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परिचय
जन्म : 8 अगस्त 1915, रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में)

भाषा : हिंदी

विधाएँ : कहानी, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा, बाल साहित्य

मुख्य कृतियाँ
कहानी संग्रह : भाग्य-रेखा, पहला पाठ, भटकती राख, पटरियाँ, वाङचू, शोभायात्रा, निशाचर, पाली
उपन्यास : झरोखे, कड़ियाँ, तमस, बसंती, मय्यादास की माड़ी, कुंतो, नीलू नीलिमा नीलोफर
नाटक : कबिरा खड़ा बजार में, हानूश, माधवी, मुआवजे
आत्मकथा : आज के अतीत
बाल-साहित्य : गुलेल का खेल, वापसी
अनुवाद : टालस्टॉय के उपन्यास ‘रिसरेक्शन’ सहित लगभग दो दर्जन रूसी पुस्तकों का सीधे रूसी से हिंदी में अनुवाद
सम्मान : हिंदी अकादमी, शलाका सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार
कहानियाँ
  • अमृतसर आ गया है
  • ओ हरामजादे
  • खून का रिश्ता
  • चीफ की दावत
  • चीलें
  • झूमर
  • त्रास
  • फैसला
  • मरने से पहले
  • माता-विमाता
  • वाङ्चू
  • साग-मीट

विशेष

रावलपिंडी पाकिस्तान में जन्मे भीष्म साहनी एक सीधे-सादे मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। वह अपने पिता श्री हरबंस लाल साहनी तथा माता श्रीमती लक्ष्मी देवी की सांतवी संतान थे। भीष्म सहनी आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से थे। 1937 में लाहौर गवर्नमेन्ट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद साहनी ने 1958 में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की।सन् 1944 में उनका विवाह शीला जी के साथ हुआ। उनकी पहली कहानी ‘अबला’ इण्टर कालेज की पत्रिका ‘रावी’ में तथा दूसरी कहानी ‘नीली ऑंखे’ अमृतराय के सम्पादकत्व में ‘हंस’ में छपी. भारत पाकिस्तान विभाजन के पूर्व अवैतनिक शिक्षक होने के साथ-साथ ये व्यापार भी करते थे। विभाजन के बाद उन्होंने भारत आकर समाचारपत्रों में लिखने का काम किया। बाद में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जा मिले। इसके पश्चात अंबाला और अमृतसर में भी अध्यापक रहने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में साहित्य के प्रोफेसर बने। 1957 से 1963 तक मास्को में विदेशी भाषा प्रकाशन गृह (फॉरेन लॅग्वेजेस पब्लिकेशन हाउस) में अनुवादक के काम में कार्यरत रहे। यहां उन्होंने करीब दो दर्जन रूसी किताबें जैसे टालस्टॉय आस्ट्रोवस्की इत्यादि लेखकों की किताबों का हिंदी में रूपांतर किया। 1965 से 1967 तक दो सालों में उन्होंने नयी कहानियां नामक पात्रिका का सम्पादन किया। वे प्रगतिशील लेखक संघ और अफ्रो-एशियायी लेखक संघ (एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन) से भी जुड़े रहे। 1993 से1997 तक वे साहित्य अकादमी के कार्यकारी समीति के सदस्य रहे।
भीष्म साहनी को हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है।कथाकार के रूप में भीष्म जी पर यशपाल और प्रेमचन्द की गहरी छाप है।
वे मानवीय मूल्यों के लिए हिमायती रहे और उन्होंने विचारधारा को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। वामपंथी विचारधारा के साथ जुड़े होने के साथ-साथ वे मानवीय मूल्यों को कभी आंखो से ओझल नहीं करते थे। आपाधापी और उठापटक के युग में भीष्म साहनी का व्यक्तित्व बिल्कुल अलग था। उन्हें उनके लेखन के लिए तो स्मरण किया ही जाएगा लेकिन अपनी सहृदयता के लिए वे चिरस्मरणीय रहेंगे। भीष्म साहनी हिन्दी फ़िल्मों के जाने माने अभिनेता बलराज साहनी के छोटे भाई थे। उन्हें १९७५ में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1975 में शिरोमणि लेखक अवार्ड (पंजाब सरकार), 1980 में एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन का लोटस अवार्ड, 1983 में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड तथा1998 में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया। उनके उपन्यास तमस पर 1986 में एक फिल्म का निर्माण भी किया गया था।। साहनी जी के ‘झरोखे’, ‘कड़ियाँ’, ‘तमस’, ‘बसन्ती’, ‘मय्यादास की माड़ी’, ‘कुंतो’, ‘नीलू नीलिमा नीलोफर’ नामक उपन्यासो के अतिरिक्त भाग्यरेखा, पटरियाँ, पहला पाठ, भटकती राख, वाड.चू, शोभायात्रा, निशाचर, पाली, प्रतिनिधि कहानियाँ व मेरी प्रिय कहानियाँ नामक दस कहानी संग्रहों का सृजन किया। नाटको के क्षेत्र में भी उन्होने हानूश, कबिरा खड़ा बाजार में, माधवी मुआवजे जैसे प्रसिद्धि प्राप्त नाटक लिखे। जीवनी साहित्य के अन्तर्गत उन्होने मेरे भाई बलराज, अपनी बात, मेंरे साक्षात्कार तथा बाल साहित्य के अन्तर्गत ‘वापसी’ ‘गुलेल का खेल’ का सृजन कर साहित्य की हर विधा पर अपनी कलम अजमायी। अपनी मृत्यु के कुछ दिन पहले उन्होने ‘आज के अतीत’ नामक आत्मकथा का प्रकाशन करवाया। स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले भीष्म जी गहन मानवीय संवेदना के सषक्त हस्ताक्षर थे। जिन्होने भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक यथार्थ का स्पष्ट चित्र अपने उपन्यासों में प्रस्तुत किया। उनकी यथार्थवादी दृष्टि उनके प्रगतिशील व मार्क्सवादी विचारों का प्रतिफल थी। भीष्म जी की सबसे बड़ी विशेषता थी कि उन्होने जिस जीवन को जिया, जिन संघर्षो को झेला, उसी का यथावत् चित्र अपनी रचनाओं में अंकित किया। इसी कारण उनके लिए रचना कर्म और जीवन धर्म में अभेद था। वह लेखन की सच्चाई को अपनी सच्चाई मानते थे।
11 जुलाई सन् 2003 को इनका शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया।

कहानियाँ

अमृतसर आ गया है 

गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हँसते और गोरे फौजियों की खिल्ली उड़ाते रहे थे। डिब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमें से एक हरे रंग की पोशाक पहने ऊपरवाली बर्थ पर लेटा हुआ था। वह आदमी बड़ा हँसमुख था और बड़ी देर से मेरे साथवाली सीट पर बैठे एक दुबले-से बाबू के साथ उसका मजाक चल रहा था। वह दुबला बाबू पेशावर का रहनेवाला जान पड़ता था क्योंकि किसी-किसी वक्त वे आपस में पश्तो में बातें करने लगते थे। मेरे सामने दाईं ओर कोने में, एक बुढ़िया मुँह-सिर ढाँपे बैठा थी और देर से माला जप रही थी। यही कुछ लोग रहे होंगे। संभव है दो-एक और मुसाफिर भी रहे हों, पर वे स्पष्टत: मुझे याद नहीं।
गाड़ी धीमी रफ्तार से चली जा रही थी, और गाड़ी में बैठे मुसाफिर बतिया रहे थे और बाहर गेहूँ के खेतों में हल्की-हल्की लहरियाँ उठ रही थीं, और मैं मन-ही-मन बड़ा खुश था क्योंकि मैं दिल्ली में होनेवाला स्वतंत्रता-दिवस समारोह देखने जा रहा था।
उन दिनों के बारे में सोचता हूँ, तो लगता है, हम किसी झुटपुटे में जी रहे हैं। शायद समय बीत जाने पर अतीत का सारा व्यापार ही झुटपुटे में बीता जान पड़ता है। ज्यों-ज्यों भविष्य के पट खुलते जाते हैं, यह झुटपुटा और भी गहराता चला जाता है।
उन्हीं दिनों पाकिस्तान के बनाए जाने का ऐलान किया गया था और लोग तरह-तरह के अनुमान लगाने लगे थे कि भविष्य में जीवन की रूपरेखा कैसी होगी। पर किसी की भी कल्पना बहुत दूर तक नहीं जा पाती थी। मेरे सामने बैठे सरदार जी बार-बार मुझसे पूछ रहे थे कि पाकिस्तान बन जाने पर जिन्ना साहिब बंबई में ही रहेंगे या पाकिस्तान में जा कर बस जाएँगे, और मेरा हर बार यही जवाब होता – बंबई क्यों छोड़ेंगे, पाकिस्तान में आते-जाते रहेंगे, बंबई छोड़ देने में क्या तुक है! लाहौर और गुरदासपुर के बारे में भी अनुमान लगाए जा रहे थे कि कौन-सा शहर किस ओर जाएगा। मिल बैठने के ढंग में, गप-शप में, हँसी-मजाक में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। कुछ लोग अपने घर छोड़ कर जा रहे थे, जबकि अन्य लोग उनका मजाक उड़ा रहे थे। कोई नहीं जानता था कि कौन-सा कदम ठीक होगा और कौन-सा गलत। एक ओर पाकिस्तान बन जाने का जोश था तो दूसरी ओर हिंदुस्तान के आजाद हो जाने का जोश। जगह-जगह दंगे भी हो रहे थे, और योम-ए-आजादी की तैयारियाँ भी चल रही थीं। इस पूष्ठभूमि में लगता, देश आजाद हो जाने पर दंगे अपने-आप बंद हो जाएँगे। वातावरण में इस झुटपुट में आजादी की सुनहरी धूल-सी उड़ रही थी और साथ-ही-साथ अनिश्चय भी डोल रहा था, और इसी अनिश्चय की स्थिति में किसी-किसी वक्त भावी रिश्तों की रूपरेखा झलक दे जाती थी।
शायद जेहलम का स्टेशन पीछे छूट चुका था जब ऊपर वाली बर्थ पर बैठे पठान ने एक पोटली खोल ली और उसमें से उबला हुआ मांस और नान-रोटी के टुकड़े निकाल-निकाल कर अपने साथियों को देने लगा। फिर वह हँसी-मजाक के बीच मेरी बगल में बैठे बाबू की ओर भी नान का टुकड़ा और मांस की बोटी बढ़ा कर खाने का आग्रह करने लगा था – ‘का ले, बाबू, ताकत आएगी। अम जैसा ओ जाएगा। बीवी बी तेरे सात कुश रएगी। काले दालकोर, तू दाल काता ए, इसलिए दुबला ए…’
डिब्बे में लोग हँसने लगे थे। बाबू ने पश्तो में कुछ जवाब दिया और फिर मुस्कराता सिर हिलाता रहा।
इस पर दूसरे पठान ने हँस कर कहा – ‘ओ जालिम, अमारे हाथ से नई लेता ए तो अपने हाथ से उठा ले। खुदा कसम बकरे का गोश्त ए, और किसी चीज का नईए।’
ऊपर बैठा पठान चहक कर बोला – ‘ओ खंजीर के तुम, इदर तुमें कौन देखता ए? अम तेरी बीवी को नई बोलेगा। ओ तू अमारे साथ बोटी तोड़। अम तेरे साथ दाल पिएगा…’
इस पर कहकहा उठा, पर दुबला-पतला बाबू हँसता, सिर हिलाता रहा और कभी-कभी दो शब्द पश्तो में भी कह देता।
‘ओ कितना बुरा बात ए, अम खाता ए, और तू अमारा मुँ देखता ए…’ सभी पठान मगन थे।
‘यह इसलिए नहीं लेता कि तुमने हाथ नहीं धोए हैं,’ स्थूलकाय सरदार जी बोले और बोलते ही खी-खी करने लगे! अधलेटी मुद्रा में बैठे सरदार जी की आधी तोंद सीट के नीचे लटक रही थी – ‘तुम अभी सो कर उठे हो और उठते ही पोटली खोल कर खाने लग गए हो, इसीलिए बाबू जी तुम्हारे हाथ से नहीं लेते, और कोई बात नहीं।’ और सरदार जी ने मेरी ओर देख कर आँख मारी और फिर खी-खी करने लगे।
‘मांस नई खाता ए, बाबू तो जाओ जनाना डब्बे में बैटो, इदर क्या करता ए?’ फिर कहकहा उठा।
डब्बे में और भी अनेक मुसाफिर थे लेकिन पुराने मुसाफिर यही थे जो सफर शुरू होने में गाड़ी में बैठे थे। बाकी मुसाफिर उतरते-चढ़ते रहे थे। पुराने मुसाफिर होने के नाते उनमें एक तरह की बेतकल्लुफी आ गई थी।
‘ओ इदर आ कर बैठो। तुम अमारे साथ बैटो। आओ जालिम, किस्सा-खानी की बातें करेंगे।’
तभी किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी थी और नए मुसाफिरों का रेला अंदर आ गया था। बहुत-से मुसाफिर एक साथ अंदर घुसते चले आए थे।
‘कौन-सा स्टेशन है?’ किसी ने पूछा।
‘वजीराबाद है शायद,’ मैंने बाहर की ओर देख कर कहा।
गाड़ी वहाँ थोड़ी देर के लिए खड़ी रही। पर छूटने से पहले एक छोटी-सी घटना घटी। एक आदमी साथ वाले डिब्बे में से पानी लेने उतरा और नल पर जा कर पानी लोटे में भर रहा था तभी वह भाग कर अपने डिब्बे की ओर लौट आया। छलछलाते लोटे में से पानी गिर रहा था। लेकिन जिस ढंग से वह भागा था, उसी ने बहुत कुछ बता दिया था। नल पर खड़े और लोग भी, तीन-चार आदमी रहे होंगे – इधर-उधर अपने-अपने डिब्बे की ओर भाग गए थे। इस तरह घबरा कर भागते लोगों को मैं देख चुका था। देखते-ही-देखते प्लेटफार्म खाली हो गया। मगर डिब्बे के अंदर अभी भी हँसी-मजाक चल रहा था।
‘कहीं कोई गड़बड़ है,’ मेरे पास बैठे दुबले बाबू ने कहा।
कहीं कुछ था, लेकिन क्या था, कोई भी स्पष्ट नहीं जानता था। मैं अनेक दंगे देख चुका था इसलिए वातावरण में होने वाली छोटी-सी तबदील को भी भाँप गया था। भागते व्यक्ति, खटाक से बंद होते दरवाजे, घरों की छतों पर खड़े लोग, चुप्पी और सन्नाटा, सभी दंगों के चिह्न थे।
तभी पिछले दरवाजे की ओर से, जो प्लेटफार्म की ओर न खुल कर दूसरी ओर खुलता था, हल्का-सा शोर हुआ। कोई मुसाफिर अंदर घुसना चाह रहा था।
‘कहाँ घुसा आ रहा है, नहीं है जगह! बोल दिया जगह नहीं है,’ किसी ने कहा।
‘बंद करो जी दरवाजा। यों ही मुँह उठाए घुसे आते हैं।’ आवाजें आ रही थीं।
जितनी देर कोई मुसाफिर डिब्बे के बाहर खड़ा अंदर आने की चेष्टा करता रहे, अंदर बैठे मुसाफिर उसका विरोध करते रहते हैं। पर एक बार जैसे-तैसे वह अंदर जा जाए तो विरोध खत्म हो जाता है, और वह मुसाफिर जल्दी ही डिब्बे की दुनिया का निवासी बन जाता है, और अगले स्टेशन पर वही सबसे पहले बाहर खड़े मुसाफिरों पर चिल्लाने लगता है – नहीं है जगह, अगले डिब्बे में जाओ… घुसे आते हैं…
दरवाजे पर शोर बढ़ता जा रहा था। तभी मैले-कुचैले कपड़ों और लटकती मूँछों वाला एक आदमी दरवाजे में से अंदर घुसता दिखाई दिया। चीकट, मैले कपड़े, जरूर कहीं हलवाई की दुकान करता होगा। वह लोगों की शिकायतों-आवाजों की ओर ध्यान दिए बिना दरवाजे की ओर घूम कर बड़ा-सा काले रंग का संदूक अंदर की ओर घसीटने लगा।
‘आ जाओ, आ जाओ, तुम भी चढ़ जाओ! वह अपने पीछे किसी से कहे जा रहा था। तभी दरवाजे में एक पतली सूखी-सी औरत नजर आई और उससे पीछे सोलह-सतरह बरस की साँवली-सी एक लड़की अंदर आ गई। लोग अभी भी चिल्लाए जा रहे थे। सरदार जी को कूल्हों के बल उठ कर बैठना पड़ा।’
‘बंद करो जी दरवाजा, बिना पूछे चढ़े आते हैं, अपने बाप का घर समझ रखा है। मत घुसने दो जी, क्या करते हो, धकेल दो पीछे…’ और लोग भी चिल्ला रहे थे।
वह आदमी अपना सामान अंदर घसीटे जा रहा था और उसकी पत्नी और बेटी संडास के दरवाजे के साथ लग कर खड़े थे।
‘और कोई डिब्बा नहीं मिला? औरत जात को भी यहाँ उठा लाया है?’
वह आदमी पसीने से तर था और हाँफता हुआ सामान अंदर घसीटे जा रहा था। संदूक के बाद रस्सियों से बँधी खाट की पाटियाँ अंदर खींचने लगा।
‘टिकट है जी मेरे पास, मैं बेटिकट नहीं हूँ।’ इस पर डिब्बे में बैठे बहुत-से लोग चुप हो गए, पर बर्थ पर बैठा पठान उचक कर बोला – ‘निकल जाओ इदर से, देखता नई ए, इदर जगा नई ए।’
और पठान ने आव देखा न ताव, आगे बढ़ कर ऊपर से ही उस मुसाफिर के लात जमा दी, पर लात उस आदमी को लगने के बजाए उसकी पत्नी के कलेजे में लगी और वहीं ‘हाय-हाय’ करती बैठ गई।
उस आदमी के पास मुसाफिरों के साथ उलझने के लिए वक्त नहीं था। वह बराबर अपना सामान अंदर घसीटे जा रहा था। पर डिब्बे में मौन छा गया। खाट की पाटियों के बाद बड़ी-बड़ी गठरियाँ आईं। इस पर ऊपर बैठे पठान की सहन-क्षमता चुक गई। ‘निकालो इसे, कौन ए ये?’ वह चिल्लाया। इस पर दूसरे पठान ने, जो नीचे की सीट पर बैठा था, उस आदमी का संदूक दरवाजे में से नीचे धकेल दिया, जहाँ लाल वर्दीवाला एक कुली खड़ा सामान अंदर पहुँचा रहा था।
उसकी पत्नी के चोट लगने पर कुछ मुसाफिर चुप हो गए थे। केवल कोने में बैठो बुढ़िया करलाए जा रही थी – ‘ए नेकबख्तो, बैठने दो। आ जा बेटी, तू मेरे पास आ जा। जैसे-तैसे सफर काट लेंगे। छोड़ो बे जालिमो, बैठने दो।’
अभी आधा सामान ही अंदर आ पाया होगा जब सहसा गाड़ी सरकने लगी।
‘छूट गया! सामान छूट गया।’ वह आदमी बदहवास-सा हो कर चिल्लाया।
‘पिताजी, सामान छूट गया।’ संडास के दरवाजे के पास खड़ी लड़की सिर से पाँव तक काँप रही थी और चिल्लाए जा रही थी।
‘उतरो, नीचे उतरो,’ वह आदमी हड़बड़ा कर चिल्लाया और आगे बढ़ कर खाट की पाटियाँ और गठरियाँ बाहर फेंकते हुए दरवाजे का डंडहरा पकड़ कर नीचे उतर गया। उसके पीछे उसकी व्याकुल बेटी और फिर उसकी पत्नी, कलेजे को दोनों हाथों से दबाए हाय-हाय करती नीचे उतर गई।
‘बहुत बुरा किया है तुम लोगों ने, बहुत बुरा किया है।’ बुढ़िया ऊँचा-ऊँचा बोल रही थी -‘तुम्हारे दिल में दर्द मर गया है। छोटी-सी बच्ची उसके साथ थी। बेरहमो, तुमने बहुत बुरा किया है, धक्के दे कर उतार दिया है।’
गाड़ी सूने प्लेटफार्म को लाँघती आगे बढ़ गई। डिब्बे में व्याकुल-सी चुप्पी छा गई। बुढ़िया ने बोलना बंद कर दिया था। पठानों का विरोध कर पाने की हिम्मत नहीं हुई।
तभी मेरी बगल में बैठे दुबले बाबू ने मेरे बाजू पर हाथ रख कर कहा – ‘आग है, देखो आग लगी है।’
गाड़ी प्लेटफार्म छोड़ कर आगे निकल आई थी और शहर पीछे छूट रहा था। तभी शहर की ओर से उठते धुएँ के बादल और उनमें लपलपाती आग के शोले नजर आने लगे।
‘दंगा हुआ है। स्टेशन पर भी लोग भाग रहे थे। कहीं दंगा हुआ है।’
शहर में आग लगी थी। बात डिब्बे-भर के मुसाफिरों को पता चल गई और वे लपक-लपक कर खिड़कियों में से आग का दृश्य देखने लगे।
जब गाड़ी शहर छोड़ कर आगे बढ़ गई तो डिब्बे में सन्नाटा छा गया। मैंने घूम कर डिब्बे के अंदर देखा, दुबले बाबू का चेहरा पीला पड़ गया था और माथे पर पसीने की परत किसी मुर्दे के माथे की तरह चमक रही थी। मुझे लगा, जैसे अपनी-अपनी जगह बैठे सभी मुसाफिरों ने अपने आसपास बैठे लोगों का जायजा ले लिया है। सरदार जी उठ कर मेरी सीट पर आ बैठे। नीचे वाली सीट पर बैठा पठान उठा और अपने दो साथी पठानों के साथ ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गया। यही क्रिया शायद रेलगाड़ी के अन्य डिब्बों में भी चल रही थी। डिब्बे में तनाव आ गया। लोगों ने बतियाना बंद कर दिया। तीनों-के-तीनों पठान ऊपरवाली बर्थ पर एक साथ बैठे चुपचाप नीचे की ओर देखे जा रहे थे। सभी मुसाफिरों की आँखें पहले से ज्यादा खुली-खुली, ज्यादा शंकित-सी लगीं। यही स्थिति संभवत: गाड़ी के सभी डिब्बों में व्याप्त हो रही थी।
‘कौन-सा स्टेशन था यह?’ डिब्बे में किसी ने पूछा।
‘वजीराबाद,’ किसी ने उत्तर दिया।
जवाब मिलने पर डिब्बे में एक और प्रतिक्रिया हुई। पठानों के मन का तनाव फौरन ढीला पड़ गया। जबकि हिंदू-सिक्ख मुसाफिरों की चुप्पी और ज्यादा गहरी हो गई। एक पठान ने अपनी वास्कट की जेब में से नसवार की डिबिया निकाली और नाक में नसवार चढ़ाने लगा। अन्य पठान भी अपनी-अपनी डिबिया निकाल कर नसवार चढ़ाने लगे। बुढ़िया बराबर माला जपे जा रही थी। किसी-किसी वक्त उसके बुदबुदाते होंठ नजर आते, लगता, उनमें से कोई खोखली-सी आवाज निकल रही है।
अगले स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो वहाँ भी सन्नाटा था। कोई परिंदा तक नहीं फड़क रहा था। हाँ, एक भिश्ती, पीठ पर पानी की मशकल लादे, प्लेटफार्म लाँघ कर आया और मुसाफिरों को पानी पिलाने लगा।
‘लो, पियो पानी, पियो पानी।’ औरतों के डिब्बे में से औरतों और बच्चों के अनेक हाथ बाहर निकल आए थे।
‘बहुत मार-काट हुई है, बहुत लोग मरे हैं। लगता था, वह इस मार-काट में अकेला पुण्य कमाने चला आया है।’
गाड़ी सरकी तो सहसा खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे। दूर-दूर तक, पहियों की गड़गड़ाहट के साथ, खिड़कियों के पल्ले चढ़ाने की आवाज आने लगी।
किसी अज्ञात आशंकावश दुबला बाबू मेरे पासवाली सीट पर से उठा और दो सीटों के बीच फर्श पर लेट गया। उसका चेहरा अभी भी मुर्दे जैसा पीला हो रहा था। इस पर बर्थ पर बैठा पठान उसकी ठिठोली करने लगा – ‘ओ बेंगैरत, तुम मर्द ए कि औरत ए? सीट पर से उट कर नीचे लेटता ए। तुम मर्द के नाम को बदनाम करता ए।’ वह बोल रहा था और बार-बार हँसे जा रहा था। फिर वह उससे पश्तो में कुछ कहने लगा। बाबू चुप बना लेटा रहा। अन्य सभी मुसाफिर चुप थे। डिब्बे का वातावरण बोझिल बना हुआ था।
‘ऐसे आदमी को अम डिब्बे में नईं बैठने देगा। ओ बाबू, अगले स्टेशन पर उतर जाओ, और जनाना डब्बे में बैटो।’
मगर बाबू की हाजिरजवाबी अपने कंठ में सूख चली थी। हकला कर चुप हो रहा। पर थोड़ी देर बाद वह अपने आप उठ कर सीट पर जा बैठा और देर तक अपने कपड़ों की धूल झाड़ता रहा। वह क्यों उठ कर फर्श पर लेट गया था? शायद उसे डर था कि बाहर से गाड़ी पर पथराव होगा या गोली चलेगी, शायद इसी कारण खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जा रहे थे।
कुछ भी कहना कठिन था। मुमकिन है किसी एक मुसाफिर ने किसी कारण से खिड़की का पल्ला चढ़ाया हो। उसकी देखा-देखी, बिना सोचे-समझे, धड़ाधड़ खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे थे।
बोझिल अनिश्चत-से वातावरण में सफर कटने लगा। रात गहराने लगी थी। डिब्बे के मुसाफिर स्तब्ध और शंकित ज्यों-के-त्यों बैठे थे। कभी गाड़ी की रफ्तार सहसा टूट कर धीमी पड़ जाती तो लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगते। कभी रास्ते में ही रुक जाती तो डिब्बे के अंदर का सन्नाटा और भी गहरा हो उठता। केवल पठान निश्चित बैठे थे। हाँ, उन्होंने भी बतियाना छोड़ दिया था, क्योंकि उनकी बातचीत में कोई भी शामिल होने वाला नहीं था।
धीरे-धीरे पठान ऊँघने लगे जबकि अन्य मुसाफिर फटी-फटी आँखों से शून्य में देखे जा रहे थे। बुढ़िया मुँह-सिर लपेटे, टाँगें सीट पर चढ़ाए, बैठा-बैठा सो गई थी। ऊपरवाली बर्थ पर एक पठान ने, अधलेटे ही, कुर्ते की जेब में से काले मनकों की तसबीह निकाल ली और उसे धीरे-धीरे हाथ में चलाने लगा।
खिड़की के बाहर आकाश में चाँद निकल आया और चाँदनी में बाहर की दुनिया और भी अनिश्चित, और भी अधिक रहस्यमयी हो उठी। किसी-किसी वक्त दूर किसी ओर आग के शोले उठते नजर आते, कोई नगर जल रहा था। गाड़ी किसी वक्त चिंघाड़ती हुई आगे बढ़ने लगती, फिर किसी वक्त उसकी रफ्तार धीमी पड़ जाती और मीलों तक धीमी रफ्तार से ही चलती रहती।
सहसा दुबला बाबू खिड़की में से बाहर देख कर ऊँची आवाज में बोला – ‘हरबंसपुरा निकल गया है।’ उसकी आवाज में उत्तेजना थी, वह जैसे चीख कर बोला था। डिब्बे के सभी लोग उसकी आवाज सुन कर चौंक गए। उसी वक्त डिब्बे के अधिकांश मुसाफिरों ने मानो उसकी आवाज को ही सुन कर करवट बदली।
‘ओ बाबू, चिल्लाता क्यों ए?’, तसबीह वाला पठान चौंक कर बोला – ‘इदर उतरेगा तुम? जंजीर खींचूँ?’ अैर खी-खी करके हँस दिया। जाहिर है वह हरबंसपुरा की स्थिति से अथवा उसके नाम से अनभिज्ञ था।
बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल सिर हिला दिया और एक-आध बार पठान की ओर देख कर फिर खिड़की के बाहर झाँकने लगा।
डब्बे में फिर मौन छा गया। तभी इंजन ने सीटी दी और उसकी एकरस रफ्तार टूट गई। थोड़ी ही देर बाद खटाक-का-सा शब्द भी हुआ। शायद गाड़ी ने लाइन बदली थी। बाबू ने झाँक कर उस दिशा में देखा जिस ओर गाड़ी बढ़ी जा रही थी।
‘शहर आ गया है।’ वह फिर ऊँची आवाज में चिल्लाया – ‘अमृतसर आ गया है।’ उसने फिर से कहा और उछल कर खड़ा हो गया, और ऊपर वाली बर्थ पर लेटे पठान को संबोधित करके चिल्लाया – ‘ओ बे पठान के बच्चे! नीचे उतर तेरी माँ की… नीचे उतर, तेरी उस पठान बनानेवाले की मैं…’
बाबू चिल्लाने लगा और चीख-चीख कर गालियाँ बकने लगा था। तसबीह वाले पठान ने करवट बदली और बाबू की ओर देख कर बोला -‘ओ क्या ए बाबू? अमको कुच बोला?’
बाबू को उत्तेजित देख कर अन्य मुसाफिर भी उठ बैठे।
‘नीचे उतर, तेरी मैं… हिंदू औरत को लात मारता है! हरामजादे! तेरी उस…।’
‘ओ बाबू, बक-बकर नई करो। ओ खजीर के तुख्म, गाली मत बको, अमने बोल दिया। अम तुम्हारा जबान खींच लेगा।’
‘गाली देता है मादर…।’ बाबू चिल्लाया और उछल कर सीट पर चढ़ गया। वह सिर से पाँव तक काँप रहा था।
‘बस-बस।’ सरदार जी बोले – ‘यह लड़ने की जगह नहीं है। थोड़ी देर का सफर बाकी है, आराम से बैठो।’
‘तेरी मैं लात न तोड़ूँ तो कहना, गाड़ी तेरे बाप की है?’ बाबू चिल्लाया।
‘ओ अमने क्या बोला! सबी लोग उसको निकालता था, अमने बी निकाला। ये इदर अमको गाली देता ए। अम इसका जबान खींच लेगा।’
बुढ़िया बीच में फिर बोले उठी – ‘वे जीण जोगयो, अराम नाल बैठो। वे रब्ब दिए बंदयो, कुछ होश करो।’
उसके होंठ किसी प्रेत की तरह फड़फड़ाए जा रहे थे और उनमें से क्षीण-सी फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी।
बाबू चिल्लाए जा रहा था – ‘अपने घर में शेर बनता था। अब बोल, तेरी मैं उस पठान बनानेवाले की…।’
तभी गाड़ी अमृतसर के प्लेटफार्म पर रुकी। प्लेटफार्म लोगों से खचाखच भरा था। प्लेटफार्म पर खड़े लोग झाँक-झाँक कर डिब्बों के अंदर देखने लगे। बार-बार लोग एक ही सवाल पूछ रहे थे – ‘पीछे क्या हुआ है? कहाँ पर दंगा हुआ है?’
खचाखच भरे प्लेटफार्म पर शायद इसी बात की चर्चा चल रही थी कि पीछे क्या हुआ है। प्लेटफार्म पर खड़े दो-तीन खोमचे वालों पर मुसाफिर टूटे पड़ रहे थे। सभी को सहसा भूख और प्यास परेशान करने लगी थी। इसी दौरान तीन-चार पठान हमारे डिब्बे के बाहर प्रकट हो गए और खिड़की में से झाँक-झाँक कर अंदर देखने लगे। अपने पठान साथियों पर नजर पड़ते ही वे उनसे पश्तो में कुछ बोलने लगे। मैंने घूम कर देखा, बाबू डिब्बे में नहीं था। न जाने कब वह डिब्बे में से निकल गया था। मेरा माथा ठिनका। गुस्से में वह पागल हुआ जा रहा था। न जाने क्या कर बैठे! पर इस बीच डिब्बे के तीनों पठान, अपनी-अपनी गठरी उठा कर बाहर निकल गए और अपने पठान साथियों के साथ गाड़ी के अगले डिब्बे की ओर बढ़ गए। जो विभाजन पहले प्रत्येक डिब्बे के भीतर होता रहा था, अब सारी गाड़ी के स्तर पर होने लगा था।
खोमचेवालों के इर्द-गिर्द भीड़ छँटने लगी। लोग अपने-अपने डिब्बों में लौटने लगे। तभी सहसा एक ओर से मुझे वह बाबू आता दिखाई दिया। उसका चेहरा अभी भी बहुत पीला था और माथे पर बालों की लट झूल रही थी। नजदीक पहुँचा, तो मैंने देखा, उसने अपने दाएँ हाथ में लोहे की एक छड़ उठा रखी थी। जाने वह उसे कहाँ मिल गई थी! डिब्बे में घुसते समय उसने छड़ को अपनी पीठ के पीछे कर लिया और मेरे साथ वाली सीट पर बैठने से पहले उसने हौले से छड़ को सीट के नीचे सरका दिया। सीट पर बैठते ही उसकी आँखें पठान को देख पाने के लिए ऊपर को उठीं। पर डिब्बे में पठानों को न पा कर वह हड़बड़ा कर चारों ओर देखने लगा।
‘निकल गए हरामी, मादर… सब-के-सब निकल गए!’ फिर वह सिटपिटा कर उठ खड़ा हुआ चिल्ला कर बोला – ‘तुमने उन्हें जाने क्यों दिया? तुम सब नामर्द हो, बुजदिल!’
पर गाड़ी में भीड़ बहुत थी। बहुत-से नए मुसाफिर आ गए थे। किसी ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।
गाड़ी सरकने लगी तो वह फिर मेरी वाली सीट पर आ बैठा, पर वह बड़ा उत्तेजित था और बराबर बड़बड़ाए जा रहा था।
धीरे-धीरे हिचकोले खाती गाड़ी आगे बढ़ने लगी। डिब्बे में पुराने मुसाफिरों ने भरपेट पूरियाँ खा ली थीं और पानी पी लिया था और गाड़ी उस इलाके में आगे बढ़ने लगी थी, जहाँ उनके जान-माल को खतरा नहीं था।
नए मुसाफिर बतिया रहे थे। धीरे-धीरे गाड़ी फिर समतल गति से चलने लगी थी। कुछ ही देर बाद लोग ऊँघने भी लगे थे। मगर बाबू अभी भी फटी-फटी आँखों से सामने की ओर देखे जा रहा था। बार-बार मुझसे पूछता कि पठान डिब्बे में से निकल कर किस ओर को गए हैं। उसके सिर पर जुनून सवार था।
गाड़ी के हिचकोलों में मैं खुद ऊँघने लगा था। डिब्बे में लेट पाने के लिए जगह नहीं थी। बैठे-बैठे ही नींद में मेरा सिर कभी एक ओर को लुढ़क जाता, कभी दूसरी ओर को। किसी-किसी वक्त झटके से मेरी नींद टूटती, और मुझे सामने की सीट पर अस्त-व्यस्त से पड़े सरदार जी के खर्राटे सुनाई देते। अमृतसर पहुँचने के बाद सरदार जी फिर से सामनेवाली सीट पर टाँगे पसार कर लेट गए थे। डिब्बे में तरह-तरह की आड़ी-तिरछी मुद्राओं में मुसाफिर पड़े थे। उनकी बीभत्स मुद्राओं को देख कर लगता, डिब्बा लाशों से भरा है। पास बैठे बाबू पर नजर पड़ती तो कभी तो वह खिड़की के बाहर मुँह किए देख रहा होता, कभी दीवार से पीठ लगाए तन कर बैठा नजर आता।
किसी-किसी वक्त गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकती तो पहियों की गड़गड़ाहट बंद होने पर निस्तब्धता-सी छा जाती। तभी लगता, जैसे प्लेटफार्म पर कुछ गिरा है, या जैसे कोई मुसाफिर गाड़ी में से उतरा है और मैं झटके से उठ कर बैठ जाता।
इसी तरह जब एक बार मेरी नींद टूटी तो गाड़ी की रफ्तार धीमी पड़ गई थी, और डिब्बे में अँधेरा था। मैंने उसी तरह अधलेटे खिड़की में से बाहर देखा। दूर, पीछे की ओर किसी स्टेशन के सिगनल के लाल कुमकुमे चमक रहे थे। स्पष्टत: गाड़ी कोई स्टेशन लाँघ कर आई थी। पर अभी तक उसने रफ्तार नहीं पकड़ी थी।
डिब्बे के बाहर मुझे धीमे-से अस्फुट स्वर सुनाई दिए। दूर ही एक धूमिल-सा काला पुंज नजर आया। नींद की खुमारी में मेरी आँखें कुछ देर तक उस पर लगी रहीं, फिर मैंने उसे समझ पाने का विचार छोड़ दिया। डिब्बे के अंदर अँधेरा था, बत्तियाँ बुझी हुई थीं, लेकिन बाहर लगता था, पौ फटने वाली है।
मेरी पीठ-पीछे, डिब्बे के बाहर किसी चीज को खरोंचने की-सी आवाज आई। मैंने दरवाजे की ओर घूम कर देखा। डिब्बे का दरवाजा बंद था। मुझे फिर से दरवाजा खरोंचने की आवाज सुनाई दी। फिर, मैंने साफ-साफ सुना, लाठी से कोई डिब्बे का दरवाजा पटपटा रहा था। मैंने झाँक कर खिड़की के बाहर देखा। सचमुच एक आदमी डिब्बे की दो सीढ़ियाँ चढ़ आया था। उसके कंधे पर एक गठरी झूल रही थी, और हाथ में लाठी थी और उसने बदरंग-से कपड़े पहन रखे थे और उसके दाढ़ी भी थी। फिर मेरी नजर बाहर नीचे की ओर आ गई। गाड़ी के साथ-साथ एक औरत भागती चली आ रही थी, नंगे पाँव, और उसने दो गठरियाँ उठा रखी थीं। बोझ के कारण उससे दौड़ा नहीं जा रहा था। डिब्बे के पायदान पर खड़ा आदमी बार-बार उसकी ओर मुड़ कर देख रहा था और हाँफता हुआ कहे जा रहा था – ‘आ जा, आ जा, तू भी चढ़ आ, आ जा!’
दरवाजे पर फिर से लाठी पटपटाने की आवाज आई – ‘खोलो जी दरवाजा, खुदा के वास्ते दरवाजा खोलो।’
वह आदमी हाँफ रहा था – ‘खुदा के लिए दरवाजा खोलो। मेरे साथ में औरतजात
सहसा मैंने देखा, बाबू हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ और दरवाजे के पास जा कर दरवाजे में लगी खिड़की में से मुँह बाहर निकाल कर बोला – ‘कौन है? इधर जगह नहीं है।’
बाहर खड़ा आदमी फिर गिड़गिड़ाने लगा – ‘खुदा के वास्ते दरवाजा खोलो। गाड़ी निकल जाएगी…’
और वह आदमी खिड़की में से अपना हाथ अंदर डाल कर दरवाजा खोल पाने के लिए सिटकनी टटोलने लगा।
‘नहीं है जगह, बोल दिया, उतर जाओ गाड़ी पर से।’ बाबू चिल्लाया और उसी क्षण लपक कर दरवाजा खोल दिया।
‘या अल्लाह! उस आदमी के अस्फुट-से शब्द सुनाई दिए। दरवाजा खुलने पर जैसे उसने इत्मीनान की साँस ली हो।’
और उसी वक्त मैंने बाबू के हाथ में छड़ चमकते देखा। एक ही भरपूर वार बाबू ने उस मुसाफिर के सिर पर किया था। मैं देखते ही डर गया और मेरी टाँगें लरज गईं। मुझे लगा, जैसे छड़ के वार का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ। उसके दोनों हाथ अभी भी जोर से डंडहरे को पकड़े हुए थे। कंधे पर से लटकती गठरी खिसट कर उसकी कोहनी पर आ गई थी।
तभी सहसा उसके चेहरे पर लहू की दो-तीन धारें एक साथ फूट पड़ीं। मुझे उसके खुले होंठ और चमकते दाँत नजर आए। वह दो-एक बार ‘या अल्लाह!’ बुदबुदाया, फिर उसके पैर लड़खड़ा गए। उसकी आँखों ने बाबू की ओर देखा, अधमुँदी-सी आँखें, जो धीर-धीरे सिकुड़ती जा रही थीं, मानो उसे पहचानने की कोशिश कर रही हों कि वह कौन है और उससे किस अदावत का बदला ले रहा है। इस बीच अँधेरा कुछ और छन गया था। उसके होंठ फिर से फड़फड़ाए और उनमें सफेद दाँत फिर से झलक उठे। मुझे लगा, जैसे वह मुस्कराया है, पर वास्तव में केवल क्षय के ही कारण होंठों में बल पड़ने लगे थे।
नीचे पटरी के साथ-साथ भागती औरत बड़बड़ाए और कोसे जा रही थी। उसे अभी भी मालूम नहीं हो पाया था कि क्या हुआ है। वह अभी भी शायद यह समझ रही थी कि गठरी के कारण उसका पति गाड़ी पर ठीक तरह से चढ़ नहीं पा रहा है, कि उसका पैर जम नहीं पा रहा है। वह गाड़ी के साथ-साथ भागती हुई, अपनी दो गठरियों के बावजूद अपने पति के पैर पकड़-पकड़ कर सीढ़ी पर टिकाने की कोशिश कर रही थी।
तभी सहसा डंडहरे से उस आदमी के दोनों हाथ छूट गए और वह कटे पेड़ की भाँति नीचे जा गिरा। और उसके गिरते ही औरत ने भागना बंद कर दिया, मानो दोनों का सफर एक साथ ही खत्म हो गया हो।
बाबू अभी भी मेरे निकट, डिब्बे के खुले दरवाजे में बुत-का-बुत बना खड़ा था, लोहे की छड़ अभी भी उसके हाथ में थी। मुझे लगा, जैसे वह छड़ को फेंक देना चाहता है लेकिन उसे फेंक नहीं पा रहा, उसका हाथ जैसे उठ नहीं रहा था। मेरी साँस अभी भी फूली हुई थी और डिब्बे के अँधियारे कोने में मैं खिड़की के साथ सट कर बैठा उसकी ओर देखे जा रहा था।
फिर वह आदमी खड़े-खड़े हिला। किसी अज्ञात प्रेरणावश वह एक कदम आगे बढ़ आया और दरवाजे में से बाहर पीछे की ओर देखने लगा। गाड़ी आगे निकलती जा रही थी। दूर, पटरी के किनारे अँधियारा पुंज-सा नजर आ रहा था।
बाबू का शरीर हरकत में आया। एक झटके में उसने छड़ को डिब्बे के बाहर फेंक दिया। फिर घूम कर डिब्बे के अंदर दाएँ-बाएँ देखने लगा। सभी मुसाफिर सोए पड़े थे। मेरी ओर उसकी नजर नहीं उठी।
थोड़ी देर तक वह खड़ा डोलता रहा, फिर उसने घूम कर दरवाजा बंद कर दिया। उसने ध्यान से अपने कपड़ों की ओर देखा, अपने दोनों हाथों की ओर देखा, फिर एक-एक करके अपने दोनों हाथों को नाक के पास ले जा कर उन्हें सूँघा, मानो जानना चाहता हो कि उसके हाथों से खून की बू तो नहीं आ रही है। फिर वह दबे पाँव चलता हुआ आया और मेरी बगलवाली सीट पर बैठ गया।
धीरे-धीरे झुटपुटा छँटने लगा, दिन खुलने लगा। साफ-सुथरी-सी रोशनी चारों ओर फैलने लगी। किसी ने जंजीर खींच कर गाड़ी को खड़ा नहीं किया था, छड़ खा कर गिरी उसकी देह मीलों पीछे छूट चुकी थी। सामने गेहूँ के खेतों में फिर से हल्की-हल्की लहरियाँ उठने लगी थीं।
सरदार जी बदन खुजलाते उठ बैठे। मेरी बगल में बैठा बाबू दोनों हाथ सिर के पीछे रखे सामने की ओर देखे जा रहा था। रात-भर में उसके चेहरे पर दाढ़ी के छोटे-छोटे बाल उग आए थे। अपने सामने बैठा देख कर सरदार उसके साथ बतियाने लगा – ‘बड़े जीवट वाले हो बाबू, दुबले-पतले हो, पर बड़े गुर्दे वाले हो। बड़ी हिम्मत दिखाई है। तुमसे डर कर ही वे पठान डिब्बे में से निकल गए। यहाँ बने रहते तो एक-न-एक की खोपड़ी तुम जरूर दुरुस्त कर देते…’ और सरदार जी हँसने लगे।
बाबू जवाब में मुसकराया – एक वीभत्स-सी मुस्कान, और देर तक सरदार जी के चेहरे की ओर देखता रहा।

