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परिचय

जन्म : 4 सितम्बर 1895, चिरगांव, झाँसी (उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी

विधाएँ : कविता, उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध

मुख्य कृतियाँ

उपन्यास : अंतिम आकांक्षा, नारी और गोद

कहानी संग्रह : मानुषी

कविता संग्रह : अनुरूपा, अमृत पुत्र

खंड काव्य : अनाथ, आर्द्रा, विषाद, दूर्वा दल, बापू, सुनंदा, गोपिका

नटक : पुण्य पर्व, उन्मुक्त गीत

अनुवाद : ईशोपनिषद, धम्मपद, भगवत गीता (सभी छंद में)

काव्य ग्रन्थ : दैनिकी, नकुल, नोआखली में, जय हिन्द, पाथेय, मृण्मयी, आत्मोसर्ग

निबंध संग्रह : झूठ-सच

सम्मान : सरस्वती हीरक जयंती के अवसर पर सम्मानित, सुधाकर पदक (नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी)

निधन : 29 मार्च 1963
  विशेष

सियारामशरण गुप्त जी का जन्म 4 सितंबर 1895 को हुआ था। आप हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के छोटे भाई थे। आप गाँधीवाद से विशेष प्रभावित थे। गुप्त जी के मौर्य विजय (१९१४ ई.), अनाथ (१९१७), दूर्वादल (१९१५-२४), विषाद (१९२५), आर्द्रा (१९२७), आत्मोत्सर्ग (१९३१), मृण्मयी (१९३६), बापू (१९३७), उन्मुक्त (१९४०), दैनिकी (१९४२), नकुल (१९४६), नोआखाली (१९४६), गीतासंवाद (१९४८) आदि काव्यों में मौर्य विजय और नकुल आख्यानात्मक हैं। शेष में भी कथा का सूत्र किसी न किसी रूप में दिखाई पड़ता है। मानव प्रेम के कारण कवि का निजी दु:ख, सामाजिक दु:ख के साथ एकाकार होता हुआ वर्णित हुआ है। विषाद में कवि ने अपने विधुर जीवन और आर्द्रा में अपनी पुत्री रमा की मृत्यु से उत्पन्न वेदना के वर्णन में जो भावोद्गार प्रकट किए हैं, वे बच्चन के प्रियावियोग और निराला जी की “सरोजस्मृति’ के समान कलापूर्ण न होकर भी कम मार्मिक नहीं हैं। इसी प्रकार अपने हृदय की सचाई के कारण गुप्त जी द्वारा वर्णित जनता की दरिद्रता, कुरीतियों के विरुद्ध आक्रोश, विश्व शांति जैसे विषयों पर उनकी रचनाएँ किसी भी प्रगतिवादी कवि को पाठ पढ़ा सकती हैं। हिंदी में शुद्ध सात्विक भावोद्गारों के लिए गुप्त जी की रचनाएँ स्मरणीय रहेंगी। उनमें जीवन के श्रृंगार और उग्र पक्षों का चित्रण नहीं हो सका किंतु जीवन के प्रति करुणा का भाव जिस सहज और प्रत्यक्ष विधि पर गुप्त जी में व्यक्त हुआ है उससे उनका हिंदी काव्य में एक विशिष्ट स्थान बन गया है। हिंदी की गांधीवादी राष्ट्रीय धारा के वह प्रतिनिधि कवि हैं।काव्य रूपों की दृष्टि से उन्मुक्त नृत्य नाट्य के अतिरिक्त उन्होंने पुण्य पर्व नाटक (१९३२), झूठा सच निबंध संग्रह (१९३७), गोद, आकांक्षा और नारी उपन्यास तथा लघुकथाओं (मानुषी) की भी रचना की थी ,एक कवि के रुप में आपको विशेष ख्याति मिली। कथाकार के रूप में भी आपने कथा-साहित्य में अपना स्थान बनाया।लम्बी बीमारी के बाद 29 मार्च 1963 को सियारामशरण गुप्त का निधन हो गया।

रचनाएँ
काकी- कहानी

उस दिन बड़े सबेरे जब श्यामू की नींद खुली तब उसने देखा – घर भर में कुहराम मचा हुआ है। उसकी काकी – उमा – एक कम्बल पर नीचे से ऊपर तक एक कपड़ा ओढ़े हुए भूमि-शयन कर रही हैं, और घर के सब लोग उसे घेरकर बड़े करुण स्वर में विलाप कर रहे हैं।

