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परिचय

जन्म : 4 अक्टूबर 1884, बस्ती (उत्तर प्रदेश)

निधन : 1941, वाराणसी

भाषा : हिंदी

विधाएँ : आलोचना, निबंध, साहित्येतिहास

मुख्य कृतियाँ

हिंदी साहित्य का इतिहास, रस मीमांसा, चिंतामणि (3 खंड)
मौलिक कृतियाँ तीन प्रकार की हैं–
आलोचनात्मक ग्रंथ : सूर, तुलसी, जायसी पर की गई आलोचनाएं, काव्य में रहस्यवाद, काव्य में अभिव्यंजनावाद, रस मीमांसा आदि शुक्ल जी की आलोचनात्मक रचनाएं हैं।
निबंधात्मक ग्रंथ उनके निबंध चिंतामणि नामक ग्रंथ के दो भागों में संग्रहीत हैं। चिंतामणि के निबन्धों के अतिरिक्त शुक्लजी ने कुछ अन्य निबन्ध भी लिखे हैं , जिनमें मित्रता, अध्ययन आदि निबन्ध सामान्य विषयों पर लिखे गये निबन्ध हैं। मित्रता निबन्ध जीवनोपयोगी विषय पर लिखा गया उच्चकोटि का निबन्ध है जिसमें शुक्लजी की लेखन शैली गत विशेषतायें झलकती हैं।
ऐतिहासिक ग्रंथ : हिंदी साहित्य का इतिहास उनका अनूठा ऐतिहासिक ग्रंथ है।

संपादन : हिंदी शब्द सागर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका

निधन : 1941, वाराणसी

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म सं. 1884 में बस्ती जिले के अगोना नामक गांव में हुआ था। उनके पिता पं. चंद्रबली शुक्ल की नियुक्ति सदर कानूनगो के पद पर मिर्ज़ापुर में हुई तो सारा परिवार भी मिर्ज़ापुर में आकर रहने लगा।
जिस समय शुक्ल जी की अवस्था नौ वर्ष की थी, उनकी माता का देहांत हो गया। माता के दुख के अभाव के साथ-साथ उन्हें विमाता से मिलने वाले दुःख को भी सहना पड़ा, इससे उनका व्यक्तित्व बड़ा गंभीर बन गया। पढ़ने की लगन शुक्ल जी में बचपन से ही थी। किंतु इसके लिए उन्हें अनुकूल वातावरण न मिल सका। किसी तरह उन्होंने एंट्रंस और एफ. ए. की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। उनके पिता की इच्छा थी कि शुक्ल जी कचहरी में जाकर दफ्तर का काम सीखे, किंतु शुक्ल जी उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। अंत में पिता जी ने उन्हें वकालत पढ़ने के लिए इलाहाबाद भेजा पर उनकी रुचि वकालत में न होकर साहित्य में थी। अतः परिणाम यह हुआ कि वे उसमें अनुत्तीर्ण रहे।
शुक्ल जी के पिताजी ने उन्हें नायब तहसीलदारी की जगह दिलाने का प्रयास किया, किंतु उनकी स्वाभिमानी प्रकृति के कारण यह संभव न हो सका।
शुक्ल जी मिर्ज़ापुर के मिशन स्कूल में अध्यापक हो गए। इसी समय से उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे। और धीरे-धीरे उनकी विद्वत्ता का यश चारों ओर फैल गया। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें हिंदी शब्द सागर के सहायक संपादक का कार्य-भार सौंपा, जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया। वे नागरी प्रचारिणी पत्रिका के भी संपादक रहे।
अंत में शुक्ल जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी अध्यापन का कार्य किया। बाबू श्याम सुंदर दास की मृत्यु के बाद वे वहां हिंदी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त हुए।
1940 में हृदय की गति रुक जाने से शुक्ल जी का देहांत हो गया।प्रस्तुत है शुक्ल जी की कुछ कविताएँ, एक कहानी और प्रसिद्ध निबंध ‘मित्रता’

कविताएँ

रानी दुर्गावती
इ लखहु सब वीर कहा यह परत लखाई।
बिना समय यह रेनु रही आकाश उड़ाई।।1

ये वन के मृग डरे सकल क्यों आवत भागी।
इहाँ कहूँ हूँ लगी नहीं हैं देख हुँ आगी।।2

यह दुन्दुभि को शब्द सुनो, यह भीषण कलरव।
यह घोड़न की टाप शिलन पर गूँज रही अब।।3

आर्य्य रुधिर हा एक बेर ही सोवत जान्यो।
अबला शासक मानि देश जीवन अनुमान्यो।।4

शेष रुधिर को बँद एक हूँ जब लगि तन महँ।
को समर्थ पग धरन हेतु यह रुचिर भूमि महँ।।5

तुरत दूत इक आये सुनायो समाचार यह।
आसफ अगनित सैन लिये आवत चढ़ि पुर महँ।।6

छिन छिन पर रहि दृष्टि सकल वीरन दिसि धावति।
कँपत गत रिस भरी खड़ी रानी दुर्गावति।।7

श्वेत वसन तन, रतन मुकुट माथे पर दमकत।
श्रवत तजे मुख, नयन अनल कण होत बहिर्गत।।8

सुघर बदन इमि लहत रोष की रुचिर झलक ते।
कद्बचन आभा दुगुन होत जिमि आँच दिये ते।।9

चपल अश्व की पीठ वीर रमणी यह को हैं?
निकसि दुर्ग के द्वार खड़ी वीरन दिसि जो हैं।।10

वाम कंध बिच धनुष, पीठ तरकस कसि बाँधे।
कर महँ असि को धरे, वीर बानक सब साधे।।11

चुवत वदन सन तेज और लावण्य साथ इमि।
हैं मनोहर संजोग वीर शृंगार केर जिमि।।12

नगर बीच हैं सेन कढ़ी कोलाहल भारी।
पुरवासिन मिलि बार बार जयनाद पुकारी ।।13

सम्मुख गज आसीन निहारयो आसफ खाँ को।
महरानी निज वचन अग्रसर कियो ताहि को ।।14

“अरे-अधम! रे नीच! महा अभिमानी पामर!
दुर्गावति के जियत चहत गढ़ मंडल निज कर।।15

म्लेच्छ! यवन की हरम केर हम अबला नाहीं।
आर्य्य नारि नहिं कबहुँ शस्त्रा धारत सकुचाहीं”।।16

चमकि उठे पुनि शस्त्रा दामिनी सम घन माहीं।
भयो घोर घननाद युद्ध को दोउ दल माहीं।।17

दुर्गावत निज कर कृपान धारन यह कीने।
दुर्गावति मन मुदित फिरत वीरन संग लीने।।18

सहसा शर इक आय गिरयो ग्रीवा के ऊपर।
चल्यौ रुधिर बहि तुरत, मच्यो सेना बिच खरभर।।19

श्रवत रुधिर इमि लसत कनक से रुचिर गात पर।
छुटत अनल परवाह मनहुँ कोमल पराग पर।।20

चद्बचल करि निज तुरग सकल वीरन कहँ टेरी।
उन्नत करि भुज लगी कहन चारिहु दिशि हेरी।।21

अरे वीर उत्साह भंग जनि होहि तुम्हारो।
जब लगि तन मधि प्राण पैर रन से नहिं टारो।।22

लै कुमार को साथ दुर्ग की ओर सिधारहु।
गढ़ की रक्षा प्राण रहत निज धर्म्म बिचारहु।।23

यवन सेन लखि निकट, लोल लोचन भरि वारी।
गढ़ मंडल ये अंत समय की विदा हमारी।।24

यों कहि हन्यो कटार हीय बिच तुरत उठाई।
प्राण रहित शुचि देह परयो धरनीतल आई।।25

(‘सरस्वती’, जून, 1903)

 

वसन्त पथिक

 

देखो पहाड़ी से उतरता पथिक हैं जो इस घड़ी,
हैं अरुण पथ पर दूर तक जिसकी बड़ी छाया पड़ी।
छिपकर निकलता टहनियों के बीच से झुकता कभी,
और फिर उलझकर झाड़ियों में घूमकर रुकता कभी।
आकर हुआ नीचे खड़ा, अब सामने उसके चली,
फैली हुई कुछ दूर तक वन की घनी रम्य स्थली।

कचनार कलियों से लदे फूले समाते हैं नहीं,
नंगे पलासों पर पड़ी हैं राग की छीटें कहीं।
ऊँची कँटीली झाड़ियाँ भी पत्तियों से, हैं मढ़ी,
हल्की हरी, अब तक न जिन पर श्यामता कुछ भी चढ़ी।
सुन्दर दलों के बीच में काँटे छिपे हैं, थामना!
जैसे भलों के संग में खोटे जनों की कामना।
पौधे जिन्हें पशु नोचकर सब ओर ठूठे कर गए,
वे भी सँभलकर फेंकते हैं फिर हरे कल्ले नए।

वे पेड़ जिनपर बैठते कौवे लजाते थे कभी,
कैसे चहकते आज हैं उन पर जमे पक्षी सभी!
कटते हुए अब खेत भूरे सामने आने लगे,
जिनमें गिरे कुछ भाग से ही भाग चिड़ियों के जगे।
सूहे वसन्ती रक्ष् के चल आ सी मृदुगामिनी,
हैं डोलती उस भूमि की भूरी प्रभा में भामिनी।

लिपटे हुए द्रुम जाल में वह झाँकते हैं झोपडे,
जो अन्न के शुभ सत्रा-से सब प्राणियों के हित खडे।
जो शान्ति औ सन्तोष के सुख से सदा रहते भरे,
मिलता जहाँ विश्राम हैं दिन के परिश्रम के परे।
आकर समीर प्रभात ही वन खेत से सौरभ लिए,
हैं खेलता प्रति द्वार पर हिम बिन्दु को चद्बचल किए।

भोली लजीली नारियों से नित्य ही आकर जहाँ
हैं पूछ जाता आड़ में छिपकर पपीहा “पी कहाँ?”
छेड़ा पथिक को एक ने हँसकर “उधर जाते कहाँ?
वह राह टेढ़ी हैं।” कहाँ उसने “नहीं चिन्ता यहाँ।”

कब घेर सकती हैं उसे चिन्ता भला निज छेम की,
जिसके हृदय में जग रही हैं ज्योति पावन प्रेम की?
छायी गगन पर धूल हैं निखरी निरी निर्मल मही,
मानो प्रकृति के अंग पर मंजुल मृदुलता ढल रही।

देखो जहाँ अमराइयाँ हैं मौरकर उमड़ी हुई,
कंचनमयी पीली-प्रभा सौरभ लिये पड़ती चुई।
यह आम की मृदु मंजरी अब मन्द मारुत से हिली;
कूकीं कई मिल कोयलें, टूटी पथिक-ध्यानावली।
तब देख चारों ओर अपने निज हृदय की टोह ली,
पाई नहीं आमोद के संचार को उसमें गली।

चलता रहा चुपचाप; चट फिर बात यह उसने कही
“अधिक हैं रहे सन्तुष्ट हो सुषमा निरख जो आप ही।
सुनता रहे ध्वनि मधुर पर मन में न अपने यह गुने,
हा! पास में कोई नहीं हैं और जो देखे सुने।
वे धन्य हैं पर-ध्यान में जो लीन ऐसे हो रहे,
जो दो हृदय के योग में कुछ भूल अपने को रहे।
बाँटे किसी सुख को सदा जो ताक में रहते इसी,
जिनके वदन पर हास हैं प्रतिबिम्ब मानस का किसी।”

कोमल मधुर स्वर में किसी ने पूछा वहीं कुछ झोंक से,
‘बातें’ कहाँ की कर गये? आते कहो किस लोक से?”
देखा पथिक ने चौंककर, पाया किसी को पर नहीं,
अचरज दबे पड़ने लगे पग मन्द मारग में वहीं।
बोला उझककर “पवन तूने कहाँ से ये स्वर छुए,
अथवा हृदय से गँजकर ये आप ही बाहर हुए।”
इस बीच नीचे कुंज से फुर से उड़ी चिड़ियाँ कई,
सँग में लगी कुछ दूर उनके दृष्टि भी उसकी गई।

देखा पथिक ने दूर कुछ टीले सरोवर के बडे,
हैं पेड़ चारों ओर जिन पर आम जामुन के खडे।
हिलकर बुलाते प्रेम से प्रति दिन हरे पत्तो जहाँ,
“आओ पथिक, विश्राम लो छिन छाँह में बसकर यहाँ।”
हैं एक कोने पर झलकता श्वेत मन्दिर भी वही,
हारे पथिक की दृष्टि हैं उस ओर ही अब लग रही।

बढ़ने लगा उस ओर अब; आई वही ध्वनि फिर,”रहो!
लेने चले विश्राम का सुख तुम अकेले क्यों कहो?”

यद्यपि घने सन्देह में थे भाव सब उसके अड़े,
मुँह से अचानक शब्द ये उसके निकल ही तो पडे।
“बस में नहीं यह सुख उठाकर हम किसी के कर धरें,
पथ के कठिन श्रम से न कुछ जब तक उसे पीड़ितकरें।”

विस्मय-भरे मन से छलकती कल्पना छन छन नयी,
‘छाया यहाँ छलती मुझे, यह भूमि हैं मायामयी’।

यह सोचते ही सामने आया रुचिर मन्दिर वही,
जिसके शिखर पर डाल पीपल की पसरकर झुक रही।

प्रतिमा पुनीत विराजती भीतर भवानीनाथ की,
आसन अचल पर हैं टिकी बाहर सवारी साथ की।

करके प्रणाम, विनीत स्वर से पथिक यह कहकर टला,
“क्या जान सकते हैं प्रभो, माया तुम्हारी हम भला?”

देखा सरोवर तीर निर्मल नीर मन्द हिलोर हैं;
जिसमें पडी वट विटप-छाया काँपती इक ओर हैं।
अति मन्द गति से ढुर रही हैं पाँति बगलों की कहीं,
बैठी कहीं दो चार चिड़ियाँ पंख को खुजला रहीं।

झुककर दु्रमों की डालियाँ जल के निकट तक छा रहीं,
जिनसे लिपट अनुराग से फूली लता लहरा रहीं।

सौरभ-सनी, जलकण मिली मृदु वायु चलती हो जहाँ,
होवे न क्यों फिर पथिक की काया शिथिल शीतल वहाँ?
उतरा पथिक जल के निकट, फिर हाथ मुँह धोकर वहीं,
बैठा घने निज ध्यान में, तन हैं कहीं और मन कहीं।

हिलकर सलिल अब थिर हुआ, उसमें दिखायी यह पड़ी,
किस मोहिनी प्रिय मूर्ति की छायामयी आकृति खड़ी।
ताका उलटकर ज्यों पथिक ने खिलखिलाकर हँस पड़ा,
चंचल नवेली कामिनी जो पास थी पीछे खड़ा।

आभा अधर पर मन्द सी मुसकान की अब रह गई,
पलकें ढली पड़ती, मधुरता ढालती मुख पर नई।

पीले वसन पर लहरती अलकें कपोलों से छुई,
उस कुसुम कोमल अंग से छवि छूटकर पड़ती चुई।

जाने नहीं किस धार में सुध बुध पथिक की बह गई,
बीते अचल दृग से उसे तो ताकते ही छन कई।

कहता हुआ यह उठा पड़ा फिर,”हे प्रिये मम तुम कहाँ।”
हँसकर मृदुल स्वर से बढ़ी कहती हुई “हो तुम जहाँ।”
उमडे हुए अनुराग में आतुर मिले दोनों वहीं,
फूले हुए मन अंग में उनके समाते हैं नहीं।
बैठे वहीं मिलकर परस्पर, कामिनी ने तब कहा
हमको यहाँ पर देखकर होगा तुम्हें अचरज महा,
चलकर यहाँ से दूर पर कुछ एक सुन्दर ग्राम हैं,
जिसमें हमारी पूज्यतम मातामही का धाम हैं।

ठहरी हुई हैं आजकल हम साथ जननी के वहाँ,
हम नित्य दर्शन हेतु शिव के नियम से आतीं यहाँ।
यह तो बताओ थे कहाँ, यह रीति सीखी हैं भली,
जब से गये घर से, नहीं तब से हमारी खोज ली।
हमने यही समझा, जगत की अन्त करके सब कला,
होकर बडे बूढे फ़िरोगे; क्या किया तुमने भला।”
छोड़ो इन्हें ये प्रेम से जी खोलकर बोलें मिलें,
पाठक, यहाँ क्या काम अब हम आप अपनी राह लें।।

 

सुमन संगीत

 

ओ, हे भ्रमर! कमनीय कृष्ण-काति धर!!
देखो, जिस रूप, जिस रंग में खिले हैं हम।
आकुल किसी के अनुराग में अवनि पर;
इसी रूप-रंग में खिला हैं कोई और कहीं,
जाओ वहीं, मधुप! सुनाओ गूँज पल भर।
रंग में उसी के चूर धूल हो हृदय यह,
धीरे-धीरे उड़ा चला जाता हैं बिखर कर;
जाओ पहुँचाओ पास प्रिय के हमारे अब,
अधिक नहीं तो एक कण मित्र मधुकर ।।27

गर्भ में धरित्री अपने ही कुछ काल जिन्हें,
धर कर, गोद में उठाती फिर चाव से;
औरस सगे हैं वे ही उसके जो हरे-हरे,
खडे लहराते पले मृदु क्षीर-स्राव से।
भरती हैं जननी प्रथम इनको ही निज,
भरे हुए पालन औ रंजन के भाव से;
पालते यही हैं, बहराते भी यही हैं फिर,
सारी सृष्टि उसी प्राप्त शक्ति के प्रभाव से ।।28

तप्त अनुराग जब उर में वसुंधरा का,
उठता हैं लहरें सकंप लहकारता;
देखता हैं उसे ध्वंस ज्वाला के स्वरूप में तू,
प्यार की ललक नहीं उसको विचारता।
निज खंड-अनुराग से न मेल खाता देख,
नर! तू विभीषिका हैं उसको पुकारता;
दूर कर पालन की शक्ति की शिथिलता को,
वही नव जीवन से भरी फूँक मारता ।।29

उसी अनुराग के हैं शीतल विभास सब,
कोमल अरुण किशलय क्या कुसुमदल;
नीरव संदेश कहो, प्रेम कहो, रूप कहो,
सब कुछ कहो इन्हें सच्चे रंग ही में ढल।
रंग कैसे रंग पर उड़-उड़ झुकते हैं,
पवन में पंख बने तितली के चोखे चल;
यों ही जब रूप मिलें बाहर के भीतर की
भावना से, जानो तब कविता का सत्यपल ।।30

गया उसी देवल के पास से हैं ग्राम-पंथ,
श्वेत धारियों में कई घास को विभक्त कर;
थूहरों से सटे हुए पेड़ और झाड़ हरे,
गोरज से धूमले जो खडे हैं किनारे पर।
उन्हें कई गायें पैर अगले चढ़ाए हुए,
कंठ को उठाए चुपचाप ही रही हैं चर;
जा रही हैं घाट ओर ग्राम वनिताएँ कई,
लौटती हैं कई एक घट औ कलश भर ।।31

इतने में बकते औ झकते से बूढे बूढ़े,
भगत जी एक इसी ओर बढे आते हैं;
पीछे-पीछे लगे कुछ बालक चपल उन्हें,
‘सीताराम-सीताराम’ कहके चिढ़ाते हैं।
चिढ़ने से उनके चिढ़ाने की चहक और,
दल को वे अपने बढ़ाते चले जाते हैं;
कई एक कुक्कुर भी मुँह को उठाए साथ,
लगे-लगे कंठस्वर अपना मिलाते हैं ।।32

