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परिचय

जन्म : 21 जून 1912, मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश)

निधन11 अप्रैल 2009, दिल्ली

भाषा : हिंदी

विष्णु प्रभाकर जी की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं-

कहानी संग्रह – ‘संघर्ष के बाद’, ‘धरती अब भी धूम रही है’, ‘मेरा वतन’, ‘खिलौने’, ‘आदि और अन्त’, ‘एक आसमान के नीचे’, ‘अधूरी कहानी’, ‘कौन जीता कौन हारा’, ‘तपोवन की कहानियाँ’, ‘पाप का घड़ा’, ‘मोती किसके’।
बाल कथा संग्रह – ‘क्षमादान’, ‘गजनन्दन लाल के कारनामे’, ‘घमंड का फल’, ‘दो मित्र’, ‘सुनो कहानी’, ‘हीरे की पहचान’।
उपन्यास – ‘ढलती रात’, ‘स्वप्नमयी’, ‘अर्द्धनारीश्वर’, ‘धरती अब भी घूम रही है’, ‘पाप का घड़ा’, ‘होरी’, ‘कोई तो’, ‘निशिकान्त’, ‘तट के बंधन’, ‘स्वराज्य की कहानी’।
आत्मकथा – ‘क्षमादान’ और ‘पंखहीन’ नाम से उनकी आत्मकथा 3 भागों में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी है। ‘और पंछी उड़ गया’, ‘मुक्त गगन में’।
नाटक – ‘सत्ता के आर-पार’, ‘हत्या के बाद’, ‘नवप्रभात’, ‘डॉक्टर’, ‘प्रकाश और परछाइयाँ’, ‘बारह एकांकी’, अब और नही, टूट्ते परिवेश, गान्धार की भिक्षुणी और ‘अशोक’
जीवनी – ‘आवारा मसीहा’, ‘अमर शहीद भगत सिंह’।
यात्रा वृतान्त – ‘ज्योतिपुन्ज हिमालय’, ‘जमुना गंगा के नैहर में’, ‘हँसते निर्झर दहकती भट्ठी’।
संस्मरण – ‘हमसफर मिलते रहे’।
कविता संग्रह – ‘चलता चला जाऊंगा’ (एकमात्र कविता संग्रह)।

विधाएँ : उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध, कविता, संस्मरण, बाल साहित्य साहित्य : मोटेलाल, कुंती के बेटे, रामू की होली, दादा की कचहरी, जब दीदी भूत बनी, जीवन पराग, बंकिमचंद्र, अभिनव एकांकी, स्वराज की कहानी, हड़ताल, जादू की गाय, घमंड का फल, नूतन बाल एकांकी, हीरे की पहचान, मोतियों की खेती, पाप का घड़ा, गुड़िया खो गई, ऐसे-ऐसे, तपोवन की कहानियाँ, खोया हुआ रतन, बापू की बातें, हजरत उमर, बद्रीनाथ, कस्तूरबा गांधी, ऐसे थे सरदार, हमारे पड़ोसी, मन के जीते जीत, कुम्हार की बेटी, शंकराचार्य, यमुना की कहानी, रवींद्रनाथ ठाकुर, मैं अछूत हूँ, एक देश एक हृदय, मानव अधिकार, नागरिकता की ओर

पुरस्कार व सम्मान
विष्णु प्रभाकर जी की प्रमुख रचना ‘आवारा मसीहा’ सर्वाधिक चर्चित जीवनी है। इस जीवनी रचना के लिए इन्हें ‘पाब्लो नेरूदा सम्मान’, ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ जैसे कई विदेशी पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार, इनका लिखा प्रसिद्ध नाटक ‘सत्ता के आर-पार’ पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ‘मूर्ति देवी पुरस्कार’ प्रदान किया गया हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रभाकर जी को ‘शलाका सम्मान’ भी मिल चुका है। ‘पद्मभूषण’ पुरस्कार भी मिला, किंतु राष्ट्रपति भवन में दुर्व्यवहार के विरोधस्वरूप उन्होंने ‘पद्मभूषण’ की उपाधि वापस करने घोषणा कर दी।

 

विशेष

 

विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून, सन 1912 को मीरापुर, ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इन्हें इनके एक अन्य नाम ‘विष्णु दयाल’ से भी जाना जाता है। इनके पिता का नाम दुर्गा प्रसाद था, जो धार्मिक विचारधारा वाले व्यक्तित्व के धनी थे। प्रभाकर जी की माता महादेवी पढ़ी-लिखी महिला थीं, जिन्होंने अपने समय में पर्दाप्रथा का घोर विरोध किया था। प्रभाकर जी की पत्नी का नाम सुशीला था।

विष्णु प्रभाकर की आरंभिक शिक्षा मीरापुर में हुई थी। उन्होंने सन 1929 में चंदूलाल एंग्लो-वैदिक हाई स्कूल, हिसार से मैट्रिक की परीक्षा पास की। इसके उपरांत नौकरी करते हुए पंजाब विश्वविद्यालय से ‘भूषण’, ‘प्राज्ञ’, ‘विशारद’ और ‘प्रभाकर’ आदि की हिंदी-संस्कृत परीक्षाएँ भी उत्तीर्ण कीं। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से ही बी.ए. की डिग्री भी प्राप्त की थी।

प्रभाकर जी के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। यही कारण था कि उन्हें काफ़ी कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करना पड़ा था। वे अपनी शिक्षा भली प्रकार से प्राप्त नहीं कर पाये थे। अपनी घर की परेशानियों और ज़िम्मेदारियों के बोझ से उन्होंने स्वयं को मज़बूत बना लिया। उन्होंने चतुर्थ श्रेणी की एक सरकारी नौकरी प्राप्त की। इस नौकरी के जरिए पारिश्रमिक रूप में उन्हें मात्र 18 रुपये प्रतिमाह का वेतन प्राप्त होता था। विष्णु प्रभाकर जी ने जो डिग्रियाँ और उच्च शिक्षा प्राप्त की, तथा अपने घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह निभाया, वह उनके अथक प्रयासों का ही परिणाम था। प्रभाकर जी की कुछ कविताएँ एवं कहानियाँ

 

झूठ
मैंने बीते हुए युग की
कथा लिखी थी
वह सच नहीं हुई
तुम आनेवाले क्षण की
कहानी लिख रहे हो
वह भी सच नहीं होगी,
काल सबको ग्रस लेगा
शेष रह जायेगा दंभ
मेरा, तुम्हारा, उसका
तुम जानते हो किसका
बोलो नहीं, क्योंकि…
जो भी तुम बोलोगे
झूठ होगा सब

 आग का अर्थ
मेरे उस ओर आग है,
मेरे इस ओर आग है,
मेरे भीतर आग है,
मेरे बाहर आग है,
इस आग का अर्थ जानते हो ?

क्या तपन, क्या दहन,
क्या ज्योति, क्या जलन,
क्या जठराग्नि-कामाग्नि,
नहीं! नहीं!!!
ये अर्थ हैं कोष के, कोषकारों के
जीवन की पाठशाला के नहीं,

जैसे जीवन,
वैसे ही आग का अर्थ है,
संघर्ष,
संघर्ष- अंधकार की शक्तियों से
संघर्ष अपने स्वयं के अहम् से
संघर्ष- जहाँ हम नहीं हैं वहीं बार-बार दिखाने से
कर सकोगे क्या संघर्ष ?
पा सकोगे मुक्ति, माया के मोहजाल से ?

पा सकोगे तो आलोक बिखेरेंगी ज्वालाएँ
नहीं कर सके तो
लपलपाती लपटें-ज्वालामुखियों की
रुद्ररूपां हुंकारती लहरें सातों सागरों की,
लील जाएँगी आदमी
और
आदमीयत के वजूद को

शेष रह जाएगा, बस वह
जो स्वयं नहीं जानता
कि
वह है, या नहीं है ।

 

हम
हम प्रतिभा के वरद पुत्र
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम दिन भर करते ब्लात्कार
देते उपदेश ब्रह्मचर्य का
हर संध्या को

हम प्रतिभा के वरद पुत्र
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम दिन भर करते पोषण
जातिवाद का
निर्विकार निरपेक्ष भाव से
करते उद्घाटन
सम्मेलन का
विरोध में वर्भेगद के
हर संध्या को

हम प्रतिभा के वरद पुत्र
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम जनता के चाकर सेवक
हमें है अधिकार
अपने बुत पुजवाने का
मरने पर
बनवाने का समाधि
पाने को श्रद्धा जनता की ।

हम जनता के चाकर
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
जनता भूखी मरती है
मरने दो
बंगलों में बैठ हमें
राजसी भोजन करने दो, राजभोग चखने दो
जिससे आने पर अवसर
हम छोड़ कर चावल
खा सकें केक, मुर्ग-मुसल्लम

हम नेताओं के वंशज
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम प्रतिपल भजते
रघुपति राघव राजा राम
होते हैं जिसके अर्थ
चोरी हिंसा तेरे नाम
भावुक प्रेम

 

नहीं…
हूँ.…
और एक सुबकी
तारे, पानी की बूँदें दो-चार
ये तत्त्व हैं उस बहुप्रशिंसित प्रेम के
जो उफनता है
और उफनता ही रहता है
किसी भावुक हृदय में
और भावुकता का नशा
मात्र शराब का
जो चढ़ता है उतरने को
और तोड़ देता है
तन को
मन को

प्रेम क्या है

प्रेम क्या है
रतिक्रिया-
अथवा आत्मरति
महत्वकांक्षा
घृणा
या व्यापार मानस मंथन का
अथवा पाना स्वयं को दूसरे में
सुनो-सुनो
मैं भुजा उठाकर कहता हूँ
सुनो, प्रेम है
लघुत्तम समापवर्त्य
इन सबका

 

अशांति

 

तुम हो केवल
अपने लिये नितांत
प्रश्न करता है मुझसे
मेरा वृत्तंत
कैसे हो गये तुम प्राण
यूँ अशांत
दौड़ता फिरता हूँ मैं
यहाँ-वहाँ
कहाँ-कहाँ
पर होता कहीं नहीं।

 

चेतना

 

मेरे अंधेरे बंद मकान के
खुले आंगन में
कैक्टस नहीं उगते
मनीप्लांट ख़ूब फैलता है
लोग कहते हैं
पौधों में
चेतना नहीं होती।

अहसास

सिसिफस
हनुमान
या
अश्वत्थामा
सभी मनुष्य थे
चढ़े और गिरे
लेकिन मैं नहीं गिरूंगा
मैंने अपने अहसास को
कील दिया है।

 

दो चित्र : तब और अब
शिव का तांडव नर्तन
लेटी है माँ
जहाँ उनके चरणों में
और लील गया है वह स्पर्श
उनकी उग्रता को
भाषा के क्रूर हाथों में
मनुष्य का कंकाल
उगल रहा है, काला लहू।

 

बाज़ार
फोन की घंटी बजी
मैंने रिसीवर उठाया
उधर से पूछा किसी ने
सुनंदा है क्या?
बाज़ार गई है।
कब तक लौटेगी?
बाज़ार से लौटने का
समय होता है क्या?

 

स्वर्ग-नरक

 

शक्ति नहीं है
कर सकूँ निर्माण स्वर्ग का
बाधा बनूँ क्यों तब
उनकी
जिनकी मंज़िल है नरक।
कौन जाने वह नरक ही है
स्वर्ग मेरा
क्योंकि अंतत:
दिए हैं अर्थ
मैंने ही
शब्द को।
इतिहास

 

दमी मर गया कभी का
पीढ़ियाँ ज़िन्दा हैं
सूरज बुझ जाएगा एक दिन
पर आकाश अमर है
सूरज के बिना
वह आकाश कैसा होगा!

