भर कभी कुएँ से पानी नहीं खीचा था न लोटे में फाँसा लगाया था। ऐसी अवस्था में उसने सारी डोर कुएँ पर बखेर दी और उसकी जो छोर लोटे से बाँधी, वह कभी तो लोटे को एक सौ बीस अंश के कोण पर लटकाती और कभी उत्तर पर। डोर के बट जब खुलते हैं तब वह बहुत पेच खाती है। इन पेचों में रघुनाथ की बाँहें भी उलझ गईं। सिर नीचे किए ज्योंही वह डोर को सुलझाता था, त्योंही वह उलझती जाती थी। उसे पता नहीं था कि गाँव की स्त्रियों के लिए वह अद्भुत कौतुक नयनोत्सव हो रहा था।

धीरे-धीरे टीका-टिप्पणी आरंभ हो गई। एक ने हँस कर कहा, ‘पटवारी है, पैमाइश की जरीब फैलाता है।’

दूसरी बोली, ‘ना, बाजीगर है, हाथ-पाँव बाँध कर पानी में कूद पढ़ेगा और फिर सूखा निकल आएगा।’

तीसरी बोली, ‘क्यों लल्ला, घरवालों से लड़ कर आए हो?’

चौथी ने कहा, ‘क्या कुएँ में दवाई डालोगे? इस गाँव में तो बीमारी नहीं है।’

इतने में एक लड़की बोली, ‘काहे की दवाई और कहाँ का पटवारी? अनाड़ी है, लोटे में फाँसा देना नही आता। भाई, मेरे घड़े को मत कुएँ में डाल देना, तुमने तो सारी मेंड़ ही रोक ली!’ यों कह कर वह सामने आ कर अपना घड़ा उठा कर ले गई।

पहली ने पूछा, ‘भाई तुम क्या करोगे?’

लड़की बात काट कर बोल उठी, ‘कुएँ को बाँधेंगे।’

पहली – ‘अरे! बोल तो।’

लड़की – ‘माँ ने सिखाया नहीं।’

संकोच, प्यास, लज्जा और घबराहट से रघुनाथ का गला रुक रहा था; उसने खाँस कर कंठ साफ करना चाहा। लड़की ने भी वैसी ही आवाज की। इस पर पहली स्त्री बढ़ कर आगे आई और डोर उठा कर कहने लगी, ‘क्या चाहते हो? बोलते क्यों नहीं?’

लड़की – ‘फारसी बोलेंगे।’

रघुनाथ ने शर्म से कुछ आँखें ऊँची कीं, कुछ मुँह फेर कर कुएँ से कहा, ‘मुझे पानी पीना है – लोटे से निकाल रहा… निकाल लूँगा।’

लड़की – ‘परसों तक।’

स्‍त्री बोली, ‘तो हम पानी पिला दें। ला भागवंती, गगरी उठा ला। इनको पानी पिला दें।’

लड़की गगरी उठा लाई और बोली, ‘ले मामी के पालतू, पानी पी ले, शरमा मत, तेरी बहू से नहीं कहूँगी।’

इस पर सारी स्त्रियाँ खिलखिला कर हँस पड़ीं। रघुनाथ के चेहरे पर लाली दौड़ गई और उसने यह दिखाना चाहा कि मुझे कोई देख नहीं रहा है, यद्यपि दस-बारह स्त्रियाँ उसके भौचक्केपन को देख रही थीं। सृष्टि के आदि से कोई अपनी झेंप छिपाने को समर्थ न हुआ, न होगा। रघुनाथ उलटा झेंप गया।

‘नहीं, नहीं, मैं आप ही…’

लड़की – कुएँ में कूद के।’

इस पर एक और हँसी का फौवा्रा फूट पड़ा।

रघुनाथ ने कुछ आँखें उठा कर लड़की की ओर देखा। कोई चौदह-पंद्रह बरस की लड़की, शहर की छोकरियों की तरह पीली और दुबली नहीं, हृष्ट-पुष्ट और प्रसन्‍नमुख। आँखों के डेले काले, कोए सफेद नहीं, कुछ मटिया नीले और पिघलते हुए। यह जान पड़ता था कि डेले अभी पिघल कर बह जाएँगे। आँखों के चौतरंग हँसी, ओठों पर हँसी और सारे शरीर पर नीरोग स्वास्थ्य की हँसी। रघुनाथ की आँखें और नीली हो गईं।

स्‍त्री ने फिर कहा, ‘पानी पी लो जी, लड़की खड़ी है।’

रघुनाथ ने हाथ धोए। एक हाथ मुँह के आगे लगाया, लड़की गगरी से पानी पिलाने लगी। जब रघुनाथ आधा पी चुका था तब उसने श्‍वास लेते-लेते आँखें ऊँची कीं। उस समय लड़की ने ऐसा मुँह बनाया कि ठि:-ठि: करके रघुनाथ हँस पड़ा, उसकी नाक में पानी चढ़ गया और सारी आस्तीन भीग गई। लड़की चुप।

रघुनाथ को खाँसते, डगमगाते देख वह स्‍त्री आगे चली आई और गगरी छीनती हुई लड़की को झिड़क कर बोली, ‘तुझे रात दिन-दिन ऊतपन ही सूझता है। इन्‍हें गलसूँड चला गया। ऐसी हँसी भी किस काम की। लो, मैं पानी पिलाती हूँ।’

लड़की – ‘दूध पिला दो, बहुत देर हुई, आँसू भी पोंछ दो।’

सच्चे ही रघुनाथ के आँसू आ गए थे। उसने स्‍त्री से जल ले कर मुँह धोया और पानी पिया। धीरे से कहा, ‘बस जी, बस,।’

लड़की – ‘अब के आप निकाल लेंगे।’

रघुनाथ को मुँह पोंछते देख कर स्त्री ने पूछा, ‘कहाँ रहते हो?’

‘आगरे।’

‘इधर कहाँ जाओगे?’

लड़की – (बीच ही में) ‘शिकारपुर! वहाँ ऐसों का गुरद्वारा है।’ स्त्रियाँ खिलखिला उठीं।

रघुनाथ ने अपने गाँव का नाम बताया। मैं पहले कभी इधर आया नहीं, कितनी दूर है, कब तक पहुँच जाऊँगा?’ अब भी वह सिर उठा कर बात नहीं कर रहा था।

लड़की – ‘यही पंद्रह-बीस दिन में, तीन-चार सौ कोस तो होगा।’

स्त्री – ‘छि:, दो-ढाई भर है, अभी घंटे भर में पहुँच जाते हो।’

‘रास्ता सीधा ही है न?’

लड़की – ‘नहीं तो बाएँ हाथ को मुड़ कर चीड़ के पेड़ के नीचे दाहिने हाथ को मुड़ने के पीछे सातवें पत्‍थर पर फिर बाएँ मुड़ जाना, आगे सीधे जा कर कहीं न मुड़ना; सबसे आगे एक गीदड़ की गुफा है, सबसे उत्तर को बाड़ उलाँघ कर चले जाना।’

स्त्री – ‘छोकरी, तू बहुत सिर चढ़ गई है, चिकर-चिकर करती ही जाती है! नहीं जी, एक ही रास्‍ता है; सामने नदी आवेगी, परले पार बाएँ हाथ को गाँव है।’

लड़की – ‘नदी में भी यों ही फाँसा लगा कर पानी निकालना।’

स्त्री उसकी बात अनसुनी करके बोली, ‘क्‍या उस गाँव में डाकबाबू हो कर आए हो?’

रघुनाथ – ‘नहीं मैं तो प्रयाग में पढ़ता हूँ।’

लड़की – ‘ओ हो, पिराग जी में पढ़ते हैं! कुएँ से पानी निकालना पढ़ते होंगे?’

स्त्री – ‘चुप कर, ज्यादा बक-बक काम की नहीं; क्या तू इसीलिए मेरे यहाँ आई है?’

इस पर महिला-मंडल फिर हँस पड़ा। रघुनाथ ने घबरा कर इलाही की ओर देखा तो वह मजे में पेड़ के नीचे चिलम पी रहा था। इस समय रघुनाथ को हाजी इलाही से ईर्ष्या होने लगी। उसने सोचा कि हज से लौटते समय समुद्र में खतरे कम हैं, और कुएँ पर अधिक।

लड़की – ‘क्यों जी, पिराग जी में अक्कल भी बिकती है?’

रघुनाथ ने मुँह फेर लिया।

स्त्री – ‘तो गाँव में क्या करने जाते हो?’

लड़की – ‘कमाने-खाने।’

स्‍त्री – ‘तेरी कैंची नहीं बंद होती! यह लड़की तो पागल हो जाएगी।’

रघुनाथ – ‘मैं वहाँ के बाबू शोभराम जी का लड़का हूँ।’

स्त्री – ‘अच्छा, अच्छा तो क्या तुम्‍हारा ही ब्याह है?’

रघुनाथ ने सिर नीचा कर लिया।

लड़की – ‘मामी, मामी, मुझे भी अपने नए पालतू के ब्याह में ले चलना। बड़ा ब्याहने चली है। यह घोड़ी है और वह जो चिलम पी रहा है नाना बनेगा। वाह जी, वाह, ऐसे बुद्ध के आगे भी कोई लहँगा पसारेगा!’

स्त्री लड़की की ओर झपटी। लड़की गगरी उठा कर चलती बनी। स्‍त्री उसके पीछे दस कदम गई थी कि स्त्री-महामंडल एक अट्टहास से गूँज उठा।

रघुनाथ इलाही के पास लौट आया। पीछे मुड़ कर देखने की उसकी हिम्मत न हुई। उसके गले में भस्म का-सा स्वाद आ रहा थ। जीवन-भर में यही उसका स्त्रियों से पहला परिचय हुआ। उसकी आत्मलज्जा इतनी तेज थी कि वह समझ गया कि मैं इनके सामने बन गया हूँ। जीवन में ऐसी स्त्रियों से आधा संसार भरा रहेगा और ऐसी ही किसी से विवाह होगा। तुलसीदास ने ठीक ही कहा है कि ‘तुलसी गाय बजाय के दियो काठ में पाँव। ‘स्त्रियों की टोली के वाक्‍य उसे गड़ रहे थे और सब वाक्‍यों के दु:स्वप्न के ऊपर उस पिघलती हुई आँखों वाली कन्या का चित्र मँडरा रहा था।

बड़े ही उदास चित्त से रघुनाथ घर पहुँचा।

गाँव पहुँचने के तीसरे दिन रघुनाथ सबेरा होते ही घूमने को निकला। पहाड़ी जमीन, जहाँ रास्ता देखने में कोस भर जँचे और चाहे उसमें दस मील का चक्‍कर काट लो; बिना पानी सींचे हुए हरे मखमल के गलीचे से ढकी हुई जमीन, उस पर जंगली गुलदाऊदी की पीली टिमकियाँ और वसंत के फूल, आलूबोखारे और पहाड़ी करौंदे की रज से भरे हुए छोटे-छोटे रंगीले फूल, जो पेड़ का पत्ता भी न‍हीं दिखने दें, क्षितिज पर लटके हुए बादलों की-सी बरफीले पहाड़ों की चोटियाँ, जिन्‍हें देखते आँखें अपने-आप बड़ी हो जातीं ओर जिनकी हवा की साँस लेने से छाती बढ़ती हुई जान पड़ती; नदी से निकली हुई छोटी-छोटी असंख्य नहरें जो साँप के-से चक्कर खा-खा कर फिर प्रधान नदी की पथरीली तलेटी में जा मिलतीं – ये सब दृश्‍य प्रयाग के ईंटों के घर और कीचड़ की सड़कों से बिल्‍कुल निराले थे। चलते-चलते रघुनाथ का मन नहीं भरा और घाटी के उतार-चढ़ाव की गिनती न करके वह नदी की चक्‍करों की सीध में हो लिया। एक ओर आम के पेड़ थे जो बौरों और कैरियों से लदे हुए थे, उनके सामने धान के खेत थे जिनमें से पानी किलचिल-किलचिल करता हुआ टिघल रहा था। कहीं उसे कँटीली बाड़ों के बीच में हो कर जाना पड़ता था और कहीं छोटे-छोटे झरने, जो नदी में जा मिले थे, लाँघने पड़ते थे। इन प्रकृतिक दृश्यों का आनंद लेता हुआ हमारा चरित्रनायक नदी की ओर बढ़ा।

इस समय वहाँ कोई न था। रघुनाथ ने एक अकृत्रिम घाट – चौड़ी शिला – पर खड़े हो कर नदी की शोभा देखी और सोचा कि हजामत बना कर नहा-धो कर घर चलें। नई सभ्यता के प्रभाव से सेफ्टीरेजर और साबुन की टिकिया सफरी कोट की जेब में थी ही, ऊपर की पॉकेटबुक से एक आईना भी निकालना पड़ा। रघुनाथ उसी शिला-फलक पर बैठ गया और अपने मुख रूपी आकाश पर छाए हुए कोमल बादलों को मिटाने के लिए अमेरिका के इस जेबी बज्र को चलाने लगा।

कवियों को सोचने का समय पाखाने में मिलता है और युवाओं को स्‍वयं हजामत करने में। यदि नाई होता तो संसार के समाचारों से वही मगज चाट जाता। इसकी वैज्ञानिक युक्ति मुझे एक थियासोफिस्ट ने बताई थी। वह बहुत से तर्क और कुतर्कों में सिद्ध कर रहा था कि पुरानी चालों में सूक्ष्‍म वैज्ञानिक रहस्‍य भरे पड़े हैं। यहाँ तक कि माता बच्चे के सिर में नजर से बचाने के लिए जो काजल का टीका लगा देती है अथवा दूध पिलाए पीछे बच्चे को धूल की चुटकी चटा देती है – इसका भी वह बिजली के विज्ञान से समाधान कर रहा था। उसने कहा की हजामत बनाते या बनवाते समय रोम खुल जाने से मस्तिष्क तक के स्नायु-तारों की बिजली हिल जाती है और वहाँ विचारशक्ति की खुजलाहट पहँच जाती है। अस्तु।

