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परिचय
श्यामनारायण पाण्डेय
जन्म: 1907
निधन: 1991
जन्म स्थान मऊ, उत्तर प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ
हल्दीघाटी, जौहर,तुमुल,रूपान्तर,आरती,जय-पराजय,गोरा-वध,जय हनुमान,शिवाजी (महाकाव्य)

विशेष
श्याम नारायण पाण्डेय का जन्म श्रावण कृष्ण पंचमी सम्वत् 1964, तदनुसार ईसवी सन् 1907 में ग्राम डुमराँव, मऊ, आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में हुआ। आरम्भिक शिक्षा के बाद आप संस्कृत अध्ययन के लिए काशी चले आये। यहीं रहकर काशी विद्यापीठ से आपने हिन्दी में साहित्याचार्य किया। पाण्डेय जी के तीन विवाह हुए । पहली पत्नी से एक लड़की `सर्वदा’ हुई । दूसरी पत्नी से एक पुत्र भूदेव हुआ । तीसरी पत्नी रमावती जी से एक पुत्र छविदेव और चारपुत्रियाँ हुईं । पाण्डेयजी वीर रस के अनन्य गायक हैं। इन्होंने चार महाकाव्य रचे, जिनमें ‘हल्दीघाटी और ‘जौहर विशेष चर्चित हुए। ‘हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप के जीवन और ‘जौहर में रानी पद्मिनी के आख्यान हैं। ‘हल्दीघाटी पर इन्हें देव पुरस्कार प्राप्त हुआ। अपनी ओजस्वी वाणी के कारण ये कवि सम्मेलनों में बडे लोकप्रिय थे। डुमराँव में अपने घर पर रहते हुए ईसवी सन् 1991 में 84 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। मृत्यु से तीन वर्ष पूर्व आकाशवाणी गोरखपुर में अभिलेखागार हेतु उनकी आवाज में उनके जीवन के संस्मरण रिकार्ड किये गये।
श्याम नारायण पाण्डेय जी ने चार उत्कृष्ट महाकाव्य रचे, जिनमें हल्दीघाटी (काव्य) सर्वाधिक लोकप्रिय और जौहर (काव्य) विशेष चर्चित हुए।
हल्दीघाटी में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के जीवन और जौहर में चित्तौड की रानी पद्मिनी के आख्यान हैं। हल्दीघाटी के नाम से विख्यात राजस्थान की इस ऐतिहासिक वीर भूमि के लोकप्रिय नाम पर लिखे गये हल्दीघाटी महाकाव्य पर उनको उस समय का सर्वश्रेष्ठ सम्मान देव पुरस्कार प्राप्त हुआ था। अपनी ओजस्वी वाणी के कारण आप कवि सम्मेलन के मंचों पर अत्यधिक लोकप्रिय हुए। उनकी आवाज मरते दम तक चौरासी वर्ष की आयु में भी वैसी ही कड़कदार और प्रभावशाली बनी रही जैसी युवावस्था में थी ।
उनका लिखा हुआ महाकाव्य जौहर भी अत्यधिक लोकप्रिय हुआ । उन्होंने यह महाकाव्य चित्तौड की महारानी पद्मिनी के वीरांगना चरित्र को चित्रित करने के उद्देश्य को लेकर लिखा था ।.जौहर महाकाव्य ‘जौहर’ पाण्डेय जी का द्वितीय महाकाव्य है। कुल 21 चिनगारियों का यह प्रबन्ध चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी को कथाधार बनाकर रचा गया है। इस ग्रंथ में वीर-रस के साथ करुण का भी गम्भीर पुट है। ‘जौहर’ की कहानी राजस्थान के इतिहास के लोमहर्षक आत्म-बलिदान की ज्वलंत कथा है। उत्साह और करुणा, शौर्य और विवशता, रूप और नश्वरता, भोग और आत्म-सम्मान के भावों के प्रवाह काव्य को हर्ष और विषाद की अनोखी गहनता प्रदान करते हैं। ‘जौहर’ में पाण्डेय जी ने एक मौलिक वीर-रस शैली का उद्घाटन किया है। छन्दों में ‘हल्दी घाटी’ से अधिक वेग एवं भावानुकूल गति है। डोले का वर्णन एवं चिता-वर्णन की चिनगारियाँ अत्यंत प्रभावभूर्ण एवं मर्मस्पर्शी हैं। लोक-छन्दों के सहारे नवीन लयों एवं गतियों को पकड़ने का सफल प्रयास स्तुत्य है । प्रारम्भ में प्रस्तुत है पाण्डेय की कुछ रचनाएँ उनके खंडकाव्य हल्दीघाटी से व अन्य रचनाएँ

 

घास की रोटी

 

पनी तुतली भाषा में
वह सिसक–सिसककर बोली¸
जलती थी भूख तृषा की
उसके अन्तर में होली।।32।।
‘हा छही न जाती मुझछे
अब आज भूख की ज्वाला।
कल छे ही प्याछ लगी है
हो लहा हिदय मतवाला।।33।।
मां ने घाछों की लोती
मुझको दी थी खाने को¸
छोते का पानी देकल
वह बोली भग जाने को।।34।।
अम्मा छे दूल यहीं पल
छूकी लोती खाती थी।
जो पहले छुना चुकी हूं¸
वह देछ–गीत गाती थी।।35।।
छच कहती केवल मैंने
एकाध कवल खाया था।
तब तक बिलाव ले भागा
जो इछी लिए आया था।।36।।
छुनती हूं तू लाजा है
मैं प्याली छौनी तेली।
क्या दया न तुझको आती
यह दछा देखकल मेली।।37।।
लोती थी तो देता था¸
खाने को मुझे मिठाई।
अब खाने को लोती तो
आती क्यों तुझे लुलाई।।38।।
वह कौन छत्रु है जिछने
छेना का नाछ किया है?
तुझको¸ मां को¸ हंम छभको¸
जिछने बनबाछ दिया है।।39।।
यक छोती छी पैनी छी
तलवाल मुझे भी दे दे।
मैं उछको माल भगाऊं
छन मुझको लन कलने दे।।40।।
कन्या की बातें सुनकर
रो पड़ी अचानक रानी।
राणा की आंखों से भी
अविरल बहता था पानी।।41।।

 

चेतक की वीरता

 

ण बीच चौकड़ी भर-भर कर
चेतक बन गया निराला था
राणाप्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था

जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था

गिरता न कभी चेतक तन पर
राणाप्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरिमस्तक[1] पर
वह आसमान का घोड़ा था

था यहीं रहा अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरिमस्तक पर कहाँ नहीं

निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौडा करबालों में
फँस गया शत्रु की चालों में

बढ़ते नद-सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
विकराल वज्रमय बादल-सा
अरि[2] की सेना पर घहर गया

भाला गिर गया गिरा निसंग
हय[3] टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग

 

राणा प्रताप की तलवार

 

ढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट काट,
करता था सफल जवानी को॥

कलकल बहती थी रणगंगा,
अरिदल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी,
चटपट उस पार लगाने को॥

वैरी दल को ललकार गिरी,
वह नागिन सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो बचो,
तलवार गिरी तलवार गिरी॥

पैदल, हयदल, गजदल में,
छप छप करती वह निकल गई।
क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर,
देखो चम-चम वह निकल गई॥

क्षण इधर गई क्षण उधर गई,
क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई।
था प्रलय चमकती जिधर गई,
क्षण शोर हो गया किधर गई॥

लहराती थी सिर काट काट,
बलखाती थी भू पाट पाट।
बिखराती अवयव बाट बाट,
तनती थी लोहू चाट चाट॥

क्षण भीषण हलचल मचा मचा,
राणा कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह,
रण-चंडी जीभ पसार बढ़ी॥

 

चलो दिल्ली
गों में खूँ उबलता है,
हमारा जोश कहता है।
जिगर में आग उठती है,
हमारा रोष कहता है।
उधर कौमी तिरंगे को,
संभाले बोस कहता है।
बढ़ो तूफ़ान से वीरों,
चलो दिल्ली ! चलो दिल्ली!
अभी आगे पहाड़ों के,
यहीं बंगाल आता है,
हमारा नवगुरुद्वारा,
यही पंजाब आता है।
जलाया जा रहा काबा,
लगी है आग काशी में,
युगों से देखती रानी,
हमारी राह झांसी में।
जवानी का तकाजा है,
रवानी का तकाजा है,
तिरंगे के शहीदों की
कहानी का तकाजा है।
बुलाती है हमें गंगा,
बुलाती घाघरा हमको।
हमारे लाडलो आओ,
बुलाता आगरा हमको।
…… ने पुकारा है,
हमारे देश के लोहिया,
उषा, जय ने पुकारा है।
गुलामी की कड़ी तोड़ो,
तड़ातड़ हथकड़ी तोड़ो।
लगा कर होड़ आंधी से,
जमीं से आसमां जोड़ो।
शिवा की आन पर गरजो,
कुँवर बलिदान पर गरजो,
बढ़ो जय हिन्द नारे से,
कलेजा थरथरा दें हम।
किले पर तीन रंगों का,
फरहरा फरफरा दें हम।

 

शीत रजनी

 

हेमन्त-शिशिर का शासन,
लम्बी थी रात विरह-सी।
संयोग-सदृश लघु वासर,
दिनकर की छवि हिमकर-सी।।
निर्धन के फटे पुराने
पट के छिद्रों से आकर,
शर-सदृश हवा लगती थी
पाषाण-हृदय दहला कर।।

लगती चन्दन-सी शीतल
पावक की जलती ज्वाला।
वाड़व भी काँप रहा था।
पहने तुषार की माला।।

जग अधर विकल हिलते थे
चलदल के दल से थर-थर।
ओसों के मिस नभ-दृग से
बहते थे आँसू झर-झर।।

यव की कोमल बालों पर,
मटरों की मृदु फलियों पर,
नभ के आँसू बिखरे थे
तीसी की नव कलियों पर।।

घन-हरित चने के पौधे,
जिनमें कुछ लहुरे जेठे,
भिंग गये ओस के बल से
सरसों के पीत मुरेठे।।

यह शीत काल की रजनी
कितनी भयदायक होगी।
पर उसमें भी करता था
तप एक वियोगी योगी।

     जौहर [खंडकाव्य ]

 

      मंगलाचरण
गगन के उस पार क्या,
पाताल के इस पार क्या है?
क्या क्षितिज के पार? जग
जिस पर थमा आधार क्या है?

दीप तारों के जलाकर
कौन नित करता दिवाली?
चाँद – सूरज घूम किसकी
आरती करते निराली?

चाहता है सिन्धु किस पर
जल चढ़ाकर मुक्त होना?
चाहता है मेघ किसके
चरण को अविराम धोना?

तिमिर – पलकें खोलकर
प्राची दिशा से झाँकती है;
माँग में सिन्दूर दे
ऊषा किसे नित ताकती है?

गगन में सन्ध्या समय
किसके सुयश का गान होता?
पक्षियों के राग में किस
मधुर का मधु – दान होता?

पवन पंखा झल रहा है,
गीत कोयल गा रही है।
कौन है? किसमें निरन्तर
जग – विभूति समा रही है?

तूलिका से कौन रँग देता
तितलियों के परों को?
कौन फूलों के वसन को,
कौन रवि – शशि के करों को?

कौन निर्माता? कहाँ है?
नाम क्या है? धाम क्या है?
आदि क्या निर्माण का है?
अन्त का परिणाम क्या है?

खोजता वन – वन तिमिर का
ब्रह्म पर पर्दा लगाकर।
ढूँढ़ता है अन्ध मानव
ज्योति अपने में छिपाकर॥

बावला उन्मत्त जग से
पूछता अपना ठिकाना।
घूम अगणित बार आया,
आज तक जग को न जाना॥

सोचता जिससे वही है,
बोलता जिससे वही है।
देखने को बन्द आँखें
खोलता जिससे वही है॥

आँख में है ज्योति बनकर,
साँस में है वायु बनकर।
देखता जग – निधन पल – पल,
प्राण में है आयु बनकर॥

शब्द में है अर्थ बनकर,
अर्थ में है शब्द बनकर।
जा रहे युग – कल्प उनमें,
जा रहा है अब्द बनकर॥

यदि मिला साकार तो वह
अवध का अभिराम होगा।
हृदय उसका धाम होगा,
नाम उसका राम होगा॥

सृष्टि रचकर ज्योति दी है,
शशि वही, सविता वही है।
काव्य – रचना कर रहा है,
कवि वही, कविता वही है॥

 

पहली चिनगारी

 

थाल सजाकर किसे पूजने
चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का
पीताम्बर तन पर डाले?

कहाँ चले ले चन्दन अक्षत
बगल दबाए मृगछाला?
कहाँ चली यह सजी आरती?
कहाँ चली जूही माला?

ले मुंजी उपवीत मेखला
कहाँ चले तुम दीवाने?
जल से भरा कमंडलु लेकर
किसे चले तुम नहलाने?

मौलसिरी का यह गजरा
किसके गज से पावन होगा?
रोम कंटकित प्रेम – भरी
इन आँखों में सावन होगा?

चले झूमते मस्ती से तुम,
क्या अपना पथ आए भूल?
कहाँ तुम्हारा दीप जलेगा,
कहाँ चढ़ेगा माला – फूल?

इधर प्रयाग न गंगासागर,
इधर न रामेश्वर, काशी।
कहाँ किधर है तीर्थ तुम्हारा?
कहाँ चले तुम संन्यासी?

क्षण भर थमकर मुझे बता दो,
तुम्हें कहाँ को जाना है?
मन्त्र फूँकनेवाला जग पर
अजब तुम्हारा बाना है॥

नंगे पैर चल पड़े पागल,
काँटों की परवाह नहीं।
कितनी दूर अभी जाना है?
इधर विपिन है, राह नहीं॥

मुझे न जाना गंगासागर,
मुझे न रामेश्वर, काशी।
तीर्थराज चित्तौड़ देखने को
मेरी आँखें प्यासी॥

अपने अचल स्वतंत्र दुर्ग पर
सुनकर वैरी की बोली
निकल पड़ी लेकर तलवारें
जहाँ जवानों की टोली,

जहाँ आन पर माँ – बहनों की
जला जला पावन होली
वीर – मंडली गर्वित स्वर से
जय माँ की जय जय बोली,

सुंदरियों ने जहाँ देश – हित
जौहर – व्रत करना सीखा,
स्वतंत्रता के लिए जहाँ
बच्चों ने भी मरना सीखा,

वहीं जा रहा पूजा करने,
लेने सतियों की पद-धूल।
वहीं हमारा दीप जलेगा,
वहीं चढ़ेगा माला – फूल॥

वहीं मिलेगी शान्ति, वहीं पर
स्वस्थ हमारा मन होगा।
प्रतिमा की पूजा होगी,
तलवारों का दर्शन होगा॥

वहाँ पद्मिनी जौहर-व्रत कर
चढ़ी चिता की ज्वाला पर,
क्षण भर वहीं समाधि लगेगी,
बैठ इसी मृगछाला पर॥

नहीं रही, पर चिता – भस्म तो
होगा ही उस रानी का।
पड़ा कहीं न कहीं होगा ही,
चरण – चिह्न महरानी का॥

उस पर ही ये पूजा के सामान
सभी अर्पण होंगे।
चिता – भस्म – कण ही रानी के,
दर्शन – हित दर्पण होंगे॥

आतुर पथिक चरण छू छूकर
वीर – पुजारी से बोला;
और बैठने को तरु – नीचे,
कम्बल का आसन खोला॥

देरी तो होगी, पर प्रभुवर,
मैं न तुम्हें जाने दूँगा।
सती – कथा – रस पान करूँगा,
और मन्त्र गुरु से लूँगा॥

कहो रतन की पूत कहानी,
रानी का आख्यान कहो।
कहो सकल जौहर की गाथा,
जन जन का बलिदान कहो॥

कितनी रूपवती रानी थी?
पति में कितनी रमी हुई?
अनुष्ठान जौहर का कैसे?
संगर में क्या कमी हुई?

अरि के अत्याचारों की
तुम सँभल सँभलकर कथा कहो।
कैसे जली किले पर होली?
वीर सती की व्यथा कहो॥

नयन मूँदकर चुप न रहो,
गत–व्याधि, समाधि लगे न कहीं।
सती – कहानी कहने की,
अन्तर से चाह भगे न कहीं॥

आकुल कुल प्रश्नों को सुनकर
मुकुलित नयनों को खोला।
वीर – करुण – रस – सिंचित स्वर से
सती – तीर्थ – यात्री बोला॥

क्या न पद्मिनी – जौहर का
आख्यान सुना प्राचीनों से?
क्या न पढ़ा इतिहास सती का
विद्या – निरत नवीनों से?

यदि न सुना तो सुनो कहानी
सती – पद्मिनी – रानी की।
पर झुक झुककर करो वन्दना,
पहले पहल भवानी की॥

रूपवान था रतन, पद्मिनी
रूपवती उसकी रानी।
दम्पति के तन की शोभा से
जगमग जगमग रजधानी॥

रानी की कोमलता पर
कोमलता ही बलिहारी थी।
छुईमुई – सी कुँभला जाती,
वह इतनी सुकुमारी थी॥

राजमहल से छत पर निकली,
हँसती शशि – किरणें आईं।
मलिन न छवि छूने से हो,
इससे विहरीं बन परछाईं॥

मलयानिल पर रहती थी,
वह कुसुम – सुरभि पर सोती थी।
जग की पलकों पर बसकर,
प्राणों से प्राण सँजोती थी॥

ऊषा की स्वर्णिम किरणों
के झूले पर झूला करती।
राजमहल के नंदन – वन में,
बेला सी फूला करती॥

बिखरे केशों में अँधियाली,
मुख पर छायी उजियाली।
राका – अमा – मिलन होता था,
भरी माँग की ले लाली॥

बालों में सिन्दूर चिह्न ही
था दो प्राणों का बंधन।
मानो घनतम तिमिर चीरकर,
हँसी उषा की एक किरन॥

बालमृगी – सी आँखों में
आकर्षण ने डेरा डाला।
सुधा – सिक्त विद्रुम – अधरों पर
मदिरा ने घेरा डाला॥

मधुर गुलाबी गालों पर,
मँडराती फिरती मधुपाली।
एक घूँट पति साथ पिया मधु,
चढ़ी गुलाबी पर लाली॥

आँखों से सरसीरुह ने
सम्मोहन जा जाकर सीखा।
रानी का मधुवर्षी स्वर
कोयल ने गा गाकर सीखा॥

घूँघट – पट हट गया लाज से,
मुसकाई जग मुसकाया।
निःश्वासों की सरस सुरभि से
फूलों में मधुरस आया॥

अरुण कमल ने जिनके तप से
इतनी सी लाली पाई।
फूलों पर चलने से जिनमें
नवनी – सी मृदुता आई॥

फैल रही थी दिग्दिगन्त में
जिनकी नख – छबि मतवाली,
उन पैरों पर सह न सकी
लाक्षारस की कृत्रिम लाली॥

नवल गुलाबों ने हँस हँसकर
सुरभि रूप में भर डाली।
कमल – कोष से उड़ उड़कर
भौंरों ने भी भाँवर डाली॥

जैसी रूपवती रानी थी,
वैसा ही था पति पाया।
मानो वासव साथ शची का
रूप धरातल पर आया॥

भरे यहीं से तंत्र – मंत्र
मनसिज ने अपने बाणों में।
पति के प्राणों में पत्नी थी,
पति पत्नी के प्राणों में॥

दो मुख थे पर एक मधुरध्वनि,
दो मन थे पर एक लगन।
दो उर थे पर एक कल्पना,
एक मगन तो अन्य मगन॥

विरह नाम से ही व्याकुलता,
जीवन भर संयोग रहा।
एक मनोहर सिंहासन पर,
सूर्य – प्रभा का योग रहा॥

रानी कहती नव वसन्त में
कोयल किसको तोल रही।
पति के साथ सदा राका यह
कुहू कुहू क्यों बोल रही?

सावन के रिमझिम में पापी
डाल – डाल पर डोला क्यों?
पी तो मेरे साथ – साथ
‘पी कहाँ’ पपीहा बोला क्यों?

त्रिभुवन के कोने कोने में,
रूप – राशि की ख्याति हुई।
रूपवती के पातिव्रत पर
गर्वित नारी – जाति हुई॥

ग्राम – ग्राम में, नगर – नगर में,
डगर – डगर में, घर – घर में
पति – पत्नी का ही बखान
मुखरित था अवनी – अम्बर में॥

सुनी अलाउद्दीन राहु ने
चन्द्रमुखी की तरुणाई।
उसे विभव का लालच देकर,
की ग्रसने की निठुराई॥

जितने अत्याचार किए
उन सबका क्या वर्णन होगा!
सुनने पर वह करुण कहानी
विकल तुम्हारा मन होगा॥

बोला वह पथिक पुजारी से,
पावन गाथा आरम्भ करो।
चाहे जो हो पर दम्पति का
मेरे अन्तर में त्याग भरो॥

दलबल लेकर खिलजी ने क्या
गढ़ पर ललकार चढ़ाई की?
क्या रावल के नरसिंहों से
रानी के लिए लड़ाई की?