 

निकटता
त्रास देता है जो
वह हँसता है
त्रसित है जो
वह रोता है
कितनी निकटता है
रोने और हँसने में

 

कड़वा सत्य

 

एक लंबी मेज
दूसरी लंबी मेज
तीसरी लंबी मेज
दीवारों से सटी पारदर्शी शीशेवाली अलमारियाँ
मेजों के दोनों ओर बैठे हैं व्यक्ति
पुरुष-स्त्रियाँ
युवक-युवतियाँ
बूढ़े-बूढ़ियाँ
सब प्रसन्न हैं

कम-से-कम अभिनय उनका इंगित करता है यही
पर मैं चिंतित हूँ
देखकर उस वृद्धा को
जो कभी प्रतिमा भी लावण्य की
जो कभी तड़प थी पूर्व राग की
क्या ये सब युवतियाँ
जो जीवन उँड़ेल रही हैं
युवक हृदयों में
क्या ये सब भी
बूढ़ी हो जाएँगी
देखता हूँ पारदर्शी शीशे में
इस इंद्रजाल को
सोचता हूँ-
सत्य सचमुच कड़वा होता है।

 

शब्द और शब्द

 

मा जाता है
श्वास में श्वास
शेष रहता है
फिर कुछ नहीं
इस अनंत आकाश में
शब्द ब्रह्म ढूँढ़ता है
पर-ब्रह्म को
शब्द में अर्थ नहीं समाता
समाया नहीं
समाएगा नहीं
काम आया है वह सदा
आता है
आता रहेगा
उछालने को
कुछ उपलब्धियाँ
छिछली अधपकी
 

 

कहानियाँ
मेरा वतन

 

