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परिचय

जन्म : 28 जनवरी 1925, पकड़डीहा, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)

निधन14 फरवरी, 2005

भाषा : हिंदी

विधाएँ : कविता, विबंध

मुख्य कृतियाँ

स्वरूप-विमर्श, कितने मोरचे, गांधी का करुण रस, चिड़िया रैन बसेरा, छितवन की छाँह, तुलसीदास भक्ति प्रबंध का नया उत्कर्ष, थोड़ी सी जगह दें, फागुन दुइ रे दिना, बसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं, भारतीय संस्कृति के आधार, भ्रमरानंद का पचड़ा, रहिमन पानी राखिए, राधा माधव रंग रंगी, लोक और लोक का स्वर, वाचिक कविता अवधी, वाचिक कविता भोजपुरी, व्यक्ति-व्यंजना, सपने कहाँ गए, साहित्य के सरोकार, हिंदी साहित्य का पुनरावलोकन, हिंदी और हम, आज के हिंदी कवि-अज्ञेय

सम्मान

पद्म भूषण, पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार, कालिदास पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार,राज्यसभा सांसद मनोनीत

निधन : 14 फरवरी, 2005
रचनाएँ
कविताएँ
  • काँची अमिया न तुरिहऽ

निबंध

  • ‘सखा धर्ममय अस रथ जाके’
  • आहो आहो संझा गोसाइँनि
  • कँटीले तारों के आर-पार
  • गऊचोरी
  • घने नीम तरु तले
  • चंद्रमा मनसो जात
  • छितवन की छाँह
  • जमुना के तीरे-तीरे
  • टिकोरा
  • तुम चंदन हम पानी
  • तांडवं देवि भूयादभीष्‍ट्यै च हृष्‍ट् च न:
  • दिया टिमटिमा रहा है
  • धनवा पियर भइलें मनवा पियर भइलें
  • प्‍यारे हरिचंद की कहानी रहि जाएगी
  • बसंत न आवै
  • मेरे राम का मुकुट भीग रहा है
  • साँची कहौ व्रजराज तुम्‍हें रतिराज किधौ रितुराज कियौ है
  • साँझ भई
  • हरसिंगार
  • हल्दी-दूब और दधि-अच्छत
  • होरहा

 

विशेष

 

पं. विद्यानिवास मिश्र का जन्म 28 जनवरी 1925 को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के पकडडीहा गाँव में हुआ था। वाराणसी और गोरखपुर में शिक्षा प्राप्त करने वाले श्री मिश्र ने गोरखपुर विश्वविद्यालय से वर्ष 1960-61 में ‘पाणिनीय व्‍याकरण की विश्‍लेषण पद्धति’ पर डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित की थी।
लगभग दस वर्षों तक हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन, रेडियो, विन्‍ध्‍य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश के सूचना विभागों में नौकरी के बाद आप गोरखपुर विश्‍वविद्यालय में प्राध्‍यापक हुए । कुछ समय के लिए आप अमेरिका गये, वहाँ कैलीफोर्निया विश्‍वविद्यालय में हिन्‍दी साहित्‍य एवं तुलनात्‍मक भाषा विज्ञान का अध्‍यापन किया एवं वाशिंगटन विश्‍वविद्यालय में हिन्‍दी साहित्‍य का अध्‍यापन किया। आपने ‘वाणरासेय संस्‍कृत विश्‍वविद्यालय’ में भाषा विज्ञान एवं आधुनिक भाषा विज्ञान के आचार्य एवं अध्‍यक्ष पद पर भी कार्य किया। राष्‍ट्र ने आपकी साहित्‍यिक सफलताओं को तरहीज देते हुए राज्य सभा सासंद नियुक्‍त किया । साथ ही देश ने उनकी सफलताओं और त्‍याग तथा ईमानदारी के लिए पद्य भूषण सम्‍मान से भी विभूषित किया। मिश्र जी ‘भारतीय ज्ञानपीठ के न्‍यासी बोर्ड के सदस्‍य थे और मूर्ति देवी पुरस्‍कार चयन समिति के अध्‍यक्ष सहित ज्ञानपीठ के न्‍यासी बोर्ड के सदस्‍य थे।
संस्कृत के प्रकांड विद्वान, जाने-माने भाषाविद्, हिन्दी साहित्यकार और सफल सम्पादक (नवभारत टाइम्स) थे। उन्हें सन १९९९ में भारत सरकार ने साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था । हिन्दी साहित्य के सर्जक विद्यानिवास मिश्र ने साहित्य की ललित निबंध की विधा को नए आयाम दिए। हिन्दी में ललित निबंध की विधा की शुरूआत प्रताप नारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट ने की थी, किंतु इसे ललित निबंधों का पूर्वाभास कहना ही उचित होगा। ललित निबंध की विधा के लोकप्रिय नामों की बात करें तो हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र एवं कुबेरनाथ राय आदि चर्चित नाम रहे हैं।
ललित निबंध परम्परा में ये आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ राय के साथ मिलकर मिश्र जी एक त्रयी रचते है। पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद अगर कोई हिन्दी साहित्यकार ललित निबंधों को वांछित ऊँचाइयों पर ले गया तो हिन्दी जगत में डॉ॰ विद्यानिवास मिश्र का ही जिक्र होता है। आपकी विद्वता से हिन्‍दी जगत का कोना-कोना परिचित है। आप ने अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय में भी शोध कार्य किया था तथा वर्ष 1967-68 में वाशिंगटन विश्वविद्यालय में अध्येता रहे थे। म.प्र. में भी सेवारत रहे कुछ समय के लिए। मध्यप्रदेश में सूचना विभाग में कार्यरत रहने के बाद वे अध्यापन के क्षेत्र में आ गए। वे 1968 से 1977 तक वाराणसी के सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे। कुछ वर्ष बाद वे इसी विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। उनकी उपलब्धियों की लंबी श्रृंखला है। लेकिन वे हमेशा अपनी कोमल भावाभिव्यक्ति के कारण सराहे गए हैं। उनके ललित निबंधों की महक साहित्य- जगत में सदैव बनी रहेगी।
आप हिन्‍दी के एक प्रतिष्‍ठित आलोचक एवं ललित निबन्‍ध लेखक हैं, साहित्‍य की इन दोनों ही विधाओं में आपका कोई विकल्‍प नहीं हैं। निबन्‍ध के क्षेत्र में मिश्र जी का योगदान सदैव स्‍वर्णाक्षरों में अंकित किया जाएगा।
विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्‍धों की शुरूवात सन्‌ 1956 ई0 से होती है। परन्‍तु आपका पहला निबन्‍ध संग्रह 1976 ई0 में ‘चितवन की छाँह’ प्रकाश में आया है। आपने हिन्‍दी जगत को ललित निबन्‍ध परम्‍परा से अवगत कराया। निष्‍कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रो॰ मिश्र जी का लेखन आधुनिकता की मार देशकाल की विसंगतियों और मानव की यंत्र का चरम आख्‍यान है जिसमें वे पुरातन से अद्यतन और अद्यतन से पुरातन की बौद्धिक यात्रा करते हैं। ‘‘मिश्र जी के निबन्‍धों का संसार इतना बहुआयामी है कि प्रकृति, लोकतत्‍व, बौद्धिकता, सर्जनात्‍मकता, कल्‍पनाशीलता, काव्‍यात्‍मकता, रम्‍य रचनात्‍मकता, भाषा की उर्वर सृजनात्‍मकता, सम्‍प्रेषणीयता इन निबन्‍धों में एक साथ अन्‍तग्रंर्थित मिलती है। श्री विद्यानिवास मिश्र की हिन्दी और अंग्रेज़ी में दो दर्ज़न से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। इसमें “महाभारत का कव्यार्थ” और “भारतीय भाषादर्शन की पीठिका” प्रमुख हैं। ललित निबंधों में “तुम चंदन हम पानी”, “वसंत आ गया” और शोधग्रन्थों में “हिन्दी की शब्द संपदा” चर्चित कृतियां हैं।
लोक संस्कृति और लोक मानस उनके ललित निबंधों के अभिन्न अंग थे, उस पर भी पौराणिक कथाओं और उपदेशों की फुहार उनके ललित निबंधों को और अधिक प्रवाहमय बना देते थे। उनके प्रमुख ललित निबंध संग्रह हैं- ‘राधा माधव रंग रंगी’, ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’, ‘शैफाली झर रही है’, ‘छितवन की छांह’, ‘बंजारा मन’, ‘तुम चंदन हम पानी’, ‘महाभारत का काव्यार्थ’, ‘भ्रमरानंद के पत्र’, ‘वसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं’ और ‘साहित्य का खुला आकाश’ आदि आदि। वसंत ऋतु से विद्यानिवास मिश्र को विशेष लगाव था, इसके आलावा स्वरूप-विमर्श, कितने मोरचे, गांधी का करुण रस, चिड़िया रैन बसेरा, छितवन की छाँह, तुलसीदास भक्ति प्रबंध का नया उत्कर्ष, थोड़ी सी जगह दें, फागुन दुइ रे दिना, बसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं, भारतीय संस्कृति के आधार, भ्रमरानंद का पचड़ा, रहिमन पानी राखिए, , लोक और लोक का स्वर, वाचिक कविता अवधी, वाचिक कविता भोजपुरी, व्यक्ति-व्यंजना, सपने कहाँ गए, साहित्य के सरोकार, हिंदी साहित्य का पुनरावलोकन, हिंदी और हम, ‘आज के हिंदी कवि-अज्ञेय’ प्रमुख कृतियाँ हैं.
विद्यानिवास मिश्र का 14 फरवरी, 2005 का सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया। उस वर्ष उनका प्रिय पर्व वसंत पंचमी 13 फरवरी को था। वसंत ऋतु में ही वे अपना शरीर त्यागकर इहलोक की यात्रा पर निकल पड़े। पं. विद्यानिवास मिश्र के इस दुनिया से जाने के बाद भी उनकी पत्रकारिता और साहित्य की सौरभ इस रचनाशील जगत को महकाती रहेगी।
पत्रकारीय धर्म और उसकी सीमाओं को लेकर वे सदैव सचेत रहते थे। वे अकसर कहा करते थे कि-‘‘मीडिया का काम नायकों का बखान करना अवश्य है, लेकिन नायक बनाना मीडिया का काम नहीं है।” पने पत्रकारीय जीवन में भी विद्यानिवास मिश्र हिंदी के प्रति आग्रही बने रहे। वे अंग्रेजी के विद्वान थे, लेकिन हिंदी लिखते समय अंग्रेजी के शब्दों का घालमेल उन्हें पसंद नहीं था। मिश्र जी के कुछ प्रसिद्ध निबंध प्रस्तुत हैं—

राम का अयन वननिबंध
रामकथा पर आधारित वाल्मीकि के ग्रंथ का नाम ‘रामायण’ देने का कारण क्या है, इसपर विचार-विमर्श करना चाहिए। अयन के दो अर्थ हैं – ‘घर’ भी है और ‘चलना’ भी है। राम के घर के बारे में तुलसीदासजी ने एक प्रसंग में कहा है कि वन में पहुँचने पर चित्रकूट वनमाला के द्वार पर वाल्मीकि मिले। उनसे राम ने पूछा कि मैं कहाँ घर बनाऊँ? वाल्मीकि ने उत्तर दिया कि कोई जगह तो नहीं है जहाँ तुम नहीं हो –

पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावाँ ठाउँ।।

फिर भी, मेरी दृष्टि में एक ऐसी जगह है जो सर्वथा तुम्हारा घर होने के योग्य है –

जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलागे।।

जहाँ कान हमेशा अतृप्त रहते हों, समुद्र की तरह अपूर, कोटिश: कथा-गंगाएँ आएँ और समुद्र जैसा-का-वैसा आकांक्षी बना रहे। इस रमणीय घर में एक विशेषता और होनी चाहिए। इसमें दूसरे के लिए किसी जगह की गुंजाइश न हो।

जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई।।

जितनी भी वंचनाएँ होती हैं आदमी की- जाति-पाँत, धन-धर्म, बड़प्पन- सबको तजनेवाला मन, तुममें लवलीन रहनेवाला मन तुम्हारा निवास हो।

इसके बाद वाल्मीकि ने चित्रकूट का एक रमणीय स्थल बताया है, जहाँ एक छोटी सी नदी है (वाल्मीकि रामायण मैं तो उसका नाम ‘माल्यवती’ है, तुलसीदास ने उसका नाम ‘मंदाकिनी’ दिया है)। उसी के किनारे पर्णशाला तैयार हुई। उस पर्णशाला की वास्तु-रचना राम, लक्ष्मण, सीता ने अपने श्रम से की। राम ने उसके लिए वास्तु-यज्ञ किया और तब उसमें प्रविष्ट हुए। पर वस्तुत: उनका घर रामकथा से अतृप्त मन ही बना रहा। वह अतृप्त मन भी असंख्य सहज मनोभावों के बीच में स्वावलंबन पर कहीं टिकता है। इस प्रकार सारा वन ही, वन जैसा सहज हृदय ही, भाँति-भाँति के जीवन का आश्रय मन ही राम का अयन है और हम कह सकते हैं कि वन बना मन या मन बना वन ही राम का अयन है। रामायण का मर्म समझने के लिए इस घर का मर्म समझना पहली शर्त है।

अयन का दूसरा अर्थ ‘गति’ है, चलना है, एक निश्चित उद्देश्य से चलना है। वन में आकर राम पर्णशाला तक अपने को सीमित नहीं रखते, वे वनवासियों तक जाते हैं, उनका सुख-दुख बूझते हैं, वन में तपस्या करनेवाले ऋषियों-मुनियों के पास जाते हैं और उनकी रक्षा का भार भी लेते हैं।

पिता द्वारा दिए गए कैकेयी के वचन का पालन तो व्याज था, राम को वन ही में अपना काम करना था। उनका काम है क्या, सिवाय इसके कि संतृप्त लोगों को आश्वासन देना, आश्वस्त लोगों को सविनय प्रीति का उपहार देना। और इस क्रम में वे एक से दूसरे वन को लाँघते-लाँघते दंडक वन में पहुँचते हैं, जहाँ राक्षसों द्वारा खाए गए और आग में पकाए गए ऋषियों की हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं। देखते ही राम का आक्रोश संकल्प बन जाता है कि मैं पृथ्वी को राक्षसविहीन कर दूँगा।

वे वन से वन नापते हुए नगर में कभी प्रवेश नहीं करते – न किष्किंधा में प्रवेश करते हैं, न लंका में, वनवासी ही बने रहते हैं। वन से ही युद्ध का संचालन करते हैं, वन की राजनीति का संचालन करते हैं। और जब अयोध्या लौटते हैं तो कुछ ही वर्षों में अयोध्या वन से भी अधिक बनैली हो जाती है तथा एक ऐसा लांछन लगाती हैं कि राम तो अयोध्या में रहते हैं, लेकिन राम का मन, राम के मन और हृदय की अधिष्ठात्री सीता वन के आश्रय में चली जाती हैं।

इस प्रकार अयन की पूरी यात्रा वन से वन की यात्रा है, एक तप से दूसरे तप की यात्रा है। एक तप वन में होता है और अंतिम वय का तप नगर में, एक वन बने नगर में होता है। इस प्रकार राम का अयन घर होते हुए भी वन है, गति है। ‘रामायण’ ग्रंथ की भी रचना वन में हैं, ग्रंथ का पहला पाठ भी वन में हैं, ग्रंथ की फलश्रुति भी यही है कि यह कथा प्रासादों में नहीं, लोक में बिहरेगी, लोकचित्त में बिहरेगी।

इस कथा के और अंश जितने भी परिवर्तित रूप में मिलते हों, पर राम का वन में निर्वासन, सीता का अयोध्या लौटने के बाद निष्कासन इस कथा के प्रत्येक संस्करण में हैं। वन को जाती हुई राम-लक्ष्मण-सीता की छवि आज भी लोकचित्त में अंकित हैं। आज भी अनेक क्षेत्रों में, तीर्थयात्रा में इसी वनयात्रा के गीत गाए जाते हैं। प्रत्येक तीर्थयात्रा जैसे राम के पीछे-पीछे चलनेवाले अकिंचनों की ऐसे विजन की यात्रा है, जिसमें आदमी अपरिचित जन में भी स्वजन की पहचान पाता है और विजन सही अर्थों में सजन होता है। इसीलिए मैं कहता हूँ, राम का घर वन है।

राम का निरंतर चलते रहना ही उनका जीवन है और जन-जन के पवित्र होने की यात्रा है, पवित्रता की गतिशीलता है। वन घर है तो वन संचरण भी है, जिसमें रास्ते के काँटे, रास्ते के कुश राम और सीता के पैरों में चुभकर धन्य हो जाते हैं। उस स्पर्श से – निराला से शब्द उधार लें तो -उपल ‘उत्पल’ बन जाते हैं, जो कंटक चुभते हैं वे जागरण बन जाते हैं। वन में संपादित यज्ञ के प्रसाद से राम गर्भ में आते हैं, वन में स्थित विश्वामित्र के आश्रम में राम सांगोपांग वेद की शिक्षा पाते हैं, विवाह का मुदमंगल अधिक दिनों तक नहीं रहता, राज्यभिषेक की चर्चा के अगले दिन ही वन-गमन होता है।

राम पद छोड़कर वनगामी होते हैं, राजकुमार से वापस होते हैं ऐसे स्थान में, जहाँ नगर का प्रपंच नहीं है, जहाँ अर्थ की लिप्सा नहीं हैं, जहाँ प्रकृति के मुक्तदान से संतोष हैं, जहाँ छल नहीं है, सहज-सीधा व्यवहार है। वहाँ बीहड़ वन है, जंगली जानवर हैं; पर विचित्र प्रकार का अभय है, कोई किसी से डरता नहीं है, अपने रास्ते जाता है। इसीलिए कोई घेरा नहीं है, किसी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है। राम की वनयात्रा एक सीधे-सादे आदमी की अपने पिता के सच की रक्षा में स्वयं ओढ़ी हुई यात्रा है। यह यात्रा किसी दुख के भोग के लिए नहीं हैं, एक ऐसे भोग के लिए है जिसमें सुख की प्राप्ति भी नहीं है, सुख एक-दूसरे का भाव-अभाव बाँटने में है और दुख देश और व्यापक देश-परिवार छोड़ने का, यदि है भी तो उसकी पूर्ति व्यापक देश और व्यापक परिवार बनाने से वन में होती है।

वाल्मीकि ने वन का वर्णन बड़े रस के साथ किया है। वन में मीठी गंध भिनी हुई है –
त्वया सह निवत्स्यामि वनेषु मधुगंधिषु।

