परिचय
जन्म: 16 जुलाई1917
मृत्यु : 14 मई 1978 नाटककार
जन्म स्थान : खुर्जा, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश
रचनाएँ– कोणार्क ,भोर का तारा, ओ मेरे सपने, पहला राजा , शारदीया [सभी नाटक]
विशेष
जगदीशचंद्र माथुर हिन्दी के उन साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने आकाशवाणी में काम करते हुए हिन्दी की लोकप्रयता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। परिवर्तन और राष्ट्र निर्माण के ऐसे ऐतिहासिक समय में जगदीशचंद्र माथुर, आईसीएस, ऑल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर जनरल थे। उन्होंने ही ‘एआईआर’ का नामकरण आकाशवाणी किया था। टेलीविजन उन्हीं के जमाने में वर्ष 1959 में शुरू हुआ था। हिंदी और भारतीय भाषाओं के तमाम बड़े लेखकों को वे ही रेडियो में लेकर आए थे। सुमित्रानंदन पंत से लेकर दिनकर और बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे दिग्गज साहित्यकारों के साथ उन्होंने हिंदी के माध्यम से सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सूचना संचार तंत्र विकसित और स्थापित किया था।
जगदीशचंद्र माथुर का जन्म 16 जुलाई 1917 में खुर्जा जिला बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा खुर्जा में हुई। उच्च शिक्षा युइंग क्रिश्चियन कॉलेज, इलाहाबाद और प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। प्रयाग विश्वविद्यालय का शैक्षिक वातावरण और प्रयाग के साहित्यिक संस्कार रचनाकार के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका हैं। 1939 में प्रयाग विश्वविद्यालय से एमए (अंग्रेजी) करने के बाद 1941 में ‘इंडियन सिविल सर्विस’ में चुन लिए गए। सरकारी नौकरी में 6 वर्ष बिहार शासन के शिक्षा सचिव के रूप में, 1955 से 1962 तक आकाशवाणी – भारत सरकार के महासंचालक के रूप में, 1963 से 1964 तक उत्तर बिहार (तिरहुत) के कमिश्नर के रूप में कार्य करने के बाद 1963-64 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका में विजिटिंग फेलो नियुक्त होकर विदेश चले गए। वहां से लौटने के बाद विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर काम करते हुए 19 दिसंबर, 1971 से भारत सरकार के हिंदी सलाहकार रहे। इन सरकारी नौकरियों में व्यस्त रहते हुए भी भारतीय इतिहास और संस्कृति को वर्तमान संदर्भ में व्याख्यायित करने का प्रयास चलता ही रहा।
अध्ययनकाल से ही उनका लेखन प्रारंभ होता है। 1930 में तीन छोटे नाटकों के माध्यम से वे अपनी सृजनशीलता की धारा के प्रति उन्मुख हुए। प्रयाग में उनके नाटक ‘चांद’, ‘रुपाभ’ पत्रिकाओं में न केवल छपे ही, बल्कि इन्होंने ‘वीर अभिमन्यु’, आदि नाटकों में भाग लिया। ‘भोर का तारा’ में संग्रहीत सारी रचनाएं प्रयाग में ही लिखी गईं। यह नाम प्रतीक रूप में शिल्प और संवेदना दोनों दृष्टियों से माथुर के रचनात्मक व्यक्तित्व के ‘भोर का तारा’ ही है। इसके बाद की रचनाओं में समकालीनता और परंपरा के प्रति गहराई क्रमशः बढ़ती गई है। व्यक्तियों, घटनाओं और देशके विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों से प्राप्त अनुभवों ने सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
आकाशवाणी के महानिदेशक के तौर पर उन्होंने देश की सभी भाषाओं और कला-साहित्य की प्रतिभाओं को उससे जोड़ा। उन्होंने ‘दस तस्वीरें’ और ‘जिन्होंने जीना जाना’ रेखाचित्र की रचना की। ‘परम्पराशील नाट्य तथा प्राचीन भाषा नाट्य संग्रह’ शोध-प्रबंध लिखा। 12 वर्ष की आयु में ‘मूर्खेश्वर राजा’ नामक प्रहसन लिखा। 14-15 वर्ष की उम्र में ‘लवकुश’ और ‘शिवाजी’ नामक एकांकी की रचना की। 19 वर्ष की आयु में चर्चित ‘मेरी बांसुरी’ एकांकी की रचना की। इनके एकांकी संग्रह हैं, – ‘भोर का तारा’ और ‘ओ मेरे सपने’।
जगदीशचंद्र माथुर कुछ समय के लिए इनकी नियुक्ति उड़ीसा में हुई थी। वही इन्होंने ‘कोणार्क’ की रचना की। उनका दूसरा ऐतिहासिक नाटक है ‘शारदीया’ (1959)। उन्होंने नागपुर के म्यूजियम में पांच गज की एक साड़ी देखी जिसका वजन मात्र पांच तोला था। तीसरा नाटक ‘पहला राजा’ (1969) है। यह नाटक ऐतिहासिक-पौराणिक पृष्ठभूमि पर आधारित होने पर भी युगीन संदर्भों से जुड़ा है। पौराणिक संदर्भ को लेकर उनकी चौथी कृति ‘दशरथनंदन’ (1974) और पांचवीं कृति ‘रघुकुल रीति’ (मरणोपरान्त) है।
भारतीय रंग-परंपरा के साथ इन्होंने पश्चिमी त्रासद-तत्त्व का सुन्दर सामंजस्य स्थापित किया। प्रतिवर्ष होने वाले भव्य वैशाली महोत्सव की परिकल्पना उन्हीं की थी। जगदीशचंद्र माथुर का 14 मई 1978 को निधन हो गया। प्रस्तुत है जगदीश जी का एक निबंध एवं दो नाटक
उदय की बेला में हिंदी रंगमंच और नाटक – निबंध
भारतीय रंगमंच और नाटक के पारस्परिक सम्बन्ध और विकास की चर्चा करते हुए मैंने पहले भी यह मत प्रकट किया था कि सिनेमा के प्रचंड वैभव के बावजूद हमारे रंगमंच का पुनरुथान अवश्यम्भावी है, क्योंकि सिनेमा मनोरंजन की चाहत को पूरा करता है, परन्तु संस्कारों के भार से दबी और भूली-सी अभिनयात्मक आदिम प्रवृति को पूरा-पूरा मौका नहीं देता है और न दर्शकों को अभिनेताओं के मायावी लोक में अपनी हस्ती खो देने का निमंत्रण देता है। सिनेमा का पर्दे पर चलती-फिरती और जादूगरी से बोलनेवाली मुर्तियों से प्रदर्शन के समय रागात्मक सम्बन्ध स्थापित होना उतना ही दूभर है, जितना किसी स्वप्न-सुंदरी से नाता जुडना।
किन्तु कौन सा वह रंगमंच होगा और कैसी वह नाट्यशैली, जो आधुनिक मनोरंजन के अपूर्व साधनों से लोहा लिए बिना फिर से हमारे समाज में उपयुक्त स्थान पा सकें।
यदि हिंदी में राष्ट्रीय रंगमंच के उदय से तात्पर्य है अभिनय के नियम, रंगशाला की बनावट, प्रदर्शन की विधि, इन सभी के लिए एक सर्वस्वीकृत परम्परा और शैली की अवतारणा होना, तो ऐसे रंगमंच का अस्त भी शीघ्र ही होगा। राष्ट्रीय रंगमंच की धारणा के पीछे राजनितिक ऐक्य के लक्ष का आग्रह है। गुलामी के बादलों में से उगते हुए समाज की प्रत्येक चेष्टा में राजनितिक विचारों का प्रभाव हो, यह स्वाभाविक ही है। दुनियां में जहाँ कहीं राष्ट्र निर्माण की ओर मानव-समाज झुका वहीं निर्माण के प्रत्येक क्षेत्र पर राजनितिक विचारधारा ने आसान जा फैलाया। एक भाषा, एक राष्ट्र, एक शिक्षा-प्रणाली और एक संस्कृति का नारा विभिन्न देशों और विभिन्न युगों में उठाया जा चुका है और आज भारत में भी इसकी गूंज है; किन्तु और क्षेत्रों में इसका जो भी फल हो, सांस्कृतिक विकास के लिए यह सौदा प्रायः महंगा ही बैठता है। अठारहवीं सदी के अंत में जर्मनी, जो उस समय तक विश्रृंखल रियासतों का समूह मात्र थी, अपने आधुनिक राष्ट्रीय एकता के आदर्श की ओर तीब्र गति से अग्रसर हो रही थी। तभी एक जर्मन संस्कृति के नाम पर जर्मन राष्ट्रीय रंगमंच के निर्माण में तत्कालीन जर्मन नेताओं ने उग्र कट्टरता के साथ हाथ लगाया। परिणामतः रंगमंच की एकांगी उन्नति तो हुई, किन्तु साथ ही जर्मन का पुरातन दरबारी रंगमंच, जिसकी समृद्दि में विभिन्न वर्गों के पारस्परिक संबंधों की छटा प्रफुटित हुई थी, मटियामेट हो गई। उससे भी अधिक हानी हुई घुमती-फिरती नाटक-मंडलीयों के ह्रास के कारण। इन घुमंतू अभिनेताओं के माध्यम से जर्मनी की साधारण जनता बोलती थी। उसके स्थान पर राष्ट्रीय एकता से अभिप्रेरित, एक विशिष्ट शैली के रंगमंच की स्थापना हुई और वही शैली जर्मन के विभिन्न नगरों में प्रचलित होती गई।
मुझे आशंका है की कहीं वैसी ही भूल हम लोग भी अपनी आज़ादी के उषा:काल में न कर बैठे। स्वाधीन भारत को राजनीतिक एकता की ज़रूरत है किन्तु भारतीय संस्कृति के लिए विविधता अपेक्षणीय है। जो एक के लिए अमृत है दूसरे के लिए विष। जिन बादलों को बरसकर धरती को अन्न देना है, वे एक रंग के हों, इसी में कल्याण है, पर जो सूर्य की किरणों से ज्योतित हो हमारी सौंदर्याभिलाशिणी आत्मा को तृप्त करें, ऐसे बादलों को तो सतरंगी ही होना है।
अतः राजनीतिक दृष्टिकोण से राष्ट्रीय रंगमंच की रूप-रेखा निश्चित नहीं की जा सकती, नहीं की जानी चाहिये। यह कहा जा सकता है कि अठारहवीं सदी के जर्मन में रंगमंच की विविध जीवित परम्पराएं थीं, किन्तु हमारे यहाँ तो साफ मैदान है, जैसी चाहें इमारत तैयार कर लें, कुछ नष्ट करने का डर नहीं। किन्तु यह भूल है। इसी भूल के कारण भारतीय समाज और साहित्य की वर्तमान शुष्क बलुकाराशि के नीचे जो अन्तः सलिला धारा बहती रही है, उसमें डूबकी लगाये बगैर ही पिछले पच्चीस-तीस बरसों के हिंदी-नाटककार, प्रतिभा और प्रयास के होते हुए भी, जीवंत नाट्य-साहित्य तैयार नहीं कर सके। एक शौकीनी (एमेचार) रंगमंच की स्थापना अवश्य हुई, सो भी प्रसादोतर काल में। यह रंगमंच गतिशील है, स्वास्थ्य है और समाज के एक वर्ग-विशेष की अनिवार्य मांग की पूर्ति करता है। इसलिए इसका भविष्य उज्जवल है। एमेचर रंगमंच पाश्चात्य साहित्य के संसर्ग से उद्भूत नाटकीय प्रेरणा की अभिव्यक्ति है और इसके द्वारा एक नई परम्परा की प्रतिष्ठा हुई है, जिसे हमें कायम रखना है।
किन्तु जैसा कि हमने ऊपर कहा है, हमें विस्मृत परम्पराओं की धाराओं की तोह भी लेनी है और उनके लिए मार्ग प्रशस्त करने में ही हमारा सांस्कृतिक नवनिर्माण सफल हो सकेगा। एक अन्तः सलिला धारा थी संस्कृत नाट्य-साहित्य में परिलक्षित रंगमंच की, ऐसा रंगमंच जो अपने उत्कर्ष-काल में एक अनुपम सामंजस्यपूर्ण संस्कृति का परिचायक था, जिसके विभिन्न अंगों के संतुलन में नागरिक जीवन की सर्वान्गीकता सन्निहित थी और जिसके प्रतिबंधों में शताब्दियों के अनुभव से अर्जित ज्ञान का निमंत्रण। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इस परम्परा को उबारा सदियों के बाद। उनकी प्रतिभा की प्रचंड किरणों ने विस्मृति के अभेद्द कारा को खंडित किया और वसंत के लुभावने समीरण के स्पर्श से हिंदी रंगमंच जाग उठा।
भारतेंदु द्वारा प्रतिष्ठित धारा का आगमन हिंदी-साहित्य के आधुनिक इतिहास में एक महान दुर्घटना थी। क्यों ऐसा हुआ, इसकी भी अपनी कहानी है, जिसकी ओर हिंदी साहित्यकार का ध्यान आना चाहिए। यहाँ संकेत के तौर पर इतना कहना काफी होगा कि विचारक्षेत्र में उत्तर-प्रदेश के आर्यसमाजी सुधारवादी सिद्धांत, सामाजिक क्षेत्र में हिंदी भाषी प्रान्तों के उच्चवर्गीय नेताओं की संस्कृति शून्यता, राजनितिक क्षेत्र में स्वतंत्रता-युद्ध के परिणामस्वरूप आदर्शवादी निग्रह ( Puritanism ) की भावना और भाषा के क्षेत्र में द्विवेदी जी के नेतृत्व में शुद्धता और इति-वृतात्मक अभिव्यंजना का आंदोलन, सभी किसी ना किसी रूप अथवा परिस्थिति में भारतेंदु की रस-प्रवाहिन निर्झरणी के लिए मरुस्थलतुल्य प्राणान्तक सिद्ध हुए। इस तरह हिंदी रंगमंच के उत्थान का प्रथम प्रयास, जिसका प्राचीन संस्कृत रंगमंच से लगाव था, अधूरा ही राह गया। बाद में जो नया दौर चला, उसकी प्रेरणा कहीं और से ही आई, और प्रसाद जी के नाटक तो एक कल्पनाजन्य रंगमंच को आधार मानकर प्रणीत हुआ।
क्या अब पुनः उस अधूरे यज्ञ की परिणति हो सकती है ? क्या उसकी आवश्यकता भी है इस युद्धोतर जनवादी युग में ? मैं कहूँगा, हाँ। संस्कृत नाटक की परंपरा नूतन हिंदी रंगमंच के बहुमुखी विकास की एक प्रधान शैली के बीच विधमान है।
यदि पाश्चात्य यथार्थवादी रंगमंच से प्रभावित हो हमारे स्कूल, कालेजों और क्लबों द्वारा एमेचर रंगमंच की अभिवृद्धि होगी, तो प्राचीन संस्कृत पद्धति का आधार ले और बैले इत्यादि के साधनों से संपन्न हो एक नागरिक (Urban) और व्यावसायिक (Professional) रंगमंच भी हमारे नगरों में प्रस्तुत हो सकता है। ऐसे रंगमंच के लिए संस्कृत रंगमंच की कमनीयता, इसका सुरम्य वातावरण वांछनीय है; रंगशाला की सजावट, उसके विभिन्न अंगों का वितरण, संगीत और नृत्य का प्रचुर प्रयोग, इन सभी विषयों में संस्कृत रंगमंच की विशिष्ट धरोहर है। सिनेमा और चिताकर्षण नृत्य-प्रदर्शन के इस युग में कोई भी व्यावसायिक और नागरिक रंगमंच जीवन को यथातथ्य प्रतिविम्बित करनेवाले दृश्यों के सहारे नहीं पनप सकता; किन्तु हृदयग्राही और नयनाभिराम होने के लिए हिंदी रंगमंच को पारसी थियेटर के कृत्रिम साधनों का सहारा नहीं लेना है और न आधुनिक पाश्चात्य नाट्यकलाओं की प्रतीकवादी पृष्ठभूमि का दामन पकडना है। हम संस्कृत रंगमंच की ललित रंगपीठ, सरस स्वाभाविकता और शास्त्रोगत मुद्राओं और भाव-भंगिमाओं से भरे-पुरे अभिनय को सहज ही अपना सकतें हैं। अभी तक श्री पृथ्वी राज कपूर द्वारा प्रस्तुत किये गए नाटकों को देखने का मुझे अवसर नहीं मिला है, लेकिन यदि मुंबई में ये संस्कृत नृत्यशालाओं, वस्त्राभूषणों और अभिनय कला की कुल विशेषताओं को अपने थिएटर में, प्रयोग रूप में ही सही, चालू करें, तो मेरा विश्वास है कि वे रुचिपरिमार्जन के साथ-साथ आभिजात्यवर्ग के नागरिकों का यथेष्ट मनोरंजन भी कर सकेंगें। ऐसा रंगमंच व्यावसायिक दृष्टि से असफल नहीं हो सकता ; क्योंकि उसमें ‘ओपेरा’ के गति-प्रधान वातावरण और रमणीयता और सिनेमा की तीव्र गतिशीलता और नाटकीयता का अलम्य सम्मिश्रण होगा। मुख्यतः यह रंगमंच नगरों और उत्सवों तक ही सीमित रह सकेगा।
राष्ट्रीय रंगमंच का तीसरा और शायद सब से महत्वपूर्ण अंग होंगी देहाती नाट्य मंडलियां। पिछले दिनों लोगों का ध्यान जनता के विचारों और व्यक्तित्व को प्रभावित करनवाले इस अचूक साधन की ओर गया है और कम्युनिस्ट पार्टी ने तो अपने पीपुल्स थियेटर द्वारा आरम्भ के दिनों में निस्संदेह कला का यथेष्ट कल्याण किया है ; किन्तु कम्युनिस्ट कलाकारों को सिद्धांत की वेदी पर बेदर्दी के साथ सौंदर्य का बलिदान करना पडता है और इसलिए निकट भविष्य में तो पीपुल्स थियेटर राष्ट्रीय रंगमंच को शायद ही समृद्द कर सके। दूसरे, यद्दपि पूर्वी बंगाल, तेलांगना और पश्चिमी मालावार के कुछ हिस्से मं कम्युनिस्ट मंडलियों को देहाती अभिनेताओं और गायकों इत्यादि का सहयोग अंशतः मिल सका, तथापि हिंदी भाषी प्रदेशों में ये मंडलियां प्रायः पढ़े-लिखे मध्यर्गीय उग्र विचारवान प्रतिभाशाली और उत्साही नवयुवाओं की बानगी बनकर ही रह गईं। ये मध्यवर्गीय नवयुवक, जिन्होंने शहरों में रहकर, पाश्चात्य विद्वानों की पुस्तकों के आधार पर अपनी विचार शैली निर्धारित की थी, अपने प्रगतिशील सिद्धांतों की खातिर ऐसा जान पडता था, देहाती पोषक पहन लेते थे। उन्होने पढ़ा कि रूस में जनता का नाटक पार्टी की प्रेरणा से खूब पनपा। इसलिए यहाँ भी, उन्होंने देहाती नाम, देहाती समस्याओं और देहाती पोशाक का सहारा ले, मिली जुली देहाती भाषा में बड़े शहरों में और कहीं-कहीं गांव में भी अपने सिद्धांत का प्रचार शुरू कर दिया। थोड़े दिन तो यह चीज़ खूब चमकी ; किन्तु आकाश की जिस धारा ने धरती के नीचे प्रवाहित होनेवाले सोतों से नाता जोड़ा, वह तो ऊपर-ऊपर ही होकर ढाल जाती है। कम्युनिस्ट रंगमंच ने वस्तुतः बिहार, उतरप्रदेश और मध्यप्रदेश में, देहातों में प्रचलित और लोकप्रिय अभिनय-प्रणालियों से सम्बन्ध स्थापित नहीं किया और न इन देहातों में जौहर दिखलानेवाले अशिक्षित या अर्धशिक्षित अभिनेताओं और गायकों को अपनाया। उन्होंने उन प्रणालियों अथवा पद्दतियों का अंशतः अनुकरण तो किया, लेकिन चालू प्रणालियों से सीधा situs toto सम्बन्ध नहीं जोड़ा। शायद उसमें उन्हें ह्रासोन्मुख (Decadent) संस्कृति के चिन्ह दीखे।