सने सदा की भाँति तहमद लगा लिया था और फैज ओढ़ ली थी। उसका मन कभी-कभी साइकिल के ब्रेक की तरह तेजी से झटका देता, परन्तु पैर यन्त्रवत् आगे बढ़ते चले जाते। यद्यपि इस शि€त-प्रयोग के कारण वह बे-तरह काँप-काँप जाता, पर उसकी गति में तनिक भी अन्तर न पड़ता। देखने वालों के लिए वह एक अर्ध्दविक्षिप्त से अधिक कुछ नहीं था। वे अकसर उसका मंजांक उड़ाया करते। वे कहकहे लगाते और ऊँचे स्वर में गालियाँ देते, पर जैसे ही उनकी दृष्टि उठती-न जाने उन निरीह, भावहीन, फटी-फटी आँखों में क्या होता कि वे सहम-सहम जाते; सोडावाटर के उफान की तरह उठनेवाले कहकहे मर जाते और वह नंजर दिल की अन्दरूनी बस्ती को शोले की तरह सुलगाती हुई फिर नीचे झुक जाती। वे फुसफुसाते, ‘जरूर इसका सब कुछ लुट गया है,’…’इसके रिश्तेदार मारे गये हैं…’ ‘नहीं, नहीं ऐसा लगता है कि काफिरों ने इसके बच्चों की इसी के सामने आग में भून दिया है या भालों की नोक पर टिकाकर तब तक घुमाया है जब तक उनकी चीख-पुकार बिल्ली की मिमियाहट से चिड़िया के बच्चे की चीं-चीं में पलटती हुई खत्म नहीं हो गयी है।’
”और यह सब देखता रहा है।”
”हां! यह देखता रहा है। वही खौफ इसकी आँखों में उतर आया है। उसी ने इसके रोम-रोम को जकड़ लिया है। वह इसके लहू में उस तरह घुल-मिल गया है कि इसे देखकर डर लगता है।”
”डर”, किसी ने कहा, ”इसकी आँखों में मौत की तस्वीर है, वह मौत, जो कत्ल, खूँरेजी और फाँसी का निजाम संभालती है।”
एक बार राह चलते दर्दमन्द ने एक दुकानदार से पूछा, ”यह कौन है?”
दुकानदार ने जवाब दिया, ”मुसीबतंजदा है, जनाब! अमृतसर में रहता था। काफिरों ने सब कुछ लूटकर इसके बीवी-बच्चों को जिन्दा आग में जला दिया।”
”जिन्दा !” राहगीर के मुंह से अचानक निकल गया।
दुकानदार हंसा ”जनाब किस दुनिया में रहते हैं? वे दिन बीत गये जब आग काफिरों के मुर्दों को जलाती थी। अब तो वह जिन्दों को जलाती है।”
राहगीर ने तब अपनी कड़वी भाषा में काफिरों को वह सुनायी कि दुकानदार ने खुश होकर उसे बैठ जाने के लिए कहा। उसे जाने की जल्दी थी। फिर भी जरा-सा बैठकर उसने कहा, ”कोई बड़ा आदमी जान पड़ता है।”
”जी हां ! वकील था, हाईकोर्ट का बड़ा वकील। लाखों रुपयों की जायदाद छोड़ आये हैं।”
”अच्छा…!”
”जनाब! आदमी आसानी से पागल नहीं होता। चोट लगती है तभी दिल टूटता है। और जब एक बार टूट जाता है तो फिर नहीं जुड़ता। आजकल चारों तरफ यही कहानी है। मेरा घर का मकान नहीं था, लेकिन दुकान में सामान इतना था कि तीन मकान खरीदे जा सकते थे।”
”जी हां,” राहगीर ने सहानुभूति से भरकर कहा, ”आप ठीक कहते हैं पर आपके बाल-बच्चे तो सही-सलामत आ गये हैं!”
”जी हां ! खुदा का फज़ल है। मैंने उन्हें पहले ही भेज दिया था। जो पीछे रह गये थे उनकी न पूछिए। रोना आता है। खुदा गारत करे हिन्दुस्तान को…।”
राहगीर उठा। उसने बात काटकर इतना ही कहा, ”देख लेना, एक दिन वह गारत होकर रहेगा। खुदा के घर में देर है, पर अंधेर नहीं।”
और वह चला गया, परन्तु उस अर्ध-विक्षिप्त के कार्यक्रम में कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह उसी तरह धीरे-धीरे बांजारों में से गुजरता, शरणार्थियों की भीड़ में धक्के खाता, परन्तु उस ओर देखता नहीं। उसकी दृष्टि तो आस-पास की दुकानों पर जा अटकती थी। जैसे मिकनातीस लोहे को खींच लेता है वैसे ही वे बेंजबाम् इमारतें जो जगह-जगह पर खंडहर की श€ल में पलट चुकी थीं, उसकी नंजर को और उसके साथ-साथ उसके मन, बुध्दि, चिžा और अहंकार सभी को अपनी ओर खींच लेती थीं और फिर उसे जो कुछ याद आता, वह उसे पैर के तलुए से होकर सिर में निकल जानेवाली सूली की तरह काटता हुआ, उसके दिल में घुमड़-घुमड़ उठता। इसी कारण वह मर नहीं सका, केवल सिसकियाम् भरता रहा। उन सिसकियों में न शब्द थे, न आँसू। वे बस सूखी हिचकियों की तरह उसे बेजान किये रहती थीं।
सहसा उसने देखा-सामने उसका अपना मकान आ गया है। उसके अपने दादा ने उसे बनवाया था। उसके ऊपर के कमरे में उसके पिता का जन्म हुआ था। उसी कमरे में उसने आम्खें खोली थीं और उसी कमरे में उसके बच्चों ने पहली बार प्रकाश-किरण का स्पर्श पाया था।
उस मकान के कण-कण में उसके जीवन का इतिहास अंकित था। उसे फिर बहुत-सी कहानियाँ याद आने लगीं। वह उन कहानियों में इतना डूब गया कि उसे परिस्थिति का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। वह यन्त्रवत् जीने पर चढ़ने के लिए आगे बढ़ा और जैसा कि वह सदा करता था उसने घण्टी पर हाथ रखा। बे-जान घण्टी शोर मचाने लगी और तभी उसकी नींद टूट गयी। उसने घबराकर अपने चारों ओर देखा। वहाँ सब एक ही जैसे आदमी नहीं थे। वे एक जैसी जबान भी नहीं बोलते थे। फिर भी उनमें ऐसा कुछ था जो उन्हें ‘एक’ बना रहा था और वह इस ‘एक’ में अपने लिए कोई जगह नहीं पाता था। उसने तेजी से आगे बढ़ जाना चाहा, पर तभी ऊपर से एक व्यक्ति उतरकर आया। उसने ढीला पाजामा और कुरता पहना था, पूछा, ”कहिए जनाब?”
वह अचकचाया, ”जी!”
”जनाब किसे पूछते थे?”
”जी, मैं पूछता था कि मकान खाली है।”
ढीले पाजामे वाले व्यक्ति ने उसे ऐसे देखा कि जैसे वह कोई चोर या उठाईगीरा हो। फिर मुंह बनाकर तलखी से जवाब दिया, ”जनाब तशरीफ ले जाइए वरना…”
आगे उसने क्या कहा वह यह सुनने के लिए नहीं रुका। उसकी गति में तूफान भर उठा, उसके मस्तिष्क में बवंडर उठ खड़ा हुआ और उसका चिन्तन गति की चट्टान पर टकराकर पाश-पाश हो गया। उसे जब होश आया तो वह अनारकली से लेकर माल तक का समूचा बांजार लाँघ चुका था। वह बहुत दूर निकल आया था। वहाँ आकर वह तेजी से काँपा। एक टीस ने उसे कुरेद डाला, जैसे बढ़ई ने पेच में पेचकश डालकर पूरी शिक्त के साथ उसे घुमाना शुरू कर दिया हो। हाईकोर्ट की शानदार इमारत उसके सामने थी। वह दृष्टि गड़ाकर उसके कंगूरों को देखने लगा। उसने बरामदे की कल्पना की। उसे याद आया-वह कहाँ बैठता था, वह कौन से कपड़े पहनता था कि सहसा उसका हाथ सिर पर गया जैसे उसने सांप को छुआ हो। उसने उसी क्षण हाथ खींच लिया पर मोहक स्वप्नों ने उस रंगीन दुनिया की रंगीनी को उसी तरह बनाए रखा। वह तब इस दुनिया में इतना डूब चुका था कि बाहर की जो वास्तविक दुनिया है वह उसके लिए मृगतृष्णा बन गयी थी। उसने अपने पैरों के नीचे की धरती को ध्यान से देखा, देखता रहा। सिनेमा की तस्वीरों की तरह अतीत की एक दुनिया, एक शानदार दुनिया उसके अन्तस्तल पर उतर आयी। वह इसी धरती पर चला करता था। उसके आगे-पीछे उसे नमस्कार करते, सलाम झुकाते, बहुत से आदमी आते और जाते थे। दूसरे वकील हाथ मिलाकर शिष्टाचार प्रदर्शित करते और…
विचारों के हनुमान ने समुद्र पार करने के लिए छलाँग लगायी। उसका ध्यान जज के कमरे पर जाकर केन्द्रित हो गया। जब वह अपने केस में बहस शुरू करता तो कमरे में सन्नाटा छा जाता। केवल उसकी वाणी की प्रतिध्वनि ही वहाँ गूँजा करती, केवल ‘मी लार्ड’ शब्द बार-बार उठता और ‘मी लार्ड’ कलम रख कर उसकी बात सुनते…
हनुमान फिर कूदे। अब वह बार एसोसिएशन के कमरे में आ गया था। इस कमरे में न जाने कितने बेबाक कहकहे उसने लगाये, कितनी बार राजनीति पर उत्तेजित कर देनेवाली बहसें कीं, महापुरुषों को श्रद्धाजलियाँ अर्पित कीं, विदा और स्वागत के खेल खेले…
वह अब उस कुर्सी के बारे में सोचने लगा जिस पर वह बैठा करता था। उसे कमरे की दीवार के साथ-साथ दरवाजे के पायदान की याद भी आ गयी। कभी-कभी ये छोटी-छोटी तंफसीलें आदमी को कितना सकून पहुंचाती हैं। इसीलिए वह सब-कुछ भूलकर सदा की तरह झूमता हुआ आगे बढ़ा, पर तभी जैसे किसी ने उसे कचोट लिया। उसने देखा कि लॉन की हरी घास मिट्टी में समा गयी है। रास्ते बन्द हैं। केवल डरावनी आँखों वाले सैनिक मशीनगन संभाले और हैलमेट पहने तैयार खड़े हैं कि कोई आगे बढ़े और वे शूट कर दें। उसने हरी वर्दी वाले होमगार्डों को भी देखा और देखा कि राइफल थामे पठान लोग जब मन में उठता है तब फायर कर देते हैं। वे मानो छड़ी के स्थान पर राइफल का प्रयोग करते हैं और उनके लिए जीवन की पवित्रता बन्दूक की गोली की सफलता पर निर्भर करती है। उसे स्वयं जीवन की पवित्रता से अधिक मोह नहीं था। वह खंडहरों के लिए आँसू भी नहीं बहाता था। उसने अग्नि की प्रज्वलित लपटों को अपनी आँखों से उठते देखा था। उसे तब खाण्डव-वन की याद आ गयी थी जिसकी नींव पर इन्द्रप्रस्थ-सरीखे वैभवशाली और कलामय नगर का निर्माण हुआ था। तो क्या इस महानाश की उस कला के कारण महाभारत सम्भव हुआ, जिसने इस अभागे देश के मदोन्मत, किन्तु जर्जरित शौर्य को सदा के लिए समाप्त कर दिया। क्या आज फिर वही कहानी दोहरायी जानेवाली है।
एक दिन उसने अपने बेटे से कहा, ”जिन्दगी न जाने क्या-क्या खेल खेलती है। वह तो बहुरूपिया है। दूसरी दुनिया बनाते हमें देर नहीं लगती। परमात्मा ने मिट्टी इसलिए बनायी कि हम उसमें से सोना पैदा करें।”
बेटा बाप का सच्चा उत्तराधिकारी था। उसने परिवार को एक छोटे-से कस्बे में छोड़ा और आप आगे बढ़ गया। वह अपनी उजड़ी हुई दुनिया फिर से बसा लेना चाहता था, पर तभी अचानक छोटे भाई का तार मिला। लिखा था, ”पिताजी न जाने कहाँ चले गये!”
तार पढ़कर बड़ा भाई घबरा गया। वह तुरन्त घर लौटा और पिता की खोज करने लगा। उसने मित्रों को लिखा, रेडियो पर समाचार भेजे, अंखबारों में विज्ञापन निकलवाये। सब कुछ किया, पर वह यह नहीं समझ सका, कि आंखिर वे कहाँ गये और €यों गये। वह उसी उधेड़-बुन में था कि एक दिन सवेरे-सवेरे क्या देखता है कि उसके पिता चले आ रहे हैं शान्त निर्द्वन्द्व और निर्लिप्त।
”आप कहाँ चले गये थे?” प्रथम भावोद्रेक समाप्त होने पर उसने पूछा।
शान्त मन से पिता ने उत्तर दिया, ”लाहौर।”
”लाहौर,” पुत्र अविश्वास से काँप उठा, ”आप लाहौर गये थे?”
”हां।”
”कैसे?”
पिता बोले, ”रेले में बैठकर गया था, रेल में बैठकर आया हूं।”
”पर आप वहाँ क्यों गये थे?”
”क्यों गया था,” जैसे उनकी नींद टूटी। उन्होंने अपने-आपको संभालते हुए कहा, ”वैसे ही, देखने के लिए चला गया था।”
और आगे की बहस से बचने के लिए वे उठकर चले गये। उसके बाद उन्होंने इस बारे में किसी प्रश्न का जवाब देने से इनकार कर दिया। पुत्रों ने पिता में आनेवाले इस परिवर्तन को देखा, पर न तो वे उन्हें समझा सकते थे, न उन पर क्रोध कर सकते थे, हां, पंजाब की बात चलती तो आह भरकर कह देते थे, ”गया पंजाब! पंजाब अब कहाँ है?”
पुत्र फिर काम पर लौट गये और वे भी घर की व्यवस्था करने लगे। इसी बीच में वे फिर एक दिन लाहौर चले गये, परन्तु इससे पहले कि उनके पुत्र इस बात को जान सकें, वे लौट आये। पत्नी ने पूछा, ”आंखिर क्या बात है?”
”कुछ नहीं।”
”कुछ नहीं कैसे? आप बार-बार वहाँ क्यों जाते हैं?”
तब कई क्षण चुप रहने के बाद उन्होंने धीरे से कहा, ”क्यों जाता हूं, क्योंकि वह मेरा वतन है। मैं वहीं पैदा हुआ हूं। वहाँ की मिट्टी में मेरी जिन्दगी का रांज छिपा है। वहाँ की हवा में मेरे जीवन की कहानी लिखी हुई है।”
पत्नी की आँखें भर आयीं, बोली, ”पर अब €या, अब तो सब-कुछ गया।”
”हां, सब-कुछ गया।” उन्होंने कहा, ”मैं जानता हूं अब कुछ नहीं हो सकता, पर न जाने €या होता है, उसकी याद आते ही मैं अपने-आपको भूल जाता हूं और मेरा वतन मिकनातीस की तरह मुझे अपनी ओर खींच लेता है।”
पत्नी ने जैसे पहली बार अपने पति को पहचाना हो। अवाक्-सी दो क्षण वैसे ही बैठी रही। फिर बोली, ”आपको अपने मन को संभालना चाहिए। जो कुछ चला गया उसका दु:ख तो जिन्दगी-भर सालता रहेगा। भाग्य में यही लिखा था, पर अब जान-बूझकर आग में कूदने से क्या लाभ?”
”हां, अब तो जो-कुछ बचा है उसी को सहेजकर गाड़ी खींचना ठीक है।”-उसने पत्नी से कहा और फिर जी-जान से नए कार्य-क्षेत्र में जुट गया। उसने फिर वकालत का चोगा पहन लिया। उसका नाम फिर बार-एसोसिएशन में गूँजने लगा। उसने अपनी जिन्दगी को भूलने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया। और शीघ्र ही वह अपने काम में इतना डूब गया कि देखनेवाले दाँतों तले उँगली दबाकर कहने लगे, ”इन लोगों में कितना जीवट है। सैकड़ों वर्षों में अनेक पीढ़ियों ने अपने को खपाकर जिस दुनिया का निर्माण किया था वह क्षण-भर में राख का ढेर हो गयी, और बिना आँसू बहाये; उसी तरह दुनिया ये लोग क्षणों में बना देना चाहते हैं।”
उनका अचरज ठीक था। तम्बुओं और कैम्पों के आस-पास, सड़कों के किनारे, राह से दूर भूत-प्रेतों के चिर-परिचित अड्डों में, उजड़े गाँवों में, खोले और खादर में, जहाँ कहीं भी मनुष्य की शक्ति कुंठित हो चुकी थी वहीं ये लोग पहुँच जाते थे और पादरी के नास्तिक मित्र की तरह नरक को स्वर्ग में बदल लेते थे। इन लोगों ने जैसे कसम खायी थी कि धरती असीम है, शि€त असीम है, फिर निराशा कहाँ रह सकती है?
ठीक उसी समय जब उसका बड़ा पुत्र अपनी नई दुकान का मुहूर्त करनेवाला था, उसे एक बार फिर छोटे भाई का तार मिला, ”पिताजी पाँच दिन से लापता हैं।”
पढ़कर वह क्रुध्द हो उठा और तार के टुकड़े-टुकड़े करके उसने दूर फेंक दिये। चिनचिनाकर बोला, ”वे नहीं मानते तो उन्हें अपने किये का फल भोगना चाहिए। वे अवश्य लाहौर गये हैं।”
उसका अनुमान सच था। जिस समय वे यहाँ चिन्तित हो रहे थे उसी समय लाहौर के एक दूकानदार ने एक अर्द्ध-विक्षिप्त व्यक्ति को, जो तहमद लगाये, फैज कैप ओढ़े, फटी-फटी आँखों से चारों ओर देखता हुआ घूम रहा था, पुकारा, ”शेख साहब! सुनिए तो। बहुत दिन में दिखाई दिए, कहाँ चले गये थे?”
उस अर्द्ध-विक्षिप्त पुरुष ने थकी हुई आवांज में जवाब दिया, ”मैं अमृतसर चला गया था।”
”क्या,” दूकानदार ने आँखें फाड़कर कहा, ”अमृतसर!”
‘हाँ, अमृतसर गया था। अमृतसर मेरा वतन है।’
दूकानदार की आँखें क्रोध से चमक उठीं, बोला, ”मैं जानता हूं। अमृतसर में साढे तीन लाख मुसलमान रहते थे, पर आज एक भी नहीं है।”
”हां,” उसने कहा, ”वहाँ आज एक भी मुसलमान नहीं है।”
”काफिरों ने सबको भगा दिया, पर हमने भी कसर नहीं छोड़ी। आज लाहौर में एक भी हिन्दू या सिक्ख नहीं है और कभी होगा भी नहीं।”
वह हँसा, उसकी आँखें चमकने लगीं। उसमें एक ऐसा रंग भर उठा जो बे-रंग था और वह हँसता चला गया, हँसता चला गया…”वतन, धरती, मोहब्बत सब कितनी छोटी-छोटी बातें हैं…सबसे बड़ा मजहब है, दीन है, खुदा का दीन। जिस धरती पर खुदा का बन्दा रहता है, जिस धरती पर खुदा का नाम लिया जाता है, वह मेरा वतन है, वही मेरी धरती है और वही मेरी मोहब्बत है।”
दुकानदार ने धीरे से अपने दूसरे साथी से कहा, ”आदमी जब होश खो बैठता है, तो कितनी सच्ची बात कहता है।”
साथी ने जवाब दिया, ”जनाब! तब उसकी जबान से खुदा बोलता है।”
”बेशक,” उसने कहा और मुड़कर उस अर्द्ध-विक्षिप्त से बोला-”शेख साहब! आपको घर मिला?”
”सब मेरे ही घर हैं।”
दुकानदार मुस्कराया, ”लेकिन शेख साहब! जरा बैठिए तो, अमृतसर में किसी ने आपको पहचाना नहीं।”
वह ठहाका मारकर हँसा, ”तीन महीने जेल में रहकर लौटा हूं।”
”सच।”
”हां,” उसने आँखें मटकाकर कहा।
”तुम जीवट के आदमी हो।”
और तब दुकानदार ने खुश होकर उसे रोटी और कवाब मंगाकर दिए। लापरवाही से उन्हें पल्ले में बाँधकर और एक टुकड़े को चबाता हुआ वह आगे बढ़ गया।
दुकानदार ने कहा, ”अजीब आदमी है। किसी दिन लखपती था, आज फाकामस्त है।”
”खुदा अपने बन्दों का खूब इम्तहान लेता है।”
”जन्नत ऐसे को ही मिलता है।”
”जी हां। हिम्मत भी खूब है। जान-बूझकर आग में जा कूदा।”
”वतन की याद ऐसी ही होती है।” उसके साथी ने जो दिल्ली का रहनेवाला था कहा, ”अब भी जब मुझे दिल्ली की याद आती है तो दिल भर आता है।”
उतने कष्ट की कल्पना करना जो दूसरे ने भोगा है असम्भव जैसा है, फिर भी यातना की समानता के कारण दो मित्र व्यक्तियों की संवेदना एक बिन्दु पर आकर एक हो जाती है।
वह आगे बढ़ रहा था। माल पर भीड़ बढ़ रही थी। कारें भी कम नहीं थीं। अँग्रेंज, एंग्लो-इंडियन तथा ईसाई नारियाँ पहले की तरह ही बांजार में देखी जा सकती थीं। फिर भी उसे लगा कि वह माल जो उसने देखी थी यह नहीं है। शरीर अवश्य कुछ वैसा ही है, पर उसकी आत्मा वह नहीं है। लेकिन यह भी उसकी दृष्टि का दोष था। कम-से-कम वे जो वहाँ घूम रहे थे उनका ध्यान आत्मा की ओर नहीं था।
एकाएक वह पीछे मुड़ा। उसे रास्ता पूछने की जरूरत नहीं थी। बैल अपनी डगर को पहचानते हैं। उसके पैर भी दृढ़ता से रास्ते पर बढ़ रहे थे और विश्वविद्यालय की आलीशान इमारत एक बार फिर सामने आ रही थी। उसने नुमायश की ओर एक दृष्टि डाली, फिर बुलनर के बुत की तरफ से होकर वह अन्दर चला गया। उसे किसी ने नहीं रोका। वह लॉ कॉलिज के सामने निकल आया। उसी क्षण उसका दिल एक गहरी हूक से टीसने लगा। कभी वह इस कॉलेज में पढ़ा करता था…
वह काँपा, उसे याद आया, उसने इस कॉलेज में पढ़ाया भी है…
वह फिर काँपा। हूक फिर उठी। उसकी आँखें भर आयीं। उसने मुंह फेर लिया। उसके सामने अब वह रास्ता था जो उसे दयानन्द कॉलेज ले जा सकता था। एक दिन पंजाब विश्वविद्यालय, दयानन्द विश्वविद्यालय कहलाता था।
तभी एक भीड़ उसके पास से निकल आयी। वे प्राय: सभी शरणार्थी थे। बे-घर और बे-जर लेकिन उन्हें देखकर उसका दिल पिघला नहीं, कड़वा हो आया। उसने चीख-चीखकर उन्हें गालियाँ देनी चाहीं। तभी पास से जानेवाले दो व्यक्ति उसे देखकर ठिठक गये। एक ने रुककर उसे ध्यान से देखा, दृष्टि मिली, वह सिहर उठा। सर्दी गहरी हो रही थी और कपड़े कम थे। वह तेजी से आगे बढ़ गया। वह जल्दी-से-जल्दी कॉलेज-कैम्प में पहुँच जाना चाहता था। उन दो व्यक्तियों में से एक ने, जिसने उसे पहचाना था, दूसरे से कहा-”मैं इसको जानता हूं।”
”कौन है?”
”हिन्दू।”
साथी अचकचाया, ”हिन्दू !”
”हां, हिन्दू। लाहौर का एक मशहूर वकील…।”
और कहते-कहते उसने ओवरकोट की जेब में से पिस्तौल निकाल लिया। वह आगे बढ़ा। उसने कहा, ”जरूर यह मुखबिरी करने आया है।”
उसके बाद गोली चली। एक हल्की-सी हलचल, एक साधारण-सी खटपट। एक व्यक्ति चलता-चलता लड़खड़ाया और गिर पड़ा। पुलिस ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया, परन्तु जो अनेक व्यक्ति कुतूहलवश उस पर झुक आये थे, उनमें से एक ने उसे पहचान लिया। वह हतप्रभ रह गया और यन्त्रवत् पुकार उठा ”मिस्टर पुरी ! तुम यहाँ कैसे…!”
मिस्टर पुरी ने आँखें खोलीं, उनका मुख श्वेत हो गया था और उस पर मौत की छाया मंडरा रही थी। उन्होंने पुकारने वाले को देखा और पहचान लिया। धीरे से कहा, ”हसन…!”
आँखें फिर मिच गयीं। बदहवास हसन ने चिल्लाकर सैनिक से कहा, ”जल्दी करो। टैक्सी लाओ। मेयो अस्पताल चलना है। अभी…”
भीड़ बढ़ती जा रही थी। फौज, पुलिस और होमगार्ड सबने घेर लिया। हसन, जो उसका साथी था, जिसके साथ वह पढ़ा था, जिसके साथ उसने साथी और प्रतिद्वन्दी बनकर अनेक मुकदमे लड़े थे, वह अब उसे भीगी-भीगी आँखों से देख रहा था। एक बार झुककर उसने फिर कहा, ”तुम यहाँ इस तरह क्यों आये, मिस्टर पुरी?”
मिस्टर पुरी ने इस बार प्रयत्न करके आँखें खोलीं और वे फुसफसाये, ”मैं यहाँ क्यों आया? मैं यहाँ से जा ही कहाँ सकता हूं? यह मेरा वतन है, हसन ! मेरा वतन…!”
फिर उसकी यातना का अन्त हो गया।
मैं ज़िन्दा रहूँगा