वाल्मीकि की वन की पहचान तरह-तरह के पखेरूओं की आवाज़ों से है, तरह-तरह के वृक्षों की छाया से शीतल तरह-तरह के नदी-झरनों के मीठे सुस्वादु जल से है और इन सबकी समग्र पहचान पत्तों के दोनों में वनवासियों द्वारा लाई गई वन-उपज की भेंट से है। राम अयोध्या के राज के निर्वासित हैं, पर विस्तृत वन-भाग के वन के महीप हैं।

वन के उपांत भाग में या वन के बीच-बीच में जहाँ कहीं छोटे-छोटे टुकड़ों में खेती होती हैं, उनका दृश्य भी वाल्मीकि के रामायण में सज-धज से अंकित है। वाल्मीकि की वन की पहचान हेमंत की मलाईनुमा चाँदनी से है, उस चाँदनी में झरती हुई ओस से हैं, सुबह होते ही उस ओस के मोती बनने से हैं, कुहरे के कारण निश्वास के अदराए दर्पण सरीखे चंद्रमा के चेहरे से है -जिस दर्पण में रात अपना मुँह निहारना चाहती है, निहार नहीं पाती हैं, जुते खेतों में छोड़ी गई शरद् के ताप में झँवाई हुई हराई के धीरे-धीरे ओस से भीगकर स्नेह पिन्हाने से हैं, धान की भरी-पूरी बालियों में खजूर के फूल की दिखती हुई झाँई से हैं, प्यासे हाथी के द्वारा पुष्करिणी के जल को छूते ही तुरंत सूँड़ सिकोड़ लेने से है, उस सूर्य से है जो जैसे-तैसे घने कुहरे के बीच अपनी किरणों के सहारे उगता है तो चंद्रमा की तरह दिखता है और पूर्वाह्न में धूप तो ऐसी लगती है जैसे बेजान हो, मध्याह्न में मीठी लगती है और कुछ ललछाँही, पीली-पीली सी, पृथ्वी पर फैली हुई – अपराह्न में वह एक अलग आभा देती है।

ओस और कुहरे से ढके हुए जंगल फूल-पत्तियों से विकसित होकर सोये से लगते हैं। नदियों की पहचान सारस की बीच-बीच में उठती हुई करुण ध्वनि और कुहरे के घने आवरण से ढके हुए जल तथा बर्फ से भी अधिक ठंडे बलुए तटों से होती है। सबसे अधिक हेमंती वनवास की पहचान राम की इसी चिंता से होती है, इस ठंड में भरत कैसे नंदिग्राम में रह रहे हैं। राज्य का सब सुख-भोग छोड़कर वे तपस्या करते हुए, एक बार मुठ्ठी भर कुछ खाकर ठंडी-ठंडी जमीन पर सो रहे होंगे। इस वनवास में राम को अपनी चिंता नहीं होती, अपने छोटे भाई भरत की चिंता होती है। यही वन की संस्कृति है और इस संस्कृति का काव्य है – ‘रामायण’।

इस वन-संस्कृति की सहजता को नष्ट करने के लिए रावण आता है। रावण के पहले शूर्पणखा आई हैं; उसके भी पहले जयंत आया। राम ने उन सबका समुचित सम्मान किया। रावण जब सीता को हर रहा था तो सीता ने वन का ही आवाहन किया, ‘हे जनस्थान, हे कर्णिकर, हे गोदावरी, हे वन देवताओं, हे इस वन में रहनेवाले विविध पशु-पक्षी! राम से कहो कि रावण सीता का हरण करके जा रहा है।’

इसी वन-संस्कृति का एक दूर दृष्टिवाला प्राणी है जटायु, जो रावण को चुनौती देता है, रावण को राजधर्म का उपदेश देता है कि राजा ही धर्म का पालक होता है। प्रजा शुभ की ओर उन्मुख है या अशुभ की ओर, इसका दायित्व राजा का होता है। राजा ही धर्म है, राजा ही धर्म-कर्म की धरोहर है। उस धरोहर के साथ विश्वासघात करना उचित नहीं। विलाप करती हुई सीता आकाश मार्ग से जनस्थान के उस पार जा रही हैं और उनके चमकते हुए स्वर्ण आभूषण टूट-टूटकर बजते हुए भूमि पर गिरते हैं।

हार टूटकर गिरता है तो जैसे गंगा ही आकाश से उतर रही हों। उस समय वृक्ष कह रहे हैं कि डरो मत, डरो मत। पुष्करणियाँ सीता के समदुखभाव में खिन्न हो रही हैं, उनके कमल नष्ट हो रहे हैं, भीतर रहनेवाले जलचर त्रस्त हो रहे हैं। सारे वन के पशु-पक्षी सीता के पीछे-पीछे दौड़ते हैं, पर्वत जल-प्रपातों के व्याज से बाँह ऊँची करके चिल्ला रहे हैं, सूर्य मंद पड़ रहे हैं, सोचते हैं – धर्म नहीं रहा, सत्य कहाँ से रहेगा। समस्त प्राणी शोक मना रहे हैं। मृग के शावक ऊपर उचक-उचककर डरी हुई आँखों से देखते हैं, काँप रहे हैं और रो रहे हैं। वनदेवियाँ काँप उठी हैं, तुम्हारी रक्षा में रही सीता हरी जा रही हैं।

इस प्रकार सीता के साथ संपूर्ण वन है, सीता का जैसे यह दूसरा मायका हो। वन जैसे इस बेटी के साथ घटी इस दारुण घटना से विक्षुब्ध हो उठा हो। वन-संस्कृति का दूसरा पक्ष है कि इस प्रकार की असहाय स्थिति में भी सीता की तेजस्विता अप्रतिहत रहती है और सीता रावण को ऐसे फटकार बताती है जैसे कि वह स्वतंत्र शासन करनेवाली हों।

सीता के भीतर यह सहज अभयभाव वन के स्वभाव की देन है। इसी कारण उनमें पराजय का भाव नहीं; उनके भीतर कुछ है जो अजेय बना रहता है। बादलों के बीच बिजली सी छटपटाती सीता तमककर कहती हैं, ‘नीच, तुम्हें लाज नहीं आती ऐसा गर्हित काम करते हुए। मैं अकेली कुटी में थी, चोर की तरह मेरा हरण किया और भागे जा रहे हों। छल करके मेरे पति को मृग के माध्यम से दूर कर दिया, इतने कायर तुम हो कि तुम्हें सामने लड़ने का साहस नहीं! यह तुम्हारा परम पराक्रम हैं, नीच राक्षस, कि अपना नाम उद्घोषित करके तुमने युद्ध में मुझे नहीं जीता है! धिक्कार है तुम्हारी वीरता को! धिक्कार है तुम्हारे सत्व को, तुम्हारे चरित्र को! तुम एक घड़ी रुक जाओ, ऐसे भागो मत तो तुम जीवित नहीं लौटोगे। अगर मेरे पति और मेरे देवर के दृष्टि-पथ में तुम आ जाओ तो अपनी सेना के साथ भी तुम बचकर नहीं जा सकते। उनके बाण का स्पर्श तुम सह नहीं पाओगे; जैसे पक्षी वन में लगी आग को सह नहीं पाता!’

वन में पली हुई वनजा सीता का दुर्धर्ष तेज ही था कि सीता रावण के ऐश्वर्य-प्रलोभ में नहीं आईं। यही कहती रहीं कि ‘तुम्हारे दिन अब लद गए। तुम्हारा सत्व क्षीण हो गया है। तुम्हारी सारी श्री चली गई। लंका विधवा होने वाली है।’

सीता के इस प्रकार हर लिये जाने पर राम दुख से भर जाते हैं; सूनी कुटिया देख, शोक-विह्वल हो वन के एक-एक वृक्ष से पूछना शुरू करते हैं – ‘तुम जानते हो, सीता कहाँ हैं। वह पीत कौशेय धारण करनेवाली हैं, जिसमें तुम्हारे फूलों की आभा झलकती है। स्निग्ध पल्लवों की तरह कोमल हैं वे। तुम जरूर जानते होगे कि सीता किस तरफ गई हैं।

हे अर्जुन, तुम सीता की तरह से गोरे हो, तुम जरूर जानते होगे उनके बारे में कि वे जीवित हैं या नहीं। यह कुसुम का वृक्ष निश्चय ही सीता के बारे में जानता होगा। इतने भौंरे गूँज रहे हैं – ऐसा यह तिलक का वृक्ष तिलक को चाव से सिर पर धारण करनेवाली सीता के बारे में जानता होगा। हे अशोक वृक्ष, प्रिया के दर्श कराके मुझे भी अशोक बनाओ। हे तालवृक्ष, यदि तुम्हारी मुझपर कृपा है तो तुम्हारे फल से सादृश्य रखनेवाली सीता कहाँ हैं? तुम ऊँचे हो, तुमने देखा होगा। हे जामुन, यदि तुम जानते हो सुनहरी कांतिवाली मेरी प्रिया को कि कहाँ गई तो निर्भय बता दो। हे कनेर, फूले-फूले से दिखते हो, कनेर के फूल को प्यार करनेवाली सीता को, बोलो, तुमने देखा है?’ इसी प्रकार राम ने आम, साल, कटहल और पुरइया जैसे वृक्षों के पास जा-जाकर पूछा; मौलश्री, चंपा, चंदन, केवड़े के पास जा-जाकर पूछा। राम जैसे पागल हो गए हों। सीता कहाँ हैं सीता हैं कहाँ? पेड़ नहीं कुछ उत्तर देते तो वन पशुओं से पूछना शुरू किया। मृग से पूछा, ‘तुम्हारे जैसी दृष्टिवाली सीता कहीं मृगियों के साथ खेल तो नहीं रहीं? शार्दूल, दूर तक देखते हो, तुमने यदि देखा है तो भय न करो, धीरे से कान में बता दो।’

कोई उत्तर नहीं देता तो सीता को ही संबोधित करके वे प्रलाप करते हैं और संदेह करने लगते हैं कि कहीं पुष्कर की खोज में पुष्करिणी तो नहीं पहुँच गई। कहीं किसी जंगल में तो नहीं छिप गई। इस प्रकार वनश्री में सीता का अन्वेषण करते हुए राम यह संकेत दे रहे हैं कि सीता वन की आत्मा हैं, वन की संस्कृति हैं। वे वन से बाहर कहाँ जाएँगी। वन से बाहर सीता का भागधेय है ही नहीं।

लंका में रहते हुए भी वन में हैं और अयोध्या में वापस आने पर भी उस वनानुरागिनी सीता का मन नहीं लगता और दोहद की पूर्ति के लिए वन-विहार की अनुमति माँगती हैं। इसी व्याज से लक्ष्मण उन्हें गंगा-तमसा के संगम के पास वाल्मीकि आश्रम के परिसर में छोड़ने जाते हैं। वे ऋषियों की तपस्या का फल थीं, ऋषियों की तपस्या की साधक बनीं। ऋषियों की तपस्या की छाया में उन्होंने बच्चे जने, उनका पालन किया और उस छाँह से दूर अयोध्या बुलाए जाने पर माँ से ही प्रार्थना की कि ‘ हे माधवी देवी, विवर दो कि समा जाऊँ।’

यह भूमि-प्रवेश अयोध्या में हुआ कि लोक -परंपरा के अनुसार वाल्मीकि आश्रम में ही हुआ, कौन जाने; पर सीता की पूरी कहानी तपोवन-परिक्रमा है। वाल्मीकि के मन में राम के राज्य या ऐश्वर्य से तपोवन का यह स्वातंत्र्य अधिक बसा हुआ है। उसके लिए उनके मन में विशेष आदरभाव है। तभी राम पर तो क्रोध कर सकते हैं, लेकिन सीता उनके लिए परम पवित्र हैं, साक्षात तपमूर्ति हैं।

सीता की पवित्रता की प्रतिष्ठा के लिए वे जन्म-जन्मांतर का सुकृत, पुण्य दाँव पर रखने के लिए तैयार हैं। सीता निष्पाप हैं। तपोवन की कन्या को कोई दोष छू नहीं सकता, लग नहीं सकता। उसे पराजित नहीं किया जा सकता। इसी कारण ‘रामायण’ जितना रामचरित है उससे कहीं अधिक ‘सीतायास्चरितं महत्’ है। वन राम का घर हैं, क्योंकि वन ही सीता हैं। ‘रामायण’ का मर्म समझने के लिए वन की इस पृष्ठभूमि के भीतर झाँकने की जरूरत है।
हल्दी-दूब और दधि-अच्छत

 

मेरे घर की संस्‍कृति के मांगलिक उपादान मूर्त रूप से हल्‍दी-दूब और दधि-अच्‍छत ही हैं, इसलिए शहर में एक लंबे अरसे तक बसने के बाद भी मन इन मंगल-द्रव्‍यों की शोभा के लिए ललक उठता है। बहुत दिनों से कोई अर्चन-पूजा नहीं की है, जिसको अर्चन का अधिकार सौंप दिया है, उससे भी कोसों और महीनों का व्‍यवधान है। वसंत की उदास बयार की लहक एक अजीब-सा अपनापन भर रही है, वर्षांत के कार्य का बोझ सिर पर लदा हुआ है। जिसे लोग उल्‍लास कहते हैं, वह जैसे पथरा गया है; पर कुछ बात है कि हल्‍दी से रंगी हथेली, दूब से पुलकित पूजा की थाली, अक्षत से भरा चौक और दधि से रंगी भाल, ये चित्र मन में उभर ही आते हैं। हृदय का वह प्रथम अनुराग बासी पड़ गया, उस नव-प्रणय की भाषा जूठी हो गई, उसके अंतर का वह रस सीठ गया, उस रस का वह आपूरित आनंद रीत गया, जिन नव दृग-पल्‍लवों की बंदनवार लगी, वे दृगपल्‍लव मुरझा गए, ‘नयन सलोने अधर मधु’ दोनों ही करुवा गए; पर क्‍या जादू है कि मन की कोर में लगी हल्‍दी नहीं छू‍टी, जीवन-प्रांतर में उगी हुई दूब और परिसर में बिछी हुई ‘अच्‍छत’ राशि क्षत-विक्षत नहीं हुई।

यह जानते हुए भी कि गाँव की उस मांगलिक कल्‍पना में शहरी जीवन का कोई मेल नहीं हो सकता, मेरा अनागर मन उस कल्‍पना का पल्‍ला नहीं छोड़ना चाहता। किसी ने प्रतिगामी कहा और किसी ने अपनी काफी-हाउस या कोको-कोला सभ्‍यता में ‘अखपनीय’ मानकर दुराग्रही जनवादी या शिष्‍ट शब्‍दों का प्रयोग कर प्रगतिशील कहा; पर वह बिचारा गँवार चरवाहा ही बना रहा। उसकी काली कमली पर दूसरा रंग न चढ़ा। उसकी पुरानी बांसुरी से दूसरी टेर नहीं आई, उसके गीतों में दूसरे गोपाल नहीं आए। उसकी प्रत्‍येक नई प्राप्ति अपने शुभ के लिए अब भी हल्‍दी का वरदान मांगती है। उसकी प्रत्‍येक नई यात्रा दही का सगुन चाहती है। उसकी प्रत्‍येक नई साधना दूर्वा का अभिषेक माँगती है, और उसकी प्रत्‍येक नई आपूर्ति अक्षत से पूर्णता का आशीष चाहती है।

मैं अवश हूँ। फीरोजी, सुरमई, मूंगिया और चंपई इन रंगों से घिरा हुआ भी नवांकुरित दूब की हरित-पीत आभा की ओर मेरा मन दौड़ ही जाता है और धरती, माटी, मानव और आस्था, ईमान, सत्‍य, चेतना और युगमानस – इन सभी उपासना-मंत्रों के कोलाहल में भी ‘हरद दूब दधि अक्षत मूला’ की गीतियों की स्‍फूर्ति के पीछे वह भटक जाता है। चारों ओर से लोग मुझसे प्रश्‍न पर प्रश्‍न करते हैं कि तुम अपनी प्रतिभा क्‍यों बिखरा रहे हो, क्‍यों नहीं हमारे पंक्ति-बंधन में आकर उसको एक दिशा में आगे बढ़ाते, युगपथ छोड़कर किन पिच्छिल पगवीथियों पर विभ्रांत हो? मैं किस-किस को और क्‍या जवाब दूँ? उन्‍हें कैसे समझाऊं कि मेरे ये संस्‍कार ही मेरे अस्तित्‍व हैं, मैं इनको छोड़कर कुछ नहीं। इस अनंत शून्‍य में तिरते हुए ये तिनके मिले हैं, उन्‍हें छोड़कर चलने पर मेरा आसरा टूट जाएगा। उन्‍हें कैसे दिखलाऊँ कि तुम्‍हारी योजना, तुम्‍हारा यज्ञ, तुम्‍हारी क्रांति, तुम्‍हारा वाद, तुम्‍हारी आस्‍था और तुम्‍हारा ईमान मुझे ही नहीं, मेरे जैसे हल्‍दी, दूब और दधि-अच्‍छत से अपने मन की मनौती पूरी करने वाले असंख्‍य गँवार भाइयों को भी छू नहीं पाते। तुम लोकगीत के तर्ज अपनाते हो, तुम गाथाओं की शैली अपनाते हो; पर तुम लोक का साक्षात्‍कार नहीं कर पाते। तुमसे क्‍या अपने घर की बात कहूँ, तुम समझ नहीं पाओगे। भाई, तुमने तो केवल वसन-भूषण ही देखे हैं, तुम शरीर तक नहीं देख पाये, आत्‍मा तो बहुत दूर की चीज है। एक भी धूलिकण न सह सकने वाले तुम्‍हारे ये पाहन-नयन कीच-कांदों में विकसन वाले नलिन-नयनों को कैसे निरख सकेंगे। पत्‍थर के चश्‍मे उतारकर अगर तुम अपने आस-पास सौ दो सौ बीघा भी देख सकते हो तो आओ मेरे साथ, मैं तुम्‍हें दिखलाऊँ कि बिना किसी अभियान, आंदोलन या क्रांति के उस धूमावृत पल्‍ली-समाज में एक अखंड यज्ञानल धधक रहा है, उसमें लपट नहीं, ज्‍वाला नहीं, दीप्ति नहीं; पर एक ऐसा ताप है जो अनाचार के कठोर-से-कठोर पाषाण को पिघला देगा, रोल्‍डगोल्‍ड की चमक को सँवार देगा, जो बुद्धि के अजीर्ण को पचा देगा और जो बुझी हुई ज्‍योति को उकसा देगा। वह आग हल्‍दी तथ दूब-भरी अर्चना और दधि-अच्‍छतमयी सिद्धि की साक्षी है, जिसमें ‘साठी के चउरा’ और ‘लहालरि दूब’ से भरी अंजलि ‘लाख बरिस’ की आयुष्‍म-वृद्धि करती है। वह आग उस बंधन की साक्षी है, जो वन के एकांत की मांग नहीं करता, जो गृह के संकुल में अपनी एकाग्रता सुरक्षित रख सकता है, वह आग जीवन के उस दर्शन का साक्षी है, जो विचल होना जानता नहीं, वह आग उस सिंदूर-दान की साक्षी है, जिसमें सिंदूर भरने वाला अपने प्राणों का आलोक किसी की माँग में भर देता है।