कई ललनाएँ औ कुमारियाँ कुतूहल से,
ठमक गई हैं उसी पथ के किनारे पर;
मंदिर के सुथरे चबूतरे के पास-बढ़,
सिर से उतार घट कलश हैं देती धर।
हावमयी लीला यह देख के भगत जी की,
भीतर ही भीतर विनोद से रही हैं भर;
मुख से तो कहती हैं ‘कैसे दुष्ट बालक हैं’,
लोचनों से और ही संकेत वे रही हैं कर ।।33
सूहे वास बीच से हैं फूटती गोराई कहीं,
पीतपट बीच लुकी साँवली लुनाई हैं;
भोले भले मुख में कपोल बिकसाती हुई,
मंद मृदु हास-रेखा दे रही दिखाई हैं।
चंचल दृगों की यह चटक निराली ऐसी,
जनपद छोड़ और जाती कहाँ पाई हैं;
विविध-विकास भरी लहलही मची बीच,
घटित प्रफुल्ल द्युति यह सुघड़ाई हैं ।।34

सामने हमारे जब आया वह दल तब,
भगत के पास जाके एक बोला राधेश्याम;
कृपा दृष्टि अभी पूरी होने भी न पाई थी कि,
चट फिर बोल उठा सीताराम-सीताराम।
लाठी तान सिर को झुलाते हुए झुक पडे ,
गालियों के साथ झोंक दादा औ पिता के नाम;
कंधे से दुपट्टा छूट पड़ा लहराता बढे,
कुत्तो जो लपक, लिया लोगों ने झपट थाम ।।35

अंत में ‘अरुण जी’ की बढ़ती उतावली को,
देख उठ खडे हुए हम लोग जाने को;
इतने में भद्र जन एक उसी ग्राम के यों,
बोल उठे, आप लोग फिर कहाँ आने को?
होगा न विलंब, चले चलिए हमारे द्वार,
आधी घड़ी बैठिए न श्रम ही मिटाने को;
सब लोग साथ चले; केवल ‘अरुण’ लगे,
मुँह को बनाने, किंतु वह भी दिखाने को ।।36
घुसते हैं वीथियों में ग्राम के तो कहीं-कहीं
गोमय के बीच बँधे गाय-बैल पाते हैं;
नोंक-झोंक बातों की भिड़ाते हुए नंदन जी,
गडे ख़ूँटे से जा एक टकराते हैं।
भड़क के बैल एक बंधन तुड़ाता हुआ,
भागता हैं; पीछे कुछ लोग दौड़ जाते हैं;
धीरे-धीरे यों ही एक द्वार के समक्ष हम,
चिकनी चौकोर स्वच्छ भूमि पर आते हैं ।।37

कोल्हू एक बीच में गड़ा हैं; जाट घूम-घूम,
बोलती हैं मड़ मड़ लाट सी उठी वहीं;
पड़ गईं खाटें, जमी मंडली हमारी चट,
चर चर गायें लौट थानों पर आ रहीं।
धीरे धीरे लाए गए घडे ऌक्षु-रस भरे,
धरे गये मटके भी दूध के कहीं कहीं;
पीने को बिठा के हमें देने लगे ढाल-ढाल,
मानते हमारी कही एक भी ‘नहीं’ नहीं ।।38

ग्राम-ग्राम द्वार पर अतिथि-समागम का,
गौरव सदा से इसी भाँति चला आता हैं;
नगरों के ऐसा वहाँ देख कोई आया गया,
दूर ही से कहीं कोई मुँह न चुराता हैं।
बैठे हुए मुदित ‘प्रमोद जी’ को बार बार,
देख देख एक कुछ सोचता सा जाता हैं;
नाम धाम पूछ फिर धीरे से खिसक गया,
बोले हम देखो! यह कौन रंग लाता हैं ।।39

कानाफूसी करती नवेली कई देख पड़ीं,
मंद मंद हँसी न दबाई दब पाती हैं;
ज्यों ही बातचीत में हमारा ध्यान बँटा,
त्यों ही पास ही हमारे झनकार कुछ आती हैं।
साथ ही उसी के चट ऊपर हमारे छूट,
झोंकभरी पीत-रंग-धारा ढल जाती हैं;
उठ पडे रंजित वसन झटकार हम,
हास की तरंग उठ रस में डुबाती हैं ।।40

पास ही श्वसुर-ग्राम ‘भंडशर’ नाम यहीं,
कहीं हैं प्रमोद जी का, जानते थे हम यह;
पूछने से एक ने उठा के हाथ चट उन,
पर्वतों के अंचल की ओर कहा देखो वह।
नाता एक ग्राम से जो होता हैं किसी का उसे,
आस पास मानते हैं ममता के साथ कह;
देश के पुराने उस जीवन की धारा अभी,
सूखी नहीं यहाँ, क्षीण होकर रही हैं बह ।।41

पश्चिम दिशा में घने द्रुम-दल-जाल-मध्य,
देख पडे अवकाश लोहित प्रदीप्त अति;
और ओर पत्राराशि-गह्नरों की श्यामता की,
बढ़ गहराई चली; मंद हुई वायु-गति।
खुला रंग धरती का दबता दिखाई दिया,
होने लगी अब तो प्रकाश की प्रकट क्षति;
आकुल विहंग चले वेग से बसेरों पर,
घर फिर चलने की हमने भी ठानी मति ।।42

लीन अभी श्यामता में पेड़ हो न पाए थे कि,
जहाँ तहाँ गए स्वर्ण-आभा से झलक छोर;
टेढ़ी-मेढ़ी धूम्र कृष्ण शैल शीर्ष-रेखा पर,
देख पड़ी झाँकती-सी उठी चंद्रबिंब-कोर।
धीरे धीरे टीले, खपरैल, खेत मेंड़, पथ,
धारा में धवल चोखी चाँदनी उठे बोर;
उठ पड़ी मंडली हमारी एक एक कर,
बढे पाँव साथ-साथ सबके घरों की ओर ।।43

खिली हुई चाँदनी में खेत खात पारकर,
धाम के समीप निज ज्यों ही हम आते हैं;
देखते हैं दल बाँध बालक अनेक घूम,
माता होलिका की जय धूम से मनाते हैं।
काँटे और झाड़ लिए कई एक पास आके,
बोले हम आज कहीं कुछ भी न पाते हैं;
पूरी समवेदना दिखाते हुए सब लोग,
बोले देखो, हम अभी तुमको बताते हैं ।।44

वयस में दूर नहीं बहुत बढ़े थे हम,
क्षण भर मिल गए साथ बाल-दल के;
परम विनोद शील ग्रामपति इसी बीच,
देख पडे, मिले मानो सखा प्रति पल के।
चिड़चिडे बूढे एक ‘वंशी महराज’ के थी,
द्वार पर खाट पड़ी थोड़ी दूरी चल के;
उँगली हमारी उठी ज्यों ही उस ओर उसे,
बालकों ने लाद लिया, हम हुए हलके ।।45

फागुन की चाँदनी की चहल पहल यह,
चूक से हमारी अब चुकी चली जाती हैं;
प्रकृति के साथ मिले मन की उमंग वह,
झोंके झंझटों के झेल आज ढली जाती हैं।
गौरव की ग्लानि से स्वरूप की हमारी सब,
चारुता भी रुचि को समेट गली जाती हैं;
जीवन की सारी जो प्रफुल्लता हमारी रही,
देखते-ही-देखते हमारे टली जाती हैं ।।46

पर्व और उत्सव-प्रवाह में प्रमोद-कांति,
सारी-मिली-जुली साथ में थी खुली खेलती;
आज वह छिन्न-भिन्न होके कुछ लोगों की ही,
कोठरी में लुकी-छिपी कारागार झेलती।
भद्रता हमारी कोरी भिन्नता का बाना धर,
खिन्नता से बहुतों से दूर हमें ठेलती;
हिल मिल एक में करोड़ों की उमंगें अब,
जीवन में सुख की तरंगें नहीं रेलती ।।47

चढ़ी चली आती देख पच्छिमी सनक सब,
हृदय हमारे आज और भी हैं हारते;
जीवन विधायिनी विभूति जीती-जागती जो,
भूमि के दुलारे निज श्रम से पसारते।
उसे धातु-निगड़ से जकड़ बना के जड़,
पालन-प्रसार की समस्त गति मारते;
सोखते हैं रक्त भर पेट कुछ लोग बैठ,
उनका जो तन के पसीने नित्य गारते ।।48

ऐसे क्रूर कठिन विधान में कहाँ से यह,
मंगल की आभा की झलक रह पावेगी?
नगरों के धातु खंड-राशि जिस घड़ी सब,
ग्राम-गत भूमि झनकार से जुतावेगी।
खोके पत पानी, हार अपनी स्वतंत्राता को,
जनता वहाँ की मजदूर बन जावेगी;
लुच्चे औ लफंगे नई काट के मिलेंगे, फिर,
वहाँ भी पुनीतता न मुँह दिखलावेगी ।।49

जीने हेतु हाथ-पाँव मारना ही जीवन का,
एक-मात्र रूप हम चारों ओर पावेगे;
अवसर आयु में से क्रीड़ा के कटेंगे सब,
बालक भी खेलते न देखने में आवेंगे।
सारी वृत्ति अर्थ से बँधेगी इस भाँति, लोग,
कहीं आँख-कान तक व्यर्थ न लगावेंगे;
ऐसे इस अर्थ के अनर्थ से विभीत होके,
मन के पुनीत भाव सारे भाग जावेंगे ।।50

(‘माधुरी’ अप्रैल, 1927)

गोस्वामीजी और हिन्दू जाति
ल-वैभव-विक्रम-विहीन यह जाति हुई जब सारी,
जीवनरुचि घट चली; हट चली जग से दृष्टि हमारी।
प्रभु की ओर देखने जब हम लगे हृदय में हारे,
नए पंथ कुछ चले चिढ़ाने ‘वह तो जग से न्यारे’।

उस नैराश्यगिरा से आहत मन गिर गया हमारा,
अंधकारमय लगा जगत यह, रहा न कहीं सहारा।
अटपट बानी ने जीवन की खटखट से खटकाया,
लोकधर्म के रुचिर रूप पर चटचट पट फैलाया।
जिसके तानों में फँसकर मति गति थक चली हमारी,
मर्यादा मिट चली लोक की, गई वृत्ति वह मारी।
होता अभ्युदय जाति का फिर फिर जिसके द्वारा,
हरती हैं जो सकल हीनता, भरती हैं सुख सारा।

जाय वीरता, मान न उसका यदि मानस से जावे;
जाय शक्ति पर भक्ति शक्ति की यदि जनमन न भगावे;
पर न भारती-पाद-पद्म तज पूज्य बुध्दि यदि भागे;
कितनी ही पर ताप तप्त तनु पिसकर पीड़ा पावै।
पर यदि दुष्टदमन पर श्रद्धा मन में कुछ रह जावै;
लोकरक्षिणी शक्ति उदय तो अपना आप करेगी,
विद्या, बल, वैभव वितरित कर सब संताप हरेगी।

पर जनता के मन से ये शुभ भाव भगाने वाले,
दिन दिन नए निकलते आते थे मत के मतवाले।
इतने में सुन पड़ी अतुल सी तुलसी की बर वानी,
जिसने भगवत्कला लोक के भीतर की पहचानी।
शोभा-शक्ति शील-मय प्रभु का रूप मनोहर प्यारा,
दिखा लोकजीवन के भीतर जिसने दिया सहारा।
शक्तिबीज शुभ भव्य भक्ति वह पाकर मंगलकारी,
मिटी खिन्नता, जीने की रुचि फिर कुछ जगी हमारी।

जिस दंडकवन में प्रभु की कोदंड-चंड-ध्वनि भारी,
सुनकर कभी हुए थे कंपित निशिचर अत्याचारी।
वहीं शक्ति वह झलक उठी झंकार सहित भयहारी,
दहल उठा अन्याय, उठी फिर मरती जाति हमारी।
प्रभु की लोकरंजिनी छवि पर जब तक भक्ति रहेगी,
तब तक गिर गिरकर उठने की हम में शक्ति रहेगी।
रंजन करना साधुजनों का, दुष्टों को दहलाना,
दोनों रूप लोकरक्षा के हैं, यह भूल न जाना।

उभय रूप में देते हैं जिसमें भगवान् दिखाई,
वह प्राचीन भक्ति तुलसी से फिर से हमने पाई।
यही भक्ति हैं जगत् बीच जीना बतलानेवाली,
किसी जाति के जीवन की जो करती हैं रखवाली।
खींच वीरता, विद्या, बल पर से जो भक्ति हमारी,
अपनी ओर फेर करते हों लोकधर्म से न्यारी।
हमें चाहिए उनसे अपना पीछा आप छुड़ावें,
तुलसी का कर ध्यान न उनकी बातों में हम आवें।

(माधुरी, अगस्त, 1927)

 

हमारी हिन्दी
(1)
मन के धन वे भाव हमारे हैं खरे।
जोड़ जोड़ कर जिन्हें पूर्वजों ने भरे ।।
उस भाषा में जो हैं इस स्थान की।
उस हिंदी में जो हैं हिन्दुस्तान की ।।
उसमें जो कुछ रहेगा वही हमारे काम का।
उससे ही होगा हमें गौरव अपने नाम का ।।
(2)
‘हम’ को करके व्यक्त, प्रथम संसार से।
हुई जोड़ने हेतु सूत्रा जो प्यार से ।।
जिसे थाम हम हिले मिले दो चार से।
हुए मुक्त हम रोने के कुछ भार से ।।
उसे छोड़कर और के बल उठ सकते हैं नहीं।
पडे रहेंगे, पता भी नहीं लगेगा फिर कहीं ।।
(3)
पहले पहल पुकारा था जिसने जहाँ।
जिन नामों से जननि प्रकृति को, वह वहाँ ।।
सदा बोलती उनसे ही, यह रीति हैं।
हमको भी सब भाँति उन्हीं से प्रीति हैं ।।
जिस स्वर में हमने सुना प्रथम प्रकृति की तान को।
वही सदा से प्रिय हमें और हमारे कान को ।।

(4)
भोले भाले देश भाइयों से जरा।
भिन्न लगें, यह भाव अभी जिनमें भरा ।।
जकड़ मोह से गए, अकड़ कर जो तने।
बानी बाना बदल बहुत बिगड़े, बने ।।
धरते नाना रूप जो, बोली अद्भुत बोलते।
कभी न कपट-कपाट को कठिन कंठ के खोलते ।।
(5)
अपनों से हो और जिधर वे जा बहे।
सिर ऊँचे निज नहीं, पैर पर पा रहे ।।
इतने पर भी बने चले जाते बड़े।
उनसे जो हैं आस पास उनके पडे ।।
अपने को भी जो भला अपना सकते हैं नहीं।
उनसे आशा कौन सी की जा सकती हैं कहीं? ।।
(6)
अपना जब हम भूल भूलते आपको,
हमें भूलता जगत हटाता पाप को ।।
अपनी भाषा से बढ़कर अपना कहाँ?
जीना जिसके बिना न जीना हैं यहाँ ।।
हम भी कोई थे कभी, अब भी कोई हैं कहीं।
यह निज वाणी-बल बिना विदित बात होगी नहीं ।।

(नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सितं.-दिसं., 1917)

 

भारतेंदु जयन्ती

 

1)
खड़ा विदा के हेतु हमारा चिर पोषित साहित्य।
बना बनाया भाव-भवन था गिरता जाता नित्य ।।
खड़हर करके हृदय खुक्ख हो कुछ तो बर्बर नीच।
कृशित बुध्दि निज लगे टिकाने भाडे क़े घर बीच ।।

(2)
इस भू के जो विटप, बेलि, नग, निर्झर, नदी कछार।
सभी एक स्वर से पुकारते बार बार धिक्कार ।।
हो प्रेमत जब एक एक लगे हटाने हाय।
उनके बंधु और चिर-प्रतिनिधि रुचिर शब्द समुदाय ।।

(3)
पश्चिम से जो ज्ञान-ज्योति की धारा बही विशाल।
बुझे दीपकों को उससे हम लेवें अपने बाल ।।
नहीं चेत यह हमें, रहे हम चिनगारी पर भूल।
यहाँ वहाँ जो गिरती केवल प्राप्तकाल अनुकूल ।।

(4)
पल्ला पकड़ विदेशी भाषा का दौडे क़ुछ वीर।
नए नए विज्ञान कला की ओर छोड़कर धीर ।।
पिछड़ गया साहित्य शिथिल तन लिया न उसको संग।
पिया ज्ञान रस आप, लगा वह नहीं जाति के अंग ।।

(5)
इसी बीच भारतेन्दु कर बढे विशाल उदार।
हिंदी को दे लगाया नए पंथ के द्वार ।।
जहाँ ज्ञान विज्ञान आदि के फैले रत्न अपार।
संचित करने लगी जिन्हें हैं हिंदी विविध प्रकार ।।
(‘इन्दु’, सितम्बर, 1913)

 

शिशिर-पथिक
विकल, पीड़ित पीय-पयान ते,
चहुँ रह्यौ नलिनी-दल घेरि जो,
भुजन भेंटि तिन्हैं अनुराग सों,
गमन-उद्यत भानु लखात हैं।।1

तजि तुरंत चले, मुख फेरि के,
शिशिर-शीत सशंकित जीव ही,
विहग आरत वैन पुकारते,
रहि गए, पर ताहि सुनी नहीं।।2

तनि गए सित ओस-वितान हूँ,
अनिल झार बहार धरा परी,
लुकन लोग लगे घर बीच हैं,
विवर भीतर कीट पतंग से।।3

युग भुजा उर बीच समेटि कै,
लखहु आवत गैयन फेरि के,
कँपत कंबल-बीच अहीर हूँ,
भरमि भूलि गई सब तान हैं।।4

तम भयंकर कारिख फेरि के,
प्रकृति दृश्य कियो धुंधलो सबै;
बनि गये अब शीत-प्रताप ते,
निपट निर्जन घाट अरु बाट हूँ।।5

पर चलो यह आवत हैं, लखो,
विकट कौन हठी हठ ठानि कै?
चुप रहैं, तब लौं जब लौं कोऊ,
सुजन, पूछनहार मिले नहीं।।6

शिथिल गत, महा गति मंद हैं,
चहुँ निहारत धाम विराम को;
उठत धूम लख्यौ कछु दूर पै,
करत श्वान जहाँ रव घोर हैं।।7

कँपत आइ भयो छिन में खड़ो,
युग कपाट लगे इक द्वार पै;
सुनि परयौ “तुम कौन!” कह्यौ तबै,
“पथिक दीन दया इक चाहतो”।।8

खुलि गये झट द्वार धड़ाक से,
धुनि परी मधुरी यह कान में,
“निकसि आइ बसौ यहि गेह में,
पथिक वेगि सकोच विहाइ कै”।।9

पग धरयौ तब भीतर भौन के,
अतिथि आवन आयसु पाइ के,
कठिन शीत-प्रताप विघातिनी,
अनल दीर्घ-शिखा जहँ फेंकती।।10

चपल दीठि चहूँ दिसि घूमि के,
पथिक की पहुँची इक कोन में,
वय-पराजित जीवन-जंग में,
दिन गिनै नर एक परो जहाँ।।11

सिर-समीप सुता मन मारि कै,
पितहिं सेवति सील सनेह सों,
तहँ खड़ी नत गात, कृशांगिनी,
लसति वारि-विहीन मृणाल सी।।12

लखि फिरी दिसि आवनहार की
विमल आसन इंगित सों दया;
अतिथि बैठि असीस दयो तबै
“फलवती सिगरी तुव आस हो” ।।13

मृदु हँसी, करुणा इक संग ही,
तरुनि आनन ऊपर धरि के,
कहति “हाय पथी! सुनु बावरे,
मुरझि बेलि कहूँ फल लावई।।14

“गति लखी विधि की जब वाम में,
जगत के सुख सों मुख मोरि के,
पितु निदेश निबाहन औ सदा,
अतिथि सेवन को व्रत लै लयो।।15

“अब कहो निज नाम चले कहाँ,
कहहु आवत हौ कित तें, इतै;
विचलि कै चित के किहि वेग सों,
पग धरयौ पथ तीर अधीर हैं।।16

“सलिल आस अमी रस सींचिके,
सतत राखति जो तन-बेलि हीं,
पथिक! बैठि अरे तुव बाट को,
युवति जोवति हैं कतहूँ कोऊ।।17

