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परिचय

मूल नाम : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

जन्म : 26 अगस्त 1891, बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी

विधाएँ : उपन्यास, कहानी, निबंध

मुख्य कृतियाँ

उपन्यास : वयं रक्षामः, सोना और खून (चार भाग), बगुला के पंख, अपराजिता, राजधर्म, अतीत, वैशाली की नगरवधू, आँधी की नींवें, सोमनाथ, मंदिर की नर्तकी, रक्त की प्यास,आलमगीर, सह्याद्रि की चट्टानें, अमर सिंह, ह्रदय की परख
कहानी संग्रह : रजकण, अक्षत
निबंध संग्रह : अंतस्तल, मेरी खाल की हाय, तरलाग्नि
बाल साहित्य : महापुरुषों की झाँकियाँ, हमारा शहर

निधन
2 फरवरी, 1960
विशेष
 आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने लगभग पचास वर्ष के लेखकीय जीवन में 177 कृतियों का सृजन किया 32 उपन्यास, 450 कहानियां और अनेक नाटकों का सृजन कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया ।उनकी प्रमुख कृतियां हैं- वैशाली की नगरवधू , सोमनाथ, वयंरक्षामः, गोली, सोना और खून (तीन खंड), रक्त की प्यास, हृदय की प्यास, अमर अभिलाषा, नरमेघ, अपराजिता, धर्मपुत्र (उपन्यास) राजसिंह, छत्रसाल, गांधारी, श्रीराम, अमरसिंह, उत्सर्ग, क्षमा (नाटक), हृदय की परख, अंतस्तल, अनुताप, रूप, दुःख, मां गंगी, अनूपशहर के घाट पर, चित्तौड़ के किले में, स्वदेश (गद्यकाव्य) मेरी आत्मकहानी (आत्मकथा), हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास (सात खंड), अक्षत, रजकण, वीर बालक, मेघनाद, सीताराम, सिंहगढ़ विजय, वीरगाथा, लम्बग्रीव, दुखवा मैं कासों कहूं सजनी, कैदी, आदर्श बालक, सोया हुआ शहर, कहानी खत्म हो गई, धरती और आसमान, मेरी प्रिय कहानियां (कहानी संग्रह), आरोग्य शास्त्र, अमीरों के रोग, छूत की बीमारियां, सुगम चिकित्सा, काम-कला के भेद (आयुर्वेदिक ग्रंथ), सत्याग्रह और असहयोग, गोलसभा, तरलाग्नि, गांधी की आंधी (पराजित गांधी), मौत के पंजे में जिन्दगी की कराह (राजनीति), राधाकृष्ण, पांच एकांकी, प्रबुद्ध, सत्यव्रत हरिश्चंद्र, अष्ट मंगल (एकांकी संग्रह )।

इनके अतिरिक्त शास्त्री जी ने प्रौढ़ शिक्षा, स्वास्थ्य, धर्म, इतिहास, संस्कृति और नैतिक शिक्षा पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी । ऐतिहासिक उपन्यासों के माध्यम से उन्होंने कई अविस्मरणीय चरित्र हिन्दी साहित्य को प्रदान किए। चार खंडों में लिखे गए सोना और ख़ून के दूसरे भाग में 1857 की क्रांति के दौरान मेरठ अंचल में लोगों की शहादत का मार्मिक वर्णन किया गया है । गोली उपन्यास में राजस्थान के राजा-महाराजाओं और दासियों के संबंधों को उकेरते हुए समकालीन समाज को रेखांकित किया गया है । अपनी समर्थ भाषा शैली के चलते शास्त्रीजी ने अद्भुत लोकप्रियता हासिल की और वह जन साहित्यकार बने । चतुरसेन शास्त्री हिन्दी के उन साहित्यकारों में हैं जिनका लेखन-क्रम साहित्य की किसी एक विशिष्ट विधा में सीमित नहीं किया जा सकता। उन्होंने अपनी किशोरावस्था से ही हिन्दी में कहानी और गीतिकाव्य लिखना आरंभ कर दिया था। बाद में उनका साहित्य-क्षितिज फैलता गया और वे उपन्यास, नाटक, जीवनी, संस्मरण, इतिहास तथा धार्मिक विषयों पर लिखने लगे।
शास्त्रीजी अध्येता ही नहीं, कुशल चिकित्सक भी थे। उन्होंने आयुर्वेद संबंधी लगभग एक दर्जन ग्रंथ लिखे। व्यवसाय से वैद्य होने पर भी उन्होंने साहित्य-सर्जन में गहरी रुचि बनाए रखी ।शास्त्रीजी अपनी शैली के अनोखे लेखक थे, जो अपने कथा-साहित्य में भी इतिहास, राजनीति, धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र और युगबोध से सम्पृक्त विविध विषयों को दृष्टि में रखकर लिखते थे। इनकी सर्वाधिक चर्चित कृतियों में ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘वयं रक्षाम’ और ‘सोमनाथ’ प्रमुख हैं। पढ़िए शास्त्री जी कुछ चर्चित कहानियाँ

नामालूम सी एक खता  – कहानी

र्मी के दिन थे। बादशाह ने उसी फागुन में सलीमा से नई शादी की थी। सल्तनत के झंझटों से दूर रहकर नई दुल्हन के साथ प्रेम और आनंद की कलोल करने वे सलीमा को लेकर कश्मीर के दौलतखाने में चले आए थे।

रात दूध में नहा रही थी। दूर के पहाडों की चोटियाँ बर्फ से सफेद होकर चाँदनी में बहार दिखा रही थीं। आरामबाग के महलों के नीचे पहाडी नदी बल खाकर बह रही थी। मोतीमहल के एक कमरे में शमादान जल रहा था और उसकी खुली खिडकी के पास बैठी सलीमा रात का सौंदर्य निहार रही थी।

खुले हुए बाल उसकी फिरोजी रंग की ओढनी पर खेल रहे थे। चिकन के काम से सजी और मोतियों से गुँथी हुई फिरोजी रंग की ओढनी पर, कसी कमखाब की कुरती और पन्नों की कमरपेटी पर अंगूर के बराबर बडे मोतियों की माला झूम रही थी। सलीमा का रंग भी मोती के समान था। उसकी देह की गठन निराली थी। संगमरमर के समान पैरों में जरी के काम के जूते पडे थे, जिन पर दो हीरे दक-दक चमक रहे थे।

कमरे में एक कीमती ईरानी कालीन का फर्श बिछा हुआ था, जो पैर रखते ही हाथ-भर नीचे धँस जाता था। सुगंधित मसालों से बने शमादान जल रहे थे। कमरे में चार पूरे कद के आईने लगे थे। संगमरमर के आधारों पर सोने-चाँदी के फूलदानों में ताजे फूलों के गुलदस्ते रखे थे। दीवारों और दरवाजों पर चतुराई से गुँथी हुई नागकेसर और चम्पे की मालाएँ झूल रही थीं, जिनकी सुगंध से कमरा महक रहा था। कमरे में अनगिनत बहुमूल्य कारीगरी की देश-विदेश की वस्तुएँ करीने से सजी हुई थीं।

बादशाह दो दिन से शिकार को गए थे। इतनी रात होने पर भी नहीं आए थे। सलीमा खिडकी में बैठी प्रतीक्षा कर रही थी। सलीमा ने उकताकर दस्तक दी। एक बांदी दस्तबस्ता हाजिर हुई।

बांदी सुंदर और कमसिन थी। उसे पास बैठने का हुक्म देकर सलीमा ने कहा-

‘साकी, तुझे बीन अच्छी लगती है या बाँसुरी?

बांदी ने नम्रता से कहा- हुजूर जिसमें खुश हों।

सलीमा ने कहा- पर तू किसमें खुश है?

बांदी ने कम्पित स्वर में कहा- सरकार! बांदियों की खुशी ही क्या!

सलीमा हँसते-हँसते लोट गई। बांदी ने बंशी लेकर कहा- क्या सुनाऊँ?

बेगम ने कहा- ठहर, कमरा बहुत गरम मालूम देता है, इसके तमाम दरवाजे और खिडकियाँ खोल दे। चिरागों को बुझा दे, चटखती चाँदनी का लुत्फ उठाने दे और वे फूलमालाएँ मेरे पास रख दे।

बांदी उठी। सलीमा बोली- सुन, पहले एक गिलास शरबत दे, बहुत प्यासी हूँ।

बांदी ने सोने के गिलास में खुशबूदार शरबत बेगम के सामने ला धरा। बेगम ने कहा- उफ्! यह तो बहुत गर्म है। क्या इसमें गुलाब नहीं दिया?

बांदी ने नम्रता से कहा- दिया तो है सरकार!

‘अच्छा, इसमें थोडा सा इस्तम्बोल और मिला।

साकी गिलास लेकर दूसरे कमरे में चली गई। इस्तम्बोल मिलाया और भी एक चीज मिलाई। फिर वह सुवासित मदिरा का पात्र बेगम के सामने ला धरा।

एक ही साँस में उसे पीकर बेगम ने कहा- अच्छा, अब सुनो। तूने कहा था कि तू मुझे प्यार करती है; सुना, कोई प्यार का ही गाना सुना।

इतना कह और गिलास को गलीचे पर लुढकाकर मदमाती सलीमा उस कोमल मखमली मसनद पर खुद भी लुढक गई और रस-भरे नेत्रों से साकी की ओर देखने लगी। साकी ने बंशी का सुर मिलाकर गाना शुरू किया :

दुखवा मैं कासे कँ मोरी सजनी…

बहुत देर तक साकी की बंशी कंठ ध्वनि कमरे में घूम-घूमकर रोती रही। धीरे-धीरे साकी खुद भी रोने लगी। साकी मदिरा और यौवन के नशे में चूर होकर झूमने लगी।

गीत खत्म करके साकी ने देखा, सलीमा बेसुध पडी है। शराब की तेजी से उसके गाल एकदम सुर्ख हो गए हैं और और ताम्बुल-राग रंजित होंठ रह-रहकर फडक रहे हैं। साँस की सुगंध से कमरा महक रहा है। जैसे मंद पवन से कोमल पत्ती काँपने लगती है, उसी प्रकार सलीमा का वक्षस्थल धीरे-धीरे काँप रहा है। प्रस्वेद की बूँदें ललाट पर दीपक के उज्ज्वल प्रकाश में मोतियों की तरह चमक रही हैं।

बंशी रखकर साकी क्षणभर बेगम के पास आकर खडी हुई। उसका शरीर काँपा, आँखें जलने लगी, कंठ सूख गया। वह घुटने के बल बैठकर बहुत धीरे-धीरे अपने आंचल से बेगम के मुख का पसीना पोंछने लगी। इसके बाद उसने झुककर बेगम का मुँह चूम लिया।

फिर ज्यों ही उसने अचानक आँख उठाकर देखा, तो पाया खुद दीन-दुनिया के मालिक शाहजहाँ खडे उसकी यह करतूत अचरज और क्रोध से देख रहे हैं।

साकी को साँप डस गया। वह हतबुध्दि की तरह बादशाह का मुँह ताकने लगी। बादशाह ने कहा- तू कौन है? और यह क्या कर रही थी?

साकी चुप खडी रही। बादशाह ने कहा- जवाब दे!