वस्तुतः हमें रंगमंच के इस विशाल क्षेत्र को उर्वरक बनाने के लिए उस लोक रूचि की मांग को समझाना होगा, जिसके सहारे अब भी इतनी नौटंकी पार्टियां और मंडलियां जीती रही है। छः-सात वर्ष हुए बिहार के साधारण से ग्राम में दौरा करते समय मुझे उस गांव की ही एक मंडली द्वारा प्रस्तुत किया गया नाटक देखने का अवसर मिला। ठठ-के-ठठ स्त्री पुरुष जमा थे। स्टेज के नाम पर एक चौकी। एक ढोलकवाला था। अभिनेता कुल चार या पांच। दर्शक तीन तरफ। न कोई पर्दा न कोई विशेष सजावट। नाटक का नाम था ‘जालिम सिंह’ जो उत्तरी बिहार में खासा प्रसिद्ध है। अभिनय में कोई विशेष कला नहीं थी। कहानी अच्छी होते हुए भी, उसमें कई अश्लील अंश थे। लेकिन मुझे ऐसा लगा, जैसे उस नाटक के खेलनेवालों और चारों ओर उमड़नेवाली जनता में एक संशयहीन आत्मीयता हो, जिसका मैं एक अंग नहीं बन सका। उसके बाद बिहार और पूर्वी उतर प्रदेश के भोजपुरी इलाके के लोकप्रिय कलाकार भिखारी ठाकुर के विषय में बहुत कुछ सुनकर और उनके ‘बिदेसिया’ के नाम पर जुट पड़नेवाली जनता की मनोवृति का अध्ययन कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि देहाती रंगमंच उन आदिम अभिनयात्मक इच्छाओं की अभिव्यंजना है, जिसके बल पर ही सिनेमा के तीव्र प्रचार के बावजूद रंगमंच अपना अस्तित्व कायम रख सकता है।
देहाती रंगमंच की बुनियाद में अभिनेता और दर्शक के बीच वही तदात्मीयता (Mutual understanding) है, जिसका ज़िक्र मैं ऊपर कर आया हूँ। यह तभी संभव हो सकता है, जब नाटक-मंडली के अभिनेता और प्रबंधक देहाती जनता की रूचि, इच्छा और मांग का अध्ययन करें। उसकी तथाकथित अश्लीलता या बेरोक रसानुभूति से नाक-भौं न सिकोडें और उच्च स्तर से आविभूर्त होनेवाले उपदेशकों की भांति, नीति अथवा उद्धार की झड़ी न लगाएं और न आर्थिक शोषण का जड़ोंउन्मूलन करने के लिए जनता को भावोद्वेलित करने की आशा करें। यह तो प्रधानतः मनोरंजन का क्षेत्र है। इसे परिमार्जित करने का एक ही मार्ग है, यानि जो मनोरंजन भौंडा है उसे सुन्दर, कलापूर्ण और स्वस्थ बनाया जाये। उदाहरणतः इन नाटकों में रंगमंच की सजावट में ग्रामीण कला को अवसर दिया जाये। चटाइयों पर गेरू से सुन्दर डिज़ाइन बनाकर मंच के उपपीठ पर लटकाएं जाएँ। गांव की स्त्रियां अल्पना अंकित करें। भद्दे शहरी पर्दों के स्थान पर बैक-ग्राउंड में जंगली पत्तियों और फूलों की लड़ियाँ टांगी जय। गाने बजने की बहुलता रहे। हारमोनियम के स्थान पर सारंगी, और तबले के स्थान पर ढोलक हो। चूँकि पर्दे की गुंजाईश तो वहाँ होती नहीं है, इसलिए दृश्य परिवर्तन और नाटक में धारा-प्रवाह को जारी रखने के लिए एक सूत्रधार रहे। वह अच्छा गायक और हाज़िर जबाब होना चहिये। संस्कृत नाटकों में तो सूत्रधार प्रस्तावना के बाद गायक हो जाता था। लेकिन आधुनिक देहाती रंगमंच में उसकी बराबर ज़रूरत पड़ेगी और उसका काम लगभग वही होगा, जो यूनानी नाटकों में कोरस द्वारा संपन्न होता था, यानि नाटक और दर्शकों के बीच सूत्र कायम रखना। स्थान-स्थान पर नाटक के कथानक के प्रति उत्सुकता जागृत रखने के लिए, वह टिपण्णी देगा, अभिनेताओं को कपड़े बदलने का समय देने के लिए, दर्शकों का मनोरंजन करेगा और नाटक के भावुक स्थानों पर भावावेग के अनुकूल गीत सुनाकर उसी प्रकार नाटकीय संवेदना का संवर्धन करेगा, जैसे आधुनिक सिनेमा और रेडियो-रूपक में पार्श्व संगीत।
अभिनेता, जहाँ तक हो सके, देहात में से ही लिए जायं, यद्दपि सूत्रधार का आधुनिक संस्कृति और ज्ञानराशि से परिचित होना आवश्यक है। मैंने ग्रामीण जनता के सभी वर्गों में कुशल अभिनेता की दक्षता रखने वाले व्यक्तिओं को पाया है। थोड़ी ट्रेनिंग से उनकी योग्यता निखर जायेगी, इसमे कोई संदेह नहीं। देहाती नृत्य और सम्मिलित संगीत, उस रंगमंच के महत्वपूर्ण अंग रहेंगें। हर प्रदेश के अपने-अपने जन नृत्य हैं, जिनका बड़े-बड़े नगरों की आत्याधुनिक रंगशालाओं में नए फैशन के युवक-युवतियों द्वारा शौकीनी प्रदर्शन पिछले दिनों खूब किया गया है। लेकिन ठेठ देहात में, जहाँ की यह चीज़ है, नैसर्गिक वातावरण में, देहाती युवक-युवतियों को ही अपने रंगमंच पर प्रदर्शन करने के लिए कहाँ तक उत्साहित और संगठित किया जा रहा है, इसमें मुझे बहुत कुछ संदेह है।
देहाती रंगमंच का संगठित रूप क्या है और उनकी अन्य क्या विशेषताएँ होनी चाहिये, इस विषय पर सविस्तार भविष्य में लिखूंगा। क्योंकि इस क्षेत्र में कुछ क्रियात्मक अनुभव प्राप्त कर लेने के बाद ही मुझे विचार प्रकट करने का पूर्ण अधिकार हो सकता है। पिछले छः वर्षों से वार्षिक वैशाली महोत्सव के अवसर पर मैं इस ढंग के देहाती रंगमंच की कल्पना को कार्यरूप में परिणत करने की चेष्टा करता रहा हूँ। कुछ सफलता भी मिली है, क्योंकि वैशाली तो एक गांव ही है, रेलवे स्टेशन से २३ मील दूर और चाहने पर भी वहाँ नगर के साधन उपलब्ध नहीं हो सकते। ग्रामीण अभिनेता, ग्रामीण दर्शक, ग्रामीण उपादान सभी मिल जातें हैं। निर्देशन हम लोगों का होता है और विशेषतः सजावट का निर्देशन उपेन्द्र महारथी का। फिर भी कार्यक्रम में कॉलेज के नवयुवकों द्वारा प्रस्तुत नाटक शामिल करने ही पडतें हैं।
इस वर्ष से बिहार में सरकार की ओर से सांस्कृतिक चेतना सम्बन्धी योजना में हमलोगों ने देहाती रंगमंच के विकास के उद्द्येश से मोद-मंडलियों की स्थापना की है। योजना सरकारी है और इसलिए उसकी गति गजगामिनी की-सी है। स्वरुप भी वैसा हो तो शिकायत की गुंजाईश न रहेगी किन्तु सांस्कृतिक क्षेत्र में निश्चित रूप से यह पहला सरकारी कदम है और फूंक-फूंक कर उठाया जा रहा है। लोगों को भी यकीन नहीं होता कि इसके पीछे कोई और तो चाल नहीं है। यदि यह तजुर्बा अंशतः भी सफल हुआ तो मैं एक या दो वर्ष बाद इसकी पूरी कथा हिंदी पाठकों के सामने रखूँगा।
ऊपर के विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आज दिन हिंदी भाषा-भाषी प्रदेशों में राष्ट्रीय रंगमंच का क्रमिक निर्माण तीन पहलुओं में हो रहा है। मेरे विचार से इन्हीं तीन शैलियों में भावी हिंदी रंगमंच की रूप-रेखा सन्निहित है, यानि १. यथार्थवादी, एमेचर ( शौकीनी ) रंगमंच, २. प्राचीन नाट्य परम्परा से प्रेरित किन्तु आधुनिक व्यावसायिक साधनों से संपन्न नागरिक ( Urban ) रंगमंच और ३. परिमार्जित और संशोधित रूप में देहाती रंगमंच। यदि हमारे उदिमान नाटककार और उत्साही निर्देशक और अभिनेता इन प्रवृतियों को नज़र में रखते हुए अपनी कार्य प्रणाली निर्धारित करें, तो बहुत- सी बेकार मेहनत बच जाये और हिंदी राष्ट्रीय रंगमंच और नाट्य साहित्य की वास्तविक उन्नति हो।
इससे पहले कि इन प्रवृतियों के अनुकूल नाट्य-साहित्य की आवश्यकताओं की ओर मैं इशारा करूँ, यह ज़रुरी है कि हमारे रंगमंच के पुनर्निर्माण काल की दो प्रबल शक्तिओं यानि सिनेमा और रेडियो का जो प्रभाव इन तीन धाराओं पर पड़ रहा है, या पड़ सकता है, उसका भी कुछ अंदाज़ा लगा लिया जय। सिनेमा को मैं रंगमंच का घटक मानाने को तैयार नहीं। मेरे विचार मैं तो सिनेमा ने रंगमंच के पुनरुत्थान का लिए अनुकूल वातावरण पैदा किया है। सदियों से भारतवर्ष की जनता नाट्य और अभिनयकला की ओर से उदासीन हो चली थी। लोक रूचि पर काई जम गई थी और उच्च सांस्कृतिक क्षेत्र में अभिनय और नृत्य- प्रदर्शन का कोई स्थान ही नहीं रह गया था। सिनेमा ने उस काई को काटकर फेंक दिया और देखते ही देखते अभिनय और कलात्मक प्रदर्शन हमारे सामाजिक जीवन का एक प्रधान अंग बन गए।
यह सच है कि सिनेमा की लोकप्रियता ने पारसी थियेटर को नष्ट कर दिया, लेकिन उसके विनाश का कारण सिनेमा के आधुनिक मशीन युग के साधन ही नहीं थे, बल्कि अभिनय कला का एक नवीन दृष्टिकोण भी। सिनेमा ने जब यह दिखाया कि यथार्थ जीवन में जैसी बातचीत, जैसा व्यवहार, जैसी भाव-भंगिमा होती है, वैसी ही नाटकों में भी प्रदर्शित की जा सकती है, तो पारसी थियेटर के जोशीले भाषण, फड़कती हुई शेरों और तमक कर बोलने की परिपाटी अपना सारा आकर्षण खो बैठे। “चन्द्रकान्ता सन्तति” के तिलिस्म को जैसे प्रेमचंद के यथार्थवादी उपन्यासों ने ढाह दिया, ऐसे ही सिनेमा ने पारसी थियेटर के शीशमहल को खंडहर बना दिया। नतीजा यह हुआ कि जब इब्सन, शा, गाल्वार्दी इत्यादि से प्रेरित होकर उत्तर भारत के कुछ नगरों में एमेचर रंगमंच का आविर्भाव हुआ, ती सिनेमा के उदाहरण ने उसके यथार्थ के लिए दर्शक को तैयार कर दिया। एकांकी की उन्नति में सिनेमा का कितना ज़बरदस्त हाथ रहा है, इस पर शायद एकांकी-लेखकों ने भी विचार नहीं किया। भारतवर्ष में बोलते सिनेमा के प्रचार से पूर्व यदि यथार्थवादी, विशेषतः सामाजिक नाटक लिखे जाते, तो उनको रंगमंच पर उतरना शायद असंभव हो जाता। रंगमंच पर दैनिक जीवन का यथातथ्य प्रदर्शन हो, इसकी कल्पना भी दर्शक समाज नहीं कर सकता था। लोकरुचि में इतनी बड़ी क्रांति करके सिनेमा ने स्वाभाविक अभिनय की कला को रंगमंच पर ला बैठाया। तो क्या यथार्थवादी एमेचर रंगमंच को ही सिनेमा कुछ दे सका है ? यदि हिंदी राष्ट्रीय रंगमंच के उत्थान में सिनेमा की केवल इतनी हीं उपयोगिता रहती, तो उसका कोई स्थाई मूल्य नहीं होता, क्योंकि कोई भी यथार्थवादी रंगमंच, कम से कम भारतवर्ष में, जीवन के यथातथ्य चित्रण में सिनेमा से बाजी नहीं ले सकता। लेकिन मैं ऊपर कह आया हूँ कि हिंदी रंगमंच की तीन धाराओं में से एक यानि नागरिक, व्यवसायिक रंगमंच यथार्थवादी नहीं होगी। उसकी विशेषताएँ होगी काव्य-सुलभ रसानुभूति से परिपूर्ण वातावरण, मर्मस्पर्शी और सहज स्वाभाविकता एवं शाश्त्रोक्त मुद्राओं से संपन्न अभिनय और नृत्य, संगीत और नयनाभिराम दृश्यों से अलंकृत प्रदर्शन ( Spectacle )। ये विशेषताएँ नागरिक रंगमंच को ना सिर्फ संस्कृत रंगमंच से मिलेंगीं, बल्कि भारतीय सिनेमा की उस नवीन शैली से भी, जिनके उदाहरण के तौर पर विद्यापति, वसंतसेना, नर्तकी, रामराज्य, पुकार और अनेक पौराणिक फिल्मों का नाम लिया जा सकता है। प्रकाश और अंधकार का समुचित व्यवहार संवेदन के संवर्धन में कैसे किया जा सकता है , भावोद्रेक जताने के लिए क्योंकर संवाद में गति लाई जा सकती है, गीत और नृत्य कैसे स्थलों में प्रभावोत्पादक हो सकतें हैं, इन सभी महत्वपूर्ण पहलुओं पर सिनेमा की इस नई शैली ने प्रचुर प्रयोग किये हैं, नागरिक रंगमंच जिससे यथेष्ट लाभ उठायेगा।
अतः यदि भारतीय सिनेमा को भावी हिंदी राष्ट्रीय रंगमंच की प्रयोगशाला कहा जाय, तो कोई भी अतियुक्ति नहीं होगी। रेडियो की छाप भी उस पर निश्चय हीं रह जायेगी। हिंदी साहित्य का इतिहास मुक्त कंठ से ये यह स्वीकार करेगा कि आल इंडिया रेडियो ने हिंदी में नाट्य रचना को फिर से सार्थकता प्रदान की। उसने ना सिर्फ नए रुपककारों को प्रकाश में ला बैठाया, बल्कि पुरानी कृतियों के लिए भी एक नवीन क्षेत्र प्रस्तुत कर दिया। उसने एक नई मांग पेश की, जिसके जबाब में हिंदी लेखक को अपनी कलम साहित्य के इस विस्तृत क्षेत्र में चलानी पड़ रही है। इसके अतिरिक्त रेडियो-रूपक की कुछ ऐसी विशेषताएं हैं, जिन्हें रंगमंच के लिए नूतन उपकरण माना जा सकता है। पार्श्व संगीत की टेकनिक को रेडियो ने खूब निखर दिया है। अभिनय काला में स्वर-संधान की महत्ता रेडियो ने ही पहले पहल स्थापित की है और भाव-भंगिमा के अभाव में स्वर में चित्रोपमता को क्षमता ला देना यह अभिनय-कला को रेडियो की एक स्थाई देन है। भावी रंगमंच इन नए उपकरणों को निश्चय ही अपनावेगा।
उत्तरी भारतवर्ष में नाट्य साहित्य का लोप आप-ही-आप नहीं हुआ था। मुसलमानी राज्य में धार्मिक कट्टरता ने मूर्ति-कला और रंगमंच दोनों पर प्रहार किया। राज्य का प्रश्रय मिला नहीं और जनता भयाक्रांत हो मनोरंजन से विमुख हो गई। यों लगभग एक हज़ार वर्ष तक उत्तरी भारत में तो नाटक कोरे अध्ययन की सामग्री बनकर रह गई।
अब यदि एक हज़ार वर्ष बाद हम रंगमंच और रूपक साहित्य को पुनर्जीवित करना चाहतें हैं, तो यह क्रिया भी आप-ही-आप नहीं होगी। कविता भावुक ह्रदय से अनायास ही बह निकलनेवाली निर्झरणी हो सकती है, यद्दपि उसकी तह में भी सामाजिक प्रेरणाओं का दबाव होता है, किन्तु नाट्य साहित्य का रंगमंच की मांग से सीधा सम्बन्ध है और रंगमंच स्वतः ही नहीं बनता। राष्ट्र और समाज, संस्कृति क्षेत्र के नेता और शासन, सभी को परम्परा, परिस्थिति और उपकरणों को ध्यान में रखते हुए नए नए रंगमंच की रूपरेखा निश्चित करनी है, और जहाँ तक संभव हो, उस निश्चित योजना के अनुसार साधन एकत्रित कर रंगमंच के आंदोलन को चलाना है। ऐसे आन्दोलन के आग्रह से लेखक-समाज बच नहीं सकेगा, और कुछ ही समय में एक समृद्ध नाट्य-साहित्य की नीव पड़ जायेगी।
पिछले पृष्ठों में रंगमंच की जो त्रिमुखी योजना मैंने उपस्थित की है, वाह एक संकेत है इसी मार्ग की ओर। मैं यह कहने की धृष्टता नहीं करूँगा कि हिंदी हिंदी भाषी समाज इस संकेत को आँख मूंदकर मान ले, यद्यपि मेरा अनुभाव है कि रंगमंच के जिस त्रिमुखी विकास की मैं कल्पना कर रहा हूँ, वही दिन-प्रतिदिन स्पष्ट होती हुई सांस्कृतिक प्रवृतियों का चरमोत्कर्ष हो सकता है।
यदि यह न भी हो, तो भी मेरा यह तो पक्का विश्वास है कि जनता, शासन और सांस्कृतिक संस्थाओं को कुछ इसी तरह का बहुमुखी आंदोलन खड़ा करना होगा। हमारा राष्ट्रीय रंगमंच एकमुखी नहीं हो सकता और न होना ही चाहिए।
इसलिए हमारा नाट्य-साहित्य भी कई विभिन्न शैलियों का संग्रह होगा, एक ही परिपाटी का उत्थान मात्र नहीं।
लेकिन मुझे लगता है, मानो हम आधुनिक हिंदी के नाटककार बरबस ही एक ही शैली की तलाश में भटक रहें हों। जो नए प्रयोग हो रहें हैं, उनके पीछे रंगमंच की सामर्थ्य नहीं। इसलिए हमें रंगमंच की पद्धतियाँ भी निर्धारित करनी है और उसके साथ ही साथ नाट्य-साहित्य की शैलियाँ भी। दोनों कार्य सामानांतर रेखाओं की तरह चलें। यह सोचना कि पहले रंगमंच तैयार हो जाये तब नाटक लिखें जाएँ, या नाटकों की रचना कराकर रंगमंच को तदनुसार तैयार कर लें, भारी प्रवंचना होगी।
लेकिन मैं लेखक समाज को हुक्म नहीं देना चाहता कि ऐसा लिखो और ऐसा नहीं। कलाकार को जबरदस्ती आदेश देने कि क्षमता भला किसमें है ?