 

दावत कभी की समाप्त हो चुकी थी, मेहमान चले गए थे और चाँद निकल आया था। प्राण ने मुक्त हास्य बिखेरते हुए राज की ओर देखा। उसको प्रसन्न करने के लिए वह इसी प्रकार के प्रयत्न किया करता था। उसी के लिए वह मसूरी आया था। राज की दृष्टि तब दूर पहाड़ों के बीच, नीचे जाने वाले मार्ग पर अटकी थी। हल्की चाँदनी में वह धुँधला बल खाता मार्ग अतीत की धुँधली रेखाओं की और भी धुँधला कर रहा था। सच तो यह है कि तब वह भूत और भविष्य में उलझी अपने में खोई हुई थी। प्राण के मुक्त हास्य से वह कुछ चौंकी। दृष्टि उठाई। न जाने उसमें क्या था, प्राण काँप उठा, बोला, ”तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?”

राज ने उस प्रश्न को अनसुना करके धीरे से कहा, ”आपके दाहिनी ओर जो युवक बैठा था, उसको आप अच्छी तरह जानते हैं?”

”किसको, वह जो नीला कोट पहने था?”

”हाँ, वही।”

”वह किशन के पास ठहरा हुआ है। किशन की पत्नी नीचे गई थी, इसीलिए मैंने उसे यहाँ आने को कह दिया था। क्यों, क्या तुम उसे जानती हो?”

”नहीं, नहीं, मैं वैसे ही पूछ रही थी।”

”मैं समझ गया, वह दिलीप को बहुत प्यार कर रहा था। कुछ लोग बच्चों से बहुत प्रेम करते हैं।”

”हाँ, पर उसका प्रेम ‘बहुत’ से कुछ अधिक था।”

”क्या मतलब?”

”तुमने तो देखा ही था, दिलीप उनकी गोद से उतरना नहीं चाहता था।”

प्राण ने हँसते हुए कहा, ”बच्चा सबसे अधिक प्यार को पहचानता है। उसका हृदय शरत् की चाँदनी से भी निर्मल होता है।”

तभी दोनों की दृष्टि सहसा दिलीप की ओर उठ गई। वह पास ही पलंग पर मख़मली लिहाफ़ ओढ़े सोया था। उसके सुनहरे घुँघराले बालों की एक लट मस्तक पर आ गई थी। गौर वर्ण पर उसकी सुनहरी छाया चन्द्रमा के प्रकाश के समान बड़ी मधुर लग रही थी। बच्चा सहसा मुसकराया। राज फुसफुसाई, ”कितना प्यारा है!”

प्राण बोला, ”ऐसा जान पड़ता है कि शैशव को देखकर ही किसी ने प्यार का आविष्कार किया था।”

दोनों की दृष्टि मिली। दोनों समझ गए कि इन निर्दोष उक्तियों के पीछे कोई तूफ़ान उठ रहा है, पर बोला कोई कुछ नहीं। राज ने दिलीप को प्यार से उठाया और अन्दर कमरे में ले जाकर लिटा दिया। मार्ग में जब वह कन्धे से चिपका हुआ था, तब राज ने उसे तनिक भींच दिया। वह कुनमुनाया, पर पलँग पर लेटते ही शांत हो गया। वह तब कई क्षण खड़ी-खड़ी उसे देखते रही। लगा, जैसे आज से पहले उसने बच्चे को कभी नहीं देखा था, पर शीघ्र ही उसका वह आनन्द भंग हो गया। प्राण ने आकर कहा, ”अरे! ऐसे क्या देख रही हो, राज?”

”कुछ नहीं।”

वह हँसा, ”जान पड़ता है, प्यार में भी छूत होती है।”

राज ने वहाँ से हटते हुए धीरे से कहा, ”सुनिए, अपने उन मित्र के मित्र को अब यहाँ कभी न बुलाइए।”

इन शब्दों में प्रार्थना नहीं थी, भय था। प्राण की समझ में नहीं आया। चकित-सा बोला, ”क्या मतलब?”

राज ने कुछ जवाब नहीं दिया। वह चुपचाप बाहर चली गई और अपने स्थान पर बैठकर पहले की भाँति उस बल खाते हुए मार्ग को देखने लगी। नीचे कुलियों का स्वर बन्द हो गया था। ऊपर बादलों ने सब कुछ अपनी छाया में समेट लिया था। चन्द्रमा का प्रकाश भी उसमें इस तरह घुल-मिल गया था कि उनकी भिन्नता रहस्यमय हो उठी थी। राज को लगा, बादलों की वह धुंध उसके अन्दर भी प्रवेश कर चुकी है और उसकी शांति को लील गई है। सहसा उसकी आँखें भर आई और वह एक झटके के साथ कुर्सी पर लुढक़कर फूट-फूटकर रोने लगी। प्राण सब कुछ देख रहा था। वह न सकपकाया, न क्रुद्ध हुआ। उसी तरह खड़ा हुआ उस फूटते आवेग को देखता रहा। जब राज के उठते हुए निःश्वास कम हुए और उसने उठकर आँखें पोंछ डालीं, तब उसने कहा, ”दिल का बोझ उतर गया? आओ तनिक घूम आएं।”

राज ने भीगी दृष्टि से उसे देखा। एक क्षण ऐसे ही देखती रही। फिर बोली, ”प्राण, मैं जाना चाहती हूँ।”

”कहाँ?”

”कहीं भी।”
प्राण बोला, ”दुनिया को जानती हो। क्षण-भर पहले यहाँ सब कुछ स्पष्ट था, पर अब नहीं है, सब कुछ बादलों की धुंध में खो गया है।”

”मैं भी इस धुंध में खो जाना चाहती हूँ।”

प्राण ने दोनों हाथ हवा में हिलाए और गम्भीर होकर कहा, ”तुम्हारी इच्छा। तुम्हें किसी ने बाँधा नहीं है, जा सकती हो।”

राज उठी नहीं। उसी तरह बैठी रही और सोचती रही। रात आकर चली गई, उसका सोचना कम नहीं हुआ, बल्कि और भी गहरा हो उठा। उसने दिन-भर दिलीप को अपने से अलग नहीं किया। स्वयं ले जाकर माल पर झूले में झुला लाई। स्वयं घुमाने ले गई और फिर खिला-पिलाकर सुलाया भी स्वयं। बहुत देर तक लोरी सुनाई, थपथपाया, सहलाया। वह सो गया, तो रोयी और रोते-रोते बाहर बरामदे में जाकर अपने स्थान पर बैठ गई। वही चन्द्रमा का धुँधला प्रकाश, वही बादलों की धुंध, वही प्रकृति की भाँति ऊपर अपूर्व शांति और अन्दर तूफान की गरज। प्राण ने आज राज को कुछ भी न कहने का प्रण कर लिया था। वह उसकी किसी इच्छा में बाधा नहीं बना। अब भी जब वह दृष्टि गड़ाये उस बल खाते मार्ग को ढूँढने की विफल चेष्टा कर रही थी, वह कुर्सी की पीठ पर हाथ रखे हुए खड़ा था। तभी लगा कोई जीने में आ रहा है। राज एकाएक बोल उठी, ”वे आ गए।”

”कौन?”

”आपके मित्र के मित्र।”

वाक्य पूरा भी न हो पाया था कि वे मित्र बरामदे में आते हुए दिखाई दिए। प्राण ने देखा- वे अकेले नहीं हैं। उनके साथ एक पुरुष तथा एक नारी भी है। दोनों सभ्य लगते हैं। नारी विशेष सुन्दर है, पर इस समय वे अतिशय गम्भीर हैं, उनकी आँखें बताती हैं कि वे व्यग्र भी हैं। प्राण उन्हें देखकर काँपा तो, पर आगे बढक़र उसने उनका स्वागत भी किया। मुसकराकर बोला, ”आइए, आइए, नमस्ते। किशोर नहीं आए?’

”जी, किशोर नहीं आ सके।”

”बैठिए, आइए, आप इधर आइए।”

बैठ चुके तो प्राण ने अपरिचितों की ओर देखकर पूछा, ”आपका परिचय।”
”ये मेरी बहन हैं और ये बहनोई।”

”ओह!” प्राण मुसकराया, हाथ जोड़े, दृष्टि मिली, जैसे कुछ हिला हो। फिर भी संभलकर बोला, ”आप आजकल कहाँ रहते हैं?”