रघुनाथ की खुजलाहट का आरंभ यों हुआ कि वह नदी सहस्रों वर्षो से यों ही बह रही है और यों ही बहती जाएगी। किनारे के पहाड़ों ने, ऊपर के आकाश ने और नीचे की मिट्टी ने उसको यों ही देखा है और यों ही वे उसे देखते जाएँगे। यही क्या, नदी का प्रत्येक परमाणु अपने आने वाले परमाणु की पीठ को और पीछे वाले परमाणु के सामने देखता जाता है। अथवा, क्या पहाड़ को या तलेटी की नदी की खबर है? क्‍या नदी के कारण परमाणु को दूसरे की खबर है? मैं यहाँ बैठा हूँ, इन परमाणुओं को, इस पत्थरों को, इन बादलों को मेरी क्या खबर है? इस समय आगे-पीछे, नीचे-ऊपर, कौन मेरी परवाह करता है? मनुष्‍य अपने घमंड में त्रिलोकी का राजा बना‍ फिरे, उसे अपने आत्‍मविश्‍वास के सिवा पूछता ही कौन है? इस समय मेरा यह क्षोर बनाना किसके लिए ध्यान देने योग्य है? किसे पड़ी है कि मेरी लीलाओं पर ध्यान रक्‍खे।

इसी विचार की तार में ज्योंही उसने सिर उठाया त्‍यों‍ही देखा कि कम-से-कम एक व्यक्ति को तो उसकी लीलाएँ ध्‍यान देने योग्‍य हो रही थीं जो उनका अनुकरण करती थी। रघुनाथ क्या देखता है कि वही पानी पिलानेवाली लड़की सामने एक दूसरी शिला पर बैठी हुई है और उसकी नकल कर रही है।

उस दिन की हँसी की लज्जा रघुनाथ के जी से नहीं हटी थी। वह लज्जा और संकोच के मारे यही आशा करता था कि फिर कभी वह लड़की मुझे न दिखाई पड़े और अपनी ठठोलियों से मुझे तंग न करे। अब, जिस समय वह यह सोच रहा था कि मुझे कोई न देख रहा है, वही लड़की उसके हजामत बनाने की नकल कर रही है। उसने हाथ में एक तिनका ले रखा है। जब रघुनाथ उस्तरा चलाता है तब वह तिनका चलाती है। जग रघुनाथ हाथ खींचता है तब वह तिनका रोक लेती है।

रघुनाथ ने मुँह दूसरी और किया। उसने भी वैसा ही किया। रघुनाथ ने दाहिना घुटना उठा कर अपना आसन बदला। वहाँ भी ऐसा ही हुआ। रघुनाथ ने बाईं हथेली धरती पर टेक कर अँगड़ाई ली। लड़की ने भी वही मुद्रा की। ये प्रयोग रघुनाथ ने यह निश्चय करने के लिए ही किए थे कि यह लड़की क्‍या वास्‍तव में मेरा मखौल कर रही है। उसने हल्का-सा खँखारा उधर से सुना। अब संदेह नहीं रह गया।

ऐसे अवसर पर बुद्धिमान लोग जो करना चाहते हैं, वही रघुनाथ ने किया। अर्थात वह मुँह बदल कर अपना काम करता गया और उसने विचार किया कि मैं उधर न देखूँगा। इस विचार का वही परिणाम हुआ जो ऐसे विचारों का होता है अर्थात दो ही मिनट में रघुनाथ ने अपने को उसी ओर देखते हुए पाया। अब लड़की ने भी अपना आसन बदल लिया था। रघुनाथ ने कई बार विचार किया कि मैं उधर न देखूँगा, पर वह फिर उधर ही देखने लगा। आँखें, जो मानो अभी पानी हो कर बह जाएँगी, सफेद हल्का सा नीला कोआ, जिसमें एक प्रकार की चंचलता, हँसी और घृणा तैर रही थी।

यह लड़की यों पिंड न छोड़ेगी। मैंने इसका क्या बिगाड़ा है ? इससे पूछूँ तो फिर वैसे बताएगी? पर खैर, आज तो अकेली यही है। इसकी चोटों पर साधुवाद करने के लिए महिला-मंडल तो नहीं है। यह सोच कर रघुनाथ ने जोर से खँखारा। वही जवाब मिला। उसने हाथ बढ़ा कर अँगड़ाई ली। वहाँ भी अंग तोड़े गए। रघुनाथ ने एक पत्थर उठा कर नदी में फेंका, उधर ढेला फेंका गया और खलब करके पानी में बोला।

वह बिना वचनों की छेड़ रघुनाथ से सही न गई। उसने एक छोटी-सी कंकरी उठा कर लड़की की शिला पर मारी। जवाब में वैसे ही एक कंकरी रघुनाथ की शिला में आ बजी। रघुनाथ ने दूसरी कंकरी उठा कर फेंकी जो लड़की के समीप जा पड़ी। इस पर एक कंकरी आ कर रघुनाथ की पॉकेट-बुक के आईने पर पट से बोली और उसे फोड़ गई। रघुनाथ कुछ चिढ़ गया, उसकी हिम्मत कुछ बढ़ गई, अबके उसने जो कंकरी मारी कि वह लड़की के हाथ पर जा लगी।

इस पर लड़की ने हाथ को झट से उठाया और स्‍वयं उठी। जहाँ रघुनाथ बैठा था, वहाँ आई और उसके देखते-देखते उसने सामने से टोपी, उस्‍तरा और पॉकेट-बुक तथा साबुन की बट्टी को उठा कर नदी की ओर बढ़ी। जितना समय इस बात को लिखने ओर बाँचने में लगा है, उतना समय भी नहीं लगा कि उसने सबको पानी में फेंक दिया। रघुनाथ उसके हाथ को नदी की ओर बढ़ते हुए देख, उसका तात्‍पर्य समझ कर किंकर्त्तव्य-विमूढ़-सा हो ज्योंही दो कदम आगे धरता हे कि पंकाली शिला पर उसका पैर फिसला और वह धड़ाम से सिर के बल पानी में गिरा पड़ा।

रघुनाथ तैरना नहीं जानता था, यद्यपि वह मित्रों के पास जा कर दारागंज की गंगा में नहा आया था। परंतु चाहे कितना ही तैराक हो, औंधे सिर पानी में गिरने पर तो गोता खा ही जाता है। रघुनाथ का सिर पैंदे के पास पहुँचते ही उसने दो गोते खाए और सीधा होते-होते उसकी साँस टूट गई। यों तो नदी में पानी रघुनाथ के सिर से कुछ ही ऊँचा था और धीरज से उसके पैर टिक जाते तो वह हाथ फटफटा कर किनारे आ लगता, क्‍योंकि वह बहुत दूर नहीं गया था। पर फिसलन की घबराहट, साँस का टूटना, गले में पानी भर जाना, नीचे दलदल – इस सबसे वह भौचक हो कर बीस-तीस हाथ बढ़ाता ही चला गया। नदी की तलेटी में चट्टान थी, जो पानी के बहाव से क्रमश: खिरती जाती थी। वहाँ पानी का नाला कुछ जोर से बढ़ कर चक्कर खाता था। वहाँ पहुँच कर, पानी कम होने पर भी हाथ-पैर मारने पर भी रघुनाथ के पैर नहीं टिके और उछलता हुआ पानी उसके मुँह में गया। वह नदी के बहाव की ओर जाने लगा। बालिका ने जान लिया कि बिना निकाले वह पानी से निकल न सकेगा। वह झट सारी से कछौटा कस कर पानी में कूद पड़ी। जल्‍दी से तैरती हुई आ कर उसने रघुनाथ का हाथ पकड़ना चाहा कि इतने में रघुनाथ एक और चक्कर काट कर सिर पानी के नीचे करके खाँसने लगा। लड़की के हाथ उसकी चमड़े की पेटी आई थी जो उसने पतलून के ऊपर बाँध रखी थी। वह एक हाथ से उसे खींचती हुई रघुनाथ को छर्रे के बहाव से निकाल लाई और दूसरे हाथ से पानी हटाती हुई किनारे की ओर बढ़ने लगी। अब रघुनाथ भी सीधा हो गया था। पानी चीरने में खड़ा या मुड़ा आदमी लेटे हुए की अपेक्षा बहुत दु:खदायी होता है। हाँफती हुई कुमारी ने बिड़राए हुए रघुनाथ को किनारे लगाया। रघुनाथ मुँह और बालों का पानी निचोड़ता हुआ तरबतर कुरते और पतलून से धाराएँ बहाता हुआ चट्टान पर जा बैठा। पाँच-सात बार खाँसने पर, आँखें पोंछने पर उसने देखा कि भीगी हुई कुमारी उसके सामने खड़ी है और उन्हीं पिघलती हुई आँखों से घृणा, दया और हँसी झलकाती हुई कह रही है कि – इस अनाड़ी के सामने भी कोई अपना लहँगा पसारेगी?

ये सब घटनाएँ इतनी जल्दी-जल्दी हुई थीं कि रघुनाथ का सिर चकरा रहा था। अभी पानी की गूँज कानों को ढोल किए हुए था और मानसिक क्षोभ और लज्‍जा में वह पागल-सा हो रहा था। उसके मन की पिछली भित्ति पर चाहे यह अंकित हो रहा हो कि इस लड़की ने मुझे नदी में से निकाला है, पर सामने की भित्ति पर यही था कि शब्‍द के कोड़ों से वह मेरी चमड़ी उधेड़े डालती है। रघुनाथ उसे पकड़ने के लिए लपका और लड़की दो खेतों के बाड़ के बीच तंग सड़क पर दौड़ भागी। रघुनाथ पीछा करने लगा।

गाँव की लड़कियाँ हड्डियों और गहनों का बंडल नहीं होती। वहाँ वे दौड़ती हैं, कूदती हैं, हँसती हैं, गाती हैं, खाती हैं और पहनती हैं। नगरों में आ कर वे खूँटे में बँध कर कुम्‍हलाती हैं, पीली पड़ जाती हैं, भूखी रहती हैं, सोती हैं, रोती हैं और मर जाती हैं। रघुनाथ ने मील की दौड़ में इनाम पाया था। उस समय का दौड़ना उसके बहुत गुण बैठा। पानी में गोते खाने के पीछे की सारी शून्यता मिटने लगी। पाव मील दौड़ने पर लड़की जितने हाथ आगे बढ़ती थी, वे घटने लगे। सौ गज और जाते-जाते अचानक चीख मार कर, लड़खड़ाकर वह गिरने लगी। रघुनाथ उसके पास जा पहुँचा। अवश्‍य ही रघुनाथ के इतने हँफाने वाले श्रम के और मानसिक क्षोभ के पीछे यही भाव था कि इस लड़की को गुस्‍ताखी के लिए दंड दूँ। रघुनाथ ने उसे दोनों बाँहें डाल कर पकड़ लिया। रघुनाथ के लिए स्‍त्री का और उस लड़की के लिए पुरुष का यह पहला स्पर्श था। रघुनाथ कुछ सोच भी न पाया था कि मैं क्या करूँ, इतने में लड़की ने मुँह उसके सामने करके अपनी नखों से उसकी पीठ में और बगल में तेज चुटकियाँ काटीं। रघुनाथ की बाँहें ढीली हुईं, पर क्रोध नहीं। उसने एक मुक्‍का लड़की की नाक पर जमाया। लड़की साँस लेते रुकी। इतने में दौड़ने के वेग से, जो अभी न रुका था और मुक्के से दोनों नीचे गिर पड़े। दोनों धूल में लोटमलोट हो गए।

रघुनाथ धूल झाड़ता हुआ उठा। क्‍या देखता है कि लड़की के नाक से लहू बह रहा है। अपनी विजय का पहला आवेश एकदम से भूल कर वह पश्‍चात्ताप और दु:ख के पाश में फँस गया। उसका मुँह पसीना-पसीना हो गया। वह चाहता था कि इन लहू की बूँदों के साथ मैं भी धरती में समा जाऊँ और उसके साथ ही अपनी आँखें भूमि में गड़ा भी रहा था। परंतु फिर क्षण में आँखें उठ आईं। लड़की अपनी भीगे और धूल लगे हुए आँचल से नाक पोंछते हुई उन्ही आँखों में वही घृणा की और पछतावे की दृष्टि डालती हुई कर रही थी –

‘वाह, अच्‍छे मर्द हो। बड़े बहादुर हो। स्त्रियों पर हाथ उठाया करते हैं?’

रघुनाथ चुप।

‘वाह, पिराग जी में खूब इलम पढ़ा। स्त्रियों पर हाथ उठाते होंगे?’

रघुनाथ ने नीचे सिर से, आँखें न उठा कर कहा –

‘मुझसे बड़ी भूल हो गई। मुझे पता ही नहीं था कि मैं क्या कर रहा हूँ। मेरा सिर ठिकाने नहीं है। मुझे चक्कर…’

अभी चक्कर आवेंगे। स्त्रियों पर हाथ नहीं चलाया करते हैं।’

सड़क यहाँ चौड़ी हो गई थी। कचनार की एक बेल आम पर चढ़ी हुई थी और आम के तले पत्थरों का थाँवला था। सुनसान था। दूर से नदी की कलकल ओर रह-रह कर खातीचिड़े की ठकठक-ठकठक आ रही थी। इस समय रघुनाथ का घोंघापन हटने लगा और स्त्रियों की ओर से झेंप इस पिघलती हुई आँखों वाली के वचन-बाणों के नीचे भागते लगी। ढाढ़स कर उसने पूछा –

‘तुम्हारा नाम क्या है?’

‘भागवंती।’

‘रहती कहाँ हो?’

‘मामी के पास – वही जिसने कुएँ पर पानी नहीं पिलाया था!’

उस दिन का स्मरण आते ही रघुनाथ फिर चुप हो गया। फिर कुछ ठहर कर बोला – ‘तुम मेरे पीछे क्यों पड़ी हो?’

‘तुम्‍हें आदमी बनाने को। जो तुम्‍हें बुरा लगा हो, तो मैंने भी अपने किए का लहू बहा कर फल पा लिया। एक सलाह दे जाती हूँ।’

‘क्या?’

‘कल से नदी में नहाने मत जाना।’

‘क्यों ?’

