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परिचय

मूल नाम : शहादत हसन मंटो

जन्म : 11 मई 1912

भाषा : हिंदी, उर्दू

विधाएँ : कविता

जीवनी
सआदत हसन मंटो की गिनती ऐसे साहित्यकारों में की जाती है जिनकी कलम ने अपने वक़्त से आगे की ऐसी रचनाएँ लिख डालीं जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है। प्रसिद्ध कहानीकार मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था। उनके पिता ग़ुलाम हसन नामी बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था, और मंटो उन्हें बीबीजान कहते थे। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार और शरारती थे। मंटो ने एंट्रेंस इम्तहान दो बार फेल होने के बाद पास किया। इसकी एक वजह उनका उर्दू में कमज़ोर होना था। मंटो का विवाह सफ़िया से हुआ था। जिनसे मंटो की तीन पुत्री हुई।
लघु कहानियाँ

बेख़बरी का फ़ायदा

लबलबी दबी – पिस्तौल से झुँझलाकर गोली बाहर निकली.
खिड़की में से बाहर झाँकनेवाला आदमी उसी जगह दोहरा हो गया.
लबलबी थोड़ी देर बाद फ़िर दबी – दूसरी गोली भिनभिनाती हुई बाहर निकली.
सड़क पर माशकी की मश्क फटी, वह औंधे मुँह गिरा और उसका लहू मश्क के पानी में हल होकर बहने लगा.
लबलबी तीसरी बार दबी – निशाना चूक गया, गोली एक गीली दीवार में जज़्ब हो गई.
चौथी गोली एक बूढ़ी औरत की पीठ में लगी, वह चीख़ भी न सकी और वहीं ढेर हो गई.
पाँचवी और छठी गोली बेकार गई, कोई हलाक हुआ और न ज़ख़्मी.
गोलियाँ चलाने वाला भिन्ना गया.
दफ़्तन सड़क पर एक छोटा-सा बच्चा दौड़ता हुआ दिखाई दिया.
गोलियाँ चलानेवाले ने पिस्तौल का मुहँ उसकी तरफ़ मोड़ा.
उसके साथी ने कहा : “यह क्या करते हो?”
गोलियां चलानेवाले ने पूछा : “क्यों?”
“गोलियां तो ख़त्म हो चुकी हैं!”
“तुम ख़ामोश रहो….इतने-से बच्चे को क्या मालूम?”

करामात

 

 

रामातलूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरु किए.
लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अंधेरे में बाहर फेंकने लगे,
कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौक़ा पाकर अपने से अलहदा कर दिया, ताकि क़ानूनी गिरफ़्त से बचे रहें.
एक आदमी को बहुत दिक़्कत पेश आई. उसके पास शक्कर की दो बोरियाँ थी जो उसने पंसारी की दूकान से लूटी थीं. एक तो वह जूँ-तूँ रात के अंधेरे में पास वाले कुएँ में फेंक आया, लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा ख़ुद भी साथ चला गया.
शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गये. कुएँ में रस्सियाँ डाली गईं.
जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया.
लेकिन वह चंद घंटो के बाद मर गया.
दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए उस कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था.
उसी रात उस आदमी की क़ब्र पर दीए जल रहे थे.

 

ख़बरदार

बलवाई मालिक मकान को बड़ी मुश्किलों से घसीटकर बाहर लाए.
कपड़े झाड़कर वह उठ खड़ा हुआ और बलवाइयों से कहने लगा :
“तुम मुझे मार डालो, लेकिन ख़बरदार, जो मेरे रुपए-पैसे को हाथ लगाया………!”

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हलाल और झटका

“मैंने उसकी शहरग पर छुरी रखी, हौले-हौले फेरी और उसको हलाल कर दिया.”
“यह तुमने क्या किया?”
“क्यों?”
“इसको हलाल क्यों किया?”
“मज़ा आता है इस तरह.”
“मज़ा आता है के बच्चे…..तुझे झटका करना चाहिए था….इस तरह. ”
और हलाल करनेवाले की गर्दन का झटका हो गया.

