परिचय
जन्म: 22 अक्तूबर 1947
निधन: 18 दिसंबर 2011 उपनाम -अदम गोंडवी मूल नाम – रामनाथ सिंह जन्म स्थान आटा ग्राम, परसपुर, गोंडा, उत्तर प्रदेश शिक्षा – अनौपचारिक
कुछ प्रमुख कृतियाँ धरती की सतह पर, समय से मुठभेड़ विशेष बाईस अक्तूबर 1947 को गोस्वामी तुलसीदास के गुरु स्थान सूकर क्षेत्र के करीब परसपुर (गोंडा) के आटा ग्राम में स्व. श्रीमती मांडवी सिंह एवं श्री देवी कलि सिंह के पुत्र के रूप में बालक रामनाथ सिंह का जन्म हुआ जो बाद में “अदम गोंडवी” के नाम से सुविख्यात हुए। अदम जी कबीर परंपरा के कवि थे, अंतर यही कि अदम ने कागज़ कलम छुआ पर उतना ही जितना किसान ठाकुर के लिए जरूरी था । खेती एवं लेखन साथ – साथ चलता रहा । अदम जी शहरी शायर के शालीन और सुसंस्कृत लहजे में बोलने के बजाय दो टूकपन और बेतकल्लुफी से काम लेते थे। उनके कथन में आक्रामकता और तड़प से भरी हुई व्यंग्मयता है। उनकी गणना दुष्यंत के बाद के सर्वाधिक लोकप्रिय जनवादी गजलकार के रूप में होती है ।उनके दो गजल संग्रह ” किताब घर” प्रकाशन से ‘धरती की सतह पर’ और ‘समय से मुठभेड़’ प्रकाशित हुये हैं। रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंड़वी कई मायने में ‘अचरज’ की तरह थे। प्रसिद्ध आलोचक डा. मैनेजर पांडेय ने अदम गोड़ंवी की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘‘ कविता की दुनिया में अदम एक अचरज की तरह है।’’ हिन्दी साहित्य में विद्रोही तेवर रखने वाले चाहे वे उपन्यास सम्राट प्रेमचंद हो या आधुनिक कबीर अदम गोंडवी हो, जीवन भर आभाव में ही रहे। धन के आभाव में बीमारी से लड़ नहीं पाए, एक-दो को छोड़कर कोई साथ देने नहीं आया और अततः 18 दिसंबर वर्ष 2011 को लखनउ में सबको छोड़कर चले गए। धन नहीं रहने का कभी मलाल नहीं रहा, एक अचरज भरी बेबाकी और साफगोई ने अदम गोंडवी को आम लोगों का कवि बना दिया। गंवार से दिखने वाले अदम गोंडवी धोती और कमीज पहनकर जब बड़े शान से अपनी कविताओं का पाठ मंच पर करते, तो सुनने वाले चाहे जो भी हों अंदर तक हिल जाते थे । प्रस्तुत हैं -अदम जी कुछ रचनाएँ जो आप को कुछ सोचने पर मजबूर कर देंगी । रचनाएँ काजू भुने प्लेट में काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें जनता के पास एक ही चारा है बगावत घर में ठंडे चूल्हे पर घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी। बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में। सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे। वेद में जिनका हवाला वेद में जिनका हवाला हाशिए पर भी नहीं। लोकरंजन हो जहाँ शंबूक वध की आड़ में। कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का यथार्थ। बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे। विकट बाढ़ की करुण कहानी विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्यास लिखा है। क्रूर नियति ने इसकी किस्मत से कैसा खिलवाड़ किया। छाया मंदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई नागफनी जो उगा रही है गमलों में गुलाब के बदले लू के गर्म झकोरों से जब पछुवा तन को झुलसा जाती अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है भूख के एहसास को भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाक़िफ़ हो गयी मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग चाँद है ज़ेरे कदम चाँद है ज़ेरे क़दम. सूरज खिलौना हो गया शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास अब किसी लैला को भी इक़रारे-महबूबी नहीं ग़ज़ल को ले चलो ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में न इनमें वो कशिश होगी, न बू होगी, न रानाई अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ रहे मुफ़लिस गुज़रते बे-यक़ीनी के तज़रबे से कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपकोजिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने – निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया “कैसी चोरी, माल कैसा” उसने जैसे ही कहा होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर “मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे “कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से फिर दहाड़े, “इनको डंडों से सुधारा जाएगा इक सिपाही ने कहा, “साइकिल किधर को मोड़ दें बोला थानेदार, “मुर्गे की तरह मत बांग दो ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखियेजो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़ उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी हैउधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है लगी है होड़ – सी देखो अमीरी औ गरीबी में तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई हैइधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहेतालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।।भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी। सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।। बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में। सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे। आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िंदगी आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िंदगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िंदगीभुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल मौत के लमहात से भी तल्ख़तर है ज़िंदगी डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे दफ़्न होता है जहाँ आ कर नई पीढ़ी का प्यार बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को ।सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए, गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को । शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून, पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है, जुल्फ़-अंगडाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाबपेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की क़िताब इस सदी की तिश्नगी का ज़ख़्म होंठों पर लिए डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल चार दिन फुटपाथ के साये में रहकर देखिए |