चीलें 
चील ने फिर से झपट्टा मारा है। ऊपर, आकाश में मण्डरा रही थी जब सहसा, अर्धवृत्त बनाती हुई तेजी से नीचे उतरी और एक ही झपट्टे में, मांस के लोथड़े क़ो पंजों में दबोच कर फिर से वैसा ही अर्द्ववृत्त बनाती हुई ऊपर चली गई। वह कब्रगाह के ऊंचे मुनारे पर जा बैठी है और अपनी पीली चोंच, मांस के लोथडे में बार-बार गाड़ने लगी है।
कब्रगाह के इर्द-गिर्द दूर तक फैले पार्क में हल्की हल्की धुंध फैली है। वायुमण्डल में अनिश्चय सा डोल रहा है। पुरानी कब्रगाह के खंडहर जगह-जगह बिखरे पडे़ हैं। इस धुंधलके में उसका गोल गुंबद और भी ज्यादा वृहदाकार नजर आता है। यह मकबरा किसका है, मैं जानते हुए भी बार-बार भूल जाता हूँ। वातावरण में फैली धुंध के बावजूद, इस गुम्बद का साया घास के पूरे मैदान को ढके हुए है जहाँ मैं बैठा हूँ जिससे वायुमण्डल में सूनापन और भी ज्यादा बढ ग़या है, और मैं और भी ज्यादा अकेला महसूस करने लगा हूँ।
चील मुनारे पर से उड़ कर फिर से आकाश में मंडराने लगी है, फिर से न जाने किस शिकार पर निकली है। अपनी चोंच नीची किए, अपनी पैनी आँखें धरती पर लगाए, फिर से चक्कर काटने लगी है, मुझे लगने लगा है जैसे उसके डैने लम्बे होते जा रहे हैं और उसका आकार किसी भयावह जंतु के आकार की भांति फूलता जा रहा है। न जाने वह अपना निशाना बांधती हुई कब उतरे, कहाँ उतरे। उसे देखते हुए मैं त्रस्त सा महसूस करने लगा हूँ।
किसी जानकार ने एक बार मुझसे कहा था कि हम आकाश में मंडराती चीलों को तो देख सकते हैं पर इन्हीं की भांति वायुमण्डल में मंडराती उन अदृश्य ‘चीलों’ को नहीं देख सकते जो वैसे ही नीचे उतर कर झपट्टा मारती हैं और एक ही झपट्टे में इन्सान को लहु-लुहान करके या तो वहीं फेंक जाती हैं, या उसके जीवन की दिशा मोड़ देती हैं। उसने यह भी कहा था कि जहाँ चील की आँखें अपने लक्ष्य को देख कर वार करती हैं, वहाँ वे अदृश्य चीलें अंधी होती हैं, और अंधाधुंध हमला करती हैं। उन्हें झपट्टा मारते हम देख नहीं पाते और हमें लगने लगता है कि जो कुछ भी हुआ है, उसमें हम स्वयं कहीं दोषी रहे होंगे। हम जो हर घटना को कारण की कसौटी पर परखते रहे हैं, हम समझने लगते हैं कि अपने सर्वनाश में हम स्वयं कहीं जिम्मेदार रहे होंगे। उसकी बातें सुनते हुए मैं और भी ज्यादा विचलित महसूस करने लगा था।
उसने कहा था, ‘जिस दिन मेरी पत्नी का देहान्त हुआ, मैं अपने मित्रों के साथ, बगल वाले कमरे में बैठा बतिया रहा था। मैं समझे बैठा था कि वह अंदर सो रही है। मैं एक बार उसे बुलाने भी गया था कि आओ, बाहर आकर हमारे पास बैठो। मुझे क्या मालूम था कि मुझसे पहले ही कोई अदृश्य जंतु अन्दर घुस आया है और उसने मेरी पत्नी को अपनी जकड़ में ले रखा है। हम सारा वक्त इन अदृश्य जंतुओं में घिरे रहते है।’
अरे, यह क्या! शोभा? शोभा पार्क में आई है! हाँ, हाँ, शोभा ही तो है। झाड़ियों के बीचों-बीच वह धीरे-धीरे एक ओर बढ़ती आ रही है। वह कब यहाँ आई है और किस ओर से इसका मुझे पता ही नहीं चला।
मेरे अन्दर ज्वार सा उठा। मैं बहुत दिन बाद उसे देख रहा था।
शोभा दुबली हो गई है, तनिक झुक कर चलने लगी है, पर उसकी चाल में अभी भी पहले सी कमनीयता है, वही धीमी चाल, वही बांकापन, जिसमें उसके समूचे व्यक्तित्व की छवि झलकती है। धीरे-धीरे चलती हुई वह घास का मैदान लांघ रही है। आज भी बालों में लाल रंग का फूल ढंके हुए है।
शोभा, अब भी तुम्हारे होंठों पर वही स्निग्ध सी मुस्कान खेल रही होगी जिसे देखते मैं थकता नहीं था, होंठों के कोनों में दबी-सिमटी मुस्कान। ऐसी मुस्कान तो तभी होंठों पर खेल सकती है जब तुम्हारे मन में किन्हीं अलौकिक भावनाओं के फूल खिल रहे हों।
मन चाहा, भाग कर तुम्हारे पास पहुँच जाऊँ और पूछूं, शोभा, अब तुम कैसी हो?
बीते दिन क्यों कभी लौट कर नहीं आते? पूरा कालखण्ड न भी आए, एक दिन ही आ जाए, एक घड़ी ही, जब मैं तुम्हें अपने निकट पा सकूँ, तुम्हारे समूचे व्यक्तित्व की महक से सराबोर हो सकूँ।
मैं उठ खड़ा हुआ और उसकी ओर जाने लगा। मैं झाड़ियों, पेड़ों के बीच छिप कर आगे बढूंगा ताकि उसकी नजर मुझ पर न पडे़। मुझे डर था कि यदि उसने मुझे देख लिया तो वह जैसे-तैसे कदम बढ़ाती, लम्बे-लम्बे डग भरती पार्क से बाहर निकल जाएगी।
जीवन की यह विडम्बना ही है कि जहाँ स्त्री से बढ़ कर कोई जीव कोमल नहीं होता, वहाँ स्त्री से बढ़कर कोई जीव निष्ठुर भी नहीं होता। मैं कभी-कभी हमारे सम्बन्धों को लेकर क्षुब्ध भी हो उठता हूँ। कई बार तुम्हारी ओर से मेरे आत्म-सम्मान को धक्का लग चुका है।
हमारे विवाह के कुछ ही समय बाद तुम मुझे इस बात का अहसास कराने लगी थी यह विवाह तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हुआ है और तुम्हारी ओर से हमारे आपसी सम्बन्धों में एक प्रकार का ठण्डापन आने लगा था। पर मैं उन दिनों तुम पर निछावर था, मतवाला बना घूमता था। हमारे बीच किसी बात को लेकर मनमुटाव हो जाता, और तुम रूठ जाती, तो मैं तुम्हें मनाने की भरसक चेष्ठा किया करता, तुम्हें हँसाने की। अपने दोनों कान पकड़ लेता, ‘कहो तो दण्डवत लेटकर जमीन पर नाक से लकीरें भी खींच दूँ, जीभ निकाल कर बार-बार सिर हिलाऊं?’ और तुम, पहले तो मुँह फुलाए मेरी ओर देखती रहती, फिर सहसा खिलखिला कर हँसने लगती, बिल्कुल बच्चों की तरह जैसे तुम हँसा करती थी और कहती, ‘चलो, माफ कर दिया।’
और मैं तुम्हें बाहों में भर लेता था। मैं तुम्हारी टुनटुनाती आवाज सुनते नहीं थकता था, मेरी आँखें तुम्हारे चेहरे पर तुम्हारी खिली पेशानी पर लगी रहती और मैं तुम्हारे मन के भाव पढ़ता रहता।
स्त्री-पुरूष सम्बन्धों में कुछ भी तो स्पष्ट नहीं होता, कुछ भी तो तर्क-संगत नहीं होता। भावनाओं के संसार के अपने नियम हैं, या शायद कोई भी नियम नहीं।
हमारे बीच सम्बन्धों की खाई चौड़ी होती गई, फैलती गई। तुम अक्सर कहने लगी थी, ‘मुझे इस शादी में क्या मिला?’ और मैं जवाब में तुनक कर कहता, ‘मैंने कौन से ऐसे अपराध किए हैं कि तुम सारा वक्त मुँह फुलाए रहो और मैं सारा वक्त तुम्हारी दिलजोई करता रहूँ? अगर एक साथ रहना तुम्हें फल नहीं रहा था तो पहले ही मुझे छोड़ जाती। तुम मुझे क्यों नहीं छोड़ कर चली गई? तब न तो हर आये दिन तुम्हें उलाहनें देने पड़ते और न ही मुझे सुनने पड़ते। अगर गृहस्थी में तुम मेरे साथ घिसटती रही हो, तो इसका दोषी मैं नहीं हूँ, स्वयं तुम हो। तुम्हारी बेरूखी मुझे सालती रहती है, फिर भी अपनी जगह अपने को पीड़ित दुखियारी समझती रहती हो।’
मन हुआ, मैं उसके पीछे न जाऊँ। लौट आऊँ, और बेंच पर बैठ कर अपने मन को शांत करूँ। कैसी मेरी मन:स्थिति बन गई है। अपने को कोसता हूँ तो भी व्याकुल, और जो तुम्हें कोसता हूँ तो भी व्याकुल। मेरा सांस फूल रहा था, फिर भी मैं तुम्हारी ओर देखता खड़ा रहा।
सारा वक्त तुम्हारा मुँह ताकते रहना, सारा वक्त लीपा-पोती करते रहना, अपने को हर बात के लिए दोषी ठहराते रहना, मेरी बहुत बड़ी भूल थी।
पटरी पर से उतर जाने के बाद हमारा गृहस्थ जीवन घिसटने लगा था। पर जहाँ शिकवे-शिकायत, खीझ, खिंचाव, असहिष्णुता, नुकीले कंकड़-पत्थरों की तरह हमारी भावनाओं को छीलने-काटने लगे थे, वहीं कभी-कभी विवाहित जीवन के आरम्भिक दिनों जैसी सहज-सद्भावना भी हर-हराते सागर के बीच किसी झिलमिलाते द्वीप की भांति हमारे जीवन में सुख के कुछ क्षण भी भर देती। पर कुल मिलाकर हमारे आपसी सम्बन्धों में ठण्डापन आ गया था। तुम्हारी मुस्कान अपना जादू खो बैठी थी, तुम्हारी खुली पेशानी कभी-कभी संकरी लगने लगी थी, और जिस तरह बात सुनते हुए तुम सामने की ओर देखती रहती, लगता तुम्हारे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा है। नाक-नक्श वही थे, अदाएँ भी वही थीं, पर उनका जादू गायब हो गया था। जब शोभा आँखें मिचमिचाती है- मैं मन ही मन कहता- तू बड़ी मूर्ख लगती है।
मैंने फिर से नजर उठा कर देखा। शोभा नजर नहीं आई। क्या वह फिर से पेड़ों-झाड़ियों के बीच आँखों से ओझल हो गई है? देर तक उस ओर देखते रहने पर भी जब वह नजर नहीं आई, तो मैं उठ खड़ा हुआ। मुझे लगा जैसे वह वहाँ पर नहीं है। मुझे झटका सा लगा। क्या मैं सपना तो नहीं देख रहा था? क्या शोभा वहाँ पर थी भी या मुझे धोखा हुआ है? मैं देर तक आँखें गाडे़ उस ओर देखता रहा जिस ओर वह मुझे नजर आई थी।
सहसा मुझे फिर से उसकी झलक मिली। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था। पहले भी वह आँखों से ओझल होती रही थी। मुझे फिर से रोमांच सा हो आया। हर बार जब वह आँखों से ओझल हो जाती, तो मेरे अन्दर उठने वाली तरह-तरह की भावनाओं के बावजूद, पार्क पर सूनापन सा उतर आता। पर अबकी बार उस पर नजर पड़ते ही मन विचलित सा हो उठा। शोभा पार्क में से निकल जाती तो?
एक आवेग मेरे अन्दर फिर से उठा। उसे मिल पाने के लिए दिल में ऐसी छटपटाहट सी उठी कि सभी शिकवे-शिकायत, कचरे की भांति उस आवेग में बह से गए। सभी मन-मुटाव भूल गए। यह कैसे हुआ कि शोभा फिर से मुझे विवाहित जीवन के पहले दिनों वाली शोभा नजर आने लगी थी। उसके व्यक्तित्व का सारा आकर्षण फिर से लौट आया था। और मेरा दिल फिर से भर-भर आया। मन में बार-बार यही आवाज उठती, ‘मैं तुम्हें खो नहीं सकता। मैं तुम्हें कभी खो नहीं सकता।’
यह कैसे हुआ कि पहले वाली भावनाएँ मेरे अन्दर पूरे वेग से फिर से उठने लगी थीं।
मैंने फिर से शोभा की ओर कदम बढा दिए।
हाँ, एक बार मेरे मन में सवाल जरूर उठा, कहीं मैं फिर से अपने को धोखा तो नहीं दे रहा हूँ? क्या मालूम वह फिर से मुझे ठुकरा दे?
पर नहीं, मुझे लग रहा था मानो विवाहोपरांत, क्लेश और कलह का सारा कालखण्ड झूठा था, माना वह कभी था ही नहीं। मैं वर्षो बाद तुम्हें उन्हीं आँखों से देख रहा था जिन आँखों से तुम्हें पहली बार देखा था। मैं फिर से तुम्हें बाहों में भर पाने के लिए आतुर और अधीर हो उठा था।
तुम धीरे-धीरे झाड़ियों के बीच आगे बढ़ती जा रही थी। तुम पहले की तुलना में दुबला गई थी और मुझे बड़ी निरीह और अकेली सी लग रही थी। अबकी बार तुम पर नज़र पड़ते ही मेरे मन का सारा क्षोभ, बालू की भीत की भांति भुरभुरा कर गिर गया था। तुम इतनी दुबली, इतनी निसहाय सी लग रही थी कि मैं बेचैन हो उठा और अपने को धिक्कराने लगा। तुम्हारी सुनक सी काया कभी एक झाड़ी क़े पीछे तो कभी दूसरी झाड़ी क़े पीछे छिप जाती। आज भी तुम बालों में लाल रंग का फूल टांकना नहीं भूली थी।
स्त्रियाँ मन से झुब्ध और बेचैन रहते हुए भी, बन-संवर कर रहना नहीं भूलतीं। स्त्री मन से व्याकुल भी होगी तो भी साफ-सुथरे कपडे़ पहने, संवरे-संभले बाल, नख-शिख से दुरूस्त होकर बाहर निकलेगी। जबकि पुरूष, भाग्य का एक ही थपेड़ा खाने पर फूहड़ हो जाता है। बाल उलझे हुए, मुँह पर बढ़ती दाढ़ई, क़पडे़ मुचडे हए और आँखो में वीरानी लिए, भिखमंगों की तरह घर से बाहर निकलेगा। जिन दिनों हमारे बीच मनमुटाव होता और तुम अपने भाग्य को कोसती हुई घर से बाहर निकल जाती थी, तब भी ढंग के कपडे़ पहनना और चुस्त-दुरूस्त बन कर जाना नहीं भूलती थी। ऐसे दिनो में भी तुम बाहर आंगन में लगे गुलाब के पौधे में से छोटा सा लाल फूल बालों में टांकना नहीं भूलती थी। जबकि मैं दिन भर हांफता, किसी जानवर की तरह एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर काटता रहता था।
तुम्हारी शॉल, तुम्हारे दायें कंधे पर से खिसक गई थी और उसका सिरा जमीन पर तुम्हारे पीछे-घिसटने लगा था, पर तुम्हें इसका भास नहीं हुआ क्योंकि तुम पहले की ही भांति धीरे-धीरे चलती जा रही थी, कंधे तनिक आगे को झुके हुए। कंधे पर से शॉल खिसक जाने से तुम्हारी सुडौल गर्दन और अधिक स्पष्ट नजर आने लगी थी। क्या मालूम तुम किन विचारों में खोयी चली जा रही हो। क्या मालूम हमारे बारे में, हमारे सम्बन्ध-विच्छेद के बारे में ही सोच रही हो। कौन जाने किसी अंत: प्रेरणावश, मुझे ही पार्क में मिल जाने की आशा लेकर तुम यहाँ चली आई हो। कौन जाने तुम्हारे दिल में भी ऐसी ही कसक ऐसी ही छटपटाहट उठी हो, जैसी मेरे दिल में। क्या मालूम भाग्य हम दोनों पर मेहरबान हो गया हो और नहीं तो मैं तुम्हारी आवाज तो सुन पाऊँगा, तुम्हे आँख भर देख तो पाऊँगा। अगर मैं इतना बेचैन हूँ तो तुम भी तो निपट अकेली हो और न जाने कहां भटक रही हो। आखिरी बार, सम्बन्ध- विच्छेद से पहले, तुम एकटक मेरी ओर देखती रही थी। तब तुम्हारी आँखें मुझे बड़ी-बड़ी सी लगी थीं, पर मैं उनका भाव नहीं समझ पाया था। तुम क्यों मेरी ओर देख रही थी और क्या सोच रही थी, क्यों नहीं तुमने मुँह से कुछ भी कहा? मुझे लगा था तुम्हारी सभी शिकायतें सिमट कर तुम्हारी आँखों के भाव में आ गए थे। तुम मुझे नि:स्पंद मूर्ति जैसी लगी थी, और उस शाम मानो तुमने मुझे छोड़ जाने का फैसला कर लिया था।
मैं नियमानुसार शाम को घूमने चला गया था। दिल और दिमाग पर भले ही कितना ही बोझ हो, मैं अपना नियम नहीं तोड़ता। लगभग डेढ घण्टे के बाद जब में घर वापस लौटा तो डयोढी में कदम रखते ही मुझे अपना घर सूना-सूना लगा था। और अन्दर जाने पर पता चलता कि तुम जा चुकी हो। तभी मुझे तुम्हारी वह एकटक नजर याद आई थी? मेरी ओर देखती हुई।
तुम्हें घर में न पाकर पहले तो मेरे आत्म-सम्मान को धक्का-सा लगा था कि तुम जाने से पहले न जाने क्या सोचती रही हो, अपने मन की बात मुँह तक नहीं लाई। पर शीघ्र ही उस वीराने घर में बैठा मैं मानो अपना सिर धुनने लगा था। घर भांय-भांय करने लगा था।
अब तुम धीरे-धीरे घास के मैदान को छोड़ कर चौड़ी पगडण्डी पर आ गई थी जो मकबरे की प्रदक्षिणा करती हुई-सी पार्क के प्रवेश द्वारा की ओर जाने वाले रास्ते से जा मिलती है। शीघ्र ही तुम चलती हुई पार्क के फाटक तक जा पहुँचोगी और आंखों से ओझल हो जाओगी।
तुम मकबरे का कोना काट कर उस चौकोर मैदान की ओर जाने लगी हो जहाँ बहुत से बेंच रखे रहते हैं और बड़ी उम्र के थके हारे लोग सुस्ताने के लिए बैठ जाते हैं।
कुछ दूर जाने के बाद तुम फिर से ठिठकी थी मोड़ आ गया था और मोड़ क़ाटने से पहले तुमने मुड़कर देखा था। क्या तुम मेरी ओर देख रही हो? क्या तुम्हें इस बात की आहट मिल गई है कि मैं पार्क में पहुँचा हुआ हूँ और धीरे-धीरे तुम्हारे पीछे चला आ रहा हूँ?
क्या सचमुच इसी कारण ठिठक कर खड़ी हो गई हो, इस अपेक्षा से कि मैं भाग कर तुम से जा मिलूँगा? क्या यह मेरा भ्रम ही है या तुम्हारा स्त्री-सुलभ संकोच कि तुम चाहते हुए भी मेरी ओर कदम नहीं बढ़ाओगी?
पर कुछ क्षण तक ठिठके रहने के बार तुम फिर से पार्क के फाटक की ओर बढ़ने लगी थी।
मैंने तुम्हारी और कदम बढ़ा दिए। मुझे लगा जैसे मेरे पास गिने-चुने कुछ क्षण ही रह गए हैं जब मैं तुमसे मिल सकता हूँ। अब नहीं मिल पाया तो कभी नहीं मिल पाऊँगा। और न जाने क्यों, यह सोच कर मेरा गला रूंधने लगा था।
पर मैं अभी भी कुछ ही कदम आगे की और बढ़ा पाया था कि जमीन पर किसी भागते साये ने मेरा रास्ता काट दिया। लम्बा-चौड़ा साया, तैरता हुआ सा, मेरे रास्ते को काट कर निकल गया था। मैंने नजर ऊपर उठाई और मेरा दिल बैठ गया। चील हमारे सिर के ऊपर मंडराए जा रही थी। क्या यह चील ही हैं? पर उसके डैने कितने बड़े हैं और पीली चोंच लम्बी, आगे को मुड़ी हुई। और उसकी छोटी-छोटी पैनी आँखों में भयावह सी चमक है।
चील आकाश में हमारे ऊपर चक्कर काटने लगी थी और उसका साया बार-बार मेरा रास्ता काट रहा था।
हाय, यह कहीं तुमपर न झपट पडे़। मैं बदहवस सा तुम्हारी ओर दौड़ने लगा, मन चाहा, चिल्ला कर तुम्हें सावधान कर दूँ, पर डैने फैलाये चील को मंडराता देख कर मैं इतना त्रस्त हो उठा था कि मुँह में से शब्द निकल नहीं पा रहे थे। मेरा गला सूख रहा था और पांव बोझिल हो रहे थे। मैं जल्दी तुम तक पहुँचना चाहता था मुझे लगा जैसे मैं साये को लांघ ही नहीं पा रहा हूँ। चील जरूर नीचे आने लगी होगी। जो उसका साया इतना फैलता जा रहा है कि मैं उसे लांघ ही नहीं सकता।
मेरे मस्तिष्क में एक ही वाक्य बार-बार घूम रहा था, कि तुम्हें उस मंडराती चील के बारे में सावधान कर दूँ और तुमसे कहूँ कि जितनी जल्दी पार्क में से निकल सकती हो, निकल जाओ।
मेरी सांस धौंकनी की तरह चलने लगी थी, और मुँह से एक शब्द भी नहीं फूट पा रहा था।
बाहर जाने वाले फाटक से थोड़ा हटकर, दायें हाथ एक ऊँचा सा मुनारा है जिस पर कभी मकबरे की रखवाली करनेवाला पहरेदार खड़ा रहता होगा। अब वह मुनार भी टूटी-फूटी हालत में है।
जिस समय मैं साये को लांघ पाने को भरसक चेष्टा कर रहा था उस समय मुझे लगा था जैसे तुम चलती हुई उस मुनारे के पीछे जा पहुँची हो, क्षण भर के लिए मैं आश्वस्त सा हो गया। तुम्हें अपने सिर के ऊपर मंडराते खतरे का आभास हो गया होगा। न भी हुआ हो तो भी तुमने बाहर निकलने का जो रास्ता अपनाया था, वह अधिक सुरक्षित था।
मैं थक गया था। मेरी सांस बुरी तरह से फूली हुई थी। लाचार, मैं उसी मुनारे के निकट एक पत्थर पर हांफता हुआ बैठ गया। कुछ भी मेरे बस नहीं रह गया था। पर मैं सोच रहा था कि ज्योंही तुम मुनारे के पीछे से निकल कर सामने आओगी, मैं चिल्ला कर तुम्हें पार्क में से निकल भागने का आग्रह करूँगा। चील अब भी सिर पर मंडराये जा रही थी।
तभी मुझे लगा तुम मुनारे के पीछे से बाहर आई हो। हवा के झोंके से तुम्हारी साड़ी क़ा पल्लू और हवा में अठखेली सी करती हुई तुम सीधा फाटक की ओर बढ़ने लगी हो।
‘शोभा!’ मैं चिल्लाया।
पर तुम बहुत आगे बढ़ चुकी थी, लगभग फाटक के पास पहुँच चुकी थी। तुम्हारी साड़ी क़ा पल्लू अभी भी हवा में फरफरा रहा थ। बालों में लाल फूल बड़ा खिला-खिला लग रहा था।
मैं उठ खड़ा हुआ और जैसे तैसे कदम बढ़ता हुआ तुम्हारी ओर जाने लगा। मैं तुमसे कहना चाहता था, ‘अच्छा हुआ जो तुम चील के पंजों से बच कर निकल गई हो, शोभा।’
फाटक के पास तुम रूकी थी, और मुझे लगा था जैसे मेरी ओर देख कर मुस्कराई हो और फिर पीठ मोड़ ली थी और आँखों से ओझल हो गई थी।
मैं भागता हुआ फाटक के पास पहुँचा था। फाटक के पास मैदान में हल्की-हल्की धूल उड़ रही थी और पार्क में आने वाले लोगों के लिए चौड़ा, खुला रास्ता भांय-भांय कर रहा था।
तुम पार्क में से सही सलामत निकल गई हो, यह सोच कर मैं आश्वस्त सा महसूस करने लगा था। मैंने नजर उठा कर ऊपर की ओर देखा। चील वहाँ पर नहीं था। चील जा चुकी थी। आसमान साफ था और हल्की-हल्की धुंध के बावजूद उसकी नीलिमा जैसे लौट आई थी।
चीफ की दावत

