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परिचय

मूल नाम : पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

जन्म : 27 मई 1894

भाषा : हिंदी

विधाएँ : निबंध, संग्रह

जीवनी

डॉ॰ पदुमलाल पन्नालाल बख्शी (27 मई 1894-18 दिसम्बर 1971) जिन्हें सरस्वती के कुशल संपादक, साहित्य वाचस्पति और ‘मास्टरजी’ के नाम से भी जाना जाता है, हिंदी सर्वश्रेष्ठ निबंधकारों में से एक समझे जाते हैं।1949 में हिन्दी साहित्य सम्मलेन द्वारा साहित्य वाचस्पति से विभूषित किया गया; सरस्वती पत्रिका के संपादक रहे। उन्होंने 1929 से 1934 तक अनेक महत्वपूर्ण पाठ्यपुस्तकों यथा- पंचपात्र, विश्वसाहित्य, प्रदीप की रचना की और वे प्रकाशित हुईं। महत्वपूर्ण संग्रह- कुछ और कुछ, यात्री, हिंदी कथा साहित्य, हिंदी साहित्य विमर्श, बिखरे पन्ने, तुम्हारे लिए, कथानक ,हम- मेरी अपनी कथा, मेरा देश, मेरे प्रिय निबंध, वे दिन, समस्या और समाधान, नवरात्र, जिन्हें नहीं भूलूंगा, हिंदी साहित्य एक ऐतिहासिक समीक्षा, अंतिम अध्याय आदि।  प्रस्तुत हैं कुछ निबंध कुछ कविताएँ

 वृद्धावस्थानिबंध

काल की बड़ी क्षिप्र गति है। वह इतनी शीघ्रता से चला जाता है कि सहसा उस पर हमारी दृष्टि नहीं जाती। हम लोग मोहावस्था में पड़े ही रहते हैं और एक-एक पल, एक-एक दिन और एक-एक वर्ष कर काल हमारे जीवन को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में चुपचाप ले जाता है। जब कभी किसी एक विशेष घटना से हमें अपनी यथार्थ अवस्था का ज्ञान होता है तब हम अपने में विलक्षण परिवर्तन देखकर विस्मित हो जाते हैं। उस समय हमें चिंता होती है कि अब वृद्धावस्था आ गई है, अब हमें अपने जीवन का हिसाब पूरा कर देना चाहिए। दर्पण में प्रतिदिन ही हम अपना मुख देखते हैं, पर अवस्था का प्रभाव इतने अज्ञात रूप से होता है कि हम अपने मुख पर कोई परिवर्तन नहीं देख पाते। कान के पास बालों को सफेद देखकर राजा दशरथ को एक दिन सहसा ज्ञात हुआ कि अब उनकी वृद्धावस्था आ गई। उस दिन ‘निर्मला’ से परिचित होने पर मुझे भी सहसा ज्ञात हुआ कि मैं अब वृद्ध हो गया हूँ।

1916 में जब मैं बी.ए. पास कर मास्टर हो गया तब मैंने दो साल ‘विमला’ को पढ़ाया था। वह अब मैट्रीकुलेशन पास हो गई तब उससे मेरा संबंध छूट-सा गया। कभी-कभी उससे और उसके भाई के पुत्र आया करते थे। मैंने सुना कि उसका विवाह हो गया है। साहित्य में उसका विशेष अनुराग था। मैं किसी-किसी पत्र में उसकी रचना भी पढ़ता था। साहित्य के संबंध में उससे यदा-कदा पत्र-व्यवहार भी होता था। पर इस तरह संबंध बने रहने पर भी उसको फिर मुझे देखने का अवसर ही नहीं मिला। कुछ ही समय पहले मुझसे एक सात साल की लड़की ने आकर कहा – मैं अंग्रेजी पढूँगी तुम मुझे अंग्रेजी पढ़ाया करो। मैंने कहा – अच्छी बात है। उसने कहा – अच्छी बात मैं नहीं जानती। कल से तुम मेरे घर आना। वह पीला मकान मेरा ही है।

वह पीला मकान नए डॉक्टर साहब का था। मैं उनसे विशेष परिचित नहीं था। वे अभी हाल में आए थे। मैंने कहा-मैं तो आ जाऊँगा, पर तुम्हारे बाबूजी मुझे डाटेंगे तो? उन्होंने मुझसे कुछ नहीं कहा है। उसने उत्तर दिया – वे क्यों डाटेंगे! मैंने माँ से पूछ लिया है। कल जरूर आना। मेरा नाम कुसुम है। भूलना मत।