‘गोते खाओगे तो कोई बचानेवाला नहीं मिलेगा।’

रघुनाथ झेंपा, पर सम्‍हल कर बोला, ‘अब कोई मेरी जान बचाएगा। तो मैं पीछा नहीं करूँगा, दो गाली भी सुन लूँगा।’

‘इसलिए नहीं, मैं आज अपने बाप के यहाँ जाऊँगी।’

‘तुम्हारा घर कहाँ है ?’

‘जहाँ अना‍ड़ि‍यों के डूबने के लिए कोई नदी नहीं है।’

‘हूँ! फिर वही बात लाई। तो वहाँ पर चिढ़ानेवालों के भागने के लिए रास्ता भी नहीं होगा।’

‘जी, यहाँ जो मैं आपके हाथ आ गई।’

‘नहीं तो?’

‘काँटा न लगता तो पिराग जी तक दौड़ते तो हाथ न आती।’

‘काँटा! काँटा कैसा?’

‘यह देखो।’

रघुनाथ ने देखा कि उसके दाहिने पैर के तलवे में एक काँटा चुभा हुआ है। उसको यह सूझी कि यह मेरे दोष से हुआ है। बालिका के सहारे वह घुटने के बल बैठ गया और उसका पैर खींच कर रूमाल से धूल झाड़ कर काँटे को देखने लगा।

काँटा मोटा था, पर पैर में बहुत पैठ गया था। वह उठ कर बाड़ से एक और बड़ा काँटा तोड़ लाया। उससे और पतलून की जेब के चाकू से उसने काँटा निकाला। निकालते ही लोहू का डोरा बह निकला। काँटा प्राय: दो इंच लंबा और जहरीली कँटीली का था।

‘ओफ!’ कह कर रघुनाथ ने कमीज की आस्‍तीन फाड़ कर उसके पाँव में पट्टी बाँध दी।

बालिका चुप बैठी थी। रघुनाथ काँटे को निरख रहा था।

‘अब तो दर्द नहीं ?’

‘कोई एहसान थोड़ा है, तुम्हारे भी काँटा गड़ जाए तो निकालवाने आ जाना।’

‘अच्छा।’ रघुनाथ का जी जल गया था। यह बर्ताव! ‘अच्छा क्या? जाओ, अपना रास्ता लो।’

‘यह काँटा मैं ले जाऊँगा। आज की घटना की यादगारी रहेगी।’

‘मैं जरा इसे देख लूँ।’

रघुनाथ ने अँगूठे और तर्जनी से काँटा पकड़ कर उसकी ओर बढ़ाया।

अपनी दो अँगुलियों से उसे उठा कर और दूसरे हाथ से रघुनाथ को धक्‍का दे कर लड़की हँसती-हँसती दौड़ गई। रघुनाथ धूल में एक कलामुंडी खा कर ज्योंही उठा कि बालिका खेतों को फाँदती हुई जा रही थी।

अबकी दफा उसका पीछा करने का साहस हमारे चरित्रनायक ने नहीं किया। नदी-तट पर जा कर कोट उठाया और चौंधिआए मस्तिष्क से घर की राह ली।

रघुनाथ के हृदय में स्‍त्री-जाति की अज्ञानता का भाव और उसके पृथक रहने का कुहरा तो था ही, अब उसके स्थान में उद्वेगपूर्ण ग्‍लानि का धूम इकट्ठा हो गया था। पर उस धूम के नीचे-नीचे उस चपल लड़की की चिनगारी भी चमक रही थी। अवश्‍य ही अपने पिछले अनुभव से वह इतना चमक गया था कि किसी स्त्री से बातें करने की उसकी इच्छा न थी, परंतु रह-रह कर उसक चित्त में उस पिघलती हुई आँखोंवाली का और अधिक हाल जानने और उसके वचन-कोड़े सहने की इच्‍छा होती थी। रघुनाथ का हृदय एक पहेली हो रहा था और उस पहेली में पहेली उस स्वतंत्र लड़की का स्‍वभाव था। रघुनाथ का हृदय धुएँ से घुट रहा था और विवाह के पास आते हुए अवसर को वह उसी भाव से देख रहा था, जैसे चैत्र कृष्ण में बकरा आनेवाले नवरात्रों को देखता है।

इधर पिता जी और चाचा घर खोज रहे थे। आसपास गाँवों में तीन-चार पत्रियाँ थीं, जिनके पिता अधिक धन के स्वामी न होने से अब तक अपना भार न उतार सके थे और अब वृहस्‍पति के सिंह का कवल हो जाने को अपने नरक-गमन का परवाना-सा देख कर भी आत्मघात नहीं कर रहे थे। हिंदू समाज में धौंस से कुछ नहीं होता, जरूरत से सब हो जाता है। बड़े से बड़े महाराज थैलियों के मुँह खुलवा कर भी शास्त्र-जड़ लोगों से यह नहीं कहला सकते कि ‘अष्टवर्षा भवेद् गौरी’ पर हरताल लगा दो। उलटा अष्ट का अर्थ गर्भाष्ट्य करके सात वर्ष तीन महीने की आयु निकल बैठेंगे। परंतु कभी शुक्र का छिपना, और कभी बृहस्पति का भागना, कभी घर का न मिलना और कभी पल्ले पैसा न होना, कभी नाड़ी-विरोध और कभी कुछ-समझदार आदमी चाहे तो कन्‍या को चौदह-पंद्रह वर्ष की करके काशीनाथ से ले कर आजकल के महामहोपाध्यायों तक को अँगूठा दिखला सकता है।

दो घर तो ज्योतिषी ने खो दिए। तीसरे के बारे में भी उन्‍होंने लत्ता-पात करना चाहा था, पर कुछ तो ज्योतिषी के डाकखाने के द्वारा मनी-आर्डर का ग्रहों पर प्रभाव पड़ा और कुछ के रघुनाथ पिता के इस बिहारी के दोहे के पाठ का ज्योतिषी जी पर –

सुत पितु मारक जोग लखि , उपज्यो हिय अति सोग।

पुनि विहँस्यो पुन जोयसी , सुत लखि जारज जोग।।

विधि मिल गई। झंडीपुर में सगाई निश्चित हुई। बीस दिन पीछे बरात चढ़ेगी और रघुनाथ का विवाह होगा।

6

कन्यादान के पहले और पीछे वर-कन्या को, ऊपर एक दुशाला डाल कर एक-दूसरे का मुँह दिखाया जाता है। उस समय दुलहा-दुलहिन जैसे व्यवहार करते हैं उससे ही उनके भविष्य दांपत्य-सुख का थर्मामीटर माननेवाली स्त्रियाँ बहुत ध्यान से उस समय के दोनों के आकार-विकार को याद रखती हैं। जो हो, झंडीपुर की स्त्रियों में यह प्रसिद्ध हे कि मुँह-दिखौनी के पीछे लड़के का मुँह सफेद फक हो गया और विवाह में जो कुछ होम वगैरह उसने किए वे पागल की तरह। मानो उसने कोई भूत देखा था। और लड़की ऐसी गुम हुई कि उसे काटो तो खून नहीं। दिन-भर वह चुप रही और बिड़राई आँखों से जमीन देखती रही; मानो उसे भी भूत दिख रहे हों। स्त्रियों ने इन लक्षणों को बहुत अशुभ माना था।

दुलहिन डोले में विदा हो कर ससुराल आ रही थी। रघुनाथ घोड़े पर था। दोपहर चढ़ने से कहारों और बरातियों ने एक बड़ की छाया के नीचे बावड़ी के किनारे डेरा लगाया कि रोटी-पानी करके और धूप काट के चलेंगे। कोई नहाने लगा, कोई चूल्हा सुलगाने लगा। दुलहिन पालकी का पर्दा हटा कर हवा ले रही थी और अपने जीवन की स्‍वतंत्रता के बदले में पाई हुई हथकड़ि‍यों और चाँदी की बेड़ि‍यों को निरख रही थी। मनुष्य पहले पशु है, फिर मनुष्य। सभ्यता या शांति का भाव पीछे आता है, पहले पाशविक बल और विजय का। रघुनाथ ने पास आ कर कहा – ‘क्या कहा था, ऐसे मर्द के आगे कौन लहँगा पसारेगी ?’

सिर पालकी के भीतर करके बालिका ने परदा डाल लिया।

रघुनाथ ने यह नहीं सोचा कि उसके जी पर क्या बीतती होगी। उसने अपनी विजय मानी और उसी की अकड़ में बदला लेना ठीक समझा।

‘हाँ, फिर तो कहना, इस बुद्धू के आगे कौन लहँगा पसारेगी ?’

चुप।

‘क्यों, अब वह कैंची-सी जीभ कहाँ गई ?’

चुप।

कहाँ तो रघुनाथ छेड़ से चिढ़ता था, अब कहाँ वह स्वयं छेड़ने लगा। उसकी इच्छा पहले तो यह थी कि यह बोली कभी न सुनूँ, परंतु अब वह चाहता था कि मुझे फिर वैसे ही उत्तर मिलें। विवाह के पहले अचंभे के पीछे उसने दु:ख की आह के साथ-ही-साथ एक संतोष की आह भरी थी; क्योंकि पहले दिन की घटनाओं ने उसके हृदय पर एक बड़ा अद्भुत परिवर्तन कर दिया था।

‘कहो जी, अब प्रयागवालों को अकल सिखाने आई हो? अब इतनी बात कैसे सुनी जाती हैं?’

‘मैं हाथ जोड़ती हूँ, मुझसे मत बोलो। मैं मर जाऊँगी।’

‘तो नदी में डूबते बुद्धुओं को कौन निकालेगा?’

‘अब रहने दो। यहाँ से हट जाओ।’

‘क्यों?’

‘क्यों क्या, अब इस चक्की में ऐसा ही पिसना है। जनम-भर का रोग है, जनम-भर का रोना है।’

‘नहीं; मुझे अकल सिखाने का – ‘ रघुनाथ ने व्यंग्य से आरंभ किया था, पर इतने में एक कहार चिलम में तमाखू डालने आ गया। भूमिका की सफाई बिना कहे और बिना हुए ही रह गई।

7

हिंदू घरों में, कुछ दिनों तक, दंपती चोरों की तरह मिलते हैं। यह संयुक्त कुटुंब-प्रणाली का वर या शाप है। रघुनाथ ने ऐसे चोरों के अवसर आगरे आ कर ढूँढ़ने आरंभ किए, पर भागवंती टल जाती थी? उसने रघुनाथ को एक भी बात कहने का, या सुनने का मौका न दिया।

जुलाई में रघुनाथ इला‍हाबाद जा कर थर्ड इयर में भरती हो गया। दशहरे और बड़े दिन की छुट्टियों में आ कर उसने बहुतेरा चाहा कि दो बातें कर सके, पर भागवंती उसके सामने ही नहीं होती थी। हाँ, कई बार उसे यह संदेह हुआ कि वह मेरी आहट पर ध्यान रखती और छिप-छिप कर मुझे देखती है; पर ज्योंही वह इस सूत भर आगे बढ़ता कि भागवंती लोप हो जाती।

पढ़ने की चिंता में विघ्न डालनेवाली अब उसको यह नई चिंता लगी। यह बात उसके जी में जम गई कि मैंने अमानुष निर्दयता से और बोली-ठोली में उसके सीधे हृदय को दुखा दिया है। परंतु कभी-कभी यह सोचता कि क्या दोष मेरा ही है? उसने क्या कम ज्‍यादती की थी? जो ताने-तिश्ने उस समय उसके हृदय को बहुत ही चीरते हुए जान पड़े थे, वे अब उसकी स्मृति में बहुत प्‍यारे लगने लगे। सोचता था कि मैं ही आ कर क्षमा माँगूँगा। जिन जाँघों ने उसका पीछा किया था उन्‍हें बाँध कर उसके सामने पड़ कर कहूँगा कि उस दिन वाली चाल से मुझे कुचलती हुई चली जा। अथवा यह कहूँगा कि उसी नदी में मुझे ढकेल दे। यों तरह-तरह के तर्क-वितर्कों में उसका समय कटने लगा। न ‘हॉकी’ में अब उसकी कदर रही और न प्रोफेसर की आँखें वैसी रहीं। उसी कीचड़ लगे हुए पतलून को मेज पर रख कर सोचता, सोचता, सोचता रहता।

होली की छुट्टियाँ आईं। पहले सलाह हुई कि घर न जाऊँ, काशी में एक मित्र के पास ही छुट्टियाँ बिताऊँ। उस मित्र ने प्रसंग चलने पर कहा, ‘हाँ भाई, ब्‍याह के पीछे पहली होली है, तुम काहे को चलते हो!’ वह रघुनाथ के हृदय के भार को क्या समझ सकता था? रघुनाथ ने हँस कर बात टाल दी। रात को सोचा कि चलो छुट्टियों में बोर्डिंग में ही रहूँ, पास ही पब्लिक-लायब्रेरी है, दिन कट जाएँगे। रात को जब सोया तो पिघलती हुई आँखें, वही नाक से बहता हुआ खून और वह आँसुओं से न ढकनेवाली हँसी!नींद न आ सकी। जैसे कोई सपने में चलता है, वेसे बेहोशी में ही सवेरे टिकट ले कर गाड़ी में बैठ गया। पता नहीं कि मैं किधर जा रहा हूँ। चेत तब हुआ जब कुली ‘टुंडला’, ‘टुंडला’ चिल्लाए। रघुनाथ चौंका। अच्छा, जो हो, अब की दफा फिर उद्योग करूँगा। यों कह कर हृदय को दृढ़ करके घर पहुँचा।

होली का दिन था! जैसे कोजागर पूर्णिमा को चोरों के लिए घर के दरवाले खुले छोड़ कर हिंदू सोते हैं, वेसे माता-पिता टल गए थे। माँ पकवान पका रही थी और बाप-खैर, बाप भी कहीं थे। रघुनाथ भीतर पहुँचा। भागवंती सिर पर हाथ धरे हुए कोने में बैठी थी। उसे देखते ही खड़ी हो गई। वह दरवाजे की तरफ चढ़ने न पाई थी कि रघुनाथ बोला, ‘ठहरो, बाहर मत जाना।’

वह ठहर गई। घूँघट खींच कर कोने की पीढ़ी के बान को देखने लगी।

‘कहो, कैसी हो? आज तुमसे बातें करनी हैं।’

चुप।

‘प्रसन्न रहती हो? कभी मेरी भी याद करती हो?’