मित्र ने दीर्घ निःश्वास लेकर कहा, ”कहाँ रहते। विधाता ने ऐसा उखाड़ा है कि कहीं जमते ही नहीं बनता।”

प्राण बोला, ”हाँ भाई। वह तो जैसा हुआ सभी जानते हैं, पर उसकी चर्चा किससे करें।”
और फिर मुड़कर राज से, जो बुत बनी बैठी थी, कहा, ”अरे भई, चाय-वाय तो देखो।”

मित्र एकदम बोले, ”नहीं, नहीं। चाय के लिए कष्ट न करें। इस वक्त तो एक बहुत आवश्यक काम से आए हैं।”

प्राण बोलो, ”कहिए।”

मित्र कुछ झिझके। प्राण ने कहा, ”शायद एकांत चाहिए।”

”जी।”
”आइए उधर बैठेंगे।”

वह उठा ओर कोने में पड़ी हुई एक कुरसी पर जा बैठा। मित्र भी पास की दूसरी कुर्सी पर बैठ गए। एक क्षण रुककर बोले, ”क्षमा कीजिए, आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। है तो वह बेहूदा ही।”

”कोई बात नहीं,” प्राण मुसकराया, ”प्रश्न पूछना कभी बेहूदा नहीं होता।”

मित्र ने एकदम सकपकाकर पूछा, ”दिलीप आपका लडक़ा है?”

प्राण का हृदय धक्-धक् कर उठा। ओह, यह बात थी। उसने अपने-को सँभाला और निश्चित स्वर में कहा, ”जी हाँ! आज तो वह मेरा ही है!”

”आज तो?”

”जी हाँ, वह सदा मेरा नहीं था।”

”सच?”

”जी हाँ! क़ाफ़िले के साथ लौटते हुए राज ने उसे पाया था।”

”क्या”, मित्र हर्ष और अचरज से काँप उठे, ”कहाँ पाया था?”

”लाहौर के पास एक ट्रेन में।”

”प्राण बाबू, प्राण बाबू! आप नहीं जानते यह बच्चा मेरी बहन का है। मैं उसे देखते ही पहचान गया था। ओह, प्राण बाबू! आप नहीं जानते, उनकी क्या हालत हुई।” और उछलकर उसने पुकारा, ”भाई साब! रमेश मिल गया।”

और फिर प्राण को देखकर कहा, ”आप प्रमाण चाहते हैं? मेरे पास उसके फोटो हैं। यह देखिए।”

और उसने जेब से फोटो पर फोटो निकालकर सकपकाये हुए प्राण को चकित कर दिया। क्षण-भर में वहाँ का दृश्य पलट गया। रमेश के माता-पिता पागल हो उठे। माँ ने तड़पकर कहा, ”कहाँ है। रमेश कहाँ है?”

राज ने कुछ नहीं देखा। वह शीघ्रता से अन्दर गई और दिलीप को छाती से चिपकाकर फफक उठी। दूसरे ही क्षण वे सब उसके चारों ओर इकट्ठे हो गए। वे सब उद्विग्न थे, पर प्राण अब भी शांत था। उसने धीरे से राज से कहा, ”राज, दिलीप की माँ आ गई है।”

”उसकी माँ!” राज ने फफकते हुए कहा, ”तुम सब चले जाओ। तुम यहाँ क्यों आए? दिलीप मेरा है। मैं उसकी माँ हूँ।”

दिलीप (रमेश) की माँ रोती हुई बोली, ”सचमुच, माँ तुम्हीं हो। तुमने उसे पुनर्जन्म दिया है।”
सुनकर राज काँप उठी। उसने दृष्टि उठाकर पहली बार उस माँ को देखा और देखती रह गई। तब तक दिलीप जाग चुका था और उस चिल्ल-पों में घबराकर, किसी भी शर्त पर, राज की गोद से उतरने को तैयार नहीं था। वह नवागन्तुकों को देखता और चीख पड़ता।

साल-भर पहले जब राजा ने उसे पाया था, तब वह पूरे वर्ष का भी नहीं था। उस समय सब लोग प्राणों के भय से भाग रहे थे। मनुष्य मनुष्य का रक्त उलीचने में होड़ ले रहा था। नारी का सम्मान और शिशु का शैशव सब पराभूत हो चुके थे। मनुष्य का मनुष्यत्व ही नष्ट हो चुका था। भागते मनुष्यों पर राह के मनुष्य टूट पड़ते और लाशों का ढेर लगा देते, रक्त बहता और उसके साथ ही बह जाती मानवता। ऐसी ही एक ट्रेन में राज भी थी। हमला होने पर जब वह संज्ञाहीन-सी अज्ञात दिशा की ओर भागी, तो एक बर्थ के नीचे से अपने सामान के भुलावे में वह जो कुछ उठाकर ले गई, वही बाद में दिलीप बन गया। यह एक अद्भुत बात थी। अपनी अंतिम संपत्ति खोकर उसने एक शिशु को पाया, जो उस रक्त-वर्षा के बीच बेख़बर सोया हुआ था। उसने कैंप में आकर जब उस बालक को देखा तो अनायास ही उसके मुँह से निकला, ”मेरा सब कुछ मुझसे छीनकर आपने यह कैसा दान दिया है प्रभु।” लेकिन तब अधिक सोचने का अवसर नहीं था। वह भारत की और दौड़ी। मार्ग में वे अवसर आए, जब उसे अपने और उस बच्चे के बीच किसी एक को चुनना था, पर हर बार वह प्राणों पर खेलकर उसे बचा लेने में सफल हुई। मौत भी जिस बालक को उससे छीनने में असफल रही, वही अब कुछ क्षणों में उससे अलग हो जाएगा, क्योंकि वह उसका नहीं था, क्योंकि वह उसकी माँ नहीं थी। नहीं, नहीं, दिलीप उसका है।
और वह फफक-फफककर रोने लगी। प्राण ने और भी पास आकर धीरे से शांत स्वर में कहा, ”राज! माँ बनने से भी एक बड़ा सौभाग्य होता है और वह है किसी के मातृत्व की रक्षा।”

”नहीं, नहीं…” वह उसी तरह बोली, ”मैं वह सौभाग्य नहीं चाहती।”

”सौभाग्य तुम्हारे न चाहने से वापस नहीं लौट सकता राज, पर हाँ! तुम चाहो तो सौभाग्य को दुर्भाग्य में पलट सकती हो।”

राज साहस प्राण की ओर देखकर बोली, ”तुम कहते हो, मैं इसे दे दूँ?”

”मैं कुछ नहीं कहता। वह उन्हीं का है। तुम उनका खोया लाल उन्हें सौंप रही हो इस कर्तव्य में जो सुख है, उससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा! उस सौभाग्य को क्षणिक कायरता के वश होकर ठुकराओ नहीं राज।”

राज ने एक बार और प्राण की ओर देखा, फिर धीरे-धीरे अपने हाथ आगे बढ़ाए और दिलीप को उसकी माँ की गोदी में दे दिया। उसके हाथ काँप रहे थे, होंठ काँप रहे थे। जैसे ही दिलीप को उसकी माँ ने छाती से चिपकाया, राज ने रोते हुए चिल्लाकर कहा, ”जाओ। तुम सब चले जाओ, अभी इसी वक्त।”

प्राण ने कोई प्रतिवाद नहीं किया, बल्कि जीने तक उनको छोडऩे आया। उन लोगों ने बहुत कुछ कहना चाहा, पर उसने कुछ नहीं सुना। बोला, ”मुझे विश्वास है, बच्चा आपका है, वह आपको मिल गया। आपका-सा सौभाग्य सबको प्राप्त हो, लेकिन मेरी एक प्रार्थना है।”

”जी, कहिए। हमें आपकी हर बात स्वीकार है।”

प्राण ने बिना सुने कहा, ”कृपा कर अब आप लोग इधर न आएँ।”

वे चौंके, ”क्या?”

”जी, आपकी बड़ी कृपा होगी।”

”पर सुनिए तो…।”

प्राण ने कुछ न सुना और अगले दिन मसूरी को प्रणाम करके आगे बढ़ गया। राज की अवस्था मुरदे जैसी थी। वह पीली पड़ गई थी। उसके नेत्र सूज गए थे। प्राण ने उस क्षण के बाद फिर एक शब्द भी ऐसा नहीं कहा, जो उसे दिलीप की याद दिला सके, लेकिन याद क्या दिलाने से आती है? वह तो अंतर में सोते की भाँति उफनती है, राज के अंतर में भी उफनती रही। उसी उफान को शांत करने के लिए प्राण मसूरी से लखनऊ आया। वहाँ से कलकत्ता और फिर मद्रास होता हुआ दिल्ली लौट आया। दिन बीत गए, महीने भी आए और चले गए। समय की सहायता पाकर राज दिलीप को भूलने लगी। प्राण ने फिर व्यापार में ध्यान लगाया, पर साथ ही उसके मन में एक आकांक्षा बनी रही। वह राज को फिर शिशु की अठखेलियों में खोया देखना चाहता था। वह कई बार अनाथालय और शिशु-गृह गया, पर किसी बच्चे को घर न ला सका। जैसे ही वह आगे बढ़ता कोई अन्दर से बोल उठता, ‘न जाने कौन कब आकर इसका भी माँ-बाप होने का दावा कर बैठे।”

और वह लौट आता। इसके अलावा बच्चे की चर्चा चलने पर राज को दुख होता था। कभी-कभी तो दौरा भी पड़ जाता था। वह अब एकांत प्रिय, सुस्त और अन्तर्मुखी हो चली थी। प्राण जानता था कि वह प्रभाव अस्थायी है। अंतर का आवेग इस आवरण को बहुत शीघ्र उतार फेंकेगा। नारी की जड़ें जहाँ हैं, उसके विपरीत फल कहाँ प्रकट हो सकता है? वह एक दिन किसी बच्चे को घर ले आएगा और कौन जानता है तब तक…।

वह इसी उधेड़बुन में था कि एक दिन उसने होटल से लौटते हुए देखा कि एक व्यक्ति उन्हें घूर-घूरकर देख रहा है। उसने कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया। लोग देखा ही करते हैं। आज के युग का यह फैशन है, उसके पड़ोस में एक सज्जन रहते हैं। जब-तब अवसर पाकर छत की दीवार से झाँककर राज को देखा करते हैं। राज ने कई बार उनकी इस हरकत की शिकायत भी की थी। लेकिन अगले दिन, फिर तीसरे दिन, चौथे दिन यहाँ तक कि प्रतिदिन वही व्यक्ति उसी तरह उनका पीछा करने लगा। अब प्राण को यह बुरा लगा। उसने समझा, इसमें कोई रहस्य है, क्योंकि वह व्यक्ति राज के सामने कभी नहीं पड़ता था और न राज ने अब तक उसे देखा था। कम से कम वह इस बात को नहीं जानता था। यही सब कुछ सोचकर प्राण ने उस व्यक्ति से मिलना चाहा। एक दिन वह अकेला ही होटल आया और उसने उस व्यक्ति को पूर्वत अपने स्थान पर देखा। प्राण ने सीधे जाकर उसके कन्धे पर हाथ रख दिया। वह व्यक्ति एकदम काँप उठा, बोला, ”क्या, क्या है?”

प्राण ने शांत भाव से कहा, ”यही तो मैं आपसे पूछने आया हूँ।”

अचरज से वह व्यक्ति जिस तरह काँपा, उसी तरह एकदम दृढ़ होकर बोला, ”तो आप समझ गए। क्षमा करिए, मैं स्वयं आपसे बात करने वाला था।”

”अब तक क्यों नहीं कर सके?”

उसने उसी तरह कहा, ”क्योंकि मैं पूर्ण आश्वस्त नहीं था और आप जानते हैं, आज के युग में ऐसी-वैसी बातें करना मौत को बुलाना है।”

प्राण उसकी वाणी से आश्वस्त तो हुआ, पर उसका हृदय धक्-धक् कर उठा। उसने कहा, ”आप ठीक कहते हैं, पर अब आप निस्संकोच होकर जो चाहें कह सकते हैं।”

वह बोला, ”बात ऐसी ही है। आप बुरा न मानिए।”

”आप कहिए।”
वह तनिक झिझका, फिर शीघ्रता से बोला, ”आपके साथ जो नारी रहती है, वह आपकी कौन है?”