ज मिस्टर शामनाथ के घर चीफ की दावत थी।

शामनाथ और उनकी धर्मपत्नी को पसीना पोंछने की फुर्सत न थी। पत्नी ड्रेसिंग गाउन पहने, उलझे हुए बालों का जूड़ा बनाए मुँह पर फैली हुई सुर्खी और पाउड़र को मले और मिस्टर शामनाथ सिगरेट पर सिगरेट फूँकते हुए चीजों की फेहरिस्त हाथ में थामे, एक कमरे से दूसरे कमरे में आ-जा रहे थे।

आखिर पाँच बजते-बजते तैयारी मुकम्मल होने लगी। कुर्सियाँ, मेज, तिपाइयाँ, नैपकिन, फूल, सब बरामदे में पहुँच गए। ड्रिंक का इंतजाम बैठक में कर दिया गया। अब घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा। तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, माँ का क्या होगा?

इस बात की ओर न उनका और न उनकी कुशल गृहिणी का ध्यान गया था। मिस्टर शामनाथ, श्रीमती की ओर घूम कर अंग्रेजी में बोले – ‘माँ का क्या होगा?’

श्रीमती काम करते-करते ठहर गईं, और थोडी देर तक सोचने के बाद बोलीं – ‘इन्हें पिछवाड़े इनकी सहेली के घर भेज दो, रात-भर बेशक वहीं रहें। कल आ जाएँ।’

शामनाथ सिगरेट मुँह में रखे, सिकुडी आँखों से श्रीमती के चेहरे की ओर देखते हुए पल-भर सोचते रहे, फिर सिर हिला कर बोले – ‘नहीं, मैं नहीं चाहता कि उस बुढ़िया का आना-जाना यहाँ फिर से शुरू हो। पहले ही बड़ी मुश्किल से बंद किया था। माँ से कहें कि जल्दी ही खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाएँ। मेहमान कहीं आठ बजे आएँगे इससे पहले ही अपने काम से निबट लें।’

सुझाव ठीक था। दोनों को पसंद आया। मगर फिर सहसा श्रीमती बोल उठीं – ‘जो वह सो गईं और नींद में खर्राटे लेने लगीं, तो? साथ ही तो बरामदा है, जहाँ लोग खाना खाएँगे।’

‘तो इन्हें कह देंगे कि अंदर से दरवाजा बंद कर लें। मैं बाहर से ताला लगा दूँगा। या माँ को कह देता हूँ कि अंदर जा कर सोएँ नहीं, बैठी रहें, और क्या?’

‘और जो सो गई, तो? डिनर का क्या मालूम कब तक चले। ग्यारह-ग्यारह बजे तक तो तुम ड्रिंक ही करते रहते हो।’

शामनाथ कुछ खीज उठे, हाथ झटकते हुए बोले – ‘अच्छी-भली यह भाई के पास जा रही थीं। तुमने यूँ ही खुद अच्छा बनने के लिए बीच में टाँग अड़ा दी!’

‘वाह! तुम माँ और बेटे की बातों में मैं क्यों बुरी बनूँ? तुम जानो और वह जानें।’

मिस्टर शामनाथ चुप रहे। यह मौका बहस का न था, समस्या का हल ढूँढ़ने का था। उन्होंने घूम कर माँ की कोठरी की ओर देखा। कोठरी का दरवाजा बरामदे में खुलता था। बरामदे की ओर देखते हुए झट से बोले – मैंने सोच लिया है, – और उन्हीं कदमों माँ की कोठरी के बाहर जा खड़े हुए। माँ दीवार के साथ एक चौकी पर बैठी, दुपट्टे में मुँह-सिर लपेटे, माला जप रही थीं। सुबह से तैयारी होती देखते हुए माँ का भी दिल धड़क रहा था। बेटे के दफ्तर का बड़ा साहब घर पर आ रहा है, सारा काम सुभीते से चल जाय।

माँ, आज तुम खाना जल्दी खा लेना। मेहमान लोग साढ़े सात बजे आ जाएँगे।

माँ ने धीरे से मुँह पर से दुपट्टा हटाया और बेटे को देखते हुए कहा, आज मुझे खाना नहीं खाना है, बेटा, तुम जो जानते हो, मांस-मछली बने, तो मैं कुछ नहीं खाती।

जैसे भी हो, अपने काम से जल्दी निबट लेना।

अच्छा, बेटा।

और माँ, हम लोग पहले बैठक में बैठेंगे। उतनी देर तुम यहाँ बरामदे में बैठना। फिर जब हम यहाँ आ जाएँ, तो तुम गुसलखाने के रास्ते बैठक में चली जाना।

माँ अवाक बेटे का चेहरा देखने लगीं। फिर धीरे से बोलीं – अच्छा बेटा।

और माँ आज जल्दी सो नहीं जाना। तुम्हारे खर्राटों की आवाज दूर तक जाती है।

माँ लज्जित-सी आवाज में बोली – क्या करूँ, बेटा, मेरे बस की बात नहीं है। जब से बीमारी से उठी हूँ, नाक से साँस नहीं ले सकती।

मिस्टर शामनाथ ने इंतजाम तो कर दिया, फिर भी उनकी उधेड़-बुन खत्म नहीं हुई। जो चीफ अचानक उधर आ निकला, तो? आठ-दस मेहमान होंगे, देसी अफसर, उनकी स्त्रियाँ होंगी, कोई भी गुसलखाने की तरफ जा सकता है। क्षोभ और क्रोध में वह झुँझलाने लगे। एक कुर्सी को उठा कर बरामदे में कोठरी के बाहर रखते हुए बोले – आओ माँ, इस पर जरा बैठो तो।

माँ माला सँभालतीं, पल्ला ठीक करती उठीं, और धीरे से कुर्सी पर आ कर बैठ गई।

यूँ नहीं, माँ, टाँगें ऊपर चढ़ा कर नहीं बैठते। यह खाट नहीं हैं।

माँ ने टाँगें नीचे उतार लीं।

और खुदा के वास्ते नंगे पाँव नहीं घूमना। न ही वह खड़ाऊँ पहन कर सामने आना। किसी दिन तुम्हारी यह खड़ाऊँ उठा कर मैं बाहर फेंक दूँगा।

माँ चुप रहीं।

कपड़े कौन से पहनोगी, माँ?

जो है, वही पहनूँगी, बेटा! जो कहो, पहन लूँ।

मिस्टर शामनाथ सिगरेट मुँह में रखे, फिर अधखुली आँखों से माँ की ओर देखने लगे, और माँ के कपड़ों की सोचने लगे। शामनाथ हर बात में तरतीब चाहते थे। घर का सब संचालन उनके अपने हाथ में था। खूँटियाँ कमरों में कहाँ लगाई जाएँ, बिस्तर कहाँ पर बिछे, किस रंग के पर्दे लगाएँ जाएँ, श्रीमती कौन-सी साड़ी पहनें, मेज किस साइज की हो… शामनाथ को चिंता थी कि अगर चीफ का साक्षात माँ से हो गया, तो कहीं लज्जित नहीं होना पडे। माँ को सिर से पाँव तक देखते हुए बोले – तुम सफेद कमीज और सफेद सलवार पहन लो, माँ। पहन के आओ तो, जरा देखूँ।

माँ धीरे से उठीं और अपनी कोठरी में कपड़े पहनने चली गईं।

यह माँ का झमेला ही रहेगा, उन्होंने फिर अंग्रेजी में अपनी स्त्री से कहा – कोई ढंग की बात हो, तो भी कोई कहे। अगर कहीं कोई उल्टी-सीधी बात हो गई, चीफ को बुरा लगा, तो सारा मजा जाता रहेगा।

माँ सफेद कमीज और सफेद सलवार पहन कर बाहर निकलीं। छोटा-सा कद, सफेद कपड़ों में लिपटा, छोटा-सा सूखा हुआ शरीर, धुँधली आँखें, केवल सिर के आधे झड़े हुए बाल पल्ले की ओट में छिप पाए थे। पहले से कुछ ही कम कुरूप नजर आ रही थीं।

चलो, ठीक है। कोई चूड़ियाँ-वूड़ियाँ हों, तो वह भी पहन लो। कोई हर्ज नहीं।

चूड़ियाँ कहाँ से लाऊँ, बेटा? तुम तो जानते हो, सब जेवर तुम्हारी पढ़ाई में बिक गए।

यह वाक्य शामनाथ को तीर की तरह लगा। तिनक कर बोले – यह कौन-सा राग छेड़ दिया, माँ! सीधा कह दो, नहीं हैं जेवर, बस! इससे पढ़ाई-वढ़ाई का क्या तअल्लुक है! जो जेवर बिका, तो कुछ बन कर ही आया हूँ, निरा लँडूरा तो नहीं लौट आया। जितना दिया था, उससे दुगना ले लेना।

मेरी जीभ जल जाय, बेटा, तुमसे जेवर लूँगी? मेरे मुँह से यूँ ही निकल गया। जो होते, तो लाख बार पहनती!

साढ़े पाँच बज चुके थे। अभी मिस्टर शामनाथ को खुद भी नहा-धो कर तैयार होना था। श्रीमती कब की अपने कमरे में जा चुकी थीं। शामनाथ जाते हुए एक बार फिर माँ को हिदायत करते गए – माँ, रोज की तरह गुमसुम बन के नहीं बैठी रहना। अगर साहब इधर आ निकलें और कोई बात पूछें, तो ठीक तरह से बात का जवाब देना।

मैं न पढ़ी, न लिखी, बेटा, मैं क्या बात करूँगी। तुम कह देना, माँ अनपढ़ है, कुछ जानती-समझती नहीं। वह नहीं पूछेगा।

सात बजते-बजते माँ का दिल धक-धक करने लगा। अगर चीफ सामने आ गया और उसने कुछ पूछा, तो वह क्या जवाब देंगी। अंग्रेज को तो दूर से ही देख कर घबरा उठती थीं, यह तो अमरीकी है। न मालूम क्या पूछे। मैं क्या कहूँगी। माँ का जी चाहा कि चुपचाप पिछवाड़े विधवा सहेली के घर चली जाएँ। मगर बेटे के हुक्म को कैसे टाल सकती थीं। चुपचाप कुर्सी पर से टाँगें लटकाए वहीं बैठी रही।

एक कामयाब पार्टी वह है, जिसमें ड्रिंक कामयाबी से चल जाएँ। शामनाथ की पार्टी सफलता के शिखर चूमने लगी। वार्तालाप उसी रौ में बह रहा था, जिस रौ में गिलास भरे जा रहे थे। कहीं कोई रूकावट न थी, कोई अड़चन न थी। साहब को व्हिस्की पसंद आई थी। मेमसाहब को पर्दे पसंद आए थे, सोफा-कवर का डिजाइन पसंद आया था, कमरे की सजावट पसंद आई थी। इससे बढ़ कर क्या चाहिए। साहब तो ड्रिंक के दूसरे दौर में ही चुटकुले और कहानियाँ कहने लग गए थे। दफ्तर में जितना रोब रखते थे, यहाँ पर उतने ही दोस्त-परवर हो रहे थे और उनकी स्त्री, काला गाउन पहने, गले में सफेद मोतियों का हार, सेंट और पाउड़र की महक से ओत-प्रोत, कमरे में बैठी सभी देसी स्त्रियों की आराधना का केंद्र बनी हुई थीं। बात-बात पर हँसतीं, बात-बात पर सिर हिलातीं और शामनाथ की स्त्री से तो ऐसे बातें कर रही थीं, जैसे उनकी पुरानी सहेली हों।

और इसी रो में पीते-पिलाते साढ़े दस बज गए। वक्त गुजरते पता ही न चला।

आखिर सब लोग अपने-अपने गिलासों में से आखिरी घूँट पी कर खाना खाने के लिए उठे और बैठक से बाहर निकले। आगे-आगे शामनाथ रास्ता दिखाते हुए, पीछे चीफ और दूसरे मेहमान।

बरामदे में पहुँचते ही शामनाथ सहसा ठिठक गए। जो दृश्य उन्होंने देखा, उससे उनकी टाँगें लड़खड़ा गई, और क्षण-भर में सारा नशा हिरन होने लगा। बरामदे में ऐन कोठरी के बाहर माँ अपनी कुर्सी पर ज्यों-की-त्यों बैठी थीं। मगर दोनों पाँव कुर्सी की सीट पर रखे हुए, और सिर दाएँ से बाएँ और बाएँ से दाएँ झूल रहा था और मुँह में से लगातार गहरे खर्राटों की आवाजें आ रही थीं। जब सिर कुछ देर के लिए टेढ़ा हो कर एक तरफ को थम जाता, तो खर्राटें और भी गहरे हो उठते। और फिर जब झटके-से नींद टूटती, तो सिर फिर दाएँ से बाएँ झूलने लगता। पल्ला सिर पर से खिसक आया था, और माँ के झरे हुए बाल, आधे गंजे सिर पर अस्त-व्यस्त बिखर रहे थे।

देखते ही शामनाथ क्रुद्ध हो उठे। जी चाहा कि माँ को धक्का दे कर उठा दें, और उन्हें कोठरी में धकेल दें, मगर ऐसा करना संभव न था, चीफ और बाकी मेहमान पास खड़े थे।

माँ को देखते ही देसी अफसरों की कुछ स्त्रियाँ हँस दीं कि इतने में चीफ ने धीरे से कहा – पुअर डियर!

माँ हड़बड़ा के उठ बैठीं। सामने खड़े इतने लोगों को देख कर ऐसी घबराई कि कुछ कहते न बना। झट से पल्ला सिर पर रखती हुई खड़ी हो गईं और जमीन को देखने लगीं। उनके पाँव लड़खड़ाने लगे और हाथों की उँगलियाँ थर-थर काँपने लगीं।

माँ, तुम जाके सो जाओ, तुम क्यों इतनी देर तक जाग रही थीं? – और खिसियाई हुई नजरों से शामनाथ चीफ के मुँह की ओर देखने लगे।

चीफ के चेहरे पर मुस्कराहट थी। वह वहीं खड़े-खड़े बोले, नमस्ते!

माँ ने झिझकते हुए, अपने में सिमटते हुए दोनों हाथ जोड़े, मगर एक हाथ दुपट्टे के अंदर माला को पकड़े हुए था, दूसरा बाहर, ठीक तरह से नमस्ते भी न कर पाई। शामनाथ इस पर भी खिन्न हो उठे।

इतने में चीफ ने अपना दायाँ हाथ, हाथ मिलाने के लिए माँ के आगे किया। माँ और भी घबरा उठीं।

माँ, हाथ मिलाओ।

पर हाथ कैसे मिलातीं? दाएँ हाथ में तो माला थी। घबराहट में माँ ने बायाँ हाथ ही साहब के दाएँ हाथ में रख दिया। शामनाथ दिल ही दिल में जल उठे। देसी अफसरों की स्त्रियाँ खिलखिला कर हँस पडीं।

यूँ नहीं, माँ! तुम तो जानती हो, दायाँ हाथ मिलाया जाता है। दायाँ हाथ मिलाओ।

मगर तब तक चीफ माँ का बायाँ हाथ ही बार-बार हिला कर कह रहे थे – हाउ डू यू डू?

कहो माँ, मैं ठीक हूँ, खैरियत से हूँ।

माँ कुछ बडबड़ाई।

माँ कहती हैं, मैं ठीक हूँ। कहो माँ, हाउ डू यू डू।

माँ धीरे से सकुचाते हुए बोलीं – हौ डू डू ..

एक बार फिर कहकहा उठा।

वातावरण हल्का होने लगा। साहब ने स्थिति सँभाल ली थी। लोग हँसने-चहकने लगे थे। शामनाथ के मन का क्षोभ भी कुछ-कुछ कम होने लगा था।

साहब अपने हाथ में माँ का हाथ अब भी पकड़े हुए थे, और माँ सिकुड़ी जा रही थीं। साहब के मुँह से शराब की बू आ रही थी।

शामनाथ अंग्रेजी में बोले – मेरी माँ गाँव की रहने वाली हैं। उमर भर गाँव में रही हैं। इसलिए आपसे लजाती है।

साहब इस पर खुश नजर आए। बोले – सच? मुझे गाँव के लोग बहुत पसंद हैं, तब तो तुम्हारी माँ गाँव के गीत और नाच भी जानती होंगी? चीफ खुशी से सिर हिलाते हुए माँ को टकटकी बाँधे देखने लगे।

माँ, साहब कहते हैं, कोई गाना सुनाओ। कोई पुराना गीत तुम्हें तो कितने ही याद होंगे।

माँ धीरे से बोली – मैं क्या गाऊँगी बेटा। मैंने कब गाया है?

वाह, माँ! मेहमान का कहा भी कोई टालता है?

साहब ने इतना रीझ से कहा है, नहीं गाओगी, तो साहब बुरा मानेंगे।

मैं क्या गाऊँ, बेटा। मुझे क्या आता है?

वाह! कोई बढ़िया टप्पे सुना दो। दो पत्तर अनाराँ दे …

देसी अफसर और उनकी स्त्रियों ने इस सुझाव पर तालियाँ पीटी। माँ कभी दीन दृष्टि से बेटे के चेहरे को देखतीं, कभी पास खड़ी बहू के चेहरे को।

इतने में बेटे ने गंभीर आदेश-भरे लिहाज में कहा – माँ!

इसके बाद हाँ या ना सवाल ही न उठता था। माँ बैठ गईं और क्षीण, दुर्बल, लरजती आवाज में एक पुराना विवाह का गीत गाने लगीं –

हरिया नी माए, हरिया नी भैणे

हरिया ते भागी भरिया है!

देसी स्त्रियाँ खिलखिला के हँस उठीं। तीन पंक्तियाँ गा के माँ चुप हो गईं।

बरामदा तालियों से गूँज उठा। साहब तालियाँ पीटना बंद ही न करते थे। शामनाथ की खीज प्रसन्नता और गर्व में बदल उठी थी। माँ ने पार्टी में नया रंग भर दिया था।

तालियाँ थमने पर साहब बोले – पंजाब के गाँवों की दस्तकारी क्या है?

शामनाथ खुशी में झूम रहे थे। बोले – ओ, बहुत कुछ – साहब! मैं आपको एक सेट उन चीजों का भेंट करूँगा। आप उन्हें देख कर खुश होंगे।

मगर साहब ने सिर हिला कर अंग्रेजी में फिर पूछा – नहीं, मैं दुकानों की चीज नहीं माँगता। पंजाबियों के घरों में क्या बनता है, औरतें खुद क्या बनाती हैं?

शामनाथ कुछ सोचते हुए बोले – लड़कियाँ गुड़ियाँ बनाती हैं, और फुलकारियाँ बनाती हैं।

फुलकारी क्या?

शामनाथ फुलकारी का मतलब समझाने की असफल चेष्टा करने के बाद माँ को बोले – क्यों, माँ, कोई पुरानी फुलकारी घर में हैं?

माँ चुपचाप अंदर गईं और अपनी पुरानी फुलकारी उठा लाईं।

साहब बड़ी रुचि से फुलकारी देखने लगे। पुरानी फुलकारी थी, जगह-जगह से उसके तागे टूट रहे थे और कपड़ा फटने लगा था। साहब की रुचि को देख कर शामनाथ बोले – यह फटी हुई है, साहब, मैं आपको नई बनवा दूँगा। माँ बना देंगी। क्यों, माँ साहब को फुलकारी बहुत पसंद हैं, इन्हें ऐसी ही एक फुलकारी बना दोगी न?

माँ चुप रहीं। फिर डरते-डरते धीरे से बोलीं – अब मेरी नजर कहाँ है, बेटा! बूढ़ी आँखें क्या देखेंगी?

मगर माँ का वाक्य बीच में ही तोड़ते हुए शामनाथ साहब को बोले – वह जरूर बना देंगी। आप उसे देख कर खुश होंगे।

साहब ने सिर हिलाया, धन्यवाद किया और हल्के-हल्के झूमते हुए खाने की मेज की ओर बढ़ गए। बाकी मेहमान भी उनके पीछे-पीछे हो लिए।

जब मेहमान बैठ गए और माँ पर से सबकी आँखें हट गईं, तो माँ धीरे से कुर्सी पर से उठीं, और सबसे नजरें बचाती हुई अपनी कोठरी में चली गईं।

मगर कोठरी में बैठने की देर थी कि आँखों में छल-छल आँसू बहने लगे। वह दुपट्टे से बार-बार उन्हें पोंछतीं, पर वह बार-बार उमड़ आते, जैसे बरसों का बाँध तोड़ कर उमड़ आए हों। माँ ने बहुतेरा दिल को समझाया, हाथ जोड़े, भगवान का नाम लिया, बेटे के चिरायु होने की प्रार्थना की, बार-बार आँखें बंद कीं, मगर आँसू बरसात के पानी की तरह जैसे थमने में ही न आते थे।

आधी रात का वक्त होगा। मेहमान खाना खा कर एक-एक करके जा चुके थे। माँ दीवार से सट कर बैठी आँखें फाड़े दीवार को देखे जा रही थीं। घर के वातावरण में तनाव ढीला पड़ चुका था। मुहल्ले की निस्तब्धता शामनाथ के घर भी छा चुकी थी, केवल रसोई में प्लेटों के खनकने की आवाज आ रही थी। तभी सहसा माँ की कोठरी का दरवाजा जोर से खटकने लगा।

माँ, दरवाजा खोलो।

माँ का दिल बैठ गया। हड़बड़ा कर उठ बैठीं। क्या मुझसे फिर कोई भूल हो गई? माँ कितनी देर से अपने आपको कोस रही थीं कि क्यों उन्हें नींद आ गई, क्यों वह ऊँघने लगीं। क्या बेटे ने अभी तक क्षमा नहीं किया? माँ उठीं और काँपते हाथों से दरवाजा खोल दिया।

दरवाजे खुलते ही शामनाथ झूमते हुए आगे बढ़ आए और माँ को आलिंगन में भर लिया।

ओ अम्मी! तुमने तो आज रंग ला दिया! …साहब तुमसे इतना खुश हुआ कि क्या कहूँ। ओ अम्मी! अम्मी!

माँ की छोटी-सी काया सिमट कर बेटे के आलिंगन में छिप गई। माँ की आँखों में फिर आँसू आ गए। उन्हें पोंछती हुई धीरे से बोली – बेटा, तुम मुझे हरिद्वार भेज दो। मैं कब से कह रही हूँ।

शामनाथ का झूमना सहसा बंद हो गया और उनकी पेशानी पर फिर तनाव के बल पड़ने लगे। उनकी बाँहें माँ के शरीर पर से हट आईं।

क्या कहा, माँ? यह कौन-सा राग तुमने फिर छेड़ दिया?

शामनाथ का क्रोध बढ़ने लगा था, बोलते गए – तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, ताकि दुनिया कहे कि बेटा माँ को अपने पास नहीं रख सकता।

नहीं बेटा, अब तुम अपनी बहू के साथ जैसा मन चाहे रहो। मैंने अपना खा-पहन लिया। अब यहाँ क्या करूँगी। जो थोड़े दिन जिंदगानी के बाकी हैं, भगवान का नाम लूँगी। तुम मुझे हरिद्वार भेज दो!

तुम चली जाओगी, तो फुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है।

मेरी आँखें अब नहीं हैं, बेटा, जो फुलकारी बना सकूँ। तुम कहीं और से बनवा लो। बनी-बनाई ले लो।

माँ, तुम मुझे धोखा देके यूँ चली जाओगी? मेरा बनता काम बिगाड़ोगी? जानती नही, साहब खुश होगा, तो मुझे तरक्की मिलेगी!

माँ चुप हो गईं। फिर बेटे के मुँह की ओर देखती हुई बोली – क्या तेरी तरक्की होगी? क्या साहब तेरी तरक्की कर देगा? क्या उसने कुछ कहा है?

कहा नहीं, मगर देखती नहीं, कितना खुश गया है। कहता था, जब तेरी माँ फुलकारी बनाना शुरू करेंगी, तो मैं देखने आऊँगा कि कैसे बनाती हैं। जो साहब खुश हो गया, तो मुझे इससे बड़ी नौकरी भी मिल सकती है, मैं बड़ा अफसर बन सकता हूँ।

माँ के चेहरे का रंग बदलने लगा, धीरे-धीरे उनका झुर्रियों-भरा मुँह खिलने लगा, आँखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी।

तो तेरी तरक्की होगी बेटा?

तरक्की यूँ ही हो जाएगी? साहब को खुश रखूँगा, तो कुछ करेगा, वरना उसकी खिदमत करनेवाले और थोड़े हैं?

तो मैं बना दूँगी, बेटा, जैसे बन पड़ेगा, बना दूँगी।

और माँ दिल ही दिल में फिर बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कामनाएँ करने लगीं और मिस्टर शामनाथ, अब सो जाओ, माँ, कहते हुए, तनिक लड़खड़ाते हुए अपने कमरे की ओर घूम गए।
ओ हरामजादे

घुमक्कड़ी के दिनों में मुझे खुद मालूम न होता कि कब किस घाट जा लगूँगा। कभी भूमध्य सागर के तट पर भूली बिसरी किसी सभ्यता के खंडहर देख रहा होता, तो कभी यूरोप के किसी नगर की जनाकीर्ण सड़कों पर घूम रह होता। दुनिया बड़ी विचित्र पर साथ ही अबोध और अगम्य लगती, जान पड़ता जैसे मेरी ही तरह वह भी बिना किसी धुरे के निरुद्देश्य घूम रही है।

ऐसे ही एक बार मैं यूरोप के एक दूरवर्ती इलाके में जा पहुँचा था। एक दिन दोपहर के वक्त होटल के कमरे में से निकल कर मैं खाड़ी के किनारे बैंच पर बैठा आती जाती नावों को देख रहा था, जब मेरे पास से गुजरते हुए अधेड़ उम्र की एक महिला ठिठक कर खड़ी हो गई। मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया, मैंने समझा उसे किसी दूसरे चेहरे का मुगालता हुआ होगा। पर वह और निकट आ गई।

‘भारत से आए हो?’ उसने धीरे से बड़ी शिष्ट मुस्कान के साथ पूछा।

मैंने भी मुस्कुरा कर सिर हिला दिया।

‘मैं देखते ही समझ गई थी कि तुम हिंदुस्तानी होगे।’ और वह अपना बड़ा सा थैला बैंच पर रख कर मेरे पास बैठ गई।

नाटे कद की बोझिल से शरीर की महिला बाजार से सौदा खरीद कर लौट रही थी। खाड़ी के नीले जल जैसी ही उसकी आँखें थी। इतनी साफ नीली आँखें किवल छोटे बच्चों की ही होती हैं। इस पर साफ गौरी त्वचा। पर बाल खिचड़ी हो रहे थे और चेहरे पर हल्की हल्की रेखाएँ उतर आई थीं, जिनके जाल से, खाड़ी हो या रेगिस्तान, कभी कोई बच नहीं सकता। अपना खरीदारी का थैला बैंच पर रख कर वह मेरे पास तनिक सुस्ताने के लिए बैठ गई। वह अंग्रेज नहीं थी पर टूटी फूटी अंग्रेजी में अपना मतलब अच्छी तरह से समझा लेती थी।

‘मेरा पति भी भारत का रहने वला है, इस वक्त घर पर है, तुम से मिल कर बहुत खुश होगा।’

मैं थोड़ा हैरान हुआ, इंग्लैंड और फ्रांस आदि देशों में तो हिंदुस्तानी लोग बहुत मिल जाते हैं। वहीं पर सैंकड़ों बस भी गए हैं, लेकिन यूरोप के इस दूर दराज के इलाके में कोई हिंदुस्तानी क्यों आ कर रहने लगा होगा। कुछ कुतूहलवश, कुछ वक्त काटने की इच्छा से मैं तैयार हो गया।

‘चलिए, जरूर मिलना चाहूँगा।’ और हम दोनों उठ खड़े हुए।

सड़क पर चलते हुए मेरी नजर बार बार उस महिला के गोल मटोल शरीर पर जाती रही। उस हिंदुस्तानी ने इस औरत में क्या देखा होगा जो घर बार छोड़ कर यहाँ इसके साथ बस गया है। संभव है, जवानी में चुलबुली और नटखट रही होगी। इसकी नीली आँखों ने कहर ढाए होंगे। हिंदुस्तानी मरता ही नीली आँखों और गोरी चमड़ी पर है। पर अब तो समय उस पर कहर ढाने लगा था। पचास पचपन की रही होगी। थैला उठाए हुए साँस बार बार फूल रहा था। कभी उसे एक हाथ में उठाती और कभी दूसरे हाथ में। मैने थैला उसके हाथ से ले लिया और हम बतियाते हुए उसके घर की ओर जाने लगे।

‘आप भी कभी भारत गई हैं?’ मैंने पूछा।

‘एक बार गई थी, लाल ले गया था, पर इसे तो अब लगता है बीसियों बरस बीत चुके हैं।’

‘लाल साहब तो जाते रहते होंगे?’