हमारा राष्ट्र, निर्माण की पहली सीढियों पर है। ऐसे क्षण में लेखक-समाज द्वारा समय और शक्ति का अपव्यय दो तरह आजकल हो रहा है – १. नई पीढ़ी के उदीयमान साहित्यकार मुक्तक काव्य की झड़ी लगाए जा रहें हैं, मानो उन्होने छायावादी परम्पराओं को रीतिकालीन सवैयों की परिपाटी की भांति सांचे ढलने वाली मशीन बना देने का व्रत लिया हो। नाटक का क्षेत्र है वीरान, लेकिन उधर कौन नज़र डाले ? २. जो नाटककार हैं, वे प्रायः शून्य में सेज लगाकर किसी काल्पनिक रंगमंच की प्रिया से मिलन की तैयारियां कर रहें हैं। कुछ लोग हैं कि कोरे संवादों के चमत्कार को नाट्यगति ( Action ) का स्थान देकर संतुष्ट हो जातें हैं, कुछ के हरेक पात्र में एक ही व्यक्तित्व यानि लेखक का निजी व्यक्तित्व प्रतिबिंबित होता है, कुछ का कथानक इतना सपाट होता है कि प्रथम दृश्य में ही अंतिम दृश्य की झलक मिल जाती है और कुछ के पत्र भाषणों का तांता बंध्तें हैं, तो रुकने का नाम ही नहीं लेते।
प्रतिभा और समय के इस अपव्यय को रोकने के लिए लेखक-समाज को सामूहिक इच्छाशक्ति का प्रयोग करना होगा। यह सामूहिक इच्छाशक्ति साहित्यकारों की संस्थाओं द्वारा स्वीकृत और शासन द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त योजनाओं के रूप में प्रकट की जा सकती है। इन योजनाओं में श्रेष्ठ नाटकों पर पुरस्कार, नाटकों के अभिनीत करने का प्रबंध, उदीयमान नाटककारों को आर्थिक सहायता, इन सबका विधान तो होगा ही, पर इनके साथ ही साथ नाटक –लेखन की कला के नियमों का संकलन और नाटककारों के लिए शिक्षा-केन्द्रों का आयोजन भी होगा।
मेरे भावुक साहित्यकार मित्र चौंके नहीं। मैं कला को बंधनविवस और साहित्यिक नेताओ से आक्रांत दासी का रूप देने कि तदवीर नहीं कर रहा हूँ। लेकिन कोई मुझे बतावे कि कौन सी उत्कृष्ट कला नियमबद्ध नहीं और किस कला के साधकों को अध्ययन और अव्यवसाय के बिना कोरी भवप्रवणता के आधार पर सफलता मिली है ? काव्य-प्रणयन में हाथ लगाने के पूर्व कवि छंद-शास्त्र, अलंकार और पूर्ववर्ती कवियों का थोडा-बहुत अध्ययन करता है। समस्त प्राचीन नाट्य-साहित्य इसका साक्षी है ; किन्तु हिंदी में नाटककारों के पथ-प्रदर्शन के लिए कोई उपयुक्त रीतिग्रंथ ही नहीं है। प्राचीन संस्कृत नाट्यशास्त्र का अध्ययन करने का हमलोग कष्ट नहीं उठाते और यह भी ठीक है कि वर्तमान परिस्थिति में, उसी परंपरा के रंगमंच के अभाव में प्राचीन संस्कृत नाट्यशास्त्र को बिना कतर-व्योंत किये हम ज्यों-का-त्यों अपना भी नहीं सकते। अधिकतर लेखक आधुनिक पाश्चात्य नाटककारों इब्सन, गल्सवार्दी, शा इत्यादि से प्रभावित होकर ही कलम उठातें हैं। लेकिन इन पाश्चात्य नाटककारों के पीछे अविच्छिन्न नाट्य-साहित्य की परंपरा है, जिसका उद्गम है प्राचीन यूनानी नाटक। साथ ही उन्हें प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक शास्त्रकारों और साहित्य-नियामकों की धरोहर उपलब्ध है। पाश्चात्य नाटककार प्रायः थ्री यूनिटीज़, ट्रेजडी के द्वंदात्मक आधार, चारित्रिक उत्थान, कथानक में चरम विन्दु का समावेश आदि सिद्धांतों से परिचित होतें हैं। अरस्तु, बेनजान्सन, गेटे, ब्रेडले और कतिपय आधुनिक समालोचकों से नाट्यकला के विषय में जो सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं, वे उदियमान पाश्चात्य नाटककार के लिए एक मानसिक पृष्ठभूमि का काम देतें हैं। यदि मैं कहूँ कि कुछ ऐसी ही मानसिक पृष्ठभूमि की हमारे यहाँ भी आवश्यकता है, तो इसे सृजनात्मक प्रवृति पर शास्त्रीय बंधन लगाने की चेष्टा न समझा जाय।
जैसे हमारे रंगमंच को बहुमुखी होना है, एक शैली में ही सीमित नहीं रहना है, वैसे ही हमारा नाट्य-साहित्य भिन्न-भिन्न सामाजिक आवश्यकताओं और चेतनाओं का परिचायक होगा, उसकी भी शैली बहुमुखी होगी। तदनुसार ही वह मानसिक पृष्ठभूमि, वह नियमों और विधियों का संकेत जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है, विविध प्रकार के सिधान्तों का प्रतिविम्ब होगी। जो इन सिधान्तों, नियमों और विधियों का संकलन और संपादन करे, उन्हें अपनी दृष्टि रंगमंच की भावी रूप-रेखा पर रखनी है।
उदाहरणतः नागरिक रंगमंच के लिए नाटकों में काव्यात्मक शैली द्वारा रसपरिपाक – यह परंपरा संस्कृत नाटकों से ली जा सकती है। वस्तुतः प्राचीन नाटक दृश्यकाव्य था, यानि दर्शकों के लिए वह कविता का अभिनय द्वारा निरूपण था, जीवन का दर्पणतुल्य प्रदर्शन नहीं। आज के व्यावसायिक रंगमंच पर भी ऐसे ही नाटक शायद अधिक सफल हो सकें। उस शैली को आधुनिक प्रतीकवादी नाटककार मेटरलिंक, जेम्स्बेरी, लेडी ग्रेगरी इत्यादि के वातावरण-प्रधान नाटकों से बहुत कुछ मिल सकता है। देहाती रंगमंच के लिए जो नाटक लिखे जायं, उनमें भी प्राचीन संस्कृत और यूनानी नाटकों से कुछ पद्धतियाँ समाविष्ट कि जा सकती है, यथा-सूत्रधार और विश्कम्भक को यूनानी कोरस की पद्धति में ढालकर एक नवीन प्रकार के रंग्नायक कि श्रृष्टि कि जा सकती है, जो यवनिका और पर्दों के बिना ही नाटक की पृष्ठभूमि और भिन्न अंकों का एक दूसरे से सम्बन्ध स्थापित का सके, साथ ही उस सूत्रधार के कथनों में भी नाटक की काव्य शैली और गीतों का समावेश हो। यथार्थवादी रंगमंच का नाट्य-साहित्य मुख्यतः समस्यामूलक और आधुनिक विचारधारा और संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व का परिचायक होगा। किन्तु साथ ही सिनेमा की प्रभाववादी शैली और रेडियो-रूपक की संकेत्वादिता दोनों ही का यथार्थवादी नाट्य-साहित्य पर स्थाई प्रभाव पड़ेगा।
इस प्रकार उदीयमान रंगमंच की विभिन्न शाखाओं की मांगों को दृष्टिकोण में रखते हुए नाट्य-लेखन-कला के कुछ बुनियादी नियमों का संकलन और प्रतिपादन लेखकों के लिए उपादेय सिद्ध होगा। यह न समझा जय कि मैं नाट्य साहित्य के पूर्व रुढियों की स्थापना कराना चाहता हूँ। इन नियमों की आवश्यकता संकेत के तौर पर है और ज्यों-ज्यों नाट्य-साहित्य की समृधि और विकास होते जायेंगें त्यों-त्यों इन सिधान्तों में भी परिवर्तन और उनका परिमार्जन होता चलेगा। नियमों को मैं मात्र प्रयोजन के रूप में देखता हूँ, अचल मान्यताओं के रूप में नहीं। प्रतिभा को जब नियमों के प्रकाश द्वारा प्रगति की राह मिल जायेगी, तब वह अपने में अन्तर्निहित ज्योति को उकसाकर अपने-आप ही मार्ग-निर्देशन कर लेगी। लेकिन अभी तो अंधे की भांति टटोलना पड़ रहा है। साहित्य के इस महत्वपूर्ण अंग की रूप-रेखा, जिसमें कविता की भांति केवल भावोदेक ही सृजन का कारण नहीं हो सकता, हिंदी में स्थापित नहीं हो पाई है। संस्कृत नाटक की परम्परा लुप्त हो गईं। इसलिए यदि ऐसे निर्देशन का विधान नहीं किया जायेगा, तो यही नहीं होगा कि इने-गिने नाटककार अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग लेकर बैठ जायेंगें , बल्कि नवयुवक साहित्यकार इस अनजाने-से पथ पर अग्रसर भी न होंगें। इसलिए मैं तो यहाँ तक कहने के लिए तैयार हूँ कि इस उपेक्षित अंग को संपन्न बनाने के लिए हमारी प्रमुख साहित्यिक संस्थाओं और विश्वविधालयों को नाट्य-कला के शिक्षाकेन्द्र चलने चाहिए। अमेरिका में तो कुछ विश्वविधालयों में पाकशास्त्र की भी डिग्री होती है, नाट्यकला का स्थान तो इससे कहीं ऊँचा है, और भारतीय शास्त्रों में चौंसठ कलाओं की प्रमुख श्रेणी में इसकी गिनती है। यदि कोई विश्वविधालय नाट्यकला में बी. ए. ( कला स्नातक ) की डिग्री की व्यवस्था करे, तो इससे बढ़कर उपाधि कला के क्षेत्र में क्या हो सकेगी ?
ऊपर लिखे विचारों में रंगमंच और नाट्यकला की ही सीमित आवश्यकताओं का आग्रह देख पड़ेगा और शायद कुछ पाठक मुझे याद दिलाना चाहें कि रंगमंच और नाटक, समाज की प्रगति और प्रवृत्ति पर निर्भर रहते हैं। मैं इस पहलू से अवगत हूँ और एक नूतन योजना की ओर संकेत करने का साहस भी मुझे इसीलिए हुआ है कि भारतीय समाज, विशेषतः हिंदी भाषी समाज, सदियों बाद पुनः सामूहिक मनोविनोद को सुसंस्कृत और गंभीर कला के रूप में ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत है। सामूहिक मनोरंजन का सबसे कलापूर्ण, सुरुचिसम्पन्न और स्थायी रूप है रंगमंच। हमारा समाज अपने भिन्न भिन्न स्टारों में मनोरंजन को इस सुव्यवस्थित रूप में देखना चाहता है। राजनैतिक स्वताब्त्रता और सामाजिक चेतना दोनों ने हमें अपनी सांस्कृतिक इच्छाओं से अवगत करा दिया है। ये इच्छाएं एक उन्मुक्त व्यक्तित्व का उठान हैं, वे किसी कुंठित व्यक्तित्व की अपने से बचने की चेष्टाएं नहीं। साथ ही अपनी परम्पराओं और उपेक्षित सांस्कृतिक साधनों के प्रति सचेष्ट जागरूकता भी स्पष्ट होती जा रही है। भरत-नाट्यम, मणिपुरी नृत्य, संथाली नृत्य, नौटंकी, सिनेमाओं में प्राचीन ऐतिहासिक और पौराणिक कथानक, देहाती तर्जों के गीत, सभी को जन रूचि के क्षेत्र में महत्वपूर्न्महत्वपूर्ण स्थान मिल रहा है, और ये सभी रंगमंच के सुव्यवस्थित माध्यम कि राह देख रहे हैं।
इसीलिए हम रंगमंच के चाहे जो वर्गीकरण करें और नाट्य साहित्य के मार्ग निर्धारित करने के लिए चाहे जिन नियमों का प्रतिपादन करें, इन वर्गों और नियमों को सामाजिक परिस्थितियों और जनता की रूचि का अनुमोदन करना ही होगा। मेरी दृष्टि में निकट भविष्य का हिंदी रंगमंच और नाते साहित्य प्रायः तीन प्रमुख शैलियों में अवतरित होगा और हो रहा है। लेकिन सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ एवं प्रेरणाएं परिवर्तनशील हैं, और सृजनशक्ति का मूलश्रोत चिरंतन से प्रवाहशील है। कौन योजनाकार इस अबाध प्रगति को नियमों की चहारदीवारी में बाँध सकता है।
रीढ़ की हड्डी – नाटक
पात्र परिचय
उमा : लड़की
रामस्वरूप : लड़की का पिता
प्रेमा : लड़की की माँ
शंकर : लड़का
गोपालप्रसाद : लड़के का बाप
रतन : नौकर
[ मामूली तरह से सजा हुआ एक कमरा। अंदर के दरवाजे से आते हुए जिन महाशय की पीठ नजर आ रही है वह अधेड़ उम्र के मालूम होते हैं , एक तख्त को पकड़े हुए पीछे की ओर चलते-चलते कमरे में आते हैं। तख्त का दूसरा सिरा उनके नौकर ने पकड़ रखा है। ]
बाबू : अबे, धीरे-धीरे चल!… अब तख्त को उधर मोड़ दे… उधर…बस, बस!
नौकर : बिछा दूँ, साहब?
बाबू : (जरा तेज आवाज में) और क्या करेगा? परमात्मा के यहाँ अक्ल बँट रही थी तो तू देर से पहुँचा था क्या?… बिछा दूँ साब…! और यह पसीना किसलिए बहाया है?
नौकर : (तख्त बिछाता है) ही-ही-ही।
बाबू : हँसता क्यों है?… अबे, हमने भी जवानी में कसरतें की हैं। कलसों से नहाता था लोटों की तरह। यह तख्त क्या चीज है?…उसे सीध कर…यों…हां, बस।…और सुन बहूजी से दरी मांग ला, इसके ऊपर बिछाने के लिए।…चद्दर भी, कल जो धोबी के यहाँ से आई है वही।
[ नौकर जाता है। बाबूसाहब इस बीच में मेजपोश ठीक करते हैं। एक झाड़न से गुलदस्ते को साफ करते हैं। कुर्सियों पर भी दो-चार हाथ लगाते हैं। सहसा घर की मालकिन प्रेमा आती है। गंदुमी रंग, छोटा। चेहरे और आवाज से जाहिर होता है कि किसी काम में बहुत व्यस्त है। उसके पीछे-पीछे भीगी बिल्ली की तरह नौकर आ रहा है – खाली हाथ। बाबू साहब – रामस्वरूप – दोनों की तरफ देखने लगते हैं। ]
प्रेमा : मैं कहती हूँ तुम्हें इस वक्त धोती की क्या जरूरत पड़ गई! एक तो वैसे ही जल्दी-जल्दी में…
रामस्वरूप : धोती!
प्रेमा : अच्छा जा, पूजावाली कोठरी में लकड़ी के बक्स के ऊपर धुले हुए कपड़े रक्खे हैं, उन्हीं में से एक चद्दर उठा ला।
रतन : और दरी?
प्रेमा : दरी यहीं तो रक्खी है, कोने में। वह पड़ी तो है।
रामस्वरूप : (दरी उठाते हुए) और बीबीजी के कमरे में से हारमोनियम उठा ला और सितार भी।… जल्दी जा! (रतन जाता है। पति-पत्नी तख्त पर दरी बिछाते हैं।)
प्रेमा : लेकिन वह तुम्हारी लाड़ली बेटी तो मुँह फुलाए पड़ी है।
रामस्वरूप : मुँह फुलाए!… और तुम उसकी माँ किस मर्ज की दवा हो? जैसे-तैसे करके वे लोग पकड़ में आए हैं। अब तुम्हारी बेवकूफी से सारी मेहनत बेकार जाय तो मुझे दोष मत देना!
प्रेमा : तो मैं ही क्या करूँ? सारे जतन करके तो हार गई। तुम्हीं ने उसे पढ़ा- लिखाकर इतना सिर चढ़ा रक्खा है। मेरी समझ में तो यह लिखाई-पढ़ाई के जंजाल आते नहीं। अपना जमाना अच्छा था! ‘आ-ई’ पढ़ ली, गिनती सीख ली और बहुत हुआ तो ‘स्त्री-सुबोधिनी’ पढ़ ली। सच पूछो तो स्त्री- सुबोधिनी में ऐसी-ऐसी बातें लिखीं हैं – ऐसी बातें कि क्या तुम्हारी बी.ए., एम.ए. की पढ़ाई होगी। और आजकल के तो लच्छन ही अनोखे हैं…
रामस्वरूप : ग्रामोफोन बाजा होता है न!
प्रेमा : क्यों?
रामस्वरूप : दो तरह का होता है। एक तो आदमी का बनाया हुआ। उसे एक बार चलाकर जब चाहे रोक लो। और दूसरा परमात्मा का बनाया हुआ; उसका रिकार्ड एक बार चढ़ा तो रुकने का नाम नहीं।
प्रेमा : हटो भी! तुम्हें ठठोली ही सूझती रहती है। यह तो होता नहीं कि उस अपनी उमा को राह पर लाते। अब देर ही कितनी रही है उन लोगों के आने में!