उस संगर का आख्यान कहो,
तुम कहो कहानी रानी की।
समझा समझा इतिहास कहो,
तुम कहो कथा अभिमानी की॥

जप जप माला निर्भय वर्णन
जौहर का करने लगा यती।
आख्यान – सुधा अधिकारी के
अन्तर में भरते लगा यती॥

 

दूसरी चिनगारी

 

निशि चली जा रही थी काली
प्राची में फैली थी लाली।
विहगों के कलरव करने से,
थी गूँज रही डाली डाली॥

सरसीरुह ने लोचन खोले,
धीरे धीरे तरु-दल डोले।
फेरी दे देकर फूलों पर,
गुन-गुन गुन-गुन भौंरे बोले॥

सहसा घूँघट कर दूर हँसी
सोने की हँसी उषा रानी।
मिल मिल लहरों के नर्तन से
चंचल सरिता सर का पानी॥

मारुत ने मुँह से फूँक दिया,
बुझ गए दीप नभ – तारों के।
कुसुमित कलियों से हँसने को,
मन ललचे मधुप – कुमारों के॥

रवि ने वातायन से झाँका,
धीरे से रथ अपना हाँका।
तम के परदों को फेंक सजग,
जग ने किरणों से तन ढाँका॥

दिनकर – कर से चमचम बिखरे,
भैरवतम हास कटारों के।
चमके कुन्तल – भाले – बरछे,
दमके पानी तलवारों के॥

फैली न अभी थी प्रात – ज्योति,
आँखें न खुली थीं मानव की।
तब तक अनीकिनी आ धमकी,
उस रूप लालची – दानव की॥

क्षण खनी जा रही थी अवनी
घोड़ों की टप – टप टापों से।
क्षण दबी जा रही थी अवनी
रण – मत्त मतंग – कलापों से॥

भीषण तोपों के आरव से
परदे फटते थे कानों के।
सुन – सुन मारू बाजों के रव
तनते थे वक्ष जवानों के॥

जग काँप रहा था बार – बार
अरि के निर्दय हथियारों से।
थल हाँफ रहा था बार – बार
हय – गज – गर्जन हुंकारों से।

भू भगी जा रही थी नभ पर,
भय से वैरी – तलवारों के।
नभ छिपा जा रहा था रज में,
डर से अरि – क्रूर – कटारों के॥

कोलाहल – हुंकृति बार – बार
आई वीरों के कानों में।
बापा रावल की तलवारें
बंदी रह सकीं न म्यानों में॥

घुड़सारों से घोड़े निकले,
हथसारों से हाथी निकले।
प्राणों पर खेल कृपाण लिए
गढ़ से सैनिक साथी निकले॥

बल अरि का ले काले कुंतल
विकराल ढाल ढाले निकले।
वैरी – वर छीने बरछी ने,
वैरी – भा ले भाले निकले॥

हय पाँख लगाकर उड़ा दिए
नभ पर सामंत सवारों ने।
जंगी गज बढ़ा दिए आगे
अंकुश के कठिन प्रहारों ने॥

फिर कोलाहल के बीच तुरत
खुल गया किले का सिंहद्वार।
हुं हुं कर निकल पड़े योधा,
धाए ले – ले कुंतल कटार॥

बोले जय हर हर ब्याली की,
बोले जय काल कपाली की।
बोले जय गढ़ की काली की,
बोले जय खप्परवाली की॥

खर करवालों की जय बोले,
दुर्जय ढालों की जय बोले,
खंजर – फालों की जय बोले,
बरछे – भालों की जय बोले॥

बज उठी भयंकर रण – भेरी,
सावन – घन – से धौंसे गाजे।
बाजे तड़ – तड़ रण के डंके,
घन घनन घनन मारू बाजे॥

पलकों में बलती चिनगारी,
कर में नंगी करवाल लिए।
वैरी – सेना पर टूट पड़े,
हर – ताण्डव के स्वर – ताल लिए॥

भैरव वन में दावानल – सम,
खग – दल में बर्बर – बाज – सदृश,
अरि – कठिन – व्यूह में घुसे वीर,
मृग – राजी में मृगराज – सदृश॥

आँखों से आग बरसती थी,
थीं भौंहें तनी कमानों – सी।
साँसों में गति आँधी की थी,
चितवन थी प्रखर कृपानों – सी॥

तलवार गिरी वैरी – शिर पर,
धड़ से शिर गिरा अलग जाकर।
गिर पड़ा वहीं धड़, असि का जब
भिन गया गरल रग रग जाकर॥

गज से घोड़े पर कूद पड़ा,
कोई बरछे की नोक तान।
कटि टूट गई, काठी टूटी,
पड़ गया वहीं घोड़ा उतान॥

गज – दल के गिर हौदे टूटे,
हय – दल के भी मस्तक फूटे।
बरछों ने गोभ दिए, छर छर
शोणित के फौवारे छूटे॥

लड़ते सवार पर लहराकर
खर असि का लक्ष्य अचूक हुआ।
कट गया सवार गिरा भू पर,
घोड़ा गिरकर दो टूक हुआ॥

क्षण हाथी से हाथी का रण,
क्षन घोड़ों से घोड़ों का रण।
हथियार हाथ से छूट गिरे,
क्षण कोड़ों से कोड़ों का रण॥

क्षण भर ललकारों का संगर,
क्षण भर किलकारों का संगर।
क्षण भर हुंकारों का संगर,
क्षण भर हथियारों का संगर॥

कटि कटकर बही, कटार बही,
खर शोणित में तलवार बही।
घुस गए कलेजों में खंजर,
अविराम रक्त की धार बही॥

सुन नाद जुझारू के भैरव,
थी काँप रही अवनी थर थर।
घावों से निर्झर के समान
बहता था गरम रुधिर झर झर॥

बरछों की चोट लगी शिर पर,
तलवार हाथ से छूट पड़ी।
हो गए लाल पट भीग भीग,
शोणित की धारा फूट पड़ी॥

रावल – दल का यह हाल देख
वैरी – दल संगर छोड़ भगा।
हाथों के खंजर फेंक फेंक
खिलजी से नाता तोड़ भगा॥

सेनप के डर से रुके वीर,
पर काँप रहे थे बार – बार।
डट गए तान संगीन तुरत,
पर हाँफ रहे थे वे अपार॥

खूँखार भेड़ियों के समान
भट अरि – भेड़ों पर टूट पड़े।
अवसर न दिया असि लेने का
शत – शत विद्युत् से छूट पड़े॥

लग गए काटने वैरी – शिर,
अपनी तीखी तलवारों से।
लग गए पाटने युद्धस्थल,
बरछों से कुन्त-कटारों से॥

अरि – हृदय – रक्त का खप्पर पी
थीं तरज रही क्षण क्षण काली।
दाढ़ों में दबा दबाकर तन
वह घूम रही थी मतवाली॥

चुपचाप किसी ने भोंक दिया,
उर – आरपार कर गया छुरा।
झटके से उसे निकाल लिया,
अरि – शोणित से भर गया छुरा॥

हय – शिर उतार गज – दल विदार,
अरि – तन दो दो टुकड़े करती।
तलवार चिता – सी बलती थी,
थी रक्त – महासागर तरती॥

 

तीसरी चिनगारी

 

शीशमहल की दीवालों पर
शोभित नंगी तसवीरें।
चित्रकार ने लिखीं बेगमों
की बहुरंगी तस्वीरें॥

घूमीं परियाँ आँगन में,
प्रतिबिम्ब दिवालों में घूमे।
झूमी सुन्दरियाँ मधु पी,
प्रतिबिम्ब दीवालों में झूमे॥

देह – सुरभि फैली गज – गति में,
छूकर छोर कुलाबों के।
मधुमाते चलते फिरते हों,
मानो फूल गुलाबों के॥

छमछम दो डग चलीं, नूपुरों
की ध्वनि महलों में गूँजी।
बोली मधुरव से, नखरे से,
कोयल डालों पर कूजी॥

उस पर दो दो रति – प्रतिमाएँ
तिरछी चितवन से जीतीं।
उनसे पूछो, उन्हें देखने में
कितनी रातें बीतीं॥

कटि मृणाल – सी ललित लचीली,
नाभी की वह गहराई।
त्रिबली पर अंजन रेखा – सी,
रोम – लता – छवि लहराई॥

भरी जवानी में तन की क्या
पूछ रहे हो सुघराई!
पथिक, थकित थी उनके तन की
सुघराई पर सुघराई॥

साकी ने ली कनक – सुराही,
कमरे में महकी हाला।
भीनी सुरभि उठी मदिरा की,
बना मधुप – मन मतवाला॥

मह मह सकल दिशाएँ महकीं,
महके कण दीवालों के।
सुरा – प्रतीक्षा में चेतन क्या,
हिले अधर मधु – प्यालों के॥

हँसी बेगमों की आँखें,
मुख भीतर रसनाएँ डोलीं।
गंध कबाबों की गमकी,
‘मधु चलो पियें’ सखियाँ बोलीं॥

बड़े नाज से झुकी सुराही,
कुल कुल कुल की ध्वनि छाई।
सोने – चाँदी के पात्रों में
लाल लाल मदिरा आई॥

एक घूँट, दो घूँट नहीं,
प्यालों पर प्याले टकराए।
और भरो मधु और पियो मधु
के रव महलों में छाए॥

मधु पी मत्त हुईं सुन्दरियाँ,
आँखों में सुर्खी छाई।
वाणी पर अधिकार नहीं अब,
गति में चंचलता आई॥

दो सखियों का वक्ष – मिलन,
मन-मिलन, पुलक-सिहरन-कम्पन।
दो प्राणों के मधु मिलाप से
अलस नयन, उर की धड़कन॥

खुली अधखुली आँखों में,
उर – दान – वासना का नर्तन।
एक – दूसरे को नर समझा,
सजल नयन, अर्पित तन – मन॥

डगमग डगमग पैर पड़े,
हाथों से मधु ढाले छूटे।
गिरे संगमरमर के गच पर,
नीलम के प्याले फूटे॥

गिरे वक्ष से वसन रेशमी,
गुँथे केश के फूल गिरे।
मस्त बेगमों के कन्धों से
धीरे सरक दुकूल गिरे॥

मिल मिल नाच उठीं सुन्दरियाँ,
हार मोतियों के टूटे।
तसवीरों के तरुणों ने
अनिमेष दृगों के फल लूटे॥

माणिक की चौकी से भू पर,
मधु के पात्र गिरे झन झन।
बिखरे कंचन के गुलदस्ते,
गिरे धरा पर मणि – कंगन॥

मदिरा गिरी बही अवनी पर,
हँसीं युवतियाँ मतवाली।
कमरे के गिर शीशे टूटे,
बजी युवतियों की ताली॥

नीलम मणि के निर्मल गच पर
गिरी सुराही चूर हुई।
कलकल से मूर्च्छित खिलजी की
कुछ कुछ मूर्च्छा दूर हुई॥

हँसीं, गा उठीं, वेणु बजे,
स्वर निकले मधुर सितारों से।
राग – रागिनी थिरकीं, मुखरित
वीणा के मृदु तारों से॥

परियों के मुख से स्वर – लहरी
निकली मधुर मधुर ताजी।
सारंगी के ताल ताल पर
छम छम छम पायल बाजी॥

एक साथ गा उठीं युवतियाँ,
मूर्च्छित के खुल गए नयन।
कर्कश स्वर के तारतम्य से
उठा त्याग कर राजशयन॥

बोला कहाँ मधुर मदिरा है?
कहाँ घूँट भर पानी है?
कहाँ पद्मिनी, कहाँ पद्मिनी,
कहाँ पद्मिनी रानी है?

हाव – भाव से चलीं युवतियाँ
सुन उन्मादी की बोली।
राग – रागिनी रुकी, रुका स्वर,
बन्द हुई मधु की होली॥

आकर उसे रिझाया हिलमिल,
सुरा – पात्र दे दे खेला।
हाथों में उसके हाथों की
अंगुलियों को ले खेला॥

नयन – कोर से क्षण देखा,
क्षण होंठों पर ही मुसकायीं,
जिधर अंग हिल गया उधर ही,
परियों की आँखें धायीं॥

उन्मादी के खुले वक्ष पर
कर रख कोई अलसाई।
तोड़ तोड़कर अंग हाव से
रह रहकर ली जमुहाई॥

आलिंगन के लिए मनोहर,
मृदुल भुजाएँ फैलाईं।
खिलजी की गोदी में गिर गिर,
आँख मूँद, ली जमुहाई॥

उन्मादी ने करवट बदली,
छम छम नखरे से घूमीं।
उसकी पलकों को चूमा, मधु –
मस्ती में झुक झुक झूमीं॥

पर इनका कुछ असर न देखा
तुरत तरुणियाँ मुरझाईं,
अरुण कपोलों पर विषाद की
रेखा झलकी, कुँभलाईं॥

अपनी कजरारी आँखों पर,
अपने गोल कपोलों पर,
अरुण अधर पर, नाहर कटि – पर,
सुधाभरे मधु बोलों पर,

अपने तन के रूप – रंग पर,
अपने तन के पानी पर,
अपने नाजों पर, नखरों पर,
अपनी चढ़ी जवानी पर,

घृणा हुई, गड़ गईं लाज से,
मादक यौवन से ऊबीं।
भरी निराशा में सुन्दरियाँ
चिन्ता – सागर में डूबीं॥

बोल उठा उन्मादी फिर,
मुझको थोड़ा सा पानी दो।
कहाँ पद्मिनी, कहाँ पद्मिनी,
मुझे पद्मिनी रानी दो॥

बोलो तो क्या तुम्हें चाहिए,
उसे ढूँढकर ला दूँ मैं।
रूपराशि के एक अंश पर ही,
साम्राज्य लुटा दूँ मैं॥

कब अधरों के मधुर हास से
विकसित मेरा मन होगा!
कब चरणों के नख – प्रकाश से
जगमग सिंहासन होगा॥

बरस रहा आँखों से पानी,
उर में धधक रही ज्वाला।
मुझ मुरदे पर ढुलका दो
अपनी छबि – मदिरा का प्याला॥

प्राणों की सहचरी पद्मिनी,
वह देखो हँसती आई।
ज्योति महल में फैल गई,
लो बिखरी तन की सुघराई॥

आज छिपाकर तुम्हें रखूँगा,
अपने मणि के हारों में;
अपनी आँखों की पुतली में,
पुतली के लघु तारों में॥

हाय पद्मिनी कहाँ गई? फिर
क्यों मुझसे इतनी रूठी।
अभी न मैंने उसे पिन्हा
पाई हीरे की अंगूठी॥

किस परदे में कहाँ छिपी
मेरे प्राणों की पहचानी।
हाय पद्मिनी, हाय पद्मिनी,
हाय पद्मिनी, महरानी॥

इतने में चित्तौड़ नगर से,
गुप्त दूत आ गया वहाँ।
उन्मादी ने आँखें खोलीं,
भगीं युवतियाँ जहाँ तहाँ॥

बड़े प्रेम से खिलजी बोला,
कहो यहाँ कब आए हो।
दूर देश चित्तौड़ नगर से
समाचार क्या लाए हो?

मुझे विजय मिल सकती क्या
रावल – कुल के रणधीरों से?
मुझे पद्मिनी मिल सकती क्या
सदा अर्चिता वीरों से॥

सुनो पद्मिनी के बारे में
चुप न रहो कुछ कहा करो।
जब तक पास रहो उसकी ही
मधु – मधु बातें कहा करो॥

किया दूत ने नमस्कार फिर,
कहने को रसना डोली।
निकल पड़ी अधरों के पथ से
विनय भरी मधुमय बोली॥

जहाँ आप हैं, वहीं विजय है,
जहाँ चरण सुख स्वर्ग वहीं।
जहाँ आप हैं वहीं पद्मिनी,
जहाँ आप अपवर्ग वहीं॥

अभी आप इंगित कर दें,
नक्षत्र आपके घर आवें।
रखा पद्मिनी में क्या, नभ से
सूरज – चाँद उतर आवें॥

जिधर क्रोध से आप देख दें,
उधर प्रलय की ज्वाला हो।
जिधर प्रेम से आप देख दें,
उधर फूल हो, माला हो॥

महापुरुष चित्तौड़ नगर के
पास परी सी चित्तौड़ी।
सौत पद्मिनी को न चाहती,
वहीं मानिनी सी पौढ़ी॥

उसकी लेकर मदद आप
चाहें तो पहनें जय – माला।
उससे ही खिंच आ सकती है,
गढ़ की प्रभा रतन – बाला॥

और रानियाँ हो सकतीं
उसके पैरों की धूल नहीं।
सच कहता उसके समान
हँसते उपवन के फूल नहीं॥

रोम – रोम लावण्य भरा है,
रोम – रोम माधुर्य भरा।
बोल – बोल में सुधा लहरती,
शब्द शब्द चातुर्य भरा॥

हिम – माला है, पर ज्वाला भी,
लक्ष्मी है, पर काली भी।
दो डग चलना दुर्लभ, पर
अवसर पर रण – मतवाली भी॥

कानों से सुनकर आँखों से
देखा, जाना, पहचाना।
रतन – रूप की दीप – शिखा का
समझें उसको परवाना॥

इससे पहले जाल प्रेम के
आप बिछावें बिछवावें।
इस पर मिले न तरुणी तब फिर,
रण के बाजे बजवावें॥

इस प्रयत्न से कठिन न उसका
विवश अंक में आ जाना।
शरद – चाँदनी सी आकर
प्राणों में बिखर समा जाना॥

बड़े ध्यान से वचन सुने ये,
खिलजी ने अँगड़ाई ली।
बोला कहो सजे सेना अब,
भैरव सी जमुहाई ली॥

क्षण भर में ही बजे नगाड़े,
गरज उठे रण के बाजे।
निकल पड़ीं झनझन तलवारें,
सजे वीर हय – गज गाजे॥

उधर दुर्ग – सन्निधि अरि आया,
रूप – ज्वाल को रख प्राणो में।
रतन चला आखेट खेलने,
इधर भयद वन के झाड़ों में॥

मृग – दम्पति को मार विपिन में
रावल ने जो पुण्य कमाया।
वनदेवी का तप्त शाप ले
खिलजी से उसका फल पाया॥

वीर पुजारी विपिन – कहानी
लगा सुनाने चिंतित होकर।
सुनने लगा पथिक दंपति की
करुण – सुधा से सिंचित होकर॥

बोला पथिक पुजारी से, क्यों
वनदेवी ने शाप दिया था।
क्यों कैसे अपराध हुआ, क्या
रावल को जो ताप दिया था॥

कहो न देर करो, अब मेरी
उत्कंठा बढ़ती जाती है।
सुनने को विस्मित गाथा वह
मेरी इच्छा अकुलाती है॥

 

      हल्दीघाटी   [खंडकाव्य ]

       प्रथम सर्ग
वण्डोली है यही¸ यहीं पर
है समाधि सेनापति की।
महातीर्थ की यही वेदिका¸
यही अमर–रेखा स्मृति की।।1।।

एक बार आलोकित कर हा¸
यहीं हुआ था सूर्य अस्त।
चला यहीं से तिमिर हो गया
अन्धकार–मय जग समस्त।।2।।

आज यहीं इस सिद्ध पीठ पर
फूल चढ़ाने आया हूँ।
आज यहीं पावन समाधि पर
दीप जलाने आया हूँ।।3।।

आज इसी छतरी के भीतर
सुख–दुख गाने आया हूँ।
सेनानी को चिर समाधि से
आज जगाने आया हूँ।।4।।

सुनता हूँ वह जगा हुआ था
जौहर के बलिदानों से।
सुनता हूँ वह जगा हुआ था
बहिनों के अपमानों से।।5।।

सुनता हूँ स्त्री थी अँगड़ाई
अरि के अत्याचारों से।
सुनता हूँ वह गरज उठा था
कड़ियों की झनकारों से।।6।।

सजी हुई है मेरी सेना¸
पर सेनापति सोता है।
उसे जगाऊँगा¸ विलम्ब अब
महासमर में होता है।।7।।

आज उसी के चरितामृत में¸
व्यथा कहूँगा दीनों की।
आज यही पर रूदन–गीत में
गाऊँगा बल–हीनों की।।8।।

आज उसी की अमर–वीरता
व्यक्त करूँगा गानों में।
आज उसी के रणकाशल की
कथा कहूँगा कानों में।।9।।

पाठक! तुम भी सुनो कहानी
आँखों में पानी भरकर।
होती है आरम्भ कथा अब
बोलो मंगलकर शंकर।।10।।

विहँस रही थी प्रकृति हटाकर
मुख से अपना घूँघट–पट।
बालक–रवि को ले गोदी में
धीरे से बदली करवट।।11।।

परियों सी उतरी रवि–किरण्ों
घुली मिलीं रज–कन–कन से।
खिलने लगे कमल दिनकर के
स्वर्णिम–कर के चुम्बन से।।12।।

मलयानिल के मृदु–झोकों से
उठीं लहरियाँ सर–सर में।
रवि की मृदुल सुनहली किरण्ों
लगीं खेलने निझर्र में।।13।।

फूलों की साँसों को लेकर
लहर उठा मारूत वन–वन।
कुसुम–पँखुरियों के आँगन में
थिरक–थिरक अलि के नर्तन।।14।।

देखी रवि में रूप–राशि निज
ओसों के लघु–दर्पण में।
रजत रश्मियाँ फैल गई
गिरि–अरावली के कण–कण में।।15
इसी समय मेवाड़–देश की
कटारियाँ खनखना उठीं।
नागिन सी डस देने वाली
तलवारें झनझना उठीं।।16।।

धारण कर केशरिया बाना
हाथों में ले ले भाले।
वीर महाराणा से ले खिल
उठे बोल भोले भाले।।17।।

विजयादशमी का वासर था¸
उत्सव के बाजे बाजे।
चले वीर आखेट खेलने
उछल पड़े ताजे–ताजे।।18।।

राणा भी आलेट खेलने
शक्तसिंह के साथ चला।
पीछे चारण¸ वंश–पुरोहित
भाला उसके हाथ चला।।19।।

भुजा फड़कने लगी वीर की
अशकुन जतलानेवाली।
गिरी तुरत तलवार हाथ से
पावक बरसाने वाली।।20।।

बतलाता था यही अमंगल
बन्धु–बन्धु का रण होगा।
यही भयावह रण ब्राह्मण की
हत्या का कारण होगा।।21।।

अशकुन की परवाह न की¸
वह आज न रूकनेवाला था।
अहो¸ हमारी स्वतन्त्रता का
झण्डा झुकनेवाला था।।22।।

घोर विपिन में पहुँच गये
कातरता के बन्धन तोड़े।
हिंसक जीवों के पीछे
अपने अपने घोड़े छोड़े।।23।।

भीषण वार हुए जीवों पर
तरह–तरह के शोर हुए।
मारो ललकारों के रव
जंगल में चारों ओर हुए।।24।।

चीता यह¸ वह बाघ¸ शेर वह¸
शोर हुआ आखेट करो।
छेको¸ छेको हृदय–रक्त ले
निज बरछे को भेंट करो।।25।।

लगा निशाना ठीक हृदय में
रक्त–पगा जाता है वह।
चीते को जीते–जी पकड़ो
रीछ भगा जाता है वह।।26।।

उडे. पखेरू¸ भाग गये मृग
भय से शशक सियार भगे।
क्षण भर थमकर भगे मत्त गज
हरिण हार के हार भगे।।27।।

नरम–हृदय कोमल मृग–छौने
डौंक रहे थे इधर–उधर।
एक प्रलय का रूप खड़ा था
मेवाड़ी दल गया जिधर।।28।।

किसी कन्दरा से निकला हय¸
झाड़ी में फँस गया कहीं।
दौड़ रहा था¸ दौड़ रहा था¸
दल–दल में धँस गया कहीं।।29।।

लचकीली तलवार कहीं पर
उलझ–उलझ मुड़ जाती थी।
टाप गिरी¸ गिरि–कठिन शिक्षा पर
चिनगारी उड़ जाती थी।।30।।

हय के दिन–दिन हुंकारों से¸
भीषण–धनु–टंकारों से¸
कोलाहल मच गया भयंकर
मेवाड़ी–ललकारों से।।31।।

एक केसरी सोता था वन के
गिरि–गह्वर के अन्दर।
रोओं की दुर्गन्ध हवा से
फैल रही थी इधर उधर।।32।।

सिर के केसर हिल उठते
जब हवा झुरकती थी झुर–झुर;
फैली थीं टाँगे अवनी पर
नासा बजती थी घुरघुर।।33।।

नि:श्वासों के साथ लार थी
गलफर से चूती तर–तर।
खून सने तीखे दाँतों से
मौत काँपती थी थर–थर।।34।।

अन्धकार की चादर ओढ़े
निर्भय सोता था नाहर।।

मेवाड़ी–जन–मृगया से
कोलाहल होता था बाहर।।35।।

कलकल से जग गया केसरी
अलसाई आँखें खोलीं।
झुँझलाया कुछ गुर्राया
जब सुनी शिकारी की बोली।।36।।

पर गुर्राता पुन: सो गया
नाहर वह आझादी से।
तनिक न की परवाह किसी की
रंचक डरा न वादी से।।37
पर कोलाहल पर कोलाहल¸
किलकारों पर किलकारें।
उसके कानों में पड़ती थीं
ललकारों पर ललकारें।।38।।

सो न सका उठ गया क्रोध से
अँगड़ाकर तन झाड़ दिया।
हिलस उठा गिरि–गह्वर जब
नीचे मुख कर चिग्धाड़ दिया।।39।।

शिला–शिला फट उठी; हिले तरू¸
टूटे व्योम वितान गिरे।
सिंह–नाद सुनकर भय से जन
चित्त–पट–उत्तान गिरे।।40।।

धीरे–धीरे चला केसरी
आँखों में अंगार लिये।
लगे घेरने  राजपूत
भाला–बछरी–तलवार लिये।।41।।

वीर–केसरी रूका नहीं
उन क्षत्रिय–राजकुमारों से।
डरा न उनकी बिजली–सी
गिरने वाली तलवारों से।।42।।