“नयन कोऊ निरंतर धावहीं,
तुमहिं हेरन को पथ बीच में;
श्रवण-बाट कोउ रहते खुले,
कहुँ, अरे तुव आहट लेन को?।।18

“कहुँ कहूँ तोहिं आवत जानि के,
निकटता तुव प्रेम-प्रदायिनी,
प्रथम पावन हेतुहि होत हैं,
चरन-लोचन-बीच बदाबदी1।।19

“करि दया, भ्रम जो सुख देत हैं,
सुमन-मंजुल-जाल बिछाइ कै,
कठिन, काल, निरंकुश निर्द्दयो,
छिनहिं छीनत ताहि निवारि कै”।।20

दबि गयो उन बैननि-भार सों,
पथिक दीन, मलीन, थको भयो;
अचल मूर्ति बन्यौ, पल एक लौं,
सब क्रिया तन की मन की रुकी।।21

बदन पौरुष-हीन विलोकि के,
नयन नीरन उत्तर दै दयो,
“तव यथार्थ सबै अनुमान हैं,
अति अलौकिक देवि दयामयी”।।22

अचल नैन उठाइ निहारते,
पथिक को अपनी दिसि देखि के,
इमि लगी कहने फिरि कामिनी,
अति पवित्र दया-व्रत-धारिणी।।23
“कुशलता न गुनौ यहि में कछू,
अरु न विस्मय की कछु बात हैं;
दिवस2 खेइ रहे दुख ओर जो,
गति लखैं गम में उल्टी सबै”।।24

 

प्रेम प्रताप
ग के सबही काज प्रेम ने सहज बनाये,
जीवन सुखमय किया शांति के स्रोत बहाये।
द्वेष राग को मेटि सभी में ऐक्य बढ़ाया,
धन्य प्रेम तव शक्ति जगत को स्वर्ग बनाया ।।1

गगन बीच रवि चंद्र और जितने तारे हैं,
सौर जगत अगणित जो प्रभु ने विस्तारे हैं।
सबको निज निज ठौर सदा प्रस्थित करवाना,
जिस आकर्षण शक्ति प्रेम ने ही हैं जाना ।।2

दंभ आदि को मेटि हृदय को कोमल करना,
छल समूल करि नष्ट सत्य शुभ पथ पर चलना।
मेरा तेरा छोड़ विश्व को बंधु बनाना,
प्रेम! तुम्हीं में शक्ति सीख इतनी सिखलाना ।।3

बालक का सा सरल हृदय प्रेमी का करते,
चंचलता पाखंड सभी क्षण में तुम हरते।
भीरु वीर को करो भीरु को वीर बनाते,
प्रेम! विश्व में दृश्य सभी अद्भुत दिखलाते ।।4

प्रणय रूप में कहो कौन कमनीय क्रांति हैं,
उपजाती जो हृदय बीच शुभ सुखद शांति हैं।
अद्भुत अनुपम शक्ति पूर्ण कर देती तन में,
धैर्य भक्ति संचार सदा जो करती मन में ।।5

सागर में सब नदी जाये जग की मिलती हैं,
होते ही शशि उदय कुमुदिनी भी खिलती हैं।
आ आ देते प्राण कीट दीपक के ऊपर।
हैं पूरा अधिकार प्रेम! तेरा जग ऊपर ।।6

दहन दु:ख का हो जाता हैं पलक मात्रा में,
पूर्ण ध्यान जब जग जाता हैं प्रेम-पात्र में।
प्रतिमा लगती प्रेम-पात्र की कैसी प्यारी।
प्रेम! प्रेम! हे प्रेम!!! जाउँ तेरी बलिहारी ।।7

(‘लक्ष्मी,’ जनवरी, 1913)

आमंत्रण
(1)
दृग के प्रति रूप सरोज हमारे,
उन्हें जग ज्योति जगाती जहाँ,
जब बीच कलंब-करंबित कूल से,
दूर छटा छहराती जहाँ।
घन अंजन-वर्ण खड़े, तृण जाल को
झाईं पड़ी दरसाती जहाँ,
बिखरे बक के निखरे सित पंख,
विलोक बकी बिक जाती जहाँ ।।
(2)
द्रुम-अंकित, दूब भरी, जलखंड,
जड़ी धरती छबि छाती जहाँ,
हर हीरक-हेम मरक्त-प्रभा ढल,
चंद्रकला हैं चढ़ाती जहाँ।
हँसती मृदुमूर्ति कलाधर की,
कुमुदों के कलाप खिलाती जहाँ,
घन-चित्रित अंबर अंक धरे,
सुषमा सरसी सरसाती जहाँ ।।
(3)
निधि खोल किसानों के धूल-सने,
श्रम का फल भूमि बिछाती जहाँ,
चुन के, कुछ चोंच चला करके,
चिड़िया निज भाग बँटाती जहाँ।
कगरों पर काँस की फैली हुई,
धवली अवली लहराती जहाँ,
मिल गोपों की टोली कछार के बीच,
हैं गाती औ गाय चराती जहाँ ।।
(4)
जननी-धरणी निज अंक लिए,
बहु कीट, पतंग खेलाती जहाँ,
ममता से भरी हरी बाँह की छाँह,
पसार के नीड़ बसाती जहाँ।
मृदु वाणी, मनोहर वर्ण अनेक,
लगाकर पंख उड़ाती जहाँ,
उजली-कँकरीली तटी में धँसी,
तनु धार लटी बल खाती जहाँ ।।
(5)
दल-राशि उठी खरे आतप में,
हिल चंचल चौंध मचाती जहाँ,
उस एक हरे रँग में हलकी,
गहरी लहरी पड़ जाती जहाँ।
कल कर्बुरता नभ की प्रतिबिंबित,
खंजन में मन भाती जहाँ,
कविता, वह! हाथ उठाए हुए,
चलिए कविवृंद! बुलाती वहाँ ।।

 

(माधुरी, अक्टूबर, 1925)
मित्रता –निबंध

 

ब कोई युवा पुरुष अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है, तब पहली कठिनता उसे मित्र चुनने में पड़ती है। यदि उसकी स्थिति बिल्कुल एकान्त और निराली नहीं रहती तो उसकी जान-पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते हैं और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से उसका हेल-मेल हो जाता है। यही हेल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रता के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफ़लता निर्भर हो जाती है; क्योकि संगति का गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर बड़ा भारी पड़ता है। हम लोग ऎसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है, हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते है जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप का करे-चाहे वह राक्षस बनावे, चाहे देवता। ऎसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं; क्योंकि हमें उनकी हर एक बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऎसे लोगों का साथ करना और बुरा है जो हमारी ही बात को ऊपर रखते है; क्योकिं ऎसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दाब रहता है, और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। दोनों अवस्थाओं में जिस बात का भय रहता है, उसका पता युवा पुरूषों को प्राय: विवेक से कम रहता है। यदि विवेक से काम लिया जाये तो यह भय नहीं रहता, पर युवा पुरूष प्राय: विवेक से कम काम लेते है। कैसे आश्चर्य की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं तो उसके गुण-दोषों को कितना परख लेते है, पर किसी को मित्र बनाने में उसके पूर्व आचरण और प्रक्रति आदि का कुछ भी विचार और अनुसन्धान नहीं करते। वे उसमें सब बातें अच्छी ही अच्छी मानकर अपना पूरा विश्वास जमा देते हैं। हंसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस-ये ही दो चार बातें किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना बना लेते है। हम लोग नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या हैं, तथा जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नही सूझती कि यह ऎसा साधन है जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान का वचन है- “विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है। जिसे ऎसा मित्र मिल जाये उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।” विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषधि है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों मे हमें दृढ़ करेंगे, दोष और त्रुटियों से हमें बचायेगे, हमारे सत्य , पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता से उत्तम से उत्तम वैद्य की-सी निपुण्ता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमतला होती है। ऎसी ही मित्रता करने का प्रयत्न पुरूष को करना चाहिए।

छात्रावास में तो मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता ह्रदय से उमड़ पड़ती है। पीछे के जो स्नेह-बन्धन होते हैं, उसमें न तो उतनी उमंग रह्ती हैं, न उतनी खिन्नता। बाल-मैत्री में जो मनन करने वाला आनन्द होता है, जो ह्रदय को बेधने वाली ईर्ष्या होती है, वह और कहां? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार विश्वास होता है। ह्रदय के कैसे-कैसे उदगार निकलते है। वर्तमान कैसा आनन्दमय दिखायी पड़ता है और भविष्य के सम्बन्ध में कैसी लुभाने वाली कल्पनाएं मन में रहती है। कितनी जल्दी बातें लगती है और कितनी जल्दी मानना-मनाना होता है। ‘सहपाठी की मित्रता’ इस उक्ति में ह्रदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। किन्तु जिस प्रकार युवा पुरूष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से द्रढ़, शान्त और गम्भीर होती है, उसी प्रकार हमारी युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते हैं। मैं समझता हूं कि मित्र चाहते हुए बहुत से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना मन में करते होगे, पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन की झंझटो में चलता नहीं। सुन्दर प्रतिमा, मनभावनी चाल और स्वच्छन्द प्रक्रति ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है। पर जीवन-संग्राम में साथ देने वाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बाते चाहिए। मित्र केवल उसे नही कहते जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करे, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें. जिससे अपने छोटे-मोटे काम तो हम निकालते जायें, पर भीतर-ही-भीतर घ्रणा करते रहे? मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें, भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति-पात्र बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभुति होनी चाहिए- ऎसी सहानुभूति जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नही है कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य करते हों या एक ही रूचि के हो। इसी प्रकार प्रक्रति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रक्रति के मनुष्यों मेम बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शान्त प्रक्रति के थे, लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे, पर दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रगाढ़ स्नेह था। उदार तथा उच्चाशय कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभावों में कुछ विशेष समानता न थी. पर उन दोनों की मित्रता खूब निभी। यह कोई भी बात नहीं है कि एक ही स्वभाव और रूचि के लोगों में ही मित्रता खूब निभी। यह कोई भी बात नही हैं कि एक ही स्वभाव और रूचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक दूसरे की ओर आकर्षित होते है, जो गुण हममें नहीं है हम चाह्ते है कि कोई ऎसा मित्र मिले, जिसमें वे गुण हों। चिन्ताशील मनुष्य प्रफ़ुल्लित चित्त का साथ ढूंढता है, निर्बल बली का, धीर उत्साही का। उच्च आकांक्षावाला चन्द्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुंह ताकता था। नीति-विशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था।

मित्र का कर्त्तव्य इस प्रकार बताया गया है-“उच्च और महान कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर का काम कर जाओ।” यह कर्त्तव्य उस से पूरा होगा जो द्रढ़-चित और सत्य-संकल्प का हो। इससे हमें ऎसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए। जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध ह्रदय के हो। म्रदुल और पुरूषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें, और यह विश्वास कर सके कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा।

जो बात ऊपर मित्रों के सम्बनध में कही गयी है, वही जान-पहचान वालों के सम्बन्ध में भी ठीक है। जान-पहचान के लोग ऎसे हों जिनसे हम कुछ लाभ उठा सकते हो, जो हमारे जीवन को उत्तम और आनन्दमय करनें मे कुछ सहायता दे सकते हो, यद्यपि उतनी नही जितनी गहरे गहरे मित्र दे सकते हैं। मनुष्य का जीवन थोड़ा है, उसमें खोने के लिए समय नहीं। यदि क, ख, और ग हमारे लिए कुछ कर सकते है, न कोई बुद्धिमानी या विनोद की बातचीत कर सकते हैं, न कोई अच्छी बात बतला सकते है, न सहानुभुति द्वारा हमें ढाढ़ास बंधा सकते है, हमारे आनन्द में सम्मिलित हो सकते हैं, न हमें कर्त्तव्य का ध्यान दिला सकते हैं, तो ईश्वर हमें उनसे दूर ही रखें। हमें अपने चारों ओर जड़ मूर्तियां सजाना सजाना नही है। आजकल जान-पहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नही है। कोई भी युवा पुरूष ऎसे अनेक युवा पुरूषों को पा सकता है जो उसके साथ थियेटर देखने जायेंगे, नाच रंग में आयेंगे, सैर-सपाटे में जायेंगे, भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करेंगे। यदि ऎसे जान पहचान के लोगों से कुछ हानि न होगी तो लाभ भी न होगा। पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी होगी। सोचो तो तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा। यदि ये जान-पहचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकले जिनकी संख्या दुर्भाग्यवंश आजकल बहुत बढ़ रही है, यदि उन शोहदों मेम से निकले जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं की नकल किया करते हैं, गलियों में ठठ्टा मारते हैं और सिगरेट का धुआं उड़आते चलते हैं। ऎसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, नि:सार और शोचनीय जीवन और किसका है? वे अच्छी बातों के सच्चे आनन्द से कोसों दूर है। उनके लिए न तो संसार में सुन्दर और मनोहर उक्ति बाले कवि हुए हैं और न संसार में सुन्दर आचरण वाले महात्मा हुए है। उनके लिए न तो बड़े-बड़े बीर अदभुत कर्म कर गये हैं और न बड़े-बड़े ग्रन्थकार ऎसे विचार छोड़ गये हैं जिनसे मनुष्य जाति के ह्रदय में सात्विकता की उमंगे उठती हैं। उनके लिए फ़ूल-पत्तियों मेम कोई सौन्दर्य नहीं। झरनोम के कल-कल में मधुर संगीत नहीं, अनन्त साहर तरंगों में गम्भीर रहस्यों का आभास नहीं उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरूषार्थ का आनन्द नहीं, उनके भाग्य से सच्ची प्रीति का सुख और कोमल ह्रदय की शान्ति नहीं। जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय-विषयों में ही लिप्त है; जिनका ह्रदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित हैं, ऎसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन-दिन अन्धकार में पतित होते देख कौन ऎसा होगा जो तरस न खायेगा? उसे ऎसे प्राणियों का साथ न करना चाहिए।

मकदूनिया का बादशाह डमेट्रियस कभी-कभी राज्य का सब का सब काम छोड़ अपने ही मेल के दस-पांच साथियों को लेकर विषय वासना में लिप्त रहा करता था। एक बीमारी का बहाना करके इसी प्रकार वह अपने दिन काट रहा था। इसी बीच इसका पिता उससे मिलने के लिए गया और उसने एक हंसमुख जवान को कोठरी से बाहर निकलते देखा। जब पिता कोठरी के भीतर पहुंचा तब डेमेट्रियस ने कहा-ज्वर ने मुझे अभी छोड़ा है।” पिता ने कहा-‘हां! ठीक है वह दरवाजे पर मुझे मिला था।’

कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सदव्रत्ति का ही नाश नही करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा-पुरूष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बंधी चक्की के समान होगी जो उसे दिन-दिन अवनति के गड्डे में गिराती जायेगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जायेगी।

इंग्लैण्ड के एक विद्वान को युवावस्था में राज-दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिन्दगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहां वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते। बहुत से लोग ऎसे होते हैं जिनके घड़ी भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; क्योंकि उतने ही बीच में ऎसी-ऎसी बातें कही जाती है जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऎसे प्रभाव पड़ते है जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती है। इस बात को प्राय: सभी लोग जानते है, कि भद्दे व फ़ूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं. उतनी जल्दी कोई गम्भीर या अच्छी बात नही एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसने लड़कपन में कहीं से एक बुरी कहावत सुन पायी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आये, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद नहीं करना चाहते वे बार-बार ह्रदय में उठती हैं और बेधती है। अत: तुम पूरी चौकसी रखो, ऎसे लोगों को कभी साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फ़ूहड़ बातों से तुम्हें हंसाना चाहे। सावधान रहो ऎसा ना हो कि पहले-पहले तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऎसा हुआ, फ़िर ऎसा न होगा। अथवा तुम्हारे चरित्र-बल का ऎसा प्रभाव पड़ेगा कि ऎसी बातें बकने वाले आगे चलकर आप सुधर जायेंगे। नहीं, ऎसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है। तब फ़िर यह नहीं देखता कि वह कहां और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभयस्त होते-होते तुम्हारी घ्रणा कम हो जायेगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी; क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़्ने की बात ही क्या है! तुम्हारा विवेक कुण्ठित हो जायेगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जायेगी। अन्त में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे; अत: ह्रदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो। यही पुरानी कहावत है कि-

‘काजर की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय,
एक लीक काजर की, लागिहै, पै लागिहै।’

भय – निबंध

 

किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्‍कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्‍तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं। क्रोध दुख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। क्रोध दुख के कारण के स्‍वरूपबोध के बिना नहीं होता। यदि दुख का कारण चेतन होगा और यह समझा जायगा कि उसने जान-बूझकर दुख पहुँचाया है, तभी क्रोध होगा। पर भय के लिए कारण का निर्दिष्‍ट होना जरूरी नहीं; इतना भर मालूम होना चाहिए कि दुख या हानि पहुँचेगी। यदि कोई ज्‍योतिषी किसी गँवार से कहे कि ”कल तुम्‍हारे हाथ-पाँव टूट जायँगे” तो उसे क्रोध न आएगा; भय होगा। पर उसी से यदि कोई दूसरा आकर कहे कि ”कल अमुक-अमुक तुम्‍हारे हाथ-पैर तोड़ देंगे” तो वह तुरंत त्‍योरी बदलकर कहेगा कि ”कौन हैं हाथ-पैर तोड़नेवाले? देख लूँगा।”

भय का विषय दो रूपों में सामने आता है – असाध्‍य रूप में और साध्‍य रूप में। असाध्‍य विषय वह है जिसका किसी प्रयत्‍न द्वारा निवारण असंभव हो या असंभव समझ पड़े। साध्‍य विषय वह है जो प्रयत्‍न द्वारा दूर किया या रक्‍खा जा सकता हो। दो मनुष्‍य एक पहाड़ी नदी के किनारे बैठे या आनंद से बातचीत करते चले जा रहे थे। इतने में सामने शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। यदि वे दोनों उठकर भागने, छिपने या पेड़ पर चढ़ने आदि का प्रयत्‍न करें तो बच सकते हैं। विषय के साध्‍य या असाध्‍य होने की धारणा परिस्थिति की विशेषता के अनुसार तो होती ही है पर बहुत कुछ मनुष्‍य की प्रकृति पर भी अवलंबित रहती है। क्‍लेश के कारण का ज्ञान होने पर उसकी अनिवार्यता का निश्‍चय अपनी विवशता या अक्षमता की अनुभूति के कारण होता है। यदि यह अनुभूति कठिनाइयों और आपत्तियों को दूर करने के अनभ्‍यास या साहस के अभाव के कारण होती है, तो मनुष्‍य स्तंभित हो जाता है और उसके हाथ-पाँव नहीं हिल सकते। पर कड़े दिल का या साहसी आदमी पहले तो जल्‍दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभल कर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है।

भय जब स्‍वभावगत हो जाता है तब कायरता यी भीरुता कहलाता है और भारी दोष माना जात, है, विशेषतः पुरुषों में। स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्‍जा के समान ही रसिकों के मनोरंजन की वस्‍तु रही है। पुरुषों की भीरुता की पूरी निंदा होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बहुत पुराने जमाने से पुरुषों ने न डरने का ठेका ले रक्‍खा है। भीरुता के संयोजक अवयवों में क्‍लेश सहने की आवश्‍यकता और अपनी शक्ति का अविश्‍वास प्रधान है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागनेवाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तभी अपनी शक्ति के द्वारा उस पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्‍वास नहीं रखता। यह तो बहुत पुरानी चाल की भीरुता हुई। जीवन के और अनेक व्‍यापारों में भी भीरुता दिखाई देती है। अर्थहानि के भय से बहुत से व्‍यापारी कभी-कभी किसी विशेष व्‍यवसाय में हाथ नहीं डालते, परास्‍त होने के भय से बहुत से पंडित कभी-कभी शास्‍त्रार्थ से मुँह चुराते हैं। इस प्रकार की भीरुता की तह में सहन करने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्‍वास छिपा रहता है। भीरु व्‍यापारी में अर्थहानि सहने की अक्षमता और अपने व्‍यवसाय कौशल पर अविश्‍वास तथा भीरु पंडित में मान-हानि सहने की अक्षमता और अपने विद्या-बुद्धि-बल पर अविश्‍वास निहित है।