चुप।

‘मेरी छुट्टियाँ तीन ही दिन की हैं।’

चुप।

‘तुम्‍हें मेरी कसम है, चुप मत रहो, कुछ बोलो तो, जवाब दो – पहले की तरह ताने ही से बोलो, मेरी शपथ है – सुनती हो?’

‘मेरे कानों में पानी थोड़े ही भर गया है।’

‘हाँ, बस, यों ठीक है; कुछ ही कहो, पर कहती जाओ। अच्छा होता यदि तुम मुझे उस दिन न निकालतीं और डूब जाने देतीं।’

‘अच्छा होता यदि मेरा काँटा न निकालते और पैर गल कर मैं मर जाती।’

‘तुमने कहा था कि कोई एहसान थोड़ा है, काँटा गड़ जाए, तो मैं भी निकाल दूँगी।’

‘हाँ, निकाल दूँगी।’

‘कैसे !’

‘उसी काँटे से।’

‘उसी काँटे से! वह है कहाँ?’

‘मेरे पास।’

‘क्यों? – कब से।’

‘जब से पतलून ट्रंक में बंद हो कर आगरे गई तब से।’

न मालूम पीढ़ी का बान कैसा अच्‍छा था, निगाहें उस पर से नहीं हटी। शायद ताँत गिनी जा रही थी।

‘अनाड़ी की बात की नकल करती हो?’

गिनती पूरी हो गई। अब अपने नखों की बारी आई।

‘क्यों, फिर चुप?’

‘हाँ!’ – नखों पर से ध्यान नहीं हटा।

रघुनाथ ने छत की ओर देख कर कहा – ‘अनाड़ि‍यों की पीठ नख आजमाने के लिए अच्छी होती है।’

नख छिपा लिए गए।

‘काँटा निकालोगी?’

‘हाँ!’

‘काँटा छत में थोड़ा ही है।’

‘तो कहाँ है?’

‘मैं तो अनाड़ी हूँ, मुझे लल्लो-पत्तो करना नहीं आता, साफ कहना जानता हूँ, सुनो!’ यह कह कर रघुनाथ बढ़ा और उसने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए।

उसने हाथ न हटाए।

‘उस समय मैं जंगली था, वहशी था, अधूरा था, मनुष्‍य जब तक स्त्री की परछाईं नहीं पा लेता तब तक पूरा नहीं होता। मेरे बुद्धूपन को क्षमा करो। मेरे हृदय में तुम्‍हारे प्रेम का एक भयंकर काँटा गड़ गया है। जिस दिन तुम्‍हें पहले-पहल देखा उस दिन से वह गड़ रहा है और अब तक गड़ा जा रहा है। तुम्हारी प्रेम की दृष्टि से मेरा यह शूल हटेगा।’

घूँघट के भीतर, जहाँ आँखें होनी चाहिए, वहा कुछ गीलापन दिखा।

‘देखो, मैं तुम्हारे प्रेम के बिना जी नहीं सकता। मेरा उस दिन का रूखापन और जंगलीपन भूल जाओ। तुम मेरी प्राण हो, मेरा काँटा निकाल दो।’

रघुनाथ ने एक हाथ उसकी कमर पर डाल कर उसे अपनी ओर खींचना चाहा। मालूम पड़ा कि नदी के किनारे का किला, नींव के गल जाने से, धीरे-धीरे धँस रहा है। भागवंती का बलवान शरीर, निस्सार हो कर, रघुनाथ के कंधे पर झूल गया। कंधा आँसुओं से गीला हो गया।

मेरा कसूर – मेरा गँवारपन – मैं उजड्ड – मेरा अपराध – मेरा पाप – मैंने क्या कह डा…डा…डा…आ…’ घिग्घी बँध चली।

उसका मुँह बंद करने का एक ही उपाय था। रघुनाथ ने वही किया।

 

 

घंटाघर   कहानी

 

एक मनुष्य को कहीं जाना था। उसने अपने पैरों से उपजाऊ भूमि को बंध्या करके पगडंडी काटी और वह वहाँ पर पहला पहुँचने वाला हुआ। दूसरे, तीसरे और चौथे ने वास्तव में उस पगडंडी को चौड़ी किया और कुछ वर्षों तक यों ही लगातार जाते रहने से वह पगडंडी चौड़ा राजमार्ग बन गई, उस पर पत्थर या संगमरमर तक बिछा दिया गया, और कभी-कभी उस पर छिड़काव भी होने लगा।

वह पहला मनुष्य जहाँ गया था वहीं सब कोई जाने लगे। कुछ काल में वह स्थान पूज्य हो गया और पहला आदमी चाहे वहाँ किसी उद्देश्य से आया हो, अब वहाँ जाना ही लोगों का उद्देश्य रह गया। बड़े आदमी वहाँ घोड़ों, हाथियों पर आते, मखमल कनात बिछाते जाते, और अपने को धन्य मानते आते। गरीब आदमी कण-कण माँगते वहाँ आते और जो अभागे वहाँ न आ सकते वे मरती बेला अपने पुत्र को थीजी कि आन दिला कर वहाँ जाने का निवेदन कर जाते। प्रयोजन यह है कि वहाँ मनुष्यों का प्रवाह बढ़ता ही गया।

एक सज्जन ने वहाँ आनेवाले लोगों को कठिनाई न हो, इसलिए उस पवित्र स्थान के चारों ओर, जहाँ वह प्रथम मनुष्य आया था, हाता खिंचवा दिया। दूसरे ने, पहले के काम में कुछ जोड़ने, या अपने नाम में कुछ जोड़ने के लोभ से उस पर एक छप्पर डलवा दिया। तीसरे ने, जो इन दोनों से पीछे रहना न चाहता था, एक सुंदर मकान से उस भूमि को ढक दिया, इस पर सोने का कलश चढ़ा दिया, चारों ओर से बेल छवा दी। अब वह यात्रा, जो उस स्थान तक होती थी, उसकी सीमा की दीवारों और टट्टियों तक रह गई, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य भीतर नहीं जा सकता। इस ‘इनर सर्कल’ के पुजारी बने, भीतर जाने की भेंट हुई, यात्रा का चरम उद्देश्‍य बाहर की दीवार को स्पर्श करना ही रह गया, क्योंकि वह भी भाग्यवानों को ही मिलने लगा।

कहना नहीं होगा, आनेवालों के विश्राम के लिए धर्मशालाएँ, कूप और तड़ाग, विलासों के लिए शुंडा और सूणा, रमणिएँ और आमोद जमने लगे, और प्रति वर्ष जैसे भीतर जाने की योग्यता घटने लगी, बाहर रहने की योग्यता, और इन विलासों में भाग लेने की योग्यता बढ़ी। उस भीड़ में ऐसे वेदांती भी पाए जाने लगे जो दूसरे की जेब को अपनी ही समझ कर रुपया निकाल लेते। कभी-कभी ब्रह्मा एक ही है उससे जार और पति में भेद के अध्यास को मिटा देनेवाली अद्वैतवादिनी और स्वकीया-परकीया के भ्रम से अवधूत विधूत सदाचारों के शुद्ध द्वैत(=झगड़ा) के कारण रक्तपात भी होने लगा। पहले यात्राएँ दिन-ही-दिन में होती थीं, मन से होती थीं, अब चार-चार दिन में नाच-गान के साथ और आफिस के काम को करते सवारी आने लगी।

एक सज्जन ने देखा की यहाँ आनेवालों को समय के ज्ञान के बिना बड़ा कष्‍ट होता है। अतएव उस पुण्यात्मा ने बड़े व्यय से एक घंटाघर उस नए बने मकान के ऊपर लगवा दिया। रात के अंधकार में उसका प्रकाश, और सुनसानी में उसका मधुर स्वर क्या पास के और क्या दूर के, सबके चित्‍त को सुखी करता था। वास्तव में ठीक समय पर उठा देने और सुला देने के लिए, एकांत में पापियों को डराने और साधुओं को आश्‍वासन करने के लिए वह काम देने लगा। एक सेठ ने इस घंटे की (हाथ) (सूइयाँ) सोने की बनवा दीं और दूसरे ने रोज उसकी आरती उतारने का प्रबंध कर दिया।

कुछ काल बीत गया। लोग पुरानी बातों को भूलने लग गए। भीतर जाने की बात तो किसी को याद नहीं रही। लोग मंदिर की दीवार का छूना ही ठीक मानने लगे। एक फिर्का खड़ा हो गया जो कहता था कि मंदिर की दक्षिण दीवाल छूनी चाहिए, दूसरा कहता कि उत्तर दीवाल को बिना छुए जाना पाप है। पंद्रह पंडितों ने अपने मस्तिष्क, दूसरों की रोटियाँ और तीसरों के धैर्य का नाश करके दस पर्वों के एक ग्रंथ में सिद्ध कर दिया या सिद्ध करके अपने को धोखा देना चाहा कि दोनों झूठे हैं। पवित्रता प्राप्त करने के लिए घंटे की मधुर ध्वनि का सुनना मात्र पर्याप्त है। मंदिर के भीतर जाने का तो किसी को अधिकार ही नहीं है, बाहर की शुंडा और सूणा में बैठने से भी पुन्य होता है, क्योंकि घंटे का पवित्र स्वर उन्हें पूत कर चुका है। इस सिद्ध करने या सिद्ध करने के मिस का बड़ा फल हुआ। गाहक अधिक जुटने लगे। और उन्हें अनुकूल देख कर नियम किए गए कि रास्ते में इतने पैंड़ रखने, घंटा बजे तो यों कान खड़ा करके सुनना, अमुक स्थान पर वाम चरण से खड़े होना, और अमुक पर दक्षिण से। यहाँ तक कि मार्ग में छींकने तक का कर्मकांड बन गया।

और भी समय बीता। घंटाघर सूर्य के पीछे रह गया। सूर्य क्षितिज पर आ कर लोगों को उठाता और काम में लगता, घंटाघर कहा करता कि अभी सोए रहो। इसी से घंटाघर के पास कई छोटी-मोटी घड़ियाँ बन गईं। प्रत्येक में की टिक-टिक बकरी और झलटी को मात करती। उन छोटी-मोटियों से घबरा के लोग सूर्य की ओर देखते और घंटाघर की ओर देख कर आह भर देते। अब यदि वह पुराना घंटाघर, वह प्यारा पाला-पोसा घंटा ठीक समय न बतावे तो चारों दिशाएँ उससे प्रतिध्वनि के मिस से पूछती हैं कि तू यहाँ क्यों है? वह घृणा से उत्तर देता है कि मैं जो कहूँ वही समय है। वह इतने ही में संतुष्ट नहीं है कि उसका काम वह नहीं कर सकता और दूसरे अपने आप उसका काम दे रहे हैं, वह इसी में तृप्त नहीं है कि उसका ऊंचा सिर वैसे ही खड़ा है, उसके मांजने को वही वेतन मिलता है, और लोग उसके यहाँ आना नहीं भूले हैं। अब यदि वह इतने पर भी संतुष्ट नहीं, और चाहे कि लोग अपनी घड़ियों के ठीक समय को बिगाड़ उनकी गति को रोकें ही नहीं, प्रत्युत उन्हें उल्टी चलावें, सूर्य उनकी आज्ञानुसार एक मिनट में चार डिग्री पीछे हटे, और लोग जाग कर भी उसे देख कर सोना ठीक समझें, उसका बिगड़ा और पुराना काल सबको संतोष दे, तो वज्र निर्घोष से अपने संपूर्ण तेज से, सत्य के वेग से मैं कहूँगा – ‘भगवन, नहीं कभी नहीं। हमारी आँखों को तुम ठग सकते हो, किंतु हमारी आत्मा को नहीं। वह हमारी नहीं है। जिस काम के लिए आप आए थे वह हो चुका, सच्चे या झूठे, तुमने अपने नौकरों का पेट पाला। यदि चुपचाप खड़े रहना चाहो तो खड़े रहो, नहीं तो यदि तुम हमारी घड़ियों के बदलने का हठ करोगे तो, सत्यों के पिता और मिथ्याओं के परम शत्रु के नाम पर मेरा-सा तुमारा शत्रु और कोई नहीं है। आज से तुम्हारे मेरे में अंधकार और प्रकाश की-सी शत्रुता है, क्योंकि यहाँ मित्रता नहीं हो सकती। तुम बिना आत्मा की देह हो, बिना देह का कपड़ा हो, बिना सत्य के झूठे हो! तुम जगदीश्वर के नहीं हो, और न तुम पर उसकी सम्मति है, यह व्यवस्था किसी और को दी हुई है। जो उचक्का मुझे तमंचा दिखा दे, मेरी थैली उसी की, जो दुष्ट मेरी आँख में सूई डाल दे, वह उसे फोड़ सकता है, किंतु मेरी आत्मा मेरी और जगदीश्वर की है, उसे तू, हे बेतुके घंटाघर, नहीं छल सकता अपनी भलाई चाहे तो हमारा धन्यवाद ले, और-और और चला जा!!’