(शहरग – शरीर की सबसे बड़ी शिरा जो हृदय में मिलती है)

 

घाटे का सौदा

दो दोस्तों ने मिलकर दस-बीस लड़कियों में से एक चुनी और बयालीस रुपये देकर उसे ख़रीद लिया.
रात गुज़ारकर एक दोस्त ने उस लड़की से पूछा : “तुम्हारा नाम क्या है? ”
लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भिन्ना गया : “हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मज़हब की हो….!”
लड़की ने जवाब दिया : “उसने झूठ बोला था!”
यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा : “उस हरामज़ादे ने हमारे साथ धोखा किया है…..हमारे ही मज़हब की लड़की थमा दी……चलो, वापस कर आएँ…..!”
रियायत

“मेरी आँखों के सामने मेरी बेटी को न मारो…”

“चलो, इसी की मान लो…कपड़े उतारकर हाँक दो एक तरफ…”

बँटवारा

एक आदमी ने अपने लिए लकड़ी का एक बड़ा संदूक चुना। जब उसे उठाने लगा तो संदूक अपनी जगह से एक इंच न हिला।

एक शख्स ने, जिसे अपने मतलब की शायद कोई चीज मिल ही नहीं रही थी, संदूक उठाने की कोशिश करनेवाले से कहा-“मैं तुम्हारी मदद करूँ?”

संदूक उठाने की कोशिश करनेवाला मदद लेने पर राजी हो गया।

उस शख्स ने जिसे अपने मतलब की कोई चीज नहीं मिल रही थी, अपने मजबूत हाथों से संदूक को जुंबिश दी और संदूक उठाकर अपनी पीठ पर धर लिया। दूसरे ने सहारा दिया, और दोनों बाहर निकले।

संदूक बहुत बोझिल था। उसके वजन के नीचे उठानेवाले की पीठ चटख रही थी और टाँगें दोहरी होती जा रही थीं; मगर इनाम की उम्मीद ने उस शारीरिक कष्ट के एहसास को आधा कर दिया था।

संदूक उठानेवाले के मुकाबले में संदूक को चुननेवाला बहुत कमजोर था। सारे रास्ते एक हाथ से संदूक को सिर्फ सहारा देकर वह उस पर अपना हक बनाए रखता रहा।

जब दोनों सुरक्षित जगह पर पहुँच गए तो संदूक को एक तरफ रखकर सारी मेहनत करनेवाले ने कहा-“बोलो, इस संदूक के माल में से मुझे कितना मिलेगा?”

संदूक पर पहली नजर डालनेवाले ने जवाब दिया-“एक चौथाई।”

“यह तो बहुत कम है।”

“कम बिल्कुल नहीं, ज्यादा है…इसलिए कि सबसे पहले मैंने ही इस माल पर हाथ डाला था।”

“ठीक है, लेकिन यहाँ तक इस कमरतोड़ बोझ को उठाके लाया कौन है?”

“अच्छा, आधे-आधे पर राजी होते हो?”

“ठीक है…खोलो संदूक।”

संदूक खोला गया तो उसमें से एक आदमी बाहर निकला। उसके हाथ में तलवार थी। उसने दोनों हिस्सेदारों को चार हिस्सों में बाँट दिया।

 

हैवानियत

 

मियाँ-बीवी बड़ी मुश्किल से घर का थोड़ा-सा सामान बचाने में कामयाब हो गए।

एक जवान लड़की थी, उसका पता न चला।

एक छोटी-सी बच्ची थी, उसको माँ ने अपने सीने के साथ चिमटाए रखा।

एक भूरी भैंस थी, उसको बलवाई हाँककर ले गए।

एक गाय थी, वह बच गई; मगर उसका बछड़ा न मिला।

मियाँ-बीवी, उनकी छोटी लड़की और गाय एक जगह छुपे हुए थे।

सख्त अँधेरी रात थी।

बच्ची ने डरकर रोना शुरू किया तो खामोश माहौल में जैसे कोई ढोल पीटने लगा।

माँ ने डरकर बच्ची के मुँह पर हाथ रख दिया कि दुश्मन सुन न ले। आवाज दब गई। सावधानी के तौर पर बाप ने बच्ची के ऊपर गाढ़े की मोटी चादर डाल दी।

थोड़ी दूर जाने के बाद दूर से किसी बछड़े की आवाज आई।

गाय के कान खड़े हो गए। वह उठी और पागलों की तरह दौड़ती हुई डकराने लगी। उसको चुप कराने की बहुत कोशिश की गई, मगर बेकार…

शोर सुनकर दुश्मन करीब आने लगा। मशालों की रोशनी दिखाई देने लगी।

बीवी ने अपने मियाँ से बड़े गुस्से के साथ कहा-“तुम क्यों इस हैवान को अपने साथ ले आए थे?”