साकी ने धीमे स्वर में कहा- जहाँपनाह- कनीज अगर कुछ जवाब न दे, तो?

बादशाह सन्नाटे में आ गए- बांदी की इतनी हिम्मत?

उन्होंने फिर कहा- मेरी बात का जवाब नहीं? अच्छा, तुझे निर्वस्त्र करके कोडे लगाए जाएँगे।!

साकी ने अकम्पित स्वर में कहा- मैं मर्द हूँ।

बादशाह की आँखों में सरसों फूल उठी। उन्होंने अग्निमय नेत्रों से सलीमा की ओर देखा। वह बेसुध पडी सो रही थी। उसी तरह उसका भरा यौवन खुला पडा था। उनके मुँह से निकला- उफ्! फाहशा! और तत्काल उनका हाथ तलवार की मूठ पर गया। फिर उन्होंने कहा- दोजख के कुत्ते! तेरी यह मजाल!

फिर कठोर स्वर से पुकारा- मादूम!

एक भयंकर रूप वाली तातारी औरत बादशाह के सामने अदब से आ खडी हुई। बादशाह ने हुक्म दिया- इस मरदूद को तहखाने में डाल दे, ताकि बिना खाए-पिए मर जाए।

मादूम ने अपने कर्कश हाथों से युवक का हाथ पकडा और ले चली। थोडी देर बाद दोनों एक लोहे के मजबूत दरवाजे के पास आ खडे हुए। तातारी बांदी ने चाभी निकाल दरवाजा खोला और कैदी को भीतर ढकेल दिया। कोठरी की गच कैदी का बोझ ऊपर पडते ही काँपती हुई नीचे धसकने लगी!

प्रभात हुआ। सलीमा की बेहोशी दूर हुई। चौंककर उठ बैठी। बाल सँवारने, ओढनी ठीक की और चोली के बटन कसने को आईने के सामने जा खडी हुई। खिडकियाँ बंद थीं। सलीमा ने पुकारा- साकी! प्यारी साकी! बडी गर्मी है, जरा खिडकी तो खोल दे। निगोडी नींदने तो आज गजब ढा दिया। शराब कुछ तेज थी।

किसी ने सलीमा की बात न सुनी। सलीमा ने जरा जोर से पुकारा- साकी!

जवाब न पाकर सलीमा हैरान हुई। वह खुद खिडकी खोलने लगी। मगर खिडकियाँ बाहर से बंद थीं। सलीमा ने विस्मय से मन-ही-मन कहा क्या बात है लौंडियाँ सब क्या हुईं?

वह द्वार की तरफ चली। देखा, एक तातारी बांदी नंगी तलवार लिए पहरे पर मुस्तैद खडी है। बेगम को देखते ही उसने फिर झुका लिया।

सलीमा ने क्रोध से कहा- तुम लोग यहाँ क्यों हो?

‘बादशाह के हुक्म से।

‘क्या बादशाह आ गए।

‘जी हाँ।

‘मुझे इत्तिला क्यों नहीं की?

‘हुक्म नहीं था।

‘बादशाह कहाँ हैं?

‘जीनतमहल के दौलतखाने में।

सलीमा के मन में अभिमान हुआ। उसने कहा- ठीक है, खूबसूरती की हाट में जिनका कारबार है, वे मुहब्बत को क्या समझेंगे? तो अब जीनतमहल की किस्मत खुली?

तातारी स्त्री चुपचाप खडी रही। सलीमा फिर बोली- मेरी साकी कहाँ है?

‘कैद में।

‘क्यों?

‘जहाँपनाह का हुक्म।

‘उसका कुसूर क्या था?

‘मैं अर्ज नहीं कर सकती।

‘कैदखाने की चाभी मुझे दे, मैं अभी उसे छुडाती हूँ।

‘आपको अपने कमरे से बाहर जाने का हुक्म नहीं है।

‘तब क्या मैं भी कैद हूँ?

‘जी हाँ।
सलीमा की आँखों में आँसू भर आए। वह लौटकर मसनद पर गड गई और फूट-फूटकर रोने लगी। कुछ ठहरकर उसने एक खत लिखा :

‘हुजूर! कुसूर माफ फर्मावें। दिनभर थकी होने से ऐसी बेसुध सो गई कि हुजूर के इस्तकबाल में हाजिर न रह सकी। और मेरी उस लौंडी को भी जाँ बख्शी की जाए। उसने हुजूर के दौलतखाने में लौट आने की इत्तला मुझे वाजिबी तौर पर न देकर बेशक भारी कुसूर किया है। मगर वह नई कमसिन, गरीब और दुखिया है।

– कनीज

सलीमा

चिट्ठी बादशाह के पास भेज दी गई। बादशाह ने आगे होकर कहा- लाई क्या है?

बांदी ने दस्तबस्ता अर्ज की- खुदावन्द! सलीमा बीबी की अर्जी है!

बादशाह ने गुस्से से होंठ चबाकर कहा- उससे कह दे कि मर जाए! इसके बाद खत में एक ठोकर मारकर उन्होंने उधर से मुँंह फेर लिया।

बांदी सलीमा के पास लौट आई। बादशाह का जवाब सुनकर सलीमा धरती पर बैठ गई। उसने बांदी को बाहर जाने का हुक्म दिया और दरवाजा बंद करके फूट-फूटकर रोई। घंटों बीत गए, दिन छिपने लगा। सलीमा ने कहा- हाय! बादशाहों की बेगम होना भी क्या बदनसीबी है। इंतजारी करते-करते आँखें फूट जाएँ, मिन्नतें करते-करते जबान घिस जाए, अदब करते-करते जिस्म टुकडे-टकडे हो जाए फिर भी इतनी सी बात पर कि मैं जरा सो गई,उनके आने पर जग न सकी, इतनी सजा! इतनी बेइज्जती! तब मैं बेगम क्या हुई? जीनत और बांदियाँ सुनेंगी तो क्या कहेंगी? इस बेइज्जती के बाद मुँह दिखाने लायक कहाँ रही? अब तो मरना ही ठीक है। अफसोस- मैं किसी गरीब किसान की औरत क्यों न हुई!

धीरे-धीरे स्त्रीत्व का तेज उसकी आत्मा में उदय हुआ। गर्व और दृढ प्रतिज्ञा के चिन्ह उसके नेत्रों में छा गए। वह साँपिन की तरह चपेट खाकर उठ खडी हुई। उसने एक और खत लिखा:

‘दुनिया के मालिक!

आपकी बीवी और कनीज होने की वजह से मैं आपके हुक्म को मानकर मरती हूँ। इतनी बेइज्जती पाकर एक मलिका का मरना ही मुनासिब भी है। मगर इतने बडे बादशाह को औरतों को इस कदर नाचीज तो न समझना चाहिए कि एक अदनी-सी बेवकूफी की इतनी कडी सजा दी जाए। मेरा कुसूर सिर्फ इतना ही था कि मैं बेखबर सो गई थी। खैर, सिर्फ एक बार हुजूर को देखने की ख्वाहिश लेकर मरती हूँ। मैं उस पाक परवरदिगार के पास जाकर अर्ज करूँगी कि वह मेरे शौहर को सलामत रखे।

-सलीमा

खत को इत्र से सुवासित करके ताजे फूलों के एक गुलदस्ते में इस तरह रख दिया कि जिससे किसी कि उस पर फौरन ही नजर पड जाए। इसके बाद उसने जवाहरात की पेटी से एक बहुमूल्य ऍंगूठी निकाली और कुछ देर तक आँखें गडा-गडाकर उसे देखती रही। फिर उसे चाट गई।

बादशाह शाम की हवाखोरी को नजरबाग में टहल रहे थे। दो-तीन खोजे घबराए हुए आए और चिट्ठी पेश करके अर्ज की- हुजूर गजब हो गया! सलीमा बीबी ने जहर खा लिया है और वह मर रही हैं!

क्षण-भर में बादशाह ने खत पढ लिया। झपटे हुए सलीमा के महल पहुँचे। प्यारी दुलहिन सलीमा जमीन पर पडी है। आँखें ललाट पर चढ गई हैैं। रंग कोयले के समान हो गया है। बादशाह से न रहा गया। उन्होंने घबराकर कहा- हकीम, हकीम को बुलाओ! कई आदमी दौडे।

बादशाह का शब्द सुनकर सलीमा ने उसकी तरफ देखा और धीमे स्वर में कहा- जहे-किस्मत!

बादशाह ने नजदीक बैठकर कहा- सलीमा! बादशाह की बेगम होकर क्या तुम्हें यही लाजिम था?

सलीमा ने कष्ट से कहा- हुजूर! मेरा कुसूर बहुत मामूली था।

बादशाह ने कडे स्वर में कहा- बदनसीब! शाही जनानखाने में मर्द को भेष बदलकर रखना मामूली कुसूर समझती है? कानों पर यकीन कभी न करता,मगर आँखों-देखी को भी झूठ मान लूँ?

तडफकर सलीमा ने कहा- क्या?

बादशाह डरकर पीछे हट गए। उन्होंने कहा- सच कहो, इस वक्त तुम खुदा की राह पर हो, यह जवान कौन था?

सलीमा ने अचकचाकर पूछा- कौन जवान?

बादशाह ने गुस्से से कहा- जिसे तुमने साकी बनाकर पास रखा था।

सलीमा ने घबराकर कहा- हैं! क्या वह मर्द है?

बादशाह- तो क्या तुम सचमुच यह बात नहीं जानतीं?

सलीमा के मुँह से निकला- या खुदा!

फिर उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे। वह सब मामला समझ गई। कुछ देर बाद बोली- खाविन्द! तब तो कुछ शिकायत ही नहीं; इस कुसूर को तो यही सजा मुनासिब थी। मेरी बदगुमानी माफ फर्माई जाए। मैं अल्लाह के नाम पर पडी कहती हूँ, मुझे इस बात का कुछ भी पता नहीं है।

बादशाह का गला भर आया। उन्होंने कहा- तो प्यारी सलीमा! तुम बेकुसूर ही चलीं? – बादशाह रोने लगे।

सलीमा ने उनका हाथ पकडकर अपनी छाती पर रखकर कहा- मालिक मेरे! जिसकी उम्मीद न थी, मरते वक्त वह मजा मिल गया। कहा-सुना माफ हो और एक अर्ज लौंडी की मंजूर हो।

बादशाह ने कहा- जल्दी कहो सलीमा!

सलीमा ने साहस से कहा- उस जवान को माफ कर देना।

इसके बाद सलीमा की आँखों से आँसू बह चले, और थोडी ही देर में वह ठंडी हो गई।!

बादशाह ने घुटनों के बल बैठकर उसका ललाट चूमा और फिर बालक की तरह रोने लगे।

गजब के ऍंधेरे और सर्दी में युवक भूखा-प्यासा पडा था। एकाएक घोर चीत्कार करके किवाड खुले। प्रकाश के साथ ही एक गंभीर शब्द तहखाने में भर गया- बदनसीब नौजवान! क्या होश-हवास में है?

युवक ने तीव्र स्वर में पूछा- कौन?

जवाब मिला- बादशाह।

युवक ने कुछ भी अदब किए बिना कहा- यह जगह बादशाहों के लायक नहीं है। क्यों तशरीफ लाए हैं?