छका दिया कितने जन को
कितनों को लड़ना सिखा दिया।
हमने भी अपनी माता का
दूध पिया है दिखा दिया।।43।।

चेत करो तुम राजपूत हो¸
राजपूत अब ठीक बनो।
मौन–मौन कह दिया सभी से
हम सा तुम निभीर्क बनो।।44
हम भी सिंह¸ सिंह तुम भी हो¸
पाला भी है आन पड़ा।
आओ हम तुम आज देख लें
हम दोनों में कौन बड़ा।।45।
घोड़ों की घुड़दौड़ रूकी
लोगों ने बंद शिकार किया।
शक्तसिंह ने हिम्मत कर बरछे
से उस पर वार किया।।46।।

आह न की बिगड़ी न बात
चएड़ी के भीषण वाहन की।
कठिन तड़ित सा तड़प उठा
कुछ भाले की परवाह न की।।47।।

काल–सदृश राणा प्रताप झट
तीखा शूल निराला ले¸
बढ़ा सिंह की ओर झपटकर
अपना भीषण–भाला ले।।48।।

ठहरो–ठहरो कहा सिंह को¸
लक्ष्य बनाकर ललकारा।
शक्तसिंह¸ तुम हटो सिंह को
मैंने अब मारा¸ मारा।।49।।

राजपूत अपमान न सहते¸
परम्परा की बान यही।
हटो कहा राणा ने पर
उसकी छाती उत्तान रही।।50।।

आगे बढ़कर कहा लक्ष्य को
मार नहीं सकते हो तुम।
बोल उठा राणा प्रताप ललकार
नहीं सकते हो तुम।।51।।

शक्तसिंह ने कहा बने हो
शूल चलानेवाले तुम।
पड़े नहीं हो शक्तसिंह सम
किसी वीर के पाले तुम।।52
क्यों कहते हो हटो¸ हटो¸
हूँ वीर नहीं रणधीर नहीं?
क्या सीखा है कहीं चलाना
भाला–बरछी–तीर नहीं?।।53।।

बोला राणा क्या बकते हो¸
मैंने तो कुछ कहा नहीं।
शक्तसिंह¸ बखरे का यह
आखेट¸ तुम्हारा रहा नहीं।।54।।

राजपूत–कुल के कलंक¸
धिक्कार तुम्हारी वाणी पर¸
बिना हेतु के झगड़ पड़े जो
वज` गिरे उस प्राणी पर।।55।।

राणा का सत्कार यही क्या¸
बन्धु–हृदय का प्यार यही?
क्या भाई के साथ तुम्हारा
है उत्तम व्यवहार यही?।।56।।

अब तक का अपराध क्षमा
आगे को काल निकाला यह
तेरा काम तमाम करेगा
मेरा भीषण भाला यह।।57।।

बात काटकर राणा की यह
शक्तसिंह फिर बोल उठा
बोल उठा मेवाड़ देश
इस बार हलाहल घोल उठा।।58।।

धार देखने को जिसने
तलवार चला दी उँगली पर।
उस अवसर पर शक्तसिंह वह
खेल गया अपने जी पर।।59।।

बार–बार कहते हो तुम क्या
अहंकार है भाले का?
ध्यान नहीं है क्या कुछ भी
मुझ भीषण–रण–मतवाले का।।60।।

राजपूत हूँ मुझे चाहिए
ऐसी कभी सलाह नहीं।
तुष्ट रहो या रूष्ट रहो¸
मुझको इसकी परवाह नहीं।।61।।

रूक सकता है ऐ प्रताप¸
मेरे उर का उद््गार नहीं।
बिना युद्ध के अब कदापि
है किसी तरह उद्धार नहीं।।62।।

मुख–सम्मुख ठहरा हूँ मैं¸
रण–सागर में लहरा हूँ मैं।
हो न युद्ध इस नम्र विनय पर
आज बना बहरा हूँ मैं।।63।।

विष बखेर कर बैर किया
राणा से ही क्या¸ लाखों से।
लगी बरसने चिनगारी
राणा की लोहित आँखों से।।64।।

क्रोध बढ़ा¸ आदेश बढ़ा¸
अब वार न रूकने वाला है।
कहीं नहीं पर यहीं हमारा
मस्तक झुकने वाला है।।65।।

तनकर राणा शक्तसिंह से
बोला – ठहरो ठहरो तुम।
ऐ मेरे भीषण भाला¸
भाई पर लहरो लहरो तुम।।66।।

पीने का है यही समय इच्छा
भर शोणित पी लो तुम।
बढ़ो बढ़ो अब वक्षस्थल में
घुसकर विजय अभी लो तुम।।67।।

शक्तसिंह¸ आखेट तुम्हारा
करने को तैयार हुआ।
लो कर में करवाल बचो अब
मेरा तुम पर वार हुआ।।68।।

खड़े रहो भाले ने तन को
लून किया अब लून किया!
खेद¸ महाराणा प्रताप ने¸
आज तुम्हारा खून किया।।69।।

देख भभकती आग क्रोध की
शक्तसिंह भी क्रुद्ध हुआ।
हा¸ कलंक की वेदी पर फिर
उन दोनों का युद्ध हुआ।।70।।

कूद पड़े वे अहंकार से
भीषण–रण की ज्वाला में।
रण–चण्डी भी उठी रक्त
पीने को भरकर प्याला में।।71।।

होने लगे वार हरके से
एकलिंग प्रतिकूल हुए।
मौत बुलानेवाले उनके
तीक्ष्ण अग्रसर शूल हुए।।72।।

क्षण–क्षण लगे पैतरा देने
बिगड़ गया रुख भालों का।
रक्षक कौन बनेगा अब इन
दोनों रण–मतवालों का।।73।।

दोनों का यह हाल देख
वन–देवी थी उर फाड़ रही।
भाई–भाई के विरोध से
काँप उठी मेवाड़–मही।।74।।

लोग दूर से देख रहे थे
भय से उनके वारों को।
किन्तु रोकने की न पड़ी
हिम्मत उन राजकुमारों को।।75।।

दोनों की आँखों पर परदे
पड़े मोह के काले थे।
राज–वंश के अभी–अभी
दो दीपक बुझनेवाले थे।।76।।

तब तक नारायण ने देखा
लड़ते भाई भाई को।
रूको¸ रूको कहता दौड़ा कुछ
सोचो मान–बड़ाई को।।77।।

कहा¸ डपटकर रूक जाओ¸
यह शिशोदिया–कुल–धर्म नहीं।
भाई से भाई का रण यह
कर्मवीर का कर्म नहीं।।78।।

राजपूत–कुल के कलंक¸
अब लज्जा से तुम झुक जाओ।
शक्तसिंह¸ तुम रूको रूको¸
राणा प्रताप¸ तुम रूक जाओ।।79।।

चतुर पुरोहित की बातों की
दोनों ने परवाह न की।
अहो¸ पुरोहित ने भी निज
प्राणों की रंचक चाह न की।।80।।

उठा लिया विकराल छुरा
सीने में मारा ब्राह्मण ने।
उन दोनों के बीच बहा दी
शोणित–धारा ब्राह्मण ने।।81।।

वन का तन रँग दिया रूधिर से
दिखा दिया¸ है त्याग यही।
निज स्वामी के प्राणों की
रक्षा का है अनुराग यही।।82।।

ब्राह्मण था वह ब्राह्मण था¸
हित राजवंश का सदा किया।
निज स्वामी का नमक हृदय का
रक्त बहाकर अदा किया।।83।।

जीवन–चपला चमक दमक कर
अन्तरिक्ष में लीन हुई।
अहो¸ पुरोहित की अनन्त में
जाकर ज्योति विलीन हुई।।84।।

सुनकर ब्राह्मण की हत्या
उत्साह सभी ने मन्द किया।
हाहाकार मचा सबने आखेट
खेलना बन्द किया।।85।।

खून हो गया खून हो गया
का जंगल में शोर हुआ।
धन्य धन्य है धन्य पुरोहित –
यह रव चारों ओर हुआ।।86।।

युगल बन्धु के दृग अपने को
लज्जा–पट से ढाँप उठे।
रक्त देखकर ब्राह्मण का
सहसा वे दोनों काँप उठे।।87।।

धर्म भीरू राणा का तन तो
भय से कम्पित और हुआ।
लगा सोचने अहो कलंकित
वीर–देश चित्तौर हुआ।।88।।

बोल उठा राणा प्रताप –
मेवाड़–देश को छोड़ो तुम।
शक्तसिंह¸ तुम हटो हटो¸
मुझसे अब नाता तोड़ो तुम।।89।।

शिशोदिया–कुल के कलंक¸
हा जन्म तुम्हारा व्यर्थ हुआ।
हाय¸ तुम्हारे ही कारण यह
पातक¸ महा अनर्थ हुआ।।90।।

सुनते ही यह मौन हो गया¸
घूँट घूँट विष–पान किया।
आज्ञा मानी¸ यही सोचता
दिल्ली को प्रस्थान किया।।91
हाय¸ निकाला गया आज दिन
मेरा बुरा जमाना है।
भूख लगी है प्यास लगी
पानी का नहीं ठिकाना है।।92
मैं सपूत हूँ राजपूत¸
मुझको ही जरा यकीन नहीं।
एक जगह सुख से बैठूँ¸ दो
अंगुल मुझे जमीन नहीं।।93
अकबर से मिल जाने पर हा¸
रजपूती की शान कहाँ!
जन्मभूमि पर रह जायेगा
हा¸ अब नाम–निशान कहाँ।।94।।

यह भी मन में सोच रहा था¸
इसका बदला लूँगा मैं।
क्रोध–हुताशन में आहुति
मेवाड़–देश की दूँगा मैं।।95।।

शिशोदिया में जन्म लिया यद्यपि
यह है कर्तव्य नहीं।
पर प्रताप–अपराध कभी
क्षन्तव्य नहीं¸ क्षन्तव्य नहीं।।96।।

शक्तसिंह पहुँचा अकबर भी
आकर मिला कलेजे से।
लगा छेदने राणा का उर
कूटनीति के तेजे से।।97।।

युगल–बन्धु–रण देख क्रोध से
लाल हो गया था सूरज।
मानों उसे मनाने को अम्बर पर
चढ़ती थी भू–रज।।98।।

किया सुनहला काम प्रकृति ने¸
मकड़ी के मृदु तारों पर।
छलक रही थी अन्तिम किरण्ों
राजपूत–तलवारों पर।।99।।

धीरे धीरे रंग जमा तक का
सूरज की लाली पर।
कौवों की बैठी पंचायत
तरू की डाली डाली पर।।100।।

चूम लिया शशि ने झुककर।
कोई के कोमल गालों को।
देने लगा रजत हँस हँसकर¸
सागर–सरिता–नालों को।।101।
हिंस्त्र जन्तु निकले गह्वर से
घ्ोर लिया गिरि झीलों को।
इधर मलिन महलों में आया
लाश सौंपकर भीलों को।।102।।

वंश–पुरोहित का प्रताप ने
दाह कर्म करवा डाला।
देकर घन ब्राह्मण–कुल के
खाली घर को भरवा डाला।।103।।

जहाँ लाश थी ब्राह्मण की
जिस जगह त्याग दिखलाया था।
चबूतरा बन गया जहाँ
प्राणों का पुष्प चढ़ाया था।।104।।

गया बन्ध¸ पर गया न गौरव¸
अपनी कुल–परिपाटी का।
पर विरोध भी कारण है
भीषण–रण हल्दीघाटी का।।105।।

मेवाड़¸ तुम्हारी आगे
अब हा¸ कैसी गति होगी।
हा¸ अब तेरी उन्नति में
क्या पग पग पर यति होगी?।।106।।

    द्वितीय सर्ग 

कर उन्मत्त प्रेम के
लेन–देन का मृदु–व्यापार।
ज्ञात न किसको था अकबर की
छिपी नीति का अत्याचार।।1।।

अहो¸ हमारी माँ–बहनों से
सजता था मीनाबाज़ार।
फैल गया था अकबर का वह
कितना पीड़ामय व्यभिचार।।2।।

अवसर पाकर कभी विनय–नत¸
कभी समद तन जाता था।
गरम कभी जल सा¸ पावक सा
कभी गरम बन जाता था।।3।।

मानसिंह की फूफी से
अकबर ने कर ली थी शादी।
अहो¸ तभी से भाग रही है
कोसों हमसे आजादी।।4।।

हो उठता था विकल देखकर
मधुर कपोलों की लाली।
पीता था अiग्न–सा कलियों
के अधरों की मधुमय प्याली।।5।।

करता था वह किसी जाति की
कान्त कामिनी से ठनगन।
कामातुर वह कर लेता था
किसी सुंदरी का चुम्बन।।6।।

था एक समय कुसुमाकर का
लेकर उपवन में बाल हिरन।
वन छटा देख कुछ उससे ही
गुनगुना रही थी बैठ किरन।।7।।

वह राका–शशि की ज्योत्स्ना सी
वह नव वसन्त की सुषमा सी।
बैठी बखेरती थी शोभा
छवि देख धन्य थे वन–वासी।।8।।

आँखों में मद की लाली थी¸
गालों पर छाई अरूणाई।
कोमल अधरों की शोभा थी
विद्रुम–कलिका सी खिल आई।।9।।

तन–कान्ति देखने को अपलक
थे खुले कुसुम–कुल–नयन बन्द।
उसकी साँसों की सुरभि पवन
लेकर बहता था मन्द–मन्द।।10।।

पट में तन¸ तन में नव यौवन
नव यौवन में छवि–माला थी।
छवि–माला के भीतर जलती
पावन–सतीत्व की ज्वाला थी।।11।।

थी एक जगह जग की शोभा
कोई न देह में अलंकार।
केवल कटि में थी बँधी एक
शोणित–प्यासी तीखी कटार।।12।।

हाथों से सुहला सुहलाकर
नव बाल हिरन का कोमल–तन
विस्मित सी उससे पूछ रही
वह देख देख वन–परिवर्तन।।13।।

“कोमल कुसुमों में मुस्काता
छिपकर आनेवाला कौन?
बिछी हुई पलकों के पथ पर
छवि दिखलानेवाला कौन?।।14।।

बिना बनाये बन जाते वन
उन्हें बनानेवाला कौन?
कीचक के छिद्रों में बसकर
बीन बजाने वाला कौन?।।16।।

कल–कल कोमल कुसुम–कुंज पर
मधु बरसाने वाला कौन?
मेरी दुनिया में आता है
है वह आने वाला कौन है?।।16।
छुमछुम छननन रास मचाकर
बना रहा मतवाला कौन?
मुसकाती जिससे कलिका है
है वह किस्मत वाला कौन?।।17।।

बना रहा है मत्त पिलाकर
मंजुल मधु का प्याला कौन
फैल रही जिसकी महिमा है
है वह महिमावाला कौन?।।18।।

मेरे बहु विकसित उपवन का
विभव बढ़ानेवाला कौन?
विपट–निचय के पूत पदों पर
पुष्प चढ़ाने वाला कौन?।।19।।

फैलाकर माया मधुकर को
मुग्ध बनाने वाला कौन?
छिपे छिपे मेरे आँगन में
हँसता आनेवाला कौन?।।20।।

महक रहा है मलयानिल क्यों?
होती है क्यों कैसी कूक?
बौरे–बौरे आमों का है¸
भाव और भाषा क्यों मूक।”।21।।

वह इसी तरह थी प्रकृति–मग्न¸
तब तक आया अकबर अधीर।
धीरे से बोला युवती से
वह कामातुर कम्पित–शरीर ।।22।।

“प्रेयसि! गालों की लाली में
मधु–भार भरा¸ मृदु प्यार भरा।
रानी¸ तेरी चल चितवन में
मेरे उर का संसार भरा।।23।।

मेरे इन प्यासे अधरों को
तू एक मधुर चुम्बन दे दे।
धीरे से मेरा मन लेकर
धीरे से अपना मन दे दे”।।24।।

यह कहकर अकबर बढ़ा समय
उसी सती सिंहनी के आगे।
आगे उसके कुल के गौरव
पावन–सतीत्व उर के आगे।।25।।

शिशोदिया–कुल–कन्या थी
वह सती रही पांचाली सी।
क्षत्राणी थी चढ़ बैठी
उसकी छाती पर काली सी।।26।।

कहा डपटकर – “बोल प्राण लूँ¸
या छोड़ेगा यह व्यभिचार?”
बोला अकबर – “क्षमा करो अब
देवि! न होगा अत्याचार”।।27।।

जब प्रताप सुनता था ऐसी
सदाचार की करूण–पुकार।
रण करने के लिए म्यान से
सदा निकल पड़ती तलवार।।28।।

 

तृतीय सर्ग

 

अखिल हिन्द का था सुल्तान¸
मुगल–राज कुल का अभिमान।
बढ़ा–चढ़ा था गौरव–मान¸
उसका कहीं न था उपमान।।1।।

सबसे अधिक राज विस्तार¸
धन का रहा न पारावार।
राज–द्वार पर जय जयकार¸
भय से डगमग था संसार।।2।।

नभ–चुम्बी विस्तृत अभिराम¸
धवल मनोहर चित्रित–धाम।
भीतर नव उपवन आराम¸
बजते थे बाजे अविराम।।3।।

संगर की सरिता कर पार
कहीं दमकते थे हथियार।
शोणित की प्यासी खरधार¸
कहीं चमकती थी तलवार।।4।।

स्वर्णिम घर में शीत प्रकाश
जलते थे मणियों के दीप।
धोते आँसू–जल से चरण
देश–देश के सकल महीप।।5।।

तो भी कहता था सुल्तान –
पूरा कब होगा अरमान।
कब मेवाड़ मिलेगा आन¸
राणा का होगा अपमान।।6।।

देख देख भीषण षड््यन्त्र¸
सबने मान लिया है मन्त्र।
पर वह कैसा वीर स्वतन्त्र¸
रह सकता न क्षणिक परतन्त्र।।7।।

कैसा है जलता अंगार¸
कैसा उसका रण–हुंकार।
कैसी है उसकी तलवार¸
अभय मचाती हाहाकार।।8।।

कितना चमक रहा है भाल¸
कितनी तनु कटि¸ वक्ष विशाल।
उससे जननी–अंक निहाल¸
धन्य धन्य माई का लाल।।9।।

कैसी है उसकी ललकार¸
कैसी है उसकी किलकार।
कैसी चेतक–गति अविकार¸
कैसी असि कितनी खरधार।।10।।

कितने जन कितने सरदार¸
कैसा लगता है दरबार।
उस पर क्यों इतने बलिहार¸
उस पर जन–रक्षा का भार।।11।।

किसका वह जलता अभिशाप¸
जिसका इतना भ्ौरव–ताप।
कितना उसमें भरा प्रताप¸
अरे! अरे! साकार प्रताप।।12।।

कैसा भाला कैसी म्यान¸
कितना नत कितना उत्तान!
पतन नहीं दिन–दिन उत्थान¸
कितना आजादी का ध्यान।।13।।

कैसा गोरा–काला रंग¸
जिससे सूरज शशि बदरंग।
जिससे वीर सिपाही तंग¸
जिससे मुगल–राज है दंग।।14।।

कैसी ओज–भरी है देह¸
कैसा आँगन कैसा गेह।
कितना मातृ–चरण पर नेह¸
उसको छू न गया संदेह।।15।।

कैसी है मेवाड़ी–आन;
कैसी है रजपूती शान।
जिस पर इतना है कुबार्न¸
जिस पर रोम–रोम बलिदान।।16।।

एक बार भी मान–समान¸
मुकुट नवा करता सम्मान।
पूरा हो जाता अरमान¸
मेरा रह जाता अभिमान।।17।।

यही सोचते दिन से रात¸
और रात से कभी प्रभात।
होता जाता दुबर्ल गात¸
यद्यपि सुख या वैभव–जात।।18।।

कुछ दिन तक कुछ सोच विचार¸
करने लगा सिंह पर वार।
छिपी छुरी का अत्याचार¸
रूधिर चूसने का व्यापार।।19।।

करता था जन पर आघात¸
उनसे मीठी मीठी बात।
बढ़ता जाता था दिन–रात¸
वीर शत्रु का यह उत्पात।।20।।

इधर देखकर अत्याचार¸
सुनकर जन की करूण–पुकार।
रोक शत्रु के भीषण–वार¸
चेतक पर हो सिंह सवार।।21।।

कह उठता था बारंबार¸
हाथों में लेकर तलवार –
वीरों¸ हो जाओ तैयार¸
करना है माँ का उद्धार।।22।।

 

     चतुर्थ सर्ग

 

पर मृदु कोमल फूल¸
पावक की ज्वाला पर तूल।
सुई–नोक पर पथ की धूल¸
बनकर रहता था अनुकूल।।1।।

बाहर से करता सम्मान¸
बह अजिया–कर लेता था न।
कूटनीति का तना वितान¸
उसके नीचे हिन्दुस्तान।।2।।

अकबर कहता था हर बार –
हिन्दू मजहब पर बलिहार।

मेरा हिन्दू से सत्कार;
मुझसे हिन्दू का उपकार।।3।।

यही मौलवी से भी बात¸
कहता उत्तम है इस्लाम।
करता इसका सदा प्रचार¸
मेरा यह निशि–दिन का काम।।4।।

उसकी यही निराली चाल¸
मुसलमान हिन्दू सब काल।
उस पर रहते सदा प्रसन्न¸
कहते उसे सरल महिपाल।।5।।

कभी तिलक से शोभित भाल¸
साफा कभी शीश पर ताज।
मस्जिद में जाकर सविनोद¸
पढ़ता था वह कभी नमाज।।6।।

एक बार की सभा विशाल¸
आज सुदिन¸ शुभ–मह¸ शुभ–योग।
करने आये धर्म–विचार¸
दूर दूर से ज्ञानी लोग।।7।।

तना गगन पर एक वितान¸
नीचे बैठी सुधी–जमात।
ललित–झाड़ की जगमग ज्योति¸
जलती रहती थी दिन–रात।।8।।

एक ओर पण्डित–समुदाय¸
एक ओर बैठे सरदार।
एक ओर बैठा भूपाल¸
मणि–चौकी पर आसन मार।।9।।

पण्डित–जन के शास्त्र–विचार¸
सुनता सदा लगातार ध्यान।
हिला हिलाकर शिर सविनोद¸
मन्द मन्द करता मुसकान।।10।।

कभी मौलवी की भी बात¸
सुनकर होता मुदित महान््।
मोह–मग्न हो जाता भूप¸
कभी धर्म–मय सुनकर गान।।11।।

पाकर मानव सहानुभूति¸
अपने को जाता है भूल।
वशीभूत होकर सब काम¸
करता है अपने प्रतिकूल।।12।।

माया बलित सभा के बीच¸
यही हो गया सबका हाल।
जादू का पड़ गया प्रभाव¸
सबकी मति बदली तत्काल।।13।।

एक दिवस सुन सब की बात¸
उन पर करके क्षणिक विचार।
बोल उठा होकर गम्भीर –
सब धर्मों से जन–उद्धार।।14।।

पर मुझसे भी करके क्लेश¸
सुनिए ईश्वर का सन्देश।
मालिक का पावन आदेश¸
उस उपदेशक का उपदेश।।15।।

प्रभु का संसृति पर अधिकार¸
उसका मैं धावन का अविकार।।

यह भव–सागर कठिन अपार¸
दीन–इलाही से उद्धार।।16।।

इसका करता जो विश्वास¸
उसको तनिक न जग का त्रास।
उसकी बुझ जाती है प्यास¸
उसके जन्म–मरण का नाश।।17।।