रामरूवरूप : तो हुआ क्या?
प्रेमा : तुम्हीं ने तो कहा था कि जरा ठीक-ठीक करके नीचे लाना। आजकल तो लड़की कितनी ही सुंदर हो, बिना टीम-टाम के भला कौन पूछता है? इसी मारे मैंने तो पौडर-वौडर उसके सामने रक्खा था। पर उसे तो इन चीजों से न जाने किस जन्म की नफरत है। मेरा कहना था कि आँचल में मुँह लपेटकर लेट गई। भई, मैं तो बाज आई तुम्हारी इस लड़की से।
रामस्वरूप : न जाने कैसा इसका दिमाग है! वरना आजकल की लड़कियों के सहारे तो पौडर का कारबार चलता है।
प्रेमा : अरे, मैंने तो पहले ही कहा था। इंट्रेंस ही पास करा देते – लड़की अपने हाथ रहती; और इतनी परेशानी न उठानी पड़ती! पर तुम तो –
रामस्वरूप : (बात काटकर) चुप, चुप!… (दरवाजे में झाँकते हुए) तुम्हें कतई अपनी जबान पर काबू नहीं है। कल ही यह बता दिया था कि उन लोगों के सामने जिक्र और ढंग से होगा, मगर तुम अभी से सब-कुछ उगले देती हो। उनके आने तक तो न जाने क्या हाल करोगी!
प्रेमा : अच्छा बाबा, मैं न बोलूँगी। जैसी तुम्हारी मर्जी हो करना। बस, मुझे तो मेरा काम बता दो।
रामस्वरूप : तो उमा को जैसे हो तैयार कर लो। न सही पौडर, वैसे कौन बुरी है! पान लेकर भेज देना उसे। और नाश्ता तो तैयार है न? (रतन का आना) आ गया रतन?… इधर ला, इधर! बाजा नीचे रख दे। चद्दर खोल।… पकड़ तो जरा इधर से।
[ चद्दर बिछाते हैं ]
प्रेमा : नाश्ता तो तैयार है। मिठाई तो वे लोग ज्यादा खाएँगे नहीं, कुछ नमकीन चीजें बना दी हैं। फल रक्खे हैं ही। चाय तैयार है, और टोस्ट भी। मगर हाँ, मक्खन? मक्खन तो आया ही नहीं।
रामस्वरूप : क्या कहा? मक्खन नहीं आया? तुम्हें भी किस वक्त याद आई है! जानती हो कि मक्खनवाले की दुकान दूर है; पर तुम्हें तो ठीक वक्त पर कोई बात सूझती ही नहीं। अब बताओ, रतन मक्खन लाए कि यहाँ का काम करे। दफ्तर के चपरासी से कहा था आने के लिए सो, नखरों के मारे…
प्रेमा : यहाँ का काम कौन ज्यादा है? कमरा तो सब ठीक-ठाक है ही। बाजा- सितार आ ही गया। नाश्ता यहाँ बराबरवाले कमरे में ‘ट्रे’ में रक्खा हुआ है, सो तुम्हें पकड़ा दूँगी। एकाध चीज खुद ले आना। इतनी देर में रतन मक्खन ले ही आएगा। दो आदमी ही तो हैं?
रामस्वरूप : हाँ, एक तो बाबू गोपालप्रसाद और दूसरा खुद लड़का है। देखो, उमा से कह देना कि जरा करीने से आए। ये लोग जरा ऐसे ही हैं। गुस्सा तो मुझे बहुत आता है इनके दकियानूसी खयालों पर। खुद पढ़े-लिखे हैं, वकील हैं, सभा-सोसाइटियों में जाते हैं, मगर लड़की चाहते हैं ऐसी कि ज्यादा पढ़ी- लिखी न हो।
प्रेमा : और लड़का?
रामस्वरूप : बताया तो था तुम्हें। बाप सेर है तो लड़का सवा सेर। बी.एससी. के बाद लखनऊ में ही तो पढ़ता है मेडिकल कालेज में। कहता है कि शादी का सवाल दूसरा है, तालीम का दूसरा। क्या करूँ, मजबूरी है! मतलब अपना है वरना इन लड़कों और इनके बापों को ऐसी कोरी-कोरी सुनाता कि ये भी…
रतन : (जो अब तक दरवाजे के पास चुपचाप खड़ा हुआ था, जल्दी-जल्दी) बाबूजी, बाबूजी!
रामस्वरूप : क्या है?
रतन : कोई आते हैं।
रामस्वरूप : (दरवाजे से बाहर झाँककर जल्दी मुँह अंदर करते हुए) अरे, ऐ प्रेमा, वे आ भी गए। (नौकर पर नजर पडते ही) अरे, तू यहाँ खड़ा है, बेवकूफ! गया नहीं मक्खन लाने?… सब चौपट कर दिया।… अबे, उधर से नहीं, अंदर के दरवाजे से जा (नौकर अंदर आता है।) और तुम जल्दी करो, प्रेमा। उमा को समझा देना थोड़ा-सा गा देगी
[ प्रेमा जल्दी से अंदर की तरफ आती है। उसकी धोती जमीन पर रक्खे हुए बाजे से अटक जाती है। ]
प्रेमा : उह! यह बाजा वह नीचे ही रख गया है, कमबख्त।
रामस्वरूप : तुम जाओ, मैं रखे देता हूँ।… जल्द!
[ प्रेमा जाती है। बाबू रामस्वरूप बाजा उठाकर रखते हैं। किवाड़ों पर दस्तक। ]
रामस्वरूप : हँ हँ हँ। आइए, आइए… हँ हँ हँ।
[ बाबू गोपालप्रसाद और उनके लड़के शंकर का आना। आँखों से लोक- चतुराई टपकती है। आवाज से मालूम होता है कि काफी अनुभवी और फितरती महाशय हैं। उनका लड़का कुछ खीस निपोरनेवाले नौजवानों में से है। आवाज पतली है और खिसियाहट-भरी। झुकी कमर इनकी खासियत है। ]
रामस्वरूप : (अपने दोनों हाथ मलते हुए) हँ हँ, इधर तशरीफ लाइए, इधर…!
[ बाबू गोपालप्रसाद उठते हैं, मगर बेंत गिर पड़ता है। ]
रामस्वरूप : यह बेंत!… लाइए, मुझे दीजिए। (कोने में रख देते हैं। सब बैठते हैं।) हँ हँ… मकान ढूँढ़ने में कुछ तकलीफ तो नहीं हुई?
गोपालप्रसाद : (खखारकर) नहीं। ताँगेवाला जानता था।… और फिर हमें तो यहाँ आना ही था; रास्ता मिलता कैसे नहीं!
रामस्वरूप : हँ हँ हँ, यह तो आपकी बड़ी मेहरबानी है। मैंने आपको तकलीफ तो दी –
गोपालप्रसाद : अरे नहीं साहब। जैसा मेरा काम, वैसा आपका काम। आखिर लड़के की शादी तो करनी ही है। बल्कि यों कहिए कि मैंने आपके लिए खासी परेशानी कर दी।
रामस्वरूप : हँ हँ हँ! यह लीजिए, आप तो मुझे काँटों में घसीटने लगे। हम तो आपके हँ हँ हँ – सेवक ही हैं। हँ हँ! (थोड़ी देर बाद लड़के की ओर मुखातिब होकर) और कहिए शंकरबाबू, कितने दिनों की छुट्टियाँ हैं?
शंकर : जी, कालिज की तो छुट्टियाँ नहीं हैं। ‘वीक एंड’ में चला आया था।
रामस्वरूप : तो आपके कोर्स खत्म होने में तो अब साल-भर रहा होगा?
शंकर : जी, यही कोई साल-दो साल।
रामस्वरूप : साल-दो साल!
शंकर : जी, एकाध साल का ‘मार्जिन’ रखता हूँ।
गोपालप्रसाद : बात यह है, साहब कि यह शंकर एक साल बीमार हो गया था। क्या बताएँ, इन लोगों को इसी उम्र में सारी बीमारियाँ सताती हैं। एक हमारा जमाना था कि स्कूल से आकर दर्जनों कचौड़ियाँ उड़ा जाते थे, मगर फिर जो खाना खाने बैठते तो वैसी-की-वैसी ही भूख!
रामस्वरूप : कचौड़ियाँ भी तो उस जमाने में पैसे की दो आती थीं। और अकेले दो आने की हजम करने की ताकत थी, अकेले! और अब तो बहुतेरे खेल वगैरा भी होते हैं स्कूल में। तब न बॉलीवाल जानता था, न टेनिस, न बैडमिंटन। बस, कभी हॉकी या कभी क्रिकेट कुछ लोग खेला करते थे। मगर मजाल कि कोई कह जाय कि यह लड़का कमजोर है।
[ शंकर और रामस्वरूप खीसें निपोरते हैं। ]
रामस्वरूप : जी हाँ, जी हाँ! उस जमाने की बात ही दूसरी थी। हँ हँ!
गोपालप्रसाद : (जोशीली आवाज में) और पढ़ाई का यह हाल था कि एक बार कुर्सी पर बैठा कि बारह घंटे की ‘सिटिंग’ हो गई, बारह घंटे! जनाब मैं सच कहता हूँ कि उस जमाने का मैट्रिक भी वह अंग्रेजी लिखता था फर्राटे की कि आजकल के एम.ए. भी मुकाबला नहीं कर सकते।
रामस्वरूप : जी हाँ, जी हाँ! यह तो है ही।
गोपालप्रसाद : माफ कीजिएगा बाबू रामस्वरूप, उस जमाने की जब याद आती है, अपने को जब्त करना मुश्किल हो जाता है।
रामस्वरूप : हँ हँ हँ!… जी हाँ, वह तो रंगीन जमाना था, रंगीन जमाना! हँ हँ हँ।
[ शंकर भी हीं-हीं करता है। ]
गोपालप्रसाद : (एक साथ अपनी आवाज और तरीका बदलते हुए) अच्छा तो साहब, फिर ‘बिजनेस’ की बातचचीत हो जाय।
रामस्वरूप : (चौंककर) बिजनेस… बिज… (समझकर) ओह… अच्छा, अच्छा! लेकिन जरा नाश्ता तो कर लीजिए।
[ उठते हैं। ]
गोपालप्रसाद : यह सब आप क्या तकल्लुफ करते हैं?
रामस्वरूप : हँ… हँ… हँ, तकल्लुफ किस बात का! हँ-हँ! यह तो मेरी बड़ी तकदीर है कि आप मेरे यहाँ तशरीफ लाए; वरना मैं किस काबिल हूँ! हँ – हँ!… माफ कीजिएगा जरा, अभी हाजिर हुआ।
[ अंदर जाते हैं। ]
गोपालप्रसाद : (थोड़ी देर बाद दबी आवाज में) आदमी तो भला है, मकान-वकान से हैसियत भी बुरी नहीं मालूम होती। पता चले, लड़की कैसी है!
शंकर : जी… (कुछ खखारकर इधर-उधर देखता है।)
गोपालप्रसाद : क्यों, क्या हुआ?
शंकर : कुछ नहीं।
गोपालप्रसाद : झुककर क्यों बैठते हो? ब्याह तय करने आए हो, कमर सीधी करके बैठो। तुम्हारे दोस्त ठीक कहते हैं कि शंकर ‘बैकबोन’…
[ इतने में बाबू रामस्वरूप आते हैं, हाथ में चाय की ट्रे लिए। मेज पर रख देते हैं। ]
गोपालप्रसाद : आखिर आप माने नहीं!
रामस्वरूप : (चाय प्याले में डालते हुए) हँ हँ हँ, आपको विलायती चाय पसंद है या हिंदुस्तानी?
गोपालप्रसाद : नहीं-नहीं साहब, मुझे आधा दूध और आधी चाय दीजिए। और जरा चीनी ज्यादा डालिएगा। मुझे तो भाई, यह नया फैशन पसंद नहीं। एक तो वैसे ही चाय में पानी काफी होता है, और फिर चीनी भी नाम के लिए डाली, तो जायका क्या रहेगा?
रामस्वरूप : हँ-हँ, कहते तो आप सही हैं। (प्याले पकड़ाते हैं।)
शंकर : (खखारकर) सुना है, सरकार अब ज्यादा चीनी लेनेवालों पर ‘टैक्स’ लगाएगी।
गोपालप्रसाद : (चाय पीते हुए) हूँ। सरकार जो चाहे सो कर ले; पर अगर आमदनी करनी है तो सरकार को बस एक ही टैक्स लगाना चाहिए।
रामस्वरूप : (शंकर को प्याला पकड़ाते हुए) वह क्या?
गोपालप्रसाद : खूबसूरती पर टैक्स! (रामस्वरूप और शंकर हँस पड़ते हैं) मजाक नहीं साहब, यह ऐसा टैक्स है, जनाब कि देनेवाले चूँ भी न करेंगे। बस शर्त यह है कि हर एक औरत पर यह छोड़ दिया जाय कि वह अपनी खूबसूरती के ‘स्टैंडर्ड’ के माफिक अपने ऊपर टैक्स तय कर ले। फिर देखिए, सरकार की कैसी आमदनी बढ़ती है!
रामस्वरूप : (जोर से हँसते हुए) वाह-वाह! खूब सोचा आपने! वाकई आजकल यह खूबसूरती का सवाल भी बेढब हो गया है। हम लोगों के जमाने में तो यह कभी उठता भी न था। (तश्तरी गोपालप्रसाद की तरफ बढ़ाते हैं।) लीजिए!
गोपालप्रसाद : (समोसा उठाते हुए) कभी नहीं साहब, कभी नहीं।
रामस्वरूप : (शंकर को मुखातिब होकर) आपका क्या ख्याल है, शंकर बाबू?
शंकर : किस मामले में?
रामस्वरूप : यही कि शादी तय करने में खूबसूरती का हिस्सा कितना होना चाहिए?
गोपालप्रसाद : (बीच में ही) यह बात दूसरी है बाबू रामस्वरूप; मैंने आपसे पहले भी कहा था, लड़की का खूबसूरत होना निहायत जरूरी है। कैसे भी हो, चाहे पाउडर वगैरा लगाए, चाहे वैसे ही। बात यह है कि हम आप मान भी जायँ, मगर घर की औरतें तो राजी नहीं होतीं। आपकी लड़की तो ठीक है?
रामस्वरूप : जी हाँ, वह तो अभी आप देख लीजिएगा।
गोपालप्रसाद : देखना क्या? जब आपसे इतनी बातचीत हो चुकी है, तब तो यह रस्म ही समझिए।
रामस्वरूप : हँ – हँ, यह तो आपका मेरे ऊपर भारी अहसान है। हँ – हँ!
गोपालप्रसाद : और जायचा (जन्म-पत्र) तो मिल ही गया होगा!
रामस्वरूप : जी, जायचे का मिलना क्या मुश्किल बात है! ठाकुरजी के चरणों में रख दिया। बस खुद-ब-खुद मिला हुआ समझिए।
गोपालप्रसाद : यह ठीक कहा है आपने, बिल्कुल ठीक (थोड़ी देर रुककर) लेकिन हाँ, यह जो मेरे कानों में भनक पड़ी है, यह तो गलत है न?
रामस्वरूप : (चौंककर) क्या?
गोपालप्रसाद : यही पढ़ाई-लिखाई के बारे में।… जी हाँ, साफ बात है साहब, हमें ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की नहीं चाहिए। मेमसाहब तो रखनी नहीं, कौन भुगतेगा उनके नखरों को। बस, हद-से-हद मैट्रिक होनी चाहिए…क्यों शंकर?
शंकर : जी हाँ, कोई नौकरी तो करानी नहीं।
रामस्वरूप : नौकरी का तो कोई सवाल ही नहीं उठता।
गोपालप्रसाद : और क्या साहब! देखिए कुछ लोग मुझसे कहते हैं कि जब आपने अपने लड़कों को बी.ए., एम.ए. तक पढ़ाया है तब उनकी बहुएँ भी ग्रेजुएट लीजिए। भला पूछिए इन अक्ल के ठेकेदारों से कि क्या लड़कों और लड़कियों की पढ़ाई एक बात है। अरे, मर्दों का काम तो है ही पढ़ना और काबिल होना। अगर औरतें भी वही करने लगीं, अंग्रेजी अखबार पढ़ने लगीं और ‘पालिटिक्स वगैरह बहस करने लगीं तब तो हो चुकी गृहस्थी! जनाब, मोर के पंख होते हैं, मोरनी के नहीं; शेर के बाल होते हैं, शेरनी के नहीं।
रामस्वरूप : जी हाँ, मर्द के दाढ़ी होती है, औरत के नहीं। हँ… हँ
[ शंकर भी हँसता है, मगर गोपालप्रसाद गंभीर हो जाते हैं। ]
गोपालप्रसाद : हाँ, हाँ। वह भी सही है। कहने का मतलब यह है कि कुछ बातें दुनिया में ऐसी हैं जो सिर्फ मर्दों के लिए हैं और ऊँची तालीम भी ऐसी ही चीजों में से एक है।
रामस्वरूप : (शंकर से) चाय और लीजिए!
शंकर : धन्यवाद, पी चुका।
रामस्वरूप : (गोपालप्रसाद से) आप?
गोपालप्रसाद : बस साहब, यह खत्म ही कीजिए!
रामस्वरूप : आपने तो कुछ खाया नहीं। चाय के साथ ‘टोस्ट’ नहीं थे। क्या बताएँ, वह मक्खन –
गोपालप्रसाद : नाश्ता ही तो करना था साहब, कोई पेट तो भरना था नहीं; और फिर टोस्ट-वोस्ट मैं खाता भी नहीं।
रामस्वरूप : हँ…हँ (मेज को एक तरफ सरका देते हैं। अंदर के दरवाजे की तरफ मुँह कर जरा जोर से) अरे जरा पान भिजवा देना…! सिगरेट मँगाऊँ?
गोपालप्रसाद : जी नहीं।
[ पान की तश्तरी हाथों में लिए उमा आती है। सादगी के कपड़े, गर्दन झुकी हुई। बाबू गोपालप्रसाद आँखें गड़ाकर और शंकर आँखें छिपाकर उसे ताक रहे हैं। ]
रामस्वरूप : हँ… हँ!… यह… हँ… हँ, आपकी लाड़की है? लाओ बेटी, पान मुझे दो।
[ उमा पान की तश्तरी अपने पिता को देती है। उस समय उसका चेहरा ऊपर को उठ जाता है और नाक पर रक्खा हुआ सोने की रिमवाला चश्मा दीखता है। बाप-बेटे दोनों चौंक उठते हैं। ]
गोपालप्रसाद
शंकर : (एक साथ) – चश्मा !
रामस्वरूप : (जरा सकपकाकर) – जी, वह तो… वह… पिछले महीने में इसकी आँखें दुखने आ गई थीं, सो कुछ दिनों के लिए चश्मा लगाना पड़ रहा है।
गोपालप्रसाद : पढ़ाई-वढ़ाई की वजह से तो नहीं है?
रामस्वरूप : नहीं साहब; वह तो मैंने अर्ज किया न!