‘तुम्हारी कैफियत नहीं सुनी थी, उसे सुनने आया हूँ।

कुछ देर चुप रहकर युवक ने कहा- सिर्फ सलीमा को झूठी बदनामी से बचाने के लिए कैफियत देता हूँ। सुनिए : सलीमा जब बच्ची थी, मैं उसके बाप का नौकर था। तभी से मैं उसे प्यार करता था। सलीमा भी प्यार करती थी, पर वह बचपन का प्यार था। उम्र होने पर सलीमा पर्दे में रहने लगी और फिर वह शहंशाह की बेगम हुई। मगर मैं उसे भूल न सका। पाँच साल तक पागल की तरह भटकता रहा, अंत में भेष बदलकर बांदी की नौकरी कर ली। सिर्फ उसे देखते रहने और खिदमत करके दिन गुजारने का इरादा था। उस दिन उज्ज्वल चाँदनी, सुगंधित पुष्पराशि, शराब की उत्तेजना और एकांत ने मुझे बेबस कर दिया। उसके बाद मैंने आँचल से उसके मुख का पसीना पोंछा और मुँह चूम लिया। मैं इतना ही खतावार हूँ। सलीमा इसकी बाबद कुछ नहीं जानती।

बादशाह कुछ देर चुपचाप खडे रहे। इसके बाद वे बिना दरवाजा बंद किए ही धीरे-धीरे चले गए।

सलीमा की मृत्यु को दस दिन बीत गए। बादशाह सलीमा के कमरे में ही दिन-रात रहते हैैं। सामने नदी के उस पार पेडों के झुरमुट में सलीमा की सफेद कब्र बनी है। जिस खिडकी के पास सलीमा बैठी उस दिन-रात को बादशाह की प्रतीक्षा कर रही थी, उसी खिडकी में उसी चौकी पर बैठे हुए बादशाह उसी तरह सलीमा की कब्र दिन-रात देखा करते हैं। किसी को पास आने का हुक्म नहीं। जब आधी रात हो जाती है, तो उस गंभीर रात्रि के सन्नाटे में एक मर्मभेदिनी गीतध्वनि उठ खडी होती है। बादशाह साफ-साफ सुनते हैं, कोई करुण-कोमल स्वर में गा रहा है.. ‘दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी… ——

फंदा – कहानी

न् १९१७ का दिसम्बर था। भयानक सर्दी थी। दिल्ली के दरीबे-मुहल्ले की एक तंग गली में एक अँधेरे और गन्दे मकान में तीन प्राणी थे। कोठरी के एक कोने में एक स्त्री बैठी हुई अपने गोद के बच्चे को दूध पिला रही थी, परन्तु यह बात सत्य नहीं है, उसके स्तनों का प्रायः सभी दूध सूख गया था और उन बे-दूध के स्तनों को बच्चा आँख बन्द किए चूस रहा था। स्त्री का मुँह परम सुन्दर होने पर भी इस वक्त ज़र्द और सूखा हुआ दिखाई दे रहा था। यह स्पष्ट ही मालूम होता था कि उसके पहले शरीर का सिर्फ अस्थि-पंजर ही रह गया है। गाल पिचक गए थे, आँखें धंस गई थीं और उनके चारों ओर नीली रेखा पड़ गई थी तथा ओंठ मुर्दे की तरह विदर्ण हो गए थे। मानो वेदना और दरिद्रता मूर्तिमयी होकर उस स्त्री के आकार में प्रकट हुई थी। ऐसी उस माता की गोद में वह कंकालाविष्ट बच्चा अध-मुर्दा पड़ा था। उसकी अवस्था आठ महीने की होगी, पर वह आठ सप्ताह का भी तो नहीं मालूम होता था। स्त्री के निकट ही एक आठ वर्ष का बालक बैठा हुआ था, जिसकी देह बिल्कुल सूख गई थी, और इस भयानक सर्दी से बचाने के योग्य उसके शरीर पर एक चिथड़ा मात्र वस्त्र था। वह चुपचाप भूखा और बदहवास माँ की बगल में बैठा टुकुर-टुकुर उसका मुँह देख रहा था।

इनसे दो हाथ के फासले पर तीन साल की बालिका पेट की आग से रो रही थी। जब वह रोते-रोते थक जाती अथवा चुपचाप आँख बन्द करके पड़ जाती थी, पर थोड़ी देर बाद वह फिर तड़पने लगती थी। बेचारी असहाय अबला विमूढ़ बनी अतिशय विचलित होकर अपने प्राणों से प्यारे बच्चों की यह वेदना देख रही थी। कभी-कभी वह अत्यन्त अधीर हो कर गोद के बच्चे को घूर-घूर कर देखने लगती, दो-एक बूँद आँसू ढरक जाते, और कुछ अस्फुट शब्द मुख से निकल पड़ते थे, जिन्हें सुन और कुछ-कुछ समझकर पास बैठे बालक को कुछ कहने का साहस नहीं होता था। इस छोटे से परिवार को इस मकान में आए और इस जीवन में रहते पाँच मास बीत रहे थे। पाँच मास प्रथम यह परिवार सुखी और सम्पन्न था। बच्चे प्रातःकाल कलेवा कर गीत गाते, स्कूल जाते थे। इसी मुहल्ले में इनका सुन्दर मकान था, और है, पर एक ही घटना से यहाँ तक नौबत आ गई थी। इस परिवार के कर्णधार, एकमात्र स्वामी, बच्चों के पिता और दुखिया स्त्री के जीवन-धन मास्टर साहब, जिन्हें सैकड़ों अमीरों और गरीबों के बच्चे अभिवादन कर चुके थे, जो मुहल्ले के सुजन, हँसमुख और नगर भर के प्यारे नागरिक और सार्वजनिक नेता थे, आज जेल की दीवारों में बन्द थे, उन पर जर्मनी से षड्यन्त्र का अभियोग प्रमाणित हो चुका था और उन्हें फाँसी की सजा हो चुकी थी, अब अपील के परिणाम की प्रतीक्षा थी।

प्रातःकाल की धूप धीरे-धीरे बढ़ रही थी। स्त्री ने धीमे, किन्तु लड़खड़ाते स्वर में कहा-बेटा विनोद…क्या तुम बहुत ही भूखे हो?

‘नहीं तो माँ…रात ही तो मैंने रोटी खाई थी?’

‘सुनो-सुनो, एक-दो-तीन (इस तरह आठ तक गिन कर) आठ बज रहे हैं, किराए वाला आता ही होगा।’

‘मैं उसके पैरों पड़कर और दो-तीन दिन टाल दूँगा माँ। इस बार वह तु्म्हें जरा भी कड़ी बात न कहने पाएगा।’

स्त्री ने परम करुणा-सागर की ओर क्षण-भर आँख उठा कर देखा, और उसकी आँखों से दो बूँदें ढरक गईं।

यह देखरकर छोटी बच्ची रोना भूल कर माता के गले में आकर लिपट गई और बोली-‘अम्माँ…अब मैं कभी रोटी नहीं माँगूँगी।’

हाय रे माता का हृदय…माता ने दोनों बच्चों को गोद में छिपा कर एक बार अच्छी तरह आँसू निकाल डाले।

इतने ही में किसी ने कर्कश शब्द से पुकारा-‘कोई है न?’

बच्चे को छाती में छिपाकर काँपते-काँपते स्त्री ने कहा-सर्वनाश…वह आ गया।

एक पछैयाँ जवान लट्ठ लेकर दर्वाज़ा ठेल कर भीतर घुस आया।

उसे देखकर ही स्त्री ने अत्यन्त कातर होकर कहा-मैं तुम्हारे आने का मतलब समझ गई हूँ।

‘समझ गई हो तो लाओ किराया दो।’

‘थोड़ा और सब्र करो।’

‘बालक ने कहा-दो-तीन दिन में हम किराया दे देंगे’

बालक को ढकेलते हुए उद्धतपन से उसने कहा-सब्र गया भाड़ में, अभी मकान से निकलो। मकान क्या दिया, जान का बवाल मोल ले लिया, पुलिस ने घर को बदनाम कर दिया है। लोग नाम धरते हैं, सरकार के दुश्मन को घर में छिपा रक्खा है। निकलो, अभी निकलो।

स्त्री खड़ी हो गई। धक्का खाकर बच्चा गिर गया था। उसे उठा कर उसने कहा-भाई, मुसीबत वालों पर दया करो, तुम भी बाल-बच्चेदार हो।

‘मैं दया-मया कुछ नहीं जानता, मैं तुमसे कहे जाता हूँ कि आज दिन छिपने से पहले-पहले यदि भाड़ा न चुका दिया गया तो आज रात को ही निकाल दूँगा।’

इतना कह कर वह व्यक्ति एक बार कड़ी दृष्टि से तीनों अभागे प्राणियों को घूरता हुआ जोर से दरवाजा बन्द करके चला गया।

दुखिया स्त्री इसके बाद ही धरती में धड़ाम से गिरकर मूर्च्छित हो गई।

उपरोक्त घटना के कुछ ही मिनट बाद एक अधेड़ अवस्था के सभ्य पुरुष धीरे-धीरे मकान में घुसे। इनके आधे बाल पककर खिचड़ी हो गए थे-दाँत सोने की कमानी से बँधे थे, साफ ऊनी वस्त्रों पर एक दुशाला पड़ा था। हाथ में चाँदी की मूँठ की पतली से एक बेंत थी। रंग गोरा, कद ठिगना और चाल गम्भीर थी।

उन्होंने पान कचरते-कचरते बड़ा घरौआ जताकर बालक का नाम लेकर पुकारा-बेटा विनोद…

विनोद ने गरदन उठा कर देखा, बच्चे की माता ने सावधानी से उठ कर अपने वस्त्र ठीक कर लिए।

आगन्तुक ने बिना प्रश्न किए ही कहा–देखो अपील का क्या नतीजा निकलता है, हम विलायत तक लड़ेंगे, आगे भगवान की मर्जी।

स्त्री चुपचाप बैठी रही, सब सुन कर न बोली, न हिली-डुली। इस पर आगन्तुक ने अनावश्यक प्रसन्नता मुख पर लाकर कहा- क्यों रे विनोद, तेरा मुँह क्यों उतर रहा है? क्यों बहू, क्या बात है-बच्चों का यह हाल बना रखा है, अपना तो जो कुछ किया सो किया। इस तरह जान खोने से क्या होगा? तुमसे इतना कहा, मगर तुमने घर छोड़ दिया। मानो हम लोग कुछ हैं ही नहीं। भाई सुनेंगे तो क्या कहेंगे? मैं परसों जेल में मिला था, बहुत खुश थे। अपील की उन्हें बड़ी आशा है। तुम्हें भी खुश रहना उचित है। दिन तो अच्छे-बुरे आते हैं और जाते हैं, इस तरह सोने की काया को मिट्टी तो नहीं किया जाता।

इतनी लम्बी वक्तृता सुन कर भी गृहिणी न बोली, न हिली-डूली। वह वैसी ही अचल बैठी रही।

आगन्तुक ने कुछ रुक कर दो रुपये निकाल कर बच्चे के हाथ पर धर दिए और कहा-लो बेटा, जलेबियाँ खाना। बच्चे ने क्षण भर माता के मुख की ओर देखा और तत्काल हाथ खींच लिया। रुपये धरती पर खन्न से बज उठे। बच्चा पीछे हट कर माँ का आँचल पकड़ कर खड़ा हो गया।

आगन्तुक रुपए उठा कर उन्हें फिर से देने को आगे बढ़ा। गृहिणी ने बाधा देकर कहा-रहने दीजिए, वह जलेबी नहीं खाता। हम गरीब विपत्ति के मारे लोग हैं, एक टुकड़ा रोटी ही बहुत है। पर आप कृपा करें तो या तो उनेक बैंक के हिसाब में से, मकान के हिस्से को आड़ करके कुछ रुपये मुझे उधार दे दीजिए।

‘उनेक बैंक के हिसाब में तो बिना उनके दस्तखत के कुछ मिलेगा नहीं, फिर मुझे मालूम हुआ है कि वहाँ ऐसी कुछ रकम है भी नहीं। रहा मकान, सो उसका तुम्हारा वाला हिस्सा रहन रख कर ही तो मुकदमा लड़ाया है, मुकदमें में क्या कम रकम खर्च हुआ है?’