 

सुखमय जीवन   कहानी

 

 

रीक्षा देने के पीछे और उसके फल निकलने के पहले दिन किस बुरी तरह बीतते हैं, यह उन्हीं को मालूम है जिन्हें उन्हें गिनने का अनुभव हुआ है। सुबह उठते ही परीक्षा से आज तक कितने दिन गए, यह गिनते हैं और फिर ‘कहावती आठ हफ्ते’ में कितने दिन घटते हैं, यह गिनते हैं। कभी-कभी उन आठ हफ्तों पर कितने दिन चढ़ गए, यह भी गिनना पड़ता है। खाने बैठे है और डाकिए के पैर की आहट आई – कलेजा मुँह को आया। मुहल्ले में तार का चपरासी आया कि हाथ-पाँव काँपने लगे। न जागते चैन, न सोते-सुपने में भी यह दिखता है कि परीक्षक साहब एक आठ हफ्ते की लंबी छुरी ले कर छाती पर बैठे हुए हैं।

मेरा भी बुरा हाल था। एल-एल.बी. का फल अबकी और भी देर से निकलने को था – न मालूम क्या हो गया था, या तो कोई परीक्षक मर गया था, या उसको प्लेग हो गया था। उसके पर्चे किसी दूसरे के पास भेजे जाने को थे। बार-बार यही सोचता था कि प्रश्नपत्रों की जाँच किए पीछे सारे परीक्षकों और रजिस्ट्रारों को भले ही प्लेग हो जाय, अभी तो दो हफ्ते माफ करें। नहीं तो परीक्षा के पहले ही उन सबको प्लेग क्यों न हो गया? रात-भर नींद नहीं आई थी, सिर घूम रहा था, अखबार पढ़ने बैठा कि देखता क्या हूँ लिनोटाइप की मशीन ने चार-पाँच पंक्‍तियाँ उलटी छाप दी हैं। बस, अब नहीं सहा गया – सोचा कि घर से निकल चलो; बाहर ही कुछ जी बहलेगा। लोहे का घोड़ा उठाया कि चल दिए।

तीन-चार मील जाने पर शांति मिली। हरे-हरे खेतों की हवा, कहीं पर चिड़ियों की चहचह और कहीं कुओं पर खेतों को सींचते हुए किसानों का सुरीला गाना, कहीं देवदार के पत्तों की सोंधी बास और कहीं उनमें हवा का सी-सी करके बजना – सबने मेरे परीक्षा के भूत की सवारी को हटा लिया। बाइसिकिल भी गजब की चीज है। न दाना माँगे, न पानी, चलाए जाइए जहाँ तक पैरों में दम हो। सड़क में कोई था ही नहीं, कहीं-कहीं किसानों के लड़के और गाँव के कुत्ते पीछे लग जाते थे। मैंने बाइसिकिल को और भी हवा कर दिया। सोचा था कि मेरे घर सितारपुर से पंद्रह मील पर कालानगर हैं – वहाँ की मलाई की बरफ अच्छी होती है और वहीं मेरे एक मित्र रहते हैं, वे कुछ सनकी हैं। कहते है कि जिसे पहले देख लेंगे, उससे विवाह करेंगे। उनसे कोई विवाह की चर्चा करता है, तो अपने सिद्धांत के मंडल का व्याखान देने लग जाते हैं। चलो, उन्ही से सिर खाली करें।

खयाल-पर-खयाल बँधने लगा। उनके विवाह का इतिहास याद आया। उनके पिता कहते थे कि सेठ गणेशलाल की एकलौती बेटी से अबकी छुट्टियों में तुम्हारा ब्याह कर देंगे। पड़ोसी कहते थे कि सेठ जी की लड़की कानी और मोटी है और आठ ही वर्ष की है। पिता कहते थे कि लोग जल कर ऐसी बातें उड़ाते हैं; और लड़की वैसी भी हो तो क्या, सेठजी के कोई लड़का है नहीं; बीस-तीस हजार का गहना देंगे। मित्र महाशय मेरे साथ-साथ डिबेटिंग क्लबों में बाल-विवाह और माता-पिता की जबरदस्ती पर इतने व्याखान झाड़ चुके थे कि अब मारे लज्जा के साथियों में मुँह नहीं दिखाते थे। क्योंकि पिताजी के सामने चीं करने की हिम्म्त नहीं थी। व्यक्तिगत विचार से साधारण विचार उठने लगे। हिन्दू-समाज ही इतना सड़ा हुआ है कि हमारे उच्च विचार चल नहीं सकते। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। हमारे सद्‌विचार एक तरह के पशु हैं जिनकी बलि माता-पिता की जिद और हठ की वेदी पर चढ़ाई जाती है।…भारत का उद्धार तब तक नहीं हो सकता – ।

फिस्स्स्‌! एकदम अर्श से फर्श पर गिर पड़े। बाइसिकिल की फूँक निकल गई। कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर। पंप साथ नहीं थी और नीचे देखा तो जान पड़ा कि गाँव के लड़कों ने सड़क पर ही काँटों की बाड़ लगाई है। उन्हें भी दो गालियाँ दीं पर उससे तो पंक्चर सुधरा नहीं। कहाँ तो भारत का उद्धार हो रहा था और कहाँ अब कालानगर तक इस चरखे को खैंच ले जाने की आपत्ति से कोई निस्तार नहीं दिखता। पास के मील के पत्थर पर देखा कि कालानगर यहाँ से सात मील है। दूसरे पत्थर के आते-आते मैं बेदम हो लिया था। धूप जेठ की, और कंकरीली सड़क, जिसमें लदी हुई बैलगाड़ियों की मार से छः-छः इंच शक्कर की-सी बारीक पिसी हुई सफेद मिट्टी बिछी हुई! काले पेटेंट लेदर के जूतों पर एक-एक इंच सफेद पालिश चढ़ गई। लाल मुँह को पोंछते-पोंछते रूमाल भीग गया और मेरा सारा आकार सभ्य विद्वान का-सा नहीं, वरन सड़क कूटने वाले मजदूर का-सा हो गया। सवारियों के हम लोग इतने गुलाम हो गए हैं कि दो-तीन मील चलते ही छठी का दूध याद आने लगता है!

2

‘बाबूजी क्या बाइसिकिल में पंक्चर हो गया?’

एक तो चश्मा, उस पर रेत की तह जमी हुई, उस पर ललाट से टपकते हुए पसीने की बूँदें, गर्मी की चिढ़ और काली रात-सी लंबी सड़क – मैंने देखा ही नहीं था कि दोनों ओर क्या है। यह शब्द सुनते ही सिर उठाया, तो देखा की एक सोलह-सत्रह वर्ष की कन्या सड़क के किनारे खड़ी है।

‘हाँ, हवा निकल गई है और पंक्चर भी हो गया है। पंप मेरे पास है नहीं। कालानगर बहुत दूर तो है नहीं – अभी जा पहुँचता हूँ।’

अंत का वाक्य मैंने केवल ऐंठ दिखाने के लिए कहा था। मेरा जी जानता था की पाँच मील पाँच सौ मील के-से दिख रहे थे।

‘इस सूरत से तो आप कालानगर क्या कलकत्ते पहुँच जाएँगे। जरा भीतर चलिए, कुछ जल पीजिए। आपकी जीभ सूख कर तालू से चिपक गई होगी। चाचाजी की बाइसिकिल में पंप है और हमारा नौकर गोबिंद पंक्चर सुधारना भी जानता है।’

‘नहीं, नहीं – ‘

‘नहीं, नहीं, क्या, हाँ, हाँ!’

यों कह कर बालिका ने मेरे हाथ से बाइसिकिल छीन ली और सड़क के एक तरफ हो ली। मैं भी उसके पीछे चला। देखा कि एक कँटीली बाड़ से घिरा बगीचा है जिसमें एक बँगला है। यहीं पर कोई ‘चाचाजी’ रहते होगें, परंतु यह बालिका कैसी –

मैंने चश्मा रूमाल से पोंछा और उसका मुँह देखा। पारसी चाल की एक गुलाबी साड़ी के नीचे चिकने काले बालों से घिरा हुआ उसका मुखमंडल दमकता था और उसकी आँखें मेरी ओर कुछ दया, कुछ हँसी और विस्मय से देख रही थीं। बस, पाठक! ऐसी आँखें मैंने कभी नहीं देखी थीं। मानो वो मेरे कलेजे को घोल कर पी गईं। एक अद्‌भुत कोमल, शांत ज्योति उनमें से निकल रही थी। कभी एक तीर में मारा जाना सुना है? कभी एक निगाह में हृदय बेचना पड़ा है? कभी तारामैत्रक और चक्षुमैत्र नाम आए हैं? मैंने एक सेकंड में सोचा और निश्‍चय कर लिया कि ऐसी सुंदर आँखें त्रिलोकी में न होगीं और यदि किसी स्त्री की आँखों को प्रेम-बुद्धि से कभी देखूँगा तो इन्हीं को।

‘आप सितारपुर से आए हैं। आपका नाम क्या है?’

‘मैं जयदेवशरण वर्मा हूँ। आपके चाचाजी – ‘

‘ओ-हो, बाबू जयदेवशरण वर्मा, बी.ए.; जिन्होंने ‘सुखमय जीवन’ लिखा है! मेरा बड़ा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हुए! मैंने आपकी पुस्तक पढ़ी है और चाचाजी तो उसकी प्रशंसा बिना किए एक दिन भी नहीं जाने देते। वे आपसे मिल कर बहुत प्रसन्न होंगे; बिना भोजन किए आपको न जाने देगें और आपके ग्रंथ को पढ़ने से हमारा परिवार-सुख कितना बढ़ा है, इस पर कम-से-कम दो घंटे तक व्याख्यान देंगे।’

स्त्री के सामने उसके नैहर की बड़ाई कर दे और लेखक के सामने उसके ग्रंथ की। यह प्रिय बनने का अमोघ मंत्र है। जिस साल मैंने बी.ए. पास किया था उस साल कुछ दिन लिखने की धुन उठी थी। लॉ कॉलेज के फर्स्ट इयर में सेक्शन और कोड की परवाह न करके एक ‘सुखमय जीवन’ नामक पोथी लिख चुका था। समालोचकों ने आड़े हाथों लिया था और वर्ष-भर में सत्रह प्रतियाँ बिकी थीं। आज मेरी कदर हुई कि कोई उसका सराहनेवाला तो मिला।

इतने में हम लोग बरामदे में पहुँचे, जहाँ पर कनटोप पहने, पंजाबी ढंग की दाढ़ी रखे एक अधेड़ महाशय कुर्सी पर बैठे पुस्तक पढ़ रहे थे। बालिका बोली –

‘चाचाजी, आज आपके बाबू जयदेवशरण वर्मा बी.ए. को साथ लाई हूँ। इनकी बाइसिकिल बेकाम हो गई है। अपने प्रिय ग्रंथकार से मिलाने के लिए कमला को धन्यवाद मत दीजिए, दीजिए उनके पंप भूल आने को!’

वृद्ध ने जल्दी ही चश्मा उतारा और दोनों हाथ बढ़ा कर मुझसे मिलने के लिए पैर बढ़ाए।

‘कमला, जरा अपनी माता को बुला ला। आइए बाबू साहब, आइए। मुझे आपसे मिलने की बड़ी उत्कंठा थी। मैं गुलाबराय वर्मा हूँ। पहले कमसेरियट में हेड क्लर्क था। अब पेंशन ले कर इस एकाक स्थान में रहता हूँ। दो गौ रखता हूँ और कमला तथा उसके भाई प्रबोध को पढ़ाता हूँ। मैं ब्रह्मसमाजी हूँ; मेरे यहा परदा नहीं है। कमला ने हिंदी मिडिल पास कर लिया है। हमारा समय शास्त्रों के पढ़ने में बीतता है। मेरी धर्म-पत्नी भोजन बनाती और कपड़े सी लेती है; मैं उपनिषद और योग वासिष्ठ का तर्जुमा पढ़ा करता हूँ। स्कूल में लड़के बिगड़ जाते हैं, प्रबोध को इसिलिए घर पर पढ़ाता हूँ।’

इतना परिचय दे चुकने पर वृद्ध ने श्वास लिया। मुझे इतना ज्ञान हुआ कि कमला के पिता मेरी जाति के ही हैं। जो कुछ उन्होंने कहा था, उसकी ओर मेरे कान नहीं थे – मेरे कान उधर थे, जिधर से माता को ले कर कमला आ रही थी।

‘आपका ग्रंथ बड़ा ही अपूर्व है। दांपत्य सुख चाहनेवालों के लिए लाख रुपए से भी अनमोल है। धन्य है आपको! स्त्री को कैसे प्रसन्न रखना, घर में कलह कैसे नहीं होने देना, बाल-बच्चों को क्योंकर सच्चरित्र बनाना, इन सब बातों में आपके उपदेश पर चलने वाला पृथ्वी पर ही स्वर्ग-सुख भोग सकता है। पहले कमला की माँ और मेरी कभी-कभी खट-पट हो जाया करती थी। उसके ख्याल अभी पुराने ढंग के हैं। पर जब से मैं रोज भोजन पीछे उसे आध घंटे तक आपकी पुस्तक का पाठ सुनाने लगा हूँ, तब से हमारा जीवन हिंडोले की तरह झूलते-झूलते बीतता हैं।

मुझे कमला की माँ पर दया आई, जिसको वह कूड़ा-करकट रोज सुनना पड़ता होगा। मैंने सोचा कि हिंदी के पत्र-संपादकों में यह बूढ़ा क्यों न हुआ? यदि होता तो आज मेरी तूती बोलने लगती।

‘आपको गृहस्थ-जीवन का कितना अनुभव है! आप सब कुछ जानते है! भला, इतना ज्ञान कभी पुस्तकों में मिलता है? कमला की माँ कहा करती थी कि आप केवल किताबों के कीड़े हैं, सुनी-सुनाई बातें लिख रहे हैं। मैं बार-बार यह कहता था कि इस पुस्तक के लिखने वाले को परिवार का खूब अनुभव है। धन्य है आपकी सहधर्मिणी! आपका और उसका जीवन कितना सुख से बीतता होगा! और जिन बालकों के आप पिता हैं, वे कैसे बड़भागी हैं कि सदा आपकी शिक्षा में रहते हैं; आप जैसे पिता का उदाहरण देखते हैं।

कहावत है कि वेश्या अपनी अवस्था कम दिखाना चाहती है और साधु अपनी अवस्था अधिक दिखाना चाहता है। भला, ग्रंथकार का पद इन दोनों में किसके समान है? मेरे मन में आई कि कहूँ दूँ कि अभी मेरी पचीसवाँ वर्ष चल रहा है, कहाँ का अनुभव और कहाँ का परिवार? फिर सोचा के ऐसा कहने से ही मैं वृद्ध महाशय की निगाहों से उतर जाऊँगा और कमला की माँ सच्ची हो जायगी कि बिना अनुभव के छोकरे ने गृहस्थ के कर्तव्य-धर्मों पर पुस्तक लिख मारी है। यह सोचकर मैं मुस्करा दिया और ऐसी तरह मुँह बनाने लगा कि वृद्ध समझा कि अवश्य मैं संसार-समुद्र में गोते मार कर नहाया हुआ हूँ।