लड़की की बातचीत और व्यवहार से मैं मुग्ध हो गया। दूसरे दिन मैं उसके घर गया। डॉक्टर साहब न थे, पर उनकी पत्नी तुरंत ही बाहर आईं। उन्होंने कहा – आप मुझे नहीं पहचानते। मेरी माँ विमला देवी को आपने पढ़ाया है।

उसकी बात सुनकर मेरे मुँह से हठात निकल पड़ा – तुम विमला की बेटी हो?

उसने हँसकर कहा – हाँ, मैं निर्मला हूँ और यह मेरी कुसुम है।

मैं चकित हो गया। विमला तो अभी तक मेरे हृदय में 16 ही वर्ष की थी और उसकी लड़की 25वर्ष की हो गई तब मुझे सहसा ज्ञात हुआ कि मैं वृद्ध हो गया हूँ।

सचमुच अब इस सत्य में कोई संदेह नहीं रहा कि मैं वृद्ध हूँ। मेरे जीवन का संध्या-काल समीप आ गया है। मुझे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि शरीर में अब वह शक्ति नहीं है, नेत्रों में वह ज्योति नहीं है, मन में वह उमंग नहीं है, वह स्फूर्ति नहीं है, वह चाह नहीं है। केश सफेद होते जा रहे है, शरीर शिथिल होता जा रहा है, यह सब होने पर भी मन पर काल की गति का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। मन अपने को बहलाने के लिए, अपनी मोहावस्था को बनाए रखने के लिए कुछ न कुछ उपाय ढूँढ़ ही लेता है। मेरे इसी नगर में अभी ऐसे कितने ही वयोवृद्ध जन हैं जिनके पास जाकर मैं अपनी वृद्धावस्था भूल जाता हूँ। वे मेरे पिता के समवयस्क हैं। आश्चर्य की बात यह है कि मैं उनमें से कितनों से तरुणावस्था की स्फूर्ति भी देखता हूँ। लाला प्रद्युम्नसिंह में किसी नवयुवक से कम विद्यानुराग नहीं है और वे अभी तक अपनी ज्ञान-वृद्धि के लिए परिश्रम ही करते जा रहे हैं। हीरावल पोद्दार से अधिक संगीतकला का उपासक कोई तरुण नहीं हो सकता। अपने इस कला-प्रेम के कारण वे सदैव मुझे तरुण ही प्रतीत होते हैं। उनकी वाणी में जो मधुरता है, जो शक्ति है वह कितने ही तरुणों में नहीं है। पंडित काशीदत्त झा से अधिक कार्यतत्परता मैंने किसी नवयुवक में नहीं देखी। यदि इन लोगों के समक्ष मैं वृद्धों की आदरणीय पंक्ति में बैठने का साहस करूँ तो उपहासास्पद ही बन जाऊँगा। कर्तव्य-चिंता के भार से अब मैं चाहे अपने को वृद्ध समझूँ या मोह के उल्लास से तरुण, किंतु शारीरिक शक्ति के हृास के कारण कितने ही लोगों को वृद्धावस्था दुखद हो जाती है। परंतु सभी तरह की निर्बलता और शिथिलता का अनुभव करने पर भी मैं यह नहीं समझता कि यह अवस्था स्पृणीय नहीं है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि वृद्धावस्था में जीवन के विकास की जो चरमावस्था आ जाती है उसमें हम लोगों के सभी भाव, रस के रूप में परिणत होकर, आनंदमय हो जाते हैं।