मैं आज भी उस आग की आँच अपनी असीम जड़ता के अंतरतम में अनुभव करता हूँ। मेरे मन में वह याद अब भी ताजा है, जब मैं दूर्वाक्षतों से सौ बार चूमा गया था, तीस-पैंतीस कुल कन्‍याओं की सेना मस्‍तक से लेकर जानु तक अपनी उँगलियों से दूब-अक्षत लेकर वय, शक्ति और उमंग के अनुरूप बल लगा-लगाकर एक के बाद एक दबाती जा रही थी। इसी व्‍यापार को चूमने की संज्ञा देकर गीत उच्‍चरित हो रहे थे। मैं इस चूमने से खीझता जा रहा था, ऊपर से थोड़ा-बहुत शहरी संस्‍कारों के प्रभाव-वश पानी-पानी हो रहा था; पर भीतर-ही-भीतर मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे दूब-अच्‍छत के संयोग के द्वारा अक्षय हरियाली की शुभ कामना मेरे अंग-अंग को अभिमंत्रित कर रही हो। उस चूमने में अधर नहीं मिले, पर जाने कितने बाल, किशोर, तरुण और प्रौढ़ हृदयों को अपने-अपने ढंग से मंगल-चेतना का संस्‍पर्श अवश्‍य मिला, उस चूमने से मादकता नहीं आई; पर जाने विश्‍व भर के सहयोग का एक ऐसा आश्‍वासन मिल गया कि मन में मीठी-सी सिहरन पैदा हुई। उस चूमने में शोले नहीं भड़के, नसें नहीं पिघलीं और प्‍यास नहीं बढ़ी, बल्कि एक ऐसी शीतलता जड़िमा और परितृप्ति आई कि लगा व्‍यक्ति का प्रणय समष्टि ही स्‍नेहच्‍छाया के लिए युगों से तरसता आया हो और अब पाकर परितुष्‍ट हो गया हो। आषाढ़ चढ़ते ही मंजरियों में झूम उठनेवाली साठर के वे लहराते खेत बरसों से देखने को नहीं मिलते; पर उसके हल्‍दी-रंगे अक्षतों का एक अंजलि से दूसरी अंजलि में अर्पण-प्रत्‍यर्पण और उन अक्षतों के मिस हृदय की एक-एक करके समस्‍त सुकुमार भावनाओं के अर्पण-प्रत्‍यर्पण की स्‍मृति आज भी हरी है।

साठी के धान वैशाख-जेठ में रोपे जाते हैं और चिलबिलाती धूप से वे जीवनरस ग्रहण करते हैं। दूब भी पशुओं के खुर से कुचली जाती है, खुरपी से छीली जाती है, कुदाली से खोदी जाती है, हल की नोक से उलटी जाती है, अहिंस्र कहे जाने वाले पशुओं से निर्ममता के साथ चरी जाती है और मानवों की सबसे उत्तम वृत्ति रखने वाले खेतिहर से सतायी जाती है; पर वह प्रत्‍येक जीवन-यात्री को वर्षा में फिसलने से बचाने के लिए पाँवड़े बिछाती है। वह दो खेतों की परस्‍पर छीना-छोरी की नाशिनी स्‍पर्धा को रोकने के लिए शांति-रेखा बन जाती है। जरा-सा भी मौका मिल जाए, तौ फैलकर मखमली फर्श बन जाती है। पनघट के मंगलगीतों का उच्‍छ्वास पाकर वह मरकत की राशि बन जाती है, शरद का प्रसन्‍न आकाश जब रीझकर मोती बरसाता है, तब वह धरती की छितरायी आंचर बन जाती है और जब ग्रीष्‍म का कुपित रवि आग बरसाता है, तब वह धरती के धीरज की छांह बन जाती है। उस दूब को यदि नारी पूजा की थाली में सजाती है तो उन समस्‍त अत्‍याचारों का क्षण भर के लिए उपशम हो जाता है, जिन्‍हें दूब प्रतिक्षण सहती रहती है।

भारतीय संस्‍कृति का मूल आधार है तितिक्षा, जिसकी सही अर्थ में मूर्त व्‍यंजना ही दूर्वा है। दूर्वा चढ़ाने का जो वैदिक मंत्र है, वह भी इसी सत्‍य को दुहराता है, ‘कांडात्‍कांडत्‍प्ररोहन्‍ती, परुष: परुषस्‍परि। एवानो दूर्वे प्रतनु सहस्‍त्रेण शतेन च’। तितिक्षा ही के कारण उस संस्‍कृति की एक शाखा उच्छिन्‍न होते ही दूसरी शाखा निकल आई है। जितने ही उस पर मार्मिक आघात हुए हैं, उतने ही शत-सहस्‍त्र उमंगों के साथ वह पनपी है। इसी के कारण उसे अ‍प्रतिहत मांगलिक स्‍वरूप प्राप्‍त हुआ है और इसी के कारण वह भारत की धरती से इतनी हियलगी बन रही है कि बिना उसके उसका कोई मांगलिक छिड़काव नहीं संपन्‍न होता।

दूर्वा की नोक से जब हल्‍दी छिड़की जाती है तो ऐसा लगता है कि तितिक्षा के अग्रभाव से साक्षात सौभाग्‍य छिड़का जा रहा हो। हल्‍दी-दूब का यह संयोग सत्‍व को चिद् और आनंद का मंगलमय परिधान देता है, नहीं तो अपने में सत्‍व निरापद और अशिव है। उसको अपना गौरव चिद् और आनंद के सुखद संयोग में ही प्राप्‍त होता है। शायद इसीलिए वह सत्व राष्‍ट्र के प्रतीक में हल्‍दी और दूब के योग का मध्‍यमान बन गया है।

हल्‍दी जब तक नहीं लगती, तब तक श्‍वेत-से-श्‍वेत वस्‍त्र अपरिधेय ही बना रहता है। हल्‍दी जब तक नहीं चढ़ती, तब तक कौमार्य अपरिणेय ही रहता है। हल्‍दी जब तक नहीं पड़ती, तब तक रसवती अप्रेय ही रहती है। इसलिए जब अक्षय तृतीया को पहला हल खेत में जाने लगता है, तब हल, बैल और हलवाहा तीनों ही हल्‍दी से टीके जाते हैं। जब पहला बीज धरती में पड़ने जाता है, तब खेतिहर, खेत, बीज और कुदाली चारों हल्‍दी से छिड़के जाते हैं, जब मातृत्‍व की सफलता में नारी उतरने को होती है, तब उसके नैहर से आई हुई हल्‍दी-रंगी पियरी और हल्‍दी-रंगी झंगुली ही उसको तथा उसके लाल को कुल के समक्ष प्रस्‍तुत करती हैं। जब कुमारी सुहागिन बनने को होती है, तब उसके अंग-अंग को हल्‍दी की असीस देती है और नख-शिख हल्‍दी से रंग कर ही सौंदर्य सौभाग्‍य का सिंदूरदान पाता है। जिसको हल्‍दी नहीं लगती, वह धरती परती पड़ जाती है। जिस पर हल्‍दी नहीं खिलती, वह नारी सौंदर्य का अभिशाप बन जाती है। जिसको हल्‍दी नहीं चढ़ती वह कन्‍या आकांक्षा की अछोर डोर बन जाती है, क्‍योंकि हल्‍दी के ही गर्भ में धरती का सच्‍चा अनुराग तत्त्‍व छिपा रहता है, हल्‍दी की ही गाँठ में स्‍नेह का अशेष हृदय से आमंत्रण बँधा रहता है, हल्‍दी में ही रंगकर श्‍याम दूर्वाभिराम हो जाते हैं और हल्‍दी के छूने ही से मंगल की प्राण प्रतिष्‍ठा हो जाती है। इसी से यद्यपि उसके लिए वेद ने आग्रह नहीं किया; पर लोक के अंतर का आग्रह था, वह हल्‍दी मंगल-विधि में अपरिहार्य बन गई, उस हल्‍दी को संस्‍कृत वालों ने इसी से ‘वर्णक’ संज्ञा दी, मानो वर्ण की सार्थकता हल्‍दी में ही अर्पित हो गई हो, दूसरे वर्ण इसके आगे अपार्थ हो गए हों। हल्‍दी वस्‍तुत: उस लोक-हृदय की सुरक्षित थाती है, जिसने नए-नए देव और मंत्र तो स्‍वीकार किए; पर जिसने उपासना के उपादान वैसे ही संजोये रहे और जिसकी आस्‍था के रंग वैसे ही चटकीले बने रहे।

हल्‍दी, दूब इस देश की संस्‍कृति को रूप और सौंदर्य स्‍पर्श देते रहे हैं, कमल गंध देता रहा है; पर दधि-अच्‍छत, रस तथा शब्‍द देते रहे हैं। जिस प्रकार शब्‍द से आकाश भर जाता है, उसी प्रकार से अक्षत से अर्चन की थाली भर जाती है। जिस देश के बाहर-भीतर सभी आकाशों में युगों से अक्षर ब्रह्मा का नाद आपूरित होता रहा हो, उस देश की जनकल्‍याणी अंतरात्‍मा को आसन देने के लिए इसी से अक्षत से बढ़कर कोई सामग्री उपयुक्‍त नहीं समझी गई और वह अक्षत संस्‍कृत व्‍याकरण की महिमा से बराबर बहुवचन में केवल इसीलिए प्रयुक्‍त होता रहा कि बहुजन-हिताय का बोध उससे होता रहे।

दही उस संस्‍कृति की कपिला वाणी की साक्षात रसमयी प्रतिमा है। दूध से यौवन के उफान का बोध भले ही होता रहे, माखन से मन की एकता भी और घृत से आयुष्‍म की लक्षणा भी बनती रहे; पर इष्‍टता की प्राप्ति दही में होती आई है और इसीलिए सही माने में गोरस केवल दही ही है। जिस दही के दान के‍ लिए इस देश के परब्र‍ह्म हाथ पसारते रहे हों, जिस दही के मटके के लिए मंगलविधि तरसती रही हो, वह दही अपने समस्‍त गुणों में इस देश की सांस्‍कृतिक विवर्तनशीलता तथा अंतर्ग्रहणशीलता का प्रतिमान है। दूध मे खटाई पड़ते ही वह फट जाता है, दूध में नमक की एक छोटी-सी डली भी पड़े तो वह विषतुल्‍य हो जाता है; पर दही खटाई, मिठाई, लुनाई सभी स्‍वादों से समरस होनेवाला एक विलक्षण आस्‍वादन है। उसमें दूध के उफान या घी के पिघलने से अधिक धीमी आँच में तपने के कारण एक स्थिररूपता है। ठीक यही बात उस दही से अभिव्‍यज्‍यमान संस्‍कृति के बारे में भी कही जा सकती है, सभी रसों से मेल रखती हुई भी अपने रस में सबको समाविष्‍ट करती हुई और क्षणिक उत्ताप या द्रवण से अप्रभावित रहकर साम्‍य निदर्शन करती हुई वह सच्‍चे अर्थ में दधि से अधिक ‘उर ईठी’ बन गई है। उसकी ऐसी महिमा है कि उसके छाछ के लिए तो इंद्र तक तरसते ही हैं, स्‍वयं सच्चिदानंद तक को ‘अहीर की छोहरियाँ तक छछिया भर छाछ पर नाच’ नचा देती हैं। उसके मंथन से केवल अमृतमय नवनीत निकलता है।

सौभाग्‍य, तितिक्षा, स्‍नेह तथा परिपूर्णता के लिए आग्रह-रूप में उस संस्‍कृति की पूजा की थाली हल्‍दी, दूब और दधि-अच्‍छत से सजायी जाती रही है और सजायी जाती रहेगी, पर उस पूजा का मर्म उसी को खुलेगा, जो लोक-जीवन की मंगल-साधना में अपने को तन्‍मय कर सकेगा और वह तन्‍मयता ग्रामसेवक या गाँव साथी बनने से नहीं आएगी, उसे पाने के लिए मन से गँवार बनना होगा, शहरी संस्‍कारों को एकदम धो देना होगा। बिना उसके, हल्‍दी, दूब और दहि अर्थशून्‍य आडंबर ही लगेंगे। ये सभी मंगलद्रव्‍य अभिव्‍यंजन हैं, अभिधान नहीं। अभिधान को प्रकट करने में हम दोष मानते हैं और अभिव्‍यंजन के लिए सहृदयता की जरूरत पड़ती है, बिना उसके उसका उल्‍लास बनकर आस्‍वाद्य नहीं होता। आज संस्‍कृति का अभिधान तो है, जो न होता तो अच्‍छा होता; पर उसका अभिव्‍यंजन नहीं है, उस अभिव्‍यंजन को न पाकर ही साहित्‍य रिक्‍त है, सांस्‍कृतिक जीवन भी मृदंग की भाँति मुखर होते हुए भी खोखला है। आज जीवन में उस अभिव्‍यंजन को भरने की ललक इसीलिए सबसे अधिक है और इसी से हल्‍दी, दूब और दधि-‍अच्‍छत का मान अधिक दिनों तक उपेक्षित नहीं रह सकेगा।
तुम चंदन हम पानी

 

र में पिताजी और दो पितृव्य पूजा-पाठ बहुत निष्ठापूर्वक करते हैं, इसलिए तीन होरसे तो कम-से-कम घर में हैं ही प्रतिदिन इन पर चंदन और प्राय: मलयागिरि चंदन ही घिसा जाता है। रक्तचंदन या देवी चंदन तो नवरात्र में या रविवार को ही इन होरसों पर घिसता है। इसलिए चंदन से बड़ी पुरानी जान-पहचान है। पाँच-छह वर्ष का था, मैं अपने बड़े पितृव्य के पास जाकर चुपचाप बैठ जाता था और उनका महिम्न स्त्रोत्र पूर्वक चंदन घिसना देखा करता था। पूजा उनकी घण्टों चलती थी। बीच-बीच में किसी वस्तु की आवश्यकता हुई, तो वे देव भाषा में ही संकेत करते और मैं ला देता। पूजा समाप्त होने पर गौरी, गणेश, पार्थिव शिव, एकादश रुद्र और श्री दुर्गासप्तशती तथा श्रीमद्‍भागवत पर चढ़ने से जो चंदन अवशिष्ट रहता था, उसको पितृव्य मेरे भाल पर या ग्रीवा में चर्चित करते और तब अपने भाल पर तिलक लगाते। इसके बाद प्रसाद देते, जिसके लोभ से मैं इतनी देर तक बैठा रहता था। उस चंदन-तिलक से भाल चर्चित करने के सुअवसर अब नहीं मिलते, पर उसकी सुरभिमन में यत्न से सुरक्षित है। कारण शायद यह हो कि जो उस समय मेरी जिज्ञासा के समाधान में पितृव्य चरण ने बतलाया था कि चंदन अपने-आप घिसकर बिना देवता को चढ़ाये अपने सिर पर लगाने से पाप होता है, उस वाक्य के पीछे युग की शिक्षा पर संघृष्ट महान्‍ सत्य की पावन स्मृति हो कि मनुष्य को अपने जीवन-संघर्ष से सुरभि अर्जित करने का अधिकार तभी मिलता है, जब वह अर्पित भाव से संघर्ष में रत होता है। या शायद चंदन के आमोद में पार्थिव आनदं के चरम उत्कर्ष की प्राप्ति होने के कारण जगदात्मा की उस चंदन से एकाकारता का भान हो, जिससे प्रेरित होकर किसी संत कवि ने गाया था-‘प्रभुजी तुम चंदन हम पानी’ या शायद चंदन के तिलक से उभरे हुए उन गुरुजनों के व्यक्तित्व की मन पर गहरी छाप हो। बहराल, भाल चंदन-चर्चित हो न हो, मन मलयज से अब भी सुवासित है।

सोचता हूँ प्रभुजी चंदन क्यों हैं? हम जिनके प्रति अपने को अर्पित कर रहे हैं, उन्हें अपने जीवन के साथ घिसने में सार्थकता क्या है? मुझे कभी-कभी तब यह ध्यान आता है कि काठ के टुकड़े की तरह सामान्य रूप से हमारे अंतस् के कोने में पड़ा हुआ चिदंश जब तक हमारे जीवन के साथ सम्पृक्त नहीं होता, तब तक वह निर्गुण, निरामोद और निर्व्यक्त बना रहता है ज्यों ही वह इस पार्थिव शरीर के शिलाखंड पर जीवन के छिड़काव से बार-बार रगड़ खाने लगता है, त्यों ही उसका गुण, उसका आमोद और उसका चैतन्य अभिव्यक्त हो उठते हैं। विश्वात्मा की सुषुप्त शक्ति स्फुरित हो जाती है। पर जो अभागा आदमी इस चंदन को घिसकर अपनी प्रेयसी का अंगराग बना डालता है, या अपने शारीरिक ताप का उपशम-साधन मात्र समझने लगता है, उसका जागरित, परिस्फुरित और प्रमुदित चिदंश पुन: उसकी प्रिया की विलासश्रमबिंदुओं या उसकी ही कायिक, मलिनताओं में घुलकर विलुप्त हो जाता है। जब विश्वात्मा के आंनद का वह लव कायिक धरातल से सुरभिकण के रूप में ऊपर उठता है तब चराचर विश्व में अभिव्याप्त आनंद-पारावार से एक होने के लिए, इसलिए इस सुरभि के अभ्युत्थान की सार्थकता इस पूर्णता की प्राप्ति में है, पूर्णता की प्राप्ति अर्थात्‍ एकांशिता से विमुक्त।

नए मानवीय मानों पर बल देने वाले अभिनव मलयानिलों से मैंने यह संकेत पाया है कि मनुष्य महान है, वह दूसरे किसी महत्तर के प्रति अर्पित क्यों हो। भुजंगों से लिपटा हुआ चंदन का वृक्ष ही स्वत: महान्‍ है, वह आस-पास के कंकोल, निम्ब और कुटुज तक को चंदन बना डालता है। विषयों से परिवृत मानव अपने यश से अपने परिवेश में प्रत्येक युग में सुरभि भरता आया है, उसे अर्पित होने की क्या आवश्यकता है। ये मलयानिल दक्षिण से नहीं पश्चिम से आए हैं, अर्थात्‍ दाएँ से नहीं पीछे से आए हैं। इनकी पुकार इसलिए पीछे मुड़कर सुनने की सबके मन में उत्कंठा-सी जग जाती है। सबसे बड़ा सृष्टि में मूर्धन्य कौन है? यह मनुष्य है। वह तब क्यों स्फीत होकर न चले, क्यों वह विनीत होने को विवश हो ?