3

वृद्ध ने उस दिन मुझे जाने नहीं दिया। कमला की माता ने प्रीति के साथ भोजन कराया और कमला ने पान ला कर दिया। न मुझे अब कालानगर की मलाई की बरफ याद रही न सनकी मित्र की। चाचा जी की बातों में फी सैकड़े सत्तर तो मेरी पुस्तक और उनके रामबाण लाभों की प्रशंसा थी, जिसको सुनते-सुनते मेरे कान दुख गए। फी सैकड़े पचीस वह मेरी प्रशंसा और मेरे पति-जीवन और पितृ जीवन की महिमा गा रहे थे। काम की बात बीसवाँ हिस्सा थी जिससे मालूम पड़ा कि अभी कमला का विवाह नहीं हुआ, उसे अपनी फूलों की क्यारी को सँभालने का बड़ा प्रेम है, ‘सखी’ के नाम से ‘महिला-मनोहर’ मासिक प्रत्र में लेख भी दिया करती है।

सायंकाल को मैं बगीचे में टहलने निकला। देखता क्या हूँ एक कोने में केले के झाड़ों के नीचे मोतिए और रजनीगंधा की क्यारियाँ हैं और कमला उनमें पानी दे रही है। मैंने सोचा की यही समय है। आज मरना है या जीना है। उसको देखते ही मेरे हृदय में प्रेम की अग्नि जल उठी थी और दिन-भर वहाँ रहने से वह धधकने लग गई थी। दो ही पहर में मैं बालक से युवा हो गया था। अंग्रेजी महाकाव्यों में, प्रेममय उपन्यासों में और कोर्स के संस्कृत-नाटकों में जहाँ-जहाँ प्रेमिका-प्रेमिक का वार्तालाप पढ़ा था, वहाँ-वहाँ का दृश्य स्मरण करके वहाँ-वहाँ के वाक्यों को घोख रहा था, पर यह निश्‍चय नहीं कर सका कि इतने थोड़े परिचय पर भी बात कैसी करनी चाहिए। अंत में अंगरेजी पढ़नेवाले की धृष्‍टता ने आर्यकुमार की शालीनता पर विजय पाई और चपलता कहिए, बेसमझी कहिए, ढीठपन कहिए, पागलपन कहिए, मैंने दौड़ कर कमला हाथ पकड़ लिया। उसके चेहरे पर सुर्खी दौड़ गई और डोलची उसके हाथ से गिर पड़ी। मैं उसके कान में कहने लगा –

‘आपसे एक बात कहनी है।’

‘क्या? यहाँ कहने की कौन-सी बात है?’

‘जब से आपको देखा है तब से –

‘बस चुप करो। ऐसी धृष्टता !’

अब मेरा वचन-प्रवाह उमड़ चुका था। मैं स्वयं नहीं जानता था कि मैं क्या कर रहा हूँ, पर लगा बकने – ‘प्यारी कमला, तुम मुझे प्राणों से बढ़ कर हो; प्यारी कमला, मुझे अपना भ्रमर बनने दो। मेरी जीवन तुम्हारे बिना मरुस्थल है, उसमें मंदाकिनी बन कर बहो। मेरे जलते हुए हृदय में अमृत की पट्टी बन जाओ। जब से तुम्हें देखा है, मेरा मन मेरे अधीन नहीं है। मैं तब तक शांति न पाऊँगा जब तक तुम – ‘

कमला जोर से चीख उठी और बोली – आपको ऐसी बातें कहते लज्जा नहीं आती? धिक्कार है आपकी शिक्षा को और धिक्कार आपकी विद्या को! इसी को आपने सभ्यता मान रखा है कि अपरिचित कुमारी से एकांत ढूँढ़ कर ऐसा घृणित प्रस्ताव करें। तुम्हारा यह साहस कैसे हो गया? तुमने मुझे क्या समझ रखा है? ‘सुखमय जीवन’ का लेखक और ऐसा घृणित चरित्र! चिल्लू भर पानी में डूब मरो। अपना काला मुँह मत दिखाओ। अभी चाचाजी को बुलाती हूँ।’

मैं सुनता जा रहा था क्या मैं स्वप्न देख रहा हूँ? यह अग्नि-वर्षा मेरे किस अपराध पर? तो भी मैंने हाथ नहीं छोड़ा। कहने लगा, ‘सुनो कमला, यदि तुम्हारी कृपा हो जाय, तो सुखमय जीवन – ‘

‘देखा तेरा सुखमय जीवन! आस्तीन के साँप! पापात्मा!! मैंने साहित्य-सेवी जान कर और ऐसे उच्च विचारों का लेखक समझ कर तुझे अपने घर में घुसने दिया और तेरा विश्‍वास और सत्कार किया था। प्रच्छन्नपापिन! वकदांभिक! बिड़ालव्रतिक! मैंने तेरी सारी बातें सुन ली हैं।’ चाचाजी आ कर लाला-लाल आँखें दिखाते हुए, क्रोध से काँपते हुए कहने लगे – ‘शैतान, तुझे यहाँ आ कर माया-जाल फैलाने का स्थान मिला। ओफ! मैं तेरी पुस्तक से छला गया। पवित्र जीवन की प्रशंसा में फार्मों-के-फार्म काले करनेवाले, तेरा ऐसा हृदय! कपटी! विष के घड़े – ‘

उनका धाराप्रवाह बंद ही नहीं होता था, पर कमला की गालियाँ और थीं और चाचाजी की और। मैंने भी गुस्से में आ कर कहा, ‘बाबू साहब, जबान सँभाल कर बोलिए। आपने अपनी कन्या को शिक्षा दी है और सभ्यता सिखाईं है, मैंने भी शिक्षा पाई है और कुछ सभ्यता सीखी है। आप धर्म-सुधारक है। यदि मैं उसके गुण रूपों पर आसक्त हो गया, तो अपना पवित्र प्रणय उसे क्यों न बताऊँ? पुराने ढर्रे के पिता दुराग्रही होते सुने गए हैं। आपने क्यों सुधार का नाम लजाया है?’

‘तुम सुधार का नाम मत लो। तुम तो पापी हो। ‘सुखमय जीवन’ के कर्ता हो कर – ‘

भाड़ में जाय ‘सुखमय जीवन’! उसी के मारे नाकों दम है!! ‘सुखमय जीवन’ के कर्ता ने क्या यह शपथ खा ली है कि जनम-भर क्वाँरा ही रहे? क्या उसे प्रेमभाव नहीं हो सकता? क्या उसमें हृदय नहीं होता?’

‘हें, जनम-भर क्वाँरा?’

‘हें काहे की? मैं तो आपकी पुत्री से निवेदन कर रहा था कि जैसे उसने मेरा हृदय हर लिया है वैसे यदि अपना हाथ मुझे दे, तो उसके साथ ‘सुखमय जीवन’ के उन आदर्शों का प्रत्यक्ष अनुभव करुँ, जो अभी तक मेरी कल्पना में है। पीछे हम दोनों आपकी आज्ञा माँगने आते। आप तो पहले ही दुर्वासा बन गए।’

‘तो आपका विवाह नहीं हुआ? आपकी पुस्तक से तो जान पड़ता है कि आप कई वर्षों के गृहस्थ-जीवन का अनुभव रखते हैं। तो कमला की माता ही सच्ची थीं।’

इतनी बातें हुई थीं, पर न मालूम क्यों मैंने कमला का हाथ नहीं छोड़ा था। इतनी गर्मी के साथ शास्त्रार्थ हो चुका था, परंतु वह हाथ जो क्रोध के कारण लाल हो गया था, मेरे हाथ में ही पकड़ा हुआ था। अब उसमें सात्विक भाव का पसीना आ गया था और कमला ने लज्जा से आँखें नीची कर ली थीं। विवाह के पीछे कमला कहा करती है कि न मालूम विधाता की किस कला से उस समय मैंने तुम्हें झटक कर अपना हाथ नहीं खेंच लिया। मैंने कमला के दोनों हाथ खैंच कर अपने हाथों के संपुट में ले लिए (और उसने उन्हें हटाया नहीं!) और इस तरह चारों हाथ जोड़ कर वृद्ध से कहा –

‘चाचाजी, उस निकम्मी पोथी का नाम मत लीजिए। बेशक, कमला की माँ सच्ची हैं। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक पहचान सकती हैं कि कौन अनुभव की बातें कह रहा है और कौन हाँक रहा है। आपकी आज्ञा हो, तो कमला और मैं दोनों सच्चे सुखमय जीवन का आरंभ करें। दस वर्ष पीछे मैं जो पोथी लिखूँगा, उसमें किताबी बातें न होंगी, केवल अनुभव की बातें होगी।’

वृद्ध ने जेब से रूमाल निकाल कर चश्मा पोंछा और अपनी आँखें पोंछीं। आँखों पर कमला की माता की विजय होने के क्षोभ के आँसू थे, या घर बैठी पुत्री को योग्य पात्र मिलने के हर्ष के आँसू, राम जाने।

उन्होंने मुस्करा कर कमला से कहा, ‘दोनों मेरे पीछे-पीछे चले आओ। कमला! तेरी माँ ही सच कहती थी।’ वृद्ध बँगले की ओर चलने लगे। उनकी पीठ फिरते ही कमला ने आँखें मूँद कर मेरे कंधे पर सिर रख दिया।

 
धर्मपरायण रीछ   कहानी

 

 

सायंकाल हुआ ही चाहता है। जिस प्रकार पक्षी अपना आराम का समय आया देख अपने-अपने खेतों का सहारा ले रहे हैं उसी प्रकार हिंस्र श्‍वापद भी अपनी अव्याहत गति समझ कर कंदराओं से निकलने लगे हैं। भगवान सूर्य प्रकृति को अपना मुख फिर एक बार दिखा कर निद्रा के लिए करवट लेने वाले ही थे, कि सारी अरण्यानी ‘मारा’ है, बचाओ, मारा है’ की कातर ध्वनि से पूर्ण हो गई। मालूम हुआ कि एक व्याध हाँफता हुआ सरपट दौड़ रहा, और प्रायः दो सौ गज की दूरी पर एक भीषण सिंह लाल आँखें, सीधी पूँछ और खड़ी जटा दिखाता हुआ तीर की तरह पीछे आ रहा है। व्याध की ढीली धोती प्रायः गिर गई है, धनुष-बाण बड़ी सफाई के साथ हाथ से च्युत हो गए हैं, नंगे सिर बिचारा शीघ्रता ही को परमेश्वर समझता हुआ दौड़ रहा है। उसी का यह कातर स्वर था।

यह अरण्य भगवती जह्नुतनया और पूजनीया कलिंदनंदनी के पवित्र संगम के समीप विद्यमान है। अभी तक यहाँ उन स्वार्थी मनुष्य रुपी निशाचरों का प्रवेश नहीं हुआ था जो अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए आवश्यक से चौगुना-पँचगुना पा कर भी झगड़ा करते हैं, परंतु वे पशु यहाँ निवास करते थे जो शांतिपूर्वक समस्त अरण्य को बाँट कर अपना-अपना भाग्य आजमाते हुए न केवल धर्मध्वजी पुरुषों की तरह शिश्नोदर परायण ही थे, प्रत्युत अपने परमात्मा का स्मरण करके अपनी निकृष्ट योनि को उन्नत भी कर रहे थे। व्याध, अपने स्वभाव के अनुसार, यहाँ भी उपद्रव मचाने आया था। उसने बंग देश में रोहू और झिलसा मछलियों और ‘हासेर डिम’ को निर्वंश कर दिया था, बंबई के केकड़े और कछुओं को वह आत्मसात कर चुका था और क्या कहें मथुरा, बृंदावन के पवित्र तीर्थों तक में वह वकवृत्ति और विडालव्रत दिखा चुका था। यहाँ पर सिंह के कोपन बदनाग्नि में उसके प्रायश्चितों का होम होना ही चाहता है। भागने में निपुण होने पर भी मोटी तोंद उसे बहुत कुछ बाधा दे रही है। सिंह में और उसमें अब प्रायः बीस ही तीस गज का अंतर रह गया और उसे पीठ पर सिंह का उष्‍ण निःश्‍वास मालूम-सा देने लगा। इस कठिन समस्या में उसे सामने एक बड़ा भारी पेड़ दीख पड़ा। अपचीयमान शक्ति पर अंतिम कोड़ा मार कर वह उस वृक्ष पर चढ़ने लगा और पचासों पक्षी उसकी परिचित डरावनी मूर्ति को पहचान कर अमंगल समझ कर त्राहि-त्राहि स्वर के साथ भागने लगे। ऊपर एक बड़ी प्रबल शाखा पर विराजमान एक भल्लूक को देख कर व्याध के रहे-सहे होश पैंतरा हो गए। नीचे मंत्र-बल से कीलित सर्प की भाँति जला-भुना सिंह और ऊपर अज्ञात कुलशील रीछ। यों कढ़ाई से चूल्हे में अपना पड़ना समझ कर वह र्किकर्तव्यविमूढ़ व्याध सहम गया, बेहोश-सा हो कर टिक गया, ‘न ययौ न तस्थो’ हो गया। इतने में ही किसी ने स्निग्ध गंभीर निर्घोष मधुर स्वर में कहा – ‘अभयं शरणागतस्य! अतिथि देव! ऊपर चले जाइए, पापी व्याध, सदा छल-छिद्र के कीचड़ में पला हुआ, इस अमृत अभय वाणी को न समझ कर वहीं रुका रहा। फिर उसी स्वर ने कहा – ‘चले आइए महाराज! चले आइए। यह आपका घर है। आज मेरे बृहस्पति उच्च के हैं जो यह अपवान स्थान आपकी चरनधूलि से पवित्र होता है। इस पापात्मा का आतिथ्य स्वीकार करके इसे उद्धार कीजिए। ‘वैश्वदेवांतमापन्नो सोऽतिथिः स्वर्ग संज्ञकः।’ पधारिए – यह विष्टर लीजिए, यह पाद्य, यह अर्ध्य, यह मधुपर्क।’