यह सच है कि वृद्धावस्था में शारीरिक-शक्ति क्षीण होती जाती है पर उसके कष्ट जितने कल्पित हैं उतने यथार्थ नहीं हैं। बात यह है कि शक्ति के अभाव का हमें ज्ञान ही नहीं हो पाता। तरुणावस्था में जो शाक्त बाह्य जगत में जाकर विकीर्ण होती है वही अब अंतर्जगत में रहकर एकत्र सी हो जाती है। जिन कामों में शारीरिक शक्ति की विशेष आवश्यकता है उनके प्रति आपसे आप विरक्ति हो जाती हैं। परंतु उससे आनंद की अनुभूति कम नहीं होती। मैं कभी फुटबाल खेला करता था और खैरागढ़ से छुईखदान तक दौड़ लगाया करता था। पर फुटबाल खेलने की ओर जरा भी प्रवृत्ति नहीं होती। अब तो फुटबाल ग्राउंड या क्रिकेट फील्ड में चुपचाप बैठकर देखने में ही आनंद आता है। उस समय ‘जितेंद्र’ से कैच छूटने पर या’जोधा’ से कुछ भूल होने पर हम लोग अपने समय के दिग्गजों की अपूर्वता का वर्णन करने लग जाते हैं।’कस्तूरचंद’ और मिनाजुद्दीन के बौलिंग तथा ‘युधिष्ठिर’ और ‘वंशबहादुर’ के खेल के वर्णन में वर्तमान तो बिल्कुल क्षुद्र हो जाता है। ‘महाराज जी’ के बराबर अब कौन ‘बैक’ खेलेगा! इन्हीं अतीत भव्य बातों का स्मरण कर वर्तमान की ओर इतना उपेक्षा भाव मन में आ जाता है कि उसमें सम्मिलित होने की जरा भी इच्छा नहीं होती। यही वृद्धावस्था का सच्चा लाभ है। यही कारण है कि शारीरिक शिथिलता और हृास का अनुभव करते हुए भी हम यह नहीं समझते कि इसमें कोई अभाव है। संसार के कार्य-क्षेत्र में हम युवकों के लिए आपसे आप स्थान छोड़ देते हैं, क्योंकि उसके लिए स्पृहा नहीं रह जाती। वृद्धावस्था में जो गौरव का भाव आ जाता है वह तारुण्य को तिरस्करणीय कर देता है। तारुण्य की लालसा, महत्वाकांक्षा,क्षिप्रता, अदूरदर्शिता सभी उसके लिए अग्रगण्य हैं।

मैं छात्रों के बीच में रहता आया हूँ। उनके साथ सहानुभूति का भव रख कर भी उनके क्षणिक उत्साह और क्षणि अवसाद से मुझे कौतूहल ही होता है। मैं जानता हूँ कि स्कूल की परीक्षा में उत्तीर्ण होना एक बात है और जीवन की परीक्षा में उत्तीर्ण होना दूसरी बात। मैं अब परिश्रम को महत्त्व देता हूँ,विद्या के प्रति अनुराग की प्रशंसा करता हूँ। पर छात्र एकमात्र परीक्षा में उत्तीर्ण होने में ही अपनी सफलता समझते हैं। अनुत्तीर्ण होने पर उन्हें जो दुख होता है वह मुझे नहीं होता। मेरे सुख-दुख की सीमा अब विस्तृत हो गई है। वृद्धावस्था में सुख-दुख की भावना परिवर्तित हो जाती है। तरुणावस्था में आडंबर अथवा प्रदर्शन की जो चाह रहती है वह वृद्धावस्था में नहीं रह जाती। इसी प्रकार न क्षणिक सुखों से वृद्धों को उल्लास होता है और न ही क्षणिक दुःखों से विषाद। न तो कोई सफलता उन्हें उत्तेजित करती है और न कोई असफलता हताश। संसार की कठोरता और कर्तव्य की गुरुता से परिचित हो जाने से उनमें विश्वास के स्थान में अविश्वास आ जाता है। वे संयत होकर भी संशयालु हो जाते हैं। इसी से वे तरुणावस्था के मोह में पड़ना नहीं चाहते।