लोग जब उमा को श्मशान ले जाने के लिए उठाने लगे तब श्यामू ने बड़ा उपद्रव मचाया। लोगों के हाथों से छूटकर वह उमा के ऊपर जा गिरा। बोला – “काकी सो रही हैं, उन्हें इस तरह उठाकर कहाँ लिये जा रहे हो? मैं न जाने दूँ।”

लोग बड़ी कठिनता से उसे हटा पाये। काकी के अग्नि-संस्कार में भी वह न जा सका। एक दासी राम-राम करके उसे घर पर ही सँभाले रही।

यद्दापि बुद्धिमान गुरुजनों ने उन्हें विश्वास दिलाया कि उसकी काकी उसके मामा के यहाँ गई है, परन्तु असत्य के आवरण में सत्य बहुत समय तक छिपा न रह सका। आस-पास के अन्य अबोध बालकों के मुँह से ही वह प्रकट हो गया। यह बात उससे छिपी न रह सकी कि काकी और कहीं नहीं, ऊपर राम के यहाँ गई है। काकी के लिए कई दिन तक लगातार रोते-रोते उसका रुदन तो क्रमश: शांत हो गया, परन्तु शोक शांत न हो सका। वर्षा के अनन्तर एक ही दो दिन में पृथ्वी के ऊपर का पानी अगोचर हो जाता है, परन्तु भीतर ही भीतर उसकी आर्द्रता जैसे बहुत दिन तक बनी रहती है, वैसे ही उसके अन्तस्तल में वह शोक जाकर बस गया था। वह प्राय: अकेला बैठा-बैठा, शून्य मन से आकाश की ओर ताका करता।

एक दिन उसने ऊपर एक पतंग उड़ती देखा। न जाने क्या सोचकर उसका हृदय एकदम खिल उठा। विश्वेश्वर के पास जाकर बोला – “काका मुझे पतंग मँगा दो।”

पत्नी की मृत्यु के बाद से विश्वेश्वर अन्यमनस्क रहा करते थे। “अच्छा, मँगा दूँगा।” कहकर वे उदास भाव से और कहीं चले गये।

श्यामू पतंग के लिए बहुत उत्कण्ठित था। वह अपनी इच्छा किसी तरह रोक न सका। एक जगह खूँटी पर विश्वेश्वर का कोट टँगा हुआ था। इधर-उधर देखकर उसने उसके पास स्टूल सरकाकर रक्खा और ऊपर चढ़कर कोट की जेबें टटोलीं। उनमें से एक चवन्नी का आविष्कार करके तुरन्त वहाँ से भाग गया।

सुखिया दासी का लड़का – भोला – श्यामू का समवयस्क साथी था। श्यामू ने उसे चवन्नी देकर कहा – “अपनी जीजी से कहकर गुपचुप एक पतंग और डोर मँगा दो। देखो, खूब अकेले में लाना, कोई जान न पावे।”

पतंग आई। एक अँधेरे घर में उसमें डोर बाँधी जाने लगी। श्यामू ने धीरे से कहा, “भोला, किसी से न कहो तो एक बात कहूँ।”

भोला ने सिर हिलाकर कहा – “नहीं, किसी से नहीं कहूँगा।”

श्यामू ने रहस्य खोला। कहा – “मैं यह पतंग ऊपर राम के यहाँ भेजूँगा। इसे पकड़कर काकी नीचे उतरेंगी। मैं लिखना नहीं जानता, नहीं तो इस पर उनका नाम लिख देता।”

भोला श्यामू से अधिक समझदार था। उसने कहा – “बात तो बड़ी अच्छी सोची, परन्तु एक कठिनता है। यह डोर पतली है। इसे पकड़कर काकी उतर नहीं सकतीं। इसके टूट जाने का डर है। पतंग में मोटी रस्सी हो, तो सब ठीक हो जाय।”

श्यामू गम्भीर हो गया! मतलब यह, बात लाख रुपये की सुझाई गई है। परन्तु कठिनता यह थी कि मोटी रस्सी कैसे मँगाई जाय। पास में दाम है नहीं और घर के जो आदमी उसकी काकी को बिना दया-मया के जला आये हैं, वे उसे इस काम के लिए कुछ नहीं देंगे। उस दिन श्यामू को चिन्ता के मारे बड़ी रात तक नींद नहीं आई।