सफाई पसंद

गाड़ी रुकी हुई थी।

तीन बंदूकची एक डिब्बे के पास आए। खिड़कियों में से अंदर झाँककर उन्होंने मुसाफिरों से पूछा-“क्यों जनाब, कोई मुर्गा है?”

एक मुसाफ़िर कुछ कहते-कहते रुक गया। बाकियों ने जवाब दिया-“जी नहीं।”

थोड़ी देर बाद भाले लिए हुए चार लोग आए। खिड़कियों में से अंदर झाँककर उन्होंने मुसाफिरों से पूछा-“क्यों जनाब, कोई मुर्गा-वुर्गा है?”

उस मुसाफिर ने, जो पहले कुछ कहते-कहते रुक गया था, जवाब दिया-“जी मालूम नहीं…आप अंदर आके संडास में देख लीजिए।”

भालेवाले अंदर दाखिल हुए। संडास तोड़ा गया तो उसमें से एक मुर्गा निकल आया। एक भालेवाले ने कहा-“कर दो हलाल।”

दूसरे ने कहा-“नहीं, यहाँ नहीं…डिब्बा खराब हो जाएगा…बाहर ले चलो।”

 

साम्यवाद

 

वह अपने घर का तमाम जरूरी सामान एक ट्रक में लादकर दूसरे शहर जा रहा था कि रास्ते में लोगों ने उसे रोक लिया।

एक ने ट्रक के माल-असबाब पर लालचभरी नजर डालते हुए कहा-“देखो यार, किस मजे से इतना माल अकेला उड़ाए चला जा रहा है!”

असबाब के मालिक ने मुस्कराकर कहा-“जनाब, यह माल मेरा अपना है।”

दो-तीन आदमी हँसे-“हम सब जानते हैं।”

एक आदमी चिल्लाया-“लूट लो…यह अमीर आदमी है…ट्रक लेकर चोरियाँ करता है…!”

 

मुनासिब कार्रवाई

 

जब हमला हुआ तो महल्‍ले में अकल्‍लीयत के कुछ लोग कत्‍ल हो गए

जो बाकी बचे, जानें बचाकर भाग निकले-एक आदमी और उसकी

बीवी अलबत्ता अपने घर के तहखाने में छुप गए।

दो दिन और दो रातें पनाह याफ्ता मियाँ-बीवी ने हमलाआवरों

की मुतवक्‍के-आमद में गुजार दीं, मगर कोई न आया।

दो दिन और गुजर गए। मौत का डर कम होने लगा। भूख

और प्‍यास ने ज्यादा सताना शुरू किया।

चार दिन और बीत गए। मियाँ-बीवी को जिदगी और मौत से

कोई दिलचस्‍पी न रही। दोनों जाए पनाह से बाहर निकल आए।

खाविंद ने बड़ी नहीफ आवाज में लोगों को अपनी तरफ मुतवज्‍जेह

किया और कहा : “हम दोनों अपना आप तुम्‍हारे हवाले करते हैं…हमें मार डालो।”

जिनको मुतवज्‍जेह किया गया था, वह सोच में पड़ गए : “हमारे धरम

में तो जीव-हत्‍या पाप है…”

उन्‍होंने आपस में मशवरा किया और मियाँ-बीवी को मुनासिब कार्रवाई

के लिए दूसरे महुल्‍ले के आदमियों के सिपुर्द कर दिया।

 

 

 

कस्रे-नफ्सी

 

चलती गाड़ी रोक ली गई।

जो दूसरे मजहब के थे,

उनको निकाल-निकालकर तलवारों और गोलियों से हलाक कर दिया गया।

इससे फारिग होकर

गाड़ी के बाकी मुसाफिरों की

हलवे, दूध और फलों से तवाजो की गई।

गाड़ी चलने से पहले

तवाजो करने वालों के मुंतजिम ने

मुसाफिरों को मुखातिब करके कहा :

“भाइयो और बहनो,

हमें गाड़ी की आमद की इत्तिला बहुत देर में मिली;

यही वजह है कि हम जिस तरह चाहते थे,

उस तरह आपकी खिदमत न कर सके…!

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