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परिचय

नाम : जाँ निसार अख्तर
जन्म: 14 फ़रवरी 1914
निधन: 19 अगस्त 1976
जन्म स्थान :ग्वालियर, मध्य प्रदेश, भारत
प्रमुख कृतियाँ
नज़रे-बुताँ, सलासिल, जाँविदां, घर आँगन, ख़ाके-दिल, तनहा सफ़र की रात, जाँ निसार अख़्तर-एक जवान मौत

 

विशेष
मध्य प्रदेश के ग्वालियर में 8 फ़रवरी, 1914 को जन्मे (कुछ जगह उनकी जन्मतिथि 14 और 18 फरवरी भी दी गई है, मगर हम अमर देहलवी द्वारा संपादित और स्टार पब्लिकेशन, दिल्ली से प्रकाशित ‘जाँनिसार अख्तर की शायरी’ के आधार पर इसे 8 फ़रवरी मान रहे हैं) जाँनिसार अख्तर का ताल्लुक शायरों के परिवार से था। उनके परदादा ’फ़ज़्ले हक़ खैराबादी’ ने मिर्ज़ा गालिब के कहने पर उनके दीवान का संपादन किया था। बाद में 1857 में ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ ज़िहाद का फ़तवा ज़ारी करने के कारण उन्हें ’कालापानी’ की सजा दी गई। जाँनिसार अख्तर के पिता ’मुज़्तर खैराबादी’ भी एक प्रसिद्ध शायर थे। जाँनिसार ने 1930 में विक्टोरिया कालेज, ग्वालियर से मैट्रिक करने के बाद अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से बी०ए० (आनर्स) तथा एम०ए० की डिग्री प्राप्त की। कुछ घरेलू कारणों से उन्हें अपनी डाक्टरेट की पढ़ाई अधूरी छोड़ ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में उर्दू व्याख्याता के तौर पर काम शुरू करना पड़ा। प्रसिद्ध फिल्म लेखक एवं गीतकार जावेद अख्तर जाँ निसार अख्तर  जी के ही बेटे हैं
1943 में उनकी शादी प्रसिद्ध शायर ’मज़ाज लखनवी’ की बहन ’सफ़िया सिराज़ुल हक़’ से हुई। 1945 व 1946 में उनके बेटों जावेदऔर सलमान का जन्म हुआ। आज़ादी के बाद हुए दंगों के दौरान जाँनिसार ने भोपाल आकर ’हमीदिया कालेज’ में बतौर उर्दू और फारसी विभागाध्यक्ष काम करना शुरू कर दिया। सफ़िया ने भी बाद में इसी कालेज में पढ़ाना शुरू कर दिया। इसी दौरान आप ’प्रगतिशील लेखक संघ’ से जुड़े और उसके अध्यक्ष बन गए।