तरुणावस्था में ज्ञान की वृद्धि होती है और वृद्धावस्था में ज्ञान की परीक्षा। जिनका तारुण्य-काल विद्योपार्जन में नहीं व्यतीत हुआ अथवा जो यथेष्ट ज्ञान अर्जित नहीं कर सके उनके लिए वृद्धकाल में इस अभाव की पूर्ति संभव नहीं है। मैं स्वयं विद्या के क्षेत्र में बी.ए. के आगे नहीं बढ़ सका और मेरे कितने ही छात्र विद्या की चरमकोटि तक पहुँच गए हैं। उनकी असाधारण विद्या और अपूर्व प्रतिष्ठा देखकर उनके समवयस्क लोगों में भले ही कुछ ईर्ष्या का भव हो, पर वृद्ध को यह भाव हो नहीं सकता। अधिकांश की तो यह धारणा रहती है कि यदि वे चाहते तो सब कुछ स्वायत्त कर सकते थे। परंतु उन्होंने इच्छा नहीं की। इसके अतिरिक्त उन्हें संसार का जो अनुभव हो चुका है उसे वे प्रेमचंदजी के ‘बड़े भाई साहब’ की तरह विद्या की अपेक्षा अधिक गौरव देंगे। ज्ञान के क्षेत्र में अजेय ही रहेंगे। मेरे नगर के कुछ वयोवृद्ध जन न तो उच्च शिक्षा प्राप्त कर सके और न खैरागढ़ के बाहर का ही कुछ विशेष अनुभव प्राप्त कर सके हैं। उनके ज्ञान और अनुभव दोनों सीमा-बद्ध होने पर वे केवल अवस्था के कारण एक गौरव प्राप्त कर चुके हैं। यही कारण है कि क्या दर्शनशास्त्र, क्या धर्म-विज्ञान और क्या शिक्षा-तत्त्व, सभी में वे एक विशेषज्ञ की तरह राय देते हैं। यह सच है कि उच्च कुल में जन्म लेने के कारण उन्होंने जो प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है उसके कारण उनकी सभी बातें मान्य हो जाती हैं। पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि वृद्धावस्था भी स्वयं आदरणीय हो जाती है और ज्ञान को उसके आगे नतमस्तक होना पड़ता है।

कुछ लोगों की यह धारणा है कि वृद्धावस्था में धर्म की ओर रुचि हो जाती है। प्राचीन काल में लोग वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम स्वीकार कर संसार से विरक्त हो जाते थे। हिंदू-समाज के इसी आदर्श ने यहाँ लोगों में विश्वास उत्पन्न कर दिया है कि वृद्धावस्था आपसे आप धर्म की भावना ला देती है। यह सच है कि तरुणावस्था में जो चंचलता रहती है वह वृद्धावस्था में नहीं रह जाती। उसी समय एक स्थिरता, एक दृढ़ता आ जाती है। पाश्चात्य देशों के राजनैतिक क्षेत्रों में वृद्धजन ही नेतृत्व ग्रहण करते हैं और उनसे अधिक संसार क्षेत्र में कोई संलग्न नहीं रहता। सच तो यह है कि वृद्धावस्था में हम जिस बात को अपनाते हैं उसे इतनी दृढ़ता से अपनाते हैं कि मृत्यु ही हमको उस बात से मुक्ति दे सकती है। धर्म,अर्थ काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों में जो वृद्ध जिसको स्वीकार कर लेता है वह उसी में लिप्त हो जाता है। कितने ही वृद्ध काम और अर्थ में लिप्त रहकर भी धर्म का अभिनय अवश्य करते हैं, पर यथार्थ में तरुणों से भी अधिक प्रचंड उनकी वासनाएँ होती हैं। वृद्धावस्था में अर्थ-लोभ से प्रेरित होकर जो व्यवसाय करते हैं। उनमें जो कृपणता आ जाती है वह तरुणों में सभव नहीं। यही बात जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी कही जा सकती है। वृद्ध नवीन पथ नहीं स्वीकार कर सकते। यदि वे ऐसा करते हैं तो ढोंग ही करते हैं। जीवन भर सांसारिक चिंता में निरत रहकर कोई वृद्धावस्था में सहसा संसार को त्यागकर मुक्ति का मार्ग ग्रहण कर ले, यह एकमात्र भगवान की असीम कृपा का फल हो सकता है। स्वभाव के विरुद्ध काम किसी से हो नहीं सकता। प्रकृति हमको अपने ही पथ पर ले जाती है। कर्तव्य भार की चिंताओं से विमुक्त होकर कोई-कोई धर्म-चिंता में निरत होकर आत्म-विनोद अवश्य कर लेते हैं। पर निश्चिंत अवस्था में यह संभव है।