इससे बढ़ा सुयश–विस्तार¸
दीन–इलाही का सत्कार।
बुध जन को तब राज–विचार¸
सबने किया सभय स्वीकार।।18।।

हिन्दू–जनता ने अभिमान¸
छोड़ा रामायण का गान।
दीन–इलाही पर कुबार्न¸
मुसलमान से अलग कुरान।।19।।

तनिक न बा`ह्मण–कुल उत्थान¸
रही न क्षत्रियपन की आन।
गया वैश्य–कुल का सम्मान¸
शूद्र जाति का नाम–निशान।।20।।

राणा प्रताप से अकबर से¸
इस कारण वैर–विरोध बढ़ा।
करते छल–छल परस्पर थे¸
दिन–दिन दोनों का क्रोध बढ़ा।।21।।

कूटनीति सुनकर अकबर की¸
राणा जो गिनगिना उठा।
रण करने के लिए शत्रु से¸
चेतक भी हिनहिना उठा।।22।।
    पंचम सर्ग

 

भरा रहता अकबर का
सुरभित जय–माला से।
सारा भारत भभक रहा था
क्रोधानल–ज्वाला से।।1।।

रत्न–जटित मणि–सिंहासन था
मण्डित रणधीरों से।
उसका पद जगमगा रहा था
राजमुकुट–हीरों से।।2।।

जग के वैभव खेल रहे थे
मुगल–राज–थाती पर।
फहर रहा था अकबर का
झण्डा नभ की छाती पर।।3।।

यह प्रताप यह विभव मिला¸
पर एक मिला था वादी।
रह रह कांटों सी चुभती थी
राणा की आजादी।।4।।

कहा एक वासर अकबर ने –
“मान¸ उठा लो भाला¸
शोलापुर को जीत पिन्हा दो¸
मुझे विजय की माला।।5।।

हय–गज–दल पैदल रथ ले लो
मुगल–प्रताप बढ़ा दो।
राणा से मिलकर उसको भी
अपना पाठ पढ़ा दो।।6।।

ऐसा कोई यत्न करो
बन्धन में कस लेने को।
वही एक विषधर बैठा है
मुझको डस लेने को्”।।7।।

मानसिंह ने कहा –्”आपका
हुकुम सदा सिर पर है।
बिना सफलता के न मान यह
आ सकता फिरकर है।”।।8।।

यह कहकर उठ गया गर्व से
झुककर मान जताया।
सेना ले कोलाहल करता
शोलापुर चढ़ आया।।9।।

युद्ध ठानकर मानसिंह ने
जीत लिया शोलापुर।
भरा विजय के अहंकार से
उस अभिमानी का उर।।10।।

किसे मौत दूं¸ किसे जिला दूं¸
किसका राज हिला दूं?
लगा सोचने किसे मींजकर
रज में आज मिला दूं।।11।।

किसे हंसा दूं बिजली–सा मैं¸
घन–सा किसै रूला दूं?
कौन विरोधी है मेरा
फांसी पर जिसे झुला दूं।।12।।

बनकर भिक्षुक दीन जन्म भर
किसे झेलना दुख है?
रण करने की इच्छा से
जो आ सकता सम्मुख है।।13।।

कहते ही यह ठिठक गया¸
फिर धीमे स्वर से बोला।
शोलापुर के विजय–गर्व पर
गिरा अचानक गोला।।14।।

अहो अभी तो वीर–भूमि
मेवाड़–केसरी खूनी।
गरज रहा है निर्भय मुझसे
लेकर ताकत दूनी।।15।।

स्वतन्त्रता का वीर पुजारी
संगर–मतवाला है।
शत–शत असि के सम्मुख
उसका महाकाल भाला है।।16।।

धन्य–धन्य है राजपूत वह
उसका सिर न झुका है।
अब तक कोई अगर रूका तो
केवल वही रूका है।।17।।

निज प्रताप–बल से प्रताप ने
अपनी ज्योति जगा दी।
हमने तो जो बुझ न सके¸
कुछ ऐसी आग लगा दी।।18।।

अहो जाति को तिलांजली दे
हुए भार हम भू के।
कहते ही यह ढुलक गये
दो–चार बूंद आंसू के।।19।।

किन्तु देर तक टिक न सका
अभिमान जाति का उर में।
क्या विहंसेगा विटप¸ लगा है
यदि कलंक अंकुर में।।20।।

एक घड़ी तक मौन पुन:
कह उठा मान गरवीला–
देख काल भी डर सकता
मेरी भीषण रण–लीला।।21।।

वसुधा का कोना धरकर
चाहूं तो विश्व हिला दूं।
गगन–मही का क्षितिज पकड़
चाहूं तो अभी मिला दूं।।22।।

राणा की क्या शक्ति उसे भी
रण की कला सिखा दूं।
मृत्यु लड़े तो उसको भी
अपने दो हाथ दिखा दूं।।23।।

पथ में ही मेवाड़ पड़ेगा
चलकर निश्चय कर लूं।
मान रहा तो कुशल¸ नहीं तो
संगर से जी भर लूं।।24।।

युद्ध महाराणा प्रताप से
मेरा मचा रहेगा।
मेरे जीते–जी कलंक से
क्या वह बचा रहेगा?।।25।।

मानी मान चला¸ सोचा
परिणाम न कुछ जाने का।
पास महाराणा के भेजा
समाचार आने का।।26।।

मानसिंह के आने का
सन्देश उदयपुर आया।
राणा ने भी अमरसिंह को
अपने पास बुलाया।।27।।

कहा –! मिलने आता है
मानसिंह अभिमानी।
छल है¸ तो भी मान करो
लेकर लोटा भर पानी।।28।।

किसी बात की कमी न हो
रह जाये आन हमारी।
पुत्र! मान के स्वागत की
तुम ऐसी करो तयारी्”।।29।।

मान लिया आदेश¸ स्वर्ण से
सजे गये दरवाजे।
मान मान के लिये मधुर
बाजे मधुर–रव से बाजे।।30।।

जगह जगह पर सजे गये
फाटक सुन्दर सोने के।
बन्दनवारों से हंसते थे
घर कोने कोने के।।31।।

जगमग जगमग ज्योति उठी जल¸
व्याकुल दरबारी–जन¸
नव गुलाब–वासित पानी से
किया गया पथ–सिंचन।।32।।

शीतल–जल–पूरित कंचन के
कलसे थे द्वारों पर।
चम–चम पानी चमक रहा था
तीखी तलवारों पर।।33।।

उदयसिंधु के नीचे भी
बाहर की शोभा छाई।
हृदय खोलकर उसने भी
अपनी श्रद्धा दिखलाई।।34।।

किया अमर ने धूमधाम से
मानसिंह का स्वागत।
मधुर–मधुर सुरभित गजरों के
बोझे से वह था नत।।35।।

कहा देखकर अमरसिंह का
विकल प्रेम अपने मन में।
होगा यह सम्मान मुझे
विश्वास न था सपने में।।36।।

शत–शत तुमको धन्यवाद है¸
सुखी रहो जीवन भर।
झरें शीश पर सुमन–सुयश के
अम्बर–तल से झर–झर।।37।।

धन्यवाद स्वीकार किया¸
कर जोड़ पुन: वह बोला।
भावी भीषण रण का
दरवाजा धीरे से खोला –।।38।।

समय हो गया भूख लगी है¸
चलकर भोजन कर लें।
थके हुए हैं ये मृदु पद
जल से इनको तर कर लें।”।।39।।

सुनकर विनय उठा केवल रख
पट रेशम का तन पर।
धोकर पद भोजन करने को
बैठ गया आसन पर।।40।।

देखे मधु पदार्थ पन्ने की
मृदु प्याली प्याली में।
चावल के सामान मनोहर
सोने की थाली में।।41।।

घी से सनी सजी रोटी थी¸
रत्नों के बरतन में।
शाक खीर नमकीन मधुर¸
चटनी चमचम कंचन में।।42।।

मोती झालर से रक्षित¸
रसदार लाल थाली में।
एक ओर मीठे फल थे¸
मणि–तारों की डाली में।।43।।

तरह–तरह के खाद्य–कलित¸
चांदी के नये कटोरे
भरे खराये घी से देखे¸
नीलम के नव खोरे।।44।।

पर न वहां भी राणा था
बस ताड़ गया वह मानी।
रहा गया जब उसे न तब वह
बोल उठा अभिमानी।।45।।

“अमरसिंह¸ भोजन का तो
सामान सभी सम्मुख है।
पर प्रताप का पता नहीं है
एक यही अब दुख है।।46।।

मान करो पर मानसिंह का
मान अधूरा होगा।
बिना महाराणा के यह
आतिथ्य न पूरा होगा।।47।।

जब तक भोजन वह न करेंगे
एक साथ आसन पर;
तब तक कभी न हो सकता है
मानसिंह का आदर।।48।।

अमरसिंह¸ इसलिए उठो तुम
जाओ मिलो पिता से;
मेरा यह सन्देश कहो
मेवाड़–गगन–सविता से।।49।।

बिना आपके वह न ठहर पर
ठहर सकेंगे क्षण भी।
छू सकते हैं नहीं हाथ से¸
चावल का लघु कण भी।”।।50।।

अहो¸ विपत्ति में देश पड़ेगा
इसी भयानक तिथि से।
गया लौटकर अमरसिंह फिर
आया कहा अतिथि से।।51।।

“मैं सेवा के लिए आपकी
तन–मन–धन से आकुल।
प्रभो¸ करें भोजन¸ वह हैं
सिर की पीड़ा से व्याकुल।”।।51।।

पथ प्रताप का देख रहा था¸
प्रेम न था रोटी में।
सुनते ही वह कांप गया¸
लग गई आग चोटी में।।53।।

घोर अवज्ञा से ज्वाला सी¸
लगी दहकने त्रिकुटी।
अधिक क्रोध से वक्र हो गई¸
मानसिंह की भृकुटी।।54।।

चावल–कण दो–एक बांधकर
गरज उठा बादल सा।
मानो भीषण क्रोध–वह्नि से¸
गया अचानक जल सा।।55।।

“कुशल नहीं¸ राणा प्रताप का
मस्तक की पीड़ा से।
थहर उठेगा अब भूतल
रण–चण्डी की क्रीड़ा से।।56।।

जिस प्रताप की स्वतन्त्रता के
गौरव की रक्षा की।
खेद यही है वही मान का
कुछ रख सका न बाकी।।57।।

बिना हेतु के होगा ही वह
जो कुछ बदा रहेगा।
किन्तु महाराणा प्रताप अब
रोता सदा रहेगा।।58।।

मान रहेगा तभी मान का
हाला घोल उठे जब।
डग–डग–डग ब्रह्माण्ड चराचर
भय से डोल उठे जब।”।।59।।

चकाचौंध सी लगी मान को
राणा की मुख–भा से।
अहंकार की बातें सुन
जब निकला सिंह गुफा से।।60।।

दक्षिण–पद–कर आगे कर
तर्जनी उठाकर बोला।
गिरने लगा मान–छाती पर
गरज–गरज कर गोला।।61।।

वज्र–नाद सा तड़प उठा
हलचल थी मरदानों में।
पहुंच गया राणा का वह रव
अकबर के कानों में।।62।।

“अरे तुर्क¸ बकवाद करो मत
खाना हो तो खाओ।
या बधना का ही शीतल–जल
पीना हो तो जाओ।।63।।

जो रण को ललकार रहे हो
तो आकर लड़ लेना।
चढ़ आना यदि चाह रहे
चित्तौड़ वीर–गढ़ लेना।।64।।

कहां रहे जब स्वतन्त्रता का
मेरा बिगुल बजा था?
जाति–धर्म के मुझ रक्षक को
तुमने क्या समझा था।।65।।

अभी कहूं क्या¸ प्रश्नों का
रण में क्या उत्तर दूंगा।
महामृत्यु के साथ–साथ
जब इधर–उधर लहरूंगा।।66।।

भभक उठेगी जब प्रताप के
प्रखर तेज की आगी।
तब क्या हूं बतला दूंगा
ऐ अम्बर कुल के त्यागी।्”।।67।।

अभी मान से राणा से था
वाद–विवाद लगा ही¸
तब तक आगे बढ़कर बोला
कोई वीर–सिपाही।।68।।

“करो न बकझक लड़कर ही
अब साहस दिखलाना तुम;
भगो¸ भगो¸ अपने फूफे को
भी लेते आना तुम।”।।69।।

महा महा अपमान देखकर
बढ़ी क्रोध की ज्वाला।
मान कड़ककर बोल उठा फिर
पहन आर्च की माला–।।70।।

“मानसिंह की आज अवज्ञा
कर लो और करा लो;
बिना विजय के ऐ प्रताप
तुम¸ विजय–केतु फहरा लो।।71।।

पर इसका मैं बदल लूंगा¸
अभी चन्द दिवसों में;
झुक जाओगे भर दूंगा जब
जलती ज्वाल नसों में।।72।।

ऐ प्रताप¸ तुम सजग रहो
अब मेरी ललकारों से;
अकबर के विकराल क्रोध से¸
तीखी तलवारों से।।73।।

ऐ प्रताप¸ तैयार रहो मिटने
के लिए रणों में;
हाथों में हथकड़ी पहनकर
बेड़ी निज चरणों में।।74।।

मानसिंह–दल बन जायेगा
जब भीषण रण–पागल।
ऐ प्रताप¸ तुम झुक जाओगे
झुक जायेगा सेना–बल।।75।।

ऐ प्रताप¸ तुम सिहर उठो
सांपिन सी करवालों से;
ऐ प्रताप¸ तुम भभर उठो
तीखे–तीखे भालों से।।76।।

“गिनो मृत्यु के दिन्” कहकर
घोड़े को सरपट छोड़ा¸
पहुंच गया दिल्ली उड़ता वह
वायु–वेग से घोड़ा।।77।।

इधर महाराणा प्रताप ने
सारा घर खुदवाया।
धर्म–भीरू ने बार–बार
गंगा–जल से धुलवाया।।78।।

उतर गया पानी¸ प्यासा था¸
तो भी पिया न पानी।
उदय–सिन्धु था निकट डर गया
अपना दिया न पानी।।79।।

राणा द्वारा मानसिंह का
यह जो मान–हरण था।
हल्दीघाटी के होने का
यही मुख्य कारण था।।80।।

लगी सुलगने आग समर की
भीषण आग लगेगी।
प्यासी है अब वीर–रक्त से
मां की प्यास बुझेगी।।81।।

स्वतन्त्रता का कवच पहन
विश्वास जमाकर भाला में।
कूद पड़ा राणा प्रताप उस
समर–वह्नि की ज्वाला में।।82।।

 

षष्ठ सर्ग

 

मणि के बन्दनवार¸
उनमें चांदी के मृदु तार।
जातरूप के बने किवार
सजे कुसुम से हीरक–द्वार।।1।।

दिल्ली के उज्जवल हर द्वार¸
चमचम कंचन कलश अपार।
जलमय कुश–पल्लव सहकार
शोभित उन पर कुसुमित हार।।2।।

लटक रहे थे तोरण–जाल¸
बजती शहनाई हर काल।
उछल रहे थे सुन स्वर ताल¸
पथ पर छोटे–छोटे बाल।।3।।

बजते झांझ नगारे ढोल¸
गायक गाते थे उर खोल।
जय जय नगर रहा था बोल¸
विजय–ध्वजा उड़ती अनमोल।।4।।

घोड़े हाथी सजे सवार¸
सेना सजी¸ सजा दरबार।
गरज गरज तोपें अविराम
छूट रही थीं बारंबार।।5।।

झण्डा हिलता अभय समान
मादक स्वर से स्वागत–गान।
छाया था जय का अभिमान
भू था अमल गगन अम्लान।।6।।

दिल्ली का विस्तृत उद्यान
विहंस उठा ले सुरभि–निधान।
था मंगल का स्वर्ण–विहान
पर अतिशय चिन्तित था मान।।7।।

सुनकर शोलापुर की हार
एक विशेष लगा दरबार।
आये दरबारी सरदार
पहनेगा अकबर जय–हार।।8।।

बैठा भूप सहित अभिमान
पर न अभी तक आया मान।
दुख से कहता था सुल्तान –
्’कहां रह गया मान महान्््’।।9।।

तब तक चिन्तित आया मान
किया सभी ने उठ सम्मान।
थोड़ा सा उठकर सुल्तान
बोला ‘आओ¸ बैठो मान्’।।10।।

की अपनी छाती उत्तान
अब आई मुख पर मुस्कान।
किन्तु मान–मुख पर दे ध्यान
भय से बोल उठा सुल्तान।।11।।

“ऐ मेरे उर के अभिमान¸
शोलापुर के विजयी मान!
है किस ओर बता दे ध्यान¸
क्यों तेरा मुख–मण्डल म्लान।।12।।

तेरे स्वागत में मधु–गान
जगह जगह पर तने वितान।
क्या दुख है बतला दे मान¸
तुझ पर यह दिल्ली कुबार्न।”।।13।।

अकबर के सुन प्रश्न उदार
देख सभासद–जन के प्यार।
लगी ढरकने बारम्बार
आंखों से आंसू की धार।।14।।

दुख के उठे विषम उद्गार
सोच–सोच अपना अपकार।
लगा सिसकने मान अपार
थर–थर कांप उठा दरबार।।15।।

घोर अवज्ञा का कर ध्यान
बोला सिसक–सिसक कर मान–
“तेरे जीते–जी सुल्तान!
ऐसा हो मेरा अपमान्”।।16।।

सबने कहा “अरे¸ अपमान!
मानसिंह तेरा अपमान!”
“हां¸ हां मेरा ही अपमान¸
सरदारो! मेरा अपमान।”।।17।।

कहकर रोने लगा अपार¸
विकल हो रहा था दरबार।
रोते ही बोला – “सरकार¸
असहनीय मेरा अपकार।।18।।

ले सिंहासन का सन्देश¸
सिर पर तेरा ले आदेश।
गया निकट मेवाड़–नरेश¸
यही व्यथा है¸ यह ही क्लेश।।19।।

आंखों में लेकर अंगार
क्षण–क्षण राणा का फटकार–
‘तुझको खुले नरक के द्वार
तुझको जीवन भर धिक्कार।।20।।

तेरे दर्शन से संताप
तुझको छूने से ही पाप।
हिन्दू–जनता का परिताप
तू है अम्बर–कुल पर शाप।।21।।

स्वामी है अकबर सुल्तान
तेरे साथी मुगल पठान।
राणा से तेरा सम्मान
कभी न हो सकता है मान।।22।।

करता भोजन से इनकार
अथवा कुत्ते सम स्वीकार।
इसका आज न तनिक विचार
तुझको लानत सौ सौ बार।।23।।

म्लेंच्छ–वंश का तू सरदार¸
तू अपने कुल का अंगार।’
इस पर यदि उठती तलवार
राणा लड़ने को तैयार।।24।।

उसका छोटा सा सरदार
मुझे द्वार से दे दुत्कार।
कितना है मेरा अपकार
यही बात खलती हर बार।।25।।

शेष कहा जो उसने आज¸
कहने में लगती है लाज।
उसे समझ ले तू सिरताज
और बन्धु यह यवन–समाज।”।।26।।

वर्णन के थे शब्द ज्वलन्त
बढ़े अचानक ताप अनन्त।
सब ने कहा यकायक हन्त
अब मेवाड़ देश का अन्त।।27।।

बैठे थे जो यवन अमीर
लगा हृदय में उनके तीर।
अकबर का हिल गया शरीर
सिंहासन हो गया अधीर।।28।।

कहां पहनता वह जयमाल
उर में लगी आग विकराल।
आंखें कर लोहे सम लाल
भभक उठा अकबर तत्काल।।29।।

कहा – रह सकता चुपचाप¸
सह सकता न मान–संताप
बढ़ा हृदय का मेरे ताप
आन रहे¸ या रहे प्रताप।।30।।

वीरो! अरि को दो ललकार¸
उठो¸ उठा लो भीम कटार।
घुसा–घुसा अपनी तलवार¸
कर दो सीने के उस पार।।31।।

महा महा भीषण रण ठान
ऐ भारत के मुगल पठान!
रख लो सिंहासन की शान¸
कर दो अब मेवाड़ मसान।।32।।

है न तिरस्कृत केवल मान¸
मुगल–राज का भी अपमान।
रख लो मेरी अपनी आन
कर लो हृदय–रक्त का पान।।33।।

ले लो सेना एक विशाल
मान¸ उठा लो कर से ढाल।
शक्तसिंह¸ ले लो करवाल
बदला लेने का है काल।।34।।

सरदारों¸ अब करो न देर
हाथों में ले लो शमशेर।
वीरो¸ लो अरिदल को घेर
कर दो काट–काटकर ढेर।।।35।।

क्षण भर में निकले हथियार
बिजली सी चमकी तलवार।
घोड़े¸ हाथी सजे अपार
रण का भीषणतम हुंकार।।36।।

ले सेना होकर उत्तान
ले करवाल–कटार–कमान।
चला चुकाने बदला मान
हल्दीघाटी के मैदान।।37।।

मानसिंह का था प्रस्थान
सत्य–अहिंसा का बलिदान।
कितना हृदय–विदारक ध्यान
शत–शत पीड़ा का उत्थान।।38।।

 

सप्तम सर्ग

 

अभिमानी मान–अवज्ञा से¸
थर–थर होने संसार लगा।
पर्वत की उन्नत चोटी पर¸
राणा का भी दरबार लगा।।1।।

अम्बर पर एक वितान तना¸
बलिहार अछूती आनों पर।
मखमली बिछौने बिछे अमल¸
चिकनी–चिकनी चट्टानों पर।।2।।

शुचि सजी शिला पर राणा भी
बैठा अहि सा फुंकार लिये।
फर–फर झण्डा था फहर रहा
भावी रण का हुंकार लिये।।3।।

भाला–बरछी–तलवार लिये
आये खरधार कटार लिये।
धीरे–धीरे झुक–झुक बैठे
सरदार सभी हथियार लिये।।4।।

तरकस में कस–कस तीर भरे
कन्धों पर कठिन कमान लिये।
सरदार भील भी बैठ गये
झुक–झुक रण के अरमान लिये।।5।।

जब एक–एक जन को समझा
जननी–पद पर मिटने वाला।
गम्भीर भाव से बोल उठा
वह वीर उठा अपना भाला।।6।।

तरू–तरू के मृदु संगीत रूके
मारूत ने गति को मंद किया।
सो गये सभी सोने वाले
खग–गण ने कलरव बन्द किया।।7।।

राणा की आज मदद करने
चढ़ चला इन्दु नभ–जीने पर¸
झिलमिल तारक–सेना भी आ
डट गई गगन के सीने पर।।8।।

गिरि पर थी बिछी रजत चादर¸
गह्वर के भीतर तम–विलास।
कुछ–कुछ करता था तिमिर दूर¸
जुग–जुग जुगनू का लघु प्रकाश।।9।।

गिरि अरावली के तरू के थे
पत्ते–पत्ते निष्कम्प अचल।
वन–वेलि–लता–लतिकाएं भी
सहसा कुछ सुनने को निश्चल।।10।।

था मौन गगन¸ नीरव रजनी¸
नीरव सरिता¸ नीरव तरंग।
केवल राणा का सदुपदेश¸
करता निशीथिनी–नींद भंग।।11।।

वह बोल रहा था गरज–गरज¸
रह–रह कर में असि चमक रही।
रव–वलित बरसते बादल में¸
मानों बिजली थी दमक रही।।12।।

“सरदारो¸ मान–अवज्ञा से
मां का गौरव बढ़ गया आज।
दबते न किसी से राजपूत
अब समझेगा बैरी–समाज।”।।13।।