1949 में जाँनिसार फिल्मों में काम पाने के उद्देश्य से बम्बई आ गये। यहाँ वे कृश्न चंदर, इस्मत चुगताई और मुल्कराज आनंद जैसे लेखकों के संपर्क में आये। उनके संघर्ष के दिनों में सफ़िया भोपाल से उन्हें बराबर मदद करती रहीं। 1953 में कैंसर से सफ़िया की मौत हो गई। 1956 में उन्होंने ’ख़दीजा तलत’ से शादी कर ली। 1955 में आई फिल्म ’यासमीन’ से जाँनिसार के फिल्मी करियर ने गति पकड़ी तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। फिल्मों के लिए लिखे गये, उनके कुछ प्रसिद्ध गीत है: ’आँखों ही आँखों में इशारा हो गया’, ’ग़रीब जान के हमको न तुम दगा देना’, ’ये दिल और उनकी निगाहों के साये’, ’आप यूँ फासलों से गुज़रते रहे’, ’आ जा रे ओ नूरी’ आदि। कमाल अमरोही की फिल्म ’रज़िया सुल्तान’ के लिए लिखा गया गीत ’ऐ दिले नादाँ’ उनका आखिरी गीत था। जो लता जी का सबसे प्रिय गीत है ,
1935 से 1970 के दरमियान लिखी गई उनकी शायरी के संकलन “ख़ाक़-ए-दिल” के लिए उन्हें 1976 का साहित्य अकादमी पुरुस्कार प्राप्त हुआ। नेहरू जी ने जाँनिसार को पिछले 300 सालों की हिन्दुस्तानी शायरी के संकलन के लिये कहा था जिसे उन्होंने ’हिन्दुस्तान हमारा’ शीर्षक से दो खण्डों में प्रकाशित कराया। 2006 में यह संकलन हिन्दी में पुनर्प्रकाशित किया गया है।1976 में साहित्य अकादमी पुरूस्कार से नवाज़े गए अख्तर साहब के लिखे फिल्म अनारकली, नूरी ,प्रेम पर्वत, शंकर हुसैन, रज़िया सुलतान, बहु बेगम, बाप रे बाप, छूमंतर, सुशीला, सी.आई.डी. आदि फिल्म के गीतों ने धूम मचा दी थी. उनके गीत आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में घर किये हुए हैं जैसे …” लेके पहला पहला प्यार….”, आजा रे…नूरी…नूरी “, ये दिल और उनकी निगाहों के साए…”पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे…” गरीब जान के…”आ जाने वफ़ा आ…” बेमुरव्वत बेवफा बेगाना ऐ दिल आप हैं….”आदि. 19 अगस्त 1976 को मुंबई में इस महान शायर का निधन हो गया।पेश हैं कुछ गज़लें कुछ नज्में

आवाज़ दो हम एक हैं
क है अपना जहाँ, एक है अपना वतन
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं
आवाज़ दो हम एक हैं

ये वक़्त खोने का नहीं, ये वक़्त सोने का नहीं
जागो वतन खतरे में है, सारा चमन खतरे में है
फूलों के चेहरे ज़र्द हैं, ज़ुल्फ़ें फ़ज़ा की गर्द हैं
उमड़ा हुआ तूफ़ान है, नरगे में हिन्दोस्तान है
दुश्मन से नफ़रत फ़र्ज़ है, घर की हिफ़ाज़त फ़र्ज़ है
बेदार हो, बेदार हो, आमादा-ए-पैकार हो
आवाज़ दो हम एक हैं

ये है हिमालय की ज़मीं, ताजो-अजंता की ज़मीं
संगम हमारी आन है, चित्तौड़ अपनी शान है
गुलमर्ग का महका चमन, जमना का तट गोकुल का मन
गंगा के धारे अपने हैं, ये सब हमारे अपने हैं
कह दो कोई दुश्मन नज़र उट्ठे न भूले से इधर
कह दो कि हम बेदार हैं, कह दो कि हम तैयार हैं
आवाज़ दो हम एक हैं

उट्ठो जवानाने वतन, बांधे हुए सर से क़फ़न
उट्ठो दकन की ओर से, गंगो-जमन की ओर से
पंजाब के दिल से उठो, सतलज के साहिल से उठो
महाराष्ट्र की ख़ाक से, देहली की अर्ज़े-पाक से
बंगाल से, गुजरात से, कश्मीर के बागात से
नेफ़ा से, राजस्थान से, कुल ख़ाके-हिन्दोस्तान से
आवाज़ दो हम एक हैं!

 

मैं उनके गीत गाता हूं,

 

मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

जो शाने तग़ावत का अलम लेकर निकलते हैं,
किसी जालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

जो रख देते हैं सीना गर्म तोपों के दहानों पर,
नजर से जिनकी बिजली कौंधती है आसमानों पर,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

जो आज़ादी की देवी को लहू की भेंट देते हैं,
सदाक़त के लिए जो हाथ में तलवार लेते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

जो पर्दे चाक करते हैं हुकूमत की सियासत के,
जो दुश्मन हैं क़दामत के, जो हामी हैं बग़ावत के,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

भरे मज्मे में करते हैं जो शोरिशख़ेज तक़रीरें,
वो जिनका हाथ उठता है, तो उठ जाती हैं शमशीरें,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

वो मुफ़लिस जिनकी आंखों में है परतौ यज़दां का,
नज़र से जिनकी चेहरा ज़र्द पड़ जाता है सुल्तां का,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