महिला ने खिचड़ी बालों वाला अपना सिर झटक कर कहा ‘नहीं, वह भी नहीं गया। इसलिए वह तुम से मिल कर बहुत खुश होगा, यहाँ हिंदुस्तानी बहुत कम आते हैं।’

तंग सीढ़ियाँ चढ़ कर हम एक फ्लैट में पहुँचे, अंदर रोशनी थी और एक खुला सा कमरा जिसकी चारों दीवारों के साथ किताबों से ठसाठस भरी अलमारियाँ रखीं थीं। दीवार पर जहाँ कहीं कोई टुकड़ा खाली मिला था, वहाँ तरह तरह के नक्शे और मानचित्र टाँग दिए गए थे। उसी कमरे में दूर, खिड़की के पास वाले कमरे में काले रंग का सूट पहने, साँवले रंग और उड़ते सफेद बालों वाला एक हिंदुस्तानी बैठा कोई पत्रिका बाँच रह था।

‘लाल, देखो तो कौन आया है? इनसे मिलो। तुम्हारे एक देशवासी को जबर्दस्ती खींच लाई हूँ।’ महिला ने हँस कर कहा।

वह उठ खड़ा हुआ और जिज्ञासा और कुतूहल से मेरी और देखता हुआ आगे बढ़ आया।

‘आइए-आइए! बड़ी खुशी हुई। मुझे लाल कहते हैं, मैं यहाँ इंजीनियर हूँ। मेरी पत्नी ने मुझ पर बड़ा एहसान किया है जो आपको ले आई हैं।’

ऊँचे, लंबे कद का आदमी निकला। यह कहना कठिन था कि भारत के किस हिस्से से आया है। शरीर का बोझिल और ढीला ढाला था। दोनों कनपटियों के पास सफेद बालों के गुच्छे से उग आए थे जबकि सिर के ऊपर गिने चुने सफेद बाल उड़ से रहे थे।

दुआ-सलाम के बाद हम बैठे ही थे कि उसने सवालों की झड़ी लगा दी। ‘दिल्ली शहर तो अब बहुत कुछ बदल गया होगा?’ उसने बच्चों के से आग्रह के साथ पूछा।

‘हाँ। बदल गया है। आप कब थे दिल्ली में?’

‘मैं दिल्ली का रहने वाला नहीं हूँ। यों लड़कपन में बहुत बार दिल्ली गया हूँ। रहने वाला तो मैं पंजाब का हूँ, जालंधर का। जालंधर तो आपने कहाँ देखा होगा।’

‘ऐसा तो नहीं, मैं स्वयं पंजाब का रहने वाला हूँ। किसी जमाने में जालंधर में रह चुका हूँ।’

मेरे कहने की देर थी कि वह आदमी उठ खड़ा हुआ और लपक कर मुझे बाँहों में भर लिया।

‘ओ जालम! तू बोलना नहीं एँ जे जलंधर दा रहणवाले?’

मैं सकुचा गया। ढीले ढाले बुजुर्ग को यों उत्तेजित होता देख मुझे अटपटा सा लगा। पर वह सिर से पाँव तक पुलक उठा था। इसी उत्तेजना में वह आदमी मुझे छोड़ कर तेज तेज चलता हुआ पिछले कमरे की और चला गया और थोड़ी देर बाद अपनी पत्नी को साथ लिए अंदर दाखिल हुआ जो इसी बीच थैला उठाए अंदर चली गई थी।

‘हेलेन, यह आदमी जलंधर से आया है, मेरे शहर से, तुमने बताया ही नहीं।’

उत्तेजना के कारण उसका चेहरा दमकने लगा था और बड़ी बड़ी आँखों के नीचे गुमड़ों में नमी आ गई थी।

‘मैंने ठीक ही किया ना’, महिला कमरे में आते हुए बोली। उसने इस बीच एप्रन पहन लिया था और रसोई घर में काम करने लग गई थी। बड़ी शालीन, स्निग्ध नजर से उसने मेरी और देखा। उसके चेहरे पर वैसी ही शालीनता झलक रही थी जो दसियों वर्ष तक शिष्टाचार निभाने के बाद स्वभाव का अंग बन जती है। वह मुस्कुरती हुई मेरे पास आ कर बैठ गई।

‘लाल, मुझे भारत में जगह जगह घुमाने ले गया था। आगरा, बनारस, कलकत्ता, हम बहुत घूमे थे…’

वह बुजुर्ग इस बीच टकटकी बाँधे मेरी ओर देखे जा रहा था। उसकी आँखों में वही रूमानी किस्म का देशप्रेम झलकने लगा था जो देश के बाहर रहनेवाले हिंदुस्तानी की आँखों में, अपने किसी देशवासी से मिलने पर चमकने लगता है। हिंदुस्तानी पहले तो अपने देश से भागता है और बाद से उसी हिंदुस्तानी के लिए तरसने लगता है।

‘भारत छोड़ने के बाद आप बहुत दिन से भारत नहीं गए, आपकी श्रीमती बता रही थी। भारत के साथ आपका संपर्क तो रहता ही होगा?’

और मेरी नजर किताबों से ठसाठस भरी आल्मारियों पर पड़ी। दीवारों पर टँगे अनेक मानचित्र भारत के ही मानचित्र थे।

उसकी पत्नी अपनी भारत यात्रा को याद करके कुछ अनमनी सी हो गई थी, एक छाया सी मानो उसके चेहरे पर डोलने लगी हो।

‘लाल के कुछ मित्र संबंधी अभी भी जालंधर में रहते हैं। कभी-कभी उनका खत आ जाता है।’ फिर हँस कर बोली, ‘उनके खत मुझे पढ़ने के लिए नहीं देता। कमरा अंदर से बंद करके उन्हें पढ़ता है।’

‘तुम क्या जानो कि उन खतों से मुझे क्या मिलता है!’ लाल ने भावुक होते हुए कहा।

इस पर उसकी पत्नी उठ खड़ी हुई।

‘तुम लोग जालंधर की गलियों में घूमो, मैं चाय का प्रबंध करती हूँ।’ उसने हँस कर कहा और उन्हीं कदमों रसोई घर की और घूम गई।

भारत के प्रति उस आदमी की अत्यधिक भावुकता को देख कर मुझे अचंभा भी हो रहा था। देश के बाहर दशाब्दियों तक रह चुकने के बाद भी कोई आदमी बच्चों की तरह भावुक हो सकता है, मुझे अटपटा लग रहा था।

‘मेरे एक मित्र को भी आप ही की तरह भारत से बड़ा लगाव था’, मैंने आवाज को हल्का करते हुए मजाक के से लहजे में कहा, ‘वह भी बरसों तक देश के बाहर रहता रहा था। उसके मन में ललक उठने लगी कि कब मैं फिर से अपने देश की धरती पर पाँव रख पाऊँगा।’

कहते हुए मैं क्षण भर के लिए ठिठका। मैं जो कहने जा रहा हूँ, शायद मुझे नहीं कहना चाहिए। लेकिन फिर भी धृष्टता से बोलता चल गया, ‘ चुनाँचे वर्षों बाद सचमुच वह एक दिन टिकट कटवा कर हवाई जहाज द्वारा दिल्ली जा पहुँचा। उसने खुद यह किस्सा बाद में मुझे सुनाया था। हवाई जहाज से उतर कर वो बाहर आया, हवाई अड्डे की भीड़ में खड़े खड़े ही वह नीचे की और झुका और बड़े श्रद्धा भाव से भारत की धरती को स्पर्श करने के बाद खड़ा हुआ तो देखा, बटुआ गायब था…’

बुजुर्ग अभी भी मेरी ओर देखे जा रहा था। उसकी आँखों के भाव में एक तरह की दूरी आ गई थी, जैसे अतीत की अँधियारी खोह में से दो आँखें मुझ पर लगी हों।

‘उसने झुक कर स्पर्श तो किया यही बड़ी बात है,’ उसने धीरे से कहा, ‘दिल की साध तो पूरी कर ली।’

मैं सकुचा गया। मुझे अपना व्यवहार भौंड़ा-सा लगा, लेकिन उसकी सनक के प्रति मेरे दिल में गहरी सहानुभूति रही हो, ऐसा भी नहीं था।

वह अभी भी मेरी और बड़े स्नेह से देखे जा रहा था। फिर वह सहसा उठ खड़ा हुआ – ऐसे मौके तो रोज रोज नहीं आते। इसे तो हम सेलिब्रेट करेंगे।’ और पीछे जा कर एक आलमारी में से कोन्याक शराब की बोतल और दो शीशे के जाम उठा लाया।

जाम में कोन्याक उँड़ेली गई। वह मेरे साथ बगलगीर हुआ, और हमने इस अनमोल घड़ी के नाम जाम टकराए।

‘आपको चाहिए कि आप हर तीसरे चौथे साल भारत की यात्रा पर जाया करें। इससे मन भरा रहता है।’ मैंने कहा।

इसने सिर हिलाया ‘एक बार गया था, लेकिन तभी निश्चय कर लिया था कि अब कभी भारत नहीं आऊँगा।’ शराब के दो एक जामों के बाद ही वह खुलने लगा था, और उसकी भावुकता में एक प्रकार की अत्मीयता का पुट भी आने लगा था। मेरे घुटने पर हाथ रख कर बोला, ‘मैं घर से भाग कर आया था। तब मैं बहुत छोटा था। इस बात को अब लगभग चालीस साल होने को आए हैं’, वह थोड़ी देर के लिए पुरानी यादों में खो गया, पर फिर, अपने को झटका सा दे कर वर्तमान में लौटा लाया। ‘जिंदगी में कभी कोई बड़ी घटना जिंदगी का रुख नहीं बदलती, हमेशा छोटी तुच्छ सी घटनाएँ ही जिंदगी का रुख बदलती हैं। मेरे भाई ने केवल मुझे डाँटा था कि तुम पढ़ते लिखते नहीं हो, आवारा घूमते रहते हो, पिताजी का पैसा बरबाद करते हो… और मैं उसी रात घर से भाग गया था।’

कहते हुए उसने फिर से मेरे घुटने पर हाथ रखा और बड़ी आत्मीयता से बोला ‘अब सोचता हूँ, वह एक बार नहीं, दस बार भी मुझे डाँटता तो मैं इसे अपना सौभाग्य समझता। कम से कम कोई डाँटने वाला तो था।’

कहते कहते उसकी आवाज लड़खड़ा गई, ‘बाद में मुझे पता चला कि मेरी माँ जिंदगी के आखिरी दिनों तक मेरा इंतजार करती रही थी। और मेरा बाप, हर रोज सुबह ग्यारह बजे, जब डाकिए के आने का वक्त होता तो वह घर के बाहर चबूतरे पर आ कर खड़ा हो जाता था। और इधर मैंने यह दृढ़ निश्चय कर रखा था कि जब तक मैं कुछ बन ना जाऊँ, घरवालों को खत नहीं लिखूँगा।’

एक क्षीण सी मुस्कान उसके होंठों पर आई और बुझ गई’, फिर मैं भारत गया। यह लगभग पंद्रह साल बाद की बात रही होगी। मैं बड़े मंसूबे बाँध कर गया था…’

उसने फिर जाम भरे और अपना किस्सा सुनाने को मुँह खोला ही था कि चाय आ गई। नाटे कद की उसकी गोलमटोल पत्नी चाय की ट्रे उठाए, मुस्कराती हुई चली आ रही थी। उसे देख कर मन में फिर से सवाल उठा, क्या यह महिला जिंदगी का रुख बदलने का कारण बन सकती है?

चाय आ जाने पर वार्तालाप में औपचारिकता आ गई।

‘जालंधर में हम माई हीराँ के दरवाजे के पास रहते थे। तब तो जालंधर बड़ा टूटा फूटा सा शहर था। क्यों, हनी? तुम्हे याद है, जालंधर में हम कहाँ पर रहे थे?’

‘मुझे गलियों के नाम तो मालूम नहीं, लाल, लेकिन इतना याद है कि सड़कों पर कुत्ते बहुत घूमते थे, और नालियाँ बड़ी गंदी थीं, मेरी बड़ी बेटी – तब वह डेढ़ साल की थी – मक्खी देख कर डर गई थी। पहले कभी मक्खी नहीं देखी थी। वहीं पर हमने पहली बार गिलहरी को भी देखा था। गिलहरी उसके सामने से लपक कर एक पेड़ पर चड़ गई तो वह भागती हुई मेरे पास दौड़ आई थी। …और क्या था वहाँ?’

‘…हम लाल के पुश्तैनी घर में रहे थे…’

चाय पीते समय हम इधर उधर कि बातें करते रहे। भारत की अर्थव्यवस्था की, नए नए उद्योग धंधों की, और मुझे लगा कि देश से दूर रहते हुए भी यह आदमी देश की गति-विधि से बहुत कुछ परिचित है।

‘मैं भारत में रहते हुए भी भारत के बारे में बहुत कम जानता हूँ, आप भारत से दूर हैं, पर भारत के बारे में बहुत कुछ जानते हैं।’

उसने मेरी और देखा और हौले से मुस्करा कर बोला, ‘तुम भारत में रहते हो, यही बड़ी बात है।’

मुझे लगा जैसे सब कुछ रहते हुए भी, एक अभाव सा, इस आदमी के दिल को अंदर ही अंदर चाटता रहता है – एक खला जिसे जीवन की उपलब्धियाँ और आराम आसायश, कुछ भी नहीं पाट सकता, जैसे रह रह कर कोई जख्म सा रिसने लगता हो।

सहसा उसकी पत्नी बोली, ‘लाल ने अभी तक अपने को इस बात के लिए माफ नहीं किया कि उसने मेरे साथ शादी क्यों की।’

‘हेलेन…’

मैं अटपटा महसूस करने लगा। मुझे लगा जैसे भारत को ले कर पति पत्नी के बीच अक्सर झगड़ा उठ खड़ा होता होगा, और जैसे इस विषय पर झगड़ते हुए ही ये लोग बुढ़ापे की दहलीज तक आ पहुँचे थे। मन में आया कि मैं फिर से भारत की बुराई करूँ ताकि यह सज्जन आपनी भावुक परिकल्पनाओं से छुटकारा पाएँ लेकिन यह कोशिश बेसूद थी।

‘सच कहती हूँ’, उसकी पत्नी कहे जा रही थी, ‘इसे भारत में शादी करनी चाहिए थी। तब यह खुश रहता। मैं अब भी कहती हूँ कि यह भारत चला जाए, और मैं अलग यहाँ रहती रहूँगी। हमारी दोनो बेटियाँ बड़ी हो गई हैं। मैं अपना ध्यान रख लूँगी…’

वह बड़ी संतुलित, निर्लिप्त आवाज में कहे जा रही थी। उसकी आवाज में न शिकायत का स्वर था, न क्षोभ का। मानो अपने पति के ही हित की बात बड़े तर्कसंगत और सुचिंतित ढंग से कह रही हो।

‘पर मैं जानती हूँ, यह वहाँ पर भी सुख से नहीं रह पाएगा। अब तो वहाँ की गर्मी भी बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। और वहाँ पर अब इसका कौन बैठा है? माँ रही, न बाप। भाई ने मरने से पहले पुराना पुश्तैनी घर भी बेच दिया था।’

‘हेलेन, प्लीज…’ बुजुर्ग ने वास्ता डालने के से लहजे में कहा।

अबकी बार मैंने स्वयं इधर उधर की बातें छेड़ दीं। पता चला कि उनकी दो बेटियाँ हैं, जो इस समय घर पर नहीं थीं, बड़ी बेटी बाप की ही तरह इंजीनियर बनी थी, जबकी छोटी बेटी अभी युनिवर्सिटी में पढ़ रही थी, कि दोनो बड़ी समझदार और प्रतिभासंपन्न हैं। युवतियाँ हैं।

क्षण भर के लिए मुझे लगा कि मुझे इस भावुकता की ओर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए, इसे सनक से ज्यादा नहीं समझना चाहिए, जो इस आदमी को कभी कभी परेशान करने लगती है जब अपने वतन का कोई आदमी इससे मिलता है। मेरे चले जाने के बाद भावुकता का यह ज्वार उतर जाएगा और यह फिर से अपने दैनिक जीवन की पटरी पर आ जाएगा।

आखिर चाय का दौर खतम हुआ. और हमने सिगरेट सुलगाया। कोन्याक का दौर अभी भी थोड़े थोड़े वक्त के बाद चल रहा था। कुछ देर सिगरेटों सिगारों की चर्चा चली, इसी बीच उसकी पत्नी चाय के बर्तन उठा कर किचन की ओर बढ़ गई।

‘हाँ, आप कुछ बता रहे थे कि कोई छोटी सी घटना घटी थी…’

वह क्षण भर के लिए ठिठका, फिर सिर टेढ़ा करके मुस्कुराने लगा, ‘तुम अपने देश से ज्यादा देर बाहर नहीं रहे इस लिए नहीं जानते कि परदेश में दिल की कैफियत क्या होती है। पहले कुछ साल तो मैं सब कुछ भूले रहा पर भारत से निकले दस-बारह साल बाद भारत की याद रह रह कर मुझे सताने लगी। मुझ पर इक जुनून सा तारी होने लगा। मेरे व्यवहार में भी इक बचपना सा आने लगा। कभी कभी मैं कुर्ता-पायजामा पहन कर सड़कों पर घूमने लगता था, ताकि लोगों को पता चले कि मैं हिंदुस्तानी हूँ, भारत का रहने वाला हूँ। कभी जोधपुरी चप्पल पहन लेता, जो मैंने लंदन से मँगवाई थी, लोग सचमुच बड़े कुतूहल से मेरी चप्पल की ओर देखते, और मुझे बड़ा सुख मिलता। मेरा मन चाहता कि सड़कों पर पान चबाता हुआ निकलूँ, धोती पहन कर चलूँ। मैं सचमुच दिखाना चाहता था कि मैं भीड़ में खोया अजनबी नहीं हूँ, मेरा भी कोई देश है, मैं भी कहीं का रहने वाला हूँ। परदेस में रहने वाले हिंदुस्तानी के दिल को जो बात सबसे ज्यादा सालती है, वह यह कि वह परदेश में एक के बाद एक सड़क लाँघता चला जाए और उसे कोई जानता नहीं, कोई पहचानता नहीं, जबकि अपने वतन में हर तीसरा आदमी वाकिफ होता है। दिवाली के दिन मैं घर में मोमबत्तियाँ ला कर जला देता, हेलेन के माथे पर बिंदी लगाता, उसकी माँग में लाल रंग भरता। मैं इस बात के लिए तरस तरस जाता कि रक्षा बंधन का दिन हो और मेरी बहिन अपने हाथों से मुझे राखी बाँधे, और कहे ‘मेरा वीर जुग जुग जिए!’ मैं ‘वीर’ शब्द सुन पाने के लिए तरस तरस जाता। आखिर मैंने भारत जाने का फैसला कर लिया। मैंने सोचा, मैं हेलेन को भी साथ ले चलूँगा और अपनी डेढ़ बरस की बच्ची को भी। हेलेन को भारत की सैर कराऊँगा और यदि उसे भारत पसंद आया तो वहीं छोटी मोटी नौकरी करके रह जाऊँगा।’

‘पहले तो हम भारत में घूमते-घामते रहे। दिल्ली, आगरा, बनारस… मैं एक एक जगह बड़े चाव से इसे दिखाता और इसकी आँखों में इसकी प्रतिक्रिया देखता रहता। इसे कोई जगह पसंद होती तो मेरा दिल गर्व से भर उठता।’

‘फिर हम जलंधर गए।’ कहते ही वह आदमी फिर से अनमना सा हो कर नीचे की और देखने लगा और चुपचाप सा हो गया, मुझे लगा जैसे वह मन ही मन दूर अतीत में खो गया है और खोता चला जा रहा है। पर सहसा उसने कंधे झटक दिए और फर्श की ओर आँखे लगाए ही बोला, ‘जालंधर में पहुँचते ही मुझे घोर निराशा हुई। फटीचर सा शहर, लोग जरूरत से ज्यादा काले और दुबले। सड़कें टूटी हुई। सभी कुछ जाना पहचाना था लेकिन बड़ा छोटा छोटा और टूटा फूटा। क्या यही मेरा शहर है जिसे मैं हेलेन को दिखाने लाया हूँ? हमारा पुश्तैनी घर जो बचपन में मुझे इतना बड़ा बड़ा और शानदार लगा करता था, पुराना और सिकुड़ा हुआ। माँ बाप बरसों पहले मर चुके थे। भाई प्यार से मिला लेकिन उसे लगा जैसे मैं जायदाद बाँटने आया हूँ और वह पहले दिन से ही खिंचा खिंचा रहने लगा। छोटी बहन की दस बरस पहले शादी हो चुकी थी और वह मुरादाबाद में जा कर रहने लगी थी। क्या मैं विदेशों में बैठा इसी नगर के स्वप्न देखा करता था? क्या मैं इसी शहर को देख पाने के लिए बरसों से तरसता रहा हूँ? जान पहचान के लोग बूढ़े हो चुके थे। गली के सिरे पर कुबड़ा हलवाई बैठा करता था। अब वह पहले से भी ज्यादा पिचक गया था, और दुकान में चौकी पर बैठने के बजाय, दुकान के बाहर खाट पर उकड़ूँ बैठा था। गलियाँ बोसीदा, सोई हुई। मैं हेलेन को क्या दिखाने लाया हूँ? दो तीन दिन इसी तरह बीत गए। कभी मैं शहर से बाहर खेतों में चला जाता, कभी गली बाजार में घूमता। पर दिल में कोई स्फूर्ति नहीं थी, कोई उत्साह नहीं था। मुझे लगा जैसे मैं फिर किसी पराए नगर में पहुँच गया हूँ।

तभी एक दिन बाजार में जाते हुए मुझे अचानक ऊँची सी आवाज सुनायी दी – ‘ओ हरामजादे!’ मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया। यह हमारे शहर की परंपरागत गाली थी जो चौबिसों घंटे हर शहरी की जबान पर रहती थी। केवल इतना भर विचार मन में उठा कि शहर तो बूढ़ा हो गया है लेकिन उसकी तहजीब ज्यों की त्यों कायम है।

‘ओ हराम जादे! अपने बाप की तरफ देखता भी नहीं?’

मुझे लगा जैसे कोई आदमी मुझे ही संबोधन कर रहा है। मैंने घूम कर देखा। सड़क के उस पार, साइकिलों की एक दुकान के चबूतरे पर खड़ा एक आदमी मुझे ही बुला रहा था।

मैंने ध्यान से देखा। काली काली फनियर मूँछों, सपाट गंजे सिर और आँखों पर लगे मोटे चश्मे के बीच से एक आकृति सी उभरने लगी। फिर मैंने झट से उसे पहचान लिया। वह तिलकराज था, मेरा पुराना सहपाठी।

‘हरामजादे! अब बाप को पहचानता भी नहीं है!’ दूसरे क्षण हम दोनों एक दूसरे की बाँहों में थे।

‘ओ हराम दे! बाहर की गया, साहब बन गया तूँ?’ तेरी साहबी विच मैं…’ और उसने मुझे जमीन पर से उठा लिया। मुझे डर था कि वह सचमुच ही जमीन पर मुझे पटक न दे। दूसरे क्षण हम एक दूसरे को गालियाँ निकाल रहे थे।

मुझे लड़कपन का मेरा दोस्त मिल गया था। तभी सहसा मुझे लगा जैसे जालंधर मिल गया है, मुझे मेरा वतन मिल गया है। अभी तक मैं अपने शहर में अजनबी सा घूम रहा था। तिलकराज से मिलने की देर थी कि मेरा सारा परायापन जाता रहा। मुझे लगा जैसे मैं यहीं का रहने वाला हूँ। मैं सड़क पर चलते किसी भी आदमी से बात कर सकता हूँ, झगड़ सकता हूँ। हर इनसान कहीं का बन कर रहना चाहता है। अभी तक मैं अपने शहर में लौट कर भी परदेसी था, मुझे किसी ने पहचाना नहीं था। अपनाया नहीं था। यह गाली मेरे लिए वह तंतु थी, सोने की वह कड़ी थी जिसने मुझे मेरे वतन से, मेरे लोगों से, मेरे बचपन और लड़कपन से, फिर से जोड़ दिया था।

तिलकराज की और मेरी हरकतों में बचपना था, बेवकूफी थी। पर उस वक्त वही सत्य था, और उसकी सत्यता से आज भी मैं इनकार नहीं कर सकता। दिल दुनिया के सच बड़े भौंड़े पर बड़े गहरे और सच्चे होते हैं।

‘चल, कहीं बैठ कर चाय पीते हैं’, तिलकराज ने फिर गाली दे कर कहा। ‘वह पंजाबी दोस्त क्या जो गाली दे कर, पक्कड़ तोल कर बगलगीर न हो जाए।’

हम दोनों, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, खरामा खरामा माई हीराँ के दरवाजे की ओर जाने लगे। मेरी चाल में पुराना अलसाव आ गया। मैं जालंधर की गलियों में यूँ घूमने लगा जैसे कोई जागीरदार अपनी जागीर में घूमता है। मैं पुलक पुलक रहा था। किसी किसी वक्त मन में से आवाज उठती, तुम यहाँ के नहीं हो, पराए हो, परदेसी हो, पर मैं अपने पैर और भी जोर से पटक पटक कर चलने लगता।

‘चुच्चा हलवाई अभी भी वहीं पर बैठता है?’

‘और क्या, तू हमें धोखा दे गया है, और लोगों ने तो धोखा नहीं दिया।’

इसी अल्हड़पन से, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, हम किसी जमाने में इन्हीं सड़कों पर घूमा करते थे। तिलकराज के साथ मैं लड़कपन में पहुँच गया था, उन दिनों का अलबेलापन महसूस करने लग था।

हम एक मैले कुचैले ढाबे में जा बैठे। वही मक्खियों और मैल से अटा गंदा मेज, पर मुझे परवाह नहीं थी, यह मेरे जालंधर के ढाबे का मेज था। उस वक्त मेरा दिल करता कि हेलेन मुझे इस स्थिति में आ कर देखे, तब वह मुझे जान लेगी कि मैं कौन हूँ, कहाँ का रहने वाला हूँ, कि दुनिया में एक कोना ऐसा भी है जिसे मैं अपना कह सकता हूँ, यह गंदा ढाबा, यह धुआं भरी फटीचर खोह।

ढाबे से निकल कर हम देर तक सड़कों पर मटरगश्ती करते रहे यहाँ तक कि थक कर चूर हो गए। वह उसी तरह मुझे अपने घर के सामने तक ले गया। जैसे लड़कपन में मैं उसके साथ चलता हुआ, उसे उसके घर तक छोड़ने जाता था, फिर वह मुझे मेरे घर तक छोड़ने आता था।

तभी उसने कहा, ‘कल रात खाना तुम मेरे घर पर खाओगे। अगर इनकार किया तो साले, यहीं तुझे गले से पकड़ कर नाली में घुसेड़ दूँगा।’

‘आऊँगा,’ मैंने झट से कहा।

‘अपनी मेम को भी लाना। आठ बजे मैं तेरी राह देखूँगा। अगर नहीं आया तो साले हराम दे…’

और पुराने दिनों की ही तरह उसने पहले हाथ मिलाया और फिर घुटना उठा कर मेरी जाँघ पर दे मारा। यही हमारा विदा होने का ढंग हुआ करता था। जो पहले ऐसा कर जाए कर जाए। मैंने भी उसे गले से पकड़ लिया और नीचे गिराने का अभिनय करने लगा।

यह स्वाँग था। मेरी जालंधर की सारी यात्रा ही छलावा थी। कोई भावना मुझे हाँके चले जा रही थी और मैं इस छलावे में ही खोया रहना चाहता था।

दूसरे रोज, आठ बजते न बजते, हेलेन और मैं उसके घर जा पहुँचे। बच्ची को हमने पहले ही खिला कर सुला दिया था। हेलेन ने अपनी सबसे बढ़िया पोशाक पहनी, काले रंग का फ्राक, जिसपर सुनहरी कसीदाकारी हो रही थी, कंधों पर नारंगी रंग का स्टोल डाला, और बार बार कहे जाती : ‘तुम्हारा पुराना दोस्त है तो मुझे बन सँवर कर ही जाना चाहिए ना।’

मैं हाँ कह देता पर उसके एक एक प्रसाधन पर वह और भी ज्यादा दूर होती जा रही थी। न तो काला फ्राक और बनाव सिंगार और न स्टोल और इत्र फुलेल ही जालंधर में सही बैठते थे। सच पूछो तो मैं चाहता भी नहीं था कि हेलेन मेरे साथ जाए। मैंने एकाध बार उसे टालने की कोशिश भी की, जिस पर वह बिगड़ कर बोली, ‘वाह जी, तुम्हारा दोस्त हो और मैं उससे न मिलूँ? फिर तुम मुझे यहाँ लाए ही क्यों हो?’

हम लोग तो ठीक आठ बजे उसके घर पहुँच गए लेकिन उल्लू के पट्ठे ने मेरे साथ धोखा किया। मैं समझे बैठा था कि मैं और मेरी पत्नी ही उसके परिवार के साथ खाना खाएँगे। पर जब हम उसके घर पहुँचे तो उसने सारा जालंधर इकट्ठा कर रखा था, सारा घर मेहमानों से भरा था। तरह तरह के लोग बुलाए गए थे। मुझे झेंप हुई। अपनी ओर से वह मेरा शानदार स्वागत करना चाहता था। वह भी पंजाबी स्वभाव के अनुरूप ही। दोस्त बाहर से आए और वह उसकी खातिरदारी न करे। अपनी जमीन जायदाद बेच कर भी वह मेरी खातिरदारी करता। अगर उसका बस चलता तो वह बैंड बाजा भी बुला लेता। पर मुझे बड़ी कोफ्त हुई। जब हम पहुँचे तो बैठक वाला कमरा मेहमानों से भरा था, उनमें से अनेक मेरे परिचित भी निकल आए और मेरे मन में फिर हिलोर सी उठने लगी।

पत्नी से मेरा परिचय कराने के लिए मुझे बैठक में से रसोईघर की ओर ले गया। वह चूल्हे के पास बैठी कुछ तल रही थी। वह झट से उठ खड़ी हुई दुपट्टे के कोने से हाथ पोंछते हुए आगे बढ़ आई। उसका चेहरा लाल हो रहा था और बालों की लट माथे पर झूल आई थी। ठेठ पंजाबिन, अपनत्व से भरी, मिलनसार, हँसमुख। उसे यों उठते देख कर मेरा सारा शरीर झनझना उठा। मेरी भावज भी चूल्हे से ऐसे ही उठ आया करती थी, दुपट्टे के कोने से हाथ पोंछती हुई, मेरी बड़ी बहनें भी, मेरी माँ भी। पंजाबी महिला का सारा बाँकापन, सारी आत्मीयता उसमें जैसे निखर निखर आई थी। किसी पंजाबिन से मिलना हो तो रसोईघर की दहलीज पर ही मिलो। मैं सराबोर हो उठा। वह सिर पर पल्ला ठीक करती हुई, लजाती हुई सी मेरे सामने आ खड़ी हुई।

‘भाभी, यह तेरा घरवाला तो पल्ले दर्जे का बेवकूफ है, तुम इसकी बातों में क्यों आ गईं?’