पहले दिन की तरकीब से दूसरे दिन उसने विश्वेश्वर के कोट से एक रुपया निकाला। ले जाकर भोला को दिया और बोला – “देख भोला, किसी को मालूम न होने पाये। अच्छी-अच्छी दो रस्सियाँ मँगा दे। एक रस्सी ओछी पड़ेगी। जवाहिर भैया से मैं एक कागज पर ‘काकी’ लिखवा रक्खूँगा। नाम की चिट रहेगी, तो पतंग ठीक उन्हीं के पास पहुँच जायेगी।”

दो घण्टे बाद प्रफुल्ल मन से श्यामू और भोला अँधेरी कोठरी में बैठे-बैठे पतंग में रस्सी बाँध रहे थे। अकस्मात शुभ कार्य में विघ्न की तरह उग्ररूप धारण किये विश्वेश्वर वहाँ आ घुसे। भोला और श्यामू को धमकाकर बोले – “तुमने हमारे कोट से रुपया निकाला है?”

भोला सकपकाकर एक ही डाँट में मुखबिर हो गया। बोला – “श्यामू भैया ने रस्सी और पतंग मँगाने के लिए निकाला था।” विश्वेश्वर ने श्यामू को दो तमाचे जड़कर कहा – “चोरी सीखकर जेल जायेगा? अच्छा, तुझे आज अच्छी तरह समझाता हूँ।” कहकर फिर तमाचे जड़े और कान मलने के बाद पतंग फाड़ डाला। अब रस्सियों की ओर देखकर पूछा – “ये किसने मँगाई?”

भोला ने कहा – “इन्होंने मँगायी थी। कहते थे, इससे पतंग तानकर काकी को राम के यहाँ से नीचे उतारेंगे।”

विश्वेश्वर हतबुद्धि होकर वहीं खड़े रह गये। उन्होंने फटी हुई पतंग उठाकर देखी। उस पर चिपके हुए कागज पर लिखा हुआ था – “काकी।”

कोटर और कुटीर

 