वह मान महा अभिमानी है
बदला लेगा ले बल अपार।
कटि कस लो अब मेरे वीरो¸
मेरी भी उठती है कटार।।14।।

भूलो इन महलों के विलास
गिरि–गुहा बना लो निज–निवास।
अवसर न हाथ से जाने दो
रण–चण्डी करती अट्टहास।।15।।

लोहा लेने को तुला मान
तैयार रहो अब साभिमान।
वीरो¸ बतला दो उसे अभी
क्षत्रियपन की है बची आन।।16।।

साहस दिखलाकर दीक्षा दो
अरि को लड़ने की शिक्षा दो।
जननी को जीवन–भिक्षा दो
ले लो असि वीर–परिक्षा दो।।17।।

रख लो अपनी मुख–लाली को
मेवाड़–देश–हरियाली को।
दे दो नर–मुण्ड कपाली को
शिर काट–काटकर काली को।।18।।

विश्वास मुझे निज वाणी का
है राजपूत–कुल–प्राणी का।
वह हट सकता है वीर नहीं
यदि दूध पिया क्षत्राणी का।।19।।

नश्वर तनको डट जाने दो
अवयव–अवयव छट जाने दो।
परवाह नहीं¸ कटते हों तो
अपने को भी कट जाने दो।।20।।

अब उड़ जाओ तुम पांखों में
तुम एक रहो अब लाखों में।
वीरो¸ हलचल सी मचा–मचा
तलवार घुसा दो आंखों में।।21।।

यदि सके शत्रु को मार नहीं
तुम क्षत्रिय वीर–कुमार नहीं।
मेवाड़–सिंह मरदानों का
कुछ कर सकती तलवार नहीं।।22।।

मेवाड़–देश¸ मेवाड़–देश¸
समझो यह है मेवाड़–देश।
जब तक दुख में मेवाड़–देश।
वीरो¸ तब तक के लिए क्लेश।।23।।

सन्देश यही¸ उपदेश यही
कहता है अपना देश यही।
वीरो दिखला दो आत्म–त्याग
राणा का है आदेश यही।।24।।

अब से मुझको भी हास शपथ¸
रमणी का वह मधुमास शपथ।
रति–केलि शपथ¸ भुजपाश शपथ¸
महलों के भोग–विलास शपथ।।25।।

सोने चांदी के पात्र शपथ¸
हीरा–मणियों के हार शपथ।
माणिक–मोति से कलित–ललित
अब से तन के श्रृंगार शपथ।।26।।

गायक के मधुमय गान शपथ
कवि की कविता की तान शपथ।
रस–रंग शपथ¸ मधुपान शपथ
अब से मुख पर मुसकान शपथ।।27।।

मोती–झालर से सजी हुई
वह सुकुमारी सी सेज शपथ।
यह निरपराध जग थहर रहा
जिससे वह राजस–तेज शपथ।।28।।

पद पर जग–वैभव लोट रहा
वह राज–भोग सुख–साज शपथ।
जगमग जगमग मणि–रत्न–जटित
अब से मुझको यह ताज शपथ।।29।
जब तक स्वतन्त्र यह देश नहीं
है कट सकता नख केश नहीं।
मरने कटने का क्लेश नहीं
कम हो सकता आवेश नहीं।।30।।

परवाह नहीं¸ परवाह नहीं
मैं हूं फकीर अब शाह नहीं।
मुझको दुनिया की चाह नहीं
सह सकता जन की आह नहीं।।31।।

अरि सागर¸ तो कुम्भज समझो
बैरी तरू¸ तो दिग्गज समझो।
आंखों में जो पट जाती वह
मुझको तूफानी रज समझो।।32।।

यह तो जननी की ममता है
जननी भी सिर पर हाथ न दे।
मुझको इसकी परवाह नहीं
चाहे कोई भी साथ न दे।।33।।

विष–बीज न मैं बोने दूंगा
अरि को न कभी सोने दूंगा।
पर दूध कलंकित माता का
मैं कभी नहीं होने दूंगा।”।।34।।

प्रण थिरक उठा पक्षी–स्वर में
सूरज–मयंक–तारक–कर में।
प्रतिध्वनि ने उसको दुहराया
निज काय छिपाकर अम्बर में।।35।।

पहले राणा के अन्तर में
गिरि अरावली के गह्वर में।
फिर गूंज उठा वसुधा भर में
वैरी समाज के घर–घर में।।36।।

बिजली–सी गिरी जवानों में
हलचल–सी मची प्रधानों में।
वह भीष्म प्रतिज्ञा घहर पड़ी
तत्क्षण अकबर के कानों में।।37।।

प्रण सुनते ही रण–मतवाले
सब उछल पड़े ले–ले भाले।
उन्नत मस्तक कर बोल उठे
“अरि पड़े न हम सबके पाले।।38।।

हम राजपूत¸ हम राजपूत¸
मेवाड़–सिंह¸ हम राजपूत।
तेरी पावन आज्ञा सिर पर¸
क्या कर सकते यमराज–दूत।।39।।

लेना न चाहता अब विराम
देता रण हमको स्वर्ग–धाम।
छिड़ जाने दे अब महायुद्ध
करते तुझको शत–शत प्रणाम।।40।।

अब देर न कर सज जाने दे
रण–भेरी भी बज जाने दे।
अरि–मस्तक पर चढ़ जाने दे
हमको आगे बढ़ जाने दे।।41।।

लड़कर अरि–दल को दर दें हम¸
दे दे आज्ञा ऋण भर दें हम¸
अब महायज्ञ में आहुति बन
अपने को स्वाहा कर दें हम।।42।।

मुरदे अरि तो पहले से थे
छिप गये कब्र में जिन्दे भी¸
‘अब महायज्ञ में आहुति बन्’¸
रटने लग गये परिन्दे भी।।43।।

पौ फटी¸ गगन दीपावलियां
बुझ गई मलय के झोंकों से।
निशि पश्चिम विधु के साथ चली
डरकर भालों की नोकों से।।44।।

दिनकर सिर काट दनुज–दल का
खूनी तलवार लिये निकला।
कहता इस तरह कटक काटो
कर में अंगार लिये निकला।।45।।

रंग गया रक्त से प्राची–पट
शोणित का सागर लहर उठा।
पीने के लिये मुगल–शोणित
भाला राणा का हहर उठा।।46।।

   

         अष्ठम सर्ग

 

गणपति के पावन पांव पूज¸
वाणी–पद को कर नमस्कार।
उस चण्डी को¸ उस दुर्गा को¸
काली–पद को कर नमस्कार।।1।।

उस कालकूट पीनेवाले के
नयन याद कर लाल–लाल।
डग–डग ब्रह्माण्ड हिला देता
जिसके ताण्डव का ताल–ताल।।2।।

ले महाशक्ति से शक्ति भीख
व्रत रख वनदेवी रानी का।
निर्भय होकर लिखता हूं मैं
ले आशीर्वाद भवानी का।।3।।

मुझको न किसी का भय–बन्धन
क्या कर सकता संसार अभी।
मेरी रक्षा करने को जब
राणा की है तलवार अभी।।4।।

मनभर लोहे का कवच पहन¸
कर एकलिंग को नमस्कार।
चल पड़ा वीर¸ चल पड़ी साथ
जो कुछ सेना थी लघु–अपार।।5।।

घन–घन–घन–घन–घन गरज उठे
रण–वाद्य सूरमा के आगे।
जागे पुश्तैनी साहस–बल
वीरत्व वीर–उर के जागे।।6।।

सैनिक राणा के रण जागे
राणा प्रताप के प्रण जागे।
जौहर के पावन क्षण जागे
मेवाड़–देश के व्रण जागे।।7।।

जागे शिशोदिया के सपूत
बापा के वीर–बबर जागे।
बरछे जागे¸ भाले जागे¸
खन–खन तलवार तबर जागे।।8।।

कुम्भल गढ़ से चलकर राणा
हल्दीघाटी पर ठहर गया।
गिरि अरावली की चोटी पर
केसरिया–झंडा फहर गया।।9।।

प्रणवीर अभी आया ही था
अरि साथ खेलने को होली।
तब तक पर्वत–पथ से उतरा
पुंजा ले भीलों की टोली।।10।।

भैरव–रव से जिनके आये
रण के बजते बाजे आये।
इंगित पर मर मिटनेवाले
वे राजे–महाराजे आये।।11।।

सुनकर जय हर–हर सैनिक–रव
वह अचल अचानक जाग उठा।
राणा को उर से लगा लिया
चिर निद्रित जग अनुराग उठा।।12।।

नभ की नीली चादर ओढ़े
युग–युग से गिरिवर सोता था।
तरू तरू के कोमल पत्तों पर
मारूत का नर्तन होता था।।13।।

चलते चलते जब थक जाता
दिनकर करता आराम वहीं।
अपनी तारक–माला पहने
हिमकर करता विश्राम वहीं।।14।।

गिरि–गुहा–कन्दरा के भीतर
अज्ञान–सदृश था अन्धकार।
बाहर पर्वत का खण्ड–खण्ड
था ज्ञान–सदृश उज्ज्वल अपार।।15।।

वह भी कहता था अम्बर से
मेरी छाती पर रण होगा।
जननी–सेवक–उर–शोणित से
पावन मेरा कण–कण होगा।।16।।

पाषाण–हृदय भी पिघल–पिघल
आंसूं बनकर गिरता झर–झर।
गिरिवर भविष्य पर रोता था
जग कहता था उसको निझर्र।।17।।

वह लिखता था चट्टानों पर
राणा के गुण अभिमान सजल।
वह सुना रहा था मृदु–स्वर से
सैनिक को रण के गान सजल।।18।।

वह चला चपल निझर्र झर–झर
वसुधा–उर–ज्वाला खोने को;
या थके महाराणा–पद को
पर्वत से उतरा धोने को।।19।।

लघु–लघु लहरों में ताप–विकल
दिनकर दिन भर मुख धोता था।
निर्मल निझर्र जल के अन्दर
हिमकर रजनी भर सोता था।।20।।

राणा पर्वत–छवि देख रहा
था¸ उन्नत कर अपना भाला।
थे विटप खड़े पहनाने को
लेकर मृदु कुसुमों की माला।।21।।

लाली के साथ निखरती थी
पल्लव–पल्लव की हरियाली।
डाली–डाली पर बोल रही
थी कुहू–कुहू कोयल काली।।22।।

निझर्र की लहरें चूम–चूम
फूलों के वन में घूम–घूम।
मलयानिल बहता मन्द–मन्द
बौरे आमों में झूम–झूम।।23।।

जब तुहिन–भार से चलता था
धीरे धीरे मारूत–कुमार।
तब कुसुम–कुमारी देख–देख
उस पर हो जाती थी निसार।।24।।

उड़–उड़ गुलाब पर बैठ–बैठ
करते थे मधु का पान मधुप।
गुन–गुन–गुन–गुन–गुन कर करते
राणा के यश का गान मधुप।।25।।

लोनी लतिका पर झूल–झूल¸
बिखरते कुसुम पराग प्यार।
हंस–हंसकर कलियां झांक रही
थीं खोल पंखुरियों के किवार।।26।।

तरू–तरू पर बैठे मृदु–स्वर से
गाते थे स्वागत–गान शकुनि।
कहते यह ही बलि–वेदी है
इस पर कर दो बलिदान शकुनि।।27।।

केसर से निझर्र–फूल लाल
फूले पलास के फूल लाल।
तुम भी बैरी–सिर काट–काट
कर दो शोणित से धूल लाल।।28।।

तुम तरजो–तरजो वीर¸ रखो
अपना गौरव अभिमान यहीं।
तुम गरजो–गरजो सिंह¸ करो
रण–चण्डी का आह्वान यहीं।।29।।

खग–रव सुनते ही रोम–रोम
राणा–तन के फरफरा उठे।
जरजरा उठे सैनिक अरि पर
पत्ते–पत्ते थरथरा उठे।।30।।

तरू के पत्तों से¸ तिनकों से
बन गया यहीं पर राजमहल।
उस राजकुटी के वैभव से
अरि का सिंहासन गया दहल।।31।।

बस गये अचल पर राजपूत¸
अपनी–अपनी रख ढाल–प्रबल।
जय बोल उठे राणा की रख
बरछे–भाले–करवाल प्रबल।।32।।

राणा प्रताप की जय बोले
अपने नरेश की जय बोले।
भारत–माता की जय बोले
मेवाड़–देश की जय बोले।।33।।

जय एकलिंग¸ जय एकलिंग¸
जय प्रलयंकर शंकर हर–हर।
जय हर–हर गिरि का बोल उठा
कंकड़–कंकड़¸ पत्थर–पत्थर।।34।।

देने लगा महाराणा
दिन–रात समर की शिक्षा।
फूंक–फूंक मेरी वैरी को
करने लगा प्रतीक्षा।।35।।

 

नवम सर्ग

 

धीरे से दिनकर द्वार खोल
प्राची से निकला लाल–लाल।
गह्वर के भीतर छिपी निशा
बिछ गया अचल पर किरण–जाल।।1।।

सन–सन–सन–सन–सन चला पवन
मुरझा–मुरझाकर गिरे फूल।
बढ़ चला तपन¸ चढ़ चला ताप
धू–धू करती चल पड़ी धूल।।2।।

तन झुलस रही थीं लू–लपटें
तरू–तरू पद में लिपटी छाया।
तर–तर चल रहा पसीना था
छन–छन जलती जग की काया।।3।।

पड़ गया कहीं दोपहरी में
वह तृषित पथिक हुन गया वहीं।
गिर गया कहीं कन भूतल पर
वह भूभुर में भुन गया वहीं।।4।।

विधु के वियोग से विकल मूक
नभ जल रहा था अपाा उर।
जलती थी धरती तवा सदृश¸
पथ की रज भी थी बनी भउर।।5।।

उस दोपहरी में चुपके से
खोते–खोते में चंचु खोल।
आतप के भय से बैठे थे
खग मौन–तपस्वी सम अबोल।।6।।

हर ओर नाचती दुपहरिया
मृग इधर–उधर थे डौक रहे।
जन भिगो–भिगो पट¸ ओढ़–ओढ़
जल पी–पी पंखे हौक रहे।।7।।

रवि आग उगलता था भू पर
अदहन सरिता–सागर अपार।
कर से चिनगारी फेंक–फेंक
जग फूंक रहा था बार–बार।।8।।

गिरि के रोड़े अंगार बने
भुनते थे शेर कछारों में।
इससे भी ज्वाला अधिक रही
उन वीर–व्रती तलवारों में।।9।।

आतप की ज्वाला से छिपकर
बैठे थे संगर–वीर भील।
पर्वत पर तरू की छाया में
थे बहस कर रहे रण धीर भील।।10।
उन्नत मस्तक कर कहते थे
ले–लेकर कुन्त कमान तीर।
मां की रक्षा के लिए आज
अर्पण है यह नश्वर शरीर।।11।।

हम अपनी इन करवालों को
शोणित का पान करा देंगे।
हम काट–काटकर बैरी सिर
संगर–भू पर बिखरा देंगे।।12।।

हल्दीघाटी के प्रांगण में
हम लहू–लहू लहरा देंगे।
हम कोल–भील¸ हम कोल–भील
हम रक्त–ध्वजा फहरा देंगे।।13।।

यह कहते ही उन भीलों के
सिर पर भ्ौरव–रणभूत चढ़ा।
उनके उर का संगर–साहस
दूना–तिगुना–चौगुना बढ़ा।।14।।

इतने में उनके कानों में
भीषण आंधी सी हहराई।
मच गया अचल पर कोलाहल
सेना आई¸ सेना आई।।15।।

कितने पैदल कितने सवार
कितने स्पन्दन जोड़े जोड़े।
कितनी सेना¸ कितने नायक¸
कितने हाथी¸ कितने घोड़े।।16।।

कितने हथियार लिये सैनिक
कितने सेनानी तोप लिये।
आते कितने झण्डे ले¸ ले
कितने राणा पर कोप किये।।17।।

कितने कर में करवाल लिये
कितने जन मुग्दर ढाल लिये।
कितने कण्टक–मय जाल लिये¸
कितने लोहे के फाल लिये।।18।।

कितने खंजर–भाले ले¸ ले¸
कितने बरछे ताजे ले¸ ले।
पावस–नद से उमड़े आते¸
कितने मारू बाजे ले–ले।।19।।

कितने देते पैतरा वीर
थे बने तुरग कितने समीर।
कितने भीषण–रव से मतंग
जग को करते आते अधीर।।20।।

देखी न सुनी न¸ किसी ने भी
टिड्डी–दल सी इतनी सेना।
कल–कल करती¸ आगे बढ़ती
आती अरि की जितनी सेना।।21।।

अजमेर नगर से चला तुरत
खमनौर–निकट बस गया मान।
बज उठा दमामा दम–दम–दम
गड़ गया अचल पर रण–निशान।।22
भीषण–रव से रण–डंका के
थर–थर अवनी–तल थहर उठा।
गिरि–गुहा कन्दरा का कण–कण
घन–घोर–नाद से घहर उठा।।23।।

बोले चिल्लाकर कोल–भील
तलवार उठा लो बढ़ आई।
मेरे शूरो¸ तैयार रहो
मुगलों की सेना चढ़ आई।।24।।

चमका–चमका असि बिजली सम
रंग दो शोणित से पर्वत कण।
जिससे स्वतन्त्र रह रहे देश
दिखला दो वही भयानक रण।।25।।

हम सब पर अधिक भरोसा है
मेवाड़–देश के पानी का।
वीरो¸ निज को कुबार्न करी
है यही समय कुबार्नी का।।26।।

भौरव–धनु की टंकार करो
तम शेष सदृश फुंकार करो।
अपनी रक्षा के लिए उठो
अब एक बार हुंकार करो।।27।।

भीलों के कल–कल करने से
आया अरि–सेनाधीश सुना।
बढ़ गया अचानक पहले से
राणा का साहस बीस गुना।।28।।

बोला नरसिंहो¸ उठ जाओ
इस रण–वेला रमणीया में।
चाहे जिस हालत में जो हो
जाग्रति में¸ स्वप्न–तुरिया में।।29।।

जिस दिन के लिए जन्म भर से
देते आते रण–शिक्षा हम।
वह समय आ गया करते थे
जिसकी दिन–रात प्रतीक्षा हम।।30।।

अब सावधान¸ अब सावधान¸
वीरो¸ हो जाओ सावधान।
बदला लेने आ गया मान
कर दो उससे रण धमासान।।31।।

सुनकर सैनिक तनतना उठे
हाथी–हय–दल पनपना उठे।
हथियारों से भिड़ जाने को
हथियार सभी झनझना उठे।।32।।

गनगना उठे सातंक लोक
तलवार म्यान से कढ़ते ही।
शूरों के रोएं फड़क उठे
रण–मन्त्र वीर के पढ़ते ही।।33।।

अब से सैनिक राणा का
दरबार लगा रहता था।
दरबान महीधर बनकर
दिन–रात जगा रहता था।।34।।

 

       दशम सर्ग

 

तरू–वेलि–लता–मय
पर्वत पर निर्जन वन था।
निशि वसती थी झुरमुट में
वह इतना घोर सघन था।।1।।

पत्तों से छन–छनकर थी
आती दिनकर की लेखा।
वह भूतल पर बनती थी
पतली–सी स्वर्णिम रेखा।।2।।

लोनी–लोनी लतिका पर
अविराम कुसुम खिलते थे।
बहता था मारूत¸ तरू–दल
धीरे–धीरे हिलते थे।।3।।

नीलम–पल्लव की छवि से
थी ललित मंजरी–काया।
सोती थी तृण–शय्या पर
कोमल रसाल की छाया।।4।।

मधु पिला–पिला तरू–तरू को
थी बना रही मतवाला।
मधु–स्नेह–वलित बाला सी
थी नव मधूक की माला।।5।।

खिलती शिरीष की कलियां
संगीत मधुर झुन–रून–झुन।
तरू–मिस वन झूम रहा था
खग–कुल–स्वर–लहरी सुन–सुन।।6।।

मां झूला झूल रही थी
नीमों के मृदु झूलों पर।
बलिदान–गान गाते थे
मधुकर बैठे फूलों पर।।7।।

थी नव–दल की हरियाली
वट–छाया मोद–भरी थी¸
नव अरूण–अरूण गोदों से
पीपल की गोद भरी थी।।8।।

कमनीय कुसुम खिल–खिलकर
टहनी पर झूल रहे थे।
खग बैठे थे मन मारे
सेमल–तरू फूल रहे थे।।9।।

इस तरह अनेक विटप थे
थी सुमन–सुरभि की माया।
सुकुमार–प्रकृति ने जिनकी
थी रची मनोहर काया।।10।।

बादल ने उनको सींचा
दिनकर–कर ने गरमी दी।
धीरे–धीरे सहलाकर¸
मारूत ने जीवन–श्री दी।।11।
मीठे मीठे फल खाते
शाखामृग शाखा पर थे।
शक देख–देख होता था
वे वानर थे वा नर थे।।12।।

फल कुतर–कुतर खाती थीं
तरू पर बैठी गिलहरियां।
पंचम–स्वर में गा उठतीं
रह–रहकर वन की परियां।।13।।

चह–चह–चह फुदक–फुदककर
डाली से उस डाली पर।
गाते थे पक्षी होकर
न्योछावर वनमाली पर।।14।।

चरकर¸ पगुराती मां को
दे सींग ढकेल रहे थे।
कोमल–कोमल घासों पर
मृग–छौने खेल रहे थे।।15।।

अधखुले नयन हरिणी के
मृदु–काय हरिण खुजलाते।
झाड़ी में उलझ–उलझ कर
बारहसिंगों झुंझलाते।।16।।

वन धेनु–दूध पीते थे
लैरू दुम हिला–हिला कर।
मां उनको चाट रही थीं
तन से तन मिला–मिलाकर।।17।।

चीते नन्हें शिशु ले–ले
चलते मन्थर चालों से।
क्रीड़ा करते थे नाहर
अपने लघु–लघु बालों से।।18।।

झरनों का पानी लेकर
गज छिड़क रहे मतवाले।
मानो जल बरस रहे हों
सावन–घन काले–काले।।19।।

भैंसे भू खोद रहे थे
आ¸ नहा–नहा नालों से।
थे केलि भील भी करते
भालों से¸ करवालों से।।20।।

नव हरी–हरी दूबों पर
बैठा था भीलों का दल।
निर्मल समीप ही निझर्र
बहता था¸ कल–कल छल–छल।।21।
ले सहचर मान शिविर से
निझर्र के तीरे–तीरे।
अनिमेष देखता आया
वन की छवि धीरे–धीरे।।22।।

उसने भीलों को देखा
उसको देखा भीलों ने।
तन में बिजली–सी दौड़ी
वन लगा भयावह होने।।23।।

शोणित–मय कर देने को
वन–वीथी बलिदानों से।
भीलों ने भाले ताने
असि निकल पड़ी म्यानों से।।24।।

जय–जय केसरिया बाबा
जय एकलिंग की बोले।
जय महादेव की ध्वनि से
पर्वत के कण–कण डोले।।25।।

ललकार मान को घ्ोरा
हथकड़ी पिन्हा देने को।
तरकस से तीर निकाले
अरि से लोहा लेने को।।26।।

वैरी को मिट जाने में
अब थी क्षण भर की देरी।
तब तक बज उठी अचानक
राणा प्रताप की भेरी।।27।।

वह अपनी लघु–सेना ले
मस्ती से घूम रहा था।
रण–भेरी बजा–बजाकर
दीवाना झूम रहा था।।28।।