‘इतना आडंबर करने की क्या जरूरत थी? हम लोग तो तुमसे मिलने आए हैं…’

फिर मैंने तिलकराज की और मुखातिब हो कर कह, ‘उल्लू के पट्ठे, तुझे मेहमाननवाजी करने को किसने कहा था? हरामी, क्या मैं तेरा मेहमान हूँ? … मैं तुझसे निबट लूँगा।’

उसकी पत्नी कभी मेरी ओर देखती, कभी अपने पति की ओर फिर धीरे से बोली, ‘आप आएँ और हम खाना भी न करें? आपके पैरों से तो हमारा घर पवित्र हुआ है।’

वही वाक्य जो शताब्दियों से हमारी गृहणियाँ मेहमानों से कहती आ रही हैं।

फिर वह हमें छोड़ कर सीधा मेरी पत्नी से मिलने चली गई और जाते ही उसका हाथ पकड़ लिया और बड़ी आत्मीयता से उसे खींचती हुई एक कुर्सी की ओर ले गई। वह यों व्यवहार कर रही थी जैसे उसका भाग्य जागा हो। हेलेन को कुर्सी पर बैठाने के बाद वह स्वयं नीचे फर्श पर बैठ गई। वह टूटी फूटी अंग्रेजी बोल लेती थी और बेधड़क बोले जा रही थी। हर बार उनकी आँखें मिलतीं तो वह हँस देती। उसके लिए हेलेन तक अपने विचार पहुँचाना कठिन था लेकिन अपनी आत्मीयता और स्नेह भाव उस तक पहुँचाने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई।

उस शाम तिलकराज की पत्नी हेलेन के आगे पीछे घूमती रही। कभी अंदर से कढ़ाई के कपड़े उठा लाती और एक-एक करके हेलेन को दिखाने लगती। कभी उसका हाथ पकड़ कर उसे रसोईघर में ले जाती, और उसे एक एक व्यंजन दिखाती कि उसने क्या क्या बनाया है और कैसे कैसे बनाया है। फिर वह अपनी कुल्लू की शाल उठा लाई और जब उसने देखा कि हेलेन को पसंद आई है, तो उसने उसके कंधों पर डाल दी।

इस सारी आवभगत के बावजूद हेलेन थक गई। भाषा की कठिनाई के बावजूद वह बड़ी शालीनता के साथ सभी से पेश आई। पर अजनबी लोगों के साथ आखिर कोई कितनी देर तक शिष्टाचार निभाता रहे? अभी ड्रिंक्स ही चल रहे थे जब वह एक कुर्सी पर थक कर बैठ गई। जब कभी मेरी नजर हेलेन की ओर उठती तो वह नजर नीची कर लेती, जिसक मतलब था कि मैं चुपचाप इस इंतजार में बैठी हूँ कि कब तुम मुझे यहाँ से ले चलो।

रात के बारह बजे के करीब पार्टी खत्म हुई और तिलकराज के यार दोस्त नशे में झूमते हुए अपने-अपने घर जाने लगे। उस वक्त तक काफी शोर गुल होने लगा था, कुछ लोग बहकने भी लगे थे। एक आदमी के हाथ से शराब का गिलास गिर कर टूट गया था।

जब हम लोग भी जाने को हुए और हेलेन भी उठ खड़ी हुई तो तिलकराज ने पंजाबी दस्तूर के मुताबिक कहा – बैठ जा, बैठ जा, कोई जाना वाना नहीं है।

‘नहीं यार, अब चलें। देर हो गई है।’

उसने फिर मुझे धक्का दे कर कुर्सी पर फेंक दिया।

कुछ हल्का हल्का सरूर, कुछ पुरानी याद, तिलकराज का प्यार और स्नेह उसकी पत्नी का आत्मीयता से भरा व्यवहार, मुझे भला लग रहा था। सलवार कमीज पहने बालों का जूड़ा बनाए, चूड़ियाँ खनकाती एक कमरे से दूसरे कमरे में जाती हुई तिलकराज की पत्नी मेरे लिए मेरे वतन का मुजस्समा बन गई थी, मेरे देश की समुची संस्कृति उसमें सिमट आई थी। मेरे दिल में, कहीं गहरे में, एक टीस सी उठी कि मेरे घर में भी कोई मेरे ही देश की महिला एक कमरे से दूसरे कमरे में घूमा करती, उसी की हँसी गूँजती, मेरे ही देश के गीत गुनगुनाती। वर्षों से मैं उन बोलों के लिए तरस गया था जो बचपन में अपने घर में सुना करता था।

हेलेन से मुझे कोई शिकायत नहीं थी। मेरे लिए उसने क्या नहीं किया था। उसने चपाती बनाना सीख लिया था। दाल छौंकना सीख लिया था। शादी के कुछ समय बाद ही वह मेरे मुँह से सुने गीत-टप्पे भी गुनगुनाने लगी थी। कभी कभी सलवार कमीज पहन कर मेरे साथ घूमने निकल पड़ती। रसोईघर की दीवार पर उसने भारत का एक मानचित्र टाँग दिया था जिस पर अनेक स्थानों पर लाल पेंसिल से निशान लगा रखे थे कि जालंधर कहाँ है और दिल्ली कहाँ है और अमृतसर कहाँ है जहाँ मेरी बड़ी बहन रहती थी। भारत संबंधी जो किताब मिलती, उठा लाती, जब कभी कोई हिंदुस्तानी मिल जाता उसे आग्रह अनुरोध करके घर ले आती। पर उस समय मेरी नजर में यह सब बनावट था, नकल थी, मुलम्मा था – इनसान क्यों नहीं विवेक और समझदारी के बल पर अपना जीवन व्यतीत कर सकता? क्यों सारा वक्त तरह तरह के अरमान उसके दिल को मथते रहते हैं?

‘फिर?’ मैंने आग्रह से पूछा।

उसने मेरी ओर देखा और उसके चेहरे की मांसपेशियों में हल्का सा कंपन हुआ। वह मुस्करा कर कहने लगा, ‘तुम्हे क्या बताऊँ।’ तभी मैं एक भूल कर बैठा। हर इनसान कहीं न कहीं पागल होता है और पागल बना रहना चाहता है… जब मैं विदा लेने लगा और तिलकराज कभी मुझे गलबहियाँ दे कर और कभी धक्का दे कर बिठा रहा था और हेलेन भी पहले से दरवाजे पर जा खड़ी हुई थी, तभी तिलकराज की पत्नी लपक कर रसोईघर की ओर से आई और बोली, ‘हाय, आप लोग जा रहे हैं? यह कैसे हो सकता है? मैंने तो खास आपके लिए सरसों का साग और मक्के की रोटियाँ बनाई हैं।’

मैं ठिठक गया। सरसों का साग और मक्की की रोटियाँ पंजाबियों का चहेता भोजन है।

‘भाभी, तुम भी अब कह रही हो? पहले अंटसंट खिलाती रही हो और अब घर जाने लगे हैं तो…’

‘मैं इतने लोगों के लिए कैसे मक्की की रोटियाँ बना सकती थी? अकेली बनाने वाली जो थी। मैंने आपके लिए थोड़ी सी बना दी। यह कहते थे कि आपको सरसों का साग और मक्की की रोटी बहुत पसंद है…’

सरसों का साग और मक्की की रोटी। मैं चहक उठा, और तिलकराज को संबोधन करके कहा, ‘ओ हरामी, मुझे बताया क्यों नहीं?’ और उसी हिलोरे में हेलेन से कहा, ‘आओ हेलेन, भाभी ने सरसों का साग बनाया है। यह तो तुम्हे चखना ही होगा।’

हेलेन खीज उठी। पर अपने को संयत कर मुस्कुराती हुई बोली, ‘मुझे नहीं, तुम्हे चखना होगा।’ फिर धीरे से कहने लगी, ‘मैं बहुत थक गई हूँ। क्या यह साग कल नहीं खाया जा सकता?’

सरसों का साग, नाम से ही मैं बावला हो उठा था। उधर शराब का हल्का हल्का नशा भी तो था।

‘भाभी ने खास हमारे लिए बनाया है। तुम्हे जरूर अच्छा लगेगा।’

फिर बिना हेलेन के उत्तर का इंतजार किए, साग है तो मैं तो रसोईघर के अंदर बैठ कर खाऊँगा। मैंने बच्चों की तरह लाड़ से कहा, ‘चल बे, उल्लू के पट्ठे, उतार जूते, धो हाथ और बैठ जा थाली के पास! एक ही थाली में खाएँगे।’

छोटा सा रसोईघर था। हमारे अपने घर में भी ऐसा ही रसोईघर हुआ करता था जहाँ माँ अंगीठी के पास रोटियाँ सेंका करती थी और हम घर के बच्चे, साझी थालियों में झुके लुकमे तोड़ा करते थे।

फिर एक बार चिरपरिचित दृश्य मानों अतीत में से उभर कर मेरी आँखों के सामने घूमने लगा था और मैं आत्मविभोर हो कर उसे देखे जा रहा था। चूल्हे की आग की लौ में तिलकराज की पत्नी के कान का झूमर चमक चमक जाता था। सोने के काँटे में लाल नगीना पंजाबियों को बहुत फबता है। इस पर हर बार तवे पर रोटी सेंकने पर उसकी चूड़ियाँ खनक उठतीं और वह दोनो हाथों से गरम गरम रोटी तवे पर से उतार कर हँसते हुए हमारी थाली में डाल देती।

यह दृश्य मैं बरसों के बाद देख रहा था और यह मेरे लिए किसी स्वप्न से भी अधिक सुंदर और हृदयग्राही था। मुझे हेलेन की सुध भी नहीं रही। मैं बिल्कुल भूले हुए था कि बैठक में हेलेन अकेली बैठी मेरा इंतजार कर रही है। मुझे डर था कि अगर मैं रसोईघर में से उठ गया तो स्वप्न भंग हो जाएगा। यह सुंदरतम चित्र टुकड़े टुकड़े हो जाएगा। लेकिन तिलकराज की पत्नी उसे नहीं भूली थी। वह सबसे पहले एक तशतरी में मक्की की रोटी और थोड़ा सा साग और उस पर थोड़ा सा मक्खन रख कर हेलेन के लिए ले गई थी। बाद में भी, दो एक बार बीच बीच में उठ कर उसके पास कुछ न कुछ ले जाती रही थी।

खाना खा चुकने पर, जब हम लोग रसोईघर में से निकल कर बैठक में आए तो हेलेन कुर्सीं में बैठे बैठे सो गई थी और तिपाई पर मक्की की रोटी अछूती रखी थी। हमारे कदमों की आहट पा कर उसने आँखें खोलीं और उसी शालीन शिष्ट मुस्कान के साथ उठ खड़ी हुई।

विदा ले कर जब हम लोग बाहर निकले तो चारों ओर सन्नाटा छाया था। नुक्क्ड़ पर हमें एक ताँगा मिल गया। ताँगे में घूमे बरसों बीत चुके थे, मैंने सोचा हेलेन को भी इसकी सवारी अच्छी लगेगी। पर जब हम लोग ताँगे में बैठ कर घर की ओर जाने लगे तो रास्ते में हेलेन बोली, ‘कितने दिन और तुम्हारा विचार जालंधर में रहने का है?’

‘क्यों अभी से ऊब गईं क्या?’ आज तुम्हे बहुत परेशान किया ना, आई ऐम सारी।’

हेलेन चुप रही, न हूँ, न हाँ।

‘हम पंजाबी लोग सरसों के साग के लिए पागल हुए रहते हैं। आज मिला तो मैंने सोचा जी भर के खाओ। तुम्हे कैसे लगा?’

‘सुनो, मैं सोचती हूँ मैं यहाँ से लौट जाऊँ, तुम्हारा जब मन आए, चले आना।’

‘यह क्या कह रही हो हेलेन, क्या तुम्हे मेरे लोग पसंद नहीं हैं?’

भारत में आने पर मुझे मन ही मन कई बार यह खयाल आया था कि अगर हेलेन और बच्ची साथ में नहीं आतीं तो मैं खुल कर घूम फिर सकता था। छुट्टी मना सकता था। पर मैं स्वयं ही बड़े आग्रह से उसे अपने साथ लाया था। मैं चाहता था कि हेलेन मेरा देश देखे, मेरे लोगों से मिले, हमारी नन्ही बच्ची के संस्कारों में भारत के संस्कार भी जुड़ें और यदि हो सके तो मैं भारत में ही छोटी मोटी नौकरी कर लूँ।

हेलेन की शिष्ट, संतुलित आवाज में मुझे रुलाई का भास हुआ। मैंने दुलार से उसे आलिंगन में भरने की कोशिश की। उसमे धीरे से मेरी बाँह को परे हटा दिया। मुझे दूसरी बार उसके इर्द-गिर्द अपनी बाँह डाल देनी चाहिए थी, लेकिन मैं स्वयं तुनक उठा।

‘तुम तो बड़ी डींग मारा करतीं हो कि तुम्हे कुछ भी बुरा नहीं लगता और अभी एक घंटे में ही कलई खुल गई।’

ताँगे में हिचकोले आ रहे थे। पुराना फटीचर सा ताँगा था, जिसके सब चूल ढीले थे। हेलेन को ताँगे के हिचकोले परेशान कर रहे थे। ऊबड़-खाबड़, गड्ढों से भरी सड़क पर हेलेन बार बार सँभल कर बैठने की कोशिश कर रही थी।

‘मैं सोचती हूँ, मैं बच्ची को ले कर लौट जाऊँगी। मेरे यहाँ रहते तुम लोगों से खुल कर नहीं मिल सकते।’ उसकी आवाज में औपचारिकता का वैसा ही पुट था जैसा सरसों के साग की तारीफ करते समय रहा होगा, झूठी तारीफ और यहाँ झूठी सद्भावना।

‘तुम खुद सारा वक्त गुमसुम बैठी रही हो। मैं इतने चाव से तुम्हे अपना देश दिखाने लाया हूँ।’

‘तुम अपने दिल की भूख मिटाने आए हो, मुझे अपना देश दिखाने नहीं लाए’, उसने स्थिर, समतल, ठंडी आवाज में कहा, और अब मैंने तुम्हारा देश देख लिया है।’

मुझे चाबुक सी लगी।

‘इतना बुरा क्या है मेरे देश में जो तुम इतनी नफरत से उसके बारे में बोल रही हो? हमारा देश गरीब है तो क्या, है तो हमारा अपना।’

‘मैंने तुम्हारे देश के बारे में कुछ नहीं कहा।’

‘तुम्हारी चुप्पी ही बहुत कुछ कह देती है। जितनी ज्यादा चुप रहती हो उतना ही ज्यादा विष घोलती हो।’

वह चुप हो गई। अंदर ही अंदर मेरा हीनभाव जिससे उन दिनों हम सब हिंदुस्तानी ग्रस्त हुआ करते थे, छटपटाने लगा था। आक्रोश और तिलमिलाहट के उन क्षणों में भी मुझे अंदर ही अंदर कोई रोकने की कोशिश कर रहा था। अब बात और आगे नहीं बढ़ाओ, बाद में तुम्हे अफसोस होगा, लेकिन मैं बेकाबू हुआ जा रहा था। अँधेरे में यह भी नहीं देख पाया कि हेलेन की आँखें भर आई हैं और वह उन्हें बार बार पोंछ रही है। ताँगा हिचकोले खाता बढ़ा जा रहा था और साथ साथ मेरी बौखलाहट भी बढ़ रही थी। आखिर ताँगा हमारे घर के आगे जा खड़ा हुआ। हमारे घर की बत्ती जलती छोड़ कर घर के लोग अपने अपने कमरों में आराम से सो रहे थे। कमरे मे पहुँच कर हेलेन ने फिर एक बार कहा, ‘तुम्हे किसी हिंदुस्तानी लड़की से शादी करनी चाहिए थी। उसके साथ तुम खुश रहते। मेरे साथ तुम बँधे बँधे महसूस करते हो।’

हेलेन ने आँख उठा कर मेरी ओर देखा। उसकी नीली आँखें मुझे काँच कि बनी लगी, ठंडी, कठोर, भावनाहीन, ‘तुम सीधा क्यों नही कहती हो कि तुम्हे एक हिंदुस्तानी के साथ ब्याह नहीं करना चाहिए था। मुझ पर इस बात का दोष क्यों लगाती हो?’

‘मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा’, बह बोली और पार्टीशन के पीछे कपड़े बदलने चली गई।

दीवार के साथ एक ओर हमारी बच्ची पालने में सो रही थी। मेरी आवाज सुन कर वह कुनकुनाई, इस पर हेलेन झट से पार्टीशन के पीछे से लौट आई और बच्ची को थपथपा कर सुलाने लगी। बच्ची फिर से गहरी नींद में सो गई। और हेलेन पार्टीशन की ओर बढ़ गई। तभी मैंने पार्टीशन की ओर जा कर गुस्से से कहा, ‘जब से भारत आए हैं, आज पहले दिन कुछ दोस्तों से मिलने का मौका मिला है, तुम्हे वह भी बुरा लगा है। लानत है ऐसी शादी पर!’

मैं जानता था पार्टीशन के पीछे से कोई उत्तर नहीं आएगा। बच्ची सो रही हो तो हेलेन कमरे में चलती भी दबे पाँव थी। बोलने का तो सवाल ही नहीं उठता।

पर वह उसी समतल आवाज में धीरे से बोली, तुम्हे मेरी क्या परवाह। तुम तो मजे से अपने दोस्त की बीवी के साथ फ्लर्ट कर रहे थे।’

‘हेलेन!’ मुझे आग लग गई, ‘क्या बक रही हो।’

मुझे लगा जैसे उसने एक अत्यंत पवित्र, अत्यंत कोमल और सुंदर चीज को एक झटके में तोड़ दिया हो।

‘तुम समझती हो मैं अपने मित्र की बीवी के साथ फ्लर्ट कर रहा था?’

‘मैं क्या जानूँ तुम क्या कर रहे थे। जिस ढंग से तुम सारा वक्त उसकी ओर देख रहे थे…’

दूसरे क्षण मैं लपक कर पार्टीशन के पीछे जा पहुँचा और हेलेन के मुँह पर सीधा थप्पड़ दे मारा।

उसने दोनो हाथों से अपना मुँह ढाँप लिया। एक बार उसकी आँखें टेढ़ी हो कर मेरी ओर उठीं। पर वह चिल्लाई नहीं। थप्पड़ पड़ने पर उसका सिर पार्टीशन से टकराया था। जिससे उसकी कनपटी पर चोट आई थी।

‘मार लो, अपने देश में ला कर तुम मेरे साथ ऐसा व्यवहार करोगे, मैं नहीं जानती थी।’

उसके मुँह से यह वाक्य निकलने की देर थी कि मेरी टाँगें लरज गईं और सारा शरीर ठंडा पड़ गया। हेलेन ने चेहरे पर से हाथ हटा लिए थे। उसके गाल पर थप्पड़ का गहरा निशान पड़ गया था। पार्टीशन के पीछे वह केवल शमीज पहने सिर झुकाए खड़ी थी क्योंकि उसने फ्राक उतार दिया था। उसके सुनहरे बाल छितरा कर उसके माथे पर फैले हुए थे।

यह मैं क्या कर बैठा था? यह मुझे क्या हो गया था? मैं आँखें फाड़े उसकी ओर देखे जा रहा था और मेरा सारा शरीर निरुद्ध हुआ जा रहा था। मेरे मुँह से फटी फटी सी एक हुंकार निकली, मानो दिल का सार क्षोभ और दर्द अनुकूल शब्द न पा कर मात्र क्रंदन में ही छटपटा कर व्यक्त हो पाया हो। मैं पार्टीशन के पीछे से निकल कर बाहर आँगन में चला गया। यह मुझसे क्या हो गया है? यही एक वाक्य मेरे मन में बार बार चक्कर काट रहा था…

इस घटना के तीन दिन बाद हमने भारत छोड़ दिया। मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब लौट कर नहीं आऊँगा। उस दिन जो जालंधर छोड़ा तो फिर लौट कर नहीं गया…

सीढ़ियों पर कदमों की आवाज आई। उसी वक्त रसोईघर से हेलेन भी एप्रेन पहने चली आई। सीढ़ियों की ओर से हँसने चहकने और तेज तेज सीढ़ियाँ चढ़ने की आवाज आई। जोर से दरवाजा खुला और हाँफती हाँफती दो युवतियाँ – लाल साहब की बेटियाँ – अंदर दाखिल हुईं। बड़ी बेटी ऊँची लंबी थी, उसके बाल काले थे और आँखें किरमिची रंग की थीं। छोटी के हाथ में किताबें थीं, उसका रंग कुछ कुछ साँवला था, और आँखों में नीली नीली झाइयाँ थीं। दोनो ने बारी बारी से माँ और बाप के गाल चूमे, फिर झट से चाय की तिपाई पर से केक के टुकड़े उठा उठा कर हड़पने लगीं। उनकी माँ भी कुर्सी पर बैठ गई और दोनो बेटियाँ दिन भर की छोटी छोटी घटनाएँ अपनी भाषा में सुनाने लगीं। सारा घर उनकी चहकती आवाजों से गूँजने लगा। मैंने लाल की ओर देखा। उसकी आँखों में भावुकता के स्थान पर स्नेह उतर आया था।

‘यह सज्जन भारत से आए हैं। यह भी जालंधर के रहने वाले हैं।’

बड़ी बेटी ने मुस्करा कर मेरा अभिवादन किया। फिर चहक कर बोली, ‘जालंधर तो अब बहुत कुछ बदल गया होगा। जब मैं वहाँ गई थी, तब तो वह बहुत पुराना पुराना सा शहर था। क्यों माँ?’ और खिलखिला कर हँसने लगी।

लाल का अतीत भले ही कैसा रहा हो, उसका वर्तमान बड़ा समृद्ध और सुंदर था।

वह मुझे मेरे होटल तक छोड़ने आया। खाड़ी के किनारे ढलती शाम के सायों में देर तक हम टहलते बतियाते रहे। वह मुझे अपने नगर के बारे में बताता रहा, अपने व्यवसाय के बारे में, इस नगर में अपनी उपलब्धियों के बारे में। वह बड़ा समझदार और प्रतिभासंपन्न व्यक्ति निकला। आते जाते अनेक लोगों के साथ उसकी दुआ सलाम हुई। मुझे लगा शहर में उसकी इज्जत है। और मैं फिर उसी उधेड़बुन में खो गया कि इस आदमी का वास्तविक रूप कौन सा है? जब वह यादों में खोया अपने देश के लिए छटपटाता है, या एक लब्धप्रतिष्ठ और सफल इंजीनियर जो कहाँ से आया और कहाँ आ कर बस गया और अपनी मेहनत से अनेक उपलब्धियाँ हासिल कीं?

विदा होते समय उसने मुझे फिर बाँहों में भींच लिया और देर तक भींचे रहा, और मैंने महसूस किया कि भावनाओं का ज्वार उसके अंदर फिर से उठने लगा है, और उसका शरीर फिर से पुलकने लगा है।

‘यह मत समझना कि मुझे कोई शिकायत है। जिंदगी मुझ पर बड़ी मेहरबान रही है। मुझे कोई शिकायत नहीं है, अगर शिकायत है तो अपने आप से…’ फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह हँस कर बोला, ‘हाँ एक बात की चाह मन में अभी तक मरी नहीं है, इस बुढ़ापे में भी नहीं मरी है कि सड़क पर चलते हुए कभी अचानक कहीं से आवाज आए ‘ओ हरामजादे!’ और मैं लपक कर उस आदमी को छाती से लगा लूँ’, कहते हुए उसकी आवाज फिर से लड़खड़ा गई।
खून का रिश्ता

खाट की पाटी पर बैठा चाचा मंगलसेन हाथ में चिलम थामे सपने देख रहा था। उसने देखा कि वह समधियों के घर बैठा है और वीरजी की सगाई हो रही है। उसकी पगड़ी पर केसर के छींटे हैं और हाथ में दूध का गिलास है जिसे वह घूँट-घूँट करके पी रहा है। दूध पीते हुए कभी बादाम की गिरी मुँह में जाती है, कभी पिस्‍ते की। बाबूजी पास खड़े स‍मधियों से उसका परिचय करा रहे हैं, यह मेरा चचाजाद छोटा भाई है, मंगलसेन! समधी मंगलसेन के चारों ओर घूम रहे हैं। उनमें से एक झुककर बड़े आग्रह से पूछता है, और दूध लाऊँ, चाचाजी? थोड़ा-सा और? अच्‍छा, ले आओ, आधा गिलास, मंगलसेन कहता है और तर्जनी से गिलास के तल में से शक्‍कर निकाल-निकालकर चाटने लगता है…

मंगलसेन ने जीभ का चटखरा लिया और सिर हिलाया। तंबाकू की कड़वाहट से भरे मुँह में भी मिठास आ गई, मगर स्‍वप्‍न भंग हो गया। हल्‍की-सी झुरझुरी मंगलसेन के सारे बदन में दौड़ गई और मन सगाई पर जाने के लिए ललक उठा। यह स्‍वप्‍नों की बात नहीं थी, आज सचमुच भतीजे की सगाई का दिन था। बस, थोड़ी देर बाद ही सगे-संबंधी घर आने लगेंगे, बाजा बजेगा, फिर आगे-आगे बाबूजी, पीछे-पीछे मंगलसेन और घर के अन्‍य संबंधी, सभी सड़क पर चलते हुए, समधियों के घर जाएँगे।

मंगलसेन के लिए खाट पर बैठना असंभव हो गया। बदन में खून तो छटाँक-भर था, मगर ऐसा उछलने लगा था कि बैठने नहीं देता था।

ऐन उसी वक्त कोठरी में संतू आ पहुँचा और खाट पर बैठकर मंगलसेन के हाथ में से चिलम लेते हुए बोला, ”तुम्‍हें सगाई पर नहीं ले जाएँगे; चाचा।”

चाचा मंगलसेन के बदन में सिर से पाँव तक लरजिश हुई। पर यह सोचकर कि संतू खिलवाड़ कर रहा है, बोला, ”बड़ों के साथ मजाक नहीं किया करते, कई बार कहा है। मुझे नहीं ले जाएँगे, तो क्‍या तुम्‍हें ले जाएँगे?”

”किसी को भी नहीं ले जाएँगे, तो क्‍या तुम्‍हें ले जाएँगे?”

”किसी को भी नहीं ले जाएँगे। वीरजी कहते हैं, सगाई डलवाने सिर्फ बाबूजी जाएँगे, और कोई नहीं जाएगा।”

”वीरजी आए हैं?” चाचा मंगलसेन के बदन में फिर लरजिश हुई और दिल धक्-धक् करने लगा। संतू घर का पुराना नौकर था, क्‍या मालूम ठीक ही कहता हो।

”ऊपर चलो, सब लोग खाना खा रहे हैं।” संतू ने चिलम के दो कश लगाए, फिर चिलम को ताक पर रखा और बाहर जाने लगा। दरवाजे के पास पहुँचकर उसने फिर एक बार घूमकर हँसते हुए कहा, ”तुम्‍हें नहीं ले जाएँगे, चाचा, लगा लो शर्त, दो-दो रुपये की शर्त लगती है?”

”सब, बक-बक नहीं कर, जा अपना काम देख!”

ऊपर रसोईघर में सचमुच बहस चल रही थी। संतू ने गलत नहीं कहा था। रसोईघर में एक तरफ, दीवार के साथ पीठ लगाए बाबूजी बैठे खाना खा रहे थे। चौके के ऐन बीच में वीरजी और मनोरमा, भाई-बहन, एक साथ, एक ही थाली में खाना खा रहे थे। माँजी चूल्‍हे के सामने बैठी पराठे सेंक रही थीं। माँ बेटे को समझा रही थीं, ”यही मौके खुशी के होते हैं, बेटा! कोई पैसे का भूखा नहीं होता। अकेले तुम्‍हारे पिताजी सगाई डलवाने जाएँगे तो समधी भी इसे अपना अपमान समझेंगे।”

”मैंने कह दिया, माँ, मेरी सगाई सवा रुपये में होगी और केवल बाबूजी सगाई डलवाने जाएँगे। जो मंजूर नहीं हो तो अभी से…”

”बस-बस, आगे कुछ मत कहना!” माँ ने झट टोकते हुए कहा। फिर क्षुब्‍ध होकर बोली, ”जो तुम्‍हारे मन में आए करो। आजकल कौन किसी की सुनता है! छोटा-सा परिवार और इसमें भी कभी कोई काम ढंग से नहीं हुआ। मुझे तो पहले ही मालूम था, तुम अपनी करोगे…”

”अपनी क्‍यों करेगा, मैं कान खींचकर इसे मनवा लूँगा।” बाबूजी ने बेटे की ओर देखते हुए बड़े दुलार से कहा।

पर वीरजी खीज उठे, ”क्‍या आप खुद नहीं कहा करते थे कि ब्‍याह-शादियों पर पैसे बर्बाद नहीं करने चाहिए। अब अपने बेटे की सगाई का वक्‍त आया तो सिद्धांत ताक पर रख दिए। बस, आप अकेले जाइए और सवा रुपया लेकर सगाई डलवा लाइए।”

”वाह जी, मैं क्‍यों न जाऊँ? आजकल बहनें भी जाती हैं!” मनोरमा सिर झटककर बोली, ”वीरजी, तुम इस मामले में चुप रहो!”

”सुनो, बेटा, न तुम्‍हारी बात, न मेरी, ”बाबूजी बोले, ”केवल पाँच या सात संबंधी लेकर जाएँगे। कहोगे तो बाजा भी नहीं होगा। वहाँ उनसे कुछ माँगेंगे भी नहीं। जो समधी ठीक समझे दे दें, हम कुछ नहीं बोलेंगे।”

इस पर वीरजी तुनककर कुछ कहने जा ही रहे थे, जब सीढ़ियों पर मंगलसेन के कदमों की आवाज आई।

”अच्‍छा, अभी मंगलसेन से कोई बात नहीं करना। खाना खा लो, फिर बातें होती रहेंगी।” माँजी ने कहा।

पचास बरस की उम्र के मंगलसेन के बदन के सभी चूल ढीले पड़ गए थे। जब चलता तो उचक-उचककर हिचकोले खाता हुआ और जब सीढ़ियाँ चढ़ता तो पाँव घसीटकर, बार-बार छड़ी ठकोरता हुआ। जब भी वह सड़क पर जा रहा होता, मोड़ पर का साइकिलवाला दुकानदार हमेशा मंगलसेन से मजाक करके कहता, ”आओ, मंगलसेनजी, पेच कस दें!” और जवाब में मंगलसेन हमेशा उसे छड़ी दिखाकर कहता, ”अपने से बड़ों के साथ मजाक नहीं किया करते। तू अपनी हैसियत तो देख!”

मंगलसेन को अपनी हैसियत पर बड़ा नाज था। किसी जमाने में फौज में रह चुका था, इस कारण अब भी सिर पर खाकी पगड़ी पहनता था। खाकी रंग सरकारी रंग है, पटवारी से लेकर बड़े-बड़े इन्‍सपेक्‍टर तक सभी खाकी पगड़ी पहनते हैं। इस पर ऊँचा खानदान और शहर के धनीमानी भाई के घर में रहना, ऐंठता नहीं तो क्‍या करता?

दहलीज पर पहुँचकर मंगलसेन ने अंदर झाँका। खिचड़ी मूँछें सस्‍ता तंबाकू पीते रहने के कारण पीली हो रही थीं। घनी भौंहों के नीचे दाईं आँख कुछ ज्यादा खुली हुई और बाईं आँख कुछ ज्यादा सिकुड़ी हुई थी। सामने के तीन दाँत गायब थे।

”भौजाईजी, आप रोटियाँ सेंक रही हैं? नौकरों के होते हुए…!”

”आओ मंगलसेनजी, आओ, जरा देखो तो यहाँ कौन बैठा है!”

”नमस्‍ते, चाचाजी!” वीरजी ने बैठे-बैठे कहा।

”उठकर चाचाजी को पालागन करो, बेटा, तुम्‍हें इतनी भी अक्‍ल नहीं है!” बाबूजी ने बेटे को झिड़ककर कहा।

वीरजी उठ खड़े हुए और झुककर चाचाजी को पालागन किया। चाचाजी झेंप गए।

कोने में बैठा संतू, जो नल के पास बर्तन मलने लगा था, कंधे के पीछे मुँह छिपाए हँसने लगा।

”जीते रहो, बड़ी उम्र हो!” मंगलसेन ने कहा और वीरजी के सिर पर इस गंभीरता से हाथ फेरा कि वीरजी के बाल बिखर गए।

मनोरमा खिलखिलाकर हँसने लगी।

”सगाईवाले दिन वीरजी खुद आ गए हैं। वाह-वाह!”