इस प्रश्न का उत्तर देने का साहस कौन करे? मुझे तो जय देव के प्रसिद्ध विरह-गीत की कड़ियाँ बरबस याद आ जाती हैं :

निंदति चंदनमिंदुकिरणमनुविंदति खेदमधीरम्‍

व्यालनिलयमिलनेनगरलमिव कलयति मलयसमीरम्‍

सा विरहे तव दीना

माधव मनसिजविशिखभयादिव भावनया त्वयि लीना

माधव के विरह में राधा अंग में आलिप्त चंदन को अधिक्षिप्त करती हैं और चंद्रमा की शीतल किरणों से दुख पाती हैं। सर्पों के वास से सम्पर्क होन के कारण मलय-समीर को विषतुल्य अनुभव करने लगती हैं, क्योंकि ये माधव के विरह में दीन हैं और पुष्पधंवा के बाणों से भयभीत होकर भावना के द्वारा माधव में ही लीन होने का उपाय रच रही हैं। तो ऐसा समय भी आता है, जब चंदन की निंदा होती है, जब माधव, अपने प्रत्यगात्मा, अपने पारमार्थिक रूप, अपनी विश्वप्रसृत क्षमता और अपने आदर्श से बिछुड़ जाते हैं, मलयज का मान तभी है, जब मलयज भारवाही पवन सागर-प्रक्षालित चरणों से हिम मण्डित मुकुट तक उत्तर यान के लिए ललित गति से सतत प्रवहमान है। चंद्रिका का मान तभी है , जब मन में अविकल और पूर्ण काम चंद्रप्रकाश मान है, मनुष्य का गौरव भी तभी है तब वह अपने आप में अधिष्ठित है। जिस क्षण वह आत्म-विश्लिष्ट हो जाता है, उस क्षण वह अत्यंत हेय बन जाता है। इसलिए जब वह अपने को परात्पर के लिए अर्पित करता है, तब उस समय वह सचमुच बिकता नहीं है। उल्टे उसी समय उसका गिरा हुआ मूल्य एकदम ऊँचे चढ़ जाता है, क्योंकि उसके लघुतर और क्षुद्रतर अंश स्वयं उसी के बृहत्तर और महत्तर अंशी के प्रति प्रणत होते ही उसे बृहत्तर और महत्तर सत्ता से एकाकार कर देते हैं। जो नर के नियत भावी उत्कर्ष में विश्वास करेगा, वही नारायण में भी विश्वास करेगा, क्योंकि ‘नराणां नरोत्तम’ और नारायण दोनों वंदनीयता की समान कोटि में आते हैं। ‘नार’ का अर्थ पुराणों और स्मृतियों में जल अर्थात आदि सृष्टि कहा गया है, इस आदि सृष्टि में अभिव्याप्त सत्ता का नाम ही नारायण कहा गया है। इसलिए नरों में जो नरोत्तम होना चाहता है, उसे स्वभावत: नारायाणा भिमुख होना ही पड़ता है, क्योंकि नर का अर्थ ही है अपने में सिमटा हुआ। जिन लोगों ने मनुष्य मात्र को नमो नारायण कहकर प्रणाम करने की परंपरा चलायी, वे मनुष्य की अंतर्निहित शक्ति के सबसे बड़े दृष्टा थे, वे मनुष्य के विस्तार शील रूप को आवाहित करना जानते थे, इसलिए सामान्य से सामान्य जन को देखकर वे यही कहते थे, नारायण को नमस्कार है, तुम्हारे अंदर जो विश्व-भावना तत्त्व है, उसे नमस्कार करता हूँ ताकि वह तत्त्व तुम्हारी क्षुद्रता और संकीर्ण्ता के बहिरावण को फोड़कर बाहर आए।

शायद कुछ लोग ‘प्रभुजी हम चंदन, तुम पानी’ कहकर मानव की क्षुद्रता और दुर्बलता को गौरव देना चाहें और कहें कि जरा-सा-उलट दिया, बात तो वही है, चाहे खरबूज गिरे छुरी पर या छुरी गिरे खरबूजे पर, खरबूजे का कटना अवश्यम्भावी है, चाहे प्रभुजी चंदन हों और हम पानी हों चाहे हम चंदन हों, प्रभुजी पानी हों, घिसना तो अवश्यम्भावी है, तो उनका तर्क तो बहुत ठीक है; परंतु चंदन तब नहीं घिसेगा। तो जरा-सा हमारा पानी लगता है और प्रभु का चंदन पसीज जाता है; पर हमार छोटा-सा चंदन प्रभु के अपार कृपा सिंधु में होरसा समेत बह निकलेगा, फिर चंदन घिसने की बात भी समाप्त हो जाएगी। इस सम्भावना को वे लोग एकदम भूल जाते हैं वस्तुत: छोटाई-बड़ाई की यह सापेक्षता किसी बाहरी वस्तु की तुलना में नहीं की गई है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं अपने में ही छोटाई-बड़ाई दोनों से समवेत है और दोनों की सापेक्षता अपने में ही वह अल्प-मात्र आयास से अनुभव कर सकता है।

मेरे बड़े दादा मिट्टी सानकर पार्थिव शिव की सुंदर आकृति बनाते, उनके आस-पास मिट्टी का ही गौरी गणेश रचते और चारों ओर ग्यारह रुद्रों की पंक्ति मिट्टी की ही खड़ी करते, तदनंतर इनके ऊपर रुद्राभिषेक के मंत्रों से जलाभिसिंचन करते और इन पर चंदन चढ़ाते। चंदन-चर्चित हो जाने पर ही उन्हें वे अन्य गंध-मालय, धूप-दीप और नैवेद्यादि का अधिकारी मानते। मैं समझता हूँ कि वे अपनी पार्थिव सीमा में बँधे महादेवता को अपने पवित्रतम जीवन से रससिक्त करने के अनंतर अपने जीवन के साथ संघृष्ट उत्कृष्टतम महत्त्व वासना का आमोद चढ़ाकर रही अपने महादेवता को पूर्ण प्रतिष्ठा दे पाते थे, या यों कहें अपने में दूर फैलने की महान बनने की और निर्माण करने की जो भी शक्ति सन्निहित है, उसको अपूर्णरूप से जगाकर ही मनुष्य अपने को प्रकाश का अधिकारी बना सकता है। निवेदनीय पात्र बनकर नैवेद्यका भोक्ता बना सकता है। इज्य बनकर धूप अर्थात-आहुति का अधिकारी बना सकता है। इसलिए पहले चंदन को, जो प्रभु का ही जड़ीभूत रूप है, जीवन के संस्पर्श से शरीर को शिला की तरह दृढ़ आधान बनाकर घिसो; तब तक घिसो , जब तक नख न घिस जाएँ। “चंदन घिसत-घिसत घिस गयो नख मेरो, वासना न पूरत माँग को सँवार।” तानसेन के इस ध्रुपद की यह पुकार है कि जब तक वासना न पूरे तब तक नख घिस भी जाए, घिसने की प्रक्रिया न रुके, वासना पूरी तरह से जब तक इस चंदन के साथ घिसकर उतर न आए, तब तक वह चंदन अर्पणीय कैसे होगा! और यदि इस पूर्ण तल्लीनता के साथ चंदन घिसते ही तो चंदन बिना चढ़ाये ही जहाँ चढ़ाना है चढ़ जाएगा और तुम चंदन घिसते ही रहोगे, तुम्हारे चंदन का अर्चनीय तुम्हें तुम्हारे अनजाने में चंदन से तिलक कर जाएगा, “तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुवीर।” यह न हो कि चंदन तो उतारते जाओ, पर उसी को भूल जाओ, जिसके लिए तुम चंदन उतारने बैठे थे, जैसा कि मेरे एक संबंधी के यहाँ के एक ब्राह्मण देवता किया करते हैं। निष्काम-भाव से वे छटाँक-छटाँक भर चंदन उतार डालते हैं और जब चंदन उनकी आवश्यकता से कहीं अधिक उतर जाता है, तो कई घर जाकर अनेक पुजारियों को इस लोभ में दे आते हैं कि चंदन घिसने में उनका जो परिश्रम बचा, उसके बदले में वे कुछ दे दें। मैं जानता हूँ ऐसे परार्थ-घटकों का, कहीं भी जाइए, अभाव नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में जाइए तो कई एक ऐसे साहित्य के सेवी मिलेंगे, जो किसी-न-किसी पुजारी के लिए रात-दिन चंदन उतारते ही रहते हैं। बदले में कुछ दान-दक्षिणा मिल ही जाती है। राजनीति के क्षेत्र में तो बड़ा पुजारी केवल आरती के समय ही आता है। चंदन उतारना तो हमेशा टुकड़खोरों के कर्तव्य-वितरण की सूची में आता है।

हाँ, केवल रक्तचंदन उतारने वाला पुजारी निष्काम भाव से चंदन नहीं घिसता। वह तो शक्ति का पुजारी होता है। जिसके मस्तक पर वह रक्तचंदन का तिलक लगा देगा , वह या तो पशु होगा या फिर वीर ही होगा। पशु होगा, तो बलि होगा और वीर होगा, तो मुक्त होगा। मलयज घिसा जाता है, तो गंध जगती है; पर रक्त चंदन जब घिसा जाता है, तब राग जगता है। इस राग से रंजित होकर या तो मनुष्य बिल्कुल अध:पतित ही होता है, या फिर ऊँचे उठता है, या तो उसका उठान निस्सीम हो जाता है। मलयज में प्रभु की कृपा अधिक घिसती है और अपना जीवन यापन अल्पमात्र लगता है; रक्तचंदन उतरने में देवी की प्रेरणा कम, अपने जीवन का रस अधिक लगता है। इसलिए यह वक्रपंथगामियों की उपासना में ही अधिक उपयोगी माना जाता है। राजमार्ग पर चलने वाले धवल वेशधारियों के मस्तक पर यह फब ही नहीं सकता। यह तो सुनसान अंधकारित पथों पर निर्भय विचरण करने वाले नीलकंचुक धारियों के उज्ज्बल भाल का श्रंगार है।

काव्य में एक पथ के पांथ हैं तुलसीदास और दूसरे के कालिदास। तुलसी शील की छँह में छँहाते चलते हैं, और कालिदास बिजलियों की कौंध से आँखें मिलाते चलते हैं तुलसी में मलयज की तरह ताप-निवारण की क्षमता है, कालिदास में लोहित चंदन की तरह उन्मादन राग-विवर्धन की शक्ति है। एक तीसरा भी पंथ है, केशर या हल्दी के रंग में मलयज को संसक्त करके तिलक देने वालों का। रागात्मिका भक्ति के द्वारा दक्षिण और वाम पंथ के बीच सहज समाधान प्राप्त करने वालों का। इनके तिलक में बंकिमा और सादगी दोनों होती है। सूरदास, हितहरिवंश, व्यास आदि इसी पंथ के प्रणेता हैं। और एक चौथा चंदन भी है, जिसको वैष्णव जन गोपी-चंदन कहते हैं। मेरी एक परम वैष्णव चाची हैं, वे बतलाती हैं कि जिस सरोवर में गोपियों ने स्नान करके अपने प्रेष्ठ भगवान का साक्षात्कार पाया, उस सरोवर की मिट्टी ही समर्पित गोपी के अंग से लगकर चंदन बन गई है। सम्भवत: जितने भी दुराव, आवरण और आत्मसंकोच आदि कृपणभाव हो सकते हैं, उन सबसे मुक्त होकर अपने को निश्शेष भाव से जो अपने सर्वश्रष्ठ काम के लिए अर्पण करते हैं, तो मलयाचल की तरह अपने आश्रय-मात्र को चंदन बनाने में वे समर्थ हो ही जाते हैं हाँ, यह गोपी-चंदन बहुत ही उच्चतर भूमिका वाले सिद्ध भक्तों के लिए ही है।

पर मैं तो यह मानता हूँ कि चंदन जो भी हो, किसी रंग में भी सना हो, वह हमारी विश्वभावना का ही एक शुष्कप्राय खंड है , जिसे रस-सिक्त करना हमारा सतत कर्तव्य है। जिस किसी भी शिला का हम होरसा बनवाएँ, वह धरती पर टिकी हो, संघर्षण में वह डगमागाने वाली न हो। हम जो कोई भी जल सींच-सींचकर चंदन को आद्र करें; वह शुचि हो, स्वच्छ हो और अभिमंत्रित हो। हम तिलक जो भी लगाएँ, वह अर्पित चंदन का तिलक हो, स्वार्थ संघृष्ट न हो, सुविस्तृत विश्व को सुरभित करने से जो बचा हो, वही हम अपने सिर-आँखों लें, इसी में हमारी भव्य परंपरा की अभिवृद्धि और हम सभी के अंत:करणों का सौमन्य सन्निहित है तत्त्वत: हमीं चंदन हैं, हमीं पानी हैं। हमीं होरसा हैं, हमी कटोरी हैं, जिसमें चंदन रखा जाता है। हमीं अर्चनीय देवता हैं और हमीं अर्चक भक्त हैं; पर यह हमारा विस्तार बोध भी तभी जगता है, जब हम प्रभु को चंदन और अपने को पानी मानकर चलते हैं। उदात्त रूपों का आकार सामने रखकर उनसे उनका सार ग्रहण करते हुए जीवन में उतारना है, यह ध्येय सामने रखकर चलते हैं और जो भी उदात्त गुण हम अर्जित करते हैं, उनको विश्वहित में विनियोजित करने का संकल्प लेकर चलते हैं।

यही हमारी चंदन-चर्चा की पारमार्थिक परिभाषा है और इसी से हमारे गंधहीन, नि:स्व, रिक्त सांस्कृतिकम्मन्य जीवन में चंदन मांगल्य का अंग बना हुआ है। लिलार हमारा चाहे चंदन लगाने से चर्राने लगे और चंदन लगाते ही हम अपने को दशहरे के हाथी जैसा उपहसनीय प्राणी मानने लगें; पर हमारे अंतर्मन में चंदन का छिड़काव अभी गीला है, क्योंकि हमारे अक्षर अज्ञान के भीतर वह रागिनी अभी जागती है, जिसके किवाड़ चंदन के बनते हैं, जिसकी चौकी चंदन से गढ़ी जाती है, जिसके द्वार पर चंदन का बिरवा रोपा जाता है, जिसके गलहार भी चंदन के ही बनते हैं और जिस पर चंदन लिप्त हथेलियों की छाप पड़े बिना मंगल विधि नहीं पूरी होती। वह रागिनी ही जनता-जनार्दन की चंदन-खण्डिका है, जो एक कठोर विचार पीठिका पर बराबर ग्राम देवता की विलीयमान आनंदाश्रु बिंदुओं से परिषिक्त होकर घिसी जा रही है, घिसते-घिसते वह अब सूत मात्र रह गई है। उसकी सुरभि बिखर रही है; पर देवता नहीं उठ रहा है। कारण मैं नहीं जानता केवल इतना जानता हूँ कि निर्ममता से इस चंदन के छोटी-सी टुकड़ी को न घिसो। इसे सँभालकर घिसो. देवता को जगाओ, जिसके उद्‍बोधन से प्रत्येक काष्ठ चंदन बन लहक उठे। जिन भुजंगों के विष के भय से पेड़-के-पेड़ सूख-से गए, उनको भुजदंड बजाने वाले हिमवासी शंकर का इस तप्त मिट्टी के पिंड में आवाहन करो। वे चंदन स्वीकारें, जिससे जन-चेतना और उमंगित होकर पसरे, चंदन की महक प्रत्येक दिशा में फैले और चंदन का छिड़काव प्रत्येक पथ पर हो जाय। तभी हमारा बचा-खुचा पानी सार्थक होगा और तभी चंदन की प्रचुरता हमें इतना उदार बनने की प्रेरणा देगी कि चंदन की कुटी छवाकर निंदक को भी अपने निकट रख सकें। तभी चंदन-चर्चित संस्कृति का मंगलास्पद रूप अपना नवोत्कर्ष पा सकेगा।

चंद्रमा मनसो जातः

 

चंद्रमा के जन्‍म–कर्म के संबंध में अनेक कथाएँ हैं, कहीं वे महर्षि अत्रि की संतान हैं, कहीं त्रिपुरसुंदरी की बाँईं आँख से समुद्भूत कहे गए हैं और कहीं उदधि के वे पुत्र कहे गए हैं, पर इन सब से अलग और विचक्षण कल्‍पना है कि ‘चंद्रमा मनसो जात:’ चंद्रमा विराट पुरुष के मन से उत्पन्न हुए हैं। मन से उत्पन्न हुए हैं तभी तो बुध के पिता हैं और मनोभव के अभिन्न मित्र। और तभी तो अंतर्जगत के समस्‍त सौंदर्य के और जीवन के निश्‍शेष अमृतत्व के अकेले प्रतीक हैं। चंद्रमा का कलंक है और उनकी क्षीणता भी मानव मन की क्षीणता है। अमृत-साधना का मंत्र चंद्रमा ने मन से ही तो पाया है, मन भी पार्थिव मन। चंद्रमा का पथ पृथ्‍वी की परिक्रमा के साथ-साथ मनुष्य की ऊँची उड़ान की लकीर है। ‘कारण गुणा:कार्यगुणारारभंते, (कारण के गुणों से कार्य के गुण होते हैं) यह न्‍यायशास्‍त्र के लिए चाहे सच हो, पर मैंने तो देखा है कि चंद्रमा कार्य होते हुए भी अपने कारण मन में अपने-अपने गुणों का प्रतिक्षेप करता रहता है। मन की पर्तों को समझने के लिए इसीलिए चंद्रमा की पर्तों को समझना आवश्‍यक हो जाता है।