गोपालप्रसाद : हूँ (संतुष्ट होकर कुछ कोमल स्वर में) बैठो बेटी!
रामस्वरूप : वहाँ बैठ जाओ, उमा, उस तख्ते पर, अपने बाजे-बाजे के पास।
[ उमा बैठती है। ]
गोपालप्रसाद : चाल में तो कुछ खराबी है नहीं। चेहरे पर भी छवि है!… हाँ, कुछ गाना- बजाना सीखा है?
रामस्वरूप : जी हाँ, सितार भी, और बाजा भी। सुनाओ तो उमा, एकाध गीत सितार के साथ।
[ उमा सितार उठाती है। थोड़ी देर बाद मीरा का मशहूर गीत ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ गाना शुरू कर देती है। स्वर से जाहिर है कि गाने का अच्छा ज्ञान है। उसके स्वर में तल्लीनता आ जाती है, यहाँ तक कि उसका मस्तक उठ जाता है। उसकी आँखें शंकर की झेंपती-सी आँखों से मिल जाती हैं और वह गाते-गाते एक साथ रुक जाती है। ]
रामस्वरूप : क्यों, क्या हुआ? गाने को पूरा करो, उमा!
गोपालप्रसाद : नहीं-नहीं साहब, काफी है। लड़की आपकी अच्छा गाती है।
[ उमा सितार रखकर अंदर जाने को उठती है। ]
गोपालप्रसाद : अभी ठहरो, बेटी!
रामस्वरूप : थोड़ा और बैठी रहो, उमा! (उमा बैठती है)
गोपालप्रसाद : (उमा से) तो तुमने पेंटिंग-वेंटिग भी…?
उमा : (चुप)
रामस्वरूप : हाँ, वह तो मैं आपको बताना भूल ही गया। यह जो तसवीर टँगी हुई है, कुत्तेवाली, इसी ने खींची है; और वह दीवार पर भी।
गोपालप्रसाद : हूँ। यह तो बहुत अच्छा है; और सिलाई वगैरा?
रामस्वरूप : सिलाई तो सारे घर की इसी के जिम्मे रहती है; यहाँ तक कि मेरी कमीजें भी। हँ… हँ… हँ…
गोपालप्रसाद : ठीक!… लेकिन, हाँ बेटी, तुमने कुछ इनाम-विनाम भी जीते हैं?
[ उमा चुप। रामस्वरूप इशारे के लिए खाँसते हैं। लेकिन उमा चुप है, उसी तरह गर्दन झुकाए। गोपालप्रसाद अधीर हो उठते हैं और रामस्वरूप सकपकाते हैं! ]
रामस्वरूप : जवाब दो, उमा! (गोपाल से) हँ हँ, जरा श्रमाती है। इनाम तो इसने…
गोपालप्रसाद : (जरा रूखी आवाज में) जरा इसे भी तो मुँह खोलना चाहिए।
रामस्वरूप : उमा, देखो, आप क्या कह रहे हैं। जवाब दो न!
उमा : (हल्की लेकिन मजबूत आवाज में) क्या जवाब दूँ, बाबूजी! जब कुर्सी-मेज बिकती है, तब दुकानदार कुर्सी-मेज से कुछ नहीं पूछता, सिर्फ खरीदार को दिखला देता है। पसंद आ गई तो अच्छा है, वरना…
रामस्वरूप : (चौंककर खड़े हो जाते हैं।) उमा, उमा!
उमा : अब मुझे कह लेने दीजिए, बाबूजी!… ये जो महाशय मेरे खरीदार बनकर आए हैं, इनसे जरा पूछिए कि क्या लड़कियों के दिल नहीं होता? क्या उनके चोट नहीं लगती? क्या वे बेबस भेड़-बकरियाँ हैं, जिन्हें कसाई अच्छी तरह देख-भालकर खरीदते हैं?
गोपालप्रसाद : यह तो हमारी बेइज्जती…
उमा (ताव में आकर) जी हाँ; हमारी बेइज्जती नहीं होती जो आप इतनी देर से नाप-तोल कर रहे हैं? और जरा अपने इस साहबजादे से पूछिए कि अभी पिछली फरवरी में ये लड़कियों के होस्टल के इर्द-गिर्द क्यों घूम रहे थे, और वहाँ से क्यों भगाए गए थे!
शंकर : बाबूजी, चलिए!
गोपालप्रसाद : लड़कियों के होस्टल में?… क्या तुम कालेज में पढ़ी हो?
[ रामस्वरूप चुप! ]
उमा : जी हाँ, मैं कालेज में पढ़ी हूँ। मैंने बी.ए. पास किया है। कोई पाप नहीं किया, कोई चोरी नहीं की, और न आपके पुत्र की तरह ताक-झाँककर कायरता दिखाई है। मुझे अपनी इज्जत – अपने मान का खयाल तो है। लेकिन इनसे पूछिए कि ये किस तरह नौकरानी के पैरों पड़कर अपना मुँह छिपाकर भागे थे!
रामस्वरूप : उमा! उमा!
गोपालप्रसाद : (खड़े होकर गुस्से से) बस, हो चुका। बाबू रामस्वरूप, आपने मेरे साथ दगा दगा की। की। आपकी लड़की बी.ए. पास है, और आपने मुझसे कहा था कि सिर्फ मैट्रिक तक पढ़ी है। लाइए, मेरी छड़ी कहाँ है। मैं चलता हूँ। (छड़ी ढूँढ़कर उठाते हैं।) बी.ए. पास? ओफ्फोह! गजब हो जाता! झूठ का भी कुछ ठिकाना है! आओ बेटे, चलो… (दरवाजे की ओर बढ़ते हैं।)
उमा : जी हाँ, जाइए, जरूर चले जाइए! लेकिन घर जाकर जरा यह पता लगाइएगा कि आपके लाड़ले बेटे के रीढ़ की हड्डी भी है या नहीं – यानी बैकबोन, बैकबोन –
[ बाबू गोपालप्रसाद के चेहरे पर बेबसी का गुस्सा है और उनके लड़के के रुआँसापन। दोनों बाहर चले जाते हैं। बाबू रामस्वरूप कुर्सी पर धम से बैठ जाते हैं। उमा सहसा चुप हो जाती है। लेकिन उसकी हँसी सिसकियों में तबदील हो जाती है। प्रेमा का घबराहट की हालत में आना। ]
प्रेमा : उमा, उमा… रो रही है?
[ यह सुनकर रामस्वरूप खड़े होते हैं। रतन आता है। ]
रतन : बाबूजी, मक्खन!
[ सब रतन की तरफ देखते हैं और परदा गिरता है। ]
इति शुभम
बंदी
पात्र
रायसाहब : हाई कोर्ट के जज
हेमलता : रायसाहब की लड़की
आया :
चेतू [चेतराम] : गाँव का मजदूर
वीरेन : प्रगतिशील विचार-धारा का एक [ग्रेजुएट] युवक
बालेश्वर : गाँव के अर्धशिक्षक नवयुवक
करमचन्द : गाँव के अर्धशिक्षक नवयुवक
लोचन : गाँव का एक साहसी युवक, वीरेन का सहपाठी
[उत्तर भारत के एक गाँव में एक बड़े घराने के बँगले का बगीचा। पृष्ठभूमि में मकान की झलक। मकान में जाने के लिए बायीं तरफ से रास्ता है और बाहर जाने के लिए दाहिनी तरफ। समय चैत्र पूनो की संध्या। चाँदनी का साम्राज्य गोधूलि वेला में ही फैल रहा है। राय तारानाथ हेमलता के साथ एक स्थान की ओर संकेत करते हुए आते हैं।]
रायसाहब
:
और यही वह स्थान है जहाँ तुम्हारी माँ पूजा के बाद तुलसी जी को पानी चढ़ाने आती और मैं…
हेमलता
:
आप तो नास्तिक रहे होंगे, पापा?
रायसाहब
:
तुम्हारी माँ को चिढ़ाने के लिए। लेकिन उसकी श्रद्धा अडिग थी। और तभी मैं बगीचे के किसी कोने में… शायद वही तो… वह देखती हो न पत्थर?
हेमलता
:
याद है।
रायसाहब
:
क्या याद है?
हेमलता
:
कि उस पत्थर पर बैठकर आप मुझे सितारों की कथा सुनाया करते थे। [रुक कर मानो कुछ याद आयी हो] पापा, कलकत्ते में सितारों भरा आसमान मानो मेरे मन के कोने में दुबका पड़ा रहता था, लेकिन यहाँ [स्निग्ध स्वर] गाँव आते ऐसे ही खिला पड़ता है, जैसे आज इस चैत्र पूनो की चाँदनी।
रायसाहब
:
आसमान भी खिला पड़ता है और तुम्हारा मन भी, बेटी। [हँसता है। कुछ रुक कर] बजा क्या है? [आहिस्ता से] गाड़ी का तो वक्त हो गया होगा?
हेमलता
:
आप भी पापा। [रूठ कर] समझते हैं कि मुझे यूँ तो चाँदनी भाती ही नहीं, सिर्फ…
रायसाहब
:
[बात पूरी करते हुए] वीरेन की इन्तजारी की घड़ी में ही खिली पड़ती है। [हँसते हैं।] बुराई क्या है? वीरेन भला लड़का है, इसलिए तो यहाँ आने का न्योता दिया है उसे। देखूँ गाँव की आभा उसके मन चढ़ती है या नहीं?
हेमलता
:
जैसे जन्म से ही शहर की धूल फाँकी हो।
रायसाहब
:
वही समझो। कहता था न कि बचपन में पिता के मरने पर बरेली चला गया और उसके बाद लखनऊ और तब कलकत्ता…
हेमलता
:
मुझे भी तो आप बचपन में ही कलकत्ते ले गये और अब लाए हैं गाँव पहली बार…
रायसाहब
:
मैं तुम्हें लाया हूँ बेटी या तुम मुझे?
हेमलता
:
पापा, आते ही मैं तो यहाँ की हो गयी। न जाने कितने युगों का नाता जुड़ गया। [उल्लासपूर्ण स्वर] यह हमारा घर, पुरानी कोठी, जिसकी दीवार में पड़ी दरारें मुस्कान भरे मुखड़े की सिलवटें हैं। ये दूर-दूर तक फैले हुए खेत, जिन पर दबे पाँव दौड़ते-दौड़ते हवा उन पर निछावर हो जाती है और यह चाँदनी जो जितनी हँसती है उतना ही छिपाती भी है। [तन्मय] कलकत्ते में चैत्र की चाँदनी और ईद के चाँद में कोई अन्तर नहीं होता। लेकिन यहाँ, झोपडि़यों पर बाँस के झुरमुटों में, खेत-खलिहान पर, बे-हिसाब, बे-जुबान, बे-झिझक चाँदनी की दौलत बिखरी पड़ रही है। ओह, पापा!
[अपरिमित सुखानुभूति का मौन]
आया
:
[नेपथ्य में] हेम बीबी, चाय तैयार है।
रायसाहब
:
चाय! इतनी देर में?
हेमलता
:
आया की जि़द! कहती है सर्दी हो चली है, थोड़ी चाय पी लो।
[मकान की ओर रुख करके] यहीं ले आओ आया, बगीचे में। और दो मूढ़े भी।
रायसाहब
:
[स्मृति के सागर में उतराते हैं] सोचता हूँ कि अगर तुम्हारी माँ तुम्हारी तरह बोल या लिख पाती तो वह भी कवि या तुम्हारी तरह आर्टिस्ट होती।
हेमलता
:
अगर माँ बोल पाती तो आपको कलकत्ते न जाने देती!
रायसाहब
:
रोका था। दो-चार आँसू भी गिराये थे। लेकिन क्या तुम सच मान सकती हो हेम, कि मैं न जाता? कैसे न जाता? सारे कैरियर का सवाल था। यह जमींदारी उन दिनों भरी-पुरी थी, लेकिन आखिर को ले न डूबती मुझे अपने साथ!
हेमलता
:
काश, इस गाँव में ही हाई कोर्ट होता। यहीं आप वकालत करते और यहीं जज हो जाते।
रायसाहब
:
वाह बेटी! तब तो यहीं वह बड़ा अस्पताल भी होता जहाँ तुम्हारी माँ की लम्बी बीमारी का इलाज हुआ था और यहीं वह कालेज और हाई स्कूल होते, जहाँ तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा हुई और यहीं वे थियेटर-सिनेमा… [आया का प्रवेश। हाथ में ट्रे। अपनी धुन में बात करती है]
आया
:
यही तो मैं कहती थी सरकार! इस देहात में कैसे हेम बिटिया की तबियत लगेगी। सनीमा नहीं, थेटर नहीं, क्लब नहीं। [पीछे की तरफ देखकर पुकारती हुई] अरे ओ चेतुआ, किधर ले गया मेज?… देहात का आदमी, समझ भी तो मोटी है! [चेतुआ एक हाथ में छोटी-सी टेबल और एक में मूढ़ा लिए हुए आता है।] उधर रख… हाँ बस [मेज पर चाय की ट्रे रख देती है। चाय बनाती हुई] आपके लिए भी बनाऊँ सरकार?
रायसाहब
:
[कुछ अनिश्चित-से मूढ़े पर बैठते हुए] मे…रे…लिए…
आया
:
[चेतुआ को खड़ा देखकर] अरे खड़ा क्यों है? दूसरा मूढ़ा तो उठा ला दौड़कर।
चेतराम
:
[जाते हुए] अभी लाया जी!
आया
:
[प्याला देती हुई] लो बीबी जी, गर्म कपड़ा नहीं पहना तो गर्म चाय तो लो।
हेमलता
:
तुम तो आया समझती हो कि जैसे हम बरफ की चोटी पर बैठे हैं!
आया
:
[दूसरा प्याला बनाते हुए] नहीं हेम बीबी, देहात की हवा शहरवालों के लिए चंडी होती है चंडी!
हेमलता
:
तुम भी तो देहात ही की हो आया।
आया
:
अब तीन चौथाई जिन्दगानी तो गुजर गयी आप लोगों के संग [चाय का प्याला राय साहब की ओर बढ़ाते हुए] लीजिए सरकार! [राय साहब को देख, कुछ चौंक कर] अरे!
रायसाहब
:
[प्याला लेते हुए] क्यों क्या हुआ?
आया
:
आप भी सरकार गजब करते हैं। यहाँ खुले में आप यों ही बैठे हैं।
[घर की तरफ तेजी से बढ़ती है]
हेमलता
:
किधर चली, आया?
आया
:
[जल्दी से] ड्रेसिंग गाउन लेने।… साहब का बेरा कलकत्ते से आता तो ऐसी गफलत नहीं होती।
[चली जाती है]
रायसाहब
:
हा हा हा [ठहाका मारते हैं] गुड ओल्ड आया! [चाय पीते हुए] समझती है कि सारी दुनिया नादान बच्चों का झुंड है और अकेली वह माँ है।
हेमलता
:
क्या सच उसे देहात नहीं सुहाता, पापा? मैं नहीं मान सकती। मगर… [चेतू मूढ़ा ले आया है।] यहीं रख दो मूढ़ा मेज के पास।
रायसाहब
:
मुझे ये पुराने मूढ़े पसन्द हैं। कमर बिलकुल ठीक एंगिल में बैठती है। [चेतू को रोककर] ए, क्या नाम है तुम्हारा?
चेतराम
:
जी, चेतराम।
रायसाहब
:
कहार हो?
चेतराम
:
मुसहर हूँ, सरकार।
रायसाहब
:
मुसहरों की तो एक बस्ती थी करीब ही कहीं, गन्दी-सड़ी। बाप का नाम?
चेतराम
:
कमतूराम! – अ ब गन्दगी नहीं सरकार!
रायसाहब
:
अरे, तू कमतू का लड़का है?
हेमलता
:
क्यों नहीं है अब गन्दी बस्ती?
[आया का प्रवेश]
आया
:
लीजिए सरकार ड्रेसिंग गाउन, जब बैठना ही है यहाँ खुले में तो… अरे तू यहीं खड़ा है चेतू?
रायसाहब
:
[ड्रेसिंग गाउन पहनते हुए] आया, यह तो उसी कमतू का लड़का है जो 15 बरस पहले यहाँ…
आया
:
हाँ, सरकार मैंने तो उसे ही बुलाया था, मगर उसने लड़के को भेज दिया। खैर, जाने-पहचाने का लड़़का है। चोरी-ओरी करेगा तो पकड़ना मुश्किल नहीं।
हेमलता
:
तुम तो, आया…।
आया
:
अरे हाँ बीबी जी, अब ये देहाती सीधे-सादे नहीं रहे। हमारे-तुम्हारे कान काटते हैं। चेतू चाय की ट्रे लेकर जल्दी आना। पलंग-वलंग ठीक करने हैं [चलते-चलते] देखूँ बावर्ची ने खाना भी तैयार किया कि नहीं।
रायसाहब
:
डीयर ओल्ड आया।
[आया जाती है। रायसाहब चाय की चुस्की लेते हैं।]
हेमलता
:
चेतराम!
चेतराम
:
जी बीबी जी।
हेमलता
:
मुसहर बस्ती में अब गन्दगी नहीं! क्यों?
चेतराम
:
बस्ती ही बह गयी सरकार!
रायसाहब
:
बह गयी?
चेतराम
:
पिछले साल बहुत जोर की बाढ़ आयी। हमारी तो बस्ती ही खत्म हो गयी। चालीस घर थे। मेरे दादा के पास धनहर खेत था आठ कट्ठा। जैसे-तैसे महाजन से छुड़ाया। वह भी बालू में पड़ गया। और कान्हू काका की चार बकरी थी। सब पानी…
रायसाहब
:
सरकारी मदद मिली?
चेतराम
:
बातचीत तो चल रही है… पर अब तो हम लोग पहाड़ी की तलहटी में चले गये हैं। नयी टोली बस रही है।
रायसाहब
:
ओ हो, बड़े जोम हैं। लेकिन वहाँ तो ऊसर जमीन है। खेती की गुंजायश कहाँ?
चेतराम
:
मुश्किल तो हुई सरकार। पर बारी-बारी से दस-दस जन मिल कर तैयार करते हैं। एक बाँध बन जाए तो बेड़ा पार है सरकार।
रायसाहब
:
हिम्मत तो बहुत की तुम लोगों ने!
हेमलता
:
लेकिन है मुसीबत ही। रोज का खाना-पीना कैसे चलता होगा इन लोगों का?
रायसाहब
:
यही, नौकरी-मजूरी। जब मिल जाय।
चेतराम
:
वह तो हई सरकार! पर अब तो बाँस का काम करने लगे हैं। हाट-बाजार में बिक जाता है। इनसे भी बढ़िया मूढ़े बनाने लगे हैं।
रायसाहब
:
अच्छा? लाना भई हमारे लिए भी एक सेट।
चेतराम
:
जरूर सरकार! दादा तो इसी में लगे रहते हैं रात-दिन। मैंने भी टोकरी बनाना सीख लिया है, रंग-बिरंगी। लोचन भैया को बहुत पसन्द है। कहते हैं सहर में तो बहुत बिकेंगी…
हेमलता
:
तो तुम्हारे भाई भी हैं?