लेकर केसरिया झण्डा
वह वीर–गान था गाता।
पीछे सेना दुहराती
सारा वन था हहराता।।29।।

गाकर जब आंखें फेरी
देखा अरि को बन्धन में।
विस्मय–चिन्ता की ज्वाला
भभकी राणा के मन में।।30।।

लज्जा का बोझा सिर पर
नत मस्तक अभिमानी था।
राणा को देख अचानक
वैरी पानी–पानी था।।31।।

दौड़ा अपने हाथों से
जाकर अरि–बन्धन खोला।
वह वीर–व्रती नर–नाहर
विस्मित भीलों से बोला।।32।।

्”मेवाड़ देश के भीलो¸
यह मानव–धर्म नहीं है।
जननी–सपूत रण–कोविद
योधा का कर्म नहीं है।्”।।33।।

अरि को भी धोखा देना
शूरों की रीति नहीं है।
छल से उनको वश करना
यह मेरी नीति नहीं है।।34।।

अब से भी झुक–झुककर तुम
सत्कार समेत बिदा दो।
कर क्षमा–याचना इनको
गल–हार समेत बिदा दो।”।।35।।

आदेश मान भीलों ने
सादर की मान–बिदाई।
ले चला घट पीड़ा की
जो थी उर–नभ पर छाई।।36।।

भीलों से बातें करता
सेना का व्यूह बनाकर।
राणा भी चला शिविर को
अपना गौरव दिखलाकर।।37।।

था मान सोचता¸ दुख देता
भीलों का अत्याचार मुझे।
अब कल तक चमकानी होगी
वह बिजली–सी तलवार मुझे।।38।।

है त्रपा–भार से दबा रहा
राणा का मृदु–व्यवहार मुझे।
कल मेरी भयद बजेगी ही।
रण–विजय मिले या हार मुझे।।39।।

 

        एकादश सर्ग

 

में जाग्रति पैदा कर दूं¸
वह मन्त्र नहीं¸ वह तन्त्र नहीं।
कैसे वांछित कविता कर दूं¸
मेरी यह कलम स्वतन्त्र नहीं।।1।।

अपने उर की इच्छा भर दूं¸
ऐसा है कोई यन्त्र नहीं।
हलचल–सी मच जाये पर
यह लिखता हूं रण षड््यन्त्र नहीं।।2।।

ब्राह्मण है तो आंसूं भर ले¸
क्षत्रिय है नत मस्तक कर ले।
है वैश्य शूद्र तो बार–बार¸
अपनी सेवा पर शक कर ले।।3।।

दुख¸ देह–पुलक कम्पन होता¸
हा¸ विषय गहन यह नभ–सा है।
यह हृदय–विदारक वही समर
जिसका लिखना दुर्लभ–सा है।।4।।

फिर भी पीड़ा से भरी कलम¸
लिखती प्राचीन कहानी है।
लिखती हल्दीघाटी रण की¸
वह अजर–अमर कुबार्नी है।। 5।।

सावन का हरित प्रभात रहा
अम्बर पर थी घनघोर घटा।
फहरा कर पंख थिरकते थे
मन हरती थी वन–मोर–छटा।।6।।

पड़ रही फुही झीसी झिन–झिन
पर्वत की हरी वनाली पर।
‘पी कहां’ पपीहा बोल रहा
तरू–तरू की डाली–डाली पर।।7।।

वारिद के उर में चमक–दमक
तड़–तड़ बिजली थी तड़क रही।
रह–रह कर जल था बरस रहा
रणधीर–भुजा थी फड़क रही।।8।।

था मेघ बरसता झिमिर–झिमिर
तटिनी की भरी जवानी थी।
बढ़ चली तरंगों की असि ले
चण्डी–सी वह मस्तानी थी।।9।।

वह घटा चाहती थी जल से
सरिता–सागर–निझर्र भरना।
यह घटा चाहती शोणित से
पर्वत का कण–कण तर करना।।10।।

धरती की प्यास बुझाने को
वह घहर रही थी घन–सेना।
लोहू पीने के लिए खड़ी
यह हहर रही थी जन–सेना।।11।।

नभ पर चम–चम चपला चमकी¸
चम–चम चमकी तलवार इधर।
भ्ौरव अमन्द घन–नाद उधर¸
दोनों दल की ललकार इधर।।12।।

वह कड़–कड़–कड–कड़ कड़क उठी¸
यह भीम–नाद से तड़क उठी।
भीषण–संगर की आग प्रबल
बैरी–सेना में भड़क उठी।।13।।

डग–डग–डग–डग रण के डंके
मारू के साथ भयद बाजे।
टप–टप–टप घोड़े कूद पड़े¸
कट–कट मतंग के रद बाजे।।14।।

कलकल कर उठी मुगल सेना
किलकार उठी¸ ललकार उठी।
असि म्यान–विवर से निकल तुरत
अहि–नागिन–सी फुफकार उठी।।15।।

शर–दण्ड चले¸ कोदण्ड चले¸
कर की कटारियां तरज उठीं।
खूनी बरछे–भाले चमके¸
पर्वत पर तोपें गरज उठीं।।16।।

फर–फर–फर–फर–फर फहर उठा
अकबर का अभिमानी निशान।
बढ़ चला कटक लेकर अपार
मद–मस्त द्विरद पर मस्त–मान।।17।।

कोलाहल पर कोलाहल सुन
शस्त्रों की सुन झनकार प्रबल।
मेवाड़–केसरी गरज उठा
सुनकर अरि की ललकार प्रबल।।18।
हर एकलिंग को माथ नवा
लोहा लेने चल पड़ा वीर।
चेतक का चंचल वेग देख
था महा–महा लiज्जत समीर।।19।।

लड़–लड़कर अखिल महीतल को
शोणित से भर देनेवाली¸
तलवार वीर की तड़प उठी
अरि–कण्ठ कतर देनेवाली।।20।।

राणा का ओज भरा आनन
सूरज–समान चमचमा उठा।
बन महाकाल का महाकाल
भीषण–भाला दमदमा उठा।।21।।

मेरी प्रताप की बजी तुरत
बज चले दमामे धमर–धमर।
धम–धम रण के बाजे बाजे¸
बज चले नगारे घमर–घमर।।22।।

जय रूद्र बोलते रूद्र–सदृश
खेमों से निकले राजपूत।
झट झंडे के नीचे आकर
जय प्रलयंकर बोले सपूत।।23।।

अपने पैने हथियार लिये
पैनी पैनी तलवार लिये।
आये खर–कुन्त–कटार लिये
जननी सेवा का भार लिये।।24।।

कुछ घोड़े पर कुछ हाथी पर¸
कुछ योधा पैदल ही आये।
कुछ ले बरछे कुछ ले भाले¸
कुछ शर से तरकस भर लाये।।25।।

रण–यात्रा करते ही बोले
राणा की जय¸ राणा की जय।
मेवाड़–सिपाही बोल उठे
शत बार महाराणा की जय।।26।।

हल्दीघाटी के रण की जय¸
राणा प्रताप के प्रण की जय।
जय जय भारतमाता की जय¸
मेवाड़–देश–कण–कण की जय।।27।
हर एकलिंग¸ हर एकलिंग
बोला हर–हर अम्बर अनन्त।
हिल गया अचल¸ भर गया तुरंत
हर हर निनाद से दिiग्दगन्त।।28।।

घनघोर घटा के बीच चमक
तड़ तड़ नभ पर तड़ित तड़की।
झन–झन असि की झनकार इधर
कायर–दल की छाती धड़की।।29।।

अब देर न थी वैरी–वन में
दावानल के सम छूट पड़े।
इस तरह वीर झपटे उन पर
मानों हरि मृग पर टूट पड़े।।30।।

मरने कटने की बान रही
पुश्तैनी इससे आह न की।
प्राणों की रंचक चाह न की
तोपों की भी परवाह न की।।31।।

रण–मत्त लगे बढ़ने आगे
सिर काट–काट करवालों से।
संगर की मही लगी पटने
क्षण–क्षण अरि–कंठ–कपालों से।।32।
हाथी सवार हाथी पर थे¸
बाजी सवार बाजी पर थे।
पर उनके शोणित–मय मस्तक
अवनी पर मृत–राजी पर थे।।33।।

कर की असि ने आगे बढ़कर
संगर–मतंग–सिर काट दिया।
बाजी वक्षस्थल गोभ–गोभ
बरछी ने भूतल पाट दिया।।34।।

गज गिरा¸ मरा¸ पिलवान गिरा¸
हय कटकर गिरा¸ निशान गिरा।
कोई लड़ता उत्तान गिरा¸
कोई लड़कर बलवान गिरा।।35।।

झटके से शूल गिरा भू पर
बोला भट मेरा शूल कहां
शोणित का नाला बह निकला¸
अवनी–अम्बर पर धूल कहां।।36।।

आंखों में भाला भोंक दिया
लिपटे अन्धे जन अन्धों से।
सिर कटकर भू पर लोट लोट
लड़ गये कबन्ध कबन्धों से।।37।।

अरि–किन्तु घुसा झट उसे दबा¸
अपन सीने के पार किया।
इस तरह निकट बैरी–उर को
कर–कर कटार से फार दिया।।38।।

कोई खरतर करवाल उठा
सेना पर बरस आग गया।
गिर गया शीश कटकर भू पर
घोड़ा धड़ लेकर भाग गया।।39।।

कोई करता था रक्त वमन¸
छिद गया किसी मानव का तन।
कट गया किसी का एक बाहु¸
कोई था सायक–विद्ध नयन।।40।।

गिर पड़ा पीन गज¸ फटी धरा¸
खर रक्त–वेग से कटी धरा।
चोटी–दाढ़ी से पटी धरा¸
रण करने को भी घटी धरा।।41।।

तो भी रख प्राण हथेली पर
वैरी–दल पर चढ़ते ही थे।
मरते कटते मिटते भी थे¸
पर राजपूत बढ़ते ही थे।।42।।

राणा प्रताप का ताप तचा¸
अरि–दल में हाहाकर मचा।
भेड़ों की तरह भगे कहते
अल्लाह हमारी जान बचा।।43।।

अपनी नंगी तलवारों से
वे आग रहे हैं उगल कहां।
वे कहां शेर की तरह लड़ें¸
हम दीन सिपाही मुगल कहां।।44।।

भयभीत परस्पर कहते थे
साहस के साथ भगो वीरो!
पीछे न फिरो¸ न मुड़ो¸ न कभी
अकबर के हाथ लगो वीरो!।।45।।

यह कहते मुगल भगे जाते¸
भीलों के तीर लगे जाते।
उठते जाते¸ गिरते जाते¸
बल खाते¸ रक्त पगे जाते।।46।।

आगे थी अगम बनास नदी¸
वर्षा से उसकी प्रखर धार।
थी बुला रही उनको शत–शत
लहरों के कर से बार–बार।।47।।

पहले सरिता को देख डरे¸
फिर कूद–कूद उस पार भगे।
कितने बह–बह इस पार लगे¸
कितने बहकर उस पार लगे।।49।।

मंझधार तैरते थे कितने¸
कितने जल पी–पी ऊब मरे।
लहरों के कोड़े खा–खाकर
कितने पानी में डूब मरे।।50।।

राणा–दल की ललकार देख¸
अपनी सेना की हार देख।
सातंक चकित रह गया मान¸
राणा प्रताप के वार देख।।51।।

व्याकुल होकर वह बोल उठा
्”लौटो लौटो न भगो भागो।
मेवाड़ उड़ा दो तोप लगा
ठहरो–ठहरो फिर से जागो।।52।।

देखो आगे बढ़ता हूं मैं¸
बैरी–दल पर चढ़ता हूं मैं।
ले लो करवाल बढ़ो आगे
अब विजय–मन्त्र पढ़ता हूं मैं।्”।।53।।

भगती सेना को रोक तुरत
लगवा दी भ्ौरव–काय तोप।
उस राजपूत–कुल–घातक ने
हा¸ महाप्रलय–सा दिया रोप।।54।।

फिर लगी बरसने आग सतत््
उन भीम भयंकर तोपों से।
जल–जलकर राख लगे होने
योद्धा उन मुगल–प्रकोपों से।।55।।

भर रक्त–तलैया चली उधर¸
सेना–उर में भर शोक चला।
जननी–पद शोणित से धो–धो
हर राजपूत हर–लोक चला।56।।

क्षणभर के लिये विजय दे दी
अकबर के दारूण दूतों को।
माता ने अंचल बिछा दिया
सोने के लिए सपूतों को।।57।।

विकराल गरजती तोपों से
रूई–सी क्षण–क्षण धुनी गई।
उस महायज्ञ में आहुति–सी
राणा की सेना हुनी गई।।58।।

बच गये शेष जो राजपूत
संगर से बदल–बदलकर रूख।
निरूपाय दीन कातर होकर
वे लगे देखने राणा–मुख।।59।।

राणा–दल का यह प्रलय देख¸
भीषण भाला दमदमा उठा।
जल उठा वीर का रोम–रोम¸
लोहित आनन तमतमा उठा।।60।।

वह क्रोध वह्नि से जल भुनकर
काली–कटाक्ष–सा ले कृपाण।
घायल नाहर–सा गरज उठा
क्षण–क्षण बिखेरते प्रखर बाण।।61।।

बोला “आगे बढ़ चलो शेर¸
मत क्षण भर भी अब करो देर।
क्या देख रहे हो मेरा मुख
तोपों के मुंह दो अभी फेर।”।।62।।

बढ़ चलने का सन्देश मिला¸
मर मिटने का उपदेश मिला।
“दो फेर तोप–मुख्” राणा से
उन सिंहों को आदेश मिला।।63।।

गिरते जाते¸ बढ़ते जाते¸
मरते जाते चढ़ते जाते।
मिटते जाते¸ कटते जाते¸
गिरते–मरते मिटते जाते।।64।।

बन गये वीर मतवाले थे
आगे वे बढ़ते चले गये।
राणा प्रताप की जय करते
तोपों तक चढ़ते चले गये।।65।।

उन आग बरसती तोपों के
मुंह फेर अचानक टूट पड़े।
बैरी–सेना पर तड़प–तड़प
मानों शत–शत पत्रि छूट पड़े।।66।।

फिर महासमर छिड़ गया तुरत
लोहू–लोहित हथियारों से।
फिर होने लगे प्रहार वार
बरछे–भाले तलवारों से।।67।।

शोणित से लथपथ ढालों से¸
करके कुन्तल¸ करवालों से¸
खर–छुरी–कटारी फालों से¸
भू भरी भयानक भालों से।।68।।

गिरि की उन्नत चोटी से
पाषाण भील बरसाते।
अरि–दल के प्राण–पखेरू
तन–पिंजर से उड़ जाते।।69।।

कोदण्ड चण्ड–रव करते
बैरी निहारते चोटी।
तब तक चोटीवालों ने
बिखरा दी बोटी–बोटी।।70।।

अब इसी समर में चेतक
मारूत बनकर आयेगा।
राणा भी अपनी असि का¸
अब जौहर दिखलायेगा।।71।।

 

द्वादश सर्ग

 

ल बकरों से बाघ लड़े¸
भिड़ गये सिंह मृग–छौनों से।
घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी¸
पैदल बिछ गये बिछौनों से।।1।।

हाथी से हाथी जूझ पड़े¸
भिड़ गये सवार सवारों से।
घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े¸
तलवार लड़ी तलवारों से।।2।।

हय–रूण्ड गिरे¸ गज–मुण्ड गिरे¸
कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे।
लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे¸
भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे।।3।।

क्षण महाप्रलय की बिजली सी¸
तलवार हाथ की तड़प–तड़प।
हय–गज–रथ–पैदल भगा भगा¸
लेती थी बैरी वीर हड़प।।4।।

क्षण पेट फट गया घोड़े का¸
हो गया पतन कर कोड़े का।
भू पर सातंक सवार गिरा¸
क्षण पता न था हय–जोड़े का।।5।।

चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी¸
लेकर अंकुश पिलवान गिरा।
झटका लग गया¸ फटी झालर¸
हौदा गिर गया¸ निशान गिरा।।6।।

कोई नत–मुख बेजान गिरा¸
करवट कोई उत्तान गिरा।
रण–बीच अमित भीषणता से¸
लड़ते–लड़ते बलवान गिरा।।7।।

होती थी भीषण मार–काट¸
अतिशय रण से छाया था भय।
था हार–जीत का पता नहीं¸
क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय।।8
कोई व्याकुल भर आह रहा¸
कोई था विकल कराह रहा।
लोहू से लथपथ लोथों पर¸
कोई चिल्ला अल्लाह रहा।।9।।

धड़ कहीं पड़ा¸ सिर कहीं पड़ा¸
कुछ भी उनकी पहचान नहीं।
शोणित का ऐसा वेग बढ़ा¸
मुरदे बह गये निशान नहीं।।10।।

मेवाड़–केसरी देख रहा¸
केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़–दौड़ करता था रण¸
वह मान–रक्त का प्यासा था।।11।।

चढ़कर चेतक पर घूम–घूम
करता मेना–रखवाली था।
ले महा मृत्यु को साथ–साथ¸
मानो प्रत्यक्ष कपाली था।।12।।

रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर
चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से¸
पड़ गया हवा को पाला था।।13।।

गिरता न कभी चेतक–तन पर¸
राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर¸
या आसमान पर घोड़ा था।।14।।

जो तनिक हवा से बाग हिली¸
लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं¸
तब तक चेतक मुड़ जाता था।।15।।

कौशल दिखलाया चालों में¸
उड़ गया भयानक भालों में।
निभीर्क गया वह ढालों में¸
सरपट दौड़ा करवालों में।।16।।

है यहीं रहा¸ अब यहां नहीं¸
वह वहीं रहा है वहां नहीं।
थी जगह न कोई जहां नहीं¸
किस अरि–मस्तक पर कहां नहीं।।17।
बढ़ते नद–सा वह लहर गया¸
वह गया गया फिर ठहर गया।
विकराल ब्रज–मय बादल–सा
अरि की सेना पर घहर गया।।18।।

भाला गिर गया¸ गिरा निषंग¸
हय–टापों से खन गया अंग।
वैरी–समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग।।19।।

चढ़ चेतक पर तलवार उठा
रखता था भूतल–पानी को।
राणा प्रताप सिर काट–काट
करता था सफल जवानी को।।20।।

कलकल बहती थी रण–गंगा
अरि–दल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी
चटपट उस पार लगाने को।।21।।

वैरी–दल को ललकार गिरी¸
वह नागिन–सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो¸बचो¸
तलवार गिरी¸ तलवार गिरी।।22।।

पैदल से हय–दल गज–दल में
छिप–छप करती वह विकल गई!
क्षण कहां गई कुछ¸ पता न फिर¸
देखो चमचम वह निकल गई।।23।।

क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸
क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई।
था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸
क्षण शोर हो गया किधर गई।।24।।

क्या अजब विषैली नागिन थी¸
जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर¸
फैला शरीर में जहर नहीं।।25।।

थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸
वह बरछी–असि खरधार कहीं।
वह आग कहीं अंगार कहीं¸
बिजली थी कहीं कटार कहीं।।26।।

लहराती थी सिर काट–काट¸
बल खाती थी भू पाट–पाट।
बिखराती अवयव बाट–बाट
तनती थी लोहू चाट–चाट।।27।।

सेना–नायक राणा के भी
रण देख–देखकर चाह भरे।
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे
दूने–तिगुने उत्साह भरे।।28।।

क्षण मार दिया कर कोड़े से
रण किया उतर कर घोड़े से।
राणा रण–कौशल दिखा दिया
चढ़ गया उतर कर घोड़े से।।29।।

क्षण भीषण हलचल मचा–मचा
राणा–कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह
रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी।।30।।

वह हाथी–दल पर टूट पड़ा¸
मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू¸ ऐसा
शोणित का नाला फूट पड़ा।।31।।

जो साहस कर बढ़ता उसको
केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ–बीच फेंक¸
बरछे पर उसको रोक दिया।।32।।

क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸
क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते
क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर।।33।।

क्षण भर में गिरते रूण्डों से
मदमस्त गजों के झुण्डों से¸
घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸
पट गई भूमि नर–मुण्डों से।।34।।

ऐसा रण राणा करता था
पर उसको था संतोष नहीं
क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह
पर कम होता था रोष नहीं।।35।।

कहता था लड़ता मान कहां
मैं कर लूं रक्त–स्नान कहां।
जिस पर तय विजय हमारी है
वह मुगलों का अभिमान कहां।।36।।

भाला कहता था मान कहां¸
घोड़ा कहता था मान कहां?
राणा की लोहित आंखों से
रव निकल रहा था मान कहां।।37।।

लड़ता अकबर सुल्तान कहां¸
वह कुल–कलंक है मान कहां?
राणा कहता था बार–बार
मैं करूं शत्रु–बलिदान कहां?।।38।।

तब तक प्रताप ने देख लिया
लड़ रहा मान था हाथी पर।
अकबर का चंचल साभिमान
उड़ता निशान था हाथी पर।।39।।

वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा¸
अपने दल को था बढ़ा रहा।
वह भीषण समर–भवानी को
पग–पग पर बलि था चढ़ा रहा।।40।
फिर रक्त देह का उबल उठा
जल उठा क्रोध की ज्वाला से।
घोड़ा से कहा बढ़ो आगे¸
बढ़ चलो कहा निज भाला से।।41।।

हय–नस नस में बिजली दौड़ी¸
राणा का घोड़ा लहर उठा।
शत–शत बिजली की आग लिये
वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा।।42।।

क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸
ज्वर सiन्नपात लकवा था वह।
था शोर बचो घोड़ा–रण से
कहता हय कौन¸ हवा था वह।।43।।

तनकर भाला भी बोल उठा
राणा मुझको विश्राम न दे।
बैरी का मुझसे हृदय गोभ
तू मुझे तनिक आराम न दे।।44।।

खाकर अरि–मस्तक जीने दे¸
बैरी–उर–माला सीने दे।
मुझको शोणित की प्यास लगी
बढ़ने दे¸ शोणित पीने दे।।45।।

मुरदों का ढेर लगा दूं मैं¸
अरि–सिंहासन थहरा दूं मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दे
शोणित सागर लहरा दूं मैं।।46।।

रंचक राणा ने देर न की¸
घोड़ा बढ़ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सिर काट–काट
राणा चढ़ आया हाथी पर।।47।।

गिरि की चोटी पर चढ़कर
किरणों निहारती लाशें¸
जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸
कुछ की चलती थी सांसें।।48।।

वे देख–देख कर उनको
मुरझाती जाती पल–पल।
होता था स्वर्णिम नभ पर
पक्षी–क्रन्दन का कल–कल।।49।।

मुख छिपा लिया सूरज ने
जब रोक न सका रूलाई।
सावन की अन्धी रजनी
वारिद–मिस रोती आई।।50।।

 

त्रयोदश सर्ग

 

कुछ बचे सिपाही शेष¸
हट जाने का दे आदेश।
अपने भी हट गया नरेश¸
वह मेवाड़–गगन–राकेश।।1।।

बनकर महाकाल का काल¸
जूझ पड़ा अरि से तत्काल।
उसके हाथों में विकराल¸
मरते दम तक थी करवाल।।2।।

उसपर तन–मन–धन बलिहार
झाला धन्य¸ धन्य परिवार।
राणा ने कह–कह शत–बार¸
कुल को दिया अमर अधिकार।।3।।

हाय¸ ग्वालियर का सिरताज¸
सेनप रामसिंह अधिराज।
उसका जगमग जगमग ताज¸
शोणित–रज–लुiण्ठत है आज।।4।।