माउंट विल्‍सन की वेधशाला वाली दूरबीन के लिए सुना है कि चंद्रमा की दूरी केवल पचीस मील रह गई है और वहाँ से चंद्रमा का चप्‍पा-चप्‍पा जमीन की पैमाइश कर ली गई है। चंद्रमा क के नक्शे में पहाड़ों और खोहों को टेढ़े-मेढ़े जबड़ातोड़ नाम भी दिए जा चुके हैं। चंद्रमा को रसाकर मानने वालों को बड़ी निराशा हुई है यह जान कर कि रस की वहाँ एक बूँद भी नहीं है, जो कुछ सुंदरता है वह बीहड़ और उजाड़, जीवन का वहाँ सर्वथा अभाव है। इसीलिए चंद्रमा की चढ़ाई में इधर लोगों को रस नहीं मालूम होता। मन के लिए भी दूरबीन आल्प्स की घाटियों में खड़ी करने का प्रयत्‍न फ्रायड, जुंग और एड्लर ने किया है, पर इन की दूरबीन और रंगीन है। मन की विषमताओं के केवल अधूरे पक्ष इसकी परिधि में आ सके हैं। मन का जीवन से कितना बिलगाव है यह तो पता चल गया है, पर मन की अंदरूनी नाप-जोख अभी ठीक-ठीक नहीं हो सका है। चंद्रमा छिछोरा रहा है, उसका भेद देने के लिए अश्विनी, भरणी, कृत्तिका आदि-आदि सत्‍ताइस चमकने वाली पत्नियाँ हैं, जो सौतियाडाह से दहकती रहती हैं। मन की गहराई अतलस्‍पर्शिनी है, उसका भेद लेने के लिए सुषुप्ति तक पहुँचना पड़ता है और ‘सुन्‍न महल में दिअना’ जलाना पड़ता है। ‘न यत्र सूर्योभाति न चंद्र तारका नेमा विधुती भांति कुतोऽयमग्रि:’ (जहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं, चंद्रमा का प्रकाश नहीं, आग की कोई चर्चा ही क्‍या उठेगी) मन का लोक पृथ्‍वी के परमाणु में समेट कर समस्‍त ब्रह्मांड से बड़ा है, उससे भी अधिक दुर्ज्ञेय है, अज्ञेय मैं न कहूँगा, क्‍योंकि अपने को अज्ञेय घोषित कराने वाला तो ज्ञान को चुनौती दे देकर ज्ञेय हो जाता है। मन की पैमाइश इसलिए अभी पश्चिमी मनीषी तक नहीं कर पाए हैं इतना ध्रुव है। सूक्ष्‍म को स्‍थूल बना कर देखने का जिसे अभ्‍यास हो, वह स्थूल से सूक्ष्म तक का साक्षात्‍कार कर भी नहीं सकता। पश्चिम से हमारा अभ्यास भिन्न है, हम ससीम से असीम की ओर जाने का प्रयास करते हैं, सरूप से अरूप की ओर जाने की चाहना करते हैं, और वैखरी से परा तक पहुँचने की सीढ़ी लगाते हैं, इसलिए हमने सोचा-समझा और कह दिया ‘चंद्रमा मनसो जात:’ चंद्रमा मन से उत्‍पन्‍न हुआ। मन की खोज चंद्रमा के सूत्र से ही की जा सकती है, इसी सूत्र के सहारे खोज हमने की है और चंद्रमा की पर्त चाहे न उघारी हो पर मन की गाँठ हमने खोली। सो कैसे? चंद्रमा की अमृत-साधना की बदौलत। कभी किसी ने कृष्‍ण पक्ष की अष्‍टमी के शशि को देखा है। साँझ से नीरव निशीथ तक अनंत आकाश में अनंत झिलमिलाते नक्षत्र पुंज में अपना दुविधा सुधा को बाँट बिखरा कर वारुणी के अंचल में मुँह ऊँचा कर के झाँकते हुए महासाधक को किसी ने देखा है? आधी रात के झाँय-छाँय करते हुए सूनेपन में अपनी आधी कला लुटा कर शेष आधी कला की बंकिमा में खिलते हुए इस बेला के फूल को किसी ने देखा? जिसने देखा होगा, वह मन की उस साधना का मर्म भी समझ सकेगा, जिसमें जवानी अपने हृदय का आधे-आध करके आधा हृदय हथेली पर रख कर आधे हृदय से ही उमगती रहती है। कुछ और स्‍थूल जगत में चलें तो इनका एक चित्र देखें।

एक किशोरी के मन में एक किशोर के लिए चाह उकसती है और उसका मनचाहा उसे मिल भी जाता है, वह खुद मनचाहे की मनचाही बन जाती है। यहाँ तक कि मनचाहा उसके हाथ बिक जाता है। अंत में बीच जवानी में जब मनचाही पूरे तौर से उसका मन हथिया लेती है तब धीरे-धीरे वह एक-एक करके उस चाहे मन के पंख नोच-नोच कर अलग करने लगती है, अपनी एक-एक मुस्कान पर उसकी सौ-सौ मुरकानि करती हुई उसे निपाख और पंगु बना देती है। किंतु स्‍नेही का बिका हुआ मन आह नहीं भरता है, हाँ विषभरी मुस्कान की एक चोट में घायल होकर गा भर देता है। उस गान की अमृत स्‍वर-लहरी में जगत उसके बलिदान का प्रतिपादन पा जाता है। भर रात ठूँठ गुलाब के काँटे से अपने को छिदा कर अपने रक्‍त से सींच कर उस ठूँठ में सुमन खिलाने वाली आस्‍कर वाइल्‍ड की बुलबुल का बलिदान भी इस बलिदान के आगे हलका पड़ता है क्‍योंकि बुलबुल का बलिदान कम से कम गुलाब की हँसी मूठ में लिए रहता है और गुलाब ज्‍यों-ज्‍यों ठूँठ से हरा हो जाता है, ज्‍यों-ज्‍यों पल्‍लवित से किसलयित होता जाता है और ज्‍यों-ज्‍यों किसलयित से कोरकित होता जाता है त्‍यों-त्‍यों कृतज्ञता के आभार में वह तो अपने काँटे सिमटाता रहता है। बुलबुल स्‍वयं अपने नन्‍हें पैरों से खींच-खींच कर अपना हृदय काँटे में घुमाती चली जाती है। यहाँ तो मानव जगत में भरी जवानी में प्रेयसियाँ सरबस लेकर भौं सीधी नही करतीं और छटपटाते हुए मन-पँछी को मरोरती चली जाती हैं। तुलसी की सात्विक मंजरित सुरभि का स्‍वाद रत्‍नावली को नहीं मिला होगा, कालिदास की कामार्त्‍त विरहव्‍यथा की घटा उनकी विद्योत्‍तमा के आँगन में नहीं उनई होगी शेक्‍सपीयर की विरसतामई थकान की अनुभूति उनकी चतुर्दशपादियों की अज्ञात आराध्‍या को नहीं हुई होगी, दांते की प्रेम-यात्रा का अंदाज भी बीट्रिस को नहीं लगा होगा, घनानंद की सुजान या दूर क्‍यों शरत बाबू की पियारी को उनके स्‍वोत्‍सर्ग की झाईं भी न दीखी होगी। हवाई जहाज और राकेट तक पहुँच कर भी, अणु के खंड-खंड करने के बाद भी ध्‍वंस-शक्ति का महाजाल बिछाने के बाद भी मन के क्षेत्र में जगत लगभग वहीं है, जहाँ गुहावासी रहा होगा। मन की साधना भी लगभग वहीं है और इसलिए फ्रायड पढ़े बिना ही कालिदास का नीवीबंधोच्‍छ्वास समझ में आ जाता है, भवभूति का हरिचंदन पल्‍लवों का आश्‍च्‍योतन भी समझ में आ जाता है और देव की वियोगिनी की योगसाधना भी।

मानव मन का यही बलिदान उसकी अमृत-साधना है। बिना इस सँकरे में आए वह अमृत हो नहीं पाता, बिना अमृत हुए अमृत दे भी नहीं पाता। पुराणों में कथा है कि कृष्‍णपक्ष में पितर लोग चंद्र की एक-एक कला पीते हैं और शुक्‍ल पक्ष में देवता, पर चंद्रमा पिया जाता है दोनों पक्षों में, अमावस्‍या के दिन सबसे बड़ा उत्‍सव होता है पितरों का और पूर्णिमा के दिन देवताओं का। और साल भर में अमावस्‍याओं में भी सबसे पुण्‍यवती अमावस्‍या आश्विन की होती है, तथा पूर्णिमाओं में भी सबसे बड़ी पूर्णिमा उसी की होती है। चंद्रमा मृत और अमृत दोनों को पिलाता है, एक को पिलाता है क्षीण हो-होकर और दूसरे को पिलाता है पीन हो होकर। पितर पी कर भी नहीं तृप्‍त होते, देवता पीकर जगत तृप्‍त कर देते हैं। मनुष्‍य का मन भी दोनों को पीलाता है जो मरा है उसे भी, जो जीवित है उसे भी। मरे को पिला कर मारने का बल देता है, जिए को पिला कर जिलाने का बल देता है। अमा की अँधेरी रात में चंद्र रीता होकर भी द्वितीया की अर्चना पाने की तैयारी में डूबा रहता है, संकोच में छिपा रहता है और पूर्णिमा की उजेली चाँदनी में वह पूर्ण होकर भी अनागत की छाया से पीला पड़कर घूमता रहता है। ठीक यही दशा मन की है, दुख को गहन रात्रि में वह भार की आस में भीना और सुख के चरम उत्‍कर्ष पर उतार की निढाल से चूर।

पर बात चली थी कृष्‍ण पक्ष की अष्‍टमी के महासाधक शशांक की। वाम साधना में तो कृष्‍ण पक्ष की अष्‍टमी का यदि विशेष महत्‍व है तो अकारण नहीं। वाम साधना जिसे सहज मानकर तत्‍वदर्शियों ने सहज साधना की भी संज्ञा दी है, कृष्‍ण पक्ष की अष्‍टमी के अगले दो पहरों का सूना अंधकार भर नहीं माँगती, वह जीवन के पूर्वार्द्ध का भी निरालोक अंधकार माँगती है। यह अंधकार किसने नहीं दिया है, व्‍यास ने नहीं दिया कि कालिदास ने नहीं दिया, सूर ने नहीं दिया कि तुलसी ने नहीं दिया, ह्यूगो ने नहीं दिया कि गेटे ने नहीं दिया? किसने नहीं दिया? शक्ति के तीन नाम हैं… महालक्ष्‍मी, महासरस्‍वती, और महागौरी। जिसमें वैभव की कामना है उसने क्‍या अपना पूर्वार्द्ध नहीं गँवाया? जिसने स्‍नेह की चाहना की, उसने अपना पूर्वार्द्ध विछोह के अछोर अंधकार में नहीं गँवाया? सीधी-सादी चौड़ी डगर पकड़ कर चलने वालों की बात नहीं करता, क्‍योंकि उस राह पर चलने वाले भीड़ में धीर-धीरे सरकते हुए चलते हैं, जन्‍म-जन्मांतर में भी चींटी की तरह वे जहाँ के तहाँ ही पड़े रह जाते हैं, पर जो अनजानी एक-पदियों पर चलने का उत्‍साह रखते हैं, वे आधा जीवन अनुभव या ठोकर में गँवाते ही हैं। दूसरे के मारे शिकार पर उनके दाँत नहीं चलते और दूसरे की चली डगर पर उनके पग नहीं पड़ते, उनकी बात मैं करता हूँ, इसलिए कि उनकी बिरादरी में शामिल होने को न जाने कब से ललक है। कृष्‍णपक्ष की अष्‍टमी का इसीलिए भक्‍त हूँ। जानता हूँ निशीथ अभी दूर है, पर अंधकार के लिए ममता बड़ी प्रबल है। पांडवों ने इस अंधकार से ममता की थी और कभी अपने जीवन के अंतिम पहर में उन्‍हें विगत अंधकार के लिए बड़ी ललक भी हुई थी,

विपद: संतु न: शश्‍वद्यत्र यत्र जगद्गुरो
तत्र ते दर्शनं न: स्‍यादपुनर्भवदर्शनम्॥

(हे जगद्गुरु, विपत्तियाँ हमारे ऊपर सदा रहें, जिसमे तुम्‍हारा पुनर्जन्‍म का अदर्शन कराने वाला दर्शन तो मिलता रहे।)

अस्‍तु, अष्‍टमी तो चंद्रमा का एक पहलू मात्र है। चंद्रमा के और भी तो कोने-कगारे हैं। सबसे बड़ा तो उसका कलंक ही है, जिसे कवियों की कल्‍पना न जाने कौन-कौन रंग प्रदान करती रही है। शशक, मृग तो लोगों ने कुतूहलवश कहा है, तत्‍वत: कलंक चंद्रमा के उर:स्‍थल के गहनतम गर्त हैं, उसके हृदय के अंधकार की सबसे अछूती गहराई है और उसको गर्व से आस्‍फालित न होने के लिए सबसे बड़े अंकुश। मन की दुर्बलता भी उतनी ही संलक्ष्‍य होती है। विवेकानंद ने कहा था कि मनुष्‍य के हृदय में दुर्बलता न हो, तो ऊँचे उठने की प्रेरणा न उसमें आए, करुणा चीत्‍कार न उसमें उठें और न उसमें दिव्‍य ज्‍योति ही जगे। सहृदय रहीम ने भी इसी दुर्बलता से अपने आराध्‍य को आभारी बनाया था…

नवनीतसारमपहृत्‍य शंकया स्‍वीकृ‍तं यदि पलायनं त्‍वया
मानसे मय घमान्‍धताभसे नंदनंदन कथं न लीयसे॥

(माखन चुराकर यदि तुमने भागने की ही ठानी है तो कहाँ मारे-मोर फिरोगे, सारा जगत तो तुम्‍हारे प्रकाश से आलोकित है, हाँ, प्रगाढ़ अंधकार वाले मेरे मन के कोने में आकर छिपना चाहो तो भाई, आ जाओ जगह सुरक्षित है) कहाँ तो चंद्रमा में कलंक बसता है और कहाँ उस मतवाले रहीम ने अपने कलंक में ब्रजचंद्र को बसाना चाहा था। यह विधि‍ की विडंबना नहीं मन की विचित्रता है,जिसका कलंक जितना ही बड़ा होगा उसकी अमर ज्‍योति भी उतनी ही पूरी होगी। इसमें यह न समझा जाए कि कलंक ही महनीय अथवा पूजनीय है। पर उसकी पूजा का साधन है कलंक, उस अमरता तक पहुँचने की सीढ़ी है कलंक, जो इस साधन तक ही रह जाना चाहता है, जो अपनी दुर्बलताओं की गठरी पर बैठे रहने में ही अपनी जिंदगी बिता देता है और जो अमृत कला के लिए साहस का कण भी संचित नहीं कर पाता, वह तो अपने साधनों का दुरुपयोग करके पाप में एक दहाई और वृद्धि करता है। कलंक सबको ऊँचे नहीं उठाता, लेकिन जिसे उठाता है, उसे चरम शिखर तक पहुँचा देता है। इसलिए कलंक को महान पुरुष सहर्ष धारण करते हैं। स्‍वयं शशि को सिर पर बिठलाने वाले शंकर गले में कालकूट धारण करते हैं। शशिशेखर के‍ पितामह का कलंक तो मृगशिरा नक्षत्र के रूप में अब भी जाज्‍वल्‍यमान है और शशिशेखर के आराध्‍य तथा आराधक विष्‍णु की छाती पर लात का चिह्न धारण करते हैं। शंकर को महाविष मिला, क्‍योंकि उनमें क्रोध का लघुविष आ गया था, ब्रह्म को व्‍याध बने रुद्र का तीर मिला, क्‍योंकि उनमें काम आ गया था। विष्‍णु को लात मिली, क्‍योंकि उन्‍हें नींद आ गई थी। विष पीने के बाद शंकर से बड़ा दया और करुणा का सागर नहीं रहा, तीर से बिंधे जाने पर ब्रह्मा से बड़ा ब्रह्मचारी नहीं हुआ और लात मिल जाने पर विष्‍णु से बढ़ कर जागरूक पालनकर्ता नहीं हुआ। चंद्रमा कलंकी हुआ तो क्‍या हुआ। चंद्रमा के पिता (मन) के भी आरध्‍य परब्रह्म श्रीकृष्‍ण को भी कलंकी होना पड़ा। प्रीति से छूआछूत भी रखने वाले महापुरुष को छैला बना दिया जाए, उसके लिए इससे बड़ा कलंक क्‍या है? पर इस कलंक को धारण करके ही ब्रजेश्‍वर ने भारतीय साहित्‍य को उज्‍ज्‍वल शृंगार की पद्मनिधि लुटा दी है। चंद्र का कलंक छिपता नहीं, मन छिपाता है। जो मन नहीं छिपाता, वह कृतकार्य हो जाता है। मन छिपाता भी तभी नहीं है जब वह किसी ऐसे आराध्‍य की चिंता में लवलीन हो जाता है, जिसके वदनविंब के आगे,

नित ही अपूरब सुधाधर वदन आछो
मित्र अंक आए जोति ज्‍वा‍लनि जगतु है।
अमित कलानि ऐन रैन द्यैस एकरस
केस तम संग रंग राँचनि पगतु हैं।।
सुनि जान प्‍यारी घन आनंद ते दूनो दिपै
लोचन चकोरनि सो चौंपनि खगतु हैं।
नीठि दीठि परें खरकत सों किरकिरी लों
तेरे आगे चंद्रमा कलंकी सो लगतु हैं॥

निष्‍कलंक मुख चंद्र की प्‍यास समस्‍त कलंक धो देती है। वह प्‍यास दूसरों के लिए परम तृप्ति बन जाती है। व्‍यास को वेदपुराण-इतिहास में डूबने के बाद भी प्‍यास लगी थी और उस प्‍यास ने श्रीमद्भागवत का रसफल किया।

चंद्रमा की कला का घटाव-बढ़ाव नियत गति में बँधा चलता है पर मन इतना बँधा थोड़े ही है, हाँ वह अपने से बँधता है तो चाहे उस बंधन से पिंड न छुड़ा सके। चंद्रमा को इसलिए यदि एक पूर्णिमा मिलती है तो साथ ही अमावस्या भी एक से अधिक नहीं मिलती। निरंकुश होने के कारण ही मन की दशा ऐसी हो जाती है कि ‘जीवन मू‍रति जान को आनन है विन हेरैं सदाई अमावस’, साथ ही कभी-कभी अमावस चीर कर निकलने पर वह अनंत ज्‍योत्‍स्नामयी राकामयी स्थिति में भी चला जाता है, जहाँ से फिर लौटना नहीं होता।