वो दहक़ां खि़रमन में हैं पिन्हां बिजलियां अपनी,
लहू से ज़ालिमों के, सींचते हैं खेतियां अपनी,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

वो मेहनतकश जो अपने बाजुओं पर नाज़ करते हैं,
वो जिनकी कूवतों से देवे इस्तिबदाद डरते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

कुचल सकते हैं जो मज़दूर ज़र के आस्तानों को,
जो जलकर आग दे देते हैं जंगी कारख़ानों को,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

झुलस सकते हैं जो शोलों से कुफ्ऱो-दीं की बस्ती को,
जो लानत जानते हैं मुल्क में फ़िरक़ापरस्ती को,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

वतन के नौजवानों में नए जज़्बे जगाऊंगा,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

 

हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर

 

मने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर

और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तिरी बातें अक्सर

हुस्न शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम है शायद
ग़मज़दा लगती हैं क्यों चाँदनी रातें अक्सर

हाल कहना है किसी से तो मुख़ातिब हो कोई
कितनी दिलचस्प, हुआ करती हैं बातें अक्सर

इश्क़ रहज़न न सही, इश्क़ के हाथों फिर भी
हमने लुटती हुई देखी हैं बरातें अक्सर

हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर

उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर

हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर

 

ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो

 

ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो

कू-ए-क़ातिल की बड़ी धूम है चलकर देखें
क्या ख़बर, कूचा-ए-दिलदार से प्यारा ही न हो

दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो

कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर
सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो

ज़िन्दगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझको
दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न हो

शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो

 

इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं

 

सी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं
झटक के फेंक दो पलकों पे ख़्वाब जितने हैं

वतन से इश्क़, ग़रीबी से बैर, अम्न से प्यार
सभी ने ओढ़ रखे हैं नक़ाब जितने हैं

समझ सके तो समझ ज़िन्दगी की उलझन को
सवाल उतने नहीं है, जवाब जितने हैं

 

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था

 

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था

दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था

मुआफ़ कर ना सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को
वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था

शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था

पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था

 

पूछ न मुझसे दिल के फ़साने

 

पूछ न मुझसे दिल के फ़साने
इश्क़ की बातें इश्क़ ही जाने

वो दिन जब हम उन से मिले थे
दिल के नाज़ुक फूल खिले
मस्ती आँखें चूम रही थी
सारी दुनिया झूम रही
दो दिल थे वो भी दीवाने

वो दिन जब हम दूर हुये थे
दिल के शीशे चूर हुये थे
आई ख़िज़ाँ रंगीन चमन में
आग लगी जब दिल के बन में
आया न कोई आग बुझाने

 

हमसे भागा न करो,

 

मसे भागा न करो, दूर ग़ज़ालों की तरह
हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह

खुद-ब-खुद नींद-सी आंखों में घुली जाती है
महकी-महकी है शब-ए-गम तेरे बालों की तरह

तेरे बिन, रात के हाथों पे ये तारों के अयाग
खूबसूरत हैं मगर जहर के प्यालों की तरह

और क्या उसमें जियादा कोई नर्मी बरतूं
दिल के जख्मों को छुआ है तेरे गालों की तरह

गुनगुनाते हुए और आ कभी उन सीनों में
तेरी खातिर जो महकते हैं शिवालों की तरह

तेरी ज़ुल्फ़ें तिरी आँखें तिरे अबरू तिरे लब
अब भी मशहूर हैं दुनिया में मिसालों की तरह

हम से मायूस न हो ऐ शब-ए-दौराँ कि अभी
दिल में कुछ दर्द चमकते हैं उजालों की तरह

मुझसे नजरे तो मिलाओ कि हजारों चेहरे
मेरी आंखों में सुलगते हैं सवालों की तरह

और तो मुझ को मिला क्या मिरी मेहनत का सिला
चंद सिक्के हैं मिरे हाथ में छालों की तरह

जुस्तजू ने किसी मंजिल पे ठहरने न दिया
हम भटकते रहें आवारा ख्यालों की तरह

जिन्दगी! जिसको तेरा प्यार मिला वो जाने
हम तो नाकाम रहें, चाहने वालों की तरह।

 