”आपका मतलब?”

”जी…।”

प्राण सँभला, बोला, ”वह मेरी सब कुछ है और कुछ भी नहीं है।”

”जी, मैं पूछता था क्या वे आपकी पत्नी हैं?”

”मेरी पत्नी…?”

”जी।”

”नहीं।”

”नहीं?”

”जी हाँ।”

”आप सच कह रहे हैं?” उसकी वाणी में अचरज ही नहीं, हर्ष भी था।
”जी हाँ! मैं सच कहता हूँ। अग्नि को साक्षी करके मैंने कभी उससे विवाह नहीं किया।”

”फिर?”
”लाहौर से जब भागा था, तब मार्ग में एक शिशु के साथ उसे मैंने संज्ञाहीन अवस्था में एक खेत में पाया था।”

”तब आप उसे अपने साथ ले आए।”

”जी हाँ।”

”फिर क्या हुआ?”

”होता क्या? तब से वह मेरे साथ है।”

”लोग उसे आपकी पत्नी समझते हैं।”

”यह तो स्वाभाविक है। पुरुष के साथ इस तरह जो नारी रहती है, वह पत्नी ही होगी, इससे आगे आज का आदमी क्या सोच सकता है? पर आप ये सब बातें क्यों पूछते हैं? क्या आप उसे जानते हैं?”

”जी,” वह काँपा, बोला, ”वह…वह मेरी पत्नी हैं।”

”आपकी पत्नी,” प्राण सिहर उठा।

”जी।”

”और आप उसे चोरों की भाँति ताका करते हैं?”

अब उसका मुँह पीला पड़ गया और नेत्र झुक गए, पर दूसरे ही क्षण न जाने क्या हुआ, उसने एक झटके के साथ गरदन ऊँची की, बोला, ”उसका एक कारण है। मैं उसे छिपाऊँगा नहीं। उन मुसीबत के क्षणों में मैं उसकी रक्षा नहीं कर सका था।”

प्राण न जाने क्यों हँस पड़ा, ”छोडक़र भाग गए थे। अक्सर ऐसा होता है।”

”भागा तो नहीं था, पर प्राणों पर खेलकर उस तक आ नहीं सका था।”

”वह जानती है?”
”नहीं कह सकता।” ”आपको भय है कि वह जानती होगी?”

”भय तो नहीं, पर ग्लानि अवश्य है।”

प्राण के भीतर के मन को जैसे कोई धीरे-धीरे छुरी से चीरने लगा हो, पर ऊपर से वह उसी तरह शांत स्वर में बोला, ”तो राज आपकी पत्नी है, सच?”

उस व्यक्ति ने रुँधे कण्ठ से कहा, ”कैसे कहूं। मैंने उसको ढूँढने के लिए क्या नहीं किया? सभी कैंपों में, रेडियो स्टेशन पर, पुलिस में – सभी जगह उसकी रिपोर्ट मौजूद है।”

प्राण बोला, ”आप उसे ले जाने को तैयार हैं?”

वह झिझका नहीं, कहा, ”जी इसीलिए तो रुका हूँ।”

”आपको किसी प्रकार का संकोच नहीं?”

”संकोच?”, उसने कहा, ”संकोच करके मैं अपने पापों को और नहीं बढ़ाना चाहता। महात्मा जी…”

”तो फिर आइए,” प्राण ने शीघ्रता से उसकी बात काटते हुए कहा, ”मेरे साथ चलिए।”

”अभी?”

”इसी वक्त। आप कहाँ रहते हैं?”

”जालंधर।”

”काम करते हैं?”

”जी हाँ। मुझे स्कूल में नौकरी मिल गई है।”

”आपके बच्चे तो दोनों मारे गए थे?”

”जी, एक बच गया था।”

”सच?”
”जी, एक बच गया था।”

”सच?”
”जी, वह मेरे पास है।”

प्राण का मन अचानक हर्ष से खिल उठा। शीघ्रता से बोला, ”तो सुनिए, राज घर पर है। आप उसे अपने साथ ले जाइए। मैं पत्र लिखे देता हूँ।”

”आप नहीं चलेंगे?”

”जी नहीं। मैं बाहर जा रहा हूँ। लखनऊ में एक आवश्यक कार्य है। तीन-चार दिन में लौटूँगा, आप उसे ले जाइएगा। कहना उसका पुत्र जीवित है। मुझे देखकर वह दुखी होगी। समझे न।”

”समझ गया।”

”आप भाग्यवान हैं। मैं आपको बधाई देता हूँ और आपके साहस की प्रशंसा करता हूँ।”

वह व्यक्ति कृतज्ञ, अनुगृहीत कुछ जवाब दे कि प्राण ने एक परचा उसके हाथ में थमाया और बिजली की भाँति गायब हो गया।

पत्र में लिखा था :
“राज!
बहादुर लोग गलती कर सकते हैं, पर धोखा देना उनकी प्रकृति के विरुद्ध है। फिर भी दो शब्द मुझे तुम्हारे पास लाने को पर्याप्त हैं। प्रयत्न करना उनकी आवश्यकता न पड़े। मुझे जानती हो, मरने तक जीता रहूँगा। -प्राण”

यह व्यक्ति ठगा-सा बहुत देर तक वहीं खड़ा रहा। कंगाल की फटी झोली में कोई रत्न डाल गया हो, ऐसी उसकी हालत थी, पर जन्म से तो वह कंगाल नहीं था। इसलिए साहस ने उसे धोखा नहीं दिया और वह प्राण के बताए मार्ग पर चल पड़ा।

पूरे पन्द्रह दिन बाद प्राण लौटा। जब तक उसने द्वार को नहीं देखा, उसके प्राण सकते में आए रहे। जब देखा कि द्वार बन्द है और उसका चिर-परिचित ताला लगा है तो उसके प्राण तेज़ी से काँपे। किवाड़ खोलकर वह ऊपर चढ़ता ही चला गया। आगे कुछ नहीं देखा। देख ही नहीं सका। पालना पड़ा था, उससे ठोकर लगी और वह पलंग की पट्टी से जा टकराया। मुख से एक आह निकली। माथे में दर्द का अनुभव हुआ। खून देखा, फिर पालना देखा, फिर पलंग देखा, फिर घर देखा। सब कहीं मौन का राज्य था। प्रत्येक वस्तु पूर्वत: अपने स्थान पर सुरक्षित थी। प्राण के मन में उठा, पुकारे – ‘राज!’

पर वह काँपा…राज कहाँ है? राज तो चली गई। राज का पति आया था। राज का पुत्र जीवित है। सुख भी कैसा छल करता है। जाकर लौट आता है। राज को पति मिला, पुत्र मिला। दिलीप को माँ-बाप मिले। और मुझे…मुझे क्या मिला…?

उसने गरदन को जोर से झटका दिया। फुसफुसाया-ओह मैं कायर हो चला। मुझे तो वह मिला, जो किसी को नहीं मिला।

तभी सहसा पास की छत पर खटखट हुई, राज को घूरने वाले पड़ोसी ने उधर झाँका। प्राण को देखा, तो गम्भीर होकर बोला, ”आप आ गए?”

”जी हाँ।”

”कहाँ चले गए थे?”

”लखनऊ।”

”बहुत आवश्यक कार्य था क्या? आपके पीछे तो मुझे खेद है…।”

”जी, क्या?”

”आपकी पत्नी…।”

”मेरी पत्नी?”

”जी, मुझे डर है वह किसी के साथ चली गई।”

”चली गई? सच। आपने देखा था?”

”प्राण बाबू, मैं तो पहले ही जानता था। उसका व्यवहार ऐसा ही था। कोई पन्द्रह दिन हुए आपके पीछे एक व्यक्ति आया था। पहले तो देखते ही आपकी पत्नी ने उसे डाँटा।”

”आपने सुना?”
”जी हाँ। मैं यहीं था। शोर सुनकर देखा, वह क्रुद्ध होकर चिल्ला रही है, ‘जाओ, चले जाओ। तुम्हें किसने बुलाया था? तुम क्यों आए? मैं उन्हें पुकारती हूँ?’ ”

”सच, ऐसा कहा?

”जी हाँ।”

”फिर?”

”फिर क्या प्राण बाबू। वे बाबू साहब बड़े ढीठ निकले। गए नहीं। एक पत्र आपकी पत्नी को दिया, फिर हाथ जोड़े। पैरों में पड़ गए।”

”क्या यह सब आपने देखा था?”

”जी हाँ, बिलकुल साफ़ देखा था।”

”फिर?”

”फिर वे पैरों में पड़ गए, पर आपकी पत्नी रोती रही। तभी अचानक उसने न जाने क्या कहा। वह काँपकर वहीं गिर पड़ी। फिर तो उसने, क्या कहूँ, लाज लगती है। जी में तो आया कि कूदकर उसका गला घोटा दूँ, पर मैं रुक गया। दूसरे का मामला है। आप आते ही होंगे। रात तक राह देखी, पर आप नहीं आए। सवेरे उठकर देखा, तो वे दोनों लापता थे।”

”उसी रात चले गए?”

”जी हाँ।”

प्राण ने साँस खींची, ”तो वे सच्चे थे, बिलकुल सच्चे।”

पड़ोसी ने कहा, ”क्या?”

”जी हाँ। उन्होंने वही किया, जो उन्हें करना चाहिए था।”

और फिर अचरज से बुत बने पड़ोसी की ओर देखकर बोला, ”वे भाई, राज के पति थे।”
”राज के पति?” चकित पड़ोसी और भी अचकचाया।

”जी हाँ। पंजाब से भागते हुए हम लोगों के साथ जो कुछ हुआ, वह तो आप जानते ही हैं। राज को भी मैंने लाशों के ढेर में से उठाया था; वह तब जानती थी कि उसके पति मर गए हैं, इसीलिए वह मेरे साथ रहने लगी।”

पड़ोसी अभी तक अचकचा रहे थे, बोले, ”आपके साथ रहने पर भी उन्हें राज को ले जाने में संकोच नहीं हुआ?”

प्राण ने कहा, ”सो तो आपने देखा ही था।”

वह क्या कहे, फिर भी ठगा-सा बोला, ”आपका अपना परिवार कहाँ है?”

”भागते हुए मेरी पत्नी और माँ-बाप दरिया में बह गए। बच्चे एक-एक करके रास्ते में सो गए।”

”भाई साहब!” पड़ोसी जैसे चीख पड़ेगा, पर वे बोल भी न सके। मुँह उनका खुले का खुला रह गया और दृष्टि स्थिर हो गई।
सबसे सुन्दर लड़की

 

मुद्र के किनारे एक गाँव था । उसमें एक कलाकार रहता था । वह दिन भर समुद्र की लहरों से खेलता रहता, जाल डालता और सीपियाँ बटोरता । रंग-बिरंगी कौड़ियां, नाना रूप के सुन्दर-सुन्दर शंख चित्र-विचित्र पत्थर, न जाने क्या-क्या समुद्र जाल में भर देता । उनसे वह तरह-तरह के खिलौने, तरह-तरह की मालाएँ तैयार करता और पास के बड़े नगर में बेच आता ।
उसका एक बेटा था, नाम था उसका हर्ष। उम्र अभी ग्यारह की भी नहीं थी, पर समुद्र की लहरों में ऐसे घुस जाता, जैसे तालाब में
बत्तख ।
एक बार ऐसा हुआ कि कलाकार के एक रिश्तेदार का एक मित्र कुछ दिन के लिए वहाँ छुट्टी मनाने आया। उसके साथ उसकी बेटी मंजरी भी थी। होगी कोई नौ-दस वर्ष की, पर थी बहुत सुन्दर, बिल्कुल गुड़िया जैसी ।
हर्ष बड़े गर्व से उसका हाथ पकड़कर उसे लहरों के पास ले जाता । एक दिन मंजरी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘तुम्हें डर नहीं लगता ?”
हर्ष ने जवाब दिया, ‘‘डर क्यों लगेगा, लहरें तो हमारे साथ खेलने आती हैं ।”
तभी एक बहुत बड़ी लहर दौड़ती हुई हर्ष की ओर आई, जैसे उसे निगल जाएगी मंजरी चीख उठी, पर हर्ष तो उछलकर उस लहर पर सवार हो गया और किनारे आ गया ।