चंद्रमा की तरह आकर्षण में बँधकर चलने वाले घरपोसू लोग भी होते हैं, जो पुत्र-कलत्र चिंता में इतने घिर जाते हैं कि अपना घटाव-बढ़ाव लख भी नहीं पाते, पर घटते-बढ़ते उनकी आयु सिरा जाती है। कभी-कभी स्थिरता उनमें आती ही नहीं कि चंद्रमा की ही भाँति अपने आप उसके गले में सुधादायिनी मूर्ति न लिपट जाए। पर मन को मुक्‍त रखने के लिए शरीर को व्‍याथा की व्‍याली से लपेटना पड़ता है, सब कुछ लुटा कर उसे केवल प्राण रक्षामात्र इसलिए करनी पड़ती है कि…।

दृग नीर सों दीठहिं देहु बहाय पै वा मुख कौं अभिलाखि रही।
रसना विष बोरि गिराइ गसों वह नाम सुधानिधि भाखि रही।
घनआनंद जान सुबैननिं त्‍यों रचि कान बचे रुचि साखि रही।
निज जीवन पाय पलैं कबहूँ, पिय कारन यों जिय राखि रही।

नेह में इतनी ‘बिथा’ ढोने वाले मन से मुक्‍त रहते हैं और वे अपने अवच्छिन्‍न प्रिय को प्राप्‍त न करें अनवछिन्‍न प्रिय को आवश्‍यक ही प्राप्‍त करते हैं। उनकी प्रीति में जो जितना ही अपना शरीर बाँधता है, वह बंधनों से उतना ही मुक्‍त हो जाता है।

दुस्‍सहप्रेष्‍ठविरहतीव्रतापधुताशुभा:।
ध्‍यानप्राप्‍ताच्‍युताश्‍लेषनिर्वृत्‍या क्षीणमंडला:॥

(प्रियतम के दुस्‍सह विरह के तीव्र ताप में समस्‍त अशुभ को धोकर और ध्‍यान में अच्‍युत प्रियतम का आलिंगन के द्वारा समस्‍त पुण्‍य का भोग कर) परमानंद से एकाकार हो जाते हैं। चंद्रमा विचार पार्थिव बंधन का दास उसे फेरा लगाना ही होगा, पर फेरा लगाते हुए भी वह सर्वथा अमृत पथ का संकेत किया करेगा, अपनी दुर्गति से सदा सद्ग‍ति की शिक्षा देता रहेगा। मन से निकल कर भी मन का मधुबंधन तो वह पा सका, पर मोक्ष न पा सका। चंद्रलोक पुण्‍यालोक तो बन गया पर शाश्‍वत लोक पदवी उसे नहीं मिल। ‘क्षीणे पुण्‍ये मर्त्‍य लोकं विशांति’ कभी न कभी चंद्रमा से फिर नीचे उतरना ही पड़ता है। मन यहाँ भी उससे बड़ा है। वह मर्त्‍यलोक में रह कर परमानंद वाले लोकों की सृष्टि करता रहता है। वह स्‍वयं परमात्‍मा का आसन बनकर बुनता-उधेड़ता रहता है।

फलित ज्योतिष के अनुसार रोहिणी का चंद्रमा बहुत प्रशस्‍त माना गया है। सुना है रोहिणी के लिए पक्षपात ने ही चंद्रमा को क्षय का शाप दिलवाया है। पर तब भी रोहिणी के लिए चंद्रमा का लगाव है सविशेष। रोहिणी चंद्रमा की अरोहिणी भी है। चंद्रमा की आश्रिता भी है, आश्रय भी है, इसलिए उसके घर में चंद्रमा सर्वोच्‍च हो जाता हैं। स्‍वयं श्रीकृष्‍ण का जन्‍म भी रोहिणी के चंद्रमा में ही हुआ है, तभी वे व्रजचंद्र हुए, उन्‍हें किसी ने भानुकुलभानु नहीं कहा। रामचंद्र का जन्‍म हुआ है उच्‍च सूर्य में और भानुकुलभानु सही माने में कहे भी गए। किंतु श्रीकृष्‍ण मनोभव तत्‍व के अधिष्‍ठान, वे मन के मीत, चंद्रमा से ही बने हुए हैं। उनकी उपासना में अंधे रहने वाले अलबत्‍ता सूर्य बन गए, पर वे स्‍वयं ‘देवकीजठरभूरुडुराज:’ बने रहे अकेले उन्‍हें चमकना नहीं था, उन्‍हें बनना था उडुराज, नक्षत्रमालाओं का आराध्‍य उन्‍हें प्रात: सायं अर्ध्‍य नहीं लेना था, प्रताप नहीं फैलाना था, अमृत छिड़काना था। पर उन्‍हें यह शीतल ज्‍योति मिली कहाँ से? उनकी रोहिणी कौन बनीं? जिन्‍होंने अपना नाम खोकर राधना करने में ही अपने को निश्‍शेष कर दिया और जो इसीलिए आज राधा या राधिका नाम से ही विश्रुत भी हैं, उन्‍होंने ही वृषभानु का तेज लेकर अवतार लिया केवल कृष्‍ण को चंद्र बनाने के लिए धरती की बेटी ने अपनी क्षमा की बलि देकर राम को सूर्य-सा तेजस्‍वी बना दिया, वृषभानु की कन्‍या ने अपने स्‍नेह की बलि देकर कृष्‍ण को कमनीय बना दिया। इस शशि की उपासना करके सूर सूर्य हो गए और उस भानु की वंदना के लिए तुलसी शशि हो गए, जिन्‍होंने व्‍यक्ति के लिए आदर्श उपस्थित किया, वे लोकरंजक रह गए। राम के राज्‍य की बड़ाई हुई और कृष्‍ण के रूप की बड़ाई हुई। यह है विडंबना, पर इन दोनों की शक्ति के स्रोतों की यह महिमा है, दानों अपनी उल्टी दिशा में पड़ गए हैं। मन की यही बात है। उसे स्‍फूर्ति या शक्ति किसी रोहिणी से ही मिलती है, रोहिणी चाहे रूपमई हो, चाहे रसमयी हो, चाहे गंधमयी हो, चाहे स्‍पर्शमयी हो, चाहे शब्‍दमयी हो,या चाहे पंचमयी ही क्‍यों न हो, पर उसकी उठान के लिए रोहिणी का अवलंबन अपेक्षित है। रोहिणी के लिए जिसे भटकना पड़ता है, वह शून्‍य में खो जाता है, पर रोहिणी जिसे स्‍वत: मिल जाती है वह ऊँचे उठ जाता है। पर सबसे ऊँचे उठाने वाली रोहिणी शब्‍दमयी ही होती है, यह अक्षर उन्‍नति कराती है।

‘चंद्रमा मनसो जात:’ की ओर एक बार फिर लौट कर दृष्टि जाती है, तो याद आता है कि इस मंत्र का विनियोग आरती के लिए है।

मन के आलोक का डिंडिमनाद करने के लिए मानों मंत्र उच्‍चरित होता है, मंत्र का दूसरा अंश है :‘चक्षो: सूर्यों आजाएत: (चक्षु से सूर्य उत्‍पन्‍न हुए) अर्थात आँख जिसका महत्‍व मन से से कहीं कम है सूर्य को पैदा करती है। इसी से पता चल जाता है कि भीतरी ज्‍योति के आगे बाहरी ज्‍योति कितनी छोटी है। मन की धुँधली तरल स्‍वप्निल ज्‍योति जो देती है, वह आँख की भास्‍वर दृष्टि नहीं देती। आँख चमत्‍कृत अवश्‍य करती है, पर सुख नहीं देती। इसीलिए आरती करते समय पहले स्‍मरण किया जाता है चंद्रमा और मन का ही। जिस आरती में हृदय का सोमदीप नहीं जला, वह आरती छूँछी है, जिस पूजा में ऐसी आरती नहीं हुई, वह पूजा छूँछी है और जिस घर में ऐसी पूजा नहीं वह घर भी छूँछा है। कोई भी देवी देवता हो, कोई भी आराध्‍य हो, कोई भी सेव्‍य हो उसकी आरती में ‘चंद्रमा मनसो जात:’ पढ़ना उसे तृप्‍त कर देता है। जो नहीं तृप्‍त होता होगा, वह पिशाच होगा। हृदय की लौ जिसे आलोकित न कर सके, वह महामूढ़ होगा और उसके लिए जो कुछ ऊपर लिखा गया है वह चंद्रगस्‍त प्रलाप ही जान पड़ेगा। प्रलाप है या विलाप है, यह दोनों है इसे मैं बता नहीं सकता। यह तो भविष्‍य की कसौटी बताएगी, किंतु मन कभी-कभी मूढ़ ज्‍वाला में घबरा कर चाहता आवश्‍य है कि

विशालविषयाटवीवल लग्‍नय दावानल
प्रसृत्‍वरशिखावलीविकलित मदीयं मन:।
अमंदमिलदिन्दिरे निखिलमाधुरीमंदिरे
मुकुंदमुखचंदिरे चिरमिदं चकोरायताम्॥

आग की लपटों से बचाव का कोई रास्‍ता नहीं है जब तक कि किसी अमंद शोभा वाले मुखचंद्र को पीते रहने की चकोरता न आ जाए, इसलिए मन उस चंद्र का चकोर बनने के लिए तड़प रहा है, अब चाहे चंद्र दर्शन दे या नहीं, कम से कम आग चुगने की सामर्थ्‍य तो दे ही दे, आशा का बल तो दे ही दे, जिससे दुराशा के दुर्दिन कट जाएँ। यह चाह उठती है, इसी में जन्‍म की सार्थकता मानता हूँ अभी टिक नहीं पा रही है, तो चंद्रमा भी चंचल, मन भी चंचल दोनों की देखादेखी भी नहीं, केवल सुना-सुनी है, दोष ही क्‍यों किसी को दूँ? तब तक अपने मन को आश्‍वासन देने के लिए जपता रहूँगा ‘चंद्रमा मनसो जात:’ मन कम से कम अवसाद से उबरा रहेगा। इतना बहुत है, छीना झपटी में इतना हाथ आन भी बहुत बड़ा लाभ है।

हरसिंगार
सखि स विजितो वीणावाद्यै: कयाप्‍यपरस्त्रिया
पणितमभवत्‍तयाभ्‍यां तत्र क्षपाललितं ध्रुवम।
कथमितरथा शेफालीषु स्‍खलत्‍कुसमास्‍वपि
प्रसरति नभोमध्‍ये s पींदौ प्रियेण विलंब्यते।

किसी प्रेयसी ने प्रिय की स्‍वागत की तैयारी की है, समय बीत गया है, उत्‍कंठा जगती जा रही है,आधी रात गिर रही है, सवान-भादों की बदली कटी हरी-हरी-सी चाँदनी छिटक रही है, मन में दुंश्चिंताएँ होती हैं कि कहीं ऐसा तो नही हुआ, अंत में सखी से अपना अंतिम अनुमान कह सुनाती है… सखि, प्रिय रुकते नहीं, पर बात ऐसी आ पड़ी है कि वे मेरी चिंता में वीणा में एकाग्रता ना ला सके होंगे, इसलिए बीन की होड़ में उस नागरी से हार गए होंगे और शायद हारने पर शर्त रही होगी रात भर वहीं संगीत जमाने की, इसी से वह विलम गए। नहीं तो सोचो भला, चाँद बीच आकाश में आ गया, और हरसिंगार के फूल ढुरने लगे, इतनी देर वे कभी लगातेᣛ?

सो हरसिंगार के फूल की ढुरन ही धैर्य की अंतिम सीमा है, मान की पहली उकसान है और प्रणय-वेदना की सबसे भीतरी पर्त। हरसिंगार बरसात के उत्‍तरार्द्ध का फूल है, जब बादलों को अपना बचा-खुचा सर्वस्व लुटा देने की चिंता हो जाती है, जब मघा और पूर्वा में झड़ी लगाने की होड़ लग जाती है और जब धनिया का रंग इस झड़ी से धुल जाने के लिए व्‍यग्र-सा हो जाता है। हरसिंगार के फूलों को झड़ी भी निशीथ के गजर के साथ ही शुरू होती है और शुरू होकर तभी थमती है जब पेड़ में एक भी वृंत नहीं रह जाता। सबेरा होते-होते हरसिंगार शांत और स्थिर हो जाता है, उसके नीचे की जमीन फूलों से फूलकर बहुत ही झीनी गंध से उच्छ्वसित हो उठती है। हाँ, बदली की झड़ी के साथ मुरज के वाद्य और चपला के नृत्‍य भी चलते रहते हैं, पर हरसिंगार चुपचाप बिना किसी साज-बाज के अपना पुष्‍पदान किया करता है, किसी चातक की पुकार की वह प्रतीक्षा नहीं करता, किसी झिल्‍ली की झंकार की वह याचना नहीं करता और किसी चपला के परिरंभ की चाहना नहीं करता। वह देता चला जाता है, जब तक कि उसके एक भी वृंत में एक भी फूल बचा रहता है। हाँ, वह कली नहीं देता, उसके दान में अधकचरापन या अधूरापन नहीं होता। वह सर्वस्‍वदान करता है, पर समूचा समूचा। वह धनिया (धन्‍या, प्रिया) की रो-रोकर सूखती आँखो को नीर चाहे न देता हो, पर उसके हृदय की वीरन हरियाली को शुभ्र अनुराग अवश्‍य प्रदान करता है। हरसिंगार के फूल की पंखुड़ियाँ सफेदी देती हैं, पर उनका अंत:स्‍तल ऐसा गहरा कुसुम्‍भी रंग देता है कि उसमें सफेदी डूब-सी जाती है। सात्विक प्रेम की असली पहचान है हरसिंगार, ऊपर से बहुत ही सामान्‍य और मटमैला, पर भीतर गहरा मजीठी, जहाँ छू जाए वहाँ भी अपना रंग चढ़ा दे, इतना भीतर-भीतर चटकीला। इसीलिए हरसिंगार की ढुरन पा कर उत्‍कंठा और तीव्र हो जाती है, मान और बलवान हो जाता है और दर्द और नशीला।

बरसात आ गई है। बादल दगा दे गए हैं, पर इतना मालूम है कि दरवाजे पर बरसों से खड़ा हरसिंगार दगा न देगा। बादल आते हैं तो भी आसमान रोता है और बादल नहीं आते हैं तो भी रोता है। उसका रोना तो लगा ही रहता है। सूनेपन का जिसका पुराना रोग होगा, वह विहँस ही कब सकेगाᣛ? बादलों की भीड़ जुटती हैं, नक्षत्रों की सभा होती है और पखेरुओं की परिक्रमा होती है, पर क्‍या आकाश का सूनापन एक तिल भी घट पाया है? सूनी दुनिया को कोई जा तक बसा सका है कि अब बसाएगा? पर मैं आसमान नहीं हूँ, बन भी नहीं पाऊँगा, उतना धुँधला, उतना अछोर, उतना सूना और उतना महान बनने की कल्‍पना भी मेरे लिए दुस्‍सह है, मैं धरती की पिछली संतान हूँ, मेरा दाय इस धरती की अक्षमताओं और सीमाओं से बँधा हुआ है। मेरी सब से बड़ी क्षमता है क्षमा, बल्कि ठीक कहूँ तो तितिक्षा। क्षमा तो दैवी वरदान है, पर मनुष्‍य केवल सहन करने की इच्‍छा रख सकता है, सो मेरी सब से बड़ी शक्ति यही इच्‍छा है। इस तितिक्षा को नए-नए बादलों से क्‍या लेना-देना? इसका लेन-देन केवल धरती की छाती पर उगे हरसिंगार से हो सकता है। सब कुछ लुटा कर हरसिंगार चुप रहता है, वह धरती को उसके स्‍नेह का प्रतिदान देकर, फिर कुछ कामना नहीं रखता। अपने दान में तनिक भी तो उतावली नहीं दिखाता, जब तक रात उतरने को नहीं होती, जब तक चाँद उतरने को नहीं होता, जब तक झिल्ली की झंकार की गूँज धीरे-धीरे दूर होने को नहीं होती और जब तक पपीहा सोने को नहीं होता, तब तक वह धीरज नहीं खोता। बादल अधीर हो जाते हैं, बादलों में लूका-छिपी खेलने वाला चाँद अधीर हो जाता है, सूने आकाश में खोने वाले चातक औंर चकोर अधीर हो जाते हैं पर हरसिंगार अधीर नहीं होता।

जीवन के नीरव निशीथ में, विरह के अनंत अंधकार में और निराशा की विराट् निश्‍शब्‍दता में धीरज के ललौंहें फूल बरसाना उसका काम है। घनघोर श्‍यामल रंग के फैलाव में ललछँही बुंदी छिटकाना उसका काम है। श्‍याम रंग है शृंगार का भी, मृत्‍यु का भी। पर शृंगार के आधार रति का अनुराग इसी केसरिया रंग से है। सावन की हरियरी में और भादों की अँधियारी में वसंत की सुधि दिलाने के लिए ही हरसिंगार अपनी वसंती बूँदी बरसाता है। पर हरसिंगार का संबंध मृत्‍यु से भी है। वह श्‍मशानवासी हर का शृंगार है। शृंगार और मृत्‍यु में भी कुछ सादृश्‍य अवश्‍य है, तभी तो शृंगार के उपक्रम में भी बारात चलती है और मृत्‍यु के अनुक्रम में भी बारात चलती है; दोनों बारातों में गाजे-बाजे रहते हैं। प्रेम स्‍वयं क्‍या मृत्‍यु नहीं है? काम की दश दशाओं में सबसे चरम है… मृति। इस मृति में ही प्रेम की पूर्णता है।

दृंड़्मन:संगसंकल्‍पो जागर: कृशता रति:।
प्रलयश्‍च मृतिश्‍चैव हीत्‍यनंगदशा दश।।

और क्‍या सावन-भादों के तथाकथित जीवनदाता ‘परजन्‍य’ विष बरसाने नहीं आते,

भ्रमिमरतिमलसहृदयतां प्रलयं मूर्च्‍छां तम शरीरसादम्।
मरणं च जलदभुजगजं प्रसह्य कुरुते विषं यियोगिनीनाम्।।

जलदभुजंगों का विष वियोगिनी के ऊपर क्‍या-क्‍या आपदा नहीं ढाता, चक्‍कर, अरुचि, आलस, निश्‍चेष्‍टा, मूर्छा, आँखों के आगे अँधेरा, शरीर में अवसन्‍नता और अंत में मौत भी सभी कुछ तो कर दिखाता है। उस विष का उपचार करने के लिए ही हरसिंगार की ढुरन मानों महावर‍रञ्जित शशिकला का सुधास्राव है। हरसिंगार है शिव के भालेंदु का जावकमय शृंगार, उसमें ऊपरी सिताभा है चंद्रमा की, पर उसके भीतर की ललाई है भवानी की एँड़ियों के महावर की। इस महावर को पाकर ही महामृत्‍यु और विध्‍वंस के दैवत हर शंकर हो सके हैं और मृत्‍यु भी मनोरम और काम्‍य हो सकी है। हरसिंगार, प्रेम की मरण दशा में अनुराग की सुधाविंदु छिड़का करके अपना नाम सार्थक कर देता है। प्रेम जगत में सबसे बड़ा अमंगल बना रहे, यदि उसे हरसिंगार का मंगलदान न मिले। प्रेम के दैवत अनंग को प्रेत-योनि से मुक्ति न मिले, यदि‍ उसे रति की तपस्‍या का वरदान न मिले। जगत में प्‍यार करना इसीलिए अभिशाप हो जाता है, यदि उस प्‍यार को कहीं पहचान नहीं मिलती है। हरसिंगार अनपहचाने प्‍यार की इस दारुण अभिशप्‍त यंत्रणा को परम आमोद प्रदान करता है, अकेलेपन की असीम बेकली को प्रीति की उदारता देता है और ‘पछतानि’ के शत-शत बिच्‍छुओं के दंश को सांत्वना को मीठी नींद देता है। प्रेम जब खो जाता है तब ह‍रसिंगार की छाँह में ही आकर वह अपनी राह पा जाता है, एक से निराश होकर वह बहु का आशाप्रद हो जाता है। एकोन्‍मुख प्रेम की मृत्‍यु को बहुन्‍मुख प्रसार का जीवन देना यही हरसिंगार का संदेश है, श्‍मशान के चिताभस्‍म को विभूति में परिवर्तित कर देना, यही उसका लक्ष्‍य है। बादल तो जहाँ सुख है, वहीं और अधिक सुख देंगे, जहाँ कंठाश्‍लेष पहले से है वहीं लिपटन की और चाह देंगे, जहाँ खेत पहले से जोता हुआ है, वहीं सोंधी उसांस देंगे, जहाँ कदंब है, वहीं कजली की तान देंगे और जहाँ रस है, वहीं उमड़ाव देंगे। पर ऊसर को हरा भरा करने वाले बादल कभी दिखे हैं, विरही को जुड़ाने वाले बादल कहीं मिले हैं, और निष्‍प्राण को जीने की प्रेरणा देने वाले बादल कहीं सुनने में आए हैं?