एक ही प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है जिसकी प्रशंसा होती है। वह धर्म-भीरुता है। पर हम तो उसे भी कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं समझते। धर्म से डरनेवालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होनेवाले हमें अधिक धन्‍य जान पड़ते हैं। जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा वे कहीं श्रेष्‍ठ हैं जिन्‍हें बुराई अच्‍छी ही नहीं लगती।

दुख या आपत्ति का पूर्ण निश्‍चय न रहने पर उसकी संभावना-मात्र के अनुमान से जो आवेग-शून्‍य भय होता है, उसे आशंका कहते हैं। उसमें वैसी आकुलता नहीं होती। उसका संचार कुछ धीमा पर अधिक काल तक रहता है। घने जंगल से होकर जाता हुआ यात्री चाहे रास्‍ते भर इस आशंका में रहे कि कहीं चीता न मिल जाय, पर वह बराबर चला चल सकता है। यदि उसे असली भय हो जायगा तो वह या तो लौट जायगा अथवा एक पैर आगे न रखेगा। दुखात्‍मक भावों में आशंका की वही स्थिति समझनी चाहिए जो सुखात्‍मक भावों में आशा की। अपने द्वारा कोई भयंकर काम किए जाने की कल्‍पना या भावनामात्र से भी क्षणिक स्तंभ के रूप में एक प्रकार के भय का अनुभव होता है। जैसे, कोई किसी से कहे कि ”इस छत पर से कुद जाव” तो कूदना और न कूदना उसके हाथ में होतेहुए भी यह कहेगा कि ”डर मालूम होता है।” पर यह डर भी पूर्ण भय नहीं है।

क्रोध का अभाव दुख के कारण पर डाला जाता है, इससे उसक द्वारा दुख का निवारण यदि होता है तो सब दिन के लिए या बहुत दिनों के लिए। भय के द्वारा बहुत-सी अवस्‍थाओं में यह बात नहीं सकती। ऐसे सज्ञान प्राणियों के बीचे जिनमें भाव बहुत काल तक संचित रहते है और ऐसे उन्नत समाज में जहाँ एक-एक व्‍यक्ति को पहुँच और परिचय का विकास बहुत अधिक होता है, प्रायः भय का फल भय के संचार-काल तक ही रहता है। जहाँ भय भूला कि आफत आई। यदि कोई क्रूर मनुष्‍य किसी बात पर आपसे बुरा मान गया और आपको मारने दौड़ा तो उस समय भय की प्रेरणा से आप भागकर अपने को बचा लेगे। पर संभव है कि उस मनुष्‍य का क्रोध जो आप पर था उसी समय दूर न हो, बल्कि कुछ दिन के लिए वैर के रूप में टिक जाय, तो उसके लिए आपके सामने फिर आना कोई बड़ी बात न होती। प्राणियों की असभ्‍य दशा में ही भय से अधिक काम निकलता है जब कि समाज का ऐसा गहरा संगठन नहीं होता है कि बहुत से लोगों को एक दूसरे का पता और उसके विषय में जानकारी रहती हो।

जंगली मनुष्‍यों के परिचय का विस्‍तार बहुत थोड़ा होता है। बहुत-सी ऐसी जंगली जातियाँ अब भी है जिनमें कोई एक व्‍यक्त्‍िा बीस-पचीस से अधिक आदमियों को नहीं जानता। अतः उसे दस-बारह कोस पर ही रहनेवाला यदि कोई दूसरा जंगली मिले और मारने दौड़े तो वह भागकर उसे अपनी रक्षा उसी समय के लिए ही नहीं बल्कि सब दिनों से लिए कर सकता है। पर सभ्‍य, उन्‍नत और विस्‍तृत समाज में भय के द्वारा स्‍थायी रक्षा की उतनी संभावना नहीं होती। इसी से जंगली और असभ्‍य जातियों में भय अधिक होता है। जिससे वे भयभीत हो सकते हैं उसी को वे श्रेष्‍ठ मानते हैं और उसी की स्‍तुति करते हैं। उनके देवी-देवता भय के प्रभाव से ही कल्पित होते हैं। किसी आपत्ति या दुख से बचे रहने के लिए ही अधिकार वे उनकी पूजा करते हैं। अति भय और भयकारक का सम्‍मान असभ्यता के लक्षण हैं। अशिक्षित होने के कारण अधिकांश भारतवासी भी भय के उपासक हो गए हैं। वे जितना सम्‍मान एक थानेदार का करते हैं, उतना किसी विद्वान का नहीं।

चलने-फिरने वाले बच्चों में, जिनमें भाव देर तक नहीं टिकते और दुख परिहार का ज्ञान या बल नहीं होता, भय अधिक होता है। बहुत से बच्‍च्‍ो तो किसी अपरिचित आदमी को देखते ही घर के भीतर भागते हैं। पशुओं में भी भय अधिक पाया जाता है। अपरिचित के भय में जीवन का कोई गूढ़ रहस्‍य छिपा जान पड़ता है। प्रत्‍येक प्राणी भीतरी आँख कुछ खुलते ही अपने सामने मानों एक दुख-कारण-पूर्ण संसार फैला हुआ पाता है। जिसे क्रमशः कुछ अपने ज्ञानबल से और कुछ बाहुबल से थोड़ा-बहुत सुखमय बनाता चलता है। क्लेश ओर बाधा का ही सामान्‍य व्‍यतिक्रम समझता है; विरल विशेष मानता है। इस विशेष से सामान्‍य की ओर जाने का साहस उसे बहुत दिनों तक नहीं होता। परिचय के उत्तरोत्तर अभ्‍यास के बल से अपने माता-पिता या नित्‍य दिखाई पड़ने वाले कुछ थोड़े से और लोगों के ही संबंध में वह यह धारणा रखता है कि मुझे सुख पहुँचाते हैं और कष्‍ट न पहुँचाएँगे। जिन्‍हें वह नहीं जानता, जो पहले पहल उसके सामने आते हैं, उनके पास वह बेधड़क नहीं चला जाता। बिल्कुल अज्ञात वस्‍तुओं के प्रति भी वह ऐसा ही करता है।

भय की इस वासना का परिहार क्रमशः होता चलता है। ज्‍यों-ज्‍यों वह नाना रूपों से अभ्‍यस्‍त होता है त्‍यों-त्‍यों उसकी धड़क खुलती जाती है। इस प्रकार अपने ज्ञानबल, हृदयबल और शरीर बल की वृद्धि के साथ वह दुख की छाया मानों हटाता चलता है। समस्‍त मनुष्‍य-जाति की सभ्‍यता के विकास का ही यही क्रम रहा है। भूतों का भय तो अब कुछ छूट गया है, पशुओं की बाधा भी मनुष्‍य के लिए प्रायः नहीं रह गई है; पर मनुष्‍य के लिए मनुष्‍य का भय बना हुआ है। इस भय के छूटने के लक्षण भी नहीं दिखाई देते। अब मनुष्‍यों के दुख के कारण मनुष्‍य ही है। सभ्‍यता से अंतर केवल इतना ही पड़ा है कि दुख-दान की विधियाँ बहुत गूढ़ और जटिल हो गई हैं। उनका क्षोभकारक रूप बहुत से आवरणों के भीतर ढक गया है। अब इस बात की आशंका तो नहीं रहती है कि कोई जबरदस्‍ती आकर हमारे घर, खेत, बाग-बगीचे, रुपये-पैसे छीन न ले, पर इस बात का खटका रहता है कि कोई नकली दस्‍तावेजों झूठे गवाहों और कानूनी बहसों के बल से हमें इन वस्‍तुओं से वंचित न कर दे। दोनों बातों का परिणाम एक ही है।

एक-एक व्‍यक्ति के दूसरे-दूसरे व्‍यक्तियों के लिए सुखद और दुखद दोनों रूप बराबर रहे हैं और बराबर रहेंगे। किसी प्रकार की राजनीतिक ओर सामाजिक व्‍यव‍स्‍था – एकाशाही से लेकर साम्‍यवाद तक – इस दोरंगी झलक की दूर नहीं कर सकती। मानवी प्रकृति की अनेकरूपता शेष प्रकृति की अनेकरूपता के साथ-साथ चलती रहेगी। ऐसे समाज की कल्‍पना, ऐसी परिस्थिति का स्‍वप्‍न, जिसमें सुख ही सुख, प्रेम ही प्रेम हो, या तो लंबी-चौड़ी बात बनाने के लिए अथवा अपने को या दूसरों को फुसलाने के लिए समझा जा सकता है।

ऊपर जिस व्‍यक्तिगत विषमता की बात कही गई हैं, उससे समष्टि रूप में मनुष्‍यजाति का वैसा अमंगल नहीं है। कुछ लोग अलग-अलग यदि क्रूर लोभ के व्‍यापार में रत रहे, तो थोड़े से लोग ही उनके द्वारा दुखी या ग्रस्‍त होगे। यदि उक्‍त व्‍यापार का साधन एक बड़ा दल बाँधकर किया जायेगा, तो उसमें अधिक सफलता होगी और उसका अनिष्‍ट प्रभाव बहुत दूर तक फैलेगा। संघ एक शक्ति है जिसके द्वारा शुभ और अशुभ दोनों के प्रसार की संभावना बहुत बढ़ जाती है। प्राचीन काल में जिस प्रकार के स्‍वदेश-प्रेम की प्रतिष्‍ठा यूनान में हुई थी, उसने आगे चलकर योरप में बड़ा भयंकर रूप धारण किया। अर्थ-शास्‍त्र के प्रभाव के अर्थोंन्‍माद का उसके साथ संयोग हुआ और व्‍यापार, राजनीति या राष्‍ट्र‍नीति का प्रधान अंग हो गया। योरप के देश के देश इस धुन में लगे कि व्यापार के बहाने दूसरे देशों से जहाँ तक धन खींचा जा सके, बराबर खींचा जाता रहे। पुरानी चढ़ाइयों की लूटपाट का सिलसिला आक्रमण-काल तक ही – जो बहुत दीर्घ नहीं हुआ करता था – रहता था। पर योरप के अर्थोंन्मादियों ने ऐसी गूढ़, जटिल और स्‍थायी प्रणालियाँ प्रतिष्ठित की जिनके द्वारा भूमंडल की न जाने कितनी जनता का क्रम-क्रम से रक्‍त चुसता चला जा रहा है – न जाने कितने देश चलते-फिरते कंकालों का करागार हो रहे हैं।

जब तक योरप की जातियों ने आपस में लड़कर रक्‍त नहीं बहाया तब तक उनका ध्‍यान अपनी उस अंधनीति से अनर्थ की और नहीं गया। गत महायुद्ध के पीछे जगह-जगह स्‍वदेश-प्रेम के साथ-साथ विश्‍वप्रेम उमड़ता दिखाई देने लगा। आध्‍यात्मिकता की भी बहुत कुछ-कुछ पूछ होने लगी। पर इस विश्‍वप्रेम और आध्‍यात्मिकता का शाब्दिक प्रचार ही तो अभी देखने में आया है। इस फैशन की लहर भारतवर्ष में आई। पर फैशन के रूप में गृहीत इस ‘विश्‍वप्रेम’ और ‘अध्‍यात्‍म’ की चर्चा का कोई स्‍थायी मूल्‍य नहीं। इसे हवा का एक झोंका समझना चाहिए।

सभ्‍यता की वर्तमान स्थिति में एक व्‍यक्ति को दूसरे व्‍यक्ति से वैसा भय तो नहीं रहा जैसा पहले रहा करता था, पर एक जाति को दूसरी जाति से, एक देश को दूसरे देश से, भय के स्‍थायी कारण प्रति‍ष्ठित हो गए है। सबल और सबल देशों के बीच अर्थ संघर्ष की, सबल और निर्बल देशों के बीच अर्थ-शोषण की प्रक्रिया अनवरत चल रही है; एक क्षण का विराम नहीं है। इस सार्वभौम वणिग्‍वृत्ति से उतना अनर्थ कभी न होता यदि क्षात्रवृत्ति उसके लक्ष्‍य से अपना लक्ष्‍य अलग रखती। पर इस युग में दोनों का विलक्षण सहयोग हो गया है। वर्तमान अर्थोंन्‍माद की शासन के भीतर रखने के लिए क्षात्रधर्म के उच्‍च ओर पवित्र आदर्श को लेकर क्षात्रसंघ की प्रतिष्‍ठा आवश्‍यक है।

जिस प्रकार सुखी होने का प्रत्‍येक प्राणी को अधिकार है, उसी प्रकार मुक्‍तातंक होने का भी। पर कार्य-क्षेत्र के चक्रव्यूह में पड़कर जिस प्रकार सुखी होना प्रयत्‍न-साध्‍य होता है उसी प्रकार निर्भय रहना भी। निर्भयता के संपादन के लिए दो बातें अपेक्षित होती हैं – पहली तो यह कि दूसरों को हमसे किसी प्रकार का भय या कष्‍ट न हो; दूसरी यह कि दूसरे हमको कष्‍ट या भय पहुँचाने का साहस न करे सकें। इनमें से एक का संबंध उत्‍कृष्‍ट शील से है और दूसरी का शक्ति और पुरूषार्थ से। इस संसार में किसी को न डराने से ही डरने की संभावना दूर नहीं हो सकती। साधु से साधु प्रकृतिवाले को क्रूर लोभियों और दुर्जंनों से क्‍लेश पहुँचता है। अतः उनके प्रयत्‍नों को विफल करने या भय-संचार द्वारा रोकने की आवश्‍यकता से हम बच नहीं सकते।

 

ग्यारह वर्ष का समय – कहानी 

 

दिन-भर बैठे-बैठे मेरे सिर में पीड़ा उत्‍पन्‍न हुई : मैं अपने स्‍थान से उठा और अपने एक नए एकांतवासी मित्र के यहाँ मैंने जाना विचारा। जाकर मैंने देखा तो वे ध्‍यान-मग्‍न सिर नीचा किए हुए कुछ सोच रहे थे। मुझे देखकर कुछ आश्‍चर्य नहीं हुआ; क्‍योंकि यह कोई नई बात नहीं थी। उन्‍हें थोड़े ही दिन पूरब से इस देश मे आए हुआ है। नगर में उनसे मेरे सिवा और किसी से विशेष जान-पहिचान नहीं है; और न वह विशेषत: किसी से मिलते-जुलते ही हैं। केवल मुझसे मेरे भाग्‍य से, वे मित्र-भाव रखते हैं। उदास तो वे हर समय रहा करते हैं। कई बेर उनसे मैंने इस उदासीनता का कारण पूछा भी; किंतु मैंने देखा कि उसके प्रकट करने में उन्‍हें एक प्रकार का दु:ख-सा होता है; इसी कारण मैं विशेष पूछताछ नहीं करता।

मैंने पास जाकर कहा, “मित्र! आज तुम बहुत उदास जान पड़ते हो। चलो थोड़ी दूर तक घूम आवें। चित्त बहल जाएगा।”

वे तुरंत खड़े हो गए और कहा, “चलो मित्र, मेरा भी यही जी चाहता है मैं तो तुम्‍हारे यहाँ जानेवाला था।”

हम दोनों उठे और नगर से पूर्व की ओर का मार्ग लिया। बाग के दोनों ओर की कृषि-सम्‍पन्‍न भूमि की शोभा का अनुभव करते और हरियाली के विस्‍तृत राज्‍य का अवलोकन करते हम लोग चले। दिन का अधिकांश अभी शेष था, इससे चित्त को स्थिरता थी। पावस की जरावस्‍था थी, इससे ऊपर से भी किसी प्रकार के अत्‍याचार की संभावना न थी। प्रस्‍तुत ऋतु की प्रशंसा भी हम दोनों बीच-बीच में करते जाते थे।

अहा! ऋतुओं में उदारता का अभिमान यही कर सकता है। दीन कृषकों को अन्‍नदान और सूर्यातप-तप्‍त पृथिवी को वस्‍त्रदान देकर यश का भागी यही होता है। इसे तो कवियों की ‘कौंसिल’ से ‘रायबहादुर’ की उपाधि मिलनी चाहिए। यद्यपि पावस की युवावस्‍था का समय नहीं है; किंतु उसके यश की ध्‍वजा फहरा रही है। स्‍थान-स्‍थान पर प्रसन्‍न-सलिल-पूर्ण ताल यद्यपि उसकी पूर्व उदारता का परिचय दे रहे हैं।

एतादृश भावों की उलझन में पड़कर हम लोगों का ध्‍यान मार्ग की शुद्धता की ओर न रहा। हम लोग नगर से बहुत दूर निकल गए। देखा तो शनै:-शनै: भूमि में परिवर्तन लक्षित होने लगा; अरुणता-मिश्रित पहाड़ी, रेतीली भूमि, जंगली बेर-मकोय की छोटी-छोटी कण्‍टकमय झाड़ियाँ दृष्टि के अंतर्गत होने लगीं। अब हम लोगों को जान पड़ा कि हम दक्षिण की ओर झुके जा रहे हैं। संध्‍या भी हो चली। दिवाकर की डूबती हुई किरणों की अरुण आभा झाड़ियों पर पड़ने लगी। इधर प्राची की ओर दृष्टि गयी; देखा तो चंद्रदेव पहिले ही से सिंहासनारूढ़ होकर एक पहाड़ी के पीछे से झाँक रहे थे।

अब हम लोग नहीं कह सकते कि किस स्‍थान पर हैं। एक पगडण्डी के आश्रय अब तक हम लोग चल रहे थे, जिस पर उगी हुई घास इस बात की शपथ खा के साक्षी दे रही थी कि वर्षों से मनुष्‍यों के चरण इस ओर नहीं पड़े हैं। कुछ दूर चलकर यह मार्ग भी तृण-सागर में लुप्‍त हो गया। ‘इस समय क्‍या कर्तव्‍य है?’ चित्त इसी के उत्तर की प्रतीक्षा में लगा। अंत में यह विचार स्थिर हुआ कि किसी खुले स्‍थान से चारों ओर देखकर यह ज्ञान प्राप्‍त हो सकता है कि हम लोग अमुक स्‍थान पर हैं।

दैवात् सम्‍मुख ही ऊँची पहाड़ी देख पड़ी, उसी को इस कार्य के उपयुक्‍त स्‍थान हम लोगों ने विचारा। ज्‍यों-त्‍यों करके पहाड़ी के शिखर तक हम लोग गए। ऊपर आते ही भगवती जन्‍हू-नन्दिनी के दर्शन हुए। नेत्र तो सफल हुए। इतने में चारुहासिनी चंद्रिका भी अट्टहास करके खिल पड़ी। उत्तर-पूर्व की ओर दृष्टि गई। विचित्र दृश्‍य सम्‍मुख उपस्थित हुआ। जाह्नवी के तट से कुछ अंतर पर नीचे मैदान में, बहुत दूर, गिरे हुए मकानों के ढेर स्‍वच्‍छ चंद्रिका में स्‍पष्‍ट रूप से दिखाई दिए।

मैं सहसा चौंक पड़ा और ये शब्‍द मेरे मुख से निकल पड़े, “क्‍या यह वही खँडहर है जिसके विषय में यहाँ अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं?” चारों ओर दृष्टि उठाकर देखने से पूर्ण रूप से निश्‍चय हो गया कि हो न हो, यह वही स्‍थान है जिसके संबंध में मैंने बहुत कुछ सुना है। मेरे मित्र मेरी ओर ताकने लगे। मैंने संक्षेप में उस खँडहर के विषय में जो कुछ सुना था, उनसे कह सुनाया। हम लोगों के चित्त में कौतूहल की उत्पत्ति हुई; उसको निकट से देखने की प्रबल इच्‍छा ने मार्गज्ञान की व्‍यग्रता को हृदय से बहिर्गत कर दिया। उत्तर की ओर उतरना बड़ा दुष्‍कर प्रतीत हुआ, क्‍योंकि जंगली वृक्षों और कण्‍टकमय झाड़ियों से पहाड़ी का वह भाग आच्‍छादित था। पूर्व की ओर से हम लोग सुगमतापूर्वक नीचे उतरे। यहाँ से खँडहर लगभग डेढ़ मील प्रतीत होता था। हम लोगों ने पैरों को उसी ओर मोड़ा; मार्ग में घुटनों तक उगी हुई घास पग-पग पर बाधा उपस्थित करने लगी; किंतु अधिक विलम्‍ब तक यह कष्‍ट हम लोगों को भोगना न पड़ा; क्‍योंकि आगे चलकर फूटे हुए खपड़ैलों की सिटकियाँ मिलने लगीं; इधर-उधर गिरी हुई दीवारें और मिट्टी के ढूह प्रत्‍यक्ष होने लगे। हम लोगों ने जाना कि अब यहीं से खँडहर का आरंभ है। दीवारों की मिट्टी से स्‍थान क्रमश: ऊँचा होता जाता था, जिस पर से होकर हम लोग निर्भय जा रहे थे। इस निर्भयता के लिए हम लोग चंद्रमा के प्रकाश के भी अनुगृहीत हैं। सम्‍मुख ही एक देव मंदिर पर दृष्टि जा पड़ी, जिसका कुछ भाग तो नष्‍ट हो गया था, किंतु शेष प्रस्‍तर-विनिर्मित होने के कारण अब तक क्रूर काल के आक्रमण को सहन करता आया था। मंदिर का द्वार ज्‍यों-का-त्‍यों खड़ा था। किवाड़ सट गए थे। भीतर भगवान् भवानीपति बैठे निर्जन कैलाश का आनंद ले रहे थे, द्वार पर उनका नंदी बैठा था। मैं तो प्रणाम करके वहाँ से हटा, किंतु देखा तो हमारे मित्र बड़े ध्‍यान से खड़े हो, उस मंदिर की ओर देख रहे हैं और मन-ही-मन कुछ सोच रहे हैं। मैंने मार्ग में भी कई बेर लक्ष्‍य किया था कि वे कभी-कभी ठिठक जाते और किसी वस्‍तु को बड़ी स्थिर दृष्टि से देखने लगते। मैं खड़ा हो गया और पुकारकर मैंने कहा, “कहो मित्र! क्‍या है? क्‍या देख रहे हो?”