कोटर -: दोपहर का समय था । सूर्य अपनी अग्नि से पृथ्वी का शरीर दहला रहा था । वृक्षो के पत्ते निष्पंद थे, मानो किसी भयंकर कांड की आशंका से सॉस – सी साधेखडे हैं । इसी समय अपने छोटे से कोटर के भीतर बेठे हुए चातक-पुत्र ने कहा,  “पिता जी”!
.                    बाहर के रुखेपन की तरह ही स्वर कुछ नीरस था । चातक ने अपनी चोंच पुत्र  की पीठ पर फेरते हुए प्यार से कहा  “क्या हे बेटा ?”
“है और क्या ? प्यास के मारे  चोंच तक प्राण आ गए हेँ । ”   (पुत्र )
“बेटा अधीर न हो समय सदा एक सा नहीँ  रहता । ” (चातक)
“तो यही तो मेँ  भी कहता हूँ कि समय सदा एक सा नहीँ रहता ।पुरानी बाते पुराने समय के लिए थी । आप अब भी उन्हें इस तरह छाती से चिपकाए हुए हेँ, जिस तरह वानरी अपने मरे बच्चे को चिपकाए रहती हैं । घनश्याम (बरसात) की बात आप जोहते रहिए । अब मुझसे यह नहीं सध सकता । “(पुत्र )
“घनश्याम के सिवा हम किसी का जल गृहण नहीं करते । यही हमारे कुल का वृत है । इस वृत के कारण  अपने कुल में न तो किसी कि मृत्यु हुई और न ही कोई दुसरा अनथृ । ” (चातक )
“आप कहते है, कोई अनथृ नही हुआ, में कहता हूँ  प्यास की इस यंत्रणा से बढकर और अनथृ क्या होगा । जहाँ से भी होगा में जल गृहण करूंगा ही ।” (पुत्र)
चातक थोड़ी देर चुप रहकर बोला -: बेटा धेयृ रख । अपने इस व्रत के कारण ही पानी बरसता हे ओर धरती माता की गोद हरी – भरी होती हैं । यह वृत इस तरह नष्ट कर देने की नही है ।
.        लाडले पुत्र ने कहा,-: ” वृत पालन करते हुए इतने दिन तो हो गए पानी का कहीँ चिन्ह तक नहीँ हे । ”
चातक -: “बेटा प्रथ्वी का यह निर्जल उपवास है। इसी पुण्य से उसे जीवनदान मिलेगा । भोजन का पूरा स्वाद और पूरी तृप्ती पाने के लिए थोड़ी-सी शुधा सहन करना अनिवार्य नहीँ, आवश्यक भी है ।”
पुत्र -: “पिताजी, में थोड़ी – सी शुधा से नहीं डरता । परंतु यह भी नहीँ चाहता की शुधा-ही-शुधा सहन करता रहूं । मेँ एसा     वृत व्यथृ समझता हूँ । देवताओं का अभिशाप लेकर भी में इसे तोडूगॉ । घनश्याम को भी तो सोचना चाहिए था कि उनके बिना किसी के प्राण निकल रहे हैं, आदमी ने मेरी मेघो पर अविश्वास करके कृषि की रक्षा के लिए नहर, तालाब और कुओ का बंदोबस्त कर  लिया है । कृषि ने तो आप कि तरह सिर नहीं हिलाया की मेँ तो घनश्याम के सिवा और किसी का जल ग्रहण नहीँ करुंगी । हमी  क्यों  इस तरह कष्ट सहे ? आप चाहे रखे या छोडे , में यह झंझट न मानूगा ।”
चातक ने देखा मामला बिगड रहा हे । यह इस तरह नहीं मानेगा और कहा, ” यह बताओ तुम जल कहाँ से ग्रहण करोगे ? ”
चातक- पुत्र चुप । उसने अभी तक इस बात पर विचार ही नही किया था । वह सोचता था, जिस प्रकार लाखों जिव जन्तु जल पित्त है, उसी प्रकार मैं भी पीऊंगा । परंतु वह प्रकार कैसा है, यह  उसकी समझ मेँ न आया था ।
लडके को चुप देखकर  पिता ने समझा कमजोरी यही हे वह जानता था कि कमजोरी के ऊपर आक्रमण करना विजय की पहली सिढी हैं । बोला, “चुप क्यों हो ? बताओ, तुम जल कहा से ग्रहण करोगे ? ”
हिचकिचाकर, अपनी बात स्वयं खंड – खंड करते हुए लडके ने कहा ” जहाँ से और दूसरे ग्रहण करते हे वहीँ से में भी करुंगा । ”
पिता ने कहा, ” पडोस मेँ वहाँ पोखरी हे । अनेक पशु – पक्षी और आदमी भी वहाँ जल पीते हे । तुम वहाँ जल पी सकोगे ? बोलो हे हिम्मत? ”
चातक- पुत्र को उस पोखरी के स्मरण से हीं फूरहरि आ गयी । आहा उसमेँ कितना गंदा पानी हे ।सूखे पत्ते डंठल आदि गिरकर उसमेँ सडते रहते हे । कीड़े कुलबुलाते हुए उसमे साफ़ दिखाई दे सकते हेँ । लोग उसमेँ कपड़े निखारने आते हेँ, या गंदे करने । कई बार सोचने पर वह समझ न सका था । एक बार एक आदमी को अंजुलि से पानी पीते देख उसने पिता से कहा था, ” देखो पिताजी ये कैसे घ्रणित जीव हैं । ” अवश्य ही उसने वृत का जिक्र उस समय नहीँ किया था, परंतु उसके मन में उसी का गर्व छलक उठा था । अब इस समय वह पिता से किसे कहे कि मेँ उस पोखरी का पानी नहीँ पीऊंगा ?
चातक बोला, ” बेटा अभी तुम ना समझ हो! चाहे जहाँ से पानी ग्रहण करना इस समय तुम आसान समझ रहे हो ? परंतु जब इसके लिए बाहर निकलोगे तब तुंम्हेँ मालूम पडेगा । हमारी प्यास के साथ करोडो की प्यास हैं और तृप्ति के साथ करोडो की तृप्ति ? तुझसे अकेले तृप्ति होते केसे बनेगा?”
चातक -पुत्र इस समय अपने हट को पुष्ट करने वाली कोई युक्ति सोच रहा था, पिता की बात बिना सुने वह बोल उठा “मेँ गंगा-जल ग्रहण करुंगा !”
चातक ने कहा, गंगाजी तो यहाँ से 5 दिन की उड़ान पर हे । नहीँ मानता, तो जा । परंतु यदि तूने और कहीँ से एक बूंद भी ली तो हमेँ मूंह न दिखाना ।”
चातक- पुत्र प्रणाम करके फूर्र  से उड गया ।

कविताएँ

एक फूल की चाह

 

उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ,
हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचण्ड हो
फैल रही थी इधर उधर।

क्षीण-कण्ठ मृतवत्साओं का
करुण-रुदन दुर्दान्त नितान्त,
भरे हुए था निज कृश रव में
हाहाकार अपार अशान्त।

बहुत रोकता था सुखिया को
‘न जा खेलने को बाहर’,
नहीं खेलना रुकता उसका
नहीं ठहरती वह पल भर।

मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे;
यही मानता था कि बचा लूँ
किसी भांति इस बार उसे।

भीतर जो डर रहा छिपाये,
हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
ताप-तप्त मैंने पाया।

ज्वर से विह्वल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर –
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।

बेटी, बतला तो तू मुझको
किसने तुझे बताया यह;
किसके द्वारा, कैसे तूने
भाव अचानक पाया यह?

मैं अछूत हूँ, मुझे कौन हा!
मन्दिर में जाने देगा;
देवी का प्रसाद ही मुझको
कौन यहाँ लाने देगा?

बार बार, फिर फिर, तेरा हठ!
पूरा इसे करूँ कैसे;
किससे कहे कौन बतलावे,
धीरज हाय! धरूँ कैसे?

कोमल कुसुम समान देह हा!
हुई तप्त अंगार-मयी;
प्रति पल बढ़ती ही जाती है
विपुल वेदना, व्यथा नई।

मैंने कई फूल ला लाकर
रक्खे उसकी खटिया पर;
सोचा – शान्त करूँ मैं उसको,
किसी तरह तो बहला कर।

तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब
बोल उठी वह चिल्ला कर –
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर!

क्रमश: कण्ठ क्षीण हो आया,
शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की
चिन्ता में मैं मनमारे।

जान सका न प्रभात सजग से
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा,
कब आई सन्ध्या गहरी।

सभी ओर दिखलाई दी बस,
अन्धकार की छाया गहरी।
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने
कितना बड़ा तिमिर आया!

ऊपर विस्तृत महाकाश में
जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें
जगमग जगते तारों से।

देख रहा था – जो सुस्थिर हो
नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! बही चुपचाप पड़ी थी
अटल शान्ति-सी धारण कर।

सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसा कर –
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर!

हे मात:, हे शिवे, अम्बिके,
तप्त ताप यह शान्त करो;
निरपराध छोटी बच्ची यह,
हाय! न मुझसे इसे हरो!

काली कान्ति पड़ गई इसकी,
हँसी न जाने गई कहाँ,
अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर
साँसों में ही हाय यहाँ!

अरी निष्ठुरे, बढ़ी हुई ही
है यदि तेरी तृषा नितान्त,
तो कर ले तू उसे इसी क्षण
मेरे इस जीवन से शान्त!

मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी
विनती भी है हाय! अपूत,
उससे भी क्या लग जावेगी
तेरे श्री-मन्दिर को छूत?

किसे ज्ञात, मेरी विनती वह
पहुँची अथवा नहीं वहाँ,
उस अपार सागर का दीखा
पार न मुझको कहीं वहाँ।

अरी रात, क्या अक्ष्यता का
पट्टा लेकर आई तू,
आकर अखिल विश्व के ऊपर
प्रलय-घटा सी छाई तू!

पग भर भी न बढ़ी आगे तू
डट कर बैठ गई ऐसी,
क्या न अरुण-आभा जागेगी,
सहसा आज विकृति कैसी!

युग के युग-से बीत गये हैं,
तू ज्यों की त्यों है लेटी,
पड़ी एक करवट कब से तू,
बोल, बोल, कुछ तो बेटी!

वह चुप थी, पर गूँज रही थी
उसकी गिरा गगन-भर भर –
‘मुझको देवी के प्रसाद का –
एक फूल तुम दो लाकर!’

“कुछ हो देवी के प्रसाद का
एक फूल तो लाऊँगा;
हो तो प्रात:काल, शीघ्र ही
मन्दिर को मैं जाऊँगा।

तुझ पर देवी की छाया है
और इष्ट है यही तुझे;
देखूँ देवी के मन्दिर में
रोक सकेगा कौन मुझे।”

मेरे इस निश्चल निश्चय ने
झट-से हृदय किया हलका;
ऊपर देखा – अरुण राग से
रंजित भाल नभस्थल का!