”बैठ जा, बैठ जा मंगलसेन, बहुत बातें नहीं करते।” बाबूजी बोले।

”आप मेरी जगह पर बैठ जाइए, चाचाजी, मैं दूसरी चटाई ले लूँगा।” वीरजी ने कहा।

”दो मिनट खड़ा रहेगा तो मंगलसेन की टाँगें नहीं टूट जाएँगी!” बाबूजी बोले, ”यह खुद भी चटाई पकड़ सकता है। जाओ मंगलसेन, जरा टाँगें हिलाओ और अपने लिए चटाई उठा लाओ।”

माँजी ने दाँत-तले होंठ दबाया और घूर-घूरकर बाबूजी की ओर देखने लगी, ”नौकरों के सामने तो मंगलसेन के साथ इस तरह रुखाई से नहीं बोलना चाहिए। आखिर तो खून का रिश्‍ता है, कुछ लिहाज करना चाहिए।”

मंगलसेन छज्‍जे पर से चटाई उठाने गया। दरवाजे के पास पहुँचकर, नौकर की पीठ के पीछे से गुजरने लगा, तो संतू ने हँसकर कहा, ”वहाँ नहीं है, चाचाजी, मैं देता हूँ, ठहरो। एक ही बर्तन रह गया है, मलकर उठता हूँ।”

संतू निश्चिन्‍त बैठा, कंधों के बीच सिर झुकाए बर्तन मलता रहा।

मनोरमा घुटनों के ऊपर अपनी ठुड्डी रखे, दोनों हाथों से अपने पैरों की उँगलियाँ मलती हुई, कोई वार्ता सुनाने लगी, ”दुकानदारों की टाँगें कितनी छोटी होती हैं, भैया, क्‍या तुमने कभी देखा है?” अपने भाई की ओर कनखियों से देखकर हँसती हुई बोली, ”जितनी देर वे गद्दी पर बैठे रहें, ठीक लगते हैं, पर जब उठें तो सहसा छोटे हो जाते हैं, इतनी छोटी-छोटी टाँगें! आज मैं एक दुकान पर सूटकेस लेने गई…”

”उठो, संतू, चटाई ला दो। हर वक्त का मजाक अच्‍छा नहीं होता।” चाचा मंगलसेन संतू से आग्रह करने लगा।

”वहाँ खड़े क्‍या कर रहे हो, मंगलसेन? चलो, इधर आओ! उठ संतू, चटाई ले आ, सुनता नहीं तू? इसे कोई बात कहो तो कान में दबा जाता है!” माँ बोली।

संतू की पीठ पर चाबुक पड़ी। उसी वक्त उठा और जाकर चटाई ले आया। माँजी ने चूल्‍हे के पास दीवार के साथ रखी दो थालियों में से एक थाली उठाकर मंगलसेन के सामने रख दी। मैले रूमाल से हाथ पोंछते हुए मंगलसेन चटाई पर बैठ गया। थाली में आज तीन भाजियाँ रखी थीं, चपातियाँ खूब गरम-गरम थीं।

सहसा बाबूजी ने मंगलसेन से पूछा, ”आज रामदास के पास गए थे? किराया दिया उसने या नहीं?”

मंगलसेन खुशी में था। उसी तरह चहककर बोला, ”बाबूजी वह अफीमची कभी घर पर मिलता है, कभी नहीं। आज घर पर था ही नहीं।”

”एक थप्‍पड़ मैं तेरे मुँह पर लगाऊँगा, तुमने क्‍या मुझे बच्‍चा समझ रखा है?”

रसोईघर में सहसा सन्‍नाटा छा गया। माँ ने होंठ भींच लिए। मंगलसेन की पुलकन सिहरन में बदल गई। उसका दायाँ गाल हिलने-सा लगा, जैसे चपत पड़ने पर सचमुच हिलने लगता है।

”छह महीने का किराया उस पर चढ़ गया है, तू करता क्‍या रहता है?”

नुक्‍कड़ में बैइे संतू के भी हाथ बर्तनों को मलते-मलते रुक गए। भाई-बहन फर्श की ओर देखने लगे। हाय, बेचारा, मनोरमा ने मन-ही-मन कहा और अपने पैरों की उँगलियों की ओर देखने लगी। वीरजी का खून खौल उठा। चाचाजी गरीब हैं न, इसीलिए इन्‍हें इतना दुत्‍कारा जाता है…

”और पराठा डालूँ, मंगलसेनजी?” माँ ने पूछा। मंगलसेन का कौर अभी गले में ही अटका हुआ था। दोनों हाथें से थाली को ढँकते हुए हड़बड़ाकर बोला, ”नहीं, भौजाईजी, बस जी!”

”जब मेरे यहाँ रहते यह हाल है, तो जब मैं कभी बाहर जाऊँगा तो क्‍या हाल होगा? मैं चाहता हूँ, तू कुछ सीख जाएगा और किराए का सारा काम सँभाल ले। मगर छह महीने तुझे यहाँ आए हो गए, तूने कुछ नहीं सीखा।”

इस वाक्‍य को सुनकर मंगलसेन के सर्द लहू में थोड़ी-सी हरारत आई।

”मैं आज ही किराया ले आऊँगा, बाबूजी! न देगा तो जाएगा कहाँ? मेरा भी नाम नाम मंगलसेन है!”

”मुझे कभी बाहर जाना पड़ा, तो तुम्‍हीं को काम सँभालना है। नौकर कभी किसी को कमाकर नहीं खिलाते। जमीन-जायदाद का काम करना हो तो सुस्‍ती से काम नहीं चलता। कुछ हिम्‍मत से काम लिया करो।”

मंगलसेन के बदन में झुरझुरी हुई। दिल में ऐसा हुलास उठा कि जी चाहा, पगड़ी उतारकर बाबूजी के कदमों पर रख दे। हुमककर बोला, ”चिंता न करो जी, मेरे होते यहाँ चिड़ी पड़क जाएगा तो कहना? डर किस बात का? मैंने लाम देखी है, बाबूजी! बसरे की लड़ाई में कप्‍तान रस्किन था हमारा। कहने लगा, देखो मंगलसेन, हमारी शराब की बोतल लारी में रह गई है। वह हमें चाहिए। उधर मशीनगन चल रही थी। मैंने कहा, अभी लो, साहब! और अकेले मैं वहाँ से बोतल निकाल लाया। ऐसी क्‍या बात है…”

मंगलसेन फिर चहकने लगा। मनोरमा मुसकराई और कनखियों से अपने भाई की ओर देखकर धीमे-से बोली, ”चाचाजी की दुम फिर हिलने लगी!”

मंगलसेन खाना खा चुका था। उठते हुए हँसकर बोला, ”तो चार बजे चलेंगे न सगाई डलवाने?”

”तू जा, अपना काम देख, जो जरूरत हुई तो तुम्‍हें बुला लेंगे।” बाबूजी बोले।

चाचा मंगलसेन का दिल धक्-से रह गया। संतू शायद ठीक ही कहता था, मुझे नहीं ले चलेंगे। उसे रुलाई-सी आ गई, मगर फिर चुपचाप उठ खड़ा हुआ। बाहर जाकर जूते पहले, छड़ी उठाई और झूलता हुआ सीढ़ियों की ओर जाने लगा।

वीरजी का चेहरा क्रोध और लज्‍जा से तमतमा उठा। मनोरमा को डर लगा कि बात और बिगड़ेगी, वीरजी कहीं बाबूजी से न उलझ बैठें। माँजी को भी बुरा लगा। धीमे-से कहने लगीं, देखों जी, नौकरों के सामने मंगलसेन की इज्‍जत-आबरू का कुछ तो खयाल रखा करे। आखिर तो खून का रिश्‍ता है। कुछ तो मुँह-‍मुलाहिजा रखना चाहिए। दिन-भर आपका काम करता है।”

”मैंने उसे क्‍या कहा है?” बाबूजी ने हैरान होकर पूछा।

”यों रुखाई के साथ नहीं बोलते। वह क्‍या सोचता होगा? इस तरह बेआबरूई किसी की नहीं करनी चाहिए।”

”क्‍या बक रही हो? मैंने उसे क्‍या कहा है?” बाबूजी बोले। फिर सहसा वीरजी की ओर घूमकर कहने लगे, ”अब तू बोल, भाई, क्‍या कहता है? कोई भी काम ढंग से करने देगा या नहीं?”

”मैंने कह दिया, पिताजी, आप अकेले जाइए और सवा रुपया लेकर सगाई डलवा लाइए।”

रसोईघर में चुप्‍पी छा गई। इस समस्‍या का कोई हल नजर नहीं आ रहा था। वीरजी टस-से-मस नहीं हो रहे थे।

सहसा बाबूजी ने सिर पर से पगड़ी उतारी और सिर आगे को झुकाकर बोले, ”कुछ तो इन सफेद बालों का खयाल कर! क्‍यों हमें रुसवा करता है?”

वीरजी गुस्से में थे। चाचा मंगलसेन गरीब हैं, इसीलिए उसके साथ ऐसा बुरा व्‍यवहार किया जाता है। यह बात उसे खल रही थी। मगर जब बाबूजी ने पगड़ी उतारकर अपने सफेद बालों की दुहाई दी तो सहम गया। फिर भी साहस करके बोला, ”यदि आप अकेले नहीं जाना चाहते तो चाचाजी को साथ ले जाइए। बस दो जने चले जाएँ।”

”कौन-से चाचा को?” माँजी ने पूछा।

”चाचा मंगलसेन को।”

कोने में बैठे संतू ने भी हैरान होकर सिर उठाया। माँ झट-से बोली, ”हाय-हाय बेटा, शुभ-शुभ बोलो! अपने रईस भाइयों को छोड़कर इस मरदूद को साथ ले जाएँ? सारा शहर थू-थू करेगा!”

”माँजी, अभी तो आप कह रही थीं, खून का रिश्‍ता है। किधर गया खून का रिश्‍ता? चाचाजी गरीब हैं, इसीलिए?”

”मैं कब कहती हूँ, यह न जाए! लेकिन और संबंधी भी तो जाएँ। अपने धनी-मानी संबंधियों को छोड़ दें और इस बहु‍रूपिए को साथ ले जाएँ, क्‍या यह अच्‍छा लगेगा?”

”तो फिर बाबूजी अकेले जाएँ,” वीरजी परेशान हो उठे, ”मैंने जो कहना था कह दिया! अब जो तुम्‍हारे मन में आए करो, मेरा इससे कोई वास्‍ता नहीं।” और उठकर रसोईघर से बाहर चले गए।

बेटे के यों उठ जाने से रसोईघर में चुप्‍पी छा गई। माँ और बाप दोनों का मन खिन्‍न हो उठा। ऐसा शुभ दिन हो, बेटा घर पर आए और यों तकरार होने लगे। माँ का दिल टूक-टूक होने लगा। उधर बाबूजी का क्रोध बढ़ रहा था। उनका जी चाहता था कह दें, जा फिर मैं भी नहीं जाऊँगा। भेज दे जिसको भेजना चाहता है। मगर यह वक्‍त झगड़े को लंबा करने का न था।

सबसे पहले माँ ने हार मानी, ”क्‍या बुरा कहता है! आजकल लड़के माँ-बाप के हजारों रुपये लुटा देते हैं। इसके विचार तो कितने ऊँचे हैं! यह तो सवा रुपये में सगाई करना चाहता है। तम मंगलसेन को ही अपने साथ ले जाओ। अकेले जाने से तो अच्‍छा है।”

बाबूजी बड़बड़ाए, बहुत बोले, मगर आखिर चुप हो गए। बच्‍चों के आगे किस माँ-बाप की चलती है? और चुपचाप उठकर अपने कमरे में जाने लगे।

”जा संतू, मंगलसेन को कह, तैयार हो जाए।” माँजी ने कहा।

मनोरमा चहक उठी और भागी हुई वीरजी को बताने चली गई कि बाबूजी मान गए हैं।

मंगलसेन को जब मालूम हुआ कि अकेला वही बाबूजी के साथ जाएगा, तो कितनी ही देर तक वह कोठरी में उचकता और चक्‍कर लगाता रहा। बदन का छटाँक-भर खून फिर उछलने लगा। जी चाहा कि संतू से उसी वक्‍त शर्त के दो रुपये रखवा ले। क्‍यों न हो, आखिर मुझसे बड़ा संबंधी है भी कौन, मुझे नहीं ले जाएँगे तो किसे ले जाएँगे? मैं और बाबूजी ही इस घर के कर्त्ता-धर्त्ता हैं और कौन है? जितना ही अधिक वह इस बात पर सोचता, उतना ही अधिक उसे अपने बड़प्‍पन पर विश्‍वास होने लगता। आखिर उसने कोने में रखी ट्रंकी को खेला और कपड़े बदलने लगा।

घंटा-भर बाद जब मंगलसेन तैयार होकर आँगन में आया, तो माँजी का दिल बैठ गया – यह सूरत लेकर समधियों के घर जाएगा? मंगलसेन के सिर पर खाकी पगड़ी, नीचे मैली कमीज के ऊपर खाकी फौजी कोट, जिसके धागे निकल रहे थे और नीचे धारीदार पाजामा और मोटे-मोटे काले बूट। माँ को रुलाई आ गई। पर यह अवसर रोने का नहीं था। अपनी रुलाई को दबाती हुई वह आगे बढ़ आई।

”मनोरमा, जा भाई की आलमारी में से एक धुला पाजामा निकाल ला।” फिर बाबूजी के कमरे की ओर मुँह करके बोली, ”सुनते हो जी, अपनी एक पगड़ी इधर भेज देना। मंगलसेन के पास ढंग की पगड़ी नहीं है।”

मंगलसेन का कायाकल्‍प होने लगा। मनोरमा पाजामा ले आई। संतू बूट पालिश करने लगा। आँगन के ऐन बीचोंबीच एक कुरसी पर मंगलसेन को बिठा दिया गया और परिवार के लोग उसके आसपास भाग-दौड़ करने लगे। कहीं से मनोरमा की दो सहेलियाँ भी आ पहुँची थीं। मंगलसेन पहले से भी छोटा लग रहा था। नंगा सिर, दोनों हाथ घुटनों के बीच जोड़े वह आगे की ओर झुककर बैठा था। बार-बार उसे रोमांच हो रहा था।

मंगलसेन का स्‍वप्‍न सचमुच साकार हो उठा। समधियों के घर में उसकी वह आवभगत हुई कि देखते बनता था। मंगलसेन आरामकुरसी पर बैठा था और पीछे एक आदमी खड़ा पंखा झल रहा था। समधी आगे-पीछे, हाथ बाँधे घूम रहे थे। एक आदमी ने सचमुच झुककर बड़े आग्रह से कहा, ”और दूध लाऊँ, चाचाजी? थोड़ा-सा और?”

और जवाब में मंगलसेन ने कहा, ”हाँ, आधा गिलास ले आओ।”

समधियों के घर की ऐसी सज-धज थी कि मंगलसेन दंग रह गया और उसका सिर हवा में तैरने लगा। आवाज ऊँची करके बोला, ”लड़की कुछ पढ़ी-लिखी भी है या नहीं? हमारा बेटा तो एम.ए. पास है।”

”जी, आपकी दया से लड़की ने इसी साल बी.ए. पास किया है।”

मंगलसेन ने छड़ी से फर्श को ठकोरा, फिर सिर हिलाकर बोला, ”घर का काम-धंधा भी कुछ जानती है या सारा वक्‍त किताबें ही पढ़ती रहती है?”

”जी, थोड़ा-बहुत जानती है।”

”थोड़ा-बहुत क्‍यों?”

आखिर सगाई डलवाने का वक्त आया। समधी बादामों से भरे कितने ही थाल लाकर बाबूजी और मंगलसेन के सामने रखने लगे। बाबूजी ने हाथ बाँध दिए, ”मैं तो केवल एक रुपया और चार आने लूँगा। मेरा इन चीजों में विश्‍वास नहीं है। हमें अब पुरानी रस्‍मों को बदलना चाहिए। आप सलामत रहें, आपका सवा रुपया भी मेरे लिए सवा लाख के बराबर है।”

”आपको किस चीज की कमी है, लालाजी! पर हमारा दिल रखने के लिए ही कुछ स्‍वीकार कर लीजिए।”

बाबूजी मुसकराए, ”नहीं महराज, आप मुझे मजबूर न करें। यह उसूल की बात है। मैं तो सवा ही रुपया लेकर जाऊँगा। आपका सितारा बुलंद रहे! आपकी बेटी हमारे घर आएगी, तो साक्षात लक्ष्‍मी विराजेगी!”

मंगलसेन के लिए चुप रहना असंभव हो रहा था। हुमककर बोला, ”एक बार कह जो दिया जी कि हम सवा रुपया ही लेंगे। आप बार-बार तंग क्‍यों करते हैं?”

बेटी के पिता हँस दिए और पास खड़े अपने किसी संबंधी के कान में बोले, ”लड़के के चाचा हैं, दूर के। घर में टिके हुए हैं। लालाजी ने आसरा दे रखा है।”

आखिर समधी अंदर से एक थाल ले आए, जिस पर लाल रंग का रेशमी रूमाल बिछा था और बाबूजी के सामने रख दिया। बाबूजी ने रूमाल उठाया, तो नीचे चाँदी के थाल में चाँदी की तीन चमचम करती कटोरियाँ रखी थीं, एक में केसर, दूसरी में रांगला धागा, तीसरी में एक चमकता चाँदी का रुपया और चमकती चवन्‍नी। इसके अलावा तीन कटोरियों में तीन छोटे-छोटे चाँदी के चम्‍मच रखे थे।

”आपने आखिर अपनी ही बात की,” बाबूजी ने हँसकर कहा, ”मैं तो केवल सवा रुपया लेने आया था…” मगर थाल स्‍वीकार कर लिया और मन-ही-मन कटोरियों, थाल और चम्‍मचों का मूल्‍य आँकने लगे।

मनोरमा और उसकी सहेलियाँ छज्‍जे पर खड़ी थीं जब दोनों भाई सड़क पर आते दिखाई दिए। मंगलसेन के कंधे पर थाल था, लाल रंग के रूमाल से ढँका हुआ और आगे-आगे बाबूजी चले आ रहे थे।

वीरजी अब भी अपने कमरे में थे और पलंग पर लेटे किसी नावल के पन्‍नों में अपने मन को लगाने का विफल प्रयास कर रहे थे। उनका माथा थका हुआ था, मगर हृदय धूमिल भावनाओं से उद्वेलित होने लगा था। क्‍या प्रभा मेरे लिए भी कोई संदेश भेजेगी? सवा रुपये में सगाई डलवाने के बारे में वह क्‍या सोचती होगी? मन-ही-मन तो जरूर मेरे आदर्शों को सराहती होगी। मैंने एक गरीब आदमी को अपनी सगाई डलवाने के लिए भेजा। इससे अधिक प्रत्‍यक्ष प्रमाण मेरे आदर्शों का क्‍या हो सकता है?

”लाख-लाख बधाइयाँ, भौजाईजी!” घर में कदम रखते ही मंगलसेन ने आवाज लगाई।

मनोरमा और उसकी सहेलियाँ भागती हुई जँगले पर आ गईं। बाबूजी गंभीर मुद्रा बनाये, आँगन में आए और छड़ी कोने में रखकर अपने कमरे में चले गए।

मनोरमा भागती हुई नीचे गई और झपटकर थाल चाचा मंगलसेन के हाथ से छीन लिया।

”कैसी पगली है! दो मिनट इंतजार नहीं कर सकती।”

”वाह जी, वाह!” मनोरमा ने हँसकर कहा, ”बाबूजी की पगड़ी पहन ली तो बाबूजी ही बन बैठे हैं! लाइए, मुझे दीजिए। आपका काम पूरा हो गया।”

माँजी की दोनों ब‍हनें जो इस बीच आ गई थीं, माँजी से गले मिल-मिलकर बधाई देने लगीं। आवाज सुनकर वीरजी भी जँगले पर आ खड़े हुए और नीचे आँगन का दृश्‍य देखने लगे। थाल पर रखे लाल रूमाल को देखते ही उनका रोम-रोम पुलकित हो उठा। सहसा ही वह ससुराल की चीजों से गहरा लगाव महसूस करने लगे। इस रूमाल को जरूर प्रभा ने अपने हाथ से छुआ होगा। उनका जी चाहा कि रूमाल को हाथ में लेकर चूम लें। इस भेंट को देखकर उनका मन प्रभा से मिलने के लिए बेताब होने लगा।

माँजी ने थाल पर से रूमाल उठाया। चमकती कटोरियाँ, चमकता थाल बीच में रखे चम्‍मच। वीरजी को महसूस हुआ, जैसे प्रभा ने अपने गोरे-गोरे हाथों से इन चीजों को करीने से सजाकर रखा होगा।

”पानी पिलाओ, संतू, ”चाचा मंगलसेन ने आँगन में कुर्सी पर बैठते हुए, टाँग के ऊपर टाँग रखकर, संतू को आवाज लगाई।

इतने में माँजी को याद आई, ”तीन कटोरियाँ और दो चम्‍ममच? यह क्‍या हिसाब हुआ? क्‍या तीन चम्‍मच नहीं दिए समधियों ने।” फिर बाबूजी के कमरे की ओर मुँह करके बोलीं, ”अजी सुनते हो! तुम भी कैसे हो, आज के दिन भी कोई अंदर जा बैठता है?”

”क्‍या है?” बाबूजी ने अंदर से ही पूछा।

”कुछ बताओ तो सही, समधियों ने क्‍या कुछ दिया है?”

”बस, थाल में जो कुछ है वही दिया है, तेरे बेटे ने मना जो कर दिया था।”

”क्‍या तीन कटोरियाँ थीं और दो चम्‍मच थे?”

”नहीं तो, चम्‍मच भी तीन थे।”

”चम्‍मच तो यहाँ सिर्फ दो रखे हैं।”

”नहीं-नहीं, ध्‍यान से देखों, जरूर तीन होंगे। मंगलसेन से पूछो, वही थाल उठाकर लाया था।”

”मंगलसेनजी, तीसरा चम्‍मच कहाँ है?”

मंगलसेन संतू को सगाई का ब्‍यौरा दे रहा था – समधी हमारे सामने हाथ बाँधे यों खड़े थे, जैसे नौकर हों। लड़की बड़ी सुशील है, बड़ी सलीकेवाली है, बी.ए. पास है, सीना-पिरोना भी जानती है…

”मंगलसेनजी, तीसरा चम्‍मच कहाँ है?”

”कौन-सा चम्‍मच? वहीं थाल में होगा।” मंगलसेन ने लापरवाही से जवाब दिया।

”थाल में तो नहीं है।”

”तो उन्‍होंने दो ही चम्‍मच दिए होंगे। बाबूजी ने थाल लिया था।”

”हमें बेवकूफ बना रहे हो, मंगलसेनजी, तुम्‍हारे भाई कह रहे हैं तीन चम्‍मच थे!”

इतने में बाबूजी की गरज सुनाई दी, ”इसीलिए मेरे साथ गए थे कि चम्‍मच गवाँ आओगे? कुछ नहीं तो पाँच-पाँच रुपये का एक-एक चम्‍मच होगा।”

मंगलसेन ने उसी लापरवाही से कुरसी पर से उठकर कहा, ”मैं अभी जाकर पूछ आता हूँ, इसमें क्‍या है? हो सकता है, उन्‍होंने दो ही चम्‍मच रखे हों।”

”वहाँ कहाँ जाओगे? बताओ चम्‍मच कहाँ है? सारा वक्त तो थाल पर रूमाल रखा रहा।”

”बाबूजी, थाल तो आपने लिया था, आपने चम्‍मच गिने नहीं थे?”

”मेरे साथ चालाकी करता है? बदजात! बता तीसरा चम्‍मच कहाँ है?”

माँजी चम्‍मच खो जाने पर विचलित हो उठी थीं। बहनों की ओर घूमकर बोलीं, ”गिनी-चुनी तो समधियों ने चीजें दी हैं, उनमें से भी अगर कुछ खो जाए, तो बुरा तो आखिर लगता ही है!”

”कैसा ढीठ आदमी है, सुन रहा है और कुछ बोलता नहीं!” बाबूजी ने गरजकर कहा।

चम्‍मच खो जाने पर अचानक वीरजी को बेहद गुस्‍सा आ गया। प्रभा ने चम्‍मच भेजा और वह उन तक पहुँच ही नहीं। प्रभा के प्रेम की पहली निशानी ही खो गई। वीरजी सहसा आवेश में आ गए। वीरजी ने आव देखा न ताव, मंगलसेन के पास जाकर उसे दोनों कंधों से पकड़कर झिंझोड़ दिया।

”आपको इसीलिए भेजा था कि आप चीजें गँवा आएँ?”

सभी चुप हो गए। सकता-सा छा गया। वीरजी खिन्‍न-से महसूस करने लगे कि मुझसे यह क्‍या भूल हो गई और झेंपकर वापस जाने लगे। ”तुम बीच में मत पड़ो, बेटा! अगर चम्‍मच खो गया है तो तुम्‍हारी बला से! सबका धर्म अपने-अपने साथ है। एक चम्‍मच से कोई अमीर नहीं बन जाएगा!”

”जेब तो देखो इसकी।” बाबूजी ने गरजकर कहा।

मौसियाँ झेंप गईं और पीछे हट गईं। पर मनोरमा से न रहा गया। झट आगे बढ़कर वह जेब देखने लगी। रसोईघर की दहलीज पर संतू हाथ में पानी का गिलास उठाए रुक गया और मंगलसेन की ओर देखने लगा। चाचा मंगलसेन खड़ा कभी एक का मुँह देख रहा था, कभी दूसरे का। वह कुछ कहना चाहता था, मगर मुँह से एक शब्‍द भी नहीं निकल रहा था।

एक जेब में से मैला-सा रूमाल निकला, फिर बीड़ियों की गड्डी, माचिस, छोटा-सा पैन्सिल का टुकड़ा।

”इस जेब में तो नहीं है।” मनोरमा बोली और दूसरी जेब देखने लगी। मनोरमा एक-एक चीज निकालती और अपनी सहेलियों को दिखा-दिखाकर हँसती।

दाईं जेब में कुछ खनका। मनोरमा चिल्‍ला उठी, ”कुछ खनका है, इसी जेब में है, चोर पकड़ा गया! तुमने सुना, मालती?”

जेब में टूटा हुआ चाकू रखा था, जो चाबियों के गुच्‍छे से लगकर खनका था।

”छोड़ दो, मनोरमा! जाने दो, सबका धर्म अपने-अपने साथ है। आपसे चम्‍मच अच्‍छा नहीं है, मंगलसेनजी, लेकिन यह सगाई की चीज थी।”

मंगलसेन की साँस फूलने लगी और टाँगें काँपने लगीं, लेकिन मुँह से एक शब्‍द भी नहीं निकल पा रहा था।

”दोनों कान खोलकर सुन ले, मंगलसेन!” बाबूजी ने गरजकर कहा, ”मैं तेरे से पाँच रुपये चम्‍मच के ले लूँगा, इसमें मैं कोई लिहाज नहीं करूँगा।”

मंगलसेन खड़े-खड़े गिर पड़ा।

”बधाई, बहनजी!” नीचे आँगन में से तीन-चार स्त्रियों की आवाज एक साथ आ गई।

मंगलसेन गिरा भी अजीब ढंग से। धम्‍म-से जमीन पर जो पड़ा तो उकड़ूँ हो गया, और पगड़ी उतरकर गले में आ गई। मनोरमा अपनी हँसी रोके न रोक सकी।

”देखो जी, कुछ तो खयाल करो। गली-मुहल्‍ला सुनता होगा। इतनी रुखाई से भी कोई बोलता है!” माँजी ने कहा, फिर घबराकर संतू से कहने लगीं, ”इधर आओ संतू, और इन्‍हें छज्‍जे पर लिटा आओ।”

वीरजी फिर खिन्‍न-सा अनुभव करते हुए अपने कमरे में चले गए। मैंने जल्‍दबाजी की, मुझे बीच में नहीं पड़ना चाहिए था। इन्‍होंने चम्‍मच कहाँ चुराया होगा, जरूर कहीं गिर गया होगा।

बाबूजी नीचे अपने कमरे में चले गए। शीघ्र ही घर में ढोलक बजने की आवाज आने लगी। मनोरमा और उसकी सहेलियाँ आँगन में कालीन बिछवाकर बैठ गईं। ढोलक की आवाज सुनकर पड़ोसिनें घर में बधाई देने आने लगीं।

ऐन उसी वक्त गलीवाले दरवाजे के पास एक लड़का आ खड़ा हुआ। संकोचवश वह निश्‍चय नहीं कर पा रहा था कि अंदर जाएगा या वहीं खड़ा रहे। मनोरमा ने देखते ही पहचान लिया कि प्रभा का भाई, वीरजी का साला है। भागी हुई उसके पास जा पहुँची और शरारत से उसके सिर पर हाथ फेरने लगी।

”आओ, बेटाजी, अंदर आओ, तुम यहाँ पड़ोस में रहते हो न?”

”नहीं, मैं प्रभा का भाई हूँ।”

”मिठाई खाओगे?” मनोरमा ने फिर शरारत से कहा और हँसने लगी। लड़का सकुचा गया।

”नहीं, मैं तो यह देने आया हूँ,” उसने कहा और जाकेट की जेब में से एक चमकता, सफेद चम्‍मच निकाला और मनोरमा के हाथ में देकर उन्‍हीं कदमों वापस लौट गया।

”हाय, चम्‍मच मिल गया! माँजी चम्‍मच मिल गया!”