मेरी बोली सुनते ही वे झट मेरे पास दौड़ आए और कहा, “कुछ नहीं, यों ही मंदिर देखने लग गया था।” मैंने फिर तो कुछ न पूछा, किंतु अपने मित्र के मुख की ओर देखता जाता था, जिस पर कि विस्‍मय-युक्‍त एक अद्भुत भाव लक्षित होता था। इस समय खँडहर के मध्‍य भाग में हम लोग खड़े थे। मेरा हृदय इस स्‍थान को इस अवस्‍था में देख विदीर्ण होने लगा। प्रत्‍येक वस्‍तु से उदासी बरस रही थी; इस संसार की अनित्‍यता की सूचना मिल रही थी। इस करुणोत्‍पादक दृश्‍य का प्रभाव मेरे हृदय पर किस सीमा तक हुआ, शब्‍दों द्वारा अनुभव करना असम्‍भव है।

कहीं सड़े हुए किवाड़ भूमि पर पड़े प्रचण्‍ड काल को साष्‍टांग दण्‍डवत् कर रहे हैं, जिन घरों में किसी अपरिचित की परछाईं पड़ने से कुल की मर्यादा भंग होती थी, वे भीतर से बाहर तक खुले पड़े हैं। रंग-बिरंगी चूड़ियों के टुकड़े इधर-उधर पड़े काल की महिमा गा रहे हैं। मैंने इनमें से एक को हाथ में उठाया, उठाते ही यह प्रश्‍न उपस्थित हुआ कि “वे कोमल हाथ कहाँ हैं जो इन्‍हें धारण करते थे?”

हा! यही स्‍थान किसी समय नर-नारियों के आमोद-प्रमोद से पूर्ण रहा होगा और बालकों के कल्‍लोल की ध्‍वनि चारों ओर से आती रही होगी, वही आज कराल काल के कठोर दाँतों के तले पिसकर चकनाचूर हो गया है! तृणों से आच्‍छादित गिरी हुई दीवारें, मिट्टी और ईंटों के ढूह, टूटे-फूटे चौकठे और किवाड़ इधर-उधर पड़े एक स्‍वर से मानो पुकार के कह रहे थे – ‘दिनन को फेर होत, मेरु होत माटी को,’ प्रत्‍येक पार्श्‍व से मानो यही ध्‍वनि आ रही थी। मेरे हृदय में करुणा का एक समुद्र उमड़ा जिसमें मेरे विचार सब मग्‍न होने लगे।

मैं एक स्‍वच्‍छ शिला पर, जिसका कुछ भाग तो पृथ्‍वीतल में धँसा था, और शेषांश बाहर था, बैठ गया। मेरे मित्र भी आकर मेरे पास बैठे। मैं तो बैठे-बैठे काल-चक्र की गति पर विचार करने लगा; मेरे मित्र भी किसी विचार ही में डूबे थे; किंतु मैं नहीं कह सकता कि वह क्‍या था। यह सुंदर स्‍थान इस शोचनीय और पतित दशा को क्‍योंकर प्राप्‍त हुआ, मेरे चित्त में तो यही प्रश्‍न बार-बार उठने लगा; किंतु उसका संतोषदायक उत्तर प्रदान करने वाला वहाँ कौन था? अनुमान ने यथासाध्‍य प्रयत्‍न किया, परंतु कुछ फल न हुआ। माथा घूमने लगा। न जाने कितने और किस-किस प्रकार के विचार मेरे मस्तिष्‍क से होकर दौड़ गए।

हम लोग अधिक विलम्‍ब तक इस अवस्‍था में न रहने पाए। यह क्‍या? मधुसूदन! यह कौन-सा दृश्‍य है? जो कुछ देखा, उससे अवाक् रह गया! कुछ दूर पर एक श्‍वेत वस्‍तु इसी खँडहर की ओर आती देख पड़ी! मुझे रोमांच हो आया; शरीर काँपने लगा। मैंने अपने मित्र को उस ओर आकर्षित किया और उँगली उठा के दिखाया। परंतु कहीं कुछ न देख पड़ा; मैं स्‍थापित मूर्ति की भाँति बैठा रहा। पुन: वही दृश्‍य! अबकी बार ज्‍योत्‍स्‍नालोक में स्‍पष्‍ट रूप से हम लोगों ने देखा कि एक श्‍वेत परिच्‍छद धारिणी स्‍त्री एक जल-पात्र लिए खँडहर के एक पार्श्‍व से होकर दूसरी ओर वेग से निकल गई और उन्‍हीं खँडहरों के बीच फिर न जाने कहाँ अंतर्धान हो गई। इस अदृष्‍टपूर्व व्‍यापार को देख मेरे मस्तिष्‍क में पसीना आ गया और कई प्रकार के भ्रम उत्‍पन्‍न होने लगे। विधाता! तेरी सृष्टि में न-जाने कितनी अद्भुत–अद्भुत वस्‍तु मनुष्‍य की सूक्ष्‍म विचार-दृष्टि से वंचित पड़ी हैं। यद्यपि मैंने इस स्‍थान विशेष के संबंध में अनेक भयानक वार्ताएँ सुन रखी थीं, किंतु मेरे हृदय पर भय का विशेष संचार न हुआ। हम लोगों को प्रेतों पर भी इतना दृढ़ विश्‍वास न था; नहीं तो हम दोनों का एक क्षण भी उस स्‍थान पर ठहरना दुष्‍कर हो जाता। रात्रि भी अधिक व्‍यतीत होती जाती थी। हम दोनों को अब यह चिंता हुई कि यह स्‍त्री कौन है? इसका उचित परिशोध अवश्‍य लगाना चाहिए।

हम दोनों अपने स्‍थान से उठे और जिस ओर वह स्‍त्री जाती हुई देख पड़ी थी उसी ओर चले। अपने चारों ओर प्रत्‍येक स्‍थान को भली प्रकार देखते, हम लोग गिरे हुए मकानों के भीतर जा-जा के श्रृगालों के स्‍वच्‍छंद विहार में बाधा डालने लगे। अभी तक तो कुछ ज्ञात न हुआ। यह बात तो हम लोगों के मन में निश्‍चय हो गई थी कि हो न हो, वह स्‍त्री खँडहर के किसी गुप्‍त भाग में गई है। गिरी हुई दीवारों की मिट्टी और ईंटों के ढेर से इस समय हम लोग परिवृत्त थे। बाह्य जगत् की कोई वस्‍तु दृष्टि के अंतर्गत न थी। हम लोगों को जान पड़ता था कि किसी दूसरे संसार में खड़े हैं। वास्‍तव में खँडहर के एक भयानक भाग में इस समय हम लोग खड़े थे। सामने एक बड़ी ईंटों की दीवार देख पड़ी जो औरों की अपेक्षा अच्‍छी दशा में थी। इसमें एक खुला हुआ द्वार था। इसी द्वार से हम दोनों ने इसमें प्रवेश किया। भीतर एक विस्‍तृत आँगन था जिसमें बेर और बबूल के पेड़ स्‍वच्‍छन्‍दतापूर्वक खड़े उस स्‍थान को मनुष्‍य-जाति-संबंध से मुक्‍त सूचित करते थे। इसमें पैर धरते ही मेरे मित्र की दशा कुछ और हो गई और वे चट बोल उठे, “मित्र ! मुझे ऐसा जान पड़ता है कि जैसे मैंने इस स्‍थान को और कभी देखा हो, यही नहीं कह सकता, कब। प्रत्‍येक वस्‍तु यहाँ की पूर्व परिचित-सी जान पड़ती है।” मैं अपने मित्र की ओर ताकने लगा। उन्‍होंने आगे कुछ न कहा। मेरा चित्त इस स्‍थान के अनुसंधान करने को मुझे बाध्‍य करने लगा। इधर-उधर देखा तो एक ओर मिट्टी पड़ते-पड़ते दीवार की ऊँचाई के अर्धभाग तक वह पहुँच गई थी। इस पर से होकर हम दोनों दीवार पर चढ़ गए। दीवार के नीचे दूसरे किनारे में चतुर्दिक वेष्टित एक कोठरी दिखाई दी; मैं इसमें उतरने का यत्‍न करने लगा। बड़ी सावधानी से एक उभड़ी हुई ईंट पर पैर रखकर हम दोनों नीचे उतर गये। यह कोठरी ऊपर से बिलकुल खुली थी, इसलिए चंद्रमा का प्रकाश इसमें बेरोक-टोक आ रहा था। कोठरी के दाहिनी ओर एक द्वार दिखाई दिया, जिसमें एक जीर्ण किवाड़ लगा हुआ था, हम लोगों ने निकट जाकर किवाड़ को पीछे की ओर धीरे से धकेला तो जान पड़ा कि वे भीतर से बंद हैं।

मेरे तो पैर काँपने लगे। पुन: साहस को धारण कर हम लोगों ने किवाड़ के छोटे-छोटे रन्‍ध्रों से झाँका तो एक प्रशस्‍त कोठरी देख पड़ी। एक कोने में मंद-मंद एक प्रदीप जल रहा था जिसका प्रकाश द्वार तक न पहुँचता था। यदि प्रदीप उसमें न होता तो अंधकार के अतिरिक्‍त हम लोग और कुछ न देख पाते।

हम लोग कुछ काल तक स्थिर दृष्टि से उसी ओर देखते रहे। इतने में एक स्‍त्री की आकृति देख पड़ी जो हाथ में कई छोटे पात्र लिए उस कोठरी के प्रकाशित भाग में आयी। अब तो किसी प्रकार का संदेह न रहा। एक बेर इच्‍छा हुई कि किवाड़ खटखटाएँ, किंतु कई बातों का विचार करके हम लोग ठहर गये। जिस प्रकार से हम लोग कोठरी में आए थे, धीरे-धीरे उसी प्रकार नि:शब्‍द दीवार से होकर फिर आँगन में आए। मेरे मित्र ने कहा, “इसका शोध अवश्‍य लगाओ कि यह स्‍त्री कौन है?” अंत में हम दोनों आड़ में, इस आशा से कि कदाचित् वह फिर बाहर निकले, बैठे रहे। पौन घण्‍टे के लगभग हम लोग इसी प्रकार बैठे रहे। इतने में वही श्‍वेतवसनधारिणी स्‍त्री आँगन में सहसा आकर खड़ी हो गई, हम लोगों को यह देखने का समय न मिला कि वह किस ओर से आयी।

उसका अपूर्व सौंदर्य देखकर हम लोग स्‍तम्भित व चकित रह गए। चंद्रिका में उसके सर्वांग की सुदंरता स्‍पष्‍ट जान पड़ती थी। गौर वर्ण, शरीर किंचित क्षीण और आभूषणों से सर्वथा रहित; मुख उसका, यद्यपि उस पर उदासीनता और शोक का स्‍थायी निवास लक्षित होता था, एक अलौकिक प्रशांत कांति से देदीप्‍यमान हो रहा था। सौम्‍यता उसके अंग-अंग से प्रदर्शित होती थी। वह साक्षात देवी जान पड़ती थी।

कुछ काल तक किंकर्त्तव्‍यविमूढ़ होकर स्‍तब्‍ध लोचनों से उसी ओर हम लोग देखते रहे; अंत में हमने अपने को सँभाला और इसी अवसर को अपने कार्योपयुक्‍त्‍ विचारा। हम लोग अपने स्‍थान पर से उठे और तुरंत उस देवीरूपिणी के सम्‍मुख हुए। वह देखते ही वेग से पीछे हटी। मेरे मित्र ने गिड़गिड़ा के कहा, “देवि ! ढिठाई क्षमा करो। मेरे भ्रमों का निवारण करो।” वह स्‍त्री क्षण भर तक चुप रही, फिर स्निग्‍ध और गंभीर स्‍वर से बोली, “तुम कौन हो और क्‍यों मुझे व्‍यर्थ कष्‍ट देते हो?” इसका उत्तर ही क्‍या था? मेरे मित्र ने फिर विनीत भाव से कहा, “देवि! मुझे बड़ा कौतूहल है – दया करके यहाँ का सब रहस्‍य कहो।

इस पर उसने उदास स्‍वर से कहा, “तुम हमारा परिचय लेके क्‍या करोगे? इतना जान लो कि मेरे समान अभागिनी इस समय इस पृथ्‍वी मण्‍डल में कोई नहीं है।”

मेरे मित्र से न रहा गया; हाथ जोड़कर उन्‍होंने फिर निवेदन किया, “देवि ! अपने वृत्तान्‍त से मुझे परिचित करो। इसी हेतु हम लोगों ने इतना साहस किया है। मैं भी तुम्‍हारे ही समान दुखिया हूँ। मेरा इस संसार में कोई नहीं है।” मैं अपने मित्र का यह भाव देखकर चकित रह गया।

स्‍त्री ने करुण-स्‍वर से कहा, “तुम मेरे नेत्रों के सम्‍मुख भूला-भुलाया मेरा दु:ख फिर उपस्थित करने का आग्रह कर रहे हो। अच्‍छा बैठो।”

मेरे मित्र निकट के एक पत्‍थर पर बैठ गये। मैं भी उन्‍हीं के पास जा बैठा। कुछ काल तक सब लोग चुप रहे, अंत में वह स्‍त्री बोली –

“इसके प्रथम कि मैं अपने वृत्तान्‍त से तुम्‍हें परिचित करूँ, तुम्‍हें शपथपूर्वक यह प्रतिज्ञा करनी होगी कि तुम्‍हारे सिवा यह रहस्‍य संसार में और किसी के कानों तक न पहुँचे। नहीं तो इस स्‍थान पर रहना दुष्‍कर हो जाएगा और आत्‍महत्‍या ही मेरे लिए एकमात्र उपाय शेष रह जाएगा।”

हमलोगों के नेत्र गीले हो आये। मेरे मित्र ने कहा, “देवि ! मुझसे तुम किसी प्रकार का भय न करो; ईश्‍वर मेरा साक्षी है।”

स्‍त्री ने तब इस प्रकार कहना आरम्‍भ किया –

“यह खँडहर जो तुम देखते हो, आज से 11 वर्ष पूर्व एक सुंदर ग्राम था। अधिकांश ब्राह्मण-क्षत्रियों की इसमें बस्‍ती थी। यह घर जिसमें हम लोग बैठे हैं चंद्रशेखर मिश्र नामी एक प्रतिष्ठित और कुलीन ब्राह्मण का निवास-स्‍थान था। घर में उनकी स्‍त्री और एक पुत्र था, इस पुत्र के सिवा उन्‍हें और कोई संतान न थी। आज ग्‍यारह वर्ष हुए कि मेरा विवाह इसी चंद्रशेखर मिश्र के पुत्र के साथ हुआ था।”

इतना सुनते ही मेरे मित्र सहसा चौंक पड़े, “हे परमेश्‍वर! यह सब स्‍वप्‍न है या प्रत्‍यक्ष?” ये शब्‍द उनके मुख से निकले ही थे कि उनकी दशा विचित्र हो गयी। उन्‍होंने अपने को बहुत सँभाला – और फिर सँभलकर बैठे, वह स्‍त्री उनका यह भाव देखकर विस्मित हुई और उसने पूछा, “क्‍यों, क्‍या है?”

मेरे मित्र ने विनीत भाव से उत्तर दिया, “कुछ नहीं, यों ही मुझे एक बात का स्‍मरण आया। कृपा करके आगे कहो।”

स्‍त्री ने फिर कहना आरम्‍भ किया – “मेरे पिता का घर काशी में … मुहल्‍ले में था। विवाह के एक वर्ष पश्‍चात् ही इस ग्राम में एक भयानक दुर्घटना उपस्थित हुई, यहीं से मेरे दुर्दमनीय दु:ख का जन्‍म हुआ। संध्‍या को सब ग्रामीण अपने-अपने कार्य से निश्चिन्त होकर अपने-अपने घरों को लौटे। बालकों का कोलाहल बंद हुआ। निद्रादेवी ने ग्रामीणों के चिंता-शून्‍य हृदयों में अपना डेरा जमाया। आधी रात से अधिक बीत चुकी थी; कुत्ते भी थोड़ी देर तक भूँककर अंत में चुप हो रहे थे। प्रकृति निस्‍तब्‍ध हुई; सहसा ग्राम में कोलाहल मचा और धमाके के कई शब्‍द हुए। लोग आँखें मींचते उठे। चारपाई के नीचे पैर देते हैं तो घुटने भर पानी में खड़े!! कोलाहल सुनकर बच्‍चे भी जागे। एक-दूसरे का नाम ले-लेकर लोग चिल्‍लाने लगे। अपने-अपने घरों में से लोग बाहर निकलकर खड़े हुए। भगवती जाह्नवी को द्वार पर बहते हुए पाया!! भयानक विपत्ति! कोई उपाय नहीं। जल का वेग क्रमश: अधिक बढ़ने लगा। पैर कठिनता से ठहरते थे। फिर दृष्टि उठाकर देखा, जल ही जल दिखाई दिया। एक-एक करके सब सामग्रियाँ बहने लगीं। संयोगवश एक नाव कुछ दूर पर आती देख पड़ी। आशा! आशा!! आशा !!!