झड़-सी गई तारकावलि थी
म्लान और निष्प्रभ होकर;
निकल पड़े थे खग नीड़ों से
मानों सुध-बुध सी खो कर।

रस्सी डोल हाथ में लेकर
निकट कुएँ पर जा जल खींच,
मैंने स्नान किया शीतल हो,
सलिल-सुधा से तनु को सींच।

उज्वल वस्र पहन घर आकर
अशुचि ग्लानि सब धो डाली।
चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से
सजली पूजा की थाली।

सुकिया के सिरहाने जाकर
मैं धीरे से खड़ा हुआ।
आँखें झँपी हुई थीं, मुख भी
मुरझा-सा था पड़ा हुआ।

मैंने चाहा – उसे चूम लें,
किन्तु अशुचिता से डर कर
अपने वस्त्र सँभाल, सिकुड़कर
खड़ा रहा कुछ दूरी पर।

वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा,
जाने किन स्वप्नों में लग्न,
उसकी वह मुसकाहट भी हा!
कर न सकी मुझको मुद-मग्न।

अक्षम मुझे समझकर क्या तू
हँसी कर रही है मेरी?
बेटी, जाता हूँ मन्दिर में
आज्ञा यही समझ तेरी।

उसने नहीं कहा कुछ, मैं ही
बोल उठा तब धीरज धर –
तुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल तो दूँ लाकर!

ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर
मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि-कर-जाल।

परिक्रमा-सी कर मन्दिर की,
ऊपर से आकर झर झर,
वहाँ एक झरना झरता था
कल-कल मधुर गान कर-कर।

पुष्प-हार-सा जँचता था वह
मन्दिर के श्री चरणों में,
त्रुटि न दिखती थी भीतर भी
पूजा के उपकरणों में।

दीप-दूध से आमोदित था
मन्दिर का आंगन सारा;
गूँज रही थी भीतर-बाहर
मुखरित उत्सव की धारा।

भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से
गाते थे सभक्ति मुद-मय –
“पतित-तारिणि पाप-हारिणी,
माता, तेरी जय-जय-जय!”

“पतित-तारिणी, तेरी जय-जय” –
मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जानें किस बल से ढिकला!

माता, तू इतनी सुन्दर है,
नहीं जानता था मैं यह;
माँ के पास रोक बच्चों की,
कैसी विधी यह तू ही कह?

आज स्वयं अपने निदेश से
तूने मुझे बुलाया है;
तभी आज पापी अछूत यह
श्री-चरणों तक आया है।

मेरे दीप-फूल लेकर वे
अम्बा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भरके,

भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा – बेटी को माँ के ये
पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।

सिंह पौर तक भी आंगन से
नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि – “कैसे
यह अछूत भीतर आया?

पकड़ो, देखो भाग न जावे,
बना धूर्त यह है कैसा;
साफ-स्वच्छ परिधान किए है,
भले मानुषों जैसा!

पापी ने मन्दिर में घुसकर
किया अनर्थ बड़ा भारी;
कुलषित कर दी है मन्दिर की
चिरकालिक शुचिता सारी।”

ए, क्या मेरा कलुष बड़ा है
देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे
माता की महिमा से भी?

माँ के भक्त हुए तुम कैसे,
करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम
गौरव करते हो छोटा!

कुछ न सुना भक्तों ने, झट से
मुझे घेर कर पकड़ लिया;
मार-मार कर मुक्के-घूँसे
धम-से नीचे गिरा दिया!

मेरे हाथों से प्रसाद भी
बिखर गया हा! सब का सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
कैसे पहुँच सके यह अब।

मैंने उनसे कहा – दण्ड दो
मुझे मार कर, ठुकरा कर,
बस, यह एक फूल कोई भी
दो बच्ची को ले जाकर।

न्यायालय ले गए मुझे वे
सात दिवस का दण्ड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे
देवी का महान अपमान!

मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का
क्या उत्तर देता; क्या कह?

सात रोज ही रहा जेल में
या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविस्श्रान्त बरसा करके भी
आँखें तनिक नहीं रीतीं।

कैदी कहते – “अरे मूर्ख, क्यों
ममता थी मन्दिर पर ही?
पास वहाँ मसजिद भी तो थी
दूर न था गिरजाघर भी।”

कैसे उनको समझाता मैं,
वहाँ गया था क्या सुख से;
देवी का प्रसाद चाहा था
बेटी ने अपने मुख से।

दण्ड भोग कर जब मैं छूटा,
पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई
भय-जर्जर तनु पंजर को।

पहले की-सी लेने मुझको
नहीं दौड़ कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा!
अबकी दी न दिखाई वह।

उसे देखने मरघट को ही
गया दौड़ता हुआ वहाँ –
मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही
फूँक चुके थे उसे जहाँ।

बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची
हुई राख की थी ढेरी!

