परिचय
मूल नाम :परमानन्द श्रीवास्तव जन्म : 10 फ़रवरी,1935 भाषा : हिंदी विधाएँ : कहानी, कविता, उपन्यास भैरवी, पूजागीत सेवाग्राम, प्रभाती, युगाधार, कुणाल, चेतना, बाँसुरी, तथा बच्चों के लिए दूधबतासा।
सोहन लाल द्विवेदी (22 फ़रवरी, 1906 – 1 मार्च, 1988) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि हैं। द्विवेदी जी हिन्दी के राष्ट्रीय कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। ऊर्जा और चेतना से भरपूर रचनाओं के इस रचयिता को राष्ट्रकवि की उपाधि से अलंकृत किया गया। आपकी रचनाएँ ओजपूर्ण एवं राष्ट्रीयता की परिचायक है। गांधीवाद को अभिव्यक्ति देने के लिए आपने युगावतार, गांधी, खादी गीत, गाँवों में किसान, दांडीयात्रा, त्रिपुरी कांग्रेस, बढ़ो अभय जय जय जय, राष्ट्रीय निशान आदि शीर्ष से लोकप्रिय रचनाओं का सृजन किया, महात्मा गांधी के दर्शन से प्रभावित, द्विवेदी जी ने बालोपयोगी रचनाएँ भी लिखीं। 1969 में भारत सरकार ने आपको पद्म श्री उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया था।है। इसके अतिरिक्त आपने भारत देश, ध्वज, राष्ट्र प्रेम और राष्ट्र नेताओं के विषय की उत्तम कोटि की कविताएँ लिखी है। द्विवेदी जी को ही बालकविताओं को घर – घर में लोकप्रिय करने का श्रेय जाता है. आपके द्वारा लिखीं गई शिशु भारती, बच्चों के बापू, बिगुल, बाँसुरी और झरना, दूध बतासा जैसी दर्जनों रचनाएँ बच्चों को आकर्षित करती हैं कविताएँ
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो एक किरण आई छाई
एक किरण आई छाई,
दुनिया में ज्योति निराली रंगी सुनहरे रंग में पत्ती-पत्ती डाली डाली एक किरण आई लाई, एक किरण आई हंस-हंसकर एक किरण बन तुम भी
ओस
हरी घास पर बिखेर दी हैं जुगनू से जगमग जगमग ये लुटा गया है कौन जौहरी बड़े सवेरे मना रहा है जी होता, इन ओस कणों को
बढ़े चलो, बढ़े चलो
न हाथ एक शस्त्र हो, रहे समक्ष हिम-शिखर, घटा घिरी अटूट हो, गगन उगलता आग हो, चलो नई मिसाल हो, अशेष रक्त तोल दो, प्रकृति का संदेश पर्वत कहता शीश उठाकर, समझ रहे हो क्या कहती हैं पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो जन्मभूमि ऊँचा खड़ा हिमालय गंगा यमुन त्रिवेणी वह पुण्य भूमि मेरी, झरने अनेक झरते अमराइयाँ घनी हैं वह धर्मभूमि मेरी, जन्मे जहाँ थे रघुपति, गौतम ने जन्म लेकर, वह युद्ध–भूमि मेरी, हिमालय युग युग से है अपने पथ पर जो जो भी बाधायें आईं अगर न करता काम कभी कुछ खड़ा हिमालय बता रहा है डिगो न अपने प्रण से तो –– अचल रहा जो अपने पथ पर तुम्हें नमन चल पड़े जिधर दो डग, मग में जिसके शिर पर निज हाथ धरा हे कोटि चरण, हे कोटि बाहु युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख तुम बोल उठे युग बोल उठा युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से हे युग-द्रष्टा, हे युग सृष्टा, जगमग जगमग
हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर, कैसी उजियाली है पग-पग? जगमग जगमग जगमग जगमग! छज्जों में, छत में, आले में, पर्वत में, नदियों, नहरों में, राजा के घर, कंगले के घर,
नव वर्ष
स्वागत! जीवन के नवल वर्ष दीनों दुखियों का त्राण लिये संसार क्षितिज पर महाक्रान्ति मुर्दा शरीर में नये प्राण युग-युग तक पिसते आये श्रमिकों का नव संगठन लिये, सत्ताधारी साम्राज्यवाद के जीवन में नूतन क्रान्ति बाल कवितायेँ नटखट पांडे नटखट पांडे आए आए घोड़े पर हो गए सवार नटखट थे पूरे शैतान घोड़ा भगा देख मैदान कौन सने बटन हमारे कुतरे ? दोना खाली रखा रह गया कभी कुतर जाता है चप्प्ल किसने जिल्द काट डाली है ? कुतर-कुतर कर कागज़ सारे कौन रात भर गड़बड़ करता ? रोज़ रात-भर जगता रहता खुर-खुर इधर-उधर है धाता
बच्चों उसका नाम बताओ कौन शरारत यह कर जाता ? जी होता चिड़िया बन जाऊँ! जी होता, चिड़िया बन जाऊँ! मैं फुदक-फुदककर डाली पर, कितना अच्छा इनका जीवन? जंगल-जंगल में उड़ विचरूँ, कितना स्वतंत्र इनका जीवन? कबूतर
भोले-भाले बहुत कबूतर
मैंने पाले बहुत कबूतर ढंग ढंग के बहुत कबूतर रंग रंग के बहुत कबूतर कुछ उजले कुछ लाल कबूतर चलते छम छम चाल कबूतर कुछ नीले बैंजनी कबूतर पहने हैं पैंजनी कबूतर करते मुझको प्यार कबूतर करते बड़ा दुलार कबूतर आ उंगली पर झूम कबूतर लेते हैं मुंह चूम कबूतर रखते रेशम बाल कबूतर चलते रुनझुन चाल कबूतर गुटर गुटर गूँ बोल कबूतर देते मिश्री घोल कबूतर। मीठे बोल मीठा होता खस्ता खाजा मीठे होते आम निराले मीठा होता दाख छुहारा मीठी होती पुआ सुहारी |