“नौका आयी, लोग टूट पड़े और बलपूर्वक चढ़ने का यत्‍न करने लगे। मल्‍लाहों ने भारी विपत्ति सम्‍मुख देखी। नाव पर अधिक बोझ होने के भय से उन्‍होंने तुरंत अपनी नाव बढ़ा दी। बहुत-से लोग रह गए। नौका पवनगति से गमन करने लगी। नौका दूसरे किनारे पर लगी। लोग उतरे। चंद्रशेखर मिश्र भी नाव पर से उतरे और अपने पुत्र का नाम लेके पुकारा। कोई उत्तर न मिला। उन्‍होंने अपने साथ ही उसे नाव पर चढ़ाया था, किंतु भीड़-भाड़ नाव पर अधिक होने के कारण वह उनसे पृथक हो गया था; मिश्रजी बहुत घबराए और तुरंत नाव लेकर लौटे। देखा, बहुत-से लोग रह गए थे; उनसे पूछ-ताछ किया। किसी ने कुछ पता न दिया। निराशा भयंकर रूप धारण करके उनके सामने उपस्थित हुई।”

“संध्‍या का समय था; मेरे पिता दरवाजे पर बैठे थे। सहसा मिश्र जी घबराए हुए आते देख पड़े। उन्‍होंने आकर आद्योपरान्त पूर्वोल्लिखित घटना कह सुनाई, और तुरंत उन्‍मत्त की भाँति वहाँ से चल दिए। लोग पुकारते ही रह गए। वे एक क्षण भी वहाँ न ठहरे। तब से फिर कभी वे दिखाई न दिए। ईश्‍वर जाने वे कहाँ गये! मेरे पिता भी दत्तचित होकर अनुसंधान करने लगे। उन्‍होंने सुना कि ग्राम के बहुत-से लोग नाव पर चढ़-चढ़कर इधर-उधर भाग गए हैं। इसलिए उन्‍हें आशा थी। इस प्रकार ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कई मास व्‍यतीत हो गए। अब तक वे समाचार की प्रतीक्षा में थे और उन्‍हें आशा थी; किंतु अब उन्‍हें चिता हुई। चंद्रशेखर मिश्र का भी तब से कहीं कुछ समाचार मिला। जहाँ-जहाँ मिश्र जी का संबंध था, मेरे पिता स्‍वयं गए; किंतु चारों ओर से निराश लौटे; किसी का कुछ अनुसंधान न लगा। एक वर्ष बीता, दो वर्ष बीते, तीसरा वर्ष आरम्‍भ हुआ। पिता बहुत इधर-उधर दौड़े, अंत में ईश्‍वर और भाग्‍य के ऊपर छोड़कर बैठ रहे। तीसरा वर्ष भी व्‍यतीत हो गया।

“मेरी अवस्‍था उस समय 14 वर्ष की हो चुकी थी; अब तक तो मैं निर्बोध बालिका थी। अब क्रमश: मुझे अपनी वास्‍तविक दशा का ज्ञान होने लगा। मेरा समय भी अहर्निश इसी चिंता में अब व्‍यतीत होने लगा। शरीर दिन-पर-दिन क्षीण होने लगा। मेरे देवतुल्‍य पिता ने यह बात जानी। वे सदा मेरे दु:ख भुलाने का यत्‍न करते रहते थे। अपने पास बैठाकर रामायण आदि की कथा सुनाया करते थे। पिता अब वृद्ध होने लगे; दिवारात्रि की चिंता ने उन्‍हें और भी वृद्ध बना दिया। घर के समस्‍त कार्य-संपादन का भार मेरे बड़े भाई के ऊपर पड़ा। उनकी स्‍त्री का स्‍वभाव बड़ा क्रूर था। कुछ दिन तक तो किसी प्रकार चला। अंत में वह मुझसे डाह करने लगी और कष्‍ट देना प्रारम्‍भ किया, मैं चुपचाप सब सहन करती थी। धीरे-धीरे आश्‍वास-वाक्‍य के स्‍थान पर वह तीक्ष्‍ण वचनों से मेरा चित्त्‍ अधिक दु:खाने लगी। यदि कभी मैं अपने भाई से निवेदन करती तो वे भी कुछ न बोलते; आनाकानी कर जाते और मेरे पिता की, वृद्धावस्‍था के कारण, कुछ नहीं चल सकती थी। मेरे दु:ख को समझने वाला वहाँ कोई नहीं देख पड़ता था। मेरी माता का पहिले ही परलोकवास हो चुका था। मुझे अपनी दशा पर बड़ा दु:ख हुआ। हा! मेरा स्‍वामी यदि इस समय होता तो क्‍या मेरी यही दशा होती? पिता के घर क्‍या इन्‍हीं वचनों द्वारा मेरा सत्‍कार किया जाता। यही सब विचार करके मेरा हृदय फटने लगता था। अब क्रमश: मेरा हृदय मेघाच्‍छन्‍न होने लगा। मुझे संसार शून्‍य दिखाई देने लगा। एकांत में बैठकर मैं अपनी अवस्‍था पर अश्रुवर्षण करती। उसमें भी यह भय लगा रहता कि कहीं भौजाई न पहुँच जाए। एक दिन उसने मुझे इसी अवस्‍था में पाया तो तुरंत व्‍यंग्‍य-वचनों द्वारा आश्‍वासन देने लगी। मेरा शोकार्त्त हृदय अग्निशिखा की भाँति प्रज्‍वलित हो उठा; किंतु मौनावलम्‍बन के सिवा अन्‍य उपाय ही क्‍या था? दिन-दिन मुझे यह दु:ख असह्य होने लगा। एक रात्रि को मैं उठी। किसी से कुछ न कहा और सूर्योदय के प्रथम ही अपने पिता का गृह मैंने परित्‍याग किया।

“मैं अब यह नहीं कह सकती कि उस समय मेरा क्‍या विचार था। मुझे एक बेर अपने पति के स्‍थान को देखने की लालसा हुई। दु:ख और शोक से मेरी दशा उन्‍मत्त की-सी हो गई थी। संसार में मैंने दृष्टि उठा के देखा तो मुझे और कुछ न दिखलाई दिया। केवल चारों ओर दु:ख! सैकड़ों कठिनाइयाँ झेलकर अंत में मैं इस स्‍थान तक आ पहुँची। उस समय मेरी अवस्‍था केवल 16 वर्ष की थी। मैंने इस स्‍थान को उस समय भी प्राय: इसी दशा में पाया था। यहाँ आने पर मुझे कई चिह्न ऐसे मिले, जिनसे मुझे यह निश्‍चय हो गया कि चंद्रशेखर मिश्र का घर यही है। इस स्‍थान को देखकर मेरे आर्त्त हृदय पर बड़ा कठोर आधात पहुँचा।”

इतना कहते-कहते हृदय के आवेग ने शब्‍दों को उसके हृदय ही में बंदी कर रखा; बाहर प्रकट होने न दिया। क्षणिक पर्यंत वह चुप रही; सिर नीचा किए भूमि की ओर देखती रही। इधर मेरे मित्र की दशा कुछ और ही हो रही थी; लिखित चित्र की भाँति बैठे वे एकटक ताक रहे थे; इंद्रियाँ अपना कार्य उस समय भूल गयी थीं। स्‍त्री ने फिर कहना आरम्‍भ किया –

“इस स्‍थान को देख मेरा चित्त बहुत दग्‍ध हुआ। हा! यदि ईश्‍वर चाहता तो किसी दिन मैं इसी गृह की स्‍वामिनी होती। आज ईश्‍वर ने मुझको उसे इस अवस्‍था में दिखलाया। उसके आगे किसका वश है? अनुसंधान करने पर मुझे दो कोठरियाँ मिलीं जो सर्वप्रकार से रक्षित और मनुष्‍य की दृष्टि से दुर्भेद्य थीं। लगभग चारों ओर मिट्टी पड़ जाने के कारण किसी को उनकी स्थिति का संदेह नहीं हो सकता था। मुझे बहुत-सी सामग्रियाँ भी इनमें प्राप्‍त हुईं जो मेरी तुच्‍छ आवश्‍यकता के अनुसार बहुत थीं। मुझे यह निर्जन स्‍थान अपने पिता के कष्‍टागार से प्रियतम प्रतीत हुआ। यहीं मेरे पति के बाल्‍यावस्‍था के दिन व्‍यतीत हुए थे। यही स्‍थान मुझे प्रिय है। यहीं मैं अपने दु:खमय जीवन का शेष भाग उसी करुणालय जगदीश्‍वर की, जिसने मुझे इस अवस्‍था में डाला, आराधना में बिताऊँगी। यही विचार मैंने स्थिर किया। ईश्‍वर को मैंने धन्‍यवाद दिया, जिसने ऐसा उपयुक्‍त स्‍थान मेरे लिए ढूँढ़कर निकाला। कदाचित् तुम पूछोगे कि इस अभागिनी ने अपने लिए इस प्रकार का जीवन क्‍यों उपयुक्‍त विचारा? तो उसका उत्तर है कि यह दुष्‍ट संसार भाँति-भाँति की वासनाओं से पूर्ण है, जो मनुष्‍य को उसके सत्‍य-पथ से विचलित कर देती हैं। दुष्‍ट और कुमार्गी लोगों के अत्‍याचार से बचा रहना भी कठिन कार्य है।”

इतना कहके वह स्‍त्री ठहर गयी। मेरे मित्र की ओर उसने देखा। वे कुछ मिनट तक काष्‍ठपुत्तलिका की भाँति बैठे रहे। अंत में एक लंबी ठंडी साँस भर के उन्‍होंने कहा, “ईश्‍वर ! यह स्‍वप्‍न है या प्रत्‍यक्ष?” स्‍त्री उनका यह भाव देख-देखकर विस्मित हो रही थी। उसने पूछा, “क्‍यों ! कैसा चित्त है?” मेरे मित्र ने अपने को सँभाला और उत्तर दिया, “तुम्‍हारी कथा का प्रभाव मेरे चित्त पर बहुत हुआ है; कृपा करके आगे कहो।”

स्‍त्री ने कहा, “मुझे अब कुछ कहना शेष नहीं है। आज पाँच वर्ष मुझे इस स्‍थान पर आए हुए; संसार में किसी मनुष्‍य को आज तक यह प्रकट नहीं हुआ। यहाँ प्रेतों के भय से कोई पदार्पण नहीं करता; इससे मुझे अपने को गोपन रखने में विशेष कठिनता नहीं पड़ती। संयोगवश रात्रि में किसी की दृष्टि यदि मुझ पर पड़ी भी तो चुड़ैल के भ्रम से मेरे निकट तक आने का किसी को साहस न हुआ। यह आज प्रथम ऐसा संयोग उपस्थित हुआ है; तुम्‍हारे साहस को मैं सराहती हूँ और प्रार्थना करती हूँ कि तुम अपने शपथ पर दृढ़ रहोगे। संसार में अब मैं प्रकट होना नहीं चाहती; प्रकट होने से मेरी बड़ी दुर्दशा होगी। मैं यहीं अपने पति के स्‍थान पर अपना जीवन शेष करना चाहती हूँ। इस संसार में अब मैं बहुत दिन न रहूँगी।”

मैंने देखा, मेरे मित्र का चित्त भीतर-ही-भीतर आकुल और संतप्‍त हो रहा था; हृदय का वेग रोककर उन्‍होंने प्रश्‍न किया, “क्‍यों ! तुम्‍हें अपने पति का कुछ स्‍मरण है?”

स्‍त्री के नेत्रों से अनर्गल वारिधारा प्रवाहित हुई। बड़ी कठिनतापूर्वक उसने उत्तर दिया, “मैं उस समय बालिका थी। विवाह के समय मैंने उन्‍हें देखा था। वह मूर्ति यद्यपि मेरे हृदय–मंदिर में विद्यमान है; प्रचण्‍ड काल भी उसको वहाँ से हटाने में असमर्थ है।”

मेरे मित्र ने कहा, “देवि ! तुमने बहुत कुछ रहस्‍य प्रकट किया; जो कुछ शेष है उसका वर्णन कर अब मैं इस कथा की पूर्ति करता हूँ।”

स्‍त्री विस्‍मयोत्‍फुल्‍ल लोचनों से मेरे मित्र की ओर निहारने लगी। मैं भी आश्‍चर्य से उन्‍हीं की ओर देखने लगा। उन्‍होंने कहना आरम्‍भ किया –

“इस आख्‍यायिका में यही ज्ञात होना शेष है कि चंद्रशेखर मिश्र के पुत्र की क्‍या दशा हुई। चंद्रशेखर मिश्र और उनकी पत्‍नी क्‍या हुए। सुनो, नाव पर मिश्र जी ने अपने पुत्र को अपने साथ ही बैठाया। नाव पर भीड़ अधिक हो जाने के कारण वह उनसे पृथक् हो गया। उन्‍होंने समझा कि वह नाव ही पर है; कोई चिंता नहीं। इधर मनुष्‍यों की धक्‍का-मुक्‍की से वह लड़का नाव पर से नीचे जा रहा। ठीक उसी समय मल्‍लाह ने नाव खोल दी। उसने कई बेर अपने पिता को पुकारा; किंतु लोगों के कोलाहल में उन्‍हें कुछ सुनाई न दिया। नाव चली गयी। बालक वहीं खड़ा रह गया और लोग किसी प्रकार अपना-अपना प्राण लेके इधर-उधर भागे। नीचे भयानक जलप्रवाह; ऊपर अनन्‍त आकाश। लड़के ने एक छप्‍पर को बहते हुए अपनी ओर आते देखा; तुरंत वह उसी पर बैठ गया। इतने में जल का एक बहुत ऊँचा प्रबल झोंका आया। छप्‍पर लड़के सहित शीघ्र गति से बहने लगा। वह चुपचाप मूर्तिवत् उसी पर बैठा रहा। उसे यह ध्‍यान नहीं कि इस प्रकार कै दिन तक वह बहता गया। वह भय और दुविधा से संज्ञाहीन हो गया था। संयोगवश एक व्‍यापारी की नाव, जिस पर रूई लदी थी, पूरब की ओर जा रही थी। नौका का स्‍वामी भी बजरे ही पर था। उसकी दृष्टि उस लड़के पर पड़ी। वह उसे नाव पर ले गया। लड़के की अवस्‍था उस समय मृतप्राय थी। अनेक यत्‍न के उपरांत वह होश में लाया गया। उस सज्‍जन ने लड़के की नाव पर बड़ी सेवा की। नौका बराबर चलती रही; बीच में कहीं न रुकी; कई दिनों के उपरांत कलकत्ते पहुँची।

“वह बंगाली सज्‍जन उस लड़के को अपने घर पर ले गया और उसे उसने अपने परिवार में सम्मिलित किया। बालक ने अपने माता-पिता के देखने की इच्‍छा प्रकट की। उसने उसे बहुत समझाया और शीघ्र अनुसंधान करने का वचन दिया। लड़का चुप हो रहा।

“इसी प्रकार कई मास व्‍यतीत हो गए। क्रमश: वह अपने पास के लोगों में हिल-मिल गया। बंगाली महाशय के एक पुत्र था। दोनों में भ्रातृ–स्‍नेह स्‍थापित हो गया। वह सज्‍जन उस लड़के के भावी हित की चेष्‍टा में तत्‍पर हुआ। ईस्‍ट इंडिया कंपनी के स्‍थापित किए हुए एक अँग्रेजी स्‍कूल में अपने पुत्र के साथ-साथ उसे भी वह शिक्षा देने लगा। क्रमश: उसे अपने घर का ध्‍यान कम होने लगा। वह दत्तचित्त होकर शिक्षा में अपना सारा समय देने लगा। इसी बीच कई वर्ष व्‍यतीत हो गए। उसके चित्त में अब अन्‍य प्रकार के विचारों ने निवास किया। अब पूर्व परिचित लोगों के ध्‍यान के लिए उसके मन में कम स्‍थान शेष रहा। मनुष्‍य का स्‍वभाव ही इस प्रकार का है। नौ वर्ष का समय निकल गया।

“इसी बीच में एक बड़ी चित्ताकर्षक घटना उपस्थित हुई। बंगदेशी सज्‍जन के उस पुत्र का विवाह हुआ। चंद्रशेखर का पुत्र भी उस समय वहाँ उपस्थित था। उसने सब देखा; दीर्घकाल की निद्रा भंग हुई। सहसा उसे ध्‍यान हो आया, ‘मेरा भी विवाह हुआ है; अवश्‍य हुआ है।’ उसे अपने विवाह का बारम्‍बार ध्‍यान आने लगा। अपनी पाणिग्रहीता भार्या का भी उसे स्‍मरण हुआ। स्‍वदेश में लौटने को उसका चित्त आकुल होने लगा। रात्रि-दिन इसी चिंता में व्‍यतीत होने लगे।

हमारे कतिपय पाठक हम पर दोषारोपण करेंगे कि ‘हैं! न कभी साक्षात् हुआ, न वार्तालाप हुआ, न लंबी-लंबी कोर्टशिप हुई; यह प्रेम कैसा?’ महाशय, रुष्‍ट न हूजिये। इस अदृष्‍ट प्रेम का धर्म और कर्तव्‍य से घनिष्‍ठ संबंध है। इसकी उत्‍पत्ति केवल सदाशय और नि:स्‍वार्थ हृदय में ही हो सकती है। इसकी जड़ संसार के और प्रकार के प्रचलित प्रेमों से दृढ़तर और अधिक प्रशस्‍त है। आपको संतुष्‍ट करने को मैं इतना और कहे देता हूँ कि इंग्‍लैंड के भूतपूर्व प्रधानमंत्री लार्ड बेकन्‍सफील्‍ड का भी यही मत था।

“युवक का चित्त अधिक डाँवाडोल होने लगा। एक दिन उसने उस देवतुल्‍य सज्‍जन पुरुष से अपने चित्त की अवस्‍था प्रकट की और बहुत विनय के साथ विदा माँगी। आज्ञा पाकर उसने स्‍वदेश की ओर यात्रा की, देश में आने पर उसे विदित हुआ कि ग्राम में अब कोई नहीं है। उसने लोगों से अपने पिता-माता के विषय में पूछताछ किया। कुछ थोड़े दिन हुए वे दोनों इस नगर में थे; और अब वे तीर्थ-स्‍थानों में देशाटन कर रहे हैं। वह अपनी धर्मपत्‍नी के दर्शनों की अभिलाषा से सीधे काशी गया। वहाँ तुम्‍हारे पिता के घर का वह अनुसंधान करने लगा। बहुत दिनों के पश्‍चात् तुम्‍हारे ज्‍येष्‍ठ भ्राता से उसका साक्षात् हुआ, जिससे तुम्‍हारे संसार से सहसा लोप हो जाने की बात ज्ञात हुई। वह निराश होकर संसार में घूमने लगा।”

इतना कहकर मेरे मित्र चुप हो रहे। इधर शेष भाग सुनने को हम लोगों का चित्त ऊब रहा था; आश्‍चर्य से उन्‍हीं की ओर हम ताक रहे थे। उन्‍होंने फिर उस स्‍त्री की ओर देखकर कहा, “कदाचित् तुम पूछोगी, कि इस समय अब वह कहाँ है? यह वही अभागा मनुष्‍य तुम्‍हारे सम्‍मुख बैठा है।”

हम दोनों के शरीर में बिजुली-सी दौड़ गयी; वह स्‍त्री भूमि पर गिरने लगी; मेरे मित्र ने दौड़कर उसको सँभाला। वह किसी प्रकार उन्‍हीं के सहारे बैठी। कुछ क्षण के उपरांत उसने बहुत धीमे स्‍वर से मेरे मित्र से कहा, “अपना हाथ दिखाओ।”

उन्‍होंने चट अपना हाथ फैला दिया, जिस पर एक काला तिल दिखाई दिया। स्‍त्री कुछ काल तक उसी की ओर देखती रही; फिर मुख ढाँपकर सिर नीचा करके बैठी रही। लज्‍जा का प्रवेश हुआ। क्‍योंकि यह एक हिंदू-रमणी का उसके पति के साथ प्रथम संयोग था।

आज इतने दिनों के उपरांत मेरे मित्र का गुप्‍त रहस्‍य प्रकाशित हुआ। उस रात्रि को मैं अपने मित्र का खँडहर में अतिथि रहा। सवेरा होते ही हम सब लोग प्रसन्‍नचित्त नगर में आए।

(1903)

 

कविता क्या है ? [आलोचनात्मक निबंध[

विता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है. सृष्टि के पदार्थ या व्यापार-विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है मानो वे पदार्थ या व्यापार-विशेष नेत्रों के सामने नाचने लगते हैं. वे मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं. उनकी उत्तमता या अनुत्तमता का विवेचन करने में बुद्धि से काम लेने की जरूरत नहीं पड़ती. कविता की प्रेरणा से मनोवेगों के प्रवाह जोर से बहने लगते हैं. तात्पर्य यह कि कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है. यदि क्रोध, करूणा, दया, प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अन्तःकरण से निकल जाएँ तो वह कुछ भी नहीं कर सकता. कविता हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है. हम सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर मोहित होने लगते हैं. कोई अनुचित या निष्ठुर काम हमें असह्य होने लगता है. हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना अधिक होकर समस्त संसार में व्याप्त हो गया है.
कविता की प्रेरणा से कार्य में प्रवृत्ति बढ़ जाती है. केवल विवेचना के बल से हम किसी कार्य में बहुत कम प्रवृत्त होते हैं. केवल इस बात को जानकर ही हम किसी काम के करने या न करने के लिए प्रायः तैयार नहीं होते कि वह काम अच्छा है या बुरा, लाभदायक है या हानिकारक. जब उसकी या उसके परिणाम की कोई ऐसी बात हमारे सामने उपस्थित हो जाती है जो हमें आह्लाद, क्रोध और करूणा आदि से विचलित कर देती है तभी हम उस काम को करने या न करने के लिए प्रस्तुत होते हैं. केवल बुद्धि हमें काम करने के लिए उत्तेजित नहीं करती. काम करने के लिए मन ही हमको उत्साहित करता है. अतः कार्य-प्रवृत्ति के लिए मन में वेग का आना आवश्यक है. यदि किसी से कहा जाये कि अमुक देश तुम्हारा इतना रुपया प्रतिवर्ष उठा ले जाता है, इसी से तुम्हारे यहाँ अकाल और दारिद्र्य बना रहता है? तो सम्भव है कि उस पर कुछ प्रभाव न पड़े. पर यदि दारिद्र्य और अकाल का भीषण दृश्य दिखाया जाए, पेट की ज्वाला से जले हुए प्राणियों के अस्थिपंजर सामने पेश किए जाएँ, और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई माता का आर्त्तस्वर सुनाया जाए तो वह मनुष्य क्रोध और करूणा से विह्वल हो उठेगा और इन बातों को दूर करने का यदि उपाय नहीं तो संकल्प अवश्य करेगा. पहले प्रकार की बात कहना राजनीतिज्ञ का काम है और पिछले प्रकार का दृश्य दिखाना, कवि का कर्तव्य है. मानव-हृदय पर दोनों में से किसका अधिकार अधिक हो सकता है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं.