गृहिणी चुप बैठी रही।

आगन्तुक ने कहा-मैं अपने पास से जो कहो दे दूँ। तुम्हें कितने रुपये चाहिए?

गृहिणी ने धीमे स्वर में कहा-आपको मैं कष्ट नहीं देना चाहती।

‘मैं क्या गैर हो गया?’

स्त्री बोली-नहीं

अब आगन्तुक ज़रा और पास खिसक कर बोला-मेरी बात मानो, घर चलो, सुख से रहो। जो होना था हुआ, होना होगा हो जाएगा। किसी के साथ मरा तो जाता ही नहीं है। मेरा जगत् में और कौन है, तुम क्या सब बातें समझती नहीं हो?

‘खूब समझती हूँ, अब आप कृपा कर चले जायँ।’

‘पर मैं जो बात बारम्बार कहता हूँ, वह समझती क्यों नहीं?’

‘कब की समझ चुकी हूँ। तुम मुझ दुखिया को सता कर क्या पाओगे? मेरा रास्ता छोड़ दो, मैं यहाँ अपने दिन काटने आई हूँ, आपका कुछ लेती नहीं हूँ। उनका मकान-जायदाद सभी आपके हाथ है, आपका रहे, मैं केवल यही चाहती हूँ कि आप चले जाइए।’

आगन्तुक ने कड़े होकर कहा-क्या मैं साँप हूँ या घिनौना कुत्ता हूँ?

‘आप जो कुछ हों, मुझे इस पर विचार नहीं करना है।’

‘और तुम्हारी यह हिम्मत और हेकड़ी अब भी?’

गृहिणी चुप रही

‘यहाँ भी मेरे एक इशारे से निकाली जाओगी, फिर क्या भीख माँगोगी?’

ग़ृ़हिणी ने कोई उत्तर नहीं दिया।

आगन्तुक ने उबाल में आकर कहा-लो साफ़-साफ़ कहता हूँ, तुम्हें मेरी बात मंजूर है या नहीं?

गृहिणी चुपचाप बच्चे को छाती से छिपाए बैठी रही। आगन्तुक ने उसका हाथ पकड़ कर कहा-आज में इधर-उधर कर के जाऊँगा।

स्त्री ने हाथ झटक कर कहा-पैरों पड़ती हूँ, चले जाओ।

‘तेरा हिमायती कौन है?’

‘मैं गरीब गाय हूँ।’

‘फिर लातें क्यों चलाती है? बोल, चलेगी?’

‘नहीं’

‘मेरी बात मानेगी?’

‘नहीं।’

‘तुझे घमण्ड किसका है?’

‘मुझे कुछ घमण्ड नहीं है।’

‘तुझे आज रात को ही सड़क पर खड़ा होना पड़ेगा।’

‘भाग्य में जो लिखा है, होगा।’

‘लोहे के टके की आशा न रखना…’

गृहिणी खड़ी हो गई। उसने अस्वाभाविक तेज-स्वर में कहा-दूर हो…ओ पापी….भगवान से डर, मौत जिनके घर मिहमान बनी बैठी है, उन्हें न सता, भय उन्हें क्या डराएगा? विश्वासघाती भाई…भाई को फँसा कर फाँसी पहुँचाने वाले अधर्मी…उन्हें फँसाया, जमीन-जायदाद ली, अब उसकी अनाथ गरीब दुखिया स्त्री की आबरू भी लेने की इच्छा करता है? अरे पापी, हट जा…हट जा…।

आवेश में आने से स्त्री का वस्त्र खिसक कर नीचे गिर गया। वह दशा देख कर बच्चे रो उठे।

बड़े बच्चे के मुँह पर जोर से तमाचा मार कर आगन्तुक ने कहा-‘तेरी पारसाई आज ही देख ली जाएगी। मुसलमान गुण्डे….’ वह कुछ और न बोल सका-वह दोनों हाथ मीच कर क्रोध से काँपने लगा।

स्त्री ने कहा-‘जा…जा…पापी-जा…’ और वह बदहवास चक्कर खा कर गिर गई।

दोनों बच्चे जोर-जोर से रो पड़े। आगन्तुक तेजी से चल दिया।

वही दिन और वही प्रातःकाल था, परन्तु उस भाग्यहीन घर से लगभग पौन मील दूर दिल्ली की जेल में एक और ही दृश्य सामने था। जेल के अस्पताल में बिल्कुल एक ओर एक छोटी सी कोठरी थी। जिन कैदियों को बिल्कुल एकान्त ही में रहने की आवश्यकता होती थी, वे ही इसमें रक्खे जाते थे। इस वक्त भी इसमें एक कैदी था। उसकी आकृति कितनी घिनौनी, वेश कैसा मलिन और चेष्टा कैसी भयंकर थी? कि ओफ़…कई दिन से वह कैदी भयानक आत्मिक ज्वर से तप रहा था, और कोठरी में रक्खा गया था।

कोठरी बड़ी काली, मनहूस और कोरी अनगढ़े पत्थरों की बनी हुई थी, और उसमें अनगिनत मकड़ियों के जाले, छिपकलियाँ तथा कीड़े-मकोड़े रेंग रहे थे। उसमें न सफाई थी, न प्रकाश। ऊपर एक छोटा सा छेद था। उसी में से सूरज की रोशनी कमरे में पड़ते ही उसकी नींद टूट गई। प्यास से उसका कण्ठ सूख रहा था। वह बड़े कष्ट से चारपाई के इर्द-गिर्द हाथ बढ़ा कर कोई पीने की चीज़ ढूँढने लगा। पर उसे कुछ भी न मिला। तंग प्यास की तकलीफ़ से छटपटा कर वह बड़बड़ाने लगा-‘कौन देखता है? कौन सुनता है? हाय…इतनी लापरवाही से तो लोग पशुओं को भी नहीं रखते। डॉक्टर मेरे सामने ही उस वार्डर से थोड़ा दूध दो-तीन बार देने और रात दो-तीन बार देखने को कह गया था। पर कोई क्यों परवाह करता? मेरी नींद तो रात भर टूटती रही है। मैंने प्रत्येक घन्टा सुना है। यह पहाड़ सी रात किस तकलीफ से काटी है…यह कष्ट तो फाँसी से अधिक है।’

रोगी अब चुपचाप कुछ सोचने लगा। धीरे-धीरे प्रकाश ने फैल कर कमरे को स्पष्ट प्रकाशमान कर दिया। धीरे-धीरे उसकी प्यास असह्य हो चली, पर वह बेचारा कर ही सकता था। वार्डर की खूँखार फटकार से भयभीत होने पर भी वह एक बूँद पाने के लिए गला फाड़ कर चिल्लाने लगा। पर न कोई आया और न किसी ने जवाब ही दिया। वह प्यास से बेदम हो रहा था-उसका प्राण निकल जाता था। वह बारम्बार ‘पानी-पानी’ चिल्लाने लगा। कभी अनुनय-विनय भी करता, कभी गालियाँ बकने लगता।

ईश्वर के लिए थोड़ा पानी दे जाओ, हाय…एक बूँद पानी, अरे मैं तुम लोगों को बड़ा कष्ट देते हूँ…पर क्या करूँ, प्यास के मारे मेरे प्राण निकल रहे हैं। अरे, मैं भी तु्म्हारे जैसा मनुष्य हूँ। मुझे इस तरह क्यों तड़पा रहे हो-इतनी उपेक्षा तो कोई बाजारू कुत्तों की भी नहीं करता। अरे आओ, नहीं तो मैं बिछौने से उठ कर, सब दरवाजे तोड़ डालूँगा और इतनी जोर से चिल्लाऊँगा कि सुपरिन्टेन्डेन्ट के बंगले तक आवाज़ पहूँचेगी।

इस पर एक घिनौने मोटे-ताजे अधेड़ व्यक्ति ने छेद में से सिर निकाल कर कहा-अरे अभागे…क्यों इतना चिल्लाता है, क्यों दुनिया की नींद खराब करता है?

‘मैं प्यास के मारे मर रहा हूँ।’

‘फिर मर क्यों नहीं जाता? तू क्या समझता है कि मैं तेरा नौकर हूँ, क्या रात-भर तेरी सेवा में हाजिर रहना ही मुझे चाहिए?’

इसके बाद वह एक नौकर को पुकार कर बोला-अरे देख तो…थोड़ा पानी ला कर इस बदमाश के मुँह में डाल दे। इतना हुक्म देकर वह निष्ठुर फिर चल दिया। पानी पी कर रोगी थकान के मारे बेसुध होकर सो गया। यही कैदी उस दुखिया का सौभाग्य-बिन्दु ‘मास्टर-साहब’ थे।

अचानक उसी वार्डर की कर्कश आवाज सुन कर वह चौंक पड़ा। उसने चाबियों से कोठरी का द्वार खोला। रोगी एकटक देखने लगा। पादरी और जेलर ने कोठरी में गम्भीर भाव से प्रवेश किया। कुछ जरूरी कागजात पर लिखा-पढ़ी की गई और कैदी को सुना दिया गया कि उसकी अपील नामंजूर हो गई है और आरोग्य-लाभ होते ही उसे फाँसी दे दी जाएगी।

कैदी ने आँख बन्द करके सुना-समझा और फिर उसकी आँखें एकटक छत पर अटक गईं।

धीरे-धीरे दोनों कमरे से बाहर निकल आए। इसके कुछ क्षण बाद ही डॉक्टर ने कमरे में प्रवेश करके सावधानी से रोग-परीक्षा की। फिर एक-दो मीठी बातों के बाद कहा-तु्म्हारी स्त्री ओर बच्चे तुमसे मिलने आए हैं। रोगी एक बार तड़पा और नेत्र उठा कर बाहर की ओर देखने लगा।

डॉक्टर ने कहा-इस समय ज्वर नहीं है। मैं आशा करता हूँ, इसी सप्ताह में तुम अच्छे हो जाओगे।

‘इसी सप्ताह में?’ रोगी ने विकल होकर पूछा

डॉक्टर ने अपनी बात का समर्थन किया और धीरे-धीरे चला गया।

दस बज रहे थे। धूप खूब फैली हुई थी। जेल के सदर फाटक पर वह अभागिनी रमणी दोनों बच्चों को साथ लिए बैठी थी। उसे लगभग डेढ़ घंटा हो गया था। वह अपने पति के दर्शन करने आई थी। इतनी देर बाद एक वार्डर उन्हें जेल के भयानक फाटक में लेकर चला।