वृद्धावस्था का सच्चा आनंद है आत्म-संतोष। जिन्हें भविष्य की चिंता है वे वृद्ध नहीं हैं। वे तरुण ही हैं, क्योंकि उन्हें कार्यों की ओर चिंता अवश्य प्रेरित करेगी। जो देश के भविष्य-निर्माण में व्यस्त हैं उन्हें आत्म-संतोष तभी होगा जब वे अपना कार्य समाप्त कर लेंगे और तभी वे वृद्ध होकर अपने अतीत जीवन का स्मरण करेंगे। तब उनके लिए भविष्य की कोई चिंता नहीं रह जाएगी। पं. जवाहरलाल नेहरू की तरह महात्मा गांधी भी तरुण भारत के वरुण नेता हैं। उनमें अदम्य साहस हैं अदम्य स्फूर्ति है और अदम्य उत्साह है। वृद्धावस्था उनके शरीर को जीर्ण कर सकती है, उनके मन को नहीं। पर जो लोग एकमात्र शरीर-सुख को ही अपना लक्ष्य मानते आए हैं उनके लिए शारीरिक शक्ति की क्षीणता के साथ वृद्धावस्था आ जाती है और वे वृद्धावस्था से असंतुष्ट होकर इसके आनंद से भी हाथ धो बैठते हैं। जीवन की संध्या अपने साथ एक अपूर्व श्री लाती है। ज्योति क्षीण हो जाती है, उन्माद नष्ट हो जाता है; मन में भाव का मृदु पवन बहता है, सहानुभूति की मृदु तरंगें उठती हैं, संसार हर्ष के मधुर कलरव से पूर्ण हो जाता है, चिर संचित स्नेह का दीप प्रज्वलित होता है और मन के नभोमंडल में उदीयमान नक्षत्रों की तरह कितनी ही मधुर स्मृतियाँ उदित होती हैं।

 

कविताएँ

 

बुढ़िया

बुढ़िया चला रही थी चक्की
पूरे साठ वर्ष की पक्की।

दोने में थी रखी मिठाई
उस पर उड़ मक्खी आई

बुढ़िया बाँस उठाकर दौड़ी
बिल्ली खाने लगी पकौड़ी।
झपटी बुढ़िया घर के अंदर
कुत्ता भागा रोटी लेकर।

बुढ़िया तब फिर निकली बाहर
बकरा घुसा तुरंत ही भीतर।
बुढ़िया चली गिर गया मटका
तब तक वह बकरा भी सटका।

बुढ़िया बैठ गई तब थककर
सौंप दिया बिल्ली को ही घर।

 

 दो -चार
भाव रस अलंकार से हीन, अर्थ-गौरव से शून्य असार।
नाम ही है वस जिनमें, पद्य ये हैं ऐसे दो-चार।
बिल्व पत्रों का शुष्क समूह, कब किसी से आया है काम,
उन्हीं से होता जग को तोष तुम्हारा हो यदि उन पर नाम।
लिख दिया है बस अपना नाम और क्या है लिखने की बात?
नाम ही एकमात्र है सत्य और है नाथ! वही पर्याप्त
पड़ेगी जब तक जग की दृष्टि, रहेंगे तब तक क्या ये स्पष्ट?
किन्तु तुम तो मत जाना भूल, नाम का गौरव हो मत नष्ट।

मातृ मूर्ति
क्या तुमने मेरी माता का देखा दिव्याकार,
उसकी प्रभा देख कर विस्मय-मुग्ध हुआ संसार ।।

अति उन्नत ललाट पर हिमगिरि का है मुकुट विशाल,
पड़ा हुआ है वक्षस्थल पर जह्नुसुता का हार।।

हरित शस्य से श्यामल रहता है उसका परिधान,
विन्ध्या-कटि पर हुई मेखला देवी की जलधार।।

भत्य भाल पर शोभित होता सूर्य रश्मि सिंदूर,
पाद पद्म को को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार।.

सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम,
पाद पद्म को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार ।।

सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम,
जिससे सब मलीन पड़ जाते हैं रत्नालंकार ।।

दयामयी वह सदा हस्त में रखती भिक्षा-पात्र,
जगधात्री सब ही का उससे होता है उपकार ।।

देश विजय की नहीं कामना आत्म विजय है इष्ट ,
इससे ही उसके चरणों पर नत होता संसारा ।।

एक घनाक्षरी
सेर भर सोने को हजार मन कण्डे में
खाक कर छोटू वैद्य रस जो बनाते हैं ।
लाल उसे खाते तो यम को लजाते
और बूढ़े उसे खाते देव बन जाते हैं ।
रस है या स्वर्ग का विमान है या पुष्प रथ
खाने में देर नहीं, स्वर्ग ही सिधाते हैं ।
सुलभ हुआ है खैरागढ़ में स्वर्गवास
और लूट घन छोटू वैद्य सुयश कमाते हैं ।

 

 

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