मंजरी डरती थी, पर मन-ही-मन चाहती थी कि वह भी समुद्र की लहरों पर तैर सके । जब वह वहाँ की दूसरी लड़कियों को ऐसा करते देखती तो उसे यह तब और भी जरूरी लगता था । विशेषकर कनक को, जो हर्ष के हाथ में हाथ डालकर तूफानी लहरों पर दूर निकल जाती ।
वह बेचारी थी बड़ी गरीब । पिता एक दिन नाव लेकर गए, तो लौटे ही नहीं । डूब गए । तब से माँ मछलियाँ पकड़कर किसी तरह दो बच्चों को पालती थी । कनक छोटे-छोटे शंखों की मालाएँ बनाकर बेचती थी । मंजरी को वह अधनंगी काली लड़की ज़रा भी नहीं भाती थी । हर्ष के साथ उसकी दोस्ती तो उसे कतई पसन्द नहीं थी ।
एक दिन हर्ष ने देखा कि कई दिन से उसके पिता एक सुन्दर-सा खिलौना बनाने में लगे हैं। वह एक पक्षी था, जो रंग-बिरंगी सीपियों से बनाया गया था। वह देर तक देखता रहा, फिर पूछा, ‘‘बाबा ! यह किसके लिए बनाया है ?”
कलाकार ने उत्तर दिया, ‘‘यह सबसे सुन्दर लड़की के लिए है। मंजरी सुन्दर है न ? दो दिन बाद उसका जन्म दिन है। उस दिन इस पक्षी को उसे भेट में देना।”
हर्ष की खुशी का पार नहीं था। बोला, ‘‘हाँ-हाँ, बाबा मैं जरूर यह पक्षी मंजरी को दूँगा।”

और वह दौड़कर मंजरी के पास गया। उसे समुद्र के किनारे ले गया और बातें करने लगा। फिर बोला, ‘‘दो दिन बाद तुम्हारा जन्म दिन है।
‘‘हाँ, पर, तुम्हें किसने बताया ?”
‘‘बाबा ने ! हाँ, उस दिन तुम क्या करोगी ?”
‘‘सवेरे उठकर स्नान करूँगी। फिर सबको प्रणाम करूँगी। घर पर तो सहेलियों को दावत देती हूँ। वे नाचती-गाती हैं। यहाँ भी दावत दूँगी।”
और इस तरह बातें करते-करते वे न जाने कब उठे और दूर तक समुद्र में चले गए। सामने एक छोटी-सी चट्टान थी। हर्ष ने कहा, ‘‘आओ, उस छोटी चट्टान तक चलें।”

मंजरी काफी निडर हो चली थी। बोली, ‘‘चलो।” तभी हर्ष ने देखा कि कनक बड़ी चट्टान पर बैठी है। कनक ने चिल्लाकर कहा, ‘‘हर्ष यहाँ आ जाओ।”

हर्ष ने जवाब दिया, ‘‘मंजरी वहाँ नहीं आ सकती। तुम्हीं इधर आ जाओ।”

अब मंजरी ने भी कनक को देखा। उसे ईर्ष्या हुई। वह वहाँ क्यों नहीं जा सकती। वह क्या उससे कमजोर है।
वह यह सोच ही रही थी कि उसे एक बहुत सुन्दर शंख दिखाई दिया। मंजरी अनजाने ही उस ओर बढ़ी। तभी एक बड़ी लहर ने उसके पैर उखाड़ दिए और वह बड़ी चट्टान की दिशा में लुढ़क गई। उसके मुँह में खारा पानी भर गया। उसे होश नहीं रहा।

यह सब आनन-फानन में हो गया। हर्ष ने देखा और चिल्लाता हुआ वह उधर बढ़ा, पर तभी एक और लहर आई और उसने उसे मंजरी से दूर कर दिया। अब निश्चित था कि मंजरी बड़ी चट्टान से टकरा जाएगी, परन्तु उसी क्षण कनक उस क्रुद्ध लहर और मंजरी के बीच आ कूदी और उसे हाथों में थाम लिया।
दूसरे ही क्षण तीनों छोटी चट्टन पर थे। हर्ष और कनक ने मिलकर मंजरी को लिटाया, छाती मली, पानी बाहर निकल गया। उसने आँखें खोल कर देखा। उसे ज़रा भी चोट नहीं लगी थी। पर वह बार-बार कनक को देख रही थी।
अपने जन्म दिन की पार्टी के अवसर पर मंजरी बिलकुल ठीक थी। उसने सब बच्चों को दावत पर बुलाया। सभी उसके लिए कुछ-न-कुछ उपहार लेकर आए थे। सबसे अन्त में कलाकार की बारी आई। उसने कहा ‘मैंने सुन्दर लड़की के लिए सबसे सुन्दर खिलौना बनाया है। आप जानते हैं, वह लड़की कौन है ? वह है मंजरी।”
सबने खुशी से तालियाँ बजाईं। हर्ष अपनी जगह से उठा और उसने बड़े प्यार से वह सुंदर खिलौना मंजरी के हाथों में थमा दिया। मंजरी बार-बार उस खिलौने को देखती और खुश होती।
लेकिन दो क्षण बाद अचानक मंजरी अपनी जगह से उठी। उसके हाथों में वही सुन्दर पक्षी था। वह धीरे-धीरे वहाँ आई, जहाँ कनक बैठी थी। उसने बड़े स्नेह भरे स्वर में उससे कहा, ‘‘यह पक्षी तुम्हारा है सबसे सुन्दर लड़की तुम्हीं हो।” और एक क्षण तक सभी अचरज से दोनों को देखते रहे। फिर जब समझे तो सभी ने मंजरी की खूब प्रशंसा की। कनक अपनी प्यारी-प्यारी आँखों से बस मंजरी को देखे जा रही थी। और दूर समुद्र में लहरें चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें बधाई दे रही थीं।

रहमान का बेटा

क्रोध और वेदना के कारण उसकी वाणी में गहरी तलखी आ गई थी और वह बात-बात में चिनचिना उठना था। यदि उस समय गोपी न आ जाता, तो संभव था कि वह किसी बच्चे को पीट कर अपने दिल का गुबार निकालता। गोपी ने आ कर दूर से ही पुकारा – ‘साहब सलाम भाई रहमान। कहो क्या बना रहे हो?’

रहमान के मस्तिष्क का पारा सहसा कई डिग्री नीचे आ गया, यद्यपि क्रोध की मात्रा अभी भी काफी थी, बोला, ‘आओ गोपी काका। साहब सलाम।’

‘बड़े तेज हो, क्या बात है?’

गोपी बैठ गया। रहमान ने उसके सामने बीड़ी निकाल कर रखी और फिर सुलगा कर बोला – ‘क्या बात होगी काका! आजकल के छोकरों का दिमाग बिगड़ गया है। जाने कैसी हवा चल पड़ी है। माँ-बाप को कुछ समझते ही नहीं।’

गोपी ने बीड़ी का लंबा कश खींचा और मुस्करा कर कहा – ‘रहमान, बात सदा ही ऐसी रही है। मुझे तो अपनी याद है। बाबा सिर पटक कर रह गए, मगर मैंने चटशाला में जा कर हाजिरी ही नहीं दी। आज बुढ़ापे में वे दिन याद आते हैं। सोचता हूँ, दो अच्छर पेट में पड़ जाते तो…’

बीच में बात काट कर रहमान ने तेजी से कहा – ‘तो काका, नशा चढ़ जाता। अच्छरों में नाज से ज्यादा नशा होवे है, यह दो अच्छर का नशा ही तो है जो सलीम को उड़ाए लिए जावे है। कहवे है इस बस्ती में मेरा जी नहीं लगे। सब गंदे रहते हैं। बात करने की तमीज नहीं। चोरी से नहीं चूकें…’

गोपी चौंक कर बोला – ‘सलीम ने कहा ऐसे?’

‘जी हाँ, सलीम ने कहा ऐसे और कहा, हम इंसान नहीं हैं, हैवान हैं। फिर हम जैसे नाली में कीड़े बिलबिलाए हैं न, उसी तरह की हमारी जिंदगी है….’ कहते-कहते रहमान की आँखें चढ़ गईं। बदन काँपने लगा। हुक्के को जिसे उसने अभी तक छुआ नहीं था, इतने जोर से पैर से सरकाया कि चिलम नीचे गिर पड़ी और आग बिखर कर चारों ओर फैल गई। तेजी से पुकारा – ‘करीमन! ओ हरामजादी करीमन! कहाँ मर गई जा कर? ले जा इस हुक्के को। साला आज हमें गुंडा कहवे है…’

गोपी ने रहमान की तेजी देख कर कहा – ‘उसका बाप स्कूल में चपरासी था न!’

‘जी हाँ, वही असर तो खराब करे है। पढ़ा नहीं था तो क्या; हर वक्त पढ़े-लिखे के बीच रहवे था। मगर साले ने किया क्या? भरी जवानी में पैर फैला कर मर गया। बीवी को कहीं का भी नहीं छोड़ा। न जाने किसके पड़ती, वह तो उसकी माँ ने मेरे आगे धरना दे दिया। वह दिन और आज का दिन; सिर पर रखा है। कह दे कोई, सलीम रहमान की औलाद नहीं है। पर वह बात है काका…’

आगे जैसे रहमान की आँख में कहीं से आ कर कुणक पड़ गई। जोर-जोर से मलने लगा। उसी क्षण शून्य में ताकते-ताकते गोपी ने कहा – ‘सलीम की माँ बड़ी नेकदिल औरत है।’

रहमान एकदम बोला – ‘काका, फरिश्ता है। ऐसी नेकदिल औरत कहाँ देखने को मिले है आजकल। क्या मजाल जो कभी पहले शौहर का नाम लिया हो! ऐसी जी-जान से खिदमत करे है कि बस सिर नहीं उठता। और काका उसी का नतीजा है। तुमसे कुछ छुपा है। कभी इधर-उधर देखा है मुझे?’

गोपी ने तत्परता से कहा – ‘कभी नहीं रहमान, मुँह देखे की नहीं ईमान की बात है। पाँच पंचों में कहने को तैयार हूँ।’

‘और रही चोरी की बात! किसी के घर डाका मारने कौन जावे है। यूँ खेत में से घास-पात तुम भी लावो ही हो काका।’

गोपी बोला – ‘हाँ लावूँ हूँ। इसमें लुकाव की क्या बात है। और लावें क्यों न? हम क्या इतने से भी गए? बाबू लोग रोज जेब भर कर घर लौटे हैं। सच कहूँ रहमान! तनखा बाँटते वक्त अँगूठा पहले लगवा लेवे हैं और पैसों के वक्त किसी गरीब को ऐसी दुत्कार देवें कि बिचारा मुँह ताकता रह जावे है। इस सत्यानाशी राज में कम अंधेर नहीं है। पर बेमाता ने हमारी सरकार की किस्मत में न जाने क्या लिख दिया है, दिन-रात चौगुनी तरक्की होवे है। गाँधी बाबा की कुछ भी पेश नहीं आवे।’

रहमान ने सारी बातें बिना सुने उसी तेजी से कहा – ‘बाबू क्यों? वे जो अफसर होते हैं, साब बहादर, वे क्या कम हैं? किसी चीज पर पैसा नहीं डालें हैं। और काका! यह कल का छोकरा सलीम हमें गुंडा बतावे है। गुंडे साले तो वे हैं। सच काका! कलब में सिवाय बदमाशी के वे करें क्या हैं। शराब वे पिएँ, जुआ वे खेलें और…।’

‘और क्या? हमारे साब के पास आए दिन कलब का चपरासी आवे है। कभी सौ, कभी डेढ़ सौ, सदा हारे ही हैं, पर रहमान, उसकी मेम बड़ी तकदीर की सिकंदर है। जब जावे तब सौ-सवा सौ खींच लावे है।’