फाटक को पार करने पर एक अन्धकारपूर्ण दालान में वे लोग चले। वहाँ से एक अँधेरी गली में कुछ देर चल कर एक लोहे का छोटा सा फाटक वार्डर ने पास के भारी चाबियों के गुच्छे से खोला। इसके बाद वे कुछ सीढ़ियाँ चढ़ कर एक बड़े से गन्दे दालान में पहुँचे। उसके सामने ही बड़े से मकान का पिछवाड़ा था, जिसकी ऊँची और छोटी-छोटी खिड़कियों से कुछ शोर-गुल और बक-झक की आवाज आ रही थी। सामने कुछ कैदी अपनी बेड़ियाँ झनझनाते इधर-उधर जा रहे थे। थोड़ी दूर चल ने पर उन्हें अस्पताल की काली इमारत दीख पड़ी, जहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार के रोगी बिछौने पर पड़े थे। कमरे की हवा गर्म और बदबूदार थी। बिस्तरे फटे-कटे, मैले-कुचैले और घृणित थे। यह सब देखते-देखते रमणी का सिर चक्कर खा गया। वह घबरा कर वहीँ बैठ गई, यह सब देख छोटी बच्ची रो उठी। थोड़ी देर बाद वह उठी और इस बार स्वामी की कोठरी के पास पहुँच गई। पर भीतर ऑफीसर लोग थे। उसे कुछ देर ठहरना पड़ा। उनके निकलने पर डॉक्टर ने भीतर प्रवेश किया और डॉक्टर ने बाहर आकर उन लोगों को भीतर जाने की इजाजत दी।

दरवाजे के निकट जाकर उसके पैर धरती पर जम गए। पहले तो वह पति को देख ही न पाई। पीछे उसने साहस करके एक बार देखा। हाय…यही क्या उसके पतिदेव हैं? जीवन के ग्यारह वर्ष सर्द-गर्म जिनके साथ व्यतीत किए, वह उठता हुआ यौवन, वे जीवन की उदीप्त अभिलाषाएँ, वे रस-रहस्य की अमिट रूप रेखाएँ हठपूर्वक एक के बाद एक नेत्रों के सामने आने लगीं। उसकी आँखों में अँधेरा छा गया, वह वहीं बैठ गई।

रोगी ने देखा। उसने चारपाई से उठ कर दोनों हाथ फैला कर उन्मत्त की तरह कहा-आओ बेटा…अरे, तुम इतने ही दिन में बिना बाप के ऐसे हो गए…यह कह कर रोगी-कैदी ने अपनी भुजाओं में बच्चे को जोर से लपेट लिया और वह फूट-फूट कर रोने लगा।

सती बैठी ही बैठी आगे बढ़ी। वह पति के दोनों पैर पकड़, उन पर सिर धर कर मूर्च्छित हो गई। वह रो नहीं रही थी। वह संज्ञा-हीन थी। यह सब देख कर छोटी बालिका भी जोर से रो उठी।

उसे गोद में लेकर पिता रोना भूल गया। उसकी आँखों में क्षण भर आँख मिला कर वह हँसी थी। अन्त में उसने भर्राई आवाज में कहा-लीला, मेरी बेटी, मेरी बिटिया…।

इसके बाद उसे छाती से लगा कर कैदी चुपचाप रोने लगा। बड़ी देर तक सन्नाटा रहा। फिर बच्चों को अलग करके वह स्वस्थ होकर पत्नी की ओर देखने लगा। बलपूर्वक उसने शोक के उमड़ते वेग को रोका। उसने क्षण भर आकाश में दृष्टि करके एक बार सर्वशक्तिमान परमेश्वर से बल-याचना की। फिर उसने मधुर स्वर में कहा-इतना अधीर मत हो। ध्यान से मेरी बात सुनो।

रमणी ने सिर नहीं उठाया। पति ने धीरे-धीरे उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-नादानी न करना, वरना इन बच्चों का कहीं ठिकाना नहीं है। ईश्वर पर विश्वास रखो-मेरा विनोद ब़ड़ा होकर तुम्हारे सभी संकट काटेगा। ‘सब दिन होत न एक समान…।’

साध्वी सिसक-सिसक कर रो रही थी। उसे ढाढ़स देना कठिन था, परन्तु अभी कुछ मिनिट प्रथम मृत्यु का सन्देश पाकर भी कैदी वह कठिन काम कर रहा था।

वह पूछना चाहती थी-‘क्या अब कुछ भी आशा नहीं है?’ परन्तु उसमें बोलने और पति को देखने तक का साहस न था। समस्त साहस बटोर कर उसने एक बार पति की ओर आँख भर कर देखा। वे आँखें आँसू और प्रश्नों से परिपूर्ण, मूक वेदना से अन्धी और मृत अभिलाषाओं की श्मसान-भूमि…प्रतिक्षण क्या-क्या कह रही थी?

परन्तु मानव-हृदय जितना सुख में दुर्बल बन जाता है, उतना ही दुख में सबल हो जाता है। मास्टर साहब ने उसका हाथ पक़ड़ कर कहा-अब इस तरह मुझे देख कर, इस दशा में कायर न बनाओ…तुम बच्चों की माता हो। जैसे पति की पत्नी रहीं वैसे ही बच्चों की माँ बनना…प्रतीक्षा करो, तुमने मुझे कभी नहीं ठगा, अब भी न ठगना।

सती की वाणी फटी, उसने कहा-स्वामी जी…मुझे सहारा दो। मैं चलूँगी, नहीं…मैं चलूँगी।

एक अति मधुर उन्माद उसके होठों पर फड़क रहा था। मास्टर साहब विचलित हुए, उन्होंने संकोच त्याग, धीरे से उस उन्मुख उन्माद का एक सरल चुंबन लिया। वह वासनाहीन, इन्द्रिय-विषय और शरीर-भावना से रहित चुंबन क्या था, दो अमर तत्व प्रतिबिम्बित हो रहे थे।

मास्टर साहब ने कुछ कहने की इच्छा से होंठ खोले थे, पर वार्डर ने कर्कश आवाज में कहा-चलो, वक्त हो गया।

रोगी कैदी ने मानो धाक खाकर एक बार उसे देखा, और कहा-ज़रा और ठहर जाओ भाई।

‘हुक्म नहीं है’ कह कर वह भीतर घुस आया। उसने एकदम रमणी के सिर पर खड़े होकर कहा-बाहर जाओ।

लज्जा और संकोच त्याग कर वह कुछ कहा चाहती थी, मास्टर जी ने संकेत से कहा-‘उससे कुछ मत कहना..अच्छा…अब विदा प्रिये…बेटे…अम्माँ को दुखी न करना, मेरी बिटिया…’ यह कह कर और एक बार बेसब्री से उन्होंने उसे पकड़ कर अनगिनत चुंबन ले डाले।

रमणी की गम्भीरता अब न रह सकी। वह गाय की तरह डकराती वहीं गिर गई और निष्ठुर वार्डर ने उसे घसीट कर बाहर किया और ताला बन्द कर दिया, दोनों बच्चे चीत्कार कर रो उठे। यह देख कर मास्टर साहब असह्य-वेदना से मूर्च्छित होकर धड़ाम से चारपाई पर गिर पड़े।

रविवार ही की संध्या को इसकी सूचना अभागिनी को दे दी गई थी। वह रात-भर धरती में पड़ी रही, क्षण भर को भी उसकी आँखों में नींद नहीं आई थी। चार दिन से उसने जल की एक बूँद भी मुँह में नहीं डाली थी।

सोमवार को प्रातःकाल बड़ी सर्दी थी। घना कोहरा छाया हुआ था। ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही थी। ठीक साढ़े छह बजे का वह समय नियत किया गया था। ठीक समय पर फाँसी का जुलूस अन्ध-कोठरी से चला। मास्टर साहब धीर-गम्भीर गति से आगे बढ़ रहे थे। इस समय उन्होंने हजामत बनवाई थी। वे अपने निजी वस्त्र पहने थे। दूर से देखने में दुर्बल होने के सिवा और कुछ अन्तर न दीखता था। वे मानो किसी गहन विषय को सोचते हुए व्याख्यान देने रंग-मंच पर आ रहे थे। उनके आगे खुली पुस्तक हाथ में लिए पादरी कुछ वाक्य उच्चारण कर रहा था। उनके पीछे जेलर अपनी पूरी पोशाक में थे। उनकी बगल में मैजिस्ट्रेट और डॉक्टर भी चल रहे थे। क्षण भर तख्ते पर खड़े रहने के बाद जल्लाद ने उनके गले में रस्सी डाल दी। पादरी ने कहा-मैं प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर तुम्हारी आत्मा को शाँति प्रदान करे।

मास्टर साहब ने कहा-चुप रहो, मैं प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर मेरी आत्मा को ज्वलन्त अशान्ति दे, जो तब तक न मिटे, जब तक मेरा देश स्वाधीन न हो जाय, और मेरे देश का प्रत्येक व्यक्ति शान्ति न प्राप्त कर ले।

इसके बाद उन्होंने गीता की पुस्तक को हाथ में लेकर आँखों और मस्तक से लगाया और दोनों हाथों में लेकर पीछे हाथ कर लिए। जल्लाद ने उसी दशा में हाथ पीछे बाँध दिए। मास्टर साहब नेत्र बन्द करके कुछ अस्फुट उच्चारण करने लगे। जल्लाद ने तभी एक काली टोपी से उनका मुँह ढँक दिया, और वह चबूतरे से नीचे कूद पड़ा। पादरी कुछ उच्चारण करने लगे। मैजिस्ट्रेट और जेलर ने टोपियाँ उतार लीं। हठात् तख्ती खींच ली गई, और उनका विवश शरीर शून्य में झूलने और छटपटाने लगा। पर थोड़ी देर में आवेग शान्त हो गया।

० ० ०

इस घटना के आधा घंटा बाद वही पूर्व परिचित भद्र पुरुष (?) लपके हुए, सती की कुटिया पर गए। द्वार खुले थे। भीतर दोनों बच्चे बेतहाशा रो रहे थे, और उनकी माता रसोई के कमरे में एक रस्सी के सहारे निर्जीव लटक रही थी।

एक राजा की मौत  – संस्मरण

सामंतशाही के दौरान प्राचीन राजाओं में प्रथा थी कि राजा के मरते ही दूसरा राजा गद्दी पर बैठ जाता था | ‘राजा मर गया’ और ‘राजा चिरंजीवी रहे, ये दोनों घोषणाएँ एक साथ होती थीं | प्रथा थी कि राजा के मरते ही जब उसका पुत्र या कोई भी उत्तराधिकारी गद्दी पर बैठता था, तब सबसे पहली सूचना उसे यह दी जाती थी कि एक सैनिक मर गया है, उसके क्रिया कर्म की राजाज्ञा प्रदान हो |

तब नया राजा कहता था – उचित सम्मान के साथ उसकी क्रिया की जाये | राजा न उस मातम में सम्मिलित होता था और न शव को देखता था |