कविता के द्वारा हम संसार के सुख, दुःख, आनन्द और क्लेश आदि यथार्थ रूप से अनुभव कर सकते हैं. किसी लोभी और कंजूस दुकानदार को देखिए जिसने लोभ के वशीभूत होकर क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि मनोविकारों को दबा दिया है. और संसार के सब सुखों से मुँह मोड़ लिया है. अथवा किसी महाक्रूर राजकर्मचारी के पास जाइए जिसका हृदय पत्थर के समान जड़ और कठोर हो गया है, जिसे दूसरे के दुःख और क्लेश का अनुभव स्वप्न में भी नहीं होता. ऐसा करने से आपके मन में यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि क्या इनकी भी कोई दवा है. ऐसे हृदयों को द्रवीभूत करके उन्हें अपने स्वाभाविक धर्म पर लाने का सामर्थ्य काव्य ही में है. कविता ही उस दुकानदार की प्रवृत्ति भौतिक और आध्यात्मिक सृष्टि के सौन्दर्य की ओर ले जाएगी, कविता ही उसका ध्यान औरों की आवश्यकता की ओर आकर्षित करेगी और उनकी पूर्ति करने की इच्छा उत्पन्न करेगी, कविता ही उसे उचित अवसर पर क्रोध, दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि सिखावेगी. इसी प्रकार उस राजकर्मचारी के सामने कविता ही उसके कार्यों का प्रतिबिम्ब खींचकर रक्खेगी और उनकी जघन्यता और भयंकरता का आभास दिखलावेगी, तथा दैवी किंवा अन्य मनुष्यों द्वारा पहुँचाई हुई पीड़ा और क्लेश के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंश को दिखलाकर उसे दया दिखाने की शिक्षा देगी.

प्रायः लोग कहा करते हैं कि कविता का अन्तिम उद्देश्य मनोरंजन है. पर मेरी समझ में मनोरंजन उसका अन्तिम उद्देश्य नहीं है. कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है, पर इसके सिवा कुछ और भी होता है. मनोरंजन करना कविता का प्रधान गुण है. इससे मनुष्य का चित्त एकाग्र हो जाता है, इधर-उधर जाने नहीं पाता. यही कारण है कि नीति और धर्म-सम्बन्धी उपदेश चित्त पर वैसा असर नहीं करते जैसा कि किसी काव्य या उपन्यास से निकली हुई शिक्षा असर करती है. केवल यही कहकर कि ‘परोपकार करो’ ‘सदैव सच बोलो’ ‘चोरी करना महापाप है’ हम यह आशा कदापि नहीं कर सकते कि कोई अपकारी मनुष्य परोपकारी हो जाएगा, झूठा सच्चा हो जाएगा, और चोर चोरी करना छोड़ देगा. क्योंकि पहले तो मनुष्य का चित्त ऐसी शिक्षा ग्रहण करने के लिए उद्यत ही नहीं होता, दूसरे मानव-जीवन पर उसका कोई प्रभाव अंकित हुआ न देखकर वह उनकी कुछ परवा नहीं करता. पर कविता अपनी मनोरंजक शक्ति के द्वारा पढ़ने या सुनने वाले का चित्त उचटने नहीं देती, उसके हृदय आदि अत्यन्त कोमल स्थानों को स्पर्श करती है, और सृष्टि में उक्त कर्मों के स्थान और सम्बन्ध की सूचना देकर मानव जीवन पर उनके प्रभाव और परिणाम को विस्तृत रूप से अंकित करके दिखलाती है. इन्द्रासन खाली कराने का वचन देकर, हूर और गिलमा का लालच दिखाकर, यमराज का स्मरण दिलाकर और दोजख़ की जलती हुई आग की धमकी देकर हम बहुधा किसी मनुष्य को सदाचारी और कर्तव्य-परायण नहीं बना सकते. बात यह है कि इस तरह का लालच या धमकी ऐसी है जिससे मनुष्य परिचित नहीं और जो इतनी दूर की है कि उसकी परवा करना मानव-प्रकृति के विरुद्ध है. सदा-चार में एक अलौकिक सौन्दर्य और माधुर्य होता है. अतः लोगों को सदाचार की ओर आकर्षित करने का प्रकृत उपाय यही है कि उनको उसका सौन्दर्य और माधुर्य दिखाकर लुभाया जाए, जिससे वे बिना आगा पीछा सोचे मोहित होकर उसकी ओर ढल पड़ें.मन को हमारे आचार्यों ने ग्यारहवीं इन्द्रिय माना है. उसका रञ्जन करना और उसे सुख पहुँचाना ही यदि कविता का धर्म माना जाए तो कविता भी केवल विलास की सामग्री हुई. परन्तु क्या हम कह सकते हैं कि वाल्मीकि का आदि-काव्य, तुलसीदास का रामचरितमानस, या सूरदास का सूरसागर विलास की सामग्री है? यदि इन ग्रन्थों से मनोरंजन होगा तो चरित्र-संशोधन भी अवश्य ही होगा. खेद के साथ कहना पड़ता है कि हिन्दी भाषा के अनेक कवियों ने श्रृंगार रस की उन्माद कारिणी उक्तियों से साहित्य को इतना भर दिया है कि कविता भी विलास की एक सामग्री समझी जाने लगी है. पीछे से तो ग्रीष्मोपचार आदि के नुस्खे भी कवि लोग तैयार करने लगे. ऐसी शृंगारिक कविता को कोई विलास की सामग्री कह बैठे तो उसका क्या दोष? सारांश यह कि कविता का काम मनोरंजन ही नहीं, कुछ और भी है.

चरित्र-चित्रण द्वारा जितनी सुगमता से शिक्षा दी जा सकती है उतनी सुगमता से किसी और उपाय द्वारा नहीं. आदि-काव्य रामायण में जब हम भगवान रामचन्द्र के प्रतिज्ञा-पालन, सत्यव्रताचरण और पितृभक्ति आदि की छटा देखते हैं, भारत के सर्वोच्च स्वार्थत्याग और सर्वांगपूर्ण सात्विक चरित्र का अलौकिक तेज देखते हैं, तब हमारा हृदय श्रद्धा, भक्ति और आश्चर्य से स्तम्भित हो जाता है. इसके विरुद्ध जब हम रावण को दुष्टता और उद्दंडता का चित्र देखते हैं तब समझते हैं कि दुष्टता क्या चीज है और उसका प्रभाव और परिणाम सृष्टि में क्या है. अब देखिए कविता द्वारा कितना उपकार होता है. उसका काम भक्ति, श्रद्धा, दया, करूणा, क्रोध और प्रेम आदि मनोवेगों को तीव्र और परिमार्जित करना तथा सृष्टि की वस्तुओं और व्यापारों से उनका उचित और उपयुक्त सम्बन्ध स्थिर करना है.

कविता मनुष्य के हृदय को उन्नत करती है और उसे उत्कृष्ट और अलौकिक पदार्थों का परिचय कराती है जिनके द्वारा यह लोक देवलोक और मनुष्य देवता हो सकता है.कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है. चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता अवश्य ही होगी. इसका क्या कारण है? बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फंसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता जाती रहने का डर रहता है. अतएव मानुषी प्रकृति को जागृत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है. कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पावे. जानवरों को इसकी जरूरत नहीं. हमने किसी उपन्यास में पढ़ा है कि एक चिड़चिड़ा बनिया अपनी सुशीला और परम रुपवती पुत्रवधू को अकारण निकालने पर उद्यत हुआ. जब उसके पुत्र ने अपनी स्त्री की ओर से कुछ कहा तब वह चिढ़कर बोला, ‘चल चल! भोली सूरत पर मरा जाता है’ आह! यह कैसा अमानुषिक बर्ताव है! सांसारिक बन्धनों में फंसकर मनुष्य का हृदय कभी-कभी इतना कठोर और कुंठित हो जाता है कि उसकी चेतनता – उसका मानुषभाव – कम हो जाता है. न उसे किसी का रूप माधुर्य देखकर उस पर उपकार करने की इच्छा होती है, न उसे किसी दीन दुखिया की पीड़ा देखकर करूणा आती है, न उसे अपमानसूचक बात सुनकर क्रोध आता है. ऐसे लोगों से यदि किसी लोमहर्षण अत्याचार की बात कही जाए तो, मनुष्य के स्वाभाविक धर्मानुसार, वे क्रोध या घृणा प्रकट करने के स्थान पर रूखाई के साथ यही कहेंगे – “जाने दो, हमसे क्या मतलब, चलो अपना काम देखो.” याद रखिए, यह महा भयानक मानसिक रोग है. इससे मनुष्य जीते जी मृतवत् हो जाता है. कविता इसी मरज़ की दवा है.

कविता सृष्टि-सौन्दर्य का अनुभव कराती है और मनुष्य को सुन्दर वस्तुओं में अनुरक्त करती है. जो कविता रमणी के रूप माधुर्य से हमें आह्लादित करती है वही उसके अन्तःकरण की सुन्दरता और कोमलता आदि की मनोहारिणी छाया दिखा कर मुग्ध भी करती है. जिस बंकिम की लेखनी ने गढ़ के ऊपर बैठी हुई राजकुमारी तिलोत्तमा के अंग प्रत्यंग की शोभा को अंकित किया है उसी ने आयशा के अन्तःकरण की अपूर्व सात्विकी ज्योति दिखा कर पाठकों को चमत्कृत किया है. भौतिक सौन्दर्य के अवलोकन से हमारी आत्मा को जिस प्रकार सन्तोष होता है उसी प्रकार मानसिक सौन्दर्य से भी. जिस प्रकार वन, पर्वत, नदी, झरना आदि से हम प्रफुल्लित होते हैं, उसी प्रकार मानवी अन्तःकरण में प्रेम, दया, करुणा, भक्ति आदि मनोवेगों के अनुभव से हम आनंदित होते हैं. और यदि इन दोनों पार्थिव और अपार्थिव सौन्दर्यों का कहीं संयोग देख पड़े तो फिर क्या कहना है. यदि किसी अत्यन्त सुन्दर पुरुष या अत्यन्त रूपवती स्त्री के रूप मात्र का वर्णन करके हम छोड़ दें तो चित्र अपूर्ण होगा, किन्तु यदि हम साथ ही उसके हृदय की दृढ़ता और सत्यप्रियता अथवा कोमलता और स्नेह-शीलता आदि की भी झलक दिखावें तो उस वर्णन में सजीवता आ जाएगी. महाकवियों ने प्रायः इन दोनों सौन्दर्यों का मेल कराया है जो किसी किसी को अस्वाभाविक प्रतीत होता है. किन्तु संसार में प्राय- देखा जाता है कि रूपवान् जन सुशील और कोमल होते हैं और रूपहीन जन क्रूर और दुःशील. इसके सिवा मनुष्य के आंतरिक भावों का प्रतिबिम्ब भी चेहरे पर पड़कर उसे रुचिर या अरुचिर बना देता है. पार्थिव सौन्दर्य का अनुभव करके हम मानसिक अर्थात् अपार्थिव सौन्दर्य की ओर आकर्षित होते हैं. अतएव पार्थिव सौन्दर्य को दिखलाना कवि का प्रधान कर्म है.

जो लोग स्वार्थवश व्यर्थ की प्रशंसा और खुशामद करके वाणी का दुरुपयोग करते हैं वे सरस्वती का गला घोंटते हैं. ऐसी तुच्छ वृत्ति वालों को कविता न करना चाहिए. कविता का उच्चाशय, उदार और निःस्वार्थ हृदय की उपज है. सत्कवि मनुष्य मात्र के हृदय में सौन्दर्य का प्रवाह बहाने वाला है. उसकी दृष्टि में राजा और रंक सब समान हैं. वह उन्हें मनुष्य के सिवा और कुछ नहीं समझता. जिस प्रकार महल में रहने वाले बादशाह के वास्तविक सद् गुणों की वह प्रशंसा करता है उसी प्रकार झोंपड़े में रहने वाले किसान के सद् गुणों की भी. श्रीमानों के शुभागमन की कविता लिखना, और बात बात पर उन्हें बधाई देना सत्कवि का काम नहीं. हाँ जिसने निःस्वार्थ होकर और कष्ट सहकर देश और समाज की सेवा की है, दूसरों का हित साधन किया है, धर्म का पालन किया है, ऐसे परोपकारी महात्मा का गुण गान करना उसका कर्तव्य है.

मनुष्य स्वभाव ही से प्राचीन पुरुषों और वस्तुओं को श्रद्धा की दृष्टि से देखता है. पुराने शब्द हम लोगों को मालूम ही रहते हैं. इसी से कविता में कुछ न कुछ पुराने शब्द आ ही जाते हैं. उनका थोड़ा बहुत बना रहना अच्छा भी है. वे आधुनिक और पुरातन कविता के बीच सम्बन्ध सूत्र का काम देते हैं. हिन्दी में ‘राजते हैं’ ‘गहते हैं’ ‘लहते हैं’ ‘सरसाते हैं’ आदि प्रयोगों का खड़ी बोली तक की कविता में बना रहना कोई अचम्भे की बात नहीं. अँग्रेज़ी कविता में भी ऐसे शब्दों का अभाव नहीं जिनका व्यवहार बहुत पुराने जमाने से कविता में होता आया है. ‘Main’ ‘Swain’ आदि शब्द ऐसे ही हैं. अंग्रेज़ी कविता समझने के लिए इनसे परिचित होना पड़ता है. पर ऐसे शब्द बहुत थोड़े आने चाहिए, वे भी ऐसे जो भद्दे और गंवारू न हों. खड़ी बोली में संयुक्त क्रियाएँ बहुत लंबी होती हैं, जैसे – “लाभ करते हैं,” “प्रकाश करते हैं” आदि. कविता में इनके स्थान पर “लहते हैं” “प्रकाशते हैं” कर देने से कोई हानि नहीं, पर यह बात इस तरह के सभी शब्दों के लिए ठीक नहीं हो सकती.

कविता में कही गई बात हृत्पटल पर अधिक स्थायी होती है. अतः कविता में प्रत्यक्ष और स्वभावसिद्ध व्यापार-सूचक शब्दों की संख्या अधिक रहती है. समय बीता जाता है, कहने की अपेक्षा, समय भागा जाता है कहना अधिक काव्य सम्मत है. किसी काम से हाथ खींचना, किसी का रुपया खा जाना, कोई बात पी जाना, दिन ढलना, मन मारना, मन छूना, शोभा बरसना आदि ऐसे ही कवि-समय-सिद्ध वाक्य हैं जो बोल-चाल में आ गए हैं. नीचे कुछ पद्य उदाहरण-स्वरूप दिए जाते हैं –

(क) धन्य भूमि वन पंथ पहारा ।
जहँ जहँ नाथ पाँव तुम धारा ।। -तुलसीदास
(ख) मनहुँ उमगि अंग अंग छवि छलकै ।। -तुलसीदास, गीतावलि
(ग) चूनरि चारु चुई सी परै चटकीली रही अंगिया ललचावे
(घ) वीथिन में ब्र में नवेलिन में बेलिन में बनन में बागन में बगरो बसंत है। -पद्माकर
(ङ) रंग रंग रागन पै, संग ही परागन पै, वृन्दावन बागन पै बसंत बरसो परै।

बहुत से ऐसे शब्द हैं जिनसे एक ही का नहीं किन्तु कई क्रियाओं का एक ही साथ बोध होता है. ऐसे शब्दों को हम जटिल शब्द कह सकते हैं. ऐसे शब्द वैज्ञानिक विषयों में अधिक आते हैं. उनमें से कुछ शब्द तो एक विलक्षण ही अर्थ देते हैं और पारिभाषिक कहलाते हैं. विज्ञानवेत्ता को किसी बात की सत्यता या असत्यता के निर्णय की जल्दी रहती है. इससे वह कई बातों को एक मानकर अपना काम चलाता है, प्रत्येक काम को पृथक पृथक दृष्टि से नहीं देखता. यही कारण है जो वह ऐसे शब्द अधिक व्यवहार करता है जिनसे कई क्रियाओं से घटित एक ही भाव का अर्थ निकलता है. परन्तु कविता प्राकृतिक व्यापारों को कल्पना द्वारा प्रत्यक्ष कराती है- मानव-हृदय पर अंकित करती है. अतएव पूर्वोक्त प्रकार के शब्द अधिक लाने से कविता के प्रसाद गुण की हानि होती है और व्यक्त किए गए भाव हृदय पर अच्छी तरह अंकित नहीं होते. बात यह है कि मानवी कल्पना इतनी प्रशस्त नहीं कि एक दो बार में कई व्यापार उसके द्वारा हृदय पर स्पष्ट रीति से खचित हो सकें. यदि कोई ऐसा शब्द प्रयोग में लाया गया जो कई संयुक्त व्यापारों का बोधक है तो सम्भव है, कल्पना शक्ति किसी एक व्यापार को भी न ग्रहण कर सके, अथवा तदन्तर्गत कोई ऐसा व्यापार प्रगट करे जो मानवी प्रकृति का उद्दीपक न हो. तात्पर्य यह कि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग, तथा ऐसे शब्दों का समावेश जो कई संयुक्त व्यापारों की सूचना देते हैं, कविता में वांछित नहीं.