पर माँजी संबंधियों से घिरी खड़ी थीं। मनोरमा रुक गई और माँ से नजरें मिलाने की कोशिश करते हुए, हाथ ऊँचा करके चम्‍मच हिलाने लगी। चम्‍मच को कभी नाक पर रखती, कभी हवा में हिलाती, कभी ऊँचा फेंककर हाथ में पकड़ती, मगर माँजी कुछ समझ ही नहीं रही थीं…

छज्‍जे पर संतू ने मंगलसेन को खाट पर लिटाया और मुँह पर पानी का छींटा देते हुए बोला, ”तुम शर्त जीत गए। बस तनख्‍वाह मिलने पर दो रुपये नकद तुम्‍हारी हथेली पर रख दूँगा।”
मरने से पहले

रने से एक दिन पहले तक उसे अपनी मौत का कोई पूर्वाभास नहीं था। हाँ, थोड़ी खीझ और थकान थी, पर फिर भी वह अपनी जमीन के टुकड़े को लेकर तरह-तरह की योजनाएँ बना रहा था, बल्कि उसे इस बात का संतोष भी था कि उसने अपनी मुश्किल का हल ढूँढ़ निकाला है और अब वह आराम से बैठकर अपनी योजनाएँ बना सकता है। वास्‍तव में वह पिछले ही दिन, शाम को, एक बड़ी चतुराई का काम कर आया था – अपने दिल की ललक, अपने जैसे ही एक वयोवृद्ध के दिल में उड़ेलने में सफल हो गया था। पर उसकी मौत को देखते हुए लगता है मानो वह कोई नाटक खेलता रहा हो, और उसे खेलते हुए खुद भी चलता बना हो।

एक दिन पहले, जब उसे जमीन के मामले को ले कर, डिप्‍टी कमिश्‍नर के दफ्तर में जाना था तो वह एक जगह, बस में से उतरकर पैदल ही उस दफ्तर की ओर जाने लगा था। उस समय दिन का एक बजने को था, चिलचिलाती धूप थी, और लंबी सड़क पर एक भी सायादार पेड़ नहीं था। पर एक बजे से पहले उसे दफ्तर में पहुँचना था, क्‍योंकि कचहरियों के काम एक बजे तक ही होते हैं। इसके बाद अफसर लोग उठ जाते हैं, कारिंदे सिगरेट-बीड़ियाँ सुलगा लेते हैं और किसी से सीधे मुँह बात नहीं करते, तब तुम कचहरी के आँगन में और बरामदों में मुँह बाए घूमते रहो, तुम्‍हें कोई पूछता नहीं। इसीलिए वह चिलचिलाती धूप में पाँव घसीटता, जल्‍दी से जल्‍दी डिप्‍टी-कमिश्‍नर के दफ्तर में पहुँच जाना चाहता था। बार-बार घड़ी देखने पर, यह जानते हुए भी कि बहुत कम समय बाकी रह गया है, वह जल्‍दी से कदम नहीं उठा पा रहा था। एक जगह, पीछे से किसी मोटरकार का भोंपू बजने पर, वह बड़ी मुश्किल से सड़क के एक ओर को हो पाया था। जवानी के दिन होते तो वह सरपट भागने लगता, थकान के बावजूद भागने लगता, अपना कोट उतारकर कंधे पर डाल लेता और भाग खड़ा होता। उन दिनों भाग खड़ा होने में ही एक उपलब्धि का-सा भास हुआ करता था – भाग कर पहुँच तो गए, काम भले ही पूरा हो या न हो। पर अब तो वह बिना उत्‍साह के अपने पाँव घसीटता जा रहा था। प्‍यास के कारण मुँह सूख रहा था और मुँह का स्‍वाद कड़वा हो रहा था। धूप में चलते रहने के कारण, गर्दन पर पसीने की परत आ गई थी, जिसे रूमाल से पोंछ पाने की इच्‍छा उसमें नहीं रह गई थी।

अगर पहुँचने पर कचहरी बंद मिली, डिप्‍टी कमिश्‍नर या तहसीलदार आज भी नहीं आया तो मैं कुछ देर के लिए वहीं बैठ जाऊँगा – किसी बेंच पर, दफ्तर की सीढ़ियों पर या किसी चबूतरे पर – कुछ देर के लिए दम लूँगा और फिर लौट आऊँगा। अगर वह दफ्तर में बैठा मिल गया तो मैं सीधा उसके पास जा पहुँचूँगा – अफसर लोग तो दफ्तर के अंदर बैठे-बैठे गुर्राते हैं, जैसे अपनी माँद में बैठा कोई जंतु गुर्राता है – पर भले ही वह गुर्राता रहे, मैं चिक उठाकर सीधा अंदर चला जाऊँगा।

उस स्थिति में भी उसे इस बात का भास नहीं हुआ कि उसकी जिंदगी का आखिरी दिन आ पहुँचा है। चिलचिलाती धूप में चलते हुए एक ही बात उसके मन में बार-बार उठ रही थी, काम हो जाए, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, बस, काम हो जाए।

उससे एक दिन पहले, तहसीलदार की कचहरी में तीन-तीन कारिंदों को रिश्‍वत देने के बावजूद उसका काम नहीं हो पाया था। कभी किसी चपरासी की ठुड्डी पर हाथ रखकर उसकी मिन्‍नत-समागत करता रहा था, तो कभी किसी क्‍लर्क-कारिंदे को सिगरेट पेश करके! जब धूप ढलने को आई थी, कचहरी के आँगन में वीरानी छाने लगी थी और वह तीनों कारिंदों की जेब में पैसे ठूँस चुका था, फिर भी उसका काम हो पाने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे तो वह दफ्तर की सीढ़ियों पर आ बैठा था। वह थक गया था और उसके मुँह में कड़वाहट भरने लगी थी। उसने सिगरेट सुलगा ली थी, यह जानते हुए कि भूखे पेट, धुआँ सीधा उसके फेफड़ों में जाएगा। तभी सिगरेट के कश लेते हुए वह अपनी फूहड़ स्थिति के बारे में सोचने लगा था। अब तो भ्रष्‍टाचार पर से भी विश्‍वास उठने लगा है, उसने मन-ही-मन कहा, पहले इतना तो था कि किसी की मुठ्टी गर्म करो तो काम हो जाता था, अब तो उसकी भी उम्‍मीद नहीं रह गई है। और यह वाक्‍य बार-बार उसके मन में घूमता रहा था।

तभी उसे इस सारी दौड़-धूप की निरर्थकता का भास होने लगा था : यह मैं क्‍या कर रहा हूँ? मैं 73 वर्ष का हो चला हूँ, अगर जमीन का टुकड़ा भी मिल गया, उसका स्‍वामित्‍व भी मेरे हक में बहाल कर दिया गया, तो भी वह मेरे किस काम का? जिंदगी के कितने दिन मैं उसका उपभोग कर पाऊँगा? बीस साल पहले यह मुकदमा शुरू हुआ था, तब मैं मनसूबे बाँध सकता था, भविष्‍य के बारे में सोच सकता था, इस पुश्‍तैनी जमीन को लेकर सपने भी बुन सकता था, कि यहाँ छोटा-सा घर बनाऊँगा, आँगन में फलों के पेड़ लगाऊँगा, पेड़ों के साए के नीचे हरी-हरी घास पर बैठा करूँगा। पर अब? अव्‍वल तो यह जमीन का टुकड़ा अभी भी आसानी से मुझे नहीं मिलेगा। घुसपैठिए को इसमें से निकालना खालाजी का घर नहीं है। मैं घूस दे सकता हूँ तो क्‍या घुसपैठिया घूस नहीं दे सकता, या नहीं देता होगा? भले ही फैसला मेरे हक में हो चुका है, वह दस तिकड़में करेगा। पिछले बीस साल में कितने उतार-चढ़ाव आए हैं, कभी फैसला मेरे हक में होता तो वह अपील करता, अगर उसके हक में होता तो मैं अपील करता, इसी में जिंदगी के बीस साल निकल गए, और अब 73 साल की उम्र में मैं उस पर क्‍या घर बनाऊँगा? मकान बनाना कौन-सा आसान काम है? और किसे पड़ी है कि मेरी मदद करे? अगर बना भी लूँ तो भी मकान तैयार होते-होते मैं 75 पार कर चुका होऊँगा। मेरे वकील की उम्र इस समय 80 साल की है, और वह बौराया-सा घूमने लगा है। बोलने लगता है तो बोलना बंद ही नहीं करता। उसकी सूझ-बूझ भी शिथिल हो चली है, बैठा-बैठा अपनी धुँधलाई आँखों से शून्‍य में ताकने लगता है। कहता है उसे पेचिश की पुरानी तकलीफ भी है, घुटनों में भी गठिया है। वह आदमी 80 वर्ष की उम्र में इस हालत में पहुँच चुका है, तो इस उम्र तक पहुँचते-पहुँचते मेरी क्‍या गति होगी? मकान बन भी गया तो मेरे पास जिंदगी के तीन-चार वर्ष बच रहेंगे, क्‍या इतने-भर के लिए अपनी हड्डियाँ तोड़ता फिरूँ? क्‍यों नहीं मैं इस पचड़े में से निकल आता? मुझसे ज्‍यादा समझदार तो मेरा वह वकील ही है, जिसने अपनी स्थिति को समझ लिया है और मेरे साथ तहसील-कचहरी जाने से इनकार कर दिया है। ‘बस, साहिब, मैंने अपना काम पूरा कर दिया है, आप मुकदमा जीत गए हैं, अब जमीन पर कब्‍जा लेने का काम आप खुद सँभालें।’ उसने दो टूक कह दिया था। …यही कुछ सोचते-सोचते, उसने फिर से सिर झटक दिया था। क्‍या मैं यहाँ तक पहुँच कर किनारा कर जाऊँ? जमीन को घुसपैठिए के हाथ सौंप दूँ? यह बुजदिली नहीं होगी तो क्‍या होगा? किसी को अपनी जमीन मुफ्त में क्‍यों हड़पने दूँ? क्‍या मैं इतना गया-बीता हूँ कि मेरे जीते-जी, कोई आदमी मेरी पुश्‍तैनी जमीन छीन ले जाए और मैं खड़ा देखता रहूँ? और अब तो फैसला हो चुका है, अब तो इसे केवल हल्‍का-सा धक्‍का देना बाकी है। तहसील के कागजात मिल जाएँ, इंतकाल की नकलें मिल जाएँ, फिर रास्‍ता खुलने लगेगा, मंजिल नजर आने लगेगी। …सोचते-सोचते एक बार फिर उसने अपना सिर झटक दिया। ऐसे मौके पहले भी कई बार आ चुके थे। तब भी यही कहा करता था, एक बार फैसला हक में हो जाए तो रास्‍ता साफ हो जाएगा। पर क्‍या बना? बीस साल गुजर गए, वह अभी भी कचहरियों की खाक छान रहा है। …’साँप के मुँह में छछूँदर, खाए तो मरे, छोड़े तो अंधा हो।’ न तो मैं इस पचड़े से निकल सकता हूँ, न ही इसे छोड़ सकता हूँ।

डिप्‍टी कमिश्‍नर दफ्तर में नहीं था। वही बात हुई। किसी ने बताया कि वह किसी मीटिंग में गया है, कुछ मालूम नहीं कब लौटेगा, लौटेगा भी या नहीं।

वह चुपचाप एक बेंच पर जा बैठा, कल ही की तरह सिगरेट सुलगाई और अपने भाग्‍य को कोसने लगा। मैं काम करना नहीं जानता, छोटे-छोटे कामों के लिए खुद भागता फिरता हूँ। ये काम मिलने-मिलाने से होते हैं, खुद मारे-मारे फिरने से नहीं, मैं खुद मुँह बाए कभी तहसील में तो कभी जिला कचहरी में धूल फाँकता फिरता हूँ। मेरी जगह कोई और होता तो दस तरकीबें सोच निकालता। सिफारिश डलवाने से लोगों के बीसियों काम हो जाते हैं और मैं यहाँ मारा-मारा फिर रहा हूँ।

तब डिप्‍टी कमिश्‍नर के चपरासी ने भी कह दिया था कि अब साहिब नहीं आएँगे और दफ्तर के बाहर, दरख्‍वास्तियों के लिए रखा बेंच उठाकर अंदर ले गया था। उधर कचहरी का जमादार बरामदे और आँगन बुहारने लगा था। सारा दिन यों बर्बाद होता देखकर वह मन ही मन तिलमिला उठा था। आग की लपट की तरह एक टीस-सी उसके अंदर उठी थी, हार तो मैं नहीं मानूँगा, मैं भी अपनी जमीन छोड़ने वाला नहीं हूँ, मैं भी हठ पकड़ लूँगा, इस काम से चिपक जाऊँगा, ये लोग मुझे कितना ही झिंझोड़ें, मैं छोडूँगा नहीं, इसमें अपने दाँत गाड़ दूँगा, जब तक काम पूरा नहीं हो जाता, मैं छोडूँगा नहीं…

वह मन-ही-मन जानता था कि मन में से उठने वाला यह आवेग उसकी असमर्थता का ही द्योतक था कि जब भी उसे कोई रास्‍ता नहीं सूझता, तो वह ढिठाई का दामन पकड़ लेता है, इस तरह वह अपने डूबते आत्‍मविश्‍वास को धृष्‍टता द्वारा जीवित रख पाने की कोशिश करता रहता है।

पर उस दिन सुबह, जिला कचहरी की ओर जाने से पहले उसकी मनःस्थिति बिल्‍कुल दूसरी थी। तब वह आश्‍वस्‍त महसूस कर रहा था, नहा-धोकर, ताजादम घर से निकला था और उसे पता चला था कि डिप्‍टी कमिश्‍नर दफ्तर में मिलेगा, कि वह भला आदमी है, मुंसिफ-मिजाज है। और फिर उसका तो काम भी मामूली-सा है, अगर उससे बात हो गई और उसने हुक्‍म दे दिया तो पलक मारते ही काम हो जाएगा। शायद इसीलिए जब वह घर से निकला था तो आसपास का दृश्‍य उसे एक तस्‍वीर जैसा सुंदर लगा था, जैसे माहौल में से बरसों की धुंध छँट गई हो और विशेष रोशनी-सी चारों ओर छिटक गई हो, एक हल्‍की-सी झिलमिलाहट, जिसमें एक-एक चीज – नदी का पाट, उस पर बना सफेद डँडहरों वाला पुल, और नदी के किनारे खड़े ऊँचे-ऊँचे भरे-पूरे पेड़, सभी निखर उठे थे। सड़क पर जाती युवतियों के चेहरे खिले-खिले। हर इमारत निखरी-निखरी, सुबह की धूप में नहाई। और इसी मन‍ःस्थिति में वह उस बस में बैठ गया था जो उसे शहर के बाहर दूर, डिप्‍टी कमिश्‍नर के दफ्तर की ओर ले जाने वाली थी।

फिर शहर में से निकल जाने पर, वह बस किसी घने झुरमुट के बीच, स्‍वच्‍छ, निर्मल जल के एक नाले के साथ-साथ चली जा रही थी। उसने झाँककर, बस की खिड़की में से बाहर देखा था। एक जगह पर नाले का पाट चौड़ा हो गया था, और पानी की सतह पर बहुत-सी बतखें तैर रही थीं, जिससे नाले के जल में लहरियाँ उठ रही थीं। किनारे पर खड़े बेंत के छोटे-छोटे पेड़ पानी की सतह पर झुके हुए थे और उनका साया जालीदार चादर की तरह पानी की सतह पर थिरक रहा था। अब बस किसी छोटी-सी बस्‍ती को लाँघ रही थी। बस्‍ती के छोटे-छोटे बच्‍चे, नंगे बदन, नाले में डुबकियाँ लगा रहे थे। उसकी नजर नाले के पार, बस्‍ती के एक छोटे से घर पर पड़ी जो नाले के किनारे पर ही, लकड़ी के खम्‍भों पर खड़ा था, उसकी खिड़की में एक सुंदर-सी कश्‍मीरी लड़की, अपनी छोटी बहिन को सामने बैठाए उसके बालों में कंघी कर रही थी। थोड़ी देर के लिए ही यह दृश्‍य उसकी आँखों के सामने रहा था और फिर बस आगे बढ़ गई थी। पर उसे देख कर उसके दिल में स्‍फूर्ति की लहर दौड़ गई थी… एक छोटा-सा घर तो बन ही सकता है। मन में एक बार निश्‍चय कर लो तो, जैसे-तैसे, काम पूरा हो ही जाता है। बेंत के पेड़ के नीचे, आँगन में, कुर्सी बिछाकर बैठा करूँगा, पेड़ों की पाँत के नीचे, मैं और मेरी पत्‍नी घूमने जाया करेंगे। पेड़ों पर से झरते पत्तों के बीच कदम बढ़ाते हुए, मैं हाथ में छड़ी लेकर चलूँगा, मोटे तले के जूते पहनूँगा, और ठंडी-ठंडी हवा गालों को थपथपाया करेगी। जिंदगी-भर की थकान दूर हो जाएगी …मकान बनाना क्‍या मुश्किल है! क्‍या मेरी उम्र के लोग काम नहीं करते? वे फैक्‍टरियाँ चलाते हैं, नई फैक्‍टरियाँ बनाते हैं, मरते दम तक अपना काम बढ़ाते रहते हैं।

पर अब, ढलती दोपहर में, खचाखच भरी बस में हिचकोले खाता हुआ, बेसुध-सा, शून्‍य में देखता हुआ, वह घर लौट रहा था। पिंडलियाँ दुख रही थीं और मुँह का जायका कड़वा हो रहा था।

उसे फिर झुँझलाहट हुई अपने पर, अपने वकील पर जिसने ऐन आड़े वक्‍त में मुकदमे पर पीठ फेर ली थी; अपनी सगे-संबंधियों पर, जिनमें से कोई भी हाथ बँटाने के लिए तैयार नहीं था। मैं ही मारा-मारा फिर रहा हूँ। सबसे अधिक उसे अपने पर क्रोध आ रहा था, अपनी अकर्मण्‍यता पर, अपने दब्‍बू स्‍वभाव पर, अपनी असमर्थता पर।

बस में से उतरते ही उसने सीधे अपने वकील के पास जाने का फैसला किया। वह अंदर-ही-अंदर बौखलाया हुआ था। फीस लेते समय तो कोई कसर नहीं छोड़ते, दस की जगह सौ माँगते हैं, और काम के वक्‍त पीठ मोड़ लेते हैं। तहसीलों में धक्‍के खाना क्‍या मेरा काम है? क्‍या मैंने तुम्‍हें उजरत नहीं दी?

कमिश्‍नरी का बड़ा फाटक लाँघकर वह बाएँ हाथ को मुड़ गया, जहाँ कुछ दूरी पर, अर्जीनवीसों की पाँत बैठती थी। बूढ़ा वकील कुछ मुद्दत से अब यहीं बैठने लगा था। उसने नजर उठाकर देखा, छोटे-से लकड़ी के खोखे में वह बड़े इत्‍मीनान से लोहे की कुर्सी पर बैठा था। उसका चौड़ा चेहरा दमक रहा था। और सिर के गिने-चुने बाल बिखरे हुए थे। उसे लगा जैसे बूढ़े वकील ने नया सूट पहन रखा है और उसके काले रंग के जूते चमक रहे हैं।

वह अपने बोझिल पाँव घसीटता, धीरे-धीरे चलता हुआ, वकील के खोखे के सामने जा पहुँचा। बूढ़ा वकील कागजों पर झुका हुआ था, और एक नोटरी की हैसियत से अर्जियों पर किए गए दस्‍तखतों की तसदीक कर रहा था, और नीचे, जमीन पर खड़ा, उधेड़ उम्र का उसका कारिंदा, हाथ में नोटरी की मोहर उठाए, एक-एक दर्ख्‍वास्‍त पर दस्‍तखत हो जाने पर, ठप्‍पा लगा रहा था।

”आज भी कुछ काम नहीं हुआ,” खोखे के सामने पहुँचते ही, उसने करीब-करीब चिल्लाकर कहा। वकील को यों आराम से बैठा देखकर उसका गुस्‍सा भड़क उठा था। खुद तो कुर्सी पर मजे से बैठा, दस्‍तखतों की तसदीक कर रहा है, और पैसे बटोर रहा है, जबकि मैं तहसीलों की धूल फाँक रहा हूँ।

वकील ने सिर उठाया, उसे पहचानते ही मुस्‍कराया। वकील ने उसका वाक्‍य सुन लिया था।

”मैंने कहा था ना?” वकील अपनी जानकारी बघारते हुए बोला, ”तहसीलों में दस-दस दिन लटकाए रखते हैं। मैं आजिज आ गया था, इसीलिए आपसे कह दिया था कि अब मैं यह काम नहीं करूँगा।”

”आप नहीं करेंगे तो क्‍या मैं तहसीलों की खाक छानता फिरूँगा?” उसने खीझकर कहा।

”यह काम मैं नहीं कर सकता। यह काम जमीन के मालिक को ही करना होता है।”

उसका मन हुआ बूढ़े वकील से कहे, बरसों तक तुम इस मुकदमें की पैरवी करते रहे हो। मैं तुम्‍हें मुँह-माँगी उजरत देता रहा हूँ, और अब, जब आड़ा वक्‍त आया है तो तुम इस काम से किनारा कर रहे हो, और मुझसे कह रहे हो कि जमीन के मालिक को ही यह काम करना होता है।

पर उसने अपने को रोक लिया, मन में उठती खीझ को दबा लिया। बल्कि बड़ी संयत, सहज आवाज में बोला, ”वकील साहिब, आप मुकदमे के एक-एक नुक्‍ते को जानते हैं। आपकी कोशिशों से हम यहाँ तक पहुँचे हैं। अब इसे छोटा-सा धक्‍का और देने की जरूरत है, और वह आप ही दे सकते हैं।”

पर बूढ़े वकील ने मुँह फेर लिया। उसकी उपेक्षा को देखते हुए वह मन-ही-मन फिर तमक उठा। पर उसकी नजर वकील के चेहरे पर थी – 80 साल का बूढ़ा शून्‍य में देखे जा रहा था। अपने दम-खम के बावजूद वकील की आँखें धुँधला गई थीं, और बैठे-बैठे अपने आप उसका मुँह खुल जाता था। इस आदमी से यह उम्‍मीद करना कि यह तहसीलों-कचहरियों के चक्‍कर काटेगा, बड़ी-बेइनसाफी-सा लगता था। और अगर काटेगा भी तो कितने दिन तक काट पाएगा?

उसे फिर अपनी निःसहायता का भास हुआ। कोई भी और आदमी नहीं था जो इसका बोझ बाँट सके, उसे साँस तक ले पाने की मोहलत दे सके। बेटे थे तो एक बंबई में जा बैठा तो दूसरा अंबाला में, और मैं इस उम्र में श्रीनगर में झख मार रहा हूँ। मैं आज हूँ, कल नहीं रहूँगा। मैं आँखे बंद कर लूँगा तो अपने आप जमीन का मसला सुलझाते फिरेंगे।

”वकील साहिब, आप ही इस नाव को पार लगा सकते हैं।” उसने कहना शुरू ही किया था कि वकील झट से बोला, ”मैं कहीं नहीं जा पाऊँगा, आप मुझे माफ करें, अब यह मेरे बस का नहीं है।”

फिर अपने खोखे की ओर इशारा करते हुए बोला, ”आपने देख लिया यह काम कैसा है। यहाँ से मैं अगर एक घंटे के लिए भी उठ जाऊँ तो कोई दूसरा नोटरी मेरी कुर्सी पर आकर बैठ जाएगा।”

फिर क्षीण-सी हँसी हँसते हुए कहने लगा, ”सभी इस ताक में बैठे हैं कि कब बूढ़ा मरे और वे उसकी कुर्सी सँभालें… मैं अपना अड्डा नहीं छोड़ सकता। मेरी उम्र ज्‍यादा हो चुकी है, और यहाँ पर बिना भाग-दौड़ के मुझे दो पैसे मिल जाते हैं, बुढ़ापे में यही काम कर सकता हूँ।”

”मुश्किल काम तो हो गया, वकील साहिब, अब तो छोटा-सा काम बाकी है।”

”छोटा-सा काम बाकी है?” वकील तुनककर बोला, ”जमीन का कब्‍जा हासिल करना क्‍या छोटा-सा काम है? यह सबसे मुश्किल काम है।”

”सुनिए, वकील साहिब…” उसने कहना शुरू ही किया था कि वकील ने हाथ जोड़ दिए, ”आप मुझे माफ करें, मैं कहीं नहीं जा पाऊँगा…”

सहसा, वकील के चेहरे की ओर देखते हुए एक बात उसके दिमाग में कौंध गई। वह ठिठक गया, और कुछ देर तक ठिठका खड़ा रहा, फिर वकील से बोला, ”नहीं, वकील साहिब, मैं तो कुछ और ही कहने जा रहा था।”

”कहिए, आप क्‍या कहना चाहते हैं?”

वह क्षण भर के लिए फिर सोच में पड़ गया, फिर छट से बोला, ”अगर आप जमीन पर कब्‍जा हासिल करने की सारी जिम्‍मेदारी अपने ऊपर ले लें, तो कब्‍जा मिलने पर मैं आपको जमीन का एक-तिहाई हिस्‍सा दे दूँगा।’

उसने आँख उठाकर बूढ़े वकील की ओर देखा। वकील जैसे सकते में आ गया था, और उसका मुँह खुलकर लटक गया था।

”पर इस शर्त पर कि अब इस काम में मैं खुद कुछ नहीं करूँगा। सब काम आप ही करेंगे।” वह कहता जा रहा था।

”मैंने तो अर्ज किया न, मेरी मजबूरी है…” बूढ़ा वकील बुदबुदाया।

”आप सोच लीजिए। एक तिहाई जमीन का मतलब है करीब चार लाख रुपए…”

यह विचार उसे अचानक ही सूझ गया था, मानो जैसे कौंध गया हो। अपनी विवशता के कारण रहा हो, या दबी-कुचली व्‍यवहार-कुशलता का कोई अधमरा अंकुर सहसा फूट निकला हो। पर इससे उसका जेहन खुल-सा गया था।

”आप नहीं कर सकते तो मैं आपको मजबूर नहीं करना चाहता। आप किसी अच्‍छे वकील का नाम तो सुझा सकते हैं जो दौड़धूप कर सकता हो। मुकदमे की स्थिति आप उसे समझा सकते हैं”, उसने अपनी व्‍यवहार-कुशलता का एक और तीर छोड़ते हुए कहा, ”आप मुकदमे को यहाँ तक ले आए, यही बहुत बड़ी बात है।”

उसने बूढ़े वकील के चेहरे की ओर फिर से देखा। बूढ़े वकील का मुँह अभी भी खुला हुआ था और वह उसकी ओर एकटक देखे जा रहा था।

”अब कोई वकील ही यह काम करेगा…”

बूढ़े वकील की आँखों में हल्‍की-सी चमक आ गई थी और उसका मुँह बंद हो गया था।

”मैं आपसे इसलिए कह रहा हूँ कि केस की सारी मालूमात आपको है। अपना सुझाव सबसे पहले आपके सामने रखना तो मेरा फर्ज बनता है। आपके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है, और अदालत का फैसला हमारे हक में हो चुका है। अब केवल कब्‍जा लेना बाकी है…”

अपनी बात का असर बूढ़े वकील के चेहरे पर होता देखकर, वह मन-ही-मन बुदबुदाया : ‘लगता है तीर निशाने पर बैठा है।’

”लेकिन मैं अपने पल्‍लू से अब और कुछ नहीं दूँगा। न पैसा, न फीस, न मुआवजा, कुछ भी नहीं। बस, एक-तिहाई जमीन आपकी होगी, और शेष मेरी…”

बोलते हुए उसे लगा जैसे उसके शरीर में ताकत लौट आई है, और आत्‍मविश्‍वास लहराने लगा है। उसे लगा जैसे अगर वह इस वक्‍त चाहे तो भाषण दे सकता है।

”पटवारी, तहसीलदार, घुसपैठिया, जिस किसी को कुछ देना होगा तो आप ही देंगे…”

फिर बड़े ड्रामाई अंदाज में वह चलने को हुआ, और धीरे-धीरे बड़े फाटक की ओर कदम बढ़ाने लगा।

”अपना फैसला आज शाम तक मुझे बता दें,” फिर, पहले से भी ज्‍यादा ड्रामाई अंदाज में बोला, ”अगर मंजूर हो तो मैं अभी मुआहिदे पर दस्‍तखत करने के लिए तैयार हूँ।”

और बिना उत्तर का इंतजार किए, बड़े फाटक की ओर बढ़ गया।

दूसरे दिन, अपनी मृत्‍यु के कुछ ही देर पहले, वह पार्क में, एक बेंच पर बैठा, हल्‍की-हल्‍की धूप का आनंद ले रहा था और पिछले दिनों की थकान उतार रहा था। वह मन-ही-मन बड़ा आश्‍वस्‍त था कि उसे एक बहुत बड़े बोझ से छुटकारा मिल गया है। अब वह चैन से बैठ सकता है और फिर से भविष्‍य के सपने बुन सकता है।

इस प्रस्‍ताव ने दोनों बूढ़ों की भूमिका बदल दी थी। जिस समय वह धूप में बैठा अधमुँदी आखों से हरी-हरी घास पर चमकते ओस के कण देख रहा था, उसी समय तहसील की ओर जाने वाली खचाखच भरी बस में, डँडहरे को पकड़कर खड़ा वकील अपना घर बनाने के मनसूबे बाँध रहा था। दिल में रह-रहकर गुदगुदी-सी उठती थी। जिंदगी-भर किराए के मकान में, तीसरी मंजिल पर टँगा रहा हूँ। किसी से कहते भी शर्म आती है कि सारी उम्र काम करने के बाद भी अपना घर तक नहीं बना पाया। बेटे बड़े हो गए हैं और दिन-रात शिकायत करते हैं कि तुमने हमारे लिए क्‍या किया है? …इधर खुली जमीन होगी, छोटा-सा आँगन होगा, दो-तीन पेड़ फलों के लगा लेंगे, छोटी-सी फुलवाड़ी बना लेंगे। जिंदगी के बचे-खुचे सालों में, कम-से-कम रहने को तो खुली जगह होगी, सँकरी गली में, तीसरी मंजिल पर लटके तो नहीं रहेंगे… एक स्‍फूर्ति की लहर, पुलकन-सी, एक झुरझुरी-सी उसके बदन में उठी और सरसराती हुई, सीधी, रीढ़ की हड्डी के रास्‍ते सिर तक जा पहुँची। खुली जमीन का एक टुकड़ा, लाखों की लागत का, बैठे-बिठाए, मुफ्त में मिल जाएगा, न हींग लगे, न फिटकरी। अच्‍छा हुआ जो लिखा-पढ़ी भी हो गई, मुवक्किल को दोबारा सोचने का मौका ही नहीं मिला।

इस गुदगुदी में वह बस पर चढ़ा था। पर कुछ फासला तय कर चुकने पर, बस में खड़े-खड़े बूढ़े वकील की कमर दुखने लगी थी। अस्‍सी साल के बूढ़े के लिए बस के हिचकोलों में अपना संतुलन बनाए रखना कठिन हो रहा था। दो बार वह गिरते-गिरते बचा था। एक बार तो वह, नीचे सीट पर बैठी एक युवती की गोद में जा गिरा था, जिस पर आसपास के लोग ठहाका मारकर हँस दिए थे। पाँव बार-बार लड़खड़ा जाते थे, पर मन में गुदगुदी बराबर बनी हुई थी।

पर कुछ ही देर बाद, बस में खड़े रहने के कारण, घुटनों में दर्द अब बढ़ेगा। तहसील अभी दूर है और वहाँ पहुँचते-पहुँचते मैं परेशान हो उठूँगा। दर्द बढ़ने लगा और कुछ ही देर बाद उसे लगने लगा जैसे किसी जंतु ने अपने दाँत उसके शरीर में गाड़ दिए, और उसे झिंझोड़ने लगा है। न जाने तहसील तक पहुँचने-पहुँचते मेरी क्‍या हालत होगी? …बैठे-बिठाए मुसीबत मोल ले ली। जाए भाड़ में जमीन का मालिक। और वह जहाँ पर खड़ा था, वहीं घुटने पकड़कर बस के फर्श पर, हाय-हाय करता बैठ गया।

उस समय बस, उस बस्‍ती को पार कर रही थी, जहाँ बेंत के पेड़ों के झुरमुट के बीच, नाले के किनारे-किनारे सड़क चलती जा रही थी, और जहाँ पानी की सतह पर लहरियाँ बनाती हुई, बतखें आज भी तैर रही थीं।

उधर, पार्क के बेंच पर बैठा जमीन का मालिक, थकान दूर हो जाने पर, धीरे-धीरे ऊँघने लगा था, उसकी मौत को कुछ ही मिनट बाकी रह गए थे। वह अभी भी आश्‍वस्‍त महसूस कर रहा था, चलो, इस सारी चख-चख और फजीहत में से निकल आया हूँ। उसे यह सोचकर सुखद-सा अनुभव हुआ कि वह आराम से बेंच पर बैठा सुस्‍ता रहा है जबकि वकील इस समय तहसील में जमीन के कागज निकलवाने के लिए भटक रहा है। …पर जमीन का ध्‍यान आते ही उसके मन को धक्‍का-सा लगा। सहसा ही वह चौंककर उठ बैठा। यह मैं क्‍या कर बैठा हूँ? एक तिहाई जमीन दे दी? अदालत का फैसला तो मेरे हक में हो चुका है। अब तो केवल कब्‍जा लेना बाकी था। जमीन तो मुझे मिल ही जाती। लाखों की जमीन उसके हवाले कर दी और लिखत भी दे दी। कहाँ तो वकील को ज्‍यादा-से-ज्‍यादा पाँच सौ-हजार की फीस दिया करता था, वह भी चौथे-पाँचवें महीने, और कहाँ एक-तिहाई जमीन ही दे दी। लूट कर ले गया, बैठे-बिठाए लूट कर ले गया। उसके मन में चीख-सी उठी। यह मैं क्‍या कर बैठा हूँ? न किसी से पूछा, न बात की। देना ही था तो एकमुश्‍त कुछ रकम देने का वादा कर देता। अपनी जमीन कौन देता है? बैठे-बिठाए मैंने कागज पर – वह भी स्‍टांप पेपर पर दस्‍तखत कर दिए। यह मैं क्‍या कर बैठा हूँ? और स्टांप पेपर की तस्‍वीर आँखों के सामने खिंच गई। तभी कहीं से जोर का धक्‍का आया और दर्द-सा उठा, पहले एक बार, फिर दूसरी बार, फिर तीसरी बार, और वह बेंच पर से लुढ़ककर, नीचे, ओस से सनी, हरी-हरी घास पर, औंधे मुँह जा गिरा।
आज के अतीत – संस्मरण

ज़िन्दगी में तरह-तरह के नाटक होते रहते हैं, मेरा बड़ा भाई जो बचपन में बड़ा आज्ञाकारी और ‘भलामानस’ हुआ करता था, बाद में जुझारू स्वभाव का होने लगा था। मैं, जो बचपन में लापरवाह, बहुत कुछ आवारा, मस्तमौला हुआ करता था, भीरु स्वभाव बनने लगा था।

अब सोचता हूँ, इसमें मेरे ‘शुभचिन्तकों’ का भी अच्छा-खासा योगदान रहा था, जो बात-बात पर मेरी तुलना बलराज से करते रहते। जिसके मुँह से सुनों, बलराज के ही गुण गाता, “मन्त्री जी के बड़े बेटे और छोटे बेटे में उतना ही अन्तर है जितना नार्थपोल और साउथपोल में है, वह गोरा-चिट्टा है, हँसमुख है, फुर्तीला है, जबकि छोटा मरियल है, उसे तरह-तरह के खेल सूझते हैं, वह लिखता है तो मोती पिरोता है, जबकि छोटा मनमानी करता है, आवारा घूमता है, पढ़ने-लिखने में उसका मन ही नहीं लगता” पर धीरे-धीरे, न जाने कब से और क्योंकर, एक प्रकार की हीन भावना मेरे अन्दर जड़ जमाने लगी। वह गोरे रंग का है, मैं साँवला हूँ, वह हष्ट-पुष्ट है, मैं दुबला हूँ, वह शरीफ है, मैं गालियाँ बकता हूँ, टप्पे गाता हूँ…

अब तक तो हमारा रिश्ता बराबरी का रहा था, यह सब सुनते-जानते हुए भी मैं उससे दबता नहीं था, कोई कुछ भी कहता रहे, मैं अपनी राह जाता था।
पर अब लोगों की टिप्पणियाँ सुन-सुनकर मेरा मन बुझने लगा था।