राजे–महराजे–सरदार¸
जो मिट गये लिये तलवार।
उनके तर्पण में अविकार¸
आंखों से आंसू की धार।।5।।

बढ़ता जाता विकल अपार
घोड़े पर हो व्यथित सवार।
सोच रहा था बारम्बार¸
कैसे हो मां का उद्धार।।6।।

मैंने किया मुगल–बलिदान¸
लोहू से लोहित मैदान।
बचकर निकल गया पर मान¸
पूरा हो न सका अरमान।।7।।

कैसे बचे देश–सम्मान
कैसे बचा रहे अभिमान!
कैसे हो भू का उत्थान¸
मेरे एकलिंग भगवान।।8।।

स्वतन्त्रता का झगड़ा तान¸
कब गरजेगा राजस्थान!
उधर उड़ रहा था वह वाजि¸
स्वामी–रक्षा का कर ध्यान।।9।।

उसको नद–नाले–चट्टान¸
सकते रोक न वन–वीरान।
राणा को लेकर अविराम¸
उसको बढ़ने का था ध्यान।।10।।

पड़ी अचानक नदी अपार¸
घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार¸
तब तक चेतक था उस पार।।11।।

शक्तसिंह भी ले तलवार
करने आया था संहार।
पर उमड़ा राणा को देख
भाई–भाई का मधु प्यार।।12।।

चेतक के पीछे दो काल¸
पड़े हुए थे ले असि ढाल।
उसने पथ में उनको मार¸
की अपनी पावन करवाल।।13।।

आगे बढ़कर भुजा पसार¸
बोला आंखों से जल ढार।
रूक जा¸ रूक जा¸ ऐ तलवार¸
नीला–घोड़ारा असवार।।14।।

पीछे से सुन तार पुकार¸
फिरकर देखा एक सवार।
हय से उतर पड़ा तत्काल¸
लेकर हाथों में तलवार।।15।।

राणा उसको वैरी जान¸
काल बन गया कुन्तल तान।
बोला ्”कर लें शोणित पान¸
आ¸ तुझको भी दें बलिदान्”।।16।।

पर देखा झर–झर अविकार
बहती है आंसू की धार।
गर्दन में लटकी तलवार¸
घोड़े पर है शक्त सवार।।17।।

उतर वहीं घोड़े को छोड़¸
चला शक्त कम्पित कर जोड़।
पैरों पर गिर पड़ा विनीत¸
बोला धीरज बन्धन तोड़।।18।।

“करूणा कर तू करूणागार¸
दे मेरे अपराध बिसार।
या मेरा दे गला उतार¸
“तेरे कर में हैं तलवार्”।।19।।

यह कह–कहकर बारंबार¸
सिसकी भरने लगा अपार।
राणा भी भूला संसार¸
उमड़ा उर में बन्धु दुलार।।20।।

उसे उठाकर लेकर गोद¸
गले लगाया सजल–समोद।
मिलता था जो रज में प्रेम¸
किया उसे सुरभित–सामोद।।21।।

लेकर वन्य–कुसुम की धूल¸
बही हवा मन्थर अनुकूल।
दोनों के सिर पर अविराम¸
पेड़ों ने बरसाये फूल।।22।।

कल–कल छल–छल भर स्वर–तान¸
कहकर कुल–गौरव–अभिमान।
नाले ने गाया स–तरंग¸
उनके निर्मल यश का गाना।।23।।

तब तक चेतक कर चीत्कार¸
गिरा धर पर देह बिसार।
लगा लोटने बारम्बार¸
बहने लगी रक्त की धार।।24।।

बरछे–असि–भाले गम्भीर¸
तन में लगे हुए थे तीर।
जर्जर उसका सकल शरीर¸
चेतक था व्रण–व्यथित अधीर।।25।।

करता धावों पर दृग–कोर¸
कभी मचाता दुख से शोर।
कभी देख राणा की ओर¸
रो देता¸ हो प्रेम–विभोर।।26।।

लोट–लोट सह व्यथा महान््¸
यश का फहरा अमर–निशान।
राणा–गोदी में रख शीश
चेतक ने कर दिया पयान।।27।।

घहरी दुख की घटा नवीन¸
राणा बना विकल बल–हीन।
लगा तलफने बारंबार
जैसे जल–वियोग से मीन।।28।।

“हां! चेतक¸ तू पलकें खोल¸
कुछ तो उठकर मुझसे बोल।
मुझको तू न बना असहाय
मत बन मुझसे निठुर अबोल।।29।।

मिला बन्धु जो खोकर काल
तो तेरा चेतक¸ यह हाल!
हा चेतक¸ हा चेतक¸ हाय्”¸
कहकर चिपक गया तत्काल।।30।।

“अभी न तू तुझसे मुख मोड़¸
न तू इस तरह नाता तोड़।
इस भव–सागर–बीच अपार
दुख सहने के लिए न छोड़।।31।।

बैरी को देना परिताप¸
गज–मस्तक पर तेरी टाप।
फिर यह तेरी निद्रा देख
विष–सा चढ़ता है संताप।।32।।

हाय¸ पतन में तेरा पात¸
क्षत पर कठिन लवण–आघात।
हा¸ उठ जा¸ तू मेरे बन्धु¸
पल–पल बढ़ती आती रात।।33।।

चला गया गज रामप्रसाद¸
तू भी चला बना आजाद।
हा¸ मेरा अब राजस्थान
दिन पर दिन होगा बरबाद।।34।।

किस पर देश करे अभिमान¸
किस पर छाती हो उत्तान।
भाला मौन¸ मौन असि म्यान¸
इस पर कुछ तो कर तू ध्यान।।35।।

लेकर क्या होगा अब राज¸
क्या मेरे जीवन का काज?्”
पाठक¸ तू भी रो दे आज
रोता है भारत–सिरताज।।36।।

तड़प–तड़प अपने नभ–गेह
आंसू बहा रहा था मेह।
देख महाराणा का हाल
बिजली व्याकुल¸ कम्पित देह।।37।।

घुल–घुल¸ पिघल–पिघलकर प्राण¸
आंसू बन–बनकर पाषाण।
निझर्र–मिस बहता था हाय
हा¸ पर्वत भी था मि`यमाण।।38।।

क्षण भर ही तक था अज्ञान¸
चमक उठा फिर उर में ज्ञान।
दिया शक्त ने अपना वाजि¸
चढ़कर आगे बढ़ा महान््।।39।।

जहां गड़ा चेतक–कंकाल¸
हुई जहां की भूमि निहाल।
बहीं देव–मन्दिर के पास¸
चबूतरा बन गया विशाल।।40।।

होता धन–यौवन का हास¸
पर है यश का अमर–विहास।
राणा रहा न¸ वाजि–विलास¸
पर उनसे उज्ज्वल इतिहास।।41।।

बनकर राणा सदृश महान
सीखें हम होना कुबार्न।
चेतक सम लें वाजि खरीद¸
जननी–पद पर हों बलिदान।।42।।

आओ खोज निकाले यन्त्र
जिससे रहें न हम परतन्त्र।
फूंके कान–कान में मन्त्र¸
बन जायें स्वाधीन–स्वतन्त्र।।43।।

हल्दीघाटी–अवनी पर
सड़ती थीं बिखरी लाशें।
होती थी घृणा घृणा को¸
बदबू करती थीं लाशें।।44।।

 

चतुर्दश सर्ग:

 

भर तड़प–तड़पकर
घन ने आंसू बरसाया।
लेकर संताप सबेरे
धीरे से दिनकर आया।।1।।

था लाल बदन रोने से
चिन्तन का भार लिये था।
शव–चिता जलाने को वह
कर में अंगार लिये था।।2।।

निशि के भीगे मुरदों पर
उतरी किरणों की माला।
बस लगी जलाने उनको
रवि की जलती कर–ज्वाला।।3।।

लोहू जमने से लोहित
सावन की नीलम घासें¸
सरदी–गरमी से सड़कर
बजबजा रही थीं लाशें।।4।।

आंखें निकाल उड़ जाते¸
क्षण भर उड़कर आ जाते¸
शव–जीभ खींचकर कौवे
चुभला–चुभलाकर खाते।।5।।

वर्षा–सिंचित विष्ठा को
ठोरों से बिखरा देते¸
कर कांव–कांव उसको भी
दो–चार कवर ले लेते।।6।।

गिरि पर डगरा डगराकर
खोपड़ियां फोर रहे थे।
मल–मूत्र–रूधिर चीनी के
शरबत सम घोर रहे थे।।7।।

भोजन में श्वान लगे थे
मुरदे थे भू पर लेटे।
खा मांस¸ चाट लेते थे
चटनी सम बहते नेटे।।8।।

लाशों के फार उदर को
खाते–खाते लड़ जाते।
पोटी पर थूथुन देकर
चर–चर–चर नसें चबाते।।9।।

तीखे दांतों से हय के
दांतों को तोर रहे थे।
लड़–लड़कर¸ झगड़–झगड़कर
वे हाड़ चिचोर रहे थे।।10।।

जम गया जहां लोहू था
कुत्ते उस लाल मही पर!
इस तरह टूटते जैसे
मार्जार सजाव दही पर।।11।।

लड़ते–लड़ते जब असि पर¸
गिरते कटकर मर जाते।
तब इतर श्वान उनको भी
पथ–पथ घसीटकर खाते।12।।

आंखों के निकले कींचर¸
खेखार–लार¸ मुरदों की।
सामोद चाट¸ करते थे
दुर्दशा मतंग–रदों की।।13।।

उनके न दांत धंसते थे
हाथी की दृढ़ खालों में।
वे कभी उलझ पड़ते थे
अरि–दाढ़ी के बालों में।।14।।

चोटी घसीट चढ़ जाते
गिरि की उन्नत चोटी पर।
गुर्रा–गुर्रा भिड़ते थे
वे सड़ी–गड़ी पोटी पर।।15।।

ऊपर मंडरा मंडराकर
चीलें बिट कर देती थीं।
लोहू–मय लोथ झपटकर
चंगुल में भर लेती थीं।।16।।

पर्वत–वन में खोहों में¸
लाशें घसीटकर लाते¸
कर गुत्थम–गुत्थ परस्पर
गीदड़ इच्छा भर खाते।।17।।

दिन के कारण छिप–छिपकर
तरू–ओट झाड़ियों में वे
इस तरह मांस चुभलाते
मानो हों मुख में मेवे।।18।।

खा मेदा सड़ा हुलककर
कर दिया वमन अवनी पर।
झट उसे अन्य जम्बुक ने
खा लिया खीर सम जी भर।।19।।

पर्वत–श्रृंगों पर बैठी
थी गीधों की पंचायत।
वह भी उतरी खाने की
सामोद जानकर सायत।।20।।

पीते थे पीव उदर की
बरछी सम चोंच घुसाकर¸
सानन्द घोंट जाते थे
मुख में शव–नसें घुलाकर।।21।।

हय–नरम–मांस खा¸ नर के
कंकाल मधुर चुभलाते।
कागद–समान कर–कर–कर
गज–खाल फारकर खाते।।22।।

इस तरह सड़ी लाशें खाकर
मैदान साफ कर दिया तुरत।
युग–युग के लिए महीधर में
गीधों ने भय भर दिया तुरत।।23।।

हल्दीघाटी संगर का तो
हो गया धरा पर आज अन्त।
पर¸ हा¸ उसका ले व्यथा–भार
वन–वन फिरता मेवाड़–कन्त।।24।।

 

पंचदश सर्ग

 

बीता पर्वत पर
नीलम घासें लहराई।
कासों की श्वेत ध्वजाएं
किसने आकर फहराई?।।1।।

नव पारिजात–कलिका का
मारूत आलिंगन करता
कम्पित–तन मुसकाती है
वह सुरभि–प्यार ले बहता।।2।।

कर स्नान नियति–रमणी ने¸
नव हरित वसन है पहना।
किससे मिलने को तन में
झिलमिल तारों का गहना।।3।।

पर्वत पर¸ अवनीतल पर¸
तरू–तरू के नीलम दल पर¸
यह किसका बिछा रजत–तट
सागर के वक्ष:स्थल पर।।4।।

वह किसका हृदय निकलकर
नीरव नभ पर मुसकाता?
वह कौन सुधा वसुधा पर
रिमझिम–रिमझिम बरसाता।।5।।

तारक मोती का गजरा
है कौन उसे पहनाता?
नभ के सुकुमार हृदय पर
वह किसको कौन रिझाता ।।6।।

पूजा के लिए किसी की
क्या नभ–सर कमल खिलाता?
गुदगुदा सती रजनी को
वह कौन छली इतराता।।7।।

वह झूम–झूमकर किसको
नव नीरव–गान सुनाता?
क्या शशि तारक मोती से
नभ नीलम–थाल सजाता।।8।।

जब से शशि को पहरे पर
दिनकर सो गया जगाकर¸
कविता–सी कौन छिपी है
यह ओढ़ रूपहली चादर।।9।।

क्या चांदी की डोरी से
वह नाप रहा है दूरी?
या शेष जगह भू–नभ की
करता ज्योत्स्ना से पूरी।।10।।

इस उजियाली में जिसमें
हंसता है कलित–कलाधर।
है कौन खोजता किसको
जुगनू के दीप जलाकर।।11।।

लहरों से मृदु अधरों का
विधु झुक–झुक करता चुम्बन।
धुल कोई के प्राणों में
वह बना रहा जग निधुवन।।12।।

घूंघट–पट खोल शशी से
हंसती है कुमुद–किशोरी।
छवि देख देख बलि जाती
बेसुध अनिमेष चकोरी।।13।।

इन दूबों के टुनगों पर
किसने मोती बिखराये?
या तारे नील–गगन से
स्वच्छन्द विचरने आये।।14।।

या बंधी हुई हैं अरि की
जिसके कर में हथकड़ियां¸
उस पराधीन जननी की
बिखरी आंसू की लड़ियां।।15।।

इस स्मृति से ही राणा के
उर की कलियां मुरझाई।
मेवाड़–भूमि को देखा¸
उसकी आंखें भर आई।।16।।

अब समझा साधु सुधाकर
कर से सहला–सहलाकर।
दुर्दिन में मिटा रहा है
उर–ताप सुधा बरसाकर।।17।।

जननी–रक्षा–हित जितने
मेरे रणधीर मरे हैं¸
वे ही विस्तृत अम्बर पर
तारों के मिस बिखरे हैं।।18।।

मानव–गौरव–हित मैंने
उन्मत्त लड़ाई छेड़ी।
अब पड़ी हुई है मां के
पैरों में अरि की बेड़ी।।19।।

पर हां¸ जब तक हाथों में
मेरी तलवर बनी है¸
सीने में घुस जाने को
भाले की तीव्र अनी है।।20।।

जब तक नस में शोणित है
श्वासों का ताना–बाना¸
तब तक अरि–दीप बुझाना
है बन–बनकर परवाना।।21।।

घासों की रूखी रोटी¸
जब तक सोत का पानी।
तब तक जननी–हित होगी
कुबार्नी पर कुबार्नी।।22।।

राणा ने विधु तारों को
अपना प्रण–गान सुनाया।
उसके उस गान वचन को
गिरि–कण–कण ने दुहराया।।23।।

इतने में अचल–गुहा से
शिशु–क्रन्दन की ध्वनि आई?
कन्या के क्रन्दन में थी
करूणा की व्यथा समाई।।24।।

उसमें कारागृह से थी
जननी की अचिर रिहाई।
या उसमें थी राणा से
मां की चिर छिपी जुदाई।।25।।

भालों से¸ तलवारों से¸
तीरों की बौछारों से¸
जिसका न हृदय चंचल था
वैरी–दल ललकारा से।।26।।

दो दिन पर मिलती रोटी
वह भी तृण की घासों की¸
कंकड़–पत्थर की शय्या¸
परवाह न आवासों की।।27।।

लाशों पर लाशें देखीं¸
घायल कराहते देखे।
अपनी आंखों से अरि को
निज दुर्ग ढाहते देखे।।28।।

तो भी उस वीर–व्रती का
था अचल हिमालय–सा मन।
पर हिम–सा पिघल गया वह
सुनकर कन्या का क्रन्दन।।29।।

आंसू की पावन गंगा
आंखों से झर–झर निकली।
नयनों के पथ से पीड़ा
सरिता–सी बहकर निकली।।30।।

भूखे–प्यासे–कुम्हालाये
शिशु को गोदी में लेकर।
पूछा¸ ्”तुम क्यों रोती हो
करूणा को करूणा देकर्”।।31।।

अपनी तुतली भाषा में
वह सिसक–सिसककर बोली¸
जलती थी भूख तृषा की
उसके अन्तर में होली।।32।।

‘हा छही न जाती मुझछे
अब आज भूख की ज्वाला।
कल छे ही प्याछ लगी है
हो लहा हिदय मतवाला।।33।।

मां ने घाछों की लोती
मुझको दी थी खाने को¸
छोते का पानी देकल
वह बोली भग जाने को।।34।।

अम्मा छे दूल यहीं पल
छूकी लोती खाती थी।
जो पहले छुना चुकी हूं¸
वह देछ–गीत गाती थी।।35।।

छच कहती केवल मैंने
एकाध कवल खाया था।
तब तक बिलाव ले भागा
जो इछी लिए आया था।।36।।

छुनती हूं तू लाजा है
मैं प्याली छौनी तेली।
क्या दया न तुझको आती
यह दछा देखकल मेली।।37।।

लोती थी तो देता था¸
खाने को मुझे मिठाई।
अब खाने को लोती तो
आती क्यों तुझे लुलाई।।38।।

वह कौन छत्रु है जिछने
छेना का नाछ किया है?
तुझको¸ मां को¸ हंम छभको¸
जिछने बनबाछ दिया है।।39।।

यक छोती छी पैनी छी
तलवाल मुझे भी दे दे।
मैं उछको माल भगाऊं
छन मुझको लन कलने दे।।40।।

कन्या की बातें सुनकर
रो पड़ी अचानक रानी।
राणा की आंखों से भी
अविरल बहता था पानी।।41।।

उस निर्जन में बच्चों ने
मां–मां कह–कहकर रोया।
लघु–शिशु–विलाप सुन–सुनकर
धीरज ने धीरज खोया।।42।।

वह स्वतन्त्रता कैसी है
वह कैसी है आजादी।
जिसके पद पर बच्चों ने
अपनी मुक्ता बिखरा दी।।43।।

सहने की सीमा होती
सह सका न पीड़ा अन्तर।
हा¸ सiन्ध–पत्र लिखने को
वह बैठ गया आसन पर।।44।।

कह ‘सावधान्’ रानी ने
राणा का थाम लिया कर।
बोली अधीर पति से वह
कागद मसिपात्र छिपाकर।।45।।

“तू भारत का गौरव है¸
तू जननी–सेवा–रत है।
सच कोई मुझसे पूछे
तो तू ही तू भारत है।।46।।

तू प्राण सनातन का है
मानवता का जीवन है।
तू सतियों का अंचल है
तू पावनता का धन है।।47।।

यदि तू ही कायर बनकर
वैरी सiन्ध करेगा।
तो कौन भला भारत का
बोझा माथे पर लेगा।।48।।

लुट गये लाल गोदी के
तेरे अनुगामी होकर।
कितनी विधवाएं रोतीं
अपने प्रियतम को खोकर।।49।।

आज़ादी का लालच दे
झाला का प्रान लिया है।
चेतक–सा वाजि गंवाकर
पूरा अरमान किया है।।50।।

तू सiन्ध–पत्र लिखने का
कह कितना है अधिकारी?
जब बन्दी मां के दृग से
अब तक आंसू है जारी।।51।।

थक गया समर से तो तब¸
रक्षा का भार मुझे दे।
मैं चण्डी–सी बन जाऊं
अपनी तलवार मुझे दे।”।।52।।

मधुमय कटु बातें सुनकर
देखा ऊपर अकुलाकर¸
कायरता पर हंसता था
तारों के साथ निशाकर।।53।।

झाला सम्मुख मुसकाता
चेतक धिक्कार रहा है।
असि चाह रही कन्या भी
तू आंसू ढार रहा है।।54।।

मर मिटे वीर जितने थे¸
वे एक–एक कर आते।
रानी की जय–जय करते¸
उससे हैं आंख चुराते।।55।।

हो उठा विकल उर–नभ का
हट गया मोह–धन काला।
देखा वह ही रानी है
वह ही अपनी तृण–शाला।।56।।

बोला वह अपने कर में
रमणी कर थाम “क्षमा कर¸
हो गया निहाल जगत में¸
मैं तुम सी रानी पाकर।”।।57।।

इतने में वैरी–सेना ने
राणा को घ्ोर लिया आकर।
पर्वत पर हाहाकार मचा
तलवारें झनकी बल खाकर।।58।।

तब तक आये रणधीर भील
अपने कर में हथियार लिये।
पा उनकी मदद छिपा राणा
अपना भूखा परिवार लिये।।59।।

 

     षोडश सर्ग

 

आधी रात अंधेरी
तम की घनता थी छाई।
कमलों की आंखों से भी
कुछ देता था न दिखाई।।1।।

पर्वत पर¸ घोर विजन में
नीरवता का शासन था।
गिरि अरावली सोया था
सोया तमसावृत वन था।।2।।

धीरे से तरू के पल्लव
गिरते थे भू पर आकर।
नीड़ों में खग सोये थे
सन्ध्या को गान सुनाकर।।3।।

नाहर अपनी मांदों में
मृग वन–लतिका झुरमुट में।
दृग मूंद सुमन सोये थे
पंखुरियों के सम्पुट में।।4।।

गाकर मधु–गीत मनोहर
मधुमाखी मधुछातों पर।
सोई थीं बाल तितलियां
मुकुलित नव जलजातों पर।।5।।

तिमिरालिंगन से छाया
थी एकाकार निशा भर।
सोई थी नियति अचल पर
ओढ़े घन–तम की चादर।।6।।

आंखों के अन्दर पुतली
पुतली में तिल की रेखा।
उसने भी उस रजनी में
केवल तारों को देखा।।7।।

वे नभ पर कांप रहे थे¸
था शीत–कोप कंगलों में।
सूरज–मयंक सोये थे
अपने–अपने बंगलों में।।8।।

निशि–अंधियाली में निद्रित
मारूत रूक–रूक चलता था।
अम्बर था तुहिन बरसता
पर्वत हिम–सा गलता था।।9।।

हेमन्त–शिशिर का शासन¸
लम्बी थी रात विरह–सी।
संयोग–सदृश लघु वासर¸
दिनकर की छवि हिमकर–सी।।10।।

निर्धन के फटे पुराने
पट के छिद्रों से आकर¸
शर–सदृश हवा लगती थी
पाषाण–हृदय दहला कर।।11।।

लगती चन्दन–सी शीतल
पावक की जलती ज्वाला।
बाड़व भी कांप रहा था
पहने तुषार की माला।।12।।

जग अधर विकल हिलते थे
चलदल के दल से थर–थर।
ओसों के मिस नभ–दृग से
बहते थे आंसू झर–झर।।13।।

यव की कोमल बालों पर¸
मटरों की मृदु फलियों पर¸
नभ के आंसू बिखरे थे
तीसी की नव कलियों पर।।14।।

घन–हरित चने के पौधे¸
जिनमें कुछ लहुरे जेठे¸
भिंग गये ओस के जल से
सरसों के पीत मुरेठे।।15।।

वह शीत काल की रजनी
कितनी भयदायक होगी।
पर उसमें भी करता था
तप एक वियोगी योगी।।16।।

वह नीरव निशीथिनी में¸
जिसमें दुनिया थी सोई।
निझर्र की करूण–कहानी
बैठा सुनता था कोई।।17।।