आज मुझे भी हरसिंगार की ही जरूरत है। घोर दु‍र्दिन की झड़ी में बसंती बहार की याद दिलाने वाले कोई नहीं है। कोयल भी ‘अतीत स्‍मृति से खिंचे हुए बीन तार’ नहीं छोड़ती। मूसलाधार वर्षा से पात-पात झहरा उठे, पपीहे को बैठने के लिए ठौर मिले, तभी तो ‘पी कहाँ पी कहाँ वह पुकारे। हाँ, मेंढकों की टर-टर है, कान फोड़ने वाली झींगुरों की जमात है। मांडूक्‍योपनिषद् की ज्ञान-चर्चा लेकर मैं क्‍या करूँगा? दूसरे के कपड़े पर दलाल बनने वाले झींगुरों की व्‍यवहार-कुशलता ले कर मैं क्‍या करूँगा? मैं खोया और हारा हुआ प्रेम-पथिक, मुझे दूसरी राह दिखा कर के कोई भटकाए क्‍यों? आज मेरा सब कुछ भस्‍मसात्‍प्राय है। हाँ राख गरम है, ऊपर से आँसुओं भरी बरसात पड़ती रही है, पर तब भी राख गरम है। इस राख को जुड़वाने जाऊँ तो कहाँ जाऊँ? सिवाय इस पुराने ह‍रसिंगार के। मेरी कामनाओं की राख पाकर इसमें और मनों फूल आए, यही बस एक कामना है, या सच कहूँ तो कामना की राख की गरमी बच रहीं है। स्‍वयं शायद हरसिंगार की दानशीलता इस जनम में न पा सकूँ, शायद प्रीतिपात्र के बारे में हरसिंगार की निरपेक्षता भी मुझमें न आ सके और शायद इस जनम क्‍या सौ-सौ जनम में भी उसका सात्विक अनुराग न आ सके। पर यह ललक मन में जरूर है कि प्रीतिदग्‍ध प्राणों को तब तक हरसिंगार के फूलों की सिहान मिलती रहे। जब तक कोई सविता आ कर प्रकाश से उसे जगाता नहीं।

विलायती कल्‍पना में, गहन अंध गर्त्‍त में काया सोई रहती है और इजराईल कयामत के दिन आकर उसे जगाता है, पर स्‍वदेशी मान्‍यता में मन क्‍लांत हो कर सो जाता है और सुषुप्ति के बीच तुरीयावस्‍था जगाती है। सो मैं भी काया के सोने-जगने की चिंता नहीं करता, इतना जानता हूँ कि मन जब तक सो नहीं जाता, तब तक यह बँधा ही रहता है। जब तक यह बंधन तोड़ने के लिए विकट से विकटतर प्रयत्‍न करता है, तब तक एक कड़ी टूटती है तो उससे भी अधिक जकड़दार कड़ी जुड़ जाती है और साँस लेने के लिए भी आराम नहीं मिलता, जगत के इस विशाल पिंजड़े में जब हार मान कर यह बैठ जाए, जब इसे अपनी बद्धता का बोध हो जाए और जब यह बिल्‍कुल निरूपाय हो जाए, तभी पिंजड़े का द्वार भी खुलता है, बेड़ियाँ भी कटती हैं और पंख भी सीधे हो जाते हैं। प्रेम इस मन का बंधन और मोक्ष दोनों है, प्रेम के बंधन से मन जितना ही दूर भागना चाहता है, उतना ही नगीच खिंचता है और इस बंधन में जितना ही वह पड़ता है, उतना ही इससे खिंचने की भी कोशिश करता है, अंत में वह प्रेम के बंधन की अनंतता में ही मोक्ष पा जाता है। यही सीधा प्रेम योग है, एक के संग के लोभ से मन एक की ओर ही खिंच जाता है, पर उस एक के विछोह में ‘त्रिभुवन के साथ तन्‍मय’ हो जाता है। उसकी यह तन्‍मयता मोक्ष की पहली सीढ़ी है। उस तन्‍मयता की भी पहली सीढ़ी है अशेष उदारता, जिसकी सीख देता है हरसिंगार। आज मुझे सब से अधिक इस सीख की जरूरत है। हरसिंगार अपने आप कुसुम गिराता है, उसकी डाल झहरानी नहीं पड़ती है, जो झहराने का गँवारपना करता है, उसके लिए ‘गाहा सत्‍तंसई’ की चेतावनी है…

उच्चिणसु पडिअ कुसुमं ध्रुण सेहालिअं हलिअसुण्हे।
अह दे बिसमविरावो ससुरेण सुओ वलअसद्दो।।

‘गँवार हलवाहिनि, गिरे हुए फूलों की ही चुनो, हरसिंगार की डाल मत झहराओ, झहराने से वह फूल न देगा, वह उलटे देखो डाल झहराते समय जो तुम्‍हारी चूड़ियाँ खनकेंगी, उसकी भनक तुम्‍हारे ससुर के कान में पड़ जाएगी’।

यौवन की अँधेरी रात में प्रेम से अभिसार करने वाली प्रवृत्तियों के लिए भी यह मधुर चेतावनी है। जो अभिसार करते हुए भी शिव के शृंगार को बटोरता है, उसे धेर्य धारन करना चाहिए। इकटे शिव को शृंगारमाला बटोरने का उत्‍साह सारे किये-कराये पर पानी फेर देता है। ‘शिव’ और ‘सुन्‍दर’ के संयोग के लिए ‘सत्‍य’ की अर्थात एकनिष्‍ठा की नितान्‍त आवश्‍यकता है। कोई वस्‍तु होती है, तभी वह प्रतीत भी होती है और प्रतीत होने पर ही प्रिय भी होती है। बिना ‘अस्ति’ के ‘भाति’ नहीं और बिना ‘भाति’ के ‘प्रियम्’ नहीं। ‘सत्‍यं शिवं सुन्‍दरम्’ इस ‘अस्ति भाति प्रियम’ का ही अधविलायती रूपान्‍तर है। हमारे यहाँ ‘अस्ति भाति प्रियम’ का दूसरा पक्ष है ‘रूप-नाम’ जो विलायत में मान्‍य क्‍या सह्य भी नहीं है। ‘रूप-नाम में’ ही ‘अस्ति भाति प्रियम्’ अपनी अभिव्‍यक्ति जोहते हैं। हमारा हरसिंगार जिसका सिंगार है,वह रूप-नाम वाला है, मूर्त्‍त है, अरूप, अनाम और अमूर्त नहीं। गंधाधर और चंद्रकला अनदेखी चीजें नहीं हैं। इस गंगा की डाह ने चंद्रकला को महाशिक्ति के चरणपात द्वारा हरसिंगार की लाली प्रदान की है। शक्ति डाह न करे तो लाली नहीं ही आती। अमृत में भी जड़ता आ जाए, यदि प्रेम की ईर्ष्‍या उसमें उद्वेलन न पैदा करे। ईर्ष्‍या के बिना प्रेम निर्जीव हो जाता हैं, मुर्दा हो जाता है। जो अपने प्रेम-पात्र से जितना ही अधिक पाना चाहता है, उतना ही अधिक अपना प्रेम भी दे पाता है। यह दूसरी बात है, ऐसी चाहना पूरी नहीं होती और पूरी न होने पर प्रेमी का हृदय दूसरों के लिए मनोरंजन की सामग्री चाहे बने, अपने लिए गरलगलन बन जाता है। हरसिंगार के फूल भी रँगने के काम में आते हैं, प्रेमी के हृदय की ही भाँति, पर रँगना उनका अंतिम उपयोग नहीं। उन फूलों की शोभा तो शिव के मस्‍तक पर है, प्रेमी के हृदय की भी शोभा जन-शिव के शीश पर है, यों तो उन्‍हें मसल कर रंग निकालने वाली रंगरेजिनें तो डगर-मगर मिलेंगी।
होरहा

 

हले मैं हिंदी के सुविज्ञ पाठक से निवेदन कर दूँ कि ‘होरहा’ क्‍या चीज है। हिंदी का पाठक हरे चने की सुगंधित तहरी से परिचित होगा, कुछ और नीचे उतरकर वह बूट से भी परिचित होगा, पर डंठल-पत्‍ती-समेत भूनकर और तब छील-छाल कर नए अधपके चने का बिना नमक-मिर्च के आस्‍वादन शायद उसने न किया हो। जिसने किया होगा, उसे ‘होरहा’ का अर्थ बताने की जरूरत नहीं। सिर्फ इतनी याद दिला देने की चीज रह जाती है कि यह मौसम होली के साथ-साथ होरहा का भी है।

देहातों में वन-महोत्‍सव की तीसरी वर्षी गुजर जाने के बाद भी ईंधन की समस्‍या हल करने के लिए अरहर ही काम में आ रही है, सो माघ का जाड़ खेपाने के पहले ही वह खप जाती है। इसलिए विधिवत रसोई का सरंजाम हो नहीं पाता। कचरस और मटर की छीमी पर ही दिन कटते हैं, फागुन चढ़ते-चढ़ते होरहा के रूप में भुने अन्‍न का सुअवसर प्राप्‍त हो पाता है। जिन भू-भागों में जड़हन (अगहनी धान) नहीं उपजती, वहाँ माघ दूभर हो जाता है और अभावों के साथ जूझने वाले किसान का जी ‘होरहा’ हो उठता है। इसलिए जब वह अपनी कमाई को नई फसल में इतनी प्रतीक्षा के बाद आँखों के सामने फलते देखता है तो उसके मन में मधुर प्रतिहिंसा जग उठती है और अधपके डाँठ काट-काटकर वह होरहा जलाने लगता है। इस महीने वह ‘सम्‍मति मैया’ (संवत माता) को फूँकने के लिए छानि-छप्‍पर कोरों-धरन (कडी़-बल्‍ली) खटिया के टूटे पाए और गोहरा (उपलों के डंडे) के अंबार चोरी कर-कर के जुटाता है। जलाने के लिए यह उल्‍लास उसमें जलते रहने का अवश्‍यम्‍भावी परिणाम है। इस साल मेरे गाँव के इर्द-गिर्द ओला पड़ा है; बाढ़ और सूखा की सुदृष्टि तो बरसों से यहाँ बनी हुई है, इस ओला में समूची खेती पथरा गई है, सरसों और मटर के फूलों से धरती भिन गई है; गेहूँ और जौ की बालियों के झुमकों की एक-एक लर (लड़ी) बिथुर गई है और आस की अंतिम साँस भी घट कर टूट गई है। रह गई है धाँय-धाँय जलती हताशा, जो सर्वस्‍व चले जाने पर निश्चिंत और निर्द्वंद्व होकर बैठ गई है। कल की फिक्र करते-करते किसानी थक गई है और इसलिए वह वर्तमान की बची-खुची उपलब्धि को फूँक डालने पर एकदम उतारू हो गई है डेहरी में अनाज भरा जाएगा या नहीं, खलिहान की राशि में गोवर्धन लोट-पोट करेंगे या नहीं, बेंग (बीजऋण) भरा जाएगा या नहीं, फगुआ के दिन पूड़ी के लिए दालदा आएगा या नहीं, इसकी उसे लेशमात्र भी चिंता नहीं; वह ओले की मार से कोना-अंतरा में बचे डाँठ का होरहा बना रही है, चिर युगों से क्षुधित उदर को जी-भर पाट लेने की उसे उतावली है, कौन जाने फिर यह देवदुर्लभ पदार्थ मिलेगा भी या नहीं, क्‍योंकि वह आज मुक्ति की राह पा चुकी है। किसानी की समस्‍त ममताएँ, धरती के प्रति सारा चिपकाव और देहली के लिए अशेष मोह सभी आज स्‍वप्‍न के तार की भाँति टूट गए हैं। प्रेमचंद के होरी के गोदान-वेला सच्चे माने में आज आई है, अंतर इतना ही है कि आज उस गोदान को संपन्‍न कराने के लिए उसकी धनिया के पास बछिया क्‍या छेरी तक का निकर (निष्‍क्रय-द्रव्‍य) नहीं है, उसके पास दान करने को केवल जली खेती का चिता-भस्‍म बच रहा है।

सुना है महाकाल के मंदिर में शिव को चिता-भस्‍म चढ़ाना जरूरी होता है, जो आज, गोदान, हम मुमूर्षु भारतीय होरी को करा सकें या नहीं, उसकी चिता से बटोर करके महाकाल के अधिष्‍ठाता दैवत के शीश पर दो मुठ्ठी गरम राख तो चढा़ ही सकते हैं। अबीर और गुलाल से ये देवता रीझने वाले नहीं। इन्‍हें फल के नाम पर कनक और मदार चाहिए, दोनों ही बौराने वाले फूल इन्‍हें पत्ती के नाम पर भाँग चाहिए, फल के नाम पर बैर (बदरी) जो इस मौसम का प्रतिनिधि भारतीय फल है। इन चीजों का अकाल इस देश में कभी भी न पड़ेगा और अपने शिव को प्रसन्न करने के लिए कम से कम हमें विदेश के आयात पर अवलंबित नहीं होना पड़ेगा। खैर ये तो जड़ प्रकृति की वस्‍तुएँ हुई, शिव की पूजा में मानवी कला के उपादान भी चाहिए। वे डमरू की घ्‍वनि-से शब्द-सृष्टि करने वाले और प्रत्‍येक युग-संध्‍या में तांडव रचने वाले नटराज हैं, कला उनके लिलार में लिखी है, वे चिता-भस्‍म वालों से कुछ और भी माँगते हैं, वे अपने उपासक प्रेत-कंकालों से नृत्‍य-संगीत भी माँगते हैं, यह न हो सके तो कम-से-कम अपने नृत्य पर ताल तो माँगते ही हैं। यह न मिले तो शिव शव हो जाएँ; इसलिए खेती-बार, घर-दुआर, तन-मन और राग-रंग सब कुछ होरहा करने से ही नहीं चलेगा सब कुछ गाँवा के और सब कुछ होम करके भी हमें ताल देना सीखना होगा, शिव के साथ नाचना सीखना होगा। हम न सीख सके तो हमारी विफलता होगी, हमारी भारतीयता को बहुत बड़ी चुनौती होगी। अभी बसंत-पंचमी के आस-पास अपने प्राचीन स्‍वतंत्रता दिवस तथा नए गणराज्‍य दिवस के समारोह में हमने लोक-नृत्‍य उत्‍सव धूमधाम से मनाकर अपनी क्षमता का परिचय दिया है। हमें इसे कायम रखना है।

हम यदि मसान की मस्‍ती कायम न रख सके तो हमारा शिव शव हो जाएगा, तब छिन्‍नमस्‍ता महाकाली उसके ऊपर तुरंत खप्‍पर लिए नाच मचाने लगेगी। उस शोणित-रंजित दृश्‍यपट से अपने क्षितिज को बचाने के लिए ही हमें आज यह चौताल उठाना है –

‘शिवशंकर खेलैं फाग गौरा संग लिए’

गौरा को संग लेने पर कुछ कलमुँहों को आपत्ति होगी, पर वे यह नहीं जानते कि हमारे शिव अर्धनारीश्‍वर हैं, या यों कहा जाए कि उनके आधे अंग से तो प्रत्यक्ष रूप से और शेष का अप्रत्‍यक्ष रूप से, इस प्रकार उनके सर्वाड़्ग का स्‍वामित्‍व जगद्धात्री ‘गौरा’ के हाथ में ही है। हिमालय के अंक में बसी हुई अलका से दूर मैदानों में रहने वाले अभागों को शायद यह आपत्ति हो सकती है कि उनके शिव गंगाधर भी तो हैं। गंगा को उन्‍होंने अपने जटाजूट में धारण किया है। केवल इतना ही नहीं उन्‍होंने अपनी जटा खोलकर जगत को अमर जीवन दान भी किया है, उन्‍होंने तपती धरती को रसाधार देकर जिलाया है और कैलाश छोड़कर गंगा की मध्‍यबिंदु काशी में अपना आसन जमाया है। इसलिए ‘हरहर’ के साथ ‘गंगे’ की टेर लगाने वाले बनारसी फक्‍कड़ों की इस आपत्ति को एकदम उड़ाया नहीं जा सकता।