‘मेम साब… काका, तुम क्या जानो। उसकी बात और है। जितने ये साब बहादुर हैं, और साब क्यों, बड़े-बड़े वकील, बलिस्टर, लाला, सभी आजकल कलब जावे हैं। मुसलमान को शराब पीना हराम है; पर वहाँ बैठ कर विस्की, जिन, पोरट, सेरी सब चढ़ा जावे हैं। औरतें ऐसी गिर गई हैं कि पराए मरद के कमर में हाथ डाल कर लिए फिरे हैं, और वे हँस-हँस कर खिलर-खिलर बातें करे हैं। काका! जितनी देर वे वहाँ रहवे हैं; ये यही कहते रहे हैं – उसकी बीवी खूबसूरत है। इसकी जोरदार है। सरमा खुशकिस्मत है, रफीक की लौंडिया उसके घर जावे। गुप्ता की बीवी उसके पास रहे है। सारा वक्त यही घुसर-पुसर होती रहे और मौका देख कोई किसी के साथ उड़ चला। उस दिन जीत की खुशी में ड्रामा हुआ था। पुलिस के कप्तान लालाजी बने थे। वे लालाजी लोगों को हँसाते रहे और मेजर साहब उनकी बीवी को ले कर डाक बँगले की सैर करने चले गए। ये हैं, बड़े लोगन की चाल-चलन। ये हमारे आका… हमारे भाग की लकीर इन्हीं की कलम से खिंचे है।’

गोपी ने फिर जोर से बीड़ी का कश खींचा और गंभीरता से कहा – ‘रहमान! देखने में जितना बड़ा है, असल में वह उतना छोटा।’

‘और खोटा भी।’

‘और क्या।’

‘ओर इन्हीं के लिए सलीम हमें बदतमीज, बदसहूर, बेअकल, न जाने क्या कहवे है। मैंने भी सोच लिया है, आज उससे फैसला करके रहूँगा। मैंने हमेशा उसे अपना समझा है। नहीं तो… नहीं तो…।’

गोपी ने अब अपना डंडा उठा लिया। बोला – ‘रहमान, कुछ भी हो, सलीम तेरा ही लड़का माना जावे है, जवान है; अबे-तबे से न बोलना। समझा; आजकल हवा ऐसी चल पड़ी है। और चली कब नहीं थी! फरक इतना है, पहले मार खा कर बोलते नहीं थे, अब सीधे जवाब देवे हैं…’

रहमान तेज ही था। कहा – ‘मैं उसके जवाबों की क्या परवा करूँ काका। जावे जहन्नुम में। मेरा लगे क्या है? …और काका। मैं उसे मारूँगा क्यों। मेरे क्या हाथ खुले हैं। मैं तो उससे दो बात पूछूँगा, रास्ता इधर या उधर। और काका, मुझे उस साले की जरा भी फिकर नहीं – फिकर उसकी माँ की है। यूँ तो औलाद और क्या कम हैं, पर जरा यही कुछ सहूरदार था… काका, सोचता था पढ़-लिख कर कहीं मुंशी बनेगा, जात-बिरादरी में नाम होगा। लेकिन लिखा क्या किसी से मिटा है?’

गोपी बोला – ‘हाँ रहमान। लिखा किसी से नहीं मिटा! अब चाहे तो मालिक भी नहीं मेट सकता। ऐसी गहरी लकीर बेमाता ने खींची है। सो भइया अपने इज्जत अपनी हाथ है। ज्यादा कुछ मत कहना। पढ़ों-लिखों को गैरत जल्दी आ जावे है। समझा…।’

‘समझा काका।’

और फिर गोपी डंडा उठा, घास की गठरी कंधे पर डाल, साहब सलाम करके चला गया। रहमान कुछ देर वहीं शून्य में बैठा धुँधले होते वातावरण को देखता रहा। मन में उमड़-घुमड़ कर विचार आते और आपस में टकरा कर शीघ्रता से निकल जाते। वे झील के गिरते पानी के समान थे, गहरे और तेज। इतने तेज कि उफन कर रह जाते। उनका तात्कालिक मूल्य कुछ नहीं था, इसीलिए उससे मन की झुँझलाहट और गहरी होती गई। करुणा और विषाद कोई उसे कम नहीं कर सका। आखिर वह उठा और अंदर चला गया।

घर में सन्नाटा था। बच्चे अभी तक खेल कर नहीं लौटे थे। उसकी बीवी रोटियाँ सेंक रही थी। सालन की खुशबू उसकी नाक में भर उठी। उसने एक नजर उठा कर अपनी बीवी को देखा – शांत-चित्त वह काम में लगी है। उसके कानों में लंबे बाले रोटी बढ़ाते समय वेग से हिलते हैं। उसके सिर का गंदा कपड़ा खिसक कर कंधे पर आ पड़ा है। यद्यपि जवानी बीत गई है, तो भी चेहरे का भराव अभी हल्का नहीं पड़ा है। गोरी न हो कर भी वह काली नहीं है। उसकी आँखों में एक अजीब नशा है। वही नशा उसे बरबस खूबसूरत बना देता है। जिसकी ओर वह देख लेती है एक बार, तो वह ठिठक जाता है। रहमान सहसा ठिठका – उन दिनों इन्हीं आँखों ने मुझे बेबस बना दिया था। नहीं तो…

सहसा उसे देख कर उसकी बीवी बोल उठी – ‘इतने तेज क्यों हो रहे थे। गैरों के आगे क्या इस तरह घर की बात कहते हैं?’

रहमान कुछ तलखी से बोला – ‘गैरों के आगे क्या? पानी अब सर से उतर गया है। कल को जब घर से निकल जावेगा, तब क्या दुनिया कानों में रुई ठूँस लेगी या आँखें फोड़ लेगी?’

बीवी को दुख पहुँचा। बोली – ‘बाप-बेटे क्या दुनिया में कभी अलग नहीं होते?’

‘कौन कहे कि वह मेरा बेटा है?’

‘और किसका है?’

‘मैं क्या जानूँ?’

‘जरा देखना मेरी तरफ! मैं भी तो सुनूँ।’

तिनक कर उसने कहा – क्या सुनेगी? मेरा होता तो क्या इस तरह कहता? जबान खींच लेता साले की।’

‘देखूँगी किस-किसकी जबान खींचोगे। अभी तक तो एक भी बात नहीं सराहता।’

‘बच्चे और जवान बराबर होते हैं।’

‘नहीं होवें पर पूत के पाँव पालने में नजर आ जावे है। और फिर वही कौन-सा जवान है? अल्हड़ उमर है। एक बात मुँह से निकल गई, तो सिर पर उठा लिया। तुम्हारा नहीं तभी तो। अपना होता, तो क्या इस तरह ढोल पीटते। अपनों के हजार ऐब नजर नहीं आवे है। दूसरों का एक जरी-सा पहाड़ बन जावे है…’

रहमान कुछ भी हो, इतना मूर्ख नहीं था। उसने समझ लिया, उसने बीवी के दिल को दुखाया है, पर वह क्या करे। सलीम से उसे क्या कम मुहब्बत है! पेट काट कर उसे रहमान ने ही तो स्कूल भेजा है। उसके लिए अब भी कभी बड़े बाबू, कभी डिप्टी, कभी बड़े साहब के आगे गिड़गिड़ाता रहता है। इतनी गहरी मुहब्बत है, तभी तो इतना दुख है। कोई गैर होता तो…।

तभी उसके चारों बच्चे बाहर से शोर मचाते हुए आ पहुँचे। वे धूल-मिट्टी से लिथड़े पड़े थे। परंतु गंदे और अर्द्धनग्न होने पर भी प्रसन्न थे। सबसे बड़ी लड़की लगभग बारह वर्ष की थी। आते ही खुशी-खुशी बोली – ‘अम्मी! आज हम भइया की जगह गए थे।’

रहमान को कुछ अचरज हुआ, पर वह जला-भुना बैठा था। कड़क कर बोला – ‘कहाँ गई थी चुड़ैल?’

लड़की सहम गई। घबरा कर बोली – ‘भइया की जगह।’

‘कौन-सी जगह?’

‘जहाँ भइया जाते हैं। दूर…।’

छोटा लड़का जो दस बरस का था, अब एकदम बोला – ‘अब्बा, वहाँ बहुत सारे आदमी थे।’

तीसरा भी आठ बरस का लड़का। आगे बढ़ आया, कहा – ‘वहाँ लेक्चर हुए थे।’

रहमान अचकचाया – ‘लेक्चर?’

लड़की ने कहा – ‘हाँ, अब्बा! लेक्चर हुए थे। भइया भी बोले थे। लोगों ने बड़ी तालियाँ पीटीं।’

अम्मा का मुख सहसा खिल उठा। गर्व से एक बार उसने रहमान को देखा।

फिर बोली – ‘क्या कहा उसने?’

लड़की जो मुरझा चली थी, अब दुगने उत्साह से कहने लगी – ‘अम्मी, भइया ने बहुत-सी, बातें कही थीं। हम गंदे रहते हैं, हम अनपढ़ हैं, हम चोरी करते हैं। हमें बोलना नहीं आता। हमें खाने को नहीं मिलता।’

रहमान चिहुँक कर बोला – ‘देखा तुमने।’

बीवी ने तिनक कर कहा – ‘सुनो तो। हाँ, और क्या लाली?’

लड़का बोला – ‘मैं बताऊँ अम्मी! भइया ने कहा था, इसमें हमारा ही कसूर है।’

‘हाँ,’ लड़की बोली – ‘उन्होंने कहा था, बड़े लोग हमें जान-बूझ कर नीचे गिराते जावे हैं और हम बोलें ही नहीं।’

और फिर अब्बा की तरफ मुड़ कर बोली – ‘क्यों अब्बा, वे लोग कौन हैं?’

अब्बा तो बुत बने बैठे थे; क्या कहते?’

लड़का कहने लगा – ‘अब्बा! और जो उनमें बड़े आदमी थे, सबने यही कहा – हम भी आदमी हैं। हम भी जिएँगे। हम अब जाग गए हैं।’

अम्मी ने एक लंबी साँस खींची। चेहरा प्रकाश से भर उठा – ‘सुनते हो सलीम की बातें।’

रहमान अब भी नहीं बोला। लड़की बोली – ‘और अम्मी। भइया ने मुझसे कहा था कि मैं अब घर नहीं आऊँगा।’

‘नहीं आएगा?’

‘हाँ, अम्मी।’

रहमान की निद्रा टूटी – ‘क्यों नहीं आएगा? क्योंकि हम गंदे…?’

‘नहीं अब्बा!’ लड़की आप ही आप कुछ गंभीरता से बोली – ‘भइया ने मुझसे कहा था कि अब इस घर में नहीं रहूँगा। नया घर लूँगा, बहुत साफ। अब्बा से कह दीजो कि वहाँ रहने से गड़बड़ हो सकती है। हम लोगों के पीछे पुलिस लगी रहती है। वहाँ आएगी तो शायद अब्बा की नौकरी छूट जावेगी…?’

लेकिन अब्बा हों तो बोलें। उनके तो सिर में भूचाल आ गया है। वह घूम रहा है, रुकता नहीं…

चोरी का अर्थ     [ लघु कथा]
एक लम्बे रास्ते पर सड़क के किनारे उसकी दुकान थी। राहगीर वहीं दरख़्तों के नीचे बैठकर थकान उतारते और सुख-दुख का हाल पूछता। इस प्रकार तरोताजा होकर राहगीर अपने रास्ते पर आगे बढ़ जाते।
एक दिन एक मुसाफ़िर ने एक आने का सामान लेकर दुकानदार को एक रुपया दिया। उसने सदा की भांति अन्दर की अलमारी खोली और रेज़गारी देने के लिए अपनी चिर-परिचित पुरानी सन्दूकची उतारी। पर जैसे ही उसने ढक्कन खोला, उसका हाथ जहाँ था, वही रुक गया। यह देखकर पास बैठे हुए आदमी ने पूछा- “क्यों, क्या बात है?”
“कुछ नहीं” – दुकानदार ने ढक्कन बंद करते हुए कहा- “कोई गरीब आदमी अपनी ईमानदारी मेरे पास गिरवी रखकर पैसे ले गया है।”

 

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