धीरे-धीरे हमारे बीच पाये जाने वाले अन्तर का बोध मुझे स्वयं होने लगा था और मैं अपने को छोटा महसूस करने लगा था, यहाँ तक कि मैं मानने लगा था कि मैं जिस मिट्टी का बना हूँ उसी में कोई दोष रहा होगा। मैं उससे ईर्ष्या तो करता ही था, पर यह ईर्ष्या मुझे विचलित नहीं करती थी, मैं अपनी धुन में, जो मन में आता करता रहता था। पर अब मैं उससे खम खाने लगा था। अब, एक ओर ईर्ष्या, दूसरे अपने ‘छुटपन’ का बोध, और इस पर उसके प्रति श्रद्धाभाव, यह अजीब-सी मानसिकता मेरे अन्दर पनप रही थी, पहले उसकी पहलकदमी पर चकित हुआ करता था, उसे नये-नये खेल सूझते हैं, मैं उत्साह से उनमें शामिल हो जाता, पर हमारे बीच बराबरी का भाव बना रहता। पर अब तो वह मेरा ‘हीरो’ बनता जा रहा था।

यदि उसके प्रति मेरे अन्दर विद्रोह के भाव उठते तो बेहतर था। तब मैं अपनी जगह पर तो खड़ा रहता। अब तो जो वह कहता वही ठीक था। मैं उसका अनुसरण करने लगा था और चूँकि वह मुझसे प्यार करता था, बड़े भाई का सारा वात्सल्य मुझ पर लुटाता था, मैं उत्तरोत्तर उसका अनुगामी बनता जा रहा था। वह नाटक खेलता तो मैं भी बड़े चाव से उसके साथ नाटक खेलने लगता। वह तीर-कमान चलाने लगता, तो मैं भी वही कुछ करने लगता और इस वृत्ति ने ऐसी जड़ जमा ली कि धीरे-धीरे मेरी दबंग तबीयत शिथिल पड़ने लगी। इस नये रिश्ते को मेरे प्रति उसके स्नेह ने और भी मजबूत किया। जब मैं उससे झगड़ता तो वह मुझे बाँहों में भर लेता। एक साथ, एक ही बिस्तर में सोते हुए, जब मैं गुस्से से उसे लातें जमाता, उसके हाथ नोच डालता तब भी वह मुझ पर हाथ नहीं उठाता था।

इस तरह मेरी अपनी मौलिकता बहुत कुछ दबने लगी थी।
यह श्रद्धाभाव मेरे स्वभाव का ऐसा अंग बना कि धीरे-धीरे हर हुनरमन्द व्यक्ति को अपने से बहुत ऊँचा, और स्वयं को बहुत नगण्य और छोटा समझने लगा।

हम लोग अपने घर में ईश्वरस्तुति के भजन गाते थे, सन्ध्योपासना से जुड़े मन्त्र, नीतिप्रधान दोहे, चौपाइयाँ आदि, पर ये लोग साहित्यिक कृतियों की अधिक बातें करते। अब सोचता हूँ तो दूर बचपन में ही घर में ऐसा माहौल बनने लगा था, माँ के मुँह से सुनी हुई कहानियाँ, विषाद भरे गीत, आर्यसमाज के जलसों में सुनी दृष्टान्त कथाएँ, जलसों पर से ही प्राप्त होने वाले कहानी संग्रह, आदि हमारी रुचियाँ यदि साहित्योन्मुख हुईं तो इसका श्रेय बहुत कुछ हमारे घर के वातावरण को है और उसमें इन फुफेरी बहनों की बहुत बड़ी देन रही। किसी झटके से हम लोग साहित्य की ओर उन्मुख नहीं हुए। इस तरह जब लिखना शुरू किया तो इसके पीछे कोई विशेष निर्णय अथवा आग्रह रहा हो, ऐसा नहीं था। कोई नया मोड़ काटने वाली बात नहीं थी। निर्णय करने का अवसर तब आया था जब साहित्य-सृजन को जीवन में प्राथमिकता दी जाने लगी थी, तब अन्य सभी व्यस्तताएँ गौण होने लगी थीं।

जन्मजात संस्कारों की भी सम्भवतः कोई भूमिका रही होगी। हमारे घर में जब कभी हमारे पूर्वजों की चर्चा होती तो माँ, हमारी दादी के बहुत गुण गाया करतीं। वह तो उन्हें ‘देवी’ कहा करतीं। जब भी उनकी बात करतीं तो बड़े श्रद्धाभाव से। एक घटना की चर्चा तो वह अक्सर किया करतीं:
“तुम्हारी दादी भी कवित्त कहती थीं, ईश्वर भक्ति के। बड़ी नेम-धर्मवाली स्त्री थीं, पूजा-पाठ करने वाली। देवी थीं देवी…” और माँ सुनातीं-
“तुम्हारे पिताजी का छोटा भाई, भरी जवानी में चल बसा था। न जाने उसे क्या रोग हुआ। देखते-देखते चला गया। तुम्हारी दादी के लिए यह सदमा सहना बड़ा कठिन था, पर वह शान्त रहीं। अपने जवान बेटे का सिर अपनी गोद में रखे सारा वक्त जाप करती रहीं।” जात-बिरादरी की औरतें टिप्पणियाँ कसती रहीं- “हाय-हाय, यह कैसी संगदिल माँ है, जवान बेटा चला गया और विलाप तक नहीं करती। रोती तक नहीं।”

इस दिशा में एक और चौंकाने वाला अनुभव ही हुआ। बरसों बाद जब मैं स्वयं कहानियाँ लिख-लिखकर पत्र-पत्रिकाओं को भेजने लगा था और पिताजी मेरे भविष्य के बारे में शंकित-से हो उठे थे तो एक दिन अचानक ही कहने लगे:
“मैंने भी एक बार नॉवेल लिखा था”
मैं चौंका। यह मेरे लिए सचमुच चौंकाने वाली बात थी। पिताजी तो व्यापारी थे और हम दोनों भाइयों को अपने ही कारोबार में शामिल करना चाहते थे।
“आपने कभी बताया तो नहीं”, मैंने कहा।
“दसवीं कक्षा की परीक्षा दे चुकने के बाद मैंने वह नॉवेल लिखा था।”
“फिर?”
“फिर क्या…? बात आयी-गयी हो गयी”।
उन्होंने इस लहजे से कहा मानो मूर्खों की-सी हरकतें छोटी उम्र में हर कोई करता है, इसमें अचरज की क्या बात है।
सम्भव है, कहीं-न-कहीं, साहित्य-सृजन में हमारी रुचि किसी हद तक हमें संस्कार रूप में अपने परिवार से मिली हो।
और बलराज की साहित्यिक रुचि तो शीघ्र ही कविता में व्यक्त होने लगी थी-

‘गुलदस्ता से क्यों तूने ठुकरा के मुझे फेंका
गो घास पे उगता हूँ, क्या फूल नहीं हूँ?’

उन्होंने पन्द्रह-एक वर्ष की अवस्था में यह शेर कहा था- और जब भगतसिंह को फाँसी दी गयी, तो बलराज ने पूरी-की-पूरी कविता अंग्रेजी में भगतसिंह की पुण्य स्मृति में कह डाली थी।
हम अपने संस्कार सचेत रूप से ग्रहण नहीं करते। कब, कौन-सी घटना कहीं गहरे में अपनी छाप छोड़ जाये, हम कुछ नहीं जानते।

कुछ यादें मरती नहीं हैं। कुछ घटनाओं-अनुभवों की यादें तो बरसों बाद भी दिल को मथती रहती हैं भले घटना अपना महत्व खो चुकी हो और उसका डंक कब का टूट चुका हो।
ऐसी ही एक याद मेरे हॉकी सम्बन्धी अनुभवों से जुड़ी है।

कॉलेज में दाखिले के दूसरे साल मैं कॉलेज की हॉकी टीम में ले लिया गया था और उस दिन मुझे यूनिवर्सिटी टूर्नामेंट का पहला मैच लॉ कॉलेज के विरुद्ध खेलने जाना था। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था। आखिर मेरे दिल की साध पूरी हुई थी। अब भी उस घटना को याद करता हूँ तो दिल को झटका-सा लगता है।

ऐन जब टीम मैदान में उतर रही थी, और मैं मैदान की ओर बढ़ रहा था तो कप्तान ने मुझे न बुलाकर, मेरी जगह एक अन्य खिलाड़ी अताउल्लाह नून को बुला लिया। मैं भौंचक्का-सा देखता रह गया था।

खेल शुरू हो गया। मैं ग्राउंड के बाहर, खेल की पोशाक पहने, हाथ में स्टिक उठाए, हैरान-सा खड़ा का खड़ा रह गया। फिर मेरे अन्दर ज्वार-सा उठा और मैं वहाँ से लौट पड़ा, साइकिल उठाई और घर की ओर चल पड़ा।

मैं थोड़ी ही दूर गया था जब दूसरी ओर से कॉलेज की टीम का एक पुराना खिलाड़ी, प्रेम, साइकिल पर आता नजर आया। वह मैच देखने जा रहा था। मुझे लौटता देखकर वह हैरान रह गया।
“क्यों? क्या मैच नहीं हो रहा? लौट क्यों रहे हो?”
मैंने केवल सिर हिला दिया। वह आगे निकल गया। मैं बेहद अपमानित महसूस कर रहा था और रोता हुआ घर पहुँचा।

घर लौटते ही मैंने हॉकी-स्टिक को कोने में रखा और मन-ही-मन गाँठ बाँध ली कि अब हॉकी के मैदान का मुँह नहीं देखूँगा। हॉकी स्टिक को हाथ नहीं लगाऊँगा। दो बरस तक बेहद चाव से और सब कुछ भूलकर खेलते रहने के बाद मैंने सहसा ही हॉकी के मैदान की ओर पीठ मोड़ ली और अपने साथी खिलाड़ियों से भी मिलना छोड़ दिया।
कुछ दिन बाद कॉलेज टीम का कप्तान चिरंजीव मिला।
“तुम चले क्यों आये?” उसने बेतकल्लुफी से पूछा।
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया।

वह कहने लगा, “उस दिन हमने अता नून को खेलने का मौका दिया। यह कॉलेज में उसका आखिरी साल है इसलिए, उसे कॉलेज कलर मिल जायेगा”।
पर मैं अन्दर-ही-अन्दर इतना कुढ़ रहा था कि मैंने मुँह फेर लिया। कोई उत्तर नहीं दिया। उसे इतना भी नहीं कहा कि अगर यह बात थी तो तुमने मुझे बताया क्यों नहीं।
दिन बीतने लगे। मैंने हॉकी खेलना छोड़ दिया।

अब उस घटना की याद करते हुए मुझे पछतावा होता। मैंने झूठे दम्भ के कारण हॉकी खेलना छोड़ दिया था। जिसे मैं आत्मसम्मान समझ रहा था वह झूठा दम्भ ही था और बड़ा बचकाना निर्णय था और मेरे इस व्यवहार के पीछे एक और कारण भी रहा था। मैं अपने भाई के पद-चिन्हों पर चल रहा था। कुछ ही समय पहले बलराज ने अपने बोट-क्लब से इस्तीफा दे दिया था। वह कॉलेज की बोट-क्लब का सेक्रेटरी था। क्लब के अध्यक्ष प्रोफेसर मैथाई द्वारा इतना-भर पूछे जाने पर कि तुमने क्लब के हिसाब-किताब का चिट्ठा अभी तक दफ्तर में क्यों नहीं दिया, बलराज ने अपमानित महसूस किया, मानो उसकी नीयत पर शक किया जा रहा हो और हिसाब के चिट्ठे के साथ अपना इस्तीफा भी दे आया था।

मैंने जो हॉकी खेलना छोड़ दिया तो वह बहुत कुछ बलराज की देखा-देखी ही था। दम्भ में आकर।
आज याद करने पर मुझे अपनी नासमझी पर गुस्सा आता है। कप्तान द्वारा यह बता दिये जाने पर कि ऐसा क्यों हुआ, मुझे अपना गुस्सा भूल जाना चाहिए था और हँसते-खेलते, हॉकी ग्राउंड पर लौट जाना चाहिए था। हॉकी खेलने में मुझे अपार आनन्द मिलता था और कॉलेज टीम का सदस्य होना मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। मुझे कॉलेज कलर मिलता। मेरा आत्मविश्वास बल्लियों ऊपर उठता। कॉलेज टीम के खिलाड़ी तो छाती तानकर कॉलेज के गलियारों में घूमते थे।

यह किस्सा यहाँ खत्म नहीं होता। जब अगले साल मैं एम.ए. का छात्र था तो हॉकी टीम का नया कप्तान, खन्ना, मुझसे आग्रह करने लगा कि मैं हॉकी टीम में लौट आऊँ, और मुझे टीम का सेक्रेटरी बनाया जायेगा, पर मैं नहीं माना। हॉकी से नाता तोड़ना मेरे लिए पत्थर की लकीर बन चुका था। वह भी मेरे रवैए पर हैरान हुआ पर चुप हो गया।

यदि कॉलेज छोड़ने के बाद मुझे पछतावा न होने लगता और मैं अपने को वंचित महसूस नहीं करने लगता, तो यह मामूली-सी घटना बनकर रह जाती, पर यह घटना तो बरसों तक दिल को कचोटती रही। आज भी कभी-कभी मैं नींद में, अपने को सपने में हॉकी खेलते देखता हूँ। इतना बढ़िया खेलता हूँ कि सपने में स्वयं ही अश-अश कर उठता हूँ। ऐसे दाँव खेलता हूँ कि ध्यानचन्द क्या खेलता रहा होगा।

उन्हीं दिनों एक और घटना भी घटी और वह भी दिल पर गहरी खरोंच छोड़ गई।
उस वर्ष मैं होस्टल छोड़कर अपने बहनोई श्री चन्द्रगुप्त विद्यालंकार के साथ ब्रेडलॉ हॉल के निकट उनके घर पर रहने लगा था। होस्टल छोड़ते ही मैं जैसे किसी दूसरे शहर में पहुँच गया था। चन्द्रगुप्त जी हिन्दी के सुपरिचित लेखक थे, लाहौर में उन दिनों अपना प्रकाशन गृह चला रहे थे। जहाँ कॉलेज का माहौल अंग्रेजीयत का था, वहाँ चन्द्रगुप्तजी के घर में हिन्दी साहित्य की चर्चा रहती। गाहे-बगाहे लेखकों का आना-जाना भी होता। वात्स्यायनजी से पहली बार वहीं पर मिलने का मौका मिला। देवेन्द्र सत्यार्थी से भी। उन्हीं दिनों उपेन्द्रनाथ अश्क को भी साइकिल पर बैठे सड़कों पर जाते देखा करता। लगभर हर शाम चन्द्रगुप्तजी के साथ मालरोड पर लम्बी सैर को जाता। चन्द्रगुप्तजी हिन्दी साहित्य की चर्चा करते जो मेरे लिए अभी दूर पार का विषय था, भले ही मेरी एक कहानी और दो-एक कविताएँ कॉलेज की पत्रिका ‘रावी’ में छप चुकी थीं।

एक दिन चन्द्रगुप्तजी ने बताया कि मुंशी प्रेमचन्द कुछ दिन के लिए लाहौर आ रहे हैं और हमारे ही निवास स्थान पर रहेंगे। यह बहुत बड़ी सूचना थी पर मुझ पर उसका ज्यादा असर नहीं हुआ। प्रेमचन्द की विशिष्टता से तो मैं अनभिज्ञ नहीं था, पर जाड़ों की छुट्टियों में मैं घर जाने के लिए एक-एक दिन गिन रहा था। इसमें भी सन्देह नहीं कि उन दिनों मेरे मस्तिष्क पर अंग्रेजी साहित्य हावी था और मैंने उस अवसर के महत्व को गौण समझा। चन्द्रगुप्तजी ने बहुत समझाया कि ऐसा अवसर बहुत कम मिल पाता है, तुम मेरे साथ रहोगे तो हम दोनों मिलकर उनकी देखभाल भी कर सकेंगे। पर मैं नहीं माना और यह कहकर कि भविष्य में भी ऐसा अवसर मिल सकता है, मैं रावलपिंडी के लिए रवाना हो गया।

प्रेमचन्द आये, उसी घर में पाँच दिन तक ठहरे, और जब मैं छुट्टियों के बाद लाहौर लौटा तो वह जा चुके थे। तब भी मुझे कोई विशेष खेद नहीं हुआ।

खेद तब हुआ जब कुछ ही महीने बाद पता चला कि प्रेमचन्द संसार में नहीं रहे और भी गहरा दुख तब हुआ जब एक लम्बे रेल-सफर में ‘गोदान’ पढ़ता रहा और पुस्तक समाप्त हो जाने पर अभिभूत-सा बैठा रह गया। तब इस बात का और भी शिद्दत से अहसास हुआ कि मैं कितना अभागा हूँ जो उस सुनहरे अवसर को खो बैठा।

कभी-कभी सोचता हूँ कि जिन्दगी में मैंने अपनी इच्छाओं से विवश होकर कोई भी दो टूक फैसला नहीं किया। मैं स्थितियों के अनुरूप अपने को ढालता रहा हूँ। अन्दर से उठने वाले आवेग और आग्रह तो थे, पर मैं उन्हें दबाता भी रहता था। मैंने किसी आवेग को जुनून का रूप लेने नहीं दिया। मैं कभी भी यह कहने की स्थिति में नहीं था कि जिन्दगी में यही एक मेरा रास्ता है, इसी पर चलूँगा।

कभी-कभी सोचता हूँ, यदि साहित्य सृजन जीवन की सच्चाई की खोज है तो जीवन के अनुभव इस खोज में सहायक ही होते होंगे। इस तरह जीवन के अनुभवों को गौण तो नहीं माना जा सकता। इस अनुभवों से दृष्टि भी मिलती है, सूझ भी बढ़ती है, लेखक के सम्वेदन को भी प्रभावित कर पाते होंगे। मैं इस तरह की युक्तियाँ देकर अपना ढाढ़स बँधाता रहता था।

”हानूश” का जन्म –  संस्मरण 

‘हानूश” नाटक की प्रेरणा मुझे चेकोस्लोवेकिया की राजधानी प्राग से मिली। यूरोप की यात्रा करते हुए एक बार शीला और मैं प्राग पहुँचे। उन दिनों निर्मल वर्मा वहीं पर थे। होटल में सामान रखने के फौरन ही बाद मैं उनकी खोज में निकल पड़ा। उस हॉस्टल में जा पहुँचा जिसका पता पहले से मेरे पास था। कमरा तो मैंने ढूँढ़ निकाला, पर पता चला कि निर्मल वहाँ पर नहीं हैं। संभवतः वह इटली की यात्रा पर गए हुए थे। बड़ी निराशा हुई। पर अचानक ही, दुसरे दिन वह पहुँच भी गए और फिर उनके साथ उन सभी विरल स्मारकों, गिरजा स्थलों को देखने का सुअवसर मिला, विशेषकर गॉथिक और ‘बरोक’ गिरजाघरों को जिनकी निर्मल को गहरी जानकारी थी।

और इसी धुमक्कड़ी में हमने हानूश की घड़ी देखी। यह मीनारी घड़ी प्राग की नगरपालिका पर सैंकड़ों वर्ष पहले लगाई गई थी, चेकोस्लोवेकिया में बनाई जानेवाली पहली मीनारी घड़ी मानी जाती थी। उसके साथ एक दंतकथा जुड़ी थी कि उसे बनानेवाला एक साधारण कुफ़लसाज था कि उसे घड़ी बनाने में सत्रह साल लग गए और जब वह बन कर तैयार हुई तो राजा ने उसे अंधा करवा दिया ताकि वह ऐसी कोई दूसरी घड़ी न बना सके। घड़ी को दिखाते हुए निर्मल ने इससे जुड़ी वह कथा भी सुनाई। सुनते ही मुझे लगा कि इस कथा में बड़े नाटकीय तत्व हैं, कि यह नाटक का रूप ले सकती है।

यूरोप की यात्रा के बाद मॉस्को लौटने पर मैं कुछ ही दिन बाद, चेकोस्लोवेकिया के इतावाद (मॉस्को स्थित) में जा पहुँचा। सांस्कृतिक मामलों के सचिव से, हानूश की दीवारी घड़ी की चर्चा और अनुरोध किया कि उसके संबंध में यदि कुछ सामग्री उपलब्ध हो सके तो मैं आभार मानूँगा। लगभग एक महीने बाद दूतावास से टेलीफ़ोन आया कि आकर मिलो। मैं भागता हुआ जो पहुँचा। अधिक सामग्री तो नहीं मिली पर किसी पत्रिका में प्रकाशित एक लेख ज़रूर मिला। मैं लेख की प्रति ले आया, पर लेख चेक भाषा में था।

सौभाग्यवश मेरे पत्रकार मित्र, मसऊद अली खान की पत्नी कात्या, चेकोस्लोवेकिया की रहने वाली थी। उन्होंने झट से उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद कर डाला। मुझे नाटक लिखने के लिए आधार मिल गया और वह दो पन्नों का आधार ही मेरे पास था। जब मैं भारत लौटा वे १९६३ के दिन थे। नाटक के लिखे जाने और खेले जाने में अभी बहुत वक्त था। और इसकी अपनी कहानी है। अंततः नाटक १९७७ में खेला गया।

हानूश नाटक पर मैं लंबे अर्से तक काम करता रहा था। पहली बार जब नाटक की पांडुलिपि तैयार हुई तो मैं उसे लेकर मुंबई जा पहुँचा बलराज जी को दिखाने के लिए। उन्होंने पढ़ा और ढ़ेरों ठंडा पानी मेरे सिर पर उड़ेल दिया। ”नाटक लिखना तुम्हारे बस का नहीं है।” उन्होंने ये शब्द कहे तो नहीं पर उनका अभिप्राय यही था। उनके चेहरे पर हमदर्दी का भाव भी यही कह रहा था।

पर मैं हतोत्साह नहीं हुआ। घर लौट आया। उसे कुछ दिन ताक पर रखा, पर फिर उठाकर उस पर काम करने लगा और कुछ अर्सा बाद नाटक की संशोधित पांडुलिपि लिए उनके पास फिर जा पहुँचा। उन्होंने पढ़ा और फिर सिर हिला दिया। उनका ढ़ाढस बँधाने का अंदाज़ भी कुछ ऐसा था कि यह काम तुम्हारे बस का नहीं है। इस पचड़े में से निकल आओ।

उनकी प्रतिक्रिया सुनते हुए मुझे संस्कृत की एक दृष्टांत-कथा याद हो आई जिसे बचपन में सुना था। एक गीदड़ अपने दोस्तों के सामने डींग हाँक रहा था कि शेर को मारने क्यों मुश्किल है। बस, आँखें लाल होनी चाहिए, मूँछ ऐंठी हुई और पूँछ तनी हुई, शेर आए तो एक ही झपट्टे में उसे चित कर दो। . . .वह कह ही रहा था कि उधर से शेर आ गया। बाकी गीदड़ तो इधर-उधर भाग गए पर यह गीदड़ शेर से दो-चार होने के लिए तैयारी करने लगा। वह मूँछें ऐंठ रहा था जब शेर पास आ पहुँचा और गीदड़ को एक झापड़ दिया कि गीदड़ लुढ़कता हुआ दूर तक जा गिरा. . .जब गीदड़ फिर से इकठ्ठा हुए तो गीदड़ अपनी सफ़ाई देते हुए बोला, ”और सब तो ठीक था पर मेरी आँखें ज़्यादा लाल नहीं हो पाई थीं, मूँछों में ज़्यादा ऐंठ भी नहीं आई थी।” पास में खड़ा एक बूढ़ा गीदड़ भी सुन रहा था। गीदड़ को समझाते हुए बोला,
”शूरोऽसि कृत विद्योऽसि, दर्शनीयोऽसि पुत्रक,
यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्नः सिंहस्तत्र न हन्यते।”
(बेटा, तुम बड़े शूरवीर हो, बड़े ज्ञानी हो, सभी दाँवपेंच जानते हो, पर जिस कुल में तुम पैदा हुए हो, उस में शेर नहीं मारे जाते।)
मैं अपना-सा मुँह लेकर दिल्ली लौट आया।
अब मैं बलराज जी की बात कैसे नहीं मानता। उनके निष्कर्ष के पीछे ‘इप्टा’ के मंच का वर्षों का अनुभव था, फिर फ़िल्मों का अनुभव।

मेरे अपने प्रयासों में भी त्रुटियाँ रही थीं। ”हानूश” का कथानक तो मुझे बाँधता था, पर उसे नाटक में कैसे ढ़ालूँ, मेरे लिए कठिन हो रहा था। पहले भी बार-बार कुछ लिखता रहा था। फिर निराश होकर छोड़ देता रहा था। न छोड़े बनता था, न लिखते बनता था। ऐसा अनुभव शायद हर लेखक को होता है। एक बार कीड़ा दिमाग़ में घुस जाए तो निकाले नहीं निकलता। हर दूसरे महीने मैं उसे फिर से उठा लेता। कथानक के नाम पर मेरे पास गिने-चुने ही तथ्य थे। नाटक का सारा ताना-बाना मुझे बुनना था। कथानक की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक थी और वह भी मध्ययुगीन यूरोप की चेकोस्लोवेकिया की। मेरे अपने देश की भी नहीं।

कुछ अरसा बाद नाटक की एक और संशोधित पांडुलिपि तैयार हुई। या यों कहूँ एक और पांडुलिपि तैयार हुई। अबकी बार मैं उसे बलराज जी के पास नहीं ले गया। नाटक की टंकित प्रति उठाए मैं सीधा अलकाजी साहिब के पास पहुँचा जो उन दिनों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निर्देशक थे। मैंने बड़ी विनम्रता से अनुनय-विनय के साथ कहा, ”यदि आप इसे एक नज़र देख जाएँ। मैं आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ।”
वह मुस्कराए। अलकाजी उन दिनों मुझे इतना भर जानते थे कि मैं बलराज का भाई हूँ। बलराज के साथ मुंबई में रहते हुए उनके साथ थोड़ा संपर्क रहा था।

उन्होंने नाटक की प्रति रख ली और मैं बड़ा हल्का-फुल्का महसूस करता हुआ लौट आया। अब कुछ तो पता चलेगा, मैंने मन ही मन कहा।
उसके बाद सप्ताह भर तो मैं शांत रहा, उसके बाद मेरी उत्सुकता और मेरा इंतज़ार बढ़ने लगा। हर सुबह उठने पर यही सोचूँ, अब अलकाजी साहिब ने पढ़ लिया होगा, अब तक ज़रूर पढ़ लिया होगा, उन्हें टेलीफ़ोन कर के पूछूँ? नहीं, नहीं अभी नहीं मुझे जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। मैं बड़ी बेसब्री से उनकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रहा था।
दो सप्ताह बीत गए, फिर तीन, फिर चार, महीना भर गुज़र गया। फिर डेढ़ महीना। मेरे मन में खीझ-सी उठने लगी। ऐसा भी क्या है, मुझे बता सकते थे, टेलीफ़ोन कर सकते थे। इस चुप्पी से क्या समझूँ?

जब दो महीने बीत गए तो मुझसे नहीं रहा गया। मैं एक दिन सीधा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जा पहुँचा।
मैंने अपने नाम की ‘चिट’ अंदर भेजी। चपरासी अंदर छोड़ कर बाहर निकल आया।

मैं बाहर बरामदे में खड़ा इंतज़ार करता रहा। कोई जवाब नहीं, मुझे इतना भी मालूम नहीं था कि अलकाजी साहिब दफ़तर में हैं भी या नहीं। वास्तव में वह दफ़तर में नहीं थे। वह उस समय क्लास ले रहे थे। हमारे यहाँ चपरासियों की बेरुखी भी समझ में आती हैं, वे यही मानकर चलते हैं कि साहिब के पास ‘चिट’ भेजनेवाला आदमी नौकरी माँगने आया है। उस समय मुझे इस बात का भी ध्यान नहीं आया कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में भी क्लासें लगती होंगी। मैं समझ बैठा था कि नाट्य विद्यालय में क्लासों का क्या काम, वहाँ केवल रिहर्सलें होती होंगी।

मैंने फिर से एक ‘चिट’ भेजी और चपरासी से ताक़ीद की कि यह बहुत ज़रूरी है, जहाँ भी अलकाजी साहिब हों उन्हें देकर आओ।
मैं अपमानित-सा महसूस करने लगा था। अलकाजी साहिब की बेरुखी पर झुँझलाने लगा था। मैंने ऐसा कौन-सा गुनाह किया था कि मुझसे मिलने तक की उन्हें फ़ुर्सत नहीं थी।
इतने में देखा, अलकाजी साहिब बरामदे में चले आ रहे थे। आँखों पर चश्मा, हाथ में खुली किताब।
”मैं क्लास ले रहा था। आप थोड़ा इंतज़ार कर लेते।” मुझे लगा रुखाई से बोल रहे हैं। वास्तव में उन्हें मेरा क्लास में ‘चिट’ भेजना नागवार गुज़रा था।
”मैं अपने नाटक के बारे में पूछने आया था।”
”वह मैं अभी पढ़ नहीं पाया। इस सेशन में काम बहुत रहता है।”

किताब अभी भी उनके हाथ में थी और वह थोड़ा उद्विग्न से चश्मों में से मेरी ओर देख रहे थे, मानो क्लास में लौटने की जल्दी में हों।
तभी मैंने छूटते ही कहा!
”क्या मैं अपना नाटक वापस ले सकता हूँ।”

वह ठिठके। मेरी ओर कुछ देर तक देखते रहे और फिर क्लास की ओर जाने के बजाय, अपने दफ़तर का दरवाज़ा खोल कर अंदर चले गए और कुछ ही देर बाद नाटक की प्रति उठाए चले आए और मेरे हाथ में देते हुए, बिना कुछ कहे, क्लास रूम की ओर घूम गए।

मैंने घर लौट कर नाटक को मेज़ पर पटक दिया। मारो गोली, यह काम सचमुच मेरे वश का नहीं है।
दिन बीतने लगे। पर कुछ समय बाद फिर से मेरे दिल में धुकधुकी-सी होने लगी। अलकाजी साहिब ने इसके पन्ने पलटना तक गवारा नहीं किया। नहीं, नहीं पन्ने पलटे होंगे, नाटक बे सिर पैर का लगा होगा तो उसे रख दिया कि कभी फ़ुर्सत से पढ़ लेंगे। मैंने मन ही मन कहा- अब मैं नाटक का मुँह नहीं देखूँगा। बलराज ठीक ही कहते होंगे कि यह मेरे वश का रोग नहीं है।

फिर एक दिन यह संभवतः १९७६ के जाड़ों के दिन थे, शीला और मैं बुद्ध-जयंती बाग में टहल रहे थे जब कुछ ही दूरी पर मुझे राजिंदर नाथ और सांत्वना जी बाग में टहलते नज़र आए। राजिंदर नाथ जाने-माने निर्देशक थे। जब पास से गुज़रे और दुआ-सलाम हुई तो मैंने कहा!
”यार मैंने एक नाटक लिखा है। वक्त हो तो उसे एक नज़र देख जाओ।”
राजिंदर नाथ हँस पड़े। कहने लगे,
”मैं खुद इन दिनों किसी स्क्रिप्ट की तलाश में हूँ, कुछ ही देर बाद राष्ट्रीय नाट्य समारोह होने जा रहा है।”
नेकी और पूछ-पूछ। मैंने नाटक की प्रति उन्हें पहुँचा दी और अबकी बार नाटक शीघ्र ही पढ़ा भी गया। और कुछ ही अर्सा बाद खेला भी गया और वह मकबूल भी हुआ और मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था कि स्क्रिप्ट के नाते प्रतियोगिता में पहले नंबर पर भी आया।

नाटक अभी खेला ही जा रहा था जब एक दिन प्रातः मुझे अमृता प्रीतम जी का टेलीफ़ोन आया। मुझे नाटक पर मुबारकबाद देते हुए बोलीं,
”तुमने इमर्जेंसी पर खूब चोट की है। मुबारक हो!”
अमृता जी की ओर से मुबारक मिले इससे तो गहरा संतोष हुआ पर यह कहना कि इमर्जेंसी पर मैंने चोट है, सुन कर मैं ज़रूर चौंका। उन्हें इमर्जेंसी की क्या सूझी? इमर्जेंसी तो मेरे ख़्वाब में भी नहीं थी। मैं तो वर्षों से अपनी ही इमर्जेंसी से जूझता रहा था। बेशक ज़माना इमर्जेंसी का ही था जब नाटक ने अंतिम रूप लिया। पर हाँ, इसमें संदेह नहीं कि निरंकुश सत्ताधारियों के रहते, हर युग में, हर समाज में, हानूश जैसे फ़नकारों के लिए इमर्जेंसी ही बनी रहती है, और वे अपनी निष्ठा और आस्था के लिए यातनाएँ भोगते रहते हैं जैसे हानूश भोगता रहा। यही उनकी नियति है।

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