इस पर कुछ विचार करने की जरूरत है। होरी अपने तन-मन-धन की होरी करके मुक्तिधाम में ‘हरहर’ को बोल लगाते समय ‘गंगे’ पर अटक जाता है। उसे लगता है कि उसके शिवशंकर बहुत श्‍वसुरालय-प्रेमी हो गए हैं, क्‍योंकि उसकी गंगा दिन-ब-दिन कृश से कृशतर होती जा रही हैं। य‍ह शिव की ओर से कुछ सरासर ज्‍यादती हो रही है। विष पीनेवाले शिव से इस विलास-लीनता की अपेक्षा नहीं की जाती थी। पर कदाचित वे विषपाई शिव ये नहीं हैं। ये इस नए कल्‍प में कुछ बदल गए हैं, इन्‍होंने शंकराचार्य की भाँति किसी अमरुक के शरीर में प्रवेश कर लिया है, और अब ये गंगा और गंगातीरवासियों का दुख एक दम बिसरा चुके हैं।

पर जाने दीजिए इस पुराण-पचड़े को। यह पुराणपंथी भी पुरानी, शिव भी पुराने, किसी नए मनमोहन की चर्चा चलाइये। यों तो इस म‍हीने में बूढ़े बाबा भी देवर लगते हैं, पर जो नवेलियों को भी नवल लग सके, ऐसे नंदलाल की रसीली बातें कीजिए, जिसकी साँवली सलोनी मूर्ति आज बसंती रंग में नख-शिख सराबोर हो उठी है। हाँ यह दूसरी बात है कि हमारा यह बाँका छैला भी परकीया के पीछे ही अधिक पागल है, यहाँ तक कि उसे अपने पीतांबर के लिए चीनांशुक के बिना काम नहीं चलता और वह अपनी ‘उज्‍ज्‍वल नीलमणिता’ खोकर लाल-लाल रह गया है। उसे इतनी भी अपने गाँव-घर की सुधि नहीं है कि आज होली के दिन जब गाँव का गाँव इस नए बसंत में होरहा हो चुका है, तब बीतते संवत्‍सर की चिताधूलि उड़ाने के लिए उसे बार-बार फेरी लगाना है फागुन में छाने वाली घनघटा चीरकर उसे एक किरण झलकानी है, द्वार-द्वार दुख की लरजती छाया में उसे आनंद की धूप-छाँह खेलती है, और न जाने किस युग से चला आता हुआ यह गीत उसे गाना है –

सदा आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेलैं होरी

आनंद लाने के लिए बाँकी जवानी को अपने ‘घर की वर बात’ विलोकनी होगी, नहीं तो घर एकदम उजड़ चुका है, सुरमा लगाने वाले रंगी बुढ़ऊ से कोई उम्‍मीद वैसे ही नहीं है, अब आशा है तो उसी अल्हड़ मनमोहन से जो न जाने कहाँ-कहाँ रँगरेली करके अनमने और सूखे भाव से रीति निभाने के लिए मधुरात के ढुलते प्रहर में अपनी थकित और निराश प्रेयसी के पास फाग खेलने आता है, दुख में पगी हुई नवेली इस सूखे स्नेह को दूर से झारती हुई कहती है,

“चाल पै लाल गुलाल सौं , गेरि गरै गजरा अलबेली।
वों बनि बानक सौं ‘ पद्माकर आए जो खेलन फाग तौ खेलों।
पै इक या छवि देखिबे के लिए मों बिनती कै न झोरिन झेलौं।’
रावरे रंग रँगी अँखियान में , ए बलवीर अबीर न मेलों।”

‘फाग खेलने की मनाही नहीं है, पर तुम्हारी आँखों में जो किसी दूसरी बड़भागिनी का रंग चढ़ा हुआ है, उसी को अपने में पाकर मेरी आँखें निहाल हैं, उसमें फिर अपनी यह अबीर न मिलाओ, इतनी ही विनती है। मैं तो होरहा हो ही रही हूँ, अब प्रेम को होरहा न करो।’

मैं गँवार अनपढ़ किसान ठीक यही बात अपना होरहा भूनते-भूनते सोचता हूँ कि मेरी बात कौन समझेगा। मानता हूँ, लोकगीतों का फैशन चल गया है, आधी रात बेला अब दिल्ली शहर के बीच भी फूलने लगा है और जिसमें ग्राम्‍यता की झीनी पालिश पर हृदय शहराती, रजत बोलपटों से ऐसे पनघट वाले रूमानी गीत हर एक बँगले में लहराने लगे हैं और विहंगम कवियों की वाणी भी ग्राम्या की छवि निहारने लगी है। परंतु क्‍या इन अभिनयों में मेरी अभिव्‍यक्ति और तिरोहित नहीं हो रही है। मेरी विथा को कोई ओढ़ना नहीं चाहता, पर मेरे ‘शैवलेनापि रम्‍यं’ सरसिज को अपने फूलदान में सजाने के लिए अलबत्‍ता शौकिनों में लड़ाई छि‍डी़ हुई है, गालियों की धूम मची हुई है। मैं तो इस उधेड़-बुन में देखता हूँ कि होरहा की आग हवा के झोंकों में बुझ गई है। अधझुलसा रहिले (चने) का डाँठ धुँअठ भर गया है। कड़े छिलके के भीतर छिपे हुए दाने के दुधार बने हुए हैं, उनके रस तक आँच पहुँच न सकी। परंतु मेरे अंतर की अधपकी फल, बाहर की ज्‍वाला की लहक पाकर ही एकदम राख हो गई है। उसका एक दाना भी कोयला हुए बिना नहीं रहा सक है, क्‍योंकि उसके पास चने का-सा कड़ा छिलका नहीं रहा, जो उसकी रक्षा कर सके। बस इसके अनुताप में गुनगुनाता बच रहा है –

‘नहिं आवत चैन हाय जियरा जरि गइले’
धनवा पियर भइलें मनवा पियर भइलें

 

धान पियरा गया और ‘धाना’ (ग्राम-प्रेयसी) का मन भी पियरा गया है, धानी सारी अब उसे नहीं सुहाती। माघा में पछुआ की हहकाई ने माघ में घनघोर पाले की नोटिस भी दे दी है। मन पीला न हो तो क्‍या? ‘धनिया’ का ‘बलमु’ परदेस गया हुआ है, परदेसिया न बने तो रोटी-कपड़ा कहाँ से चले? दशहरे-दिवाली में गाँव में राम-लीला और भरत-मिलाप देखने वह इस वर्ष भी आएगा कौन जाने सदा की भाँति इस साल भी धानी रंग की साड़ी लाने वाला हो, इसलिए जाँत के स्‍वर में अपना झीना स्‍वर डुबाते हुए भोर के बयार के द्वारा ग्राम-प्रेयसी संदेश भेजती हैं – ‘ए राजा ल अइह धानी के सरियान धानी, धनवा पियर भइलें मनवा पियर भइलें। अब जब धान ही पीला पड़ गया तो ‘धाना’ को धानी साड़ी कहाँ सुहाने लगी? उसका तन-मन-धन धान में मिलकर एकाकार हो गया है, वह दूर बसे प्रियतम के उठाह पर पानी फेर सकती है, पर अपने ‘धानापन’ से लगाव कैसे तोड़े? गीत लहरा रहा है, कुआर की ओस लदी बयार थर्रा रही है – ‘मनवा प्रियर भइलें’।

जाँत की चक्‍की की चुरुर-मुरुर से दूर कलजुगी देवताओं की हवाचक्‍की बोल रही है – यह आकाशवाणी है। भारत की खाद्य-स्थिति सुधर गई है। 1952 तक भारत स्‍वावलंबी हो जाएगा। खाद्य-मोरचे पर हमारा अभियान सफल रहा… हाँ, जरूर सफल रहा, तभी तो सुबह-शाम सावन के नजारों के गीत सुनाए जा रहे हैं, पपीहे की पुकार गुंजाई जा रही है और ‘बादल’, ‘बरसात’, ‘काली घटा’ की लरज छाई जा रही है। आखिर आकाशवाणी को दुख दैन्‍य से क्‍या लेना देना? आकाशवाणी देवता की वाणी है, देवता का शरीर ही है सुख-भोग के लिए, पीड़ा की रंगीनी के लिए तो है ही नहीं।

पर जाँत की चक्‍की हवा में हलती नहीं, वह तो जमीन पर चलती है, उसके राग में हवा का हलकापन नहीं, उसमें तो धरती का भारीपन है। धरती में जीने-मरने वाले पृथ्‍वी-पुत्रों की व्‍यथा के भार से वह चक्‍की दबी हुई है, उस की कंठध्‍वनि उस व्‍यथा की कंठध्‍वनि है। वह कंठध्‍वनि धरती में ही खो जाने वालो की कंठध्‍वनि है, गगन में विहरण करने वालों की कंठध्‍वनि बनने का वह कभी दावा नहीं करती। वह कंठध्‍वनि धरती से पुरस्‍कार नहीं माँगती, निर्ममता के साथ वह अपना मिहनताना नहीं वसूलती और न अपने को फैलाने और विश्‍व को कँपाने का दम भरती है। वह सूखती धरती को स्‍वर-सिंचन देती है, सोई मिट्टी को साँस देती है और खोई आत्‍मा को ध्‍वनि की राह देती है। आकाशवाणी की पहुँच पंचायत विभाग के बावजूद भी शहर गली पान की दुकान से आगे नहीं हो सकी, पर इस चक्‍की की ध्‍वनि कण कण में समाई हुई है। उसमें चहक न हो, पर जनसमूह के अंतर्मन की लहक तो है ही, नहीं तो भोजपुरी देहात की वेदना कलकतिया दरबान या झरिया के कोयला-कुली या मोरंग के आराकश या बम्‍बइया भइया के हृदय में एक साथ कैसे गूँजती? मीलों का अंतर होते हुए भी धान की ‘पियरई’ उनकी आँखों में कैसे छा पाती? धान की ‘पियरई’ उनके लिए कुछ अर्थ रखती है। उसकी पहली माँग है, शहर की महँगी में पेट काट कर कुछ अधिक पैसे जुटाने का दमतोड़ परिश्रम। उस परिश्रम का मतलब है मौत को नेवता देना।…

मौन? मौत तो बुरी चीज नहीं है। जनसंख्‍या की बेथाम्‍ह बढ़ती पर रोक ही न लगेगी, इन घने बसे जनपदों में चार मुँह खाने वाले और कम होंगे। हाँ, पर ये चार मुँह खाने वाले ही नहीं ये अपने पंचगुने मुँहों को खिलाने वाले भी हैं। उनकी मौत की अर्थ इन जनपदों का उजड़ना है। मंत्री लोग कहेंगे स्थिति इतनी भयावह नहीं है, यह तो केवल जमींदारी के उन्‍मूलन तक रहेगी, उसके बाद सुराज आ जाएगा। आखिर मनु ने जो लिखा था ‘महतो देवता हयेषा नररूपेण तिष्‍ठति’ यह मनुष्‍य के रूप में बहुत बड़ा देवता हैं वह इन मंत्रियों के लिए ही तो। उस देवता का अपमान मामूली पाप है? उसे पाद्य, अर्ध्‍य और आचमीय न देकर गँवई के डीह-डाबर पर बेला-कुबेला गीले गातों का दूध चढ़ाना उसका घोर अपमान है। देवता कभी अपने विद्रोही को क्षमा करता है? सो भी ऐसे विद्रोही को जिसके जीवन का युगों-युगों से विद्रोह ही महामंत्र रहा है।

सो देवता की दृष्टि भी इन पूर्वी जनपदों से (गोरखपुर, देवरिया, आजमगढ़, गाजीपुर, बलिया, बस्‍ती) फिर गई है। देवता इधर आते भी कम हैं पर हाँ एक बात है, ये देवता अमर नहीं है, ये तो पनसाला हैं हर पाँच साल के बाद इनकी फेरी बदलती रहती है, इसलिए दूसरी फेरी में फिर घुसने के लिए शायद अब राजगद्दी से उतर कर इधर भी रीझने-रिझाने आएँगे। किंतु फूल-अक्षत उन्‍हें नहीं मिलेगा। फूल मुरझा गए हैं, अक्षत क्षत-विक्षत हो उठा है, धान में बाली ही नहीं आने वाली है, वहाँ से धान नहीं निकलेगा और उस धान में से कूटकर चावल तो और भी नहीं! उन्‍हें मिलेगा अपनी उपेक्षा में विहँसने वाला गान – ‘ले आइह धाना के सरिया न धानी, (अपनी धन्‍या के लिए धानी साड़ी न लाना) जनरागिनी की यह आत्‍म-उपेक्षा इसलिए इतनी तीव्र है कि उसके आस-पास का ‘पर’ दु:खी है। अपने सुख से जग का सुख मापने वाली प्रतिभा इस जनरागिनी को मिली ही नहीं, यह उसका बहुत बड़ा दुर्भाग्‍य है। किसी ने कहा है ‘आगम का अज्ञान ईश का परम अनुग्रह’ ‘ईश के इस परम अनुग्रह’ से इन हत भागे जनपदों की अंतर्वाणी वंचित है, लुभावनी आत्‍मवंचना की प्रसादी उसे कभी मिली नहीं, इसीलिए ‘स्‍वर्णधूलि’ का स्‍वप्‍न भी वह नहीं देख पाती, वह तो बस ‘आगम’ के अँधेरे की चिंता में डूबती चली जा रही है।… ‘मनवा पियर भइलें।ʼ

मन पीला हो गया है, कदंब की डाल में कजली की तान नहीं उमड़ी, कहीं इसलिए तो नहीं पीला हुआ है। कजली की तान का क्‍या दोष, उसे उमड़ाने वाले कजरारे बादल तो इंद्रपुरी में गोरे वाली अप्‍सराओं के नृत्‍य देखने के लिए अटके रहे, उन्‍हें काली कजली की सुधि खो गई। घनश्‍याम की सुधि लिए भादों की कृष्‍णाअष्‍टमी तो आई, पर अपनी अवधि पर आने वाले श्‍याम घन नहीं आए। धनश्याम से श्‍यामघन का जब नाता ही टूट गया, तब भला घनश्‍याम की दुलारी कजली भवानी हो क्‍यों उमगने लगीं। कजली की ‘हरी हरी’ तान नहीं मिली, इससे मन की हरियाली को पियराते ही बना। बादल ऐसे दगाबाज कि इंद्र की बधूटियों को भी सरसाना उन्‍हें भूल गया। इंद्र-बधूटियों की लाली भी नहीं छा पाई, ग्राम-बधटियों ने हाथ-पाँव में इसी समवेदना में मेंहदी की लाली नहीं रची, क्‍योंकि दोनों ही तो ‘बीर बहूटियाँ’ हैं एक दूसरे से इतना भी स्‍नेह न हो। हाँ, दोनों के ‘बीर’ एक दूसरे से विलग चाहे हों। वे विलग हैं भी। उनके ‘बीर’ रमते ही हैं, खटते नहीं, पर इनके बीर खटते हैं, तब कहीं एकाध पल रम भी लेते हैं। उनके’बीर’ को उनी व्‍याथा की परवाह न होगी, पर इनके ‘बीर’ इनकी व्‍याथा के दहकते अक्षर दूर से पढ़कर सुलगते होंगे। उस सुलगाव की आशंका में इनका जितना मन पीला पड़ गया है, अपने दुख में उतना नहीं।

असाढ़ में पहला डौंगरा बड़ी आशा ले के आया, सावन में धूल उड़ने लगी और भादों आए, उसके पहले ही कुआर आ गया, सूना अनंत आकाश लिए हुए और उजले बादलों की छितरान लिए हुए। अलका की ओर जाते हुए मेघ के दर्शन हुए पर वहाँ से उनके लौटानी दर्शन नहीं मिले, जाने कहाँ विलम गए, किस घाटी में अटक गए? इसका पता-थाह लेने भी कौन जाए, आसमानी लोगों का सदा से यही रवैया रह है। वे पृथ्‍वी से कर उगाहते हैं पर कौन उनसे पूछने जाए कि उतनी ही मात्रा में अपना अन्रग्रह भी वे बरसाते हैं? समता और न्‍याय से भी उनको कुछ लेना-देना हो तो वे अपनी दायित्‍व समझें, वे तो बस किसी से छीन कर किसी दूसरे को देना जानते हैं, अपने आदान में सर्वग्राही बन जाते हैं, पर अपने दान में मनचाही छूट चाहते हैं। यही उनका बड़प्‍पन है। ‘मधुकर सरिस संत गुन गहहीं’ वे रस तो सब जगह से ले लेते हैं पर देते उसी को हैं, जो उनकी दृष्टि में उसका पात्र है। मधुकर की भी तो जाती आसमानी है। कभी-कभी वे नीर-क्षीर विवेक में हंस भी बन जाते हैं, ऊँचे मानसरोवर में पैरते हुए वे सृष्टि-रचियता के वाहन बनकर ऊँची-ऊँची बात भी करने लगते हैं। वे नीर नहीं छूते, बस क्षीर पीते हैं – क्षीर जो रक्‍त का ही एक रूपांतर है – क्षीर न मिले तो क्षीर जिससे बनता है, उसे भी पी लेते हैं, पर नीर नहीं लेते। आखिर पानी से परहेज न करें तो उनका पानी न चला जाए?

हंस पानी छोड़ देता है, उच्‍चवर्गीय सहित्‍यकार भी नीरस पानी साधारण लोगों के लिए छोड़ देता है, सरोवर के कमलों पर जीने वाला हंस इतनी दया तो दिखाता ही है। परंतु आकाश के मेघ, और धरती के ‘परजन्‍य’ जनता के शासक तो धरती का पानी उगाह कर, धरती का रक्‍त उगाह कर, धरती का रस उगाह कर, धरती का मधु उगाह कर और धरती का दूध उगाह कर पानी की एक बूँद भी नहीं देना चाहते। वे अपना संचित संभार निभृत कोनों में चोरी-चोरी लुटाते रहते हैं। इसी में उनकी ‘परजन्‍यता’ सिद्ध होती है। धान पियराए या मन पियराए, इससे उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता। उनके आस-पास मोर नाचते रहते हैं, वे उसी में आत्‍मविभोर रहते है, उन्‍हें कुररी का विलाप सुनाई नहीं पड़ता।

पर कृषिकुररी विलख रही है और शेषशायी की चौमासी नींद उस क्रंदन से भंग हो के रहेगी। धान पीला पड़ेगा तो धान के मन में बसे हुए कृषि देवता का भी हरित मन पीला पड़ेगा। उस विराट मन की विराट पीतिमा कुछ रंग ला के रहेगी।

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