चेतराम
:
[हँसता है] न बीबी जी! लोचना भैया? लोचन भैया तो… सबके भैया हैं! कहते हैं…
रायसाहब
:
जगत भैया!
आया
:
[नेपथ्य में] चेतू, ओ चेतू!
चेतराम
:
चाय ले जाऊँ, सरकार?
रायसाहब
:
हाँ, और तो नहीं लोगी हेम?
हेमलता
:
ऊँ…हाँ…हँ…नहीं। ले जाओ!
[चेतू ले जाता है। रायसाहब ड्रेसिंग गाउन की जेब में हाथ डालकर घूमने लगते हैं।]
रायसाहब
:
तो यह है इन लोगों की जिन्दगी। गरीब भी और गन्दे भी। उन दिनों तो उस टोली में बिना नाक बंद किये जाना हो ही नहीं सकता था। बाप इसका मेहनती था। असल में काम करने में पक्के हैं ये लोग, लेकिन हैं जाहिल!
हेमलता
:
पापा, आपको याद है हमारे आर्ट मास्टर ने वह तस्वीर बनायी थी ‘किसान की साँझ’ – कंधे पर हल, आगे थैला, थका-माँदा किसान, साँझ की चित्ताकर्षक रंगीनी में भी निर्लिप्त…
रायसाहब
:
पाँच सौ रुपये दाम रखा था न उन्होंने उसका?
हेमलता
:
पापा, आपने गौर किया इस चेतराम की शक्ल उससे मिलती है… मास्टर साहब कहते थे देहाती जिन्दगी और दृश्यों में अनगिनती मास्टर-पीसेज के बीज बिखरे पड़े हैं। एक-एक चेहरे में सदियों का अवसाद है। एक-एक झाँकी में युगों की गहराई। अमृता शेरगिल…
रायसाहब
:
अमृता शेरगिल… भई, उसकी तसवीरों पर तो मातम-सा छाया रहता है।
हेमलता
:
वह तो अपना-अपना एटीट्यूड है। अपनी भंगिमा! लेकिन पापा, यह तो मानिएगा कि शेरगिल के रंगों में भारत के गाँव की मिट्टी झलक रही है। पापा, मुझे लगता है जैसे मेरी कूची, मेरे ब्रश को यहाँ आकर नयी दृष्टि मिली हो। कितने चित्र मैं यहाँ खींच सकती हूँ? पकते हुए गेहूँ के खेत में चकित-सी किसान बाला। रंग-बिरंगी बाँस की टोकरियाँ बनाता हुआ इसी चेतराम का बाप! सबेरे की किरन में घुली-घुली-सी गाय को दुहता हुआ ग्वाला…
रायसाहब
:
और यह चाँदनी! [हँसता है] मगर हेम, वह चित्र भी तैयार हुआ या नहीं?
हेमलता
:
कौन-सा?
रायसाहब
:
अरे वही… खास चित्र!
हेमलता
:
पापा आप तो [शर्मीली-सी] लेकिन बीरेन ने पन्द्रह मिनट भी तो लगातार सिटिंग नहीं दी। इधर से उधर फुदकते फिरते थे।
रायसाहब
:
इस वक्त भी जान पड़ता है कहीं फुदक ही रहे हैं, हजरत।…
हेमलता
:
आपने भी फिजूल भेजा ताँगा। जिसके पैर में ही सनीचर हो…
[बीरेन पीछे से हठात् निकलता है।]
बीरेन
:
सनीचर नहीं आज तो शुक्र है। कहीं इसी वजह से तुम ताँगा भेजना नहीं भूल गयीं?
हेमलता
:
बीरेन!
रायसाहब
:
बीरेन? अरे! क्या तुम्हें ताँगा नहीं मिला स्टेशन पर?…
बीरेन
:
नमस्ते पापा जी। जी, मुझे ताँगा नहीं मिला, शायद…
रायसाहब
:
अजब अहमक है यह साईस। रास्ता तो एक ही है।
बीरेन
:
लेकिन कोई बात नहीं। मेरा भी एक काम बन गया।
रायसाहब
:
सामान कहाँ है?
हेमलता
:
चेतू! [पुकारते हुए] आया, चेतू को भेजना! सामान…
बीरेन
:
सामान तो चौधरी जंगबहादुर की देख-रेख में स्टेशन ही छोड़ आया हूँ।
रायसाहब
:
यानी मिल गये तुम्हें भी चौधरी जंगबहादुर।
हेमलता
:
वही न पापा, जो हर गाड़ी पर किसी न किसी आने वाले को लेने के लिए जाते हैं?
बीरेन
:
या किसी न किसी जाने वाले को पहुँचाने। मगर यह भी निराला शौक है कि बिला नागा हर गाड़ी पर स्टेशन जा पहुँचना।
रायसाहब
:
दो ही तो गाड़ी आती है इस छोटे स्टेशन पर, लेकिन चौधरी की वजह से उस सूने स्टेशन पर रौनक हो जाती है।
बीरेन
:
जी हाँ, जब तक उनसे मुलाकात नहीं हुई तब तक तो मुझे भी लगा कि पैसिफि़क सागर के टापू पर बहक गया हूँ।
हेमलता
:
यहाँ चौरंगी की चहल-पहल की उम्मीद करना तो बेकार था बीरेन!
बीरेन
:
[ठहाका] याद है न बेकन की वह उक्ति, ‘भीड़ के बीच में भी चेहरे गूँगी तसवीरें जान पड़ते हैं और बातचीत घंटियाँ, अगर कोई जाना-पहचाना न हो।’ लेकिन तुमने यह कैसे समझ लिया कि मुझे वीराना पसन्द नहीं।… मैं तो चौधरी साहब से भी पल्ला छुड़ा कर भागा।
रायसाहब
:
तो शायद उन्होंने तुम्हें समूची दास्तान सुनानी शुरू कर दी होगी।
बीरेन
:
जी हाँ, यह बताया कि वे साल भर में एक बार, सिर्फ एक बार, कलकत्ते की रेस में बाजी लगाने जाते हैं। यह भी बताया कि गवर्नर साहब के जिस डिनर में उन्हें बुलाया गया था, उसका निमंत्रण पत्र अब भी उनके पास है और यह कि इस गाँव में अब तक जितनी बार कलक्टर आए हैं उनके दिन और तारीखें उन्हें पूरी तरह याद हैं।
हेमलता
:
गजब है!
रायसाहब
:
हाँ भाई, चौधरी की याददाश्त लाज़वाब है।
बीरेन
:
याददाश्त की दुनिया में ही रहते जान पड़ते हैं! इसलिए जब उन्होंने स्टेशन पर सामान की देखभाल का जिम्मा लिया तो मैंने भी छुटकारे की साँस ली और रास्ता छोड़कर खेतों की राह बस्ती की ओर चल दिया।
[आया का प्रवेश]
आया
:
बीरेन बाबू, पहले गर्म चाय पीजिएगा या फिर खाने का ही इंतजाम…
बीरेन
:
ओ, हलो आया कैसी हो?
आया
:
मैं तो मजे ही में हूँ। लेकिन आपके आने से हमारी हेम बीबी के लिए चहल-पहल हो गयी वरना…
हेमलता
:
वरना क्या? मुझे तो कलकत्ते की चहल-पहल से यहाँ का सूना संगीत ही भाता है।
रायसाहब
:
आया, हेम की उलटबाँसियाँ तुम न समझोगी।
बीरेन
:
लेकिन, आया, अब मैं इस जंगल में मंगल करने वाला हूँ।
आया
:
भगवान वह दिन भी जल्दी दिखावें। मैं तो हेम बिटिया…
हेमलता
:
चुप भी रहो, आया!
रायसाहब
:
[ठहाका] हा, हा, हा।
बीरेन
:
मैं दूसरी बात कह रहा था। मेरा मतलब है इस गाँव की काया-पलट करना। यह गाँव मेरा इंतजार कर रहा है, जैसे… जैसे…
हेमलता
:
जैसे वीणा के तार उस्ताद की उँगलियों का [किंचित हास] खूब!
रायसाहब
:
[हँसते हुए] हा, हा, हा! बीरेन, है न मेरी बिटिया लाजवाब?
बीरेन
:
लेकिन वीणा के सुर में वह मस्ती कहाँ जो एक नयी दुनिया के निर्माण में है?
हेमलता
:
[व्यंग्य] कोलम्बस!
रायसाहब
:
नयी दुनिया का निर्माण। यह तो दिलचस्प बात जान पड़ती है बीरेन! सुनें तो…
बीरेन
:
जिस रास्ते से… शार्टकट से… में आया हूँ, उससे लगी हुई जो जमीन है, थोड़ी ऊँची और समतल, उसे देख कर मेरी तबीयत फड़क गयी और मैंने तय कर लिया कि…
आया
:
बीरेन बाबू!
बीरेन
:
[अपनी बात जारी रखते हुए] कि बिलकुल आइडियल रहेगी वह जगह! बिलकुल मानो उसी के लिए तैयार खड़ी हो…
रायसाहब
:
किसके लिए?
आया
:
सरकार, बीरेन बाबू की बातें तो सावन की झरी हैं, पर मुझे तो बहुतेरा काम पड़ा है।
हेमलता
:
[चंचल] इन्हें खाना मत देना आया!
बीरेन
:
[उसी धुन में] मैं कहता हूँ पापाजी उससे बेहतर जगह…
रायसाहब
:
ना, भई, बीरेन! पहले आया का हुक्म मान लो। हेम, कमरा इन्हें दिखा दो। गर्म पानी का इन्तजाम तो होगा ही। जब तैयार हो जाएँ और खाना भी, तो आया, मुझे खबर दे देना।
आया
:
लेकिन इस मौसम में बाहर रहिएगा देर तक तो…
रायसाहब
:
बस अभी आया। चौधरी साहब इस बीच में आयें तो दो बात उनसे भी कर लूँगा।
बीरेन
:
[जाते-जाते] लेकिन, पापाजी, आप गौर करे देखिए, ग्रामोद्धार-समिति के लिए पहाड़ की तलहटी वाली जमीन से मौजूँ और कोई जगह हो ही नहीं सकती। मैंने उन लोगों से…
[जाता है]
रायसाहब
:
ग्रामोद्धार-समिति! ख्याल तो अच्छा है। एक जमाने में मैंने भी… [सामने देखकर] कौन? चेतू। अरे तू यहाँ कैसे खड़ा है?
चेतू
:
सरकार…
[रुक जाता है।]
रायसाहब
:
क्या गर्म पानी तैयार नहीं?
चेतू
:
कर आया सरकार! कमरा भी साफ है।
रायसाहब
:
ठीक।
चेतू
:
सरकार!
[झिझक कर रुक जाता है।]
रायसाहब
:
क्या बात है चेतू?
चेतू
:
सरकार वह तलहटी वाली जमीन!
रायसाहब
:
कौन जमीन?
चेतू
:
जी नये साहब जिसे लेने की सोच रहे हैं।
रायसाहब
:
अरे बीरेन! अच्छा वह जमीन, जहाँ वह ग्रामोद्धार-समिति बैठायेंगे।
चेतू
:
लेकिन सरकार, उस पर तो हम लोग अपना नया बसेरा कर रहे हैं। आठ-दस बाँस की कोठियाँ-झुरमुट-लग जाएँ तो बेड़ा पार हो जाय।
रायसाहब
:
अरे तुम मुसहरों का क्या? जहाँ बैठ जाओगे, बसेरा हो जाएगा, लेकिन गाँव में जो उद्धार के लिए काम होगा… [घोड़े की टापों और ताँगे की आवाज] यह क्या? ताँगा आ गया क्या? देख भई, बीरेन बाबू का सामान उतार ला। [चेतू बाहर जाता है। ताँगा रुकने की आवाज] चौधरी साहब हैं क्या?
बालेश्वर
:
[बाहर ही से बोलता हुआ आता है।] जी, चौधरी साहब ने ही मुझे भेजा है सामान के साथ। मेरा नाम बालेश्वर है, बी.पी. सिन्हा। और ये हैं करमचन्द बरैठा। [करमचन्द नमस्ते करता है।] बच्चू बाबू के चचेरे भाई हैं। मैं चौधरी साहब का भतीजा हूँ।
रायसाहब
:
कहाँ रह गये चौधरी साहब?
बालेश्वर
:
जी ताँगे में आने की वजह से उनके घूमने का कोटा पूरा नहीं हुआ तो फिर से घूमने गये हैं।
रायसाहब
:
[हँसते हुए] खूब!
करमचन्द
:
हम लोगों ने सोचा कि आपका सामान भी पहुँचा दें और आपके दर्शन भी हो जायें।
बालेश्वर
:
बात यह है कि देहात में कोई ‘लाइफ’ नहीं।
करमचन्द
:
जब से शहर से लौटे हैं, जान पड़ता है कि बंदी बन गये हैं। ‘ट्रांस्पोर्टेशन आफ लाइफ!’
रायसाहब
:
क्या करते थे शहर में?
बालेश्वर
:
करमचन्द तो इंटरमीडिएट तक पढ़ कर लौट आये और मैं…
करमचन्द
:
बात यह है कि इम्तहान के परचे ही बेढंगे बनाये थे किसी ने।
बालेश्वर
:
मैं तो बी.ए. कर रहा था और एक दफ्तर में किरानी की नौकरी के लिए भी दरख्वास्त दे दी थी, मगर सिफारिश की कमी की वजह से…
रायसाहब
:
किरानी? तुम्हारे यहाँ तो कई बीघे खेती होती है।
बालेश्वर
:
पढ़ाई-लिखाई के बाद भी खेती! पढ़े फारसी बेचे तेल।
करमचन्द
:
और फिर शहर की लाइफ की बात ही और है। खाने के लिए होटल, सैर के लिए मोटर, तमाशे के लिए सिनेमा।
रायसाहब
:
रहते कहाँ थे?
बालेश्वर
:
शहर में रहने का क्या? चार अंगुल का कोना भी काफी है।
करमचन्द
:
शहर की सड़कें यहाँ के बैठकखाने से कम नहीं। वह चहल-पहल वह रंगीनियाँ!
रायसाहब
:
भई, यह तो तुम लोग गलत कहते हो। मैंने अपने बचपन और जवानी के अनेक सुहाने बरस यहाँ गुजारे हैं।
बालेश्वर
:
तब बात और रही होगी, जज साहब!
करमचन्द
:
और फिर छोटी उम्र में शहर की मनमोहक जिन्दगी से गाँव का मिलान करने का मौका कहाँ मिलता होगा।
रायसाहब
:
मनमोहन… खैर। आजकल क्या शगल रहता है?
करमचन्द
:
गले पड़ी ढोलकी बजावे सिद्ध! सोचा कुछ पढ़े-लिखे, जानकार लोगों का क्लब ही बना लें।
बालेश्वर
:
वह भी तो नहीं करने देते लोग।
रायसाहब
:
कौन लोग?
करमचन्द
:
इस गाँव की पालिटिक्स आपको नहीं मालूम?
रायसाहब
:
यहाँ भी पालिटिक्स है?
बालेश्वर
:
जबरदस्त! बात यह है कि मैं और करमचन्द तो ढंग से क्लब चलाना चाहते हैं। प्रेजीडेंट, दो वाइस-प्रेजीडेंट, एक सेक्रेटरी, दो ज्वायंट-सेक्रेटरी, पाँच कमेटी मेंबर।
करमचन्द
:
जी हाँ, यह देखिए! [एक कागज निकाल कर रायसाहब को दिखाता है] इस तरह लेटर-पेपर छपवाने का इरादा है। ऊपर क्लब का नाम रहेगा और… यहाँ हाशिए में सब पदाधिकारियों के नाम और…
बालेश्वर
:
लेकिन ठाकुरों की बस्ती में दो आदमी हैं, धरम सिंह और किशनकुमार सिंह। कहते हैं, दोनों वाइस-प्रेजीडेंट उन्हीं के रहें और कमेटी में भी तीन आदमी। मैंने कहा कि एक ज्वायंट-सेक्रेटरी ले लो और दो कमेटी के मेम्बर।
रायसाहब
:
वे भी तो पढ़े-लिखे होंगे।
करमचन्द
:
जी हाँ, कालेज तक।
रायसाहब
:
तब?
करमचन्द
:
अपने को लाट साहब समझते हैं। कहते हैं, क्लब होगा तो उन्हीं के मोहल्ले में।
बालेश्वर
:
भला आप ही सोचिए, हम लोगों के रहते हुए ठाकुरों की बस्ती में क्लब कैसे खुल सकता है?
करमचन्द
:
आप ही इंसाफ कीजिए, जज साहब!
रायसाहब
:
भाई, इसके लिए तुम बीरेन से बात करो। यह लो बीरेन आ गये।
बीरेन
:
[हेम के साथ आते हुए] पापा जी, ग्रामोद्धार-समिति वाली वह बात मैंने पूरी नहीं की।
रायसाहब
:
बीरेन, वह बात तुम इन लोगों को समझाओ। यह हैं बालेश्वर ऊर्फ बी.पी. सिन्हा और ये हैं करमचन्द बरैठा। गाँव के पढ़े-लिखे नौजवान! क्लब खेलना चाहते हैं। मैं तो चलता हूँ, देरी हो रही है। हेम बेटी, बीरेन को देर मत करने देना।
[चले जाते हैं।]
बीरेन
:
अच्छा तो गाँव में क्लब स्थापित करना चाहते हैं आप?
बालेश्वर
:
जी हाँ, यह देखिए यह है हम लोगों का लेटर-पेपर और नियमावली का मसौदा। बात यह है कि…
बीरेन
:
आइए मेरे कमरे में चलिए, वहाँ इत्मीनान से बातें होंगी। इधर से चलिए। मैं अभी आया।
[बालेश्वर और करमचन्द जाते हैं]
हेमलता
:
मैं यहीं हूँ। जल्दी करना नहीं तो जानते हो, आया वह खबर लेगी कि…
बीरेन
:
तुम भी चलो न! क्या उम्दा मेरी योजना है। सुन कर फड़क जाओगी।
हेमलता
:
कमरे में चलूँ? उँह… देखते हो यह चाँदनी [बाहर दूर से सम्मिलित स्वर में गाने की आवाज] और सुनते हो यह स्वर, मानो चाँदनी बोलती हो!
बीरेन
:
[जाते-जाते शरारत भरे स्वर में] मैं तो देखता हूँ बस किसी का चाँद-सा मुखड़ा और सुनता हूँ तो अपने दिल की धड़कन [हाथ हिलाते हुए] टा…टा!
हेमलता
:
[मीठी मुस्कान] झूठे।
[सम्मिलित संगीत-स्वर निकट आ रहा है, स्त्री-पुरुष दोनों का स्वर]
चननिया छटकी मो का करो राम।
गंगा मोर मइया जमुना मोर बहिनी
चाँद सूरज दूनो भइया
मो का करो राम। चननिया छटकी…
सोसु मोर रानी, ससुर मोर राजा
देवरा हवें सहजादा मो का करो काम
चननिया छटकी मो का करो राम!
[गाने के बीच में चेतू का जल्दी से आना और बाहर की तरफ चलना]
हेमलता
:
कौन चेतू? कहाँ जा रहे हो?