नेपाल के भूतपूर्व राजा त्रिभुवन की मृत्यु रोग शैया पर ज्यूरिच में हुई | उनका शव जब दिल्ली लाया गया, तब पालम हवाई अड्डे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, अन्य केन्द्रीय मंत्री, विदेशी राजदूत, उच्च अधिकारी, तीनों सेनाओं के प्रधान, नई दिल्ली स्थित नेपाली राजदूत तथा दिल्ली के सहस्त्रों नागरिकों ने शव को श्रद्धांजलि अर्पित की | शव पर नेहरू जी ने व राष्ट्रपति, उप राष्टपति की ओर से तीनों सेनाओं के प्रधानों ने पुष्प चक्र चढ़ाए |

भारतीय सेना के एक हजार सैनिक हवाई अड्डे पर तैनात थे | बैंड और ढोल काले कपडे से ढके हुए थे | सैनिकों ने सैनिक ढंग से शव का सम्मान किया, बैंड पर मृत्युगीत बजाया गया | अंत में सेना के जनरलों ने शव को विमान पर चढ़ाकर नेपाल रवाना किया | उस दिन भारत सरकार के सारे कार्यालय बंद रहे और राष्ट्रीय झंडे झुका दिए गए |

जब शव नेपाल के हवाई अड्डे पर पहुंचा, तब 49 तोपों की सलामी दागी गई | नेपाल में बागमती नदी के किनारे, पशुपतिनाथ मंदिर के नजदीक राजा का दाह संस्कार संपन्न हुआ | दाह संस्कार में लगभग एक लाख नर नारी एकत्रित हुए | अंतिम संस्कार में भारत, ब्रिटेन, फ़्रांस, अमेरिका और स्वीडन के सरकारी प्रतिनिधि उपस्थित हुए |

राजा की मृत्यु पर शोक प्रदर्शन करने के लिए, नेपाल के प्रत्येक पुरुष को उस्तरे से अपना सिर तथा दाढी. मूछें मुडानी पडीं | नेपाल राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को तेरहवीं हो जाने तक निरामिष भोजन करना, चमड़े का जूता नहीं पहिनना और किसी प्रकार का उत्सव नहीं मनाना, जैसे नियमों का पालन करना पडा | नियम के उल्लंघन का दण्ड था – छः माह की जेल |

किन्तु मृत राजा के पुत्र और उसकी रानी ने न तो शोक मनाया, न बाल मुंडाए, न शव दाह में सम्मिलित हुए | यह राज मर्यादा थी | इसका आंशिक उल्लंघन कर उन्होंने तेरहवीं तक सादा भोजन करने और चटाई पर सोने का नियम पालन किया |

प्राचीन परंपरा के अनुसार नेपाली ब्राह्मण निरामिषभोजी होने से पवित्र होते हैं तथा श्राद्ध का दान नहीं लेते, अतः काठमंडू में पुस्तक बेचने वाले एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण को श्राद्ध का दान लेने हेतु चुना गया | ग्यारहवीं के दिन, बागमती नदी के तट पर एक विशेष समारोह किया गया | ब्राह्मण की कुटिया में मृत राजा त्रिभुवन के सोने चांदी के बर्तन सजाये गए, सोफा सेट तथा पलंग पर बहुमूल्य गलीचे आदि बिछाए गए | कुटिया के बाहर नेपाल नरेश का हाथी तथा कई मोटरें खडी की गईं | इन सबके बाद ब्राह्मण नेपाल नरेश के वस्त्र धारण कर आया और उसने फिर दान स्वीकार किया | उसे सोने चांदी के बर्तनों में उत्तम प्रकार का भोजन कराया गया, चालीस हजार रुपये नगद तथा दस लाख रुपये मूल्य का राजा का निजी सामान दिया गया |

ब्राह्मण ने श्राद्ध का दान स्वीकार करते ही ब्राह्मणत्व को छोड़ दिया और वह इन सब बस्तुओं के साथ नेपाल नरेश के भूत को भी अपने ऊपर लेकर बागमती नदी के पार चला गया और पुनः काठमांडू की घाटी में प्रविष्ट नहीं हुआ |

कुछ ऐसा ही किस्सा मेरे साथ भी घटित हुआ | संभवतः यह सन 1910 या 11 की बात है | उन दिनों में जयपुर संस्कृति कोलेज में पढ़ता था | आयु यही कोई उन्नीस बीस वर्ष की रही होगी | तभी जयपुर के राजा माधोसिंह का देहांत हो गया | मैंने देखा कि सिपाहियों के झुण्ड के साथ नाईयों की टोली बाजार – बाजार, गली – गली घूम रही है | वे राह चलते लोगों को जबरदस्ती पकड़कर सड़क पर बैठाते और अत्यंत अपमान पूर्वक उनकी पगड़ी एक ओर फेंककर सिर मूंड देते, दाढी मूंछ सफाचट कर देते थे |

मेरे अडौस पडौस में जो भद्रजन रहते थे, उन्होंने स्वेच्छा से सिर मुंडवाये थे | अजब समां था, जिसे देखो वह सिर मुंडवाये जा रहा था | यह देख मेरा मन विद्रोह से भर उठा | मेरी अवस्था कम थी, अतः दाढी मूंछ तो नाम मात्र की ही थीं, किन्तु सिर पर लम्बे बाल अवश्य थे | मुझे उन बालों से कोई विशेष लगाव भी नहीं था, किन्तु इस प्रकार जबरदस्ती सिर मुंडाने के क्या मायने ?

लोगों ने मुझे डराया कि अगर बाहर निकलोगे तो जबरदस्ती मूंड दिए जाओगे | छिपकर बैठे और पुलिस को पता चल गया, तो वे पकड़कर राजद्रोह के आरोप में जेल में डाल देंगे | परन्तु ज्यूं ज्यूं इस जोर जुल्म की व्याख्या होती थी, मेरे तरुण रक्त की एक एक बूँद विद्रोही हो उठती थी | मैंने निश्चय किया, सिर कटाना मंजूर है, पर सिर मुंडाना नहीं |

मैं दिन भर घर में छिपा बैठा रहा | पकडे जाने का डर तो था ही | बहुत से लोग घरों से पकडे जाकर मूंड़े जा रहे थे | मुझे किसी के भी आने की ज़रा भी आहट होती, तो मैं पाखाने में जाकर छिप जाता | अंत में रात आई और मैं किसी तरह घर से बाहर निकलकर अंधेरी रात में जंगल की ओर चल पडा | उन दिनों शहर के बाहर तक शेर आ जाया करते थे |

मेरा इरादा अजमेर भाग जाने का था | किन्तु स्टेशन पर पकडे जाने का डर था | अतः मैंने आगे जाकर एक छोटे स्टेशन से रेल पकड़ी | 15 दिन बाद जयपुर लौटा | फिर भी यह डर सताता रहा कि अगर किसी ने पूछ लिया कि 15 दिन में बाल इतने बड़े कैसे हो गए, तो क्या जबाब दूंगा |

धर्म और पाप निबंध 

भारत धर्म-प्रधान देश है और मनुष्य पाप का चोर है, इसलिए धर्म और पाप की बिना सहायता लिए मैं मानने वाला आदमी नहीं हूँ। मैं अपनी अंतरात्मा में भली भाँति जानता हूँ कि पाप और धर्म दोनों खातों से भरपूर धन है और उसका कुछ सदुपयोग नहीं हो रहा है।

पहले मैं धर्मांदाओं की बात कहूँगा। मंदिरों, मस्जिदों और मकबरों की करोड़ो रुपयों की आमदनी है। काशी, वृंदावन, नाथद्वारा के प्रख्यात मंदिर, गोकुलिया संप्रदाय के महंत, अजमेर ख्वाजा की दरगाह और हजारों संस्थाएँ हैं, जहाँ भावुक भक्तों के सोने का मेह बरसता है। बहुतेरे मंदिरों के पीछे जागीरें हैं, गाँव हैं। उस अतुल संपत्ति के स्वामी उनके महंत और पुजारी हैं। इन सबके सिवा गया, प्रयाग आदि तीर्थों के भारी-भारी दान भी कुछ कम श्रेणी की वस्तु नहीं हैं। अच्छा मैं यह पूछता हूँ कि यह धर्म का धन किसी एक व्यक्ति के विलास की वस्तु होने के योग्य है? यह बात छिपी नहीं कि अनेक महंतों के चरित्र राजाओं की तरह निकम्मे और भ्रष्ट हैं। मैं इनके प्रमाण दे सकता हूँ। फिर यह न भी हो तो यह धर्म का पैसा धर्म में लगे। सबसे बड़ा धर्म क्या है – यह सोच लेना चाहिए।

सर्व-साधारण संप्रदायों को धर्म के नाम से पुकारते हैं। भारत धर्म-प्रधान देश है। चिरकाल से यहाँ धर्म का आदर होता आया है – बड़ी-से-बड़ी शक्तियाँ भी धर्म के आगे सिर झुकाती चली आई हैं। यह एक साधारण बात है कि जिस वस्तु की ज्यादा खपत होती है उसकी दुकानें भी बहुत-सी खुल जाती हैं और यह भी स्वाभाविक है कि नकली चीजें बहुत बनने लगती हैं। भारत में धर्म की भी वही दशा है। मंदिरों में, सड़कों पर टके सेर धर्म मिलता है। घर के धनी महाशय जब भोजन नाक तक डाट चुकते हैं और थाली में जो जूठन दाल-भात बचा रहता है, तब कहा जाता है कि यह किसी भूखे को दे दो, धर्म होगा। कपड़े पहनते-पहनते जब नौकरों के भी काम के नहीं रहते तब कहा जाता है किसी नंगे को दे दो, धर्म होगा। इसी भारत के जब दिन थे और भारत में बड़प्पन था तब इसी धर्म के नाम पर राजाओं ने राज्य त्यागकर चांडाल की सेवा की थी, अपना माँस काटकर गिद्ध को खिलाया था, अपने पुत्र के सिर पर आरा चलाया था। वही महादुर्लभ और दुर्धर्ष धर्म इस कलयुग में इतना सस्ता हो गया कि जूठे टुकड़ों और फटे चिथड़ों के एवज चाहे जो उसे मोल ले सकता है। इससे अधिक उपहास और लज्जा की बात क्या होगी?

धर्म का प्रश्न बहुत भ्रांत है। श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ‘धर्म क्या है और क्या नहीं है इस विषय में अच्छों-अच्छों की अकल चकरा जाती है।’

लोग धर्म करने काशी-प्रयागजाते हैं। कोई गया में सिर मुँडाता है। कोई व्रत-उपवास करता है। कोई पशु-बलि देता है। कोई धर्मशाला-मंदिर बनाता है। कोई पूजा-पाठ, जप-तप करता है। अनेकों प्रकार हैं, पर मैं यह कहता हूँ कि यह सब धर्म नहीं है।

भूखों को अन्न, प्यासों को जल, नंगों को वस्त्र, रोगी को औषध, असहाय को सहायता देना – यह हमारे मनुष्य-योनि का साधारण कर्तव्य है, यह हम पर सामाजिक कृपा है और उसे अपनी शक्ति भर पालन करके हम किसी पर कुछ अहसान नहीं कर रहे हैं, न वह धर्म ही है।

अच्छा कल्पना कीजिए कि आपने गर्मी में प्याऊ लगवाई है। आप कहते हैं कि वह धर्म है। अब उस प्याऊ पर कोई प्रतिष्ठित पुरुष आकर पानी पीता है तो क्या वह तुम्हारा धर्मादा खाता है? जरा उसके मुँह पर कह देखिए तो मजा आ जाए। मैंने देखा है गर्मी के दिनों में उत्तर प्रदेश के उत्साही सज्जन युवक शीतल पानी से भरे घड़े कंधे पर धर स्टेशन पर फिरते हैं और नम्रता और प्रेम-भरे शब्दों में सब यात्रियों से जल पीने का अनुरोध करते हैं। क्या वह पानी धर्मादे का है ?