पाठक! जानते हो यह मधुर स्वर किसका था? यह उस रीछ का था। वह धर्मात्मा विंध्याचल के पास से इस पवित्र तीर्थ पर अपना काल बिताने आया था। उस धर्मप्राण धर्मैकजीवन ने वंशशत्रु व्याध को हाथ पकड़ कर अपने पास बैठाया; उसके चरणों की धूलि मस्तक से लगाई और उसके लिए कोमल पत्तों का बिछौना कर दिया। विस्मित व्याध भी कुछ आश्वस्त हुआ।

नीचे से सिंह बोला – ‘रीछ! यह काम तुमने ठीक नहीं किया। आज इस आततायी का काम तमाम कर लेने दो। अपना अरण्य निष्कंटक हो जाय। हम लोगों में परस्पर का शिकार न छूने का कानून है। तुम क्यों समाज-नियम तोड़ते हो? याद रक्खो, तुम इसे आज रख कर कल दुःख पाओगे। पछताओगे। यह दुष्ट जिस पत्तल में खाता है उसी में छिद्र करता है। इसे नीचे फैंक दो।’

रीछ बोला – ‘बस, मेरे अतिथि परमात्मा की निंदा मत करो। चल दो। यह मेरा स्वर्ग है, इसके पीछे चाहे मेरे प्राण जायं, वह मेरी शरण आया है, इसे मैं नही छोड़ सकता। कोई किसी को धोखा या दुःख नहीं दे सकता है, जो देता है वह कर्म ही देता है। अपनी करनी सबको भोगनी ही पड़ती है।’

‘मैं फिर कहे देता हूँ, तुम पछताओगे’ यह कह कर सिंह अपना नख काटते हुए, दुम दबाए चल दिया।

2

प्रायः पहर भर रात जा चुकी है। रीछ अपने दिन भर के भूखे-प्यासे अतिथि के लिए, सूर्योढ अतिथि के लिए, कंदमूल फल लेने गया है। परंतु व्याध को चैन कहाँ? दिन भर की हिंसा प्रणव प्रवृत्ति रुकी हुई हाथों में खुजली पैदा कर रही है। क्या करै? बिजली के प्रकाश में उसी वृक्ष में एक प्राचीन कोटर दिखाई दिया और उसमें तीन-चार रीछ के छोटे-छोटे बच्चे मालूम दिए। फिर क्या था? व्याध के मुँह में पानी भर आया परंतु धनुष-बाण, तलवार रास्ते में गिर पड़े हैं, यह जान कर पछतावा हुआ। अकस्मात जेब में हाथ डाला तो एक छोटी सी पेशकब्ज! बस, काम सिद्ध हुआ। अपने उपकारी रक्षक रीछ के बच्चों को काट कर कच्चा ही खाते उस पापात्मा व्याध को दया तो आई ही नहीं, देर भी न लगी। वह जीभ साफ करके ओठों को चाट रहा था कि मार्ग में फरकती बाईं आँख के अशकुन को ‘शांतं पापं नारायण! शांतं पापं नारायण’ कह कर टालता हुआ रीछ आ गया और चुने हुए रसपूर्ण फल व्याध के आगे रख कर सेवक के स्थान पर बैठ कर बोला – ‘मेरे यहाँ थाल तो है नहीं, न पत्ते हैं, पुष्पं पत्रं फलं तोयं अतिथि नारायण की सेवा में समर्पित है।’ जब व्याध अपने दग्धोदर की पूर्ति कर चुका तो इसने भी शेषान्न खाया और कुछ प्रसाद अपने बच्चों को देने के लिए कोटर की तरफ चला।

कोटर के द्वार पर ही प्रेमपूर्वक स्वागतमय ‘दादा हो’ न सुन कर उसका माथा ठनका। भीतर जा कर उसने पैशाचिक लीला का अवशिष्‍ट चर्म और अस्थि देखा। परंतु उस वीतराग के मन में ‘तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः?’ वह उस गंभीर पद से आ कर लेटे हुए व्याध के पैर दबाने लग गया। इतने में व्याध के दुष्कर्म ने एक पुराने गीध का रुप धारण कर रीछ को कह दिया कि तेरी अनुपस्थिति में इस कृतघ्न व्याध ने तेरे बच्चे खा डाले हैं। व्याध को कर्मसाक्षी में विश्वास न था, वह चौंक पड़ा। उसका मुँह पसीने से तर हो गया, उसकी जीभ तालू से चिपक गई और वह इन वाक्यों को आने वाले यम का दूत समझ कर थर-थर काँपने लगा। बूढ़े रीछ के नेत्रों में अश्रु आ गए; परंतु वह खेद के नहीं थे, हर्ष के थे। उसने उस गृध्र को संबोधन करके कहा – ‘धिक्‌ मूढ़! मेरे परम उपकारी को इन उल्वण शब्दों से स्मरण करता है! (व्याध से) महाराज! धन्य भाग्य उन बच्चों के जो पाप में जन्मे और पाप में बढ़े; परंतु आज आपकी अशनाया निवृत्ति के पुण्य के भागी हुए! न मालूम किन नीचातिनीच कर्मो से उनने यह पशुयोनि पाई थी, न मालूम उनने इस गर्हित योनि में रह कर कितने पाप-कर्म और करने थे। धन्य मेरे भाग्य! आज वे ‘स्वर्गद्वारमुपानृतं’ में पहुँच गए। हे कुलतारण! आप कुछ भी इस बात की चिंता न कीजिए। आपने मेरे ‘सप्तावरे सप्त पूर्वे’ तरा दिए!’ जिसे मद नहीं और मोह नहीं वह रीछ व्याध का सम्वाहन करके संसार-यात्रा के अनुसार सो गया, परंतु उसने अपना निर्भीक स्थान व्याध को दे दिया था, और स्वंय वह दो शाखाओं पर आलंबित था। चिकने घड़े पर जल की तरह पापात्मा व्याध पर यह धर्म्माचरण और तज्जन्य शांति प्रभाव नहीं डाल सके; वह तारे गिनता जागता रहा और उसके कातर नेत्रों से निद्रा भी डर कर भाग गई। इसने में मटरगश्‍त करते वही सिंह आ पहुँचे और मौका देख कर व्याध से यों बोले – ‘व्याध! मैं वन का राजा हूँ। मेरा फर्मान यहाँ सब पर चलता है। कल से तू यहाँ निष्कण्ट रुप से शिकार करना। परंतु मेरी आज्ञा न मानने वाले इस रीछ को नीचे फैंक दे।’ पाठक! आप जानते है कि व्याध ने इस यत्न पर क्या किया? रीछ के सब उपकारों को भूल कर उस आशामुग्ध ने उसको धक्का दे ही तो दिया। आयुः शेष से, पुण्यबल से, धर्म की महिमा से, उस रीछ का स्वदेशी कोट एक टहनी में अटक गया और वह जाग कर, सहारा ले कर ऊपर चढ़ आया। सिंह ने अट्टहास करके कहा -‘देखो रीछ! अपने अतिथि चक्रवर्ती का प्रसाद देखो। इस अपने स्वर्ग, अपने अमृत को देखो। मैंने तुम्हें सायंकाल क्या कहा था? अब भी उस नीच को नीचे फैंक दो।’ रीछ बोला – ‘इसमें इनने क्या किया? निद्रा की असावधानता में मै ही पैर चूक गया, नीचे गिरने लगा। तू अपना मायाजाल यहाँ न फैला। चला जा।’ रीछ उसी गंभीर निर्भीक भाव से सो गया। उसको परमेश्वर की प्रीति के स्वप्‍न आने लगे और व्याध को कैसे मिश्र स्वप्‍न आए, यह हमारे रसज्ञ पाठक जान ही लेंगे। – ‘नहि कल्याणकृत कश्चिद्‌दुर्गति तात गच्छति।’

3

ब्रम्हमुहूर्त में उठ कर रीछ ने अलग व्याध को जगाया और कहा – ‘महाराज! मुझे स्नान के लिए त्रिवेणी जाना है और फिर लोकयात्रा के लिए फिरना है, मेरे साथ चलिए, मैं आपको इस कांतार से बाहर निकलने का मार्ग बतला दूँ। परंतु आप उदास क्यों हैं? क्या आपके आतिथ्य में कोई कमी रह गई? क्या मुझसे कोई कसूर हुआ?’ व्याध बात काट कर बोला – ‘नहीं, मेरा ध्यान घर की तरफ गया था। मेरे पर, अन्न-वस्त्र के लिए धर्मपत्नी और बहुत से बालक निर्भर हैं। मैंने सुख से खाया और सोया, परंतु वे बेचारे क्षुत्‍क्षामकंठ कल के भूखे हैं उनके लिए कुछ पाथेय नहीं मिला।’ रीछ ने हाथ जोड़ कर कहा – ‘नाथ! आज आपकी छुरिका त्रिवेणी में यह देह स्नान करके स्वर्ग को जाना चाहता है। यदि इस दुर्मांस से माता और भाई तृप्त हों, और इस जरचर्म से उनकी जूतियाँ बनें तो आप ‘तत सदद्य’ करें। धन्य भाग्य आज यह अनेक जन्मसंसिध्द आपके वदनाग्नि में परागति को पावै।’ व्याध ने बरछी उठा कर रीछ के हृदय में झोंक दी। प्रसन्नवदन रीछ ऋतुपर्ण की तरह बोला –

शिरामुखैः स्यन्दत एव रक्‍तनद्यापि देहे मम मांसमस्ति।

उस उदार महामान्य के आगे कर्ण का यह वाक्य क्या चीज था –

कियदिदमधिकं में यदद्विजावार्थयित्रे,

कवचमरमणीयं कुण्‍डले चार्पयामि ।

अकरुणमवकृत्य द्राक्‌कृपाणेन तिर्यग्‌,

वहलरुधिरधारं मौलिमावेदयामि॥

4

सारा अरण्य स्वर्गीय प्रकाश और सुगंध से खिल रहा है। अनागतवाद का मधुर स्वर कानों को पवित्र कर रही है। उसी वृक्ष के सहारे एक दिव्य विमान खड़ा है और परात्पर भगवान नारायण स्वयं रीछ को अपने चरणकमल में ले जाने को आए हैं। भगवान मृत्युंजय भी अपनी चंद्रकलाओं से उस शरीर को आप्यायित कर रहे हैं। देवाङ्नाएँ उसकी सेवा करने को और इंद्रादिक उसकी चरणधूलि लेने को दौड़े आ रहे हैं। जिस समय उस बर्छी का प्रवेश उस धर्मप्राण कलेवर में हुआ, भगवान नारायण आनंद से नाचते और क्लेष से तड़पते, लक्ष्‍मी को ढकेल, गरुड़ को छोड़ और शेषनाग को पेल, ‘नमे भक्तः प्रणश्यति’ को सिद्ध करते हुए दौड़ आए और रीछ को गले लगा कर आनंदाश्रु गद्‌गद कंठ से बोले -‘प्रयाग में बहुत बड़े-बड़े इंद्र, वरुण, प्रजापति और भरद्वाज के यज्ञ हुए हैं, परतु सबसे अधिक महिमापूर्ण यज्ञ यह हुआ है जिसकी पूर्णाहुति अभी हुई है। प्रिय ऋक्ष! मेरे साथ चलो, और हे नराधम! तू अपने नीच कर्मों…।’ ऋक्ष ने भगवान के चरण पकड़ कर कहा – ‘नाथ! यदि मेरा चावल भर भी पुण्य है तो इस पुरुष-रत्न को बैकुंठ ले जाइए। इसके कर्म का फल भोगने को मैं घोरातिघोर नरक में जाने को तैयार हूँ।’ भगवान विस्मित हो कर बोले – ‘यह क्या? लोक-संग्रह को उत्पन्न करते हो?’ ऋक्ष हाथ जोड़ कर बोला –

पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणामथापि वा ।

कार्यं करुणमार्येण न कश्‍चिदपराध्यति ॥

भक्‍त का आग्रह माना गया। भगवान, व्याध और ऋक्ष एक ही विमान में बैकुंठ गए।

भारतवासियो! यह तुम्हारे ही ‘महाभारत’ की कथा है। परंतु अब पुराणों की भक्ति कहने ही की रह गई। पुराणों को सिवाय ‘वीक्ष्य रंतुं मनश्चक्रे’ के और किस वासना से पढ़ता है?