चेतू
:
ही…वह…वह… गाना।
हेमलता
:
बड़ा सुन्दर है।
चेतू
:
मेरी ही बस्ती की टोली है। हर पूनो की रात को गाँव के डगरे-डगरे घूमती है।
हेमलता
:
इधर ही आ रही है।
चेतू
:
सामने वाले डगरे में। वह देखिए। और देखिए उसमें वह लोचन भैया भी हैं।…
हेमलता
:
कहाँ?
चेतू
:
वह मिर्जई पहने। मैं चलता हूँ बीबी जी। वे लोग मुझे बुला रहे हैं…
[जाता है। गाने का स्वर निकट आकर दूर जाता है]
‘मो का करो राम… मो का करो राम।’
हेमलता
:
[अब स्वर मंद हो जाता गया है।] ‘चननिया छटकी मो का करो राम।’ ओह, कैसी मनोहर पीर है यह!
आया
:
हेम बीबी, हेम बीबी। इस ठंड में कब तक बाहर रहोगी?
हेमलता
:
[उच्च स्वर में] अभी आयी आया! [फिर मंद स्वर में] चाँदनी और मैं! मैं और बीरेन! लेकिन यह गाना और वह… वह… लोचन!
[विचार-मग्न अवस्था में प्रस्थान]
दूसरा दृश्य
[स्थान वही। पन्द्रह रोज बाद। समय सबेरे। बाहर से रायसाहब और एक व्यक्ति की बातचीत का अस्पष्ट स्वर और फिर थोड़ी देर में ठहाका मार-मार कर हँसते हुए रायसाहब का प्रवेश]
रायसाहब
:
हा, हा, हा! वाह भाई वाह! सुना बेटी हेम! हेम!
हेमलता
:
[नेपथ्य में] आयी पापा!
रायसाहब
:
हा, हा, हा!
[हेम का प्रवेश, हाथ में एक बड़ा-सा चित्र और ब्रश]
हेमलता
:
क्या बात हुई, पापा?
रायसाहब
:
हेम, हमारे चौधरी साहब भी लाजवाब हैं! अभी तो मुझे फाटक पर छोड़ कर गये हैं। सबेरे की चहलकदमी में इनका साथ न हो तो मैं तो इस देहात में गूँगा भी हो जाऊँ और बहरा भी।
हेमलता
:
आप तो आज उनके घर तक जाने वाले थे।
रायसाहब
:
गया तो था, यही सोच कर कि थोड़ी देर के लिए उनकी बैठक में भी चलूँ, लेकिन बाहर से ही बोले, ‘वहीं ठहरिए!’
हेमलता
:
अरे!
रायसाहब
:
कहने लगे, ‘पहले में ऊपर पहुँच जाऊँ, तब आप कार्ड भेजिएगा और तब बैठक में जाना मुनासिब होगा! कायदा जो है।’
हेमलता
:
[हँसती है] ऐसी भी क्या अंग्रेजियत?
रायसाहब
:
और भी तो सुनो। घर में उनका जो प्राइवेट कमरा है, उसमें बाहर एक घंटी लगी है। जिसे भी अन्दर जाना हो, घंटी बजानी होती है। बिना घंटी बजाए अगर कोई अन्दर आ गया तो चौधरी साहब उससे बात नहीं करते, चाहे उनकी बीबी हो।
हेमलता
:
मालूम होता है मनुस्मृति की तरह एटीकेट संहिता चौधरी साहब छोड़ कर जाएँगे।
रायसाहब
:
लेकिन आदमी दिल का साफ और बिलकुल खरा है, हीरे की मानिन्द! दूसरे के एक पैसे पर हाथ नहीं लगाता।
हेमलता
:
तभी शायद बीरेन ने उन्हें ग्रामोद्धार-समिति का आडीटर बनाया है।
रायसाहब
:
बीरेन से कह देना कि चौधरी साहब हिसाब में बहुत कड़े हैं। कह रहे थे कि चूँकि इस संस्था में उनका भतीजा बालेश्वर शामिल है, इसलिए इसकी तो एक-एक पाई पर निगाह रखेंगे।
हेमलता
:
बालेश्वर मुझे पसन्द नहीं। झगड़ालू आदमी है।
रायसाहब
:
झगड़ा तो गाँव की नस-नस में बसा है।
हेमलता
:
पहले भी ऐसा था पापा?
रायसाहब
:
था, लेकिन ऐसी हठ-धर्मी नहीं थी। मैं यह नहीं कहता कि पहले, शेर-बकरी एक घाट पानी पीते थे, लेकिन… लेकिन…पहले, पढ़े-लिखे नौजवान गाँव में कम थे और…
हेमलता
:
पढे-लिखे नहीं, अधकचरे। टैगोर ने लिखा है न ‘हाफ बेक्ड कल्चर’। लेकिन पापा, क्या सब बीरेन का तूफानी जोश और उसकी पैनी सूझ गाँव में काया-पलट कर देगी?
रायसाहब
:
तुम क्या समझती हो?
हेमलता
:
कह रहे थे न बीरेन उस रोज कि गाँव में क्रान्ति के लिए एक नये दृष्टिकोण की जरूरत है एक नये मानसिक धरातल की…
रायसाहब
:
बीरेन बोलता खूब है! उसी का जादू है।
हेमलता
:
सैकड़ों की जनता झूम जाती है।
रायसाहब
:
उस दूसरी पार्टी का क्या हुआ। ग्राम-सुधार-समिति में शामिल हुई या नहीं?
हेमलता
:
अभी तो नहीं। कल रात बहुत-सा वाद-विवाद चलता रहा। बीरेन देर से लौटे थे। पता नहीं क्या हुआ?
रायसाहब
:
लेकिन आज तो नींव पड़ेगी समिति की!
हेमलता
:
हाँ, आप नहीं जाइएगा उत्सव में पापा?
रायसाहब
:
न बेटी, मैंने तो बीरेन से पहले ही कह दिया था कि मैं नहीं जा सकूँगा। मुझे…
[एक हाथ में कागज लिये, दूसरे से कुरते के बटन लगाते हुए बीरेन का प्रवेश।]
बीरेन
:
लेकिन पापा जी, चौधरी साहब तो आ रहे हैं।
रायसाहब
:
उन्हें ठीक स्थान पर बैठाना, नियम के साथ।
बीरेन
:
[हँसते हुए] उनकी पूरी देख-भाल होगी। पापा जी, अगर आप वहाँ पहुँच नहीं रहे हैं तो यह तो देखिए मेरे भाषण का ड्राफ्ट।
रायसाहब
:
[उसके हाथ से कागज लेते हुए] तुम तो बिना तैयारी के ही बोलते हो।
[कागज पढ़ने लगते हैं]
बीरेन
:
जी हाँ, लेकिन आज तो ग्राम-सुधार-समिति की समूची योजना को गाँव के सामने रखना है… पढ़िए न!
रायसाहब
:
[पढ़ते हुए] बड़ी जोरदार स्कीम है!
बीरेन
:
जी, आगे और देखिए [हेम से] और हेम, समिति के भवन में जो चित्र टँगेंगे तुमने पूरे कर लिये?
हेमलता
:
एक तो तैयार ही-सा है।
[चित्र की ओर संकेत करती है]
बीरेन
:
यह?… बड़े चटकीले रंग हैं, बड़ा मनोहर नाच का दृश्य है… खूब! लेकिन… ये… इन कोने के अँधरे में ये कौन लोग हैं?…
हेमलता
:
तुम क्या समझते हो?
बीरेन
:
[रुक कर सोचता-सा] जैसे निर्वासित भटके हुए प्राणी!
रायसाहब
:
[पढ़ते-पढ़ते] बीरेन, तुम्हारी ग्राम-सुधार-समिति में दिमागी कसरत तो बहुत है… पुस्तकालय, भाषण, अध्ययन मंडल…
बीरेन
:
[चित्र को अलग रखता हुआ] वही तो पापा जी! ग्राम-जागृति के मानी क्या हैं? अपनी जरूरतों और समस्याओं पर विचार करने की क्षमता! देहात की मूक-व्यथा को वाणी की आवश्यकता है। माँग है, चुने हुए ऐसे नौजवानों की जो धरती की घुटनों को गगन के गर्जन का रूप दे सकें, जो रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठा सकें, जो आर्थिक प्रश्नों से माथापच्ची कर सकें। मैं समिति के पुस्तकालय में मार्क्स, लेनिन से लेकर स्पेंग्लर, रसेल इत्यादि सभी ग्रन्थों का अध्ययन कराऊँगा। एक नयी रोशनी, एक नया मानसिक मन्थन… इंटलैक्चुअल फरमेंट…
रायसाहब
:
ठीक बीरेन ठीक! बातें तो बहुत होंगी, लेकिन भई, देहात को गरीबी और गन्दगी को देख कर तो मन उचाट होता है।
बीरेन
:
[जोश के साथ] यह आपने ठीक सवाल उठाया। गरीबी और गन्दगी! पापा जी, इस गरीबी और गन्दगी को देख कर मेरा मन क्रोधाग्नि से जल जाता है। वे बे-घरबार के बूढ़े-बच्चे, वह भूखे भिखमंगों की टोली, वे चीथड़ों में सिकुड़ी औरतें… इन सबके ध्यान मात्र से दया का सागर उमड़ उठता है। लेकिन दया के सागर में क्रोध के तूफान की जरूरत है पापाजी! तूफान, जो न थमना जाने न चुप रहना। और इस तूफान को कायम रखने के लिए चाहिए कुछ ऐसी हस्तियाँ, जो उस क्रोध और दया के काबू में न आ कर भी उसी के राग छेड़ सकें, वकील की तरह पूरे जोश के साथ जिरह कर सकें, लेकिन मुवक्किल से अलग भी रह सकें।
हेमलता
:
सरोवर में कमल, लेकिन जल से अछूता।
बीरेन
:
हाँ, उसी की जरूरत है। जो लोग इस गरीबी और गन्दगी की दलदल से दूर रह कर उसमें फँसी दुनिया के बेबस अरमानों को समाज के सामने मुस्तैदी के साथ चुनौती का रूप दें सकें। [रुक कर भाषण के स्तर से उतरता हुआ] लेकिन मुझे तो चलना है पापाजी! पहले से जाकर समिति के कुछ उलझनें सुलझानी हैं, जिससे उत्सव के वक्त फसाद न हो।… तुम तो थोड़ी देर में आओगी हेम? तब तक इस चित्र को ठीक-ठाक कर लो। अच्छा तो मैं चला।
[चला जाता है। कुछ देर चुप्पी रहती है।]
रायसाहब
:
यही तो जादू है बीरेन का।
हेमलता
:
जादू वह जो सिर पर चढ़ कर बोले।
रायसाहब
:
कभी-कभी मुझे तो देहात में उलझन-सी लगती है। बरसों बाद आया हूँ…जैसे चश्मा शहर ही छोड़ आया हूँ… और बीरेन हैं कि आते ही गाँव को अपना लिया।
हेमलता
:
मालूम नहीं पापाजी, उन्होंने गाँव को अपना लिया… या…
[चेतू का प्रवेश]
चेतू
:
सरकार का नाश्ता तैयार है।
रायसाहब
:
[आते हुए] अच्छा चेतू! आता हूँ। [चलते-चलते चित्र पर निगाह जाती है।] हेम! यह तसवीर अच्छी बनी है।
हेमलता
:
थोड़ा टच करना बाकी है।
रायसाहब
:
नाचने वालों की टोली में बड़ी लाइफ है। रंग की भी, गति की भी! लेकिन… कोने में यह लोग कैसे खड़े हैं?
हेमलता
:
आप क्या समझते हैं?
रायसाहब
:
[सोचते-से सप्रयास] जैसे… जैसे सूखे और सूने दरख्त जिन्हें धरती से खुराक ही नहीं मिलती।
हेमलता
:
पापा, आप भी तो कवि हैं।
रायसाहब
:
[हँसते हैं] तुम्हारा बाप भी जो हूँ।… अच्छा मैं तो चला।
[चले जाते हैं]
हेमलता
:
[विचार-मग्न] सूखे और सूने दरख्त!… या निर्वासित और भटके प्राणी!…नहीं…नहीं कुछ और, [चेतू से] चेतू, जरा लाना वह स्टूल, यहीं बैठ कर जरा इसे ठीक करूँ।
चेतू
:
[स्टूल रखता हुआ] यह लीजिए। रंग भी यहीं रख दूँ?
हेमलता
:
लाओ, मुझे दो। अब तो तुम्हें मेरी तसवीर खींचने की झक की आदत हो गयी है।
[रंग तैयार करने लगती है]
चेतू
:
जी, बीबी जी।
हेमलता
:
देखो, थोड़ी देर में यह तसवीर लेकर तुम्हें मेरे साथ चलना है।
चेतू
:
कहाँ?
हेमलता
:
बीरेन बाबू की समिति का जलसा कहाँ हो रहा है, वहीं पहाड़ी की तलहटी पर।
चेतू
:
[झिझकता हुआ] बीबी जी, वहाँ मैं नहीं जाऊँगा।
हेमलता
:
क्यों?
चेतू
:
बीबी जी, वहाँ हम गरीब मुसहर अपना बसेरा करने वाले थे। हम बाँस की पौध लगा रहे थे। मेहनत करके टोकरी बनाते, घर तैयार करते। बाँध होता तो खेत भी…
हेमलता
:
[चित्र बनाते-बनाते] लेकिन ग्रामोद्धार-समिति से भी तो आखिर तुम लोगों की तकलीफें दूर होंगी।
चेतू
:
पता नहीं बीबी जी। समिति में बहुत देर तक बहसें तो होती हैं। पर…
हेमलता
:
और फिर बीरेन बाबू के दिल में तुम लोगों के लिए कितना ख्याल है, कितनी दया है।
चेतू
:
[किसी अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत हो] हमें दया नहीं चाहिए।
हेमलता
:
[चौंक कर उसकी ओर मुड़ती है] दया नहीं चाहिए? चेतू! यह तुमसे किसने कहा?
चेतू
:
[कुछ सकपका कर] बीबी जी, लोचन भैया कहते हैं कि…
[सड़क पर से सम्मिलित स्वर में नारों की आवाज]
ग्रामोद्धार-समिति जिन्दाबाद!
बी.पी. सिन्हा जिन्दाबाद!
गद्दारों का नाश हो!
ग्रामोद्धार-समिति जिन्दाबाद!
[आवाज दूर हो जाती है]
हेमलता
:
चेतू यह सब क्या है?
[खड़ी होकर देखने लगती है।]
चेतू
:
उत्सव में ही जा रहे हैं। बालेश्वर बाबू की पार्टी के लोग हैं। करमचन्द बाबू इनसे अलग हो गये हैं और ठाकुर पार्टी के लोगों में जा मिले हैं।
हेमलता
:
कल रात झगड़ा तय नहीं हुआ?
चेतू
:
पता नहीं… यह देखिए दूसरी पार्टी के लोग भी जा रहे हैं। कहीं झगड़ा न हो जाय।
[सड़क पर से दूसरे दल के नारों का शोर सुनाई देता है।]
करमचन्द की जय हो!
करमचन्द की जय हो!
ग्रामोद्धार-समिति हमारी है!
ग्राम-जागृति जि़न्दाबाद!
स्वार्थी सिन्हा मुर्दाबाद!
[आवाज दूर हो जाती है]
हेमलता
:
[चिन्तित स्वर में] चेतू, ये लोग तो लाठी लिये हुए हैं।
चेतू
:
जी हाँ, पहली पार्टी भी लैस थी।
[नेपथ्य में पुकारते हुए आया का प्रवेश]
आया
:
चेतू, ओ चेतुआ! देख तो यह क्या फसाद है?
चेतू
:
बालेश्वर बाबू और करमचन्द की पार्टियाँ हैं। दोनों बीरेन बाबू के उत्सव में गयी हैं।
हेमलता
:
लाठी-डंडा लिये हुए, आया!
आया
:
और तू यहीं खड़ा है चेतुआ। अरे जल्दी जा दौड़ कर चौकीदार से कह कि थाने में खबर कर दे। क्या मालूम क्या झगड़ा हो जाय। जल्दी जा। लाठी चल गयी तो बीरेन बाबू घिर जायेंगे। … जल्दी दौड़ जा!
[चेतू तेजी से जाता है]
हेमलता
:
मैं भी जाऊँगी, आया। बीरेन अकेले है।
आया
:
न बीबी जी, तुम्हें न जाने दूँगी। [जाते हुए चेतू को पुकारते हुए] चेतू, लौटते वक्त जलसे में झाँकता आइयो [हेम से] हेम बीबी, कहाँ की इल्लत मो मोल ले ली बीरेन बाबू ने!
हेमलता
:
उनकी बात तो सब लोग सुनेंगे।
आया
:
बीबी जी, तुमने अभी तक नहीं समझा गाँव-गँवई के मामलों को। यहाँ भले मानसों का बस नहीं है। अपना तो वही कलकत्ता अच्छा था।
हेमलता
:
[झिड़कते स्वर में] आया, तुम तो बस…
आया
:
मैं ठीक कह रही हूँ बीबी जी। अभी तुम लोगों को पन्द्रह दिन हुए हैं यहाँ आये। देख लो, बड़े सरकार की तबीयत ऊबी-सी रहती है। चौधरी न हों तो एक दिन काटना मुश्किल हो जाय। और तुम हो…
हेमलता
:
मुझे तो अच्छा लगता है। कई स्केच बना चुकी हूँ।
आया
:
अरे, तसवीरें तो तुम कलकत्ते में भी बना लोगी। अनगिनती और इनसे अच्छी।
हेमलता
:
तुम तो, आया, उलटी बातें करती हो। आखिर हम लोग गाँव की ही औलाद हैं। यह धरती हमारी माँ है। अब हम लोग फिर यहाँ आकर रहना चाहते हैं। इसकी गोदी में आना चाहते हैं।
आया
:
अब बीबी जी इतनी हुसियार तो मैं हूँ नहीं जो तुम्हें समझा सकूँ। पर इतना कहे देती हूँ कि उखाड़े हुए पौधे की जड़ में हवा लग जाए तो फिर दुबारा जमीन में गाड़ना बेकार है। उसके फूल तो बँगले के गुलदस्तों की ही शोभा बढ़ाएँगे।
हेमलता
:
[अचंभित आया को देखती रह जाती है] आया तुम्हारी बात… तुम्हारी बात… खौफनाक है!
[नेपथ्य से आवाजें – ‘इधर…इधर… ले आओ, सम्हल कर… चेतू तुम हाथ पकड़ लो…इधर…इधर’]
आया
:
हैं! यह कौन आ रहा है? [बाहर की ओर देखते हुए] अरे, यह तो बीरेन बाबू को पकड़े दो आदमी चले आ रहे हैं। घायल, हो गये क्या? बाप रे!…
[दौड़कर बाहर की तरफ जाती है।]
हेमलता
:
[घबरा कर] बीरेन, बीरेन! बँगले की तरफ पुकारते हुए… पापा जी, पापा जी इधर आइए!
रायसाहब
:
[नेपथ्य में] क्या हुआ?