तब धर्म क्या है? मनुस्मृति कहती है कि धैर्य, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इंद्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या,अक्रोध, सत्य ये दस धर्म के लक्षण हैं। मैं कहूँगा कि ये भी धर्म के लक्षण नहीं हैं। ये मनुष्यत्व के चिह्न हैं अथवा इन्हें धर्म की ओर ले जाने वाले मार्ग कह सकते हैं – यह वास्तव में धर्म की सच्ची व्याख्या नहीं हुई।

क्या सर्वत्र अहिंसा धर्म है? यदि यही बात है तब मेरे एक प्रश्न का कोई उत्तर दे कि एक सिपाही युद्ध में हजारों मनुष्यों को मारकर भी हत्यारा तथा अधर्मी नहीं कहलाता और मैं चींटी मार देने पर भी हत्यारा और पापी कहा जाऊँगा, यह क्यों ?

फिर तो अपराधी को फाँसी देने वाला जज आदि सभी पापी हो जाएँगे। परंतु नहीं, कारण और अर्थ देखने पर कभी हत्या भी धर्म है और कभी अधर्म।

उसी प्रकार सत्य की बात लीजिए। कल्पना कीजिए कि रात को एक चोर आपकी छाती पर चढ़ बैठा। उसने कहा रख दो जो पास में है, आपके पास जाहिरा दो हजार रुपए थे, पर गुप्त दस हजार रखे थे। आपको सत्य बोलना था, आपने वे दस हजार भी चोर का बता दिए। अब विचारिए कि एक तो वह झूठ था जिसमें असली मालिक को लाभ और चोर का हानि थी और एक वह सत्य है जिसमें चोर को लाभ और मालिक को हानि है। ऐसी दशा में मैं यह पूछता हूँ कि धर्म क्या है? सत्य या झूठ? यदि सत्य धर्म है तो वह धर्म नहीं है जो पापियों को लाभ पहुँचाए और सज्जनों का नाश करे। धर्म के विषय में तो यही कहा गया है कि धर्म सदा पापी का नाश और धर्मात्माओं की रक्षा करता है। ऐसी दशा में झूठ भी धर्म है।

तब धर्म का अर्थ क्या हुआ। धर्म किसे कह सकते हैं। ये भी सोचना चाहिए। इसका उत्तर दर्शन शास्त्रों में है। गौतम ऋषि कहते हैं – ‘यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म।’ जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है। अब यह देखना है कि अभ्युदय और निश्रेयस के क्या अर्थ हैं।

अभ्युदय का संक्षिप्त किंतु सच्चा अर्थ है ऐहिलौकिक सर्वोच्च सुख और वह सुख यही हो सकता है कि मनुष्यतत्व के सामाजिक और व्यक्तिगत अधिकारों की स्वाधीनता और क्षमता की प्राप्ति। निश्रेयस का अर्थ है मोक्ष अर्थात पारलौकिक सर्वोच्च आनंद, जो कि अभ्युदय की पूर्ण प्राप्ति कर जीवन के निर्बंध होने के कारण होगा।

जो पुरुष अभ्युदय और निश्रेयस दोनों की समान भाग से प्राप्ति करेगा वही धर्मात्मा कहलाएगा।

एक बात यहाँ ध्यान में रखने की है। संसार के बड़े-बड़े ऋषि हुए, परंतु किसी ने अपने को धर्म-संस्थापक कहने का साहस नहीं किया। वे सत्यवक्ता, धैर्यवान, मानस्वी, दमनशील आदि सब कुछ थे। किंतु कृष्ण ने अपने को निःसंकोच भाव से धर्म-संस्थापक कहकर घोषणा की है। किसलिए? लोग कहते हैं कि ये ईश्वर थे। मैं कहता हूँ नहीं। इसमें ईश्वरत्व की कोई बात नहीं। वे धर्मात्मा थे और धर्म को उन्होंने ठीक समझा था। एक ओर अभ्युदय में वे इतने आदर्श थे कि महाभारत जैसे अमर युद्ध के नेता और जबर्दस्त राष्ट्र-निर्माता, साथ ही इतने मस्त और मौजी कि आनंदकंद की अमर पदवी उन्होंने प्राप्त की। दूसरी ओर ऐसे भारी कि जिनको योगियों ने ध्येय बनाया। यही पुरुष थे जिन्होंने अभ्युदय और निश्रेयस दोनों की प्राप्ति की थी। इसी से ये धर्म-संस्थापक स्वीकार किए गए। वैरागी ऋषि लोग पूरे-पूरे धर्मात्मा नहीं हैं, क्योंकि उनमें इतनी क्षमता न थी कि ऐहिक लौकिक सर्वोच्च सुखों को भोगते-भोगते कृष्ण की तरह निश्रेयस सिद्धि करते। उन्हें विरक्त होना पड़ा। साथ ही वे लोग भी धर्मात्मा नहीं हैं जो संसार के सुखों में डूबकर परलोक का चिंतन नहीं करते।

धर्मात्मा वे हैं जो संसार में रहकर, संसार की यातनाओं का नाश करके, संसार के लिए सुख,कल्याण, शांति और आनंद के मार्ग निर्माण करते हुए साथ ही अपनी आत्मा के कल्याण के लिए मुक्ति के साधन भी ढूँढ़ लेते हैं। यही सच्चा धर्म है जो बहुत गहन, बड़ा दुर्धर्ष और अत्यधिक विषम है।

हम ईश्वर का भय करें, पाप से बचें, स्वार्थ को त्यागें, दया, प्रेम, वीरता और आत्मशक्ति का अभ्यास करें और तब लोक-सुख की चाहना करें, यही सत्य धर्म है।

यह धन का काल है। यहाँ तक धन का महात्म्य बढ़ गया है कि प्राचीन काल में जो राज्य शासन तलवार पर होता था, आज धन पर है। कालिदास ने दिलीप की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उसकी सेना आदि तो दिखावे की शोभा थी। वास्तव में राज्य-संचालन के योग्य तो उसके पास दो वस्तु थीं – चढ़ा हुआ धनुष और दूसरी तीव्र बुद्धि। आज चढ़ा हुआ धनुष कुछ काम का नहीं है, तीव्र बुद्धि आज भी दरकार है, किंतु चढ़े हुए धनुष के स्थान पर भरा हुआ खजाना चाहिए।

मैं यह कहूँगा जिसमें परोपकार हो वह धर्म है। निःस्वार्थ भाव से त्याग निष्ठा से परिपूर्ण देश-सेवा सबसे बड़ा परोपकार है। मनुष्य अपने दारिद्रय की परवाह न कर देश-सेवा में शक्ति भर धन दें, तब धर्म का पैसा तो वास्तव में उसी की संपत्ति है यह उसे पाई-पाई मिलनी चाहिए।

बड़े-बड़े मंदिरों में लाखों-करोड़ों की संपत्ति और आमदनी है। बड़ी-बड़ी दरगाहों के महंत राजाओं की तरह रहते हैं। मैं यह पूछने का साहस करता हूँ कि धर्म की कमाई के ये लोग स्वाधीन स्वामी बनने का क्या अधिकार रखते हैं। ये देवता के सेवक वीतराग पुरुष होने चाहिए। परंतु अतुल संपत्ति के स्वामी होने के कारण इनमें भयंकर दोष उत्पन्न हो गए हैं। मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि इनकी रत्ती-रत्ती संपत्ति और आय इस समय देश के समर्पण होनी चाहिए – ये लोग केवल देवता के भोग का उच्छिष्ट खाने का ही अधिकार रखते हैं।

जब मैं मंदिरों और दरगाहों में जाकर उन लोगों की भक्ति, अंधविश्वास, प्रेम और त्याग देखता हूँ तो मेरी छाती फट जाती है। मैं यह सोच सकता हूँ कि यदि इन महंतों के मन और कर्म महात्मा गांधी के समान लोकोपकार के मार्ग पर हों, तो उनका जीवन सार्थक है। अरबों रुपए के ढेर के साथ-साथ करोड़ों हृदय एक क्षण भर में मन-वचन-कर्म से देश के चरणों में झुक जाएँ। पर मैं देखता हूँ कि अधिकांश में ये लोग विलासी, मूर्ख, अनाचारी, पाखंडी और स्वार्थी हैं। प्रत्येक मनुष्य का धर्म है कि इनके कब्जे में गई संपत्ति को जो वास्तव में धर्म की संपत्ति है, धर्म के ऊपर लगानी चाहिए और वह धर्म देश-सेवा और देशोन्नति है।

इसके साथ ही मैं पाप-कमाई को भी जोड़ता हूँ। मेरा मतलब ठग, चोर, सट्टेबाज, सूदखोर और वेश्याओं से है। इन भाई-बहनों को यह अधर्मोपार्जित धन रत्ती-रत्ती करके देश के चरणों में देकर अनुपात करके अपनी आत्मा का बोझ इसी मनुष्य जन्म में उतार देना चाहिए।

संसार क्षण-भंगुर है और मनुष्य अनाचार से कभी सुखी नहीं हुआ। परोपकार के लिए शरीर की बोटियाँ कटाने में जो आनंद आता है, वह आनंद स्वार्थ के लिए किसी भी भोग को भोगने में नहीं आता है।

वीर प्रताप के मंत्री वैश्य भामाशाह ने ऐसी ही आपत्ति के समय अपनी समस्त संपत्ति प्रताप के चरणों में रख दी थी और उसी में मेवाड़ का उद्धार हुआ। उनका नाम अमर रहा – न प्रताप रहे, न भामशाह, न वह संपत्ति।

नेपाल के भूतपूर्व राजा त्रिभुवन ज्यूरिच में रोग-शय्या पर मर गए। उनका शव जब दिल्ली लाया गया,तब पालम हवाई अड्डे पर एक घंटे की गंभीर रस्मों और सैनिक सम्मान के बाद शव को भारतीय हवाई सेना के डकोटा विमान द्वारा काठमांडु के लिए रवाना किया गया। प्रधानमंत्री नेहरू, अन्य केंद्रीय मंत्री,विदेशी राजदूत, उच्च अधिकारी, तीन सेनाओं के प्रधान, नई दिल्ली स्थित नेपाली राजदूत तथा सहस्रों दिल्ली के नागरिकों ने शव को श्रद्धांजलि अर्पित की। दस मिनट के लिए राजकीय सम्मान के लिए रखे हुए शव पर श्री नेहरू ने, राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति की ओर से उपसेना सचिव ने तथा तीनों सेना के प्रधानों ने एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री ने फूल चढ़ाए। भारतीय सेना के एक हजार सैनिक हवाई अड्डे पर तैनात थे तथा बैंड और ढोल काले कपड़े से ढके थे। भारतीय सेना के छह जनरलों ने सैनिक सम्मान के साथ शव को वायुयान से उतारकर तोपगाड़ी पर रखा। सैनिकों ने सैनिक ढंग से शव का सम्मान किया। बैंड ने’मृत्यु गीत’ गाया। भारत और नेपाल के झंडे शव पर लपेटे गए। दिल्ली के नागरिकों ने फूल चढ़ाए और अंत में उन्हीं छह जनरलों ने शव को विमान पर चढ़ाकर नेपाल रवाना कर दिया। इस दिन भारत सरकार के सारे कार्यालय बंद रहे और राष्ट्रीय झंडे झुका दिए गए।