किसी ने ‘प्रेम फ़ौजदारी’ नाम की श्रृंगार-रस-विशिष्ट एक छोटी-सी कविता अदालती काररवाइयों पर घटा कर लिखी है और उसे ‘एक तरफा डिगरी’ आदि क़ानूनी शब्दों से भर दिया है. यह उचित नहीं. कविता का उद्देश्य इसके विपरीत व्यवहार से सिद्ध होता है. जब कोई कवि किसी दार्शनिक सिद्धान्त को अधिक प्रभावोत्पादक बना कर उसे लोगों के चित्त पर अंकित करना चाहता है तब वह जटिल और पारिभाषिक शब्दों को निकाल कर उसे अधिक प्रत्यक्ष और मर्म स्पर्शी रुप देता है. भर्तृहरि और गोस्वामी तुलसीदास आदि इस बात में बहुत निपुण थे. भर्तृहरि का एक श्लोक लीजिए-

तृषा शुष्य्तास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि
क्षुधार्त्तः संछालीन्कवलयति शाकादिवलितान्।
प्रदीप्ते रागाग्रौ सुदृढ़तरमाश्ल्ष्यिति वधूं
प्रतीकारो व्याधैः सुखमिति विपर्यस्यति जनः।।

भावार्थ – प्यासे होने पर स्वादिष्ट और सुगन्धित जल-पान, भूखे होने पर शाकादि के साथ चावलों का भोजन, और हृदय में अनुरागाग्नि के प्रज्वलित होने पर प्रियात्मा का आलिंगन करन वाले मनुष्य विलक्षण मूर्ख हैं. क्योंकि प्यास आदि व्याधियों की शान्ति के लिए जल-पान आदि प्रतीकारों ही को वे सुख समझते हैं. वे नहीं जानते कि उनका यह उपचार बिलकुल ही उलटा है.

देखिए, यहाँ पर कवि ने कैसी विलक्षण उक्ति के द्वारा मनुष्य की सुखःदुख विषयक बुद्धि की भ्रामिकता दिखलाई है.

अंग्रेज़ों में भी पोप कवि इस विषय में बहुत सिद्धहस्त था. नीचे उसका एक साधारण सिद्धान्त लिखा जाता है-

“भविष्यत् में क्या होने वाला है, इस बात की अनभिज्ञता इसलिए दी गई है जिसमें सब लोग, आने वाले अनिष्ट की शंका से, उस अनिष्ट घटना के पूर्ववर्ती दिनों के सुख को भी न खो बैठें.”

इसी बात को पोप कवि इस तरह कहता है-

The lamb thyariot dooms to bleed to day
Had he thy reason would he skip and play?
Pleased to the last he crops the flow’ry food
And licks the hand just raised to shed his blood.
The blindness to the future kindly given. Essay on man.

भावार्थ – उस भेड़ के बच्चे को, जिसका तू आज रक्त बहाना चाहता है, यदि तेरा ही सा ज्ञान होता तो क्या वह उछलता कूदता फिरता? अन्त तक वह आनन्दपूर्वक चारा खाता है और उस हाथ को चाटता है जो उसका रक्त बहाने के लिए उठाया गया है. … भविष्यत् का अज्ञान हमें (ईश्वर ने) बड़ी कृपा करके दिया है.

‘अनिष्ट’ शब्द बहुत व्यापक और संदिग्ध है, अतः कवि मृत्यु ही को सबसे अधिक अनिष्ट वस्तु समझता है. मृत्यु की आशंका से प्राणिमात्र का विचलित होना स्वाभाविक है. कवि दिखलाता है कि परम अज्ञानी पशु भी मृत्यु सिर पर नाचते रहते भी सुखी रहता है. यहाँ तक कि वर प्रहारकर्ता के हाथ को चाटता जाता है. यह एक अद्भुत और मर्मस्पर्शी दृश्य है. पूर्वोक्त सिद्धान्त को यहाँ काव्य का रूप प्राप्त हुआ है.

एक और साधारण सा उदाहरण लीजिए. “तुमने उससे विवाह किया” यह एक बहुत ही साधारण वाक्य है. पर “तुमने उसका हाथ पकड़ा” यह एक विशेष अर्थ-गर्भित और काव्योचित वाक्य है. ‘विवाह’ शब्द के अन्तर्गत बहुत से विधान हैं जिन सब पर कोई एक दफ़े दृष्टि नहीं डाल सकता. अतः उससे कोई बात स्पष्ट रूप से कल्पना में नहीं आती. इस कारण उन विधानों में से सबसे प्रधान और स्वाभाविक बात जो हाथ पकड़ना है उसे चुन कर कवि अपने अर्थ को मनुष्य के हृत्पटल पर रेखांकित करता है.

कविता की बोली और साधारण बोली में बड़ा अन्तर है. “शुष्को वृक्षस्तिष्ठत्यग्रे” और “नीरसतरुरिह विलसति पुरतः” वाली बात हमारी पण्डित मण्डली में बहुत दिन से चली आती है. भाव-सौन्दर्य और नाद-सौन्दर्य दोनों के संयोग से कविता की सृष्टि होती है. श्रुति-कटु मानकर कुछ अक्षरों का परित्याग, वृत्त-विधान और अन्त्यानुप्रास का बन्धन, इस नाद-सौन्दर्य के निबाहने के लिए है. बिना इसके कविता करना, अथवा केवल इसी को सर्वस्व मानकर कविता करने की कोशिश करना, निष्फल है. नाद-सौन्दर्य के साथ भाव-सौन्दर्य भी होना चाहिए. हिन्दी के कुछ पुराने कवि इसी नाद-सौन्दर्य के इतना पीछे पड़ गए थे कि उनकी अधिकांश कविता विकृत और प्रायः भावशून्य हो गई है. यह देखकर आजकल के कुछ समालोचक इतना चिढ़ गए हैं कि ऐसी कविता को एकदम निकाल बाहर करना चाहते हैं. किसी को अन्त्यानुप्रास का बन्धन खलता है, कोई गणात्मक द्वन्द्वों को देखकर नाक भौं चढ़ाता है, कोई फ़ारसी के मुखम्मस और रुबाई की ओर झुकता है. हमारी छन्दोरचना तक की कोई कोई अवहेलना करते हैं- वह छन्दो रचना जिसके माधुर्य को भूमण्डल के किसी देश का छन्द शास्त्र नहीं पा सकता और जो हमारी श्रुति-सुखदता के स्वाभाविक प्रेम के सर्वथा अनुकूल है. जो लोग अन्त्यानुप्रास की बिलकुल आवश्यकता नहीं समझते उनसे मुझे यही पूछना है कि अन्त्यानुप्रास ही पर इतना कोप क्यों? छन्द (Metre) और तुक (Rhyme) दोनों ही नाद-सौन्दर्य के उद्देश्य से रखे गए हैं. फिर क्यों एक को निकाला जाए दूसरे को नहीं? यदि कहा जाए कि सिर्फ छन्द से उस उद्देश्य की सिद्धि हो जाती है तो यह जानने की इच्छा बनी रहती है कि क्या कविता के लिए नाद-सौन्दर्य की कोई सीमा नियत है. यदि किसी कविता में भाव-सौन्दर्य के साथ नाद-सौन्दर्य भी वर्तमान हो तो वह अधिक ओजस्विनी और चिरस्थायिनी होगी. नाद-सौन्दर्य कविता के स्थायित्व का वर्धक है, उसके बल से कविता ग्रंथाश्रय-विहीन होने पर भी किसी न किसी अंश में लोगों की जिह्वा पर बनी रहती है. अतएव इस नाद-सौन्दर्य को केवल बन्धन ही न समझना चाहिए. यह कविता की आत्मा नहीं तो शरीर अवश्य है.

नाद-सौन्दर्य संबंधी नियमों को गणित-क्रिया समान काम में लाने से हमारी कविता में कहीं-कहीं बड़ी विलक्षणता आ गई है. श्रुति-कटु वर्णों का निर्देश इसलिए नहीं किया गया कि जितने अक्षर श्रवण-कटु हैं, वे एकदम त्याज्य समझे जाएँ और उनकी जगह पर श्रवण-सुखद वर्ण ढूंढ-ढूंढ कर रखे जाएँ. इस नियम-निर्देश का मतलब सिर्फ इतना ही है कि यदि मधुराक्षर वाले शब्द मिल सकें और बिना तोड़ मरोड़ के प्रसंगानुसार खप सकें तो उनके स्थान पर श्रुति-कर्कश अक्षर वाले शब्द न लाए जाएँ. संस्कृत से सम्बन्ध रखने वाली भाषाओं में इस नाद-सौन्दर्य का निर्वाह अधिकता से हो सकता है. अतः अंगरेज़ी आदि अन्य भाषाओं की देखा-देखी जिनमें इसके लिए कम जगह है, अपनी कविता को भी हमें इस विशेषता से वंचित कर देना बुद्धिमानी का काम नहीं. पर, याद रहे, सिर्फ श्रुति-मधुर अक्षरों के पीछे दीवाने रहना और कविता को अन्यान्य गुणों से भूषित न करना सबसे बड़ा दोष है. एक और विशेषता हमारी कविता में है. वह यह है कि कहीं कहीं व्यक्तियों के नामों के स्थान पर उनके रूप या कार्यबोधक शब्दों का व्यवहार किया जाता है. पद्य के नपे हुए चरणों के लिए शब्दों की संख्या का बढ़ाना ही इसका प्रयोजन जान पड़ता है, पर विचार करने से इसका इससे भी गुरूतर उद्देश्य प्रगट होता है. सच पूछिए तो यह बात कृत्रिमता बचाने के लिए की जाती है. मनुष्यों के नाम यथार्थ में कृत्रिम संकेत हैं जिनसे कविता की परिपोषकता नहीं होती. अतएव कवि मनुष्यों के नामों के स्थान पर कभी कभी उनके ऐसे रूप, गुण या व्यापार की ओर इशारा करता है जो स्वाभाविक होने के कारण सुनने वाले के ध्यान में अधिक आ सकते हैं और प्रसंग विशेष के अनुकूल होने से वर्णन की यथार्थता को बढ़ाते हैं. गिरिधर, मुरारि, त्रिपुरारि, दीनबन्धु, चक्रपाणि, दशमुख आदि शब्द ऐसे ही हैं. ऐसे शब्दों को चुनते समय प्रसंग या अवसर का ध्यान अवश्य रखना चाहिए. जैसे, यदि कोई मनुष्य किसी दुर्घर्ष अत्याचारी के हाथ से छुटकारा पाना चाहता हो तो उसके लिए – ‘हे गोपिकारमण!’ ‘हे वृन्दावनबिहारी!’ आदि कहकर कृष्ण को पुकारने की अपेक्षा ‘हे मुरारि!’ ‘हे कंसनिकंदन’ आदि सम्बोधनों से पुकारना अधिक उपयुक्त है. क्योंकि श्रीकृष्ण के द्वारा मुर और कंस आदि दुष्टों को मारा जाना देख कर उसे उनसे अपनी रक्षा की आशा हुई है न कि उनकी वृन्दावन में गोपियों के साथ विहार करना देख कर. इसी तरह किसी आपत्ति से उद्धार पाने के लिए कृष्ण को ‘मुरलीधर’ कह कर पुकारने की अपेक्षा ‘गिरिधर’ कहना अधिक तर्क-संगत है.

कविता में भाषा को खूब जोरदार बनाना पड़ता है- उसकी सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है. कल्पना को चटकीली करने और रस-परिपाक के लिए कभी कभी किसी वस्तु का गुण या आकार बहुत बढ़ाकर दिखाना पड़ता है और कभी घटाकर. कल्पना-तरंग को ऊँचा करने के लिए कभी कभी वस्तु के रूप और गुण को उसके समान रूप और धर्म वाली और वस्तुओं के सामने लाकर रखना पड़ता है. इस तरह की भिन्न भिन्न प्रकार की वर्णन-प्रणालियों का नाम अलंकार है. इनका उपयोग काव्य में प्रसंगानुसार विशेष रूप से होता है. इनसे वस्तु वर्णन में बहुत सहायता मिलती है. कहीं कहीं तो इनके बिना कविता का काम ही नहीं चल सकता. किन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि अलंकार ही कविता है. ये अलंकार बोलचाल में भी रोज आते रहते हैं. जैसे, लोग कहते हैं ‘जिसने शालग्राम को भून डाला उसे भंटा भूनते क्या लगता है?’ इसमें काव्यार्थापत्ति अलंकार है. ‘क्या हमसे बैर करके तुम यहाँ टिक सकते हो?’ इसमें वक्रोक्ति है.

कई वर्ष हुए ‘अलंकारप्रकाश’ नामक पुस्तक के कर्ता का एक लेख ‘सरस्वती’ में निकला था. उसका नाम था- ‘कवि और काव्य’. उसमें उन्होंने अलंकारों की प्रधानता स्थापित करते हुए और उन्हें काव्य का सर्वस्व मानते हुए लिखा था कि ‘आजकल के बहुत से विद्वानों का मत विदेशी भाषा के प्रभाव से काव्य विषय में कुछ परिवर्तित देख पड़ता है. वे महाशय सर्वलोकमान्य साहित्य-ग्रन्थों में विवेचन किए हुए व्यंग्य-अलंकार-युक्त काव्य को उत्कृष्ट न समझ केवल सृष्टि-वैचित्र्य वर्णन में काव्यत्व समझते हैं. यदि ऐसा हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या?’ रस और भाव ही कविता के प्राण हैं. पुराने विद्वान रसात्मक कविता ही को कविता कहते थे. अलंकारों को वे आवश्यकतानुसार वर्णित विषय को विशेषतया हृदयंगम करने के लिए ही लाते थे. यह नहीं समझा जाता था कि अलंकार के बिना कविता हो ही नहीं सकती. स्वयं काव्य-प्रकाश के कर्ता मम्मटाचार्य ने बिना अलंकार के काव्य का होना माना है और उदाहरण भी दिया है- “तददौषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि.” किन्तु पीछे से इन अलंकारों ही में काव्यत्व मान लेने से कविता अभ्यासगम्य और सुगम प्रतीत होने लगी. इसी से लोग उनकी ओर अधिक पड़े. धीरे-धीरे इन अलंकारों के लिए आग्रह होने लगा. यहाँ तक कि चन्द्रालोककार ने कह डाला कि-

अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती।
असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती।।

अर्थात् – जो अलंकार-रहित शब्द और अर्थ को काव्य मानता है वह अग्नि को उष्णता रहित क्यों नहीं मानता? परन्तु यथार्थ बात कब तक छिपाई जा सकती है. इतने दिनों पीछे समय ने अब पलटा खाया. विचारशील लोगों पर यह बात प्रगट हो गई कि रसात्मक वाक्यों ही का नाम कविता है और रस ही कविता की आत्मा है.

इस विषय में पूर्वोक्त ग्रंथकार महोदय को एक बात कहनी थी, पर उन्होंने नहीं कही. वे कह सकते थे कि सृष्टि-वैचित्र्य-वर्णन भी तो स्वभावोक्ति अलंकार है. इसका उत्तर यह है कि स्वभावोक्ति को अलंकार मानना उचित नहीं. वह अलंकारों की श्रेणी में आ ही नहीं सकती. वर्णन करने की प्रणाली का नाम अलंकार है. जिस वस्तु को हम चाहें उस प्रणाली के अन्तर्गत करके उसका वर्णन कर सकते हैं. किसी वस्तु-विशेष से उसका सम्बन्ध नहीं. यह बात अलंकारों की परीक्षा से स्पष्ट हो जाएगी. स्वभावोक्ति में वर्ण्य वस्तु का निर्देश है, पर वस्तु-निर्वाचन अलंकार का काम नहीं.

इससे स्वभावोक्ति को अलंकार मानना ठीक नहीं. उसे अलंकारों में गिनने वालों ने बहुत सिर खपाया है, पर उसका निर्दोष लक्षण नहीं कर सके. काव्य-प्रकाश के कारिकाकार ने उसका लक्षण लिखा है-

स्वभावोक्तिवस्तु डिम्भादेः स्वक्रियारुपवर्णनम्

अर्थात्- जिसमें बालकादिकों की निज की क्रिया या रूप का वर्णन हो वह स्वभावोक्ति है. बालकादिकों की निज की क्रिया या रूप का वर्णन हो वह स्वभावोक्ति है. बालकादिक कहने से किसी वस्तुविशेष का बोध तो होता नहीं. इससे यही समझा जा सकता है कि सृष्टि की वस्तुओं के व्यापार और रुप का वर्णन स्वभावोक्ति है. इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष के कारण अलंकारता नहीं आती. अलंकारसर्वस्व के कर्ता राजानक रूय्यक ने इसका यह लक्षण लिखा है-

सूक्ष्मवस्तु स्वभावयथावद्वर्णनं स्वभावोक्तिः।

अर्थात्- वस्तु के सूक्ष्म स्वभाव का ठीक-ठीक वर्णन करना स्वभावोक्ति है.

आचार्य दण्डी ने अवस्था की योजना करके यह लक्षण लिखा है-

नानावस्थं पदार्थनां रुपं साक्षाद्विवृण्वती।
स्वभावोक्तिश्च जातिश्चेत्याद्या सालंकृतिर्यथा।।

बात यह है कि स्वभावोक्ति अलंकार के अंतर्गत आ ही नहीं सकती, क्योंकि वह वर्णन की शैली नहीं, किन्तु वर्ण्य वस्तु या विषय है.

जिस प्रकार एक कुरूपा स्त्री अलंकार धारण करने से सुन्दर नहीं हो सकती उसी प्रकार अस्वाभाविक भद्दे और क्षुद्र भावों को अलंकार-स्थापना सुन्दर और मनोहर नहीं बना सकती. महाराज भोज ने भी अलंकार को ‘अलमर्थमलंकर्त्तुः’ अर्थात् सुन्दर अर्थ को शोभित करने वाला ही कहा है. इस कथन से अलंकार आने के पहले ही कविता की सुन्दरता सिद्ध है. अतः उसे अलंकारों में ढूंढना भूल है. अलंकारों से युक्त बहुत से ऐसे काव्योदाहरण दिए जा सकते हैं जिनको अलंकार के प्रेमीलोग भी भद्दा और नीरस कहने में संकोच न करेंगे. इसी तरह बहुत से ऐसे उदाहरण भी दिए जा सकते हैं जिनमें एक भी अलंकार नहीं, परंतु उनके सौन्दर्य और मनोरंजकत्व को सब स्वीकार करेंगे. जिन वाक्यों से मनुष्य के चित्त में रस संचार न हो – उसकी मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन न हो – वे कदापि काव्य नहीं. अलंकारशास्त्र की कुछ बातें ऐसी हैं, जो केवल शब्द चातुरी मात्र हैं. उसी शब्दकौशल के कारण वे चित्त को चमत्कृत करती हैं. उनसे रस-संचार नहीं होता. वे कान को चाहे चमत्कृत करें, पर मानव-हृदय से उनका विशेष सम्बन्ध नहीं. उनका चमत्कार शिल्पकारों की कारीगरी के समान सिर्फ शिल्प-प्रदर्शनी में रखने योग्य होता है.

अलंकार है क्या वस्तु? विद्वानों ने काव्यों के सुन्दर-सुन्दर स्थलों को पहले चुना. फिर उनकी वर्णन शैली से सौन्दर्य का कारण ढूंढा. तब वर्णन-वैचित्र्य के अनुसार भिन्न-भिन्न लक्षण बनाए. जैसे ‘विकल्प’ अलंकार को पहले पहल राजानक रुय्यक ने ही निकाला है. अब कौन कह सकता है कि काव्यों के जितने सुन्दर-सुन्दर स्थल थे सब ढूंढ डाले गए, अथवा जो सुन्दर समझे गए – जिन्हें लक्ष्य करने लक्षण बने- उनकी सुन्दरता का कारण कही हुई वर्णन प्रणाली ही थी. अलंकारों के लक्षण बनने तक काव्यों का बनना नहीं रुका रहा. आदि-कवि महर्षि वाल्मीकि ने – “मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः” का उच्चारण किसी अलंकार को ध्यान में रखकर नहीं किया. अलंकार लक्षणों के बनने से बहुत पहले कविता होती थी और अच्छी होती थी. अथवा यों कहना चाहिए की जब से इन अलंकारों को हठात् लाने का उद्योग होने लगा तबसे कविता कुछ बिगड़ चली.

(सरस्वती, 1909 में प्रथम प्रकाशित)

 

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