ज़िंदगी तनहा सफ़र की रात है

 

ज़िंदगी तनहा सफ़र की रात है
अपने–अपने हौसले की बात है

किस अकीदे की दुहाई दीजिए
हर अकीदा आज बेऔकात है

क्या पता पहुँचेंगे कब मंजिल तलक
घटते-बढ़ते फ़ासले का साथ है

 

खुशबू का सफ़र

 

मौज-ए-गुल, मौज-ए-सबा, मौज-ए-सहर लगती है
सर से पा तक वो समाँ है कि नज़र लगती है

हमने हर गाम पे सजदों के जलाये हैं चिराग़
अब तिरी राहगुज़र, राहगुज़र लगती है

लम्हे-लम्हे में बसी है तिरी यादों की महक
आज की रात तो खुशबू का सफ़र लगती है

जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं
देखना ये है कि अब आग किधर लगती है

सारी दुनिया में ग़रीबों का लहू बहता है
हर ज़मीं मुझको मिरे खू़न से तर लगती है

कोई आसूदा नहीं अह्ल-ए-सियासत के सिवा
ये सदी दुश्मन-ए-अरबाब-ए-हुनर लगती है

वाक़या शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ
ये तो अख़बार के दफ्‍तर की ख़बर लगती है

लखनऊ! क्या तिरी गलियों का मुक़द्दर था यही
हर गली आज तिरी ख़ाक-बसर लगती है

 

सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें

 

सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें
किसके घर जायेँ कि उस वादा-शिकन को भूलें

आज तक चोट दबाये नहीं दबती दिल की
किस तरह उस सनम-ए-संगबदन को भूलें

अब सिवा इसके मदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है
इतनी पी जायेँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें

और तहज़ीब-ए-गम-ए-इश्क़ निबाह दे कुछ दिन
आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें

 

सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है

 

सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है
ज़िन्दगी सहम के ख़्वाबों से लिपट जाती है

शाम ढलते ही तेरा दर्द चमक उठता है
तीरगी दूर तलक रात की छट जाती है

बर्फ़ सीनों की न पिघले तो यही रूद-ए-हयात
जू-ए-कम-आब की मानिंद सिमट जाती है

आहटें कौन सी ख़्वाबों में बसी है जाने
आज भी रात गये नींद उचट जाती है

हाँ ख़बर-दार कि इक लग़्ज़िश-ए-पा से भी कभी
सारी तारीख़ की रफ़्तार पलट जाती है

 

तमान उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा

 

मान उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा
ये कम नहीं हमें जीने का हौसला तो रहा

गुज़र ही आये किसी तरह तेरे दीवाने
क़दम क़ादम पे कोई सख़्त मरहला तो रहा

चलो न इश्क़ ही जीता न अक़्ल हार सकी
तमाम वक़्त मज़े का मुक़ाबला तो रहा

मैं तेरी ज़ात में गुम हो सका न तू मुझमें
बहुत क़रीब थे हम फिर भी फ़ासला तो रहा

ये और बात कि हर छेड़ लाउबाली थी
तेरी नज़र का दिलों से मुआमला तो रहा

बहुत हसीं सही वज़ए-एहतियात तेरी
मेरी हवस को तेरे प्यार से गिला तो रहा

 

ज़माना आज नहीं डगमगा के चलने का

 

माना आज नहीं डगमगा के चलने का
संभल भी जा कि अभी वक़्त है संभलने का

बहार आये चली जाये फिर चली आये
मगर ये दर्द का मौसम नहीं बदलने का

ये ठीक है कि सितारों पे घूम आये हैं
मगर किसे है सलीक़ा ज़मीं पे चलने का

फिरे हैं रातों को आवारा हम तो देखा है
गली गली में समाँ चाँद के निकलने का

तमाम नशा-ए-हस्ती तमाम कैफ़-ए-वजूद
वो इक लम्हा तेरे जिस्म के पिघलने का

 

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था

 

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था

मुआफ़ कर न सकी मेरी ज़िन्दगी मुझको
वो एक लम्हा कि मैं तुझसे तंग आया था

शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था

पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चन्द ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था

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