नेपाल में बागमती नदी के किनारे, पशुपतिनाथ मंदिर के निकट राजा का दाह-संस्कार संपन्न हुआ। दाह-संस्कार को लगभग एक लाख नर-नारियों ने देखा। जब शव नेपाल के हवाई अड्डे पर पहुँचा तब 49तोपों की सलामी दागी गई। शवदाह में भारत, ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका और स्वीडन के सरकारी प्रतिनिधि उपस्थित हुए।

राजा की मृत्यु पर शोक प्रदर्शन करने के लिए नेपाल के प्रत्येक पुरुष को उस्तरे से अपना सिर तथा दाढ़ी, मूँछें मुँडानी पड़ीं। नेपाल राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को तेरहवीं हो जाने तक निरामिष भोजन करना, चमड़े का जूता नहीं पहनना और किसी प्रकार का उत्सव नहीं करने का नियम पालन करना पड़ा। इस नियम के उल्लंघन का दंड छह माह की जेल थी।

सामंतशाही प्राचीन राजाओं में यह प्रथा रही थी कि राजा के मरते ही दूसरा राजा गद्दी पर बैठ जाता था। भारत के अन्य मित्र देशों में भी ऐसा ही रिवाज था। ‘राजा मर गया’ ‘राजा चिरंजीवी रहे’ ये दोनों घोषणाएँ एक साथ ही होती थीं। राजपूतों में ऐसा होता था कि राजा के मरते ही सब राजवर्गी जल्द-से-जल्द नए राजा के कृपा पात्र बनने के लिए राजा को सिसकता ही छोड़ जाते थे। गुजरात के सोलंकी राजा कुमारपाल जिसके प्रताप का दिग्दिगंत में डंका बजता रहा, मृत्यु-शय्या पर अकेला पड़ा -मल-मूत्र और गलित्कुष्ठ के घाव पीपों से भरा हुआ छटपटाता मर गया। उस समय एक भी व्यक्ति उसके पास न था। प्रथा थी कि राजा के मरते ही जब उसका पुत्र या कोई भी उत्तराधिकारी गद्दी पर बैठता था,तब सबसे पहली सूचना उसे दी जाती थी कि एक सैनिक मर गया है, उसके क्रिया-कर्म की राजाज्ञा प्रदान हो। तब नया राजा कहता था – ‘उचित सम्मान के साथ उसकी क्रिया की जाए।’ राजा न उस मातम में सम्मिलित होता था न शव को देखता था। ऐसा ही इस अवसर पर नेपाल के नए राजा ने किया।

मृत राजा के पुत्र और उसकी रानी ने न शोक मनाया, न बाल मुँड़ाये, न शव-दाह में सम्मिलित हुए। यह राज-मर्यादा थी। उसका आंशिक उल्लंघन करके उन्होंने और उनकी रानी ने तेरहवीं तक सादा भोजन करने और चटाई पर सोने का नियम पाला।

‘ग्यारहवी’ के दिन उनका समस्त वैयक्तिक सामान एक दक्षिण भारतीय महाराष्ट्रीय ब्राह्मण श्री कृष्णंभूता को दे दिया गया, जो इन वस्तुओं के साथ-साथ नेपाल नरेश के भूत को भी अपने ऊपर लेकर बागमती नदी के पार चला गया और पुनः काठमांडु की घाटी में प्रविष्ट नहीं हुआ।

एकादश के दिन, बागमती नदी के तट पर एक विशेष समारोह किया गया और ब्राह्मण की कुटिया में मृत राजा त्रिभुवन के सोने-चांदी के बर्तन सजाए गए, सोफा सेट तथा पलंग पर बहुमूल्य गलीचे आदि बिछाए गए। कुटिया के बाहर नेपाल नरेश के हाथी तथा कई मोटरें खड़ी की गईं और इन सबके बाद ब्राह्मण नेपाल नरेश के कीमती वस्त्र धारण कर आया और उसे स्वीकार किया। उसे उत्तम प्रकार का भोजन, सोन-चाँदी के बर्तनों में कराया गया। उसे 40 हजार नकद तथा राजा का निजी सामान जो 10लाख रुपए का था, दे दिया गया। ब्राह्मण ने श्राद्ध का दान स्वीकार करते ही ब्राह्मणत्व को छोड़ दिया। उसके बाद उसे वहाँ से भेज दिया गया।

प्राचीन परंपरा के अनुसार नेपाली ब्राह्मण निरामिषभोजी होने के कारण पवित्र होते हैं, इसलिए वे श्राद्ध का दान नहीं ले सकते। इसी से इस दक्षिण भारतीय ब्राह्मण को, जो काठमांडु में पुस्तक बेचने का व्यवसाय करता था, श्राद्ध का दान दिया गया।

बहुत दिन हुए, संभवतः यह सन 1910-1911 की या इससे कुछ पहले की बात है कि उन दिनों मैं जयपुर संस्कृति कालेज में पढ़ता था। अवस्था उन्नीस-बीस वर्ष की होगी। तभी जयपुर के राजा माधोसिंह का देहांत हो गया। तभी मैंने देखा कि सिपाहियों के झुंड के साथ नाइयों की टोली बाजार-बाजार, गली-गली घूम रही थी। वे राह चलते लोगों को जबरदस्ती पकड़कर सड़क पर बैठा अत्यंत अपमानपूर्वक उसकी पगड़ी एक ओर फेंक सिर मूँड़ते थे, दाढ़ी-मूँछ साफ कर डालते थे। मेरे अड़ोस-पड़ोस में जो भद्र जन थे उन्होंने स्वेच्छा से सिर मुँड़ाए थे। अजब समाँ था, जिसे देखो सिर मुँड़ाए आ जा रहा था। यह देख मेरा मन विद्रोह से भर उठा। मेरी अवस्था कम थी, दाढ़ी-मूँछें नाम की ही थीं। सिर पर लंबे बाल अवश्य थे, पर उन पर मेरा कुछ ऐसा मोह न था। फिर भी जबरदस्ती सिर मुँड़ाने के क्या माने। परंतु लोगों ने मुझे डरा दिया। बाहर निकलोगे तो जबरदस्ती मूँड़ दिए जाओगे। छिपकर बैठोगे और पुलिस को पता लगा तो पकड़ ले जाएँगे, राजद्रोह में जेल में ठेल देंगे। परंतु ज्यों-ज्यों इस जोर-जुल्म की व्याख्या होती थी, मेरे तरुण रक्त की एक-एक बूँद विद्रोही हो उठती थी। मैंने निश्चय किया, सिर कटाना मंजूर है, पर सिर मुँड़ाना नहीं। मैं दिन भर घर में छिपा बैठा रहा। पकड़ने का भय तो था ही। बहुत लोग घरों से पकड़े जाकर मूँड़े जा रहे थे। मुझे किसी अपरिचित के आने की जरा भी आहट मिलती मैं पाखाने में जा छिपता। अंत में रात आई और मैं किसी तरह घर से बाहर निकलकर ‍अँधेरी रात में जंगल की ओर चल पड़ा। जयपुर के जंगल में। शहरपनाह के बाहर ही शेर लगते थे। सन ’10 का जयपुर आज का जयपुर थोड़े ही था। मेरा इरादा अजमेर भाग जाने का था, पर स्टेशन पर पकड़े जाने का भय था। अतः आगे बढ़कर एक छोटे स्टेशन से रेल पकड़ी और 15 दिन बाद जयपुर लौटा। फिर भी डर था। 15 दिन में इतने बड़े बाल कैसे हो गए, किसी ने पूछा तो क्या जवाब दूँगा।

यह हुई आपबीती। अब लोकोक्ति सुनिए। किसी रियासत में गांधर्वसेन मर गए। कुम्हार ने सिर मुँड़ाया तो राजा तक दरबारी मुँड़ाते चले गए। पीछे पता लगा कि वह कुम्हार का गधा था।

जीवित जातियाँ वहीं हैं जो आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करती हैं; अपने आज के जीवन में जीती हैं। नेपाल वीरों का देश है। भारत की जनता नेपाल की जागृति को आशा और सहानुभूति की नजर से देखती है। नेपाल को चाहिए वह अपने देश की भूमि से सामंतशाही, रूढ़िवाद और एकाधिकार का आमूल विनाश करके स्वाधीन राष्ट्र के रूप में अपना नया रूप प्रकट करे।

नेपाल के भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री मोहन शमशेर राणा के पिता श्री चंद्रशमशेर राणा से पहले-पहल मेरा परिचय तब हुआ था, जब वे कलकत्ता चिकित्सार्थ आए थे। मैं चिकित्सक की हैसियत से उन्हें देखने गया था। संभवतः ये बातें सन 1923-24 की होंगी। अंग्रेजी अमलदारी थी। उस समय कलकत्ते में नेपाल के उस बूढ़े रोगी प्रधानमंत्री ठाट देखकर क्षणभर के लिए मेरी धमनियों में से खून की गति रुक गई थी। परंतु जब मैंने उसे एक दुखी, बूढ़ा, रोगी और उसके शरीर को घावों से भरा तथा जर्जर देखा तो मेरे ऊपर से उस तेजस्वी राजपुरुष का सब रुआब उतर गया और जब बंदूकों की सलामी की बाढ़ की गड़गड़ाहट में प्रमुख पुरुषों से भरे भवन में दो आदमियों को सहारा ले उसने प्रवेश किया तो भवन का प्रत्येक पुरुष पुथ्वी पर झुक गया। अकेला मैं ही सीधा खड़ा रहा।

मेरा यह अभिनय देख झटपट श्री मोहन शमशेर के संकेत से कर्नल चंद्रजंग ने मुझे एक ओर आने का संकेत किया। इसी समय मैंने अकंपित स्वर सुना – हे कोण है?

मेरा परिचय पाकर उस वृद्ध राजपुरुष ने नर्म नेत्रों से मेरी ओर देखा और ‘आइए’ कहकर एकांत कक्ष में चला गया, जहाँ मैंने उसकी शरीर परीक्षा की, कातरवाणी सुनी, दिल खोलकर हँसाया और तब से वह परिवार अंत तक मेरा मित्र रहा।

एक यही बात नहीं और भी राजपुरुषों से मेरा संपर्क घनिष्ठ रहा है। सर्वत्र मैंने उन्हें दयनीय और असहाय पाया है। निज के नौकरों की दया पर निर्भर। प्रायः मूर्ख और दुखी। तभी तो उनका युग बीत गया। जनता जाग गई। जन जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ।

 

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