अन्तिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हाय!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा!

वह प्रसाद देकर ही तुझको
जेल न जा सकता था क्या?
तनिक ठहर ही सब जन्मों के
दण्ड न पा सकता था क्या?

बेटी की छोटी इच्छा वह
कहीं पूर्ण मैं कर देता
तो क्या अरे दैव, त्रिभुवन का
सभी विभव मैं हर लेता?

यहीं चिता पर धर दूँगा मैं,
– कोई अरे सुनो, वर दो –
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही लाकर दो!

 

मौनालाप

इसी कक्ष में, यही लेखनी ले कर इसी प्रकार
बैठा मैं कविता लिखने को जाने कितनी बार।
यहीं इसी पाषाण पट्ट पर, खोल हृदय के द्वार
खेली मेरी काव्य कल्पना निर्भय, निर्लंकार।

मेरी काव्यकल्पना ही-सी धीरे से चुपचाप,
जब-तब तू अज्ञात भाव से आकर अपने आप,
पीछे खडी हुई कुछ क्षण तक, रह नीरव निस्पंद,
हँस पड़ती थी पकड़ चोर सा खिल खिल कर सानंद।

पीछे मुड़कर, तुझे देख कर, देखूँ फिर इस ओर
छिप जाता था हृदय गुहा में कहीं मानषी-चोर!
उसी तरह इस उसी ठौर फिर बैठा हूँ मैं आज
कौन देखता है यह, क्या क्या बदल गये हैं साज।

आ न सकेगी किंतु आज तू उसी भाँति साह्लाद,
लिखने मुझे नहीं देती बस, आ कर तेरी याद।
तो फिर उस तेरी स्मृति से ही करके मौनालाप,
आज और कुछ नहीं लिखूंगा रुक कर अपने आप।

 

विदा के समय 

 

जाता हूँ जाने दो मुझको,
हूँ मैं सरित – प्रवाह;
जाकर फिर फिर आ जाने की
मेरे मन में चाह!

बन्धु बाँध रक्खो मत मुझको,
मैं मलयानिल मुक्त;
जा कर ही फिर लौट सकूंगा
नव-नूतन मधु युक्त।

गृह कपोत हूँ मैं, उड़ने दो
मुझको पंख पसार;
नहीं हर सकेगा अनंत भी
मेरे घर का प्यार।

चिंता की क्या बात सखे, यदि
हूँ मैं पूरा वर्ष;
लौट पडूँगा क्षण में ही मैं
ले नूतन का हर्ष।

 

‘मैं तो वही खिलौना लूँगा’

 

 

‘मैं तो वही खिलौना लूँगा’

मचल गया दीना का लाल –

‘खेल रहा था जिसको लेकर

राजकुमार उछाल-उछाल ।’

 

व्यथित हो उठी माँ बेचारी –

‘था सुवर्ण – निर्मित वह तो !

खेल इसी से लाल, – नहीं है

राजा के घर भी यह तो ! ‘

 

राजा के घर ! नहीं नहीं माँ

तू मुझको बहकाती है ,

इस मिट्टी से खेलेगा क्यों

राजपुत्र तू ही कह तो । ‘

 

फेंक दिया मिट्टी में उसने

मिट्टी का गुड्डा तत्काल ,

‘मैं तो वही खिलौना लूँगा’ –

मचल गया दीना का लाल ।

 

‘ मैं तो वही खिलौना लूँगा ‘

मचल गया शिशु राजकुमार , –

वह बालक पुचकार रहा था

पथ में जिसको बारबार |

 

‘ वह तो मिट्टी का ही होगा ,

खेलो तुम तो सोने से । ‘

दौड़ पड़े सब दास – दासियाँ

राजपुत्र के रोने से ।

 

‘ मिट्टी का हो या सोने का ,

इनमें वैसा एक नहीं ,

खेल रहा था उछल – उछल कर

वह तो उसी खिलौने से । ‘

 

राजहठी ने फेंक दिए सब

अपने रजत – हेम – उपहार ,

‘ लूँगा वही , वही लूँगा मैं ! ‘

मचल गया वह राजकुमार ।

 

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