हेमलता
:
बीरेन घायल हो गये। ओह!…
[बेहोश बीरेन को लाठियों के स्ट्रेचर पर सम्हाले हुए, चेतू और एक व्यक्ति, जिसकी अपनी बाँह पर घाव है, प्रवेश करते हैं। वह इस परिस्थिति में भी स्थिरचित्त जान पड़ता है। उसकी वेशभूषा चेतू की-सी है।]
आया
:
[घबड़ाई हुई] चेतू, ये तो बेहोश हैं। हाय… राम!
[स्ट्रेचर जमीन पर रख दी जाती है]
व्यक्ति
:
घबड़ाइए नहीं।
हेमलता
:
[स्ट्रेचर के पास घुटने टेकती हुई] बीरेन! बीरेन!
[रायसाहब घबड़ाए हुए प्रवेश करते हैं]
रायसाहब
:
क्या हुआ? यह तो बेहोश है।… चेतू, क्या हुआ?
चेतू
:
सरकार, दोनों पार्टी के लठैत भिड़ गये। बीच में आ गये बीरेन बाबू। वह तो लोचन भैया ने जान पर खेल कर बचा लिया, वरना…
व्यक्ति
:
इन्हें फौरन मकान के अन्दर पहुँचाइए। पट्टी-वट्टी है घर में?
हेमलता
:
बीरेन! बीरेन!
रायसाहब
:
आया, जल्दी अन्दर ले चलो।… चेतू सम्हल कर लिटाना। हेम, मेरी ऊपर वाली अलमारी में लोशन है, जल्दी…जल्दी… [बीरेन को पकड़ कर आया, चेतू और हेम जाते हैं] और यह लोचन कौन है?
व्यक्ति
:
मेरा ही नाम लोचन है।
रायसाहब
:
तुमने बड़ी बहादुरी का काम किया। यह लो दस रुपये और जरा दौड़ जाओ, थाने के पास ही डाक्टर रहते हैं।
लोचन
:
आप रुपये रखें। मैं डाक्टर के पास पहले ही खबर भेज आया हूँ। आते ही होंगे।
रायसाहब
:
[कुछ हतप्रभ] तुम…तुम इसी गाँव के हो?
लोचन
:
हूँ भी और नहीं भी।.. .आप बीरेन बाबू को देखें।
रायसाहब
:
[संकुचित होकर] हाँ…आँ…हाँ…
[जाते हैं। लोचन कमर में बँधे कपड़े को फाड़ कर, अपनी बायीं भुजा में बहते हुए घाव पर पट्टी बाँधता है, तसवीर को सीधा उठा कर रखता और गौर से देखता है। इतने में तेजी से हेमलता का प्रवेश]
हेमलता
:
तुम्हारा ही नाम लोचन है?
लोचन
:
जी!
हेमलता
:
तुम्हीं ने बीरेन की जान बचायी है। [प्रसन्न स्वर में] वे होश में आ गये हैं। हम लोग बड़े अहसानमन्द हैं।
लोचन
:
[स्पष्ट स्वर में] जान मैंने नहीं बचायी।
हेमलता
:
तुम्हारी बाँह पर भी तो चोट है।
लोचन
:
जान उन गरीब मुसहरों ने बचायी है जिनसे जमीन छीन कर बीरेन बाबू ग्रामोद्धार-समिति का भवन बनवा रहे हैं। जब समिति के क्रान्तिकारी नौजवान आपस में लाठी चला रहे थे, तब यही गरीब बीरेन बाबू को बचाने के लिए मेरे साथ बढ़े। [व्यंग्यपूर्ण मुस्कान] क्रान्ति का दीपक बच गया!
हेमलता
:
[हिचकिचाती हुई] तुम… आप पढ़े-लिखे हैं?
लोचन
:
पढ़ा-लिखा? [वही मुस्कान] हाँ भी और नहीं भी।… अच्छा चलता हूँ।… हाँ, यह तसवीर आपने बनायी है?
हेमलता
:
कोई त्रुटि है क्या?
लोचन
:
नहीं! आपने हमारे नाच की गति को रेखाओं और रंगों में खूब बाँधा है। और…
हेमलता
:
और?
लोचन
:
कोने में खड़े छाया में लपटे ये व्यक्ति…
हेमलता
:
कैसे हैं?
लोचन
:
[बिना झिझक के] जैसे अपनी ही जंजीरों से बँधे बन्दी!
हेमलता
:
बन्दी! क्यों?
लोचन
:
[वही मुस्कान] यह फिर बताऊँगा। [चलते हुए] अच्छा नमस्ते!
[लोचन चला जाता है। हेमलता अचरज में खड़ी रह जाती है। फिर चित्र उठा कर घर की तरफ जाती है]
हेमलता
:
[जाते-जाते मंद स्वर में] बन्दी! अपनी ही जंजीरों में बँधे बन्दी…
[पर्दा गिरता है।]
तीसरा दृश्य
[वही स्थान। एक हफ्ते बाद। समय सन्ध्या। नौकर लोग मकान से बगीचे में होकर बाहर की ओर सामान लाते नजर पड़ते हैं। कभी-कभी आया की दबंग आवाज सुन पड़ती है, कभी चेतू की, कभी और लोगों की]
‘वह बिस्तरा दो आदमी पकड़ो!’
‘सम्हाल कर भई।’
‘बक्से में चीनी के बर्तन हैं।’
‘जल्दी…जल्दी।’
‘यह टोकरी दूसरे हाथ में पकड़ो!’
[घर की तरफ से आया का व्यस्त मुद्रा में जल्दी-जल्दी आना। बाहर से चेतू आता है।]
आया
:
सब सामान लद गया चेतू?
चेतू
:
हाँ आया! बस, बड़े सरकार का अटेची रहा है। उनके आने पर बन्द होगा।
आया
:
कहाँ गये सरकार?
चेतू
:
चौधरी जी के यहाँ बिदा लेने। सुना है चौधरी के बचने की उम्मीद नहीं।
आया
:
जिस गाँव में भतीजा अपने चचा पर वार कर बैठे वहाँ ठहरना धरम नहीं।
चेतू
:
अभी जमानत नहीं मिली बालेश्वर बाबू को।
आया
:
अब हमें क्या मतलब? हम तो कलकत्ता पहुँच कर शान्ति की साँस लेंगे।
चेतू
:
शान्ति!
आया
:
तू तो बुद्धू है, चेतू। चल कलकत्ते। मौज उड़ाएगा। देखेगा बहार और बजाएगा चैन की बंसी।
चेतू
:
गाँव छोड़ कर? नौकरी ही करनी है तो अपनी धरती पर करूँगा।
आया
:
अरे, शहर में नौकरी भी न करेगा तो भी रिक्शा चला कर डेढ़ दो सौ महीना कमा लेगा।
चेतू
:
डेढ़-दो सौ?
आया
:
हाँ, और रोज शाम को सनीमा। होटल में चाय। चकचकाती सड़कें, जगमगाते महल। ठाठ से रहेगा।
चेतू
:
[विरक्त मुद्रा] खाना किराये का, रहना किराये का और बोलो किराये की।
आया
:
जैसी तेरी मर्जी! भुगत यहीं देहात के संकट।
चेतू
:
लोचन भैया तो कहत…
आया
:
[झिड़कती हुई] चल, चल, लोचन भैया के बाबा। अन्दर जाकर देख, बीरेन बाबू तैयार हों तो सहारा देकर लिवा ला। हेम बीबी तो तैयार हैं?
चेतू
:
अच्छा।
[अन्दर जाता है।]
आया
:
[जाते-जाते] देखूँ गाड़ी पर सामान ठीक-ठाक लदा है या नहीं।
ये देहाती नौकर…
[बाहर जाती है। थोड़ी देर में रायसाहब और लोचन बातें करते हुए बाहर से प्रवेश]
रायसाहब
:
भई लोचन, मुझसे यहाँ नहीं रहा जाएगा। अच्छा हुआ जाते वक्त तुम आ गये। बीरेन ने तुम्हें देखा नहीं। चलते वक्त उस दिन के एहसान के लिए…
लोचन
:
मैंने सोचा था कि आप लोग रुक जाएँगे।
रायसाहब
:
रुकना? आया तो इसी विचार से था कि कलकत्ते के बाद देहात में ही दिन काटूँगा। लेकिन एक महीने में देख लिया कि हम तो इस दुनिया से निवार्सित हो चले। बरसों पहले की दुनिया उजड़ गयी और मैं जिस समाज में बसने आया था, वह ख्वाब हो चला! चौधरी भी शायद उसी ख्वाब के भटके हुए टुकड़े थे। अभी उन्हें देख कर आ रहा हूँ। उम्मीद नहीं बचने की। उस दिन के झगड़े में बालेश्वर ने उन पर लाठी से वार नहीं किया, दिल को भी चकनाचूर कर दिया।
लोचन
:
बालेश्वर ही गाँव की नयी पीढ़ी नहीं है।
रायसाहब
:
[निराश स्वर] मैं नहीं जानता कि कौन नयी पीढ़ी है। बस, इतना देखता हूँ कि रैयत के सुख-दुख में हाथ बटाने वाला जमींदार, पुरखों के तजुर्बे के रक्षक बुजुर्ग, बेफिक्री की हँसी और बड़ों की इज्जत में पले हुए नौजवान… जब ये सब ही नहीं रहे तो गाँव में ठहर कर मैं क्या करूँ! शहर…
लोचन
:
शहर आपको खींच रहा है रायसाहब!
रायसाहब
:
[लाचारी का स्वर] तुम शायद ठीक कहते हो। शहर मुझे खींच रहा है।
लोचन
:
और आप बेबस खिंचे जा रहे हैं।
रायसाहब
:
[पीड़ित मुद्रा] बेबस…बेबस…ऐसा न कहो लोचन, ऐसा न कहो!… हम जा रहे हैं क्योंकि… क्योंकि…
[चेतू का सहारा लिये बीरेन का प्रवेश, साथ में हेम भी है।]
बीरेन
:
पापा जी, अब आप ही की देरी है।
रायसाहब
:
[मानो मुक्ति मिली हो] कौन? बीरेन, हेम! तैयार हो गये तुम लोग? तो मैं भी अपना अटैची ले आता हूँ। चेतू, मेरे साथ तो चल!
[घर की तरफ प्रस्थान। साथ में चेतू]
लोचन
:
[हेमलता से] नमस्ते!
हेमलता
:
कौन?…अच्छा आप? बीरेन, यहीं है लोचन जिन्होंने उस रोज तुम्हें बचाया था।
बीरेन
:
अच्छा! उस दिन तो तुम्हें देखा नहीं था, लेकिन फिर भी [गौर से देखते हुआ] तुम पहचाने-से लगते हो।
लोचन
:
[मुस्कराते हुए] कोशिश कीजिए। शायद पहचान लें।
बीरेन
:
[सोचता हुए] तुम…वह…वह…नहीं नहीं। वह तो ऊँची जात का ऊँचे कुल का आदमी था।
हेमलता
:
कौन?
बीरेन
:
मेरा कालेज का साथी एल.एस. परमार।
लोचन
:
[मुस्कराहट] एल.एस.परमार।… लोचन सिंह परमार।
बीरेन
:
[चौंक कर] ऐं! परमार…परमार! !
लोचन
:
[अविचलित स्वर में] हाँ, मैं परमार ही हूँ, बीरेन!
हेमलता
:
[विस्मित] बीरेन, यह तुम्हारे कॉलेज के साथी हैं?
बीरेन
:
[लोचन का हाथ पकड़ कर] यकीन नहीं होता परमार, कि तुम्हीं हो इस देहाती वेश में, मुसहरों के बीच। काँलेज छोड़ कर तो तुम ऐसे गायब हुए थे कि…
लोचन
:
[किंचित हँसी] एक दिन मैंने तुम लोगों को छोड़ा था और आज [रुक कर] आज, तुम जा रहे हो।
बीरेन
:
परमार, मैं जा रहा हूँ चूँकि मैं अपने आदर्श को खंडित होते नहीं देख सकता।
लोचन
:
आदर्श? कौन-सा आदर्श है जिसे गाँव खंडित कर देगा?
बीरेन
:
क्रान्ति का आदर्श, परमार! मैं भूल गया था कि देहात की मध्ययुगीन ऊसर भूमि अभी क्रान्ति के लिए तैयार नहीं है। उसके लिए जरूरत है शहर और कारखानों की सजग और चेतनाशील भूमि की।…
लोचन
:
[तीव्र दृष्टि] बीरेन, तुम भाग रहे हो।
बीरेन
:
मैं लाठियों की मार से नहीं डरता, लोचन!
लोचन
:
तुम भाग रहे हो लाठियों के डर से नहीं, बल्कि उन गुटबन्दियों, अंधविश्वास और झगड़े-फसाद की दल-दल के डर से, जिसे तुम एक छलाँग में पार कर जाना चाहते थे। [गम्भीर चुनौती-पूर्ण स्वर में] तुम पीठ दिखा रहे हो, बीरेन!
बीरेन
:
[हठात् विचलित] पीठ दिखा रहा हूँ… नहीं… नहीं… यह गलत है।… हम जा रहे…हैं, क्योंकि… क्योंकि…
[आया का तेजी से प्रवेश]
आया
:
हेम बीबी! बीरेन बाबू! अरे आप लोगों को चलना नहीं है क्या? सारा सामान रवाना भी हो गया। कहीं गाड़ी छूट गयी तो… कहाँ हैं बड़े सरकार? आप लोग भी गजब करते हैं…
[रायसाहब का प्रवेश, साथ में चेतू अटेची लिए हुए]
रायसाहब
:
यह आ गया मैं। चलो भाई, आया। बीरेन, तुम चेतू का सहारा लेकर आगे बढ़ो, पहले तुम्हें बैठना है।
बीरेन
:
मैं चलता हूँ, परमार। फिर कभी…
लोचन
:
फिर कभी [किंचित हँसी] फिर कभी!…
[आया अटेची लेती है, चेतू का सहारा लिये हुए बीरेन बाहर जाता है। पीछे-पीछे आया।]
रायसाहब
:
अच्छा भाई लोचन, हम भी चलते हैं… मुमकिन है तुम्हारा कहना सही हो!
लोचन
:
काश, मैं आपको रोक पाता!…
रायसाहब
:
हेम, तुम्हारी तसवीर उधर कोने में रखी रह गयी।
हेमलता
:
अभी लायी पापा, आप चलिए।
रायसाहब
:
अच्छा!
[चलते हैं]
लोचन
:
आप भी जा रही हैं हेमलता जी!
हेमलता
:
मजबूर हूँ।
लोचन
:
मैं जानता हूँ। बीरेन का मोह।…
हेमलता
:
मैं बीरेन को यहाँ रख सकती थी लेकिन…
लोचन
:
लेकिन!
हेमलता
:
[सत्य की खोज से अभिभूत वाणी] लेकिन एक बात है जिसे न पापा समझते हैं न बीरेन। पर मैं कुछ-कुछ समझ रही हूँ। पापा गाँव को लौटे प्रतिष्ठा और अवकाश से सराबोर होने, बीरेन ने देहात को क्रान्ति की योजना का टीला बनाना चाहा और मैं… मैं… गाँव की मोहक झाँकी में कल्पना का महल बनाने को ललक पड़ी।
लोचन
:
महल मिटने को बनते हैं, हेम जी!
हेमलता
:
यह मैं जानती हूँ, लेकिन हम तीनों यह न समझ सके कि हमारी जड़ें कट चुकी हैं, हम गाँव के लिए बिराने हो चुके हैं।… [आविष्ट स्वर] क्या आप इस दुविधा, इस उलझन, इस पीड़ा के शिकार नहीं हुए हैं? एक तरफ गाँव और दूसरी तरफ नागरिक शिक्षा-दीक्षा और सभ्यता की मजबूत जकड़! उफ, कैसी भयानक है यह खाई जिसने हमारे तन, हमारे मन, हमारे व्यक्तित्व को दो टूक कर दिया है? बताइए कैसे यह दुविधा मिट सकती है? कैसे हम धरती की गंध, धरती के स्पर्श को पा सकते हैं? बताइए… बताइए!
आया
:
[नेपथ्य में] हेम बीबी, हेम बीबी! जल्दी आओ देरी हो रही है।
लोचन
:
आपके प्रश्न का उत्तर मेरे पास है, लेकिन आप तो जा रही हैं।
हेमलता
:
जाना ही है। आप मेरे लिए पहेली ही बने रहेंगे।… वह तसबीर आपके लिए छोड़े जा रही हूँ। नमस्ते।
[जाती है]
लोचन
:
[कुछ देर बाद आप-ही-आप धीरे-धीरे] पहेली… [तसवीर उठाता है।] और ये बन्दी! [तसवीर की ओर एकटक देखता है] मैं जानता हूँ… [गहरी साँस]… मैं जानता हूँ कि कौन-सी जंजीरें हैं तो इन्हें बन्द किये हैं। [नेपथ्य में ताँगे के चलने की आवाज] जा रहे हैं वे लोग! और मैं बता भी न पाया!… कैसे बताऊँ?…कैसे बताऊँ कि यह कुदाली और ये मेहनत-कश हाथ, यही वे तिलिस्म है जिससे मैं धरती को भेद पाता हूँ। ये मेरी आजाद दुनिया के सन्देश-वाहक हैं, यही वह वाणी है जो मुझे गरीबी के लोक में अपनापन देती है…[रुक कर] तुम लोग जा रहे हो। बच कर भाग रहे हो…लेकिन मैं?… क्या मैं अकेला हूँ?… [विश्वासपूर्ण स्वर] अकेला ही सही, लेकिन बंदी तो नहीं। [इस बीच में चेतू आकर खड़ा-खड़ा लोचन की स्वगत-वार्ता को सुनने लगता है।]
चेतू
:
लोचन-भैया!
लोचन
:
कौन?
चेतू
:
लोचन भैया, आप तो अपने आप ही बातें करते हैं।
लोचन
:
चेतराम!… मैं भूल गया था।
चेतू
:
क्या भूल गये थे भैया?
लोचन
:
कि मैं अकेला नहीं हूँ।
चेतू
:
अकेले?
लोचन
:
हाँ, और यह भी भूल गया था कि हमारी दुनिया में बेकार बातें करने का समय नहीं है।
चेतू
:
काम तो बहुत है ही भैया। अब वह जमीन वापस मिली है तो…
लोचन
:
चलो, चेतराम तलहटी वाली जमीन पर खुदाई शुरू करें, आज ही।
चेतू
:
जी, बाँस के झुरमुट भी तो लगाएँगे।
लोचन
:
हाँ, और बाँध भी बाँधेंगे।
चेतू
:
अगली बरखा तक खेत तैयार करेंगे।
लोचन
:
[उल्लासपूर्ण वाणी] चलो हम रोज साँझ को अपने पसीने के दर्पण में कभी न मिटने वाली झाँकी देखेंगे। चलो चेतराम!
[कंधे पर कुदाली और बगल में चेतराम को लेकर प्रस्थान करता है। नेपथ्य में वाद्य-संगीत जो ओजस्विनी लय में परिवर्तित हो जाता है।]
इति शुभम