उस निझर्र के तट पर ही
राणा की दीन–कुटी थी।
वह कोने में बैठा था¸
कुछ वंकिम सी भृकुटी थी।।18।।

वह कभी कथा झरने की
सुनता था कान लगाकर।
वह कभी सिहर उठता था¸
मारूत के झोंके खाकर।।19।।

नीहार–भार–नत मन्थर
निझर्र से सीकर लेकर¸
जब कभी हवा चलती थी
पर्वत को पीड़ा देकर।।20।।

तब वह कथरी के भीतर
आहें भरता था सोकर।
वह कभी याद जननी की
करता था पागल होकर।।21।।

वह कहता था वैरी ने
मेरे गढ़ पर गढ़ जीते।
वह कहता रोकर¸ मा की
अब सेवा के दिन बीते।।22।।

यद्यपि जनता के उर में
मेरा ही अनुशासन है¸
पर इंच–इंच भर भू पर
अरि का चलता शासन है।।23।।

दो चार दिवस पर रोटी
खाने को आगे आई।
केवल सूरत भर देखी
फिर भगकर जान बचाई।24।।

अब वन–वन फिरने के दिन
मेरी रजनी जगने की।
क्षण आंखों के लगते ही
आई नौबत भगने की।।25।।

मैं बूझा रहा हूं शिशु को
कह–कहकर समर–कहानी।
बुद–बुद कुछ पका रही है
हा¸ सिसक–सिसककर रानी।।26।।

आंसू–जल पोंछ रही है
चिर क्रीत पुराने पट से।
पानी पनिहारिन–पलकें
भरतीं अन्तर–पनघट से।।27।।

तब तक चमकी वैरी–असि
मैं भगकर छिपा अनारी।
कांटों के पथ से भागी
हा¸ वह मेरी सुकुमारी।।28।।

तृण घास–पात का भोजन
रह गया वहीं पकता ही।
मैं झुरमुट के छिद्रों से
रह गया उसे तकता ही।।29।।

चलते–चलते थकने पर
बैठा तरू की छाया में।
क्षण भर ठहरा सुख आकर
मेरी जर्जर–काया में।।30।।

जल–हीन रो पड़ी रानी¸
बच्चों को तृषित रूलाकर।
कुश–कण्टक की शय्या पर
वह सोई उन्हें सुलाकर।।31।।

तब तक अरि के आने की
आहट कानों में आई।
बच्चों ने आंखें खोलीं
कह–कहकर माई–माई।।32।।

रव के भय से शिशु–मुख को
वल्कल से बांध भगे हम।
गह्वर में छिपकर रोने
रानी के साथ लगे हम।।33।।

वह दिन न अभी भूला है¸
भूला न अभी गह्नर है।
सम्मुख दिखलाई देता
वह आंखों का झर–झर है।।34।।

जब सहन न होता¸ उठता
लेकर तलवार अकेला।
रानी कहती –– न अभी है
संगर करने की बेला।।35।।

तब भी न तनिक रूकता तो
बच्चे रोने लगते हैं।
खाने को दो कह–कहकर
व्याकुल होने लगते हैं।।36।।

मेरे निबर्ल हाथों से
तलवार तुरत गिरती है।
इन आंखों की सरिता में
पुतली–मछली तिरती है।।37।।

हा¸ क्षुधा–तृषा से आकुल
मेरा यह दुबर्ल तन है।
इसको कहते जीवन क्या¸
यह ही जीवन जीवन है।।38।।

अब जननी के हित मुझको
मेवाड़ छोड़ना होगा।
कुछ दिन तक मां से नाता
हा¸ विवश तोड़ना होगा।।39।।

अब दूर विजन में रहकर
राणा कुछ कर सकता है।
जिसकी गोदी में खेला¸
उसका ऋण भर सकता है।।40।।

यह कहकर उसने निशि में
अपना परिवार जगाया।
आंखों में आंसू भरकर
क्षण उनको गले लगाया।।41।।

बोला –” लोग यहीं से
मां का अभिवादन कर लो।
अपने–अपने अन्तर में
जननी की सेवा भर लो।।42।।

चल दो¸ क्षण देर करो मत¸
अब समय न है रोने को।
मेवाड़ न दे सकता है
तिल भर भी भू सोने को।।43।।

चल किसी विजन कोने में
अब शेष बिता दो जीवन।
इस दुखद भयावह ज्वर की
यह ही है दवा सजीवन।्”।।44।।

सुन व्यथा–कथा रानी ने
आंचल का कोना धरकर¸
कर लिया मूक अभिवादन
आंखों में पानी भरकर।।45।।

हां¸ कांप उठा रानी के
तन–पट का धागा–धागा।
कुछ मौन–मौन जब मां से
अंचल पसार कर मांगा।।46।।

बच्चों ने भी रो–रोकर
की विनय वन्दना मां की।
पत्थर भी पिघल रहा था
वह देख–देखकर झांकी।।47।।

राणा ने मुकुट नवाया
चलने की हुई तैयारी।
पत्नी शिशु लेकर आगे
पीछे पति वल्कल–धारी।।48।।

तत्काल किसी के पद का
खुर–खुर रव दिया सुनाई।
कुछ मिली मनुज की आहट¸
फिर जय–जय की ध्वनि आई।।49।
राणा की जय राणा की
जय–जय राणा की जय हो।
जय हो प्रताप की जय हो¸
राणा की सदा विजय हो।।50।।

वह ठहर गया रानी से
बोला – “मैं क्या हूं सोता?
मैं स्वप्न देखता हूं या
भ्रम से ही व्याकुल होता।।51।।

तुम भी सुनती या मैं ही
श्रुति–मधुर नाद सुनता हूं।
जय–जय की मन्थर ध्वनि में
मैं मुक्तिवाद सुनता हूं।्”।।52।।

तब तक भामा ने फेंकी
अपने हाथों की लकुटी।
‘मेरे शिशु्’ कह राणा के
पैरों पर रख दी त्रिकुटी।।53।।

आंसू से पद को धोकर
धीमे–धीमे वह बोला –
“यह मेरी सेवा्” कहकर
थैलों के मुंह को खोला।।54।।

खन–खन–खन मणिमुद्रा की
मुक्ता की राशि लगा दी।
रत्नों की ध्वनि से बन की
नीरवता सकल भगा दी।।55।।

“एकत्र करो इस धन से
तुम सेना वेतन–भोगी।
तुम एक बार फिर जूझो
अब विजय तुम्हारी होगी।।56।।

कारागृह में बन्दी मां
नित करती याद तुम्हें है।
तुम मुक्त करो जननी को
यह आशीर्वाद तुम्हें हैं।”।।57।।

वह निबर्ल वृद्ध तपस्वी
लग गया हांफने कहकर।
गिर पड़ी लार अवनी पर¸
हा उसके मुख से बहकर।।58।।

वह कह न सका कुछ आगे¸
सब भूल गया आने पर।
कटि–जानु थामकर बैठा
वह भू पर थक जाने पर।।59।।

राणा ने गले लगाया
कायरता धो लेने पर।
फिर बिदा किया भामा को
घुल–घुल कर रो लेने पर।।60।।

खुल गये कमल–कोषों के
कारागृह के दरवाजे।
उससे बन्दी अलि निकले
सेंगर के बाजे–बाजे।।61।।

उषा ने राणा के सिर
सोने का ताज सजाया।
उठकर मेवाड़–विजय का
खग–कुल ने गाना गाया।।62।।

कोमल–कोमल पत्तों में
फूलों को हंसते देखा।
खिंच गई वीर के उर में
आशा की पतली रेखा।।63।।

उसको बल मिला हिमालय का¸
जननी–सेवा–अनुरक्ति मिली।
वर मिला उसे प्रलयंकर का¸
उसको चण्डी की शक्ति मिली।।64।।

सूरज का उसको तेज मिला¸
नाहर समान वह गरज उठा।
पर्वत पर झण्डा फइराकर
सावन–घन सा वह गरज उठा।।65।
तलवार निकाली¸ चमकाई¸
अम्बर में फेरी घूम–घूम।
फिर रखी म्यान में चम–चम–चम¸
खरधार–दुधारी चूम–चूम।।66।।

 

सप्तदश सर्ग

 

था शीत भगाने को
माधव की उधर तयारी थी।
वैरी निकालने को निकली
राणा की इधर सवारी थी।।1।।

थे उधर लाल वन के पलास¸
थी लाल अबीर गुलाल लाल।
थे इधर क्रोध से संगर के
सैनिक के आनन लाल–लाल।।2।।

उस ओर काटने चले खेत
कर में किसान हथियार लिये।
अरि–कण्ठ काटने चले वीर
इस ओर प्रखर तलवार लिये।।3।।

उस ओर आम पर कोयल ने
जादू भरकर वंशी टेरी।
इस ओर बजाई वीर–व्रती
राणा प्रताप ने रण–भेरी।।4।।

सुनकर भेरी का नाद उधर
रण करने को शहबाज चला।
लेकर नंगी तलवार इधर
रणधीरों का सिरताज चला।।5।।

दोनों ने दोनों को देखा¸
दोनों की थी उन्नत छाती।
दोनों की निकली एक साथ
तलवार म्यान से बल खाती।।6।।

दोनों पग–पग बढ़ चले वीर
अपनी सेना की राजि लिये।
कोई गज लिये बढ़ा आगे
कोई अपना वर वाजि लिये।।7।।

सुन–सुन मारू के भ्ौरव रव
दोनों दल की मुठभेड़ हुई।
हर–हर–हर कर पिल पड़े वीर¸
वैरी की सेना भेंड़ हुई।।8।।

उनकी चोटी में आग लगी¸
अरि झुण्ड देखते ही आगे।
जागे पिछले रण के कुन्तल¸
उनके उर के साहस जागे।।9।।

प्रलयंकर संगर–वीरों को
जो मुगल मिला वह सभय मिला।
वैरी से हल्दीघाटी का
बदला लेने को समय मिला।।10।।

गज के कराल किलकारों से
हय के हिन–हिन हुंकारों से।
बाजों के रव¸ ललकारों से¸
भर गया गगन टंकारों से।।11।।

पन्नग–समूह में गरूड़–सदृश¸
तृण में विकराल कृशानु–सदृश।
राणा भी रण में कूद पड़ा
घन अन्धकार में भानु–सदृश।।12।।

राणा–हय की ललकार देख¸
राणा की चल–तलवार देख।
देवीर समर भी कांप उठा
अविराम वार पर वार देख।।13।।

क्षण–क्षण प्रताप का गर्जन सुन
सुन–सुन भीषण रव बाजों के¸
अरि कफन कांपते थे थर–थर
घर में भयभीत बजाजों के।।14।।

आगे अरि–मुण्ड चबाता था
राना हय तीखे दांतों से।
पीछे मृत–राजि लगाता था
वह मार–मार कर लातों से।।15।।

अवनी पर पैर न रखता था
अम्बर पर ही वह घोड़ा था।
नभ से उतरा अरि भाग चले¸
चेतक का असली जोड़ा था।।16।।

अरि–दल की सौ–सौ आंखों में
उस घोड़े को गड़ते देखा।
नभ पर देखा¸ भू पर देखा¸
वैरी–दल में लड़ते देखा।।17।।

वह कभी अचल सा अचल बना¸
वह कभी चपलतर तीर बना।
जम गया कभी¸ वह सिमट गया¸
वह दौड़ा¸ उड़ा¸ समीर बना।।18।।

नाहर समान जंगी गज पर
वह कूद–कूद चढ़ जाता था।
टापों से अरि को खूंद–खूंद
घोड़ा आगे बढ़ जाता था।।19।।

यदि उसे किसी ने टोक दिया¸
वह महाकाल का काल बना।
यदि उसे किसी ने रोक दिया¸
वह महाव्याल विकराल बना।।20।।

राणा को लिये अकेला ही
रण में दिखलाई देता था।
ले–लेकर अरि के प्राणों को
चेतक का बदला लेता था।।21।।

राणा उसके ऊपर बैठा
जिस पर सेना दीवानी थी।
कर में हल्दीघाटी वाली
वह ही तलवार पुरानी थी।।22।।

हय–गज–सवार के सिर को थी¸
वह तमक–तमककर काट रही।
वह रूण्ड–मुण्ड से भूतल को¸
थी चमक–चमककर पाट रही।।23।।

दुश्मन के अत्याचारों से
जो उज़ड़ी भूमि विचारी थी¸
नित उसे सींचती शोणित से
राणा की कठिन दुधारी थी।।24।।

वह बिजली–सी चमकी चम–चम
फिर मुगल–घटा में लीन हुई।
वह छप–छप–छप करती निकली¸
फिर चमकी¸ छिपी¸ विलीन हुई।।25।
फुफुकार भुजंगिन सी करती
खच–खच सेना के पार गई।
अरि–कण्ठों से मिलती–जुलती
इस पार गई¸ उस पार गई।।26।।

वह पीकर खून उगल देती
मस्ती से रण में घूम–घूम।
अरि–शिर उतारकर खा जाती
वह मतवाली सी झूम–झूम।।27।।

हाथी–हय–तन के शोणित की
अपने तन में मल कर रोली¸
वह खेल रही थी संगर में
शहबाज–वाहिनी से होली।।28।।

वह कभी श्वेत¸ अरूणाभ कभी¸
थी रंग बदलती क्षण–क्षण में।
गाजर–मुली की तरह काट
सिर बिछा दिये रण–प्रांगण में।।29।।

यह हाल देख वैरी–सेना
देवीर–समर से भाग चली।
राणा प्रताप के वीरों के
उर में हिंसा की आग जली।।30।।

लेकर तलवार अपाइन तक
अरि–अनीकिनी का पीछा कर।
केसरिया झण्ड़ा गाड़ दिया
राणा ने अपना गढ़ पाकर।।31।।

फिर नदी–बाढ़ सी चली चमू
रण–मत्त उमड़ती कुम्भलगढ़।
तलवार चमकने लगी तुरत
उस कठिन दुर्ग पर सत्वर चढ़।।32।।

गढ़ के दरवाजे खोल मुगल
थे भग निकले पर फेर लिया¸
अब्दुल के अभिमानी–दल को¸
राणा प्रताप ने घेर लिया।।33।।

इस तरह काट सिर बिछा दिये
सैनिक जन ने लेकर कृपान।
यव–मटर काटकर खेतों में¸
जिस तरह बिछा देते किसान।।34।।

मेवाड़–देश की तलवारें
अरि–रक्त–स्नान से निखर पड़ीं।
कोई जन भी जीता न बचा
लाशों पर लाशें बिखर पड़ीं।।35।।

जय पाकर फिर कुम्हलगढ़ पर
राणा का झंडा फहर उठा।
वह चपल लगा देने ताड़न¸
अरि का सिंहासन थहर उठा।।36।।

फिर बढ़ी आग की तरह प्रबल
राणा प्रताप की जन–सेना।
गढ़ पर गढ़ ले–ले बढ़ती थी
वह आंधी–सी सन–सन सेना।।37।।

वह एक साल ही के भीतर
अपने सब दुर्ग किले लेकर¸
रणधीर–वाहिनी गरज उठी
वैरी–उर को चिन्ता देकर।।38।।

मेवाड़ हंसा¸ फिर राणा ने
जय–ध्वजा किले पर फहराई।
मां धूल पोंछकर राणा की
सामोद फूल–सी मुसकाई।।39।।

घर–घर नव बन्दनवार बंधे¸
बाजे शहनाई के बाजे।
जल भरे कलश दरवाजों पर
आये सब राजे महराजे।।40।।

मंगल के मधुर स–राग गीत
मिल–मिलकर सतियों ने गाये।
गाकर गायक ने विजय–गान
श्रोता जन पर मधु बरसाये।।41।।

कवियों ने अपनी कविता में
राणा के यश का गान किया।
भूपों ने मस्तक नवा–नवा
सिंहासन का सम्मान किया।।42।।

धन दिया गया भिखमंगों को
अविराम भोज पर भोज हुआ।
दीनों को नूतन वस्त्र मिले¸
वर्षों तक उत्सव रोज हुआ।।43।।

हे विश्ववन्द्य¸ हे करूणाकर¸
तेरी लीला अद््भुत अपार।
मिलती न विजय¸ यदि राणा का
होता न कहीं तू मददगार।।44।।

तू क्षिति में¸ पावक में¸ जल में¸
नभ में¸ मारूत में वर्तमान¸
तू अजपा में¸ जग की सांसें
कहती सो|हं तू है महान््।।45।।

इस पुस्तक का अक्षर–अक्षर¸
प्रभु¸ तेरा ही अभिराम–धाम।
हल्दीघाटी का वर्ण–वर्ण¸
कह रहा निरन्तर राम–राम।।46।।

पहले सृजन के एक¸ पीछे¸
तीन¸ तू अभिराम है।
तू विष्णु है¸ तू शम्भु है¸
तू विधि¸ अनन्त प्रणाम है।।47।।

जल में अजन्मा¸ तव करों से
बीज बिखराया गया।
इससे चराचर सृजन–कतातू
सदा गाया गया।।48।।

तू हार–सूत्र समान सब में
एक सा रहता सदा!
तू सृष्टि करता¸ पालता¸
संहार करता सर्वदा।।49।।

स्त्री–पुरूष तन के भाग दो¸
फल सकल करूणा–दृष्टि के।
वे ही बने माता पिता
उत्पत्ति–वाली सृष्टि के।।50।।

तेरी निशा जो दिवस सोने
जागने के हैं बने¸
वे प्राणियों के प्रलय हैं¸
उत्पत्ति–क्रम से हैं बने।।51।।

तू विश्व–योनि¸ अयोनि है¸
तू विश्व का पालक प्रभो!
तू विश्व–आदि अनादि है¸
तू विश्व–संचालक प्रभो!।।52।।

तू जानता निज को तथा
निज सृष्टि है करता स्वयम््।
तू शक्त है अतएव अपने
आपको हरता स्वयम््।।53।।

द्रव¸ कठिन¸ इन्दि`य–ग्राह्य और
अग्राह्य¸ लघु¸ गुरू युक्त है।
आणिमादिमय है कार्य¸ कारण¸
और उनसे मुक्त है।।54।।

आरम्भ होता तीन स्वर से
तू वही ओंकार है।
फल–कर्म जिनका स्वर्ग–मख है
तू वही अविकार है।।55।।

जो प्रकृति में रत हैं तुझे वे
तत्व–वेत्ता कह रहे।
फिर प्रकृति–द्रष्टा भी तुझी को¸
ब्रह्म–वेत्ता कह रहे।।56।।

तू पितृगण का भी पिता है¸
राम–राम हरे हरे।
दक्षादि का भी सृष्टि–कर्ता
और पर से भी परे।।57।।

तू हव्य¸ होता¸ भोग्य¸ भोक्ता¸
तू सनातन है प्रभो!
तू वेद्य¸ ज्ञाता¸ ध्येय¸ ध्याता¸
तू पुरातन है प्रभो!।।58।।

हे राम¸ हे अभिराम¸
तू कृतकृत्य कर अवतार से।
दबती निरन्तर जा रही है
मेदिनी अघ–भार से।।59।।

राणा–सदृश तू शक्ति दे¸
जननी–चरण–अनुरक्ति दे।
या देश–सेवा के लिए
झाला–सदृश ही भक्ति दे।।60।।

 

परिशिष्ट

 

यह एकलिंग का आसन है¸
इस पर न किसी का शासन है।
नित सिहक रहा कमलासन है¸
यह सिंहासन सिंहासन है।।1।।

यह सम्मानित अधिराजों से¸
अiर्चत है¸ राज–समाजों से।
इसके पद–रज पोंछे जाते
भूपों के सिर के ताजों से।।2।।

इसकी रक्षा के लिए हुई
कुबार्नी पर कुबार्नी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर
यह सिंहासन अभिमानी है।।3।।

खिलजी–तलवारों के नीचे
थरथरा रहा था अवनी–तल।
वह रत्नसिंह था रत्नसिंह¸
जिसने कर दिया उसे शीतल।।4।।

मेवाड़–भूमि–बलिवेदी पर
होते बलि शिशु रनिवासों के।
गोरा–बादल–रण–कौशल से
उज्ज्वल पन्ने इतिहासों के।।5।।

जिसने जौहर को जन्म दिया
वह वीर पद््मिनी रानी है।
राणा¸ तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है।।6।।

मूंजा के सिर के शोणित से
जिसके भाले की प्यास बुझी।
हम्मीर वीर वह था जिसकी
असि वैरी–उर कर पार जुझी।।7।।

प्रण किया वीरवर चूड़ा ने
जननी–पद–सेवा करने का।
कुम्भा ने भी व्रत ठान लिया।
रत्नों से अंचल भरने का।।8।।

यह वीर–प्रसविनी वीर–भूमि¸
रजपूती की रजधानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर
यह सिंहासन अभिमानी है।।9।।

जयमल ने जीवन–दान किया।
पत्ता ने अर्पण प्रान किया।
कल्ला ने इसकी रक्षा में
अपना सब कुछ कुबार्न किया।।10।।

सांगा को अस्सी घाव लगे¸
मरहमपट्टी थी आंखों पर।
तो भी उसकी असि बिजली सी
फिर गई छपाछप लाखों पर।।11।।

अब भी करूणा की करूण–कथा
हम सबको याद जबानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर
यह सिंहासन अभिमानी है।।12।।

क्रीड़ा होती हथियारों से¸
होती थी केलि कटारों से।
असि–धार देखने को उंगली
कट जाती थी तलवारों से।।13।।

हल्दी–घाटी का भैरव –पथ
रंग दिया गया था खूनों से।
जननी–पद–अर्चन किया गया
जीवन के विकच प्रसूनों से।।14।।

अब तक उस भीषण घाटी के
कण–कण की चढ़ी जवानी है!
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है।।15।।

भीलों में रण–झंकार अभी¸
लटकी कटि में तलवार अभी।
भोलेपन में ललकार अभी¸
आंखों में हैं अंगार अभी।।16।।

गिरिवर के उन्नत–श्रृंगों पर
तरू के मेवे आहार बने।
इसकी रक्षा के लिए शिखर थे¸
राणा के दरबार बने।।17।।

जावरमाला के गह्वर में
अब भी तो निर्मल पानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है।।18।।

चूंड़ावत ने तन भूषित कर
युवती के सिर की माला से।
खलबली मचा दी मुगलों में¸
अपने भीषणतम भाला से।।19।।

घोड़े को गज पर चढ़ा दिया¸
्’मत मारो्’ मुगल–पुकार हुई।
फिर राजसिंह–चूंड़ावत से
अवरंगजेब की हार हुई।।20।।

वह चारूमती रानी थी¸
जिसकी चेरि बनी मुगलानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है।।21।।

कुछ ही दिन बीते फतहसिंह
मेवाड़–देश का शासक था।
वह राणा तेज उपासक था
तेजस्वी था अरि–नाशक था।।22।।

उसके चरणों को चूम लिया
कर लिया समर्चन लाखों ने।
टकटकी लगा उसकी छवि को
देखा कजन की आंखों ने।।23।।

सुनता हूं उस मरदाने की
दिल्ली की अजब कहानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है।।24।।

तुझमें चूंड़ा सा त्याग भरा¸
बापा–कुल का अनुराग भरा।
राणा–प्रताप सा रग–रग में
जननी–सेवा का राग भरा।।25।।

अगणित–उर–शोणित से सिंचित
इस सिंहासन का स्वामी है।
भूपालों का भूपाल अभय
राणा–पथ का तू गामी है।।26।।

दुनिया कुछ कहती है सुन ले¸
यह दुनिया तो दीवानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है।।27।।

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