 

लघु कथा

 

पाठशाला

 

क पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र, जिसकी अवस्था आठ वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुंह पीला था, आँखें सफेद थीं, दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर दे रहा था। धर्म के दस लक्षण सुना गया, नौ रसों के उदाहरण दे गया। पानी के चार डिग्री के नीचे शीतलता में फैल जाने के कारण और उससे मछलियों की प्राण-रक्षा को समझा गया, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान दे गया, अभाव को पदार्थ मानने, न मानने का शास्त्रार्थ कर गया और इंग्लैंड के राजा आठवें हेनरी की स्त्रियों के नाम और पेशवाओं का कुर्सीनामा सुना गया।

यह पूछा गया कि तू क्या करेगा? बालक ने सिखा-सिखाया उत्तर दिया कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा। सभा ‘वाह वाह’ करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था।
एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और कहा कि जो तू इनाम माँगे, वही दें। बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें, यह पढ़ाई का पुतला कौन-सी पुस्तक माँगता है।

बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दीख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ कर नकली परदे के हट जाने से स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, ‘लड्डू।’

पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरी साँस घुट रही थी। अब मैंने सुख की साँस भरी। उन सब ने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था, पर बालक बच गया। उसके बचने की आशा है, क्योंकि वह ‘लड्डू’ की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की आलमारी की सिर दुखाने वाली खड़खड़ाहट नहीं।

 

 

कछुआ-धरम   निबंध

 

नुस्मृति’ में कहा गया है कि जहाँ गुरु की निंदा या असत्कथा हो रही हो वहाँ पर भले आदमी को चाहिए कि कान बंद कर ले या कहीं उठकर चला जाए। यह हिंदुओं के या हिंदुस्तानी सभ्यता के कछुआ धरम का आदर्श है। ध्यान रहे कि मनु महाराज ने न सुनने जोग गुरु की कलंक-कथा के सुनने के पाप से बचने के दो ही उपाय बताए हैं। या तो कान ढककर बैठ जाओ या दुम दबाकर चल दो। तीसरा उपाय, जो और देशों के सौ में नब्बे आदमियों को ऐसे अवसर पर पहले सूझेगा, वह मनु ने नहीं बताया कि जूता लेकर, या मुक्का तानकर सामने खड़े हो जाओ और निंदा करने वाले का जबड़ा तोड़ दो या मुँह पिचका दो कि फिर ऐसी हरकत न करे। यह हमारी सभ्यता के भाव के विरुद्ध है। कछुआ ढाल में घुस जाता है, आगे बढ़कर मार नहीं सकता। अश्वघोष महाकवि ने बुद्ध के साथ-साथ चले जाते हुए साधु पुरुषों को यह उपमा दी है –

देशादनार्यैरभिभूयमानान्महर्षयो धर्ममिवापयान्तम्।

अनार्य लोग देश पर चढ़ाई कर रहे हैं। धर्म भागा जा रहा है। महर्षि भी उसके पीछे-पीछे चले जा रहे हैं। यह कर लेंगे कि दक्षिण के अप्रकाश देश को कोई अत्रि या अगस्त्य यज्ञों और वेदों के योग्य बना लें… तब तक ही जब तक कि दूसरे कोई राक्षस या अनार्य उसे भी रहने के अयोग्य न कर दें… पर यह नहीं कि डटकर सामने खड़े हो जावें और अनार्यों की बाढ़ को रोकें। पुराने से पुराने आर्यों की अपने भाई असुरों से अनबन हुई। असुर असुरिया में रहना चाहते थे, आर्य सप्तसिंधुओं को आर्यावर्त बनाना चाहते थे। आगे चल दिए। पीछे वे दबाते आए। विष्णु ने अग्रि और यजपात्र और अरणि रखने के लिए तीन गाड़ियाँ बनाईं, उसकी पत्नी ने उनके पहियों की चूल को घर से आंज दिया। ऊखल, मूसल और सोम कूटने के पत्थरों तक को साथ लिए हुए यह ‘कारवाँ’ मूजवत हिंदुकुश के एकमात्र दर्रे खैबर में होकर सिंधु की घाटी में उतरा। पीछे से श्वान, भ्राज, अंभारि, बंभारि, हस्त, सुहस्त, कृशन, शंड, मर्क मारते चले आते थे, वज्र की मार से पिछली गाड़ी भी आधी टूट गई, पर तीन लंबी डग भरने वाले विष्णु ने पीछे फिर नहीं देखा और न जमकर मैदान लिया। पितृभूमि अपने भ्रातृव्यों के पास छोड़ आए और यहाँ ‘भ्रातृव्यस्य वधाय’, ‘सजातानां मध्यमेष्ठ्याय’ देवताओं को आहुति देने लगे। चलो, जम गए। जहाँ-जहाँ रास्ते में टिके थे वहाँ-वहाँ यूप खड़े हो गए। यहाँ की सुजला सुफला शस्यश्यामला भूमि में ये बुलबुलें चहकने लगीं। पर ईरान के अंगूरों और गुलों का, यानी मूजवत् पहाड़ की सोमलता का, चसका पड़ा हुआ था। लेने जाते तो वे पुराने गंधर्व मारने दौड़ते। हाँ, उनमें से कोई-कोई उस समय का चिलकौआ नकद नारायण लेकर बदले में सोमलता बेचने को राजी हो जाते थे। उस समय का सिक्का गौएँ थीं। जैसे आजकल लखपति, करोड़पति कहलाते हैं वैसे तब ‘शतगु’, ‘सहस्रगु’ कहलाते थे। ये दमड़ीमल के पोते करोड़ीचंद अपने ‘नवग्वाः’, ‘दशग्वाः’ पितरों से शरमाते न थे, आदर से उन्हें याद करते थे। आजकल के मेवा बेचने वाले पेशावरियों की तरह कोई-कोई सरहदी यहाँ पर भी सोम बेचने चले आते थे। कोई आर्य सीमा प्रांत पर जाकर भी ले आया करते थे। मोल ठहराने में बड़ी हुज्जत होती थी जैसी कि तरकारियों का भाव करने में कुंजड़िनों से हुआ करती है। ये कहते कि गौ कि एक कला में सोम बेच दो। वह कहता कि वाह! सोमराजा का दाम इससे कहीं बढ़कर है। इधर ये गौ के गुण बखानते। जैसे बुड्ढे चौबेजी ने अपने कंधे पर चढ़ी बालवधू के लिए कहा था कि याही में बेटी और याही में बेटा, ऐसे ये भी कहते कि इस गौ से दूध होता है, मक्खन होता है, दही होता है, यह होता है, वह होता है। पर काबुली काहे को मानता, उसके पास सोम की मानोपली थी और इन्हें बिना लिए सरता नहीं। अंत को गौ का एक पाद, अर्ध, होते-होते दाम तै हो जाते। भूरी आँखों वाली एक बरस की बछिया में सोमराजा खरीद लिए जाते। गाड़ी में रखकर शान से लाए जाते। जैसे मुसलमानों के यहाँ सूद लेना तो हराम है, पर हिंदी साहूकारों को सूद देना हराम होने पर भी देना ही पड़ता है वैसे यह फतवा दिया गया कि ‘पापो हि सोमविक्रयी’ पर सोम क्रय करना – उन्हीं गंधर्वों के हाथ गौ बेचकर सोम लेना – पाप नहीं कहला सका। तो भी सोम मिलने में कठिनाई होने लगी। गंधर्वों ने दाम बढ़ा दिए या सफर दूर का हो गया, या रास्ते में डाके मारने वाले ‘वाहीक’ आ बसे, कुछ न कुछ हुआ। तब यह तो हो गया कि सोम के बदले में पूतिक लकड़ी का ही रस निचोड़ लिया जाए, पर यह किसी को न सूझी कि सब प्रकार के जलवायु की इस उर्वरा भूमि में कहीं सोम की खेती कर ली जाय जिससे जितना चाहे उतना सोम घर बैठे मिले। उपमन्यु को उसकी माँ ने और अश्वत्थामा को उसके बाप ने जैसे जल में आटा घोलकर दूध कहकर पतिया लिया था, वैसे पूतिक की सीखों से देवता पतियाए जाने लगे।

अच्छा, अब उसी पंचनद में वाहीक आकर बसे। अश्वघोष की फड़कती उपमा के अनुसार धर्म भागा और दंड-कमंडल लेकर ऋषि भी भागे। अब ब्रह्मवर्त, ब्रह्मर्षिदेश और आर्यावर्त की महिमा हो गई और वह पुराना देश – न तत्र दिवसं वसेत्! युगंधरे पयः पीत्वा कथं स्वर्गं गमिष्याति!!!

बहुत वर्ष पीछे की बात है। समुद्र पार के देशों में और धर्म पक्के हो चले। वे लूटते-मारते तो सही, बेधर्म भी कर देते। बस, समुद्रयात्रा बंद! कहाँ तो राम के बनाए सेतु का दर्शन करके ब्रह्महत्या मिटती थी और कहाँ नाव में जाने वाले द्विज का प्रायश्चित कराकर भी संग्रह बंद। वही कछुआ धर्म! ढाल के अंदर बैठे रहो।

पुर्तगाली यहाँ व्यापार करने आए। अपना धर्म फैलाने की भी सूझी। ‘विवृत-जघनां को विहातुं समर्थः’ ? कुएँ पर सैकड़ों नर-नारी पानी भर रहे और नहा रहे थे। एक पादरी ने कह दिया कि मैंने इसमें तुम्हारा अभक्ष्य डाल दिया है। फिर क्या था? कछुए को ढाल बल उलट दिया गया। अब वह चल नहीं सकता। किसी ने यह नहीं सोच कि अज्ञात पाप, पाप नहीं होता। किसी ने यह नहीं सोचा कि कुल्ले कर लें, घड़ें फोड़ दें या कै ही कर डालें। गाँव के गाँव ईसाई हो गए। और दूर-दूर के गाँवों के कछुओं को यह खबर लगी तो बंबई जाने में भी प्रायश्वित कर दिया गया।

हिंदू से कह दीजिए कि विलायती खांड खाने में अधर्म है। उसमें अभक्ष्य चीजें पड़ती हैं। चाहे आप वस्तुगति से कहें, चाहे राजनैतिक चालबाजी से कहें, चाहे अपने देश की आर्थिक अवस्था सुधारने के लिए उसकी सहानुभूति उपजाने को कहें। उसका उत्तर यह नहीं होगा कि राजनैतिक दशा सुधरनी चाहिए। उसका उत्तर यह नहीं होगा कि गन्ने की खेती बढ़े। उसका केवल एक ही कछुआ उत्तर होगा – वह खांड खाना छोड़ देगा, बनी-बनाई मिठाई गौओं को डाल देगा, या बोरियाँ गंगाजी में बहा देगा। कुछ दिन पीछे कहिए कि देसी खांड के बेचने वाले भी सफेद बूरा बनाने के लिए वही उपाय करते हैं। वह मैली खांड खाने लगेगा। कुछ दिन ठहरकर कहिए कि सस्ती जावा या मोरस की खांड मैली करके बिक रही है। वह गुड़ पर उतर आवेगा। फिर कहिए कि गुड़ के शीरे में भी सस्ती मोरिस की मैल का मेल है। वह गुड़ छोड़कर पितरों की तरह शहद (मधु) खाने लगेगा, या मीठा ही खाना छोड़ देगा। वह सिर निकालकर यह न देखेगा कि सात सेर की खांड छोड़कर डेढ़ सेर की कब तक खाई जाएगी, यह न सोचेगा कि बिना मीठे कब तक रहा जाएगा। यह नहीं देखेगा कि उसकी सी मति वाले शरबत न पीने वालों की संख्या घटती-घटती दहाइयों और इकाइयों पर आ-जा रही है, वह यह नहीं विचारेगा कि बन्नू से कलकत्ते तक डाकगाड़ी में यात्रा करने वाला जून के महीने में झुलसते हुए कंठ को बरफ से ठंडा बिना किए नहीं रह सकता। उसका कछुआपन कछुआ-भगवान की तरह पीठ पर मंदराचल की मथनी चलाकर समुद्र से नए-नए रत्न निकालने के लिए नहीं है। उसका कछुआपन ढाल के भीतर और भी सिकुड़कर घुस जाने के लिए है।

किसी बात का टोटा होने पर उसे पूरा करने की इच्छा होती है, दुख होने पर उसे मिटाना चाहते हैं। यह स्वभाव है। अपनी-अपनी समझ है। संसार में त्रिविध दुख दिखाई पड़ने लगे। उन्हें मिटाने के लिए उपाय भी किए जाने लगे। ‘दृष्ट’ उपाय हुए। उनसे संतोष न हुआ तो सुने सुनाए (आनुश्रविक) उपाय किए। उनसे भी मन न भरा। सांख्यों ने काठ कड़ी गिन-गिनकर उपाय निकाला, बुद्ध ने योग में पककर उपाय खोजा, किसी ने कहा कि बहस, बकझक, वाक्छल, बोली की चूक पकड़ने और कच्ची दलीलों की सीवन उधेड़ने में ही परम पुरुषार्थ है। यही शगल सही। किसी न किसी तरह कोई न कोई उपाय मिलता गया। कछुओं ने सोचा, चोर को क्या मारें, चोर की माँ को ही न मारें। न रहे बाँस न बजे बाँसुरी। यह जीवन ही तो सारे दुखों की जड़ है। लगीं प्रार्थनाएँ होने –

‘मा देहि राम! जननीजठरे निवासम्’ ‘ज्ञात्वेत्थं न पुनः स्पृशन्ति जननी-गर्भेर्भकत्वं जनाः’ और यह उस देश में जहाँ कि सूर्य का उदय होना इतना मनोहर था कि ऋषियों का यह कहते तालू सूखता था कि सौ बरस इसे हम उगता देखें, सौ बरस सुनें, सौ बरस से भी अधिक। भला जिस देश में बरस में दो ही महीने घूम-फिर सकते हों और समुद्र की मछलियाँ मारकर नमक लगाकर सुखाकर रखना पड़े कि दस महीने के शीत और अंधियारे में क्या खाएँगे, वहाँ जीवन में इतनी ग्लानि हो तो समझ में आ सकती है पर जहाँ राम के राज में ‘अकृष्टपच्या पृथिवी पुटके पुटके मधु’ बिना खेती के फसलें पक जाएँ और पत्ते-पत्ते में शहद मिले, वहाँ इतना वैराग्य क्यों?

हयग्रीव या हिरण्याक्ष दोनों में से किसी एक दैत्य से देव बहुत तंग थे। कवि कहता है –

विनिर्गतं मानदमात्ममंदिराद्भवत्युपश्रुत्य यदृच्छयापि यम्।
ससंभ्रमेन्द्रद्रुतपातितार्गला निमीलिताक्षीवभियामरावती॥

महाशय यों ही मौज से घूमने निकले हैं। सुरपुर में अफवाह पहुँची। बस, इंद्र ने झटपट किवाड़ बंद कर दिए, आगल डाल दी। मानो अमरावती ने आँखें बंद कर लीं।

यह कछुआ-धरम का भाई शुतुर्मुर्ग-धरम है। कहते हैं कि शुतुर्मुर्ग का पीछा कीजिए तो वह बालू में सिर छिपा लेता है। समझता है कि मेरी आँखों से पीछा करने वाला नहीं दीखता तो उसे भी मैं नहीं दीखता। लंबा-चौड़ा शरीर चाहे बाहर रहे, आँखें और सिर तो छिपा लिया। कछुए ने हाथ-पाँव-सिर भीतर डाल लिया।

इस लड़ाई में कम-से-कम पाँच लाख हिंदू आगे-पीछे समुद्र पर जा आए हैं। पर आज कोई पढ़ने के लिए विलायत जाने लगे तो हनोज़ रोज़ अव्वल अस्त! अभी पहिला ही दिन है! सिर रेत में छिपा है!!

 

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