परिचय
मूल नाम : रामनरेश त्रिपाठी जन्म : 4 मार्च, 1881 भाषा : हिंदी विधाएँ : कविता, कहानी, संवाद, गीत, ग़ज़ल, नज़्म जीवनी
जन्म: 04 मार्च 1890
निधन: 16 जनवरी 1962 जन्म स्थान कोइरीपुर, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश, भारत कुछ प्रमुख कृतियाँ
‘मिलन’ (1918 ई.) ‘पथिक’ (1921 ई.) ‘मानसी’ (1927 ई.) ‘स्वप्न’ (1929 ई.)।, हंसू की हिम्मत, मोहनमाला, मोहन भोग, वानर संगीत, कविता विनोद, मोतीचूर के लड्डू
उपन्यास तथा नाटक
रामनरेश त्रिपाठी ने काव्य-रचना के अतिरिक्त उपन्यास तथा नाटक लिखे हैं, आलोचनाएँ की हैं और टीका भी। इनके तीन उपन्यास उल्लेखनीय हैं-
‘वीरागंना’ (1911 ई.), ‘वीरबाला’ (1911 ई.), ‘लक्ष्मी’ (1924 ई.) नाट्य कृतियाँ
तीन उल्लेखनीय नाट्य कृतियाँ हैं-
‘सुभद्रा’ (1924 ई.), ‘जयन्त’ (1934 ई.), ‘प्रेमलोक’ (1934 ई.) आलोचनात्मक कृतियों के रूप में इनकी दो पुस्तकें ‘तुलसीदास और उनकी कविता’ तथा ‘हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’ विचारणीय हैं। टीकाकार के रूप में अपनी ‘रामचरितमानस की टीका’ के कारण स्मरण किये जाते हैं। ‘तीस दिन मालवीय जी के साथ’ त्रिपाठी जी की उत्कृष्ट संस्मरणात्मक कृति है। विशेष
हे प्रभु आनंद-दाता
हे प्रभु आनंद-दाता ज्ञान हमको दीजिये,
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए, लीजिये हमको शरण में, हम सदाचारी बनें, निंदा किसी की हम किसी से भूल कर भी न करें, सत्य बोलें, झूठ त्यागें, मेल आपस में करें, जाये हमारी आयु हे प्रभु लोक के उपकार में, कीजिए हम पर कृपा ऐसी हे परमात्मा, प्रेम से हम गुरु जनों की नित्य ही सेवा करें, योग विद्या ब्रह्म विद्या हो अधिक प्यारी हमें,
अन्वेषण
मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥ तू ‘आह’ बन किसी की, मुझको पुकारता था। मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में॥ मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू। बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता। बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था। तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था। प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना। कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है। तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में। कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है।
वह देश कौन-सा है
मन मोहनी प्रकृति की गोद में जो बसा है।
सुख स्वर्ग-सा जहाँ है वह देश कौन-सा है।। जिसका चरण निरंतर रतनेश धो रहा है। नदियाँ जहाँ सुधा की धारा बहा रही हैं। जिसके बड़े रसीले फल कंद नाज मेवे। जिसमें सुगंध वाले सुंदर प्रसून प्यारे। मैदान गिरि वनों में हरियालियाँ लहकती। जिसके अनंत धन से धरती भरी पड़ी है। अतुलनीय जिनके प्रताप का
अतुलनीय जिनके प्रताप का,
साक्षी है प्रत्यक्ष दिवाकर। घूम घूम कर देख चुका है, जिनकी निर्मल किर्ति निशाकर। देख चुके है जिनका वैभव, शोभित है सर्वोच्च मुकुट से, जिनकी महिमा का है अविरल, सागर निज छाती पर जिनके, नदियाँ जिनकी यश-धारा-सी, सच्चा प्रेम वही है जिसकी देश-प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, आगे बढ़े चलेंगे
यदि रक्त बूँद भर भी होगा कहीं बदन में
नस एक भी फड़कती होगी समस्त तन में । यदि एक भी रहेगी बाक़ी तरंग मन में । हर एक साँस पर हम आगे बढ़े चलेंगे । वह लक्ष्य सामने है पीछे नहीं टलेंगे ।। मंज़िल बहुत बड़ी है पर शाम ढल रही है । अचरज नहीं कि साथी भग जाएँ छोड़ भय में ।
अस्तोदय की वीणा
बाजे अस्तोदय की वीणा–क्षण-क्षण गगनांगण में रे।
हुआ प्रभात छिप गए तारे, संध्या हुई भानु भी हारे, यह उत्थान पतन है व्यापक प्रति कण-कण में रे॥ ह्रास-विकास विलोक इंदु में, बिंदु सिन्धु में सिन्धु बिंदु में, कुछ भी है थिर नहीं जगत के संघर्षण में रे॥ ऐसी ही गति तेरी होगी, निश्चित है क्यों देरी होगी, गाफ़िल तू क्यों है विनाश के आकर्षण में रे॥ निश्चय करके फिर न ठहर तू, तन रहते प्रण पूरण कर तू, विजयी बनकर क्यों न रहे तू जीवन-रण में रे? सहर कै बिटिया, गाँव के पतोहू’
नइहर चली जाब, हम न ससुर-घर रहबइ। यहि ससुरे मा बुरुस न पौडर, लकड़ी न चबाब, हम न ससुर-घर रहबइ। यहि ससुरे मा चाह न बिस्कुट, चटबइ नाहीं राब, हम न ससुर-घर रहबइ। यहि ससुरे मा मेज न कुर्सी, भुइयाँ कैसे खाब, हम न ससुर-घर रहबइ। यहि ससुरे मा कलब न सिनेमा, कहाँ बैठि समाब, हम न ससुर-घर रहबइ। – |